जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज, जिन्होंने सुमधुर श्रीराधा-नाम को विश्वव्यापी बनाया!!
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा, दूसरा भाग)
विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग में समन्वयवादी जगद्गुरु हुये हैं। इनके पूर्व हुए चारों मूल जगदगुरुओं ने किसी न किसी वाद की स्थापना की। आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी ने अद्वैतवाद, जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद, जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य जी ने द्वैताद्वैतवाद तथा जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य जी ने द्वैतवाद की स्थापना की। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने पूर्ववर्ती समस्त मूल जगदगुरुओं के वादों का समन्वय किया।
इसके अलावा आज सम्पूर्ण विश्व में ग्यारह धर्म चल रहे हैं - हिन्दू वैदिक धर्म, जैन, बौद्ध, ईसाई, सिक्ख, इस्लाम, यहूदी, पारसी, ताओ और कन्फ्यूशियस तथा शिन्तो धर्म। जीवात्मा के परम चरम लक्ष्य आनंदप्राप्ति के साधनों में इन सब में विरोधाभास सा है। एक ही धर्म में भी विरोधी बातें हैं। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज इन सब विरोधाभासों को दूर करके, सभी धर्मों का सम्मान करते हुये ऐसा मार्ग बताते हैं, जो सार्वभौमिक है।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अन्य बहुत सी ऐसी विशेषताएं हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं, अर्थात कुछ विशिष्ट घटनायें समस्त मौलिक जगद्गुरुओं के इतिहास में इनके ही जीवन में पहली बार घटित हुई हैं। संक्षेप में, वे इस प्रकार हैं -
(1) ये पहले जगद्गुरु हैं जिनका कोई गुरु नहीं है और वे स्वयं जगद्गुरुत्तम हैं।
(2) ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने एक भी शिष्य नहीं बनाया किन्तु जिनके लाखों अनुयायी हैं।
(3) ये पहले जगद्गुरु हैं जिनके जीवन काल में ही जगद्गुरुत्तम उपाधि की पचासवीं वर्षगाँठ मनाई गई हो, वर्ष 2007 में।
(4) ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने ज्ञान एवं भक्ति दोनों में सर्वोच्चता प्राप्त की व दोनों का मुक्तहस्त दान किया।
(5) ये पहले जगद्गुरु हैं जो समुद्र पार, विदेशों में प्रचारार्थ गये।
(6) ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने पूरे विश्व में श्री राधाकृष्ण की माधुर्य भक्ति का धुआंधार प्रचार किया एवं सुमधुर राधा नाम को विश्वव्यापी बना दिया।
(7) सभी महान संतों ने मन से ईश्वर भक्ति की बात बतायी है, जिसे ध्यान, सुमिरन, स्मरण या मेडीटेशन आदि नामों से बताया गया है। श्री कृपालु जी ने प्रथम बार इस ध्यान को रुपध्यान नाम देकर स्पष्ट किया कि ध्यान की सार्थकता तभी है जब हम भगवान के किसी मनोवांछित रुप का चयन करके उस रुप पर ही मन को टिकाये रहें। मन को भगवान के किसी एक रुप पर न टिकाने से मन यत्र-तत्र संसार में ही भागता रहेगा। भगवान को तो देखा नहीं तो फिर उनके रुप का ध्यान कैसे किया जाय, उसका क्या विज्ञान है, उसका अभ्यास कैसे करना है, आदि बातों को भक्तिरसामृतसिंधु, नारद भक्ति सूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि के द्वारा प्रमाणित करते हुए श्री कृपालु जी महाराज ने प्रथम बार अपने ग्रन्थ 'प्रेम रस सिद्धान्त' ग्रन्थ में बड़े स्पष्ट रुप से समझाया है।
(8) ये पहले जगद्गुरु हैं जो 93 वर्ष की आयु में भी समस्त उपनिषदों, भागवतादि पुराणों, ब्रह्मसूत्र, गीता आदि प्रमाणों के नम्बर इतनी तेज गति से बोलते थे कि श्रोताओं को स्वीकार करना पड़ता था कि ये श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ के मूर्तिमान स्वरुप हैं।
महापुरुषों की महिमा बता सकने में तो स्वयं भगवान भी अपने को असमर्थ पाते हैं, तब मायिक बुद्धि भला क्या कह अथवा लिख सकेगी? तथापि कुछ गुणों तथा माहात्म्य की ओर ध्यानाकर्षण इसलिये आवश्यक है ताकि हमारा मन उन महापुरुषों के प्रति श्रद्धानवत हो। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रदत्त 'जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन' इस आधुनिक विश्व के लिये ऐसी दिव्यौषधि है, जिसका पान करके निश्चय ही भगवान की मोहमयी माया के इस संसार के प्रपंच से बचा जा सकता है तथा उस दिव्य प्रेमानन्द, सेवानन्द का परमातिपरम सौभाग्य सहज ही पाया जा सकता है।
(संदर्भ- भगवतत्त्व, जगदगुरुत्तम तथा साधन साध्य पत्रिकायें)
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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