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- क्या आपको मालूम है दुनिया में सबसे बड़ी जीव कही जाने वाली ब्लू व्हेल का दिल कितना बड़ा होता है? क्या ये वास्तव किसी छोटी मारुति 800 या अल्टो कार जितना लंबा-चौड़ा होता है। इसका वजन कितना होता है. कई लोगों के लिए भी इसे मिलकर उठाना बहुत मुश्किल होता है। ब्लू व्हेल के दिल के बारे में जानकर आप हैरान हो जाएंगे।दुनिया में जितने भी जीव-जंतु हैं. उनमें सबसे भारी और विशालकाय ब्लू व्हेल होती है। आप हैरान हो जाएंगे अगर उसके दिल यानि हृदय की लंबाई-चौड़ाई और वजन के बारे में जानेंगे। कुल मिलाकर ये मान लीजिए कि उसका दिल दुनिया में सबसे बड़ा दिल होता है। हालांकि कुछ लोगों का कहना था कि ब्लू व्हेल का दिल बिल्कुल वॉक्सवैगन बीटल्स कार के बराबर होता है यानि 14 फीट लंबा, 06 फीट चौड़ा और 05 फीट ऊंचा।इसके बाद साइंटिस्ट ने इसके दिल की माप की कि ये असल में कितना बड़ा होता है। ये कतई आसान नहीं था। हालांकि ब्लू व्हेल का एक दिल कनाडा में टोरंटो स्थित रॉयल ओंटेरियो म्युजियम में रखा है। इसका दिल 05 फीट लंबा, 04 फीट चौड़ा और पांच फीट ऊंचा होता है। इसका वजन करीब 190 किलो के आसपास होता ह। यानि कि अगर 04-05 मनुष्य एक साथ खड़े हो जाएं तो उन्हें जोड़कर जो माप आएगी, वो ब्लू व्हेल के दिल के बराबर होगी।व्हेल का वजन आमतौर 40 हजार पाउंड माना जाता है। अगर उसका दिल 400 पाउंड का है तो इसका मतलब ये हुआ दिल का वजन उसके कुल वजन का 01 फीसदी होता है। हालांकि इतना बड़ा दिल इस धरती पर किसी जीव-जंतु का नहीं होता। अफ्रीकन हाथी को फिलहाल जमीन पर रहने वाला सबसे लंबा-चौड़ा जानवर माना जाता है, इसका गोलाकार हृदय 30 पाउंड यानि करीब 13.6 किलो का होता है। यानि व्हेल का दिल हाथी के हृदय से 14 गुना ज्यादा भारी होता है ।क्या आपको मालूम है कि एक मनुष्य के दिल का वजन कितना होता है। ये करीब 10 औंस के बराबर होता है यानि 283 ग्राम अगर किलो की बात करें तो एक पाव से थोड़ा ज्यादा। यानि व्हेल के दिल का वजन मनुष्य के दिल की तुलना में 640 गुना ज्यादा होता है।ब्लू व्हेल का वजन सामान्य तौर पर 150 टन से 200 टन के बीच होता है। आकार में डायनासोर भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते। एक बड़ी ब्लू व्हेल की लंबाई 30 मीटर यानि 98 फीट के आसपास होती है-मतलब बोइंग 737 के करीब बराबर। जब व्हेल का बच्चा पैदा होता है तो ये वजन में 02-03 टन का होता है तो लंबाई में करीब 08 मीटर का। ब्लू व्हेल तकरीबन दुनिया के सभी महासागरों में मिलती है। ये हर साल हजारों मील की यात्रा करती हैं। हां इनका दिमाग बहुत छोटा होता है। ये करीब 06 किलो का होता है जबकि मनुष्य का दिमाग करीब 1.4 किलो का। चूंकि व्हेल सबसे ज्यादा आक्सीजन लेती है, लिहाजा उसके फेफड़े भी सबसे बड़े होते हैं। इसकी क्षमता 5 हजार लीटर की होती है।व्हेल की पूंछ करीब 7.6 मीटर की होती है यानि बड़ी डबल डेकर बसों जैसी। मोटे तौर पर एक व्हेल मछली एक बोइंग 737 के बराबर होती है। इसमें तीन से चार डबल डेकर बसें समा सकती हैं। 5 बड़े अफ्रीकन हाथी अगर एक लाइन से खड़े कर दिए जाएं तो इसके बराबर होंगे। 11 कारें इसमें समा सकती हैं। अब अगर इसके वजन की बात करें तो वजन में ये 04 बोइंग 737 के बराबर होती है तो 15 डबल डेकर बसों, 40 अफ्रीकी हाथियों, 270 कारों और 3333 मनुष्यों के वजन के बराबर है।--
- नई दिल्ली। अब तक आपने एक से बढ़ कर एक रेसिंग कारें देखी है लेकिन दुनिया की पहली फ्लाइंग रेस कार ने आकार ले लिया है। ऑस्ट्रेलियाई कंपनी ने दुनिया की पहली उडऩे वाली रेसिंग कार अलउदा एमके-3 की उड़ान का सफल परीक्षण किया है। यह कार 0-100 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार को महज 2.8 सेकेंड में पूरा करने में सक्षम है। बता दें कि विश्व में बहुत सारे निर्माता पहले से ही इस पर काम कर रहे हैं।यह कार वस्तुओं का पता लगाने के लिए रडार और लिडार दोनों से लेस है। इस साल फ्लाइंग रेस प्रतियोगिता तीन जगहों पर आयोजित की जाएगी, हालांकि इसका खुलासा अभी नहीं किया गया है, लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि अलउदा एमके-3 इसमें सबसे पसंदीदा रेसिंग कार बन सकती है।इन खूबियों से भरपूर वाहन : एमके-3 एक 130 किलो का वाहन है जिसमें चार्जिंग के लिए रिमूवेबल बैटरी भी है। यह केवल 2.8 सेकंड में 0 से 100 किमी की रफ्तार पकडऩे में सक्षम है और एक बार चार्ज करने पर लगभग 10-15 मिनट तक उड़ सकती है। इससे पहले इस साल फरवरी में अलउदा को दुनिया के सामने पहली बार पेश किया गया था। अलउदा को दूर से एक सिमुलेटर के जरिये कंट्रोल किया जाता है।उडऩे वाली कारों की होगी रेसिंगइस वक्त जहां ऑटोमोबाइल सेक्टर में जहां कई रेसिंग कारों ने तहलका मचा रखा है वहीं, जल्द ही उडऩे वाली कारें रेसिंग कारों के रूप में सफल हो सकती हैं। अलउदा पहली इलेक्ट्रिक फ्लाइंग रेस कार है। यानी यह न केवल तेज होगी बल्कि प्रदूषण भी नहीं फैलाएगी।
- नयी दिल्ली। रोगियों अथवा किसी की भी देखभाल करना कभी आसान नहीं होता और बात जब ऐसी महामारी की हो जहां देखभाल करने वाले खुद ही अस्वस्थ हों या उनके संक्रमण की चपेट में आने का खतरा हो तो न केवल शारीरिक बल्कि भावनात्मक और मानसिक तनाव भी बढ़ जाता है। कोविड-19 महामारी की दूसरी भयावह लहर के दौरान देश के कई हिस्सों में संक्रमण फैलने पर बीमार लोगों की देखभाल करने वालों पर दबाव बढ़ गया चाहे वे पति/पत्नी हों, बच्चे हों या माता-पिता और वे अब भी इस बीमारी के तनाव से जूझ रहे हैं। खुद अस्वस्थ होने के बावजूद देखभाल करने वाले लोगों को हफ्तों तक अपने परिवार के मरीजों के लिए खाना पकाना पड़ा और घर की साफ-सफाई करनी पड़ी और सबसे बड़ी बात उन्हें सब कुछ इतनी सावधानी से करना पड़ा कि वे खुद संक्रमित न हो जाए। महामारी की दूसरी लहर के दौरान देश भर में लोग अस्पताल में बिस्तरों, दवाईयों और चिकित्सकीय ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे थे। ऐसे में कोरोना से संक्रमित होने के बावजूद कई लोगों ने अपने परिवार के ऐसे सदस्यों की देखभाल की, जिनकी हालत गंभीर थी। अपने पिता मधुकर के कोरोना वायरस से संक्रमित पाए जाने के बाद 34 वर्षीय भूषण शिंदे ने कहा, ‘‘कोविड-19 से संक्रमित मरीज की देखभाल करने के दौरान सबसे बड़ी चुनौती उथल-पुथल की स्थिति में भी दिमाग शांत रखना है।' बीमारी के संक्रामक होने के कारण संक्रमित व्यक्ति को पृथकवास में रहना पड़ता है, जिसके कारण कोई दोस्त या परिवार के सदस्य के मदद न कर पाने के कारण मानसिक दबाव बढ़ता है। मुंबई में रहने वाले भूषण ने कहा कि उन्हें और उनके पिता दोनों को ही बुखार, खांसी और बदन दर्द के हल्के लक्षण दिखने शुरू हुए थे लेकिन जल्द ही उनके 65 वर्षीय पिता की हालत बिगड़ने लगी। बाद में उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनके लिए सबसे तनावपूर्ण वह दौर रहा जब उन्हें रेमडेसिविर इंजेक्शन के लिए भागदौड़ करनी पड़ी और वह भी न केवल अपने पिता के इलाज के लिए बल्कि अपने 83 वर्षीय अंकल और एक रिश्तेदार के लिए भी जो उसी वक्त बीमार पड़े थे। उन्होंने कहा, ‘‘रेमडेसिविर की व्यवस्था करने की भागदौड़ में मुझे अपनी शारीरिक और मानसिक स्थिति को दरकिनार रखना पड़ा और इसका असर मेरे शरीर पर पड़ा।'' इस बात को दो महीने बीत चुके हैं लेकिन संघर्ष अब भी जारी है। भूषण और मधुकर कोविड-19 के बाद होने वाली स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझ रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘‘एक दिन आपको अच्छा महसूस होता है और फिर अगले दो-तीन दिन आप बीमार और कमजोर महसूस करते हो। कई बार मुझे लगता है कि यह बीमारी मेरे धैर्य की परीक्षा ले रही है।'' कोविड-19 विशेषज्ञ सुचिन बजाज सलाह देते हैं कि जब हालात ठीक हो जाएं तो देखभाल करने वाले लोगों को आराम करना चाहिए। दिल्ली में उजाला सिग्नस ग्रुप हॉस्पिटल्स के संस्थापक बजाज ने कहा, ‘‘ महामारी की दूसरी लहर के दौरान ऐसे कई जगह देखने को मिला, जहां कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों की देखभाल करने वाले स्वयं संक्रमित हो गए और फिर उनकी देखभाल परिवार के अन्य संक्रमित मरीजों को करनी पड़ी। ऐसे कई जगह हुआ, जहां पूरा परिवार ही संक्रमित हो गया।'' बजाज ने कहा, ‘‘जरूरत से ज्यादा काम का बोझ मत डालो और याद रखिए कि आप कोई सुपरमैन या सुपरवुमैन नहीं हैं तथा सबसे ज्यादा यह याद रखिए कि इसके लिए खुद को जिम्मेदार न ठहराए।'' दवा कंपनी मर्क द्वारा सितंबर-अक्टूबर 2020 में किए एक अध्ययन के अनुसार, करीब 39 प्रतिशत भारतीय युवा आबादी ने पहली बार महामारी के दौरान बीमार लोगों की देखभाल की। कोविड-19 के मरीजों की देखभाल करने वालों में अधिकतर युवा शामिल थे। ऐसे कार्य करने का उनके पास कोई अनुभव नहीं था। यह महामारी अचानक आई, जिसके लिए उन्हें तैयारी करने का भी समय नहीं मिला।मनोचिकित्सक ज्योति कपूर ने कहा कि बीमारी से जूझने का संघर्ष कहीं ज्यादा वक्त तक रह सकता है। उन्होंने कहा, ‘‘इसका देखभाल करने वाले लोगों पर कहीं ज्यादा मनोवैज्ञानिक असर पड़ा है। कोविड मरीजों में तनाव बढ़ने, पैनिक अटैक और मनोविकृति के मामले बढ़ गए हैं।'' मरीजों की देखभाल करने वाले कई लोगों ने अपने हरसंभव प्रयासों के बावजूद इस महामारी के कारण अपने प्रियजनों को खो दिया है और चिकित्सकों ने उन्हें सलाह दी है कि इसके लिए वह खुद को जिम्मेदार नहीं ठहराएं।मनोचिकित्सक ने कहा, “ मनोवैज्ञानिक तनाव को कम करने के लिए मुझसे सलाह लेने वाली 26 साल की एक महिला ने करीब एक माह पहले कोविड-19 के कारण अपने पिता को खो दिया। लेकिन अब भी अस्पतालों में चिकित्सा उपकरणों की आवाज सुनकर वह घबरा जाती है।” दिल्ली में रहने वाली मानसी अरोड़ा और उनके पति अक्सर इस बारे में बात किया करते थे कि बूढ़े होने पर वे किस तरह से अपने माता-पिता की सेवा करेंगे। लेकिन कोविड-19 उनके परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ बनकर टूटा। मानसी के ससुर और सास दोनों ही कोरोना से संक्रमित हो गए। इसके बाद मानसी और उनके पति भी कोरोना से संक्रमित हो गए। दोनों के लिए वे 20 दिन बेहद तनावपूर्ण रहे जब मानसी के ससुर को दिल्ली में एक कोविड केयर केन्द्र में भर्ती कराया गया और उसके बाद एक अस्पताल में ले जाया गया। मानसी ने बताया कि कोविड केयर केन्द्र में दवाईयां, ऑक्सीजन और भोजन समेत सभी सुविधाएं होने के बावजूद ऑक्सीजन पर निर्भर मरीजों को भी कई कार्य खुद ही करने पड़ते थे। मानसी ने कहा, “ इस दौरान हम कई दिनों तक नहीं सोए थे। स्वाद और गंध चले जाने के कारण भोजन करना भी एक चुनौती थी। लेकिन उस समय हमारे लिए अपने माता-पिता का स्वास्थ्य सर्वोच्च प्राथमिकता थी। मेरे पति भी कोविड केयर केन्द्र ही भर्ती हो गए और मैं घर से आवश्यक सामान लाकर उन्हें दिया करती थी। करीब 100 किलोग्राम वजन का ऑक्सीजन सिलिंडर भी हमें खुद से ही खींच कर ले जाना पड़ता था। इसके बाद सबसे भयावह दौर उस समय आया जब मेरे ससुर को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए हमें कड़ी मशक्कत करनी पड़ी।कोलकाता के रहने वाले रवि शर्मा और उनके माता-पिता भी इस लहर के दौरान कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए। 25 वर्षीय रवि ने कहा, “ मेरे माता-पिता को कुछ मीटर चलने में भी परेशानी हो रही थी, यह देखना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल था। यदि मैं स्वयं अस्वस्थ नहीं होता तो उनकी और अधिक मदद कर सकता था।” केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से बृहस्पतिवार को जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में कोविड-19 के कारण अब तक 3,91,981 लोगों की मौत हो चुकी है।
- अब मोबाइल फोन के कैमरे से भी बैक्टीरिया का पता लगाया जा सकता है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने मोबाइल कैमरे में बदलाव किया और इसे एलईडी ब्लैक लाइट से जोड़ा। इस कैमरे से इंसान की जुबान को स्कैन किया गया। इस दौरान दांतों के बैक्टीरिया चमकते हुए नजर आए। इसकी मदद से एक्ने के बैक्टीरिया भी देखे जा सकते हैं। डॉ. किंगहुआ कहते हैं, जब स्किन के घाव नहीं भरते हैं तब पोरफायरिन मॉलीक्यूल अधिकतर स्किन पर देखा जा सकता है क्योंकि कई बैक्टीरिया मौजूद होते हैं। इसे तैयार करने वाली वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों का कहना है, स्मार्टफोन दुनियाभर में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। यह लोगों के बजट में हैं और उनके लिए बैक्टीरिया की जांच करना आसान है। इस डिवाइस की मदद से घर पर लोग जान सकेंगे बैक्टीरिया है या नहीं। शोधकर्ता डॉ. रुईकैंन्ग वैंग का कहना है, स्किन और मुंह के बैक्टीरिया हमारे स्वास्थ्य पर असर डालते हैं। दांत और मुंह के मसूढ़ों के बैक्टीरिया घाव को भरने की रफ्तार को धीमा करते हैं।बैक्टीरिया का ऐसे पता लगाते हैंबैक्टीरिया की जांच के लिए 3डी रिंग वाले मोबाइल कैमरे में 10 एलईडी लाइट लगाई गईं। शोधकर्ताओं का कहना है, बैक्टीरिया खास तरह की तरंगें छोड़ता है, इसलिए यह आम मोबाइल कैमरे से पकड़ में नहीं आता। लेकिन ब्लैक एलईडी लाइट से इनकी तरंगों का पता लग जाता है। साबित हो जाता है कि बैक्टीरिया मौजूद है।स्किन पर अधिक दिखते हैं बैक्टीरियाशोधकर्ता डॉ. किंगहुआ का कहना है, एलईडी लाइट जलने पर बैक्टीरिया से निकलने वाला खास तरह का मॉलीक्यूल (पोरफायरिन) लाल चमकदार सिग्नल देता है। इसे स्मार्टफोन का कैमरा कैप्चर कर लेता है।
- इतिहास में कई ऐसे भयानक युद्ध हुए हैं, जिनमें लाखों लोगों की मौतें हुई हैं। एक ऐसे ही युद्ध की शुरुआत आज से करीब 65 साल पहले हुई थी, जिसे वियतनाम युद्ध के नाम से जाना जाता है। वियतनाम युद्ध शीतयुद्ध काल में वियतनाम, लाओस और कंबोडिया की धरती पर लड़ी गई एक भयंकर लड़ाई का नाम है। लगभग 20 साल तक चली यह लड़ाई साल 1955 में शुरू हुई थी, जो 1975 में जाकर खत्म हुई।यह युद्ध उत्तरी वियतनाम और दक्षिण वियतनाम की सरकार के बीच लड़ा गया था। इसे 'द्वितीय हिंद-चीन युद्ध' भी कहा जाता है। इस भीषण युद्ध में एक तरफ चीनी जनवादी गणराज्य और अन्य साम्यवादी देशों से समर्थन प्राप्त उत्तरी वियतनाम की सेना थी, तो दूसरी तरफ अमेरिका और मित्र देशों के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़ रही दक्षिणी वियतनाम की सेना। यह युद्ध और भी भयानक तब हो गया था जब लाओस जैसे छोटे से देश ने उत्तरी वियतनाम की सेना को अपनी धरती पर लड़ाई के लिए इजाजत दे दी।इससे अमेरिका पूरी तरह बौखला गया और उसे सबक सिखाने के लिए हवाई हमले की योजना बनाई। अमेरिकी वायुसेना ने दक्षिण पूर्व एशिया के इस छोटे से देश लाओस पर इतने बम गिराए कि कहा जाता है कि लाओस का भविष्य बारूद के ढेर के नीचे दबा हुआ है।कहते हैं कि अमेरिका ने साल 1964 से लेकर 1973 तक पूरे नौ साल लाओस में हर आठ मिनट में बम गिराए थे। एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका ने प्रतिदिन दो मिलियन डॉलर (आज के हिसाब से करीब 15 करोड़ रुपये) सिर्फ और सिर्फ लाओस पर बमबारी करने में ही खर्च किए थे।मीडिया रिपोट्र्स के मुताबिक, 1964 से 1973 तक अमेरिका ने लगभग 260 मिलियन यानी 26 करोड़ क्लस्टर बम वियतनाम पर दागे थे, जो कि इराक के ऊपर दागे गए कुल बमों से 210 मिलियन यानी 21 करोड़ अधिक हैं। एक अनुमान के मुताबिक, इस भीषण युद्ध में 30 लाख से भी अधिक लोग मारे गए थे, जिसमें 50 हजार से अधिक अमेरिका सैनिक भी शामिल हैं।कई लोगों का मानना है कि इस युद्ध में अमेरिका की हार हुई थी। हालांकि कई विशेषज्ञों का मानना है कि 20 साल तक चले इस भीषण युद्ध में किसी की भी जीत नहीं हुई। युद्ध की वजह से अमेरिकी सरकार को अपने ही लोगों और अंतरराष्ट्रीय दबाव का सामना करना पड़ा था, जिसके बाद वह युद्ध से पीछे हट गया था।साल 1973 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अपनी सेना वापस बुला ली थी। उसके बाद कम्युनिस्ट मित्रों द्वारा समर्थित उत्तरी वियतनाम की सेना ने देश के सबसे बड़े शहर साइगोन पर कब्जा जमा लिया और इसी के साथ साल 1975 में युद्ध खत्म हो गया।
- देशभर में रोजाना किसी ना किसी इलाके में मानूसन और प्री-मानसून की बरसात हो रही है। मौसम विभाग की तरफ से रोजाना बारिश का अलर्ट जारी किया जा रहा है। फिलहाल दक्षिण-पश्चिम मानसून देश के ज्यादातर इलाकों में सक्रिय हो चुका है, लेकिन उत्तरी क्षेत्रों में पहुंचने में उसकी रफ्तार कम हो गई है। हालांकि, उत्तरी क्षेत्रों में भी प्री-मानसून बरसाते हो रही हैं। नेपाल और बिहार में हुई भारी बारिश के कारण कई स्थानों पर बाढ़ जैसी स्थिति बनी हुई है, तो वहीं झारखंड, बंगाल समेत पूर्वी भारत में भारी बारिश की आशंका जताई गई है।मुंबई समेत देश में ऐसे कई इलाके हैं, जहां लगातार अधिक बारिश होने से जलभराव की समस्या हो जाती है और इससे जनजीवन काफी प्रभावित होता है। लेकिन दुनियाभर में कुछ ऐसी जगहें भी हैं जहां साल भर सबसे अधिक बारिश होती है। आज हम आपको इस लेख के माध्यम से भारत समेत दुनिया की ऐसी 5 जगहों के बारे में बताएंगे, जहां सबसे अधिक बारिश होती है।मासिनराम, मेघालयभारत के मेघालय में स्थित मासिनराम एक ऐसा गांव है, जहां दुनियाभर में सबसे अधिक बारिश होती है। मासिनराम एक पहाड़ी स्थान है, जहां हिमालय की चोटियां बंगाल की खाड़ी से आने वाले बादलों को रोक लेती हैं और ये बादल बरस जाते हैं। यहां औसतन सालाना बारिश 11,871 मिलीमीटर होती है।चेरापूंजी, मेघालयचेरापूंजी भी मेघालय में ही स्थित है, जो मासिनराम से करीब 15 किलोमीटर दूर है। चेरापूंजी दुनिया का दूसरा सबसे नम स्थान है और यहां सालाना करीब 11,777 मिलीमीटर तक बारिश होती है। गर्मी के मौसम में भी यहां का तापमान 23 डिग्री तक जाता है और मानसून आते ही जोरदार बारिश से मौसम ठंडा हो जाता है।क्रोप्प नदी, न्यूजीलैंडन्यूजीलैंड में स्थित क्रोप्प नदी 9 किलोमीटर लंबी है। वैसे इस देश में मौसम तो काफी सूखा रहता है, लेकिन क्रोप्प नदी के आसपास के इलाकों में बहुत तेज बारिश होती है। यहां सालाना 11,516 मिलीमीटर बारिश होती है।सैन एंटोनियो, अफ्रीकासैन एंटोनियो डे यूरेका को सिर्फ यूरेका गांव के नाम से भी जाना जाता है। इस गांव को दुनिया के सबसे नम गांव की लिस्ट में शामिल किया गया है। यहां सालाना 10,450 मिलीमीटर बारिश होती है।
- नयी दिल्ली। सूजन वाले गठिया के गंभीर रोग और अवसाद से उबरने में योग एक सहायक चिकित्सा पद्धति साबित हो सकता है। एक नये अध्ययन में यह दावा किया गया है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स), दिल्ली में 66 मरीजों पर 2017 और 2020 के बीच किये गये एक परीक्षण में यह पाय गया कि योग इन मामलों में रोग की गंभीरता को कम करता है और जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाता है। अध्ययन के नतीजे योग को इस गंभीर रोग के इलाज में सहायक पद्धति के रूप में अपनाने का समर्थन करता है। अध्ययन के नतीजों से यह पता चलता है कि योग के बाद रोग से उबरने में मदद मिली। मोलेक्यूलर रिप्रोडक्शन ऐंड जेनेटिक्स, शरीर रचना विज्ञान विभाग, की लैब प्रोफेसर डॉ रीमा डाडा ने बताया कि फ्रंटियर्स इन बायोसाइंस में 2021 में प्रकाशित अध्ययन में रोग से उबरने में योग की भूमिका पर बल दिया गया है। उन्होंने कहा, ‘‘इस अति विशेषज्ञता के युग में मस्तिष्क-शरीर को दुरूस्त करने की जरूरत है। योग सूजन वाले गठिया के रोगी को ठीक करने में सहायक भूमिका निभाने की अपार क्षमता रखता है।'
- कई महीनों बाद आगरा ता ताज महल पर्यटकों के लिए दोबारा खोल दिया गया है, जो दुनिया का एक अजूबा है। क्या आप दुनिया के सात अजूबों के नाम गिना सकते हैं? लीजिए, याद कर लीजिए.. वर्ष 2007 के बाद से ये हैं दुनिया के सात अजूबे, और दो बोनस अजूबे... जानें क्या हैं ये.....ताज महलसाल 2000 में एक सर्वे शुरू हुआ जो सात साल तक चला। उस पोल में करोड़ों लोगों ने हिस्सा लिया और दुनिया के 21 अजूबों में से अपनी पसंद चुनी। सर्वोच्च सात अजूबों में भारत का ताजमहल शामिल हुआ।पेट्राजॉर्डन के पेट्रा को रोज सिटी भी कहते हैं। गुलाबी पहाड़ी को काटकर बनाए गए मंदिरों और मकबरों के इस शहर को यूनेस्को ने इन्सानी सभ्यता और संस्कृति की सबसे कीमती विरासतों में से एक माना है।चीन की दीवारइंसान द्वारा बनाई गई सबसे लंबी इमारत, यह अद्भुत कृति 21 हजार 196 किलोमीटर लंबी है, लेकिन लोग कहते हैं ना कि अंतरिक्ष से सिर्फ चीन की दीवार नजर आती है, वह सच नहीं सिर्फ मिथक है।चिचेन इत्जामेक्सिको के युकातन प्रायद्वीप पर स्थित चिचेन इत्जा सीढिय़ों वाले पिरामिड के लिए मशहूर है। यह माया सभ्यता का राजनीतिक और सांस्कृति केंद्र था।माचू पीचूपेरू का माचू-पिचू प्राचीन इंका शहर में आज भी इन्सानी सभ्यता की कहानी कहता है। हालांकि पर्यटकों की बड़ी तादाद से इस इमारत को नुकसान पहुंच रहा है जो विशेषज्ञों के लिए चिंता की बात है।कोलोसियमइटली का कोलोसियम मौजूदा सात अजूबों में एकमात्र यूरोपीय इमारत है। अब इसे नया रूप दिया जा रहा है और इसका फर्श दोबारा बनाया जा रहा है।ईसा की मूरतब्राजील के रियो डे जेनेरा में खड़ी यह 30 ऊंची मूर्ति 1,145 टन वजनी है। इसकी बाहों का फैलाव 28 मीटर है। इसे 1931 में बनाया गया था।पिरामिडकभी मिस्र के पिरामिड सात अजूबों में शामिल थे लेकिन साल 2007 के बाद से नहीं। संयोगवश दुनिया के सात अजूबे गिनने की परंपरा ग्रीक इतिहासकारों ने ही शुरू की थी लेकिन यह शाहकार अब इनमें शामिल नहीं है, बल्कि पोल में इसे नौवां नंबर मिला।वहीं आठवां नंबर नोएश्वानस्टाइन कासल को मिला।जर्मनी के बवेरिया में 1869 में लुडविग द्वितीय ने यह महल बनवाया था। बहुत मामूली अंतर से यह महल सातवां अजूबा बनते बनते रह गया।-----
- पेइचिंग। चीन में धरती के सबसे बड़े स्तनधारी का 265 लाख साल पुराना अवशेष मिला है। यह जीव दिखने में आज के गैंडों की तरह था। अवशेषों का अध्ययन करने के बाद इस स्तनधारी का वजन हाथी से चार गुना ज्यादा बताया जा रहा है। आधुनिक समय के गैंडों का यह विशालकाय पूर्वज 26.5 मिलियन साल पहले चीन में घूमा करता था। चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंसेज के अनुसार, 26 फीट लंबा और 16 फीट ऊंचा यह जीव धरती का सबसे बड़ा स्तनपायी था।वैज्ञानिकों ने बताया कि Paraceratherium linxiaense नाम के इस विशाल जीव का वजन 24 टन था। यह एक अफ्रीकी हाथी से चार गुना ज्यादा भारी था। अफ्रीका के हाथियों को आज पृथ्वी पर चलने वाला सबसे बड़ा जानवर माना जाता है। 26.5 मिलियन साल पहले बिना सींग वाले ये विशालकाय शाकाहारी जानवर एशिया में घूमते थे।ये जीव पत्तियां, मुलायम पौधे और झाडिय़ों को खाने के लिए एक जंगल से दूसरे जंगल का सफर करते थे। इस विशालकाय जानवर के जीवाश्म अवशेष से पता चलता है कि इसकी गर्दन 23 फीट ऊंचे पेड़ों तक पहुंच जाती थी। जिससे यह उनकी नरम पत्तियों और टहनियों को खाता था। इस जीवाश्म की खोज चीन के गांसु में एक प्रागैतिहासिक कब्रिस्तान में की गई है।चीनी शोधकर्ताओं ने बताया कि इस विचित्र जानवर की खोपड़ी पतली थी। इसकी एक छोटी सूंड और असामान्य रूप से लंबी और मांसल गर्दन थी। यह दोस्ताना व्यवहार रखने वाला एक विशालकाय जीव था। एशियाई महाद्वीप में इन जीवों को प्रागैतिहासिक लकड़बग्घा और विशाल मगरमच्छों का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं, ये जीव हिमयुग के ठंड को भी झेले।इस रिसर्च के प्रमुख लेखक प्रोफेसर ताओ डेंग ने कहा कि इसका वजन 24 टन था, जो चार अफ्रीकी हाथियों या आठ सफेद गैंडों के कुल वजन के समान था। यह लगभग 16 फीट ऊंचा और 26 फीट लंबा है, लंबे पैर दौडऩे के लिए अच्छे थे। इसका ऊंचा सिर पेड़ के शीर्ष पर पत्तियों तक पहुंचने के लिए कुल 23 फीट तक ऊपर उठता था। प्रोफेसर डेंग ने कहा कि इसकी नाक की सूंड शाखाओं के चारों ओर लपेटने के लिए बेहद उपयोगी थी। इसके सामने के तेज दांत पत्तियों और डालियों को काट डालते थे।
- -आधुनिक जीवनशैली भी निकट दृष्टि दोष होने का एक कारण-जो बच्चे घर से बाहर अधिक समय बिताते हैं, उनमें निकट दृष्टि दोष विकसित होने की संभावना कम होती हैलंदन। ब्रिटेन के बच्चों में निकट दृष्टि दोष या मायोपिया बढ़ रहा है और पिछले 50 बरस में निकट दृष्टि दोष से पीडि़त बच्चों की संख्या दोगुनी हो गई है। दुनियाभर की बात करें तो एक अनुमान के अनुसार 2050 तक दुनिया की आधी आबादी निकट दृष्टिदोष का शिकार होगी। हालांकि निकट दृष्टि दोष के कारणों की बात की जाए तो इसका एक कारण पारिवारिक हो सकता है और दूसरा पर्यावरण से जुड़ा है, जो बच्चे के बहुत अधिक समय तक घर के भीतर रहने की वजह से हो सकता है।ज्यादातर लोगों में, निकट दृष्टि दोष आनुवांशिकी और पर्यावरणीय दोनों कारकों के मिश्रण से विकसित होता है। लेकिन ऐसे प्रमाण मिले हैं कि आधुनिक जीवनशैली भी निकट दृष्टि दोष होने का एक कारण हो सकती है। हालांकि वैज्ञानिक अभी भी पूरी तरह से निश्चित नहीं हैं कि ऐसा क्यों होता है। उदाहरण के लिए, शोध से पता चलता है कि बच्चा जितना समय घर से बाहर बिताता है, वह निकट दृष्टि दोष विकसित करने के उनके जोखिम में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। अधिकांश अध्ययनों से पता चलता है कि जो बच्चे घर से बाहर अधिक समय बिताते हैं, उनमें निकट दृष्टि दोष विकसित होने की संभावना कम होती है। इसी तरह जिन बच्चों को स्कूल के घंटों के दौरान घर से बाहर अधिक समय बिताना पड़ता है, उनमें निकट दृष्टि दोष की शुरुआत की दर घर से बाहर समय नहीं बिताने वाले बच्चों की तुलना में कम होती है। लेकिन शोधकर्ता अभी भी निश्चित नहीं हैं कि ऐसा क्यों है।एक सिद्धांत यह है कि घर के भीतर के मुकाबले बाहर के प्रकाश का उच्च स्तर हमारे रेटिना रिसेप्टर्स (आंखों में प्रकाश संकेतों को संसाधित करने वाली नसें) में अधिक डोपामाइन जारी करता है, जिससे निकट दृष्टि दोष होने की आशंका कम होती है। एक अन्य सुझाव यह है कि बच्चों द्वारा आमतौर पर घर से बाहर की जाने वाली ढेरों शारीरिक गतिविधियां उनकी आंखों में दृष्टिदोष को पनपने से रोकती हैं। हालांकि अध्ययन यह भी बताते हैं कि इसका प्रभाव बहुत ही कम होता है। यह भी सुझाव दिया गया है कि हम घर के भीतर और बाहर जो जो देखते हैं वह भी नजर कमजोर होने की एक वजह हो सकती है। उदाहरण के लिए, एक अध्ययन से पता चलता है कि घर के भीतर सादा साधारण वातावरण और दीवारें देखते रहने से दृष्टिदोष हो सकता है। हो सकता है कि शहरी क्षेत्रों में इसी वजह से निकट दृष्टि दोष अधिक आम हो । हालांकि, इसे समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है।यह सच है कि आधुनिक जीवन शैली में अक्सर हमें अपना बहुत सारा समय घर के अंदर बिताना होता है। उदाहरण के लिए, स्कूल छोडऩे की उम्र अब पहले से ज्यादा हो चुकी है और उच्च शिक्षा ग्रहण करने वालों की संख्या में भी इजाफा हुआ है, जिससे बच्चे औपचारिक शिक्षा में अधिक समय व्यतीत कर रहे हैं, जो दृष्टिदोष का एक कारण हो सकता है। यद्यपि ब्रिटेन में बच्चों पर इसके प्रभाव को लेकर अभी तक कोई अध्ययन नहीं किया गया है, लेकिन अन्य स्थानों पर पूर्व में मिले प्रारंभिक परिणाम बताते हैं कि महामारी अधिक बच्चों में दृष्टिदोष विकसित करने का कारण बन सकती है - लेकिन एक अनुमान है कि इसका प्रभाव कम ही होगा। अभी यह देखा जाना बाकी है कि क्या महामारी दृष्टिदोष में स्थायी वृद्धि का कारण बन सकती है। फिलहाल तो बच्चों में दृष्टिदोष का जोखिम कम करने के लिए सबसे अच्छी सलाह यह है कि वह दिन में कम 40 मिनट घर से बाहर बिताएं।
- कोरोना महामारी के समय में तमाम तरह की शोध चल रही हैं, उन्हीं में से एक शोध के नतीजे चौंकाने वाले रहे हैं. जानकारी के मुताबिक कैनेरीज (Canaries) नाम केपीले और नारंगी रंग के ये खूबसूरत पक्षी जब भी अपने आसपास किसी बीमार पक्षी को देखते हैं तो इनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता खुद-ब-खुद उस बीमारी के लिए सक्रिय हो जाती है. वह भी सिर्फ देखने भर से.बायोलॉजी लेटर्स पर प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक एक पक्षी ऐसा है जो अपने आसपास किसी पक्षी को सिर्फ बीमार देखता है तो उसके शरीर की इम्यूनिटी सक्रिय हो जाती है. ये अजूबे से कम नहीं है. यूनिवर्सिटी ऑफ कनेक्टीकट की डिजीस इकोलॉजिस्ट एश्ले लव कहती हैं कि यह अद्भुत खोज है. उन्होंने कहा कि कुछ पुरानी स्टडीज ये बताती है कि संभावित बीमारी के खतरे को देखकर इन पक्षियों के इम्यून सेल्स यानी प्रतिरोधक कोशिकाएं सक्रिय हो जाती हैं.एश्ले लव का कहना है कि इंसानों पर हुए एक एक्सपेरीमेंट से यह पता चलता है कि सिर्फ किसी बीमार शख्स की फोटो देखने से शरीर में इन्फ्लेमेशन स्टिमुलेटिंग केमिकल्स साइटोकाइन्स सक्रिय हो जाते हैं. शरीर में इनकी गतिविधियां बढ़ जाती हैं.एश्ले लव और उनके साथियों ने 10 कैनरीज को माइकोप्लाज्मा गैलीसेप्टीकम दिया गया. जिससे वो सुस्त हो गए. इस दौरान एक कैनरी को वायरस से संक्रमित किया गया. और बाकियों को उनके साथ छोड़ दिया गया.एश्ले लव की टीम को हैरान कर देने वाले नतीजे देखने को मिलते हैं. एक बीमार पक्षी को देखकर बाकी के 9 कैनरीज पक्षियों के शरीर में इम्यूनिटी बढ़ जाती है. बीमारी के घुसपैठ की आशंका को भांपते हुए इन कैनरीज पक्षियों के शरीर में CH50 नाम की प्रक्रिया होती है. इन 9 पक्षियों के शरीर में सफेद रक्त कोशिकाओं की मात्रा बढ़ जाती है. हालांकि इनके शरीर में साइटोकाइन्स की मात्रा में ज्यादा अंतर नहीं आता. खून की जांच में पता चलता है कि 9 स्वस्थ कैनरीज के शरीर में MG बैक्टीरिया नहीं मिला.
- जापान में ऐसी आइसक्रीम खाई जाती हैं, जो दुनिया में कहीं नहीं मिलती। आइसक्रीम के दीवाने इस देश में स्वादों की फेहरिस्त बहुत अनोखी है। ना पिघलने वाली आइसक्रीम भी है। जापान में जितनी तरह की आइसक्रीम मिलती है, उसकी लज्जत का कोई जवाब नहीं। सोया सॉस से लेकर लहसुन, ईल और शार्क के पंख जैसे फ्लेवर्स भी उपलब्ध हैं। लेकिन ना पिघलने वाली आइसक्रीम तो जापानी जीनियस का गजब ही उदाहरण है, लेकिन आइसक्रीम बनाने में जापान का कौशल यहां से तो शुरू होता है।जापान में तापमान बढऩा शुरू हो गया है और लोग उमस के लिए तैयार हो रहे हैं, लेकिन वे परेशान नहीं, खुश हैं क्योंकि आइसक्रीम खाने को मिलेगी। अब से सितंबर तक, जैसे- जैसे तापमान बढ़ेगा, जापान में आइसक्रीम की बिक्री बढ़ेगी। इस द्वीप पर आइसक्रीम 1878 में पहुंची थी जब किसी विदेशी नाविक व्यापारी ने योकोहोमा को इसका स्वाद पहली बार चखाया था, लेकिन तब से आइसक्रीम ऐसी बसी कि अब यहीं की हो गई है। इसके विशाल घरेलू ब्रैंड्स हैं जो हागेन-डाज जैसे अंतरराष्ट्रीय ब्रैंड्स को तगड़ा मुकाबला देते हैं और इसका राज है वे घरेलू नए फ्लेवर्स जो जापानियों ने तैयार किए हैं। वजह तो पता नहीं, पर ये ज्यादातर घरेलू कंपनियां ऐतिहासिक शहर कानाजावा में स्थित हैं जिसे जापान की आइसक्रीम कैपिटल भी कहते हैंकानाजावा स्थित यामाटो सोया सॉस एंड मीजो कंपनी के प्रवक्ता ईजी ताशिरो कहते हैं, "वैसे तो हम मसाले बनाने वाली कंपनी हैं लेकिन 15 साल पहले हमने कुछ अलग करने की कोशिश की हमने सोचा कि जैसे जापानी लोग पारपंरिक चीजों जैसे सोया और मीजो को पसंद करते हैं, तो क्यों ना इन्हें आइसक्रीम में डालकर देखा जाए " और नतीजा था, सोया सॉस फ्लेवर वाली वनीला आइसक्रीम. डीडब्ल्यू से बातचीत में ताशिरो ने बताया कि प्रयोग बेहद सफल रहा है वह कहते हैं, "मुझे लगता है कि पहली बार ट्राई करने पर ज्यादातर लोग हैरान होते हैं इसका स्वाद सोया सॉस जैसा तो नहीं है आइसक्रीम में यह कैरामल जैसी ज्यादा लगती है। " अपने कासल और पारंपरिक बागों के लिए मशहूर इस शहर में थोड़ा बहुत घूमकर ही पता चल जाता है कि क्यों लोग कानाजावा का नाम आइसक्रीम के साथ लेते हैं। यहां आपको आइसक्रीम मिलेगी, जिस पर स्वर्ण भस्म से लेकर होजिचा ग्रीन टी तक छिड़क कर दी जाती हैं। राइस वाइन के फ्लेवर वाली आइसक्रीम भी है और, नाकातानी तोफू कंपनी तोफू आइसक्रीम भी बनाती है। बसंत में खूब पसंद किए जाने वाला फ्लेवर है चेरी ब्लॉसम या फिर भुनी शकरकंद भी।न पिघलने वाली आइसक्रीम भी कानाजावा में ही बनाई गई थी। हालांकि यह एक हादसे के चलते हुए था। बताते हैं कि बायोथेरेपी डिवेलपमेंट रिसर्च सेंटर कंपनी और कानाजावा यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक मिलकर स्ट्रॉबरी पॉलीफिनोल पाउडर से एक कुदरती स्वास्थ्यवर्धक फ्लेवर बनाने पर काम कर रहे थे, लेकिन उन्होंने देखा कि जब इसे पानी के साथ मिलाकर जमाया गया तो जो बना उसमें और आइसक्रीम में फर्क करना मुश्किल था और यह पिघल नहीं रहा था।अप्रैल 2017 में इसे कानाजावा आइसक्रीम कंपनी ने पहली बार बाजार मे उतारा था और अब यह अलग-अलग आकारों और स्वादों में उपलब्ध है। गर्मी शुरू होते ही टोक्यो के सनशाइन सिटी में एक आइसक्रीम थीम पार्क खोला जाता है, जहां पूरे जापान के कुल्फी वाले जमा होते हैं और अपने-अपने यहां के स्वाद लेकर आते हैं जो एक दूसरे से एकदम भिन्न हैं.। जैसे कि दक्षिणी जापान की घोड़े के कच्चे मांस के फ्लेवर वाली आइसक्रीम. या फिर मध्य जापान के धान के खेतों से चावल के स्वाद वाली कुल्फी। नागोया से आती है चिकन विंग के फ्लेवर वाली आइसक्रीम। कहीं मिर्ची वाली तीखी आइसक्रीम है तो केकड़ा, झींगा, बैंगन, काली चीनी और लहसुन का स्वाद भी उपलब्ध है।--
- अभी हाल ही में अपने देश में इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च यानी आईसीएमआर ने रैपिड एंटीजन टेस्ट को मंजूरी दी थी। साथ ही एक एडवाइजरी भी जारी की थी, जिसमें मायलैब कोविड-19 होम टेस्ट को घर पर करने का तरीका और सावधानी के बारे में बताया गया था। अब एक और नई तकनीक कोरोना (कोविड-19) की जांच के लिए सामने आई है। ये तकनीक इजरायल में पेश की गई है। इजराइल के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक का विकास किया है, जिसके माध्यम से आसानी से कोरोना की जांच की जा सकती है। इस तकनीक का नाम है 'इलेक्ट्रिक नाक' । वैज्ञानिकों ने यह दावा किया है कि इस नाक के प्रयोग से 94 फीसदी तक कोरोना के सही परिणाम सामने आएंगे।कैसे काम करती है इलेक्ट्रिक नाक?बता दें कि यह तकनीक विजन इंस्टीट्यूट इजरायल के वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई है। उन्होंने जानकारी दी है कि यह एक 3 डी प्रिंटेड इलेक्ट्रॉनिक नाक है, जिसे नाक में लगाकर प्रयोग किया जा सकता है। जब कोरोना संक्रमित नाक को अपनी नाक में लगाता है तो नाक के अंदर जो रसायन मौजूद होते हैं उनकी इलेक्ट्रिक नोज जांच करके परिणाम बताता है कि मरीज सकारात्मक है या नकारात्मक। अब सवाल यह है कि वह रसायन की स्मैल को यह नोज को कैसे पहचानते हैं? बता दें कि शोधकर्ताओं के अनुसार, हर बीमारी की अपनी एक खुशबू होती है। ऐसे में उस खुशबू से शरीर के मेटाबॉलिक प्रोसेस में बदलाव होता है। इसी फार्मूले का इस्तेमाल नई जांच को तैयार करने के दौरान किया गया है। ऐसे में यह पेन नाक में वोलेटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स की जांच करने में कारगर है।यह एक लंबी ट्यूब की तरह होती है, जिसमें खास सेंसर लगे हैं। ऐसे में यह नाक के अंदर मौजूद वायरस का पता लगाती है इसलिए इसका नाम पेन 3 रखा गया है।कैसे की गई इस नई तकनीक की जांच?इस नई तकनीक की जांच के लिए 503 लोगों की मदद ली गई। उन लोगों से इलेक्ट्रिक नोज देकर सूंघने के लिए कहा गया, जिसके दौरान 27 लोगों की रिपोर्ट कोरोना वायरस पॉजिटिव आई। ये जानकारी नई तकनीक ने एक दम सटीक दी है। प्रोफेसर सोबेन के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, इस तकनीक का प्रयोग हम भीड़ वाले इलाकों में कर सकते हैं। इसके अलावा एयरपोर्ट पर भी इस तकनीक में इसका इस्तेमाल करना सुरक्षित है।
- नॉटिंघम (ब्रिटेन)। हमारे सौरमंडल की दशकों से जारी खोज में हमारे पड़ोसी ग्रहों में से एक शुक्र ग्रह की हर बार अनदेखी की गई या उसके बारे में जानने-समझने के बहुत ज्यादा प्रयास नहीं किए गए लेकिन अब चीजें बदलने वाली हैं। नासा के सौरमंडल खोज कार्यक्रम की ओर से हाल में की गई घोषणा में दो मिशनों को हरी झंडी दी गई है और ये दोनों मिशन शुक्र ग्रह के लिए हैं। इन दो महत्वाकांक्षी मिशनों को 2028 से 2030 के बीच शुरू किया जाएगा।नासा के ग्रह विज्ञान विभाग के लिए एक महत्त्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है क्योंकि उसने 1990 के बाद से शुक्र ग्रह तक किसी मिशन को नहीं भेजा है। यह अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के लिए उत्साहित करने वाली खबर है। शुक्र ग्रह पर परिस्थितियां प्रतिकूल हैं। उसके वातावरण में सल्फरिक एसिड है और सतह का तापमान इतना गर्म है कि सीसा पिघल सकता है। लेकिन यह हमेशा से ऐसा नहीं रहा है। ऐसा माना जाता है कि शुक्र ग्रह की उत्पत्ति बिलकुल धरती की उत्पत्ति के समान हुई थी। तो आखिर ऐसा क्या हुआ कि वहां की परिस्थितियां धरती के विपरीत हो गईं? धरती पर, कार्बन मुख्यत: पत्थरों के भीतर मुख्य रूप से फंसी हुआ है जबकि शुक्र ग्रह पर यह खिसकर वातावरण में चला गया जिससे इसके वातावरण में तकरीबन 96 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड है। इससे बहुत ही तेज ग्रीनहाउस प्रभाव उत्पन्न हुआ जिससे सतह का तापमान 750 केल्विन (470 डिग्री सेल्सियस या 900 डिग्री फारेनहाइट) तक चला गया है। ग्रह का इतिहास ग्रीनहाउस प्रभाव को पढऩे और धरती पर इसका प्रबंधन कैसे किया जाए, यह समझने का बेहतरीन मौका उपलब्ध कराएगा। इसके लिए ऐसे मॉडलों का इस्तेमाल किया जा सकता है जिसमें शुक्र के वायुमंडल की चरम स्थितियों को तैयार किया जा सकता है और परिणामों की तुलना धरती पर मौजूदा स्थितियों से कर सकते हैं।
- हम अब केवल बोलकर बातें नहीं करते, रोजाना काफी बातें मैसेज या चैट में लिखकर भी होती हैं और ऐसी बातचीत में भावनाओं को खुलकर जाहिर करने के लिए इमोजी सबसे बड़ा सहारा होती है। इंस्टाग्राम, फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर भी हम अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए जमकर इमोजी का इस्तेमाल करते हैं। कहा जाता है कि एक तस्वीर हजार शब्दों के बराबर प्रभावशाली होती है, वैसे ही एक इमोजी उस बात को आसानी से जाहिर कर देती है, जिसके लिए हमें सैकड़ों अक्षर टाइप करने पड़ते।अगर आप भी इमोजी के शौकीन हैं तो आपने यकीनन ध्यान दिया होगा कि पिछले कुछ सालों में कई नई इमोजी हमारे चैटिंग की-बोर्ड में शामिल की गई है। इनका मकसद हमारी डिजिटल बातचीत में लैंगिक, उम्र से जुड़े और नस्लीय भेदभाव को मिटाना है। वैसे अगर आप ध्यान न दे सके हो तो अभी अपना चैटिंग की-बोर्ड खोलिए और इमोजी के 'स्माइली एंड पीपल' सेक्शन में सांता क्लॉज को खोजिए।महिला-पुरुष और बिना जेंडर वाले सैंटा को बनाने वाली कौन?आपको इमोजी में तीन तरह के सैंटा मिलेंगे। एक मर्द (मिस्टर क्लॉज), एक महिला (मिसेज क्लॉज) और एक ऐसा सैंटा जिसे स्पष्ट तौर पर महिला या पुरुष दोनों नहीं समझा जा सकता यानि मक्स क्लॉज (अपनी लैंगिक पहचान व्यक्त न करने वाले व्यक्ति के लिए संबोधन)। इन अलग-अलग जेंडर वाले सैंटा की त्वचा के रंग को भी आप अपने मनमुताबिक बना सकते हैं। यह बदलाव इसलिए किया गया है ताकि सभी जेंडर और नस्ल वाले लोगों को चैटिंग की-बोर्ड में जगह दी जा सके।अब सवाल यह उठता है कि दुनिया में जितनी तरह के लोग हैं, सबकी चैटिंग की-बोर्ड में जगह बन सके इसके लिए अपना दिमाग कौन खर्च करता है, तो उस महिला का नाम है जेनिफर डेनियल। वर्तमान में जेनिफर 'इमोजी सबकमेटी फॉर द यूनिकोड कंसोर्टियम' की प्रमुख हैं। यही संस्था हमारे चैट बॉक्स की इमोजी डिजाइन करने के लिए जिम्मेदार है। जेनिफर समानता को बढ़ाने वाली और विचारोत्तेजक इमोजी की पक्की समर्थक हैं। मिस्टर क्लॉज, मिसेज क्लॉज और मक्स क्लॉज वाली इमोजी के पीछे उन्हीं का दिमाग है।अब कोरोना के बाद की दुनिया के लिए इमोजी बना रहीं जेनिफरफिलहाल जेनिफर कोरोना महामारी के बाद की दुनिया को एक इमोजी के जरिए दिखाने के मिशन पर हैं। इसके लिए वे न सिर्फ साधारण लोगों से सुझाव ले रही हैं बल्कि अपने काम में आम लोगों की सलाह भी ले रही हैं। वे पूछ रही हैं कि वे जो डिजाइन बना रही हैं, वे महामारी के बाद के माहौल को दिखाने में सक्षम हैं या नहीं। जेनिफर कहती हैं, 'ऐसी इमोजी का पहले से मौजूद कोई नमूना नहीं है. यह न सिर्फ मेरे लिए बल्कि इंसानी बातचीत के भविष्य के लिए भी उत्साहभरा काम है।'हाल ही में उनका एक इंटरव्यू इकॉनॉमिक टाइम्स पर प्रकाशित हुआ। जिसमें 'इमोजी हमारे लिए इतनी जरूरी क्यों हैं' सवाल के जवाब में जेनिफर का कहना था, 'मेरी समझ कहती है कि हम 80त्न समय बिना कुछ बोले खुद को व्यक्त करते हैं। जब हम बोलते भी हैं तो इसके कई तरीके होते हैं. हम चैटिंग उस तरह करते हैं, जैसे हम बातचीत करते हैं। इस दौरान हम अनौपचारिक और लापरवाह होते हैं। इस दौरान आप टाइप करते-करते थकें तो इमोजी से अपनी बात कह दें। ' (डीडब्ल्यू से साभार)
- कोरोना वायरस और लॉकडाउन के कारण दुनिया भर की एयरलाइंस कंपनियों पर भी बुरा असर पड़ा है। जानते हैं दुनिया भर की एयरलाइंस कंपनियों की क्या स्थिति है-लुफ्थांसाजर्मन एयरलाइन कंपनी लुफ्थांसा को कोरोना वायरस के चलते 2020 की छमाही में करीब तीन अरब यूरो का घाटा हुआ। लुफ्थांसा प्रमुख कास्र्टन स्पोर कहते हैं कि कंपनी को लंबे समय के लिए अपना आकार छोटा करना होगा। जर्मनी में ही कंपनी की 11 हजार नौकरियां खतरे में हैं।क्वांटसऑस्ट्रेलिया की सबसे बड़ी एयरलाइन कंपनी क्वाटंस एलान कर चुकी है कि वह 2023 तक दुनिया के सबसे बड़े यात्री विमान एयरबस ए380 को बिल्कुल नहीं उड़ाएगी । कंपनी 6,000 नौकरियां खत्म कर चुकी है , बाकी बचे स्टाफ में भी ज्यादातर लोग कुछ ही घंटों के लिए काम कर रहे हैं ।इंडिगोभारत की सबसे बड़ी एयरलाइन कंपनी इंडिगो ने अपने स्टाफ में 10 फीसदी कटौती का एलान किया है। भारत में कोरोना का प्रकोप अभी तक खत्म नहीं हुआ है। कंपनी जबरदस्त कॉस्ट कटिंग मोड में भी चली गई है।रायनएयरयूरोप की चोटी की किफायती एयरलाइन कंपनी रायनएयर को इस साल के पहले छह महीनों में टिकट बिक्री में 95 फीसदी गिरावट देखनी पड़ी। सस्ते टिकट वाली आइरिश कंपनी को पहली बार नुकसान झेलना पड़ा है। इस साल कंपनी को अपने 19,000 कर्मचारियों में से सिर्फ 3,000 को चुनना पड़ा।इंटरनेशनल एयरलाइंस ग्रुप (आईएजी)ब्रिटिश स्पैनिश ग्रुप का ऑपरेटिंग लॉस 1.37 अरब यूरो है. इसकी सहायक कंपनी ब्रिटिश एयरवेज में 12,000 नौकरियों पर तलवार लटक रही है. ग्रुप की बाकी एयरलाइंस में बड़ी संख्या में नौकरियां जाना तय है.एयर फ्रांस-केएलएमफ्रेंच डच एयरलाइन ग्रुप को 1.55 अरब यूरो का नुकसान हुआ है। पिछले साल की पहली छमाही के मुकाबले 2020 में टिकट सेल 85 फीसदी गिरी है। ग्रुप 7, 580 नौकरियां खत्म करने जा रहा है। डच एयरलाइन केएलएम तो 2022 तक 33,000 फ़ुल टाइम जॉब्स में 5,000 को खत्म करने जा रही है।ईजीजेटब्रिटेन की बजट एयरलाइन ईजीजेट को अप्रैल, मई और जून में ही 36 करोड़ यूरो का घाटा हुआ है। एयरलाइन के 315 विमानों के बेड़े में से सिर्फ 10 ही इस्तेमाल हुए। ईजीजेट ने चेतावनी दी है कि उसे 4,500 नौकरियां खत्म करनी पड़ सकती हैं।नॉर्वेजियनसस्ते टिकट बेचने वाली नॉर्वे की यह एयरलाइन कंपनी अपने आंकड़े अगस्त अंत में पेश करेगी। स्वीडन और डेनमार्क में इसकी सहायक कंपनियां अप्रैल से बंद हैं। पायलटों और केबिन क्रू को मिलाकर 4,700 नौकरियां धार पर हैं।एसएएसडैनिश एयरलाइन ग्रुप में आधी यानि करीब 5,000 नौकरियां खतरे में हैं। डेनमार्क, स्वीडन और वालेनबेर्ग फाउंडेशन जैसे बड़े शेयर होल्डरों ने कंपनी को बचाने के लिए एक रेस्क्यू पैकेज का एलान किया है।विजहंगरी की लो कॉस्ट एयरलाइन विज को पहले ही हो चुकी बुकिंग से राहत मिली. अप्रैल से जून के बीच कंपनी को 90 लाख यूरो का फायदा हुआ, लेकिन उसके बाद से नुकसान ही हो रहा है। कंपनी के 20 फीसदी कर्मचारियों लग रहा है कि उन्हें सेवा समाप्ति का लेटर मिल सकता है।कोंडोरजर्मन हॉलिडे एयरलाइन की पैरेंट कंपनी थॉमस कुक 2019 में दिवालिया हो गई। अब कोंडोर अलग कंपनी है। एयरलाइन को लगता है कि वह अपने स्टाफ में कटौती किए बिना कोरोना संकट से निकल जाएगी। कंपनी ने अपने आंकड़े जारी नहीं किए हैं।
- दुनिया में सबसे ज्यादा कौन सा फल खाया जाता है ... आम, सेब, केला, तरबूज, अंगूर या संतरा? इनमें से कोई नहीं, हो सकता है दुनिया के सबसे पसंदीदा फल का नाम सुनकर आप चौंक जाएं?1. टमाटरटमाटर दुनिया में सबसे ज्यादा खाया जाने वाला फल है. आप सोच रहे होंगे कि टमाटर तो फल नहीं है बल्कि एक सब्जी है. नहीं, टमाटर असल में एक फल है। दुनिया भर में हर साल करोड़ो टन टमाटर का उत्पादन होता है और सबसे अधिक इसका इस्तेमाल भी होता है, फिर वह सब्जी, , सलाद या फिर सॉस के रूप में। 2019 में इसका वैश्विक उत्पादन 18 करोड़ टन से अधिक था।2. केलादुनिया का दूसरा सबसे पसंदीदा फल केला है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन का कहना है कि 2019 में केले का वैश्विक उत्पादन 11.6 करोड़ टन रहा। इसमें आधे से ज्यादा केले एशियाई देशों में उगाए गए। असल केले की खेती गर्म जलवायु में ही होती है।3. तरबूजगर्मी के दिनों में ठंडा-ठंडा तरबूज तरोताजा कर देता है। दुनिया में कम ही लोग होंगे जिन्हें तरबूज पसंद ना हो। इसीलिए 2019 में तरबूज 10 करोड़ टन के साथ तीसरा सबसे पसंदीदा फल रहा। दिलचस्प बात यह है कि दुनिया का अस्सी फीसदी तरबूज एशियाई देशों में उगता है।4. सेबसेब एशिया से लेकर अमेरिका तक हर महाद्वीप में उगाया और पसंद किया जाने वाला फल है। वर्ष 2019 में सेबों का वैश्विक उत्पादन 8.7 करोड़ टन का उत्पादन हुआ। इस तरह यह दुनिया का चौथा सबसे पसंदीदा फल है। फल के तौर पर खाए जाने के अलावा इसका इस्तेमाल जूस और कई दूसरे पेय बनाने में भी होता है।5. अंगूरना सिर्फ फल के तौर पर अंगूर की बहुत खपत है, बल्कि उसका इस्तेमाल दुनिया की महंगी शराब बनाने में होता ह। इसीलिए यह भी दुनिया के टॉप 5 पसंदीदा फलों में शामिल है। 2019 में अंगूर के वैश्विक 7.7 करोड़ टन उत्पादन में एशिया (34.6 प्रतिशत) और यूरोप (37.8 प्रतिशत) की हिस्सेदारी लगभग बराबर रही है।6. संतरेसबसे पसंदीदा फलों की सूची में संतरों को छठे स्थान पर रखा जा सकता है। 2019 में दुनिया भर में 7.8 करोड़ टन संतरों का उत्पादन हुआ। संतरों के उत्पादन में एशिया के 39.8 प्रतिशत के बाद अमेरिका और लैटिन अमेरिका (39.5 प्रतिशत) का स्थान आता है। यूरोप में इटली, स्पेन, फ्रांस और पुर्तगाल में संतरे होते हैं।7. आम, अमरूद और मैंगोटीनआम के शौकीन इस सूची में अपने पसंदीदा फल का इतंजार कर रहे होंगे? तो आम, अमरूद और मैंगोटीन का कुल वैश्विक उत्पादन 2019 में 5.5 करोड़ टन रहा। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने तीनों फलों को एक श्रेणी में रखा है। मैंगोटीन दक्षिण पूर्व एशिया के साथ साथ दक्षिण पश्चिम भारत में भी उगता है।
- ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने दुनिया के दूसरे सबसे बड़े द्वीप न्यू गिनी के घने जंगलों में 'चॉकलेट मेंढक' की खोज की है। पेड़ पर रहने वाले इस मेंढक के रंग को देखकर सभी लोग हैरान हैं। मेंढकों की ये प्रजाति अपनी खास त्वचा के लिए जानी जाती है और भूरे रंग के होने के वजह से वैज्ञानिकों ने इसे 'चॉकलेट फ्रॉग' नाम दिया है। बता दें कि इस मेंढक की तस्वीरें सोशल मीडिया पर काफी तेजी से वायरल हो रही हैं। बता दें कि ऑस्ट्रेलिया में कैडबरी फ्रेडो चॉकलेट बार काफी लोकप्रिय हैं और ऑस्ट्रेलिया में इस मेंढक की खोज के साथ ही फ्रेडो चॉकलेट ट्रेंड हो रहा है। सेंटर फॉर प्लैनेटरी हेल्थ ऐंड फूड सिक्यॉरिटी और क्वींसलैंड म्यूजियम के पॉल ऑलिवर ने ऑस्ट्रेलियन जर्नल ऑफ जूलॉजी में लिखे पेपर में इस मेंढक के बारे में चर्चा की है।रिपोर्ट्स के मुताबिक, ये मेंढक इतने लंबे समय तक इंसानों की नजरों से दूर रहकर इसलिए रहस्य बना रहा, क्योंकि ये जिस उष्णकटिबंधीय वर्षावनों में रहता है, उन जंगलों को भेदना कड़ी चुनौती है। हालांकि, शोधकर्ताओं ने काफी संघर्ष के बाद इस मेंढक को खोजने में कामयाबी पाई है।वैज्ञानिकों ने इस मेंढक का लैटिन नाम लिटोरिया मीरा रखा है, जिसका अर्थ होता है आश्चर्य या अजीब। दरअसल, विशेषज्ञों ने इस मेंढक को देखकर हैरत में पड़ गए थे, इसलिए इसका लैटिन नाम लिटोरिया मीरा रखा।पॉल ऑलिवर के मुताबिक, चॉकलेट मेंढक यानी लिटोरिया मीरा का सबसे करीबी ऑस्ट्रेलियाई ग्रीन ट्री मेंढक है और ये दोनों प्रजातियां काफी हद तक लगभग एक जैसे दिखाई देते हैं। इन दोनों मेंढक के बीच अंतर इतना ही है कि एक का रंग हरा, तो दूसरे का रंग चॉकलेट की तरह भूरा है।गौरतलब है कि ये चॉकलेट मेंढक जहां पाया गया है वो एक गर्म वर्षावन है और इंसानों के लिए काफी खतरनाक है। इस क्षेत्र को मलेरिया के मच्छर, मगरमच्छों की मौजूदगी और दलदली इलाका इसे काफी चुनौतीपूर्ण बनाते हैं। ऐसे में चॉकलेट मेंढक की खोज एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
- हांगकांग। हीरा सभी रत्नों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है और यही वजह है कि इसकी कीमत भी बाकी सभी रत्नों से अधिक होती है। हांगकांग में 'द सकूरा' नामक दुर्लभ और बेहद आकर्षक पर्पल-पिंक हीरे की नीलामी हुई। इस नीलामी का आयोजन क्रिस्टीज ज्वेलरी डिपार्टमेंट के द्वारा किया गया था। द सकूरा का वजन 15.81 कैरेट है, जो पर्पल-पिंक हीरों में सबसे अधिक है। सीएनएन की रिपोर्ट के मुताबिक, यह हीरा काफी खास इसलिए भी है, क्योंकि ये अबतक का सबसे बड़ा पर्पल-पिंक हीरा है।डेली मेल की रिपोर्ट के मुताबिक, क्रिस्टीज ज्वेलरी डिपार्टमेंट के विकी सेक ने बताया कि पर्पल-पिंक हीरे की नीलामी ऐतिहासिक है। 29.3 मिलियन डॉलर यानी करीब 218 करोड़ रुपये में नीलाम हुआ ये हीरा अब तक का सबसे महंगा पर्पल-पिंक हीरा बन गया है। आपको बता दें कि इस हीरे को प्लैटिनम और सोने की अंगूठी में फिट करके नीलाम किया गया।विकी सेक ने बताया कि नीलामी के दौरान ये हीरा आकर्षण का केंद्र बना हुआ था और हर किसी को अपनी और आकर्षित कर रहा था। बता दें कि गुलाबी हीरे में आम तौर पर 'बहुत अधिक दाने' होते हैं, जिससे यह रत्न 'बहुत दुर्लभ' हो जाता है।रिपोट्र्स के मुताबिक, पिछले साल भी 14.8 कैरेट के पर्पल-पिंक हीरा 'द स्पिरिट ऑफ रोज' की नीलामी 196 करोड़ रुपये में हुई थी। हालांकि, 'द सकूरा' हीरे के वजन और नीलामी की कीमत ने उसका रिकॉर्ड तोड़ दिया है। पर्पल-पिंक हीरा 'द सकूरा' को एशिया के एक ग्राहक ने सबसे महंगी बोली लगाकर खरीदा है। क्रिस्टीज ज्वेलरी ने खरीदार के बारे में अधिक जानकारी नहीं दी है।
- क्विटो। प्रशांत महासागर में स्थित दुनिया से सबसे बड़े कछुओं के घर गैलापागोस द्वीपसमूह से एक अच्छी खबर आई है। यहां वैज्ञानिकों की एक टीम ने महाविशाल कछुए की एक ऐसी प्रजाति का पता लगाया है जो लगभग 115 साल पहले विलुप्त हो गई थी। इस वयस्क मादा कछुए को 2019 में खोजा गया था, हालांकि तबसे लेकर अबतक वैज्ञानिक इसकी प्रजाति को लेकर अध्ययन कर रहे थे।फर्नांडीना जाइंट कछुआ मिलने की पुष्टि हुईअब वैज्ञानिकों ने कहा है कि आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला है कि यह मादा फर्नांडीना जाइंट कछुआ (चेलोनोइडिस फैंटास्टिकस) है। जिसके बाद से पर्यावरण के क्षेत्र में सक्रिय वैज्ञानिकों ने खुशी जाहिर की है। इस द्वीपसमूह पर वर्तमान में लैटिन अमेरिकी देश इक्वाडोर का कब्जा है। इस खबर के बाद इक्वाडोर के पर्यावरण मंत्री गुस्तावो मैनरिक ने ट्विटर पर इस खबर की पुष्टि करते हुए लिखा: 'आशा अभी जिंदा है!'यह प्रजाति कैसे हुई थी विलुप्त?कछुए की इस प्रजाति का गैलापागोस द्वीपसमूह की यात्रा करने वाले यूरोपीय और अन्य उपनिवेशवादियों ने मांस के लिए खूब शिकार किया। उनके अंधाधुंध शिकार की चपेट में इस द्वीपसमूह में पाए जाने वाले कछुओं की कई प्रजातियां आईं। लेकिन, फर्नांडीना द्वीप पर मिलने वाले चेलोनोइडिस फैंटास्टिकस कछुए विलुप्त हो गए। इस प्रजाति के कछुए को अंतिम बार 1906 में देखा गया था।कैसे मिली विलुप्त हो चुकी यह मादा कछुआदरअसल, 2019 में वैज्ञानिकों का एक दल पश्चिमी इक्वाडोर क्षेत्र में गैलापागोस द्वीपसमूह के फर्नांडीना द्वीप पर पहुंचा था। इस द्वीप पर ही उन्हें यह मादा कछुआ मिली। विलुप्त हुई प्रजाति से लिंक को साबित करने के लिए, येल विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने चेलोनोइडिस फैंटास्टिकस प्रजाति के नर के अवशेषों की तुलना करने के लिए मादा से नमूने लिए।इक्वाडोर के मंत्री बोले- आशा बरकरार है!इक्वाडोर के पर्यावरण मंत्री गुस्तावो मैनरिक ने कहा कि यह माना जाता था कि यह 100 साल से भी पहले विलुप्त हो गया था! हमने इसके अस्तित्व की पुष्टि की है। चेलोनोइडिस फैंटास्टिकस प्रजाति का कछुआ गैलापागोस में पाया गया था। आशा बरकरार है!' 2019 के अभियान के दौरान, गैलापागोस नेशनल पार्क और यूएस एनजीओ गैलापागोस कंजरवेंसी के शोधकर्ताओं ने कठोर हो चुके लावा प्रवाह के तीन मील की दूरी को पार कर कछुओं के कई अवशेषों का पता लगाया था।
- हम सभी लोगों को चाय पसंद है। दुनिया भर में कई तरह के फ्लेवर्स की चाय मिलती हैं, जिन्हें पीने के बाद स्वाद का मजा ही कुछ और होता है, लेकिन क्या कभी आपने दुनिया की सबसे महंगी चाय की पत्तियों के बारे में सुना है? आज हम आपको दुनिया की सबसे महंगी चाय की पत्तियों के बारे में बताएंगे, जिसकी कीमत जानकर आपके भी होश उड़ जाएंगे।हम बात कर रहें हैं चीन में मिलने वाली डा-होंग पाओ टी की। इस चाय पत्ती का नाम दुनिया में मिलने वाली सबसे महंगी चाय की पत्तियों में शुमार है। इसकी कीमत 9 करोड़ रुपए प्रति किलोग्राम है। डा-होंग पाओ की खेती चीन के फुजियान के वूईसन इलाके में की जाती है। इस चाय पत्ती के कई सारे लाभकारी गुण हैं, जिसे शायद ही आप जानते होंगे। स्वास्थ्य के लिए ये चायपत्ती काफी लाभदायक होती है। यही एक बड़ी वजह है, जिसके चलते इसको जीवनदायिनी भी कहा जाता है।कई प्रकार की गंभीर बीमारियां इसके सेवन से ठीक होती हैं। खेती के दौरान डा-होंग पाओ की पत्तियों की पैदावार काफी कम मात्रा में होती हैं और इसकी पत्तियां दुनिया में काफी दुर्लभ भी हैं। यही एक बड़ा कारण है, जिसके चलते इस चायपत्ती की कीमत 9 करोड़ रुपए प्रति किलोग्राम है। इस चाय पत्ती की खेती विशेष तरह से की जाती है, जिसमें मेहनत और ध्यान दोनों लगता है।डा-होंग पाओ टी की पत्तियों के इतिहास पर गौर करें, तो इसकी खेती की शुरुआत चीन के मींग शासन के समय में शुरू हुई थी। चीनी लोगों का कहना है कि उस दौरान मींग शासन की महारानी अचानक बीमार हो गई थी। उनकी तबीयत काफी बिगड़ गई थी और महारानी के बचने की संभावना काफी कम थी। उन पर किसी भी दवा का असर नहीं हो रहा था।इसके बाद उन्हें डा-होंग पाओ चाय पीने के लिए कहा गया। उन्होंने इसे पीया और पीने के कुछ ही दिनों के बाद वह ठीक हो गईं। महारानी के ठीक होने के बाद राजा काफी खुश हुए और उन्होंने आदेश दिया कि इस खास तरह की चाय की पत्तियों की खेती की जाए। राजा के लंबे चोंगे के नाम पर ही इस चायपत्ती का नाम डा-होंग पाओ पड़ा। मान्यता है मींग शासन से ही इस चाय पत्ती की खेती होती आ रही है। आज कई लोग इस चाय पत्ती के 10 से 15 ग्राम खरीदने के लिए लाखों रुपए चुकाते हैं।-file photo
- -हल्के लक्षणों वाले मरीजों का शरीर हमेशा कोरोना वायरस से लड़ता रहेगा: अध्ययनकोरोना वायरस पर हुए ताजा अध्ययन बताते हैं कि जिन लोगों को कोविड-19 के हल्के लक्षण होते हैं, उनका इम्यून सिस्टम इस बीमारी के खिलाफ प्रतिरक्षा तैयार कर लेता है। कोविड-19 से उबरने के महीनों बाद, जब रक्त में ऐंटिबॉडी का स्तर कम हो जाता है, तब भी बोन मैरो में इम्यून सेल यानी कोरोनावायरस से लडऩे वाली कोशिकाएं चौकस रहती हैं ताकि हमला होने पर जवाब दे सकें । साइंस पत्रिका नेचर में छपे एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कहा है कि कोविड-19 के सामान्य लक्षणों से उबरने के बाद शरीर की कोरोना वायरस से लडऩे की क्षमता बढ़ जाती है। शोध में पता चला कि संक्रमण होने पर बहुत तेजी से इम्यून सेल यानी वायरस से लडऩे वाली कोशिकाएं पैदा होती हैं।ये कोशिकाएं अल्पजीवी होती हैं, लेकिन रक्षक ऐंटिबॉडीज की एक लहर पैदा करती हैं। अपना काम करने के बाद इनमें से ज्यादातर कोशिकाएं मर जाती हैं और बीमारी ठीक होने पर ऐंटिबॉडीज की संख्या भी कम होती जाती है। इन कोशिकाओं का एक जत्था रिजर्व सुरक्षा बल के तौर पर लंबे समय तक जीवित रहता है। इन्हें दीर्घ-जीवी प्लाज्मा कोशिकाएं कहा जाता है। शोधपत्र के लेखकों में शामिल सेंट लुइस स्थित वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के अली अलअब्दी समझाते हैं कि ज्यादातर दीर्घ-जीवी प्लाज्मा कोशिकाएं बॉन मैरो में जाकर रहने लगती हैं।अलअब्दी और उनकी टीम ने ऐसे 19 मरीजों के बॉन मैरो से नमूने लिए थे जिन्हें सात महीने पहले कोविड-19 हुआ था। उनमें से 15 में दीर्घ-जीवी प्लाज्मा के अंश पाए गए। इन 15 में से भी पांच ऐसे थे जिनकी बॉन मैरो में कोविड-19 होने के 11 महीने बाद भी प्लाज्मा कोशिकाएं मौजूद थीं जो सार्स-कोव-2 के खिलाफ ऐंटिबॉडीज बना रही थीं। यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि गंभीर लक्षणों से जूझकर बचने वाले मरीजों में भी लंबे समय तक एंटीबॉडी रहती हैं या नहीं।इस अध्ययन के पीछे वैज्ञानिकों की ऐसी चिंता थी कि कोविड-19 होने के बाद मरीजों की इस वायरस से लडऩे की क्षमता कम हो जाती है और यह वायरस दोबारा भी एक मरीज पर हमला कर सकता है। शोधकर्ताओं ने नेचर पत्रिका में लिखा है, "ऐसी रिपोर्ट थी कि सार्स-कोव-2 से लडऩे वालीं कोशिकाएं संक्रमण के बाद के कुछ महीनों में तेजी से कम होती हैं जिस कारण दीर्घ-जीवी प्लाज्मा कोशिकाएं नहीं बन पातीं और वायरस से लडऩे की शरीर की क्षमता बहुत कम समय में खत्म हो जाती है। "अलअब्दी ने एक बयान में बताया कि ये कोशिकाएं बस बॉन मैरो में मौजूद रहती हैं और ऐंटिबॉडीज बनाती रहती हैं। वह कहते हैं, "संक्रमण खत्म हो जाने के बाद से ही ये कोशिकाएं ऐसा कर रही होती हैं. और ऐसा वे अनिश्चित काल तक करती रहेंगी। ये कोशिकाएं तब तक ऐंटिबॉडीज बनाती रहेंगी जब तक मरीज जिंदा रहेगा। " हालांकि अध्ययन में यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि कोविड-19 के गंभीर लक्षणों से जूझकर बचने वाले मरीजों में भी दीर्घ-जीवी प्लाज्मा कोशिकाएं इसी तरह काम करती हैं या नहीं। (रॉयटर्स, नेचर)
- भारतीय रेल विश्व का चौथा और एशिया का दूसरा सबसे बड़ा रेलवे स्टेशन है। परिवहन की यह सुविधा यातायात के सबसे सुगम साधनों में से एक है। हर रोज लाखों लोग ट्रेन से सफर करते हैं। भारत में करीब 8 हजार रेलवे स्टेशन हैं। इनमें से कुछ स्टेशन इतने डरावने हैं कि शाम होते ही बिल्कुल सन्नाटा पसर जाता है। कुछ लोग इन स्टेशनों को भूतिया भी मानते हैं।नैनी जंक्शनउत्तर प्रदेश के प्रयागराज में स्थित नैनी जंक्शन को भी लोग भूतिया मानते हैं। इस रेलवे स्टेशन के नजदीक में ही नैनी जेल है।चित्तूर रेलवे स्टेशनआंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित चित्तूर रेलवे स्टेशन भी डरावने रेलवे स्टेशनों में से एक है। स्टेशन के आसपास रहने वाले लोगों का मानना है कि बहुत समय पहले यहां हरी सिंह नामक एक सीआरपीएफ जवान ट्रेन से उतरा था। ट्रेन से उतरने के बाद उसे आरपीएफ और टीटीई ने मिलकर इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई थी। इस घटना के बाद से ही हरी सिंह की आत्मा इंसाफ के लिए रेलवे स्टेशन पर ही भटकती रहती है।मुलुंड रेलवे स्टेशनमुंबई में स्थित मुलुंड रेलवे स्टेशन की गिनती भी भूतिया रेलवे स्टेशनों में होती है। इस स्टेशन पर आने वाले यात्रियों और आस-पास रहने वाले लोगों का दावा है कि उन्हें यहां लोगों के चीखने-चिल्लाने के साथ-साथ रोने की भी आवाजें सुनाई देती हैं।बेगुनकोदर रेलवे स्टेशनपश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में स्थित इस रेलवे स्टेशन की कहानी काफी रोचक है। भूतिया दावों की वजह से इस स्टेशन को 42 सालों तक बंद रखा गया था। हालांकि, साल 2009 में इसे फिर से खोल दिया गया।बड़ोग रेलवे स्टेशनबड़ोग रेलवे स्टेशन हिमाचल प्रदेश के सोलन में स्थित है। कालका-शिमला रेल रूट पर पडऩे वाला ये स्टेशन जितना खूबसूरत है, ठीक उतना ही डरावना और भूतिया है। बड़ोग रेलवे स्टेशन ठीक बगल में एक सुरंग है। इस सुरंग का निर्माण एक ब्रिटिश इंजीनियर कर्नल बड़ोग ने कराया था, लेकिन बाद में उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। लोगों का मानना है कि कर्नल बड़ोग की आत्मा इस सुरंग में घूमती-फिरती है।
- म्यांमार के एक मंदिर में दर्जनों की तादाद में अजगर घूमते नजर आते हैं। मंदिर में सांपों की मौजूदगी को पगोडा की "शक्ति का संकेत" माना जाता है। स्थानीय लोग इसे सांप वाला मंदिर कहते हैं।म्यांमार के यंगून शहर की एक झील के बीच बने इस मंदिर को अजगरों ने मशहूर कर दिया है। मंदिर के फर्श से लेकर खिड़कियों पर अजगर टंगे दिखते हैं। स्थानीय लोग इसे "सांप वाला मंदिर" कहने लगे हैं। मंदिर का नाम है बुंगदोग्योक पगोडा। मंदिर में रहने वाली सानदार थीरी कहती हैं, "लोगों का मानना है कि उनकी मन्नतें यहां पूरी हो जाती हैं।" थीरी के मुताबिक, "नियम भी ऐसा है कि श्रद्धालु कोई एक मन्नत ही मांग सकते हैं, एक से ज्यादा इच्छा जाहिर करना अच्छा नहीं होता।" यहां प्रचलित कहानियों के मुताबिक, एक बार गौतम बुद्ध एक पेड़ के नीचे ध्यान में बैठे थे। तभी बारिश होने लगी और उस वक्त एक अजगर ने अपने फन फैलाकर बुद्ध के सिर पर छत दी थी। स्थानीय लोग मानते हैं कि अगर वे मंदिर को सांप लाकर देंगे तो उन्हें पुण्य मिलेगा। इस मंदिर के मुख्य कक्ष में बुद्ध की मूर्ति के पास पेड़ लगे हुए हैं। ये अजगर इन पेड़ों की शाखाओं पर झूलते रहते हैं, श्रद्धालु इन्हें देखकर इनकी पूजा करते हैं और सिर झुकाते हैं। यहां आने वाले लोगों को इन अजगरों से कोई डर नहीं लगता बल्कि कुछ लोग इनकी मौजूदगी को पगोडा की "शक्ति का संकेत" मानते हैं। सांप के लिए नाग शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों के मंदिरों में सांप को एक खास अहमियत दी जाती है। हिंदू और बौद्ध मंदिरों में सांप ही नहीं बल्कि कई अन्य पशुओं की भी पूजा होती है। इस मंदिर में लगे पत्थरों में सांप की आकृतियों को भी उकेरा गया है।
- सौरमंडल में कुल 8 ग्रह हैं, लेकिन इन्हें जितना भी समझने की कोशिश की जाए, तो उतना ही उलझना पड़ता है। क्योंकि सभी ग्रह कुछ खास वजहों से एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। अरुण ग्रह यानी यूरेनस का नाम तो आपने सुना ही होगा। व्यास के आधार पर यह सौरमंडल का तीसरा बड़ा और द्रव्यमान के आधार पर चौथा बड़ा ग्रह है। इस ग्रह पर मिट्टी पत्थर के बजाय अधिकतर गैस है, जिस वजह से इसे गैस दानव भी कहा जाता है। आज हम आपको अरुण ग्रह के बारे में कुछ ऐसी रोचक बातें बताएंगे, जिसे जानकर आप हैरान हो जाएंगे।अरुण ग्रह अपने अक्ष पर 98 डिग्री तक झुका हुआ है। इस वजह से यहां का मौसम बहुत ही असामान्य रहता है। यहां हमेशा तूफान जैसा माहौल बना रहता है। यहां हवाएं काफी तेज चलती रहती हैं, जो अधिकतम 900 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार तक पहुंच जाती हैं।आपको यह जानकर बेहद ही हैरानी होगी कि अरुण ग्रह पर 42 साल तक रात और 42 साल तक दिन होता है। इसका कारण यह है कि अरुण ग्रह पर दोनों में से एक पोल यानी ध्रुव लगातार 42 साल तक सूर्य के सामने और दूसरा अंधकार में होता है। अरुण ग्रह सूर्य से लगभग तीन अरब किलोमीटर दूर है। यही वजह है कि यह ग्रह बहुत ही ठंडा है। यहां का औसत तापमान -197 डिग्री सेल्सियस होता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, अरुण का न्यूनतम तापमान -224 डिग्री सेल्सियस देखा गया है।सूर्य के अधिक दूरी होने के कारण इस ग्रह पर सूर्य की किरणों को पहुंचने में दो घंटे 40 मिनट का समय लगता है। यह पृथ्वी से लगभग 20 गुना अधिक है। पृथ्वी पर सूर्य की किरणों को पहुंचने में आठ मिनट 17 सेकेंड का समय लगता है। अरुण अपने अक्ष पर करीब 17 घंटे में एक चक्कर पूरा कर लेता है। इसका सीधा-सीधा मतलब है कि यूरेनस पर एक दिन मात्र 17 घंटे का ही होता है। यहां का एक साल पृथ्वी के 84 साल के बराबर होता है। अरुण ग्रह पर बादलों की अनेक परतें पाई जाती हैं। सबसे ऊपर मीथेन गैस होती है। इसके अलावा अरुण ग्रह के केंद्र में बर्फ और पत्थर पाए जाते हैं।