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राज खोसला गुमनाम रहे, प्रशंसा नहीं पाए: महेश भट्ट ने अपने गुरु को उनकी जन्म शताब्दी पर याद किया

मुंबई.  फिल्म निर्माता महेश भट्ट का कहना है कि उनके गुरु राज खोसला ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो किसी से मान्यता चाहते थे, यही वजह है कि वह हिंदी सिनेमा में उनकी प्रतिभा को वह सम्मान नहीं मिला जिसके वह हकदार थे। भट्ट ने शनिवार को खोसला की जन्म शताब्दी पर उन्हें एक शांत व्यक्ति के रूप में याद किया जो पूरी तरह से कहानी बयां करने के अपने जुनून से प्रेरित था। भट्ट ने कहा कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि दिवंगत निर्देशक राज खोसला भारतीय फिल्म उद्योग के महान लोगों की फेहरिस्त में शुमार नहीं हैं। भट्ट ने इसकी वजह बताते हुए कहा, ‘‘उन्होंने एक बार (जब मैं उनका सहायक था) मुझसे बहुत शानदार ढंग से कहा था, मुझे फिल्में पसंद हैं, मुझे फिल्म उद्योग पसंद है।'' फिल्म ‘मेरा गांव मेरा देश' और ‘दो रास्ते' में खोसला के सहायक रहे भट्ट ने  कहा, ‘‘वह फिल्म उद्योग का खेल नहीं खेल सकते थे, खुद को कला, जीवन में आगे बढ़ाने का। वह ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो किसी और से मान्यता चाहते थे, बल्कि खुद से मान्यता चाहते थे... वह शायद 70 के दशक के सबसे कम करके आंके जाने वाले फिल्म निर्माताओं में से एक हैं।'' राज खोसला हिंदी सिनेमा में एक महत्वपूर्ण आवाज थे और उनका नाम कई यादगार हिट फिल्मों से जुड़ा है जिनमें ‘सीआईडी' (1956), ‘वो कौन थी' (1964), ‘मेरा साया' (1966), ‘मेरा गांव मेरा देश' (1971), और ‘दोस्ताना' (1980) शामिल है। उनकी फिल्में अपने बेहतरीन संगीत के लिए भी जानी जाती थीं। भट्ट का मानना ​​है कि यह कुछ ऐसा है जिसे भट्ट ने अपनी ‘फिल्मोग्राफी' में भी शामिल किया, भले ही यह फिल्म ‘आशिकी', ‘दिल है कि मानता नहीं' या ‘जख्म' के गाने के जरिये रहा हो। उन्होंने कहा कि वे बहुत सारी अमेरिकी फिल्में देखकर बड़े हुए हैं और उन्हें फिल्मों में गानों की प्रासंगिकता समझ में नहीं आई। भट्ट ने कहा, ‘‘हमने पाया कि गाने होना यथार्थवाद से दूर जाना है, लेकिन इसपर खोसला डांट लगाते हुए कहते थे, ‘अगर आपके पास इस देश में संगीत नहीं है, तो फिल्में आम लोगों तक नहीं पहुंच पाएंगी, और वे ही आपकी किस्मत लिखते हैं।'' भट्ट के मुताबिक, खोसला कहते थे, ‘‘जब तक सड़क पर चलने वाला आदमी आपके गाने नहीं गाता, तब तक आपका कोई भविष्य नहीं है।'' भट्ट ने कहा, ‘‘खोसला फिल्म में एक बेहतरीन गाने पर जोर देते थे, और उसके लिए एक परिस्थिति उत्पन्न करते और जगह बनाते थे। यह कुछ ऐसा था जो मेरे साथ रहा। मैंने भी अपनी फिल्म में गाने पिरोने की प्रक्रिया शुरू की।'' खोसला की 1964 की फिल्म ‘वो कौन थी?' के सदाबहार गीत ‘लग जा गले' का उदाहरण देते हुए भट्ट ने कहा कि ऐसा कोई दूसरा गाना नहीं है जो लता मंगेशकर के बेहद खूबसूरत गायन की बराबरी कर सके। डिजिटल युग (जहां फिल्में रिलीज होने के तुरंत बाद भुला दी जाती हैं) के मद्देनजर भट्ट ने कहा कि उन्हें आश्चर्य नहीं है कि बहुत सारे लोग खोसला के सिनेमा के बारे में नहीं जानते हैं। भट्ट ने कहा कि उन दिनों आज की तरह मीडिया की मौजूदगी नहीं थी, लेकिन डिजिटल युग का मानव जीवन में प्रवेश के साथ स्मृति को आघात पहुंचा है। उन्होंने कहा कि उन्हें आश्चर्य नहीं है कि बहुत से लोगों को याद नहीं होगा कि वह किस तरह के फिल्म निर्माता थे, उनमें कितनी विविधता थी जिनमें पारिवारिक ड्रामा से लेकर अपराध और डरावनी फिल्में शामिल हैं। भट्ट (76) ने कहा कि वर्तमान पीढ़ी को उस सिनेमाई विरासत की सराहना करने के लिए एक पल निकालना चाहिए जिसने उनके समकालीन फिल्म अनुभवों को आकार दिया है। भट्ट ने खोसला को एक ‘सुसंस्कृत और शिक्षित' शख्स करार दिया। खोसला की विरासत को याद करने के लिए फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन (एफएचएफ) एक दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन कर रहा है, जिसका शीर्षक है- ‘‘राज खोसला 100 - बंबई का बाबू''। इस कार्यक्रम के तहत ही शनिवार को मुंबई के रीगल सिनेमा में उनकी तीन प्रशंसित फिल्में दिखाने का निर्णय लिया गया। ये तीन प्रशंसित फिल्में हैं ‘सी.आई.डी.', ‘बंबई का बाबू' और ‘मेरा गांव मेरा देश'। भट्ट ने याद किया कि जब वे 1980 और 1990 के दशक के उथल-पुथल भरे दौर में खोसला से मिले थे, तो उनके गुरु उनकी सफलता से बहुत खुश थे, लेकिन उन्हें भी एक हिट फिल्म की दरकार थी। खोसला का मुंबई में 1991 में निधन हो गया था। 

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