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 इन्सान भी तो निगल रहा है प्लास्टिक !
'Solutions to Plastic Pollution' यह थीम है वर्ष 2023 के पर्यावरण दिवस की जिसका अर्थ है 'प्लास्टिक प्रदूषण के समाधान", हर वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस एक नई थीम के साथ मनाया जाता है। 1972 से लेकर अब तक 51 साल बीत चुके हैं यानी पूरा आधा युग बीत गया। एक लंबे समय तक लोगों को पर्यावरण-संतुलन को बनाए रखने के लिए जागरुक किया जाता रहा है। शालेय और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में पर्यावरण अध्ययन अनिवार्य विषय बना, वृक्षारोपण के लिए तरह-तरह के अभियान चलाए गए, बहुत से संकल्प लिये गये, डिजिटल युग में सूचना तकनीकी ने पूरे विश्व को ग्लोबल विलेज में तब्दील कर दिया, लेकिन प्रकृति का दोहन नहीं रुका, जंगल के जंगल कटे और कट रहे हैं। नगरीकरण और उद्योग को प्रगति का आधार माना गया, लेकिन प्रकृति का पोषण नहीं, दोहन ही हुआ। इस समय विश्व के सामने सबसे बड़ी समस्या प्लास्टिक कचरे की है। भारत सहित विश्व के विभिन्न देशों में हो रहे शोध के परिणाम हैरत में डालने वाले हैं।
इंडियन इंस्टीच्यूट आफ साइंस और प्रेक्सिस ग्लोबल अलायंस की 'इनोवेशन इन प्लास्टिक, द पोटेंशियल एंड पॉसिबिलिटीज' की रिपोर्ट बताती है कि प्लास्टिक के उपयोग से ज्यादा प्लास्टिक के कचरे की दर है। भारत में लगभग 20 मिलियन टन प्लास्टिक का उपयोग होता है और प्लास्टिक कचरा 34 लाख टन निकलता है। इसका सिर्फ 30 प्रतिशत ही रिसाइक्लिंग होता है। शेष प्लास्टिक कचरा खेतों, नदियों और समुद्र में डाला जाता है। जाहिर है प्लास्टिक कचरे से समुद्र भी अछूता नहीं रहा। सबसे ज्यादा प्रभाव क्लाइमेट पर पड़ रहा है। जमीन बंजर हो रही, पानी प्रदूषित हो रहा, बेमौसम बारिश और धरती का बढ़ता तापमान, इन सारी समस्याओं का क प्रमुख कारण प्लास्टिक कचरा भी है।
पिछले साल हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के हिमालयी जलीय जैव विविधता विभाग के अध्ययन में अलकनंदा नदी में मछलियों के पेट में हानिकारक पॉलीमर के टुकड़े और माइक्रोप्लास्टिक सहित नाइलोन के महीन कण मिलने का खुलासा हुआ। यह सिर्फ भारत की बात नहीं। लगभग दस साल पूर्व ब्रिटेन के प्लाइमाउथ विश्वविद्यालय के मरीन पॉल्यूशन बोर्ड ने एक अध्ययन में पाया था कि इंग्लैंड के तट पर पाई जाने वाली एक तिहाई मछलियों के पेट में प्लास्टिक है। इसका जिक्र इँडिया वाटर पोर्टल में प्रकाशित मेनका गांधी के आलेख में किया गया है। वे लिखती हैं, '"औद्योगिकीकरण की होड़ में क्या इंसान सिर्फ अपने जीने की फिक्र करने लगा है। हम क्यों नहीं इस बात को महसूस करते कि जिस वातावरण को विषैला बना रहे हैं, उसी वातावरण में हम भी तो रहते हैं। यह अलग बात है कि इंसान सीधे रूप में प्लास्टिक नहीं खाता, लेकिन क्या खाद्य श्रृखंला पर कभी गौर से सोचा है हमने।"
विभिन्न अध्ययनों में गाय-भैंस के दूध, गोबर और मूत्र में प्लास्टिक के कण पाए जाने के खुलासे होते रहे हैं। यह खुले में प्लास्टिक कचरा फेंके जाने का दुष्परिणाम है जिसका शिकार सिर्फ मवेशी और समुद्री जीव-जन्तु ही नहीं, इन्सान खुद भी हो रहा है। क्या मनुष्य के पेट में प्लास्टिक के कण नहीं पाlए जाते होंगे ? इन्सान भोजन के साथ प्लास्टिक के छोटे-छोटे कणों को भी निगल रहा है जिसका एहसास नहीं होता। यह तथ्य अध्ययनों में सामने आता रहा है। लगभग पांच वर्ष पूर्व ब्रिटेन स्थित हेरियट-वॉट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि एक औसत व्यक्ति साल में सामान्य तौर पर खाते समय 68 हजार 415 खतरनाक माने जाने वाले प्लास्टिक फाइबरों को निगल जाता है। यह फाइबर घर के भीतर धूल के कणों में और बाहर के वातावरण में मौजूद रहते हैं। पिछले साल ही नीदरलैंड़्स के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में इंसान के रक्त में प्लास्टिक के कण खोज निकाले जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा गया। अध्ययन के मुताबिक खाने-पीने की चीजों से और हवा से प्लास्टिक के पार्टिकल इंसान के शरीर में पहुँच रहे हैं। प्लास्टिक के प्रभावों पर एक नहीं सैकड़ों अध्ययन हो चुके हैं और हो रहे हैं। इसके दुष्परिणाम भी हम सब भोग रहे हैं, फिर भी प्लास्टिक के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर पा रहे। इन सबकी मूल वजह है “उपयोग करो और फेंको” संस्कृति, मसलन “यूज एंड थ्रो”। एक आम इन्सान से लेकर खास तक की जीवन-शैली में यह रच-बस गया है। हमारी संस्कृति ‘पाउच-संस्कृति’ हो गई है।  हमारी दिनचर्या में रचा-बसा प्लास्टिक उत्पाद उपयोग में आसान, सस्ता, उपयोगी लगता है, लेकिन थ्रो के बाद यह पशु-पक्षी, जलचर, थलचर सभी के लिए खतरनाक प्रमाणित हो रहा है।
वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रणेता पं. श्री राम शर्मा आचार्य ने सही लिखा है, “समझदार मनुष्य की नासमझी ने अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया है। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने चेतावनी देते हुए कहा था कि वैज्ञानिक विकास तो ठीक है, पर उसे प्रकृति विरोधी नहीं होना चाहिए।, उस समय चेतावनी को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया, परंतु प्रकृति के अनियंत्रित दोहने के फलस्वरूप हम उस मुकाम पर पहुँच गए हैं, जहाँ प्रकृति इतनी विक्षुब्ध है कि हमारी क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप दंड देने पर उतारू है। अनियंत्रित और अनियमित वर्षा, प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ें एवं सूखा संकट, आए दिन भूकंपों की विनाश लीला, समुद्र में आने वाले विनाशकारी तूफान इसी की परिणति है।“ क्या कभी वह दिन भी आएगा जब दुनिया ‘प्लास्टिक रहित जीवन’ जी सकेगी और हमें विश्व पर्यावरण दिवस मनाने की जरूरत ही नहीं पड़े ? इसका जवाब समय के गर्भ में है। प्रकृति का दोहन करने बजाए उसका पोषण करना ही समय की मांग है। हर उत्सव और महोत्सव बिना वृक्षारोपण के न करने और प्लास्टिक का उपयोग न करने का संकल्प ही विश्व पर्यावरण दिवस का सार्थक कदम होगा।

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