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संगीतकार सलिल चौधरी: 5 सितंबर पुण्यतिथि पर विशेष  ----आ जा रे परदेसी मैं तो कब से खड़ी इस पार......

आलेख- मंजूषा शर्मा
संगीतकार सलिल चौधरी के गाने आज की पीढ़ी भी बड़ी शिद्धत से सुनती और गुनगुनाती है, क्योंकि उन्होंने हमेशा दिल तक पहुंचने वाले गाने तैयार किए हैं। भारतीय फि़ल्म जगत को अपनी मधुर संगीत लहरियों से सजाने-संवारने वाले  संगीतकार सलिल चौधरी ने जितने मधुर गाने हिन्दी में तैयार किए, उतने ही मलयालम और बांग्ला फिल्मों में भी दिए हैं।   फि़ल्म जगत में सलिल दा  के नाम से मशहूर सलिल चौधरी को सर्वाधिक प्रयोगवादी एवं प्रतिभाशाली संगीतकार के तौर पर जाना जाता है।  मधुमती, दो बीघा जमीन, आनंद, मेरे अपने जैसी फि़ल्मों के मधुर संगीत के जरिए सलिल चौधरी आज भी लोगों के दिलों-दिमाग पर छाए हुए हैं। वे पूरब और पश्चिम के संगीत मिश्रण से एक ऐसा संगीत तैयार करते थे, जो परंपरागत संगीत से काफ़ी अलग होता था। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण उन्होंने लोगों के दिलों में अपनी अलग ही जगह बनाई थी। गायक कलाकार यसुदास उन्हीं की खोज हैं। 5 सितंबर 1995 को उन्होंने संगीत की दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।
5 सितंबर को उनकी पुण्यतिथि पर उनकी एक फिल्म मधुमती के एक गीत की चर्चा। ये गाना है -मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अंखियां थक गईं पंथ निहार, आजा रे परदेसी....लता मंगेशकर ने इतनी खूबसूरती से गाया है कि इस गाने को बार - बार सुनने का दिल करता है। इस गाने में प्रीत के बिछड़ जाने का गम भी है और एक प्रेमिका की दर्दभरी पुकार, जो  अपने प्रियतम की राह देख रही है। लता मंगेशकर ने यदि इसमें अपना दर्द पिरोया है, तो संगीतकार सलिल चौधरी ने इसमें दिल को छू लेने वाला संगीत दिया है। गाने में कवि शैलेन्द्र ने जैसे अपना पूरा दर्द उड़ेल दिया है। पाश्र्व गायिका लता मंगेशकर सलिल दा की पसंदीदा गायिका रहीं। लताजी की सुरमयी आवाज़ के जादू से सलिल चौधरी का संगीत सज उठता था। उस दौर की किसी फि़ल्म के गाने की गायिका लताजी और संगीतकार सलिल जी हों तो गानों के हिट होने में कोई संशय नहीं रहता था। 
 मधुमती फिल्म में सलिल चौधरी ने ज्यादातर पहाड़ी रागों का इस्तेमाल ज्यादा किया था। चूंकि फिल्म की कहानी भी ग्रामीण परिवेश की थी। यह फिल्म में 1958 में प्रदर्शित हुई थी। उस वक्त इसके गाने खूब बजा करते थे और अब भी इसके  सभी गाने कानों में मिश्री घोल जाते हैं। फिल्म में पूरे दस गाने थे और सभी ने लोगों के दिलों में जगह बनाई। सलिल दा ने इन गानों की ऐसी मीठी धुनें तैयार की कि आज तक उनकी चमक बरकरार है। फिल्म में दिलीप कुमार और वैजयंती माला की जोड़ी थी। मधुमती पुनर्जनम की कहानी पर आधारित एक सस्पेन्स फि़ल्म  थी।  मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अंखियां थक गईं पंथ निहार, आजा रे परदेसी.... गाने के लिए ही लताजी  को अपने जीवन का पहला फि़ल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला।  हालांकि इस फिल्म ने विभिन्न श्रेणियों में आठ फिल्म फेयर पुरस्कार जीते थे। यह शायद पहली हिन्दी फि़ल्म है जिसमें  वैजयंती माला ने तीन-तीन रोल निभाये । इस फि़ल्म के निर्माता और निर्देशक बिमल रॉय थे। इस फि़ल्म को सन् 1958 में अन्य पुरस्कारों के अलावा सर्वेश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। । इस फिल्म से कई निर्माताओं ने प्रेरणा ली और अपनी फिल्मेें बनाई। उसमें राजेश खन्ना और हेमामालिनी की फिल्म कुदरत और शाहरुख खान- दीपिका पादुकोण की फिल्म ओमशांति ओम का नाम शामिल है।
आज रे परदेसी गाना राग बागश्री जिसे बागेश्वरी भी कहा जाता है,  पर आधारित है।  गाने के अंतरे के बोल हैं-मैं दीये की ऐसी बाती, जल ना सकी जो बुझ भी ना पाती , या फिर  मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा बात जऱा सी  जैसी उपमाओं के पीछे कितनी दार्शनिक और गंभीर बातें छुपी हुई हैं, यह इस गाने को समझने वाले ही बता सकते हैं।
पूरा अंतरा है-   मैं दिए की ऐसी बाती, जल न सकी जो बुझ भी न पाती 
आ मिल मेरे जीवन साथी,  आजा रे, मैं तो कब से खड़ी इस पार..
तुम संग जनम जनम के फेरे, भूल गये क्यूं साजन मेरे 
तड़पत हूं मैं सांझ सवेरे,  आजा रे, मैं तो कब से खड़ी इस पार..
मैं नादिया फिर भी मैं प्यासी, भेद ये गहरा बात जऱा सी
बिन तेरे हर सांस उदासी,  आजा रे, मैं तो कब से खड़ी इस पार..
इस फिल्म का एक और गाना जो लताजी की आवाज में है- घड़ी - घड़ी मोरा दिल धड़के... भी राग बागेश्री में रचा गया है। 
राग बागेश्री काफी ठाट का राग हैं। इस राग में ग व नि स्वर कोमल हैं ,कोमल स्वरों को जब लिखा जाता हैं तो उनके नीचे एक आड़ी रेखा लगाई जाती हैं ,आरोह में रे व प स्वर वर्जित हैं ,अवरोह में केवल प वर्जित हैं ।   इसका गायन वादन समय मध्यरात्रि का हैं । इस राग के वादी संवादी स्वर हैं म व सा कुछ लोग वादी कोमल नि और संवादी कोमल ग भी बताते हैं । यह राग मध्यम प्रधान राग हैं यानी इस राग में म स्वर का बहुत प्रयोग हैं किंतु आजकल  लोग इसमें ध का प्रयोग अधिक कर रहे हैं ।
काफी थाट के अन्तर्गत माना जाने वाला यह राग कर्नाटक संगीत के नटकुरंजी राग से काफी मिलता-जुलता है। राग बागेश्री में पंचम स्वर का अल्पत्व प्रयोग होता है। षाड़व-सम्पूर्ण जाति के इस राग के आरोह में ऋषभ वर्जित होता है। कुछ विद्वान आरोह में पंचम का प्रयोग न करके औड़व-सम्पूर्ण रूप में इस राग को गाते-बजाते हैं। इसमें गान्धार और निषाद स्वर कोमल प्रयोग किये जाते हैं। राग का वादी स्वर मध्यम और संवादी स्वर षडज होता है। यह राधा का सर्वप्रिय राग माना जाता है।
मधुमति के अन्य गानों में शामिल हैं- सुहाना सफर और ये मौसम हंसी-मुकेश , जुल्मी संग आंख लड़ी -लता मंगेशकर, चढ़ गयो पापी बिछुआ -लता मंगेशकर, मन्ना डे , दिल तड़प तड़प के -लता मंगेशकर, मुकेश, घड़ी घड़ी मोरा दिल धड़के -लता मंगेशकर, हम हाल-ऐ-दिल सुनाएंगे- मुबारक बेगम , जंगल में मोर नाचा और टूटे हुये ख़्वाबों ने-मोहम्मद रफ़ी।

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