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नयी दिल्ली. रोजमर्रा की जिंदगी में अगर आप केवल चार पांच मिनट इतनी कड़ी मेहनत वाला काम कर लें जिससे आपको पसीना आ जाए और आप हांफने लगें तो इस मेहनत से आपको कैंसर होने का खतरा 32 प्रतिशत तक कम हो जाता है । एक अध्ययन में यह बात कही गयी है। जामा ऑन्कोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन में ऐसे 22000 लोगों की रोजमर्रा की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए उनके शरीर पर विशेष उपकरण लगाये गये और जरूरी आंकड़े जुटाये गये जो कड़ी कसरत नहीं करते हैं। आस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने कैंसर पर नजर रखने के लिए करीब सात सालों तक इस समूह के स्वास्थ्य रिकार्ड का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि बीच-बीच में चार या पांच मिनट की कड़ी शारीरिक मेहनत वाली जीवनशैली वाले लोगों में उन लोगों की तुलना में कैंसर का कम खतरा होता है जो ‘कड़ी मेहनत' नहीं करते हैं। पसीना बहा देने वाली चंद मिनट की गतिविधियों में कड़ी मेहनत वाला घरेलू कामकाज, किराने की दुकान से भारी सामान की खरीदारी, बहुत तेज कदमों से चलना, बच्चों के साथ थकाने वाला खेल खेलना आदि शामिल हैं। अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि जो वयस्क इस तरह की पसीना बहा देने वाली मेहनत नहीं करते हैं उनमें छाती, कोलोन जैसे अंगों का कैंसर होने का जोखिम बढ़ जाता है । इस अध्ययन के लेखक प्रोफेसर इमैन्युअल स्टामैटाकिस ने कहा, हम जानते हैं कि अधेड़ उम्र के लोग नियमित रूप से कसरत नहीं करते हैं जिससे उनमें कैंसर का खतरा बढ़ जाता है लेकिन गतिविधि ट्रैकर जैसे पहनने वाले उपकरणों के आने के बाद हम रोजमर्रा की जिंदगी में अचानक की जाने वाली मेहनत संबंधी गतिविधियों का प्रभाव देख पाये।'' उन्होंने कहा कि यह देखना बहुत ही शानदार है कि रोजमर्रा की जिंदगी में महज चार या पांच मिनट की कड़ी मेहनत और कैंसर का जोखिम कम होने के बीच संबंध है।
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नयी दिल्ली. लद्दाख स्थित हिमालयी पार्काचिक ग्लेशियर के पिघलने की गति तेज होने से तीन झीलों का निर्माण हो सकता है जिनकी औसत गहराई 34 से 84 मीटर तक हो सकती है। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है। देहरादून स्थित वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि संभव है कि ये झील हिमालीय क्षेत्र में बाढ़ लाने का कारण बनें। पार्काचिक ग्लेशियर सुरु नदी घाटी के सबसे बड़े ग्लेशियर में से एक है और यह पश्चिमी हिमालय की दक्षिण जन्स्कार श्रृंखला का हिस्सा है। जन्स्कार श्रृंखला हिमालय में अवस्थित है और केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख में अवस्थित है। पत्रिका ‘एन्नल्स ऑफ ग्लेशियोलॉजी' में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, वैज्ञानिकों ने ग्लेशियर के पिघलने की दर का पता लगाने के लिए 1971 से 2021 के बीच उपग्रह आंकड़ों का विश्लेषण किया जिसके मुताबिक 1971 से 1999 (28 साल) के मुकाबले 1999 से 2021 (इक्कीस साल) में छह गुना अधिक गति से ग्लेशियर पिघला। अध्ययन के मुताबिक, हिमनदों के पीछे हटने का कारण जलवायु परिवर्तन है, जो ग्लेशियरों की सतह में बदलाव या भूवैज्ञानिक परिवर्तनों का भी कारण बनता है। वैज्ञानिकों ने बताया कि तेजी से पीछे हटते हिमनद के साथ भू सतह में बदलाव की वजह से झील बन रही हैं और इनका विस्तार हो रहा है जो हिमालय में बाढ़ का कारण बन सकती हैं। ग्लेशियर से झील तब बनती है जब घर्षण से सतह गहरी होती है और वह पिघल जाती है।
अध्ययन के मुताबिक, वैज्ञानिकों ने तीन स्थानों की पहचान की है जहां पर ग्लेशियर से झील बन सकती है और इनका आकार 43 से 270 हेक्टेयर हो सकता है। - बेंगलुरु. भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) और निगाता विश्वविद्यालय, जापान के वैज्ञानिकों ने हिमालय में करीब 60 करोड़ वर्ष पुराने समुद्री जल की खोज की है। समुद्री जल की ये बूंदें खनिज भंडारों के बीच थीं। बेंगलुरु स्थित आईआईएससी ने बृहस्पतिवार को एक विज्ञप्ति में यह जानकारी दी। विज्ञप्ति के अनुसार वहां एकत्र निक्षेपण में कैल्शियम और मैग्नीशियम कार्बोनेट दोनों थे। इसमें कहा गया है कि निक्षेपण के विश्लेषण से टीम को उन संभावित घटनाओं की जानकारी मिली जिनके कारण पृथ्वी के इतिहास में एक बड़ी ऑक्सीजनिकरण की घटना हुई होगी। बयान के अनुसार, वैज्ञानिकों का मानना है कि 70 से 50 करोड़ वर्ष पहले, पृथ्वी बर्फ की मोटी चादरों से ढकी थी। इसमें कहा गया है कि इसके बाद पृथ्वी के वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि हुई जिससे जटिल जीवन रूपों का विकास हुआ। आईआईएससी ने कहा कि वैज्ञानिक अब तक, यह ठीक से नहीं समझ पाए हैं कि अच्छी तरह से संरक्षित जीवाश्मों की कमी और पृथ्वी के इतिहास में मौजूद सभी पुराने महासागरों के लुप्त होने की वजह का आपस में क्या संबंध था। उसने कहा कि हिमालय में ऐसी समुद्री चट्टानों का पता चलने से कुछ उत्तर मिल सकते हैं। सेंटर फॉर अर्थ साइंसेज (सीईएएस), आईआईएससी के शोधार्थी और 'प्रीकैम्ब्रियन रिसर्च' पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के पहले लेखक प्रकाश चंद्र आर्य ने कहा, ‘‘ हम पुराने महासागरों के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं। वे वर्तमान महासागरों की तुलना में कितने अलग या समान थे? क्या वे अधिक अम्लीय या क्षारीय, पोषक तत्वों से भरपूर, गर्म या ठंडे थे, उनकी रासायनिक और समस्थानिक संरचना क्या थी?" उन्होंने कहा कि इस तरह के विश्लेषण से पृथ्वी पर प्राचीन जलवायु के बारे में जानकारी मिल सकती है।
- नयी दिल्ली. राष्ट्रीय राजधानी स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के एक नए अध्ययन में कहा गया है कि भारत में 38 फीसदी लोग गैर-अल्कोहलिक वसायुक्त यकृत (फैटी लीवर) की बीमारी से पीड़ित हैं। यानी यह बीमारी उन लोगों को होती है जो मदिरा का उपयोग नहीं करते या न के बराबर करते हैं। यह बीमारी केवल वयस्कों तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे करीब 35 फीसदी बच्चे भी प्रभावित हैं। इस रिपोर्ट में भारत में गैर-अल्कोहलिक ‘फैटी लीवर' रोग पर प्रकाशित विभिन्न रिपोर्ट का विश्लेषण किया गया है। यह अध्ययन रिपोर्ट जून, 2022 में ‘जर्नल ऑफ क्लिनिकल एंड एक्सपेरिमेंटल हेपेटोलॉजी' में प्रकाशित हुई। गैर-अल्कोहलिक वसायुक्त यकृत रोग (एनएएफएलडी) अकसर पकड़ में नहीं आता क्योंकि शुरुआती चरण में इसके लक्षण नहीं दिखते, लेकिन कुछ मरीजों में यह यकृत के गंभीर रोग के रूप में दिख सकता है। उदर रोग विज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ. अनूप सराया ने कहा, ‘‘वसायुक्त यकृत या ‘स्टीटोहेपेटाइटिस' का कारण हमारे आहार का हालिया पश्चिमीकरण है जिसमें फास्ट फूड का बढ़ता सेवन, स्वास्थ्यवर्धक फलों और सब्जियों का कम सेवन और एक अस्वास्थ्यकर तथा गतिहीन जीवन शैली शामिल है।'' उन्होंने कहा कि ‘फैटी लीवर' के उपचार के लिए वर्तमान में कोई अनुमोदित दवा नहीं है, लेकिन बीमारी को ठीक किया जा सकता है। सराया ने कहा, ‘‘इस बीमारी को हराने का केवल एक तरीका है कि हम स्वास्थ्यवर्धक जीवन शैली अपनाएं और मोटापे से पीड़ित लोगों को पर्याप्त आहार मुहैया कराते हुए उनका वजन घटाएं।'' विशेषज्ञों ने कहा कि भारत में वसायुक्त यकृत का एक आम कारण मदिरा का सेवन है। डॉ. सराया ने कहा, ‘‘यकृत की गंभीर क्षति के अधिकतर मामले शराब के कारण होते हैं। 'एक्यूट क्रॉनिक लीवर फेल्योर' के ऐसे मरीजों को अस्पतालों में भर्ती कराया जाता है, तो इनमें मृत्यु दर अधिक होती है।'' उन्होंने कहा कि जो चीज इस मामले को बदतर बनाती है, वह है इस बीमारी से ठीक हुए रोगियों के दोबारा इस बीमारी से पीड़ित होने की उच्च दर। उन्होंने कहा कि अल्कोहलिक हेपेटाइटिस के इलाज के लिए कोई विशिष्ट दवा उपलब्ध नहीं है। सराया ने कहा कि इस घातक बीमारी से बचने का एकमात्र तरीका शराब के सेवन से बचना है क्योंकि कोई भी शराब यकृत के लिए ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि तपेदिक के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाओं, एंटीबॉयोटिक, एंटीपाइलेप्टिक दवाओं और कीमोथेरेपी से भी यकृत को नुकसान पहुंचता है। तपेदिक रोधी दवा से संबंधित ‘तीव्र यकृत विफलता' वाले रोगियों में 67 प्रतिशत की मौत हो जाती है।
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नयी दिल्ली. बिग-बैंग के बाद नवजात ब्रह्मांड आज के मुकाबले पांच गुना धीमा था। एक अध्ययन में यह दावा किया गया है। इस अध्ययन में आइंस्टीन की ब्रह्मांड के विस्तारित होने की पहेली को सुलझा लेने का दावा भी किया गया है। ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय में कार्यरत और अध्ययन के प्रमुख लेखक के. गेरेंट लुईस ने कहा, ‘‘उस समय पर नजर डालें जब ब्रह्मांड सिर्फ एक अरब वर्ष से अधिक पुराना था, तो हमें समय पांच गुना धीमी गति से गुजरता दिखाई देता है।'' आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत कहता है कि किसी वस्तु को जितना अधिक दूरी से देखा जाता है, जैसे कि एक पुरातन ब्रह्मांड, वह वर्तमान दिन के मुकाबले धीमी गति से चलता है। दो दशकों में प्रारंभिक आकाशगंगाओं के केंद्रों पर 190 क्वासर या अतिसक्रिय विशाल ब्लैक होल के विवरण की जांच करते हुए खगोलविदों ने समय पटल को वर्तमान चरण के दसवें हिस्से तक पीछे किया और पुष्टि की कि ब्रह्मांड उम्र बढ़ने के साथ-साथ तेज होता जा रहा है। यह अध्ययन ‘नेचर एस्ट्रोनॉमी' नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है। अध्ययन में आइंस्टीन को यह बताने के लिए धन्यवाद दिया गया है कि समय और ‘स्पेस' आपस में जुड़े हुए हैं और बिग बैंग के बाद से ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है। -
नयी दिल्ली. आर्कटिक महासागर अनुमान से लगभग दस साल पहले ही यानी 2030 के दशक तक समुद्री बर्फ से मुक्त पहली गर्मी का सामना कर सकता है। ‘नेचर कम्युनिकेशन्स' पत्रिका में प्रकाशित एक नये अनुसंधान में यह दावा किया गया है। इससे आर्कटिक क्षेत्र में गर्मी बढ़ेगी, समुद्री गतिविधियों में बदलाव आएगा और आर्कटिक कार्बन चक्र प्रभावित होगा, जिससे आर्कटिक क्षेत्र और उसके बाहर, दोनों ही जगहों पर मानव समाज तथा परिस्थितिकी तंत्र पर असर पड़ेगा। दक्षिण कोरिया, कनाडा और जर्मनी के अनुसंधानकर्ताओं ने भविष्यवाणी की है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन परिदृश्य से इतर आर्कटिक महासागर में बर्फ रहित पहली गर्मी पूर्व में लगाए गए अनुमान से एक दशक पहले ही देखने को मिल सकती है। अनुसंधान में कहा गया है कि आर्कटिक महासागर में बर्फ का दायरा हाल के दशकों में लगातार पूरे साल सिकुड़ता जा रहा है। जबकि, इस महासागर में साल की अलग-अलग अवधि में बर्फ का दायरा घटता या बढ़ता है। सर्दियों में आर्कटिक महासागर में अतिरिक्त बर्फ जमने से बर्फ का दायरा बढ़ जाता है, जो मार्च में उच्चतम स्तर पर पहुंच जाता है। वहीं, गर्मियों में बर्फ पिघलने के कारण सितंबर में इस महासागर में बर्फ का दायरा न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाता है। अनुसंधान में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि, आर्कटिक क्रायोस्फीयर में मानव गतिविधियों में इजाफे और 1980 के दशक में अल चिचोन ज्वालामुखीय विस्फोट के बाद एयरोसोल के उत्सर्जन में कमी को आर्कटिक में पूरे साल बर्फ पिघलने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। अनुसंधान के दौरान, अनुसंधानकर्ताओं ने उपग्रह डेटा और उन्नत जलवायु मॉडल के अध्ययन के अलावा 1979 से 2019 के बीच आर्कटिक महासागर में हर महीने बर्फ के दायरे में आने वाले बदलावों का विश्लेषण किया। अनुसंधानकर्ताओं ने कहा, “हमारा आकलन संकेत देता है कि आर्कटिक महासागर अगले एक या दो दशक में पहली बार बर्फ रहित गर्मी का गवाह बन सकता है, वो भी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में होने वाले बदलावों के इतर।” उन्होंने आगाह किया, “इससे आर्कटिक क्षेत्र में गर्मी बढ़ेगी, समुद्री गतिविधियों में बदलाव आएगा और आर्कटिक कार्बन चक्र प्रभावित होग, जिससे आर्कटिक क्षेत्र और उसके बाहर, दोनों ही जगहों पर मानव समाज तथा परिस्थितिकी तंत्र पर असर पड़ेगा।”
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नयी दिल्ली. अस्वास्थ्यकर आहार का सेवन करने से गहरी नींद की गुणवत्ता पर असर पड़ता है। यह बात एक अध्ययन में कही गई है। गहरी नींद यानी नींद का तीसरा चरण स्मृति, मांसपेशियों की वृद्धि और प्रतिरक्षा जैसी आवश्यक चीजों को दुरुस्त और पुनर्स्थापित करता है। स्वीडन के उप्साला विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने यह विश्लेषण किया कि नींद को ‘जंक फूड' कैसे प्रभावित करता है। अध्ययन में शामिल स्वस्थ लोगों ने अनियमित क्रम में अस्वास्थ्यकर और स्वास्थ्यकर आहार का सेवन किया। अध्ययन रिपोर्ट हाल में ‘ओबेसिटी' पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसमें कहा गया कि जंक फूड खाने के बाद प्रतिभागियों की गहरी नींद की गुणवत्ता खराब हो गई, जबकि स्वास्थ्यकर आहार के सेवन के बाद ऐसा नहीं हुआ। उप्साला विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर जोनाथन सेडर्नैस ने कहा, "खराब आहार और खराब नींद दोनों से ही स्वास्थ्य के लिए जोखिम को बढ़ता है।" अध्ययन के दो सत्रों में सामान्य वजन वाले कुल 15 स्वस्थ युवकों ने भाग लिया। प्रतिभागियों को बेतरतीब ढंग से स्वास्थ्यकर और अस्वास्थ्यकर आहार दिया गया। दोनों आहारों में कैलोरी की मात्रा समान रखी गई।
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-मदर्स डे 14 मई पर विशेष
हर वर्ष मई महीने के दूसरे रविवार को विश्व भर में मदर्स डे मनाया जाता है. मां को समर्पित ये दिन इस बार 14 मई को मनाया जाएगा. आखिरकार मां ही वो इंसान है, जो जन्म देने से लेकर हर सुख-दुख में अपने बच्चे के साथ हमेशा खड़ी रहती है. इसी वजह से मां की अहमियत को शब्दों में बयां कर पाना किसी के लिए भी आसान नहीं होता है.
वैसे तो किसी एक दिन को मां के नाम समर्पित करना, किसी के लिए भी काफी नहीं होता है. इसके बावजूद मां के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए इस दिन को सेलिब्रेट किया जाता है. तो आइए मदर्स डे के इस मौके पर हम आपको बताते हैं कि आखिर मातृत्व दिवस मनाने के पीछे की वजह क्या है और इसको कब से मनाया जा रहा है.
मदर्स डे का इतिहास
मातृत्व दिवस मनाने की शुरुआत अमेरिकन महिला एना जॉर्विस ने की थी. एना जॉर्विस ने मदर्स डे की नींव रखी, लेकिन मदर्स डे को मनाने की शुरुआत औपचारिक रूप से 9 मई 1914 को अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने की थी. उस समय अमेरिकी संसद में कानून पास करके हर साल मई महीने के दूसरे संडे को मदर्स डे मनाने का फैसला लिया गया. तब से अमेरिका, यूरोप और भारत सहित कई देशों में मदर्स डे धूमधाम के साथ मनाया जाने लगा.
मदर्स डे मनाने का उद्देश्य
अमेरिकन महिला एना जॉर्विस को अपनी मां से बहुत ज्यादा प्यार और लगाव था. एना अपनी मदर से बहुत इंस्पायर हुआ करतीं थीं और उन्होंने अपनी मां की मृत्यु के बाद शादी न करने का फैसला लिया था. एना ने अपना सारा जीवन अपनी मदर के नाम करने का संकल्प लिया और अपनी मां को सम्मान देने के उद्देश्य से मदर्स डे की शुरूआत की. इसके लिए एना ने इस तरह की तारीख चुनी कि वह उनकी मां की पुण्यतिथि 9 मई के आस-पास ही पड़े. यूरोप में इस दिन को मदरिंग संडे कहा जाता है, तो वहीं ईसाई समुदाय से जुड़े बहुत लोग इस दिन को वर्जिन मेरी के नाम से भी पुकारते हैं.
मदर्स डे का महत्व
वैसे तो हर कोई अपनी मां के महत्त्व को अच्छी तरीके से समझता है. लेकिन इस बात का अहसास मां को नहीं करवा पाता है. ऐसे में मां को उनकी अहमियत का अहसास करवाने और उनको स्पेशल फील करवाने के लिए मदर्स डे को सेलिब्रेट किया जाता है. भारत में हर कोई इस दिन को अपने अलग अंदाज में मनाने की कोशिश करता है. कुछ लोग मां को उनका फेवरेट तोहफा या ग्रीटिंग्स देकर मदर्स डे विश करते हैं. तो वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस दिन मां को घर के कामों से छुट्टी देकर बाहर घुमाने भी ले जाते हैं. सोशल मीडिया पर भी मदर्स डे के सम्बन्ध में कई सारे कोट्स शेयर किए जाते हैं. -
नयी दिल्ली. मादक पदार्थ दुरुपयोग की समस्या अगले दशक में विकराल रूप ले सकती है और विशेष रूप से 10 से 17 साल की आयु के बच्चों को प्रभावित कर सकती है। एक अध्ययन के बुधवार को जारी प्राथमिक निष्कर्षों में यह बात सामने आई। स्वतंत्र थिंकटैंक ‘थिंक चेंज फोरम' के अध्ययन में सामने आया कि मानसिक सेहत से जुड़े मुद्दे, कामकाज का दबाव, बढ़ता खालीपन और बदलती सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का इस आयु वर्ग पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है और ये नशे की लत की ओर बढ़ने लगते हैं। अध्ययन के अनुसार मादक पदार्थों के बढ़ते दुरुपयोग का प्रभाव भारत के शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में होगा। भारत में कोरोना वायरस महामारी के बाद ऐसे पदार्थों की विशेष रूप से युवाओं और किशोरों में खपत चिंताजनक तरीके से बढ़ी है और इसके मद्देनजर ‘थिंक चेंज फोरम' ने इस तरह की लत की समस्या का विश्लेषण कर इसके समाधानों की सिफारिश करने के लिए विशेषज्ञों के परामर्श पर आधारित राष्ट्रीय अध्ययन शुरू किया है। प्रारंभिक नतीजों में तीन महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों की ओर इशारा किया गया है जिनसे किशोरों और युवाओं के बीच नशीले पदार्थों का उपयोग बढ़ रहा है और इन्हें तत्काल कम करने के लिए तीन महत्वपूर्ण हस्तक्षेप जरूरी बताये गये हैं। अध्ययन के अनुसार नशीले पदार्थों को लेकर चमक-दमक का माहौल भारत में इनका उपयोग बढ़ने की पहली अहम प्रवृत्ति है। टेडेक्स वक्ता और अभिभावकों को परामर्श देने वाले सुशांत कालरा ने कहा, ‘‘आज फिल्मी नायक, नायिकाएं नशे को चमक-दमक के साथ दिखाते हैं। बच्चे और किशोर अपने पसंदीदा अदाकारों को फिल्मों और वीडियो सीरीज समेत विभिन्न मीडिया पर इस तरह की गतिविधियों में लिप्त देखते हैं। इस तरह का संदेश दिया जाता है कि ये गतिविधियां न केवल स्वीकार्य हैं बल्कि अत्यंत अपेक्षित हैं।'' अध्ययन के अनुसार दूसरी प्रवृत्ति ई-सिगरेट और ऐसे उत्पादों के उपयोग की है। तीसरी प्रवृत्ति कामकाज के बढ़ते दबाव और बढ़ते खालीपन के कारण मानसिक सेहत संबंधी मुद्दों से जुड़ी है। विशेषज्ञों ने इनकी रोकथाम के लिए तीन हस्तक्षेपों में संबंधित मौजूदा कानूनों को सख्ती से लागू करने को गिनाया है। बच्चों को यह बताने की भी आवश्यकता भी रेखांकित की गयी है कि ई-सिगरेट तंबाकू से बेहतर विकल्प नहीं है और इस तरह के उपकरण से फेफड़ों को नुकसान हो सकता है। तीसरा महत्वपूर्ण हस्तक्षेप अभिभावकों और प्रशिक्षकों पर ध्यान केंद्रित करते हुए इस तरह के नशों के खिलाफ शिक्षा के प्रसार का है।
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आपके फोन के बारे में गंदा सच ...!
बाथरूम में इसका इस्तेमाल बंद करने की आवश्यकता
लीसेस्टर. हम उसे हर जगह अपने साथ ले जाते हैं, उसे बिस्तर पर ले जाते हैं, बाथरूम में ले जाते हैं और कई लोगों के लिए वह पहली चीज हैं, जिसे वह सुबह आंख खुलते ही सबसे पहले देखते हैं - दुनिया के 90 प्रतिशत से अधिक लोगों के पास मोबाइल फोन है या वह इसका उपयोग करते हैं और हम में से कई इसके बिना रह नहीं सकते। फोन के उपयोग के बारे में स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं अकसर ध्यान केंद्रित करती हैं कि वे ड्राइविंग करते समय ध्यान भटका सकते हैं, रेडियोफ्रीक्वेंसी एक्सपोजर के संभावित प्रभाव, या उनकी लत लगने जैसी चिंताएं। आपके फोन के माइक्रोबियल संक्रमण जोखिम की तरफ बहुत कम ध्यान जाता है - लेकिन यह बहुत वास्तविक है। 2019 के एक सर्वे में पाया गया कि यूके में ज्यादातर लोग अपने फोन का इस्तेमाल टॉयलेट में करते हैं। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अध्ययन में पाया गया है कि हमारे मोबाइल फोन टॉयलेट सीट से भी ज्यादा गंदे होते हैं। हम अपने फोन बच्चों को खेलने के लिए देते हैं (जो अपनी साफ-सफाई का ध्यान ठीक से नहीं रख पाते हैं)। हम अपने फोन का उपयोग करते समय खाते भी हैं और उन्हें हर तरह की (गंदी) सतहों पर रख देते हैं। इससे आपके फोन पर रोगाणु तो जमा होते ही हैं उन्हें खाने के लिए भोजन भी मिलता रहता है। यह अनुमान लगाया गया है कि लोग दिन में हजारों बार नहीं तो सैकड़ों बार अपने फोन को छूते हैं। और जबकि हम में से कई लोग बाथरूम जाने, खाना पकाने, सफाई करने, या बागवानी करने के बाद नियमित रूप से अपने हाथ धोते हैं, लेकिन हम अपने फोन को छूने के बाद अपने हाथों को धोने के बारे में बहुत कम सोचते हैं। लेकिन यह देखते हुए कि फोन कितने गंदे और कीटाणुयुक्त हो सकते हैं, शायद यह समय मोबाइल फोन की स्वच्छता के बारे में अधिक सोचने का है।
कीटाणु, जीवाणु, विषाणु--
हाथ हर समय बैक्टीरिया और वायरस उठाते हैं और संक्रमण प्राप्त करने के मार्ग के रूप में पहचाने जाते हैं। इसी प्रकार हम जिन फ़ोनों को छूते हैं वह भी रोगाणु के वाहक ही हैं। मोबाइल फोन के सूक्ष्मजीवविज्ञानी उपनिवेशण पर किए गए कई अध्ययनों से पता चलता है कि वे कई अलग-अलग प्रकार के संभावित रोगजनक बैक्टीरिया से दूषित हो सकते हैं। इनमें डायरिया पैदा करने वाले ई. कोलाई (जो वैसे, मानव मल से आते हैं) और त्वचा को संक्रमित करने वाले स्टैफिलोकोकस, साथ ही एक्टिनो बैक्टीरिया शामिल हैं, जो तपेदिक और डिप्थीरिया, सिट्रोबैक्टर का कारण बन सकते हैं, जो दर्दनाक मूत्र पथ के संक्रमण का कारण बन सकते हैं। और एंटरोकोकस, जो मेनिनजाइटिस का कारण बनता है। क्लेबसिएला, माइक्रोकोकस, प्रोटियस, स्यूडोमोनास और स्ट्रेप्टोकोकस भी फोन पर पाए गए हैं और सभी मनुष्यों पर समान रूप से बुरा प्रभाव डाल सकते हैं। शोध में पाया गया है कि फोन पर कई रोगजनक अक्सर एंटीबायोटिक प्रतिरोधी होते हैं, जिसका अर्थ है कि पारंपरिक दवाओं के साथ उनका इलाज नहीं किया जा सकता है। यह चिंताजनक है क्योंकि ये बैक्टीरिया त्वचा, आंत और श्वसन संक्रमण का कारण बन सकते हैं जो जानलेवा हो सकते हैं। शोध में यह भी पाया गया है कि भले ही आप अपने फोन को एंटीबैक्टीरियल वाइप्स या अल्कोहल से साफ करते हैं, फिर भी यह सूक्ष्मजीवों से अटा रहता है, यह दर्शाता है कि स्वच्छता एक नियमित प्रक्रिया होनी चाहिए। फोन में प्लास्टिक होता है जो वायरस को शरण दे सकता है और प्रसारित कर सकता है, जिनमें से कुछ (सामान्य कोल्ड वायरस) प्लास्टिक की कठोर सतहों पर एक सप्ताह तक जीवित रह सकते हैं। अन्य वायरस जैसे कि कोविड-19, रोटावायरस (एक अत्यधिक संक्रामक पेट का बग जो आमतौर पर शिशुओं और छोटे बच्चों को प्रभावित करता है), इन्फ्लूएंजा और नोरोवायरस - जो गंभीर श्वसन और आंतों के संक्रमण का कारण बन सकता है - कई दिनों तक संक्रामक रूप में बना रह सकता है। वास्तव में, कोविड महामारी की शुरुआत के बाद से, यूएस सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने मोबाइल फोन की सफाई और कीटाणुशोधन के लिए दिशानिर्देश पेश किए हैं - जो दरवाज़े के हैंडल, कैश मशीन और लिफ्ट बटन की तरह ही संक्रमण के भंडार माने जाते हैं। विशेष रूप से, इस भूमिका के बारे में चिंता व्यक्त की गई है कि मोबाइल फोन अस्पताल और स्वास्थ्य देखभाल के साथ-साथ स्कूलों में संक्रामक रोगाणुओं के प्रसार में भूमिका निभा सकते हैं।
अपना फ़ोन साफ़ करें--
यह स्पष्ट है कि आपको अपने फोन को नियमित रूप से साफ करना शुरू करना होगा। यूएस फेडरल कम्युनिकेशंस कमीशन वास्तव में आपके फोन और अन्य उपकरणों की दैनिक स्वच्छता की सिफारिश करता है - इससे कम नहीं क्योंकि हम अभी भी एक सक्रिय कोविड-19 महामारी के भीतर हैं और वायरस कठोर प्लास्टिक सतहों पर कई दिनों तक जीवित रह सकता है। फोन के केसिंग और टच स्क्रीन को कीटाणुरहित करने के लिए अल्कोहल-आधारित वाइप्स या स्प्रे का उपयोग करें। उनमें कम से कम 70% अल्कोहल होना चाहिए, और यदि संभव हो तो इसे हर दिन किया जाना चाहिए। सीधे फ़ोन पर सैनिटाइज़र का छिड़काव न करें और तरल पदार्थों को कनेक्शन बिंदुओं या फ़ोन के अन्य खुले स्थानों से दूर रखें। ब्लीच या अपघर्षक क्लीनर के उपयोग से बिल्कुल बचें। और सफाई पूरी करने के बाद अपने हाथों को अच्छी तरह धो लें। आप अपने फोन को कैसे रखते हैं, इसके बारे में सोचने से भी कीटाणुओं से बचने में मदद मिलेगी। जब आप घर पर न हों, तो अपने फ़ोन को अपनी जेब या बैग में रखें और लगातार अपने फ़ोन को देखते रहने की आदत छोड़ दें।
अपने फ़ोन को साफ़ हाथों से स्पर्श करें -
साबुन और पानी से धोएँ या अल्कोहल-आधारित हैंड सैनिटाइज़र से कीटाणुरहित करें। अपने फोन को वायरस का स्रोत बनने से बचाने के लिए आप और भी चीजें कर सकते हैं। अगर आपको कोई संक्रमण है, या पहले इसे साफ नहीं किया है, तो अपना फोन दूसरों के साथ साझा न करें। यदि बच्चों को खेलने के लिए अपना फोन देते हैं तो देने से पहले इसे साफ कर लें। और जब उपयोग में न हो तो फोन को दूर रखने की आदत डाल लें, फिर अपने हाथों को सेनेटाइज करें या धो लें। जब आप अपना फ़ोन साफ़ कर रहे हों तो कभी-कभी अपने फ़ोन चार्जर को भी साफ़ करते रहे। -
लोवेल. किंवदंती है कि प्रत्येक इंद्रधनुष के अंत में सोने का एक घड़ा छिपा होता है। लेकिन क्या वास्तव में एक इंद्रधनुष का "अंत" होता है, और क्या कभी यह हमें मिल सकता है? हम में से अधिकांश लोग आकाश में इंद्रधनुष को रंगों के मेहराब के रूप में देखते हुए जीवन गुजारते हैं, लेकिन यह वास्तव में रंगों का एक चक्र है, इसका केवल आधा हिस्सा हम देख पाते हैं। आम तौर पर, जब आप एक इंद्रधनुष को देखते हैं, तो आपके सामने पृथ्वी का क्षितिज वृत्त के निचले आधे हिस्से को छुपा देता है। लेकिन अगर आप एक पहाड़ पर खड़े हैं जहां आप अपने ऊपर और नीचे दोनों देख सकते हैं, और सूरज आपके पीछे है और धुंध है या अभी बारिश हुई है, तो संभावना अच्छी है कि आप इंद्रधनुष के घेरे को और बड़ा देखेंगे। हालांकि, पूरे घेरे को देखने के लिए, आपको बादलों के ठीक ऊपर एक हवाई जहाज में जाना होगा। या आप अपना खुद का इंद्रधनुष बना सकते हैं। मैं एक भौतिक विज्ञानी हूं, और मैं इसे एक मिनट में समझाऊंगा। इंद्रधनुष कैसे बनता है
इंद्रधनुष तब बनते हैं जब आपके पीछे से सूरज की रोशनी आपके सामने पानी की लाखों छोटी-छोटी गोल बूंदों से टकराती है और आपकी आंखों पर वापस आती है। जैसे सूरज की किरण किसी छोटी बूंद पर एक कोण से टकराती है, वह पानी में झुक जाती है और रंगों के स्पेक्ट्रम में अलग हो जाती है। वैज्ञानिक प्रकाश के मुड़ने को "अपवर्तक" कहते हैं। रंग अलग हो जाते हैं क्योंकि प्रकाश का प्रत्येक "रंग" पानी में एक अलग गति से यात्रा करता है, या उस स्थिति में, कोई भी पारदर्शी सामग्री जिसके माध्यम से प्रकाश यात्रा कर सकता है, जैसे प्रिज्म में कांच। जब रंग पानी की बूंद की पिछली दीवार से टकराते हैं, तो कोण अब इतना उथला हो जाता है कि वे हवा में बाहर नहीं निकल पाते हैं, इसलिए वे पानी की बूंद में वापस परावर्तित होते हैं और इसकी प्रवेश दीवार पर लौट आते हैं। वहां से, रंग फिर से हवा में मुड़ सकते हैं और आपकी आंखों तक पहुंच सकते हैं। जैसा कि आप इन बूंदों को देखते हैं, अलग-अलग रंग थोड़े अलग कोण पर एकत्रित होते हैं, और प्रत्येक रंग एक शंकु के गोलाकार रिम का निर्माण करता है, जिसमें आपकी आंख शंकु की नोक पर होती है। और ये लीजिए, आपके पास अपना निजी इंद्रधनुष है। आपकी आंखों में रंग भेजने वाली बूंदें उन्हें किसी और को नहीं भेज सकती हैं, भले ही आपके आस-पास के सभी लोग एक ही इंद्रधनुष को देखते हैं, प्रत्येक व्यक्ति वास्तव में अपने स्वयं के थोड़े अलग इंद्रधनुष को देखता है। यह सब देखने वाले की नजर में है। इंद्रधनुष बनने के लिए, पानी की बूंदों का आकार एक गोले के बहुत करीब होना चाहिए ताकि वे सभी मुड़ सकें और रंगों को प्रतिबिंबित कर सकें। यह बहुत छोटी बूंदों के लिए होता है, जैसे कि महीन धुंध, या बारिश की फुहार के ठीक बाद जब हवा सिर्फ नम होती है। जैसे-जैसे बूंदें बड़ी होती जाती हैं, गुरुत्वाकर्षण उनके आकार को विकृत करता जाता है और इंद्रधनुष गायब हो जाता है। एक इंद्रधनुष भौतिक रूप से वहां मौजूद नहीं होता है जहां यह दिखाई देता है, जैसे कि दर्पण में आपकी छवि। इसलिए, मुझे यह कहते हुए खेद है कि आप वास्तव में कभी भी अपने इंद्रधनुष तक नहीं पहुंच सकते। और, अफसोस, कोई भी उस सोने के बर्तन को कभी नहीं ढूंढ़ पाएगा। लेकिन आप अपना खुद का इंद्रधनुष बना सकते हैं।
गोलाकार इन्द्रधनुष कैसे बनाएं और देखें
एक प्रयोग जो आप गर्मियों में आजमा सकते हैं, आप पानी का छिड़काव करने वाले किसी पंप को पानी की बहुत महीन बूंदों की फुहार करने की सेटिंग पर रखें। याद रहे कि आपके पीछे सूरज हो। यदि आप अपने सामने फुहार की एक परत बनाते हैं और अपनी छाया को देखते हैं, तो आपको इंद्रधनुष दिखाई दे सकता है। रंगों को देखना मुश्किल नहीं है, लेकिन एक पूरा चक्र देखने के लिए आपको वैज्ञानिकों की तरह थोड़े धैर्य और अभ्यास की आवश्यकता होगी। तो अगली बार जब आप हवाई जहाज में हों तो खिड़की वाली सीट पकड़ लें। यदि आप बादलों के आवरण से थोड़ा ऊपर उड़ रहे हैं, तो बादलों पर अपने विमान की छोटी छाया की तलाश करें। इसका मतलब है कि सूरज आपके पीछे है। बादल पानी की छोटी-छोटी बूंदें हैं, इसलिए संभावना है कि आप हवाई जहाज की छाया के चारों ओर रंग का एक छोटा सा घेरा देख सकते हैं। और अगर आप वास्तव में यह देखने के लिए इंतजार नहीं कर सकते कि यह कैसा दिखता है, तो इंटरनेट हमेशा मौजूद है। -
नयी दिल्ली. वैज्ञानिकों का मानना है कि उन्होंने संभवत: इस बात का कारण ढूढ लिया है कि उम्र बढ़ने पर बाल सफेद क्यों हो जाते हैं। उन्होंने इसके लिए रंजक (पिगमेंट) बनाने वाली स्टेम कोशिकाओं की परिपक्व होने की असमर्थता का हवाला दिया है। यह अध्ययन ‘नेचर' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है जिससे बाल सफेद होने की प्रक्रिया को पलटने का आधार मिल सकता है। इस अध्ययन में पाया गया कि स्टेम कोशिकाओं में बाल (रोओं) की वृद्धि की विभिन्न अवस्थाओं में बढ़ने की क्षमता है लेकिन जब जब लोग बुजुर्ग होते हैं तो उनके परिपक्व होने एवं बाल रंग को बनाये रखने की क्षमता खत्म हो जाती है। अमेरिका के एनवाईयू ग्रॉसमैन स्कूल ऑफ मेडिसीन के अनुसंधानकर्ताओं की अगुवाई में एक टीम ने चूहे की त्वचा की कोशिकाओं पर ध्यान केंद्रित किया। उन्हें मनुष्य में भी ‘मेलानोसाइट' स्टेम कोशिकाएं मिलीं। बाल का रंग इस बात से नियंत्रित होता है कि मेलानोसाइट स्टेम कोशिकाओं की गैर क्रियाशीलता लेकिन निरंतर गुणकता को क्या परिपक्व कोशिकाओं में तब्दील होने का सिग्नल मिलता है या नहीं जो प्रोटीन पिगमेंट को रंग के लिए जिम्मेदार बनाता है। यह अध्ययन दर्शाता है कि मेलानोसाइट स्टम कोशिकाएं काफी लचीली होती हैं जिसका तात्पर्य है कि बाल की सामान्य वृद्धि के दौरान ऐसी कोशिकाएं परिपक्वता अक्षरेखा पर कभी आगे तो कभी पीछे जाती जाती है, वह भी तब जब वे रोओं से विकास के विभिन्न चरणों से जब गुजरती हैं।
-- - आप यह जानते हैं कि भारत का सबसे बड़ा रेलवे स्टेशन कौन सा है। हावड़ा जंक्शन भारत का सबसे बड़ा रेलवे स्टेशन है। यहां एक, दो या तीन नहीं बल्कि पूरे 23 प्लेटफॉर्म हैं और 26 रेल लाइन बिछी हुई हैं। सबसे बड़ा स्टेशन होने के साथ ही इसे भारत का सबसे व्यस्त रेलवे स्टेशन का भी दर्जा प्राप्त है। यह स्टेशन हुगली नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है। यहां से हर रोज करीब 600 ट्रेनें गुजरती हैं, जिसमें हर दिन लगभग 10 लाख लोगों की आवाजाही है। आप पहली बार इस रेलवे स्टेशन पर जाएंगे, तो लगेगा जैसे पूरा शहर यहां समा गया है।बता दें कि हावड़ा जंक्शन भारत के सबसे बड़े और पुराने रेलवे स्टेशनों में से एक है। इस जंक्शन का निर्माण 1854 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किया गया था। अंग्रेजों के जमाने का यह रेलवे स्टेशन आज तके वैसे ही खड़ा है। इसका नाम हावड़ शहर के नाम पर रखा गया था। भारत का यह इकलौता रेलवे स्टेशन है, जिसका रेल संपर्क सीधे बांग्लादेश से है। मैत्री एक्सप्रेस जो सीधे कोलकाता से ढाका के बीच चलती है , दोनों शहरों को जोड़ती है। कभी यह जंक्शन क्रांतिकारियों का केंद्र हुआ करता था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उनकी मीटिंग और सभी योजनाएं यहीं तैयार होती थीं। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी योगेश चंद्र चटर्जी को काकोरी कांड से पहले हावड़ा स्टेशन पर ही गिरफ्तार किया गया था।हावड़ा जंक्शन को देश के सबसे खूबसूरत स्टेशन का भी दर्जा प्राप्त है। बाहर से ही नहीं भीतर से भी यह स्टेशन विदेश के स्टेशनों से कम नहीं लगता। कोलकाता का यह रेलवे स्टेशन टर्मिनल 1 और टर्मिनल 2 नाम से भी जाना जाता है। बता दें कि इस जंक्शन पर एक साथ एक ही समय पर कई ट्रेनें खड़ी की जा सकती है। यह क्षमता शायद ही भारत के किसी अन्य रेलवे स्टेशन की हो।
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पुणे (महाराष्ट्र) .स्कूलों, कॉलेजों और औपचारिक कार्यक्रमों में विज्ञान के विषयों पर चर्चा आम बात है लेकिन लोग अब मशीनों, ब्रह्मांड और जलवायु परिवर्तन जैसे विज्ञान के विभिन्न विषयों पर पब, लाउंज और कैफे में ही नहीं बल्कि शराब की चुस्की के साथ भी सामान्य बातचीत करने लगे हैं। उनका फार्मूला है : ‘‘विज्ञान ‘प्लस' शराब की चुस्की ‘माइनस' गपशप और गंभीरता यानी खूब सारा मजा''।
जी हां, आपने बिल्कुल ठीक सुना, भारतीय उष्ण देशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) के जलवायु विज्ञानी अनूप महाजन की अगुवाई में पुणे के विज्ञानप्रेमियों का एक समूह अपनी अनूठी ‘साइंस ऑन टैप' पहल से विज्ञान और आम लोगों के बीच फासला कम करने के मिशन पर है। महाजन ने कहा कि विज्ञान और लोगों के बीच की खाई को कम करने के उद्देश्य से लोगों तक पहुंचने की यह पहल शुरू की गई है। ‘साइंस ऑन टैप' योजना के पीछे महाजन का ही दिमाग है। उन्होंने कहा, ‘‘बहुत सारी गलत सूचनाएं हैं। लोग नहीं जानते कि कौन सी जानकारी सही है और कौन सी गलत है। अधिकांश लोग सोशल मीडिया पर ऐसी जानकारी के संपर्क में हैं जो असत्यापित हैं और विज्ञान सहित सभी विषयों पर गलत सूचनाएं फैल रही हैं।'' महाजन ने कहा, ‘‘इस तरह के सभी विज्ञान संपर्क कार्यक्रम ऑडिटोरियम, स्कूल और कॉलेजों जैसी औपचारिक जगहों पर होते हैं जहां पहुंच सीमित है। यहां तक कि अगर हम ऑडिटोरियम में विशेषज्ञों को आमंत्रित करके वार्ता आयोजित करते हैं और उन्हें सभी के लिए खुला रखते हैं, तो भी संभावना है कि लोग नहीं आएंगे।'' उन्होंने कहा, ‘‘इसलिए हमने आम जनता तक पहुंचने का फैसला किया और यह पता लगाने की कोशिश की कि युवा लोग अच्छा समय बिताने के लिए कहां जाते हैं। जवाब था रेस्तरां, लाउंज, कैफे या उनका पसंदीदा बार या पब और फिर चर्चा को ऐसी जगहों पर आयोजित करने का निर्णय लिया गया।'' - ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया है कि पिंजरे में जन्मे पक्षियों का जीवन सामान्य नहीं होता। ईकोलॉजी लेटर्स नामक पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि पिंजरे में जन्मे पक्षियों के पंखों का आकार भी बदल सकता है और उनकी मुश्किलें सहने की क्षमता भी प्रभावित होती है।शोधकर्ता डॉ. डिजान स्टोयानोविच कहते हैं कि प्रजातियों के संरक्षण के लिए पिंजरों में प्राणियों का प्रजनन एक अहम उपाय है, लेकिन इस तरीके का उनके शारीरिक आकार-प्रकार पर असर पड़ सकता है. शोधकर्ताओं ने जिन पक्षियों का अध्ययन किया, उनमें नारंगी पेट वाला तोता भी था। यह प्रजाति खतरे में है।ऑस्ट्रेलिया में जिन प्रजातियों को खतरे में होने के कारण सुरक्षित वातावरण में प्रजनन कराया जाता है, उनमें नारंगी पेट वाला तोता भी शामिल है और लंबे समय से इस प्रजाति को संरक्षण में रखा गया है। इस प्रजाति को बचाए रखने के लिए हर साल तय संख्या में पक्षियों को आजाद किया जाता है, जो मारे गए पक्षियों की जगह लेते हैं।डॉ. स्टोयानोविच कहते हैं, "पहले हम दिखा चुके हैं कि कैद में रहने से नारंगी पेट वाले तोते के परों का आकार बदल सकता है। हमें संदेह है कि इस कारण उनके लिए लंबी उड़ानें मुश्किल हो जाती हैं, लेकिन नए अध्ययन में हमें पहली बार ऐसे सीधे प्रमाण मिले हैं कि कैद में इनके परों का आकार बदल गया और जंगल में छोड़े जाने के बाद प्रवासन के लिए लंबी उड़ानों में उनकी सफलता की दर कम हो गई। "वैसे तो सभी नारंगी पेट वाले सभी युवा तोतों में प्रवासन के लिए उड़ान की सफलता दर कम पाई गई लेकिन पिंजरों में जन्मे छोटे परों वाले पक्षियों के इन उड़ानों के दौरान बचने की संभावना जंगल में पैदा हुए तोतों के मुकाबले 2.7 गुणा कम पाई गई। शोध में चार अन्य पक्षियों के परों में बदलाव देखा गया जिसके बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे कि कैद का पक्षियों में पहले लगाए गए अनुमान से कहीं ज्यादा असर होता है।डॉ. स्टोयानोविच बताते हैं, "कैद में रखे गए जानवरों में होने वाले शारीरिक बदलावों की यह झलक मात्र हो सकती है और इसे नजरअंदाज करना बहुत आसान है, लेकिन आजाद किए जाने के बाद उन पर इसका बहुत बड़ा असर हो सकता है। अगर हम प्रजातियों के संरक्षण को वन्य जीवन की मदद के लिए ज्यादा कारगर बनाना चाहते हैं तो हमें इस बारे में जागरूक होना चाहिए और ऐसे रास्ते खोजने चाहिए जिनसे पिंजरों में उन पर कम से कम असर हो। "हालांकि इस अध्ययन से यह स्पष्ट नहीं होता कि पक्षियों में ये बदलाव क्यों आए। यानी, यह बंद वातावरण का असर था या आनुवांशिक वजहों से ये बदलाव हुए. डॉ. स्टोयानोविच के मुताबिक कई और सवाल भी अभी अनुत्तरित हैं, जैसे कि क्या एक बार आजाद किए जाने के बाद पक्षियों के परों का आकार वापस सामान्य हो सकता है या उडऩे के प्रशिक्षण से उन्हें मदद मिल सकती है। वह कहते हैं, "इन सवालों के जवाब खोजने जरूरी हैं ताकि हम यह जान सकें कि संरक्षित माहौल में प्राणी प्रजनन किस तरह से हो कि वे वन्य जीवन में जीने के लिए तैयार हो सकें। "
- राजस्थान अपनी रंग-बिरंगी संस्कृति और इतिहास के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध है। यहां के कई किले और महल आकर्षण का केंद्र है। यहां पर घूमने आने वाले पर्यटक इन महलों की खूबसूरती को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। राजस्थान की राजधानी जयपुर में स्थित हवा महल सबसे अलग और खास है। गुलाबी और बलुआ रंग के पत्थरों से बने इस महल की अलग ही शान है। इसी महल के कारण जयपुर को पिंक सिटी कहा जाता है। हवा महल का निर्माण राजस्थानी और मुगल शैली में किया गया है। हालांकि हवा महल से जुड़ी सभी बातों को लोग जानते हैं। आइए जानते हैं हवा महल से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें...जयपुर का हवा महल सिटी पैलेस का हिस्सा था। इसलिए इसका कोई बाहर से एंट्रेंस गेट नहीं बनाया गया था। सिटी पैलेस की ओर से एक शाही दरवाजा हवा महल के प्रवेश द्वार की ओर जाता है। वहीं से आपको एंट्री लेनी होती है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि यह महल बगैर नींव के बना है। जिसके कारण यह वजन से घुमावदार और 87 डिग्री के कोण पर झुका हुआ है।पैलेस ऑफ विंड्सहवा महल को पैलेस ऑफ विंड्स के नाम से भी जाना जाता है। इस महल में बनीं 953 खिड़कियां इसे दूसरे महलों से अलग बनाती हैं। इन खिड़कियों को इसलिए बनाया गया था। ताकि हवा महल के अंदर आ सके और यहां गर्मी का एहसास भी न हो।महिलाओं के लिए बनाया गयाहवा महल को खासतौर पर राजपूत सदस्यों और खासकर महिलाओं के लिए बनवाया गया था। उस दौरान महिलाए खुले आम किसी भी आयोजन में नहीं शामिल होती थीं। इसलिए इस महल की खिड़कियों पर खड़े होकर वह नीचे आयोजित हो रहे कार्यक्रम को देखती थीं।महल में नहीं बनीं हैं सीढिय़ांभले ही यह महल पांच मंजिला बना है, लेकिन इस महल में आपको सीढिय़ां नहीं मिलेंगी। हर मंजिल पर आपको रैंप करके जाना होगा। बता दें कि हवा महल को रहने के उद्देश्य से नहीं बनाया गया था। कुछ विशेष मौकों पर राजसी महिलाएं अपनी दासियों के साथ सिटी पैलेस से यहां आया करती थीं।महल में बने हैं 3 मंदिरइस भव्य महल के अंदर तीन मंदिर बने हुए हैं। जिन्हें गोवर्धन मंदिर, प्रकाश मंदिर और हवा मंदिर के नाम से जाना जाता है। हालांकि पहले लोग गोवर्धन कृष्ण मंदिर में भगवान कृष्ण के दर्शन करते थे। लेकिन उब उन्हें बंद कर दिया गया है।हवा मंदिर नाम के एक मंदिर के नाम पर इस महल का नाम रखा गया था। आज भी यह मंदिर हवा महल के अंदर है। इसलिए इस महल का नाम हवा महल रखा गया। हवा महल खूबसूरत वास्तुकला का नमूना है।
- तस्वीर में आपको जो गिटार दिख रहा है वो मामूली नहीं है। यह दुनिया का सबसे महंगा गिटार है। इसे 'एडन ऑफ कोरोनेट' (Eden of Coronet) कहा जाता है। इस गिटार में 11,441 हीरे जड़े हैं। 18 कैरेट वाइट गोल्ड से यह बना है। इसकी कीमत करीब 16 करोड़ 45 लाख रुपये है। इसे बनाने वाले हैं हांगकांग के आरोन शुम। यह 700 दिनों में बनकर तैयार हुआ था।इस गिटार को बनाने के लिए गिबसन ने ज्वैलरी डिजाइनर आरोन शुम और म्यूजिशियन मार्क लुई के साथ गठजोड़ किया था। यह कस्टमाइज्ड गिबसन एसजी गिटार है। गिबसन लेस पॉल एसजी ने 1961 में गिटार का इलेक्ट्रिक मॉडल पेश किया था। इसी को गिबसन एसजी कहते हैं। एडन ऑफ कोरोनेट को बनाने के लिए हीरे हांगकांग की फर्म चाव ताई फूक ने मुहैया कराए थे। इस गिटार की खास बात है कि यह सिर्फ शोपीस नहीं है। इसे बजाया जा सकता है। अपने ब्रांड कोरोनेट के लिए हांगकांग के आरोम शुम ज्वैलरी ने इसे बनाने का बीड़ा उठाया था।सबसे पहले अबूधाबी के मरीना मॉल में इस बेशकीमती गिटार को पेश किया गया था। वो साल 2015 था। तब बेसलवर्ल्ड वॉच एंड ज्वैलरी शो हुआ था। बाद में इसे चीन में डिस्प्ले किया गया था। अक्टूबर 2019 में यह वापस अबूधाबी आ गया। इसे बेसलवर्ल्ड में फिर से डिस्प्ले किया गया।गिटार की बॉडी वाइट गोल्ड से कवर है। इसमें फूल की आकृति में हीरे जड़े हैं। इन हीरों की संख्या 11,441 है। ये सभी 401.15 कैरेट के हैं। इसे बनाने में 1.6 किलो सोना लगा है। गिटार बनाने में 700 दिन का वक्त लगा था। इसमें 68 कारीगर लगे थे। गिटार के टोन कंट्रोल हीरों की परत के नीचे छुपे रहते हैं।
- वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले कुछ सालों में इस बात के बड़े सबूत मिले हैं कि कुकिंग गैस पर खाना बनाना सेहत के लिए अच्छा नहीं है। अब इसका विकल्प खोजने पर जोर दिया जा रहा है।ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों का कहना है कि अब कुकिंग गैस का विकल्प खोजने का वक्त आ गया है क्योंकि लगातार ऐसे सबूत सामने आ रहे हैं कि खाना बनाने का यह तरीका सेहत के लिए ठीक नहीं है और पर्यावरण के लिए भी हानिकारक है।वैसे तो कुकिंग गैस को लेकर चिंताएं काफी पहले से जताई जाती रही हैं लेकिन हाल ही में आए एक शोध के बाद इस बात पर बहस तेज हो गई है कि कुकिंग गैस कितनी खतरनाक हो सकती है। ताजा अध्ययन में पाया गया कि अमेरिका में बच्चों को दमे का रोग होने में कुकिंग गैस से होने वाले उत्सर्जन की बड़ी भूमिका है। इस अध्ययन में पाया गया कि अमेरिका में बच्चों में दमा होने के जितने मामले हैं उनमें से 12.7 फीसदी, यानी हर आठ में से एक मामले में वजह गैस स्टोव से हुआ उत्सर्जन है।इस साल की शुरुआत में ही अमेरिका के कंज्यूमर प्रॉडक्ट सेफ्टी कमीशन ने ऐलान किया था कि वह कुकिंग गैस पर प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रहा है। ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स के वैज्ञानिकों ने कहा है कि कुकिंग गैस को लेकर चिंताएं बेवजह नहीं हैं। विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर प्रकाशित एक लेख में एसोसिएट प्रोफेसर डोना ग्रीन कहती हैं कि कुकिंग गैस से होने वाले प्रदूषण को लेकर चिंतित होना जायज है।उन्होंने कहा, "हम स्टोव पर आमतौर पर खाना बनाते हैं। इसका अर्थ है कि आपका प्रदूषकों से नियमित तौर पर वास्ता पड़ता है क्योंकि चेहरा गैस के करीब होता है और यह अच्छा नहीं है। अब हमारे पास विकल्प हैं जो ज्यादा सुरक्षित हैं और पर्यावरण के भी अनुकूल हैं।"प्रोफेसर ग्रीन की तरह ही पर्यावरण संबंधी रोगों के विशेषज्ञ डॉ. क्रिस्टीन कोवी भी इस चिंता से सहमत हैं और कहती हैं कि कुकिंग गैस से दूरी जरूरी है। उन्होंने कहा, "यह हमारे घरों और आसपास एक ऐसा प्रदूषक है जिसे दूर किए जाने की जरूरत है। विज्ञान दिखा रहा है कि हमें जीवाश्म ईंधनों को जलाने को रोकना चाहिए और गैस भी उनमें शामिल है। "कुकिंग गैस सेहत के लिए खतरनाक मानी जाती है क्योंकि इससे कई तरह के प्रदूषक तत्वों का उत्सर्जन होता है। प्रोफेसर ग्रीन के मुताबिक जब आप गैस जलाते हैं तो असल में आप मीथेन गैस को जला रहे होते हैं जिससे जहरीले यौगिक बनते हैं। कुकिंग गैस में मीथेन मुख्य अवयव होता है, जो जलने पर ऊष्मा यानी गर्मी पैदा करता है। इससे नाइट्रोजन और ऑक्सीजन मिलकर नाइट्रो ऑक्साइड बनते हैं। प्रोफेसर ग्रीन कहती हैं कि इसके सेहत के लिए कई गंभीर परिणाम होते हैं जिनमें दमा और अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं शामिल हैं। डॉ कोवी बताती हैं कि जब स्टोव जलता है तो असल में आप जीवाश्म ईंधन ही जला रहे हैं जिससे कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और फारमैल्डीहाइड भी बन सकते हैं। डॉ कोवी कहती हैं कि कार्बन मोनो ऑक्साइड के उत्सर्जन से हवा में ऑक्सजीन कम होती है और खून में भी ऑक्सीजन नष्ट होती है। इससे सिर दर्द और चक्कर आने जैसी समस्याएं हो सकती हैं।कुकिंग गैस जलाना पर्यावरण के लिए भी खतरनाक साबित हो रहा है। 2022 में एक अध्ययन में कहा गया था कि अमेरिका में गैस स्टोव से जितना कार्बन उत्सर्जन होता है वह पांच लाख कारों से होने वाले उत्सर्जन के बराबर है।इसीलिए अब वैज्ञानिक कुकिंग गैस का विकल्प खोजने पर जोर दे रहे हैं। इंडक्शन चूल्हे और बिजली के चूल्हों को इसके विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। इंडक्शन चूल्हों में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक प्रभाव से गर्मी पैदा की जाती है और इसे कुकिंग गैस के सबसे सक्षम विकल्प के रूप में देखा जाता है। हालांकि यह एक महंगा विकल्प है। वैज्ञानिक बिजली के चूल्हों को लेकर कुछ सशंकित हैं क्योंकि ज्यादातर बिजली उत्पादन कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों को जलाकर ही किया जाता है। इसलिए अक्षय ऊर्जा से पैदा की जा रही बिजली को ही एक बेहतर विकल्प माना जा सकता है।
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नयी दिल्ली। वैज्ञानिक वैश्विक अंतरिक्ष उद्योग के विस्तार की दर को देखते हुए कानूनी रूप से बाध्य संधि की मांग कर रहे हैं ताकि पृथ्वी की कक्षा को अपूरणीय क्षति न पहुंचायी जाए। कई सामाजिक और पर्यावरणीय फायदे उपलब्ध कराने के लिए उपग्रह प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन ऐसी आशंका है कि अंतरिक्ष उद्योग की अनुमानित वृद्धि पृथ्वी की कक्षा के बड़े हिस्सों को अनुपयोगी बना सकती है।
पृथ्वी की कक्षा में उपग्रहों की संख्या आज के 9,000 से बढ़कर 2030 तक 60,000 तक पहुंच सकती है। ऐसा अनुमान है कि पुराने उपग्रहों के 100 लाख करोड़ से अधिक टुकड़े इस ग्रह का चक्कर लगा रहे हैं, जिनका अभी पता नहीं लगाया जा सका है। उपग्रह प्रौद्योगिकी और समुद्र में प्लास्टिक प्रदूषण समेत विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित विशेषज्ञों के एक अंतरराष्ट्रीय संघ ने कहा कि इस पर तत्काल वैश्विक सर्वसम्मति बनाने की आवश्यकता जान पड़ती है कि पृथ्वी की कक्षा को कैसे बेहतर तरीके नियंत्रित किया जाए। उन्होंने पत्रिका ‘साइंस' में अपनी चिंता व्यक्त की है।
विशेषज्ञों ने यह माना कि कई उद्योग और देश उपग्रह संवहनीयता पर ध्यान देना शुरू कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि इसे हर देश को पृथ्वी की कक्षा का इस्तेमाल करने की योजनाओं में शामिल करना चाहिए। उन्होंने कहा कि किसी भी समझौते में उपग्रहों और मलबे के लिए उत्पादक तथा ग्राहक की जिम्मेदारी को लागू करने के उपाय भी शामिल होने चाहिए। उन्होंने कहा कि जवाबदेही को बढ़ावा देने के तरीकों पर गौर करते हुए वाणिज्यिक लागत पर भी विचार किया जाना चाहिए।
ऐसे विचार समुद्र में प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के प्रस्तावों के अनुरूप होने चाहिए, क्योंकि विभिन्न देशों ने वैश्विक प्लास्टिक संधि के लिए बातचीत शुरू कर दी है। ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ प्लाईमाउथ के अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता इमोजेन नैपर ने कहा, ‘‘प्लास्टिक प्रदूषण और हमारे समुद्र के सामने आ रही अन्य चुनौतियां अब दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रही हैं।
हालांकि, इस पर सीमित कार्रवाई की गयी है और क्रियान्वयन धीमा रहा है।'' उन्होंने कहा, ‘‘अब हम अंतरिक्ष में मलबा एकत्रित होने की ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहे हैं। समुद्र में कचरा एकत्रित होने से हमने क्या सीखा, उस पर विचार करते हुए हम गलतियां दोहराने से बच सकते हैं और अंतरिक्ष में ऐसी ही त्रासदी को रोकने के लिए मिलकर काम कर सकते हैं।'' उन्होंने कहा, ‘‘वैश्विक समझौते के बिना हम अपने आप को एक ही राह पर खड़े देख सकते हैं।फाइल फोटो
- राजस्थान का चित्तौडग़ढ़ किला जिसे 'भारत का सबसे विशाल किला' कहा जाता है। इसके निर्माण की कहानी भी महाभारत काल से जुड़ी हुई है। यह किला चित्तौडग़ढ़ में स्थित है। इसे राजस्थान का गौरव और राजस्थान के सभी दुर्गों का सिरमौर भी कहते हैं। करीब 700 एकड़ में फैले चित्तौड़ के दुर्ग को साल 2013 में यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थल घोषित किया था। इस किले पर अलग-अलग समय में कई राजाओं का शासन रहा है।आठवीं सदी में यहां गुहिल राजवंश के संस्थापक राजा बप्पा रावल का राज था, जिन्होंने मौर्यवंश के अंतिम शासक मानमोरी को हराकर यह किला अपने अधिकार में कर लिया था। इसके बाद इस पर परमारों से लेकर सोलंकियों तक भी शासन रहा। इसपर कई विदेशी आक्रमण भी हुए, जिनकी कहानियां इतिहास में अमर हैं।करीब 180 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस किले में कई एतिहासिक स्तंभ, स्मारक और मंदिर बने हुए हैं। विजय स्तंभ के अलावा यहां 75 फीट ऊंचा एक जैन कीर्ति स्तंभ भी है, जिसे 14वीं शताब्दी में बनवाया गया था। इसके पास ही महावीर स्वामी का मंदिर है। उससे थोड़ा आगे नीलकंठ महादेव का मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि महादेव की इस विशाल मूर्ति को भीम अपने बाजूओं में बांधे रखते थे।इस विशाल किले में प्रवेश करने के लिए कुल दरवाजे बने हुए हैं। इन सभी को पार करके ही किले के अंदर प्रवेश किया जा सकता है। इन सातों के नाम हैं- पाडन पोल, भैरव पोल, हनुमान पोल, गणेश पोल, जोड़ला पोल, लक्ष्मण पोल और राम पोल। पहले द्वार के बारे में कहा जाता है कि एक बार एक भीषण युद्ध में खून की नदी बहने लगी थी, जिसमें एक पाड़ा (भैंसा) बहता हुआ यहां तक आ गया था। इसी कारण इस द्वार का नाम पाडन पोल पड़ा। यहां मौजूद हर दरवाजे की एक अलग कहानी है।कहते हैं कि प्राचीन समय में चित्तौडग़ढ़ किले में एक लाख से भी ज्यादा लोग रहते थे, जिसमें राजा-रानी से लेकर दास-दासियां और सैनिक शामिल थे। इस महान किले को महिलाओं का प्रमुख जौहर स्थान भी माना जाता है। यहां पहला जौहर 13वीं सदी में राजा रतनसिंह के शासनकाल में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय रानी पद्मिनी के नेतृत्व में हुआ था। कहते हैं कि रानी पद्मिनी और उनके साथ 16 हजार दासियों ने विजय स्तंभ के पास ही जीवित अग्नि समाधि ले ली थी। इसके अलावा 16वीं सदी में यहां रानी कर्णावती ने 13 हजार दासियों के साथ जौहर किया था। उसके कुछ सालों के बाद रानी फुलकंवर ने हजारों स्त्रियों के साथ जौहर किया था। ये भारतीय इतिहास की प्रमुख घटनाओं में से एक हैं।इतिहासकारों का मानना है कि इसे मौर्यवंशीय राजा चित्रांगद मौर्य ने सातवीं शताब्दी में बनवाया था। इसके निर्माण को लेकर एक कहानी यह भी है कि इसे महाभारत काल में बनवाया गया था। किवदंती के अनुसार, एक बार भीम जब संपत्ति की खोज में निकले थे, तो उन्हें रास्ते में एक योगी मिले। भीम ने उनसे चमत्कारी पारस पत्थर की मांग की, जिसपर योगी ने कहा कि वो पारस पत्थर दे तो देंगे, लेकिन उन्हें पहाड़ी पर रातों-रात एक किले का निर्माण करना पड़ेगा। भीम इसके लिए मान गए और अपने भाईयों के साथ दुर्ग के निर्माण में लग गए। उनका काम लगभग समाप्त होने ही वाला था, सिर्फ किले के दक्षिणी हिस्से का काम थोड़ा सा बचा हुआ था। इधर योगी किले का तेजी से निर्माण होता देख चिंता में पड़ गए, क्योंकि उसके बाद उन्हें पारस पत्थर भीम को देना पड़ता। इससे बचने के लिए उन्होंने एक उपाय सोचा और अपने साथ रह रहे कुकड़ेश्वर नाम के यति से मुर्गे की तरह बांग देने को कहा, जिससे भीम समझें कि सुबह हो गई है। कुकड़ेश्वर ने भी ऐसा ही किया। अब मुर्गे की बांग सुनकर भीम को गुस्सा आ गया और उन्होंने जमीन पर एक जोर की लात मारी, जिससे वहां पर एक बड़ा सा गड्ढा बन गया। इस गड्ढे को आज लोग लत-लाताब के नाम से जानते हैं।
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रोज 11 मिनट टहलने से जल्दी मृत्यु का खतरा कम होता है : कैंब्रिज विश्वविद्यालय का अध्ययन
लंदन. रोज केवल 11 मिनट या सप्ताह में 75 मिनट टहलने या मध्यम स्तर की शारीरिक गतिविधि से हृदय रोग और कैंसर समेत कई गंभीर बीमारियों के जोखिम को कम करने में मदद मिलती है। कैंब्रिज विश्वविद्यालय की अगुवाई में किए गए एक नए शोध में यह कहा गया है। ‘ब्रिटिश जर्नल ऑफ स्पोर्ट्स मेडिसिन' में मंगलवार को प्रकाशित एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि जल्दी मृत्य के 10 मामलों में से एक को रोका जा सकता है यदि हर कोई ब्रिटेन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा (एनएचएस) द्वारा अनुशंसित शारीरिक गतिविधि की आधी सलाह पर भी अमल करे। मध्यम स्तर की शारीरिक गतिविधि से हृदय संबंधी रोगों और कैंसर का खतरा घटता है और एनएचएस ने वयस्कों को एक सप्ताह में 75 मिनट मध्यम स्तर की शारीरिक गतिविधि करने की सलाह दी है। कैंब्रिज विश्वविद्यालय में मेडिकल रिसर्च काउंसिल (एमआरसी) एपिडेमिओलॉजी यूनिट से जुड़े डॉ. सोरेन ब्राज ने कहा, ‘‘कुछ नहीं करने से बेहतर है कि कुछ शारीरिक गतिविधि में हिस्सा लेना चाहिए। अगर आपको लगता है कि एक सप्ताह में 75 मिनट की शारीरिक गतिविधि कर सकते हैं तो धीरे-धीरे आपको अनुशंसित स्तर तक गतिविधि को बढ़ानी चाहिए।'' दुनिया भर में सबसे ज्यादा मौतें हृदय संबंधी रोगों के कारण होती है। वर्ष 2019 में 1.79 करोड़ लोगों की मौत हृदय रोगों से हुई वहीं 2017 में 96 लाख लोगों ने कैंसर से दम तोड़ दिया। अध्ययन के मुताबिक एक सप्ताह में 75 मिनट शारीरिक गतिविधि से हृदय संबंधी रोगों का खतरा 17 प्रतिशत और कैंसर का खतरा सात प्रतिशत तक कम हो जाता है। - आपने टिड्डों के सिर पर निकली लंबी सी डंडी देखी होगी, इन्हें एंटेना कहा जाता है। ये एंटेना अब बीमारियों का जल्द पता लगाने और सुरक्षा जांच को ज्यादा मुस्तैद बनाने में मददगार बनेंगे।इन एंटेनों का इस्तेमाल करके इजरायली शोधकर्ताओं ने सूंघने वाला एक खास रोबोट बनाया है। इस रोबोट में बायोलॉजिकल सेंसर लगे हैं। इन सेंसरों में टिड्डों का एंटेना इस्तेमाल किया गया है। टिड्डों में सूंघने की गजब क्षमता होती ह। वह एंटेना के सहारे सूंघते ह। तेल अवीव यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने टिड्डों की इसी क्षमता का इस्तेमाल बायो-हाइब्रिड रोबोट बनाने में किया है। उनका कहना है कि टिड्डों के एंटेना की मदद से ये रोबोट मौजूदा इलेक्ट्रॉनिक स्निफर्स के मुकाबले ज्यादा कारगर हो सकते हैं।शोधकर्ताओं ने टिड्डों के एंटेना को रोबोट के दो इलेक्ट्रोड्स के बीच लगाया, जो कि नजदीकी गंध सूंघकर इलेक्ट्रिक सिग्नल भेजता है। हर गंध का अपना एक खास सिग्नेचर होता है। मशीन लर्निंग की मदद से रोबोट का इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम इनकी पहचान कर सकता है। सागोल स्कूल ऑफ न्यूरोसाइंस की शोधकर्ता नेता श्विल ने रॉयटर्स को बताया, "हम ऐसा रोबोट बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें सूंघने की काबिलियत हो और जो अलग-अलग गंधों के बीच फर्क भी कर सकता हो। साथ ही, वो यह भी पता लगा सकता हो कि गंध कहां और किस चीज से आ रही है। "टिड्डे अपने संवेदनशील एंटेना का इस्तेमाल कर अपने आस-पास की हवा के रासायनिक बदलाव का पता लगाते हैं। इससे उन्हें करीबी आबोहवा की रासायनिक गंध के बारे में बहुत तेज और सटीक जानकारी मिलती है। सूंघने की ऐसी क्षमता कई और कीट-पतंगों में भी पाई जाती है। इनके मुकाबले इंसानों की सूंघने की क्षमता बहुत सीमित है। वैज्ञानिक लंबे समय से जानवरों के जैविक सूंघने वाले सेंसरों पर प्रयोग कर रहे हैं। इसकी मदद से एक बायो-हाइब्रिड सेंसर विकसित करने में कामयाबी मिली है, जो जीवों के जैविक सेंसरों और इलेक्ट्रॉनिक पुरजों का खास मिश्रण है।2022 में मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने भी टिड्डों के दिमाग और एंटेना की मदद से मुंह के कैंसर की पहचान की तकनीक विकसित की थी। शोधकर्ताओं के मुताबिक, इस तकनीक के लिए फिलहाल छह से 10 टिड्डों की जरूरत होती है। शोधकर्ता इस संख्या को घटाने की कोशिश पर काम कर रहे हैं। कीट-पतंगों के अलावा कुत्तों की सूंघने की शक्ति का भी दशकों से इस्तेमाल किया जाता रहा है।----
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सिंगापुर. सूक्ष्म प्लास्टिक (माइक्रोप्लास्टिक) या पांच मिलीमीटर से छोटे प्लास्टिक कणों को लेकर वैज्ञानिकों की यह चिंता बढ़ती जा रही है कि क्या ये मानव स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं? अध्ययन दर्शाते हैं कि ये कण हमारे पर्यावरण में, घरों तथा दफ्तरों में रोजमर्रा की चीजों में, समुद्र में, नदियों में, मिट्टी में और बारिश आदि सभी में व्यापक रूप से मौजूद हैं। लोग समय के साथ-साथ इस तरह के जितने रसायन शरीर से निकालते हैं, उससे ज्यादा कण उनके शरीर में पहुंच जाते हैं। हाल में एक विश्लेषण में प्लास्टिक में इस्तेमाल ऐसे 10,000 से अधिक विशिष्ट रसायनों की पहचान की गयी जिनमें से अधिकतर वैश्विक रूप से सही से विनियमित नहीं हैं। अनुसंधान बताते हैं कि हम हर दिन कहीं भी एक लाख से अधिक तक सूक्ष्म प्लास्टिक कणों को शरीर में सोख लेते हैं। अब मछलियों में, सर्जरी कराने वाले रोगियों के शरीर में, अज्ञात रक्तदाताओं के खून में और स्तनपान कराने वाली माताओं के दूध में भी सूक्ष्म प्लास्टिक पाया जा रहा है। सूक्ष्म प्लास्टिक और उससे सेहत पर असर के बीच तार जुड़े होने की पुष्टि करने वाला कोई अध्ययन अभी तक सामने नहीं आया है, हालांकि अनुसंधानकर्ताओं ने इशारा किया है कि प्लास्टिक में पाये जाने वाले रसायन कैंसर, हृदय रोगों, मोटापा और भ्रूण का सही विकास नहीं होने जैसी अनेक स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़े हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हमारे शरीर में अधिक मात्रा में सूक्ष्म प्लास्टिक होने से कोशिकाओं को नुकसान हो सकता है। सभी हितधारक इस बात को मानते हैं कि सूक्ष्म प्लास्टिक की रोकथाम के लिए कदम उठाये जाने चाहिए। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रदूषण के बारे में अपनी चेतावनी में कहा कि सूक्ष्म प्लास्टिक की खपत से ऐसे स्वास्थ्य जोखिम हो सकते हैं जिन्हें कम नहीं किया जा सकता। उनका मानना है कि मनुष्य के शरीर में हर सप्ताह पांच ग्राम प्लास्टिक कण पहुंच जाते हैं। यह एक क्रेडिट कार्ड के वजन के बराबर है। मवेशियों के आहार में प्लास्टिक होने से उस मांस और दुग्ध उत्पाद में सूक्ष्म प्लास्टिक पहुंच सकते हैं जिनका इस्तेमाल हम दैनिक जीवन में करते हैं।
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बच्चे के घर में जन्म लेते ही माता-पिता ही नहीं बल्कि पूरा परिवार उसे पुकारने के लिए एक प्यारा सा नाम ढ़ूंढने लगता है। इस काम के लिए लोग अपने आस-पास के लोगों से ही नहीं बल्कि इंटरनेट की भी मदद लेने से पीछे नहीं हटते हैं। यूं तो भारत में कानूनी तौर पर आप अपने बच्चे के लिए कोई भी नाम पसंद कर सकते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कई ऐसे देश हैं जहां माता-पिता को ये आजादी नहीं होती है। जी हां, आपको बता दें, कई ऐसे देश हैं जहां बच्चों के लिए कुछ नाम बैन किए गए हैं। बच्चों के लिए ये नाम रखने पर उनके माता-पिता को जेल तक हो सकती है। आइए जानते हैं ऐसे ही कुछ देशों और नामों के बारे में।
फ्रांस-
फ्रांस में कोर्ट ने बच्चों के उन नामों को बैन किया हुआ है, जिनकी वजह से बच्चों का मजाक उड़ाया जा सकता है। वहां बैन किए गए नामों में स्ट्रोबेरी, न्यूटिला, डेमोन, प्रिंस विल्यिम, मिनी कॉपर ये नाम शामिल हैं।
स्विट्ज़रलैंड-
स्विट्ज़रलैंड में बच्चों के नाम सिविल रजिस्ट्रार की तरफ से अप्रूव करवाने अनिवार्य होते हैं। कोर्ट के नियमों के अनुसार बच्चे का नाम ऐसा नहीं होना चाहिए जो उसे किसी तरह का नुकसान पहुंचा सके या फिर किसी की भावना को उस नाम से ठेस पहुंच सकें। खासकर बाइबिल में मौजूद किसी बुरे व्यक्ति के नाम पर, किसी ब्रांड, जगह या सरनेम के नाम पर बच्चे का नाम नहीं रखा जा सकता है। स्विट्जरलैंड में जुडस, चैनल, पेरिस, मर्सिडिज जैसे कुछ नामों पर बैन लगा हुआ है।
न्यूजीलैंड-
न्यूजीलैंड में भी नाम को लेकर सरकार ने गाइडलाइंस जारी की हुई हैं। यहां कोई अपने बच्चे का नाम प्रिंस, प्रिंसेस, किंग, मेजर, सार्जेंट और नाइट नहीं रख सकता है।
मेक्सिको-
मेक्सिको देश के सोनोरा में बच्चों के 61 नामों पर पाबंदी है। ये सभी वो नाम हैं जो बेहद अपमानजनक हैं, या फिर दूसरों को चिढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इन नामों में फेसबुक, रामबो, हेरमोनी, बेटमैन नाम शामिल हैं।
जर्मनी-
जर्मनी में बच्चों के नाम को रखने के लिए काफी सख्त नियम, कानून बनाए गए हैं। इन नियमों के मुताबिक लड़के और लड़कियों के नाम एक जैसे नहीं होने चाहिए। इसके अलावा किसी खाद्य पदार्थ के नाम पर भी बच्चों का नाम रखने पर पूरी तरह पाबंदी है। यहां जिन नामों पर बैन है उनमें माटी, ओसामा बिन लादेन, एडोल्फ हिटलर शामिल हैं। -
नयी दिल्ली. मध्य भारत की नर्मदा घाटी में अनुसंधानकर्ताओं ने सबसे बड़े डायनॉसौर में से एक टाइटानोसॉरस के कुल 256 जीवाश्म अंडों वाले 92 घोंसलों का पता लगाया है। इस खोज के बारे में जर्नल पीएलओएस वन में प्रकाशित लेख में भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले टाइटनोसॉरस के जीवन के कुछ अनकहे विवरण का पता चलता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक, मध्य भारत की नर्मदा घाटी में स्थित 'लेमेटा फॉर्मेशन' डायनॉसौर के कंकालों और अंडों के जीवाश्मों के लिए प्रसिद्ध है, जो लगभग 14.5 से 6.6 करोड़ साल पहले समाप्त हो गए थे। इन घोंसलों की विस्तृत जांच के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं और उनके सहयोगियों ने डायनॉसौरों के बारे में कई तरह के अनुमान लगाए हैं। इसके लिए उन्होंने अंडे की ही छह अलग-अलग प्रजातियों की पहचान की जो इस क्षेत्र में टाइटनोसॉरस की उच्च विविधता को दर्शाते हैं। घोंसले के बाहरी आवरण के आधार पर, शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि इन डायनॉसौरों ने आधुनिक समय के मगरमच्छों की तरह अपने अंडों को उथले हुए गड्ढों में दबाया होगा। शोधकर्ताओं ने पता लगाया कि अंडों से संकेत मिलता है कि टाइटनोसॉरस सॉरोपोड्स में पक्षियों की तरह एक प्रजनन संरचना होती थी। वह संभवत आधुनिक पक्षियों में देखे जाने वाले क्रमिक तरीके से अपने अंडे देता था। वहीं, एक ही क्षेत्र में कई घोंसलों की मौजूदगी से पता चलता है कि ये डायनॉसौर कई आधुनिक पक्षियों की तरह ही सामूहिक रूप से अपने घोंसले का निर्माण करते थे। हालांकि, इन घोंसलों के बीच की कम दूरी ने व्यस्क डायनॉसौर के लिए बहुत कम जगह छोड़ी है जिससे लगता है कि शायद वयस्कों ने नवजात बच्चों को अपना पेट भरने की जिम्मेदारी बहुत जल्द सौंप दी। शोधकर्ताओं ने बताया कि ये अंडे डायनॉसौर के इस धरती से समाप्त होने से कुछ पहले के हैं और उनके बारे में अहम जानकारियां दे सकते हैं।
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