दीपशिखा (कहानी)
- लेखिका डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
आज माधुरी सुबह से ही रसोई में घुसी हुई थी । नाश्ता , दोपहर का खाना , फिर ढेर सारे पकवान भी तो बनाने थे । आज दीपावली जो है ...आज तो आने - जाने वालों का तांता लगा रहेगा । उसे भूख भी लग आई थी लेकिन वह चुपचाप काम में लगी रही । जानती थी , जरा सी भूल हुई नहीं कि उस पर तानों की बौछार हो जायेगी । माधुरी एक सुंदर सुशिक्षित व मधुर स्वभाव वाली लड़की थी ।
तभी तो साधारण परिवार की होते हुए भी राजीव व उसके पिताजी दोनों को एक ही नजर में भा गई थी । सिर्फ माँ इस विवाह के विरुद्ध थी । वह एक अच्छे खानदान व बड़े घर की बेटी को ही अपनी बहू बनाना चाहती थी, पर राजीव की जिद के आगे उनकी एक न चली । अंततः माधुरी इस घर में दुल्हन बनकर आ ही गई । आते ही उसने घर के सारे काम सँभाल लिए । ऐसा लगता था मानो घर की हर चीज उसकी सृजनशीलता की तारीफ कर रही हो । उसने कभी अपनी सास को भी शिकायत का मौका नहीं दिया ...लेकिन पता नहीं उनके मन में क्या धारणा घर कर गई थी कि वह माधुरी के हर कार्य में गलती निकालती । उसे फटकारने या ताना मारने का कोई मौका वे नहीं छोड़तीं थी । पिताजी व राजीव हमेशा माधुरी का पक्ष लेते , उसे समझाते रहते व उसे खुश रखने का प्रयास करते ताकि वह माँ की बातों से दुखी न हो । राजीव उसे धैर्य रखने को कहता " समय के साथ माँ भी बदल जाएंगी.. उनके स्नेहिल हृदय के द्वार तुम्हारे लिये भी अवश्य ही खुलेंगे"। पति का यह आश्वासन उसे अपने कर्तव्य - पथ पर डटे रहने की प्रेरणा देता और पिता तुल्य ससुर जी का प्रेम सासु माँ की कटुक्तियों पर मलहम की तरह काम करता । वैसे वह महसूस करती कि माँ जी दिल की बुरी नहीं है... उसके प्रति रूखेपन का कारण शायद अपने इकलौते बेटे की शादी में अपनी जिद न चल पाने का मलाल था या बेटे को खोने का भय...जो कभी - कभी ज्वालामुखी के लावे की तरह अचानक फूट पड़ता था । खयालों में खोई माधुरी की तन्द्रा माँ जी की आवाज से टूटी । वह खाना लगाने को कह रही थीं और माधुरी सबको खाना परोसने लगी ।
शाम को जल्दी से तैयार होकर वह पूजा की तैयारी करने लगी । माँ जी भी दीयों में तेल भरने लगीं । रात को पूजा के बाद सभी छत पर टहलने लगे । दीपशिखाओं की रोशनी से सारा शहर जगमगा रहा था । पिताजी और राजीव पटाखे छुड़ाने नीचे चले गए और माँ जी और माधुरी ऊपर से ही उन्हें देखने लगीं । तभी अचानक माधुरी ने देखा कि माँ जी की साड़ी के लटकते हुए पल्लू में आग लग गई है और वे बेखबर रोशनी देखने में मग्न हैं । माधुरी ने एक पल की भी देरी नहीं कि और माँ जी की ओर लपकी । तब तक शायद उन्हें भी इस बात का एहसास हो गया था । वे घबराहट में कुछ सोच भी नहीं पाई थीं कि माधुरी उनके पास पहुँच गई और अपने हाथों से साड़ी में लगी आग को बुझाने लगी । आग तो जल्दी बुझ गयी पर उसका हाथ काफी झुलस गया ।
माँ जी कुछ देर हतप्रभ सी खड़ी रहीं फिर माधुरी के हाथों को पकड़कर फूट - फ़ूटकर रोने लगीं - मैंने तुम्हें हमेशा भला - बुरा कहा । कभी दो मीठे बोल नहीं कहे .....फिर भी तुम मेरी सेवा करती रही और आज मेरे लिए ये तूने क्या कर लिया, अपने हाथ जला लिए । मुझे माफ करना बेटी , आज मुझे मालूम हुआ व्यक्ति का आकलन उसके गुणों , व्यवहार से करना चाहिए न कि धन - दौलत से । मुझे माफ़ कर दो.." ।
माधुरी को लगा उसे सब कुछ मिल गया और वह माँ जी के सीने से लग गई एक दुलारी बेटी की तरह । अब उसे दीपशिखा की ज्योति अति सुहानी लग रही थी क्योंकि उसने उसके मन के उदासी रूपी अँधेरे को हर लिया था और उसके चारों तरफ खुशियाँ जगमगा उठी थीं ....साथ ही ससुराल में मातृप्रेम जो मिल गया था ।
--स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग, छत्तीसगढ़
-Mobael No.-9424132359
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