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मेरे वजूद की पहचान हैं मेरे पापा...!

 - छत्तीसगढ़ में नवाचार शिक्षा की नायिका दिव्यांग हिमकल्याणी सिन्हा की कहानी   

-बच्चों की जिंदगी संवारने के इस जज्बे को सलाम .....

 इंसान शरीर से नहीं, अपनी नकारात्मक सोच से अपंग होता है। स्टीफन हाकिंग चलना-फिरना तो दूर, बोल भी नहीं पाते थे, उन्होंने विज्ञान की दुनिया को ही बदल डाला। अमेरिका की हेलेन केलर देख और सुन नहीं सकती थीं, दुनिया की पहली स्नातक बनीं और शीर्ष लेखिका भी। पैरालिंपिक खेलों में भारतीय दिव्यांग देश को गौरवान्वित करते रहे हैं। ऐसे सितारे विरले ही होते हैं। इन्हीं सितारों में शामिल है हमारे छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले के साजा विकासखंड के ग्राम सैगोना प्राथमिक शाला की सहायक शिक्षिका हिमकल्याणी सिन्हा। दिव्यांग होने और जीवन में तमाम संघर्षों के बावजूद जिन्होंने बच्चों की जिंदगी संवारने में स्वयं को लीन कर दिया है। उनके आदर्श उनके पिता हैं जिन्होंने साथ में संघर्ष किया। तीन साल पहले की बात है जब पूरी दुनिया में कोरोना महामारी का कोहराम मचा था, तब हिमकल्याणी ने मुख्यमंत्री कल्याण कोष में अपने एक माह का वेतन देने की घोषणा फेसबुक में की थी। यह जानकारी छत्तीसगढ़ प्रदेश शिक्षक संघ के प्रवक्ता जितेंद्र शर्मा ने छत्तीसगढ़ आज डॉट कॉम को दी। इस घोषणा को सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ आज डॉट कॉम ने प्रमुखता से प्रसारित करते हुए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को हैश टैग के साथ ट्वीट किया था। मुख्यमंत्री कार्यालय ने यह खबर छत्तीसगढ़ आज डॉट कॉम के लिंक के साथ ट्वीट कर हिमकल्याणी के कार्यों  की सराहना की थी।  इसके बाद जनसहयोग का कारवां बनता चला गया। सर्वाेदयी पत्रकारिता को सार्थक करते हुए हमारे स्तंभ नई सोच के इस दूसरे अंक में प्रस्तुत है दिव्यांग सहायक शिक्षक हिमकल्याणी सिन्हा की अपडेट कहानी....


"कब तक बोझा ढोते रहोगे भागवत राम सिन्हा ? ये नहीं पढ़ पाएगी ! कुछ नहीं हो सकता इसका!" मुझे याद है, पापा को अक्सर लोग यही कहा करते थे। टीचर भी सवाल उठाया करते, "ये स्कूल कैसे आ पाएगी? आ नहीं पाएगी तो पढ़ भी नहीं पाएगी!" पोलियो की वजह से मैं दोनों पैरों से लाचार, सही उम्र में स्कूल नहीं जा पाई क्योंकि एडमिशन ही नहीं होता था मेरा किसी स्कूल में! एक मास्टर जी सर्वे के दौरान हमारे गाँव बेहरा आए थे। तब मैं गली में अपनी दादी के साथ बैठी थी, एक उम्मीद की किरण जगी। उन्होंने मना नहीं किया। कहा, 'क्यों नहीं जा सकती, सब संभव है!' तब में लगभग 8 से 9 साल की थी। गली में ही मेरा नाम लिखा गया। मेरा एडमिशन हो गया। पापा रोज स्कूल छोडऩे और लेने आया करते थे। मेरी पढ़ाई के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। कभी भी स्कूल मिस नहीं होने दिया और यह वजह थी कि वे बहुत से पारिवारिक, सामाजिक व अन्य कार्यक्रमों में नहीं जा सके। मेरे साथ उन्होंने भी जीवनभर संघर्ष किया। माँ का भी उतना ही प्यार और सहयोग मिला। पापा ने कभी हार नहीं मानी। टेलरिंग की दुकान से उन्होंने मुझे और दोनों छोटे भाइयों को पढ़ाया-लिखाया और परिवार का पालन-पोषण किया। गाँव में आठवीं तक ही व्यवस्था थी। आगे पढऩे की समस्या आई। मैं छोटी थी और कहीं आ-जा नहीं सकती थी। तब मेरे पापा से सिलाई का काम सीख चुके संतोष सेन जी ने अपना गुरू धर्म निभाया। मुझे बेमेतरा में अपने घर रखा और 9वीं से 12वीं तक की पढ़ाई पूरी कराई। उनके पूरे परिवार ने मुझे सहयोग किया। इसके बाद ग्रेजुएशन और हिन्दी साहित्य में पोस्ट ग्रेजुएशन प्राइवेट किया।"
...और खड़ी हो गईं अपने पैरों पर

बहुमुखी प्रतिभा की धनी हिमकल्याणी सहज और सरल व्यक्तित्व की धनी हैं। वे अपने पिता के साथ सिलाई का भी काम करती थीं। सोचा था अब यही काम करना है, लेकिन कोशिश करने के बाद तृतीय वर्ग में सहायक शिक्षिका की नौकरी मिल गई। जिन लोगों ने कभी प्रश्न चिन्ह लगाया था कि "यह कभी चल ही नहीं पाएगी तो पढ़ेगी क्या ?"  हिमकल्याणी ने अपने पैरों पर खड़े होकर लोगों की नकारात्मक सोच को गलत साबित  कर दिखाया। इतना नहीं, कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन में माँ शीतला मंदिर प्रांगण, सैगोना में ऑफलाइन मोहल्ला कक्षाएं भी संचालित कीं। ऑॅफलाइन कक्षाएं बंद हुईं तो ऑनलाइन सफलतापूर्वक कक्षाओं का संचालन किया। जरूरतमंद लोगों को दिनचर्या की सामग्री पहुँचाने में भी वे सक्रिय रहीं। परिवार में दो विवाहित भाई हैं जो अपना छोटा-मोटा व्यवसाय करते हैं।
 अब दूसरों को छोड़ती हैं गंतव्य तक...
 "बचपन के दिनों में स्कूल के बाद नौकरी के लिए भी पापा ही ग्राम बेहरा से सात किलोमीटर दूर सैगुना तक स्कूल छोडऩे और लेने जाया करते थे। चार साल पहले स्कूटी खरीदी और इसे मॉडिफाई करवाकर ट्राइ साइकिल में तब्दील करवाया। अब अपनी स्कूटी से प्रतिदिन 14 किलोमीटर का सफर वे तय करती हैं। इस बीच राह में कुछ स्कूली बच्चे मिलते हैं। उन्हें अपनी गाड़ी में बिठाकर स्कूल तक पहुँचाने और वापसी में कुछ राहगीरों को बिठाकर गंतव्य तक पहुँचाने का जो सुकून मिलता है, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।" आज सोलह साल बीत गए हैं। बेमेतरा जिले के साजा विकासखंड के ग्राम सैगोना की शासकीय प्राथमिक शाला के बच्चों के जीवन को संवारने में वे तन-मन-धन से जुटी हैं।
 प्रदेशभर के स्कूलों में लगे हिमकल्याणी के पोस्टर...


पिछले वर्ष के शैक्षणिक सत्र में प्रदेशभर के संकुल केंद्रों, प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्कूलों में पोस्टर लगाए गए। इसमें हिमकल्याणी के फोटो के साथ विश्व कल्याण की भावना को प्रोत्साहित करते हुए वाक्य  हैं,  I am ok,  My family is ok, The world is ok, We all are ok, We all are healthy abd happy, The earth is becoming better place to live, All  is well. (अनुवाद-मैं ठीक हूँ, मेरा परिवार ठीक है, दुनिया ठीक है, हम सब ठीक हैं, हम सब स्वस्थ और खुश हैं, पृथ्वी रहने के लिए बेहतर जगह बनती जा रही है।) यह बात गौरवान्वित करती है कि राज्य सरकार अपने कार्यों से आदर्श की स्थापना करने वाली विभूतियों को विश्व कल्याण की भावना को जागृत करते हुए जन-जन तक पहुँचा रही है।


शून्य निवेश में टीएलएम
 नवाचार का अनूठा तरीका

हिमकल्याणी शिक्षा के क्षेत्र में नवाचार की अनोखी मिसाल हैं। शिक्षण कार्य को सरल, सुगम और आकर्षक बनाने के लिए एक शिक्षक सहायक शिक्षण सामग्री जिसे टीएलएम (टिचिंग लर्निंग मटेरियल) कहा जाता है, का प्रयोग करता है। वह चित्र हो या ग्लोब और या फिर मॉडल। हिमकल्याणी ने बिना किसी निवेश के कबाड़ से जुगाड़ कर हिन्दी, अंग्रेजी, पर्यावरण से सम्बंधित अनेक सहायक शिक्षण सामग्री और मॉडल तैयार किये हैं। इससे बच्चे आसानी से विषय-वस्तु को समझ पाते हैं। अपने व्यय से उन्होंने बिग बुक और टीएलएम भी बनाये हैं । उनसे दूसरे स्कूल के शिक्षक और विद्यार्थी भी प्रेरणा लेते हैं। इसे फेसबुक और यूट्यूब में भी देखा जा सकता है। छोटे बच्चों को गणित की संख्याओं का ज्ञान देने के लिए माचिस के खाली डिब्बे का उपयोग किया। डिब्बे के आगे-पीछे और ढक्कन में क्रमवार संख्याएँ लिखीं। इससे पहले और बाद की संख्याओं की जानकारी सरलता से दी जा सकती है, डिब्बे के ऊपर 5 खाली ढक्कन में 6 और पीछे 7 लिखकर...डिब्बे के ऊपर पांच, ढक्कन खोलो तो छह और डिब्बा पलटाओ तो सात...इसी तरह खराब हो चुकी फाइलों को काटकर अक्षर ज्ञान, कलर पैंसिल बाक्स से रंगों का, शादी के कार्ड, पुट्ठेे के डिब्बों, मिठाई के डिब्बों, चूड़ी के बॉक्स के रैपर से भी अनेक अद्भुत प्रयोग किये। पुट्ठे से बनी मटके में अनेक विलोम शब्दों का संग्रह है। पुट्ठे से ही आलमारी, गुल्लक, गमला और अनेक प्रकार के घरों का मॉडल बनाया है। इससे बच्चे मनोरंजन के साथ सीखते भी हैं। वे शिक्षा के साथ ही संस्कार भी देती हैं। हर त्योहार और पर्व बच्चों के साथ शाला में मनाती हैं।
बकौल हिमकल्याणी, 'जब आप पूरी ईमानदारी से सोचते हैं कि छोटे-छोटे बच्चों को किस तकनीक से पढ़ाएं तो अपने आप अंत:प्रेरणा मिलने लग जाती है।"
 अपने वेतन से स्कूल में लगाया टाइल्स, ग्रीन मैट और बनवाया खिलौना कार्नर


ऐसे शिक्षक भी विरले ही होते हैं जो अपने वेतन से स्कूल की अधोसंरचनाओं का विकास करते हैं। दिव्यांग कोरोना योद्धा हिमकल्याणी ने अपने वेतन से जर्जर हो चुकी कक्षा दूसरी का पूरा नक्शा ही बदल दिया। अपने वेतन से इस क्लास में उन्होंने टाइल्स लगवा दिये। अब यह क्लास स्मार्ट क्लास बन गई है। स्कूल को ग्रीन मैट प्रदान किया। रंग-रोगन में भी सहयोग दिया। स्कूल में ही बच्चों के लिए खिलौना कॉनर बनाया जहाँ बच्चों के साथ मिलकर नई-नई तकनीक से सहायक शिक्षण सामग्री बनाती हैं। सोच सकते हैं कि जिस हिमकल्याणी को दिव्यांग होने की वजह से स्कूल में एडमिशन नहीं मिलता था, वह शिक्षक बनीं तो पूरी दुनिया के लिए एक आदर्श बनती चली गईं।
 दिव्यांग के माता-पिता का जागरूक होना जरूरी
हिमकल्याणी अपने पिता को ही अपना आदर्श मानती हैं। वे कहती हैं, "मेरे पापा ने मुझे सम्मानजक जिदंगी दी है। मुझे जीने के लायक बनाने के लिए वे अपनी जिंदगी भूल गए। शारीरिक कमजोरी का आशय सिर्फ शरीर के किसी भाग का असक्षम होना ही नहीं होता, यह  कई मामलों में वजूद ही खत्म हो जाने जैसा भी होता है। आप समझ सकते हैं, एक दिव्यांग को कैसा प्रतीत होता होगा, दूसरों को दौड़ता-भागता देखकर। पहली  बात तो यह कि ईश्वर मुझ जैसा किसी को न बनाए, सभी शारीरिक रूप से सक्षम हों और सुखमय जीवन जिएं। दिव्यांगों को सबसे ज्यादा जररूरत होती है अपने परिवार के सहयोग की। दिव्यांग के माता-पिता का जागरुक होना जरूरी है जिससे वे उनका आत्मविश्वास बढ़ाकर उन्हें काबिल बना सकें। इस मामले में मैं भाग्यवान हूँ और यही वजह है कि मैं अपने पापा को ही अपना आदर्श मानती  हूँ। ईश्वर का हर पल शुक्रिया अदा करती हूँ, मुझे इस काबिल बनाया कि दूसरों के लिए कुछ कर सकूं।"
ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का सम्मान...
हिमकल्याणी ने न सिर्फ अपने परिवार का अपितु गाँव, जिले और राज्य का नाम भी रोशन किया है। बिना किसी का सहयोग लिए खुद ही सारे कार्य करती हैं। उसके क्लासमेट उसे मिलते हैं तो सम्मान के साथ नमस्ते करते हैं। सहज और सौम्य हिमकल्याणी के कार्यों ने अनेक शिक्षकों, विद्यार्थियों, समाजसेवियों और गणमान्य नागरिकों को प्रेरित किया है। उनके जीवन का एक ही लक्ष्य है, अच्छे वातावरण में बस बच्चों को नई-नई तकनीक से पढ़ाती रहें। हिमकल्याणी को मिलने वाले प्रमुख सम्मान हैं-
1. कोरोना योद्धा
2. उत्कृष्ट शिक्षक
3. शिक्षा दूत
4. सृजनशील शिक्षक
5. पढ़ाई तुंहर द्वार में उत्कृष्ट योगदान का सम्मान
6. सावित्री बाई फूले सम्मान
 निर्धन बच्चों को सहयोग और रक्तदान भी...


हिमकल्याणी उन बच्चों को भी आर्थिक रूप से सहयोग प्रदान करती हैं जिनके परिजन नहीं हैं या फिर आर्थिक रूप से कमजोर हैं। बच्चों की शिक्षा में आने वाली बाधा को दूर करने वे हरसंभव प्रयास करती हैं। उनके इन प्रयासों की सभी सराहना करते हैं। वे पूरे उत्साह के साथ रक्तदान भी करती हैं। वे कहती हैं, "रक्तदान महादान है जिससे हम किसी की जान बचा सकते हैं। हम सभी को इस नेक कार्य में पूरे उत्साह के साथ भागीदारी निभानी चाहिए।

 

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