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- क्विटो। प्रशांत महासागर में स्थित दुनिया से सबसे बड़े कछुओं के घर गैलापागोस द्वीपसमूह से एक अच्छी खबर आई है। यहां वैज्ञानिकों की एक टीम ने महाविशाल कछुए की एक ऐसी प्रजाति का पता लगाया है जो लगभग 115 साल पहले विलुप्त हो गई थी। इस वयस्क मादा कछुए को 2019 में खोजा गया था, हालांकि तबसे लेकर अबतक वैज्ञानिक इसकी प्रजाति को लेकर अध्ययन कर रहे थे।फर्नांडीना जाइंट कछुआ मिलने की पुष्टि हुईअब वैज्ञानिकों ने कहा है कि आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला है कि यह मादा फर्नांडीना जाइंट कछुआ (चेलोनोइडिस फैंटास्टिकस) है। जिसके बाद से पर्यावरण के क्षेत्र में सक्रिय वैज्ञानिकों ने खुशी जाहिर की है। इस द्वीपसमूह पर वर्तमान में लैटिन अमेरिकी देश इक्वाडोर का कब्जा है। इस खबर के बाद इक्वाडोर के पर्यावरण मंत्री गुस्तावो मैनरिक ने ट्विटर पर इस खबर की पुष्टि करते हुए लिखा: 'आशा अभी जिंदा है!'यह प्रजाति कैसे हुई थी विलुप्त?कछुए की इस प्रजाति का गैलापागोस द्वीपसमूह की यात्रा करने वाले यूरोपीय और अन्य उपनिवेशवादियों ने मांस के लिए खूब शिकार किया। उनके अंधाधुंध शिकार की चपेट में इस द्वीपसमूह में पाए जाने वाले कछुओं की कई प्रजातियां आईं। लेकिन, फर्नांडीना द्वीप पर मिलने वाले चेलोनोइडिस फैंटास्टिकस कछुए विलुप्त हो गए। इस प्रजाति के कछुए को अंतिम बार 1906 में देखा गया था।कैसे मिली विलुप्त हो चुकी यह मादा कछुआदरअसल, 2019 में वैज्ञानिकों का एक दल पश्चिमी इक्वाडोर क्षेत्र में गैलापागोस द्वीपसमूह के फर्नांडीना द्वीप पर पहुंचा था। इस द्वीप पर ही उन्हें यह मादा कछुआ मिली। विलुप्त हुई प्रजाति से लिंक को साबित करने के लिए, येल विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने चेलोनोइडिस फैंटास्टिकस प्रजाति के नर के अवशेषों की तुलना करने के लिए मादा से नमूने लिए।इक्वाडोर के मंत्री बोले- आशा बरकरार है!इक्वाडोर के पर्यावरण मंत्री गुस्तावो मैनरिक ने कहा कि यह माना जाता था कि यह 100 साल से भी पहले विलुप्त हो गया था! हमने इसके अस्तित्व की पुष्टि की है। चेलोनोइडिस फैंटास्टिकस प्रजाति का कछुआ गैलापागोस में पाया गया था। आशा बरकरार है!' 2019 के अभियान के दौरान, गैलापागोस नेशनल पार्क और यूएस एनजीओ गैलापागोस कंजरवेंसी के शोधकर्ताओं ने कठोर हो चुके लावा प्रवाह के तीन मील की दूरी को पार कर कछुओं के कई अवशेषों का पता लगाया था।
- हम सभी लोगों को चाय पसंद है। दुनिया भर में कई तरह के फ्लेवर्स की चाय मिलती हैं, जिन्हें पीने के बाद स्वाद का मजा ही कुछ और होता है, लेकिन क्या कभी आपने दुनिया की सबसे महंगी चाय की पत्तियों के बारे में सुना है? आज हम आपको दुनिया की सबसे महंगी चाय की पत्तियों के बारे में बताएंगे, जिसकी कीमत जानकर आपके भी होश उड़ जाएंगे।हम बात कर रहें हैं चीन में मिलने वाली डा-होंग पाओ टी की। इस चाय पत्ती का नाम दुनिया में मिलने वाली सबसे महंगी चाय की पत्तियों में शुमार है। इसकी कीमत 9 करोड़ रुपए प्रति किलोग्राम है। डा-होंग पाओ की खेती चीन के फुजियान के वूईसन इलाके में की जाती है। इस चाय पत्ती के कई सारे लाभकारी गुण हैं, जिसे शायद ही आप जानते होंगे। स्वास्थ्य के लिए ये चायपत्ती काफी लाभदायक होती है। यही एक बड़ी वजह है, जिसके चलते इसको जीवनदायिनी भी कहा जाता है।कई प्रकार की गंभीर बीमारियां इसके सेवन से ठीक होती हैं। खेती के दौरान डा-होंग पाओ की पत्तियों की पैदावार काफी कम मात्रा में होती हैं और इसकी पत्तियां दुनिया में काफी दुर्लभ भी हैं। यही एक बड़ा कारण है, जिसके चलते इस चायपत्ती की कीमत 9 करोड़ रुपए प्रति किलोग्राम है। इस चाय पत्ती की खेती विशेष तरह से की जाती है, जिसमें मेहनत और ध्यान दोनों लगता है।डा-होंग पाओ टी की पत्तियों के इतिहास पर गौर करें, तो इसकी खेती की शुरुआत चीन के मींग शासन के समय में शुरू हुई थी। चीनी लोगों का कहना है कि उस दौरान मींग शासन की महारानी अचानक बीमार हो गई थी। उनकी तबीयत काफी बिगड़ गई थी और महारानी के बचने की संभावना काफी कम थी। उन पर किसी भी दवा का असर नहीं हो रहा था।इसके बाद उन्हें डा-होंग पाओ चाय पीने के लिए कहा गया। उन्होंने इसे पीया और पीने के कुछ ही दिनों के बाद वह ठीक हो गईं। महारानी के ठीक होने के बाद राजा काफी खुश हुए और उन्होंने आदेश दिया कि इस खास तरह की चाय की पत्तियों की खेती की जाए। राजा के लंबे चोंगे के नाम पर ही इस चायपत्ती का नाम डा-होंग पाओ पड़ा। मान्यता है मींग शासन से ही इस चाय पत्ती की खेती होती आ रही है। आज कई लोग इस चाय पत्ती के 10 से 15 ग्राम खरीदने के लिए लाखों रुपए चुकाते हैं।-file photo
- -हल्के लक्षणों वाले मरीजों का शरीर हमेशा कोरोना वायरस से लड़ता रहेगा: अध्ययनकोरोना वायरस पर हुए ताजा अध्ययन बताते हैं कि जिन लोगों को कोविड-19 के हल्के लक्षण होते हैं, उनका इम्यून सिस्टम इस बीमारी के खिलाफ प्रतिरक्षा तैयार कर लेता है। कोविड-19 से उबरने के महीनों बाद, जब रक्त में ऐंटिबॉडी का स्तर कम हो जाता है, तब भी बोन मैरो में इम्यून सेल यानी कोरोनावायरस से लडऩे वाली कोशिकाएं चौकस रहती हैं ताकि हमला होने पर जवाब दे सकें । साइंस पत्रिका नेचर में छपे एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कहा है कि कोविड-19 के सामान्य लक्षणों से उबरने के बाद शरीर की कोरोना वायरस से लडऩे की क्षमता बढ़ जाती है। शोध में पता चला कि संक्रमण होने पर बहुत तेजी से इम्यून सेल यानी वायरस से लडऩे वाली कोशिकाएं पैदा होती हैं।ये कोशिकाएं अल्पजीवी होती हैं, लेकिन रक्षक ऐंटिबॉडीज की एक लहर पैदा करती हैं। अपना काम करने के बाद इनमें से ज्यादातर कोशिकाएं मर जाती हैं और बीमारी ठीक होने पर ऐंटिबॉडीज की संख्या भी कम होती जाती है। इन कोशिकाओं का एक जत्था रिजर्व सुरक्षा बल के तौर पर लंबे समय तक जीवित रहता है। इन्हें दीर्घ-जीवी प्लाज्मा कोशिकाएं कहा जाता है। शोधपत्र के लेखकों में शामिल सेंट लुइस स्थित वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के अली अलअब्दी समझाते हैं कि ज्यादातर दीर्घ-जीवी प्लाज्मा कोशिकाएं बॉन मैरो में जाकर रहने लगती हैं।अलअब्दी और उनकी टीम ने ऐसे 19 मरीजों के बॉन मैरो से नमूने लिए थे जिन्हें सात महीने पहले कोविड-19 हुआ था। उनमें से 15 में दीर्घ-जीवी प्लाज्मा के अंश पाए गए। इन 15 में से भी पांच ऐसे थे जिनकी बॉन मैरो में कोविड-19 होने के 11 महीने बाद भी प्लाज्मा कोशिकाएं मौजूद थीं जो सार्स-कोव-2 के खिलाफ ऐंटिबॉडीज बना रही थीं। यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि गंभीर लक्षणों से जूझकर बचने वाले मरीजों में भी लंबे समय तक एंटीबॉडी रहती हैं या नहीं।इस अध्ययन के पीछे वैज्ञानिकों की ऐसी चिंता थी कि कोविड-19 होने के बाद मरीजों की इस वायरस से लडऩे की क्षमता कम हो जाती है और यह वायरस दोबारा भी एक मरीज पर हमला कर सकता है। शोधकर्ताओं ने नेचर पत्रिका में लिखा है, "ऐसी रिपोर्ट थी कि सार्स-कोव-2 से लडऩे वालीं कोशिकाएं संक्रमण के बाद के कुछ महीनों में तेजी से कम होती हैं जिस कारण दीर्घ-जीवी प्लाज्मा कोशिकाएं नहीं बन पातीं और वायरस से लडऩे की शरीर की क्षमता बहुत कम समय में खत्म हो जाती है। "अलअब्दी ने एक बयान में बताया कि ये कोशिकाएं बस बॉन मैरो में मौजूद रहती हैं और ऐंटिबॉडीज बनाती रहती हैं। वह कहते हैं, "संक्रमण खत्म हो जाने के बाद से ही ये कोशिकाएं ऐसा कर रही होती हैं. और ऐसा वे अनिश्चित काल तक करती रहेंगी। ये कोशिकाएं तब तक ऐंटिबॉडीज बनाती रहेंगी जब तक मरीज जिंदा रहेगा। " हालांकि अध्ययन में यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि कोविड-19 के गंभीर लक्षणों से जूझकर बचने वाले मरीजों में भी दीर्घ-जीवी प्लाज्मा कोशिकाएं इसी तरह काम करती हैं या नहीं। (रॉयटर्स, नेचर)
- भारतीय रेल विश्व का चौथा और एशिया का दूसरा सबसे बड़ा रेलवे स्टेशन है। परिवहन की यह सुविधा यातायात के सबसे सुगम साधनों में से एक है। हर रोज लाखों लोग ट्रेन से सफर करते हैं। भारत में करीब 8 हजार रेलवे स्टेशन हैं। इनमें से कुछ स्टेशन इतने डरावने हैं कि शाम होते ही बिल्कुल सन्नाटा पसर जाता है। कुछ लोग इन स्टेशनों को भूतिया भी मानते हैं।नैनी जंक्शनउत्तर प्रदेश के प्रयागराज में स्थित नैनी जंक्शन को भी लोग भूतिया मानते हैं। इस रेलवे स्टेशन के नजदीक में ही नैनी जेल है।चित्तूर रेलवे स्टेशनआंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित चित्तूर रेलवे स्टेशन भी डरावने रेलवे स्टेशनों में से एक है। स्टेशन के आसपास रहने वाले लोगों का मानना है कि बहुत समय पहले यहां हरी सिंह नामक एक सीआरपीएफ जवान ट्रेन से उतरा था। ट्रेन से उतरने के बाद उसे आरपीएफ और टीटीई ने मिलकर इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई थी। इस घटना के बाद से ही हरी सिंह की आत्मा इंसाफ के लिए रेलवे स्टेशन पर ही भटकती रहती है।मुलुंड रेलवे स्टेशनमुंबई में स्थित मुलुंड रेलवे स्टेशन की गिनती भी भूतिया रेलवे स्टेशनों में होती है। इस स्टेशन पर आने वाले यात्रियों और आस-पास रहने वाले लोगों का दावा है कि उन्हें यहां लोगों के चीखने-चिल्लाने के साथ-साथ रोने की भी आवाजें सुनाई देती हैं।बेगुनकोदर रेलवे स्टेशनपश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में स्थित इस रेलवे स्टेशन की कहानी काफी रोचक है। भूतिया दावों की वजह से इस स्टेशन को 42 सालों तक बंद रखा गया था। हालांकि, साल 2009 में इसे फिर से खोल दिया गया।बड़ोग रेलवे स्टेशनबड़ोग रेलवे स्टेशन हिमाचल प्रदेश के सोलन में स्थित है। कालका-शिमला रेल रूट पर पडऩे वाला ये स्टेशन जितना खूबसूरत है, ठीक उतना ही डरावना और भूतिया है। बड़ोग रेलवे स्टेशन ठीक बगल में एक सुरंग है। इस सुरंग का निर्माण एक ब्रिटिश इंजीनियर कर्नल बड़ोग ने कराया था, लेकिन बाद में उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। लोगों का मानना है कि कर्नल बड़ोग की आत्मा इस सुरंग में घूमती-फिरती है।
- म्यांमार के एक मंदिर में दर्जनों की तादाद में अजगर घूमते नजर आते हैं। मंदिर में सांपों की मौजूदगी को पगोडा की "शक्ति का संकेत" माना जाता है। स्थानीय लोग इसे सांप वाला मंदिर कहते हैं।म्यांमार के यंगून शहर की एक झील के बीच बने इस मंदिर को अजगरों ने मशहूर कर दिया है। मंदिर के फर्श से लेकर खिड़कियों पर अजगर टंगे दिखते हैं। स्थानीय लोग इसे "सांप वाला मंदिर" कहने लगे हैं। मंदिर का नाम है बुंगदोग्योक पगोडा। मंदिर में रहने वाली सानदार थीरी कहती हैं, "लोगों का मानना है कि उनकी मन्नतें यहां पूरी हो जाती हैं।" थीरी के मुताबिक, "नियम भी ऐसा है कि श्रद्धालु कोई एक मन्नत ही मांग सकते हैं, एक से ज्यादा इच्छा जाहिर करना अच्छा नहीं होता।" यहां प्रचलित कहानियों के मुताबिक, एक बार गौतम बुद्ध एक पेड़ के नीचे ध्यान में बैठे थे। तभी बारिश होने लगी और उस वक्त एक अजगर ने अपने फन फैलाकर बुद्ध के सिर पर छत दी थी। स्थानीय लोग मानते हैं कि अगर वे मंदिर को सांप लाकर देंगे तो उन्हें पुण्य मिलेगा। इस मंदिर के मुख्य कक्ष में बुद्ध की मूर्ति के पास पेड़ लगे हुए हैं। ये अजगर इन पेड़ों की शाखाओं पर झूलते रहते हैं, श्रद्धालु इन्हें देखकर इनकी पूजा करते हैं और सिर झुकाते हैं। यहां आने वाले लोगों को इन अजगरों से कोई डर नहीं लगता बल्कि कुछ लोग इनकी मौजूदगी को पगोडा की "शक्ति का संकेत" मानते हैं। सांप के लिए नाग शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों के मंदिरों में सांप को एक खास अहमियत दी जाती है। हिंदू और बौद्ध मंदिरों में सांप ही नहीं बल्कि कई अन्य पशुओं की भी पूजा होती है। इस मंदिर में लगे पत्थरों में सांप की आकृतियों को भी उकेरा गया है।
- सौरमंडल में कुल 8 ग्रह हैं, लेकिन इन्हें जितना भी समझने की कोशिश की जाए, तो उतना ही उलझना पड़ता है। क्योंकि सभी ग्रह कुछ खास वजहों से एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। अरुण ग्रह यानी यूरेनस का नाम तो आपने सुना ही होगा। व्यास के आधार पर यह सौरमंडल का तीसरा बड़ा और द्रव्यमान के आधार पर चौथा बड़ा ग्रह है। इस ग्रह पर मिट्टी पत्थर के बजाय अधिकतर गैस है, जिस वजह से इसे गैस दानव भी कहा जाता है। आज हम आपको अरुण ग्रह के बारे में कुछ ऐसी रोचक बातें बताएंगे, जिसे जानकर आप हैरान हो जाएंगे।अरुण ग्रह अपने अक्ष पर 98 डिग्री तक झुका हुआ है। इस वजह से यहां का मौसम बहुत ही असामान्य रहता है। यहां हमेशा तूफान जैसा माहौल बना रहता है। यहां हवाएं काफी तेज चलती रहती हैं, जो अधिकतम 900 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार तक पहुंच जाती हैं।आपको यह जानकर बेहद ही हैरानी होगी कि अरुण ग्रह पर 42 साल तक रात और 42 साल तक दिन होता है। इसका कारण यह है कि अरुण ग्रह पर दोनों में से एक पोल यानी ध्रुव लगातार 42 साल तक सूर्य के सामने और दूसरा अंधकार में होता है। अरुण ग्रह सूर्य से लगभग तीन अरब किलोमीटर दूर है। यही वजह है कि यह ग्रह बहुत ही ठंडा है। यहां का औसत तापमान -197 डिग्री सेल्सियस होता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, अरुण का न्यूनतम तापमान -224 डिग्री सेल्सियस देखा गया है।सूर्य के अधिक दूरी होने के कारण इस ग्रह पर सूर्य की किरणों को पहुंचने में दो घंटे 40 मिनट का समय लगता है। यह पृथ्वी से लगभग 20 गुना अधिक है। पृथ्वी पर सूर्य की किरणों को पहुंचने में आठ मिनट 17 सेकेंड का समय लगता है। अरुण अपने अक्ष पर करीब 17 घंटे में एक चक्कर पूरा कर लेता है। इसका सीधा-सीधा मतलब है कि यूरेनस पर एक दिन मात्र 17 घंटे का ही होता है। यहां का एक साल पृथ्वी के 84 साल के बराबर होता है। अरुण ग्रह पर बादलों की अनेक परतें पाई जाती हैं। सबसे ऊपर मीथेन गैस होती है। इसके अलावा अरुण ग्रह के केंद्र में बर्फ और पत्थर पाए जाते हैं।
- कोरोना वायरस से संक्रमित होने वाले कई लोगों में साइटोकाइन स्टॉर्म नाम की एक अवस्था विकसित हो रही है। यह जानलेवा भी हो सकती है। जानिए क्या होती है यह अवस्था और क्या असर करती है यह शरीर पर.संभव है कि कोविड-19 संक्रमण के मामलों में आपने साइटोकाइन स्टॉर्म नाम की अवस्था के बारे में कई बार सुना हो। इसे कोरोना के संक्रमण के मामलों में मल्टिपल-ऑर्गन फेलियर यानी कई अंगों के काम करना बंद कर देने के लिए जिम्मेदार कारणों में से एक अहम कारण माना जाता है। आवश्यक अंगों के काम करना बंद कर देने से मरीज की मौत भी जाती है। साइटोकाइन हमारे शरीर की कोशिकाओं यानी सेल के अंदर एक तरह के प्रोटीन होते हैं।ये हमारे शरीर के रोग प्रतिरोधात्मक तंत्र यानी इम्यून रिस्पॉन्स सिस्टम का एक हिस्सा होते हैं जो अमूमन किसी भी तरह के संक्रमण से लडऩे में हमारे शरीर की मदद करते हैं। साइटोकाईन स्टॉर्म तब होता है जब शरीर को संक्रमित करने वाला वायरस इम्यून सिस्टम पर ऐसा असर करता है कि शरीर में आवश्यकता से ज्यादा काफी बड़ी मात्रा में और अनियंत्रित रूप से साइटोकाईन बनने लगते हैं।इतनी बड़ी मात्रा में एक साथ जन्मे साइटोकाईन कोशिकाओं पर ही हमला करना लगते हैं जिससे शरीर पर बुरा असर पड़ता है और अंग काम करना बंद करने लगते हैं। एक तरह से समझिए कि इस अवस्था में वायरस शरीर के इम्यून सिस्टम को ही शरीर का दुश्मन बना देता है। साइटोकाइन स्टॉर्म की वजह से फेफड़ों पर असर पड़ सकता है जिससे फिर शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा कम होनी शुरू हो जाती है।शरीर पर घातक असरइसकी वजह से दिल की धमनियां फूल सकती हैं, जिससे दिल का दौरा पड़ सकता है। नसों में खून का जमना या थ्रोम्बोसिस भी हो सकता है। दिल्ली के जी बी पंत अस्पताल में वरिष्ठ कंसलटेंट फिजिशियन डॉक्टर एसएम रहेजा बताते हैं कि ऐसा संक्रमण के दूसरे हफ्ते में होने की संभावना रहती है और ऐसे में मरीज को स्टेरॉयड दिए जाने चाहिए। डॉक्टर रहेजा कहते हैं कि दूसरे हफ्ते में मरीज को अपनी हालत पर लगातार निगरानी रखनी चाहिए और शरीर में ऑक्सीजन की कमी होते ही डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए।साइटोकाइन स्टॉर्म जानलेवा हो सकता है, लेकिन इसके घातक असर को लेकर अभी तक कोई व्यापक अध्ययन नहीं हुआ है। हालांकि डॉक्टरों का कहना है कि कई मामलों में कोविड-19 से संक्रमित और गंभीर रूप से बीमार लोगों में देखा गया है कि उनके शरीर में साइटोकाइन स्टॉर्म शुरू होने के बाद उनकी हालत तेजी से खराब हो गई। डॉक्टर रहेजा भी इसके व्यापक अध्ययन पर जोर देते हुए कहते हैं कि कम से कम इतना तो साबित हो ही गया है कि कोरोना से संक्रमित मरीजों की मौत के पीछे साइटोकाइन स्टॉर्म की एक महत्वपूर्ण भूमिका जरूर रहती है।----
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दुनियाभर के देशों में कई तरह के सिक्के चलन में हैं। वजन और वैल्यू के आधार पर इन सिक्कों के बीच का अंतर पता चलता है। हालांकि, सबसे खास बात ये है कि दशकों पहले केवल चौकोर और बीच में से छेद वाले सिक्के चलन में थे, लेकिन अब सभी सिक्कों का आकार गोल हो गया है। आज हम आपको इस लेख के माध्यम से सिक्कों का इतिहास बताएंगे।
प्राचीन समय में भारतीय सिक्कों को कर्शपना, पना या पुराण कहा जाता था। छठी शताब्दी में इन सिक्कों को भारत के महाजनपद में बनाया जाता था। इसमें गांधार, कुटाला, कुरु, पांचाल, शाक्या, सुरसेना और सुराष्ट्र शामिल हैं। इन सिक्कों पर अलग-अलग चिह्न बने थे और इनका आकार भी अलग-अलग था। सुराष्ट्र में बने सिक्कों पर बैल का चिन्ह, दक्षिण पांचाल में बने सिक्कों पर स्वास्तिक और वहीं मगध के सिक्कों पर कई चिह्न बने होते थे।
आपको बता दें कि हमारे देश भारत में साल 1950 में एक रुपये का पहला गोल सिक्का जारी किया गया था। इसके बाद साल 2010 में कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान 2 और 5 रुपये के सिक्के जारी हुए थे। इन सिक्कों में एक तरफ कॉमनवेल्थ गेम्स का लोगो और दूसरी तरफ अशोक स्तंभ बना था। कहा जाता है कि सिक्कों को आसानी से इकट्ठा करना और उनकी गिनती करने के लिए गोल आकार में बनाया जाता है। हालांकि, इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है कि सिक्कों को गोल आकार में ही क्यों बनाया जाता है। गोल के अलावा दूसरे आकार के सिक्कों को तोड़ना या उनके कॉर्नर को काट देना आसान होता है, लेकिन गोल आकार के सिक्कों के साथ ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं है। गोल आकार वाले सिक्कों के साथ छेड़छाड़ कर उसकी वैल्यू नहीं घटाई जा सकती है।
सिक्कों को गोल आकार में बनाने के पीछे कई तरह के तर्क दिए जाते हैं। एयरपोर्ट, ऑफिस में सामान खरीदने से लेकर रेलवे स्टेशन पर वजन चेक करने तक के लिए वेंडिंग मशीन में सिक्के डाले जाते हैं। वेंडिंग मशीनों में गोल सिक्के डालना आसान होता है। शायद इस वजह से भी सिक्कों को गोल आकार में बनाया जाता है।-File photo
- उत्तरी मेक्सिको में एक डायनासोर के 7.3 करोड़ साल पुराने अवशेषों का अध्ययन करने के बाद पता लगा है कि ये वैज्ञानिकों के लिए बिलकुल नई नस्ल है. यह डायनासोर शाकाहारी था और संभवत: शांतिपूर्ण लेकिन बातूनी था।इस नए डायनासोर के बारे में घोषणा मेक्सिको के इतिहास और मानवशास्त्र के राष्ट्रीय संस्थान ने की है। जीवाश्म वैज्ञानिकों का कहना है कि जिन हालात में यह डायनासोर मिला उन्हीं से यह पता चलता है कि यह इतनी अच्छी तरह से संरक्षित कैसे था। संस्थान ने एक बयान में कहा, "करीब 7.2 या 7.3 करोड़ साल पहले एक भीमकाय शाकाहारी डायनासोर संभवत: एक ऐसे जलाशय में मर गया होगा जो गाद से भरा हुआ होगा। उसका शरीर जल्द ही उसी गाद से ढक गया होगा और उसी में सदियों से संरक्षित रहा होगा।"इस नई नस्ल को तलातोलोफस गैलोरम नाम दिया गया है. सबसे पहले 2013 में मेक्सिको के उत्तरी प्रांत कोवाउइला के जनरल सेपेडा इलाके में इसकी पूंछ मिली थी। फिर जैसे जैसे खुदाई होती रही, वैज्ञानिकों को इसके सिर का 80 प्रतिशत हिस्सा, इसकी 1.32 मीटर की कलगी, जांघ की हड्डी और कंधे की हड्डी मिली। इसके बाद शोधकर्ताओं को एहसास हुआ कि डायनासोरों की एक नई नस्ल ही उनके हाथ लग गई है।संस्थान के बयान में यह भी कहा गया, "हमें यह मालूम है कि इस नस्ल के डायनासोरों की सुनने की क्षमता ऐसी थी कि वो कम फ्रीक्वेंसी की ध्वनियां भी सुन सकते थे। इसका मतलब है कि वो जरूर शांतिप्रिय लेकिन बातूनी रहे होंगे। " जीवाश्म वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि वह "परभक्षियों को डरा कर भगाने के लिए या प्रजनन संबंधी उद्देश्यों के लिए तेज आवाजें निकालते थे। " संस्थान का कहना है कि इस खोज की जांच अभी चल ही रही है, लेकिन इस प्राचीन सरीसृप पर शोध वैज्ञानिक पत्रिका क्रेटेशियस रिसर्च में छप चुका है।संस्थान के मुताबिक, "मेक्सिकन जीवाश्म विज्ञान में यह एक असाधारण खोज है। यह डायनासोर जिस हालत में मिला है उसके लिए करोड़ों साल पहले बहुत ही अनुकूल परिस्थितियां बनी होंगी। उस समय चोहीला एक ट्रॉपिकल इलाका था। " तलातोलोफस नाम स्थानीय नहुआतल भाषा के शब्द तलाहतोलि (मतलब शब्द या वाक्य) और यूनानी भाषा के शब्द लोफस (कलगी) से लिया गया है। इस डायनासोर की कलगी के आकार के बारे में संस्थान का कहना है कि यह "मेसोअमेरिकी लोगों द्वारा उनकी प्राचीन हस्तलिपियों में बातचीत करने की क्रिया और ज्ञान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले एक चिह्न की तरह है। " सीके/एमजे (एएफपी)
- आज के दौर में जब डॉक्टर एवं नर्स हमारे लिए भगवान का रूप बनकर उभरे हैं, वे इस महामारी के काल में अपने जीवन को दांव पर लगाकर हमारी सेवा में जुटे हुए हैं। आज दुनिया भर में नर्सें जिस सेवा-भाव में मरीजों की देखभाल में लगी हुई हैं। उनके भीतर इस अलख को जगाने वाली महिला फ्लोरेंस नाइटिंगेल का आज 12 मई को जन्मदिन है।फ्लोरेंस नाइटेंगल जिन्होंने पूरी दुनिया को यह सिखाया कि कैसे आप एक मरीज की पूरे निस्वार्थ भाव से सेवा कर सकते हैं। वह फ्लोरेंस नाइटेंगल ही थीं, जिन्होंने अपने सेवा भावना और दयालुता से नर्स के पेशे को एक बेहद सम्मानित पेशे के रूप में स्थापित किया। फ्लोरेंस का जन्म उस दौर में हुआ था, जब नर्स और सैनिकों को इस समाज में वह सम्मान नहीं मिल सका था, जिस सम्मान की दृष्टि से उन्हें आज देखा जाता है।एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी फ्लोरेंस का बचपन ब्रिटेन के पार्थेनोप इलाके में बीता. उनके पिता विलियम एडवर्ड नाइटिंगेल एक समृद्ध जमींदार थे. फ्लोरेंस एवं उनकी पढ़ाई घर पर ही हुई। फ्लोरेंस का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब लड़कियों के जीवन का अर्थ बस यही हुआ करता था कि बड़े होने पर एक धनी व्यक्ति से उनकी शादी कर दी जाए और वे अपने परिवार तथा सामाजिक सरोकारों में उलझकर ही अपना जीवन व्यतीत कर दें, लेकिन फ्लोरेंस को यह मंजूर नहीं था, उन्होंने अपने परिवार के सामने नर्सिंग सीखने की इच्छा जाहिर की।बताते हैं कि फ्लोरेंस जब अपने परिवार के साथ यूरोप के सफर पर गई थीं, उस दौरान उन्होंने हर शहर में बने अस्पतालों एवं लोगों की सेवा के लिए बने संस्थानों के बारे में जानकारी इक_ा की। उन्होंने यह सभी आंकड़े अपनी डायरी में लिखे। सफर के अंत में उन्होंने अपने परिवार से कहा कि 'ईश्वर ने उसे मानवता की सेवा का आदेश दिया है लेकिन यह नहीं बताया कि सेवा किस तरह से करनी है।' इसके बाद फ्लोरेंस ने नर्स बनने की इच्छा जाहिर की। उनके पिता ने फ्लोरेंस का काफी विरोध किया, लेकिन अंतत: उन्होंने अपनी बेटी की बात मान ली और जर्मनी में प्रोटेस्टेंट डेकोनेसिस संस्थान से फ्लोरेंस ने नर्सिंग का प्रशिक्षण लिया। वर्ष 1853 में उन्होंने लंदन में महिलाओं के लिए एक अस्पताल 'इंस्टीच्यूट फॉर द केयर ऑफ सिंक जेंटलवुमेन' खोला, जहां उन्होंने मरीजों की देखभाल के लिए बहुत सारी बेहतरीन सुविधाएं उपलब्ध कराई और नर्सों के लिए कार्य करने की स्थिति में भी सुधार किया। साल 1854 में क्रीमिया का युद्ध चल रहा था। इस युद्ध में ब्रिटेन, तुर्की और फ्रांस एक तरफ थे और रूस दूसरी तरफ। वह ऐसा दौर था, जब सैनिकों की जान की कीमत नहीं थी। घायल हुए सैनिक मरने के लिए छोड दिए जाते थे। ब्रिटिश सरकार द्वारा फ्लोरेंस के नेतृत्व में अक्तूबर 1854 में 38 नर्सों का एक दल घायल सैनिकों की सेवा के लिए तुर्की भेजा गया। फ्लोरेंस ने वहां पहुंचकर अस्पताल की हालत सुधारने के अलावा घायल और बीमार सैनिकों की देखभाल में दिन-रात एक कर दिया, जिससे सैनिकों की स्थिति में काफी सुधार हुआ। उनकी मेहनत रंग लाई और कुछ दिनों में ही युद्ध में घायल हुए सैनिकों की संख्या में कमी आई। इस दौरान फ्लोरेंस रात-रात घायल सैनिकों के पास जाकर उनका हालचाल लेती थीं और उनके हाथ में एक लैंप होता था तब से ही उन्हें 'लेडी विद द लैंप' के नाम से ही संबोधित किया जाने लगा।इस युद्ध के बाद फ्लोरेंस ब्रिटेन में काफी लोकप्रिय हो गईं और अखबारों में उनकी प्रशंसा से भरे लेख लिखे गए। ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने भी फ्लोरेंस को धन्यवाद दिया और उनसे मिलकर उनसे प्रशंसा की। रानी विक्टोरिया से मुलाकात के समय फ्लोरेंस ने यह सिफारिश की कि सैनिकों को अच्छी सुविधा, अच्छे कपड़े और अच्छा खान-पान उपलब्ध कराया जाए। फ्लोरेंस की सिफारिश का असर हुआ और सैन्य चिकित्सा प्रणाली में बड़े पैमाने पर सुधार संभव हुआ और उसके बाद से ब्रिटेन में सैनिकों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा। साल 1859 में उन्होंने परिवार के बीमार सदस्यों की सही देखरेख सिखाने के लिए 'नोट्स ऑन नर्सिंग' पुस्तक भी लिखी, जिसकी मदद से कई लोगों ने नर्सिंग सीखी। इसी दौरान भारत में संक्रामक रोगों से लाखों लोगों की मौत को देखते हुए फ्लोरेंस इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि भारत में लोगों के बीमार होने का एक बड़ा कारण यह है कि वहां लोग पीने के लिए गंदा पानी इस्तेमाल कर रहे हैं। उनकी सिफारिश के बाद ही भारत में पीने के लिए साफ पानी के इस्तेमाल को लेकर सजगता बढ़ी। साल 1910 में 90 साल की उम्र में फ्लोरेंस नाइटेंगल का निधन हो गया।
- 12 मई का इतिहास एक ऐसी रुसी महिला से जुड़ा है जो 1927 में भारत की ओर आकर्षित हुईं और जहाज पर सवार हो कर यहां पहुंच गई। जानिए कि उन्होंने क्या किया। ये कहानी है यूजीन पीटरसन की। इनका जन्म रूस में 12 मई के दिन 1899 में हुआ था। 15 साल की उम्र में उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर की और योगी रामचक्र की किताबें पढ़ी और उनसे वह इतनी आकर्षित हुईं कि भारत आने की चाह उनके मन में पैदा हुई।1927 में वो भारत आने के लिए जहाज पर सवार हुई और उन्होंने अपने लिए एक ऐसा नाम चुन लिया जो भारतीय लगता था। उन्होंने खुद को इंद्रा देवी कहना शुरू किया। वह पहली ऐसी विदेशी महिला थीं जो तिरुमलैई कृष्णमाचार्य की योग छात्रा बनी और फिर योग शिक्षक के रूप में दुनिया के कई देशों में गई। इतना ही नहीं रिगा में पैदा हुई यूजीन उर्फ इंद्रा ने कुछ हिन्दी फिल्मों में भी काम किया।मशहूर योग गुरू कृष्णमाचार्य ने भी उन्हें तभी छात्रा के रूप में स्वीकार किया जब मैसूर के महाराज ने खुद उनके लिए अनुरोध किया। 1938 में इंद्रा देवी पहली विदेशी योग गुरू बनी। जितनी भी चुनौतियां गुरू ने उनके लिए रखी वो सब उन्होंने पूरी कीं। जब इंद्रा देवी का भारत छोडऩे का मौका आया तो कृष्णमाचार्य ने खुद उनसे कहा कि वह योग शिक्षक के रूप में काम कर सकती हैं। उन्होंने चीन, अमेरिका, सहित अर्जेंटीना में योग शिक्षा दी। 1982 में वे अर्जेंटीना चली गईं। 1987 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय योग फेडरेशन का अध्यक्ष बनाया गया। 102 साल की उम्र में साल 2002 में उनकी ब्यूनस आयर्स में मौत हुई।
- अफ्रीकी देश मैडागास्कर में वैज्ञानिकों को दुनिया का सबसे छोटा गिरगिट मिला है। यह आकार में इतना छोटा हैं कि इंसान की ऊंगली पर आराम से बैठ सकता है ।इस छोटे से गिरगिट को ब्रूकेशिया नाना नाम दिया गया है इसके शरीर का अनुपात भी वैसा ही है जैसा दुनिया में पाए जाने वाले बड़े गिरगिटों का होता है । जर्मनी में बबेरियन स्टेट कलेक्शन ऑफ जूलॉजी के क्यूरेटर फ्रांक ग्लाव कहते हैं, "हमें यह उत्तरी मैडागास्कर के पहाड़ों में मिला । " यह खोज 2012 में जर्मनी और मैडागास्कर के वैज्ञानिकों की साझा कोशिशों का नतीजा है । जब वैज्ञानिकों को एक नर और एक मादा ब्रूकेशिया नाना गिरगिट मिलें तो उन्हें पता नहीं चला कि ये दोनों व्यस्क हैं। बहुत बाद में उन्हें यह बात मालूम हुई। ग्लाव कहते हैं, "हमें पता चला कि मादा के शरीर में अंडे हैं जबकि नर गिरगिट के जननांग बड़े हैं। इससे हमें पता चला कि वे वयस्क हैं। "विज्ञान पत्रिका "साइंटिफिक रिपोट्र्स" में ग्लाव और उनके साथियों ने लिखा कि नर गिरगिट के जननांग काफी बड़े थे, मतलब उनके शरीर का 20 प्रतिशत उसके जननांग ही थै। एक मूंगफली के आकार जितने नर ब्रूकेशिया गिरगिट के शरीर का आकार 13.5 मिलीमीटर यानी लगभग आधा इंच लंबा होता है जबकि पूंछ के और नौ मिलीमीटर जोड़ लीजिए। वहीं मादा की लंबाई उनकी नाक से लेकर पूंछ तक 29 मिलीमीटर है।यह अपनी प्रजाति का अकेला जोड़ा है जो अभी तक मिला है। मैडागास्कर के जंगल खासकर छोटे छोटे जीवों के लिए बहुत मशहूर रहे हैं। मैडागास्कर की एंटानानारीवो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक और साइंफिटिक रिपोट्र्स में छपे शोध के सह लेखक एंडोलालाओ राकोतोआरिसन कहते हैं, "मैडागास्कर में बहुत सारी बहुत ही छोटी कशेरुकी प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें कुछ सबसे छोटे बंदरों से लेकर सबसे छोटी मेंढक तक शामिल हैं। "रिसर्चर कहते हैं कि ब्रकेशिया नाना गिरगिट समुद्र तल से 1,300 मीटर की ऊंचाई पर पर्वतों में मिल। ग्लाव कहते हैं, "हम इस बारे में कुछ नहीं कह सकते हैं कि यह प्रजाति इतनी छोटी क्यों ह," लेकिन वैज्ञानिक इतना जरूर जानते हैं कि ये गिरगिट लुप्त होने की कगार पर खड़े हैं। हालांकि लुप्तप्राय जीवों की रेड लिस्ट बनाने वाली संस्था इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजरवेशन फॉर नेचर (आईयूसीएन) को अभी उसका मूल्यांकन करना बाकी है।
- पूरी दुनिया कोरोना वायरस महामारी से लडऩे के लिए कोविड-19 की वैक्सीन पर निर्भर है। वैक्सीन इंसान के शरीर को बीमारी, संक्रमण या वायरस से लडऩे के लिए तैयार करती है। एक नजर विभिन्न वैक्सीनों पर और वह कैसे काम करती है।कोवैक्सीनभारत बॉयोटेक की कोवैक्सीन का इस्तेमाल भारत में बड़े पैमाने पर हो रहा है। इस टीके को कई देशों की मदद के लिए भी भेजा गया है। कोवैक्सिन एक निष्क्रिय टीका है। यह टीका मरे हुए कोरोना वायरस से बनाया गया है जो टीके को सुरक्षित बनाता है। इसकी दो खुराक दी जा रही है। स्टडी के मुताबिक, कोवैक्सीन घातक इंफेक्शन और मृत्यु दर के जोखिम को 100 फीसद तक कम कर सकती है।कोविशील्डऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका ने भारतीय कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के साथ मिलकर इसे तैयार किया है। यह भी वायरल वेक्टर टीका है। इसे टीके को एडेनोवायरस का इस्तेमाल करके विकसित किया गया है- जो कि चिंपाजी के बीच आम सर्दी के संक्रमण का कारण बनता है। इसकी दो खुराक दी जा रही है।फाइजर-बायोएनटेक और मॉडर्नाअमेरिका में इस्तेमाल हो रही है फाइजर-बायोएनटेक और मॉडर्ना की कोविड वैक्सीन, दोनों मैसेंजर आरएनए वैक्सीन हैं जिन्हें तैयार करने में वायरस के आनुवांशिक कोड के एक हिस्से का इस्तेमाल किया जाता है। दोनों ही वैक्सीन की दो खुराक दी जाती हैं। फाइजर की वैक्सीन को स्टोरेज के लिए -80 से -60 डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है। मॉडर्ना वैक्सीन को -25 से -15 डिग्री में 6 महीने के लिए रखा जा सकता है।ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेकाब्रिटेन में इस्तेमाल में लाई जा रही ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन वायरल वेक्टर वैक्सीन है। इसके दोनों डोज एक दूसरे से अलग होते हैं। इसकी भी दो खुराक दी जाती है। इस वैक्सीन को दो डिग्री सेल्सियस से लेकर आठ डिग्री सेल्सियस तापमान के बीच छह महीने के लिए रखा जा सकता है।स्पुतनिक वीरूस में इस्तेमाल की जाने वाली स्पुतनिक वी वैक्सीन की दोनों खुराकों में दो अलग अलग सामग्री का इस्तेमाल होता है। इनमें दो अलग अलग किस्म के एडिनोवायरस वेक्टर का इस्तेमाल किया गया है। इस वैक्सीन को 60 से अधिक देशों ने इस्तेमाल के लिए मंजूरी दी है। इसको माइनस 18.5 डिग्री सेल्सियस तापमान में स्टोर किया जाता है। इस वैक्सीन का इस्तेमाल भारत में भी हो रहा है। . जॉनसन एंड जॉनसनअमेरिका में इस्तेमाल में आ रही जॉनसन एंड जॉनसन की सिंगल खुराक वाली वैक्सीन को दो से आठ डिग्री सेल्सियस तापमान में रखा जा सकता है, लेकिन इस वैक्सीन के लगाने के बाद कई बार खून के थक्के बनने की भी शिकायतें आई हैं।सिनोवैक-सिनोफार्म चीन की वैक्सीनसिनोवैक-सिनोफार्म दोनों को ही बनाने के लिए वायरस के निष्क्रिय अंशों का इस्तेमाल किया गया है। दोनों टीकों की दो खुराक दी जाती है। इसके भंडारण के लिए दो से आठ डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है।
- नई दिल्ली। हाल ही में टाटा ग्रुप ने ये घोषणा की थी कि वह ऑक्सीजन की किल्लत को देखते हुए इससे निपटने के लिए 24 क्रायोजेनिक टैंक का आयात करेगा। इसके तहत जर्मनी की लिंडे समूह की भारतीय इकाई ने टाटा समूह और भारत सरकार के साथ साथ मिलाया है, ताकि देश भर में लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन की उपलब्धता को बढ़ाने के उपाय किए जा सकें। इन 24 में से 4 क्रायोजेनिक टैंक तो टाटा समूह के लिए भारतीय वायुसेना के जरिए सिंगापुर से भारत लाए भी जा चुके हैं और बाकी 20 टैंक भी जल्द ही लाए जाएंगे। यहां सबसे बड़ा सवाल जो लोगों के मन में उठ रहा है कि आखिर ये क्रायोजेनिक टैंक होता क्या है और इसका आयात करने की अचानक जरूरत क्यों पड़ गई?क्रायोजेनिक टैंक ऐसा टैंक होता है, जिसमें बहुत अधिक ठंडे लिक्विड रखे जाते हैं, जैसे लिक्विड ऑक्सीजन और लिक्विड हाइड्रोजन। लिक्विड ऑक्सीजन बहुत ही अधिक ठंडी होती है। इसका स्तर -185 डिग्री के करीब होता है जो ऑक्सीजन के उबलने का स्तर होता है। क्रायोजेकिन टैंक में उन गैसों को रखा जाता है, जिनका उबलने का स्तर -90 से अधिक होता है, जैसे ऑक्सीजन।क्रायोजेनिक शब्द ग्रीक, लैटिन और अंग्रेजी भाषाओं के संयोजन से बना है। ग्रीक शब्द क्रिए का लैटिन भाषा में अपभ्रंश क्रायो होता है, जिसका अर्थ है बहुत ज्यादा ठंडा और अंग्रेजी में क्रायोजेनिक का मतलब है बेहद ठंडा रखने वाला। इस शब्द से अब यह आसानी से समझा जा सकता है कि क्रायोजेनिक टैंक का इस्तेमाल सिर्फ उन्हीं गैसों के लिए ही होता है, जिन्हें बेहद ठंडी परिस्थितियों में रखना पड़ता है।दिखने में तो क्रायोजेनिक टैंक भी किसी आम गैस टैंक जैसा ही लगता है, लेकिन इसकी बनावट में बहुत बड़ा अंतर होता है। इसे वैक्यूम बॉटल के सिद्धांत पर बनाया गया होता है। इस टैंक में दो तगड़ी परतें होती हैं, एक अंदर की और एक बाहर की परत। अंदर की परत वाले टैंक में लिक्विड ऑक्सीजन गैस भरी होती है, जबकि बाहर की परत अंदर की परत से थोड़ी दूरी पर होती है। दोनों परतों के बीच में से हवा को निकाल दिया जाता है और वैक्यूम जैसी स्थिति पैदा कर दी जाती है, ताकि बाहर की गर्मी का गैस के तापमान पर कोई असर ना हो। इस टैंक के जरिए 20 टन ऑक्सीजन का ट्रांसपोर्टेशन हो सकता है। एक क्रायोजेनिक टैंक तैयार होने में 25 लाख से 40 लाख रुपए तक का खर्च आता है। भारत में विविध कंपनियों के पास ऐसे ट्रांसपोर्ट कैरियर की संख्या 1500 के ही करीब है, लेकिन इनमें से करीब 220 टैंक सेफ्टी सर्टिफिकेट रिन्यूअल न मिलने के चलते वर्तमान में निष्क्रिय हैं। इस तरह देश में इन टैंक की संख्या 1250-1300 के बीच ही है।क्रायोजेनिक टैंक की जरूरत दो वजहों से होती है। इसकी पहली जरूरत तो लिक्विड ऑक्सीजन के ट्रांसपोर्टेशन के लिए होती है और दूसरी जरूरत होती है इसके स्टोरेज के लिए। तमाम अस्पतालों में स्टोरेज को तो जैसे-तैसे मैनेज किया जा सकता है, लेकिन ट्रांसपोर्टेशन के लिए इसकी जरूरत बहुत अधिक थी। वहीं अचानक से ऑक्सीजन की बढ़ी मांग की वजह से भारत में क्रायोजेनिक टैंक की दिक्कत हो गई, क्योंकि ये कोई ऐसी चीज नहीं, जिसे अचानक से बनाया जा सके। इसकी मैन्युफैक्चरिंग बहुत ही कम मात्रा में होती है।
- मिस्र में पाई जाने वाली ममी अपने अंदर कई राज समेटे होती हैं। कई बार धीरे-धीरे इनके रहस्यों से पर्दा उठता है। ऐसा ही कुछ पोलैंड के वैज्ञानिकों को मिला जब उन्होंने पाया कि जिस ममी को एक पुजारी का माना जा रहा था, वह दरअसल एक गर्भवती महिला की थी। वॉरसॉ ममी प्रॉजेक्ट के तहत अपनी तरह की पहली खोज करने वाले इन वैज्ञानिकों की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा। यह टीम 2015 से प्राचीन मिस्र की ममीज पर काम कर रही है। स्कैन में जब ममी के पेट के अंदर एक छोटा सा पैर दिखा, तब उन्हें समझ आया कि उनके हाथ क्या लगा है।यूनिवर्सिटी ऑफ वॉरसॉ के पुरातत्वविद मार्जेना ओजारेक-जील्क और उनके सहयोगी इस रिसर्च को पब्लिश करने की तैयारी में हैं। उन्होंने स्टेट न्यूज एजेंसी सीएनएन को बताया है, 'अपने पति स्टैनिसलॉ के साथ हमने तस्वीरें देखों और उसके पेट में एक छोटा सा पैर देखा।' प्रॉजेक्ट के सह-संस्थापक वोहटेक एमंड ने बताया कि ममी को 1826 में पोलैंड लाया गया था। तब माना जा रहा था कि यह एक महिला की है , लेकिन 1920 के दशक में इस पर मिस्र के पुजारी का नाम लिखा पाया गया।रिसर्च के दौरान कंप्यूटर टोमोग्राफी की मदद से बिना उसकी पट्टियां खोले पुष्टि की गई कि यह एक महिला की ममी थी क्योंकि इसमें पुरुषों का प्राइवेट पार्ट नहीं था। 3डी इमेजिंग में लंबे-घुंघराले बाल और स्तनों की पुष्टि की गई। उन्होंने बताया कि महिला की जब मौत हुई तब वह 20 से 30 साल की रही होगी और भ्रूण 26-30 हफ्तों का। उसकी मौत कैसे हुई यह अभी नहीं पता चला है और यह जानने के लिए और जांच की जरूरत होगी।एक्सपट्र्स के सामने एक बड़ी पहेली यह है कि आखिर अब तक महिला के अंदर भ्रूण कैसे रह गया? ममी बनाने के लिए मृतक के अंगों को निकाल दिया जाता था तो भ्रूण को क्यों नहीं निकाला गया। माना जा रहा है कि इसके पीछे कोई धार्मिक कारण हो सकता है। एमंड ने संभावना जताई है कि हो सकता है उन्हें लगता हो कि अजन्मे बच्चे की आत्मा नहीं होती है और वह अगले दुनिया में सुरक्षित रहेगा या हो सकता है कि उसे निकालने में महिला के शरीर को नुकसान का खतरा रहा हो।यह भी सवाल है कि आखिर ममी के ऊपर पुजारी का नाम क्यों लिखा था। इसके जवाब में संभावना जताई गई है कि शायद पादरी के ताबूत को चोरी कर महिला की ममी को उसमें रखा गया हो। ऐसा करने के कई मामले पहले सामने आए हैं। अमीर और प्रतिष्ठित लोगों के ताबूतों में मूल्यवान चीजें भी होती थीं और उनकी चोरी भी की जाती थी। ताबूत को दोबारा इस्तेमाल करने के लिए भी चोरी कर लिया जाता था। एमंड के मुताबिक करीब 10 प्रतिशत ममी गलत ताबूत में होती हैं।
- अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने कहा है कि उसने मंगल ग्रह पर अपने नवीनतम मिशन में पहली बार एक बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए मंगल के वायुमंडल से कार्बन डाई ऑक्साइड को शुद्ध, सांस लेने योग्य ऑक्सीजन में बदल डाला है ।मंगल ग्रह पर 18 फरवरी को पृथ्वी से सात महीने की यात्रा कर पहुंचे परसिवरेंस रोवर ने अभूतपूर्व खोज की है। उसने लाल ग्रह के वायु मंडल से ऑक्सीजन को बनाने में कामयाबी हासिल की है। परसिवरेंस रोवर छह पहिए वाला है और मंगल ग्रह पर अब तक जितने रोवर भेजे गए हैं, परसिवरेंस उनमें सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा उन्नत है। टोस्टर के आकार के मोक्सी या मार्स ऑक्सीजन इन सितु रिसोर्स युटीलाइजेशन यूनिट ने 5 ग्राम ऑक्सीजन का उत्पादन किया है।नासा के मुताबिक यह ऑक्सीजन एक अंतरिक्ष यात्री के 10 मिनट के सांस लेने के बराबर है। अमेरिकी स्पेस एजेंसी के मुताबिक यह किसी और ग्रह पर पहली बार हुआ है। हालांकि प्रारंभिक उत्पादन मामूली था, लेकिन यह प्रयोग दिखाता है कि प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल से दूसरे ग्रह के वातावरण का इस्तेमाल मनुष्यों द्वारा सीधे सांस लेने के लिए किया जा सकता है।नासा के अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी मिशन निदेशालय में प्रौद्योगिकी प्रदर्शनों की निदेशक ट्रडी कोर्ट्स ने एक बयान में कहा, "दूसरी दुनिया में ऑक्सीजन का उत्पादन करने वाला मोक्सी केवल पहला उपकरण नहीं है। " उन्होंने इसे भविष्य की तकनीक बताया है, जिसमें जमीन से दूर रहने में मदद हासिल हो सकती है। यह उपकरण इलेक्ट्रोलिसिस के माध्यम से काम करता है, जो अत्यधिक गर्मी का इस्तेमाल कार्बन डाई ऑक्साइड के अणुओं से ऑक्सीजन कण को अलग करने के लिए करता है। लाल ग्रह के वायुमंडल का लगभग 95 फीसदी कार्बन डाई ऑक्साइड है। मंगल के वायुमंडल का बाकी पांच फीसदी नाइट्रोजन और आर्गन का है। मंगल ग्रह पर ऑक्सीजन नाम मात्र मौजूद है, लेकिन लाल ग्रह पर अंतरिक्ष यात्रियों के लिए ऑक्सीजन के प्रचुर मात्रा में आपूर्ति को महत्वपूर्ण माना जाता है।(साभार-एए/सीके (रॉयटर्स))
- कोरोना वायरस महामारी के कारण देश के तमाम अस्पतालों में ऑक्सीजन वाले बेड की मांग बढ़ गयी है। कोरोना की दूसरी लहर में संक्रमित हो रहे लोगों को सांस लेने की दिक्कत और ऑक्सीजन की कमी जैसी गंभीर समस्या हो रही है। कुछ दिनों से देश के अस्पतालों में ऑक्सीजन और बिपाप मशीन की कमी होने की बात सामने आ रही है। आज हम बताने जा रहे हैं इस बिपाप मशीन के बारे में....कुछ बीमारियां ऐसी होती हैं जिनमें इंसान को सांस लेने में भारी तकलीफ का सामना करना पड़ता है। ऐसी समस्या के होने पर ऑक्सीजन की सप्लाई करने के लिए एक मास्क या मशीन का इस्तेमाल किया जाता है जिसे बिपाप नाम से जानते हैं। सामान्य भाषा में इसे एक प्रकार का वेंटीलेटर भी कहा जा सकता है। यह एक ऐसा मास्क या मशीन है जिसकी सहायता से सांस लेने में होने वाली दिक्कत को दूर किया जाता है। इसकी मदद से सांस फेफड़ों तक पहुंचाई जाती है। सामान्यत: जब हम सांस लेते हैं तो फेफड़ों में हवा के जाने से वह फूलते हैं, यह प्रक्रिया डायाफ्राम के कारण होती है। इससे आपके फेफड़ों के नलिकाओं और थैलियों के अंदर दबाव पड़ता है। दबाव में यह आपके फेफड़ों में हवा भेजता है। यदि आपको सांस लेने में तकलीफ है, तो एक बिपाप मशीन फेफड़ों में हवा को धकेलने में मदद कर सकती है। इसके लिए एक बिपाप मास्क पहनने की जरूरत होती है जो वेंटिलेटर से जुड़ा होता है। कोरोना वायरस संक्रमण से पीडि़त मरीजों में सांस लेने की तकलीफ और ऑक्सीजन की कमी की स्थिति में बिपाप का इस्तेमाल किया जाता है।कैसे करते हैंबिपाप मशीन का इस्तेमालकोरोना के मरीजों में सांस लेने की समस्या और ऑक्सीजन की कमी होने पर इस मशीन का इस्तेमाल किया जाता है। आधुनिक बिपाप मशीनें टयूबिंग और मास्क के साथ लगी हुई आती हैं। इसके इस्तेमाल के लिए मेदिकक एक्सपर्ट मास्क को मुंह और नाक पर लगाता है जिसके बाद इसे एक सिलेंडर से जोड़ा जाता है जिसमें ऑक्सीजन होती है। इसे स्टार्ट करने के बाद सांस अंदर की तरफ खींचने पर दबाव के द्वारा ऑक्सीजन फेफड़ों तक पहुंचती है। नई बिपाप मशीनों में एक स्मार्ट टाइमर भी सेट किया जाता है जिसकी सहायता से आपके सांस लेने के तरीके और समय को समझा जाता है। इसके बाद आसानी से यह मशीन सांस लेने में इंसान की मदद करती है।बिपाप मशीन के इस्तेमाल के जोखिमआमतौर पर सांस लेने की दिक्कत होने वाले लोगों के लिए बिपाप मशीन का इस्तेमाल सुरक्षित माना जाता है। स्टॉमी जैसे वेंटिलेटर सपोर्ट के इसका उपयोग किया जाना चाहिए, ऐसे में यह संक्रमण के खतरे को भी काम करता है। बिपाप के इस्तेमाल से होने वाले कुछ जोखिम इस प्रकार से हैं।- मास्क की वजह से त्वचा को नुकसान।- पेट फूलने की समस्या।- गले का सूखना।- आँखों में जलन की दिक्कत।इसका इस्तेमाल करते वक्त जरूर बरतें ये सावधानियांबिपाप मशीन का इस्तेमाल करते समय कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है। वैसे तो इसके इस्तेमाल के दौरान अलग-अलग शारीरिक स्थिति वाले लोगों को अलग-अलग दिक्कतें हो सकती हैं लेकिन कुछ बातें हैं जिनका ध्यान इस मशीन के इस्तेमाल के दौरान जरूर रखना चाहिए।- इस मशीन के इस्तेमाल के दौरान मरीज की आँखों में जलन की समस्या का ध्यान रखें।- इसके इस्तेमाल के दौरान गला सूखने की समस्या हो सकती है इसलिए इसका इस्तेमाल करने से पहले पानी जरूर पियें।- गले और गर्दन को सीधा रखें जिससे सांस रुकावट न हो।- मशीन के इस्तेमाल के दौरान मरीज का नाक से सांस लेना जरूरी है।- इसका इस्तेमाल चिकित्सक और एक्सपर्ट की देखरख में किया जाना चाहिए। बिना चिकित्सक की सलाह लिए इस मशीन का इस्तेमाल न करें।
- केट्टूवल्लम केरल के बैकवाटर में चलने वाली एक पारंपरिक नौका है। मूल केट्टूवल्लम का इस्तेमाल बड़ी मात्रा में चावल और मसाले की ढुलाई के लिए किया जाता था। एक मानक केट्टूवल्लम 30 टन चावल कुट्टन्नाडू से कोची बंदरगाह तक पहुंचा सकते हैं।केट्टूवल्लम की बंधाई के लिए नारियल की गांठों का प्रयोग किया जाता है। इसतरह की नौकाओं के निर्माण में एक भी कील का इस्तेमाल नहीं होता। इनका निर्माण जैकवुड के तख्तों से किया जाता है जिन्हें नारियल की जटाओं से बांधा जाता है। इसके बाद इस पर उबली हुई काजू की गरियों से तैयार किए गए काले रंग के क्षारक राल की परत चढ़ाई जाती है। सावधानी से रखरखाव किए जाने पर केट्टूवल्लम कई पीढिय़ों तक काम में आते हैं।केट्टूवल्लम का एक हिस्सा बांस और नारियल की जटाओं से निर्मित संरचना से ढंका हुआ रहता है जहां नाविक आराम करते हैं और यही स्थान रसोईघर का भी काम करता है। खाना नाव पर तैयार किया जाता है और पकाने के लिए मछलियां बैकवाटर से मिल जाती हैं। जब आधुनिक ट्रकों ने इस व्यवस्था का स्थान लिया तो 100 साल से भी पुरानी इन नौकाओं को बाजार में बनाए रखने की एक युक्ति सोची गई। पर्यटकों के लिए इनपर खास तरह के कमरों का निर्माण कर लुप्त होने के कगार पर पहुंच गए इन नौकाओं को जलविहार के लिए नए रूप में ढाला गया और आज ये अपने इसी रूप में अत्यंत लोकप्रिय हैं।केट्टूवल्लम को हाउसबोट में परिणित करने के दौरान यह ध्यान रखा जाता है कि केवल कुदरती सामग्रियों का ही इस्तेमाल किया जाए। बांस की चटाइयों, सुपारी वृक्ष की छडिय़ों और लकडिय़ों का इस्तेमाल इसकी छत के निर्माण में किया जाता है, नारियल की चटाइयों और लकड़ी के तख्तों से फर्श का निर्माण होता है और बिस्तरे के लिए नारियल की लकड़ी और जटाओं का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि, रोशनी के लिए इन हाउसबोटों पर सोलर पैनल लगाए जाते हैं।आज के हाउसबोटों में एक अच्छे होटल की सारी सुविधाएं जैसे- सुसज्जित बेडरूम, आधुनिक टॉयलेट, आरामदेह बैठक कक्ष, रसोईकक्ष के साथ-साथ कांटे से मछली पकडऩे के लिए आपके खड़े होने की जगह के रूप में बालकनी होती हैं। लकड़ी या चुन्नटदार ताड़-पत्र की वक्र छत धूप से बचाव करती हैं और निर्बाध रूप से बाहर देखने की सहूलियत देती है। हालांकि ज्यादातर नौकाएं स्थानीय नाविकों द्वारा खेयी जाती हैं, लेकिन कुछ में 40 हॉर्सपावर के इंजन लगे होते हैं। आस पास के दृश्यों का अवलोकन करने के लिए पर्यटकों के बड़े समूहों द्वारा दो-तीन नावों को आपस में जोड़कर नौका-रेल (बोट-ट्रेन) का निर्माण किया जाता है।
- भूकंप के लिहाज से जापान एक बहुत ही संवेदनशील देश है। इसके पीछे की वजह यहां कि धरती की सबसे अशांत टेक्टोनिक प्लेट्स हैं। ये प्लेट्स एक अभिकेंद्रित सीमा बनाती हैं, जिसके कारण ये क्षेत्र दुनिया के सर्वाधिक भूकंपों का केन्द्र बन जाता है। भूकंप आने के वजह से जापान में काफी नुकसान भी होता है। हालांकि, भूकंप के कारण ही इस देश में एक दिलचस्प मामला सामने आया है। यहां सौ साल पुरानी बंद पड़ी एक घड़ी भूकंप के कारण चालू हो गई।दरअसल, ये घटना जापान के यमामोटो की है। खबरों के मुताबिक, यमामोटो के एक बौद्ध मठ में सौ साल पुरानी एक विशाल घड़ी लगी हुई थी। लेकिन साल 2011 में आए एक भूकंप के कारण ये घड़ी बंद हो गई थी। उसी समय से ये घड़ी बंद पड़ी थी। लेकिन हाल ही में घटी एक घटना से सभी लोग हैरान हैं। बता दें कि इस क्षेत्र में फरवरी 2021 में भूकंप आने पर घड़ी अपने आप ठीक हो गई। करीब 10 सालों से बंद पड़ी घड़ी ठीक पहले की तरह चलने लगी।हालांकि, लोगों का ऐसा मानना है कि किसी तकनीकी कारणों से ये घड़ी फिर से चलने लगी हो। क्योंकि इस बात की संभावना जताई जा रही है कि घड़ी के अंदर जमी धूल भूकंप की वजह से हट गई हो, जिसके वजह से ये फिर से चलने लगी हो। बता दें कि इस घटना के बाद घड़ी निर्माता कंपनी के एक प्रतिनिधि भी वहां पहुंचा। घड़ी के दोबार चालू हो जाने से मठ के आसपास रह रहे लोग काफी खुश हैं।साल 2011 में भूकंप के बाद आई सुनामी की लहरों का पानी मठ के भीतर घुस गया था। इस घटना की वजह से सिर्फ मठ के खंभे और छत बच पाई थी। यह घड़ी भी एक खंभे पर टंगी होने के कारण बच गई थी।सुनामी के बाद हालात सुधरने पर मठ प्रमुख ने घड़ी को ठीक करने की काफी कोशिश की लेकिन वह उसे ठीक नहीं कर पाए थे। इसके बाद उन्होंने घड़ी को उसी तरह छोड़ दिया। फिलहाल एक लंबे समय के अंतराल के बाद ये घड़ी फिर से चलने लगी है।
- खुली आंखों से हम आसमान में छह हजार तक सितारे दिख सकते हैं। वे हमें छोटे छोटे बिंदुओं जैसे दिखते हैं क्योंकि वे हमसे बेहद दूर हैं। सितारे असल में विशाल खगोलीय पिंड होते हैं जो गर्म और विद्युत आवेशित गैसों से बनते हैं। इनके अंदर इतनी गर्मी और दबाव होता है कि हाइड्रोजन जैसे हल्के एटमी तत्व हीलियम जैसे भारी तत्वों से टकराते रहते हैं। इनके अंदर होने वाले न्यूक्लियर फ्यूजन से ही सितारे चमकते हैं। और एक ऐसा सितारा जो दिन भर हमारे सामने चमकता रहता है, वह है सूरज, क्योंकि वो हमारे काफी करीब है, इसलिए इसका वैज्ञानिक विस्तार से अध्ययन कर पा रहे हैं। पृथ्वी की तुलना में सूरज बहुत विशाल है, लेकिन बाकी सितारों की तुलना में यह बहुत छोटा है।खगोलगविदों ने सितारों को उनकी चमक और रोशनी के रंग के हिसाब से विभिन्न समूहों में बांटा है। ज्यादातर सितारे मेन स्ट्रीम यानी मुख्य क्रम का हिस्सा हैं। मध्य में हमारा सूरज है। इस तरह, वह एक सामान्य सितारा है। लाल छोटे सितारे सबसे छोटे समूह में शामिल हैं, चूंकि इनमें मौजूद हाइड्रोजन धीरे धीरे जलती है, इसलिए उनकी उम्र खरबों साल तक हो सकती है। इसके विपरीत, हमारा सूरज महज 12 अरब सालों तक ही चमक सकेगा।अब तक खोजा गया जो सबसे भारी सितारा है सूरज से 260 गुना भारी और एक करोड़ गुना ज्यादा चमकदार है। जब इसका सारा ईंधन जल जाएगा तो हो सकता है कि वह सुपरनोवा की तरह यह खत्म हो जाएगा। या फिर ब्लैक होल भी बन सकता है। उससे निकलने वाले परमाणु तत्व अंतरिक्ष में फैल जाएंगे। माना जाता है कि ग्रहों और जीवित प्राणियों को बनाने वाली सामग्री, जैसे कि हमारे खून में मौजूद आयरन भी सितारों से ही दुनिया में आया है। सूरज की रोशनी और गर्मी के बिना हमारी धरती एक मुर्दाघर होती। सूरज हमें जिंदगी देता है और हमारी आंखों को सुकून भी। सैटेलाइट से मिली तस्वीरें बताती हैं कि सूरज किस कदर उबल रहा है। यह विद्युत आवेशित तत्वों के बादल अंतरिक्ष में फेंकता रहता है। ये सौर तूफान हमारी धरती तक भी आते हैं। पोलर लाइट्स इन्हीं का नतीजा हैं। सूरज के कण संवेदनशील तकनीक और जीवित प्राणियों के लिए खतरा भी बन सकते हैं। बड़ी बड़ी दूरबीनों से वैज्ञानिक सुदूर सितारों के चुंबकीय क्षेत्रों पर रिसर्च कर रहे हैं। इन चुंबकीय क्षेत्रों और उनसे जुड़ी जानकारी से सितारों के आसपास की परिस्थितियों को बेहतर रूप से समझने में मदद मिलती है। इससे यह भी पता चलेगा कि क्या कहीं दूर इंसानों के रहने लायक पृथ्वी जैसा कोई दूसरा ग्रह भी है। (रिपोर्ट: कॉर्नेलिया बोरमन/आईबी)
- इंपीरियल कॉलेज लंदन के वैज्ञानिकों ने कहा है कि मैजिक मशरूम में पाया जाने वाला साइकेडेलिक कंपाउंड साइलोसाइबिन डिप्रेशन के इलाज में मदद कर सकता है। इसका असर डिप्रेशन दूर करने वाली दवाओं की ही तरह होता है।ब्रिटिश शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया है कि में पाया जाने वाला साइकेडेलिक कंपाउंड डिप्रेशन के इलाज के लिए पारंपरिक दवाओं की तरह ही उपयोगी है। इंपीरियल कॉलेज लंदन के वैज्ञानिकों ने कहा कि साइलोसाइबिन भी एस्किटालोप्राम की तरह उपयोगी है। एस्किटालोप्राम का इस्तेमाल डिप्रेशन के इलाज में व्यापक तौर पर किया जाता है। वैज्ञानिकों की यह खोज न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित हुई है। इसमें यह भी संकेत दिया गया है कि मैजिक मशरूम के इस्तेमाल से स्वास्थ्य में बेहतर सुधार हो सकता है।रॉबिन कारहार्ट-हैरिस इंपीरियल कॉलेज में सेंटर फॉर साइकेडेलिक रिसर्च के प्रमुख हैं। उन्होंने रॉयटर्स से बात करते हुए कहा कि इस शोध से पता चलता है कि "नियमित तौर पर साइलोसाइबिन थेरेपी से पारंपरिक इलाज की तुलना में ज्यादा फायदा मिलता है।" हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि इसे लेकर अभी और अध्ययन करने की जरूरत है। अभी इस अध्ययन में सिर्फ 59 ऐसे लोगों का नमूना लिया गया है जो थोड़े बहुत या गंभीर स्तर पर डिप्रेशन से पीडि़त थे।परीक्षण में क्या शामिल था?इस परीक्षण में शामिल होने वालों को इलाज के तौर पर या तो साइलोसाइबिन की खुराक दी गई या एस्किटालोप्राम की। साथ ही, या तो प्लेसीबो दिया गया था या बहुत कम मात्रा में साइलोसाइबिन। इसके बाद, नींद, उर्जा, भूख, मनोदशा और आत्मघाती विचारों जैसे कई विषयों पर सवाल-जवाब किए गए। यह ऐसा पहला अध्ययन है जिसमें डिप्रेशन के पारंपरिक इलाज की तुलना साइकेडेलिक परीक्षण साथ छह हफ्तों से ज्यादा समय तक की गई. अध्ययन के दौरान, जब काम और सामाजिक क्रियाकलापों, मानसिक स्थिति बेहतर होने, और खुद को खुश महसूस करने की बात आई, तो साइकेडेलिक दवा का असर बेहतर देखा गया।इलाज के नतीजों को इस तरह से परिभाषित किया गया कि साइलोसाइबिन वाले समूह में 70 प्रतिशत लोगों में डिप्रेशन के स्तर में कम से कम 50 प्रतिशत की कमी देखी गई। वहीं, एस्किटालोप्राम समूह में यह 48 प्रतिशत रहा। नतीजों में यह भी दिखा कि साइलोसाइबिन वाले समूह में डिप्रेशन के लक्षणों में 57 प्रतिशत की कमी देखी गई, जबकि एस्किटालोप्राम समूह में यह 28 प्रतिशत रहा. यह स्कोर छठे सप्ताह में 0 से 5 के तौर पर मापा गया।मानसिक समस्याओं के इलाज के लिए इसका क्या मतलब है?कारहार्ट-हैरिस कहते हैं कि यह शुरुआती खोज के नतीजे हैं। ऐसे में डिप्रेशन के रोगियों को मैजिक मशरूम के इस्तेमाल से खुद अपना इलाज करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। वह कहते हैं, "यह एक गलत फैसला होगा।" न्यूरोपैसाइकोफार्माकोलॉजी के प्रोफेसर डेविड नट भी इंपीरियल कॉलेज की टीम में शामिल हैं। यह टीम पिछले कई सालों से साइलोसाइबिन की क्षमताओं का पता लगा रही है। यह नया अध्ययन दो चिकित्सकों और प्रयोगशाला में तैयार खुराक की मदद से पूरी तरह से नियंत्रित परिस्थितियों में किया गया था। 2016 में इस टीम ने एक छोटा अध्ययन प्रकाशित किया था. उस अध्ययन में भी बताया गया था कि साइलोसाइबिन की मदद से डिप्रेशन के लक्षणों को कम किया जा सकता है। (साभार-आरआर/वीरे (रॉयटर्स))
- ऋग्वेद सनातन धर्म अथवा हिन्दू धर्म का स्रोत है । इसमें 1028 सूक्त हैं, जिनमें देवताओं की स्तुति की गई है। इस ग्रंथ में देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मंत्र हैं। यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को दुनिया के सभी इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की सबसे पहली रचना मानते हैं। ये दुनिया के सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है। ऋक संहिता में 10 मंडल, बालखिल्य सहित 1028 सूक्त हैं। वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद के सूक्त विविध देवताओं की स्तुति करने वाले भाव भरे गीत हैं। इनमें भक्तिभाव की प्रधानता है। यद्यपि ऋग्वेद में अन्य प्रकार के सूक्त भी हैं, परन्तु देवताओं की स्तुति करने वाले स्रोतों की प्रधानता है।ऋग्वेद सबसे प्राचीनतम वेद माना जाता है। ऋग्वेद के कई सूक्तों में विभिन्न वैदिक देवताओं की स्तुति करने वाले मंत्र हैं, यद्यपि ऋग्वेद में अन्य प्रकार के सूक्त भी हैं, परन्तु देवताओं की स्तुति करने वाले स्त्रोतों की प्रधानता है।ऋग्वेद में कुल दस मण्डल हैं और उनमें 1028 सूक्त हैं और कुल 10,580 ऋचाएं हैं। इसके दस मण्डलों में कुछ मण्डल छोटे हैं और कुछ मण्डल बड़े हैं।प्रथम और अन्तिम मण्डल, दोनों ही समान रूप से बड़े हैं। उनमें सूक्तों की संख्या भी 191 है। दूसरे मण्डल से सातवें मण्डल तक का अंश ऋग्वेद का श्रेष्ठ भाग है, उसका हृदय है। आठवें मण्डल और प्रथम मण्डल के प्रारम्भिक पचास सूक्तों में समानता है।ऋक्ष शब्द ऋग्वेद में एक बार तथा परवर्ती वैदिक साहित्य में कदाचित ही प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में यातुधानों को यज्ञों में बाधा डालने वाला तथा पवित्रात्माओं को कष्ट पहुंचाने वाला कहा गया है। नवां मण्डल सोम से सम्बन्धित होने से पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। यह नवां मण्डल आठ मण्डलों में सम्मिलित सोम सम्बन्धी सूक्तों का संग्रह है, इसमें नवीन सूक्तों की रचना नहीं है। दसवें मण्डल में प्रथम मण्डल की सूक्त संख्याओं को ही बनाये रखा गया है। पर इस मण्डल का विषय, कथा, भाषा आदि सभी परिवर्तीकरण की रचनाएं हैं। ऋग्वेद के मन्त्रों या ऋचाओं की रचना किसी एक ऋषि ने एक निश्चित अवधि में नहीं की, अपितु विभिन्न काल में विभिन्न ऋषियों द्वारा ये रची और संकलित की गयीं। ऋग्वेद के मंत्र स्तुति मन्त्र होने से ऋग्वेद का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व अधिक है। चारों वेदों में सर्वाधिक प्राचीन वेद ऋग्वेद से आर्यों की राजनीतिक प्रणाली एवं इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। ऋग्वेद अर्थात ऐसा ज्ञान, जो ऋचाओं में बद्ध हो।ऋग्वेद में दो प्रकार के विभाग मिलते हैं-अष्टक क्रम - इसमें समस्त ग्रंथ आठ अष्टकों तथा प्रत्येक अष्टक आठ अध्यायों में विभाजित है। प्रत्येक अध्याय वर्गो में विभक्त है। समस्त वर्गो की संख्या 2006 है।मण्डलक्रम - इस क्रम में समस्त ग्रन्थ 10 मण्डलों में विभाजित है। मण्डल अनुवाक, अनुवाक सूक्त तथा सूक्त मंत्र या ऋचाओं में विभाजित है। दशों मण्डलों में 85 अनुवाक, 1028 सूक्त हैं। इनके अतिरिक्त 11 बालखिल्य सूक्त हैं। ऋग्वेद के समस्य सूक्तों के ऋचाओं (मंत्रों) की संख्या 10 हजार 600 है। सूक्तों के पुरुष रचयिताओं में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज और वसिष्ठ तथा स्त्री रचयिताओं में लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, विश्वरा, सिकता, शचीपौलोमी और कक्षावृत्ति प्रमुख है। इनमें लोपामुद्रा प्रमुख थी। वह क्षत्रीय वर्ण की थी किन्तु उनकी शादी अगस्त्य ऋषि से हुयी थी। ऋग्वेद के दूसरे एवं सातवें मण्डल की ऋचाएंं सर्वाधिक प्राचीन हैं, जबकि पहला एवं दसवां मण्डल अन्त में जोड़ा गया है। ऋग्वेद के आठवें मण्डल में मिली हस्तलिखित प्रतियों के परिशिष्ट को 'खिल' कहा गया है।--
- दुनिया के लगभग हर देश में, हर कोने में भारतीय रहते हैं। कुछ-कुछ देश तो ऐसे हैं जहां भारतीयों की आबादी बहुत ज्यादा है। ऐसे देशों को अगर हम 'मिनी हिंदुस्तान' कहें तो गलत नहीं होगा। दक्षिण प्रशांत महासागर के मेलानेशिया में भी ऐसा ही एक द्वीपीय देश है, जहां की करीब 37 फीसदी आबादी भारतीय है और वो सैकड़ों साल से इस देश में रहते चले आ रहे हैं। यही वजह है कि यहां की राजभाषा में हिंदी भी शामिल है, जो अवधी के रूप में विकसित हुई है।इस देश का नाम है फिजी। यहां प्रचुर मात्रा में वन, खनिज और जलीय स्रोत हैं। यही वजह है कि फिजी को प्रशांत महासागर के द्वीपों मे सबसे उन्नत राष्ट्र माना जाता है। यहां विदेशी मुद्रा का सबसे बड़ा स्त्रोत पर्यटन और चीनी का निर्यात है। फिजी द्वीप समूह अपने द्वीपों की खूबसूरती की वजह से ही दुनियाभर में मशहूर है और इसी वजह से बड़ी संख्या में लोग यहां घूमने भी आते हैं।ब्रिटेन ने वर्ष 1874 में इस द्वीप को अपने नियंत्रण में लेकर इसे अपना एक उपनिवेश बना लिया था। इसके बाद वो हजारों भारतीय मजदूरों को यहां पांच साल केअनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) पर गन्ने के खेतों में काम करने के लिए ले आए थे और उनके सामने ये शर्त रख दी थी कि पांच साल पूरा होने के बाद अगर वो जाना चाहें तो जा सकते हैं, लेकिन अपने खर्चों पर और अगर वो पांच साल और काम करते हैं तो उसके बाद उन्हें ब्रिटिश जहाज भारत पहुंचाएंगे। ऐसे में ज्यादातर मजदूरों ने काम करना ही उचित समझा था, लेकिन बाद में वो भारत लौट नहीं पाए और फिजी के ही होकर रह गए। हालांकि 1920 और 1930 के दशक में हजारों भारतीय स्वेच्छा से आकर भी यहां बस गए थे।फिजी द्वीपसमूह में कुल 322 द्वीप हैं, जिनमें से 106 द्वीप ही स्थायी रूप से बसे हुए हैं। यहां के दो प्रमुख द्वीप विती लेवु और वनुआ लेवु हैं, जिन पर इस देश की लगभग 87 फीसदी आबादी निवास करती है। फिजी के अधिकांश द्वीपों का निर्माण 15 करोड़ साल पहले ज्वालामुखीय विस्फोटों के कारण हुआ है। यहां अभी भी कई ऐसे द्वीप हैं, जहां अक्सर ज्वालामुखी विस्फोट होते रहते हैं।बड़ी संख्या में भारतीयों के होने की वजह से इस देश में कई हिंदू मंदिर भी हैं। यहां का सबसे बड़ा मंदिर नादी शहर में स्थित है, जिसे श्री शिव सुब्रमन्या हिंदू मंदिर के नाम से जाना जाता है। फिजी में रहने वाले हिंदू हिंदुस्तान की तरह ही रामनवमी, होली और दिवाली जैसे त्योहार भी मनाते हैं।यहां के द्वीपों पर हुई खुदाई से पता चलता है कि 1000 ईसा पूर्व के आसपास भी फिजी में लोग रहा करते थे। हालांकि उनके बारे में कोई खास जानकारी उपलब्ध नहीं है। कहते हैं कि प्राचीन फिजी में रहने वाले आदिवासी आदमखोर (नरभक्षी) थे। हालांकि वो युद्ध में मरने वाले लोगों का ही मांस खाते थे, कुदरती तौर पर मरने वालों का नहीं।
- हवाई जहाज का आविष्कार राइट बंधुओं ने साल 1903 में किया था और इंसान का आसमान की ऊंचाइयों को छुने का सपना साकार हुआ था। हालांकि, कुछ-कुछ लोग ये भी कहते हैं कि राइट बंधुओं से आठ साल पहले यानी साल 1895 में मुंबई के रहने वाले शिवकर बापूजी तलपड़े ये कमाल कर चुके थे, लेकिन उनकी उपलब्धि इतिहास के पन्नों में कहीं खो गई। आज हम आपको हवाई जहाज की लाइट्स से जुड़े कुछ ऐसे रोचक तथ्य बताने जा रहे हैं, जिनके बारे में जानकर आप हैरान रह जाएंगे।टैक्सी लाइटहवाई जहाज में यह ऐसी लाइट होती है, जो जहाज के टैक्सी मोड यानी जमीन पर दौड़ते हुए प्रयोग की जाती। 150 वोल्ट्स की इस लाइट की मदद से रनवे को देखा जाता है। हवाई जहाज को जैसे ही टैक्सी क्लेरेंस मिलता है, पायलट टैक्सी लाइट को जला देता है। इससे रनवे पर लगी लाइट्स चमकने लगती हैं और पायलट को देखने में मदद मिलती है।टेक ऑफ लाइटहवाई जहाज में टैक्सी लाइट के साथ टेक ऑफ लाइट भी लगी होती है। टैक्सी लाइट की अपेक्षा ये लाइट काफी चमकीली होती हैं और हवाई जहाज के टेक ऑफ के समय ही जलाई जाती है।रनवे टर्न ऑफ लाइटहवाई जहाज में टैक्सी लाइट और टेक ऑफ लाइट के अलावा एक अलग किस्म की भी लाइट होती है, जिसे रनवे टर्न ऑफ लाइट कहते है। इसका एंगल और भी चौड़ा होता है। इस लाइट के मदद से पायलट रनवे को पूरे सही तरह से देख पाते हैं।विंग स्कैन लाइटहवाई जहाज का सबसे संवेदनशील हिस्सा उसका पंख होता है और इसे सुरक्षित रखना बहुत जरूरी होता है। इसी उद्देश्य से विंग पर लाइट्स लगाई जाती हैं, ताकि टेक ऑफ के समय अंधेरे में भी पायलट को जहाज की पूरी आकृति स्पष्ट समझ में आ सके। वहीं बादलों के बीच उड़ते समय पायलट इन्हीं लाइट्स की मदद से यह देख पाते हैं कि कहीं पंखों पर बर्फ तो नहीं जमी है या फिर कुछ हुआ तो नहीं है।एंटी कोलिजन बीकनहवाई जहाज की एंटी कोलिजन बीकन लाइट जमीन पर साफ-सफाई या देख-रेख करने वाले क्रू के लिए मददगार होती हैं। चमकीले नारंगी रंग की ये लाइट्स पहले इंजन के शुरू होने के साथ जलाई जाती हैं और आखिरी इंजन के बंद होने के साथ बंद की जाती है। ऐसा इसलिए किया जाता है, ताकि ग्राउंड क्रू को पता चल सके की अब हवाई जहाज पूरी तरह से बंद हो गया है।लैंडिंग लाइटहवाई जहाज को लैंडिंग कराते समय आसमान और रनवे को सफाई से देखने के लिए लैंडिंग लाइट का इस्तेमाल किया जाता है। सफेद रंग की इस लाइट का प्रयोग ऐसे रनवे पर रोशनी देने के लिए किया जाता है, जहां लाइटिंग कम होती है। ये लाइट्स कभी पंखों के नीचे, कभी पंख की बाहरी सतह पर तो कभी कहीं और लगी होती हैं। इतना ही नहीं कई जहाजों में तो कई जगहों पर लैंडिंग लाइट्स लगी होती हैं।नेविगेशन लाइटनेविगेशन के लिए 3 लाइट्स लगी होती हैं। इस लाइट का इस्तेमाल उड़ते हुए हवाई जहाज की दिशा निर्धारित करने के लिए किया जाता है। पायलट की तरफ लगी लाइट हरी रोशनी में चमकती है, दूसरी तरफ लगी लाल रंग की और हवाई जहाज की पूंछ में लगी लाइट सफेद रोशनी देती है। इन लाइट्स के पोजिशन के हिसाब से दूसरे हवाई जहाज के पायलट के लिए यह समझना आसान हो जाता है कि सामने नजर आ रहा हवाई जहाज कौन सी दिशा में उड़ रहा है।हाई इंटेंसिटी स्ट्रोब लाइटयह लाइट नेविगेशन वाली लाल और हरी लाइट्स के नीचे लगी होती हैं। स्ट्रोब लाइट की रोशनी काफी चमकीली होती है। इस लाइट का इस्तेमाल हवाई जहाज को और भी सदृश्य बनाने के लिए किया जाता है।लोगो लाइटहवाई जहाज के संचालन करने वाली हर कंपनी का अपना एक लोगो होता है। लोगो लाइट्स उसी लोगो को उभार कर दिखाने के लिए लगी होती हैं। इसके दो फायदे हैं, पहला ये कि देखते की समझ में आ जाता है कि कौन की कंपनी का हवाई जहाज उड़ रहा है और दूसरा बड़े पोस्टरों की तरह कंपनी का प्रचार भी होता है।
- रियल डॉल नामक अमेरिका की एक कंपनी बेहद वास्तविक महिला रोबोट्स बनाने के लिए काफी मशहूर है। इस कंपनी ने इंस्टाग्राम पर एक महिला रोबोट की तस्वीर साझा की है, जिसे देखने के बाद कई फॉलोअर्स हैरत में पड़ गए। क्योंकि ये रोबोट बिल्कुल असली महिला की तरह दिख रही है और इसके हाव-भाव भी इंसानों की तरह है। कंपनी ने इस रोबोट का नाम 'ओलिविया' रखा है।इंस्टाग्राम पर ओलिविया की तस्वीरों को देख कई फैंस को ऐसा लगा कि रियल डॉल कंपनी ने एक महिला का फोटो शेयर किया है, जो काफी इमोशनल है। लेकिन फॉलोअर्स को जब ओलिविया की सच्चाई पता चली, तो वो दंग रह गए। बता दें कि रियल डॉल कंपनी अपने रोबोट्स को आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस सॉफ्टवेयर एक्स-मोड के मदद से तैयार करती है।कंपनी ने अपने वेबसाइट पर पोस्ट करते हुए लिखा है कि एक्स मोड जैसे बेहतरीन एआई सॉफ्टवेयर की मौजूदगी के साथ ही साथ हम इन डॉल्स में एक मोड्यूलर हेड सिस्टम का इस्तेमाल करते हैं।कंपनी के मुताबिक, इस मॉड्यूलर हेड सिस्टम के कारण ये डॉल्स अपने हाव-भाव बदल सकती हैं और अपना सिर भी हिला सकती हैं। इतना ही नहीं ये डॉल्स इसांनों की तरह बात भी कर सकती हैं। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि रियल डॉल कंपनी की रोबोट्स अपनी आंखें घुमा सकती हैं और पलकें भी झपका सकती हैं। कंपनी का दावा है कि इससे पहले ऐसा फीचर किसी और रोबोट में नहीं उपलब्ध था।बता दें कि एआई सॉफ्टवेयर एक्स-मोड एक बेहद एडवांस सॉफ्टवेयर है और इस सॉफ्टवेयर की मदद से ही रियल डॉल कंपनी अपने रोबोट्स को डिजाइन करती है। इन रोबोट्स की यूनिक पर्सनैलिटी भी बनाई जा सकती है और आवाज को भी कंट्रोल किया जा सकता है।-File photo