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मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता......

 आलेख- मंजूषा शर्मा

गुलजार- जन्म-18 अगस्त 1936
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता......
साफ, झक सफेद और कड़क कुर्ता पायजामा, बालों में झांकती सफेदी, आंखों पर सुनहरा चश्मा और जब शब्द मुंह से निकले, तो जैसे सारे शोर थम जाए और वक्त जैसे अल्फाजों के मायाजाल में अपने आप को ही भुला बैठे । पाक साफ आवाज और शब्दों का जादू ऐसा कि एक-एक शब्द जिंदगी की सच्चाई को परत दर परत खोल जाए। कभी सूफीयाना अंदाज, तो कभी बेफ्रिकी की तल्खी, तो कभी रिश्तों की ऐसी गहराई कि जिसे नाप पाना किसी इंसान के बस में न हो। रुह का  गालिब सा शायराना अंदाज। ये किसी आम इंसान की तस्वीर नहीं हो सकती। सच है गुलजार साहब एक आम इंसान तो कभी थे ही नहीं और न कभी बन पाएंगे।
समपूरन सिंह कालरा यानी गुलजार 1936 में वर्तमान पाकिस्तान के झेलम जिले में जन्मे ज़रूर, लेकिन हिन्दुस्तानी मौसमों की आबो-हवा उन्हें इस तरह रास आई कि उर्दू तहजीब की रेशमी चादर लपेट कर फकीराना शान और रिन्दाना तेवर से अपनी रचनाओं से कला और साहित्य का खजाना भरते रहे।
गीतकार के रूप में 10 मर्तबा फि़ल्म फेअर अवार्ड जीतने वाले गुलजार एक अच्छे शायर, एक कामयाब स्क्रिप्ट राइटर, एक बेमिसाल डायरेक्टर और एक चुम्बकीय व्यक्तित्व के मालिक हैं। उन्होंने बहुत कुछ लिखा है और लिख रहे हैं। पुरस्कारों की लंबी फेहरिश्त भी उनके नाम के साथ जुड़ी है। साहित्य अकादमी पुरस्कार 2002 में। पद्मभूषण - 2004 गुलजार को भारत सरकार द्वारा सन 2004 में कला क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये महाराष्ट्र राज्य से हैं। ऑस्कर (सर्वश्रेष्ठ मौलिक गीत का) - 2009 में अंग्रेजी चलचित्र  स्लमडॉग मिलियनेयर  के गीत  जय हो  के लिए। ग्रैमी पुरस्कार- 2010 में और सबसे बॉलीवुड का सबसे अलहदा दादा साहब फाल्के सम्मान - 2013।  फिल्म इंडस्ट्री में जब भी रुहानी गीतों की चर्चा होगी, गुलजार साहब का नाम सबसे आगे लिखा जाएगा।
आज उनकी नज्मों की चर्चा-
गुलजार साहब की एक नज्म है, जो मुझे बहुत पसंद है, शायद इसलिए क्योंकि इसमें रिश्ते को वो सच्चाई नजर आती है, जो हम कभी-कभी देखकर भी नहीं देख पाते और समझ कर भी नहीं समझ पाते।  रिश्तों की बात हो वे जुलाहे से भी साझा हो जाते हैं। दिल में उठने वाले तूफान, आवेग, सुख, दुख, इच्छाएं, अनुभूतियां सब कुछ गुलजार साहब की लेखनी से निकल कर ऐसे  आ जाते हैं जैसे कि वे हमारी या फिर हमारे आसपास की ही बातें हो।  इसके एक-एक शब्द जैसे रिश्तों की एक -एक गिरह खोलते चले जाते हैं- उन्होंने लिखा है-
मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बांध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में, लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नजऱ आती हैं मेरे यार जुलाहे..
सच है टूटा रिश्ता कभी सच्चाई से जुड़ नहीं पाता और जब भी सांसे लेता है, तो जिंदगी की एक बार की टूटन हमेशा उसके साथ साये की तरह चिपकी रहती है। तागे-तागे जोड़कर कपड़े बुनता जुलाहा ही उन गांठों को देख पाता है और महसूस कर पाता है। यह नज्म गुलजार साहब की किताब यार जुलाहें की अंश है। जिसे उन्होंने अपनी आवाज में रिकॉर्ड भी किया है। इसे  जगजीत सिंह और गुलजार के अलबम मरासिम में शामिल किया गया है। इसके साथ एक गजल है- जिंदगी यूं हुई बसर तन्हा, काफिला साथ और सफर तन्हा.......
अनगिनत नज्मों, कविताओं और गजलों की समृद्ध दुनिया है गुलजार साहब की। इस किताब में उनकी नज्में अपना सूफियाना रंग लिए हुए शायर का जीवन-दर्शन व्यक्त करती हैं। इस अभिव्यक्ति में जहां एक ओर जैसे निर्गुण कवियों की बोली-बानी के करीब पहुंचने वाली उनकी आवाज या कविता का स्थायी फक्कड़ स्वभाव एकबारगी उदासी में तब्दील होता हुआ नजऱ आता है।  उदासी की यही भावना और उसमें सूक्ष्मतम स्तर तक उतरा हुआ अवसाद-भरा जीवन का निर्मम सत्य, इन नज्मों की सबसे बड़ी ताक़त बन कर उभरता है और यही बातें गुलजार साहब को खास बना जाती हैं।
 इसी तरह एक और नज्म है जो उनकी किताब रात पश्मीने की, में शामिल की गई हैं-
रात में जब भी मेरी आंख खुले
नंगे पांवों ही निकल जाता हूं
आसमानों से गुजऱ जाता हूं
दूधिया तारों पे पांव रखता
चलता रहता हूं यही सोचके मैं
कोई सय्यारा अगर जागता
मिल जाये कहीं
इक पड़ोसी की तरह पास
बुला ले शायद
और कहे - आज की रात यहीं रह जाओ
तुम ज़मीं पर हो अकेले -
मैं यहां तनहा हूं।
  इन नज्मों में गुलजार साहब का अपना दर्द भी रिसता नजर आता है।  फिर वह चाहे विभाजन का दर्द हो या निजी रिश्तों के टूटने का।
उनकी एक और नज्म है-
फिर किसी दर्द को सहला के सुजा लें आंखें
फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़ कर एक बार
नाम ले कर किसी हमनाम को आवाज़ ही दें लें।
गुलजार साहब की लिखी एक एक पंक्ति, एक एक लफ्ज के साए से होकर जब दिल गुजरती है, तो यकीनन् कुछ अलग ही अहसाल होनेे लगता है। सुबह की ताजगी हो, रात की चांदनी हो, सांझ की झुरमुट हो या सूरज का ताप, उन्हें खूबसूरती से अपने लफ्ज़ों में पिरो कर किसी भी रंग में रंगने का हुनर तो बस गुलजार साहब को ही आता है।
शायद इसलिए दर्द की मलिका कही जाने वाली मीनाकुमारी अपनी नज्मों की वसीयत गुलजार साहब के नाम कर गईं। उन्हें भरोसा था कि एक गुलजार ही हैं, जो इन नज्मों की कद्र जानते हैं और उन्हें अच्छी तरह से समझते भी हैं। मीना कुमारी अपने अंतिम समय में गुलजार साहब के काफी करीब थीं।
एक जगह गुलजार साहब ने लिखा है-
 मैं जब छांव छांव चला था अपना बदन बचा कर
कि रूह को एक खूबसूरत जिस्म दे दूं
न कोई सिलवट, न दाग कोई
न धूप झुलसे, न चोट खाएं
न जख्म छुए, न दर्द पहुंचे
बस एक कोरी कंवारी सुबह का जिस्म पहना दूं रूह को मैं
मगर तपी जब दोपहर दर्दों की, दर्द की धूप से
जो गुजरा तो रूह को छांव मिल गई है .
अजीब है दर्द और तस्कीं (शान्ति ) का सांझा रिश्ता
मिलेगी छांव तो बस कहीं धूप में मिलेगी ...
 जिस शख्स को शान्ति तुष्टि भी धूप में नजऱ आती है  मुहावरों के नये प्रयोग अपने आप खुलने लगते हैं उनकी कलम से। बात चाहे रस की हो या गंध की, उनके पास जा कर सभी अपना वजूद भूल कर उनके हो जाते हैं और उनकी लेखनी में रच बस जाते है। यादों और सच को वे एक नया रूप दे देते है। उदासी की बात चलती है तो गुलजार साहब बीहड़ों में उतर जाते हैं, बर्फीली पहाडिय़ों में रम जाते हैं।
 तुम्हारे गम की डली उठा कर
जुबान पर रख ली हैं मैंने
वह कतरा कतरा पिघल रही है
मैं कतरा कतरा ही जी रहा हूं
पिघल पिघल कर गले से उतरेगी ,आखिरी बूंद दर्द की जब
मैं सांस की आखरी गिरह को भी खोल दूंगा.....
 जब हम गुलजार साहब के फिल्मी गाने सुनते हैं तो अहसास होता है की यह तो हमारे आस पास के लफ्ज़ हैं पर अक्सर कई गीतों में गुलज़ार साब ने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो श्रोता को चकित कर देते हैं। जैसे की उन्होंने कोई जाल बुना हो और हम उसमें बहुत आसानी से फंस जाते हैं।  दो अलग-अलग शब्द जिनका साउंड बिल्कुल एक तरह होता है और वो प्रयोग भी इस तरह किए जा सकते हैं की कुछ अच्छा ही अर्थ निकले गीत का...गुलज़ार साहब ने अक्सर ही ऐसा किया है।  बात उनके मोरा गोरा अंग लइले गीत की हो या फिर कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना या फिर नमक इश्क का...गीत की चले, हर बार एक गुलजार साहब एक नया तिलिस्म पैदा कर जाते हैं।
जगजीत सिंह की आवाज में मरासिम अलबम की एक गज़़ल है -
हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक्त के शाख से लम्हें नहीं तोड़ा करते...
 इस गज़़ल में एक शेर है-
 शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालों के लिए दिल नहीं थोड़ा करते....
यह गुलजार साहब ने शायद उन लोगों के लिखा है, जो रिश्तों की टूटन को दिल से लगाए बैठे रहते हैं और सोचते हंै कि अब सारा कुछ खत्म हो गया है, लेकिन ऐसा नहीं है, अच्छा -बुरा जैसा भी रिश्ता बनता है, फिर वह चाहे हमेशा के लिए साथ न चले, लेकिन उसकी तपीश दिल में हमेशा यादों के साथ रहती है।
गुलजार साहब की गजलें, नज्में, गीत उनके -कुछ और नज्में, पुखराज, रात पश्मीने की और त्रिबेनी में संकलित हैं। उनकी कहानियों के संग्रह रावी पार, खराशें और धुंआ अपनी एक अलग कशिश रखते हैं। आनंद, मौसम, लिबास, आंधी, खुशबू जैसी फिल्मों की पटकथा उन्होंने ही लिखी। फिल्मों में लिखे उनके अनगिनत गाने आज भी बज रहे हैं और आज की पीढ़ी के संगीतकार भी उनके रुहानी गीतों की धुने बड़ी संजीदगी से तैयार कर रहे हैं।  शब्दों का यह बाजीगर 18 अगस्त को 83 साल का हो रहा है। 
 
 

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