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- दुनिया भर में अमीर इंसानों की कोई कमी नहीं है। अमीर होने के साथ-साथ इनके शौक भी बड़े-बड़े होते हैं। किसी को महंगी कार रखने का शौक होता है तो किसी को प्रॉपर्टी खरीदने का। आज हम आपको एक ऐसे प्रधानमंत्री के बारे में बताने जा रहे हैं जिनके पास इतनी दौलत है कि वो छोटे-मोटे देश तो बड़े आराम से खरीद सकते हैं। ये पीएम दुनिया भर की महंगी गाड़ियों का भी शौक रखते हैं। यही कारण है कि इनके पास जो कार कलेक्शन है उसकी चर्चा दुनिया भर में हो रही है। इनके पास एक, दो, तीन नहीं बल्कि 2000 कारों का कलेक्शन है। जी हां! ब्रुनेई के मौजूदा प्रधानमंत्री और सुल्तान हस्सनल बोल्किअह के पास बेहिसाब दौलत के साथ दुनिया की बेहतरीन कारों का कलेक्शन भी है। हस्सनल बोल्किअह मशहूर फुटबॉलर फैक बोल्किअह के रिश्तेदार हैं। फैक भी दुनिया के सबसे अमीर फुटबॉलर है।ब्रुनेई के प्रधानमंत्री हस्सनल बोल्किअह को महंगी कारों का बहुत शौक है। इन कारों की कीमत का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि इन्हें बेचकर दुनिया के कई गरीब देश खरीदे जा सकते हैं। हस्सनल के पास चार खरब से ज्यादा कीमत की दो हजार कारें उनके गैराज में खड़ी हैं। ये कोई साधारण गाड़ियां नहीं है। गैराज में खड़ी एक गाड़ी को भी खरीदने के लिए आम इंसान को सौ बार सोचना पड़ेगा।हस्सनल बोल्किअह के पास 600 रॉल्स रॉयस, 570 मर्सिडीज बेंज, 450 फेरारी और करीब 380 बेंटलेस जैसी कारें हैं। इसके अलावा भी कई अन्य कार पीएम के कारों के कलेक्शन का हिस्सा हैं। बात अगर हस्सनल बोल्किअह के कुल संपत्ति की करें तो इनके पास 13 बिलियन यूरो यानी 13 खरब 12 अरब 13 करोड़ 97 लाख 5 हजार 5 सौ के करीब रुपए हैं। इस संपत्ति में 4 खरब रुपए इनकी कारों की कीमत है।वहीं इस पीएम के रिश्तेदार दुनिया के सबसे अमीर फुटबॉलर फैक बोल्किअह भी इनदिनों चर्चा में हैं। ब्रुनेई के पीएम फैक के रिश्ते में अंकल लगते हैं। फैक ने अपनी पढ़ाई इंग्लैंड से की है और अभी वो ब्रुनेई के अंडर 19 और अंडर 23 फुटबॉल टीम में हैं।एक मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, फैक के पिता एक प्लेब्वॉय के तौर पर जाने जाते हैं। ये दुनिया में सबसे ज्यादा कैश रखने वाले इंसान थे। अगर ये कहें कि ये पूरा खानदान ही पैसों से भरा हुआ है तो गलत नहीं होगा।
- आप धरती पर एक जगह से दूसरे जगह की यात्रा कर जा रहे हैं, तो क्या आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि बिना कोई नदी या जलस्त्रोत पार किए कितनी दूर जा सकते हैं। शायद आप इस बात का अंदाजा नहीं लगा सकते हैं। हालांकि दुनिया में एक ऐसे रास्ते की खोज हुई है जिस रास्ते से पैदल यात्रा करने में कोई नदी या जलस्त्रोत नहीं है। इस बात पर आपको यकीन नहीं हो रहा होगा, लेकिन यह बिल्कुल सच है।एक रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटिश नाविक जॉर्ज मीगन अमेरिका के अर्जेंटीना से 30,608 किलोमीटर लंबी दूरी तय कर 1983 में अलास्का पहुंचे थे। उन्होंने यह लंबी यात्रा कुल 2425 दिनों में पूरी की थी। जबकि अमेरिकी आर्मी रेंजर होली हैरिसन ने इसी रास्ते पर साल 2018 में 530 दिनों में 23,305 किलोमीटर की दूरी तय कर ली थी। आइए बताते हैं किसने अब तक सबसे लंबी पैदल यात्रा की है।एक प्रतियोगी हैं जिन्होंने सबसे लंबी पैदल यात्रा की है। इन्होंने साल 2020 में दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन से यात्रा की शुरुआत थी। उन्होंने अपनी यात्रा पूरी करने के लिए गूगल मैप की मदद ली थी। इस प्रतियोगी ने रूस के मागाडान पहुंचने के लिए 22,104 किलोमीटर की दूरी तय की। लेकिन इनका नाम गोपनीय रखा गया है।इस रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर आप बिना कोई नदी या जलस्रोत पार किए सीधी रेखा में जाना चाहते हैं, तो चीन से पुर्तगाल तक की यात्रा कर सकते हैं। आयरलैंड के कॉर्क स्थित कोलिंस एयरोस्पेस एप्लाइड रिसर्च एंड टेक्नोलॉजी के फिजिसिस्ट, इलेक्ट्रिकल इंजीनियर रोहन चाबुकश्वर और नई दिल्ली स्थित आईबीएम रिसर्च के इंजीनियर कुशल मुखर्जी ने साल 2018 में इस रास्ते को खोजा था। रोहन और कुशल की रिपोर्ट के मुताबिक, इस सीधी रेखा से पैदल यात्रा करने पर करीब 11,240 किलोमीटर लंबी दूरी तय करनी होगी। इस रास्ते में आपको किसी भी नदी या जलस्रोत को पार नहीं करना होगा।दक्षिण-पूर्वी चीन से इस रास्ते की शुरुआत होती है। इस रास्ते में 13 देश पड़ते हैं जिनमें मंगोलिया, कजाकिस्तान, रूस, बेलारूस, यूक्रेन, पोलैंड, चेक गणराज्य, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, लींचस्टेनटीन के अलावा स्विट्जरलैंड, फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल के सैगरेस का इलाका शामिल हैं। यह रिपोर्ट साल 2018 में arXiv प्रीप्रिंट डेटाबेस में प्रकाशित की गई थी।-
- भारत का संविधान संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ। 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। संविधान में सरकार के संसदीय स्वरूप की व्यवस्था की गई है, जिसकी संरचना कुछ अपवादों के अतिरिक्त संघीय है। केन्द्रीय कार्यपालिका का सांविधानिक प्रमुख राष्ट्रपति है। भारत के संविधान की धारा 79 के अनुसार, केन्द्रीय संसद की परिषद् में राष्ट्रपति तथा दो सदन है जिन्हें राज्यों की परिषद राज्यसभा तथा लोगों का सदन लोकसभा के नाम से जाना जाता है।प्रत्येक राज्य में एक विधानसभा है। जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में एक ऊपरी सदन है जिसे विधानपरिषद कहा जाता है। राज्यपाल राज्य का प्रमुख है। प्रत्येक राज्य का एक राज्यपाल होगा तथा राज्य की कार्यकारी शक्ति उसमें निहित होगी। मंत्रिपरिषद, जिसका प्रमुख मुख्यमंत्री है, राज्यपाल को उसके कार्यकारी कार्यों के निष्पादन में सलाह देती है।भारतीय संविधान की आधारभूत एवं विभेदकारी विशेषताएं-1. 11 दिसंबर 1946 को संविधान सभा की बैठक में डॉ राजेंद्र प्रसाद को स्थायी अध्यक्ष चुना गया, जो अंत तक इस पद पर बने रहें।2. संविधान सभा के सदस्य, भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ भीमराव अम्बेडकर, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे।3. भारत के संविधान के निर्माण में डॉ भीमराव अम्बेडकर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।4. इस संविधान सभा ने 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन मे कुल 114 दिन बैठक की, इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की पूर्ण स्वतंत्रता थी।5. भारत का संविधान विश्व के किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है। इसमें अब 465 अनुच्छेद, तथा 12 अनुसूचियां हैं और ये 22 भागों में विभाजित है। परन्तु इसके निर्माण के समय मूल संविधान में 395 अनुच्छेद, जो 22 भागों में विभाजित थे इसमें केवल 8 अनुसूचियां थीं।6. भारत के नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, पद, अवसर और कानूनों की समानता, विचार, भाषण, विश्वास, व्यवसाय, संघ निर्माण और कार्य की स्वतंत्रता, कानून तथा सार्वजनिक नैतिकता के अधीन प्राप्त होगी।7. भारत मे द्वैध नागरिकता नहीं है। केवल भारतीय नागरिकता है। जाति, रंग, नस्ल, लिंग, धर्म या भाषा के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना, सभी को बराबर का दर्जा और अवसर देता है।8. भारतीय संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण है, राज्य की शक्तियां केंद्रीय तथा राज्य सरकारों मे विभाजित होती हैं, दोनों सत्ताएं एक-दूसरे के अधीन नहीं होती है, वे संविधान से उत्पन्न तथा नियंत्रित होती हैं। यह संघ राज्यों के परस्पर समझौते से नहीं बना है।9. राज्य अपना पृथक संविधान नही रख सकते है, केवल एक ही संविधान केन्द्र तथा राज्य दोनों पर लागू होता है। वास्तविक कार्यकारी शक्ति मंत्रिपरिषद् में निहित है, जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री है।10. 'धर्मनिरपेक्षÓ शब्द संविधान के 1976 में हुए 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया यह सभी धर्मों की समानता और धार्मिक सहिष्णुता सुनिश्चीत करता है।12. 'समाजवादीÓ शब्द संविधान के 1976 में हुए 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया यह अपने सभी नागरिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित करता है।
- गणतंत्र दिवस भारत का एक राष्ट्रीय पर्व जो प्रति वर्ष 26 जनवरी को मनाया जाता है। इसी दिन सन 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया था।एक स्वतंत्र गणराज्य बनने और देश के संक्रमण को पूरा करने के लिए, 26 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा इस संविधान को अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को इसे एक लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली के साथ लागू किया गया था। 26 जनवरी को इसलिए चुना गया था क्योंकि 1930 में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया था। 26 जनवरी 1950 को डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने गवर्नमेंट हाउस के दरबार हाल में भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली। पहला गणतंत्र दिवस समारोह राजपथ पर नहीं मनाया गया था , इस दिन इर्विन स्टेडियम (आज का नेशनल स्टेडियम) में झंडा फहराया गया था ।पहला गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो थे । पहला समारोह सवेरे के बजाय दोपहर बाद मनाया गया था। पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद गवर्नमेंट हाउस (आज के राष्ट्रपति भवन) से छह घोड़ों वाली बग्घी से समारोह स्थल तक पहुंचे। पहले समारोह में राष्ट्रपति को 31 तोपों की सलामी दी गई।राष्ट्रपति को 31 तोपों की सलामी देने की परंपरा 70 के दशक तक चली। बाद में 31 तोपों के बजाय 21 तोपों की सलामी दिए जाने की परंपरा चलाई गई जो आज तक जारी है। 1952 से बीटिंग रिट्रीट की परंपरा भी शुरू हुई। पहली बार राजपथ पर परेड का आयोजन वर्ष 1955 में हुआ । राजपथ पर पहली परेड के पहले मुख्य अतिथी पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मलिक गुलाम मोहम्मद थे। वर्ष 1955 में गणतंत्र दिवस पर मुशायरे की परंपरा लाल किले के दीवान-ए-आम में शुरू हुई। मुशायरा रात दस बजे शुरू होता था। अगले वर्ष 14 भाषाओं का कवि सम्मेलन रेडियो से प्रसारित हुआ।वर्ष 1957 के गणतंत्र दिवस से सरकार ने बच्चों के लिए राष्ट्रीय बहादुरी पुरस्कार शुरू किया । वर्ष 1958 से 26 जनवरी के मौके पर सरकारी इमारतों पर रोशनी करने की परंपरा शुरू हुई।वर्ष 1960 के गणतंत्र दिवस समारोह को दिल्ली में 20 लाख लोगों ने देखा, इनमें से पांच लाख लोग तो राजपथ पर ही जमा थे। बाकी लोग दिल्ली के जिन इलाकों से परेड गुजरी वहां से इसे देखा। 1961 के गणतंत्र दिवस समारोह की मुख्य अतिथि ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ बनीं थी। वर्ष 1962 से परेड और बीटींग रिट्रीट समारोह के लिए टिकटों की बिक्री शुरू की गई। तब परेड की लंबाई छह मील हो गई थी यानी जब परेड की पहली टुकड़ी लाल किला पहुंच गई तब आखिरी टुकड़ी इंडिया गेट पर ही थी।वर्ष 1962 में चीनी आक्रमण हुआ जिसके फलस्वरूप अगले वर्ष परेड का आकार कम कर दिया गया। 1965 के गणतंत्र दिवस के दिन हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया। 1968 के गणतंत्र दिवस समारोह में 136 विमानों ने फ्लाई पास्ट में भाग लिया। 1969 के गणतंत्र दिवस समारोह में 164 विमानों ने भाग लिया और मिग-21 ने पहली बार राजपथ पर उड़ान भरी।1972 के गणतंत्र दिवस समारोह राज पथ के बजाय विजय चौक पर आयोजित किया गया। क्योंकि इस वर्ष पाकिस्तान के साथ 1971 के युद्ध शहीदों हुए वीर जवानो को नमन किया गया। 1972 के गणतंत्र दिवस समारोह में राष्ट्रपति को 31 तोपों की सलामी दी गई और बांग्लादेश की आजादी और भारत की विजय का जश्न मनाया गया। 1973 में पहली बार प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति पर श्रद्धांजलि अर्पित की। तब से यह परंपरा जारी है।वर्ष 2001 के गणतंत्र दिवस समारोह से पहली बार बीटींग रिट्रीट कार्यक्रम रद्द किया गया। क्योंकि इस साल गणतंत्र दिवस के दिन ही गुजरात व देश के अन्य भागों में आए भयानक भूकंप आया था, जिसके फलस्वरूप जान-माल की हानि हुई थी।---
- संगीत की दुनिया में तानसेन का नाम अजर अमर है। संगीत सम्राट की उपाधि प्राप्त तानसेन को लेकर अनेक किस्से मशहूर हैं। तानसेन के बारे में कहा जाता है कि जब वो अपना राग छेड़ते थे तो मौसम अपने आप बदल जाता था। उनकी गायकी से आसमान में बादल आ जाते और बरसने लगते थे। जब वो अपना राग दीपक गाते थे तो दीप अपने आप जल जाते थे। यही कारण है कि तानसेन को संगीत सम्राट भी कहा जाता है। तानसेन ने शास्त्रीय संगीत को आगे बढ़ाने में अमूल्य योगदान दिया। तानसेन गायक होने के साथ उच्च कोटि के वादक भी थे। जिन्होंने कई रागों का निर्माण किया।कहा जाता है कि तानसेन बचपन में बोल नहीं पाते थे। इसके लिए उन्हें इमली के पत्ते खिलाए गए। ऐसा कहा जाता है कि तानसेन की गायकी का राज एक इमली का पेड़ था। इसके बाद तानसेन संगीत की दुनिया का सम्राट बन गए। तानसेन संगीत का इतना रियाज करते थे कि उनकी इस साधना को देखकर उस समय के बादशाह अकबर ने उन्हें अपने नौरत्नों में शामिल किया था। उस दौर में बादशाह अकबर के नौरत्नों में शामिल होना एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी।तानसेन का निधन आगरा में हुआ था। तानसेन की अंतिम अच्छा थी कि जब उनका निधन हो तो उन्हें उनके आध्यात्मिक गुरु मोहम्मद गौस के मकबरे के पास ही दफनाया जाए। इसके बाद ऐसा ही हुआ और उन्हें वहीं दफनाया गया। जिस जगह पर तानसेन को दफनाया गया था उसी जगह एक इमली का पेड़ उग आया। धीरे-धीरे ये मान्यता हो गई कि जो भी इस पेड़ की पत्तियां खाएगा उसका गला सुरीला हो जाएगा।यही वजह है कि संगीत की साधना करने वाला हर इंसान यहां आता है और पेड़ की पत्तियां अपने साथ ले जाता है। माना जाता है कि ये पेड़ 600 साल पुराना है और दुनिया भर के संगीतकारों के लिए ये पेड़ किसी धरोहर से कम नहीं है। ऐसी मान्यता है कि इन पेड़ों की पत्तियों में मियां तानसेन की रूह बसती है जो भी इस पेड़ की पत्तियां खाएगा उसकी आवाज सुरीली हो जाएगी।कहा जाता है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के जाने-माने कलाकार पंडित जसराज जब यहां आए तो इस पेड़ की पत्तियों को खाने से खुद को रोक नहीं पाए। जब वो जाने लगे तो कुछ पत्तियां अपने साथ भी ले गए। संगीत की समझ रखने वाले और इतिहासकार मानते हैं कि जो पेड़ की पत्तियां खाता है उसे तानसेन का आशीर्वाद मिलता है।
- दुनियाभर के वैज्ञानिक मंगल ग्रह के रहस्यों के बारे में जानने की कोशिश में लगे हुए हैं। समय-समय पर वैज्ञानिक मंगल ग्रह के बारे में नए-नए खुलासे करते रहते हैं। आमतौर मंगल ग्रह लाल रंग का दिखाई देता है। अब इस बीच अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के पर्सिवरेंस रोवर ने मंगल ग्रह पर बैंगनी रंग के पत्थर की खोज की है। दरअसल इन पत्थरों पर बैंगनी रंग की परत है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि जेजेरो क्रेटर में हर तरफ ये बैंगनी रंग के छोटे और बड़े पत्थर मौजूद हैं।नासा के वैज्ञानिक अभी यह पता नहीं लगा पाए हैं कि रहस्यमयी बैंगनी पत्थरों का निर्माण कैसे हुआ? या इन पत्थरों पर वैगनी रंग कैसे चढ़ गया। जियोकेमिस्ट एन ओलिला का कहना है कि पर्सिवरेंस रोवर से जो डेटा प्राप्त हुए हैं उससे इन रहस्यमयी रंगों के पत्थरों के बारे में कोई स्पष्ट जनाकारी नहीं मिल पाई है। उन्होंने अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन (एजीयू) में नेशनल जियोग्राफिक को यह जानकारी दी है।मंगल ग्रह पर बैंगनी पत्थर मिलने से पहले हरे रंग के भी पत्थर मिल चुके हैं। साल 2016 में क्यूरियोसिटी रोवर ने माउंट शार्प के पास हरे रंग के पत्थरों की खोज की थी। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ने मंगल ग्रह पर अलग-अलग रंग के पत्थरों को खोजा है जिनमें कुछ न कुछ विभिन्नता है। एन ओलिला ने बताया है कि पर्ड्यू यूनिवर्सिटी के ब्रैडली गार्सिन्की की टीम इन बैंगनी पर वला पत्थरों पर रिसर्च कर रही है।मंगल ग्रह पर बैंगनी पत्थरों की तस्वीरें पर्सिवरेंस रोवर के मास्टकैम-z कैमरा और eye कैम ने ली थी। अब इन तस्वीरों के माध्यम ब्रैडली गार्सिन्की की टीम रहस्यमयी पत्थरों की जांच करेगी। ब्रैडली का कहना है कि उन्होंने पहले कभी ऐसे पत्थरों को नहीं देखा है और ना ही पर्सिवरेंस रोवर ने ऐसे पत्थरो की जांच की थी। हम इन्हें देखकर हैरान हैं।तो वहीं जियोकेमिस्ट एन ओलिला की टीम पत्थरों के ऊपर की परत को पिघलाकर पत्थर और बैंगनी परत की जांच करेगी। टीम पत्थरों को पर्सिवरेंस सुपरकैम के माध्यम से लेजर शूट कर पिघलाएगी। शुरुआती जांच के बाद वैज्ञानिकों ने बताया है कि पत्थरों पर चढ़े बैंगनी परत मुलायम हैं और रासायनिक तौर पर अलग हैं। पत्थर की अंदरुनी परत दूसरी तरह की है। वैज्ञानिकों का कहना है कि, हो सकता है कि हाइड्रोजन और मैग्नीशियम के मिश्रण से यह परत बन गई हो।वैज्ञानिक यह जांच कर रहे हैं कि लाल ग्रह पर बैंगनी रंग के परत वाले पत्थर कहां से आए। इन पत्थरों पर बैंगनी रंग कैसे चढ़ा? वैज्ञानिकों के मन में यह भी सवाल उठ रहा है कि कहीं ये कोई सुक्ष्मजीव तो नहीं है। इस जीव ने सूर्य की तीव्र रेडिएशन से बचाने के लिए अपने ऊपर कोटिंग चढ़ा ली हो। अब जांच के बाद ही इन रहस्यमयी पत्थरों के बारे में पता लग पाएगा।
- अमेरिका की एक एयरोस्पेस कंपनी ने स्पेसफ्लाइट को लेकर एक ऐसा स्पेसप्लेन (Spaceplane) बनाने का खुलासा किया है. ये स्पेसप्लेन एक रनवे से उड़ान भर सकता है और फिर जमीन पर लैंड कर सकता है. वाशिंगटन में मौजूद रेडियन एयरोस्पेस (Radian Aerospace) ने दावा किया है कि इसका स्पेसप्लेन यात्रा को अंतरिक्ष और दुनियाभर में पूरी तरह से बदल लेगा.अमेरिका की एक एयरोस्पेस कंपनी ने स्पेसफ्लाइट को लेकर एक ऐसा स्पेसप्लेन (Spaceplane) बनाने का खुलासा किया है. ये स्पेसप्लेन एक रनवे से उड़ान भर सकता है और फिर जमीन पर लैंड कर सकता है. वाशिंगटन में मौजूद रेडियन एयरोस्पेस (Radian Aerospace) ने दावा किया है कि इसका स्पेसप्लेन यात्रा को अंतरिक्ष और दुनियाभर में पूरी तरह से बदल लेगा.कंपनी ने दावा किया है कि ये टूरिज्म मार्केट पर ध्यान केंद्रित नहीं करेगा. इसका फोकस रिसर्च, अंतरिक्ष में निर्माण और पृथ्वी के ऑब्जर्वेशन को आसान और सस्ता बनाने का एक तरीका ढूंढता है. रेडियन का कहना है कि उसने रेडियन वन एयरोस्पेस वाहन के डिजाइन और प्रारंभिक विकास पर ध्यान केंद्रित करते हुए 'स्टील्थ मोड में संचालित' किया है. कंपनी ने कहा कि ये स्पेसप्लेन पारंपरिक वर्टिकल रॉकेट्स की जगह लेगा.रेडियन एयरोस्पेस ने कहा, ये स्पेसप्लेन रिजूजेबल होगा और विमानों जैसे सिस्टम होने की वजह से कम इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत पड़ेगी. स्पेस्पेलन को एक उड़ान के 48 घंटे बाद फिर से उड़ाया जा सकता है. स्पेसप्लेन पृथ्वी की निचली कक्षा में उड़ान भर सकेगा. एक बार कक्षा में होने पर इसका मिशन पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाते हुए 90 मिनट तक से लेकर पांच दिनों तक का हो सकता है.स्पेस से पृथ्वी पर वापस आने के दौरान स्पेसप्लेन के पंख इसे किसी भी 10 हजार फीट लंबे रनवे पर सुरक्षित लैंड करने में मदद करेंगे. इस तरह ये विमान दुनिया के किसी भी बड़े एयरपोर्ट पर आराम से लैंड कर सकेगा. कंपनी का कहना है कि स्पेसप्लेन अंतरिक्ष में एक बार पहुंचने पर कई प्रकार के कार्यों को करने में सक्षम होगा, जिसमें लोगों और हल्के कार्गो को पृथ्वी की निचली कक्षा में ले जाना शामिल है.रेडियन के सीईओ और सह-संस्थापक रिचर्ड हम्फ्री ने कहा, हम मानते हैं कि अंतरिक्ष तक व्यापक पहुंच का मतलब मानव जाति के लिए असीमित अवसर हैं. उन्होंने कहा, समय के साथ हम अंतरिक्ष यात्रा को विमान यात्रा की तरह लगभग सरल और सुविधाजनक बनाने का इरादा रखते हैं. उन्होंने आगे कहा कि उनका फोकस भी स्पेस टूरिज्म पर नहीं है.
- भारत कई रहस्यमयी मंदिरों का घर है। रहस्य भी ऐसे जो सदियों से अनसुलझे हैं। इसके अलावा कई मंदिर अपने साथ जुड़ी अजीब मान्यताओं, भौगोलिक स्थितियों आदि के कारण भी प्रसिद्ध हैं। इन्हीं में से एक है बिहार के दरभंगा में चिता पर बना मां काली का मंदिर। श्यामा माई के नाम से मशहूर यह काली मंदिर श्मशान घाट में है। इतना ही नहीं यह मंदिर चिता के ऊपर बना है। मान्यता है कि इस मंदिर में मां श्यामा काली के दर्शन मात्र से सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं।किसकी है चिता?श्यामा माई का यह मंदिर महाराजा रामेश्वर सिंह की चिता पर बनाया गया है। यह बेहद ही अजीब बात है कि किसी मंदिर का निर्माण किसी व्यक्ति की चिता पर किया गया हो। हालांकि इसके पीछे की एक खास वजह है। महाराजा रामेश्वर सिंह दरभंगा राज परिवार के साधक राजाओं में से एक थे। देवी के प्रति उनकी साधना मशहूर है। यहां तक कि अब इस मंदिर को रामेश्वरी श्यामा माई के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण 1933 में महाराजा रामेश्वर सिंह के वंशज दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह ने की थी।आरती में शामिल होने भक्त करते हैं घंटों इंतजारइस मंदिर में मां काली के गले में मुंडों की माला है और इसमें मुंड की संख्या हिंदी के वर्णमाला के अक्षरों जितनी यानी कि 52 है। मान्यता है कि हिंदी वर्णमाला सृष्टि की प्रतीक है। इस मंदिर की एक और खास बात यहां कि आरती है। इस मंदिर की आरती इतनी मशहूर है कि इसमें शामिल होने के लिए भक्त घंटों तक इंतजार करते हैं। खासतौर पर नवरात्रि में तो यहां भारी भीड़ होती है।तंत्र-मंत्र दोनों से होती है पूजाइस मंदिर में मां काली की पूजा वैदिक और तांत्रिक दोनों विधियों से की जाती है। वैसे हिंदू धर्म में शादी के एक साल बाद तक दूल्हा-दुल्हन को श्मशान घाट में नहीं जाने के लिए कहा गया है, लेकिन इस मंदिर में दर्शन करने के लिए नवविवाहित दूर-दूर से आते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से उनका दांपत्य जीवन सुखी रहता है।
- भारत के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती हर साल 23 जनवरी को मनाई जाती है। इस साल भारत सरकार ने गणतंत्र दिवस का पर्व 24 जनवरी के बजाए 23 जनवरी से मनाने का फैसला लिया है। अब से हर साल सुभाष चंद्र बोस की जयंती से गणतंत्र दिवस पर्व का आगाज होगा। भारत सरकार का यह निर्णय नेताजी के सम्मान और देश की स्वतंत्रता में उनके संघर्षों को याद रखने के लिए लिया गया है। इस साल भारत सुभाष चंद्र बोस की 124वीं जयंती मना रहा है।सुभाष चंद्र बोस एक वीर सैनिक, योद्धा, महान सेनापति और कुशल राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए आजाद हिंद फौज के गठन से लेकर हर भारतीय को आजादी का महत्व समझाने तक हर काम को किया। वह केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर के लिए प्रेरणा हैं। 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' ये वह नारा है जिसने हर भारतवासी के खून को गरम कर दिया। अंग्रेजों से लडऩे के लिए एक ऐसी ताकत दी, जिसे हम देशभक्ति का नाम दे सकते हैं। लेकिन भारत के इस महान नेता के बारे में आप कितना जानते हैं? सुभाष चंद्र बोस के बारे में कई ऐसी बातें हैं, जिसे जानकर आप हर भारतीय गर्व करेगा। चलिए जानते हैं सुभाष चंद्र बोस की जयंती के मौके पर उनसे जुड़ी रोचक बातें।सुभाष चंद्र बोस का बचपन और शिक्षासुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को ओडिशा राज्य के कटक में एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। सुभाष चंद्र बोस के 7 भाई और 6 बहनें थीं। अपने माता-पिता के 14 बच्चों में वह 9 वीं संतान थे। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माता का नाम प्रभावती देवी था। सुभाष चंद्र बोस ने अपनी शुरुआती शिक्षा कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल से पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिए 1913 में कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। यहां से साल 1915 में उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। उनके माता-पिता चाहते थे कि सुभाष चंद्र बोस भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाएं। सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए उन्हें इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय भेजा गया था।प्रशासनिक सेवा में नेताजी का चौथा स्थानये किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं था कि अंग्रेजों के शासन में जब भारतीयों के लिए किसी परीक्षा में पास होना तक मुश्किल होता था, तब नेताजी ने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में चौथा स्थान हासिल किया। उन्होंने पद संभाला, लेकिन भारत की स्थिति और आजादी के लिए सब छोड़कर स्वदेश वापसी की और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए। सुभाष चंद्र बोस क्रांतिकारी दल का नेतृत्व कर रहे थे।सुभाष चंद्र बोस का परिवार और बच्चेनेताजी ने अपनी सेक्रेटरी एमिली से शादी की थी जो कि ऑस्ट्रियन मूल की थीं। उनकी अनीता नाम की एक बेटी भी हैं, जो जर्मनी में अपने परिवार के साथ रहती हैं।नेताजी और द्वितीय विश्व युद्धसाल 1938 में सुभाष चंद्र बोस को राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष भी निर्वाचित किया गया। उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया। एक साल बाद 1939 के कांग्रेस अधिवेशन में पट्टाभि सीतारमैया को नेताजी ने हरा दिया। इसके बाद नेताजी ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। उन दिनों दूसरा विश्व युद्ध हो रहा था। नेताजी ने अंग्रेजों के खिलाफ अपनी मुहिम तेज कर दी। जिसके कारण उन्हे घर पर ही नजरबंद कर दिया गया, लेकिन नेताजी किसी तरह जर्मनी चले गए। यहां से उन्होंने विश्व युद्ध को काफी करीब से देखा।आजाद हिंद फौज का गठनदेश की आजादी के लिए सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिंद सरकार की स्थापना की और आजाद हिंद फौज का गठन किया। साथ ही उन्होंने आजाद हिंद बैंक की भी स्थापना की। दुनिया के दस देशों ने उनकी सरकार, फौज और बैंक को अपना समर्थन दिया था। इन दस देशों में बर्मा, क्रोसिया, जर्मनी, नानकिंग (वर्तमान चीन), इटली, थाईलैंड, मंचूको, फिलीपींस और आयरलैंड का नाम शामिल हैं। इन देशों ने आजाद हिंद बैंक की करेंसी को भी मान्यता दी थी। फौज के गठन के बाद नेताजी सबसे पहले बर्मा पहुंचे, जो अब म्यांमार हो चुका है। यहां पर उन्होंने नारा दिया था, 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा'। यह वह दौर था जब भारत देश आजादी की ओर अग्रसर था।सुभाष चंद्र बोस की मौत का रहस्यनेताजी की ताकत बढ़ रही थी, लेकिन अचानक 18 अगस्त 1945 को सुभाष चंद्र बोस का निधन हो गया। कहा जाता है कि सुभाष चंद्र बोस का हवाई जहाज मंचुरिया जा रहा था, जो रास्ते में लापता हो गया। आज तक ये नहीं पता चल सका कि सुभाष चंद्र बोस के हवाई जहाज का क्या हुआ, वह कहां गया?
- वैज्ञानिकों को अमेरिका के ऊटा में तंबाकू के इस्तेमाल के 12 हजार 300 साल पुराने सबूत मिले हैं। इससे पहले मिले तंबाकू के सबसे पुराने अवशेष बस 3 हजार 300 साल पुराने थे।इस खोज को मानव संस्कृति के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जा रहा है। तंबाकू के ये पुराने अवशेष ऊटा के ग्रेट सॉल्ट लेक रेगिस्तान में एक सिगड़ी के अवशेषों में मिले हैं। शोधकर्ताओं को सिगड़ी के अंदर मौजूद चीजों में तंबाकू के एक जंगली पौधे के चार जले हुए बीज मिले। इनके साथ साथ पत्थर के कुछ औजार और खाने में से बची हुई बत्तख की हड्डियां मिलीं। अभी तक तंबाकू के इस्तेमाल के जो सबसे पुराने सबूत मिले थे वो अल्बामा में मिले 3 हजार 300 साल पुराने धूम्रपान के एक पाइप के अंदर निकोटीन के अवशेष थे।शोधकर्ताओं का मानना है कि ऊटा वाली जगह पर खानाबदोश लोगों ने इस तंबाकू से धूम्रपान किया होगा या तंबाकू के पौधे के रेशों के गुच्छों को चूसा होगा। संभव है उन्होंने उसका सेवन उसमें मौजूद उत्तेजित करने वाले गुणों के लिए किया हो। तंबाकू के इस्तेमाल की शुरुआत "नई दुनिया" के नाम से जाने जाने वाले उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के इलाकों में ही हुई। सबसे पहले वहां के मूल निवासियों ने इसका सेवन किया और फिर करीब 500 साल पहले यूरोपीय लोगों के वहां पहुंचने के बाद तंबाकू दुनिया भर में फैल गई। आज इसे एक वैश्विक संकट के रूप में देखा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि आज पूरी दुनिया में 1.3 अरब लोग तंबाकू का सेवन करते हैं और हर साल इसकी वजह से 80 लाख से भी ज्यादा लोगों की मौत हो जाती है।इस नई खोज के बारे में 'नेचर ह्यूमन बिहेवियर' पत्रिका में छपे लेख के मुख्य लेखक पुरातत्वविद डैरन ड्यूक कहते हैं, "वैश्विक स्तर पर तंबाकू मादक पौधों का राजा है और अब हम इसकी सांस्कृतिक जड़ों की पहुंच सीधे शीत युग तक पा सकते हैं।"ड्यूक नेवाडा के फार वेस्टर्न ऐंथ्रोपोलॉजिकल रिसर्च ग्रुप के सदस्य हैं. उन्होंने इन बीजों के बारे में बताया, "इस नस्ल के पौधे हमेशा से जंगली रहे लेकिन इस प्रांत के मूल निवासी आज भी इसका सेवन करते हैं।" यह बीज निकोटियाना आतेनुआता नाम के रेगिस्तानी तंबाकू की एक जंगली किस्म के पौधे के हैं। यह पौधा यहां आज भी पाया जाता है। ग्रेट सॉल्ट लेक रेगिस्तान उत्तरी ऊटा में स्थित एक विशाल सूखी हुई झील का इलाका है.। सिगड़ी के ये अवशेष जिस समय के हैं उस समय यह इलाका एक विशाल दलदली भूमि का हिस्सा था। शीत युग का अंत नजदीक था लेकिन तब भी यहां का मौसम ठंडा था। सिगड़ी में मिली हड्डियों के नाम पर इस जगह को विशबोन स्थल कहा जाता है। सिगड़ी के अवशेष वहां मौजूद मिट्टी के घरों से उड़ती धूल के नीचे मिले थे। यहां मौजूद दलदली भूमि करीब 9 हजार 500 साल पहले सूख गई थी और तब से हवा वहां की तलछट को परत दर परत हटा रही है।उन खानाबदोशों के बारे में बताते हुए ड्यूक कहते हैं, "हम उनकी संस्कृति के बारे में बहुत कम जानते हैं। मुझे इस खोज के बारे में सबसे दिलचस्प बात यही लगती है कि इसने इस सरल सी गतिविधि की सामाजिक अवधि को बढ़ा दिया है। मेरी कल्पना के घोड़ों ने दौडऩा शुरू कर दिया है। " ड्यूक आगे बताते हैं कि इस खोज के हजारों साल बाद इसी महाद्वीप पर दक्षिणपश्चिमी और दक्षिणपूर्वी अमेरिका और मेक्सिको में तंबाकू को उगाना शुरू किया गया। उन्होंने कहा, "हमें यह नहीं मालूम कि तंबाकू को उगाना ठीक ठीक कब शुरू किया गया, लेकिन पिछले 5 हजार सालों में उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में कृषि काफी फला-फूला था। तंबाकू के इस्तेमाल के सबूत इस समय में खाद्य फसलों की खेती के साथ बढ़ते जाते हैं।" कुछ वैज्ञानिकों ने तो यहां तक दावा किया है कि तंबाकू उत्तरी अमेरिका में उगाया जाने वाला पहला पौधा भी हो सकता है और ऐसा खाने की जगह सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों की वजह से किया गया होगा।
- लंबे समय से एस्टेरॉयड को धरती के लिए खतरा बताया जा रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर एस्टेरॉयड धरती से टकराता है, तो बड़ी तबाही मच सकती है। आज यानी 18 जनवरी को विशालकाय एस्टेरॉयड पृथ्वी के पास से गुजरेगा। बताया जा रहा है यह अभी तक का सबसे बड़ा एस्टेरॉयड है जिसका नाम 7482 है। इस एस्टेरॉयड की लंबाई करीब 1 किलोमीटर यानी 3280 फीट है। यह धरती से 19.3 लाख किलोमीटर दूर से गुजरेगा। इसलिए इससे धरती को कम खतरा है। अगर इसके रास्ते में थोड़ा भी बदलाव होता है, तो धरती के लिए खतरनाक हो सकता है और तबाही मच सकती है।अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने भी इसको खतरनाक घोषित किया हुआ है।नासा का कहना है कि अगर इतना बड़ा एस्टेरॉयड धरती से टकराता, तो है बहुत बड़ी तबाही मच सकती है। इसलिए ऐसे एस्टेरॉयड को नासा ने संभावित खतरों की सूची में रखा हुआ है। हालांकि नासा ने बताया है कि यह सुरक्षित तरीके से धरती से 19.3 लाख किमी की दूरी से गुजरेगा। पहली बार साल 1994 में इसकी खोज की गई थी।89 साल पहले 17 जनवरी 1933 को एस्टेरॉयड 7482 धरती के सबसे पास से गुजरा था। उस समय यह 11 लाख किलोमीटर की दूरी से गुजरा था। अब यह 18 जनवरी 2105 को इतने ही करीब से धरती के पास से गुजरेगा। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी धरती से एस्टेरॉयड को टकराने से रोकने के लिए तकनीक खोजने में लगी हुई है। इसके लिए अमेरिकी अतंरिक्ष एजेंसी ने डार्ट मिशन को लांच किया है।
- दही जमाने के लिए जामन यानी दही की कम मात्रा की जरूरत पड़ती है। क्या कभी आपने कल्पना की है कि किसी पत्थर के संपर्क में आते ही दूध दही में बदल सकता है? ऐसा सच में है। ये पत्थर मिलती है राजस्थान के जैसलमेर जिले के एक गांव में। आइए जानते हैं उस गांव के पास विशेष पत्थर के साथ दही बनाने की अनूठी विधि कौन सी है ? और उस पत्थर का रहस्य क्या है? ॉये है हाबूर गांव , जो जैसलमेर से 40 किलोमीटर दूर स्थित है। इस गांव को स्वर्णगिरी के नाम से जाना जाता है। हाबूर गांव का वर्तमान नाम पूनमनगर है। हाबूर पत्थर को लोकल भाषा में हाबूरिया भाटा कहा जाता है। ये गांव देश-विदेश में अनोखे पत्थर की वजह से प्रसिद्ध है। यहां के पीले पत्थर दुनियाभर में अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। लेकिन हाबूर गांव का जादुई पत्थर अपने आप में विशिष्ट खूबियां समेटे हुए हंै। हाबूर पत्थर दिखने में बहुत सुन्दर होता है। ये हल्का सुनहरा और चमकीला होता है। हाबूर पत्थर का चमत्कार ऐसा है कि इस पत्थर में दूध को दही बनाने की कला है। हाबूर पत्थर के संपर्क में आते ही दूध एक रात में दही बन जाता है। जो स्वाद में मीठा और सौंधी खुशबू वाला होता है। इस पत्थर का उपयोग आज भी जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में दूध को जमाने के लिए किया जाता है। इस गांव में मिलने वाले स्टोन से यहां के लोग बर्तन, मूर्ति और खिलौने बनाते हैं जो अपनी विशेष खूबी के चलते देश-विदेश में काफी लोकप्रिय है। इस पत्थर से गिलास, प्लेट, कटोरी, प्याले, ट्रे, मालाएं,फूलदान, कप, थाली और मूर्तियां निर्मित किये जाते हैं।अब सवाल उठता है कि एक पत्थर से कैसे दही जमाया जा सकता है। वो भी रात को दूध उस पत्थर से बने बर्तन में डाला और सुबह उठकर दही खा लो। जब ऐसा होने लगा तो रिसर्च भी होने लगी, जिसमें ये सामने आया है कि हाबूर पत्थर में दही जमाने वाले सारे केमिकल्स मौजूद है। इस पत्थर में एमिनो एसिड, फिनायल एलिनिया, रिफ्टाफेन टायरोसिन हैं। ये केमिकल दूध से दही जमाने में सहायक होते हैं। हाबूर गांव के भूगर्भ से निकलने वाले इस पत्थर में कई खनिज और अन्य जीवाश्मों की भरमार है जो इसे चमत्कारी बनाते हैं।कहा जाता है कि जैसलमेर में पहले समुद्र हुआ करता था। जिसका का नाम तेती सागर था। कई समुद्री जीव समुद्र सूखने के बाद यहां जीवाश्म बन गए और पहाड़ों का निर्माण हुआ। हाबूर गांव में इन पहाड़ों से निकलने वाले पत्थर में कई खनिज और अन्य जीवाश्मों की भरमार है। जिसकी वजह से इस पत्थर से बनने वाले बर्तनों की भारी मांग है। अगर आपको हाबूर पत्थर से बनी एक प्याली खरीदनी है तो आपको 1500 से 2000 रुपये चुकाने होंगे। वहीं कटोरी की कीमत 2500 के आसपास हो सकती है। वहीं एक गिलास की कीमत 650 रुपये से लेकर 1000 रुपये तक होती है।ऐसा कहा जाता है कि इस पत्थर से बने गिलास में रात को सोते समय पानी भरकर रख दो और सुबह खाली पेट पी लो। अगर आप एक से डेढ़ महीने तक लगातार इसका पानी पीते है, तो आपके शरीर में एक परिवर्तन नजर आएगा। आपके शरीर में होने वाला जोड़ों का दर्द कम होगा साथ ही पाइल्स की बीमारी कंट्रोल होगी।
- एक शौकिया वैज्ञानिक ने बृहस्पति जैसे ग्रह की खोज की। इस एक्सोप्लैनेट का वजन यानी द्रव्यमान सूर्य के बराबर है। अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने बताया है कि इसका नाम TOI-2180 b है जो धरती से करीब 379 प्रकाश वर्ष दूर है। इस ग्रह का तापमान करीब 170 डिग्री फ़ारेनहाइट (76 डिग्री सेल्सियस) है। इसका तापमान धरती और सौरमंडल के दूसरे ग्रहों की तुलना में ज्यादा है।जानिए कौन है ग्रह खोजने वालानासा का कहना है कि टॉम जैकब्स नाम के वैज्ञानिक ने इस ग्रह की खोज की है और ये अमेरिकी नौसेना के पूर्व अधिकारी हैं। नासा की सिटिजन साइंटिस्ट प्रॉजेक्ट से टॉम जैकब्स से जुड़े हुए हैं। एस्ट्रॉनमी और फिजिक्स में जिन लोगों की रुचि होती है उनको इस प्रोजेक्ट के माध्यम से नासा शोधकर्ताओं की मदद के लिए लगाता है। आइए जानते हैं इस एक्सोप्लैनेट के बारे में नासा ने और क्या-क्या जानकारी दी है।नासा की तरफ से बताया गया है कि वैज्ञानिक टॉम जैकब्स ने नई खोज के लिए अलग-अलग दूरबीनों से प्राप्त डेटा को स्कैन किया है। उन्होंने इन डेटा का परीक्षण कंप्यूटर एल्गोरिदम के माध्यम से किया। वैज्ञानिक किसी एक्सोप्लैनेट का पता लगाने के लिए सितारों की चमक में होने वाले बदलाव के बारे में पता लगाते हैं। इससे यह जानकारी मिलती है कि कोई ग्रह एक निश्चित तारे की परिक्रमा कर रहा है या नहीं। अगर जिस तारे की परिक्रमा कर रहा होता है उसकी चमक कुछ समय के लिए बाधित होती है।जानिए कैसे खोजा गया ग्रहकंप्यूटर एल्गोरिदम के जरिए से इस ग्रह की खोज की गई है, क्योंकि इसका निर्माण अलग-अलग ग्रहों की खोज करने के लिए किया गया है। इस शौकिया वैज्ञानिक ने नए एक्सोप्लैनेट की खोज के लिए इसी तकनीक का इस्तेमाल किया था। टॉम जैकब्स विजुअल सर्वे समूह नाम की एक टीम में काम करते हैं। यह समूह आंखों से टेलीस्कोप डेटा का निरीक्षण करता है।
- नयी दिल्ली। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), मंडी और इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी (आईसीजीईबी) के अनुसंधानकर्ताओं ने हिमालयी पौधे बुरांश की पत्तियों में 'फाइटोकेमिकल' होने का पता लगाया है जिसका इस्तेमाल कोविड-19 संक्रमण के उपचार के लिए हो सकता है।'फाइटोकेमिकल' या पादप रसायन वे कार्बनिक यौगिक होते हैं, जो वनस्पतियों में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध होते हैं और स्वास्थ्य की दृष्टि से फायदेमंद हो सकते हैं। अनुसंधान में पता चला कि हिमालयी क्षेत्र में पाये जाने वाले पौधे बुरांश या 'रोडोडेंड्रॉन अरबोरियम' की पादप रसायन युक्त पत्तियों में विषाणु रोधी या वायरस से लडऩे की क्षमता होती है। अध्ययन के निष्कर्षों को हाल में जर्नल 'बायोमॉलिक्यूलर स्ट्रक्चर एंड डाइनामिक्स' में प्रकाशित किया गया। अनुसंधान दल के अनुसार कोविड-19 महामारी को शुरू हुए लगभग दो वर्ष हो चुके हैं और अनुसंधानकर्ता इस वायरस की प्रकृति को समझने की कोशिश कर रहे हैं तथा संक्रमण की रोकथाम के नये तरीके खोज रहे हैं।आईआईटी मंडी के स्कूल ऑफ बेसिक साइंस के एसोसिएट प्रोफेसर श्याम कुमार मसकपल्ली ने कहा, ''वायरस के खिलाफ शरीर को लडऩे की क्षमता देने का एक तरीका तो टीकाकरण है, वहीं दुनियाभर में ऐसी गैर-टीका वाली दवाओं की खोज हो रही है जिनसे मानव शरीर पर विषाणुओं के हमले को रोका जा सकता है। इन दवाओं में वो रसायन होते हैं जो या तो हमारी शरीर की कोशिकाओं में रिसेप्टर अथवा ग्राही प्रोटीन को मजबूती प्रदान करते हैं और वायरस को उनमें प्रवेश करने से रोकते हैं या स्वयं वायरस पर हमला कर हमारे शरीर में इसके प्रभाव होने से रोकथाम करते हैं।'' उन्होंने कहा, ''उपचार के विभिन्न तरीकों का अध्ययन किया जा रहा है, जिनमें पौधों से निकलने वाले रसायन फाइटोकेमिकल को उसकी सहक्रियाशील गतिविधियों के कारण और कम विषैले तत्वों के साथ प्राकृतिक स्रोत के नाते विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है।'' हिमालयी पादप बुरांश की पत्तियों का स्थानीय लोग स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न प्रकार के लाभों के लिए सेवन करते हैं। मसकपल्ली ने कहा, ''टीम ने वैज्ञानिक तरीके से फाइटोकेमिकल वाले अर्क की जांच की और विशेष रूप से उनकी विषाणु रोधी गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित किया। अनुसंधानकर्ताओं ने बुरांश की पत्तियों से पादप रसायन निकाले और उसकी वायरस रोधी विशेषताओं को समझने के लिए अध्ययन किया।'' आईसीजीईबी से जुड़े रंजन नंदा ने कहा, ''हमने हिमालय से प्राप्त रोडोडेंड्रॉन अरबोरियम की पत्तियों के पादप रसायनों का विश्लेषण किया और उन्हें कोरोना वायरस के खिलाफ कारगर पाया।''
- मिल्टन केनेस (ब्रिटेन)। हम सौर मंडल के बाहर लगभग 5,000 ग्रहों के बारे में जानते हैं। अगर आप कल्पना करते हैं कि दूर की इस दुनिया या एक्सोप्लैनेट (सौर मंडल के बाहर के ग्रह) का वजूद कैसा होगा तो आपके दिमाग में किसी मूल तारे या एक से अधिक तारों की छवि उभरेगी, विशेष रूप से यदि आप 'स्टार वार्स' फिल्मों के प्रशंसक हैं। वैज्ञानिकों ने हाल में पता लगाया है कि जितना हमने सोचा था उससे कहीं अधिक ग्रह अपने आप अंतरिक्ष में भटक रहे हैं। ये बर्फीले ''फ्री-फ्लोटिंग प्लैनेट'' अथवा एफएफपी हैं। लेकिन वे अपने आप कैसे समाप्त हो जाते हैं और ऐसे ग्रह कैसे बनते हैं? इसके बारे में हमें वे बता सकते हैं। अध्ययन करने के लिए अधिक से अधिक एक्सोप्लैनेट खोजने से जैसा कि हमने उम्मीद की होगी, हमारी समझ को व्यापक किया है कि ग्रह क्या है। विशेष रूप से ग्रहों और ''ब्राउन ड्वाफ्र्स'' के बीच की रेखा तेजी से धुंधली होती गई है।''ब्राउन ड्वाफ्र्स'' ऐसे ठंडे तारे होते हैं जो अन्य तारों की तरह हाइड्रोजन को 'फ्यूज' नहीं कर सकते। क्या तय करता है कि कोई वस्तु एक ग्रह है या ''ब्राउन ड्वाफ्र्स'', यह लंबे समय से बहस का विषय रहा है। क्या यह द्रव्यमान का सवाल है? यदि वे परमाणु संलयन से गुजर रहे हैं तो क्या वस्तुएं ग्रह नहीं रह जाती हैं? अथवा, जिस तरह से वस्तु का गठन हुआ वह सबसे महत्वपूर्ण है? लगभग आधे तारे और ''ब्राउन ड्वाफ्र्स'' अलग-थलग रहते हैं, बाकी कई तारा सौर मंडल में मौजूद हैं। हम आमतौर पर ग्रहों को एक तारे के चारों ओर कक्षा में अधीनस्थ वस्तुओं के रूप में सोचते हैं। दूरबीन तकनीक में सुधार ने हमें अंतरिक्ष में छोटी और अलगाव में रह रही वस्तुओं को देखने में सक्षम बनाया है, जिसमें एफएफपी भी शामिल है। ये एफएफपी ऐसी वस्तुएं हैं जिनका द्रव्यमान या तापमान बहुत कम होता है जिन्हें ''ब्राउन ड्वार्फ'' माना जाता है। हम अभी भी यह नहीं जानते हैं कि वास्तव में ये वस्तुएं कैसे बनीं। तारे और ''ब्राउन ड्वार्फ'' तब बनते हैं जब अंतरिक्ष में धूल और गैस का एक क्षेत्र अपने आप गिरने लगता है। यह क्षेत्र सघन हो जाता है, इसलिए गुरुत्वाकर्षण की एक प्रक्रिया में अधिक से अधिक सामग्री उस पर गिरती रहती है। आखिर गैस का यह गोला परमाणु संलयन शुरू करने के लिए गर्म होता जाता है। एफएफपी एक ही तरह से बन सकते हैं, लेकिन फ्यूजन शुरू करने जितना आकार बड़ा नहीं होता है। यह भी संभव है कि ऐसा ग्रह किसी तारे के चारों ओर कक्षा में जीवन शुरू कर सकता है, लेकिन किसी बिंदु पर अंतरताराकीय स्थान से बाहर हो जाता है। तारों के बीच भटकते ग्रह को कैसे पहचानें?इस तरह के ग्रहों का पता लगाना मुश्किल होता है क्योंकि वे अपेक्षाकृत छोटे और ठंडे होते हैं। आंतरिक ऊष्मा का उनका एकमात्र स्रोत नष्ट होने की प्रक्रिया से बची शेष ऊर्जा है जिसके परिणामस्वरूप उनका निर्माण हुआ। ग्रह जितना छोटा होगा, उतनी ही तेजी से ऊष्मा विकिरित होगी। अंतरिक्ष में ठंडी वस्तुएं कम प्रकाश उत्सर्जित करती हैं और वे जो प्रकाश उत्सर्जित करती हैं वह लाल रंग का होता है। एफएफपी को सीधे देखने के लिए सबसे अच्छी रणनीति शुरुआती अवस्था में उनका पता लगाना है क्योंकि इस दौरान सबसे ज्यादा चमक रहती है। हाल के अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इसी तरीके से भटकने वाले ग्रहों का पता लगाया है। इन भटकते ग्रहों को पूरी तरह से समझने के लिए हमें अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है। दूरबीन की नयी तकनीक उपलब्ध होने के साथ ही ग्रहों को और अधिक विस्तृत जांच के लिए फिर से देखा जा सकता है। इससे ऐसे ग्रहों की उत्पत्ति के बारे में अधिक जानकारी मिल सकती है।-
- स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाने के क्षेत्र में बड़ी छलांग सामने आई जब एक आर्टिफिशियल किडनी का टेस्ट सफल हुआ। अब किडनी रोगियों को डायलिसिस और किडनी ट्रांसप्लांट लिस्ट से फ्री होने का समय आ गया है। इस मामले में इसे बनाने वाली टीम को 6 लाख 50 हजार डॉलर का प्राइज भी मिला है।'स्कूल ऑफ फॉर्मेसी' की एक स्टडी के अनुसार, इस प्राइज को देने वाली किडनीएक्स की यूएस डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसेस और अमेरिकन सोसायटी ऑफ नेफ्रोलॉजी के बीच एक पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप है। ये संस्थान किडनी की बीमारियों की रोकथाम, निदान और ट्रीटमेंट में नए एक्सपेरिमेंट में तेजी लाने का काम करता है।आर्टिफिसियल किडनी में दो जरूरी पार्ट होते हैं हीमोफिल्टर और बायोरेक्टर, इन दोनों स्मार्टफोन साइज के डिवाइस को सफलतापूर्वक मरीज में प्रत्यारोपण कर देखा गया। इस काम के लिए टीम को किडनीएक्स के फेज 1 आर्टिफिसियल किडनी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।पिछले कुछ वर्षों में इस किडनी प्रोजेक्ट ने हेमोफिल्टर का सफलतापूर्वक परीक्षण किया, जो रक्त से अपशिष्ट उत्पादों और विषाक्त पदार्थों को निकालता है और बायोरिएक्टर जो अन्य गुर्दा कार्य जैसे रक्त में इलेक्ट्रोलाइट्स का संतुलन करता है।किडनी के सबसे ज्यादा मरीजों को खून लेने के लिए हर हफ्ते कई बार डायलिसिस के क्लीनिक जाना होता है। इसमें उन्हें फि़ल्टर किया गया खून चढाऩा होता है जो एक असुविधाजनक और जोखिम भरा होता है। इसके अलावा इसके स्थाई इलाज के लिए किडनी दान में लेनी होती है जिसकी बहुत ज्यादा मांग होती है। इस वजह से आर्टिफिशियल किडनी की टेस्टिंग बहुत बड़ी खोज है।
- 2021 में इंटरनेट पर हर एक मिनट में क्या क्या हुआ इस पर एक नए शोध के नतीजे आए हैं। आइए देखते हैं इतनी छोटी से अवधि में किस कदर बदल जाती है इंटरनेट की दुनिया।सोशल मीडियावल्र्ड इकोनॉमिक फोरम के मुताबिक 2021 में हर एक मिनट में यूट्यूब पर 500 घंटों की सामग्री अपलोड की गई और इंस्टाग्राम पर 6 लाख 95 हजार स्टोरी साझा की गईं।नेटफ्लिक्सक्या आपने 2021 में नेटफ्लिक्स पर खूब वीडियो देखे? इस शोध के मुताबिक तो हर मिनट नेटफ्लिक्स के 28 हजार ग्राहक उसके ऐप पर कुछ न कुछ देख ही रहे थे। फोरम ने यह जानकारी स्टैटिस्टा के साथ मिल कर दी है।टिकटॉकमनोरंजन की दुनिया में टिकटॉक पर भी खूब सामग्री देखी गई। हर मिनट में टिकटॉक पर 5 हजार वीडियो डाउनलोड किए गए।बातचीतइतने ही समय में व्हाट्सएप और फेसबुक मैसेंजर के जरिए करीब सात करोड़ मैसेज भेजे गए। इसके अलावा अलग ईमेल सेवाओं के जरिए सिर्फ एक मिनट में 19 करोड़ से भी ज्यादा ईमेल भेजे गए।लिंक्डइनलोगों ने सिर्फ मनोरंजन और सोशल नेटवर्किंग पर ही समय नहीं बिताया बल्कि प्रोफेशनल नेटवर्किंग भी की। लिंक्डइन पर हर एक मिनट में 9,132 कनेक्शन बने।खर्चाइंटरनेट पर कितनी शॉपिंग होती है और कितनी चीजों का भुगतान होता है, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 2021 में हर एक मिनट में इंटरनेट पर 16 लाख डॉलर खर्च किए गए।----
- -स्टुअर्ट मार्शल और डेविड ए.स्टोरी, मेलबर्न विश्वविद्यालयमेलबन। रक्त में ऑक्सीजन का निम्न स्तर होना कोविड के बिगडऩे का एक प्रारंभिक संकेत है। लेकिन सभी में बीमारी के स्पष्ट लक्षण नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को सांस लेने में तकलीफ या अन्यथा अस्वस्थ महसूस किए बिना भी ऑक्सीजन का स्तर कम हो सकता है। इसलिए कुछ लोग घर पर अपने ऑक्सीजन के स्तर की निगरानी के लिए पल्स ऑक्सीमीटर खरीद रहे हैं। अन्य लोगों को उनके कोविड होम-केयर पैकेज के हिस्से के रूप में नियमित रूप से पल्स ऑक्सीमीटर की आपूर्ति की जाती है। विचार यह है कि घर पर आप स्वयं अपने ऑक्सीजन के स्तर की निगरानी करके, आश्वस्त हो सकते हैं कि आपके फेफड़े आपके रक्त को पर्याप्त रूप से ऑक्सीजन दे रहे हैं। वैकल्पिक रूप से, ऑक्सीजन के निम्न स्तर का पता लगाना यह संकेत दे सकता है कि आपको तत्काल चिकित्सा देखभाल की आवश्यकता है। तो पल्स ऑक्सीमीटर क्या है? और यदि यह आपके पास है तो आप वास्तव में घर पर कोविड की निगरानी के लिए इसका उपयोग कैसे करते हैं? पल्स ऑक्सीमीटर क्या है? यह कैसे काम करता है?एक पल्स ऑक्सीमीटर एक नियमित नैदानिक मॉनिटर है जो वर्षों से अस्पताल में और बाहर उपयोग में है। अधिकांश प्रकार जिन्हें आप घर पर उपयोग के लिए खरीद सकते हैं, उन्हें एक चिमटी की तरह डिज़ाइन किया गया है जिसे आप अपनी उंगलियों पर क्लिप करते हैं। क्लिप का एक पक्ष आपकी अंगुली से क्लिप के दूसरी ओर सेंसर तक प्रकाश डालता है। यह आपके खून के रंग का माप देता है। अधिक ऑक्सीजन ले जाने वाला रक्त (ऑक्सीजन युक्त रक्त) नीले रंग के डी-ऑक्सीजनेटेड रक्त की तुलना में अधिक चमकदार लाल होता है। ऑक्सीमीटर रक्त के रंग की व्याख्या करता है (अवशोषित प्रकाश की मात्रा के माध्यम से) एक संख्या प्रदान करने के लिए - रक्त में ऑक्सीजन का प्रतिशत जो अधिकतम मात्रा में ले जाया जा सकता है। यह प्रतिशत ''ऑक्सीजन संतृप्ति'' स्तर है। स्वस्थ लोगों के लिए यह 95 प्रतिशत से 100 प्रतिशत होता है। चूंकि ऑक्सीमीटर आपकी उंगली में नाड़ी से रक्त को मापता है, यह आपकी हृदय गति (दिल की धड़कन प्रति मिनट) को भी प्रदर्शित करेगा। लोग अब उनका उपयोग कैसे कर रहे हैं?कोविड वाले अधिकांश लोगों को अस्पताल में रहने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए कुछ के लिए घर पर स्वास्थ्य पेशेवरों द्वारा निगरानी रखने के लिए सेवाओं की स्थापना की गई है और केवल तभी अस्पताल आते हैं जब वे बहुत अस्वस्थ होने लगते हैं। जिन लोगों को इस प्रकार के घर-में-अस्पताल जैसी निगरानी की जरूरत नहीं हैं, उन्हें घर में रहते अपने लक्षणों की निगरानी करने और यदि आवश्यक हो तो चिकित्सा देखभाल लेने की आवश्यकता होगी। कोविड के बिगडऩे के सबसे महत्वपूर्ण शुरुआती लक्षणों में से एक रक्त में ऑक्सीजन के स्तर में गिरावट है। ऐसा तब होता है जब फेफड़े फूल जाते हैं और ऑक्सीजन को अवशोषित करने में कम सक्षम होते हैं। यह व्यक्ति के बीमार महसूस करने से पहले भी हो सकता है। ऑस्ट्रेलियाई दिशानिर्देश बताते हैं कि जब आराम की अवस्था में ऑक्सीजन संतृप्ति स्तर 92 प्रतिशत -94प्रतिशत तक गिर जाता है, तो अस्पताल में भर्ती होने के बारे में विचार किया जाना चाहिए। किसी को अस्पताल जाने की कब आवश्यकता है, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि क्या अन्य चेतावनी संकेत हैं जैसे कि तेजी से सांस लेना, वृद्धावस्था, पूरी तरह से टीकाकरण नहीं होना, यदि अन्य चिकित्सा समस्याएं हैं, और यदि किसी के पास सीमित सामाजिक सहयोग है। बच्चों के लिए, यह संख्या 95 प्रतिशत या उससे कम है।यदि संभव हो तो आपको अपने चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए जो आपकी व्यक्तिगत परिस्थितियों के आधार पर सलाह देगा। क्या रीडिंग सटीक हैं?ऑक्सीजन संतृप्ति रीडिंग आमतौर पर बहुत सटीक होती है। हालांकि, खराब परिसंचरण, या ठंडी या हिलती उंगलियां डिवाइस के लिए नाड़ी को ढूंढना मुश्किल बना सकती हैं या नाड़ी की जगह डिवाइस गति नापने लगता है। यदि आपकी उंगलियां ठंडी हैं या खराब परिसंचरण है, तो आपको दूसरी उंगली से कोशिश करनी पड़ सकती है, या रीडिंग लेने से पहले अपने हाथों को एक साथ रगड़ कर गर्म कर सकते हैं। माप लेते समय आपको स्थिर रहने और अपने हाथ को स्थिर रखने की भी आवश्यकता होगी। छोटे बच्चों पर रीडिंग लेने के लिए यह एक चुनौती हो सकती है! नेल पॉलिश, विशेष रूप से गहरे रंग, भ्रामक ऑक्सीमीटर रीडिंग का कारण बन सकते हैं और इसलिए हम लोगों से अस्पताल में रीडिंग लेने से पहले इसे हटाने के लिए कहते हैं। हालांकि, ऐक्रेलिक नाखूनों की तुलना में नेल पॉलिश का प्रभाव कम होता है। इसलिए बेहतर होगा कि आप परीक्षण के लिए इस्तेमाल की जाने वाली उंगलियों पर लगे नेल पॉलिश या एक्रेलिक नाखून को हटा दें। अगर मेरी त्वचा का रंग गहरा है तो क्या होगा?जिस तरह अधिकांश घरों में थर्मामीटर होता है, उसी तरह एक साधारण कम लागत वाला ऑक्सीमीटर हम सभी को अपने स्वास्थ्य की स्थिति पर निगरानी रखने और यदि हालात बिगड़ते हैं तो तत्काल जरूरी कदम उठाने में मदद कर सकता है।-
- दुनिया के बड़े-बड़े देशों ने चंद्रमा पर अपने सैटेलाइट भेज रखे हैं जो समय-समय पर चंद्रमा पर हो रही छोटी बड़ी घटना के बारे में सूचना देते हैं। इसी कड़ी में चीन ने भी चंद्रमा पर यूतु-2 रोवर को भेजा हुआ है। अब इस रोवर ने चंद्रमा पर एक 'रहस्यमयी झोपड़ी' को खोज लिया है। जैसे ही वैज्ञानिकों को इस खोज के बारे में पता चला उन्होंने इसके बारे में जानकारी जुटानी शुरू कर दी है। मिली जानकारी के अनुसार, रोवर ने जो जानकारी भेजी थी, जब इसकी करीब से जांच की गई तो पता चला कि वो वास्तव में एक प्रकार की चट्टान है जो खरगोश के आकार की दिखाई देती है। यूतु-2 की टीम ने इस चट्टान को 'जेड रैबिट' नाम दिया है। इस चट्टान को दिसंबर में रोवर ने देखा था। जब चंद्रमा के क्षितिज पर एक चौकोर आकृति नजर आई थी।आइए जानते हैं कि इस 'रहस्यमयी झोपड़ी' का क्या है राज-जानकारों ने ये दावा किया है कि ये किसी बड़े पत्थर का टुकड़ा हो सकता है। यूतु चंद्रमा पर 186 किलोमीटर में फैले वॉन कार्मन क्रेटर में खोज कर रहा है। इस रोवर ने 3 जनवरी 2019 को चंद्रमा पर लैंडिंग की थी। ये रोवर सौर ऊर्जा से चलता है। रोवर ने एक महीने की लंबी यात्रा करने के बाद 'मून हट' की ये तस्वीर इतने करीब से खींच कर पृथ्वी पर भेजी है।खरगोश की तरह दिखा ये चट्टानजब इस चट्टान को पास से देखा गया तो आकार में छोटा और गोल दिखाई दिया। ऐसा लग रहा था जैसे ये कोई खरगोश है इसीलिए इस चट्टान को 'जेड रैबिट' नाम दिया गया। अंतरिक्ष पत्रकार एंड्रयू जोंस ने अपने ट्विटर पर लिखा ,' चंद्रमा की सतह पर 38 मिलियन वर्ग किलोमीटर तक चट्टानों का विस्तार है। ऐसे में ये संभव है कि ये एक बड़े चट्टान का टुकड़ा हो।चंद्रमा की सतह पर चीनी मिशनजोंस ने बताया कि कई लोगों को ये उम्मीद थी कि ये कोई बड़ा सा ढांचा होगा, जिससे काफी कुछ रहस्यमयी चीजें निकल कर सामने आएंगी। चांद की सतह पर चीन के दो यान पहले से ही मौजूद हैं। साल 2013 में चांद की सतह पर पहला स्पेसक्राफ्ट भेजा गया था जिसका नाम चेंग-ई-3 था। दूसरा जनवरी 2019 में भेजा गया था जिसका नाम चेंग-ई-4 है जिसने यूतु-2 के साथ लैंड किया था। जानकार बताते हैं कि अभी ये दोनों एक्टिव मोड में हैं।
- हम सभी ने कभी ना कभी ट्रेन में सफर तो किया ही होगा, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हमें हमारी मंजिल तक पहुंचाने वाली लोहे की पटरियों पर कभी जंग क्यों नहीं लगती और इसके पीछे वजह क्या है? वैसे तो हमारे घर में भी कई चीजें लोहे की होती हैं और रेल की पटरी भी लोहे की होती है, लेकिन इन दोनों में ऐसा क्या फर्क है कि घर के लोहे में जंग लग जाती है और रेल की पटरी पर कभी जंग नहीं लगती। आइए जानते हैं इसका कारण....लोहे पर जंग लगती ही क्यों है?रेल की पटरियों पर जंग क्यों नहीं लगती, ये जानने के लिए सबसे पहले ये जानना जरूरी है कि लोहे पर जंग क्यों और कैसे लगती है। लोहा एक मजबूत धातु होता है, लेकिन जब उस पर जंग लगती है तो वह किसी काम का नहीं होता। लोहा या लोहे से बना सामान ऑक्सीजन और नमी के संपर्क में आता है तो लोहे पर एक भूरे रंग की परत आयरन ऑक्साइड जम जाती है और फिर धीरे-धीरे लोहा खराब होने लगता है। साथ ही इसका रंग भी बदल जाता है। इसी को लोहे पर जंग लगना कहते हैं।रेल की पटरी में जंग इसलिए नहीं लगती क्योंकि रेल की पटरी बनाने के लिए एक खास किस्म की स्टील का उपयोग किया जाता है। स्टील और मेंगलॉय को मिला कर ट्रेन की पटरियों को तैयार किया जाता है। स्टील और मेंगलॉय के इस मिश्रण को मैंगनीज स्टील कहा जाता है। इस वजह से ऑक्सीकरण नहीं होता है और कई सालों तक इसमें जंग नहीं लगती है।रेल की पटरियों को अगर आम लोहे से बनाया जाएगा तो हवा की नमी के कारण उसमें जंग लग सकती है और ट्रैक कमजोर हो सकता है। इसकी वजह से पटरियों को जल्दी-जल्दी बदलना पड़ेगा और साथ ही इससे रेल दुर्घटनाएं होने का खतरा भी बना रहेगा। इसलिए रेलवे इन पटरियों के निर्माण में खास तरह के मैटेरियल का इस्तेमाल करता है।
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दुनिया के इतिहास में कई युद्ध और लड़ाईयों के बारे आपने पढ़ा और सुना होगा। भारतीय इतिहास में भी कई युद्ध लड़े गए हैं जिनके बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं। इनमें अधिकतर जंग दूसरे राज्यों पर कब्जे को लेकर हुई हैं। लेकिन 1644 ईस्वी में एक युद्ध सिर्फ एक तरबूज के लिए लड़ा गया था। आज से करीब 376 साल पहले हुई इस जंग में हजारों सैनिकों की मौत हुई थी। आईए जानते हैं इस युद्ध के बारे में...
दुनिया की यह पहली जंग हैं जो सिर्फ एक फल के लिए लड़ी गई थी। इतिहास में यह युद्ध 'मतीरे की राड़' के नाम से दर्ज है। राजस्थान के कई इलाकों में तरबूज को मतीरा के नाम से जाना जाता है और राड़ का मतलब लड़ाई होती है। आज से 376 साल पहले 1644 ईस्वी में यह अनोखा युद्ध हुआ था। तरबूजे के लिए लड़ी गई यह लड़ाई दो रियासतों के लोगों के बीच हुई थी।
दरअसल उस दौरान बीकानेर रियासत के सीलवा गांव और नागौर रियासत के जाखणियां गांव की सीमा एक दूसरे सटी हुई थी। ये दोनों गांवइन रियासतों की आखिरी सीमा थे । बीकानेर रियासत की सीमा में एक तरबूज का पेड़ लगा था और नागौर रियासत की सीमा में उसका एक फल लगा था। यही फल युद्ध की वजह बना।
सीलवा गांव के निवासियों का कहना था कि पेड़ उनके यहां लगा है, तो फल पर उनका अधिकार है, तो वहीं नागौर रियासत में लोगों का कहना था कि फल उनकी सीमा में लगा है, तो यह उनका है। इस फल पर अधिकार को लेकर दोनों रियासतों में शुरू हुई और लड़ाई ने एक खूनी जंग का रूप ले लिया।
राजाओं की नहीं थी युद्ध की जानकारी
बताया जाता है कि सिंघवी सुखमल ने नागौर की सेना का नेतृत्व किया, जबकि रामचंद्र मुखिया बीकानेर की सेना का नेतृत्व। सबसे बड़ी बात यह है कि इस युद्ध के बारे में दोनों रियासतों के राजाओं को जानकारी नहीं थी। जब यह लड़ाई हो रही थी, तो बीकानेर के शासक राजा करणसिंह एक अभियान पर थे, तो वहीं नागौर के शासक राव अमरसिंह मुगल साम्राज्य की सेवा में तैनात थे। मुगल साम्राज्य की अधीनता को इन दोनों राजाओं ने स्वीकार कर लिया था। जब इस लड़ाई के बारे में दोनों राजाओं को जानकारी मिली, तो उन्होंने मुगल राजा से इसमें हस्तक्षेप करने की अपील की। लेकिन जब यह बात मुगल शासकों तक पहुंची तब तक युद्ध छिड़ गया था। इस युद्ध में बीकानेर रियासत की जीत हुई थी, लेकिन बताया जाता है कि दोनों तरफ से हजारों सैनिकों की मौत हुई थी। -
बारिश के दौरान आसमान से बूंदों के साथ कभी-कभी ओले गिरना आम बात है। सिर्फ यही नहीं, बारिश के साथ आसमान से ओले गिरते हुए भी सभी ने देखे होंगे। लेकिन अगर आपसे कोई ये कहे कि आसमान से बारिश के साथ मछलियां भी गिरती हैं, तो शायद यकीन करना मुश्किल होगा, लेकिन ये सच है। हाल ही में अमेरिका के टेक्सास में स्थित एक कस्बे में कुछ ऐसा ही हुआ है। इस कस्बे में हुई बारिश के साथ आसमान से मछलियां भी गिर रही थीं। वहीं आसमान से अचानक मछलियों की बारिश होते देख लोग भी काफी हैरान रह गए। लोगों ने सोशल मीडिया पर इस घटना से जुड़ी तस्वीरें भी शेयर की हैं। इतना ही नहीं कुछ लोगों ने तो मौके का फायदा भी उठाया और मछलियों को इकठ्ठा करके घर भी ले गए।
बारिश के दौरान आसमान से जब मछलियां गिरना शुरु हुई तो लोगों को यही लगा कि ओले गिर रहे हैं। इसलिए लोग घर से बाहर नहीं निकले, लेकिन जब बारिश थमी, तब लोगों ने देखा कि ये कोई सामान्य बारिश नहीं थी। बल्कि पूरे कस्बे में चारों तरफ मछलियां पड़ी थीं।
इस घटना के बारे में हर कोई अपनी-अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है। लोगों का कहना है कि मछली की बारिश कोई मजाक नहीं है। आम लोग इस घटना को देखकर आश्चर्य में पड़ रहे हैं।
हालांकि विज्ञान के नजरिए से इस तरह की भौगोलिक घटना संभव है। ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है और इसे विज्ञान की भाषा में एनिमल रेन या वॉटर स्प्राउट्स भी कहा जाता है।
जानकारों के मुताबिक ये एक तरह का बवंडर होता है, जो तालाब और झील जैसे पानी के कुछ हिस्से में बनता है। इस बवंडर के दौरान किसी वॉटर सोर्स पर ऐसा चक्रवात बनता है, जो हवा-पानी और पानी के अंदर मौजूद चीजों को अपनी ओर खींच लेता है। सिर्फ यही नहीं छोटे जीव-जंतुओं को अपनी ओर समेटते हुए ये जमीन की तरफ बढ़ता है। इस दौरान तूफान की रफ्तार जैसे-जैसे कम होती है, इसमें मौजूद जीव-जंतु जमीन पर गिरने लगते हैं। - -टीवी को लिकेबल टीवी कहा जा रहा है, 'टेस्ट-द-टीवी' नाम दिया गया-टीवी के साथ 10 कैनिस्टर फिट किए जिसमें अलग-अलग स्वाद के केमिकल स्टोर किए-इस लिक्विड को चखने पर दर्शक को उसी स्वाद का अनुभव होगा जिसे वह देख रहे हैंटोक्यो। वर्तमान में हम स्मार्ट टेलीविजन का दौर देख रहे हैं लेकिन, कुछ साल पीछे जाएं तो टीवी के हमें कई रूप देखने को मिलेंगे। पहले दुनिया ने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी का स्वागत किया, उसके बाद कलर, टीएफटी, एलसीडी, एचडी, 4के और अब स्मार्ट टीवी। समय के साथ टीवी में कई बदलाव हुए और आने वाले समय में कई और चेंज देखने को मिलेंगे। अब जल्द ही मार्केट में चाटने या स्वाद चखने वाली टीवी दिखाई दे सकती है। जी हां, एक ऐसी टीवी जिसे आप चाटकर उसकी स्क्रीन पर दिखाई दे रहे व्यंजन का स्वाद चख सकते है।दुनिया की पहली लिकेबल टीवीदरअसल जापान के एक प्रोफेसर होमेइ मियाशिता ने एक ऐसा टीवी बनाया है जिसे लिक यानी चाटा जा सकता है। इस टीवी को लिकेबल टीवी कहा जा रहा है, जिसे 'टेस्ट-द-टीवी' नाम दिया गया है। यह दुनिया का पहला ऐसा टीवी है जो स्क्रीन पर नजर आ रहे व्यंजन का स्वाद अपने दर्शकों को चखा सकता है। लेकिन, टीवी ऐसा कैसे करता है? होमेइ मियाशिता टीवी के साथ 10 कैनिस्टर फिट किए हैं जिसमें अलग-अलग स्वाद के केमिकल स्टोर किए गए हैं।इस तरह काम करती है टीवीजब टीवी पर कोई भोजन या व्यंजन आता है तो कैनिस्टर में लगे स्प्रे से इजेनिक फिल्म पर फ्लेवर यानी स्वाद को मिलाकर छिड़क दिया जाता। इस लिक्विड को चखने पर दर्शक को उसी स्वाद का अनुभव होगा जिसे वह देख रहे हैं। हालांकि इसमें काफी बदलाव होना बाकी है लेकिन, टीवी को लेकर दुनियाभर में चर्चा शुरू हो गई है। प्रोफेसर होमेइ मियाशिता ने बताया कि ऐसी टीवी बनाने का मकसद यह है कि दुनिया के किसी भी कोने में घर बैठे आप व्यंजन का स्वाद चख सकें।घर बैठे ले सकेंगे स्वादप्रोफेसर मियाशिता ने कहा कि इस टीवी की मदद से दूर बैठे दर्शक किसी भी रेस्तरां में परोसे जाने वाले खाने का लुफ्त उठा सकते हैं। इतना ही नहीं टीवी की मदद से शेफ बनने के शौकीन लोगों को भी कहीं से भी ट्रेनिंग दी जा सकती है। उन्होंने कहा कि वह अभी दूसरे मैन्युफैक्चरर से बात कर रहे हैं, जिसमें वो इस तकनीक के और भी इस्तेमालों पर विचार कर रहे हैं। जैसे कि टोस्ट में कैसे और फ्लेवर डाला जा सकता है।टीवी के अलावा बनाई ये चीजमीडिया रिपोर्ट के मुताबिक प्रोफेसर होमेइ मियाशिता ने अपनी 30 छात्रों की एक टीम के साथ टीवी के अलावा कई स्वाद से संबंधित प्रोडक्ट तैयार किए हैं। उन्होंने एक ऐसा चम्मच तैयार किया था जिससे खाने पर भोजन का स्वाद और बढ़ जाता है। इसके अलावा वह अब ऐसी स्पे तकनीक पर काम कर रहे हैं जो टोस्टेड ब्रेड का स्वाद पिज्जा या चॉकलेट के स्लाइस की तरह बना सके।यह टीवी किसी अन्य स्मार्ट टीवी की कीमत में ही मिल सकता है। इसकी कीमत लगभग 875 डॉलर यानी 65 हजार रुपए के आस-पास हो सकती है।
- लोबॉरो (ब्रिटेन) ।जब हम पुराने जमाने के खाने के बारे में सोचते हैं तो अक्सर दिमाग में इंग्लैंड के राजा हेनरी अष्टम की तस्वीर सामने आती है जिनके सामने टेबल पर मांस से बने विभिन्न प्रकार के व्यंजन दिखते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि हमारे पूर्वज सलाद खाने के अधिक स्वास्थ्य फायदों को जानते थे और संभवत: हमारी सोच से कहीं ज्यादा जड़ी-बूटियों यां सब्जियों के बारे में सोचते थे। अतीत की सतत आत्मनिर्भरता को देखते हुए हम पाते हैं कि हम कई प्रकार के ऐतिहासिक सलाद व्यंजनों के बारे में जान सकते हैं जिन पर लगभग कोई खर्च नहीं आता है और कोई कार्बन उत्सर्जन नहीं होता है और संभवत: हमारे स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक हैं। डायरी लेखक और उद्यान में रुचि रखने वाले जॉन इवेलिन (1620-1706) ने 17वीं सदी के मध्य में सलाद को लेकर अपनी रुचि दिखाई थी। इसमें उन्होंने प्रत्येक व्यंजन की विस्तार से जानकारी देने के साथ यह भी बताया है कि कैसे घर में ही सालभर सलाद के लिए सामग्री पैदा कर सकते हैं। इवेलिन के लिए आदर्श किचन गार्डन का अभिप्राय था कि वह ऐसी सब्जियों और फलों से भरा हो जिन्हें आसानी से उगाया जा सके, साथ ही उनमें विविधता भी हो। इवेलिन ने यहां तक सलाद बनाने की और उसके लिए सामग्री उगाने की पूरी निर्देशिका ‘एसिटेरिया- ए डिस्कोर्स ऑन सैलेट्स' के नाम से सन 1699 में प्रकाशित की थी। ‘‘सैलेट'' शब्द अंग्रेजी भाषा में फ्रांसीसी शब्द ‘सलाद' से 13वीं सदी में आया और 16वीं सदी में इस शब्द का आम बोलचाल में इस्तेमाल किया जाता था। ‘एसिटेरिया' में इवेलिन ने कम मांस वाले भोजन को प्रोत्साहित किया और जोर दिया कि जो लोग जड़ी-बूटी और जड़ों पर जिंदा रहते हैं, वे लंबे समय तक जीते हैं। अपनी बात को पुख्ता रूप से रखने के लिए वह पंरपरागत दर्शन का हवाला देते थे और महान विचारक प्लेटो एवं पाइथागोरस का उदाहरण देते थे जिन्होंने अपनी खाने की मेज पर से ‘मांस' को बिल्कुल हटा दिया था। पिछले साल बागवानी और सब्जियों को उगाने का चलन बढ़ा है। पूरी तरह से आत्मनिर्भर होना शायद संभव नहीं हो लेकिन इवेलिन की ‘एसिटेरिया' कुछ नुस्खे देती है जिससे घर में उगाए खाद्य सामग्री का इस्तेमाल परिवार को खिलाने में किया जा सकता है और कुछ सुझाव भी देती है जिससे असामान्य तरीके से उत्पादन का विस्तार किया जा सकता है। माली का वर्ष इवेलिन के घोषणापत्र के केंद्र में सलाद है जो उन्होंने ‘एसिटेरिया' में लिखी कविता में रेखांकित किया, ‘‘ रोटी, शराब और कुछ सलाद जो आप खरीद सकते हो लेकिन प्रकृति से क्या जोड़ता है? वह है विलासिता।'' इस कविता में सलाद खरीदने का संदर्भ दिया गया है। इवेलिन रेखांकित करते हैं कि ऐसे पौधे आसानी से उगाए जा सकते हैं और इनके व्यंजन बनाने के लिए ईंधन की जरूरत नहीं है, आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं और पचाने में भी आसान हैं। यह किताब खाना बनाने के लिए सामग्री का उत्पादन करने के संकेत और नुस्खा बताती है।वह गुलबहार, दलदली गेंदा आदि के सलाद की भी बात करते हैं। ये और कई तरह के पौधे बेकार जमीन पर भी उगाए जा सकते हैं और माली को बिना कीमत आत्मनिर्भर बनाने में मदद कर सकते हैं। कई तरह के ‘‘खरपतवारों' को सही समय पर लिया जा सकता है और कई बार कड़वापन खत्म करने के लिए उनकी जड़ों को उबालकर इस्तेमाल किया जा सकता है। हालांकि, आधुनिक काल के शुरुआती दिनों में कच्ची सब्जियों को खाने को लेकर चिंता जताई जाती थी कि अगर अधिक खाया जाए तो पाचन तंत्र खराब हो सकता है। हालांकि, मुख्य बिंदु यह है कि उन्होंने विस्तृत परिभाषा दी है कि सलाद में किन-किन चीजों को शामिल किया जा सकता है जैसे उच्च श्रेणी के रेस्तरां में जगली पौधों की वापसी। सलाद, ‘‘शहर के दावत के लिए उपयुक्त''एक व्यंजन बनाने की विधि जो इवेलिन ने दी है और उसकी समीक्षा करने के बाद सलाद ऐसी हो सकती है-सलाद में पड़ने वाली सामग्री : छिलके वाले बादाम कटे हुए, ठंडे पानी में भिगोए हुए मसालेदार खीरे, कॉनिलियन्स (एक प्रकार की चेरी), जामुन, चुकुंदर, जलकुंभी के डंठल, अखरोट, मसालेदार मशरुम, संतरे के छिलके आदि। बनाने की विधि : उपरोक्त सामग्री को काट लें और उनमें भुना हुआ अखरोट, पिस्ता, बादाम आदि डाले और फूलों से सजाएं और उस पर गुलाबजल का छिड़काव करें। साथ में सिरका में भिगोए फूल भी रख सकते हैं। इवेलिन की किताब का संदेश है कि प्रकृति ने जो दिया है, उसका इस्तेमाल करें।
- 68 इंच है घोड़े की लंबाईमुंबई। महाराष्ट्र के देशभर में प्रसिद्ध सारंगखेड़ यात्रा में राज्य भर से घोड़े बिक्री के लिए आते हैं। यहां बिकने आने वाले कई घोड़ों की कीमत करोड़ों में होती है। हाल ही में महाराष्ट्र के नासिक का एक घोड़ा जिसका नाम 'रावण' है, चर्चाओं में हैं। इस राकाले घोड़े की कीमत मेले में 5 करोड़ लगाई जा रही है। 5 करोड़ में इस घोड़े को खरीदने के लिए कई लोग तैयार हैं। इस घोड़े की लंबाई 68 इंच है। इसे चमकदार बनाने के लिए दूध, घी, अंडा, और सूखे मेवे खिलाए जाते हैं। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक यह हर दिन 1 किलो घी और 10 लीटर दूध पीता है। घोड़े के मालिक मुंबई निवासी असद सैयद ने इसे बेचने से इनकार कर दिया है।