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मीनाकुमारी कहा करती थीं-उन्हें प्यार के अहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है

जन्मदिन पर विशेष 

आलेख-मंजूषा शर्मा

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- तंगहाल पिता जन्म के बाद छोड़ आए थे अनाथालय

-मीना की जिंदगी की रंगत शराब के आस पास ही सिमट कर रह गई थीं

पाकीजा फिल्म रिलीज हुए कुछ हफ्ते ही हुए थे कि अभिनेत्री मीना कुमारी बुरी तरह बीमार पड़ गईं। उनके लीवर में तकलीफ थी और किस्से हैं कि इसकी वजह जरूरत से ज्यादा शराब थी। फिल्म तो खूब चल निकली। साहिबजां यानि मीना कुमारी और सलीम अहमद खान (राजकुमार) के इश्क के चर्चे हर जुबान पर थे और ट्रेन में गुजरते वक्त तो जेहन में जरूर कौंधता था,  आपके पांव देखे, बहुत हसीन हैं.. उन्हें जमीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे।

 बैजू बावरा, दिल अपना और प्रीत पराई और भाभी की चूडिय़ां जैसी दर्जनों फिल्मों की कामयाबी ने मीना कुमारी को बॉलीवुड की ट्रेजडी क्वीन बना दिया। हुस्न पर उनकी अदाकारी भारी पड़ती थी या अदाकारी पर हुस्न, इस पर तो अब भी बहस हो सकती है, लेकिन हुस्न और अदाकारी के बीच उनकी तन्हाई और खामोशी किसी को नहीं दिखी। अभिनेत्री मीना कुमारी ने  हिन्दी सिनेमा जगत में जिस मुकाम को हासिल किया वो आज भी अस्पर्शनीय है । वे जितनी उच्चकोटि की अदाकारा थीं उतनी ही उच्चकोटि की शायरा भी।  अपने दिली जज्बात को उन्होंने जिस तरह कलमबंद किया उन्हें पढ़ कर ऐसा लगता है कि मानो कोई नसों में चुपके -चुपके हजारों सुईयां चुभो रहा हो। गम के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम कलमकारों के बूते की बात होती है। गम का ये दामन शायद अल्लाह ताला  की वदीयत थी जैसे। तभी तो कहा उन्होंने -

 कहां अब मैं इस गम से घबरा के जाऊं

कि यह ग़म तुम्हारी वदीयत है मुझको

 आज मीना कुमार के जन्मदिवस पर उनसे जुड़ी खास बातें।

बंबई की एक चॉल में उनकी मां इक़बाल बानो और पिता मास्टर अली बख़्श रहते थे, जो थियेटर आर्टिस्ट थे। पिता थियेटर में हार्मोनियम भी बजाते थे। बहुत तंगहाली थी। फिर 1 अगस्त 1932 को उनके घर मीना जन्मीं। घर में दो बेटियां पहले से थीं इसलिए उनके पैदा होने पर कोई खुशी मनाने की संभावना नहीं थी। डिलीवरी करने वाले डॉक्टर को फीस देने तक के पैसे नहीं थे। बताया जाता है कि अली बख़्श इतने निराश थे कि बच्ची को दादर के पास एक मुस्लिम अनाथालय के बाहर छोड़ दिया। लेकिन कुछ दूर गए थे कि बच्ची की चीखों ने उन्हें तोड़ दिया। वे लौटे और गोद में उठा लियाछ। बच्ची के शरीर पर लाल चींटियां चिपकी हुई थीं। उन्होंने उसे साफ किया और घर ले आए। नाम रखा महजबीं।  परिवार हो या वैवाहिक जीवन मीना कुमारी को ताउम्र तन्हाईयां हीं मिली। उनकी लिखी नज्म में यह बात जाहिर होती है-

 चांद तन्हा है,आस्मां तन्हा

दिल मिला है कहां -कहां तन्हां


बुझ गई आस, छुप गया तारा

थात्थारता रहा धुआं तन्हां


जिंदगी क्या इसी को कहते हैं

जिस्म तन्हां है और जां तन्हां


हमसफऱ कोई गर मिले भी कहीं

दोनों चलते रहे यहाँ तन्हां


जलती -बुझती -सी रौशनी के परे

सिमटा -सिमटा -सा एक मकां तन्हां


राह देखा करेगा सदियों तक

छोड़ जायेंगे ये मकां तन्हा

मीना कुमारी  जाते जाते सचमुच सारे जहां को तन्हां कर गईं । जब जिन्दा रहीं सरापा दिल की तरह जिन्दा रहीं । दर्द चुनते रहीं संजोती रहीं और कहती रहीं -

 टुकडे -टुकडे दिन बिता, धज्जी -धज्जी रात मिली

जितना -जितना आंचल था, उतनी हीं सौगात मिली


जब चाह दिल को समझे, हंसने की आवाज़ सुनी

जैसा कोई कहता हो, ले फिऱ तुझको मात मिली

 

होंठों तक आते -आते, जाने कितने रूप भरे

जलती -बुझती आंखों में, सदा-सी जो बात मिली

 मीना कुमारी कोई साधारण अभिनेत्री नहीं थी, उनके जीवन की त्रासदी, पीड़ा, और वो रहस्य जो उनकी शायरी में अक्सर झांका करता था। इसके अलावा  उनके फिल्मी किरदारों में भी उनका दर्द बखूबी झलकता रहा। फिल्म  साहब बीबी और गुलाम  में छोटी बहु के किरदार को भला कौन भूल सकता है।  न जाओ सैया छुडाके बैयां.. गाती उस नायिका की छवि कभी जेहन से उतरती ही नहीं।  1962 में मीना कुमारी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए तीन नामांकन मिले एक साथ- ये फिल्में थीं- साहब बीबी और गुलाम , मैं चुप रहूंगी  और  आरती  यानी कि मीना कुमारी का मुकाबला सिर्फ मीना कुमारी ही कर सकती थीं।  सुंदर चांद सा नूरानी चेहरा और उस पर आवाज़ में ऐसा मादक दर्द, सचमुच एक दुर्लभ उपलब्धि का नाम था मीना कुमारी। इन्हें ट्रेजेडी क्वीन यानी दर्द की देवी जैसे खिताब दिए गए। पर यदि उनके सपूर्ण अभिनय संसार की पड़ताल करें तो इस तरह की   छवि बंदी  उनके सिनेमाई व्यक्तित्व के साथ नाइंसाफी ही होगी।

 15 साल बड़े शादीशुदा कमाल अमरोही पर जब मीना का दिल आया, तो वह सिर्फ 19 की थीं। फिर भी दोनों ने शादी की। कहते हैं कि दोनों की शख्सियत इतनी बुलंद थी कि एडजस्ट करना दूभर हो गया और आठ साल बाद दोनों अलग हो गए। मीना के दिल से कमाल नहीं निकल पाए. फिर प्यार की कमी प्याले से भरने की कोशिश की। कमाल भी कम परेशान न थे। तलाक हो चुका था पर चाहत नहीं घटी थी। 1964 में दोनों ने फिर शादी कर ली, लेकिन तब तक प्यार में प्याले की गांठ लग चुकी थी। मीना कुमारी नशे के आगोश में ऐसी बह चुकी थीं कि कमाल अमरोही बताते हैं कि  घर के बाथरूम में डिटॉल की शीशी में भी ब्रांडी भरी होती थी।  अमरोही ने कई शीशियां हटाईं, मीना को लेकर ख्वाबों की फिल्म पाकीजा पूरी की, भले ही इसमें 16 साल क्यों न लग गए हों।  ब्लैक एंड व्हाइट गानों को दोबारा रंगीन में शूट क्यों न किया गया, लेकिन मीना की जिंदगी की रंगत शराब के आस पास ही सिमट कर रह गई। 

 एक बार गुलज़ार साहब ने मीना को एक नज़्म दिया था, जिसमें उन्होंने लिखा था -

 शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना

बुनती है रेशम के धागे

लम्हा -लम्हा खोल रही है

पत्ता -पत्ता बीन रही है

एक एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन

एक -एक सांस को खोल कर आपने तन पर लिपटाती जाती है

अपने ही तागों की कैदी

रेशम की यह शायरा एक दिन

अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगी

इसे पढ़ कर मीना जी हंस पड़ी । कहने लगी - जानते हो न, वे तागे क्या हैं ?उन्हें प्यार कहते हैं । मुझे तो प्यार से प्यार है । प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है । इतना प्यार कि कोई अपने तन से लिपट कर मर सके तो और क्या चाहिए?  महजबीं से मीना कुमारी बनने तक (निर्देशक विजय भट्ट ने उन्हें ये नाम दिया), और मीना कुमारी से मंजू (ये नामकरण कमाल अमरोही ने उनसे निकाह के बाद किया ) तक उनका व्यक्तिगत जीवन भी हजारों रंग समेटे एक गज़़ल की मानिंद ही रहा।  बैजू बावरा,परिणीता, एक ही रास्ता, शारदा, मिस मेरी, चार दिल चार राहें, दिल अपना और प्रीत पराई, आरती, भाभी की चूडिय़ां मैं चुप रहूंगी, साहब बीबी और गुलाम, दिल एक मंदिर, चित्रलेखा, काजल, फूल और पत्थर, मंझली दीदी, मेरे अपने, पाकीजा जैसी फिल्में उनकी लम्बी दर्द भरी कविता सरीखे जीवन का एक विस्तार भर है जिसका एक सिरा उनकी कविताओं पर आकर रुकता है -

थका थका सा बदन,

आह! रूह बोझिल बोझिल,

कहां पे हाथ से,

कुछ छूट गया याद नहीं....

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