दुनिया में हर साल बढ़ेंगे 57 अत्यधिक गर्म दिन, छोटे व गरीब देशों पर पड़ेगा ज्यादा असर
वाशिंगटन. दुनिया इस सदी के अंत तक हर साल लगभग दो महीने तक ‘‘अत्यधिक गर्म'' दिनों का सामना करेगी और इसका सबसे ज्यादा असर छोटे व गरीब देशों पर पड़ेगा, जबकि सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देशों को इसकी मार कम झेलनी पड़ेगी। बृहस्पतिवार को जारी एक नए अध्ययन में यह दावा किया गया है। हालांकि, 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के बाद से उत्सर्जन कम करने के प्रयासों ने गंभीर स्थिति को कुछ हद तक रोका है। अध्ययन के मुताबिक, अगर यह समझौता नहीं हुआ होता तो पृथ्वी को हर साल 114 और घातक गर्म दिनों का सामना करना पड़ता। ‘वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन' और अमेरिका स्थित ‘क्लाइमेट सेंट्रल' के वैज्ञानिकों ने विभिन्न मॉडल की वास्तविक समय के साथ तुलना करते हुए कंप्यूटर के जरिए यह गणना की है कि पेरिस समझौते से कितनी राहत मिली है। अध्ययन के अनुसार, यदि सभी देश अपने वादों को पूरा करते हैं और वर्ष 2100 तक तापमान 2.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो दुनिया को अब की तुलना में 57 अतिरिक्त गर्म दिन झेलने होंगे। लेकिन यदि तापमान चार डिग्री सेल्सियस बढ़ा तो यह संख्या दोगुनी हो जाएगी। ‘क्लाइमेट सेंट्रल' की वैज्ञानिक क्रिस्टिना डाल ने कहा, ‘‘जलवायु परिवर्तन से दर्द और नुकसान तो होगा, लेकिन यह प्रगति भी दिखाती है कि पिछले 10 सालों में किए गए प्रयास असरदार रहे हैं।'' साल 2015 से अब तक दुनिया में औसतन 11 अतिरिक्त ‘‘अत्यधिक गर्म'' दिन बढ़ चुके हैं, जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हैं। अध्ययन में पाया गया कि छोटे द्वीपीय और समुद्र पर निर्भर देश जैसे सोलोमन द्वीप, समोआ, पनामा और इंडोनेशिया को सबसे अधिक नुकसान होगा। उदाहरण के लिए, पनामा को 149 अतिरिक्त गर्म दिनों का सामना करना पड़ेगा। इसके विपरीत अमेरिका, चीन और भारत जैसे प्रमुख उत्सर्जक देशों में केवल 23-30 अतिरिक्त गर्म दिन बढ़ेंगे। वे हवा में 42 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन उन्हें अतिरिक्त अत्यधिक गर्म दिनों का एक प्रतिशत से भी कम हिस्सा मिल रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह असमानता जलवायु न्याय की गहराई को दिखाती है कि जिन देशों ने कम प्रदूषण फैलाया है, वही सबसे ज्यादा जलवायु संकट झेलेंगे।

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