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 संसार से सुख मिलने के विश्वास ने हमारे अनंत जन्म बिगाड़े, इस विश्वास को बदलना होगा
- विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखला
 विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा संसार में सुख होने के विश्वास की हमारी भ्रामक भूल के प्रति ध्यान दिलाते हुये सारगर्भित महत्वपूर्ण प्रवचन, जिससे हम यह जान सकेंगे कि भगवान की राह पर हमारा उत्थान क्यों नहीं होता, कैसे उस रुकावट को हटाकर हम शीघ्रता से आगे बढ़ सकते हैं ::::::::
 
(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से हैं...)
 
...एक सच्चा संत कभी किसी को सांसारिक पदार्थों की ही प्राप्ति को सम्मति नहीं देता क्योंकि एक मायाबद्ध जीव के लिए अज्ञान हो सकता है लेकिन एक सन्त (जो कि भगवत्प्राप्ति कर चुका हो) उसके लिए सब कुछ शीशे की तरह साफ़ होता है, वो जानता है कि सार क्या है?
 
हम लोगों ने तो अनादिकाल से संसार में, संसारी वस्तुओं में ही सुख है, ये माना हुआ है और यहीं पर हमारी गाड़ी अटकी पड़ी है। अनादिकाल से अब तक हमने ये ही किया है, संसारी भोग पदार्थों में ही सुख है, ये बात संस्कार रूप से हमारे अंदर बैठी हुई है और बड़े होते- होते भी हम ये ही देखते हैं जिससे हमारी ये धारणा और पुष्ट होती जाती है, जबकि हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं कि संसारी सुख (जो कि जड़ है) प्रतिक्षण घटता जाता है, उसे सुख नहीं कहा जा सकता, उसे तो मृग-मरीचिका ही कहा जा सकता है।
 
जिस तरह एक व्यक्ति एक रूपये के नोट को नहीं देना चाहता लेकिन यदि उसे उस एक रूपये के नोट के बदले हजार रूपये का नोट दिया जाय तो वो उस एक रूपये के नोट को छोड़ देता है, ऐसे ही यदि हमें इस संसार में सुखबुद्धि से ऊपर उठना है तो हमें भगवान की भक्ति का आश्रय लेना होगा, भक्ति करते करते जब अन्त:करण शुद्ध हो जाएगा और उसमें भगवत्कृपा से भगवान का प्रेम प्रकट होगा तब हमें उसी अनुपात में दिव्य, प्रतिक्षण वर्धमान, अनंत भगवद आनंद का अनुभव होता चला जाएगा और त्यों ही त्यों उसी अनुपात में हम इन संसारी गर्हित, तुच्छ आनंद को छोड़ते चले जायेंगे, हमें इसके लिए कोई कोशिश नहीं करनी पड़ेगी, संसार अपने आप छूटता चला जाएगा, हम उत्तरोत्तर ऊपर उठते चले जायेंगे, हर साधक को साधना के दौरान इसका अनुभव होता है।
 
जो लोग ये बात समझ जाते हैं वे मानव जीवन के अपने परम चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं और वे ही लोग तुलसीदास, मीरा, नानक, सूरदास, कबीर, ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि बन जाते हैं, हमने ये बात नहीं समझी इसलिए हम लोग आज भी संसारी वस्तुओं के पीछे भाग रहे हैं।
 
हमारा ये अज्ञान यहां तक है कि हम लोग मंदिर भी जाते हैं तो वहां भी भगवान के सामने भी संसार की ही कामना किया करते हैं कि भगवान हमें पुत्र दो, रूपये दो, नौकरी दो आदि आदि। हमने अभी समझा ही नहीं है कि सुख कहा हैं? संसारी वस्तुओं की कामना करना ऐसा ही है जैसे शुगर का मरीज अपनी बीमारी भी ठीक करना चाहे परन्तु और उत्तरोत्तर मीठा खाता चला जाय, ऐसे तो बीमारी और बढ़ती चली जायेगी। अनादि काल से हमने अब तक ये ही किया है, संत लोग ये बात समझते हैं इसलिए वो संसारी चीजों को ही लक्ष्य बनाने की सम्मति कभी नहीं देते, बल्कि वे तो निष्काम भक्ति के लिए जीव को प्रेरित करते हैं।
 
अगर कोई संत कहलाने वाला व्यक्ति अध्यात्म की आड़ लेकर संसारी पदार्थों की प्राप्ति के लिए जनसमुदाय को उत्साहित करता है तो समझ लेना चाहिए कि वो व्यक्ति संत नहीं है, संत के भेष में पाखंडी है, धूर्त है। आजकल हमारे देश में ऐसे बाबाओं की बाढ़ आई हुई है। ये धूर्त भोली भाली जनता को संसार देने का वादा करते हैं। भारत भूमि में आज तक हुए सभी वास्तविक संतजनों ने निष्काम भक्ति का ही प्रचार किया है और जीवों की संसार में सुखबुद्धि को हतोत्साहित करने का काम किया है। क्योंकि जब तक जीव की संसार में सुखबुद्धि बनी रहेगी तब तक जीव भगवान की तरफ नहीं चलेगा, अगर चलेगा तो बार-बार गिरेगा। इसलिए लोगों को संसार के दोषों का बार-बार चिंतन करते रहना चाहिए।

(प्रवचनकर्ता - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)

सन्दर्भ- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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