भगवान और उनके संत केवल परोपकार के लिये ही कर्म करते हैं!!
-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखला
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के परमाचार्य हैं, पंचम मूल जगदगुरुत्तम हैं। उन्होंने इस युग में आनंदप्राप्ति तथा दु:खनिवृत्ति के लिये एकमात्र भक्ति की अनिवार्यता सिद्ध की है। इस हेतु उन्होंने अपने अवतार-काल में अनगिनत प्रवचन दिये तथा अनेकानेक भक्ति सम्बन्धी साहित्यों को प्रगट भी किया। उनके द्वारा प्रगटित भक्तिपरक ग्रन्थों में से एक है, भक्ति-शतक! इस ग्रन्थ में आचार्य श्री ने भक्ति-तत्व की व्याख्या में 100 दोहों की रचना की है तथा समस्त वेदादिक ग्रन्थों के प्रमाणों द्वारा उनकी व्याख्या करके जनमानस को भक्ति के प्रत्येक रहस्य से अवगत कराया है। आज इसी अद्वितीय ग्रन्थ में से एक दोहा तथा उसकी व्याख्या से हम कुछ आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करेंगे :::::::
भक्ति-शतक ग्रन्थ से..
- दोहा संख्या 57 तथा उसकी व्याख्या
(दोहा)
हरि हरिजन के कार्य को, कारण कछु न लखाय।
पर उपकार स्वभाव वश, करत कार्य जग आय।।
दोहे का अर्थ - भगवान् एवं महापुरुषों के किसी भी कार्य का एक ही कारण है, वह यह कि उनका स्वभाव ही केवल परोपकार का होता है।
व्याख्या - वेद कहता है,
पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
(ईशावास्योपनिषद)
अर्थात् भगवान् अनंत मात्रा का पूर्ण होता है। अत: पूर्ण से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है। ऐसे भगवान् के किसी भी कार्य में स्वार्थ होने का ही प्रश्न नहीं उठता। इसी प्रकार भगवत्प्राप्त महापुरुषों के विषय में वेदव्यास कहते हैं। यथा,
गुणातीत: स्थितप्रज्ञो विष्णुभक्तश्च कथ्यते।
एतस्य कृतकृत्यत्वाच्छास्त्रमस्मान्निवर्तते।।
(वेदव्यास)
अर्थात् भगवत्प्राप्ति पर जीव कृतकृत्य हो जाता है। उसे पुन: कुछ भी करना अवशिष्ट नहीं रहता। यदि रहता भी है तो स्वार्थरहित श्रीकृष्ण सेवा कार्य ही करना होता है। और यह अवस्था अनंतकाल तक बनी रहती है। यथा वेद,
सदा पश्यन्ति सूरय: तद्विष्णो परमं पदम।
(सुबालोपनिषद, छठा मन्त्र एवं मुक्तोपनिषद्)
सोश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रम्हणा विपश्चितेति।
(तैत्तिरियोपनिषद् 2-1)
अस्तु उपर्युक्त वैदिक प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि हरि एवं हरिजनों का कार्य केवल परोपकार के कारण ही होता है। यदि परोपकार उनका स्वभाव न होता, तो विश्व का एक भी मायाधीन जीव अपना लक्ष्य (भगवत्प्राप्ति या आनंदप्राप्ति या दुखनिवृत्ति) न प्राप्त कर पाता।
(ग्रन्थ रचनाकार - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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