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नयी दिल्ली. दिल का दौरा पड़ने के मामले आमतौर पर 'मोटापे' और 'उच्च कोलेस्ट्रॉल' के शिकार लोगों के बीच देखने को मिलते हैं, लेकिन हाल ही में युवाओं में सामने आईं ऐसी घटनाएं एक अलग और चिंताजनक तस्वीर पेश करती हैं। ऐसे कई वीडियो सामने आए हैं, जिनमें सैर, जिम में कसरत जैसी रोजमर्रा की गतिविधियां करते और शादी में नाचते समय लोग हृदयाघात के शिकार हो गए। ऐसे में प्रख्यात हृदय रोग विशेषज्ञों का मानना है कि 'असामान्य व्यायाम' या 'अति व्यायाम' युवाओं में दिल के दौरे का कारण बन सकता है। पिछले कुछ वर्षों में, हृदयाघात के मामलों में वृद्धि हुई है, विशेष रूप से 25 से 50 वर्ष की आयु के लोगों के बीच। हाल ही में कन्नड़ सुपरस्टार पुनीत राजकुमार, गायक केके और हास्य कलाकार राजू श्रीवास्तव जैसी कई हस्तियों का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। इसके बाद हृदयाघात के बारे में कुछ व्यापक रूप से गलत धारणाएं सामने आई हैं और उन्हें दूर करने की आवश्यकता है। यहां अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के हृदय रोग विभाग के प्रोफेसर डॉ. नीतीश नाइक कहते हैं, “हृदय को रक्त और पोषण की आपूर्ति करने वाली धमनियों में अचानक रुकावट के कारण दिल का दौरा पड़ता है।” फोर्टिस अस्पताल, नोएडा के ‘कार्डियक साइंसेज' के अध्यक्ष और ‘कार्डियक सर्जरी' के प्रभारी डॉ. अजय कौल बताते हैं, "धमनी में वसा की परत का निर्माण होता है। यह परत टूटकर रक्त वाहिका में प्रवेश कर जाती है, जिससे वाहिका में रक्त का थक्का बन जाता है, और वह बंद हो जाती है।" नाइक कहते हैं, "धूम्रपान के आदी, सुस्त जीवन शैली वाले, मोटापे, खराब रक्तचाप से ग्रस्त, मधुमेह से पीड़ित या उच्च कोलेस्ट्रॉल के शिकार लोगों के साथ इस तरह की दिक्कत हो सकती हैं।" उन्होंने कहा कि इसके केवल यही कारण नहीं हैं। जिम में अत्यधिक कसरत करने से भी ऐसा हो सकता है।
पैन मैक्स- कार्डिएक साइंसेज में कैथ लैब के प्रमुख निदेशक और प्रमुख डॉ. विवेक कुमार कहते हैं, "अनियमित व्यायाम से दिल का दौरा पड़ सकता है, इसलिए बिना प्रशिक्षण के व्यायाम नहीं करना चाहिए।" उजाला सिग्नस ब्राइटस्टार हॉस्पिटल, मुरादाबाद के सीनियर कंसल्टेंट और ‘इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजिस्ट' डॉ. विजया कुमार कहते हैं, "हां, ज्यादा व्यायाम करने से कोरोनरी वाहिकाओं में जमी परत फट सकती है, जिससे दिल का दौरा पड़ सकता है।" नयी दिल्ली के पटपड़गंज में स्थित मैक्स अस्पताल में हृदय रोग विभाग के एसोसिएट डायरेक्टर विनीत भाटिया ने कहा, "आंकड़ों की बात की जाए तो युवाओं में इसके 15-18 प्रतिशत मामले होते हैं।" लेकिन युवाओं में हृदयाघात के मामले केवल अत्यधिक व्यायाम के कारण नहीं देखे गए हैं। कोविड से भी दिल का दौरा पड़ने के मामले बढ़े हैं। कौल कहते हैं, "यह सच है कि कोविड ने बहुत दिक्कतें पैदा की हैं। कोविड से रक्त के थक्के जम सकते हैं। कोविड से हृदय और फेफड़ों की समस्याएं पैदा होती हैं।" ऐसे में सवाल उठता है कि कोई कैसे जान सकता है कि कोविड या अधिक व्यायाम हृदय की समस्याओं का कारण है? कौल कहते हैं, "मूल्यांकन। किसी डॉक्टर के पास जाएं, और वह आपको बताएगा कि क्या कोविड केवल आपके फेफड़ों तक ही सीमित था या नहीं।" कोविड के खिलाफ लड़ाई में टीकों का अहम योगदान रहा है। हालांकि, कोविड रोधी टीके कुछ मामलों में हृदयाघात का कारण भी बने हैं। ऐसे में इस तरह के मामलों से कितना चिंतित होने की जरूरत है? इस बारे में कौल कहते हैं, "लाभ, जोखिमों से कहीं अधिक हैं। टीकाकरण में कई अन्य समस्याएं हैं। हां, ऐसा है। लेकिन संख्या इतनी कम है कि उन्हें अनदेखा किया जा सकता है। दूसरा, यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि कोविड हृदय की समस्याओं को और अधिक बढ़ा सकता है -
आमतौर पर रोमांस या स्नेह से जोड़े जाते चुंबन की शुरुआत बेहद दिलचस्प है. वहीं बीच में ऐसा भी दौर आया, जब कई सरकारों ने इसपर बैन लगा दिया. मसला जितना दिलचस्प हो, उसपर बातें भी उतने ही तरह की होंगी, किस के साथ भी कुछ ऐसा ही है. एंथ्रोपोलॉजिस्ट अलग-अलग थ्योरी देते हैं कि चुंबन की शुरुआत कैसे और कहां से हुई होगी.
हां, एक बात लगभग सभी कहते हैं कि पहला किस एक हादसा रहा होगा. हादसा, जो पसंद आ गया.
शुरुआत मां के बच्चों को खाना खिलाने से हुई होगी. पहले पशु भी खाने का निवाला या अनाज-फल सीधे बच्चों के मुंह में नहीं डालते थे, बल्कि चबाया हुआ कौर मुंह से मुंह में दिया जाता. इसे प्रीमेस्टिकेशन फूड ट्रांसफर कहते हैं. ह्यूमन इवॉल्यूशन इसी तरह से हुआ होगा. चिंपाजियों में अब भी ऐसा होता है. और चिंपाजी मांएं अपने बच्चों को दुलारते हुए किस भी करती हैं. तो ये भी हो सकता है कि हमने अपने पूर्वजों की देखादेखी चुंबन का लेनदेन सीख लिया हो.
दूसरी थ्योरी भी है, जिसके मुताबिक चुंबन एक एक्सिडेंट की देन है. टेक्सास ए एंड एम यूनिवर्सिटी के एंथ्रोपोलॉजी विभाग ने इसपर भारी स्टडी की और क्लेम किया कि सूंघते हुए हमने एकाएक एक-दूसरे को चूम लिया होगा. यहीं से हुई शुरुआत. बात में थोड़ा दम इसलिए भी है कि पुराने समय में एक-दूसरे को मिलते हुए सूंघने का चलन था. बहुत सी सोसायटी में सूंघना ही एक तरह का अभिवादन था. सूंघते हुए ही एकाएक किसी जोड़े ने चुंबन ले लिया होगा. ये नई चीज है. शायद ज्यादा लुभावनी और ज्यादा करीबी लगने वाली.
माना जाता है कि चुंबन की शुरुआत इसी तरह से और वो भी हमारे ही देश से हुई. बाद में प्राचीन ग्रीक भारत आए और लौटते हुए चुंबन का कंसेप्ट भी साथ ले गए. इसी तरह से ये पूरी दुनिया में फैला.
भले ही चुंबन को अक्सर प्यार जताने की भंगिमा की तरह देखा जाता है, लेकिन ऐसा है नहीं. कम से कम पुराने समय में तो ऐसा बिल्कुल नहीं था. मध्यकालीन यूरोप में इसे ग्रीटिंग की तरह देखा जाता, जो हल्के ओहदे वाले लोग ऊंचे ओहदेदारों के साथ करते. दो बराबरी के लोग आपस में मिलते हुए माथे या होठों पर किस करते, जबकि गैर-बराबरी की मुलाकात में केवल नीचे के ओहदे वाला ही ऊपर वाले को चूमता, वो भी हाथ या पैर या फिर कपड़े के किनारे को.
इसके बाद चुंबन का रूप और गहराता गया. ये ज्यादा इंटेन्स हो गया. खासकर होठों पर चुंबन प्यार का प्रतीक बनने लगा. हालांकि फिलहाल किस के जिस स्वरूप पर फ्रांस अपना ठप्पा लगाता है, उसकी शुरुआत किसी फ्रांसीसी जोड़े से हुए होगी, इसपर काफी लट्ठम-लट्ठ हो चुकी. ये बात अलग है कि तगड़ी दावेदारी फ्रांस की ही है.
लगभग एक दशक पहले ही इस देश ने देर तक चुंबन को अपनी डिक्शनरी में शामिल करते हुए उसे एक नाम दिया- गलॉश. साथ में ये दावा भी ठोक दिया कि पहले वर्ल्ड वॉर के समय फ्रांस में समय बिता चुके अमेरिकी सैनिकों ने उनका ये भेद जान लिया और यहां-वहां फैला दिया. बता दें कि पश्चिम के कई मुल्क फ्रेंच किस पर अपनी मुहर लगाना चाहते हैं. कई एंथ्रोपोलॉजिस्ट इसके लिए अलग-अलग तरह के हवाले देते हैं.
मिसाल के तौर पर रोमन शासक टाइबेरिअस ने होठों पर चुंबन पर बैन लगा दिया क्योंकि इससे यौन रोग फैलने का डर रहता था. शासक का राज काफी दूर-दराज तक फैला हुआ था. इजीप्ट से लेकर इटली-जर्मनी और बेल्जियम-स्विटजरलैंड का बड़ा हिस्सा उसके कब्जे में था, यानी इन सारे इलाकों में चूमना प्रतिबंधित हो गया. यहीं से गाल चूमने का चलन आया होगा, जो कि अब पश्चिम समेत हमारे यहां भी खूब जोरों पर है. वैसे बैन की बात चल ही निकली है तो बता दें कि 17वीं सदी में जब दुनिया का बड़ा हिस्सा प्लेग से दम तोड़ रहा था, तब भी ब्रिटेन समेत कई देशों ने चूमने पर रोक लगा दी. न मानने वाले को सजा के तौर पर भारी जुर्माना देना होता.
अमेरिका, जो अब अपने खुलेपन और लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के लिए जाना जाता है, वहां एक समय ऐसा भी था, जब सार्वजनिक तौर पर किसिंग को शिष्टाचार से बाहर माना गया. ये बात पहले विश्व युद्ध के बाद की है. तब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति केल्विन कूलिज ने इसे बैड मैनर्स की लिस्ट में रखा. इसके बाद शिष्टाचार सिखाने वाली एक लेखिका एमिली पोस्ट ने अपनी मैगजीन में इसे जगह दी.
चुंबन सुनते ही सबके जेहन में कोई न कोई रोमांटिक तस्वीर बनती है, लेकिन ये उतना रोमांटिक है नहीं, जितना हमने मान रखा है. कम से कम दुनिया की 54 प्रतिशत आबादी तो यही सोचती है. अमेरिकी एंथ्रोपोलॉजिस्ट एसोसिएशन ने कुछ साल पहले एक रिसर्च की, जिसमें दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के 168 कल्चर्स को शामिल किया गया. इसमें पता लगा कि सिर्फ 46 प्रतिशत लोग ही हैं जो चुंबन को रोमांस से जोड़ते हैं, खासकर होठों पर चुंबन. बाकियों ने चुंबन के इस रूप को रोमांस से जोड़ने से साफ इनकार कर दिया.
दुनिया के कई हिस्से हैं, जहां चुंबन को अब भी खराब माना जाता है, जैसे सोमालिया में इसे बीमारी फैलाने की साजिश की तरह देखते हैं. इसी तरह से बोलिविया का सिरिओनो ट्राइब किसिंग से एकदम अछूता है. हो ये भी सकता है कि शायद एक-दूसरे को पहचानने, या प्रेम जताने के लिए वे आज भी सूंघने जैसी प्राचीन भंगिमा अपनाते हों.-sabhar
- डेमोडेक्स आठ-पैर वाले घुन परिवार का एक सदस्य है जो हमारे बालों के रोम में रहते हैं और कई स्तनधारियों की तेल ग्रंथियों से जुड़े होते हैं। मनुष्यों में इस घुन की दो प्रजातियाँ ज्ञात हैं - डेमोडेक्स फॉलिकुलोरम, जो मुख्य रूप से हमारे चेहरे (विशेष रूप से पलकों और भौहों) पर बालों के रोम में रहते हैं, और डेमोडेक्स ब्रेविस, जो चेहरे और अन्य जगहों पर तेल ग्रंथियों में घर बनाते हैं। नवजात शिशुओं में डेमोडेक्स माइट्स नहीं होते हैं। वयस्क मनुष्यों पर उनकी तलाश करने वाले एक अध्ययन में, शोधकर्ता उन्हें केवल 14 प्रतिशत लोगों में देखकर पहचान सके। हालांकि, एक बार जब उन्होंने डीएनए विश्लेषण का उपयोग किया, तो उन्होंने जितने लोगों पर परीक्षण किया उन सभी पर यानी 100 प्रतिशत वयस्क मनुष्यों पर डेमोडेक्स के संकेत पाए। यह एक ऐसी खोज थी जो इस संबंध में पहले हो चुके परीक्षणों का समर्थन कर रही थी। यदि वह पूरी मानवता में रहते हैं, तो सवाल उठता है कि क्या ये घुन परजीवी हैं या हानिरहित जीव हैं और अपने अनजाने यजमानों के साथ सद्भाव से रहते हैं? और हमारी कौन सी दैनिक आदतें, जैसे चेहरा धोना और मेकअप लगाना, घुन के जीवित रहने में सहायता या बाधा डाल सकती हैं? यही सवाल मुश्किल हैं।डेमोडेक्स घुन बहुत छोटे होते हैं। दो मानव प्रजातियों में से बड़ी, डी. फोलिक्युलोरम, लगभग एक तिहाई मिलीमीटर लंबी होती है, जबकि डी. ब्रेविस एक चौथाई मिलीमीटर से भी कम होती है। वे अपने शरीर पर बैक्टीरिया की कई प्रजातियों को भी साथ रखते हैं। घुनों का सीधे पता लगाने के लिए कई विधियों का उपयोग किया जाता है। सबसे अच्छा तरीका एक त्वचा बायोप्सी है जिसमें माइक्रोस्कोप स्लाइड पर साइनोएक्रिलेट ग्लू (सुपरग्लू) की थोड़ी मात्रा का इस्तेमाल किया जाता है। घुन की रहने की आदतें ऐसी होती हैं कि वह बालों में अकसर लगने वाली बेलनाकार रूसी में आराम से रह जाते हैं। ज़िट एक्सट्रैक्टर के साथ माइट्स को फॉलिकल्स से भी निकाला जा सकता है। घुन त्वचा की कोशिकाओं और वसामय तेलों को अपने भोजन के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें वे एंजाइमों की एक श्रृंखला को स्रावित करके पहले से पचा लेते हैं। चूंकि उनके शरीर में मलद्वार नहीं होते, वे अपने अपशिष्ट उत्पादों को मुंह से निकालते हैं। फॉलिकल में अपने आरामदायक घरों में रहते हुए ये नन्हे जीव साथी बनाते हैं और अंडे देते हैं; लगभग 15 दिनों के जीवनकाल के बाद, वे मर जाते हैं और कूप में वहीं सड़ जाते हैं। इनके इन्हीं खराब जीवनचक्र के कारण डेमोडेक्स कुछ लोगों में एलर्जी का कारण बन सकता है, और कई संबद्ध नैदानिक प्रभावों का कारण भी हो सकता है। फेस माइट्स कई तरह की समस्याएं पैदा कर सकते हैं और हाल के अध्ययन डेमोडेक्स माइट्स से जुड़ी कई स्थितियों के बारे में जानकारी देते हैं: जैसे चकत्ते, त्वचा पर मुंहासे और फुंसियां , पलकों में सूजन, पलकों की तेल ग्रंथियों में रुकावट जिससे सिस्ट की समस्या हो सकती है, कॉर्निया में सूजन, शुष्क आंखें और आंख पर मांस बढ़ जाना। हालांकि इन स्थितियों के अन्य कारण भी हैं, लेकिन इनमें घुन की भूमिका को लेकर अधिक संदेह है।हालांकि, हम सभी की इन प्राणियों के प्रति नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं होती है। जब हम इनसे संक्रमित होते हैं, तो हमारे जीन हमारी प्रतिरक्षा और अन्य प्रतिक्रियाओं को निर्धारित करते हैं घुन अपने परपोषी से अधिक समय तक जीवित नहीं रहते हैं। सीधे संपर्क के अलावा, व्यक्तिगत स्वच्छता उत्पाद संभवतः संक्रमण का रास्ता बनाते हैं। मेकअप ब्रश, चिमटी, आईलाइनर और काजल साझा करना शायद एक अच्छा विचार नहीं है, हालांकि साझा बाथरूम में संक्रमण से बचना मुश्किल हो सकता है। एक अध्ययन में, काजल में डेमोडेक्स के जीवित रहने का औसत समय 21 घंटे था। मेकअप के उपयोग के अन्य पहलू, जैसे नियमित सफाई और चेहरे की धुलाई, घुन की संख्या को कम कर सकते हैं, हालांकि अन्य अध्ययनों से पता चलता है कि घुन अच्छी तरह से धोने से भी बच जाते हैं। इस प्रकार, यह स्पष्ट नहीं है कि आप अपने घुन की आबादी को कितना प्रभावित कर सकते हैं। हालांकि, अगर आपको पलकों और आस-पास के क्षेत्रों में कोई सूजन है, तो मेकअप से परहेज करना और चिकित्सकीय सलाह लेना सबसे अच्छा हो सकता है। कुल मिलाकर, भले ही वे अप्रिय लगें, डेमोडेक्स हमारी त्वचा वनस्पतियों का एक सामान्य हिस्सा प्रतीत होता है। हालांकि, हममें से कुछ लोग उनकी उपस्थिति पर नकारात्मक प्रतिक्रिया करते हैं और चकत्ते और सूजन से पीड़ित होते हैं। इस तरह की प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करना उतना ही आसान हो सकता है जितना कि एक चिकित्सा पेशेवर द्वारा निर्धारित धोने या उपचार के साथ घुन की संख्या को सीमित करना - बस यह जान लें कि हमारे घुन मित्रों से पूरी तरह से छुटकारा पाना शायद असंभव है।
- चुनावी बॉन्ड एक तरह का वचन पत्र होता है जिसे नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक किसी भी शाखा से खरीद सकती है. ये बॉन्ड नागरिक या कॉर्पोरेट अपनी पसंद के हिसाब से किसी भी पॉलिटिकल पार्टी को डोनेट कर सकते हैं. कोई भी व्यक्ति या फिर पार्टी इन बॉन्ड को डिजिटल फॉर्म में या फिर चेक के रूप में खरीद सकते हैं. ये बॉन्ड बैंक नोटों के समान होते हैं, जो मांग पर वाहक को देने होते हैं.कब हुई थी शुरुआतचुनावी बॉन्ड की पेशकश साल 2017 में फाइनेंशियल बिल के साथ की गई थी. 29 जनवरी, 2018 को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में NDA गवर्नमेंट ने चुनावी बॉन्ड स्कीम 2018 को अधिसूचित किया था.कैसे काम करते हैं चुनावी बॉन्ड (Electoral bond)इलेक्टोरल बॉन्ड यूज करना काफी आसान है. ये बॉन्ड 1,000 रुपए के मल्टीपल में पेश किए जाते हैं जैसे कि 1,000, ₹10,000, ₹100,000 और ₹1 करोड़ की रेंज में हो सकते हैं. ये आपको SBI की कुछ शाखाओं पर आपको मिल जाते हैं. कोई भी डोनर जिनका KYC- COMPLIANT अकाउंट हो इस तरह के बॉन्ड को खरीद सकते हैं. और बाद में इन्हें किसी भी राजनीतिक पार्टी को डोनेट किया जा सकता है. इसके बाद रिसीवर इसे कैश में कन्वर्ट करवा सकता है. इसे कैश कराने के लिए पार्टी के वैरीफाइड अकाउंट का यूज किया जाता है. इलेक्टोरल बॉन्ड भी सिर्फ 15 दिनों के लिए वैलिड रहते हैं.कब खरीदे जाते हैं ये बॉन्डचुनावी बॉन्ड हर तिमाही के पहले 10 दिन खरीदे जा सकते हैं. अप्रैल, जनवरी, जुलाई और अक्टूबर के शुरुआती 10 दिन सरकार द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने के समय तय किए गए हैं. लोक सभा चुनाव के समय अलग से 30 दिन का समय भी सरकार तय कर सकती है.नियम और शर्तेंकोई भी पार्टी जो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (1951 का 43) की धारा 29A के तहत पंजीकृत है और हाल के आम चुनावों या विधानसभा चुनावों में कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल किया है, चुनावी बॉन्ड प्राप्त करने के लिए पात्र है. पार्टी को भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) द्वारा एक सत्यापित खाता आवंटित किया जाएगा और चुनावी बांड लेनदेन केवल इस खाते के माध्यम से किया जा सकता है.
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चीन में मिलने वाली डा-हॉन्ग-पाओ-टी की. इस चाय पत्ती का नाम दुनिया में मिलने वाली सबसे महंगी चाय की पत्तियों में शुमार है। इसकी देखभाल में काफी मेहनत लगती है।
दुनिया में एक से बढ़कर एक लोग चाय के शौकीन हैं। भारतीय लोगों के लिए तो चाय एक इमोशन है। आमतौर पर भारतीय दुकानों में 10 से 20 गिलास या कप चाय मिलती है, वहीं अगर कोई बड़े होटल- रेस्टोरेंट में चले जाएं तो 100 रुपए से लेकर 1000 रुपए तक की चाय मिलेगी।
लेकिन क्या आप जानते हैं दुनिया के एक कोने में ऐसी चाय मिलती है, जो सबसे महंगी है. हम बात कर रहे हैं चीन में मिलने वाली डा-हॉन्ग-पाओ-टी की। यदि 1 किलो चाय खरीदना हो तो आपको लगभग 10 करोड़ रुपए कीमत अदा करनी होगी। जानकारी के मुताबिक डा हॉन्ग पाओ टी की खेती चीन के फोजियान के वूईसन इलाके में की जाती है, जिन पेड़ों में यह चाय लगती है वह रेयर पेड़ होते हैं और उन्हें मदर्स ट्री भी कहते हैं।
चीनी लोगों के मुताबिक इस चाय का इतिहास से बहुत ही पुराना है मिंग शासन के दौरान एक बार महारानी की तबीयत खराब हुई थी जिसके बाद डॉक्टरों ने उन्हें यह चाय पिलाई। चाय ने कमाल दिखाते हुए महारानी को ठीक कर दिया था। यह पौधा बहुत ही दुर्लभ होता है। इसकी देखभाल में काफी मेहनत लगती है दवा तो यह भी किया जाता है कि इसे पीने से शरीर की कई गंभीर बीमारियों से आसानी से छुटकारा पाया जा सकता है। दुनियाभर में इसके सिर्फ 6 पेड़ मौजूद हैं।
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सर्दी के मौसम की शुरूआत हो रही है. लेकिन इस सीजन की शुरूआत के साथ ही राजधानी दिल्ली की आबो-हवा भी खराब हो गई है. दिल्ली और इसके आसपास के इलाकों में प्रदूषण का स्तर बढ़ गया है, जिससे सांस संबंधी कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. बता दें कि जिन लोगों को पहले से ही फेफड़ों संबंधी कोई परेशानी है, उन्हें प्रदूषण के चलते और भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. इसी लिए हेल्थ एक्सपर्ट्स भी इस समय घरों के अंदर ही व्यायाम करने की सलाह दे रहे हैं. बाहर के अलावा आपके घर के अंदर की हवा भी साफ होनी चाहिए. आज हम आपको बताएंगे कि कैसे घर की हवा को साफ रख सकते हैं.
Air Purifier है जरूरी
आपको बता दें कि घरों में लगे Air Purifier हमें प्रदूषण से होने वाली एलर्जी के तो बचाते ही हैं, साथ ही हमारे घर की हवा भी साफ करते हैं. बता दें कि Air Purifier में मौजूद HEPA फिल्टर्स 99.9 फीसदी तक हवा में मौजूद प्रदूषक तत्वों को खत्म करने की क्षमता रखते हैं. हालांकि, प्रदूषक तत्वों को पूरी तरह से खत्म तो नहीं किया जा सकता. लेकिन इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है.
लगाएं Indoor Plants
घर के अंदर की हवा को साफ करने का सबसे बेस्ट तरीका है कि आप Indoor Plants लगाएं. आप ऐसे पौधें लगाएं, जो हवा को साफ कर सकते हों. आप चाहें तो एलोवेरा के पौधे को भी घर के अंदर रख सकते हैं. बता दें कि एलोवेरा कार्बनडाईऑक्साइड को अब्सॉर्ब करने की क्षमता रखता है.
एसी के फिल्टर को करें चेक
सबसे जरूरी बात की आप अपने घर में लगे एसी के फिल्टर को चेक करते रहें. इसमें कई तरह के प्रदूषक तत्व रहने का अंदेशा रहता है. अगर आपको प्रोन एलर्जी की शिकायत है, तो आप अपने घर के एसी के फिल्टर को जरूर साफ करें. इसके अलावा, आप अपने घर में साफ-सफाई का भी ख्याल रखें. घर में गंदगी रहने से भी हवा में जहरीले तत्व शामिल हो जाते हैं. - पृथ्वी पर अधिकांश जानवर अकशेरुकी (रीढ़ की हड्डी के बिना) होते हैं - जैसे कि कीड़े, मकड़ी परिवार और कड़े खोल वाले जलजीव। ये अद्भुत जानवर हमारे पारिस्थितिक तंत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं: वे परागणक, कीट नियंत्रक, मिट्टी निर्माता और अपशिष्ट प्रबंधक हैं। अकशेरूकीय अनगिनत अन्य जानवरों के भोजन के रूप में भी काम करते हैं। अपनी सारी मेहनत के बावजूद, इनमें से कई जीवों को अक्सर डरावने रेंगने वाले जीवों के रूप में वर्णित किया जाता है। उनके अजीब से दिखने वाले शरीर बुरे सपने की तरह लग सकते हैं, लेकिन अधिकांश अकशेरुकी प्रजातियां मनुष्यों के लिए हानिरहित हैं। वास्तव में, अकशेरुकी जीवों के बारे में सबसे डरावनी बात यह है कि वे हमारे ग्रह से चुपचाप गायब हो रहे हैं। यहां सात आकर्षक लेकिन डरावने रेंगने वाले जीवों के बारे में बात करते हैं, जिनसे आपको डरने की जरूरत नहीं है।मकड़ियों (डेलेना कैंसराइड्स)ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासी, सामाजिक शिकारी मकड़ियों सूख चुके या सूख रहे पेड़ों की ढीली छाल के नीचे बड़े परिवार समूहों में रहती हैं। चिंता न करें, सोशल हंट्समैन मकड़ियां बेहद सौम्य होती हैं जो शायद ही कभी इंसानों को काटती हैं (और जब वे ऐसा करती हैं तो कम से कम नुकसान पहुंचाती हैं)। अधिकांश मकड़ी प्रजातियों के विपरीत, सामाजिक शिकारी एक बड़े वयस्क मादा वाले समूहों में एक साथ रहते हैं और उनकी 300 संतानें होती हैं। मकड़ियों बाहरी लोगों के खिलाफ आक्रामक रूप से अपने घर की रक्षा करती हैं, जिससे लगता है कि उनके पास अपने कबीले से बाहर वालों को पहचानने की क्षमता होती है। रात में, ये शिकारी कीड़ों का शिकार करने के लिए अपने सामुदायिक घर से बाहर निकलते हैं। शिकार मिलने पर यदि एक ही कीट के सामने कई सारी मकड़ियाँ होती हैं तो वह एक दूसरे से लड़ने के बजाय भोजन आपस में बांट लेती हैं। दरअसल, मकड़ी प्रजातियों एक साथी मकड़ी को खाने की बजाय भूख से मरना पसंद करेंगी। बड़ी संख्या में कीड़े खाकर, सामाजिक शिकारी या सोशल हाउंट्समन कीटों की आबादी को नियंत्रण में रखने में मदद करते हैं।विशालकाय कॉकरोच (मैक्रोपेनेस्थिया रायनोसर्स)तिलचट्टे दुनिया के सबसे अधिक डरावने और निंदनीय कीड़े में से एक माने जाते हैं - जो उनके प्रति सही नहीं है, क्योंकि अधिकांश तिलचट्टे हानिरहित जानवर हैं जो हमारे प्राकृतिक पर्यावरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऑस्ट्रेलिया के गर्म उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जंगलों में पाए जाने वाले विशालकाय तिलचट्टे को लें। यह कोमल विशालकाय तिलचट्टे की दुनिया की सबसे भारी प्रजाति है, जिसका वजन तकरीबन 30-35 ग्राम होता है। अपने कुख्यात रिश्तेदारों के विपरीत, विशालकाय तिलचट्टा एक कीट नहीं है और अपना अधिकांश समय भूमिगत बिलों में बिताना पसंद करता है। विशालकाय तिलचट्टे यूकेलिप्टस के सूखे पत्तों का भोजन करते हैं, जिसे वे इकट्ठा करते हैं और अपनी बिल में खींच लेते हैं। इस दौरान मिट्टी को हिलाने और मिलाने से, विशालकाय तिलचट्टे मिट्टी को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं। वे उत्कृष्ट माताएँ हैं जो जन्म के बाद नौ महीने तक अपने बच्चों को खिलाती हैं और उनकी देखभाल करती हैं। विशालकाय तिलचट्टा भी आश्चर्यजनक रूप से लंबे समय तक जीवित रहता है, जिसकी उम्र 10 साल तक होती है।बैफोमेट कीट (क्रिएटोनोटोस गैंगिस)अजीब तरह से अपने अंगों को फुलाने वाले बैफोमेट कीट देखने में डरावने हो सकते हैं - लेकिन दरअसल ये पतंगे बस प्यार की तलाश में रहते हैं। जब नर बाफोमेट पतंगे मादा की उपस्थिति को महसूस करते हैं, तो वे "कोरमाटा" नामक विशाल, अंगों को तंबु की तरह फुलाते हैं, जो मादा को रिझाने के लिए एक अनूठा रासायनिक गुलदस्ता बनाते हैं। कैटरपिलर के रूप में, नर बैफोमेट पतंगे अपनी मादा-आकर्षित करने वाली सुगंध बनाने के लिए पौधों की पत्तियों को खाते हैं जिनमें पाइरोलिज़िडिन एल्कलॉइड नामक रसायन होते हैं। पौधे इन अल्कलॉइड का उत्पादन पौधों को कुतरने वाले जानवरों को रोकने के लिए करते हैं, लेकिन बैफोमेट पतंगों ने इन रसायनों को अपनी आकर्षक सुगंध में बदलने का एक तरीका विकसित किया है।ब्लैक सोल्जर फ्लाई मैगॉट्स (हर्मेटिया इल्यूसेंस)कीड़ों का यह विशाल समुदाय भले ही प्रकृति के चमत्कारों में से एक न लगता हो, लेकिन ब्लैक सोल्डर फ्लाई के लार्वा ऐसे सुपरहीरो को पुनर्चक्रित कर रहे हैं जो एक दिन मानवता को भोजन की बर्बादी में कटौती करने में मदद कर सकते हैं। सोल्जर फ्लाई कीड़े एक अनोखी प्रक्रिया के माध्यम से भोजन को तेजी से खाते हैं जिसे भौतिकविदों ने "मैगॉट फाउंटेन" का नाम दिया है। जिस अविश्वसनीय गति से मैगॉट्स भोजन की बर्बादी को रोकते हैं, उसने वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया है, जो जानवरों के मल और खाद्य अपशिष्ट जैसे अपशिष्ट उत्पादों को मैगॉट-आधारित प्रोटीन में परिवर्तित करने के लिए सोल्जर फ्लाई मैगॉट्स का उपयोग करने की उम्मीद करते हैं, जिन्हें पशुओं या मनुष्यों को खिलाया जा सकता है।यम! टेललेस व्हिप बिच्छू (एंबलीपिगी)इनके नाम पर मत जाइए, टेललेस व्हिप बिच्छू दरअसल बिच्छू नहीं हैं, बल्कि एंब्लीपिगी नामक कीड़े के एक असामान्य समूह से संबंधित हैं। उनकी डरावनी उपस्थिति के बावजूद, एंब्लीपीगिड में जहर की कमी होती है और ये डरपोक जानवर होते हैं जो शायद ही कभी काटते हैं जब तक कि उन्हें खतरा न हो। ये शर्मीले जानवर नम आवासों जैसे पत्तियों के कूड़े में, गुफाओं के अंदर या छाल के नीचे छिपे रहना पसंद करते हैं। एंब्लीपिगी के सामने के पैर लंबे होते हैं जो फीलर्स के रूप में कार्य करते हैं और उन्हें अपने शिकार का पता लगाने में मदद करते हैं। एक बार शिकार का पता लगने के बाद, एंब्लीपीगिड अपने शिकार को कुचलने के लिए अपने तेज पेडिपल का उपयोग करते हैं। इनमें कुछ प्रजातियां जटिल सामाजिक व्यवहार प्रदर्शित करती हैं, जिसमें माताएँ एक वर्ष तक अपने बच्चों के पास रहती हैं और उनकी देखभाल करती हैं। विशालकाय हाथी मच्छर (टोक्सोरहिन्चाइट्स स्पेशियोसस)जीवन में कुछ चीजें उतनी ही भयावह होती हैं जितनी कि अंधेरे में मच्छर की तेज आवाज। अब कल्पना कीजिए कि एक विशाल मच्छर आपके औसत मच्छर की सोच से पांच गुना बड़ा है। आश्चर्यजनक रूप से 8 मिमी लंबाई वाला, ऑस्ट्रेलियाई हाथी मच्छर दुनिया की सबसे बड़ी मच्छर प्रजाति है। लेकिन डरिए मत, यह विशाल मच्छर शाकाहारी होते हैं। हां अधिकांश मादा मच्छरों को अपने बढ़ते अंडों को पोषक तत्व प्रदान करने के लिए रक्त के भोजन की आवश्यकता होती है। मादा हाथी मच्छर अन्य जलीय कीड़ों को खाकर आवश्यक पोषक तत्व एकत्र करती हैं। और यह इसलिए बेहतर है, क्योंकि हाथी मच्छरों का पसंदीदा भोजन है ... अन्य मच्छरों के लार्वा!सामान्य बिच्छू मक्खी (पैनोरपा)बिच्छू मक्खी और बिच्छू के बीच एक अजीबोगरीब समानता है। ताजा मानव लाशों को खाने की एक भयानक आदत के साथ उनकी शक्लो सूरत इतनी डरावनी होती है कि आपको किसी डरावनी फिल्म की याद दिला सकती है। सौभाग्य से, बिच्छू, जैसा कि उनके नाम से पता चलता है, उड़ने वाले बिच्छू नहीं हैं, न ही वे किसी इंसान को नुकसान पहुंचाने में सक्षम हैं। वास्तव में, बिच्छू के "डंक" बढ़े हुए पर जननांग होते हैं! प्रेमालाप के दौरान, नर बिच्छू मादाओं को या तो एक मृत कीट या लार की एक बूँद भेंट करके उन्हें लुभाने का प्रयास करते हैं। बिच्छू मक्खियाँ ज्यादातर मैला ढोने वाली होती हैं और अक्सर मकड़ी के जाले से शिकार चुराते हुए देखी जाती हैं।
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नयी दिल्ली. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर (आईआईटीजीएन) और जापान एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (जेएआईएसटी) के शोधकर्ताओं की एक टीम ने एक नयी वस्तु खोजी है, जो लिथियम बैटरी को मिनटों में रिचार्ज कर सकती है। इसके जरिए जल्द ही आप अपने बैटरी वाले उपकरणों और यहां तक कि इलेक्ट्रिक वाहनों को बहुत तेज गति से चार्ज कर पाएंगे। टीम के अनुसार, टाइटेनियम डाइबोराइड (टीआईबी2) से प्राप्त नैनोशीट्स का उपयोग करके नयी द्वि-आयामी (2डी) वस्तु तैयार की गई है। यह वस्तु कई परतों वाले सैंडविच जैसी दिखती है, जिसमें परतों के बीच धातु के परमाणु बोरॉन लगे हुए हैं। आईआईटीजीएन और जेएआईएसटी की शोध टीमों ने एक ऐसी वस्तु विकसित करने का लक्ष्य रखा था जो न केवल बैटरी को तेजी से चार्ज करने में सक्षम हो, बल्कि उसे लंबा जीवन भी प्रदान करे। आईआईटीजीएन में केमिकल इंजीनियरिंग के एसोसिएट प्रोफेसर कबीर जासुजा ने कहा, " फिलहाल, ग्रेफाइट और लिथियम टाइटेनेट व्यावसायिक रूप से उपलब्ध लिथियम-आयन बैटरी (एलआईबी) में सबसे व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाली एनोड सामग्रियों में से हैं। ये लैपटॉप, मोबाइल फोन और इलेक्ट्रिक वाहनों को पावर देती हैं। ग्रेफाइट एनोड से लैस लिथियम-आयन बैटरी किसी इलेक्ट्रिक वाहन को एक बार चार्ज करने पर सैकड़ों किलोमीटर तक चला सकती है।" उन्होंने कहा, "हालांकि, सुरक्षा के मोर्चे पर इनकी अपनी चुनौतियां हैं क्योंकि इनमें आग लगने का खतरा रहता है। लिथियम टाइटेनेट एनोड सुरक्षित और अधिक पसंदीदा विकल्प हैं, और ये फास्ट चार्जिंग की सुविधा भी देते हैं।
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वाशिंगटन। अनुसंधानकर्ताओं ने कोरोना वायरस के ओमीक्रोन स्वरूप को निष्प्रभावी करने वाले एक एंटीबॉडी की मानव में पहचान की है, जिसे एस2एक्स324 नाम दिया गया है। एक अध्ययन में यह दावा किया गया है। वैज्ञानिकों ने यह प्रदर्शित किया है कि यह एंटीबॉडी मेजबान कोशिकाओं में रिसेप्टर को एक दूसरे से जुड़ने से रोकती है। उन्होंने कहा है कि इस एंटीबॉडी को अन्य के साथ जोड़ने पर वायरस के एंटीबॉडी उपचार प्रतिरोधी बनने की गुंजाइश घट सकती है। यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन और हावर्ड ह्यूगेज मेडिकल इंस्टीट्यूट तथा स्विटजरलैंड स्थित वायरस बायोटेक्नोलॉजी के हमबस बायोमेड एसए के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने सार्स-कोवि-2 स्पाइक एंटीजेन के पूर्ववर्ती स्वरूपों के प्रतिरक्षा प्रणाली पर प्रभाव के कई पहलुओं पर गौर किया। उनके अध्ययन के नतीजे साइंस जर्नल में प्रकाशित हुए हैं।
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जैसी जरूरत वैसा निर्माण. या यूं कह लें कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है. बस एक बेटे ने भी जैसे ही मां की ज़रूरतों को समझा, तो फौरन उनके लिए एक सही मददगार खोजने में जुट गए. और जब अपनी तलाश और योजना में सफल हुए तो बड़ा कारनामा सामने था. युवक ने मां की मदद के लिए ना कोई बाई खोजी, ना बेटी-बहू बुलाई. बल्कि शुद्ध देसी रोबोट बनाकर उनकी सेवा में लगा दी.
केरल के कन्नूर जिले के 17 साल के मोहम्मद शियाद ने मां की मदद के लिए रोबोट बना दिया. जो घर के हर काम में अब उनकी बखूबी मदद करती है. रोबोट बनाने का ख्याल बेटे को कोरोना के वक्त आया था. जब हर तरह की मदद मिलनी बंद हो गई थी. फिर कॉलेज के प्रोजेक्ट के जरिए आइडिया मिला और लड़के ने बना डाला डोमेस्टिक रोबोट.
कोरोना काल में जब हर घर से डोमेस्टिक हेल्पर्स की छुट्टी हो गई. मदद के लिए कोई नहीं आ सकता था. ऐसे में मां को किसी मददगार की जरूरत थी. क्योंकि घर का हर काम अकेले कर पाना उनके बस में नहीं था. उसी दौरान एक बेटे ने मां की मदद के लिए कुछ प्लानिंग शुरू की लेकिन कैसे और कब वो इसकी उधेड़बुन में जुटा हुआ था, तभी सब कुछ सामान्य हुआ और कॉलेज के प्रोजेक्ट में रोबोट पर काम करने का मौका मिला और बस हो गयी मुराद पूरी. केरल के मोहम्मद शियाद ने मां की मदद के लिए एक रोबोट का निर्माण कर दिया, जो ना सिर्फ उनकी प्रतिभा का परिचय दे रही है बल्कि बाकी घर के हर छोटे बड़े कामों में जुटकर मदद भी कर रही है. रोबोट को उसने महिला का लिबास दिया है. जो मां को खाना भी परोसती हैं और पानी भी पिलाती हैं. अब घर में अकेले रहकर भी मां के पास हर वक्त एक मददगार मौजूद रहता है.
घरेलू काम करने वाली रोबोट का नाम शियाद ने 'पथूटीÓ रखा है. जिसे उन्होंने महिलाओं वाले कपड़े पहनाकर 100 फिसदी घरेलू लुक दे दिया है. युवक के मुताबिक इसे बनाने में प्लास्टिक, एल्युमीनियम सर्विंग प्लेट्स और फीमेल डमी का इस्तेमाल किया गया है. जिसमें एक अल्ट्रासोनिक सेंसर लगाया गया है इसी के माध्यम से वो नियंत्रित और संचालित होती है. सबसे ताज्जुब की बात है इस पूरे रोबोट को बनाने में लगा हुआ खर्च मात्र 10,000 हैं. डोमेस्टिक हेल्पर के तौर पर रोबोट का निर्माण कर शियाद को खूब वाहवाही मिल रही है. - लीड्स (ब्रिटेन)। क्या हम पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य ब्रह्मांड में अकेले हैं या किसी अन्य ग्रह पर भी मानव की तरह कोई अन्य प्राणी वास करता है? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसने सदियों से मनुष्यों को आकर्षित किया है और अनगिनत अध्ययनों और काल्पनिक कृतियों को प्रेरित किया है। लेकिन क्या हम इसका पता लगाने के करीब पहुंच रहे हैं? अब जब जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (जेडब्ल्यूएसटी) काम कर रहा है, तो हम एक दिन इसका जवाब देने की दिशा में एक बड़ी छलांग लगा सकते हैं। जेडब्ल्यूएसटी के चार मुख्य उद्देश्यों में से एक एक्सोप्लैनेट का अध्ययन करना है - ऐसे ग्रह जो हमारे सौर मंडल के बाहर हैं। इसके अलावा यह निर्धारित करना है कि उनका वायुमंडल किन गैसों से बना है। अब भूगर्भीय समय में पृथ्वी पर ऑक्सीजन की विविधता में हमारे नए शोध ने सुराग दिया है कि वास्तव में अध्ययन का उद्देश्य क्या पता लगाना है। अन्य ग्रहों पर जीवन कैसे, कब और क्यों विकसित हो सकता है, इसे समझने की कोशिश करना। एकमात्र ग्रह जिसके बारे में वर्तमान में हमें यह समझ में आता है कि उस पर जीवन है, वह पृथ्वी है। हमारे अपने ग्रह के जटिल विकासवादी इतिहास को समझने से हमें उन ग्रहों की खोज करने में मदद मिलती है, जहां जीवन की संभावना हो सकती है।जीवन और ऑक्सीजन-------हम जानते हैं कि प्राणियों को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, हालांकि स्पंज जैसे कुछ ऐसे जीव भी हैं, जिन्हें दूसरों की तुलना में कम ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। फिर भी, जब ऑक्सीजन आज आसानी से उपलब्ध है, जो वायुमंडल का 21 प्रतिशत है, हम यह भी जानते हैं कि पृथ्वी पर हमेशा ऐसी स्थिति नहीं रही है। यदि हम अपने अतीत की गहराई में लगभग 45 करोड़ वर्ष पीछे जाते हैं, तो हमें पता चलेगा कि उस समय पृथ्वी पर मानव के जीवित रहने के लिए पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं थी। लेकिन, हम जिस चीज के बारे में कम निश्चित हैं, वह समय के साथ वातावरण और महासागरों में ऑक्सीजन की पूर्ण मात्रा है और क्या ऑक्सीजन के स्तर में वृद्धि ने प्राणियों के जीवन के विकास को बढ़ावा दिया है, या इसके विपरीत हुआ? इन सवालों ने वास्तव में कई बहसों और दशकों के शोध को जन्म दिया है।मौजूदा समय की सोच यह है कि पृथ्वी पर ऑक्सीजन का स्तर तीन व्यापक चरणों में बढ़ा है।पहला, जिसे ‘महान ऑक्सीकरण घटना' कहा जाता है, लगभग 2.4 अरब साल पहले घटी थी, जिसने पृथ्वी को एक ऐसे ग्रह में बदल दिया जहां वायुमंडल और महासागरों में ऑक्सीजन का स्तर एक स्थायी विशेषता बन गया। जबकि पहले पृथ्वी एक ऐसा ग्रह था, जो अनिवार्य रूप से वायुमंडल और महासागरों में ऑक्सीजन से रहित था। पृथ्वी पर ऑक्सीजन के स्तर में अभूतपूर्व बदलाव करने वाली तीसरी घटना लगभग 42 करोड़ वर्ष पहले हुई थी और इसे ‘पैलियोज़ोइक ऑक्सीजनेशन इवेंट' कहा जाता है, जिसने वायुमंडलीय ऑक्सीजन में वर्तमान स्तर तक वृद्धि कर दी। लेकिन, पहली और तीसरी घटना के बीच करीब 80 करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी पर ऑक्सीजन के स्तर में व्यापक पैमाने पर बदलाव लाने वाली दूसरी घटना घटी, जिसे ‘नियोप्रोटेरोज़ोइक ऑक्सीजनेशन इवेंट' कहा जाता है। प्रारंभ में, समुद्र तल पर बनी तलछटी चट्टानों से मिली जानकारी से पता चलता है कि इस समय के दौरान ऑक्सीजन आधुनिक स्तर की तरह बढ़ गई थी। हालांकि, तब से एकत्र किए गए आंकड़ों ने ऑक्सीजन के इतिहास का अधिक पेचीदा सुझाव दिया है। आंकड़ों से पता चलता है कि ‘नियोप्रोटेरोज़ोइक ऑक्सीजनेशन इवेंट' पृथ्वी पर प्राणियों की मौजूदगी की पुष्टि करने वाली घटना से थोड़ा पहले करीब 60 करोड़ वर्ष पहले हुई थी। ऑक्सीजन का स्तर पता लगाने के लिए किए गए अध्ययन-------हम ‘नियोप्रोटेरोज़ोइक ऑक्सीजनेशन इवेंट' के दौरान वायुमंडलीय ऑक्सीजन के स्तर का पता लगाने और पुनर्निर्माण करने के लिए निकल पड़े, यह देखने के लिए कि पृथ्वी पर पाए जाने वाले शुरुआती प्राणी किन परिस्थितियों में दिखाई दिए। ऐसा करने के लिए, हमने पृथ्वी का एक कंप्यूटर मॉडल बनाया, जिसमें उन विभिन्न प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी शामिल है जो वायुमंडल में ऑक्सीजन का स्तर बढ़ा सकती हैं या इसे कम कर सकती हैं। हमने प्राचीन प्रकाश संश्लेषण दरों की गणना करने के लिए, दुनिया भर में जमा कार्बन-असर वाली चट्टानों की जांच की। प्रकाश संश्लेषण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा पौधे और सूक्ष्म जीव सूर्य के प्रकाश, पानी और कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग शर्करा के रूप में ऑक्सीजन और ऊर्जा बनाने के लिए करते हैं। पृथ्वी पर ऑक्सीजन का मुख्य स्रोत इस प्रक्रिया के जरिए ही पैदा होता है। हमने जो पाया वह यह है कि, नियोप्रोटेरोज़ोइक युग के दौरान ऑक्सीजन के स्तर में एक साधारण वृद्धि के बजाय, वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा में काफी बदलाव आया और भूवैज्ञानिक समय के पैमाने पर बहुत तेजी से ऑक्सीजन के स्तर में वृद्धि हुई। 75 करोड़ वर्ष पहले, वायुमंडल में ऑक्सीजन का स्तर 12 प्रतिशत था, केवल कुछ दसियों लाख वर्षों में, यह लगभग 0.3 प्रतिशत रह गया था। इसके बाद इसमें एक बार फिर से वृद्धि देखी गयी। हमने अपने शोध में पाया है कि करीब 45 करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी पर पौधों की उत्पत्ति से पहले ऑक्सीजन के स्तर में उतार-चढ़ाव देखा गया।एलियंस के जीवन की खोज------ये परिणाम कई कारणों से दिलचस्प हैं। हमने अक्सर सोचा है कि पिछले 4.5 अरब वर्षों में पृथ्वी ने जिस सापेक्ष स्थिरता का अनुभव किया है, वह जीवन के फलने-फूलने के लिए आवश्यक है। आखिरकार, जब बड़ी घटनाएं, जैसे कि क्षुद्रग्रह प्रभाव हुई हैं, तो यह पृथ्वी के कुछ निवासियों (डायनासोर) के लिए अच्छी नहीं रही हैं। हमारे परिणाम बताते हैं कि कम वायुमंडलीय ऑक्सीजन का स्तर कुछ साधारण जीवों के विलुप्त होने और अधिक जटिल जीवन विकसित करने के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है। इसके अलावा यह जीवित बचे लोगों को ऑक्सीजन का स्तर फिर से बढ़ने पर विस्तार और विविधता लाने की इजाजत देता है। बेशक, यह पृथ्वी और प्राणी-केंद्रित दृष्टिकोण है। पृथ्वी पर जीवन की तुलना में एलियंस का जीवन पूरी तरह से अलग हो सकता है।
- ऐसे लोगों के बीच रहना जो आपको अपने जीवन के बारे में अच्छा महसूस करने में मदद करते हैं आपकी उम्र में भी इजाफा कर सकते हैं। हो सकता है कि जब आप लम्बी और हेल्दी लाइफ के बारे में सोचते हैं, तो यह आपकी लिस्ट में कहीं न आता हो। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चलता है कि खुशी और सामाजिक संबंधों पर ध्यान केंद्रित करना दीर्घायु होने का एक शानदार तरीका हो सकता है।अध्ययन के लिए, शोधकर्ताओं ने 45 वर्ष और उससे अधिक उम्र के लगभग 12,000 वयस्कों के डेटा की जांच की, जिन्होंने चीन स्वास्थ्य और सेवानिवृत्त अध्ययन में भाग लिया।क्या कहता है शोधअध्ययन के लिए, शोधकर्ताओं ने 45 वर्ष और उससे अधिक उम्र के लगभग 12,000 वयस्कों के डेटा की जांच की, जिन्होंने चीन स्वास्थ्य और सेवानिवृत्त अध्ययन में भाग लिया। सभी प्रतिभागियों ने रक्त के नमूने, विस्तृत चिकित्सा इतिहास और उनकी सामाजिक परिस्थितियों और मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जानकारी प्रदान की। वैज्ञानिकों ने तब इस सभी डेटा का उपयोग करके दीर्घायु पाने में इसे लाभदायक पाया ।दुखी होना है अर्ली एजिंग की वजहजर्नल एजिंग में प्रकाशित अध्ययन के परिणामों में प्रकाशित अध्ययन के परिणामों के अनुसार, मनोवैज्ञानिक कारक जैसे कि अकेला या दुखी होने के कारण 1.65 साल तक तेजी से बढ़ती उम्र, बिना किसी शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के स्वस्थ व्यक्तियों के लिए सामान्य उम्र बढ़ने की तरह दिखती है।स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के अध्ययन के सह-लेखक मैनुअल फारिया ने एक बयान में कहा , “मानसिक और मनोसामाजिक स्थिति स्वास्थ्य परिणामों और जीवन की गुणवत्ता के सबसे मजबूत भविष्यवाणियों में से हैं। ”कभी शादी न करना भी बन सकता है कारणधूम्रपान करने वालों और स्ट्रोक, यकृत और फेफड़ों की बीमारियों के इतिहास वाले लोगों में भी उम्र बढ़ने में तेजी आई है। धूम्रपान उम्र बढ़ने में 1.25 साल की तेजी आई है। वृद्धावस्था में तेजी लाने वाले अन्य कारकों में ग्रामीण क्षेत्र में रहना और कभी शादी न करना भी शामिल है। पिछले कई अध्ययनों ने सामाजिक अलगाव और अकेलेपन को अकाल मृत्यु के बढ़ते जोखिम से भी जोड़ा है।एनसीबीआई के एक अध्ययन में पाया गया कि मध्यम आयु में सामाजिक अलगाव काफी आम है, जो लगभग 17 प्रतिशत महिलाओं और 21 प्रतिशत पुरुषों को प्रभावित करता है। दोनों लिंगों के लिए, अविवाहित होना और धार्मिक गतिविधियों में बार-बार भाग लेना सामाजिक अलगाव के मुख्य कारणों में से थे। यह महिलाओं में समय से पहले मृत्यु के 62 प्रतिशत अधिक जोखिम और पुरुषों के लिए पहले मृत्यु की 75 प्रतिशत अधिक संभावना से जुड़ा था।मध्यम उम्र वर्ग में सामाजिक अलगाव है आम20 विभिन्न देशों में लगभग 120,000 मध्यम आयु वर्ग के वयस्कों के एक अन्य अध्ययन में महिलाओं, बुजुर्गों, शहर के निवासियों, निम्न शिक्षा स्तर वाले लोगों और बेरोजगार व्यक्तियों में सामाजिक अलगाव अधिक आम पाया गया। कुल मिलाकर, सामाजिक अलगाव समय से पहले मृत्यु के 26 प्रतिशत अधिक जोखिम से जुड़ा था, और इसका जोखिम उच्च आय वाले देशों में रहने वाले लोगों में सबसे अधिक स्पष्ट था।साथ रहें, खुश रहें, दीर्घायु बनेंयह संभव है कि सामाजिक अलगाव और दीर्घायु के बीच कुछ संबंध अंतर्निहित कारणों पर निर्भर करे। 35, 000 से अधिक बुजुर्ग वयस्कों के एक अध्ययन में समय से पहले मृत्यु के 22 प्रतिशत अधिक जोखिम के साथ सामाजिक अलगाव जुड़ा हुआ पाया गया। शोध में सामने आई बातों से साफ़ है कि अलग-थलग होना या आइसोलेशन आपकी उम्र को बढ़ा सकता है तो खुश रहें और दीर्घायु बनें
- स्कॉटहोम। अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के पूर्व प्रमुख बेन बेरनैंकी, डगलस डायमंड और फिलिप डिबविग को इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा की गई है।ॉयल स्वीडिश एकेडमी फॉर साइंस ने सोमवार को नोबेल विजेताओं के नाम की घोषणा करते हुए कहा कि "बैंकों और आर्थिक संकटों" पर किए उनके रिसर्च के लिए यह पुरस्कार दिया जायेगा।अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार समिति के सदस्य जॉन हैसलर ने कहा, "बेन बेरनैंकी ने 1983 में सांख्यिकीय विश्लेषणों और ऐतिहासिक स्रोतों के साथ अपने पेपर में दिखाया कि बैंक चलाने के तौर तरीकों ने बैंक को नाकाम कर दिया और यही वो तरीका था जिसने एक मामूली मंदी को 30 के दशक में दुनिया की सबसे नाटकीय मंदी में बदल दिया जिसके बाद हमने आधुनिक इतिहास का सबसे बड़ा संकट देखा। "समिति ने कहा कि तीनों पुरस्कार विजेताओं ने विशेष रूप से वित्तीय संकट के दौरान अर्थव्यवस्था में बैंकों की भूमिका के बारे में हमारी समझ में काफी सुधार किया है और उनके रिसर्च में एक महत्वपूर्ण खोज यह निकली है कि बैंक को पतन से बचना क्यों महत्वपूर्ण है।
- अंग-विच्छेद यानी शरीर के हाथ-पांव में किसी हिस्से के बेकार या खराब हो जाने पर उसे काट कर अलग कर देना ताकि बाकी शरीर को नुकसान से बचाया जा सके। इससे पहले अंग विच्छेद का प्रमाण फ्रांस में 7,000 साल पुराने कंकाल में मिला था।विशेषज्ञ मानते आये हैं कि एक जगह टिक कर खेतीबाड़ी करने वाले समुदायों में इस तरह के ऑपरेशन किये जाते थे। हालांकि नई खोज से यह पता चलता है कि आज के इंडोनेशिया में ईस्ट कालीमंतान प्रांत में रहने वाले पाषाण युग के घुमक्कड़ शिकारियों के पास शरीर रचना और चोट की उन्नत चिकित्सा की जानकारी थी। ऑस्ट्रेलिया की ग्रिफिथ यूनिवर्सिटी के रिसर्च फेलो टिम मैलोनी इस रिसर्च का नेतृत्व कर रहे थे। उनका कहना है, "इस चिकित्सा के विकास के बारे में जो हमारी समझ है वह बिल्कुल बदल गई है। "यह कंकाल 2020 में लियांग टेबो गुफा में मिला था जो अपनी 40 हजार साल पुराने भित्ती चित्रों के लिये जाना जाता है। चमगादड़ों और कई तरह के परिंदों के साथ ही कभी-कभी बिच्छुओं की बाधाओं से पार जा कर वैज्ञानिकों ने बड़ी मेहनत से खुदाई कर इस कंकाल को निकाला है जो गाद के नीचे बिल्कुल सुरक्षित बचा हुआ था। इस कंकाल का एक टखना और पैर नहीं है। बाकी बचे पैर के हड्डी का आकार थोड़ा अलग है जो दिखाता है कि साफ तौर पर जान बूझ कर एक हिस्सा काट कर निकाला गया है जिसके बाद उसमें थोड़ा विकास हुआ है।मैलोनी ने प्रेस कांफ्रेंस में बताया, "यह बिल्कुल साफ और तिरछा है. वास्तव में आप चीरे की आकृति और सतह को हड्डी में देख सकते हैं। " अगर यह किसी जानवर के हमले, दबने कर टूटने या फिर गिरने की वजह से होता तो हड्डियां टूटी होतीं और साथ ही जिस तरह कंकाल के पैर में उसके बाद विकास हुआ है वह वैसा नहीं होता। दांत और वहां जमी गाद के आधार पर वैज्ञानिकों ने कंकाल की उम्र 31 हजार साल लगाई है और मरने वाले इंसान की उम्र 20 साल रही होगी।अंग-विच्छेद की तकलीफ के बावजूद ऐसा लगता है कि ऑपरेशन के बाद भी यह इंसान छह से नौ साल तक जिंदा रहा था. यह नतीजा उसके पैर की हड्डियों में हुए विकास को देख कर निकाला गया है। साथ ही ऑपरेशन के बाद उसके शरीर में संक्रमण के कोई निशान नहीं मिले हैं.। रिसर्च टीम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इससे पता चलता है, "अंगों की संरचना, मांसपेशियों और नाड़ी तंत्र की विस्तृत जानकारी थी। ऑपरेशन के बाद नर्सिंग और देखभाल जरूर हुई होगी। घाव को नियमित रूप से साफ किया गया, पट्टियां बदली गईं और विसंक्रमित भी किया गया। "इंसान कई सदियों से एक दूसरे का ऑपरेशन कर रहा है। दांत निकालना और हड्डियों में छेद इसमें शामिल है। हालांकि अंग-विच्छेद काफी जटिल है और पश्चिमी देशों में यह महज 100 साल पहले संभव हुआ। इससे पहले सबसे पुराने अंग विच्छेद का प्रमाण 7000 साल पुराने एक कंकाल में मिला था। इस कंकाल की खोज फ्रांस में 2010 में हुई थी। इससे इस बात की पुष्टि हुई कि मानव ने रोज रोज के शिकार और भोजन की खोज से मुक्त हो कर खेती बाड़ी वाली बस्तियां बसाने के बाद उन्नत सर्जरी का विकास किया। हालांकि बोर्नेयो की खोज यह दिखाती है कि घुमक्कड़ शिकारी भी सर्जरी की चुनौतियों के पार निकल चुके थे और यह काम कम से कम 24 हजार साल और पहले हो गया।
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स्कॉटलैंड। इस वर्ष रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार कैरोलिन बर्टोज़ी, मॉर्टन मेल्डल और बैरी शार्पलेस को संयुक्त रूप से दिया जाएगा। इन्हें यह पुरस्कार अणुओं के टूटने (स्निप्पिंग ऑफ मॉलिक्यूल्स टुगैदर ) पर किए गए काम के लिए दिया गया है। इस प्रक्रिया को क्लिक रसायन विज्ञान के रूप में जाना जाता है। "क्लिक" रसायन विज्ञान जीवित कोशिकाओं की तरह अणुओं को एक साथ जोड़ने के बारे में है। उनके काम का उपयोग कोशिकाओं का पता लगाने और जैविक प्रक्रियाओं की निगरानी करने के लिए किया जाता है। इसका कैंसर उपचार की दवाओं में उपयोग किया जा सकता है।
अमरीका की कैरोलिन बर्टोज़ी तथा बैरी शार्पलेस, और डेनमार्क के वैज्ञानिक मोर्टन मेल्डल को क्लिक केमिस्ट्री और बायोऑर्थोगोनल प्रतिक्रियाओं पर उनके काम के लिए ख्याति मिली थी। इनका उपयोग कैंसर की दवाएं बनाने, डीएनए मैप करने और विशिष्ट उद्देश्य के अनुरूप सामग्री बनाने के लिए किया जाता है।2001 में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले अस्सी वर्षीय शार्पलेस अब दो बार पुरस्कार प्राप्त करने वाले पांचवें व्यक्ति बन गए हैं। अड़सठ वर्षीय मेल्डल डेनमार्क के कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। वे इस समय स्क्रिप्स रिसर्च, कैलिफोर्निया के साथ जुड़े हुए हैं। पचपन वर्षीय बर्टोज़ी कैलिफोर्निया के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार की घोषणा 6 अक्टूबर को की जाएगी। नोबेल शांति पुरस्कार शुक्रवार को घोषित किया जाएगा। चिकित्सा और भौतिक विज्ञान के नोबेल पुरस्कार पहले ही घोषित किए जा चुके हैं। - स्टॉकहोम । विलुप्त हो चुके मानव का जीनोम खोजने की तकनीक विकिसत करने वाले स्वीडिश वैज्ञानिक स्वांते पेबो को मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. पेबो समझाते हैं कि लाखों साल पुरानी हड्डी से क्रमिक विकास समझाते हैं. फियिजोलॉजी और मेडिसिन के लिए नोबेल पुरस्कार देने वाले स्वीडन के कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट ने जैसे ही स्वांते पेबो का नाम लिया, वैसे ही एक बड़े वैज्ञानिक समुदाय में, "ये तो होना ही था" जैसा भाव उभरने लगा. नोबेल पुरस्कार देने वाले वाली कमेटी ने अपने बयान में कहा, "विलुप्त हो चुके होमिनिन्स (आदिमानवों) और आज जिंदा सभी इंसानों के बीच अनुवांशिक अंतर बताने वाली उनकी खोजें, उस बुनियाद जैसी है जो बताती हैं कि हमें अनोखा इंसान बनाने वाली चीजें क्या हैं."पुरस्कार समिति की जूरी ने कहा, "आदिकाल से आज के इंसानों तक जीनों का प्रवाह, आज भी शरीर विज्ञान के लिहाज से महत्वपूर्ण है, मसलन हमारा इम्यून सिस्टम कैसे इंफेक्शनों के प्रति रिएक्ट करता है."2022 का नोबेल प्राइज इन फिजियोलॉजी ऑर मेडिसिन जीतने वाले डॉ. पेबो को एक करोड़ स्वीडिश क्रोनर (करीब 90.15 लाख डॉलर) की पुरस्कार राशि और मेडल 10 दिसंबर 2022 को दिया जाएगा. पुरस्कार स्वीडन के राजा कार्ल 16 गुस्ताव देंगे. 10 दिसंबर को डायनामाइट का आविष्कार करने वाले स्वीडिश वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबल की पुण्यतिथि होती है. 1896 में दुनिया को अलविदा कहने वाले अल्फ्रेड नोबेल की आखिरी इच्छा थी कि उनकी संपत्ति से अच्छी वैज्ञानिक खोज करने वाले वैज्ञानिकों के लिए एक पुरस्कार शुरू किया जाए. नोबेल पुरस्कार इसी कारण शुरू हुए.67 साल के प्रोफेसर डॉक्टर स्वांते पेबो जर्मनी के प्रतिष्ठित माक्स प्लांक इस्टीट्यूट फॉर इवोल्यूशनरी एंथ्रोपॉलजी के डाइरेक्टर हैं. इंसान की निएंडरथाल नाम की विलुप्त हो चुकी प्रजाति के जीनोम की खोज के दौरान उन्होंने एक ऐसी तकनीक विकसित कर ली जिससे किसी भी जीवाश्म के जीनोम तक पहुंचा जा सकता है. जीनोम यानि किसी कोशिका के भीतर जींस की जानकारी वाले सेट. जीनोम के भीतर डीएनए की शक्ल में उस जीव की पूरी जानकारी रहती है. जीनोम कही जाने वाली ये इंफॉर्मेशन डीएनए मॉलिक्यूल्स से बनी होती है. जब कभी कोशिका विभाजित या कॉपी होती है तो ये सूचना भी साथ में कॉपी होती है.कभी कभी नई कोशिकाएं बनते समय जीनोम में स्टोर कुछ डीएनए मॉलिक्यूल की पोजिशन बदल जाती है. अरबों डीएनए मॉलिक्यूल में से कुछ की पोजिशन में आया ये बदलाव, पीढ़ी दर पीढ़ी बड़े अंतर पैदा करता जाता है. मसलन अगर दो इंसानों के जीनोम की तुलना की जाए तो 1200 से 1400 मॉलिक्यूल कैरेक्टर के बाद कोई अंतर निकलेगा. इसी अंतर को और गहराई से देखा जाए तो लाखों अंतर सामने आने लगते हैं. इन अंतरों का इतिहास खंगालने पर आज के इंसान के जीन, लाखों साल पुराने आदिमानवों से जुड़ने लगते हैं. ऐसे ही अंतरों ने लाखों करोड़ों साल पहले चिपैंजी की कुछ प्रजातियों को इतना बदल दिया कि इंसान जैसी प्रजातियां बन गईं. इनमें विलुप्त हो चुके निएंडरथाल भी हैं और आज के इंसान होमो सेपियंस भी.डॉ. पेबो ने ऐसी तकनीक विकसित की जिससे जीवाश्म के रूप में मिलने वाली छोटी सी हड्डियों से भी जीनोम निकाला जा सकता है. डॉ. पेबो की 40 साल से ज्यादा लंबी मेहनत ने ऐसी तकनीक खोजी, जिससे लाखों साल पुराने जीनोम का सटीक विश्लेषण किया जा सकता है. इस तकनीक के जरिए डीएनए से, बैक्टीरिया, फंगस, धूल, मौसमी बदलावों और बाहरी रासायनिक परिवर्तन जैसे फैक्टरों को साफ किया जाता है. बीते 20 साल में यह तकनीक इतनी आगे जा चुकी है कि अब एक साथ लाखों डीएनए का विश्लेषण किया जा सकता है.इसी तकनीक की बदौलत पता चल सका है कि दुनिया में आज जितने भी इंसान हैं, वो एक लाख से दो लाख साल पहले एक परिवार से निकलने के बाद कैसे दूसरी प्रजातियों से घुलते मिलते हुए बदलते गए. इस थ्योरी के आधार पर कहा जाता है कि हमारे पुरातन पुरखे जब अफ्रीकी महाद्वीप से बाहर निकले तो वो मध्यपूर्व में रहने वाली निएंडरथाल प्रजाति से घुले मिले. यूरोप और एशिया के इंसानों के जीनोम में निएंडरथाल प्रजाति का भी अंश है. चीन, साइबेरिया और पापुआ न्यू गिनी जैसे इलाकों से निएंडरथाल के सबूत मिल चुके हैं.डॉ. पेबो को 2020 में द जापान प्राइज, 2018 में क्रोएबर यूरोपियन साइंस प्राइज, 2016 में ब्रेकथ्रो प्राइज इन लाइफ साइंस, 2003 में ग्रुबर जेनेटिक्स प्राइज और 1992 में लाइबनित्स प्राइज से भी सम्मानित किया जा चुका है. 3 अक्टूबर 2022 को जब उन्हें मेडिसिन का नोबेल दिया गया तो कई वैज्ञानिकों को हैरानी नहीं हुई.
- स्टॉकहोम| महत्वपूर्ण उपयोग वाले क्वांटम सूचना विज्ञान पर कार्य करने के लिए तीन वैज्ञानिकों को संयुक्त रूप से इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार देने की मंगलवार को घोषणा की गई। रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज ने ‘क्वांटम सूचना विज्ञान’ के लिए एलै एस्पै, जॉन एफ क्लाउसर और एंतन साइलिंगर को यह पुरस्कार देने की घोषणा की। क्वांंटम साइंस ही उस इनक्रिप्शन के लिए जिम्मेदार है, जो व्हाट्सएप और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आपके मैसेज को सीक्रेट रखती है।महत्वपूर्ण उपयोग में आने वाले क्वांटम सूचना विज्ञान का एक उदाहरण ‘इनक्रिप्शन’ भी है। उल्लेखनीय है कि ‘इनक्रिप्शन’ एक ऐसी पद्धति है, जिसके जरिए सूचना को गुप्त कोड में परिवर्तित किया जाता है जो सूचना के सही अर्थ को छिपा देता है। नोबेल कमेटी की एक सदस्य इवा ओलसन ने कहा, ‘‘क्वांटम सूचना विज्ञान एक जीवंत और तेजी से विकसित हो रहा क्षेत्र है।’’ इनक्रिप्शन वही टेक्नोलॉजी है जो आपके व्हाट्सएप मैसेज को सीक्रेट रखती है। यानी आपके मैसेज कोई तीसरा व्यक्ति नहीं देख पाएगा।उन्होंने कहा, ‘‘सूचना के सुरक्षित स्थानांतरण, क्वांटम कंप्यूटिंग और सेंसिंग प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में इसके व्यापक उपयोग की संभावना है।’’ इवा ने कहा, ‘‘इसकी जड़ें क्वांटम मेकैनिक्स तक जाती हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘इसके अनुमानों ने एक दूसरी दुनिया के द्वार खोल दिए हैं और माप की हमारी व्याख्या की पूरी बुनियाद को भी इसने हिला कर रख दिया है।’’क्या है पुरस्कार की राशिसोमवार को, चिकित्सा के क्षेत्र में पुरस्कार के ऐलान के साथ इस वर्ष के लिए नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की शुरूआत हुई। बुधवार को रसायन विज्ञान और बृहस्पतिवार को साहित्य के क्षेत्र में इन पुरस्कारों की घोषणा की जाएगी। इस वर्ष (2022) के नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा शुक्रवार को और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में पुरस्कार की घोषणा 10 अक्टूबर को होगी। पुरस्कार के रूप में विजेता को करीब एक करोड़ स्वीडिश क्रोनर (करीब 9,00,000 डॉलर) दिए जाएंगे।
- कभी भारत की शान रहे चीतों को अब फिर से इस देश में बसाने की तैयारी है। योजना के तहत नामीबिया से लाए गए आठ चीतों को आज मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान पहुंच गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद इसके लिए कूनो पहुंचे। 1947 में देश के आखिरी तीन चीतों का शिकार मध्य प्रदेश के कोरिया रियासत के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने किया था। इसकी फोटो भी बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी में है। उस दिन के बाद से भारत में कभी भी चीते नहीं दिखे। अब 75 साल बाद फिर से भारत में चीतों को आबाद किया जा रहा है। आइये जानते हैं ऐसी क्या खासियत है चीतों में --चीते के बारे में ये तो हम सब जानते हैं कि यह दुनिया का सबसे तेज रफ्तार से दौडऩे वाले जानवर है। स्पीड के मामले में ये कुछ ही सेकेंड्स में 72 मील प्रति घंटा की रफ्तार हासिल कर लेते हैं लेकिन ये ज्यादा लंबा नहीं दौड़ सकते।-शेर और बाघ के मुकाबले चीते बहुत पतले होते हैं। इनके सिर भी काफी छोटे होते हैं। इसके अलावा इनकी कमर पतली होती है। इनके शरीर पर काले धब्बे होते हैं। चीतों के चेहरे पर काली धारियां होती हैं जो उनकी आंखों के भीतरी कोनों से नीचे मुंह के कोनों तक जाती हैं।- चीते आमतौर पर दिन के दौरान शिकार करते हैं जब शेर बहुत सक्रिय नहीं होते हैं। चीता बिग कैट फैमिली का अकेला ऐसा सदस्य है जो दहाड़ नहीं सकता।-चीता हर सेकेंड में चार छलांग लगाता है। चीते की अधिकतम रफ्तार 120 किमी प्रति घंटे की हो सकती है। सबसे तेज रफ्तार के दौरान चीता 23 फीट यानी करीब सात मीटर लंबी छलांग लगा सकता है।चीते की रिकॉर्ड रफ्तार अधिकतम एक मिनट के लिए रह सकती है। यह अपनी फुल स्पीड से सिर्फ 450 मीटर दूर तक ही दौड़ सकता है।चीता हर सेकेंड में चार छलांग लगाता है। चीते की अधिकतम रफ्तार 120 किमी प्रति घंटे की हो सकती है। सबसे तेज रफ्तार के दौरान चीता 23 फीट यानी करीब सात मीटर लंबी छलांग लगा सकता है।-चीते की रिकॉर्ड रफ्तार अधिकतम एक मिनट के लिए रह सकती है। यह अपनी फुल स्पीड से सिर्फ 450 मीटर दूर तक ही दौड़ सकता है।- 1973 में हावर्ड में हुई एक रिसर्च के मुताबिक आमतौर पर चीते के शरीर का तामपमान 38 डिग्री सेल्सियस होता है, लेकिन रफ्तार पकड़ते ही उसके शरीर का तापमान 40.5 डिग्री सेल्सियस हो जाता है। चीते का दिमाग इस गर्मी को नहीं झेल पाता और वो अचानक से दौडऩा बंद कर देता है।-तेज रफ्तार से दौडऩे के लिए चीते की मांसपेशियों को बहुत ज्यादा ऑक्सीजन की जरूरत होती है। इस ऑक्सीजन की सप्लाई को बरकरार रखने के लिए चीते के नथुनों के साथ श्वास नली भी मोटी होती है, ताकि वह कम बार सांस लेकर भी ज्यादा ऑक्सीजन शरीर में पहुंचा सके।चीते की आंख सीधी दिशा में होती है। इसकी वजह से वह कई मील दूर तक आसानी से देख सकता है। इससे चीते को अंदाजा हो जाता है कि उसका शिकार कितनी दूरी पर है। इसकी आंखों में इमेज स्टेबिलाइजेशन सिस्टम होता है। इसकी वजह से वह तेज रफ्तार में दौड़ते वक्त भी अपने शिकार पर फोकस बनाए रखता है।-चीते का दिल शेर के मुकाबले साढ़े तीन गुना बड़ा होता है। यही वजह है कि दौड़ते वक्त इसे भरपूर ऑक्सीजन मिलती है। यह तेजी से पूरे शरीर में ब्लड को पंप करता है और इसकी मांसपेशियों तक ऑक्सीजन पहुंचाता है।-चीता अपने शिकार का पीछा अक्सर 200-230 फीट यानी 60-70 मीटर के दायरे में ही करता है। एक मिनट तक ही वह अपने शिकार का पीछा करता है। अगर इस दौरान वो उसे नहीं मार पाता तो उसका पीछा करना छोड़ देता है। वो अपने पंजे का इस्तेमाल कर शिकार की पूंछ पकड़कर लटक जाता है। या तो पंजे के जरिए शिकार की हड्डिया तोड़ देता है।-अपने शिकार को पकडऩे के बाद चीता तकरीबन पांच मिनट तक उसकी गर्दन को काटता है ताकि वो मर जाए। हालांकि छोटे शिकार पहली बार में ही मर जाते हैं।
- चाय के बारे में 14 साल तक पांच लाख लोगों पर किए गए अध्ययन में कई दिलचस्प निष्कर्ष निकले हैं। चाय के स्वास्थ्यवर्धक गुणों के बारे में यह शोध कई बातें बताता है।हाल ही में हुए एक शोध में वैज्ञानिकों ने पाया है कि जो लोग चाय पीते हैं, उनकी चाय ना पीने वालों से थोड़ा सा ज्यादा जीने की संभावना होती है। चाय में ऐसे तत्व होते हैं तो जलन को रोकते हैं। चीन और जापान, जहां ग्रीन टी सबसे ज्यादा लोकप्रिय है, वहां पहले भी ऐसे अध्ययन हो चुके हैं जिनमें चाय के स्वास्थ्यवर्धकगुण सामने आते रहे हैं। अब युनाइटेड किंग्डम में सबसे ज्यादा लोकप्रिय काली चाय के बारे में एक अध्ययन हुआ है। अमेरिकी नेशनल कैंसर इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिकों ने यह अध्ययन किया है जिसके बाद उन्होंने कुछ दिलचस्प निष्कर्ष पेश किए हैं। वैज्ञानिकों ने एक विशाल डेटाबेस में उपलब्ध आंकडों का विश्लेषण किया है। इस डेटामेस में युनाइटेड किंग्डम के पांच लाख से ज्यादा लोगों की चाय से जुड़ी आदतों के आंकड़े थे। ये आंकड़े इन लोगों से 14 साल तक बात करने के दौरान जुटाए गए थे।विश्लेषण के दौरान विशेषज्ञों ने स्वास्थ्य, सामाजिक-आर्थिक स्थित, धूम्रपान, शराब, खान-पान, आयु, नस्ल और लिंग के आधार पर निष्कर्षों में जरूरी फेरबदल भी किया। इस विशाल अध्ययन का निष्कर्ष यह निकला कि जो लोग ज्यादा चाय पीते हैं उनके जीने की संभावना चाय ना पीने वालों से थोड़ी सी ज्यादा होती है। यानी रोजाना दो या उससे ज्यादा कप चाय पीने वाले लोगों में मौत का खतरा दूसरे लोगों से 9-13 प्रतिशत कम होता है। वैज्ञानिकों ने भी यह स्पष्ट किया कि चाय का तापमान और उसमें दूध या चीनी मिलाने का नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ा।यह अध्ययन अनैल्स ऑफ इंटरनल मेडिसन नामक पत्रिका में प्रकाशित हुए है। शोधकर्ता कहते हैं कि हृदय रोगों का चाय से संबंध कुछ स्पष्ट हुआ लेकिन कैंसर की मौतों का चाय से कोई रिश्ता स्थापित नहीं हो पाया। हालांकि ऐसा क्यों है, इस बारे में शोधकर्ता कोई ठोस जवाब नहीं खोज सके। मुख्य शोधकर्ता माकी इनोऊ-चोई के मुताबिक हो सकता है कैंसर से कम मौतों के कारण कोई ठोस संबंध ना मिला हो।खाने का विज्ञान समझने वाले कहते हैं कि लोगों की आदतों और स्वास्थ्य का अध्ययन कर निकाले गए निष्कर्ष किसी तरह का 'कारण और प्रभाव' साबित नहीं कर सकते। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में 'फूड स्टडीज' पढ़ाने वालीं मैरियन नेस्ले कहती हैं, "ऑब्जर्वेशन-आधारित ऐसे अध्ययन हमेशा सवाल उठाते हैं कि क्या चाय पीने वालों में ऐसा कुछ अलग है जो उन्हें दूसरों से ज्दा सेहतमंद बनाता है। मुझे चाय पसंद है। यह एक शानदार पेय पदार्थ है लेकिन सावधानीपूर्वक इसकी व्याख्या करना ही समझदारी होगी। "चाय के बारे में कुछ मजेदार बातें-क्या आप जानते हैं कि चाय हिंदी का शब्द है लेकिन अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में भी खूब इस्तेमाल हो रहा है। अमेरिका और यूरोप के कॉफी हाउस और रेस्तरां चाय भी बेचते हैं जो 'टी' से अलग होती है। चाय को वहां मसाला चाय के रूप में बेचा जाता है और इसका बनाने का तरीका अलग-अलग हो सकता है। वहां यह पानी के बाद चाय दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा पिया जाने वाला द्रव्य है।-दुनिया में तीन हजार तरह की चाय उपलब्ध हैं। दंत कथाएं बताती हैं कि चाय की खोज एक चीनी राज शेन नंग ने 237 ईसा पूर्व की थी जब एक पौधे की कुछ पत्तियां उनके गर्म पानी के प्याले में गिर गईं। उन्होंने इस प्याले से पानी पिया और उन्हें बहुत अच्छा लगा। यह संभवतया चाय की पहली प्याली थी, हालांकि आजकल चीन में कॉफी का बोलबाला बढ़ रहा है।-जापान में चाय की संस्कृति काफी विस्तृत है। ग्रीन टी बनाना और पीना वहां एक तरह का समारोह होता है जिसे 'अ वे ऑफ टी' कहा जाता है। यह कई घंटे तक चलता है। ब्रिटेन में भी चाय बेहद लोकप्रिय है और वहां एक औसत व्यक्ति एक साल में एक हजार कप तक चाय पी जाता है। पूरी दुनिया में सालाना साढ़े तीन अरब से ज्यादा कप चाय पी जाती है।
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-मंत्री ने पहल के लिए एनआईओटी की सराहना की
चेन्नई। केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने खारे पानी से जलने वाली देश की पहली लालटेन की शुरुआत की है। पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) द्वारा जारी की गई एक विज्ञप्ति में कहा गया कि केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईओटी), चेन्नई के तटीय अनुसंधान पोत ‘सागर अन्वेषिका' के भ्रमण के दौरान ‘रोशनी' नाम की अपनी तरह की पहली लालटेन की शुरुआत की। मंत्री ने कहा कि खारे पानी से जलने वाली लालटेन से गरीब और वंचित लोगों विशेषकर भारत की 7,500 किलोमीटर लंबी तटीय रेखा से सटे इलाकों में रहने वाले मछुआरा समुदाय के लिए काफी मददगार होगी। सिंह ने कहा कि खारे पानी की लालटेन देश भर में एलईडी बल्ब के वितरण के लिए 2015 में शुरू की गई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उजाला योजना को भी बढ़ावा देगी। उन्होंने कहा कि इस तकनीक का उपयोग भीतरी इलाकों में भी किया जा सकता है, जहां समुद्र का पानी उपलब्ध नहीं है। मंत्री ने कहा कि इस लालटेन में किसी भी खारे पानी या सामान्य नमक के साथ मिश्रित सामान्य पानी का उपयोग किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि यह न केवल किफायती है, बल्कि इसका संचालन भी बहुत आसान है। विज्ञप्ति में कहा गया, "मंत्री ने ‘रोशनी लैंप' का आविष्कार करने वाली एनआईओटी टीम की सराहना की और इस बहुउद्देशीय लैंप के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए प्रौद्योगिकी को उद्योग जगत को स्थानांतरित करने की सलाह दी, जो ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में तथा आपदाओं के समय बहुत मददगार हो सकती है।" बाद में, सिंह ने पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव डॉ. एम रविचंद्रन के साथ प्रयोगशालाओं का दौरा किया और पोत पर तिरंगा फहराया। विज्ञप्ति में कहा गया, " ‘हर घर तिरंगा' अभियान को 'हर जहाज तिरंगा' तक विस्तारित करते हुए मंत्री ने पोत पर भारतीय ध्वज फहराया। उन्होंने जहाज पर एनआईओटी के वरिष्ठ वैज्ञानिकों से भी मुलाकात की और प्रगति की समीक्षा की।
- नई दिल्ली। भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिकों के शोध से बड़ा खुलासा हुआ है। वैज्ञानिकों के अनुसार अलकनंदा नदी और भागीरथी नदियों में माइक्रो इनवर्टेब्रेट्स का कम पाया जाना इस बात का संकेत है कि यहां पानी की गुणवत्ता फिलहाल ठीक नहीं है। पानी को सेहतमंद बनाने वाले मित्र जीवाणु (माइक्रो इनवर्टेब्रेट्स) प्रदूषण के कारण तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। इस बात का खुलासा भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिकों के शोध से हुआ है। वैज्ञानिकों की टीम विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर रही है।ऑल वेदर रोड के साथ ही नदियों के किनारे बड़े पैमाने पर किए जा रहे विकास कार्यों का मलबा सीधे नदियों में डाला जा रहा है। नदियों के किनारे बसे शहरों के घरों से निकलने वाला गंदा पानी बगैर ट्रीटमेंट के नदियों में प्रवाहित किया जा रहा है। बैट्रियाफोस बैक्टीरिया की वजह से बनी रहती है गंगाजल की शुद्धतापूर्व में जलविज्ञानियों द्वारा किए गए शोध में यह बात सामने आई है कि गंगाजल में बैट्रियाफोस नामक बैक्टीरिया पाया जाता है जो गंगाजल के अंदर रासायनिक क्रियाओं से उत्पन्न होने वाले अवांछनीय पदार्थ को खाता रहता है।इससे गंगाजल की शुद्धता बनी रहती है। वैज्ञानिकों की माने तो गंगाजल में गंधक की बहुत अधिक मात्रा पाए जाने से भी इसकी शुद्धता बनी रहती है और गंगाजल लंबे समय तक खराब नहीं होता है। महज एक किमी के बहाव में खुद ही गंदगी साफ कर लेती है गंगा। वैज्ञानिक शोधों से यह बात भी सामने आई है कि देश की अन्य नदियां पंद्रह से लेकर बीस किलोमीटर के बहाव के बाद खुद को साफ कर पाती हैं और नदियों में पाई जाने वाली गंदगी नदियों की तलहटी में जमा हो जाता है। लेकिन, गंगा महज एक किलोमीटर के बहाव में खुद को साफ कर लेती है।मित्र जीवाणुओं की संख्या कहीं-कहीं 15 फीसदी से भी कम दोनों नदियों में मित्र जीवाणुओं का अध्ययन ईफेमेरोपटेरा, प्लेकोपटेरा, ट्राइकोपटेरा (ईपीटी) के मानकों पर किया गया। यदि किसी नदी के जल में ईपीटी इंडेक्स बीस फीसदी पाया जाता है तो इससे साबित होता है कि जल की गुणवत्ता ठीक है। यदि ईपीटी इंडेक्स तीस फीसदी से अधिक है तो इसका मतलब पानी की गुणवत्ता बहुत ही अच्छी है। लेकिन, दोनों नदियों में कई जगहों ईपीटी का इंडेक्स 15 फीसदी से भी कम पाया गया है जो चिंताजनक पहलू है।वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर वीपी उनियाल की देखरेख में डॉ. निखिल सिंह व अन्य ने दोनों नदियों में अलग-अलग स्थानों पर मित्र जीवाणु (माइक्रो इनवर्टिब्रेट्स) की जांच की। नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) के तहत वैज्ञानिकों ने अलकनंदा नदी में माणा (बदरीनाथ) से लेकर देवप्रयाग तक और भागीरथी नदी में गोमुख से लेकर देवप्रयाग तक अध्ययन किया।वैज्ञानिकों की माने तो गंगाजल में अन्य नदियों के जल की तुलना में वातावरण से ऑक्सीजन सोखने की क्षमता बहुत अधिक होती है। दूसरी नदियों की तुलना में गंगा में गंदगी को हजम करने की क्षमता 20 गुना अधिक पाई जाती है। गंगा की सहायक नदियां भागीरथी, अलकनंदा, महाकाली, करनाली, कोसी, गंडक, सरयू, यमुना, सोन नदी और महानंदा हैं।
- मेक्सिको के इस टोर्टा सैंडविच ने दो वर्ल्ड रिकॉर्ड बना लिए हैं। मेक्सिको सिटी में यह विशाल सैंडविच तैयार किया गया। सैंडविच तैयार करने का खास मौका था 17वां सालाना टोर्टा फेयर। इस दौरान 74 मीटर यानी 242.7 फुट लंबा यह सैंडविच बनाया गया । इस सैंडविच के नाम दूसरा वर्ल्ड रिकॉर्ड टाइम का दर्ज हुआ। इसे रिकॉर्ड दो मिनट नौ सेकेंड में तैयार कर दिया गया था। इसके लिए फेयर में हिस्सा लेने वाले सारे खानसामों ने मिलकर काम किया। टोर्टा सैंडविच सामान्य सैंडविच से अलग होता है। यह आकार में बड़ा होता है और अलग-अलग चीजों से बनाया जा सकता है जिससे इसे अलग-अलग स्वाद मिलते हैं। मेक्सिको की यह खास डिश मानी जाती है जिसे स्थानीय लोगों ने सालों में कई रूप दिए हैं। कोविड महामारी के दौरान मेक्सिको के रेस्त्रॉ ने काफी मुश्किल वक्त देखा। दर्जनों रेस्त्रॉ तो बंद ही हो गए। अब इस मेले में वे अपने व्यापार को दोबारा खड़ा करने के मकसद से ग्राहकों को आकर्षित कर रहे थे।
- विज्ञान की सबसे महान उपलब्धियों में से एक 8 मई 1980 को हासिल हुई थी, जिस दिन चेचक के वायरस का खात्मा हुआ था। उससे पहले, चेचक ने मानव इतिहास की एक अलग ही शक्ल बना दी थी. दुनिया भर में लाखों लोग मारे गए थे।अकेले 20वीं सदी में चेचक वायरस से कोई 30 करोड़ लोगों की जान गई थीे। वैज्ञानिकों और सार्वजनिक स्वास्थ्य का ख्याल रखने वालों की लंबी और कठिन कोशिशों के सैकड़ों साल बाद 1970 के दशक मे विश्वव्यापी टीकाकरण कार्यक्रम शुरू किए गये जिसने चेचक का अंत किया। एक सवाल सवाल यह भी है कि दुनिया का पहला टीका कैसे बनाया गया था? इन टीके को बड़ी मात्रा में बचाए रखना और मंकीपॉक्स जैसी बीमारियों में इस्तेमाल करना क्यों जरूरी है?काउपॉक्स- लोक कथाओं के सबकटीकों का वैज्ञानिक आधार वास्तव में लोककथाओं से आता है। 18वीं सदी में यह अफवाह थी कि इंग्लैंड में ग्वालिनों को अक्सर काउपॉक्स हो जाता है लेकिन चेचक उनसे दूर रहता है। काउपॉक्स यानी गोशीतला, चेचक जैसी ही बीमारी है लेकिन उससे हल्की है और मौत की आशंका भी कम रहती है । अब माना जाता है कि चेचक के वायरस जैसे ही एक वायरस से यह भी फैलती है। जब एडवर्ड जेनर नाम के एक डॉक्टर को इन कहानियों का पता चला तो उन्होंने टीकाकरण पर अपने काम के लिए काउपॉक्स पर प्रयोग करना शुरू किया। 1790 के दशक में जेनर ने एक नौ साल के बच्चे की त्वचा में काउपॉक्स के पस की एक खुराक को पहुंचाने में सुई का इस्तेमाल किया। आगे चलकर बच्चे को चेचक हुआ तो उसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता मौजूद थी।संक्रमण से बचाव के खिलाफ पस का इस्तेमाल करने वाले जेनर पहले व्यक्ति नहीं थे। तुर्की, चीन, अफ्रीका और भारत में 10वी सदी के दौरान ही ऐसी विधियां अलग अलग ढंग से ईजाद की जा चुकी थीं। चीन के डॉक्टर नाक तक सूखी हुई चेचक सामग्री फूंक मार कर उड़ाते थे, तुर्की और अफ्रीकी डॉक्टर, जेनर की तरह त्वचा के भीतर पस को पहुंचाते थे। ये तरीके बेशक जोखिम भरे थे , लेकिन लोगों ने चेचक से बचाव के बदले, हल्की बीमारी और मौत की कम आशंका को स्वीकार किया। अपने स्रोत के बावजूद, जेनर के शोध के बाद ही वैज्ञानिक और चिकित्सा जगत ने चेचक को रोकने में पस की संभावित भूमिका पर गौर किया। जेनर के कार्य ने चेचक से बचाव का एक प्रमाणित और कम जोखिम भरा तरीका विकसित किया जो बीमारी के इलाज में एक मील का पत्थर बना।टीकाकरण का विस्तार19वीं सदी के मध्य और आखिरी दिनों में टीकाकरण की मांग पूरी दुनिया में फैल गई। इंग्लैंड, जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों में तमाम जनता के लिए टीकाकरण मुफ्त था और बाद में इसे अनिवार्य कर दिया गया।चेचक का आधुनिक टीका 1950 के दशक में आया था। ज्यादा विकसित वैज्ञानिक तरीकों का मतलब था कि उसे अलग करने और फ्रीज कर सुखाने से लंबे समय तक संभाल कर रखा जा सकता था और दुनिया भर में उसका एक समान वितरण किया जा सकता था। चेचक के नये टीके में दरअसल चेचक का वायरस नहीं बल्कि उसके जैसा लेकिन उसके कम नुकसानदेह पॉक्सवायरस, वैक्सीनिया था। काउपॉक्स के टीकों की तरह वैक्सीनिया से त्वचा में एक छोटा सा दाना उभर आता है जहां वायरस अपनी प्रतिकृति बनाता है। शरीर की रक्षा प्रणाली फिर उसे पहचान कर नष्ट करना सीख जाती है। चेचक से लडऩे के इस असरदार, सुरक्षित तरीके की मदद से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1950 के दशक में अपना पहला चेचक उन्मूलन अभियान शुरू किया था।
- नई दिल्ली। यूरोपीय आयोग, अमेरिका और कनाडा ने मंकीपॉक्स के खिलाफ वैक्सीन को मंजूरी दे दी है। भारत समेत 72 देशों में करीब 16 हजार मामले आने के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मंकीपॉक्स को ग्लोबल हेल्थ इमरजेंसी घोषित किया है।डेनमार्क की बायोटेक्नोलॉजी कंपनी बवेरियन नॉर्डिक के मुताबिक यूरोपीय आयोग ने उसकी वैक्सीन इमवैनेक्स को मंकीपॉक्स के मामलों में इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी है। बवेरियन नॉर्डिक ने अपने बयान में कहा, "यूरोपीय आयोग ने कंपनी की स्मॉलपॉक्स वैक्सीन, इमवैनेक्स को मंकीपॉक्स की रोकथाम के लिए मंजूरी दे दी है। " मंजूरी के बाद यह वैक्सीन, यूरोपीय संघ के सभी देशों के साथ साथ आइसलैंड, लिष्टेनश्टाइन और नॉर्वे में भी मान्य होगी। यूरोपीय संघ के अलावा अमेरिका और कनाडा ने भी मंकीपॉक्स की रोकथाम के लिए इमवैनेक्स को मंजूरी दी है।मूल रूप से स्मॉलपॉक्स बीमारी की रोकथाम करने वाली इमवैनेक्स को यूरोपीय संघ में पहली बार 2013 में मंजूरी मिली थी। इस बीच दुनिया भर में बढ़ते मंकीपॉक्स के मामलों के दौरान इस वैक्सीन को मंकीपॉक्स के खिलाफ भी कारगर पाया गया। इसके बाद ही मंकीपॉक्स के ट्रीटमेंट के तौर पर इमवैनेक्स को मंजरी दी गई। स्मॉलपॉक्स और मंकीपॉक्स के वायरस में काफी समानता है, इसी वजह से इमवैनेक्स असरदार साबित हो रही है।दुनिया भर में इस वक्त मंकीपॉक्स के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं. शनिवार को 72 देशों में मंकीपॉक्स के करीब 16,000 मामले सामने आए। इसके बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने मंकीपॉक्स को ग्लोबल हेल्थ इमरजेंसी की श्रेणी में डाल दिया।मंकीपॉक्स वायरस की चपेट में आने के बाद इंसान को बुखार, सिरदर्द, मांसपेशियों और कमर में दर्द होने लगता है। ये लक्षण करीब पांच दिन तक रहते हैं. इसके बाद चेहरे, हथेली और पैर के तलवों में खरोंच के निशान से उभरने लगते हैं. फिर खरोंच जैसे ये निशान फुंसी या धब्बों में बदलते लगते हैं. जिस जगह ऐसे निशान उभरते हैं, वहां पर ऊतक टूट या बुरी तरह संक्रमित हो जाते हैं। आखिर में धब्बे या फुंसियां बड़े घाव में बदलने लगते हैं।मई 2022 में पश्चिमी और मध्य अफ्रीका के कुछ देशों में मंकीपॉक्स के मामले सामने आए। विषाणु से फैलने वाली यह बीमारी अब यूरोप, अमेरिका और एशिया तक फैल चुकी है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक मंकीपॉक्स जानवरों से इंसान में और इंसान से इंसान में फैलता है। मंकीपॉक्स से पीडि़त इंसान की त्वचा के संपर्क में आने पर यह बीमारी फैलती है। यह संपर्क छूकर, पीडि़त द्वारा इस्तेमाल किए गए कपड़े, चादर, तकिए या बर्तनों के जरिए भी फैल सकती है। संक्रमित इंसान के संपर्क में आने के तीन हफ्ते बाद तक इस बीमारी के लिए लक्षण उभरने शुरू हो सकते हैं। भारत में मंकीपॉक्स का पहला मामला 14 जुलाई को केरल में सामने आया। इस बीच दिल्ली में भी एक संदिग्ध केस सामने आया है।मंकीपॉक्स वायरस का पता सबसे पहले 1958 में चला। वैज्ञानिकों को रिसर्च के लिए रखे गए बंदरों के एक झुंड में यह वायरस मिला। तब से इसका नाम मंकीपॉक्स पड़ा। इंसान में मंकीपॉक्स के संक्रमण का पहला मामला 1970 में दर्ज किया गया।
- कोरोना से बचाने के लिए पूरी दुनिया के वैज्ञानिक जल्दी-से-जल्दी टीका विकसित करने में जुटे थे। टीकों की वजह से कई बीमारियों पर नियंत्रण संभव हो सका, लेकिन क्या आप जानते हैं कि दुनिया का पहला टीका कब और कैसे तैयार हुआ था?माना जाता है कि 1975 में बांग्लादेश की तीन साल की रहीमा बानो कुदरती तरीके से हुए वैरिओला वायरस संक्रमण का आखिरी केस थी। दुनिया में स्मॉलपॉक्स से हुई आखिरी ज्ञात मौत 1978 में हुई। मरने वाली मरीज का नाम जेनेट पार्कर था। वो इंग्लैंड की बर्मिंघम यूनिवर्सिटी मेडिकल स्कूल में मेडिकल फटॉग्रफर थीं।हिंदी में इसे चेचक कहते हैं। यह अब सामान्य सी बीमारी है, लेकिन कुछ सदियों पहले यह भीषण महामारी हुआ करती थी। औसतन इससे संक्रमित लोगों में 10 में से तीन मर जाते थे। स्मॉलपॉक्स की शुरुआत कब हुई, इसकी ठोस जानकारी नहीं है। अनुमान है कि 10 हजार ईसापूर्व के आसपास उत्तरपूर्वी अफ्रीका में इसकी शुरुआत हुई. माना जाता है कि शायद वहीं से प्राचीन मिस्र के व्यापारियों के मार्फत ये बीमारी भारत पहुंची और वहां फैली। मिस्र की कुछ पुरानी ममियों के चेहरे पर भी चेचक जैसे निशान मिलते हैं। 1122 ईसा पूर्व के कुछ चीनी साहित्यों और प्राचीन संस्कृत स्रोतों में भी इस बीमारी का जिक्र मिलता है। 5वीं से 7वीं सदी के बीच ये बीमारी यूरोप पहुंची।स्मॉलपॉक्स बेहद जानलेवा बीमारी थी। 18वीं सदी की शुरुआत में अकेले यूरोप में इसके कारण लगभग चार लाख सालाना मौतें होती थीं। 18वीं सदी आते-आते इंग्लैंड के ग्रामीण हिस्सों में लोगों ने गौर करना शुरू किया कि कुछ खास तरह के लोग स्मॉलपॉक्स के आगे ज्यादा सुरक्षित होते हैं। मसलन, ग्वाले और गाय पालने वाले लोग। हालांकि उन्हें काउपॉक्स नाम की एक बीमारी होती थी, जो स्मॉलपॉक्स जितनी गंभीर नहीं थी। इस बीमारी के कारण जैसे उनके शरीर में स्मॉलपॉक्स के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती थी।ऐसे में 1774 में जब इंग्लैंड में चेचक महामारी फैली, तो बेंजामिन जेस्टी नाम के एक किसान ने किसी भी कीमत पर अपने परिवार को बचाने की ठानी। इसके लिए उन्होंने एक अनूठा प्रयोग किया। उन्होंने काउपॉक्स से संक्रमित एक गाय के थन के ऊपर से कुछ पस निकाला और एक छोटे चाकू की मदद से अपनी पत्नी और दो बेटों के हाथ पर हल्का चीरा लगाकर उसे वहां डाल दिया। उन तीनों को स्मॉलपॉक्स नहीं हुआ।उन्हीं दिनों बर्कले में एक डॉक्टर हुआ करते थे, एडवर्ड जेनर। उन्होंने किसानों और ग्वालों से काउपॉक्स से जुड़ी रोगप्रतिरोधक क्षमता पर जानकारियां हासिल की। जेनर को "वैरिओलेशन" के बारे में भी पता था। ये स्मॉलपॉक्स से निपटने के शुरुआती तरीकों में से एक था। "वैरिओला" वायरस के नाम पर इस प्रक्रिया को अपना नाम मिला। इसी वायरस के कारण स्मॉलपॉक्स होता है। जेनर को लगा कि काउपॉक्स के एक्सपोजर को स्मॉलपॉक्स से सुरक्षा के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। अपनी इस थिअरी को जांचने के लिए 1796 में उन्होंने एक प्रयोग किया। उन्होंने काउपॉक्स के एक मरीज के फोड़े से पस लिया। उसे अपने माली के आठ साल के बच्चे जेम्स की त्वचा में डाला। जेम्स कुछ दिन थोड़ा बीमार रहा। जब वो ठीक हो गया, तो जेनर ने उसकी त्वचा में स्मॉलपॉक्स का पस डाला। जेनर कई बार जेम्स को वैरिओला वायरस के संपर्क में लाए, लेकिन उसे स्मॉलपॉक्स नहीं हुआ। इस सफल प्रयोग ने वैक्सीन और टीकाकरण की राह बनाई।