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- फूल न केवल अपनी सुगंध के लिए बल्कि अपनी सुंदरता के लिए भी जाने जाते हैं। पूजा से लेकर घर की साज-सज्जा तक में फूलों का प्रयोग किया जाता है।हमारे आसपास कई तरह के फूल वाले पौधे होते हैं, जो देखने में बेहद खूबसूरत लगते हैं। इन्हें देखने के बाद आंखों को एक अलग ही ठंडक मिलती है और सारी थकान भी दूर हो जाती है। क्या आप जानते हैं कि दुनिया में एक ऐसा फूल है, जिस पर कभी भंवरा नहीं बैठता ? जी हां , हमारे चारों ओर एक ऐसा फूल है जिस पर शायद हमने कभी ध्यान नहीं दिया होगा , आइए जानते हैं उस फूल के बारे में-चंपा के फूल पर नहीं बैठते हैं भँवरेअक्सर आपने देखा होगा कि भँवरे ज्यादातर फूलों पर पाए जाते हैं, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि भँवरे कभी भी चंपा के फूलों पर नहीं बैठते हैं।चंपा के फूलों की एक अलग महक होती है और इसके फूलों में पराग नहीं होता है, जिससे भँवरे उनके आसपास नहीं भटकते हैं। भँवरे ही नहीं ,मधुमक्खियां भी चंपा के फूलों के पास नहीं आतीं ।चंपा के फूलों की खास बातेंचंपा के फूलों की खास बात यह है कि इनके पौधे हमेशा हरे रहते हैं। साथ ही चंपा के फूल सुंदर, सुगंधित और हल्के सफेद-पीले रंग के होते हैं। ये फूल मुख्य रूप से 5 प्रकार के होते हैं और सभी फूल बहुत सुगंधित होते हैं।
- जीलॉन्ग (ऑस्ट्रेलिया)। सिडनी की रहने वाली पांच वर्षीय सस्किया सवाल करती है कि कपड़े कैसे बनाए जाते हैं? यह शानदार सवाल है। कपड़े से लेकर पर्दे, तौलियों से लेकर चादरों तक, हमारे दैनिक जीवन में हर जगह कपड़ों का इस्तेमाल होता है। आप अक्सर लोगों को उन्हें ‘टेक्सटाइल' कहते हुए सुनते हैं। लोग कपड़े या टेक्सटाइल का उत्पादन लंबे समय से कर रहे हैं और यह समय लगभग 35 हजार साल का है। सबसे पहले समझे कपड़े क्या हैं? शब्दकोष कहता है कि कपड़े वो है जिन्हें रेशों को गूंथकर या बुनकर बनाया जाता है।रेशे क्या हैं?रेशे बाल की तरह होते हैं। ये बहुत लंबे और पतले होते हैं। रेशे प्रकृति से आ सकते हैं। इनमें से कुछ आम प्राकृतिक रेशें कपास, रेशम और ऊन हैं। मनुष्य ने कृत्रिम तरीके से रेशें बनाने का तरीका करीब 150 साल पहले सीखा था। हम प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर तेल को रेशों में तब्दील कर सकते हैं। हम यहां तक कि जलरोधी रेनकोट या सैनिकों के बुलेट फ्रूफ जैकेट के लिए भी विशेष रेशे तैयार कर सकते हैं। लेकिन कैसे इन बाल जैसे पतले रेशों को कुछ ऐसा बनाया जाता है जिसे हम पहन सके?रेशों से सूत का सफरसबसे पहले हमें रेशों को एक साथ कर लंबा मजबूत सूत बनाने की जरूरत होती है। यह बहुत कुशलता का कार्य है क्योंकि रेशे अपेक्षाकृत छोटे होते हैं, खासतौर पर प्राकृतिक रेशे। कपास के रेशे आमतौर पर तीन सेंटीमीटर लंबे होते हैं जो पेपर क्लिप से भी छोटा है। ऊन के रेशे भेड़ से आमतौर पर 7.5 सेंटीमीटर बाल होने पर काटे जाते हैं। यह लंबाई एक क्रेयॉन के बराबर है। हम इन छोटे रेशों को एक साथ गूंथ कर लंबा सूत बनाते हैं। गूंथने से रेशों में रगड़ आती है और वे एक-दूसरे से कसते चले जाते हैं। इस प्रक्रिया को हम सूत कातना कहते हैं।सूत कताईसूत कताई के पहले चरण में रेशों का गुच्छा लेना होता है और फिर उन्हें सीधा करना होता है जैसे हम बाल में कंघी करते हैं या संभवत: आप दाढ़ी में कंघी करते है। जब हम उन्हें एक परत में सीधा कर लेते हैं तो हम उसे ‘ बीयर्ड' कहते हैं। अगले चरण में हम इस परतनुमा रेशों को धागे में तब्दील करते हैं। यह पतले से और पतला होता जाता है। इसके बाद हम इन्हें धागे के तौर पर ऐंठते हैं। ये परत रूपी रेशे कई मीटर चौड़े हो सकते हैं लेकिन ऐंठ कर हम उसे पतले धागे में तब्दील कर देते हैं। हर तरह के काते गए धागे होते हैं। ये पतले, मोटे, सख्त, मुलायम और यहां तक ऐसे हो सकते हैं जिन्हें आप काट नहीं सकते। यह रेशे और कताई मशीन पर निर्भर करता है।धागों से कपड़े बनानाएक बार रेशों को धागों में तब्दील करने के बाद हम इनसे कपड़े बनाने को तैयार हैं। इसके कई तरीके हैं जैसे बुनाई, गूंथना या जमाना। बुनाई में धागे चेसबोर्ड पैटर्न की तरह एक दूसरे के ऊपर से गुजरते हैं जबकि ‘नीटिंग' (बुनाई)में फंदा बनाकर , एक फंदे को दूसरे के भीतर से निकाला जाता है। ऊन के रेशों का नमदा बनाया जाता है। बुनाई और नमदा बनाने की प्रक्रिया बहुत धीमी होगी अगर उन्हें हाथ से किया जाए। इसलिए इन दिनों मशीनों का प्रयोग किया जाता है। कपड़े कैसे बनाए जाते हैं तो हमने रेशों से शुरुआत की और फिर उनकी कताई कर लंबे धागों में तब्दील किया और अगले चरण में हमने उनकी बुनाई की या रेशों को जमाया और सस्किया, इस तरह हम कपड़े बना सकते हैं।
- एडीलेड (ऑस्ट्रेलिया) । अधिकतर लोग यह जानते हैं कि नमक की मात्रा में कटौती करनी चाहिए, इसके बावजूद ऑस्ट्रेलिया में लोगों को रोजाना जितने नमक का सेवन करना चाहिए उससे औसतन लगभग दोगुना मात्रा में वे नमक का सेवन करते हैं। सदियों से खाद्य संरक्षण में नमक का उपयोग किया जाता रहा है और नमक पर कई मुहावरे इंगित करते हैं कि जीवित रहने के लिए भोजन को संरक्षित करने को लेकर यह कितना उपयोगी है। नमक खाद्य पदार्थों से नमी खींचता है, जो बैक्टीरिया के विकास को सीमित करता है अन्यथा भोजन खराब हो जाता है और पेट संबंधी बीमारियों का कारण बनता है। आज भी, नमक को परिरक्षक के रूप में माना जाता है और यह खाद्य पदार्थों के स्वाद को भी सुधारता है। नमक सोडियम और क्लोराइड से बना एक रासायनिक यौगिक है तथा हम इसका इस्तेमाल अपने आहार में करते हैं। इन दो तत्वों में से, सोडियम के बारे में हमें चिंता करने की आवश्यकता है। तो सोडियम हमारे शरीर में क्या करता है?बहुत अधिक सोडियम का इस्तेमाल करने की प्रमुख चिंता उच्च रक्तचाप के बढ़ते जोखिम से जुड़ी है। उच्च रक्तचाप हृदय रोग और हृदयाघात के लिए एक जोखिम कारक है, जो ऑस्ट्रेलिया में गंभीर बीमारी और मृत्यु का एक प्रमुख कारण है। उच्च रक्तचाप भी किडनी की बीमारी का कारण है। बड़ी मात्रा में सोडियम खाने से उच्च रक्तचाप की ओर ले जाने वाली सटीक प्रक्रियाओं को पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है। हालांकि, हम जानते हैं कि यह शारीरिक परिवर्तनों के कारण शरीर के तरल पदार्थ और सोडियम के स्तर को नियंत्रित करने के लिए होता है। सोडियम के स्तर पर कड़ा नियंत्रण बनाए रखना आवश्यक है क्योंकि सोडियम आपके शरीर की सभी कोशिकाओं की झिल्लियों को प्रभावित करता है। जब हम बहुत अधिक नमक खाते हैं, तो इससे रक्त में सोडियम का स्तर बढ़ जाता है। सोडियम की मात्रा को सही स्तर पर रखने के लिए शरीर रक्त में अधिक तरल पदार्थ खींचकर प्रतिक्रिया करता है। हालांकि, द्रव की मात्रा में वृद्धि से रक्त वाहिकाओं की दीवारों के खिलाफ दबाव बढ़ जाता है, जिससे उच्च रक्तचाप होता है। उच्च रक्तचाप हृदय को अधिक मेहनत कराता है, जिससे हृदय और रक्त वाहिकाओं की बीमारी हो सकती है, जिसमें दिल का दौरा पड़ने का जोखिम भी शामिल है। लोगों के कुछ समूह दूसरों की तुलना में उच्च नमक वाले आहार से अधिक प्रभावित होते हैं। इन लोगों को ‘‘नमक के प्रति संवेदनशील'' कहा जाता है और नमक के इस्तेमाल से उच्च रक्तचाप होने की आशंका अधिक होती है। अपने रक्तचाप के बारे में जागरूक होना महत्वपूर्ण है, इसलिए अगली बार जब आप अपने डॉक्टर से मिलें तो सुनिश्चित करें कि आपने इसकी जांच करवाई है। बेहतर रक्तचाप 120/80 से नीचे होता है। अगर रीडिंग 140/90 से अधिक है तो रक्तचाप को उच्च माना जाता है। यदि आपके शरीर में हृदय रोग, मधुमेह या गुर्दे की बीमारी के लिए अन्य जोखिम कारक हैं तो आपके डॉक्टर कम लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं। नमक का इस्तेमाल कैसे घटाएं?अपने रक्तचाप को कम करने के लिए अपने आहार में नमक कम करना एक अच्छी रणनीति है और प्रसंस्कृत एवं अति-प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों से परहेज करना, जो कि हमारे दैनिक नमक सेवन का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा है, पहला कदम है। रोजाना फलों और सब्जियों का सेवन बढ़ाना भी आपके रक्तचाप को कम करने में प्रभावी हो सकता है, क्योंकि इनमें पोटेशियम होता है, जो हमारी रक्त वाहिकाओं को आराम पहुंचाने में मदद करता है। शारीरिक गतिविधि बढ़ाना, धूम्रपान बंद करना, आदर्श वजन बनाए रखना और शराब का सेवन सीमित करना भी स्वस्थ रक्तचाप को बनाए रखने में मदद करेगा। (इवांजेलिन मैंटजियोरिस, पोषण एवं खाद्य विज्ञान कार्यक्रम निदेशक, यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ ऑस्ट्रेलिया)
- नयी दिल्ली. भारत के पास पृथ्वी की कक्षा में 103 सक्रिय या निष्क्रिय अंतरिक्ष यान और 114 पिंड हैं जिन्हें ‘अंतरिक्ष मलबे' के रूप में वर्गीकृत किया गया है और इसने बाह्य क्षेत्र से ऐसे मलबे को कम करने के लिए एक अनुसंधान शुरू किया है। प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने संसद को बताया, ‘‘वर्तमान में, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने सक्रिय मलबे (एडीआर) को हटाने के लिए आवश्यक संभावना और प्रौद्योगिकियों का अध्ययन करने के लिए अनुसंधान गतिविधियां शुरू की हैं।'' नासा द्वारा मार्च में जारी ‘ऑर्बिटल डेबरिस क्वार्टरली न्यूज' के अनुसार, भारत के पास 103 अंतरिक्ष यान थे, जिनमें सक्रिय और निष्क्रिय उपग्रह शामिल थे और 114 अंतरिक्ष मलबा वस्तुएं थीं, जिनमें पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले रॉकेट पिंड भी शामिल थे। इस तरह देश के कुल 217 अंतरिक्ष पिंड पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं। सिंह ने कहा कि अंतरिक्ष मलबे की वस्तुओं की वृद्धि को रोकने के लिए सक्रिय मलबा हटाना (एडीआर) अंतरिक्ष मलबा अनुसंधान समुदाय द्वारा सुझाए गए सक्रिय तरीकों में से एक था। उन्होंने कहा, ‘‘एडीआर एक बहुत ही जटिल तकनीक है और इसमें नीति और कानूनी मुद्दे शामिल हैं। भारत सहित कई देशों द्वारा प्रौद्योगिकी प्रदर्शन अध्ययन किए गए हैं। एडीआर को प्रदर्शित करने के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकियों को अंतिम रूप देने के मकसद से विकासात्मक अध्ययन शुरू किए गए हैं।'' इसरो के एक शीर्ष अधिकारी ने पिछले साल एक प्रौद्योगिकी सम्मेलन में कहा था कि अंतरिक्ष एजेंसी अंतरिक्ष मलबे को कम करने के उपायों के तहत भविष्य की प्रौद्योगिकियों जैसे कि स्वयं नष्ट होने वाले रॉकेट और गायब होने वाले उपग्रहों पर काम कर रही है। ‘ऑर्बिटल डेबरिस क्वार्टरली' न्यूज के अनुसार, अमेरिका के पास 4,144 अंतरिक्ष यान (सक्रिय और निष्क्रिय), और 5,126 वस्तुएं हैं जिन्हें पृथ्वी की कक्षा में अंतरिक्ष मलबे के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। चीन के पास 517 अंतरिक्ष यान, सक्रिय और निष्क्रिय तथा 3,854 वस्तुएं हैं, जो पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं। सिंह ने कहा कि इसरो ने अंतरिक्ष मलबे से संबंधित मुद्दों से निपटने के लिए अपने मुख्यालय में अंतरिक्ष जागरूकता निदेशालय और प्रबंधन तंत्र भी स्थापित किया है। उन्होंने कहा कि इसरो के भीतर सभी अंतरिक्ष मलबे से संबंधित गतिविधियों का समन्वय करने और टकराव के खतरों से भारतीय परिचालन अंतरिक्ष संपत्तियों की सुरक्षा के लिए बेंगलुरु में एक समर्पित अंतरिक्ष स्थितिजन्य जागरूकता नियंत्रण केंद्र स्थापित किया गया है। मंत्री ने कहा कि इसरो अंतरिक्ष पिंडों पर नजर रखने और उन्हें सूचीबद्ध करने के लिए अपने अवलोकन केंद्र की स्थापना की भी योजना बना रहा है।
- भारत में कई ऐसे कुंड है जहां गर्मियों में ही नहीं बल्कि सर्दियों में भी पानी गर्म रहता है। इनमें से कुछ कुंड ऐसे भी हैं जिनमें नहाने से कई बीमारियां ठीक हो जाती हैं। इन जगहों पर सालभर पर्यटकों का तांता लगा रहता है। जानें इन जगहों के बारे में ......मणिकरण, हिमाचल प्रदेशहिमाचल प्रदेश कुल्लू से करीब 45 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मणिकरण अपने गर्म पानी के कुंड के लिए जाना जाता है। इस कुंड में पानी का तापमान बहुत अधिक है। यह स्थान हिंदू और सिखों के लिए आस्था का एक प्रमुख केंद्र है। यहां पर एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा और मंदिर है। श्रद्धालु गुरुद्वारा और मंदिर में जाने के बाद इस पवित्र जल में डुबकी लगाने आते हैं।अत्रि कुंड , ओडिशाभुवनेश्वर से 40 किलोमीटर दूर अत्रि कुंड सल्फर युक्त गर्म पानी के कुंड के लिए प्रसिद्ध है। इस कुंड के पानी का तापमान 55 डिग्री तक रहता है। गर्म पानी का यह कुंड औषधीय गुणों के लिए भी जाना जाता है। माना जाता है कि इस कुंड में स्नान करने से त्वचा संबंधी बीमारियां दूर हो जाती हैं।तुलसी श्याम कुंड, राजस्थानराजस्थान में जूनागढ़ से करीब 65 किलोमीटर की दूरी पर तुलसी श्याम कुंड स्थित है। यहां पर गर्म पानी के 3 कुंड है जिनमें अलग-अलग तापमान का पानी रहता है। इस कुंड के पास एक साथ करीब 100 साल पुराना रुकमणी देवी का मंदिर भी स्थित है।तपोवन, उत्तराखंडउत्तराखंड में जोशीमठ से 14 किलोमीटर आगे तपोवन एक छोटा सा गांव है। यहां पर सल्फर युक्त गर्म पानी का एक झरना है। गंगोत्री ग्लेशियर से नजदीक होने के कारण तपोवन के गर्म पानी के झरने को पवित्र माना जाता है। गर्म पानी के झरने में आप चावल पका सकते हैं।वशिष्ठ, हिमाचल प्रदेशवशिष्ठ, मनाली के पास एक छोटा सा गांव है जो अपने पवित्र वशिष्ठ मंदिर और गर्म पानी के झरने के लिए प्रसिद्ध है। यहां पर पुरुष और महिलाओं के लिए अलग-अलग स्नान करने की व्यवस्था है। इस जगह का विशेष पौराणिक महत्व है क्योंकि माना जाता है कि वशिष्ठ ने यहां पर गर्म पानी का झरना बनाया था। मान्यताओं के अनुसार इस कुंड के पानी में औषधीय गुण हैं।धुनी पानी, मध्यप्रदेशमध्यप्रदेश के अमरकंटक में धुनी पानी एक प्राकृतिक गर्म पानी का झरना है। इस गर्म पानी के झरने का उल्लेख पौराणिक कथाओं में भी मिलता है। यह विंध्य और सतपुड़ा पहाडिय़ों के घने जंगलों में छिपा हुआ है। माना जाता है कि इसके पानी में नहाने से पाप-पीड़ाएं दूर होती हैं।
- हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, पाताल लोक राक्षस और नागों का घर है। लेकिन मध्यप्रदेश के छिंडवाड़ा में एक ऐसी जगह है जिसे पाताल लोक (पातालकोट) कहा गया है। अनोखी बात यह है कि यहां इंसान रहते भी हैं और जीवन जीते भी हैं। छिंदवाडा के तामिया क्षेत्र में घनी हरी-भरी सतपुड़ा की पहाडिय़ों में 12 गांव में फैली 2000 से ज्यादा भारिया जनजाती के लोग रहते हैं। यहां हर गांव 3-4 गांव किमी की दूरी पर स्थित है। यह जगह औषधियों का खजाना मानी जाती है। इतना ही नहीं यहां पर 3 गांव तो ऐसे हैं, जहां सूर्य की किरणें भी नहीं पहुंच पाती हैं। ऐसे में कड़ी धूप के बाद भी यहां का नजारा शाम जैसा दिखता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह गांव धरातल से लगभग 3000 फुट नीचे बसे हुए हैं। इतना ही नहीं, पातालकोट में ऐसा बहुत कुछ है, जो काफी दिलचस्प है और सच है। माना जाता है कि यह वही जगह है जहां माता सीता धरती में समा गई थीं। वहीं कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जब भगवान श्री राम और उनके भाई लक्ष्मण को जब अहिरावण पाताल ले गया था तब हनुमान जी उनके प्राण बचाने के लिए इसी रास्ते से पाताल गए थे।पातालकोट के इन 12 गांवों में रहने वाले लोग बाहरी दुनिया से बिलकुल कटे हुए हैं। कहा जाता है कि यहां के लोग खाने-पीने की चीजें आस-पास ही उगा लेते हैं और केवल नमक ही बाहर से खरीद कर लाते हैं। हालांकि हाल ही में पातालकोट के कुछ गांवों को सड़क से जोडऩे का काम पूरा हुआ है।पातालकोट कई सदियों से गोंड और भारिया जनजातियां द्वारा बसा हुआ है। भारिया जनजाति के लोगों का मानना है कि पातालकोट में ही रामायाण की सीता पृथ्वी में समा गई थीं। जिससे यहां एक गहरी गुफा बन गई थी। एक और किवदंती यह भी है कि रामायण के हनुमान ने इस क्षेत्र के जरिए जमीन में प्रेवश किया था, ताकि भगवान राम और लक्ष्मण को राक्षस रावण के बंधनों से बचाया जा सके। पातालकोट एक पहाड़ की तरह लगता है, जिसके गर्भ में ही सभ्यता पल रही है। कुछ लोग सोचते हैं कि यह एक गहरी खाई है, वहीं यहां रहने वालों का मानना है कि ये पाताल लोक का एकमात्र प्रवेश द्वार है। पातालकोट के रहने वाले आदिवासी जनजाति मेघनाथ का सम्मान करती है। यहां चेत्र पूर्णिमा पर मार्च और अप्रैल के महीने में बड़ा मेला आयोजित होता है। आदिवासी लोग जीवन में एक दिन देवघर में पूजा-अर्चना करते हैं। आदिवासी द्वारा यहां खासतौर से भगवान शिव, अग्रि और सूर्य की पूजा की जाती है।
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आज के जमाने में हर कोई फिट रहने की कोशिश करता है, हालांकि समय न होने की वजह से लोग अपनी फिटनेस पर ध्यान नहीं दे पाते हैं. कई लोग इस भागदौड़ भरी जिंदगी से समय निकालकर एक्सरसाइज करने की कोशिश भी करते हैं. हालांकि, समय की कमी की वजह से वह ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते हैं. इसके उलट इन दिनों एक 67 साल की बुजुर्ग महिला अपने फिटनेस को लेकर दुनियाभर में सुर्खियां बटोर रही हैं.
रिपोर्ट के अनुसार, 67 साल की यह महिला अपनी फिटनेस के मामले में 20 साल की लड़कियों को भी मात देती है. बुजुर्ग महिला अधेड़ होने के बावजूद इतनी अधिक फिट हैं कि कम उम्र की युवतियां भी उन्हें देखकर शरमा जाएं. इस महिला का नाम शैरन गार्नर (Sharon Garner) है. महिला इंग्लैंड के कॉर्नवॉल (Cornwall) में रहती हैं. 67 साल की उम्र में गजब की फिटनेस देखकर लोग उन्हें सुपर-ग्रैनी कहकर बुलाते हैं.
आपको जानकर हैरानी होगी कि इस उम्र में महिला गठिया (arthritis) रोग से भी पीड़ित हैं. इसके बाद भी वह कभी गठिया को अपनी कमजोरी नहीं बनातीं. इतनी अधिक उम्र की होने के बावजूद वह हर रोज जिम जाती हैं और अपनी फिटनेस का बहुत ध्यान रखती हैं. वह जिम आने वाली अपने से कम उम्र की लड़कियों से अधिक वजन उठाती हैं और कठिन से कठिन एक्सरसाइज भी बड़ी आसानी से कर लेती हैं.
'अनफिट लोगों को लेनी चाहिए सीख'
शैरन कहती हैं कि अनफिट लोगों को उनसे सीख लेनी चाहिए. गठिया होने के बाद भी वह बहाने नहीं बनाती हैं और कड़ी मेहनत करती हैं. शैरन कहती हैं कि अगर वह 67 साल की उम्र में यह सब कर सकती हैं तो कम उम्र के लोग भी ऐसा कर सकते हैं. बता दें कि शैरन के 8 नाती-पोते हैं. वह लगातार किक बॉक्सिंग, स्विमिंग और रनिंग करती हैं. शैरन पिछले साल 2 हाफ मैराथन में भी दौड़ी थीं. आपको जानकर हैरानी होगी कि जिम में वह लड़कों को भी जोरदार टक्कर देती हैं. -
भारत में सिर्फ एक ही जगह ऐसी है जिसे देवभूमि के नाम से जाना जाता है. उत्तराखंड राज्य में ऊंचें-ऊंचे बर्फ से ढके पहाड़, और हरियाली को लेकर मान्यता है कि देवाधिदेव महादेव इसी स्थान पर निवास करते हैं. कहते हैं कि यहां की भूमि इतनी पवित्र है कि पांडवों से लेकर कई बड़े राजाओं ने तप के लिए इस स्थान का चयन किया. कहते हैं कि उत्तराखंड की भूमि में एक ऐसा झरना है जिसके पानी को कोई पापी व्यक्ति हाथ नहीं लगा सकता है. आइए जानते हैं इस बारे में.
पांडवों ने स्वर्ग के लिए किया था प्रस्थान
धार्मिक ग्रंथों में कई स्थानों पर जिक्र है कि देवभूमि उत्तराखंड में भगवान शिव का निवास है. यहां केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री आदि तमाम तीर्थस्थल मौजूद हैं. कहते हैं कि पांडवों ने स्वर्ग के लिए भी इसी स्थान से प्रस्थान किया था. इसके अलावा गंगा, यमुना और सरस्वती नदी का उद्गम स्थान भी उत्तराखंड ही है.
पापियों को स्पर्श भी नहीं करता इसका पानी
वसुंधरा झरना बद्रीनाथ धाम से 8 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है. यह झरना 400 फीट की ऊंचाई से गिरता है और गिरते हुए इसका पानी मोतियों की तरह नजर आता है. कहते हैं कि उंचाई से गिरने के कारण इसका पानी दूर-दूर तक पहुंचता है. परंतु अगर कोई पापी इसके नीचे खड़ा हो जाए तो झरने का पानी उस पापी के शरीर से स्पर्श तक नहीं करता. बद्रीनाथ धाम जाने वाले श्रद्धालु इस झरने का दर्शन जरूर करते हैं. इसे बहुत पवित्र झरना कहा जाता है.
झरने के पानी में है औषधीय तत्व
मान्यता है कि इस झरने के पानी में कई तरह के औषधीय गुण मौजूद हैं. दरअसल इस झरने का पानी कई कई जड़ी-बूटियों वाले पौधों को स्पर्श करते हुए गिरता है. मान्यता यह भी है कि इस झरने का पानी जिस व्यक्ति के शरीर पर गिरता है, उसके रोग दूर हो जाते हैं. - हिमालय की गोद में बसा कश्मीर अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर में मशहूर है। यहाँ पर हर समय पर्यटकों का ताँता लगा रहता रहता है। हर साल देश-विदेश से बड़ी संख्या में लोग यहाँ घूमने आते हैं। कश्मीर में कई पर्यटन स्थल हैं जिनकी सुंदरता देखते ही बनती है। कश्मीर अपनी अद्भुत प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ अपने प्राचीन इतिहास और संस्कृति के लिए भी जाना है। कश्मीर भारत के सबसे प्राचीन राज्यों में से एक है। पौराणिक कथाओं में कश्मीर के इतिहास का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि इसका इतिहास महाभारत काल से भी पुराना है। ऐसा कहा जाता है कि महाभारत काल से पहले कश्मीर के हिस्से भारत के 16 महाजनपदों में से तीन - गांधार, कंबोज और कुरु महाजनपद के अंतर्गत आते थे।पौराणिक कथाओं के अनुसार त्रेतायुग में प्रियव्रत के पुत्र प्रथम मनु ने इस भारतवर्ष को बसाया था। उस समय इसका नाम कुछ और था। उनके शासन काल के दौरान कश्मीर एक जनपद था। माना जाता है कि पहले यहाँ पर इंद्र का राज हुआ करता था। कुछ कथाओं के अनुसार इस क्षेत्र पर जम्बूद्वीप के राजा अग्निघ्र राज करते थे। हालांकि, सतयुग में यहाँ कश्यप ऋषि का राज हो गया।पौराणिक कथाओं के मुताबिक कश्मीर का प्राचीन नाम कश्यप सागर (कैस्पियन सागर) था और यह नाम कश्यप ऋषि के नाम पर ही है। शोधकर्ताओं का मानना है कि कश्यप सागर से लेकर कश्मीर तक ऋषि कश्यप और उनके पुत्रों का शासन हुआ करता था। कश्यप ऋषि का इतिहास कई हज़ार वर्ष पुराना है। पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि कैलाश पर्वत के आसपास भगवान शिव के गणों की सत्ता थी। उक्त इलाके में ही राजा दक्ष का भी साम्राज्य था।ऐसा माना जाता है कि ऋषि कश्यप कश्मीर के पहले राजा थे। कश्यप ऋषि की एक पत्नी कद्रू ने अपने गर्भ से कई नागों को जन्म दिया था। जिनमें से प्रमुख 8 नाग थे- अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक। इन्हीं नागों से नागवंश की स्थापना हुई। कश्मीर का अनंतनाग नागवंशियों की राजधानी थी। आज भी कश्मीर में कई स्थानों के नाम इन्हीं नागों के नाम पर हैं।राजतरंगिणी तथा नीलम पुराण की कथा में भी कश्मीर का उल्लेख है। राजतरंगिणी 1184 ईसा पूर्व के राजा गोनंद से लेकर 1129 ईसवी के राजा विजय सिम्हा तक के कश्मीर के प्राचीन राजवंशों और राजाओं का प्रमाणिक दस्तावेज है। इस कथा के अनुसार पहले कश्?मीर की घाटी एक बहुत बड़ी झील हुआ करती थी। बाद में कश्यप ऋषि यहाँ आए और झील से पानी निकालकर उसे एक प्राकृतिक स्?थल में बदल दिया।आज भी कश्मीर में स्थानों के नाम नागवंश के कुछ प्रमुख नागों के नाम पर हैं। इनमें से अनंतनाग, कमरू, कोकरनाग, वेरीनाग, नारानाग, कौसरनाग आदि नागों के नाम पर कश्मीर में स्थानों का नाम है। इसी तरह कश्मीर के बारामूला का प्राचीन नाम वराह मूल था। प्राचीनकाल में यह स्थान वराह अवतार की उपासना का केंद्र था। वराहमूल का अर्थ होता है - सूअर की दाढ़ या दांत। पौराणिक कथाओं के अनुसार वराह भगवान ने अपने दांत से ही धरती उठा ली थी।इसी तरह कश्मीर के बडग़ाम, पुलवामा, कुपवाड़ा, शोपियां, गंदरबल, बांडीपुरा, श्रीनगर और कुलगाम जिले का भी अपना अगल प्राचीन और पौराणिक इतिहास रहा है। यह इतिहास कश्मीरी पंडितों से जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि कश्मीरी पंडित ही कश्मीर के मूल निवासी हैं और उनकी संस्कृति लगभग 6000 साल से भी ज्यादा पुरानी है। जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर को प्राचीन काल में प्रवर पुर नाम से जाना जाता था। श्रीनगर के एक ओर हरि पर्वत और दूसरी और शंकराचार्य पर्वत है। प्राचीन कथाओं के अनुसार शंकराचार्य ने शंकराचार्य पर्वत पर एक भव्य शिवलिंग, मंदिर और नीचे मठ की स्थापना की थी।यह भी माना जाता है कि कश्मीर को कभी 'सती 'या 'सतीसर' भी कहा जाता था। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवती सती यहां सरोवर में नौका विहार कर रही थीं। इसी बीच यहाँ पर कश्यप ऋषि जलोद्भव नामक राक्षस को मारना चाहते थे। राक्षस को मारने के लिए कश्यप ऋषि तपस्या करने लगे। देवताओँ के आग्रह पर भगवती सती ने सारिका पक्षी का रूप धारण किया और अपनी चोंच में पत्थर रखकर राक्षस को मार दिया। वह राक्षस मर कर पत्थर हो गया। इसी को आज हरि पर्वत के नाम से जाना जाता है।
- बीते दशकों में विज्ञान ने अभूतपूर्व सफलता हासिल कर ली है। कभी असंभव लगने वाली चीजें भी अब आसान लगती हैं। पहले भाप से ट्रेन चलती थी जिसके बाद डीजल से दौड़ने लगी। अब बिजली से चलने वाली ट्रेन दौड़ती है। इसके अलावा ट्रेन सोलर एनर्जी से भी चल रही हैं, लेकिन अब कुछ सालों में गाड़ियां भी बिना ईंधन के चलने लगेंगी। अब इस बीच एक ट्रेन आने वाली है जो बिना ईंधन के रफ्तार भरेगी। इस ट्रेन को चलने के लिए ईंधन की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि ये ट्रेन बिना डीजल और कोयला के चलेगी। यह सुनकर आपको शायद यकीन नहीं हो रहा होगा, लेकिन यह पूरी तरह सच है। यह विशेष ट्रेन गुरुत्वाकर्षण के दम पर चलेगी। ऑस्ट्रेलिया की एक खनन कंपनी इस गुरुत्वाकर्षण से चलने वाली ट्रेन का निर्माण कर रही है। आइए जानते हैं कि आखिर गुरुत्वाकर्षण से यह ट्रेन कैसे चलेगी और इसकी क्या खासियत है?गुरुत्वाकर्षण से दौड़ने वाली इस ट्रेन को इनफिनिटी ट्रेन (Infinity Train) कहा जा रहा है। इस ट्रेन के चलने से सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि प्रदूषण कम होगा। इसके अलावा ट्रेन की रीफ्यूलिंग की कोई जरूरत नहीं होगी।इस ट्रेन से एमिशन शून्य हो जाएगा। इसके साथ ही कम समय और लागत में लौह अयस्क को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाया जा सकता है। ट्रेन का निर्माण करने वाली कंपनी फोर्टेस्क्यू ने विलियम्स एडवांस्ड इंजीनियरिंग को खरीदा है और काम की शुरुआत की है। यह ट्रेन एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय अपने आप चार्ज हो जाएगी और इसकी ऊर्जा कभी समाप्त नहीं होगी।इस ट्रेन में 244 बोगी होगी जिसमें 34,404 टन लौह अयस्क रखा जाएगा। इसकी वजह से ट्रेन भारी हो जाएगी और खाली होने के बाद जब चलेगी, तो ग्रैविटेशनल फोर्स से चार्ज होगी। फोर्टेस्क्यू की सीईओ एलिजाबेथ गेन्स ने इस ट्रेन को दुनिया की सबसे बेहतरीन ट्रेन बताया है।-file photo
- जहां एक तरफ कई देशों ने तरक्की कर ली है और लोग अपना जीवन बड़े शानदार अंदाज में बिता रहे हैं, तो वहीं दुनिया में कुछ ऐसे देश भी हैं, जहां लोग दिनभर खून पसीना बहा कर भी अपनी मूल सुविधाओं की पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि अफ्रीका में एक ऐसा देश भी है, जहां के लोग पिछले 40 सालों से पत्थर तोड़ने का काम कर रह रहे हैं। दरअसल, पश्चिमी अफ्रीकी देश बुरकीना फासो की राजधानी उआगेडूगू में ग्रेनाइट की खदान है जिसमें लोग पिछले 40 सालों से पसीना बहाते हुए नजर आते हैं। उनके पास कमाई के लिए केवल यही विकल्प है जिसके चलते खदान में पसीना बहाना उनकी मजबूरी है। आज हम आपको इसी के बारे में बताने जा रहे हैं, तो आइए जानते हैं कि इसकी शुरुआत कैसे हुई।आपको जानकर हैरानी होगी कि ये सिलसिला 40 साल पहले शुरू हुआ था। दरअसल, 40 साल पहले सेंट्रल उआगेडूगू में पिसी जिले के बीचों-बीच एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदा गया था। ये गड्ढा ग्रेनाइट की खदान का है। उस समय गरीबी से जूझ रहे क्षेत्र के लोगों के लिए ये खदान ही रोजी-रोटी का जरिया बनी थी, जो आज भी है।बीते 40 सालों से लोग इस खदान में ही खुदाई का काम करते नजर आ रहे हैं जिससे उनका पेट भरता है। वहीं हैरान करने वाली बात ये है कि इस खदान का कोई मालिक नहीं है। सभी लोग यहां खुदाई करके और ग्रेनाइट बेचकर पैसे कमाते हैं।एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, यहां बच्चे, औरतें व आदमी रोजाना 10 मीटर गड्ढे में उतर कर ग्रेनाइट लेकर ऊपर आते हैं। सिर पर भारी बोझ लेकर इन्हें खदान की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। इस दौरान कई बार ये लोग फिसलकर नीचे भी गिर जाते हैं।इन लोगों द्वारा तोड़ा गया ग्रेनाइट सीधे बिक जाता है और इसका इस्तेमाल इमारतों को बनाने में किया जाता है। वहीं दुर्भाग्य ये है कि दिनभर की मेहनत के बाद भी यहां के लोगों की ज्यादा कमाई नहीं होती जिससे वे अपनी सभी मुलभूत सुविधाओं को पूरा सकें।इस खदान में काम करने वाली एक महिला के मुताबिक, सुबह से रात तक काम करने पर उसे करीब 130 रुपये ही मिलते हैं। इतने में घर चलाने से लेकर बच्चों की फीस भरना तक मुश्किल होता है। परेशानी वाली बात ये भी है कि इस खदान में टायर, कबाड़ और धातुओं को जलाया जाता है जिससे निकलने वाला धुआं इनकी सेहत पर बुरा प्रभाव डाल रहा है।
- वाशिंगटन। अमेरिकी अधिकारी पिछले कुछ हफ्तों से कई बार आगाह कर चुके हैं कि रूस ऐसी योजना बना रहा है कि उसकी सेना पर हमला होता दिखे और वह इसकी तस्वीरें दुनिया को दिखा सके। अमेरिकी अधिकारियों का आरोप है कि इस तरह का ''फॉल्स फ्लैग'' अभियान रूस को यूक्रेन पर हमला करने का बहाना प्रदान करेगा।''फॉल्स फ्लैग'' एक ऐसी सैन्य कार्रवाई होती है जहां पर एक देश छिपकर, जानबूझकर स्वयं की संपत्ति, इंसानी जान को नुकसान पहुंचाता है जबकि दुनिया के सामने वह यह बताता है कि उसके दुश्मन देश ने ऐसा किया है। इसकी आड़ में ऐसा करने वाला देश अपने शत्रु देश पर हमला कर देता है। इस योजना का भंडाफोड़ करते हुए बाइडन प्रशासन क्रेमलिन को युद्ध को जायज ठहराने वाले इस तरह का आधार बनाने से रोकना चाहता है। लेकिन इस तरह के ''फॉल्स फ्लैग'' हमले अब नहीं हो सकते, क्योंकि उपग्रह से ली गई तस्वीरें और मैदान के सजीव वीडियो व्यापक रूप से और तुरंत इंटरनेट पर साझा किए जाते हैं। ऐसे में आज फॉल्स फ्लैग हमले की जिम्मेदारी से बचना एक मश्किल काम है।''फॉल्स फ्लैग'' हमला और इसमें शामिल आरोपी देशों का एक लंबा इतिहास रहा है। इस शब्द की उत्पत्ति समुद्री लुटेरों के लिए हुई जो मैत्रीपूर्ण (और झूठे) झंडों को लगाकर व्यापारी जहाजों को पर्याप्त रूप से नजदीक आने के लिए आकर्षित करते थे ताकि उन पर हमला किया जा सके। बीसवीं शताब्दी में ''फॉल्स फ्लैग'' से जुड़े कई मामले हैं। वर्ष 1939 में नाजी जर्मनी के एजेंटों ने पोलैंड की सीमा के निकट एक जर्मन रेडियो स्टेशन से जर्मन-विरोधी संदेश प्रसारित किए। उन्होंने कई नागरिकों की भी हत्या कर दी, जिन्हें उन्होंने पोलैंड पर जर्मनी के नियोजित आक्रमण का बहाना बनाने के लिए पोलिश सैन्य वर्दी पहनाई थी। उसी वर्ष सोवियत संघ ने फिनलैंड की सीमा के पास से सोवियत क्षेत्र में गोले दागे और फिनलैंड को दोषी ठहराया। अमेरिका को भी इसी तरह की साजिशों में फंसाया गया है। 'ऑपरेशन नॉर्थवुड्स' का प्रस्ताव अमेरिकियों को मारने और कास्त्रो पर हमला करने का आरोप लगाने के लिए था, ताकि सेना को क्यूबा पर आक्रमण करने का बहाना मिल जाए। हालांकि कैनेडी प्रशासन ने अंतत: योजना को खारिज कर दिया। वर्ष 1898 में जहाज 'यूएसएस मेन' का डूबना और 1964 में टोंकिन की खाड़ी की घटना - जिनमें से प्रत्येक को युद्ध को जायज ठहराने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया था - को संभावित 'फॉल्स फ्लैग' हमलों में शामिल किया जाता है, लेकिन इन आरोपों का समर्थन करने वाले सबूत कमजोर हैं।हाल में आरोप लगाया गया था कि बुश प्रशासन ने नागरिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों को सही ठहराने और इराक पर हमला करने की नींव रखने के लिए ट्विन टावरों को नष्ट करने की योजना बनाई थी। अगर लोग मानते हैं कि फॉल्स फ्लैग हमले होते हैं, तो इसका कारण यह नहीं कि ऐसा होना आम बात है। बल्कि लोग समझते हैं कि राजनेता भ्रष्ट होते हैं और संकटों का लाभ उठाते हैं। उदाहरण के लिए बुश प्रशासन ने 9/11 के हमलों का इस्तेमाल इराक पर अपने आक्रमण के लिए समर्थन जुटाने में किया था। विश्वसनीयता की चुनौतीयह मानने की इच्छा कि नेता इस तरह के अत्याचार करने में सक्षम हैं, दुनियाभर में सरकारों के प्रति बढ़ते अविश्वास को दर्शाता है। संयोगवश यह 'फॉल्स फ्लैग'' हमलों को अंजाम देने का इरादा रखने वाले नेताओं के लिए मामलों को जटिल बनाता है। इसके अलावा स्वतंत्र जांचकर्ता के कारण सरकारों के लिए कानूनों और अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के गंभीर उल्लंघन से बचना मुश्किल हो जाता है।रूस के पास आक्रमण के लिए अन्य विकल्प हैं। वर्ष 2014 में क्रीमिया में अपनी घुसपैठ की शुरुआत में क्रेमलिन ने यूक्रेन के प्रतिरोध को रोकने और घरेलू सहमति हासिल करने के लिए जिस उपाय का इस्तेमाल किया उसमें दुष्प्रचार और धोखा शामिल था। इसके विपरीत फॉल्स फ्लैग अभियान जटिल है और शायद अधिक नाटकीय है, जो अवांछित जांच को आमंत्रित करता है। फॉल्स फ्लैग हमले जोखिम भरे होते हैं, जबकि जायज आधार बनाने के इच्छुक नेताओं के पास सूक्ष्म और कम खर्चीले वाले विकल्पों की भरमार है जिसमें से वह किसी का भी चयन कर सकते हैं।
- -शिक्षण परिसरों को सुरक्षित खोलने, कोरोना का प्रसार रोकने में मदद करेगानयी दिल्ली। जोधपुर स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के शोधकर्ताओं ने शैक्षणिक संस्थानों के लिए 'कैम्पस रक्षक' नामक प्रारूप तैयार किया है, जिसके तहत कोविड-19 के संभावित प्रसार को रोकने तथा शैक्षणिक परिसरों को समुचित तौर पर फिर से खोलने के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा। इस प्रारूप में कई एप्लीकेशन्स और टूल्स समाहित होंगे। ाआईआईटी जोधपुर ने इस पहल के माध्यम से परिसरों में सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आईआईएससी बेंगलुरु, आईआईटी खडग़पुर, आईआईआईटी हैदराबाद, आईआईटी बम्बई, एल्गोरिथम बायोलॉजिक्स प्राइवेट लिमिटेड, हीथबैज प्राइवेट लिमिटेड और पृथ्वी.एआई के साथ सहयोग किया है। यद्यपि कैंपस रक्षक के दो प्रोटोटाइप का आईआईटी जोधपुर और आईआईआईटी हैदराबाद में एक साथ परीक्षण किया गया है, लेकिन टीम देश भर के शैक्षणिक परिसरों तक पहुंचने के लिए किफायती और लचीले मूल्य निर्धारण मॉडल, उत्पाद, विपणन और बिक्री से संबंधित रणनीति तैयार करने के लिए बातचीत कर रही है। कैंपस रक्षक के चार घटक हैं- टेपेस्ट्री पूलिंग, गो कोरोना गो ऐप, सिमुलेटर और हेल्थबैज। ये एक एकल मंच बनाते हैं, जो कोविड-19 के खिलाफ शैक्षणिक परिसरों के लिए निगरानी, पूर्वानुमान और राहत रणनीतियों की सिफारिश करते हैं। आईहब दृष्टि के मुख्य तकनीकी अधिकारी मानस बैरागी ने कहा, ''टेपेस्ट्री पूलिंग विधि कई पूल को अलग-अलग नमूने देती है, जिससे स्क्रीनिंग की लागत एक-चौथाई हो जाती है। प्रत्येक पूल के परिणामों के आधार पर एल्गोरिदम कोविड-19 के पॉजिटिव नमूनों का पूर्वानुमान बताता है।''आईआईटी, जोधपुर में आईहब दृष्टि एक टेक्नोलॉजी इनोवेशन हब है जो कंप्यूटर विजऩ, ऑगमेंटेड रियलिटी और वर्चुअल रियलिटी पर केंद्रित है। बैरागी ने कहा, '' 'गो कोरोना गो ऐप' आरोग्य सेतु के समान एक मोबाइल ऐप है, लेकिन कोरोनावायरस के प्रसार को रोकने को लेकर सही निर्णय लेने के लिए प्रशासन को डेटा उपलब्ध कराता है। इसका प्राथमिक उद्देश्य संपर्क की पहचान करना है। उपयोगकर्ता इससे फोन के ब्लूटूथ के माध्यम से कैंपस सर्वर से जुड़े रहेंगे।'' बैरागी ने कहा, ''भविष्य में परिसर सस्ती कीमत पर स्क्रीनिंग और पूलिंग रणनीतियों में स्वदेशी नवाचारों के साथ 'कैपस रक्षक' पर भरोसा करने में सक्षम होंगे। इस तकनीक का उपयोग करके, भविष्य की महामारियों को नियंत्रित किया जा सकता है और देश और दुनिया भर में सार्वजनिक स्वास्थ्य हस्तक्षेपों का मूल्यांकन किया जा सकता है।
- अमेरिकी वैज्ञानिकों ने अब तक की सबसे सटीक घड़ी बनाई है। यह घड़ी मिलीमीटर के हिसाब से टाइम का फर्क बता सकती है और आइंस्टाइन का सिद्धांत एक बार फिर सबसे सटीकता से साबित हुआ।आइंस्टाइन का सापेक्षता सिद्धांत कहता है कि पृथ्वी जैसी विशाल वस्तु सीधे नहीं बल्कि घुमावदार रास्ते पर चलती है जिससे समय की गति भी बदलती है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति पहाड़ी की चोटी पर रहता है तो उसके लिए समय, समुद्र की गहराई पर रहने वाले व्यक्ति की तुलना में तेज चलता है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत को अब तक के सबसे कम स्केल पर मापा है, और सही पाया है। उन्होंने अपने प्रयोग में पाया कि अलग-अलग जगहों पर ऊंचाई के साथ घडिय़ों की टिक-टिक मिलीमीटर के भी अंश के बराबर बदल जाती है।बीजिंग में अंग्रेजी ना जानने वाले दुकानदारों को विदेशी ग्राहकों से बात करने में कोई दिक्कत नहीं होती। यह फोन जैसी डिवाइस उनके काम आती है। नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ स्टैंडड्र्स एंड टेक्नोलॉजी और बोल्डर स्थित कॉलराडो यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले जुन ये कहते हैं कि उन्होंने जिस घड़ी पर यह प्रयोग किया है, वह अब तक की सबसे सटीक घड़ी है। जुन ये कहते हैं कि यह नई घड़ी क्वॉन्टम मकैनिक्स के लिए कई नई खोजों के रास्ते खोल सकती है। जुन ये और उनके साथियों का शोध प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका नेचर में छपा है। इस शोध में उन्होंने बताया है कि कैसे उन्होंने इस वक्त उपलब्ध एटोमिक क्लॉक से 50 गुना ज्यादा सटीक घड़ी बनाने में कामयाबी हासिल की। एटोमिक घडिय़ों की खोज के बाद ही 1915 में दिया गया आइंस्टाइन का सिद्धांत साबित हो पाया था। शुरुआती प्रयोग 1976 में हुआ था जब ग्रैविटी को मापने के जरिए सिद्धांत को साबित करने की कोशिश की गई।इसके लिए एक वायुयान को पृथ्वी के तल से 10 हजार किलोमीटर ऊंचाई पर उड़ाया गया और यह साबित किया गया कि विमान में मौजूद घड़ी पृथ्वी पर मौजूद घड़ी से तेज चल रही थी। दोनों घडिय़ों के बीच जो अंतर था, वह 73 वर्ष में एक सेकंड का हो जाता। इस प्रयोग के बाद घडिय़ां सटीकता के मामले में एक दूसरे से बेहतर होती चली गईं और वे सापेक्षता के सिद्धांत को और ज्यादा बारीकी से पकडऩे के भी काबिल बनीं। 2010 में वैज्ञानिकों ने सिर्फ 33 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर रखी घड़ी को तल पर रखी घड़ी से तेज चलते पाया।दरअसल, सटीकता का मसला इसलिए पैदा होता है क्योंकि अणु गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित होते हैं, तो, सबसे बड़ी चुनौती होती है कि उन्हें गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से मुक्त किया जाए ताकि वे अपनी गति ना छोड़ें। इसके लिए शोधकर्ताओं ने अणुओं को बांधने के लिए प्रकाश के जाल प्रयोग किए, जिन्हें ऑप्टिकल लेटिस कहते हैं। जुन ये की बनाई नई घड़ी में पीली धातु स्ट्रोन्टियम के एक लाख अणु एक के ऊपर एक करके परतों में रखे जाते हैं। इनकी कुल ऊंचाई लगभग एक मिलीमीटर होती है। यह घड़ी इतनी सटीक है कि जब वैज्ञानिकों ने अणुओं के इस ढेर को दो हिस्सों में बांटा तब भी वे दोनों के बीच समय का अंतर देख सकते थे।सटीकता के इस स्तर पर घडिय़ों सेंसर की तरह काम करती हैं। जुन ये बताते हैं, "स्पेस और टाइम आपस में जुड़े हुए हैं और जब समय को इतनी सटीकता से मापा जा सके, तो आप समय को वास्तविकता में बदलते हुए देख सकते हैं। "
- क्या आपने कभी सोचा है कि बेहोशी के पीछे की वजहें क्या हो सकती हैं? हम अपने आस पास अक्सर ऐसा देखते हैं कि कोई इंसान जो पूरी तरह से फिट और सेहतमंद दिख रहा है लेकिन अचानक बिना किसी कारण वो अपने बेहोश होने लगता है.अचानक बेहोशी के 4 बड़े कारणबेहोशी जो ब्रेन में ऑक्सीजन की कमी की वजह से होता है हालांकि बेहोशी के कारण पूरी तरह नहीं है, लेकिन कुछ ऐसे कारक हैं जो इसके लिए जिम्मेदार माने जाते हैं. हमें इनको जानना बेहद जरूरी है ताकी भविष्य में होने वाली परेशानियों से बचा जा सके.1. लो ब्लडप्रेशरबेहोशी का मेन कारण लो ब्लडप्रेशर बताया जाता है. ये खास तौर से उन लोगों को ज्यादा होता है जो 65 से ज्यादा एज ग्रुप के होते हैं.2. डिहाइड्रेशनजब आपके शरीर में डिहाइड्रेशन हो जाता है, आपके खून में तरल पदार्थ की मात्रा कम हो जाती है और ब्लड प्रेशर में कमी होने के कारण बेहोशी का खतरा बढ़ जाता है.3. डायबिटीजअगर आप एक डायबिटीज के मरीज हैं तो आपके बेहोश होने के चांसेज ज्यादा हैं क्योंकि डायबेटिक होने पर आपको यूरिन ज्यादा आएगा जिससे आपको डिहाइड्रेशन होने का खतरा ज्यादा बना रहता है.4. दिल की बीमारीदिल की बीमारी भी बेहोश होने की एक अहम वजह मानी जाती है, क्योंकि ऐसा होने पर आपके दिमाग को होने वाली खून की सप्लाई पर असर पड़ता है. बेहोशी के इस प्रकार के लिए मेडिकल टर्मेनोलॉजी में कार्डियक सिंनकॉप कहा जाता है.
- अंतरिक्ष के रहस्यों को जानने की कोशिश में वैज्ञानिक लगे हुए हैं। वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष के कुछ रहस्यों से पर्दा उठा दिया है, तो अभी भी कई रहस्यों के बारे में जानना बाकी है। अब इस बीच वैज्ञानिकों ने एक गैलेक्सी की खोज की है जो अब तक की सबसे बड़ी गैलेक्सी है। वैज्ञानिकों ने बताया है कि यह मॉन्स्टर गैलेक्सी है। हमारी आकाशगंगा से इस गैलेक्सी की चौड़ाई 100 गुना अधिक है। यह गैलेक्सी हमारे सौर मंडल से 300 करोड़ प्रकाशवर्ष की दूरी पर है।अल्सियोनियस नाम की यह आकाशगंगा एक विशालकाय रेडियो गैलेक्सी है। 1.63 करोड़ प्रकाश वर्ष लंबी गैलेक्सी अंतरिक्ष में पांच मेगापारसेक्स में फैली हुई है। इसकी खोज करने के बाद वैज्ञानिकों का कहना है उन्हें लगता है कि वह अंतरिक्ष के बारे में बहुत कम जानते हैं, क्योंकि अतंरिक्ष रहस्यों से भरा हुआ है। वैज्ञानिक इसकी खोज रहे हैं कि आखिर अल्सियोनियस इतना बड़ा क्यों है?अंतरिक्ष में मिली इस बड़ी गैलेक्सी के अंदर कई बड़े ब्लैक होल्स पाए गए हैं। तेजी से चल रहे आवेषित कण रेडियो तरंगों को इंटरगैलेक्टिक मीडियम बनाकर एक जगह से दूसरी जगह ले जा रहे हैं। अल्सियोनियस से निकलने वाले जेट स्ट्रीम को जायंट रेडियो गैलेक्सी कहा जाता है जो बहुत बड़े हैं। इस वजह की जानकारी नहीं है कि यह इतने बड़े क्यों हैं? लीडेन यूनिवर्सिटी में पीएचडी शोधार्थी मार्टिन ओई और उनके साथियों ने इस गैलेक्सी की खोज की है। वह इसकी संरचना के बारे में जानने की अभी कोशिश कर रहे हैं।जर्नल एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स में अल्सियोनियस के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित की गई है। हालांकि, अभी तक इसकी समीक्षा नहीं की गई है। मार्टिन का कहना है कि किसी छोटी गैलेक्सी की वजह से इसका निर्माण हुआ होगा जो अभी भी इसके भीतर मौजूद होगी जिसकी वजह से इसका आकार बढ़ रहा है। हम उस छोटी गैलेक्सी को खोजने में लगे हुए हैं।एक ग्रीक शब्द है अल्सियोनियस जिसका मतलब होता है विशालकाय पुठ्ठा। हरक्यूलिस का अल्सियोनियस सबसे बड़ा दुश्मन था। इस खोजी गई आकाशगंगा में हमारे सूरज से अरबों गुना अधिक वजन वाले बहुत सारे तारे हैं। अल्सियोनियस के भीतर मौजूद दबाव क्षेत्र इसको दूसरों से अलग बनाता है।
- नेपाल दुनिया के खूबसूरत देशों में से एक है.ये भारतीयों के बीच भी घूमने के लिए काफी पसंद किया जाता है. इस देश को पर्यटकों के बीच ‘दुनिया की छत’ के रूप में भी जाना जाता है. खूबसूरती से भरा नेपाल एक हिमालयी देश है, जहां हर कोई घूमना पसंद करता है. अगर आप भी भारत के पड़ोसी इस देश में घूमने का प्लान कर रहे हैं तो फिर यहां के पर्यटन स्थल के बारे में जानिए-काठमांडू घाटी में स्थित भक्तपुर नेपाल में घूमने वालों को अपनी तरफ खींचने का काम करता है. आपको बता दें कि भक्तपुर को भक्तों का शहर भी कहा जाता है. यह शहर भीड़भाड़ से दूर शांति और सुकून को देने वाला है. इस शहर में 15 वीं शताब्दी की संरचना दरबार स्क्वायर या 55-विंडो पैले यहां का आकर्षण है. अगर आप नेपाल जाएं तो यहां का रुख जरूर करिए.पशुपतिनाथ मंदिर भले नेपाल में बसा हो लेकर भारतीयों के बीच ये काफी फेमस है. ये मंदिर काठमांडू शहर से 3 किलोमीटर दूर पूर्व में सुंदर और पवित्र बागमती नदी के किनारे पर बसा हुआ है. खूबसूरत नजारों से घिरा ये मंदिर भगवान शिव को समर्पित है. आपको बता दें कि साल 1979 में पशुपतिनाथ मंदिर को यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल में शामिल किया गया था.नगरकोट नेपाल में घूमने वाली जगह में से एक है. अगर आप हिमालय के पर्वतों को उनकी खूबसूरती को देखना चाहते हैं तो नागरकोट का रूख जरूर करिए. नागरकोट, नेपाल की सबसे ज्यादा घूमी जाने वाली जगहों में से एक हैं. कहते हैं यहां से हिमालय के 13 में से 8 हिमालय पर्वतमाला को देख सकते हैं.पोखरा नेपाल की खूबसूरती को खास रूप से पेश करता है. ये एक बहुत ही बेहतरीन प्लेस है.हिमालय पर्वत की तलहटी में फैला पोखरा हर किसी के घूमने के लिए बहुत की खास है. इस जगह को घूमना हर कोई खास रूप से पसंद करता है. आप नेपाल जाएं तो यहां जरूर जाएं.काठमांडू नेपाल की सांस्कृतिक राजधानी है, जो घूमने का बेस्ट ऑप्शन कहा जाता है. नेपाल घूमना खुद में काफी खास है. यहां घूमने आने वाले यात्रियों को आनंदमय वातावरण मंत्रमुग्ध कर देता है. ये कई खूबसूरत नजारों से भरा है. काठमांडू, अपने मठों, मंदिरों और आध्यात्मिकता के साथ एक शांति वाली जगह है.
- सांपों की दुनिया लोगों के लिए डरावनी ही नहीं, बल्कि रहस्मयी भी रही है. सांपों को लेकर कई फिल्में भी बन चुकी हैं. सांपों के बारे में कई ऐसी बातें फेमस हैं, जो सिर्फ फिल्मी ही हैं, लेकिन लोग उसे सच मान लेते हैं. आइए आपको सांपों से जुड़े एक ऐसे तथ्यों के बारे में समझते हैं जिन्हें लेकर आम धारणा थोड़ी अलग है.नाचते नहीं हैं सांपआपको बता दें कि सांप पूरी तरह बहरा होता है. आपने देखा भी होगा कि सांप (Snake) के शरीर पर कहीं कान नहीं होते हैं. दरअसल सांप कभी सपेरे की बीन की धुन पर नाचता नहीं है. बल्कि वह सपेरे द्वारा बीन की आवाज से अपने शरीर को हिलाता है, जो कि देखने में ऐसा लगता है कि वह नाच रहा है, लेकिन ऐसा नहीं होता है. वह सांप के शरीर की सामान्य हरकत है.फन फैलाना सांप की सामान्य हरकतआपने अक्सर देखा होगा कि सपेरे की बीन के ऊपर बहुत सारे कांच के टुकड़े लगे हुए होते हैं, उन्हें लगाए जाने का एक कारण होता है, क्योंकि जब उन टुकड़ों के ऊपर धूप या रोशनी पड़ती है तो उनसे चमक निकलती है, जिससे कि सांप हरकत में आ जाता है.बीन की धुन नहीं सुन पाते सांपइसी कारण जब सपेरा बीन को बजा कर हिलाते हुए आवाज निकाल रहा होता है, तो इस प्रकाश की चमक के कारण सांप का ध्यान उस ओर आकर्षित होता है और सांप उसकी चाल का अनुसरण करता है और हमें यह भ्रम होता है कि सांप नाच रहा है. उन्हें धरती होने वाली तरंगे खतरे की तरह लगती हैं. इन्हीं तरंगों से बचने के लिए वह फन फैला लेते हैं.त्वचा से लेते हैं हालात का जायजादरअसल सांप कानों के स्थान पर अपनी त्वचा का इस्तेमाल करता है, वह अपने आसपास के वातावरण में हो रही किसी भी गतिविधि का जायजा अपनी त्वचा पर पड़ रही तरंगों के माध्यम से लेता है.
- वाशिंगटन। कोविड-19 या किसी फ्लू से बचने के लिए टीकाकरण कराने के बाद 90 मिनट तक हल्की या मध्यम स्तर की कसरत करके शरीर में एंटीबॉडी की मात्रा बढ़ाई जा सकती हैं। एक अध्ययन में यह दावा किया गया है। इस अध्ययन के निष्कर्ष ‘ब्रेन, बिहेवियर एंड इम्युनिटी' पत्रिका में प्रकाशित किए गए है।अध्ययन में शामिल जिन लोगों ने टीकाकरण कराने के बाद डेढ़ घंटे तक साइकिल चलाई या सैर की, उनमें आगामी चार सप्ताह में उन लोगों की तुलना में अधिक एंटीबॉडी बनीं, जिन्होंने टीकाकरण के बाद किसी प्रकार का व्यायाम नहीं किया था। अमेरिका स्थित ‘आयोवा स्टेट यूनिवर्सिटी' के अनुसंधानकर्ताओं ने भी चूहों और ट्रेडमिल का इस्तेमाल करके इसी प्रकार का प्रयोग किया, जिसका निष्कर्ष भी समान निकला। आयोवा स्टेट यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर मरियन कोहुट ने कहा कि इस बात के कई कारण हो सकते हैं कि लंबे समय तक हल्की या मध्यम स्तर की कसरत करने से शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता में सुधार क्यों होता है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार, व्यायाम करने से रक्त प्रवाह बढ़ता है, जो प्रतिरक्षा कोशिकाओं के संचार में मदद करता है और जब ये कोशिकाएं शरीर में प्रवाहित होती हैं, तो किसी बाहरी तत्व को बेहतर तरीके से उनके द्वारा पहचान लेने की संभावना अधिक होती है। कोहुट ने कहा, ‘‘लेकिन इसका कारण जानने के लिए और अनुसंधान की आवश्यकता है। जब हम कसरत करते हैं, तो शरीर में चयापचय, जैव रासायनिक, न्यूरोएंडोक्राइन और (रक्त एवं कोशिका के) संचार स्तर पर कई बदलाव होते हैं।'' उन्होंने कहा कि संभवत: इन कारकों के संयोजन के कारण एंडीबॉडी की मात्रा बढ़ती है।
- जनरल ऑफ स्लीप रिसर्च में एक स्टडी छपी है, जो कह रही है कि यदि सोने से पहले आप काफी देर तक टीवी देखते हैं, मोबाइल स्क्रीन देखते हैं, लैपटॉप, आईपैड या किसी भी अन्य प्रकार के डिजिटल स्क्रीन के सामने वक्त बिताते हैं तो आपकी नींद की क्वालिटी अच्छी नहीं होगी.हालांकि डिजिटल गैजेट्स आपकी नींद और स्वास्थ्य के लिए खतरा हैं, यह बताने वाली यह पहली स्टडी नहीं है. इस तरह के और भी लंबे सैंपल साइज वाले और ज्यादा गंभीरता से डिजिटल कंजम्पशन के सेहत पर पड़ने वाले प्रभावों की पड़ताल करते और बहुत से अध्ययन पहले हो चुके हैं. ये स्टडी हमें वही बात बता रही है, जो शायद हम अपने अनुभव से भी पहले से जानते हैं.इस स्टडी में शामिल लोगों को एक तरह के सेल्फ इक्जामिनेशन की प्रक्रिया में डालनेकी कोशिश की गई. प्रत्येक व्यक्ति को एक स्लीप जनरल मेंटेन करना था और सोने से पहले उसने कितना वक्त किस डिजिटल प्लेटफॉर्म पर और क्या देखते हुए बिताया, इस बात की पूरी डीटेल नोट करनी थी.शोधकर्ताओं ने उनके नींद के पैटर्न, नींद की अवधि आदि को वैज्ञानिक यंत्रों के जरिए मापने की कोशिश की. उन्होंने पाया कि जिस भी रात सोने से पहले उन्होंने ज्यादा वक्त डिजिटल स्क्रीन के सामने बिताया था, उस रात नींद की क्वालिटी, हार्ट रेट डिस्टर्ब रहीं. इसके ठीक उलट डिजिटल स्क्रीन पर वक्त न बिताने वाले लोगों की नींद की क्वालिटी ज्यादा बेहतर पाई गई.शोधकर्ताओं का कहना है कि यह कोई ऐसा अध्ययन नहीं है, जो आपको वैज्ञानिक यंत्रों से ही मापने की जरूरत हो. आप खुद भी अपने ऊपर यह प्रयोग करके देख सकते हैं. एक हफ्ते तक सोने से पहले देर रात तक टीवी देखना, मोबाइल पर वक्त बिताना या किसी भी तरह के डिजिटल स्क्रीन के सामने बैठना बंद कर दें. उसके बजाय किताबें पढ़ें, बातें करें या कुछ भी ऐसी गतिविधि में शामिल हों, जो डिजिटल नहीं है.आप खुद अपनी नींद की क्वालिटी में फर्क पाएंगे. शोधकर्ताओं का कहना है कि डिजिटल स्क्रीन से एक खास तरह की रेज निकलती है, जो मस्तिष्क की तंत्रिकाओं को उद्वेलित करने का काम करती है. मस्तिष्क शांत नहीं रहता. साथ ही हमारी आंखों पर भी उसका नकारात्मक असर पड़ता है. यही कारण है कि डिजिटल स्क्रीन पर ज्यादा समय बिताने के कारण हमारी नींद प्रभावित होती है क्योंकि मस्तिष्क की तंत्रिकाएं डिस्टर्ब हो जाती हैं.
- पर्थ (द कन्वरसेशन) ऑस्ट्रेलिया समेत दुनियाभर में कोरोना वायरस के ओमीक्रोन स्वरूप से लोगों के संक्रमित होने के साथ ही, उन लोगों के भी पुन: संक्रमित होने का खतरा है जो पहले कोविड से पीडि़त हो चुके हैं। यदि संक्रमण मुक्त होने के 30 दिन के भीतर आप पुन: संक्रमित होते हैं तो आपको दोबारा कोविड जांच करवाने या पृथक-वास में जाने की जरूरत नहीं है। कुछ देशों में आपको 90 दिन तक दोबारा जांच करवाने की जरूरत नहीं है जब तक कि आपके भीतर संक्रमण के कोई नए लक्षण नहीं हों। ऐसा क्यों होता है?शरीर में ओमीक्रोन के 'इन्क्यूबेशन' की अवधि क्या है?वायरस से संक्रमित होने और कोविड के लक्षण विकसित होने में एक से 14 दिन लगते हैं। इस समय को 'इन्क्यूबेशन' काल कहा जाता है। कुछ लोगों में संक्रमण के बाद पांचवें और छठे दिन से ही लक्षण दिखने लगते हैं। अध्ययन में सामने आया है कि ओमीक्रोन का 'मीडियन' (मध्य) इन्क्यूबेशन काल और भी कम है। अमेरिका और यूरोप में किये गए अध्ययन में पाया गया कि ओमीक्रोन का मीडियन इन्क्यूबेशन काल तीन दिन का है।ओमीक्रोन से पुन: संक्रमण में वृद्धिअनुसंधान में सामने आया है कि वायरस के पिछले स्वरूपों की तुलना में ओमीक्रोन उन लोगों को पुन: संक्रमित करने में अधिक सक्षम है जो पहले कोविड से पीडि़त हो चुके हैं। इम्पीरियल कॉलेज लंदन के एक दल ने अनुमान लगाया है कि डेल्टा की अपेक्षा ओमीक्रोन से, दोबारा संक्रमित होने का खतरा 5.4 गुना अधिक है। इसलिए जिन्हें ओमीक्रोन से पहले के स्वरूपों से कोविड हो चुका है उन्हें वायरस के डेल्टा स्वरूप की तुलना में ओमीक्रोन से पुन: संक्रमित होने का खतरा पांच गुना ज्यादा है।दोबारा जांच कराने से पहले कब तक इंतजार करना चाहिए?दुनियाभर में हुए अध्ययन से पता चला है कि एक बार संक्रमित होने के बाद 30-90 दिन तक आपको दोबारा जांच कराने की जरूरत नहीं है। वायरस से संक्रमित होकर ठीक होने के बाद ज्यादातर लोगों में कुछ प्रतिरक्षा विकसित हो जाती है इसलिए उन्हें इतने कम समय में पुन: संक्रमित होने का खतरा कम होता है। इटली में संक्रमण फैलने का केंद्र रहे एक स्थान पर किये गए अध्ययन में सामने आया कि जिन लोगों को कोविड हो चुका है, उन्हें पुन: संक्रमण होने पर कम से कम चार सप्ताह बाद दोबारा जांच करानी चाहिए। अध्ययन में सामने आया कि संक्रमण की पहली बार पुष्टि होने के बाद वायरस को शरीर से निकलने में औसतन 30 दिन का समय लगता है और पहली बार लक्षण आने के लगभग 36 दिन बाद शरीर संक्रमण मुक्त होता है।
- काठमांडू। नेपाल में अनुसंधानकर्ताओं ने मंगलवार को चेतावनी दी कि माउंट एवरेस्ट पर स्थित सबसे बड़ा ग्लेशियर इस शताब्दी के मध्य तक गायब हो सकता है क्योंकि विश्व की सबसे ऊंची पर्वतीय चोटी पर स्थित दो हजार साल पुराना हिमखंड तेजी से पिघल रहा है। यहां स्थित ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट' (आईसीआईएमओडी) ने हाल में प्रकाशित एक शोधपत्र के हवाले से कहा कि एवेरेस्ट पर 1990 के दशक से लगातार बड़ी मात्रा में बर्फ पिघल रही है। आईसीआईएमओडी ने कहा कि एवरेस्ट पर किये गए सबसे व्यापक वैज्ञानिक अध्ययन ‘द एवरेस्ट एक्सपेडिशन' के तहत ग्लेशियरों पर गहन अनुसंधान किया। ‘नेचर पोर्टफोलियो' में हाल में प्रकाशित एक आलेख में कहा गया कि एवरेस्ट पर बर्फ बेहद तेजी से पिघल रही है। इस अनुसंधान में आठ देशों से वैज्ञानिकों ने भाग लिया जिसमें से 17 नेपाल के हैं। अध्ययन में शामिल तीन सह लेखक आईसीआईएमओडी से सम्बद्ध हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि ऐसा अनुमान लगाया गया है कि 8,020 मीटर की ऊंचाई पर स्थित साउथ कोल ग्लेशियर लगभग दो मीटर प्रति वर्ष की दर से पिघल रहा है। अनुसंधानकर्ताओं ने ‘रेडियो कार्बन डेटिंग' के माध्यम से पता लगाया है कि ग्लेशियर दो हजार साल पुराना है। उन्होंने अंदेशा जताया है कि सबसे ज्यादा ऊंचाई पर स्थित यह ग्लेशियर इस सदी के मध्य तक पिघल जाएगा। अनुसंधान में कहा गया है कि इसका कारण जलवायु परिवर्तन हो सकता है।
- मेलबर्न। व्यापक रूप से उपलब्ध और रक्त को पतला करने वाली सस्ती एवं किफायती दवा हेपरिन संभवत: कोविड-19 का उपचार कर सकती है। यह बात एक अध्ययन के शुरुआती परिणामों में कही गई है। अध्ययन में यह भी कहा गया कि यह दवा सांस के जरिए लिए जाने पर फेफड़ों की क्षति को सीमित कर सकती है और कोरोना वायरस से होने वाले संक्रमण को भी रोक सकती है। ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी (एएनयू) के अनुसंधानकर्ता और उनके सहकर्मी 13 देशों में अस्पतालों में सार्स-कोव-2 से संक्रमित उन मरीजों पर नज़र रख रहे हैं, जिन्हें सांस के जरिए हेपरिन की खुराक दी गई। ब्रिटिश जर्नल ऑफ क्लिनिकल फार्माकोलॉजी में प्रकाशित 98 रोगियों के प्रारंभिक परिणामों में कहा गया है कि हेपरिन एक आशाजनक उपचार हो सकता है और यह वायरस के खिलाफ एक संभावित निवारक भी हो सकती है। अध्ययन में कहा गया है कि दवा कोरोना वायरस संक्रमण का उपचार करने के साथ ही संक्रमण को रोकने में भी मददगार हो सकती है।
- भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपतिश्रीमती प्रतिभा पाटिल भारत की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं। वे 2007 से 2012 तक पांच वर्ष अपने पद पर रहीं। इससे पहले वे 1985 से 1990 तक राज्यसभा सांसद और1991 से 1996 तक लोकसभा सदस्य थीं। मूल रूप से महाराष्ट्र की रहने वाली प्रतिभा पाटिल 1962 से ही कांग्रेस से जुड़ी हुई थी। उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास से संबंधित कई काम किए।भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्रीभारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु की बेटी इंदिरा गांधी देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनीं। लाल बहादुर शास्त्री जी के निधन के बाद 11 जनवरी 1966 को वह देश के सबसे शक्तिशाली पद पर आसीन हुईं थीं। 1975 में देश में आपातकाल लगाने का फैसला हो या भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उनकी कूटनीति रही हो, लोग इनके साहसिक फैसलों की वजह से 'आयरन लेडी' भी कहते हैं।भारत की प्रथम महिला आईपीएसकिरण बेदी 1972 में भारत की पहली महिला आईपीएस बनीं। मूल रुप से पंजाब की रहने वाली किरण बेदी ने संयुक्त राष्ट्र शांति प्रबंधन विभाग में पुलिस सलाहकार के रूप में भी काम किया है। तिहाड़ जेल के प्रमुख के रूप में उन्हें कैदियों के पुनर्वास के कदमों के लिए जाना जाता है। वर्तमान में किरण बेदी पांॅडिचेरी की उप राज्यपाल हैं।भारत की प्रथम महिला डीजीपीआईपीएस कंचन चौधरी भट्टाचार्य देश की पहली महिला पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) बनीं थी। 1973 बैच की भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) की यूपी कैडर की अधिकारी थीं। बाद में वे उत्तराखंड चली गईं. 2004 में कंचन चौधरी भट्टाचार्य को उत्तराखंड में जब पुलिस महानिदेशक बनाया गया था। वे देश की दूसरी महिला आईपीएस भी थीं।भारत की प्रथम महिला लोकसभा अध्यक्षराजनयिक से नेता बनने वाली कांग्रेस की मीरा कुमार लोकसभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं। वर्ष 1980 के दशक के मध्य में राजनीति में शामिल होने वाली मीरा कुमार 2009 में लोकसभा अध्यक्ष पद पर चुनी गईं और 2014 तक आसीन रहीं। मीरा कुमार कांग्रेस के दिवंगत नेता जगजीवन राम की पुत्री हैं।भारत की प्रथम महिला मिस यूनीवर्ससुष्मिता सेन पहली ऐसी भारतीय महिला हैं, जिन्हें मिस यूनिवर्स का खिताब मिला था। सुिष्मता सेन ने 21 मई 1994 को इस खिताब को अपने नाम किया था। सुष्मिता सेन ने बॉलीवुड में काम किया है और कई हिट फिल्में उनके नाम है।माउंट एवरेस्ट पर चढऩे वाली प्रथम भारतीय महिलाबछेन्द्री पाल हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर चढऩे वाली पहली भारतीय महिला हैं। 23 मई 1984 का दिन भारतीय इतिहास में दर्ज हो गया क्योंकि इसी दिन बछेंद्री पाल ने माउंट एवरेस्ट की चोटी को फतह किया था। यह उपलब्धि उन्होंने 29 साल की उम्र में अपने नाम की थी।अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाली प्रथम अभिनेत्रीजानी-मानी फिल्म अभिनेत्री नरगिस दत्त हिंदी सिनेमा की मशहूर अभिनेत्रियों में से एक थीं। वे अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली भारतीय अभिनेत्री थीं। वे पहली अभिनेत्री थीं, जिन्हें राज्यसभा के लिए नामांकित किया गया और पद्मश्री पुरस्कार दिया गया। वे एक ऐसी अदाकारा रहीं जिन्होंने फिल्म इंडस्ट्री को नई ऊंचाईं पर पहुंचाया।भारतरत्न प्राप्त करने वाली प्रथम गायिकालता मंगेशकर पहली भारतीय गायिका हैं, जिन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 13 साल की उम्र में अपने करियर की शुरुआत करने वाली लता मंगेशकर ने 75 सालों तक अपनी आवाज की बदौलत लोगों की दिलों पर राज किया।. 36 भारतीय भाषाओं में गीत गाने वाली लता मंगेशकर को 2001 में भारत रत्न से नवाजा गया। इन्हें 'स्वर कोकिला' भी कहा गया।
- क्वींसलैंड। सार्स-कोव-2 के वेरिएंट ओमिक्रोन के मामले पिछले दो महीनों में वैश्विक स्तर पर बढ़े हैं और कई देशों में तो पिछले वेरिएंट की तुलना में कहीं ज्यादा मामले आए हैं। अब हम ओमिक्रोन के उप-संस्करण के मामले देख रहे हैं, जिसे बीए.2 का नाम दिया गया है और ऑस्ट्रेलिया सहित 50 से अधिक देशों में यह जोर पकड़ रहा है। इस नये उप संस्करण को ओमिक्रोन वेरिएंट बीए.1 (या बी.1.1.529) की बेटी कहने की बजाय, ओमिक्रोन की बहन कहना ज्यादा ठीक होगा।वायरस, और विशेष रूप से आरएनए वायरस जैसे सार्स-कोव-2, प्रजनन करते समय बहुत सारी गलतियां करते हैं। वे इन गलतियों को ठीक नहीं कर सकते हैं, इसलिए उनमें त्रुटियों, या उत्परिवर्तन की अपेक्षाकृत उच्च दर है, और वह लगातार विकसित हो रहे हैं। जब इन उत्परिवर्तन के परिणामस्वरूप किसी वायरस का आनुवंशिक कोड बदल जाता है, तो इसे मूल वायरस के एक वेरिएंट के रूप में संदर्भित किया जाता है। ओमिक्रोन एक बिलकुल अलग तरह का वेरिएंट है, जिसमें स्पाइक प्रोटीन में 30 से अधिक उत्परिवर्तन समाहित होते हैं। इसने पूर्व संक्रमण और टीकाकरण दोनों से एंटीबॉडी की सुरक्षा को कम कर दिया है, और संचरण क्षमता में वृद्धि की है। स्वास्थ्य अधिकारी नए संस्करण के बारे में कब चिंता करते हैं? यदि आनुवंशिक कोड में होने वाले परिवर्तन के बारे में यह माना जाए कि वह वायरस को अधिक हानिकारक बनाने की क्षमता रखते हैं और कई देशों में इसका अधिक संचरण होता है, तो इसे ''ध्यान देने योग्य वेरिएंट'' माना जाएगा। यदि ध्यान देने योग्य यह वेरिएंट अधिक संक्रामक दिखे, टीकाकरण या पिछले संक्रमण से सुरक्षा से बचने, और/या परीक्षणों या उपचार की प्रक्रिया को प्रभावित करे, तो इसे ''चिंता का प्रकार'' का नाम दिया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 26 नवंबर को ओमिक्रोन को चिंता का एक प्रकार वर्गीकृत किया। इसकी उच्च पुनर्संक्रमण दर, बढ़ी हुई संप्रेषणीयता और कम टीका सुरक्षा के कारण ऐसा किए जाने की संभावना है। ओमिक्रोन की वंशावली क्या है?एक वंश, या उप-संस्करण, एक सामान्य पूर्वज से प्राप्त वायरस वेरिएंट का आनुवंशिक रूप से निकट से संबंधित समूह है। ओमिक्रोन संस्करण में तीन उप-वंश शामिल हैं: बी.1.1.529 या बीए.1, बीए.2 और बीए.3।डब्ल्यूएचओ ने हालांकि बीए.2 को एक अलग वर्गीकरण नहीं दिया है, यूनाइटेड किंगडम ने बीए.2 को ''जांच के तहत'' एक वेरिएंट की श्रेणी में रखा है। तो डब्ल्यूएचओ की परिभाषाओं के आधार पर अभी तक यह ध्यान देने लायक या चिंता का एक प्रकार नहीं है, लेकिन इसपर बारीकी से नजर रखी जा रही है। उप-वंशों वाला यह पहला संस्करण नहीं है। पिछले साल के अंत में, डेल्टा ''प्लस'' या एवाई.4.2 व्यापक रूप से सामने आया था, फिर ओमिक्रोन आया। बीए.2 के बारे में क्या अलग है?बीए.2 के शुरूआती उपक्रम फिलीपीन से मिले थे - और अब हमने इसके हजारों मामले देखे हैं, जो अमेरिका, यूके और ऑस्ट्रेलिया में देखे गए हैं, हालांकि इसकी उत्पत्ति अभी भी अज्ञात है। बीए.2 के सटीक गुणों की भी जांच की जा रही है। हालांकि अभी तक इस बात का कोई सबूत नहीं है कि यह अधिक गंभीर बीमारी का कारण बनता है, वैज्ञानिकों को कुछ विशेष चिंताएं हैं।1. अंतर करना कठिन हैएक मार्कर जिसने पीसीआर परीक्षणों के दौरान ओमिक्रोन (बीए.1) को अन्य सार्स-कोव-2 वेरिएंट से अलग करने में मदद की, वह है एस जीन की अनुपस्थिति, लेकिन बीए.2 के लिए ऐसा नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम पीसीआर परीक्षणों के साथ बीए.2 का निदान नहीं कर सकते। इसका सीधा सा मतलब है कि जब कोई सार्स-कोव-2 के लिए सकारात्मक परीक्षण करता है, तो हमें जीनोम अनुक्रमण के माध्यम से यह जानने में थोड़ा अधिक समय लगेगा कि कौन सा संस्करण जिम्मेदार है। पिछले वेरिएंट के साथ भी ऐसा ही था। 2. यह अधिक संक्रामक हो सकता हैसबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि इस बात के सबूत उभर रहे हैं कि बीए.2 मूल ओमिक्रोन, बीए.1 की तुलना में अधिक संक्रामक हो सकता है। डेनमार्क से एक प्रारंभिक अध्ययन, जहां बीए.2 ने बड़े पैमाने पर बीए.1 की जगह ले ली है, यह सुझाव देता है कि बीए.1 की तुलना में बीए.2 बिना टीकाकरण वाले लोगों में संक्रमण की संवेदनशीलता को दो गुना बढ़ा देता है। अध्ययन ने बीए.2 के 2,000 से अधिक प्राथमिक मामलों की जांच की ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि सात दिनों की अनुवर्ती अवधि के दौरान कितने मामले सामने आए। शोधकर्ताओं ने बीए.1 से संक्रमित लोगों में द्वितीय हमले की दर (मूलत:, संभाव्यता संक्रमण) 29त्न होने का अनुमान लगाया है, जबकि बीए.2 से संक्रमित लोगों के लिए यह 39त्न है। यह डेनिश अध्ययन अभी भी एक प्री प्रिंट है, जिसका अर्थ है कि इसे स्वतंत्र वैज्ञानिकों द्वारा जांचा जाना बाकी है, इसलिए यह पुष्टि करने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है कि क्या बीए.2 वास्तव में बीए.1 से अधिक संक्रामक है।