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 ब्रज का यह अचरज देखो
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने ब्रजरस से ओतप्रोत साहित्यों में श्रीराधाकृष्ण तथा प्रेमतत्व का बड़ा गूढ़ और विशद वर्णन किया है। ब्रजधाम में श्रीकृष्ण का अवतरण तथा उनकी लीलायें अनोखी हैं। ज्ञानीजन भगवान को ब्रम्ह स्वरुप में आराधना करते हैं, जो कि निराकार और निर्गुण है। पर प्रेम के वशीभूत होकर वे अपने सगुण, साकार रुप में भी प्रकट होते हैं और लीलादि के द्वारा प्रेमदान आदि करते हैं। यह ज्ञानियों के लिये तथा ब्रम्हा के लिये भी आश्चर्य था। इसी भाव पर यह नीचे का भाव है, जो कि श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित  युगल-रस ग्रंथ के एक कीर्तन का भावानुवाद है -
 ..हे ज्ञानियों! तनिक ब्रज में आकर परम आश्चर्य को देखो। हे ज्ञानियों! जिसे तुम अजन्मा कहते हो, वह तो नंद का पुत्र बना है। जिसे तुम अतनु ब्रम्ह कहते हो, उसने ब्रज में नरवपु धारण किया है। हे ज्ञानियों! जिस ब्रम्ह को तुम निर्लेप कहते हो, वह तो ब्रज में गोपियों का दास बना है. 
 जिसे तुम आनंद ब्रम्ह कहते हो, वह तो ब्रज में यशोदा की गोद में जाने को रो रहा है। हे ज्ञानियों! जिसे तुम सर्वज्ञ ब्रम्ह कहते हो, वह उज्जैन जाकर गुरु के निकट क, ख, ग पढऩा सीख रहा है। जिस ब्रम्ह को तुम निरंजन कहते हो, वह गोपियों के नेत्रों का अंजन बना है। 
 जिसे ज्ञानीजन पूर्णकाम कहते हैं, वह ब्रज में गोपियों के प्रति कामी बना है. ज्ञानी जिसे अदृष्ट कहते हैं, उसे तो ब्रज में सभी देख रहे हैं। जिसे ज्ञानी व्यापक कहते हैं, उसे यशोदा ने ऊखल से बाँध दिया। जिसे सब ज्ञानी जगत को चलाने वाला कहते हैं, वह ब्रज में चलना सीख रहा है। 
 श्री कृपालु जी कहते हैं - ये सब ज्ञानी अधूरे ज्ञानी हैं जिन्हें ब्रम्ह के पूर्ण रुप का ज्ञान नहीं है। ब्रम्ह तो विरोधी गुणों से परिपूर्ण है अत: वह तो अजायमानो बहुधा विजायते है. वह निराकार होते हुये भी साकार है। वह आत्माराम होकर भी प्रेमियों के साथ विहार करता है। 
 ब्रम्ह आनंद रुप होकर भी सीता के वियोग में दु:खी होता है। वह सर्वज्ञ होकर भी पशु-पक्षियों से अपनी प्राण-प्रिया जानकी के विषय में जानना चाहता है-
 हे खग मृग, हे मधुकर श्रेनी, तुम देखि सीता मृगनयनी।।
 ज्ञानियों के पूर्णकाम ब्रम्ह ने रास विलास करने की इच्छा से ब्रज में वंशी बजाकर ब्रजांगनाओं को अपने निकट बुलाया -
 भगवानपि ता रात्रि... .. (भागवत)
 ज्ञानियों का अदृष्ट ब्रम्ह अपने भक्तों के नेत्रों का विषय बन जाता है। ज्ञानियों का व्यापक ब्रम्ह एकदेशीय बनकर प्रेम के कारण ऊखल बंधन की लीला का आयोजन करता है। प्रेम के कारण ही जगत-चालक को यशोदा ऊँगली पकड़कर चलना सिखाती है। वस्तुत: ज्ञान का फल प्रेम है। प्रेम के अभाव में ज्ञान अपूर्ण है।
 
स्त्रोत:  युगल-रस ग्रंथ, कीर्तन संख्या 9 का भावानुवाद
रचयिता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।

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