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 श्रीराधाकृष्ण की सर्वोच्च भक्ति के मूर्तिमान स्वरुप हैं जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज!!
 
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा , यहां से पढ़ें..)

यह सत्य ही है,

जो समझा दे श्रुति सार, उर भरा प्रेम रिझवार ।
सोइ है सद्गुरु सरकार, गुरु सोइ  कृपालु  सरकार ।।
 
अकारण करुणा के स्वरुप भगवान् और महापुरुष जीवों के कल्याण हेतु ही अवतार लेते हैं क्योंकि वे परोपकार के अलावा कुछ कर ही नहीं सकते। 'बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं सन्ता । हरि कृपा से ही श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष का सान्निध्य प्राप्त होता है।
 लगभग 5000 वर्ष पूर्व, आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा अर्थात शरद पूर्णिमा की रात्रि में श्री कृष्ण ने गोपियों को  महारास का रस दिया था और इसी दिन सन् 1922 की आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) को रस सिंधु भक्तियोगरसावतार विश्व के पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज का आविर्भाव एक विशिष्ट उच्च ब्राम्हण परिवार में हुआ। विश्व भर में आज यह शुभ दिन  जगद्गुरुत्तम-जयंती  के रुप में मनाया जाता है। इस वर्ष जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज की 98 वीं  जगद्गुरुत्तम-जयंती  होगी।
 उनका जन्म भारतवर्ष के उत्तर प्रदेश, प्रतापगढ़ जिला, तहसील कुण्डा स्थित मनगढ़ नामक ग्राम में सर्वोच्च ब्राम्हण कुल में मां भगवती जी की गोद में हुआ।  मनगढ़ धाम भगवदीय गुणों से संपन्न एक ऐसी दिव्य लीलास्थली है जिसके कण कण में अविरल दिव्य प्रेम रस की मधुर धारा अहर्निश प्रवाहित होती रहती है। आज यह ग्राम  भक्तिधाम के नाम से सुप्रसिद्ध है।
 श्री महाराज जी (श्री कृपालु जी महाराज) की प्रारंभिक शिक्षा मनगढ़ एवं कुण्डा में संपन्न हुई। पश्चात् आपने इंदौर, चित्रकूट एवं वाराणसी में व्याकरण, साहित्य तथा आयुर्वेद का अध्ययन किया। 16 वर्ष की आयु में ही चित्रकूट के शरभंग आश्रम के समीपस्थ बीहड़ जंगलों एवं वृन्दावन के निकट जंगलों में गुप्तवास किया। तदन्तर भक्तजनों के अति आग्रह करने पर आपने जीव-कल्याणार्थ श्री राधाकृष्ण भक्ति का प्रचार प्रारम्भ कर दिया।
 जगद्गुरु बनने से पूर्व सन् 1955 में आपने चित्रकूट में एक विराट दार्शनिक सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें काशी आदि स्थानों के अनेक विद्वान एवं समस्त जगद्गुरु भी सम्मिलित हुए। सन् 1956 में ऐसा ही एक विराट संत सम्मेलन आपने कानपुर में आयोजित किया। आपके समस्त वेदों शास्त्रों के अद्वितीय असाधारण ज्ञान से वहां उपस्थित  काशी विद्वत् परिषत (भारत के शीर्षस्थ 500 मूर्धन्य शास्त्रज्ञ विद्वानों की एकमात्र सभा) के प्रधानमंत्री आचार्य श्री राजनारायण शुक्ल षट्शास्त्री ने काशी आने का निमंत्रण दिया। वहां श्री कृपालु जी के कठिन संस्कृत में दिए गए विलक्षण प्रवचन एवं भक्ति से ओतप्रोत अलौकिक व्यक्तित्व को देखकर सभी विद्वान स्तंभित रह गए। तब सबने एकमत होकर आपको  पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम की उपाधि से विभूषित किया। उन्होंने स्वीकार किया कि श्री कृपालु जी महाराज जगद्गुरुओं में भी सर्वोत्तम हैं।
 ...धन्यो मान्य जगद्गुरुत्तमपदै: सोयं समभ्यच-र्यते 
(  काशी विद्वत् परिषत द्वारा दिए गए पद्यप्रसूनोपहार में)
 यह ऐतिहासिक घटना 14 जनवरी 1957 की मकर संक्रांति को हुई। उस समय श्री महाराज जी की आयु 34 वर्ष की थी। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पाँचवें मूल जगद्गुरुत्तम् हैं। उनके पूर्व केवल 4 महापुरुषों को ही मूल जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की गई थी - आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य, जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य, जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य एवं जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य।
 पूर्ववर्ती जगद्गुरुओं एवं आचार्यों के दार्शनिक सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए अपना समन्वयवादी दार्शनिक सिद्धांत प्रस्तुत करने वाले जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज को काशी विद्वत् परिषत् ने  निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य  की उपाधि से भी विभूषित किया तथा उन्हें  भक्तियोगरसावतार की उपाधि भी प्रदान की। उन्होंने समस्त जगत के प्रेमपिपासु जनों को भगवान श्रीराधाकृष्ण की सर्वोच्च भक्ति  महारास-रस अथवा  गोपीप्रेम का सिद्धान्त प्रदान कर उन्हें इस प्रेम-माधुर्य की रसवृष्टि से सराबोर किया। अगनित विरोधाभासों का समन्वय करते हुये वेदों के विकृत हो चुके स्वरुप को पुन: प्रतिष्ठित किया तथा सामान्य जनमानस के जीवन के लिये आध्यात्म-पथ का सुगम, व्यवहारिक मार्ग सुझाया, जिसमें गृहस्थ में रहकर भी साधना करते हुये भी भगवान को प्राप्त कर सकने का मार्गदर्शन है।
 यहां तक का जो भी परिचय है वह विलक्षण व दिव्य होते हुए भी सामान्य लग सकता है। उनके परिचय के कुछ अंश प्रस्तुत करने के बाद लगता है कि परिचय अभी प्रारम्भ ही नहीं हुआ। उनकी भगवद्-प्रतिभा और उनके स्वरुप की वास्तविकता और महिमा को कौन सी बुद्धि नाप सकती है? 
 समस्त विश्व उनके द्वारा दिए गए अद्वितीय और अनुपम उपहारों के लिए युग-युगान्तर तक ऋणी ही रहेगा.ल। श्रीवृन्दावन स्थित दिव्य श्री प्रेम मंदिर, रँगीली-महल बरसाना धाम स्थित श्री कीर्ति मैया मंदिर तथा भक्तिधाम मनगढ़ स्थित श्री भक्ति मंदिर युगों-युगों तक भक्ति, प्रेम, आध्यात्म तथा सनातन वैदिक परंपरा के अद्वितीय संवाहक, स्तम्भ तथा धुरी-ध्वजा रहेंगे। इस वर्ष जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की 98 वीं जयंती होगी। इस अवसर पर इस  जगद्गुरुत्तम-जयंती श्रृंखला में हम उनकी महिमा को थोड़ा गहराई से समझने की चेष्टा करेंगे। वास्तव में उनकी महिमा को तो उनकी कृपा ही जना सकती है.... यथा,  सोइ जानइ जेहि देहु जनाइ ...
 
उनकी अवतारगाथा की श्रृंखला के लेख प्रत्येक सोमवार तथा मंगलवार को सुधि-पाठकजनों के मध्य प्रकाशित की जायेगी, आशा है कि श्रद्धालु तथा भावुक हृदय के आप सभी प्रेमीजन इन लेखों से किंचित लाभ प्राप्तकर इस युग के जगदगुरुत्तम के पावन चरित तथा उनके अवतार के महोद्देश्य से परिचित होंगे।
 
(संदर्भ - जगद्गुरु कृपालु परिषत से प्रकाशित; 'भगवतत्त्व',  जगदगुरुत्तम तथा  साधन-साध्य  पत्रिकायें)
 सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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