अध्यात्मवाद-भौतिकवाद समन्वय
- मन हरि में तन जगत में, कर्मयोग येहि जान- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को भारतवर्ष की 500 सर्वमान्य विद्वानों की तात्कालिक सभा काशी विद्वत परिषद के द्वारा 14 जनवरी 1957 को पंचम मूल जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की गई थी। इस उपाधि के साथ ही उन्हें निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य की उपाधि से भी विभूषित किया गया था। उन्होंने अनेकानेक विरोधाभासी सिद्धांतों का सर्वप्रथम समन्वय किया है। आज उनके द्वारा किये गये अध्यात्मवाद तथा भौतिकवाद के समन्वय का एक संक्षित रुप जानेंगे। यह जानना इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि वर्तमान परिस्थितियां ऐसी हैं कि प्रत्येक व्यक्ति उलझन में है कि वह कैसे सुख प्राप्त करे और दु:ख कब जाए? यह अध्यात्मवाद तथा भौतिकवाद के प्रति अज्ञानता तथा किसी एक के प्रति ही दुराग्रह का परिणाम है। जीवन में इसका समन्वय चाहिये। आइये इसे जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक शब्दों द्वारा ही हृदयंगम करें.....
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...विश्व का प्रत्येक व्यक्ति वास्तविक सुख शांति चाहता है तथा उसी की प्राप्ति के हेतु प्रतिक्षण प्रयत्नशील भी है, तथापि विपरीत परिणाम प्राप्त होता है। उस वास्तविक सुख शान्ति के विषय में सदा से अनेक वादों के विवाद चल रहे हैं, किन्तु उन सबका समावेश दो वादों में ही है -
(1) भौतिकवाद,
(2) अध्यात्मवाद।
यद्यपि भौतिकवादी एवं अध्यात्मवादी दोनों ही एक दूसरे को भ्रान्त बताते हैं किन्तु यह सर्वथा भ्रम है। हम शरीर एवं आत्मा दो तत्व वाले हैं। अत: बहिरंग शरीर के हेतु भौतिकवाद तथा आत्मा सम्बन्धी अन्तरंग मन के हेतु अध्यात्मवाद। वास्तव में सुख-शान्ति तो अन्तरंग मन की ही वस्तु है तथापि शरीर स्वस्थ रखने के हेतु भौतिकवाद ही अनिवार्य है। भौतिकवाद द्वारा शरीर को स्वस्थ रखना वर्तमान विज्ञान से, सभी जानते हैं किन्तु मन की शुद्धि सम्बन्धी अन्तरंग विज्ञान से अधिकांश व्यक्ति अपरिचित हैं। तदर्थ अध्यात्मज्ञान की आवश्यकता है, सभी धर्मों द्वारा ईश्वर भक्ति के द्वारा ही मन शुद्ध होने का सिद्धान्त बताया गया है, अत: उसी लक्ष्य के हेतु कर्मयोग द्वारा साधना परमावश्यक है। यथा -
मन हरि में तन जगत में, कर्मयोग येहि जान।
तन हरि में मन जगत में, यह महान अज्ञान।।
(भक्ति-शतक, श्री कृपालु जी विरचित)
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्द्-य च। (गीता)
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम्।।
(ईशावास्योपनिषद)
अर्थात निरन्तर कर्म करते हुये मन श्रीकृष्ण में लगा रहे, यही कर्मयोग है। अत: श्रीकृष्ण भक्ति के द्वारा ही सुख-शान्ति प्राप्त हो सकती है।
(समन्वयाचार्य - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत-भगवतत्त्व जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के जगदगुरुत्तम उपाधि के स्वर्ण जयंती वर्ष का विशेषांक
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।
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