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- कछुआ पृथ्वी पर एकमात्र ऐसा जीव है, जो सबसे अधिक उम्र तक जिंदा रहता है। इनकी कुछ प्रजातियां करीब 150 साल से भी ऊपर जीवन जीती हैं। इसी कड़ी में आज हम कछुओं की लंबी उम्र के पीछे के राज को जानेंगे। इसके अलावा हम कछुओं के उस बायोलॉजिकल प्रोसेस का भी पता लगाएंगे, जिसके चलते ये इतनी अधिक उम्र तक जीवन जीते हैं। अब तक सबसे अधिक उम्र तक जीवन जीने वाले कछुआ का नाम अलडाबरा टोरटॉयज है। ये करीब 256 साल तक जिंदा रहा। अलडाबरा टोरटॉयज आकार में काफी बड़ा था। उस दौरान ये कछुआ सेशेल्स आइलैंड में रहा करता था। अलडाबरा टॉरटॉयज पर उस दौरान कई रिसर्च हुए, जिसके बाद कछुओं की लंबी उम्र से जुड़ी कई महत्वपूर्ण बातें सामने आईं। लंबे समय तक जिंदा रहने के अलावा भी कछुओं के अंदर कई विशेषताएं होती हैं, जो उन्हें काफी खास बनाती हैं।कछुओं के शरीर के ऊपर एक कठोर कवच होता है, जो उनके अंगों की बाहरी हमलों से सुरक्षा करता है। अक्सर हमले होने के स्थिति में कछुए अपने कवच के भीतर चले जाते हैं। अगर छोटी उम्र से ही कछुओं की अच्छी देखभाल की जाए, तो वे लंबी उम्र तक जिंदा रह सकते हैं। कई कछुए तो 150 वर्षों से भी ज्यादा जीवन जीते हैं।हमारा सवाल था कि आखिर कछुओं की इस लंबी उम्र के पीछे का राज क्या है? वैज्ञानिकों की मानें तो कछुओं की लंबी उम्र के पीछे का रहस्य उनके डीएनए स्ट्रक्चर में छिपा हुआ है। उनके जीन वेरिएंट लंबे समय तक सेल के भीतर डीएनए की मरम्मत करते हैं। इस कारण सेल की एंट्रोपी की समय सीमा काफी बढ़ जाती है।यही एक बड़ा कारण है, जिसके चलते कुछ कछुए 250 साल से भी अधिक जीवन जीते हैं। 256 साल तक जीवन जीने वाले अलडाबरा टोरटॉयज पर हुए एक रिसर्च में इस बात का पता चला कि अच्छे जीन वैरिएंट के कारण ही वह इतने लंबे समय तक जिंदा रह सका। अलडाबरा के जीन वैरिएंट ने सेल्स को लंबे समय तक एंट्रॉपी तक जाने से बचाए रखा। इसी वजह से उसका शरीर 256 साल तक बिना किसी परेशानी के जिंदा रहा।विश्व भर में कछुओं की कई अन्य प्रजातियां भी पाई जाती हैं, जो करीब 100 से भी अधिक वर्षों तक जिंदा रहती हैं। कछुओं की एक रेतीली प्रजाति भी है, जिसे अफ्रीकन सल्केट के नाम से जाना जाता है। ये कछुए भी कम से कम 100 वर्षों तक जिंदा रहते हैं।
- भारतीय घरों में रसोई में खाने में इस्तेमाल होने वाले आम मसाले केवल स्वाद नहीं देते हैं, बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी उतने ही फायदेमंद हैं। इन मसालों से अब ब्लड प्रेशर की दवा तैयार की गई है। भारतीय वैज्ञानिकों ने जब यह टेस्ट चूहों पर आजमाया तो कारगर साबित हुआ। रसोई में इस्तेमाल होने वाले आम मसालों से चूहे का उच्च रक्तचाप कम हो गया। उम्मीद की जा रही है कि इससे इंसानों के लिए दवा बनाने का नुस्खा मिल सकता है।चेन्नई की श्रीरामचंद्रन यूनिवर्सिटी में इस रिसर्च को अंजाम दे रही टीम के प्रमुख एस तनिकाचलम हैं। उन्होंने बताया कि उनकी टीम ने अदरक, धनिया, जीरा और काली मिर्च को इस रिसर्च में इस्तेमाल किया। ये भारतीय रसोई के बेहद आम मसाले हैं। इस टेस्ट के लिए चूहों को पहले लैब में हाई ब्लड प्रेशर से ग्रसित किया गया। फिर जब उन पर इन मसालों की प्रक्रिया देखी गई, तो काफी सकारात्मक पाई गई। मसालों की मदद से रीनोवैस्कुलर हाइपरटेंशन को कम किया जा सका। यह उच्च रक्तचाप की दूसरी टाइप है। यह गुर्दे की धमनियां सिकुड़ जाने के कारण होता है। तनिकाचलम ने बताया, "ब्लड प्रेशर कम करने और ऑक्सिजेटिव तनाव को कम करने में चूहों पर यह दवा कारगर साबित हुई।"भारतीयों में हाइपरटेंशन की समस्या आम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में शहरों में रहने वाले हर चार में से एक व्यक्ति को हाइपरटेंशन की समस्या है। आम तौर पर ब्लड प्रेशर के लिए आधुनिक दवाओं का सहारा लिया जाता है, लेकिन हर रोज इन दवाओं के सेवन से कई तरह के साइड इफेक्ट का भी खतरा रहता है। साथ ही ये दवाएं महंगी भी पड़ती हैं। स्वास्थ्य के लिए भारतीय मसालों के गुणों पर पहले भी रिसर्चें होती रही हैं, और मसालों के फायदे भी बताए जाते रहे हैं। फरवरी 2011 में आई एक अन्य रिपोर्ट एक ऐसी हाइब्रिड ड्रग के बारे में थी जो हल्दी में पाए जाने वाले एक खास रसायन की मदद से बनाई गई थी। इसे पक्षाघात में मददगार बताया गया था। तनिकाचलम के मुताबिक भारतीय संस्कृति में ऐसे बहुत से घरेलू और आयुर्वेदिक नुस्खे हैं। वे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को तो बताए जाते हैं लेकिन उनकी वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हुई है। मनुष्यों पर इन मसालों से तैयार दवा का असर देखने से पहले रिसर्चरों को अभी पशुओं पर ही इस रिसर्च को आगे बढ़ाकर देखना होगा। इस रिपोर्ट को एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी एंड मेडिसिन पत्रिका ने छापा है।
- खाने के तेल में आत्मनिर्भर बनने की कवायद भारत सरकार की ओर से शुरू की गई है। इसमें सबसे ज्यादा ध्यान पाम ऑयल पर दिया जाना है। इसके लिए नेशनल मिशन फॉर एडिबल ऑयल-ऑयल पाम नाम की एक योजना की शुरुआत भी की गई है। इस योजना के तहत 11 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का निवेश किया जाएगा जिससे पूर्वोत्तर राज्यों और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में ऑयल पाम की खेती को बढ़ावा दिया जाएगा।पूरे विश्व में पाम ऑयल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल भारत में किया जाता है, लेकिन भारत को अपने कुल उपयोग का 60 फीसदी से ज्यादा तेल इंडोनेशिया और मलेशिया से आयात करना पड़ता है। यही दोनों देश दुनिया में इसके सबसे बड़े उत्पादक हैं। साल 2020 से 2021 के बीच पाम ऑयल के दामों में 50 फीसदी से भी ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है। जिससे खाने के तेल की कीमतें डेढ़ गुना से भी ज्यादा बढ़ गई हैं। भारत सरकार ने साल 2029-30 तक करीब 10 लाख हेक्टेयर भूमि पर पाम की खेती का लक्ष्य रखा है। इतनी जमीन भारत के त्रिपुरा राज्य के बराबर होगी।भारत में फिलहाल 3 लाख हेक्टेयर जमीन पर पाम की खेती हो रही है, इसमें 6.5 लाख हेक्टेयर यानी सिक्किम के बराबर जमीन पर खेती और बढ़ाई जानी है। ऐसा करके भारत अपने पाम ऑयल उत्पादन को बढ़ाकर 11 लाख टन करना चाहता है। हालांकि कई जानकार इससे डरे हुए भी हैं। वे मानते हैं कि भारत बिना पर्यावरणीय सुरक्षा के बारे में सोचे जितनी तेजी से यह योजना लागू करने की कोशिश कर रहा है, वह मुसीबत का सबब भी बन सकती है।ज्यादातर भारतीय पकवान 'खाने के तेल' के बिना नहीं बन सकते। इसके लिए रिफाइंड ऑयल और वनस्पति तेल आदि नाम से मिलने वाले पाम ऑयल का इस्तेमाल सबसे ज्यादा होता है। इसके अलावा यहां सरसों का तेल, नारियल तेल और मूंगफली के तेल का इस्तेमाल भी होता है। लेकिन भारत में अन्य खाने के तेल में भी पाम ऑयल की मिक्सिंग की जाती है। इस तरह भारत में इस्तेमाल होने वाले कुल खाने के तेल में पाम ऑयल का हिस्सा करीब दो-तिहाई होता है। साल 2019-20 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल 'खाने के तेल' की मांग 2.5 करोड़ टन थी। जबकि इस साल भारत में आयात किए गए पाम ऑयल की मात्रा 1.3 करोड़ टन रही थी। ऐसा इसलिए क्योंकि खाने के तेल के अलावा पाम ऑयल का इस्तेमाल डिटर्जेंट, प्लास्टिक, कॉस्मेटिक, साबुन-शैम्पू, टूथपेस्ट और बायो फ्यूल के तौर पर भी किया जाता है। हालांकि भारत में मौजूद कुल पाम ऑयल का करीब 94 फीसदी फूड प्रोडक्ट्स में ही इस्तेमाल होता है। खाने के तेल के अलावा चॉकलेट, कॉफी, नूडल्स और आइसक्रीम के उत्पादन में भी इसका जमकर इस्तेमाल होता है।
- बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं,तुझे ऐ जिंदगी, हम दूर से पहचान लेते हैं...मेरी नजरें भी ऐसे काफिरों की जान ओ ईमां हैंनिगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं...ऐसी गजलों के फनकार जाने माने शायर रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर में हुआ। वे भारत के एक जाने माने शायर, लेखक और आलोचक रहे हैं। 1914 को उनका विवाह प्रसिद्ध जमींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। कला स्नातक में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बाद आई.सी.एस. में चुने गये। 1920 में नौकरी छोड़ दी तथा स्वराज्य आंदोलन में कूद पड़े तथा डेढ़ वर्ष की जेल की सजा भी काटी। जेल से छूटने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ्तर में अवर सचिव की जगह दिला दी। बाद में नेहरू जी के यूरोप चले जाने के बाद उन्होंने अवर सचिव का पद छोड़ दिया। फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1930 से लेकर 1959 तक अंग्रेजी के अध्यापक रहे। 1970 में उनकी उर्दू काव्यकृति गुले नग़्मा पर ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। फिराक जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अध्यापक रहे।उन्हें गुले-नग्मा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार , ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बाद में 1970 में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत कर लिया गया था। फिराक गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था।रघुपति सहाय के नाम के साथ फिराक गोरखपुरी कैसे जुड़ा इसकी भी रोचक दास्तां है। जानकारी के मुताबिक, अगस्त 1916 में जब मुंशी प्रेमचंद गोरखपुर गए तो उस समय वह अक्सर फिराक के पिता गोरख प्रसाद 'इबरत' के साथ उनके आवास लक्ष्मी निवास तुर्कमानपुर में बैठकी किया करते थे। ऐसे में फिराक को भी उनका सानिध्य मिलना स्वाभाविक था। इसी समय एक समय एक अवसर पर प्रेमचंद के पास एक पत्रिका आई, उन्होंने इसे फिराक को पढऩे को दिया। इसमें उर्दू के मशहूर लेखक नासिर अली 'फिराक' का नाम प्रकाशित था। रघुपति सहाय को नासिर के नाम में जुड़ा 'फिराक' भा गया और उन्होंने उसे अपना तखल्लुस बनाने का फैसला कर लिया और इस तरह रघुपति सहाय के नाम के साथ फिराक जुड़ गया। गोरखपुर उनका घर था, इसलिए उन्होंने अपना पूरा नाम लिखा फिराक गोरखपुरी।फिराक गोरखपुरी की शायरी में गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात, नग्म-ए-साज, गज़़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों की रचना फिराक साहब ने की है। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियाँ भी लिखी हैं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में दस गद्य कृतियां भी प्रकाशित हुई हैं।फिराक ने अपने साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश गजल से किया था। अपने साहित्यिक जीवन में आरंभिक समय में 6 दिसंबर, 1926 को ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक बंदी बनाए गए। उर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बंधा रहा है जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं। नजीर अकबराबादी, इल्ताफ हुसैन हाली जैसे जिन कुछ शायरों ने इस रिवायत को तोड़ा है, उनमें एक प्रमुख नाम फिराक गोरखपुरी का भी है। फिराक ने परंपरागत भावबोध और शब्द-भंडार का उपयोग करते हुए उसे नयी भाषा और नए विषयों से जोड़ा। उनके यहाँ सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई है।
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पुणे के एमआईटी छात्रों का अनूठा कारनामा
पुणे। पुणे के एमआईटी वल्र्ड पीस यूनिवर्सिटी के छात्रों ने बिना ड्राइवर के चलने वाली देश की पहली कार बनाई है। इसे बनाने वाले छात्रों का कहना है कि मानवीय चूक की वजह से होने वाले हादसों को देखते हुए इस कार के निर्माण का आइडिया आया। फिलहाल यह एक प्रोटोटाइप है और कुछ अन्य मंजूरियों के बाद इसका कमर्शियल उत्पादन भी शुरू हो सकेगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर बनी यह कार एक बार के चार्ज में 40 किलोमीटर तक चलती है। इसे बनाने वाले छात्रों का दावा है कि यह कार मेड इन इंडिया कांसेप्ट पर है।
एमआईटी कॉलेज के मैकेनिकल इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स और टेलिकम्यूनिकेशन के छात्रों ने मिलकर इस कार का निर्माण किया है। इसके निर्माण से जुड़े यश देसाई ने बताया कि ये ऑटोनॉमस व्हीकल लेवल-3 पर बेस्ड है। यश देसाई ने आगे कहा कि इस ड्राइवलेस इलेक्ट्रिक कार के स्टीयरिंग व्हील, थ्रॉटल और ब्रेक को कई अलग-अलग आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग एल्गोरिदम से कंट्रोल किया गया है। इस कार में सेंसर, लीडर कैमरा, माइक्रो प्रोसेसर, ऑटोमेटिक एक्शन कंट्रोल सिस्टम इत्यादि जैसे फीचर्स दिए गए हैं।
4 घंटे में फुल चार्ज होती है यह कार
यश देसाई बोले, ये कार सिंगल चार्ज में 40 किलोमीटर तक का सफर करने में सक्षम है। इसकी बैटरी को फुल चार्ज होने में 4 घंटे का समय लगता है। डेवलपर्स का यह भी दावा है कि, इस वाहन का उपयोग परिवहन, कृषि, खनन जैसे कई अलग-अलग क्षेत्रों में किया जा सकता है। - जश्न-ए-आजादी के सिलसिले में 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से सबसे ज्यादा 17 बार तिरंगा लहराने का अवसर प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को मिला, वहीं उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने भी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में स्थित सत्रहवीं शताब्दी की धरोहर लाल किले पर 16 बार राष्ट्रध्वज फहराया। पंडित नेहरू ने आजादी के बाद सबसे पहले 15 अगस्त, 1947 को लाल किले पर झंडा फहराया और अपना बहुचर्चित संबोधन दिया। नेहरू जी 27 मई, 1964 तक प्रधानमंत्री पद पर रहे। इस अवधि के दौरान उन्होंने लगातार 17 स्वतंत्रता दिवस पर ध्वजारोहण किया।आजाद भारत के इतिहास में गुलजारी लाल नंदा और चंद्रशेखर ऐसे नेता रहे जो प्रधानमंत्री तो बने, लेकिन उन्हें स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहराने का एक भी बार मौका नहीं मिल सका। पंडित नेहरू के निधन के बाद 27 मई, 1964 को गुलजारी लाल नंदा प्रधानमंत्री बने, लेकिन उस वर्ष 15 अगस्त आने से पहले ही 9 जून, 1964 को वे पद से हट गए और उनकी जगह लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। गुलजारी लाल नंदा 11 से 24 जनवरी, 1966 के बीच भी प्रधानमंत्री पद पर रहे। इसी तरह चंद्रशेखर 10 नवंबर, 1990 को प्रधानमंत्री बने, लेकिन 1991 के स्वतंत्रता दिवस से पहले ही उसी साल 21 जून को पद से हट गए। लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद गुलजारी लाल नंदा फिर कुछ दिन प्रधानमंत्री पद पर रहे, लेकिन बाद में 24 जनवरी, 1966 को पंडित नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी ने सत्ता की बागडोर संभाली। पंडित नेहरू के बाद सबसे अधिक बार जिस प्रधानमंत्री ने लाल किले पर तिरंगा फहराया, वह इंदिरा गांधी ही रहीं। इंदिरा गांधी 1966 से लेकर 24 मार्च, 1977 तक और फिर 14 जनवरी, 1980 से लेकर 31 अक्टूबर, 1984 तक प्रधानमंत्री पद पर रहीं। बतौर प्रधानमंत्री अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने 11 बार और दूसरे कार्यकाल में पांच बार लाल किले पर झंडा फहराया। स्वतंत्रता दिवस पर सबसे कम बार राष्ट्रध्वज फहराने का मौका चौधरी चरण सिंह-28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980; विश्वनाथ प्रताप सिंह-2 दिसंबर, 1989 से 10 नवंबर, 1990; एच. डी. देवगौड़ा-1 जून, 1996 से 21 अप्रैल, 1997 और इंद्र कुमार गुजराल-21 अप्रैल, 1997 से लेकर 28 नवंबर, 1997 को मिला। इन सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों ने एक-एक बार 15 अगस्त को लाल किले से राष्ट्रध्वज फहराया।9 जून, 1964 से लेकर 11 जनवरी, 1966 तक प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री और 24 मार्च, 1977 से लेकर 28 जुलाई, 1979 तक प्रधानमंत्री रहे मोरारजी देसाई को दो- दो बार यह सम्मान हासिल हुआ। स्वतंत्रता दिवस पर पांच या उससे अधिक बार तिरंगा फहराने का मौका नेहरू और इंदिरा गांधी के अलावा राजीव गांधी, पी. वी. नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मिला है। राजीव गांधी 31 अक्टूबर, 1984 से लेकर एक दिसंबर, 1989 तक और नरसिंह राव 21 जून, 1991 से 10 मई, 1996 तक प्रधानमंत्री रहे। दोनों को पांच-पांच बार ध्वज फहराने का मौका मिला। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार का नेतृत्व कर चुके अटल बिहारी वाजपेयी जब 19 मार्च, 1998 से लेकर 22 मई, 2004 के बीच प्रधानमंत्री रहे तो उन्होंने कुल छह बार लाल किले की प्राचीर से तिरंगा फहराया। इससे पहले वे एक जून 1996, को भी प्रधानमंत्री बने, लेकिन 21 अप्रैल, 1997 को ही उन्हें पद से हटना पड़ा था। वर्ष 2004 के आम चुनाव में राजग की हार के बाद संप्रग सत्ता में आया और डॉ. मनमोहन सिंह ने 22 मई, 2004 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। उन्हें छह बार तिरंगा फहराने का सौभाग्य मिला। वहीं वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ने 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री पद का कार्यभार संभाला। 15 अगस्त वर्ष 2021 में उन्होंने आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के तौर पर आठवीं बार ध्वजारोहण किया।------------
- लंदन। कोरोना वायरस संक्रमण को मात देकर ठीक हुए लोगों को सोचने और ध्यान देने में परेशानी होने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। ईक्लीनिकलमेडिसिन पत्रिका में प्रकाशित अनुसंधान रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड-19 के गंभीर लक्षणों से प्रभावित रहे लोग ऑनलाइन परीक्षा श्रृंखला में कम अंक हासिल कर पाए तथा इससे उनके प्रदर्शन और समस्या समाधान की क्षमता सर्वाधिक प्रभावित हुई। इसमें कहा गया कि जिन लोगों को अस्पताल में वेंटिलेटर पर रखा गया, उनमें संज्ञानात्मक क्षमता सबसे अधिक कमजोर दिखी। ब्रिटेन के इंपीरियल कॉलेज लंदन से संबद्ध एवं अनुसंधान रिपोर्ट के अग्रणी लेखक एडम हैंपशाइर ने कहा, हमारे अध्ययन में कोविड-19 के विभिन्न पहलुओं को देखा गया जो मस्तिष्क तथा मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं।'' उन्होंने कहा, विभिन्न पहलुओं को देखते हुए अनुसंधान से संकेत मिलता है कि मस्तिष्क पर कोविड-19 के कुछ महत्वपूर्ण प्रभाव होते हैं जिसमें आगे पड़ताल की आवश्यकता है।
- 13 अगस्त नाग पंचमी पर विशेषनाग और नागों की दुनिया जितनी डरावनी लगती है, उतनी ही रोचक भी है। इसीलिए लोग इनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने को उत्सुक रहते हैंै। फिर चाहे बात नाग-नागिन के कहीं नजर आने की हो या फिर नागों के घर यानी कि नागलोक की हो। धर्म-पुराणों में नागलोक का उल्लेख विस्तार से मिलता हैै। यहां तक कि देश में कई जगहों को लेकर दावा किया जाता है कि वहां से नागलोक में जाने का रास्ता जाता है।ये रास्ते ले जाते हैं सीधे नागलोक .....!दावा किया जाता है कि नागलोक जाने वाले कुछ रास्ते देश में भी हैं और विदेश में भी हैंै। आज हम भारत के उन रास्तों के बारे में बात करेंगे जिनके बारे में मान्यता है कि वे सीधे नागलोक को जाते हैंै। हालांकि इन रास्तों पर चलना आसान नहीं है क्योंकि कहीं ये रास्ते घने जंगल और दुर्गम रास्तों से होकर जाते हैं तो कहीं ये जमीन की अतल गहराइयों में ले जाते हैंै।सतपुड़ा का नागलोक द्वार: मान्यता है कि मप्र में सतपुड़ा के घने जंगलों से एक रास्ता नागलोक को जाता हैै। हालांकि इस रास्ते तक ही पहुंचने के लिए खतरनाक पहाड़ों की चढ़ाई करनी पड़ती है और इसके लिए साल में मिलने वाले 1-2 मौकों का इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि टाइगर रिजर्व एरिया होने के कारण यह बाकी समय बंद रहता हैै।नागलोक जाने का छत्तीसगढ़ वाला रास्ताजशपुर क्षेत्र के तपकरा इलाके को नागों के मामले में खासा रहस्यमयी माना जाता हैै। इसके दो कारण हैं- एक तो यहां सांपों की ढेरों प्रजातियों का पाया जाना और दूसरा यहां के पहाड़ पर स्थित गुफा को पाताल द्वार कहा जाना। कहते हैं कि गुफा के अंदर से नागलोक का रास्ता है, लेकिन दावा किया जाता है कि जो भी गुफा में गया वो कभी लौटकर नहीं आया।उत्तरप्रदेश में नागलोक जाने का रास्ताकाशी के नवापुरा में बना कुआं जमीन की अतल गहराइयों तक जाता नजर आता है। यहां तक कि इसकी गहराई का किसी को भी ठीक-ठाक पता नहीं है। कारकोटक नाग नाम के इस तीर्थ में दर्शन करने की अनुमति साल में केवल एक बार नाग पंचमी के दिन ही मिलती है। कहते हैं कि कुआं का यह रास्ता सीधे नागलोक तक जाता है। इसी तरह मुजफ्फरनगर के शुक्रताल के बारे में कहा जाता है कि इसका तल इतना गहरा है कि वह सीधे नागलोक तक जाता है। आज तक कोई भी इसकी गहराई का पता भी नहीं लगा पाया है। नागलोक तक जाने का यह पानी वाला रास्ता कभी सूखा नहीं है.झारखंड के इस नाग द्वार पर खुद तैनात हैं नागकहा जाता है कि झारखंड की राजधानी रांची की पहाड़ी पर बने नाग मंदिर में भी नागलोक जाने का रास्ता है। गुफा में बने इस मंदिर में हमेशा नाग-नागिन रहते हैं। यह मंदिर सैंकड़ों साल पुराना है।
- हमारे प्राचीन ग्रंथों में बहुत से दिव्यास्त्रों की जानकारी मिलती है। इनमें त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश यानी भगवान शिव से संबंधित दिव्यास्त्र प्रमुख हैं। आज हम भगवान शिव से संबंधित कुछ ऐसे अस्त्रों के बारे में जानकारी दे रहे हैं, जो सबसे अधिक शक्तिशाली माने जाते हैं, जिन्हें हम महास्त्र कहते हैं।रुद्रास्त्र- ये महादेव का महाविध्वंसक अस्त्र था। जब इसे चलाया जाता था तो 11 रुद्रों की सम्मलित शक्ति एक साथ प्रहार करती थी और लक्ष्य का विध्वंस कर देती थी। वैसे तो प्रामाणिक रुप से इस अस्त्र का किसी के पास होने का वर्णन नहीं है किन्तु एक कथा के अनुसार अर्जुन ने इसे महादेव से प्राप्त किया था। जब अर्जुन स्वर्गलोक में थे तब उन्होंने असुरों के विरुद्ध युद्ध में देवराज इंद्र की सहायता की थी। उस युद्ध में देवता परास्त होने ही वाले थे तब कोई और उपाय ना देख कर अर्जुन ने रुद्रास्त्र का संधान किया और केवल एक ही प्रहार में तीन करोड़ असुरों का वध कर दिया।पाशुपतास्त्र: ये भगवान शंकर का महाभयंकर अस्त्र है जिसका कोई प्रतिकार नहीं है। एक बार छूटने पर ये लक्ष्य को नष्ट कर के ही लौटता है। कोई भी शक्ति पाशुपतास्त्र का सामना नहीं कर सकती। इस अस्त्र द्वारा ही भगवान शंकर ने केवल एक ही प्रहार में त्रिपुर का संहार कर दिया था। रामायण में केवल मेघनाद के पास ये अस्त्र था जो उसे भगवान शंकर से प्राप्त किया था। उसने लक्ष्मण पर इसका प्रयोग भी किया था किन्तु महादेव की कृपा से इस अस्त्र ने उनका अहित नहीं किया। महाभारत में ये अस्त्र केवल अर्जुन के पास था जो उसने निर्वासन के समय महादेव से प्राप्त किया था। महाभारत में इस अस्त्र के प्रयोग का कोई वर्णन नहीं है।शिवज्वर: ये भगवान शंकर का अस्त्र है जिसे माहेश्वरज्वर भी कहते हैं। ये महादेव का सर्वाधिक विध्वंसक अस्त्र है। इसकी शक्ति महादेव के तीसरे नेत्र की ज्वाला के समान है जिससे क्षण में समस्त सृष्टि को भस्मीभूत किया जा सकता है। इसका भी कोई प्रतिकार नहीं है। श्रीकृष्ण द्वारा विष्णुज्वर के विरुद्ध इस अस्त्र का उपयोग किया गया था। विष्णु पुराण में विष्णुज्वर को एवं शिव पुराण में शिवज्वर को विजेता बताया गया है। ब्रह्मपुराण में वर्णित है कि संसार की रक्षा हेतु उस युद्ध को परमपिता ब्रह्मा ने मध्यस्थता कर रुकवा दिया था।
- पुराणों के अनुसार परमपिता ब्रह्मा के शरीर से जल की उत्पत्ति हुई। उसी जल से दो जातियों की उत्पत्ति हुई जिन्होंने ब्रह्मदेव से पूछा कि उनकी उत्पत्ति क्यों हुई है? तब ब्रह्मा ने उनसे पूछा कि तुममे से कौन इस जल की रक्षा करेगा। उनमे से एक ने कहा कि हम इस जल की रक्षा करेंगे, वे "राक्षस" कहलाये। दूसरे ने कहा वे उस जल का यक्षण (पूजा) करेंगे, वे यक्ष कहलाये। तब ब्रह्मदेव ने दो राक्षसों हेति-प्रहेति की उत्पत्ति की जिससे आगे चल कर राक्षस वंश चला। इस वंश में एक से एक पराक्रमी योद्धाओं ने जन्म लिया जिसमें से सबसे प्रसिद्ध रावण है। आइये राक्षस वंश पर एक दृष्टि डालते हैं:परमपिता ब्रह्मा जब सृष्टि की रचना कर रहे थे तो उस श्रम के कारण उन्हें बड़ा क्रोध आया और बहुत भूख लगी। उनके क्रोध से हेति और भूख से प्रहेति नामक राक्षसों ने जन्म लिया। यहीं से राक्षस कुल की शुरुआत हुई। प्रहेति ब्रह्मदेव की प्रेरणा से तपस्या में लीन हो गया। हेति ने यमराज की बहन भया से विवाह किया। हेति और भया का पुत्र विद्युत्केश हुआ जिसका विवाह संध्या की पुत्री सालकण्टका से हुआ। विद्युत्केश का पुत्र सुकेश हुआ जिसे दोनों ने त्याग दिया। तब भगवान शिव और माता पार्वती ने उसे गोद ले लिया और वो शिव-पुत्र कहलाया। उसका विवाह ग्रामणी नामक गन्धर्व की कन्या देववती से हुआ। सुकेश के तीन पुत्र हुए - माल्यवान, सुमाली और माली। इन तीनों ने ही विश्वकर्मा से लंका की रचना करवाई और उसके राजा कहलाये।माल्यवान ने सुंदरी नामक स्त्री से विवाह किया जिससे उसके वज्रमुष्टि, विरुपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघन, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त नामक 7 पुत्र और अनला नामक एक पुत्री हुई। सुमाली ने केतुमती से विवाह किया जिससे उसे प्रहस्त, अकम्पन्न, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपाश्र्व, संह्लादि, प्रघस और भासकर्ण नामक 10 पुत्रों और राका, पुष्पोत्कटा, कैकसी और कुंभीनसी नामक 4 पुत्रिओं की प्राप्ति हुई। माली ने वसुदा से विवाह किया और उसके अनल, अनिल, हर और सम्पाति नामक चार निशाचर पुत्र हुए। रावण की मृत्यु के बाद ये चारो विभीषण के सलाहकार और मंत्री बने।माली की पुत्री कैकसी ब्रह्मा के पौत्र और महर्षि पुलत्स्य के पुत्र विश्रवा से ब्याही गयी। इसे उन्हें महापराक्रमी रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण नामक 3 पुत्र और शूर्पणखा नामक एक पुत्री हुई। राका के खर और दूषण नामक पुत्र हुए जो प्रभु श्रीराम के हाथों मारे गए। कुंभीनसी का विवाह मधु नामक दैत्य से हुआ जिससे उसे लवण नाम का एक पुत्र हुआ। इसी लवणासुर का वध शत्रुघ्न ने किया था।रावण ने मय दानव और हेमा की कन्या मंदोदरी से विवाह किया जिससे उसे मेघनाद, नरान्तक, देवान्तक, त्रिशिरा, प्रहस्त और अक्षयकुमार नामक 6 पुत्र हुए। रावण ने धन्यमालिनी नामक कन्या से भी विवाह किया जिससे उसे अतिकाय नामक पुत्र प्राप्त हुआ। कुम्भकर्ण का विवाह दैत्यराज बलि की पुत्री वज्रज्वला से हुआ जिससे उसे कुम्भ और निकुम्भ नामक पराक्रमी पुत्र प्राप्त हुए। कुम्भकर्ण की दूसरी पत्नी कर्कटी थी जो विराध राक्षस की विधवा थी जिससे कुम्भकर्ण ने बाद में विवाह किया। उससे उसे भीम नामक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका वध महादेव के हाथों हुआ। उसी के नाम पर भगवान शिव भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हुए। विभीषण का विवाह गंधर्व शैलूषा की पुत्री सरमा से हुआ जिससे उसे त्रिजटा नामक पुत्री की प्राप्ति हुई जो अशोक वाटिका में सीता की सुरक्षा करती थी। रावण की मृत्यु के पश्चात विभीषण ने मंदोदरी से भी विवाह किया। शूर्पनखा का विवाह दैत्य जाति के एक योद्धा विद्युतजिव्ह से हुआ जिसका वध रावण ने अपने दिग्विजय के दौरान किया। दुर्भाग्यवश विभीषण को छोड़ समस्त राक्षस वंश का लंका युद्ध में नाश हो गया।इसके अतिरिक्त ब्रह्मा के पौत्र और महर्षि मरीचि के पुत्र महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी सुरसा के पुत्रों को भी राक्षस कहा जाता है।
- वाशिंगटन। अमेरिका में किये गये एक नये अध्ययन के मुताबिक हवा में मौजूद 2.5 माइक्रोमीटर से कम व्यास के कणों (पीएम 2.5) का संबंध उन इलाकों में रहने वाले लोगों में ‘डिमेंशिया' के अत्यधिक जोखिम से है। डिमेंशिया, शब्द का इस्तेमाल याददाश्त और सोचने की क्षमता को प्रभावित करने वाले लक्षणों के समूह के लिए किया जाता है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने दो बड़ी जारी अध्ययन परियोजनाओं के आंकड़ों का इस्तेमाल किया है--इनमें एक 1970 के दशक के अंत में शुरू हुआ था जो वायु प्रदूषण को मापने से संबद्ध है जबकि दूसरा 1994 में शुरू हुआ था और यह डिमेंशिया पैदा करने वाले कारकों से संबद्ध है। उन्होंने पीएम 2.5 और डिमेंशिया के बीच एक संबंध होने का पता लगाया।अध्ययन के मुख्य लेखक राचेल शाफर ने कहा, ‘‘हमने पाया कि एक माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि होने से डिमेंशिया के कारकों में 16 गुना वृद्धि हो जाती है। इसी तरह का संबंध अल्जाइमर की तरह के डिमेंशिया से भी है। '' यह अध्ययन इन्वायरमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव्स में चार अगस्त को प्रकाशित हुआ है।
- हैदराबाद । एक नए अध्ययन में सामने आया है कि अगर लोग अपने खाने की खुराक में बाजरे को शामिल करें तो उनमें टाइप 2 मधुमेह का खतरा कम हो सकता है। साथ में यह रक्त में शर्करा की मात्रा को भी नियंत्रित करने में मदद करता है और जिन लोगों को यह अंदेशा रहता है कि उन्हें मधुमेह हो सकता है तो उन्हें बाजरे को अपनी खुराक में शामिल करना चाहिए, क्योंकि इससे जीवनशैली से जुड़ी बीमारी को दूर रखने में मदद मिल सकती है। अध्ययन में कहा गया है कि मधुमेह के मरीज और मधुमेह होने की दहलीज़ (प्री डायबिटिक) पर पहुंच चुके लोगों को अपनी खुराक में बाजरे को शामिल करना चाहिए। साथ में मधुमेह की बीमारी से बचने के लिए निवारक उपाय के तौर पर स्वस्थ लोग भी इसे अपनी खुराक में शामिल कर सकते हैं। बाजरा और मधुमेह पर इस अध्ययन का नेतृत्व स्मार्ट फूड इनिशिएटिव ऑफ आईसीआरआईएसएटी ने किया जिसमें हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एनआईएन), ब्रिटेन के रीडिंग विश्वविद्यालय और अन्य संस्थान शामिल हैं। यह जानकारी आईसीआरआईएसएटी ने यहां बृहस्पतिवार को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी। विज्ञप्ति के मुताबिक, 11 देशों में हुए शोध के आधार पर किए अध्ययन में पता चला है कि मधुमेह के जो मरीज अपनी दैनिक खुराक के साथ बाजरे का सेवन करते हैं उनके रक्त में शर्करा की मात्रा 12-15 प्रतिशत कम हो जाती है और वे मधुमेह पीड़ित से मधुमेह की दहलीज़ (प्री डायबिटिक) वाली श्रेणी में आ जाते हैं। यह अध्ययन ‘फ्रंटियर्स इन न्यूट्रीशन' में प्रकाशित हुआ है। विज्ञप्ति के मुताबिक, अध्ययनकर्ताओं ने 80 प्रकाशित अध्ययनों की समीक्षा की । अध्ययन की प्रमुख लेखिका और आईसीआरआईएसएटी में वरिष्ठ पोषण वैज्ञानिक एस अनिता ने कहा कि कोई नहीं जानता है कि मधुमेह पर बाजरे के प्रभाव पर कई वैज्ञानिक अध्ययन किए गए हैं। इन फायदों पर अक्सर विवाद रहा है और वैज्ञानिक जर्नलों में प्रकाशित अध्ययनों की सुनियोजित समीक्षा ने साबित किया है कि बाजरा रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करने, मधुमेह के खतरे को कम करने में मदद करता है। ” एनआईएन की निदेशक हेमलता के हवाले से विज्ञप्ति में कहा गया है कि मुधमेह से संबंधित स्वास्थ्य खर्च 70 लाख अमेरिकी डॉलर है। इसका कोई समाधान नहीं और इसके लिए जीवन शैली में बदलाव करने की जरूरत होती है और खुराक इसका एक अहम हिस्सा है। अंतरराष्ट्रीय मधुमेह संघ के मुताबिक, दुनियाभर में मधुमेह के मरीजों की संख्या बढ़ रही है। विज्ञप्ति के मुताबिक, भारत, चीन और अमेरिका में सबसे ज्यादा लोग मधुमेह से पीड़ित हैं।
- नई दिल्ली। बादल फटने से हिमाचल प्रदेश और केंद्र शासित प्रदेश, जम्मू कश्मीर तथा लद्दाख के प्रभावित होने के सिलसिले में विशेषज्ञों ने बुधवार को कहा कि इस आपदा का पूर्वानुमान करना मुश्किल है क्योंकि यह मुख्य रूप से स्थानीय स्तर पर होने वाली घटना है और पर्वतीय क्षेत्रों में हुआ करती है। किसी स्थान पर एक घंटे में यदि 10 सेंटीमीटर वर्षा होती है तो इसे बादल का फटना कहा जाता है। अचानक इतनी अधिक मात्रा में वर्षा होने से न सिर्फ जनहानि होती है बल्कि संपत्ति को भी नुकसान होता है।भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के महानिदेशक मृत्युजंय महापात्रा ने कहा कि बादल फटने की घटना बहुत छोटे क्षेत्र में होती है और यह हिमालयी क्षेत्रों या पश्चिमी घाट के पर्वतीय इलाकों में हुआ करती है। उन्होंने कहा कि जब मॉनसून की गर्म हवाएं ठंडी हवाओं के संपर्क में आती है जब बहुत बड़े आकार के बादलों का निर्माण होता है। ऐसा स्थलाकृति या पर्वतीय कारकों के चलते भी होता है।स्काईमेट वेदर के उपाध्यक्ष (मौसम विज्ञान एवं जलवायु परिवर्तन) महेश पलवत ने कहा कि इस तरह के बादल को घने काले बादल कहा जाता है और यह 13-14 किमी की ऊंचाई पर हो सकते हैं। यदि वे किसी क्षेत्र के ऊपर फंस जाते हैं या उन्हें छितराने के लिए कोई वायु गति उपलब्ध नहीं होती है तो वे एक खास इलाके में बरस जाते हैं। इस महीने, जम्मू कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बादल फटने की घटनाएं हुई। ये सभी पर्वतीय इलाके हैं।श्री महापात्रा ने कहा, ''बादल फटने का पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता। लेकिन हम बहुत भारी बारिश का अलर्ट जारी कर सकते हैं। हिमाचल प्रदेश के मामले में हमने एक रेड अलर्ट जारी किया था। '' पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय में सचिव एम राजीवन ने कहा कि बादल फटने की घटनाएं बढ़ रही हैं। उन्होंने कहा कि इसका पूर्वानुमान करना मुश्किल है लेकिन डोप्पलर रेडार उसका पूर्वानुमान करने में बहुत मददगार है। हालांकि, हर जगह रेडार नहीं हो सकता, खासतौर पर हिमालयी क्षेत्र में।
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लंदन। कोविड-19 महामारी के दौरान आभासी संपर्क माध्यम ब्रिटेन और अमेरिका में रह रहे 60 साल से अधिक आयु के लोगों के अकेलेपन को दूर करने में नाकाम रहे। सोमवार को संपन्न हुए नए शोध में यह बात कही गई है। ब्रिटेन और कनाडा में समाजशास्त्रियों द्वारा किए गए शोध में कोविड-19 के प्रकोप के बाद अमेरिका में अकेलेपन में उल्लेखनीय वृद्धि और ब्रिटेन में सामान्य मानसिक स्वास्थ में गिरावट देखी गई। शोध में पता चला कि महामारी के दौरान, व्यक्तिगत रूप से मिलने की जगह बातचीत के वर्चुअल माध्यमों जैसे फोन कॉल, संदेश, ऑनलाइन ऑडियो व वीडियो चैट और सोशल मीडिया ने ले ली, लेकिन ये माध्यम मददगार नहीं रहे और इनसे अकेलेपन में इजाफा हुआ। लैंकेस्टर यूनिवर्सिटी के डॉ यांग हू ने कहा, ''हमारे निष्कर्ष बताते हैं कि ब्रिटेन और अन्य जगहों पर तेजी से डिजिटलीकरण के बावजूद, सामाजिक संपर्क के डिजिटल साधन वृद्ध लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को फायदा पहुंचाने के मामले में व्यक्तिगत संपर्क की जगह नहीं ले सके। शोधकर्ताओं ने ब्रिटेन की आर्थिक एवं सामाजिक अनुसंधान परिषद द्वारा वित्त पोषित कोविड-19 सामाजिक बोध सर्वे और यूएसए स्वास्थ्य एवं सेवानिवृत्त सर्वे के राष्ट्रीय डाटा का विश्लेषण किया। ब्रिटेन में, 60 या उससे अधिक आयु के 5,148 वृद्ध लोगों और अमेरिका में 1,391 लोगों के बारे में जानकारी एकत्रित की गई। दोनों के महामारी से पहले (2018-19) और महामारी के दौरान (जुलाई 2020) के डेटा का विश्लेषण किया गया। सर्वे मे पता चला कि ब्रिटेन और अमेरिका में रह रहे 60 साल से अधिक आयु के लोगों ने अकेलेपन में बहुत ज्यादा वृद्धि का अनुभव किया।
- टोरंटो। वैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रकार के कोरोना वायरस और कोविड-19 के मरीजों से प्राप्त नमूनों के वायरस जनित प्रोटीन में ऐसे ‘पॉकेट' का पता लगाया है जिनमें कोरोना वायरस के हर प्रकार पर प्रभावी औषधि ‘बंध' सकती है। कनाडा में टोरंटो विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि इस सुरक्षित और प्रभावी टीके से कोविड-19 महामारी समाप्त हो सकती है। लेकिन उन्होंने कहा कि ‘टीका-रोधी' सार्स सीओवी-2 के प्रकार और नए कोरोना वायरस के संभावित उभार से ऐसे उपचार खोजे जा रहे हैं जिनसे सभी प्रकार के कोरोना वायरस से मुकाबला किया जा सकता है। शोध पत्रिका ‘जर्नल ऑफ प्रोटिओम रिसर्च' में प्रकाशित अध्ययन में कोरोना वायरस के 27 प्रकारों और कोविड-19 मरीजों के हजारों नमूनों से प्राप्त वायरस जनित प्रोटीन का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन में ऐसे ‘सीक्वेंस' का पता लगाया गया है जिनसे अत्यधिक प्रभावशाली दवा बनाई जा सकती है। दवाएं अकसर प्रोटीन पर बने ‘पॉकेट' में ‘बंधती' हैं जो उन्हें कसकर जकड़े रहते हैं जिससे वे प्रोटीन के संपर्क में रहती हैं। वैज्ञानिक, वायरस जनित प्रोटीन के त्रिआयामी ढांचे से ऐसे ‘पॉकेट' का पता लगा सकते हैं जिनमें दवाएं बंध सकती है। हालांकि, समय के साथ वायरस अपने प्रोटीन पॉकेट में उत्परिवर्तन कर सकते हैं जिससे दवाएं उसमें फिट न हो सकें। अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि दवाओं को बांधने वाले कुछ पॉकेट प्रोटीन के काम करने के लिए इतने महत्वपूर्ण हैं कि उन्हें उत्परिवर्तित नहीं किया जा सकता और संबंधित वायरसों में ऐसे पॉकेट समय के साथ संरक्षित होते हैं।
- चीन ने एक ट्रेन शुरू की है जो 600 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ सकती है। यह दुनिया की सबसे तेज रफ्तार ट्रेन होगी। चीन में भी ऐसी ट्रेन कम ही हैं। चीन के सरकारी मीडिया ने खबर दी है कि देश की नई मेगलेव ट्रेन शुरू हो गई है। इस ट्रेन की अधिकतम गति 600 किलोमीटर प्रति घंटा है, जो दुनिया में सबसे ज्यादा है। चीन ने यह ट्रेन घरेलू स्तर पर ही विकसित की है. इसे तटीय शहर किंगदाओ की एक फैक्ट्री में बनाया गया है। धरती पर यह सबसे तेज गति से चलने वाला वाहन है।कैसे चलती है मेगलेव ट्रेनइस ट्रेन में इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक फोर्स का इस्तेमाल होता है। चुंबकीय शक्ति के कारण यह ट्रेन ट्रैक से कुछ इंच ऊपर हवा में चलती है। यानी ट्रेन के पहिये और पटरी के बीच कोई संपर्क नहीं होता। हालांकि यह तकनीक नई नहीं है। चीन पिछले दो दशक से यह तकनीक इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन अब तक इसका प्रयोग सीमित रहा है।शंघाई से पास के एक कस्बे को जाने वाली मेगलेव लाइन है, जहां इस तकनीक पर चलने वाली ट्रेन प्रयोग होती है। चीन में शहरों के अंदर या विभिन्न प्रांतों के बीच भी कोई मेगलेव लाइनें नहीं हैं। फिर भी तेज रफ्तार ट्रेनें चीन में खूब इस्तेमाल होती हैं और अब मेगलेव ट्रेनों को लंबी दूरी में इस्तेमाल करने को लेकर काम शुरू हो गया है। शंघाई और चेंग्दू जैसे कई शहरों ने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है।600 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से इस मेगलेव ट्रेन को बीजिंग से शंगाई की एक हजार किलोमीटर की दूरी तय करने में ढाई घंटे का वक्त लगेगा। विमान से यह सफर साढ़े तीन घंटे का है और दूसरी तेज रफ्तार ट्रेन इसमें साढ़े पांच घंटे लगाती है।चीन की देखा-देखी दुनिया के अन्य देशों में भी तेज रफ्तार ट्रेनें चलाने पर विचार हो रहा है। जापान के अलावा जर्मनी भी मेगलेव नेटवर्क तैयार करने पर विचार कर रहे हैं। हालांकि यह बहुत खर्चीली परियोजना है और ट्रेनों का मौजूदा नेटवर्क मेगलेव तकनीक के लिहाज से पूरी तरह अलग है इसलिए ऐसी योजनाएं कहीं और सिरे नहीं चढ़ पाई हैं। भारत में भी बुलेट ट्रेन के रूप में तेज रफ्तार ट्रेनें चलाने की बात बहुत सालों से चल रही है। भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार प्रधानमंत्री बनने से पहले, 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान प्रचार में देश में बुलेट ट्रेन चलाने का वादा किया था। बाद में मुंबई से अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन चलाने का ऐलान भी किया गया, लेकिन फिलहाल वह योजना अधर में है।
- कोविड 19 के बाद अब मंकी बी वायरस से हुई पहली मौत से लोगों के बीच चिंता का माहौल है। चीन की राजधानी बीजिंग में मंकी बी वायरस से एक शख्स की मौत हो गई है। चीन से आई रिपोट्र्स के अनुसार मंकी बी वायरस के चलते जानवरों के एक डॉक्टर की मौत का पहला मामला सामने आया है। जानकारी के मुताबिक 53 साल के पशु चिकित्सक इंस्टीट्यूट में नॉन-ह्यूमन प्राइमेट्स पर रिसर्च कर रहे थे। मार्च में उन्होंने दो मृत बंदरों पर शोध किया था जिसके एक महीने बाद ही उनमें उल्टी और मितली जैसे लक्षण नजर आने लगे। आइये जानते हैं क्या है यह वायरसमंकी बी वायरस एक तरह का अल्फा हर्पीज वायरस है। इसे बी वायरस, हर्पीज बी वायरस के नाम से भी जाना जाता है। अभी यह कहना मुश्किल है कि यह मनुष्य से मनुष्य में भी फैल सकता है, क्योंकि अभी केवल पहला मामला दर्ज हुआ है और उस केस में जिस व्यक्ति की मौत हुई है उसके करीब के लोगों में फिलहाल जांच के बाद मंकी बी वायरस का कोई लक्षण नहीं मिला है।इंसानों में मंकी बी वायरस बंदर के काटने या खरोंच लगने से पहुंचता है। इसके अलावा वायरस की चपेट में आए बंदर की लार, मल-मूल से भी मंकी बी वायरस फैल सकता है। कुछ रिपोट्र्स में ऐसा कहा गया है कि ये वायरस वस्तुओं की सतह पर कई घंटों तक जीवित रह सकता है।मंकी बी वायरस की वैक्सीन अभी नहीं हैमंकी बी वायरस इंसानों के लिए जानलेवा है क्योंकि इससे बचने के लिए अब तक कोई वैक्सीन मौजूद नहीं है। हालांकि बी वायरस के इलाज के लिए एंटीवायरस दवाएं जरूर मौजूद है। जानकारी के अनुसार मंकी बी वायरस से मौत का केवल एक मामला अभी सामने आया है। इस वायरस की पहचान साल 1932 में हुई थी। मंकी बी वायरस से संक्रमित व्यक्ति की मृत्यु दर 70 से 80 प्रतिशत होती है इसलिए फिलहाल बचाव ही इसका उपाय है। जो व्यक्ति इस वायरस से संक्रमिति हो जाता है उसके दिमाग और स्पाइनल कॉड में सूजन आ सकती है और इलाज न मिलने पर व्यक्ति की मौत हो जाती है।मंकी बी वायरस होने पर कैसे लक्षण नजर आते हैं?मंकी बी वायरस के कुछ लक्षण कोरोना वायरस जैसे हो सकते हैं और मंकी वायरस होने के लक्षण एक महीने के अंदर ही नजर आने लगते हैं।बुखार आना,सांस लेने में परेशानी, ठंड लगना और सिर में दर्द होना, मांसपेशियों में दर्द, पेट में दर्द, उल्टी आना या हिचकी आना, घाव के आसपास दर्द या खुजली, घाव वाले हिस्सेे में छाले पडऩा। वहीं अगर वायरस शरीर में फैल जाए तो दिमाग और रीढ़ की हड्डी में सूजन आ सकती है।
- जेसीबी कंपनी के मशीनों को आपने जरूर देखा होगा। कंस्ट्रक्शन से जुड़े कामों में इस कंपनी के मशीनों का इस्तेमाल दुनियाभर के हर देशों में होता है। इस कंपनी के मशीनों में एक विशेष खासियत ये है कि इनका रंग पीला होता है। लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि ये मशीन आखिर पीले रंग की ही क्यों होती है, किसी और रंग की क्यों नहीं?जेसीबी के मशीनों के पीले रंग के बारे में जानने से पहले इस कंपनी के बारे में कुछ अनोखी बातें भी हम जान लेते हैं। आपको बता दें कि जेसीबी ब्रिटेन की मशीन बनाने वाली एक कंपनी है, जिसका मुख्यालय इंग्लैंड के स्टैफर्डशायर शहर में है। इसके प्लांट दुनिया के चार महाद्वीपों में हैं। जेसीबी दुनिया की पहली ऐसी कंपनी है, जो बिना नाम के साल 1945 में लॉन्च हुई थी। इसको बनाने वाले ने बहुत दिनों तक इसके नाम को लेकर सोच-विचार किया, लेकिन कोई अच्छा सा नाम न मिलने के कारण इसका नाम इसके आविष्कारक 'जोसेफ सायरिल बमफोर्ड' के नाम पर ही रख दिया गया।आपको जानकर हैरानी होगी कि जेसीबी पहली ऐसी निजी ब्रिटिश कंपनी थी, जिसने भारत में अपनी फैक्ट्री लगाई थी। आज के समय में जेसीबी मशीन का पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा निर्यात भारत में ही किया जाता है।साल 1945 में जोसेफ सायरिल बमफोर्ड ने सबसे पहली मशीन एक टीपिंग ट्रेलर (सामान ढोने वाला ट्रेलर) बनायी थी, जो उस वक्त बाजार में 45 पौंड यानी आज के हिसाब से करीब 4000 रुपये में बिकी थी।दुनिया का पहला और सबसे तेज रफ्तार ट्रैक्टर 'फास्ट्रैक' जेसीबी कंपनी ने ही साल 1991 में बनायी थी। इस ट्रैक्टर की अधिकतम रफ्तार 65 किलोमीटर प्रति घंटा थी। इस ट्रैक्टर को 'प्रिंस ऑफ वेल्स' पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है।आपको ये जानकर हैरानी होगी कि साल 1948 में जेसीबी कंपनी में महज छह लोग काम करते थे, लेकिन आज के समय में दुनियाभर में लगभग 11 हजार कर्मचारी इस कंपनी में काम करते हैं।शुरुआत में जेसीबी मशीनें सफेद और लाल रंग की बनती थीं, लेकिन बाद में इनका रंग पीला कर दिया गया। दरअसल, इसके पीछे तर्क ये है कि इस रंग के कारण जेसीबी खुदाई वाली जगह पर आसानी से दिख जाती है, चाहे दिन हो या रात। इससे लोगों को आसानी से पता चल जाता है कि आगे खुदाई का काम चल रहा है।
- भिंडी खाने वालों के लिए एक अच्छी खबर। अब वे हरी भिंडी के साथ-साथ लाल भिंडी का भी मजा ले सकते हैं। भारतीय वैज्ञानिकों की 23 साल की मेहनत सफल हो गई है और उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि अब खेतों में लहलहा रही है लाल भिंडी की फसल।उम्दा स्वाद, आकर्षक रंग, और पौष्टिक तत्वों से भरपूर लाल भिंडी जिसे काशी लालिमा के नाम से भी जानते हैं भिंडी को चाहने वालों के लिए किसी सौगात से कम नहीं है।भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान ने 23 साल की मेहनत के बाद भिंडी की नई प्रजाति काशी लालिमा विकसित करने में सफलता पाई है। लाल रंग की यह भिंडी एंटी ऑक्सीडेंट, आयरन और कैल्शियम सहित अन्य पोषक तत्वों से भरपूर है।इस कलर की भिंडी अब तक पश्चिमी देशों में प्रचलन में रही है और भारत में आयात होती रही है। इसकी विभिन्न किस्मों की कीमत 100 से 500 रुपये प्रति किलो तक है।'दरअसल लाल भिंडी के विकास की इसी तरह की भिंडी से हुआ जो कभी कहीं और पाई गई थी। वैज्ञानिकों ने चयन विधि का प्रयोग करके इसी लाल भिंडी की प्रजाति को और विकसित किया। इस भिंडी में आम हरी सब्जी यहां तक की भिंडी में पाए जाने वाले क्लोरोफिल की जगह एंथोसाइनिन की मात्रा होती है जो इसके लाल रंग का वजह है।भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान के तकनीकी अधिकारी बताते हैं कि इस भिंडी को लगाने में किसानों को डेढ़ गुना तक फायदा होगा, क्योंकि इसको लगाने के तरीके से लेकर लागत तक सब कुछ सामान्य भिंडी की तरह है। इस आकर्षक भिंडी को बेचकर किसान डेढ़ गुना ज्यादा मुनाफा बाजार से कमा लेंगे।वहीं संस्थान के निदेशक की मानें तो ये भिंडी अपने आप में बहुत ज्यादा चमत्कारी है खासकर गर्भवती महिलाओं के लिए जिनके शरीर में फॉलिक अम्ल की कमी के चलते बच्चों का मानसिक विकास नहीं हो पाता है। वह फॉलिक अम्ल भी इस काशी लालिमा भिंडी में पाया जाता है। इतना ही नहीं इस भिंडी में पाए जाने वाले तत्व लाइफ स्टाइल डिजीज जैसे हृदय संबंधी बीमारी, मोटापा और डायबिटिज को भी नियंत्रित करती है।संस्थान के निदेशक बताते हैं कि लाल या हरी भिंडी पकने के बाद स्वाद में एक जैसी ही होती है। वे बताते हैं कि इस भिंडी को बेचकर किसान काफी मुनाफा कमाएंगे। अभी वैज्ञानिक इस लाल भिंडी की पैदावार को बढ़ाने पर भी काम कर रहे हैं। एक हेक्टेयर में हरी भिंडी 190-200 क्विंटल तक पैदावार देती है तो वहीं काशी लालिमा की उपज 130-150 क्विंटल तक ही है।निदेशक बताते हैं कि उनके संस्थान के पहले छत्तीसगढ़ के कुछ जनजाति इलाकों में कुछ छात्र लाल भिंडी पैदा कर रहे हैं, लेकिन सबसे पहले भारत में इसको परिष्कृत रूप में वाराणसी के भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान में उगाया गया है. इससे पहले अमेरिका के क्लीमसन विवि में भी लाल भिंडी को उगाया जा चुका है।
- नयी दिल्ली। भारतीय वैज्ञानिकों के एक समूह ने किफायती थ्रीडी रोबोटिक गतिमान छाया (फैंटम) तैयार की है जो सांस लेने के दौरान मानव फेफडों की गति को दोबारा पैदा कर सकती है और इसका उपयोग यह पता लगाने के लिए किया जा सकता है कि क्या किसी गतिशील लक्ष्य पर रेडिएशन सही तरीके से केंद्रित है या नहीं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने सोमवार को यह जानकारी दी। इस फैंटम को इंसानों को लिटाए जाने वाले बिस्तर पर लगे सीटीस्कैनर पर लगाया गया है। आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर आशीष दत्त और लखनऊ पीजीआई में प्रोफेसर के जे मारिया दास ने इसे मिल कर तैयार किया है। सांस लेने से फेफड़े में होने वाली गति के कारण पेट के ऊपरी हिस्से और छाती से जुड़े कैंसर के ट्यूमर को लक्षित रेडिएशन देना मुश्किल काम होता है। इस गति के कारण उपचार के दौरान ट्यूमर के अलावा एक बड़ा हिस्सा रेडिएशन के संपर्क में आता है और इस वजह से ट्यूमर के आस पास के ऊतक भी प्रभावित होते हैं। किसी मरीज में फेफडे की गति को नियंत्रित करके लक्षित स्थान पर रेडिएशन दिया जा सकता है ताकि वह अन्य हिस्से को नुकसान पहुंचाए बिना असरदार हो। लेकिन इंसानों पर इसे करने से पहले इसकी प्रभाविता को रोबोटिक छाया पर जांचना जरूरी है।
- नयी दिल्ली। भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर), भोपाल के अनुसंधानकर्ताओं ने पौधों में ऐसे मुख्य जीन की पहचान की है जिससे उसमें एक प्रोटीन का पता चला है जो किसी पौधे में बीज के विकास को नियंत्रित करता है। पत्रिका ‘प्लांट साइकोलॉजी' में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि अनुसंधानकर्ताओं ने इस जीन की प्रकृति और इससे जुड़े प्रोटीन तथा पौधे के शुरुआती विकास में इनकी भूमिका के बारे में बताया। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार, किसी नमी, तापमान, हवा और प्रकाश समेत उचित पर्यावरणीय परिस्थितियों में बीज का अंकुरण जटिल प्रक्रिया है जिसमें कई जैव रासायनिक, शारीरिक और रूपात्मक बदलाव शामिल हैं। कई पौधों में अंकुरण का पहला कदम पहली भ्रूणीय पत्ती का विकास है जिसे बीजपत्र कहा जाता है। बीजपत्र उस कोमल अंकुर की रक्षा करते हैं जो पौधे के ऊपरी हिस्से में विकसित होगा और इसके निकलने का समय महत्वपूर्ण है। आईआईएसईआर, भोपाल के जैविक विज्ञान विभाग के असोसिएट प्रोफेसर सौरव दत्ता ने कहा, ‘‘प्रतिकूल परिस्थितियां जैसे कि असामयिक बारिश से बीजपत्र समय से पूर्व पैदा हो सकता है जिससे कोमल शाखा को नुकसान पहुंच सकता है और पौधे की वृद्धि रुक सकती है। यह उन वजहों में से एक है जिसके कारण अप्रत्याशित मौसम परिस्थितियों के चलते किसानों की फसलें बर्बाद हो जाती हैं।'' उन्होंने कहा, ‘‘फसलों को बर्बाद होने से बचाने के लिए बीजपत्र के खुलने के समय को नियंत्रित करना कारगर हो सकता है। यह ज्ञात है कि ब्रासीनोस्टीरॉयड (बीआर) नाम का हार्मोन अंधेरे में बीजपत्र को खोलने के लिए जिम्मेदार होता है और प्रकाश से बीजपत्र को खुलने में मदद मिलती है जबकि प्रकाश और बीआर के बीच के आणविक विनियमन को अभी तक अच्छे तरीके से समझा नहीं गया था।'' आईआईएसईआर के वैज्ञानिकों ने पाया कि बीबीएक्स32 नामक जीन में जिस प्रोटीन का पता चला है वह प्रकाश के संकेत को नकारात्मक रूप से नियंत्रित करता है और सरसों परिवार से संबंधित अरबीडोप्सिस पौधे में बीजपत्र को खोलने में बीआर संकेतक को बढ़ावा देता है। अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि ऐसे नियंत्रण से कठोर पर्यावरणीय परिस्थितियों से पौधों को बचाने में मदद मिल सकती है और इससे अधिक पैदावार हो सकती है।
- मेरु पर्वत, एक ऐसा स्थान है, जिसका उल्लेख आपको लगभग सभी प्रमुख धर्मों में मिल जाएगा, यहाँ तक कि इससे जुड़ी मान्यताएं भी लगभग समान हैं। पौराणिक कहानियों और दस्तावेजों में मेरु पर्वत का जिक्र एक ऐसे पर्वत के तौर पर मिलता है, जो सोने के समान चमकीले सुनहरे रंग का है तथा इसके पांच मुख्य शिखर हैं। हिमालय की गोद में स्थित मेरु पर्वत की विशेषता यही समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि इसे ब्रह्मा का निवास स्थान भी माना जाता है।हिन्दू धर्म से जुड़े दस्तावेजों में मेरु पर्वत को अलौकिक पर्वत की संज्ञा दी गई है और इसे सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा समेत समस्त देवी-देवताओं का स्थान कहा गया है। पौराणिक हिन्दू खगोलीय ग्रंथ, सूर्य सिद्धांत के अनुसार मेरु पर्वत पृथ्वी की नाभि पर स्थित है। इसके अलावा यह भी उल्लिखित है कि सुमेरु अर्थात मेरु पर्वत, उत्तरी ध्रुव और कुमेरु पर्वत दक्षिणी ध्रुव पर स्थित है, जिसका अर्थ है कि मेरु पर्वत का आकार उत्तर से दक्षिण ध्रुव तक फैला हुआ है। मेरु पर्वत को स्वर्ग की संज्ञा दी जाती है जिसकी संरचना धरती पर होने के बावजूद भी धरती पर नहीं हुई है।पौराणिक कथाओं में मेरु पर्वत के विषय में बहुत कुछ कहा गया है। मत्स्य पुराण और भागवत पुराण में इसकी ऊंचाई 84 हजार योजन (10 लाख 82 हजार किलोमीटर) बताई गई है, जो धरती के कुल व्यास से करीब 85 गुणा है। इसका फैलाव 16 हजार योजन, ऊपर की ओर की चौड़ाई 32 हजार योजन और नीचे की चौड़ाई 16 हजार योजन है। कूर्म पुराण के अनुसार इस विशाल क्षेत्र के बीचो-बीच जंबूद्वीप स्थित है, जिसके मध्य में स्थित है सुनहरा मेरु पर्वत। हम मुख्यत: चार दिशाओं से परिचित हैं और हिन्दू धर्म में इन चारों दिशाओं के अलग-अलग द्वारपाल या संरक्षक बताए गए हैं।पूर्वी दिशा का संरक्षण इन्द्र देव के हाथ है, पश्चिमी दिशा की रक्षा वरुण देव करते हैं, दक्षिण दिशा की रक्षा स्वयं मृत्यु के देवता यम द्वारा की जाती है और उत्तरी दिशा के द्वारपाल धनकुबेर हैं। ये चारों देव मेरु पर्वत को अलग-अलग दिशाओं को एक अभिभावक की तरह देखते हैं। केवल हिन्दू धर्म में ही नहीं बल्कि जैन और बौद्ध धर्म के लोग भी मेरु पर्वत को स्वर्ग की संज्ञा देते हैं। यहाँ तक कि प्राचीन यूनानी कथाओं में मेरु को ही ऑलिम्पस पर्वत का नाम दिया गया है जहाँ देवताओं के राजा ज्यूस निवास करते हैं। जावा (इंडोनेशिया) में प्रचलित लोक कथाओं में भी मेरु पर्वत का जिक्र देवताओं के पौराणिक निवास के रूप में किया गया है। पंद्रहवी शताब्दी से संबंधित प्राचीन पांडुलिपियों में जावा द्वीप के उद्भव और मेरु पर्वत के कुछ हिस्सों को जावा द्वीप से क्यों जोड़ा गया, इसका भी रहस्य बताया गया है।जावा की इस प्राचीन पांडुलिपि के अनुसार बतारा गुरु (शिव) ने विष्णु और ब्रह्मा को यह आदेश दिया कि वह इस द्वीप पर मानवता को जन्म दें और समस्त द्वीप को मनुष्यों से भर दें। उस समय जावा द्वीप हर समय हिलता और सागर पर बहता रहता था। ऐसे हालात में मनुष्यों का वहां रहना कठिन था, इसलिए द्वीप को स्थिर रखने के लिए ब्रह्मा और विष्णु ने महामेरु पर्वत के भाग को जंबूूद्वीप पर ले जाकर उसे जावा द्वीप से जोडऩे का निश्चय किया। इसके परिणाम के तौर पर जावा के सबसे लंबे पर्वत, सुमेरु पर्वत की स्थापना हुई। ऐसा कहा जाता है आदिकाल में मेरु पर्वत से जुड़ी अवधारणा इतनी पुख्ता और मजबूत थी कि कई बेहद प्राचीन मंदिरों का निर्माण भी इस पर्वत की संरचना की तरह ही हुआ है। हिन्दू, जैन और बौद्ध मंदिर इस बात के सशक्त उदाहरण हैं।मेरु पर्वत की चोटी पर 33 देवताओं का निवास स्थान है। इंद्र भी यहीं रहते हैं। इसकी हर ढलान पर इस पर्वत के चार अभिभावक यम, कुबेर, इन्द्र और वरुण देव रहते हैं। इसके नीचे अन्य पौराणिक पात्र जैसे अप्सरा, गंधर्व, यक्ष, नाग, सिद्ध, विद्याधर रहते हैं और सबसे नीचे असुरों का वास है।
- अमृता शेरगिल प्रख्यात भारतीय कलाकार थी। बचपन से ही संगीत व अभिनय इनके साथी बन गए थे। ये बहुत ही प्रतिभावान कलाकार थी। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने इन्हें भारत के नौं सर्वश्रेष्ठ कलाकारों में शामिल किया है। महज आठ वर्ष की आयु में ही ये वायलिन और पियानों बजाने के साथ ही कैनवास पर भी हाथ आजमाने लगी थी। इनकी शिक्षा भले ही पेरिस में हुई लेकिन इनका मन सदैव भारतीय रहा और वहां से आर्ट की शिक्षा लेने के बाद ये जल्द ही भारत लौट आई। मात्र 22 वर्ष की आयु में ही ये एक तकनीकी तौर पर भी कलाकार बन चुकी थीं और अपनी असामान्य प्रतिभा के कारण उनमें एक कालाकार के सारे गुण मौजूद थे। जब 1941 में ये अपने पति के साथ लाहौर चली गई। यहां इनकी पहली एकल प्रदर्शनी होनी थी लेकिन अचानक बहुत बीमार होने के कारण ये प्रख्यात प्रतिभावान कलाकार मात्र 28 वर्ष की आयु में शून्य में विलीन हो गई। हाल ही में अमृता शेरगिल की पेंटिंग “इन द लेडीज एनक्लोजर”, सैफ्रनआर्ट द्वारा नीलामी कराई गई। जिसमें इनकी पेंटिंग 37.8 करोड़ रुपये में बिकी और इसी के साथ वह दुनिया में दूसरी सबसे मंहगी भारतीय कलाकृति बन गई है।इससे पहले सबसे महंगी पेंटिंग का खिताबइसी साल कालाकार वी एस गायतोंडे द्वारा बनाई गई 1961 की पेंटिंग 39.98 करोड़ रुपये में बिकी थी। यह कलाकृति वैश्विर स्तर पर अब तक की सबसे महंगी भारतीय कलाकृति है। जब अमृता शेरगिल भारत वापस आई तो इसके कुछ सालों बाद उनके द्वारा 1938 में ‘ऑयल ऑन कैनवस’ पर बनाई गई पेंटिंग ने भी एक वैश्विक कीर्तिमान स्थापित किया है।अमृता शेरगिल अपने विवाह के बाद पुश्तैनी घर गोरखपुर में बस गई थी। यह पेंटिंग यहीं उनके गोरखपुर में बनाई गई थी। इस पेंटिंग में खेत में कुछ महिलाओं को दर्शाया गया है। सैफ्रनआर्ट के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और सह संस्थापक दिनेश वजीरानी ने एक बयान में कहा, ''अमृता शेरगिल की बेहतरीन पेंटिंग कीर्तिमान स्थापित करने वाली बिक्री से एक कलाकार के रूप में उनके स्तर का पता चलता है और यह उनकी प्रतिभा तथा कौशल का प्रमाण है।''उन्होंने यह भी कहा कि, ''इस कलाकृति में एक कलाकार के रूप में उनके विकास की झलक मिलती है और यह कलाकार के रूप में कई वर्षों की गई तपस्या की परिणति है।'' वजीरानी ने कहा कि यह पेंटिंग शेरगिल द्वारा बनाई गई दुर्लभ कलाकृति है।
- हम समय जानने के लिए घड़ी का इस्तेमाल करते हैं। बाजार में तरह-तरह की घडिय़ां मौजूद हैं। वैदिक काल में भी समय का पता लगाने के लिए अपने तरीके थे। वैदिक घड़ी के कांटे और घंटे वैदिक ज्ञान की जानकारी भी देते हैं। ऐसी ही घड़ी के बारे में हम बता रहे हैं जो बहुत कुछ कहती है।इस घड़ी में 1 से 12 के स्थान पर क्रमश: ब्रह्म, अश्विनौ, त्रिगुणा, चतुर्वेदा, पञ्चप्राणा:, षड्रसा:, सप्तर्षय:, अष्टसिद्धय:, नवद्रव्याणि, दशदिश:, रुद्रा: एवं आदित्या: लिखा है। ये सभी देवताओं अथवा गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं और जिस स्थान पर वे हैं उनकी संख्या भी उतनी ही है। इनमें से 12 आदित्य, 11 रूद्र एवं 2 अश्विनीकुमारों की गिनती हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध 33 कोटि देवताओं में की जाती है। इनमें एक समूह 8 वसुओं का भी है जो इस चित्र में वर्णित नहीं है। आइये इसे इसे समझते हैं।1.00 बजे - ब्रह्म - हमारे पुराणों में आदि एवं अंत ब्रह्म से ही माना गया है। ब्रह्म एक ही होता है जो सत्य एवं सनातन है। कहा गया है - एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति। अर्थात, ब्रह्म एक ही है, दूसरा कोई नहीं।2.00 बजे - अश्विनौ - ये अश्विनीकुमारों का प्रतिनिधित्व करता है जो दो होते हैं - नासत्य एवं दसरा। नासत्य सूर्योदय एवं दसरा सूर्यास्त का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये 33 कोटि देवताओं में से एक हैं। यही दोनों भाई महाभारत में माद्रीपुत्र नकुल एवं सहदेव के रूप में जन्मे थे।3. बजे- त्रिगुणा - ये प्रत्येक जीव के तीन गुणों - सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन तीनों गुणों का मिश्रण एवं एक गुण की प्रधानता सभी जीवों में होती है। केवल श्रीहरि विष्णु इन तीन गुणों से परे, अर्थात त्रिगुणातीत माने जाते हैं।4.00 बजे- चतुर्वेदा - ये परमपिता ब्रह्मा द्वारा रचित चारो वेदों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद।5.00 बजे- पञ्चप्राणा: - ये जीवों के पांच प्राणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मानव शरीर को 5 प्राण एवं 5 उप-प्राण में विभक्त किया गया है। 5 मुख्य प्राण हैं - अपान, समान, प्राण, उदान एवं व्यान। उसी प्रकार 5 उप-प्राण हैं - देवदत्त, वृकल, कूर्म, नाग एवं धनञ्जय।6.00 बजे- षड्रसा: - ये छह रसों का प्रतिनिधित्व करते हैं (षड्रसा: = षड + रस)। किसी भी वास्तु का स्वाद इन्ही 6 रसों के कारण अलग-अलग होता है। ये हैं - मधुर (मीठा), अम्ल (खट्टा), लवण (नमकीन), कटु (कड़वा), तिक्त (तीखा) एवं कसाय (कसैला)।7.00 बजे- सप्तर्षय: - ये सप्तर्षियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे तो प्रत्येक मन्वन्तर में सप्तर्षि अलग-अलग होते हैं किन्तु प्रथम स्वयंभू मनु के काल के सप्तर्षियों, जो ब्रह्मदेव के मानस पुत्र हैं, को प्रधानता दी जाती है। ये हैं - मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य एवं वशिष्ठ।8.00 बजे- अष्टसिद्धय: - ये अष्ट सिद्धियों का प्रतिनिधित्व करती है। महाबली हनुमान के पास अष्ट सिद्धि थी। इसके बारे में कहा गया है - अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा। प्राप्ति: प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धय:।। अर्थात, अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व - ये 8 सिद्धियाँ "अष्टसिद्धि" कहलाती हैं।9.00 बजे- नवद्रव्याणि - ये नौ निधियों का प्रतिनिधित्व करती है। महावीर हनुमान एवं यक्षराज कुबेर इन नौ निधियों के स्वामी हैं, किन्तु जहाँ कुबेर इन नौ निधियों को किसी को प्रदान नहीं कर सकते, हनुमान इसे दूसरे को प्रदान कर सकते हैं। हनुमान की नौ निधियां हैं - रत्न किरीट, केयूर, नूपुर, चक्र, रथ, मणि, भार्या, गज एवं पद्म। कुबेर की नौ निधियां हैं - पद्म, महापद्म, नील, मुकुंद, नन्द, मकर, कच्छप, शंख एवं खर्व।10.00 बजे- दशदिश: - ये दसो दिशाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रत्येक दिशा के स्वामी को दिक्पाल कहते हैं। ये हैं - पूर्व (इंद्र), आग्नेय (अग्नि), दक्षिण (यम), नैऋत्य (सूर्य), पश्चिम (वरुण), वायव्य (वायु), उत्तर (कुबेर), ईशान (सोम), उर्ध्व (ब्रह्मा) एवं अधो (अनंत)।11.00 बजे- रुद्रा: - ये 11 रुद्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये सभी भगवान शंकर के रूप माने जाते हैं और 33 कोटि देवताओं में स्थान पाते हैं। ये हैं - शम्भू, पिनाकी, गिरीश, स्थाणु, भर्ग, भव, सदाशिव, शिव, हर, शर्व एवं कपाली।12.00 बजे- आदित्या: - ये 12 आदित्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्ही आदित्यों को हम आम भाषा में देवता कहते हैं। ये महर्षि कश्यप एवं दक्षपुत्री अदिति के पुत्र हैं हुए 33 कोटि देवताओं में स्थान रखते हैं। ये हैं - इंद्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान (सूर्य), अंशुमान, मित्र, वरुण एवं विष्णु (वामन)।
- डायनासोर हमेशा से ही लोगों के लिए कौतूहल का विषय रहे हैं। इन पर कई सारे शोध हुए जो अब तक जारी हैं। डायनासोर का नाम सुनते ही लोगों के मन में एक विशालकाय जानवर की तस्वीर बनती है लेकिन क्या आपको पता है कि ठंडे खून के ये जीव छोटे आकार के भी होते थे। हाल ही में चीन के शोधकर्ताओं ने जीवाश्मों का अध्ययन किया है जिसके बाद उन्हें बहुत ही छोटे आकार के डायनासोर के बारे में बहुत ही रोचक जानकारी मिली है। शोधकर्ताओं के मुताबिक अल्वारेजसॉर प्रजाति के डायनासोर ने अपने खाने की खुराक में बदलाव किया था और इन डायनासोर ने चींटियों को खाना शुरू कर दिया था। जिसके कारण बाद में उनका आकार तेजी से कम होने लगा था।कहां और किसने किया ये अध्ययनबीजिंग में इंस्टीट्यूट ऑफ वर्टिबरेट पेलिओन्टोलॉजी एवं पेलिओएंथ्रोपोलॉजी और ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी के पीएचडी छात्र जिचुआन किन की अगुआई में यह अध्ययन किया गया। जिसमें पाया गया कि अल्वारेजसॉर डायनासोर ने आज से करीब 10 करोड़ साल पहले अपनी खुराक में बदलाव करते हुए चींटियों को खाना शुरु किया था और इस खुराक को अपनाने के बाद अपना आकार बहुत तेजी से कम करना शुरू कर दिया था। ये डायनासोर मुर्गे के आकार तक छोटे हुआ करते थे।पहले ऐसा होता है इन डायनासोर का आकारपुराने नमूनों के आधार पर अध्ययन में पाया गया कि इन डायनासोर का आकार आकार विशाल टर्की या छोटे शतरमुर्ग के आकार के बराबर हुआ करता था। ये कम से कम 10 से 70 किलो के भार के वजनी थे। उस समय के अधिकांश अल्वारेजसॉर डायनासोर पतले, दो पैरों वाले हुआ करते थे और छिपकली, शुरुआती स्तनपायी जीव और शिशु डायनासोर के तौर पर अपनी खुराक लेते थे।खुराक में बदलाव के कारण हुआ आकार में बदलावअध्ययन के मुताबिक अल्वारेजसॉर के उद्भव काल के बाद के समय में नमूनों के आकार के अनुसार इनका आकार एक मुर्गे के बराबर छोटा हो गया था। जिचिन के अनुसार है कि उनके आकार में इस तरह का बदलाव इसलिए हुए क्योंकि वे चींटियां खाने लगे थे। जिचुआन के पर्यवेक्षकों में से एक ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइकल बेंटन का इस बारे में कहना है कि खाने की बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण खुराक में यह बड़ा बदलाव हुआ होगा।लगभग दर्जनभर नमूनों को लेकर किया गया अध्ययनजिचुन ने अल्वारेजसॉर प्रजाति डायनासोर के दर्जन भर नमूनों का अध्ययन किया और लाखों साल तक किस तरह उनके आकार में बदलाव हुआ इसका अध्ययन किया। इस तरह से पीढ़ी दर पीढ़ी उनके आकार में बदलाव हुआ। अल्वारेजसॉर डायनासोर उत्तर ज्यूरासिक काल से लेकर उत्तर क्रिटेशियस काल में रहा करते थे। इसका मतलब से वे 16 करोड़ साल से 7 करोड़ साल पहले के समय में चीन मंगोलिया, और दक्षिण अमेरिका में पाए जाते थे।