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- विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया की पहली मलेरिया वैक्सीन को मंजूरी दे दी है। हालांकि यह वैक्सीन सिर्फ 30 प्रतिशत प्रभावशाली है और इसकी चार खुराक लेनी पड़ेंगी।अफ्रीका में हुए परीक्षणों के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया की पहली मलेरिया वैक्सीन को मंजूरी दी है। इस वैक्सीन से दसियों हजार जानें सालाना बचाए जाने की उम्मीद की जा रही है। इसे ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन नाम की कंपनी ने बनाया है। कई साल से जारी परीक्षणों के बाद बुधवार को डब्ल्यूएचओ ने मलेरिया वैक्सीन को मंजूरी दी। इसके परीक्षण अफ्रीका के कई देशों में हुए हैं जहां हर साल हजारों बच्चे इस बीमारी की भेंट चढ़ जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक तेद्रोस अधनोम गेब्रयेसुस ने यूएन के दो विशेष सलाहकार समूहों द्वारा समर्थन मिलने के बाद इस वैक्सीन को स्वीकृति का ऐलान करते हुए इसे ऐतिहासिक पल बताया।क्या है वैक्सीन?वैक्सीन को मॉस्कीरिक्स नाम दिया गया है। इसे 1987 में ब्रिटिश दवा कंपनी ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन ने बनाया था। इसके बारे में डबल्यूएचओ महानिदेशक ने कहा, "इस वैक्सीन को अफ्रीका में अफ्रीकी वैज्ञानिकों ने तैयार किया है और हमें उन पर गर्व है। " उन्होंने बताया कि इस वैक्सीन का इस्तेमाल मलेरिया रोकने के लिए उपलब्ध मौजूदा उपायों के साथ किया जाएगा ताकि हजारों बच्चों की जानें बचाई जा सकें। मलेरिया एक जानलेवा बीमारी है जो मादा एनाफेलीज मच्छर के काटने से होती है। अब तक इसके लिए मच्छर मारने वाला स्प्रे या मच्छरदानी लगाने जैसे उपाय किए जाते रहे हैं।मॉस्कीरिक्स में गंभीर मलेरिया को रोकने की क्षमता सिर्फ 30 प्रतिशत ही है. इसके लिए वैक्सीन की चार खुराकें लेनी होंगी और दवा से मिलने वाली सुरक्षा कुछ ही महीनों में खत्म हो जाती है। हालांकि इसके साइड इफेक्ट बहुत कम हैं जिनमें बुखार और ऐंठन शामिल हैं।सिर्फ अफ्रीका में हर साल 20 करोड़ लोगों को मलेरिया होता है जिनमें से चार लाख से ज्यादा लोगों की जान चली जाती है। इनमें से अधिकतर पांच साल से कम उम्र के बच्चे होते हैं। 2019 में जितने लोग अफ्रीका में कोविड से मरे हैं, उससे ज्यादा लोग मलेरिया से मरे हैं। दवा कंपनी जीएसके टीकाकरण अभियान के लिए अतिरिक्त धन जुटाने की कोशिश कर रही है। कंपनी का मकसद हर साल डेढ़ करोड़ खुराक बनाना है।डब्ल्यूएचओ के अफ्रीका निदेशक डॉ. मात्शिदो मोएती ने इस टीके को उम्मीद की किरण बताया है। उन्होंने कहा, "आज की यह सिफारिश महाद्वीप के लिए उम्मीद की किरण है, जिस पर इस बीमारी का सबसे ज्यादा बोझ है. हम उम्मीद कर रहे हैं कि और ज्यादा तादाद में बच्चे मलेरिया से बचाए जा सकेंगे और वे स्वस्थ वयस्क बनेंगे। " कैंब्रिज इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल रिसर्च के निदेशक जूलियन रायनर ने कहा है कि यह बड़ा कदम है. उन्होंने कहा, "भविष्य की ओर यह एक बड़ा कदम है. यह टीका पूरी तरह दोषरहित नहीं है लेकिन यह लाखों बच्चों को मरने से बचाएगा।" वैक्सीन का परीक्षण करने वाले डब्ल्यूएचओ के विशेषज्ञ समूह के प्रमुख रहे डॉ. आलेहांद्रो क्राविओतो कहते हैं कि इस टीके को बनाना आसान नहीं था। उन्होंने कहा, "अब तक भी हम बहुत ज्यादा प्रभावशाली होने की पहुंच में नहीं हैं लेकिन अब हमारे पास एक टीका है जो सुरक्षित है और जिसका इस्तेमाल किया जा सकता है।"ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी भी मलेरिया की एक वैक्सीन बना रही है जिसे 77 प्रतिशत तक प्रभावशाली बताया गया है। इसका 450 बच्चों पर एक साल लंबा परीक्षण हो चुका है।
- अमेरिका के न्यू मेक्सिको में 23 हजार साल पुराने मानव पदचिन्ह मिले हैं। इसे इस बात का संकेत माना जा रहा है कि आखिरी हिम युग के अंत से पहले ही उत्तरी अमेरिका में मानव सभ्यता मौजूद थी।इस खोज से इस महाद्वीप में सबसे पहले बसने वाले लोगों का इतिहास हजारों साल पीछे चला गया है । ये पदचिन्ह बहुत पहले ही सूख चुकी एक झील के किनारे मिट्टी में पाए गए। यह इलाका अब न्यू मेक्सिको रेगिस्तान का हिस्सा है. धीरे धीरे इन पदचिन्हों में गाद भर गई और ये ठोस हो कर पत्थर बन गए। इससे हमारे प्राचीन रिश्तेदारों के होने के सबूत का संरक्षण हो पाया और अब वैज्ञानिकों को उनकी जिंदगी के बारे में विस्तार से जानने का मौका मिला है।अमेरिकी पत्रिका साइंस में छपे एक अध्ययन में बताया गया, "कई चिन्ह बच्चों और किशोरों के लगते हैं। वयस्कों के बड़े पदचिन्ह उनसे कम ही हैं। इसका एक कारण तो श्रम विभाजन हो सकता है, जिसके तहत वयस्क ऐसा काम करते हैं जिनमें कौशल लगता हो और 'सामान ढोना और लाना-ले जाना बच्चे करते हैं।" अध्ययन में यह भी लिखा गया, "बच्चे किशोरों के साथ ही चलते थे और दोनों ने साथ मिलकर ज्यादा पदचिन्ह छोड़े हैं। " शोधकर्ताओं को इनके अलावा मैमथ, पूर्व ऐतिहासिक भेडि़ए और विशालकाय स्लॉथ के पदचिन्ह भी मिले हैं। ऐसा लगता है कि ये पशु भी उसी समय उस झील के आस पास थे जब ये मानव वहां गए थे। अमेरिका को इंसानों द्वारा बसाए गए आखिरी महाद्वीप के रूप में जाना जाता है। दशकों से सबसे ज्यादा माना जाने वाला सिद्धांत तो यह कहता है कि मानव पूर्वी साइबीरिया से एक जमीनी पुल के जरिए उत्तरी अमेरिका आए थे। यह इलाका आज बेरिंग स्ट्रेट के नाम से जाना जाता है।अलास्का पहुंचने के बाद ये मानव बेहतर आबहवा की तलाश में दक्षिण की ओर चले गए। मैमथों को मारने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले भालों के सिरों जैसे पुरातात्विक सबूत लंबे समय से 13,500 साल पुरानी एक संस्कृति का संकेत दे रहे थे। इस संस्कृति का तथाकथित क्लोविस संस्कृति से संबंध माना जाता है। इसका नाम न्यू मेक्सिको के एक शहर के नाम पर पड़ा। इसे इस महाद्वीप की पहली सभ्यता माना जाता था और अमेरिकी मूल प्रजाति के नाम से जाने जाने वाले समूहों का अगुआ माना जाता था।हालांकि पिछले बीस सालों में क्लोविस संस्कृति की अवधारणा को नई खोजों से चुनौती मिली है। इनकी वजह से सबसे पहली बस्तियों की उम्र और पीछे चली गई है. सामान्य रूप से यह नई उम्र भी 16 हजार सालों से ज्यादा पुरानी नहीं थी। यह वो युग है जब तथाकथित "आखिरी ग्लेशियल मैक्सीमम" का अंत हो गया था यानी कि वो काल जिसमें बर्फ की चादरें सबसे ज्यादा क्षेत्रफल में फैली हुई थीं। यह काल करीब 22 हजार साल पहले तक चला था। इसे बेहद अहम माना जाता है क्योंकि यह माना जाता है कि महाद्वीप के उत्तरी इलाकों के अधिकांश हिस्से बर्फ से ढंके होने की वजह से एशिया से उत्तरी अमेरिका और उसके आगे मानव प्रवासन बहुत मुश्किल रहा होगा। अध्ययन के लेखकों का कहना है कि इससे उत्तरी अमेरिका में इंसानों के होने की पहले से ज्यादा ठोस बेसलाइन सामने आई है। हालांकि यह संभव है कि वो इससे भी पहले आए हों।
- दुनियाभर में कई ऐसी झीलें हैं जो रहस्यों से भरी पड़ी हैं। इन झीलों के रहस्य के बारे में आज तक वैज्ञानिक भी नहीं पता लगा पाए हैं। इंडोनेशिया की झील कावाह इजेन भी इन्हीं झीलों में से एक है। यह दुनिया की सबसे ज्यादा अम्लीय झील है। इस झील के पानी का तापमान लगभग 200 डिग्री सेल्सियस बना रहता है, लेकिन इस झील का रंग रहस्यमयी है जिसका पानी रात में फिरोजी पत्थर की तरह चमकता है।इंडोनेशिया में लगातार भूकंप आते रहते हैं जिसकी वजह से ज्वालामुखी के फटने की घटनाएं होती रहती हैं। प्रशांत महासागर के किनारे-किनारे स्थित यह क्षेत्र दुनिया का सबसे खतरनाक भू-भाग माना जाता है। इसको रिंग ऑफ फायर भी कहा जाता है। दुनिया की कुल एक्टिव 75 प्रतिशत ज्वालामुखी इंडोनेशिया में ही है। इनमें से एक ज्वालामुखी का नाम कावाह इजेन है। इसी के नाम पर एक रहस्यमयी झील है जो ज्वालामुखी के पास स्थित है।माना जाता है कि कावाह इजेन झील दुनिया की सबसे अधिक अम्लीय झील है और इसका पानी लगातार खौलता रहता है। इसके कारण झील के आसपास कोई रहता नहीं है। इस झील की कई बार सैटेलाइट इमेज जारी की गई जिसमें रात को झील का पानी नीली-हरी रोशनी की तरह दिखाई देता है। इसकी वजह से लोगों का झील की तरफ आकर्षण बढ़ता गया।झील इतनी खतरनाक है कि इसके आसपास खुद वैज्ञानिकों की भी लंबे समय तक रहने की हिम्मत नहीं हुई। कई सालों के रिसर्च के बाद वैज्ञानिकों ने इस फिरोजी रंग का पता लगाया। यह सक्रिय ज्वालामुखी लगातार खौल रही है जिससे हाइड्रोजन क्लोराइड, सल्फ्यूरिक डाइऑक्साइड जैसी कई तरह की गैसें निकलती हैं। इन्हीं गैसों के आपस में मिलने से प्रतिक्रिया होती है जिससे नीला रंग निकलता है। यह नीला रंग ज्वालामुखी से निकलते धुंए का भी होता है और झील के पानी का भी।वैज्ञानिकों ने झील की अम्लीयता की जांच करने के लिए तेजाब से भरे इस झील के पानी में एलुमीनियम की मोटी चादर को करीब 20 मिनट के लिए डाला। जब मोची चादर को निकाला गया तो इस चादर की मोटाई पारदर्शी कपड़े जितनी बची हुई थी। ज्वालामुखी के कभी भी फटने की आशंका की वजह से डोनेशिया की सरकार ने आसपास चेतावनी लगा दी थी। साल 2012 से यहां पर कोई नहीं पहुंचा, लेकिन इस झील का पानी लगातार चर्चाओं में रहा। हालांकि अभी इस झील से जुड़े कई रहस्य हैं जिनका अभी तक नहीं पता चल पाया है।
- भारतीय रिसर्चरों ने इस सवाल का जवाब तलाश लेने का दावा कियाहिमालय से निकल कर गुजरात के कच्छ रण तक बहने वाली सरस्वती नदी का लुप्त होना ही हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख शहर धोलावीरा के नष्ट होने की प्रमुख वजह थी? भारतीय रिसर्चरों ने इस सवाल का जवाब तलाश लेने का दावा किया है। लगभग चार हजार साल पहले लुप्त होने वाली सरस्वती नदी के बारे में यह शोध रिपोर्ट विली जर्नल के ताजा अंक में छपी है। पहली बार सरस्वती नदी के विलुप्त होने से हड़प्पाकालीन शहर धोलावीरा के नष्ट होने का प्रामाणिक जानकारी पहली बार सामने आई है।आईआईटी खडग़पुर की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि रिसर्च टीम ने कच्छ के रण में स्थित सबसे बड़े हड़प्पाकालीन शहर धोलावीरा के विकास और पतन की कडिय़ों और रण में बहने वाली एक ऐसी नदी के आपसी संबंधों की खोज की है जो पौराणिक काल की हिमालयी नदी सरस्वती से मिलती है। इस शहर की सबसे ज्यादा खुदाई की गई है और यहां हड़प्पाकालीन सभ्यता और संस्कृति के ढेरों अवशेष मिले हैं। रिसर्च टीम में आईआईटी खडग़पुर, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई), डेक्कन कॉलेज पीजीआरआई पुणे, फिजिकल रिसर्च लैबोरेटरी (पीआरएल) और गुजरात के संस्कृति विभाग के शोधकर्ता शामिल हैं।आईआईटी के बयान में कहा गया है कि शोध के दौरान मिले आंकड़ों से पता चला है कि रण में किसी जमाने में मैंग्रोव पेड़ भी उगे थे और सिंधु की सहायक नदियों की ओर थार मरुस्थल के दक्षिण में स्थित कच्छ में भारी मात्रा में पानी मिलता था। शोध दल की अगुआई करने वाले आईआईटी खडग़पुर के प्रोफेसर अनिंद्य सरकार कहते हैं, "पहली बार कच्छ में बहने वाली इस हिमाच्छादित नदी का प्रत्यक्ष प्रमाण मिला है। यह सरस्वती नदी जैसी है और रण के पास बहती थी।"अहमदाबाद की फिजिकल रिसर्च लेबोरेट्री (पीआरएल) से जुड़े डॉ रवि भूषण और नवीन जुयाल ने हड़प्पा में मिले मानव कंगन के कार्बोनेट्स और 'फिश ओटोलिथ' की जांच के आधार पर कहा है कि यह स्थान साढ़े पांच हजार साल पहले यानी हड़प्पा काल से पहले से लेकर हड़प्पा काल के दौरान तक बसा हुआ था। एएसआई के दो शोधकर्ताओं डॉ वीएस बिष्ट और आरएस रावत के शोध से पता चला है कि धोलावीरा का 4400 साल पहले तक विस्तार हुआ। इसके बाद लगभग चार हजार साल पहले अचानक इसका पतन हो गया।प्रोफेसर सरकार कहते हैं, "धोलावीरा में रहने वाले लोगों ने बांध, जलाशय और पाइफलाइन बना कर जल संरक्षण की बेहतरीन नीति अपनाई थी. लेकिन नदी के सूख जाने की वजह से इलाके में भयावह सूखे जैसी स्थिति का सामना करने में वह लोग नाकाम रहे।" वह कहते हैं कि धोलावीरा इस बात को समझने के लिए एक बेहतरीन मिसाल है कि इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की भविष्यवाणी के मुताबिक किस तरह जलवायु परिवर्तन से भविष्य में सूखे का खतरा बढ़ सकता है।हड़प्पा या सिंधुघाटी सभ्यता के अचानक खत्म होने के बारे में कई वजहें गिनाई जाती रही हैं और इस पर अब तक रहस्य कायम है। कुछ इतिहासकारों का दावा है कि सिंधु घाटी के प्रमुख कारोबारी सहयोगी मेसोपोटामिया के साथ व्यापार अचानक ठप होना ही इसकी प्रमुख वजह थी। वहीं दूसरे इतिहासकारों का दावा है कि इस सभ्यता के खत्म होने की वजह युद्ध भी हो सकता है। ऋगवेद में उत्तर से आने वाले हमलावरों के सिंधु घाटी पर कब्जा करने का जिक्र है। बाद में 1940 के दशक में एक पुरातत्वविद् मोर्टाइमर व्हीलर ने मोहनजोदड़ो से 39 नरकंकाल बरामद होने के बाद दावा किया था कि उन हमलावरों ने ही यह हत्याएं की थीं। हालांकि इस दावे पर भी सवाल उठते रहे हैं।ताजा शोध में कहा गया है कि धोलावीरा में रहने वाले लोगों की संस्कृति काफी बेहतर थी। उन लोगों ने विशालकाय शहर बसाया और जल संरक्षण नीतियो की वजह से लगभग 1700 साल तक जीवित रहे। वैसे, सरस्वती नदी के हिमालय से निकल कर हरियाणा, राजस्थान होते हुए गुजरात के धोलावीरा तक जाने के प्रमाण पहले भी मिले थे। विशेषज्ञों का कहना है कि इस शोध से सरस्वती नदी, सिंधु घाटी सभ्यता और उस दौरे के जीवन के बारे में नई जानकारियां मिलेंगी। इससे इतिहास के कुछ रहस्यों से भी परदा उठ सकता है।
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वॉशिंगटन।मोटापा एवं टाइप 2 मधुमेह के उपचार में इस्तेमाल होने वाली दवा से कोविड-19 से पीड़ित ऐसे रोगियों के अस्पताल में भर्ती होने, सांस लेने में आने वाली दिक्कतों का खतरा कम हो सकता है, जो टाइप 2 मधुमेह से पीड़ित हों। एक अध्ययन में पता चला है कि वायरल बीमारी से पीड़ित होने से छह महीने पहले अगर रोगी ने यह दवा ली है, तो उसमें कोविड-19 का खतरा कम हो जाता है। अमेरिका में पेन स्टेट कॉलेज ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने टाइप 2 मधुमेह से पीड़ित करीब 30 हजार रोगियों के इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड का विश्लेषण किया, जो जनवरी और सितंबर 2020 के बीच सार्स-सीओवी-2 से पीड़ित पाए गए थे। ‘डायबिटीज' पत्रिका में मंगलवार को प्रकाशित अध्ययन में बताया गया कि दवा ग्लूकागोन-लाइक पेप्टाइड-1 रिसेप्टर (जीएलपी-1आर) का और परीक्षण किया जाना चाहिए कि क्या वह कोविड-19 की जटिलताओं के खिलाफ संभावित सुरक्षा प्रदान कर सकता है। पेन स्टेट में प्रोफेसर पैट्रिसिया ग्रिगसन ने कहा, ‘‘हमारे निष्कर्ष काफी उत्साहजनक हैं क्योंकि जीएलपी-1आर काफी सुरक्षा प्रदान करने वाला प्रतीत होता है, लेकिन इन दवाओं का इस्तेमाल और टाइप 2 मुधमेह से पीड़ित रोगियों में कोविड-19 के गंभीर खतरे को कम करने के बीच संबंध स्थापित करने के लिए और शोध की जरूरत है।'' शोधकर्ताओं के अनुसार, कोविड-19 के कारण अस्पताल में भर्ती किए जाने और मौत से बचने के लिए टीका सबसे अधिक प्रभावी सुरक्षा है लेकिन विरल, गंभीर संक्रमण से पीड़ित रोगियों की हालत में सुधार के लिए अतिरिक्त प्रभावी उपचार की आवश्यकता है। कोविड-19 से पीड़ित जो मरीज पहले से ही मधुमेह जैसी बीमारियों से ग्रस्त हैं, उनके लिए संक्रमण का खतरा ज्यादा है और उनकी मौत भी हो सकती है। ब्रिटेन में हाल में एक अध्ययन में बताया गया कि देश में कोविड-19 के कारण जितने लोगों की मौत हुई, उनमें से करीब एक तिहाई टाइप 2 मधुमेह से पीड़ित लोग थे।
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आज के समय में हर कोई अपने बढ़ते वजन से परेशान है। बिजी लाइफस्टाइल के चलते लोग सही डाइट नहीं ले पाते जिसकी वजह से उनका वजन या तो काफी बढ़ जाता है, या जरूरत के हिसाब से काफी कम होने लगता है। ऐसे में अपने वजन को कंट्रोल करने के लिए लोग अलग अलग उपाय करता है, लेकिन, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो अपने मन से ही खुद को ओवरवेट मान लेते हैं और अलग-अलग डाइट फॉलो करने लगते हैं, जिसके बाद अंडरवेट हो जाते हैं जो सही नहीं है। आपके के लिए ये जानना जरूरी है कि एक स्वस्थ व्यक्ति का वजन, उम्र और कद किस हिसाब से कितना होना चाहिए। एक्सपट्र्स के मुताबिक, लंबाई के अनुसार वजन का संतुलित होना, बेहतर स्वास्थ्य का मापदंड होता है। इसलिए आज हम आपको हाइट के अनुसार आपका वजन कितना होना चाहिए यह बताने जा रहे हैं-----
ऐसे पता करें कितना वजन है जरूरी
- 4 फीट 10 इंच लंबाई वाले शख्स का सामान्य वजन 41 से 52 किलोग्राम होना चाहिए। इससे ज्यादा वजन ओवरवेट की श्रेणी में आता है।
- 5 फीट लंबाई वाले शख्स का सामान्य वजन 44 से 55.7 किलोग्राम के बीच होना चाहिए। ये स्वस्थ्य शरीर की निशानी है।
- 5 फीट 2 इंच लंबे व्यक्ति का वजन 49 से 63 किलोग्राम के बीच होना चाहिए।
- 5 फीट 4 इंच लंबे व्यक्ति का सामान्य वजन 49 से 63 किलोग्राम के बीच होना चाहिए।
- 5 फीट 6 इंच लंबे व्यक्ति का सामान्य तौर पर वजन 53 से 67 किलोग्राम के बीच होना चाहिए।
- 5 फीट 8 इंच लंबे व्यक्ति का सामान्य वजन 56 से 71 किलोग्राम के बीच होना चाहिए।
- 5 फीट 10 इंच लंबे व्यक्ति का सामान्य वजन 59 से 75 किलोग्राम के बीच होना चाहिए।
- 6 फीट लंबे व्यक्ति का सामान्य वजन 63 से 80 किलोग्राम के बीच होना चाहिए. इससे ज्यादा वजन स्वस्थ्य शरीर की निशानी है।
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अक्सर आपने खबरों में पढ़ा होगा कि अमुक शहर में अमुक घटना के दौरान पुलिस को हवाई फायरिंग करनी पड़ी। ऐसी खबरों में स्पष्ट होता है कि किसी बवाल, हंगामे वगैरह को कंट्रोल करने के लिए, बेकाबू भीड़ को नियंत्रित करने के लिए नागरिक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए पुलिस को फायरिंग करनी पड़ती है।
इन परिस्थितियों में पुलिस हवा में फायरिंग करती है और भीड़ तितर-बितर हो जाती है। पुलिस का उद्देश्य यहां नागरिक सुरक्षा होता है, लेकिन अगर सुरक्षा व्यवस्था को दांव पर लगाते हुए कोई दहशत फैलाने के उद्देश्य से ऐसा करता है तो यह कानूनन गलत हो जाता है। ये तो पुलिस की हवाई फायरिंग के बारे में जानकारी हुई, लेकिन फिर ये जो शादी, सेलिब्रेशन, चुनाव में जीत जैसे जश्न भरे माहौल में जो हवाई फायरिंग की जाती है, उनका क्या मतलब होता है? आइए जरा विस्तार से समझते हैं.
क्या होती है हर्ष फायरिंग?
हर्ष फायरिंग शब्द से ही स्पष्ट है कि हर्ष यानी खुशी के मौके पर की गई फायरिंग। इसे अंग्रेजी में Celebratory gunfire कहा जाता है. शादी, सेलिब्रेशन, जीत का जश्न, त्यौहार पर या किसी खुशी के मौके पर हर्ष फायरिंग आम बात है। वेस्टर्न कंट्रीज में न्यू ईयर पर हर्ष फायरिंग की जाती है। वहीं भारत के कई राज्यों में खासकर शादी के अवसर पर हर्ष फायरिंग खूब की जाती है। कई बार जश्न के माहौल में फायरिंग के दौरान किसी व्यक्ति को भी गोली लग जाती है और उचित इलाज नहीं मिलने से मौत भी हो जाती है।
हवाई फायरिंग क्या होती है?
हर्ष फायरिंग से अलग हवाई फायरिंग अक्सर नागरिक सुरक्षा के मकसद से की जाती है। पुलिस को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए हवाई फायरिंग करनी पड़ती है। कई बार भीड़ में बदमाश भी हवाई फायरिंग का फायदा उठाते हैं और गोली चला देते हैं। इन गोलियों से जान का नुकसान भी हो सकता है।
क्या कहता है कानून?
हवाई फायरिंग केवल सुरक्षा की दृष्टि से स्वीकार्य है, अन्यथा हर्ष फायरिंग और हवाई फायरिंग, दोनों ही कानूनी तौर पर अमान्य हैं। किसी की मौत होने पर गैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज किया जाता है। वहीं जश्न के दौरान हर्ष फायरिंग करनेवालों पर गृह मंत्रालय सख्ती की तैयारी में है। गृह मंत्रालय ने प्रस्ताव पर हर्ष फायरिंग के दोषियों के लिए 2 साल की सजा और 1 लाख तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।
आम्र्स एक्ट को भी और सख्त करने की तैयारी है। साल 2019 में आम्र्स एक्ट 1959 में संशोधन का ड्राफ्ट सामने आया था। नए नियमों के तहत मौके विशेष पर सिर्फ 1 ही हथियार रखा जा सकेगा। हालांकि, ड्राफ्ट में र्क और भी प्रावधान है. अवैध हथियारों पर भी सरकारें सख्ती बरत रही हैं।
पुलिस की फायरिंग में किसी की मौत हो जाए तो?
हवाई फायरिंग को सिर्फ सुरक्षा की दृष्टि से ही स्वीकार किया जा सकता है। पुलिस या सुरक्षाबलों की हवाई फायरिंग में अगर आम आदमी की मौत होती है तो उन पर भी कानूनी कार्रवाई होती है।
- ह्यूस्टन। कोविड-19 से पीड़ित और 40 साल से ज्यादा उम्र के जिन वयस्कों को टाइप-1 मधुमेह है उनके इसी रोग से पीडि़त बच्चों की तुलना में अस्पताल में भर्ती होने की आशंका सात गुना ज्यादा है। एक अध्ययन के नतीजे में यह जानकारी सामने आई। ‘एंडोक्राइन सोसाइटी के जर्नल ऑफ क्लिनिकल एंडोक्राइनोलॉजी एंड मेटाबोलिज्म' में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया, ''मधुमेह के रोगियों को कोविड-19 से संबंधित स्वास्थ्य जटिलताओं का खतरा अधिक है, विशेषकर यदि उनकी आयु 40 वर्ष से ज्यादा है।'' अध्ययन के अनुसार, कोविड-19 से पीड़ित बच्चों में श्वास संबंधी गंभीर लक्षण होना दुर्लभ है और उनमें प्रायः लक्षण नहीं दिखाई देते। इसके विपरीत वयस्कों में श्वास संबंधी कई प्रकार की समस्याएं होती हैं जिनमें अधिक उम्र के मधुमेह के रोगियों की मौत होने की आशंका ज्यादा होती है। सैन डिएगो स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की डॉ कार्ला डेमेटेरको-बर्गरेन ने कहा, ''हमारे अध्ययन में सामने आया है कि मधुमेह टाइप-1 के रोगी 40 साल की आयु से अधिक के लोगों को बच्चों और युवाओं की अपेक्षा कोविड-19 से अधिक खतरा है। बच्चों और युवाओं में हल्के लक्षण होते हैं और जल्दी ठीक हो जाते हैं।
- शंख का महत्व हम सभी जानते हैं। कहते हैं कि जहां तक शंख की ध्वनि जाती है वहां तक कोई नकारात्मक शक्ति प्रवेश नहीं कर सकती। प्राचीन काल में शंख ना सिर्फ पवित्रता का प्रतीक था बल्कि इसे शौर्य का द्योतक भी माना जाता था। प्रत्येक योद्धा के पास अपना शंख होता था और किसी भी युद्ध अथवा पवित्र कार्य का आरम्भ शंखनाद से किया जाता था। महाभारत में भी हर योद्धा के पास अपना शंख था और कुछ के नाम भी महाभारत में वर्णित हैं। आइये कुछ प्रसिद्ध शंखों के बारे में जानें।पाञ्चजन्य: ये श्रीकृष्ण का प्रसिद्ध शंख था। जब श्रीकृष्ण और बलराम ने महर्षि सांदीपनि के आश्रम में शिक्षा समाप्त की तब उन्होंने गुरुदक्षिणा के रूप में अपने मृत पुत्र को मांगा। तब दोनों भाई समुद्र के अंदर गए जहां श्रीकृष्ण ने शंखासुर नामक असुर का वध किया। तब उसके मरने के बाद उसका शंख (खोल) शेष रह गया जो श्रीकृष्ण ने अपने पास रख लिया। वही पाञ्चजन्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।गंगनाभ: ये गंगापुत्र भीष्म का प्रसिद्ध शंख था जो उन्हें उनकी माता गंगा से प्राप्त हुआ था। गंगनाभ का अर्थ होता है "गंगा की ध्वनि" और जब भीष्म इस शंख को बजाते थे तब उसकी भयानक ध्वनि शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न कर देती थी। महाभारत युद्ध का आरम्भ पांडवों की ओर से श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य और कौरवों की ओर से भीष्म ने गंगनाभ को बजा कर ही की थी।हिरण्यगर्भ: ये सूर्यपुत्र कर्ण का शंख था। कहते हैं ये शंख उन्हें उनके पिता सूर्यदेव से प्राप्त हुआ था। हिरण्यगर्भ का अर्थ सृष्टि का आरम्भ होता है और इसका एक सन्दर्भ ज्येष्ठ के रूप में भी है। कर्ण भी कुंती के ज्येष्ठ पुत्र थे।अनंतविजय: ये महाराज युधिष्ठिर का शंख था जिसकी ध्वनि अनंत तक जाती थी। इस शंख को साक्षी मान कर चारों पांडवों ने दिग्विजय किया और युधिष्ठिर के साम्राज्य को अनंत तक फैलाया। इस शंख को धर्मराज ने युधिष्ठिर को प्रदान किया था।विदारक: ये महारथी दुर्योधन का भीषण शंख था। विदारक का अर्थ होता है विदीर्ण करने वाला या अत्यंत दु:ख पहुंचाने वाला। ये शंख भी स्वभाव में इसके नाम के अनुरूप ही था जिसकी ध्वनि से शत्रुओं के ह्रदय विदीर्ण हो जाते थे। इस शंख को दुर्योधन ने गांधार की सीमा से प्राप्त किया था।पौंड्र: ये महाबली भीम का प्रसिद्ध शंख था। इसका आकर बहुत विशाल था और इसे बजाना तो दूर, भीमसेन के अतिरिक्त कोई अन्य इसे उठा भी नहीं सकता था। कहते हैं कि इसकी ध्वनि इतनी भीषण थी कि उसके कम्पन से मनुष्यों की तो क्या बात है, अश्व और यहां तक कि गजों का भी मल-मूत्र निकल जाया करता था। कहते हैं कि जब भीम इसे पूरी शक्ति से बजाते थे जो उसकी ध्वनि से शत्रुओं का आधा बल वैसे ही समाप्त हो जाया करता था। ये शंख भीम को नागलोक से प्राप्त हुआ था।देवदत्त: ये अर्जुन का प्रसिद्ध शंख था जो पाञ्चजन्य के समान ही शक्तिशाली था। इस शंख को स्वयं वरुणदेव ने अर्जुन को वरदान स्वरुप दिया था। इस शंख को धारण करने वाला कभी भी धर्मयुद्ध में पराजित नहीं हो सकता था। जब पाञ्चजन्य और देवदत्त एक साथ बजते थे तो दुश्मन युद्धस्थल छोड़ कर पलायन करने लगते थे।सुघोष: ये माद्रीपुत्र नकुल का शंख था। अपने नाम के स्वरुप ही ये शंख किसी भी नकारात्मक शक्ति का नाश कर देता था।मणिपुष्पक: ये सहदेव का शंख था। मणि और मणिकों से जडि़त ये शंख अत्यंत दुर्लभ था। नकुल और सहदेव को उनके शंख अश्विनीकुमारों से प्राप्त हुए थे।यञघोष: ये द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न का शंख था जो उसी के साथ अग्नि से उत्पन्न हुआ था और तेज में अग्नि के समान ही था। इसी शंख के उद्घोष के साथ वे पांडव सेना का सञ्चालन करते थे।श्रीमद्भगवतगीता के पहले अध्याय के एक श्लोक में इन शंखों का वर्णन है।पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:। पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर।।अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर। नकुल सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।अर्थात: श्रीकृष्ण भगवान ने पांचजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त और भीमसेन ने पौंड्र शंख बजाया। कुंती-पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय शंख, नकुल ने सुघोष एवं सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख का नाद किया।इसके अगले श्लोक में अन्य योद्धाओं द्वारा शंख बजाने का वर्णन है हालाँकि उनके नाम नहीं दिए गए हैं।काश्यश्च परमेष्वास शिखण्डी च महारथ। धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजिता:।।द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश पृथिवीपते। सौभद्रश्च महाबाहु: शंखान्दध्मु: पृथक्पृथक्।।अर्थात: इसके अलावा काशीराज, शिखंडी, धृष्टद्युम्न, राजा विराट, सात्यकि, राजा द्रुपद, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों एवं अभिमन्यु आदि सभी ने अलग-अलग शंखों का नाद किया।
- सिडनी/मैनचेस्टर। जेएएमए पीडियाट्रिक्स नाम की पत्रिका में प्रकाशित एक नए अध्ययन में पता चला है कि ऐसे बच्चे जिनमें ऑटिज्म के शुरुआती लक्षण हों, उनकी पहले ही साल में थैरेपी शुरू कर देने के बहुत लाभ होते हैं क्योंकि इस आयु में मस्तिष्क तेजी से विकसित हो रहा होता है। जिन बच्चों को 12 माह की आयु में थैरेपी दी गई उनका तीन साल की उम्र में पुन: आकलन किया गया। पता चला कि उनके व्यवहार में उन बच्चों की तुलना में ऑटिज्म संबंधी बर्ताव मसलन सामाजिक संवाद में मुश्किल आना या बातों का दोहराव करना आदि कम देखे गए, जिन्हें थैरेपी नहीं दी गई थी।तंत्रिका तंत्र के विकास (न्यूरोडेवलपमेंटल कंडिशन) संबंधी सभी स्थितियों की तरह ही ऑटिज्म में भी यह देखा जाता है कि बच्चा क्या नहीं कर पा रहा है। 'द डाइनोस्टिक्स ऐंड स्टेटिस्टिकल मैन्युअल' एक मार्गदर्शिका है जिसमें व्यवहार के बारे में जानकारी दी गई है जिनसे तंत्रिका तंत्र और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी स्थिति का पता लगाया जा सकता है। पहले की तुलना में सामाजिक संवाद कौशल सीखने में अब अधिक बच्चों को मुश्किलें आने लगी हैं जिससे ऑटिज्म विकार से पीडि़त बच्चों की संख्या बढ़ गई है और अब यह एक अनुमान के मुताबिक यह आबादी का करीब दो फीसदी है। सामाजिक एवं संवाद कठिनाईयां ऐसे बच्चों के वयस्क होने पर उनकी शिक्षा, रोजगार और संबंधों के लिए रूकावट पैदा कर सकती हैं। इस अध्ययन में जिस थैरेपी का जिक्र आया है उसका उद्देश्य कम उम्र में ही सामाजिक संवाद कौशल बढ़ाने में मदद देना है ताकि आगे जाकर, जब बच्चे बड़े हों तो उन्हें उपरोक्त बताई समस्याओं का सामना नहीं करना पड़े।थैरेपी का नाम है 'आईबेसिस-वीआईपीपी' जिसमें वीआईपीपी का मतलब है 'वीडियो इंटरेक्शन फॉर पॉजीटिव पेरेंटिंग'। इसका इस्तेमाल ब्रिटेन में सामाजिक संवाद विकास में मदद देने के लिए किया गया। इसमें अभिभावक या बच्चों की देखभाल करने वाले लोग जो बच्चों के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं, उन्हें इस बारे में सिखाया जाता है। थैरेपी में अभिभावकों को बच्चे के संवाद को पहचानना सिखाया जाता है ताकि वे उस पर इस तरह से प्रतिक्रिया दे सकें कि बच्चे का सामाजिक संवाद विकास हो। बच्चे से बात करते अभिभावकों का वीडियो बनाया जाता है और फिर उसके आधार पर प्रशिक्षित थैरापिस्ट उन्हें मार्गदर्शन देते हैं और बताते हैं कि बच्चे के साथ संवाद कैसे बनाए रखा जा सकता है।
- भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) भारी बारिश को लेकर समय-समय पर कुछ चुनिंदा रंगों के आधार पर अलट्र्स जारी करता है, जैसे रेड, येलो, ऑरेंज, ब्लू आदि... क्या आपको इनके मतलब पता हैं?मौसम विभाग के मुताबिक, अलट्र्स के लिए इन रंगों का चुनाव कई एजेंसियों के साथ मिलकर तय किया गया है। भीषण गर्मी हो, सर्द लहर हो, मॉनसून हो या? फिर चक्रवाती तूफान... आईएमडी इनकी गंभीरता बताने के लिए पीला, ब्लू, नारंगी या लाल अलर्ट जारी करता है। आइए जानते हैं इनके मतलब क्या होते हैं।येलो अलर्ट - भारी बारिश, तूफान, बाढ़ या ऐसी प्राकृतिक आपदा से पहले लोगों को सचेत करने के लिए मौसम विभाग येलो अलर्ट जारी करता है। इस चेतावनी का मतलब है कि 7.5 से 15 मिमी की भारी बारिश होने की संभावना है। अलर्ट जारी होने के कुछ घंटों तक बारिश जारी रहने की संभावना रहती है। बाढ़ आने की आशंका भी रहती है।ब्लू अलर्ट : बादल गरजने, आंधी-तूफान के साथ बारिश होने की जब संभावना बनती है, तब विभाग अक्सर ब्लू अलर्ट जारी करता है। इस दौरान कई इलाकों में गरज के साथ बारिश होने की संभावना रहती है।रेड अलर्ट : जैसा कि रंग से ही स्पष्ट है, लाल खतरे का निशान होता है। रेड अलर्ट में भारी नुकसान की संभावना रहती है। जब कोई चक्रवात अधिक तीव्रता के साथ आता है, जैसे भारी बारिश की स्थिति में हवा की गति 130 किमी प्रति घंटा या इससे अधिक पहुंच जाती है, तो ऐसे में रेड अलर्ट जारी किया जाता है। रेड अलर्ट में प्रशासन को जरूरी कदम उठाने को कहा जाता है।ऑरेंज अलर्ट - मौसम विभाग जब ऑरेंज अलर्ट जारी करता है, तो इसका मतलब होता है कि मौसम की मांग है कि अब आप और खराब मौसम के लिए तैयार हो जाएं। जब मौसम इस तरह की करवट लेता है, जिसका असर जनजीवन पर पड़ सकता है, तब ये अलर्ट जारी किया जाता है। खराब मौसम के लिए आपको अपनी यात्राओं, कामकाज या स्कूली बच्चों के लिए आवागमन के बारे में तैयारी रखने की ज़रूरत होती है।कलर कोड के तहत चेतावनी जारी करने की प्रणाली के कारगर होने के बावजूद अब भी कुछ देशों में अलग तरीके अपनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए स्वीडन का मौसम विभाग चेतावनी जारी करने के लिए मौसम का हाल क्लास 1, क्लास 2 और क्लास 3 के हिसाब से बताता है। क्लास 1 का अर्थ सतर्कता से होता है और क्लास 2 में मौसम खराब होने का संकेत होता है । जबकि क्लास 3 का मतलब होता है कि मौसम बहुत बिगडऩे वाला है और जान माल के नुकसान की आशंका है। कुछ और भी देश पुराने या अपने अलग तरीके इस्तेमाल कर रहे हैं ।कलर कोड चेतावनी सिस्टम वास्तव में, यूरोप की मानक प्रणाली बन चुका है और इस तरीके से यूरोप के कम से कम 31 मौसम विभाग अलर्ट जारी करते हैं । यूरोप के अलावा एशिया के कई देश भी इस प्रणाली को अपना चुके हैं । मीटियोअलार्म नाम की वेबसाइट पर उन लोगों के लिए एक अलग कलर कोड सिस्टम है जो कलर ब्लाइंड यानी रंगों को लेकर अंधेपन के शिकार होते हैं । इनके लिए इस वेबसाइट पर ग्रे के हल्के से गाढ़े शेड्स के ज़रिये मौसम के खतरों की चेतावनी समझाए जाने की प्रणाली भी अपनाई जाती है।
- यदि जर्मनी में रहने वाले किसी व्यक्ति का वजन 80 किलोग्राम है, तो दक्षिण भारत में उसका वजन 24 ग्राम कम होगा। जानिए क्यों....धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति हमें चुंबक की तरह अपनी ओर खींचती है। वह हमारे वजन में अहम भूमिका निभाती है। देखने में भले ही लगे, लेकिन हमारा नीला ग्रह असल में उतना गोल है नहीं। उसका मैटीरियल अलग-अलग तरह से बंटा है। धरती के ऊपर भी और उसके गर्भ में भी। जहां उसका घनत्व ज्यादा है, वहां उसका गुरुत्वाकर्षण भी उस इलाके से ज्यादा है जहां द्रव्यमान कम है।उपग्रहों से तत्व के वितरण को ठीक-ठीक मापा जा सकता है। वे धरती की आकर्षण शक्ति को स्पष्ट करते हैं। वे दिखाते हैं कि धरती का गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र गोले की बजाय आलू जैसा होता है। ऊंचे इलाकों में धरती का गुरुत्वाकर्षण घाटी वाले इलाकों से ज्यादा होता है। उपग्रह की मदद से सबसे गहरी वादी दक्षिण भारत में मिली है।यदि जर्मनी में रहने वाले किसी व्यक्ति का वजन 80 किलोग्राम है, तो दक्षिण भारत में उसका वजन कम गुरुत्वाकर्षण के कारण 24 ग्राम कम होगा। धरती के केंद्र से हम जितना दूर जाते हैं, गुरुत्वाकर्षण उतना ही कम होता जाता है। इसलिए गहराई में स्थित समुद्र तट पर उस व्यक्ति का वजन हजारों मीटर ऊंचे पहाड़ के मुकाबले थोड़ा बहुत ज्यादा होगा। हालांकि दोनों के बीच का अंतर उसे महसूस नहीं होगा।एक्सरसाइज भी हमारे वजन पर असर डालती है। इसे हम झूले पर बैठने के अनुभव से जानते हैं। झूला जितनी तेजी से घूमता है, हवा में हम उतना ही ऊपर जाते हैं। यहां सेंट्रीफ्यूगल फोर्स गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध काम करती है। भूमध्य रेखा पर धरती दूसरी जगहों के मुकाबले तेजी से घूमती है। तेज सेंट्रीफ्यूगल फोर्स के चलते वहां वजन पोलैंड के मुकाबले 400 ग्राम कम होगा। वहीं, अंतरिक्ष में ये अंतर धरती के मुकाबले बहुत ही ज्यादा होता है। चांद पर वजन बहुत ही ऊंची छलांग मारेगा। वहां वजन धरती के मुकाबले 16 प्रतिशत ज्यादा होगा और यदि यह व्यक्ति सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति पर जाए, तो धरती के वजन के मुकाबले उसका वजन ढाई गुना ज्यादा हो जाएगा।
- आप सभी ने सांप सीढ़ी का खेल अवश्य खेला होगा। लेकिन क्या आपको पता है कि इसके पीछे का इतिहास क्या है? क्या आपको ये ज्ञात है कि इस खेल का सम्बन्ध हमारे पौराणिक ज्ञान से भी है।पहले तो हम इसका वास्तविक नाम आपको बता दें। इसे "मोक्ष पट्टम" कहा जाता था। जैसा कि नाम से प्रदर्शित होता है, ये एक ऐसा खेल था जिसमें मोक्ष प्राप्त करने के तरीके के विषय में बताया जाता था। ये तो हम सब ही जानते हैं कि हिन्दू धर्म में किसी भी प्राणी का जो सर्वोच्च लक्ष्य होता है वो है मोक्ष की प्राप्ति करना। ये भी सर्वविदित है कि केवल अच्छे कर्मों से ही प्राणी मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। अर्थात, पुण्य जितना अधिक और पाप जितना कम होगा, मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग उतना ही सरल होगा। इसे "परमपद सोपान" और "ज्ञान चौपड़" के नाम से भी जाना जाता है। इसी भावना से पाप और पुण्य के कार्य और उनसे प्राप्त होने वाले फल के विषय पर आधारित इस खेल का अविष्कार किया गया जिससे व्यक्ति, विशेषकर बच्चे कम आयु से ही पाप और पुण्य का अंतर समझ सकें और उसी के अनुसार आचरण करें।इस खेल की उत्पत्ति 13वीं शताब्दी की मानी जाती है। इसकी रचना महाराष्ट्र के महान संत श्री ज्ञानेश्वर ने केवल 18 वर्ष की आयु में सन 1293 में की थी। संत ज्ञानेश्वर का जन्म सन 1275 में महाराष्ट्र के पैठण जिले में हुआ था और उनकी मृत्यु केवल 21 वर्ष की आयु में सन 1296 में हो गयी। हालाँकि अगर इसका और भी इतिहास जानें तो ऐसी मान्यता है कि सबसे पहले इस खेल का अविष्कार ईसा से 200 वर्ष पहले दक्षिण भारत में किया गया। हालाँकि उस काल में इस खेल की रचना किसने की उसका कोई सटीक विवरण है है। आज का सांप सीढ़ी का खेल 100 खानों में बंटा रहता है किन्तु मोक्ष पट्टम के मूल स्वरुप में ये सामानांतर और लंबवत 9 & 9 = 81 खानों में बंटा रहता था। इनमें से पहला खाना "जन्म" एवं अंतिम खाना "मोक्ष" का होता था। खिलाड़ी का लक्ष्य अपने जन्म के खाने से प्रारम्भ कर सभी प्रकार के पाप और पुण्यों से होते हुए मोक्ष तक पहुंचना था। मोक्ष तक पहुंचने के साथ ही ये खेल समाप्त हो जाता था। बाद में कुछ अन्य गुणों को भी जोड़ कर इसकी कुल संख्या 132 तक पहुंच गयी।मोक्ष पट्टम में पाप और पुण्य को क्रमश: सर्प और रस्सी (सीढ़ी) के द्वारा दर्शाया जाता था। इनमें जहाँ सर्प क्रोध, हिंसा, लालच, आलस्य इत्यादि के प्रतिनिधित्व करते थे जो आपको अधो लोक (नीचे) की ओर धकेलता था वही रस्सी परोपकार, सहायता, धर्म, विद्या, बुद्धि इत्यादि का प्रतिनिधित्व करती थी, जो आपको उध्र्व लोक (ऊपर) मोक्ष के पास ले जाता था। यदि आप पुण्य प्राप्त-करते करते सबसे ऊपर पहुंचते थे तो आपको मोक्ष की प्राप्ति होती थी और वही अगर आप पाप प्राप्त करते-करते सबसे नीचे पहुंचते थे तो आपका पुनर्जन्म होता था और आप जन्म और मृत्यु के चक्र में फंस जाते थे।इन विभिन्न सर्पों और रस्सियों में 4 सबसे बड़े सर्प और 4 सबसे बड़ी रस्सियां होती थी जो क्रमश: चार सबसे महान पाप और चार सबसे महान पुण्य को प्रदर्शित करता था। अगर खिलाडी इनमें से किसी भी खानों में पहुँचता था तो या तो मोक्ष के बिलकुल निकट पहुंच जाता था या फिर जन्म के बिलकुल निकट। ये महान पाप और पुण्य हमारे पुराणों में भी वर्णित हैं। ये थे:4 महान सर्प (पाप), गुरुपत्नी गामी , चोरी करना , मदिरा पान , ब्रह्महत्या , 4 महान रस्सियां (पुण्य),सत्य ,तप ,दया और दान।इस खेल में सर्पों की संख्या सीढिय़ों की संख्या से अधिक होती थी जो ये बताती थी कि मनुष्य के जीवन में पाप करने के बहुत सारे अवसर आते हैं और पुण्य के बहुत कम। अत: पुण्य का कोई अवसर हाथ निकलने नहीं देना चाहिए और पाप से सदैव बच कर रहना चाहिए। मोक्ष पट्टम के 200 से भी अधिक नमूनों का अध्ययन करने के बाद उनके खानों में लिखे गुणों की जानकारी मिलती है। हालाँकि हर मोक्ष पट्टम में ये गुण अलग हो सकते हैं किन्तु अधिकतर में उनका क्रम कुछ इस प्रकार था:जन्म, माया, क्रोध, लोभ, भूलोक, मोह, मद, मत्सर, काम, तपस्या, गन्धर्वलोक, ईष्र्या, अन्तरिक्ष, भुवर्लोक, नागलोक, द्वेष, दया, हर्ष, कर्म, दान, समान, धर्म, स्वर्ग, कुसंग, सत्संग, शोक, परम धर्म, सद्धर्म, अधर्म, उत्तम, स्पर्श, महलोक, गन्ध, रस, नरक, शब्द, ज्ञान, प्राण, अपान, व्यान, जनलोक, अन्न, सृष्टि, अविद्या, सुविद्या, विवेक, सरस्वती, यमुना, गंगा, तपोलोक, पृथिवी, हिंसा, जल, भक्ति, अहंकार, आकाश, वायु, तेज, सत्यलोक, सद्बुद्धि, दुर्बुद्धि, झखलोक, तामस, प्रकृति, दृष्कृत, आनन्दलोक, शिवलोक, वैकुण्ठलोक, ब्रह्मलोक, सवगुण, रजोगुण, तमोगुण।अब तो ये खेल उतना प्रचलन में नहीं है किन्तु आज भी दक्षिण भारत में कुछ स्थानों पर मोक्ष पट्टम को पञ्चाङ्ग (कैलेंडर) के रूप में प्रकाशित किया जाता है। इसका स्वरुप थोड़ा आधुनिक होता है किन्तु पाप और पुण्य की सभी ज्ञानवर्धक बातें उसमें लिखी हुई होती है।
- नयी दिल्ली। द लांसेट और नेशनल मेडिकल जर्नल ऑफ इंडिया समेत 220 से अधिक मशहूर जर्नल में प्रकाशित एक संपादकीय में कहा गया है कि विश्व के नेताओं को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सीमित करने, जैवविविधिता बहाल करने और स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिए तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए। यह संपादकीय संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक से पहले प्रकाशित किया गया है । यह नवंबर में ब्रिटेन के ग्लासगो में होने जा रहे कॉप 26 जलवायु सम्मेलन से पहले की आखिरी अंतरराष्ट्रीय बैठकों में एक है। संपादकीय में चेतावनी दी गयी है कि भविष्य में वैश्विक जनस्वास्थ्य पर बहुत बड़ा खतरा, धरती के तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री के सेल्सियस के नीचे रखने और प्रकृति को बहाल करने के वास्ते पर्याप्त कदम उठाने में वैश्विक नेताओं की निरंतर विफलता है। नेशनल मेडिकल जर्नल ऑफ इंडिया के प्रधान संपादक एवं संपादकीय के सह लेखकों में एक पीयूष साहनी ने कहा, ‘‘ दुनियाभर में प्रतिकूल मौसम के हालिया उदाहरण ने उस हकीकत को सामने ला दिया है जो जलवायु परिवर्तन है।'' उन्होंने कहा, ‘‘ हमें कदम उठाने ही चाहिए वरना बहुत विलंब हो जाएगा। हमें भावी पीढ़ियों को जवाब देना पड़ेगा।'' लेखकों ने कहा कि उत्सर्जन घटाने एवं प्रकृति का सरंक्षण करने के हालिया लक्ष्य स्वागत योग्य हैं लेकिन वे काफी नहीं हैं , तिस पर भरोसेमंद लघुकालीन एवं दीर्घकालीन योजनाओं से उनका मिलान करना जरूरी है । उन्होंने सरकारों से परिवहन प्रणाली, शहरों, खाद्यान्न के उत्पादन एवं वितरण, वित्तीय निवेश के लिए बाजार एवं स्वास्थ्य प्रणाली के स्वरूप में तब्दीली में सहायता पहुंचाकर समाज एवं अर्थव्यवस्था में परिवर्तन लाने में दखल देने की अपील की है। द लांसेट के प्रधान संपादक रिचर्ड होर्टन ने कहा कि जलवायु परिवर्तन का तत्काल समाधान दुनियाभर में जनकल्याण को आगे बढ़ाने के लिए बहुत बड़े अवसरों में से एक है। होर्टन ने कहा, ‘‘ स्वास्थ्य समुदाय को राजनीतिक नेताओं को वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री के नीचे रखने के वास्ते उनके कदमों के प्रति जवाबदेह ठहराने के लिए अपना आलोचक स्वर उठाने का अधिकाधिक प्रयास करना चाहिए। '' संपादकीय में दलील दी गयी है कि पर्याप्त वैश्विक कार्रवाई केवल तभी हासिल हो सकती है जब उच्च आय वाले देश बाकी दुनिया का सहयोग करने एवं अपने उपभोग को कम करने के लिए ज्यादा कुछ करे। उसमें कहा गया है कि विकसित देशों को जलवायु वित्त पोषण बढ़ाना चाहिए, प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर देने के लंबित वादे को पूरा करना चाहिए तथा उपशमन एवं अनुकूलन पर बल देना चाहिए एवं स्वास्थ्य प्रणाली के लचीलेपन में सुधार लाना चाहिए।
- रामायण में हमें सम्पाती एवं जटायु नाम दो पक्षियों का वर्णन मिलता है, जो गिद्ध जाति से सम्बंधित थे। रामायण में इन दोनों का बहुत अधिक वर्णन तो नहीं है किन्तु फिर भी जटायु का वर्णन हमें बहुत प्रमुखता से मिलता है। सम्पाती का वर्णन हमें केवल सीता संधान के समय ही मिलता है, किन्तु फिर भी उनकी कथा बहुत प्रेरणादायक है।परमपिता ब्रह्मा के पुत्र महर्षि मरीचि हुए जो सप्तर्षियों में से एक थे। उन्होंने कर्दम प्रजापति की पुत्री कला से विवाह किया जिनसे उन्हें महर्षि कश्यप पुत्र के रूप में प्राप्त हुए। महर्षि कश्यप ने दक्ष प्रजापति की 17 कन्याओं से विवाह किया और उन्ही के पुत्रों से समस्त जातियों की उत्पत्ति हुई। महर्षि कश्यप की एक पत्नी थी विनता , जिन्होंने अपने पति से पुत्र प्राप्ति की याचना की। तब महर्षि कश्यप ने उनसे पूछा कि उन्हें कितने पुत्र चाहिए, तब उन्होंने केवल 2 प्रतापी पुत्रों की कामना की। समय आने पर विनता ने दो अंडों का प्रसव किया किन्तु 100 वर्ष बीत जाने के बाद भी उन अंडों से किसी जीव की उत्पत्ति नहीं हुई। तब अधीरता दिखाते हुए विनता ने उनमें से एक अंडे को फोड़ दिया। उस अंडे से एक विशालकाय पक्षी निकला किन्तु उसका शरीर आधा ही बना था, शेष आधा शरीर अभी तक अविकसित था।तब उन्होंने अपनी माता के अनुचित कृत्य के बारे में रोष दिखाते हुए कहा कि उन्होंने समय से पहले ही उसे अंडे से निकाल दिया जिससे उनका आधा शरीर दुर्बल रह गया। किन्तु अब वो वही भूल दूसरे अंडे के साथ ना करे। महर्षि कश्यप ने उन्हें अरुण नाम दिया और वो सूर्यनारायण की तपस्या करने वन चले गए। समय बीतने पर दूसरे अंडे से एक महापराक्रमी पक्षी की उत्पत्ति हुई। अरुण के उस छोटे भाई का नाम गरुड़ रखा गया।उधर अरुण ने अपनी घोर तपस्या से सूर्यदेव को प्रसन्न कर लिया। जब उन्होंने उनसे वरदान मांगने को कहा तो अरुण ने सूर्यनारायण का सारथि होने का वरदान मांगा। सूर्यदेव ने तथास्तु कहा और अरुण ने उनके सारथी का पद ग्रहण किया। समय आने पर अरुण का विवाह श्येणी नामक कन्या से हुआ जिससे उन्हें दो पुत्र प्राप्त हुए - सम्पाती और जटायु। इस प्रकार अरुण से गिद्ध और गरुड़ से गरुड़ जाति की उत्पत्ति हुई।युवा होने पर एक बार सम्पाती और जटायु में प्रतिस्पर्धा लगी कि दोनों में कौन सूर्य को छू सकता है। उसके पीछे उनकी अपने पिताश्री के दर्शनों की भी अभिलाषा थी। सूर्य के निकट जाने पर दोनों के पंख जलने लगे। तब अपने भाई को बचाने के लिए सम्पाती ने अपने पंखों से उसे ढंक लिया। इससे जटायु तो बच गए किन्तु सम्पाती के दोनों पंख पूरी तरह जल गए और वो समुद्र तट के निकट विंध्य पर्वत पर जा गिरे। निशाकर नामक एक सिद्ध ऋषि ने अपनी सिद्धि से सम्पाती को पीड़ा से मुक्ति दिलवाई और कहा कि भविष्य में पंख पुन: उग आएंगे किन्तु अभी उन्हें अपने पंखों से रहित इसी समुद्र तट पर रहना होगा क्योंकि भविष्य में उन्हें श्रीहरि के अवतार का एक महत्वपूर्ण कार्य करना है।तत्पश्चात सम्पाती वहीं समुद्र तट पर रहने लगे और जटायु पंचवटी में जाकर बस गए। रामायण में सम्पाती की पत्नी का वर्णन नहीं है किन्तु कुछ स्थानों पर उनके एक पुत्र "सुपाश्र्व" का वर्णन आता है। जब अंगद के नेतृत्व में वानर सेना माता सीता को खोजने दक्षिण दिशा में गयी तो वही उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने ही अपनी दूर दृष्टि से देख कर वानरों को ये बताया कि माता सीता को रावण इस 100 योजन समुद्र के पार लंका ले कर गया है। कुछ ग्रंथों में ये वर्णित है कि सम्पाती उसी समुद्र तट पर राम नाम लेते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए किन्तु वाल्मीकि रामायण में ऐसा वर्णन है कि माता सीता का पता लगाने के बाद ऋषि निशाकर के कथनानुसार सम्पाती के लाल रंग के दो विशाल पंख उग आये और वे वहां से उड़ गए। इस प्रकार अरुण के दोनों पुत्र - सम्पाती एवं जटायु, श्रीराम की सहायता कर इतिहास में अमर हो गए।
- कछुआ पृथ्वी पर एकमात्र ऐसा जीव है, जो सबसे अधिक उम्र तक जिंदा रहता है। इनकी कुछ प्रजातियां करीब 150 साल से भी ऊपर जीवन जीती हैं। इसी कड़ी में आज हम कछुओं की लंबी उम्र के पीछे के राज को जानेंगे। इसके अलावा हम कछुओं के उस बायोलॉजिकल प्रोसेस का भी पता लगाएंगे, जिसके चलते ये इतनी अधिक उम्र तक जीवन जीते हैं। अब तक सबसे अधिक उम्र तक जीवन जीने वाले कछुआ का नाम अलडाबरा टोरटॉयज है। ये करीब 256 साल तक जिंदा रहा। अलडाबरा टोरटॉयज आकार में काफी बड़ा था। उस दौरान ये कछुआ सेशेल्स आइलैंड में रहा करता था। अलडाबरा टॉरटॉयज पर उस दौरान कई रिसर्च हुए, जिसके बाद कछुओं की लंबी उम्र से जुड़ी कई महत्वपूर्ण बातें सामने आईं। लंबे समय तक जिंदा रहने के अलावा भी कछुओं के अंदर कई विशेषताएं होती हैं, जो उन्हें काफी खास बनाती हैं।कछुओं के शरीर के ऊपर एक कठोर कवच होता है, जो उनके अंगों की बाहरी हमलों से सुरक्षा करता है। अक्सर हमले होने के स्थिति में कछुए अपने कवच के भीतर चले जाते हैं। अगर छोटी उम्र से ही कछुओं की अच्छी देखभाल की जाए, तो वे लंबी उम्र तक जिंदा रह सकते हैं। कई कछुए तो 150 वर्षों से भी ज्यादा जीवन जीते हैं।हमारा सवाल था कि आखिर कछुओं की इस लंबी उम्र के पीछे का राज क्या है? वैज्ञानिकों की मानें तो कछुओं की लंबी उम्र के पीछे का रहस्य उनके डीएनए स्ट्रक्चर में छिपा हुआ है। उनके जीन वेरिएंट लंबे समय तक सेल के भीतर डीएनए की मरम्मत करते हैं। इस कारण सेल की एंट्रोपी की समय सीमा काफी बढ़ जाती है।यही एक बड़ा कारण है, जिसके चलते कुछ कछुए 250 साल से भी अधिक जीवन जीते हैं। 256 साल तक जीवन जीने वाले अलडाबरा टोरटॉयज पर हुए एक रिसर्च में इस बात का पता चला कि अच्छे जीन वैरिएंट के कारण ही वह इतने लंबे समय तक जिंदा रह सका। अलडाबरा के जीन वैरिएंट ने सेल्स को लंबे समय तक एंट्रॉपी तक जाने से बचाए रखा। इसी वजह से उसका शरीर 256 साल तक बिना किसी परेशानी के जिंदा रहा।विश्व भर में कछुओं की कई अन्य प्रजातियां भी पाई जाती हैं, जो करीब 100 से भी अधिक वर्षों तक जिंदा रहती हैं। कछुओं की एक रेतीली प्रजाति भी है, जिसे अफ्रीकन सल्केट के नाम से जाना जाता है। ये कछुए भी कम से कम 100 वर्षों तक जिंदा रहते हैं।
- भारतीय घरों में रसोई में खाने में इस्तेमाल होने वाले आम मसाले केवल स्वाद नहीं देते हैं, बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी उतने ही फायदेमंद हैं। इन मसालों से अब ब्लड प्रेशर की दवा तैयार की गई है। भारतीय वैज्ञानिकों ने जब यह टेस्ट चूहों पर आजमाया तो कारगर साबित हुआ। रसोई में इस्तेमाल होने वाले आम मसालों से चूहे का उच्च रक्तचाप कम हो गया। उम्मीद की जा रही है कि इससे इंसानों के लिए दवा बनाने का नुस्खा मिल सकता है।चेन्नई की श्रीरामचंद्रन यूनिवर्सिटी में इस रिसर्च को अंजाम दे रही टीम के प्रमुख एस तनिकाचलम हैं। उन्होंने बताया कि उनकी टीम ने अदरक, धनिया, जीरा और काली मिर्च को इस रिसर्च में इस्तेमाल किया। ये भारतीय रसोई के बेहद आम मसाले हैं। इस टेस्ट के लिए चूहों को पहले लैब में हाई ब्लड प्रेशर से ग्रसित किया गया। फिर जब उन पर इन मसालों की प्रक्रिया देखी गई, तो काफी सकारात्मक पाई गई। मसालों की मदद से रीनोवैस्कुलर हाइपरटेंशन को कम किया जा सका। यह उच्च रक्तचाप की दूसरी टाइप है। यह गुर्दे की धमनियां सिकुड़ जाने के कारण होता है। तनिकाचलम ने बताया, "ब्लड प्रेशर कम करने और ऑक्सिजेटिव तनाव को कम करने में चूहों पर यह दवा कारगर साबित हुई।"भारतीयों में हाइपरटेंशन की समस्या आम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में शहरों में रहने वाले हर चार में से एक व्यक्ति को हाइपरटेंशन की समस्या है। आम तौर पर ब्लड प्रेशर के लिए आधुनिक दवाओं का सहारा लिया जाता है, लेकिन हर रोज इन दवाओं के सेवन से कई तरह के साइड इफेक्ट का भी खतरा रहता है। साथ ही ये दवाएं महंगी भी पड़ती हैं। स्वास्थ्य के लिए भारतीय मसालों के गुणों पर पहले भी रिसर्चें होती रही हैं, और मसालों के फायदे भी बताए जाते रहे हैं। फरवरी 2011 में आई एक अन्य रिपोर्ट एक ऐसी हाइब्रिड ड्रग के बारे में थी जो हल्दी में पाए जाने वाले एक खास रसायन की मदद से बनाई गई थी। इसे पक्षाघात में मददगार बताया गया था। तनिकाचलम के मुताबिक भारतीय संस्कृति में ऐसे बहुत से घरेलू और आयुर्वेदिक नुस्खे हैं। वे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को तो बताए जाते हैं लेकिन उनकी वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हुई है। मनुष्यों पर इन मसालों से तैयार दवा का असर देखने से पहले रिसर्चरों को अभी पशुओं पर ही इस रिसर्च को आगे बढ़ाकर देखना होगा। इस रिपोर्ट को एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी एंड मेडिसिन पत्रिका ने छापा है।
- खाने के तेल में आत्मनिर्भर बनने की कवायद भारत सरकार की ओर से शुरू की गई है। इसमें सबसे ज्यादा ध्यान पाम ऑयल पर दिया जाना है। इसके लिए नेशनल मिशन फॉर एडिबल ऑयल-ऑयल पाम नाम की एक योजना की शुरुआत भी की गई है। इस योजना के तहत 11 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का निवेश किया जाएगा जिससे पूर्वोत्तर राज्यों और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में ऑयल पाम की खेती को बढ़ावा दिया जाएगा।पूरे विश्व में पाम ऑयल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल भारत में किया जाता है, लेकिन भारत को अपने कुल उपयोग का 60 फीसदी से ज्यादा तेल इंडोनेशिया और मलेशिया से आयात करना पड़ता है। यही दोनों देश दुनिया में इसके सबसे बड़े उत्पादक हैं। साल 2020 से 2021 के बीच पाम ऑयल के दामों में 50 फीसदी से भी ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है। जिससे खाने के तेल की कीमतें डेढ़ गुना से भी ज्यादा बढ़ गई हैं। भारत सरकार ने साल 2029-30 तक करीब 10 लाख हेक्टेयर भूमि पर पाम की खेती का लक्ष्य रखा है। इतनी जमीन भारत के त्रिपुरा राज्य के बराबर होगी।भारत में फिलहाल 3 लाख हेक्टेयर जमीन पर पाम की खेती हो रही है, इसमें 6.5 लाख हेक्टेयर यानी सिक्किम के बराबर जमीन पर खेती और बढ़ाई जानी है। ऐसा करके भारत अपने पाम ऑयल उत्पादन को बढ़ाकर 11 लाख टन करना चाहता है। हालांकि कई जानकार इससे डरे हुए भी हैं। वे मानते हैं कि भारत बिना पर्यावरणीय सुरक्षा के बारे में सोचे जितनी तेजी से यह योजना लागू करने की कोशिश कर रहा है, वह मुसीबत का सबब भी बन सकती है।ज्यादातर भारतीय पकवान 'खाने के तेल' के बिना नहीं बन सकते। इसके लिए रिफाइंड ऑयल और वनस्पति तेल आदि नाम से मिलने वाले पाम ऑयल का इस्तेमाल सबसे ज्यादा होता है। इसके अलावा यहां सरसों का तेल, नारियल तेल और मूंगफली के तेल का इस्तेमाल भी होता है। लेकिन भारत में अन्य खाने के तेल में भी पाम ऑयल की मिक्सिंग की जाती है। इस तरह भारत में इस्तेमाल होने वाले कुल खाने के तेल में पाम ऑयल का हिस्सा करीब दो-तिहाई होता है। साल 2019-20 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल 'खाने के तेल' की मांग 2.5 करोड़ टन थी। जबकि इस साल भारत में आयात किए गए पाम ऑयल की मात्रा 1.3 करोड़ टन रही थी। ऐसा इसलिए क्योंकि खाने के तेल के अलावा पाम ऑयल का इस्तेमाल डिटर्जेंट, प्लास्टिक, कॉस्मेटिक, साबुन-शैम्पू, टूथपेस्ट और बायो फ्यूल के तौर पर भी किया जाता है। हालांकि भारत में मौजूद कुल पाम ऑयल का करीब 94 फीसदी फूड प्रोडक्ट्स में ही इस्तेमाल होता है। खाने के तेल के अलावा चॉकलेट, कॉफी, नूडल्स और आइसक्रीम के उत्पादन में भी इसका जमकर इस्तेमाल होता है।
- बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं,तुझे ऐ जिंदगी, हम दूर से पहचान लेते हैं...मेरी नजरें भी ऐसे काफिरों की जान ओ ईमां हैंनिगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं...ऐसी गजलों के फनकार जाने माने शायर रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर में हुआ। वे भारत के एक जाने माने शायर, लेखक और आलोचक रहे हैं। 1914 को उनका विवाह प्रसिद्ध जमींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। कला स्नातक में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बाद आई.सी.एस. में चुने गये। 1920 में नौकरी छोड़ दी तथा स्वराज्य आंदोलन में कूद पड़े तथा डेढ़ वर्ष की जेल की सजा भी काटी। जेल से छूटने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ्तर में अवर सचिव की जगह दिला दी। बाद में नेहरू जी के यूरोप चले जाने के बाद उन्होंने अवर सचिव का पद छोड़ दिया। फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1930 से लेकर 1959 तक अंग्रेजी के अध्यापक रहे। 1970 में उनकी उर्दू काव्यकृति गुले नग़्मा पर ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। फिराक जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अध्यापक रहे।उन्हें गुले-नग्मा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार , ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बाद में 1970 में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत कर लिया गया था। फिराक गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था।रघुपति सहाय के नाम के साथ फिराक गोरखपुरी कैसे जुड़ा इसकी भी रोचक दास्तां है। जानकारी के मुताबिक, अगस्त 1916 में जब मुंशी प्रेमचंद गोरखपुर गए तो उस समय वह अक्सर फिराक के पिता गोरख प्रसाद 'इबरत' के साथ उनके आवास लक्ष्मी निवास तुर्कमानपुर में बैठकी किया करते थे। ऐसे में फिराक को भी उनका सानिध्य मिलना स्वाभाविक था। इसी समय एक समय एक अवसर पर प्रेमचंद के पास एक पत्रिका आई, उन्होंने इसे फिराक को पढऩे को दिया। इसमें उर्दू के मशहूर लेखक नासिर अली 'फिराक' का नाम प्रकाशित था। रघुपति सहाय को नासिर के नाम में जुड़ा 'फिराक' भा गया और उन्होंने उसे अपना तखल्लुस बनाने का फैसला कर लिया और इस तरह रघुपति सहाय के नाम के साथ फिराक जुड़ गया। गोरखपुर उनका घर था, इसलिए उन्होंने अपना पूरा नाम लिखा फिराक गोरखपुरी।फिराक गोरखपुरी की शायरी में गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात, नग्म-ए-साज, गज़़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों की रचना फिराक साहब ने की है। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियाँ भी लिखी हैं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में दस गद्य कृतियां भी प्रकाशित हुई हैं।फिराक ने अपने साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश गजल से किया था। अपने साहित्यिक जीवन में आरंभिक समय में 6 दिसंबर, 1926 को ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक बंदी बनाए गए। उर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बंधा रहा है जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं। नजीर अकबराबादी, इल्ताफ हुसैन हाली जैसे जिन कुछ शायरों ने इस रिवायत को तोड़ा है, उनमें एक प्रमुख नाम फिराक गोरखपुरी का भी है। फिराक ने परंपरागत भावबोध और शब्द-भंडार का उपयोग करते हुए उसे नयी भाषा और नए विषयों से जोड़ा। उनके यहाँ सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई है।
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पुणे के एमआईटी छात्रों का अनूठा कारनामा
पुणे। पुणे के एमआईटी वल्र्ड पीस यूनिवर्सिटी के छात्रों ने बिना ड्राइवर के चलने वाली देश की पहली कार बनाई है। इसे बनाने वाले छात्रों का कहना है कि मानवीय चूक की वजह से होने वाले हादसों को देखते हुए इस कार के निर्माण का आइडिया आया। फिलहाल यह एक प्रोटोटाइप है और कुछ अन्य मंजूरियों के बाद इसका कमर्शियल उत्पादन भी शुरू हो सकेगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर बनी यह कार एक बार के चार्ज में 40 किलोमीटर तक चलती है। इसे बनाने वाले छात्रों का दावा है कि यह कार मेड इन इंडिया कांसेप्ट पर है।
एमआईटी कॉलेज के मैकेनिकल इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स और टेलिकम्यूनिकेशन के छात्रों ने मिलकर इस कार का निर्माण किया है। इसके निर्माण से जुड़े यश देसाई ने बताया कि ये ऑटोनॉमस व्हीकल लेवल-3 पर बेस्ड है। यश देसाई ने आगे कहा कि इस ड्राइवलेस इलेक्ट्रिक कार के स्टीयरिंग व्हील, थ्रॉटल और ब्रेक को कई अलग-अलग आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग एल्गोरिदम से कंट्रोल किया गया है। इस कार में सेंसर, लीडर कैमरा, माइक्रो प्रोसेसर, ऑटोमेटिक एक्शन कंट्रोल सिस्टम इत्यादि जैसे फीचर्स दिए गए हैं।
4 घंटे में फुल चार्ज होती है यह कार
यश देसाई बोले, ये कार सिंगल चार्ज में 40 किलोमीटर तक का सफर करने में सक्षम है। इसकी बैटरी को फुल चार्ज होने में 4 घंटे का समय लगता है। डेवलपर्स का यह भी दावा है कि, इस वाहन का उपयोग परिवहन, कृषि, खनन जैसे कई अलग-अलग क्षेत्रों में किया जा सकता है। - जश्न-ए-आजादी के सिलसिले में 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से सबसे ज्यादा 17 बार तिरंगा लहराने का अवसर प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को मिला, वहीं उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने भी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में स्थित सत्रहवीं शताब्दी की धरोहर लाल किले पर 16 बार राष्ट्रध्वज फहराया। पंडित नेहरू ने आजादी के बाद सबसे पहले 15 अगस्त, 1947 को लाल किले पर झंडा फहराया और अपना बहुचर्चित संबोधन दिया। नेहरू जी 27 मई, 1964 तक प्रधानमंत्री पद पर रहे। इस अवधि के दौरान उन्होंने लगातार 17 स्वतंत्रता दिवस पर ध्वजारोहण किया।आजाद भारत के इतिहास में गुलजारी लाल नंदा और चंद्रशेखर ऐसे नेता रहे जो प्रधानमंत्री तो बने, लेकिन उन्हें स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहराने का एक भी बार मौका नहीं मिल सका। पंडित नेहरू के निधन के बाद 27 मई, 1964 को गुलजारी लाल नंदा प्रधानमंत्री बने, लेकिन उस वर्ष 15 अगस्त आने से पहले ही 9 जून, 1964 को वे पद से हट गए और उनकी जगह लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। गुलजारी लाल नंदा 11 से 24 जनवरी, 1966 के बीच भी प्रधानमंत्री पद पर रहे। इसी तरह चंद्रशेखर 10 नवंबर, 1990 को प्रधानमंत्री बने, लेकिन 1991 के स्वतंत्रता दिवस से पहले ही उसी साल 21 जून को पद से हट गए। लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद गुलजारी लाल नंदा फिर कुछ दिन प्रधानमंत्री पद पर रहे, लेकिन बाद में 24 जनवरी, 1966 को पंडित नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी ने सत्ता की बागडोर संभाली। पंडित नेहरू के बाद सबसे अधिक बार जिस प्रधानमंत्री ने लाल किले पर तिरंगा फहराया, वह इंदिरा गांधी ही रहीं। इंदिरा गांधी 1966 से लेकर 24 मार्च, 1977 तक और फिर 14 जनवरी, 1980 से लेकर 31 अक्टूबर, 1984 तक प्रधानमंत्री पद पर रहीं। बतौर प्रधानमंत्री अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने 11 बार और दूसरे कार्यकाल में पांच बार लाल किले पर झंडा फहराया। स्वतंत्रता दिवस पर सबसे कम बार राष्ट्रध्वज फहराने का मौका चौधरी चरण सिंह-28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980; विश्वनाथ प्रताप सिंह-2 दिसंबर, 1989 से 10 नवंबर, 1990; एच. डी. देवगौड़ा-1 जून, 1996 से 21 अप्रैल, 1997 और इंद्र कुमार गुजराल-21 अप्रैल, 1997 से लेकर 28 नवंबर, 1997 को मिला। इन सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों ने एक-एक बार 15 अगस्त को लाल किले से राष्ट्रध्वज फहराया।9 जून, 1964 से लेकर 11 जनवरी, 1966 तक प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री और 24 मार्च, 1977 से लेकर 28 जुलाई, 1979 तक प्रधानमंत्री रहे मोरारजी देसाई को दो- दो बार यह सम्मान हासिल हुआ। स्वतंत्रता दिवस पर पांच या उससे अधिक बार तिरंगा फहराने का मौका नेहरू और इंदिरा गांधी के अलावा राजीव गांधी, पी. वी. नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मिला है। राजीव गांधी 31 अक्टूबर, 1984 से लेकर एक दिसंबर, 1989 तक और नरसिंह राव 21 जून, 1991 से 10 मई, 1996 तक प्रधानमंत्री रहे। दोनों को पांच-पांच बार ध्वज फहराने का मौका मिला। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार का नेतृत्व कर चुके अटल बिहारी वाजपेयी जब 19 मार्च, 1998 से लेकर 22 मई, 2004 के बीच प्रधानमंत्री रहे तो उन्होंने कुल छह बार लाल किले की प्राचीर से तिरंगा फहराया। इससे पहले वे एक जून 1996, को भी प्रधानमंत्री बने, लेकिन 21 अप्रैल, 1997 को ही उन्हें पद से हटना पड़ा था। वर्ष 2004 के आम चुनाव में राजग की हार के बाद संप्रग सत्ता में आया और डॉ. मनमोहन सिंह ने 22 मई, 2004 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। उन्हें छह बार तिरंगा फहराने का सौभाग्य मिला। वहीं वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ने 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री पद का कार्यभार संभाला। 15 अगस्त वर्ष 2021 में उन्होंने आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के तौर पर आठवीं बार ध्वजारोहण किया।------------
- लंदन। कोरोना वायरस संक्रमण को मात देकर ठीक हुए लोगों को सोचने और ध्यान देने में परेशानी होने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। ईक्लीनिकलमेडिसिन पत्रिका में प्रकाशित अनुसंधान रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड-19 के गंभीर लक्षणों से प्रभावित रहे लोग ऑनलाइन परीक्षा श्रृंखला में कम अंक हासिल कर पाए तथा इससे उनके प्रदर्शन और समस्या समाधान की क्षमता सर्वाधिक प्रभावित हुई। इसमें कहा गया कि जिन लोगों को अस्पताल में वेंटिलेटर पर रखा गया, उनमें संज्ञानात्मक क्षमता सबसे अधिक कमजोर दिखी। ब्रिटेन के इंपीरियल कॉलेज लंदन से संबद्ध एवं अनुसंधान रिपोर्ट के अग्रणी लेखक एडम हैंपशाइर ने कहा, हमारे अध्ययन में कोविड-19 के विभिन्न पहलुओं को देखा गया जो मस्तिष्क तथा मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं।'' उन्होंने कहा, विभिन्न पहलुओं को देखते हुए अनुसंधान से संकेत मिलता है कि मस्तिष्क पर कोविड-19 के कुछ महत्वपूर्ण प्रभाव होते हैं जिसमें आगे पड़ताल की आवश्यकता है।
- 13 अगस्त नाग पंचमी पर विशेषनाग और नागों की दुनिया जितनी डरावनी लगती है, उतनी ही रोचक भी है। इसीलिए लोग इनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने को उत्सुक रहते हैंै। फिर चाहे बात नाग-नागिन के कहीं नजर आने की हो या फिर नागों के घर यानी कि नागलोक की हो। धर्म-पुराणों में नागलोक का उल्लेख विस्तार से मिलता हैै। यहां तक कि देश में कई जगहों को लेकर दावा किया जाता है कि वहां से नागलोक में जाने का रास्ता जाता है।ये रास्ते ले जाते हैं सीधे नागलोक .....!दावा किया जाता है कि नागलोक जाने वाले कुछ रास्ते देश में भी हैं और विदेश में भी हैंै। आज हम भारत के उन रास्तों के बारे में बात करेंगे जिनके बारे में मान्यता है कि वे सीधे नागलोक को जाते हैंै। हालांकि इन रास्तों पर चलना आसान नहीं है क्योंकि कहीं ये रास्ते घने जंगल और दुर्गम रास्तों से होकर जाते हैं तो कहीं ये जमीन की अतल गहराइयों में ले जाते हैंै।सतपुड़ा का नागलोक द्वार: मान्यता है कि मप्र में सतपुड़ा के घने जंगलों से एक रास्ता नागलोक को जाता हैै। हालांकि इस रास्ते तक ही पहुंचने के लिए खतरनाक पहाड़ों की चढ़ाई करनी पड़ती है और इसके लिए साल में मिलने वाले 1-2 मौकों का इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि टाइगर रिजर्व एरिया होने के कारण यह बाकी समय बंद रहता हैै।नागलोक जाने का छत्तीसगढ़ वाला रास्ताजशपुर क्षेत्र के तपकरा इलाके को नागों के मामले में खासा रहस्यमयी माना जाता हैै। इसके दो कारण हैं- एक तो यहां सांपों की ढेरों प्रजातियों का पाया जाना और दूसरा यहां के पहाड़ पर स्थित गुफा को पाताल द्वार कहा जाना। कहते हैं कि गुफा के अंदर से नागलोक का रास्ता है, लेकिन दावा किया जाता है कि जो भी गुफा में गया वो कभी लौटकर नहीं आया।उत्तरप्रदेश में नागलोक जाने का रास्ताकाशी के नवापुरा में बना कुआं जमीन की अतल गहराइयों तक जाता नजर आता है। यहां तक कि इसकी गहराई का किसी को भी ठीक-ठाक पता नहीं है। कारकोटक नाग नाम के इस तीर्थ में दर्शन करने की अनुमति साल में केवल एक बार नाग पंचमी के दिन ही मिलती है। कहते हैं कि कुआं का यह रास्ता सीधे नागलोक तक जाता है। इसी तरह मुजफ्फरनगर के शुक्रताल के बारे में कहा जाता है कि इसका तल इतना गहरा है कि वह सीधे नागलोक तक जाता है। आज तक कोई भी इसकी गहराई का पता भी नहीं लगा पाया है। नागलोक तक जाने का यह पानी वाला रास्ता कभी सूखा नहीं है.झारखंड के इस नाग द्वार पर खुद तैनात हैं नागकहा जाता है कि झारखंड की राजधानी रांची की पहाड़ी पर बने नाग मंदिर में भी नागलोक जाने का रास्ता है। गुफा में बने इस मंदिर में हमेशा नाग-नागिन रहते हैं। यह मंदिर सैंकड़ों साल पुराना है।
- हमारे प्राचीन ग्रंथों में बहुत से दिव्यास्त्रों की जानकारी मिलती है। इनमें त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश यानी भगवान शिव से संबंधित दिव्यास्त्र प्रमुख हैं। आज हम भगवान शिव से संबंधित कुछ ऐसे अस्त्रों के बारे में जानकारी दे रहे हैं, जो सबसे अधिक शक्तिशाली माने जाते हैं, जिन्हें हम महास्त्र कहते हैं।रुद्रास्त्र- ये महादेव का महाविध्वंसक अस्त्र था। जब इसे चलाया जाता था तो 11 रुद्रों की सम्मलित शक्ति एक साथ प्रहार करती थी और लक्ष्य का विध्वंस कर देती थी। वैसे तो प्रामाणिक रुप से इस अस्त्र का किसी के पास होने का वर्णन नहीं है किन्तु एक कथा के अनुसार अर्जुन ने इसे महादेव से प्राप्त किया था। जब अर्जुन स्वर्गलोक में थे तब उन्होंने असुरों के विरुद्ध युद्ध में देवराज इंद्र की सहायता की थी। उस युद्ध में देवता परास्त होने ही वाले थे तब कोई और उपाय ना देख कर अर्जुन ने रुद्रास्त्र का संधान किया और केवल एक ही प्रहार में तीन करोड़ असुरों का वध कर दिया।पाशुपतास्त्र: ये भगवान शंकर का महाभयंकर अस्त्र है जिसका कोई प्रतिकार नहीं है। एक बार छूटने पर ये लक्ष्य को नष्ट कर के ही लौटता है। कोई भी शक्ति पाशुपतास्त्र का सामना नहीं कर सकती। इस अस्त्र द्वारा ही भगवान शंकर ने केवल एक ही प्रहार में त्रिपुर का संहार कर दिया था। रामायण में केवल मेघनाद के पास ये अस्त्र था जो उसे भगवान शंकर से प्राप्त किया था। उसने लक्ष्मण पर इसका प्रयोग भी किया था किन्तु महादेव की कृपा से इस अस्त्र ने उनका अहित नहीं किया। महाभारत में ये अस्त्र केवल अर्जुन के पास था जो उसने निर्वासन के समय महादेव से प्राप्त किया था। महाभारत में इस अस्त्र के प्रयोग का कोई वर्णन नहीं है।शिवज्वर: ये भगवान शंकर का अस्त्र है जिसे माहेश्वरज्वर भी कहते हैं। ये महादेव का सर्वाधिक विध्वंसक अस्त्र है। इसकी शक्ति महादेव के तीसरे नेत्र की ज्वाला के समान है जिससे क्षण में समस्त सृष्टि को भस्मीभूत किया जा सकता है। इसका भी कोई प्रतिकार नहीं है। श्रीकृष्ण द्वारा विष्णुज्वर के विरुद्ध इस अस्त्र का उपयोग किया गया था। विष्णु पुराण में विष्णुज्वर को एवं शिव पुराण में शिवज्वर को विजेता बताया गया है। ब्रह्मपुराण में वर्णित है कि संसार की रक्षा हेतु उस युद्ध को परमपिता ब्रह्मा ने मध्यस्थता कर रुकवा दिया था।
- पुराणों के अनुसार परमपिता ब्रह्मा के शरीर से जल की उत्पत्ति हुई। उसी जल से दो जातियों की उत्पत्ति हुई जिन्होंने ब्रह्मदेव से पूछा कि उनकी उत्पत्ति क्यों हुई है? तब ब्रह्मा ने उनसे पूछा कि तुममे से कौन इस जल की रक्षा करेगा। उनमे से एक ने कहा कि हम इस जल की रक्षा करेंगे, वे "राक्षस" कहलाये। दूसरे ने कहा वे उस जल का यक्षण (पूजा) करेंगे, वे यक्ष कहलाये। तब ब्रह्मदेव ने दो राक्षसों हेति-प्रहेति की उत्पत्ति की जिससे आगे चल कर राक्षस वंश चला। इस वंश में एक से एक पराक्रमी योद्धाओं ने जन्म लिया जिसमें से सबसे प्रसिद्ध रावण है। आइये राक्षस वंश पर एक दृष्टि डालते हैं:परमपिता ब्रह्मा जब सृष्टि की रचना कर रहे थे तो उस श्रम के कारण उन्हें बड़ा क्रोध आया और बहुत भूख लगी। उनके क्रोध से हेति और भूख से प्रहेति नामक राक्षसों ने जन्म लिया। यहीं से राक्षस कुल की शुरुआत हुई। प्रहेति ब्रह्मदेव की प्रेरणा से तपस्या में लीन हो गया। हेति ने यमराज की बहन भया से विवाह किया। हेति और भया का पुत्र विद्युत्केश हुआ जिसका विवाह संध्या की पुत्री सालकण्टका से हुआ। विद्युत्केश का पुत्र सुकेश हुआ जिसे दोनों ने त्याग दिया। तब भगवान शिव और माता पार्वती ने उसे गोद ले लिया और वो शिव-पुत्र कहलाया। उसका विवाह ग्रामणी नामक गन्धर्व की कन्या देववती से हुआ। सुकेश के तीन पुत्र हुए - माल्यवान, सुमाली और माली। इन तीनों ने ही विश्वकर्मा से लंका की रचना करवाई और उसके राजा कहलाये।माल्यवान ने सुंदरी नामक स्त्री से विवाह किया जिससे उसके वज्रमुष्टि, विरुपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघन, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त नामक 7 पुत्र और अनला नामक एक पुत्री हुई। सुमाली ने केतुमती से विवाह किया जिससे उसे प्रहस्त, अकम्पन्न, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपाश्र्व, संह्लादि, प्रघस और भासकर्ण नामक 10 पुत्रों और राका, पुष्पोत्कटा, कैकसी और कुंभीनसी नामक 4 पुत्रिओं की प्राप्ति हुई। माली ने वसुदा से विवाह किया और उसके अनल, अनिल, हर और सम्पाति नामक चार निशाचर पुत्र हुए। रावण की मृत्यु के बाद ये चारो विभीषण के सलाहकार और मंत्री बने।माली की पुत्री कैकसी ब्रह्मा के पौत्र और महर्षि पुलत्स्य के पुत्र विश्रवा से ब्याही गयी। इसे उन्हें महापराक्रमी रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण नामक 3 पुत्र और शूर्पणखा नामक एक पुत्री हुई। राका के खर और दूषण नामक पुत्र हुए जो प्रभु श्रीराम के हाथों मारे गए। कुंभीनसी का विवाह मधु नामक दैत्य से हुआ जिससे उसे लवण नाम का एक पुत्र हुआ। इसी लवणासुर का वध शत्रुघ्न ने किया था।रावण ने मय दानव और हेमा की कन्या मंदोदरी से विवाह किया जिससे उसे मेघनाद, नरान्तक, देवान्तक, त्रिशिरा, प्रहस्त और अक्षयकुमार नामक 6 पुत्र हुए। रावण ने धन्यमालिनी नामक कन्या से भी विवाह किया जिससे उसे अतिकाय नामक पुत्र प्राप्त हुआ। कुम्भकर्ण का विवाह दैत्यराज बलि की पुत्री वज्रज्वला से हुआ जिससे उसे कुम्भ और निकुम्भ नामक पराक्रमी पुत्र प्राप्त हुए। कुम्भकर्ण की दूसरी पत्नी कर्कटी थी जो विराध राक्षस की विधवा थी जिससे कुम्भकर्ण ने बाद में विवाह किया। उससे उसे भीम नामक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका वध महादेव के हाथों हुआ। उसी के नाम पर भगवान शिव भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हुए। विभीषण का विवाह गंधर्व शैलूषा की पुत्री सरमा से हुआ जिससे उसे त्रिजटा नामक पुत्री की प्राप्ति हुई जो अशोक वाटिका में सीता की सुरक्षा करती थी। रावण की मृत्यु के पश्चात विभीषण ने मंदोदरी से भी विवाह किया। शूर्पनखा का विवाह दैत्य जाति के एक योद्धा विद्युतजिव्ह से हुआ जिसका वध रावण ने अपने दिग्विजय के दौरान किया। दुर्भाग्यवश विभीषण को छोड़ समस्त राक्षस वंश का लंका युद्ध में नाश हो गया।इसके अतिरिक्त ब्रह्मा के पौत्र और महर्षि मरीचि के पुत्र महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी सुरसा के पुत्रों को भी राक्षस कहा जाता है।