कैसे खुश होते हैं पितर
सामान्य धारणा यह है कि जिनकी मृत्यु हो जाती है वह पितर बन जाते हैं। शास्त्रों में मनुष्यों पर तीन प्रकार के ऋण कहे गये हैं -देव ऋण, ऋषि ऋण एवम पितृ ऋण। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितरों की तृप्ति के लिए उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करके पितृ ऋण को उतारा जाता है। श्राद्ध में तर्पण, ब्राह्मण भोजन एवं दान का विधान है।
शास्त्रों में श्राद्ध पक्ष में दान की महिमा के बारे में बताया गया है। इन दिनों क्या दान करना चाहिए और क्यों? इस बारे में हमारे पौराणिक ग्रंथों में विस्तार से उल्लेख मिलता है। वैसे, इन दिनों अनाज का दान करना शुभ माना गया है।
अनाज में गेहूं, चावल का दान गरीबों को किया जाता है। इसके पीछे मंशा यह रहती है कि कोई भी व्यक्ति इन दिनों में भूखा न रहे। नमक का दान भी कर सकते हैं। इससे पितर जल्द प्रसन्न होते हैं। इन दिनों में नमक का दान करना बेहद उपयुक्त माना गया है। तिल का दान भी श्रेष्ठ माना गया है। विशेष तौर पर काले तिल का दान करने से नकारात्मक शक्तियों का साया और संकट, विपदाओं से निजात मिलती है। यदि व्यक्ति को किसी तरह की आर्थिक समस्या नहीं है तो वह सोने-चांदी का भी दान जरूरतमंद लोगों को कर सकता है। सोने का दान करने से घर में कलह-क्लेश नहीं आता है। वहीं, चांदी का दान करने से पितरों का आशीर्वाद मिलता है।
शास्त्रों में कहा गया है कि गुड़, घी, भूमि का दान भी किया जा सकता है। गुड़ का दान करने से दरिद्रता का नाश होता है। घी का दान करना शुभ माना गया है। भूमि दान करने से आर्थिक रूप से संपन्नता आती है। इन सभी में गौ दान का सबसे ज्यादा पुण्यदायक माना गया है।
इस लोक में मनुष्यों द्वारा दिए गये हव्य -कव्य पदार्थ पितरों को कैसे मिलते हैं यह विचारणीय प्रश्न है। जो लोग यहां मृत्यु को प्राप्त होते हैं वायु शरीर प्राप्त करके कुछ जो पुण्यात्मा होते हैं स्वर्ग में जाते हैं, कुछ अपने पापों का दंड भोगने नरक में जाते हैं तथा कुछ जीव अपने कर्मानुसार स्वर्ग तथा नर्क में सुखों या दुखों के भोगकी अवधि पूर्ण करके नया शरीर पा कर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं। शास्त्रों के अनुसार जब तक पितर श्राद्धकर्ता पुरुष की तीन पीढिय़ों तक रहते हैं (पिता, पितामह, प्रपितामह) तब तक उन्हें स्वर्ग और नर्क में भी भूख प्यास, सर्दी, गर्मी का अनुभव होता है पर कर्म न कर सकने के कारण वे अपनी भूख -प्यास आदि स्वयं मिटा सकने में असमर्थ रहते हैं। इसीलिए श्रृष्टि के आदि काल से ही पितरों के निमित्त श्राद्ध का विधान हुआ। देव लोक और पितृ लोक में स्थित पितर तो श्राद्ध काल में अपने सूक्ष्म शरीर से श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मणों के शरीर में स्थित हो कर श्राद्ध का सूक्ष्म भाग ग्रहण करते हैं तथा अपने लोक में वापिस चले जाते हैं। श्राद्ध काल में यम, प्रेत तथा पितरों को श्राद्ध भाग ग्रहण करने के लिए वायु रूप में पृथ्वी लोक में जाने की अनुमति देते हैं, पर जो पितर किसी योनी में जन्म ले चुके हैं उनका भाग सार रूप से अग्निष्वात, सोमप, आज्यप, बहिर्पद , रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक्, नान्दीमुख नौ दिव्य पितर जो नित्य एवम सर्वज्ञ हैं, ग्रहण करते हैं तथा जीव जिस शरीर में होता है वहां उसी के अनुकूल भोग प्राप्ति करा कर उन्हें तृप्त करते हैं। मनुष्य मृत्यु के बाद अपने कर्म से जिस भी योनि में जाता है उसे श्राद्ध अन्न उसी योनि के आहार के रूप में प्राप्त होता है। श्राद्ध में पितरों के नाम, गोत्र, मंत्र और स्वधा शब्द का उच्चारण ही प्रापक हैं जो उन तक सूक्ष्म रूप से हव्य कव्य पहुंचाते हैं। स्वधा को पितरों की पत्नी का दर्जा मिला हुआ है, जो प्रजापिता दक्ष की कन्या थीं।
शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध में जो अन्न पृथ्वी पर गिरता है उस से पिशाच योनि में स्थित पितर, स्नान से भीगे वस्त्रों से गिरने वाले जल से वृक्ष योनि में स्थित पितर, पृथ्वी पर गिरने वाले जल व गंध से देव योनि में स्थित पितर, ब्राह्मण के आचमन के जल से पशु, कृमि व कीट योनि में स्थित पितर, अन्न व पिंड से मनुष्य योनि में स्थित पितर तृप्त होते हैं।
गरूड़ पुराण से यह जानकारी मिलती है कि मृत्यु के पश्चात मृतक व्यक्ति की आत्मा प्रेत रूप में यमलोक की यात्रा शुरू करती है। शास्त्रों में बताया गया है कि चन्द्रमा के ऊपर एक अन्य लोक है जो पितर लोक कहलाता है। शास्त्रों में पितरों को देवताओं के समान पूजनीय बताया गया है। पितरों के दो रूप बताये गये हैं देव पितर और मनुष्य पितर। देव पितर का काम न्याय करना है। यह मनुष्य एवं अन्य जीवों के कर्मो के अनुसार उनका न्याय करते हैं।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि वह पितरों में अर्यमा नामक पितर हैं। यह कहकर श्री कृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि पितर भी वही हैं। पितरों की पूजा करने से भगवान विष्णु की ही पूजा होती है। विष्णु पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी के पृष्ठ भाग यानी पीठ से पितर उत्पन्न हुए। पितरों के उत्पन्न होने के बाद ब्रह्मा जी ने उस शरीर को त्याग दिया, जिससे पितर उत्पन्न हुए थे।
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