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  तीर्थ का क्या महत्व है? एक व्यक्ति तीर्थ करके लौट आया और एक तीर्थ करने नहीं गया, दोनों में क्या अंतर है? तीर्थ किसे कहते हैं?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 230

साधक का प्रश्न ::: महाराज जी तीर्थ का क्या महत्व है? एक व्यक्ति तीर्थ करके लौट आया और एक तीर्थ करने गया नहीं, दोनों में क्या अंतर है? तीर्थ किसे कहते हैं?
            
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::: जहाँ कभी भगवान या महापुरुष रहे हों उस स्थान को तीर्थ कहते हैं, मथुरा हो, वृंदावन हो, अयोध्या हो। ये भगवान के जहाँ-जहाँ अवतार हुए हैं या महापुरुष लोग जहाँ-जहाँ पैदा हुए या साधना की या कोई लीला की तो उन जगहों का नाम तीर्थ पड़ जाता है। हमारे भारत में तो इतने महापुरुष हुए कि पग-पग पर तीर्थ हैं। स्मारक नहीं बनवाया लोगों ने लेकिन ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ महापुरुष पैदा न पैदा हुआ हो।

हमारा देश ऐसा है, कि तीर्थ ही तीर्थ हैं सब। और सबसे प्रमुख बात एक समझ लेनी चाहिए कि भगवान सबके हृदय में रहता है, नोट करो सब लोग। भगवान् सबके हृदय में बैठा उसके प्रतिक्षण के आइडिया नोट करता है। वही भगवान् वृन्दावन में श्रीकृष्ण बनकर लीला करता है, वही भगवान् अयोध्या में राम बनता है, वही भगवान् गौरांग बनकर आये, वही भगवान् जगन्नाथ जी हैं। दो चार प्रकार के भगवान् नहीं हुआ करते। एक ही सुप्रीम पॉवर है वह जो सबके दिल में रहता है। वही, कभी कहीं अवतार लेकर आई थी और सर्वव्यापक भी है।

प्रभु व्यापक सर्वत्र समाना।

वह समान रूप से व्याप्त है। हिरण्यकशिपु को ये दिमाग में बीमारी थी कि हम तो राक्षस हैं, हमारे घर में तो भगवान् आयेगा नहीं। तो जब प्रहलाद ने कहा भगवान् सर्वत्र है, तो उसने कहा इस खम्भे में भी है? हाँ। तो खम्भे को उसने जो मारा और खम्भा टूटा तो नृसिंह भगवान् प्रकट हो गए। प्रहलाद ठीक कहता है, देख ले मैं सब जगह रहता हूँ।

तो सब जगह रहते हैं भगवान्, इसलिए हम किसी मन्दिर में जा रहे हैं इतनी दूर मेहनत करके, रास्ते में तकलीफ होगी और कहीं जेब कट गयी या कोई लफंगा मिल गया तो उसका चिन्तन होगा। सबसे प्यारा पैसा है, वह भी खर्च करेगा तो तीर्थ में लाभ के बजाय और हानि कमाकर आ गया, क्या मिला? प्राचीन काल में तीर्थों में सन्त ही रहते थे और कोई गृहस्थ वहां नहीं रहता था। महात्मा लोग रहते थे तो हम जब वहाँ जाते थे तो महात्माओं का प्रवचन सुनकर, सिद्धान्त समझकर अपना कल्याण करते थे। अब वो सब है नहीं, गड़बड़ है। अब तो मन्दिरों में जेबकतरे खड़े रहते हैं चारों तरफ, जरा मौका लगे तो अपना हिसाब बैठावें और पंडा- पुजारी तो इतना तंग करते हैं कि लोग कान पकड़ते हैं, मैं अब आउंगा नहीं कभी। दान करने के लिए कोई जाता है, पिंड दान है, बाप वगैरह के मरने पर, और बेचारा गरीब है, वह कहता है बस दस रुपया देंगे, नहीं सौ रुपये से कम नहीं लेंगे। तो तीर्थों में अब वह सन्त नहीं रहा, वह लाभ नहीं रहा और गड़बड़ बहुत हो गयी तो नुकसान हो गया हमारा।

तो भगवान् जब हमारे अंदर बैठा है, भगवान् तो इतना दयालु है, उसने कहा, भई कोई पंगुला हो तो वो कहेगा कि भई हमारे पैर नहीं हैं, हम कैसे जायँ मथुरा, वृन्दावन, द्वारिका, जगन्नाथ जी, हमको तो भगवत्प्राप्ति फ्री में कराई जाय। तो भगवान कहते हैं गधे मैं तो तेरे हृदय में रहता हूँ, कहीं जाने की जरूरत क्या है? और अगर नहीं जानते तुम कि मेरे दिल में वही भगवान् हैं जो जगन्नाथ जी में, मन्दिर में हैं तो फिर तुम नास्तिक हो तुम्हारा ज्ञान बुद्धि ही अभी ठीक नहीं हुआ है कि भगवान् वही हैं भगवान् का सही बटा नहीं होता है, 1/4 भगवान, 1/6 भगवान, ऐसा नहीं होता। वेदव्यास ने बड़ा सुन्दर निरूपण किया है उन्होंने कहा है  एक तराजू लो और एक पलड़े में;

गो कोटि दानं ग्रहणेषु काशी प्रयागगंगायुतकल्पवासः।
यज्ञायुतं मेरुसुवर्णदानं गोविंदनाम्ना न कदापि तुल्यम्।।
(पाण्डव-गीता)

चन्द्रग्रहण के समय काशी में दान का बड़ा फल है। एक करोड़ गाय का दान करे कोई काशी में चन्द्रग्रहण के समय, इसका जो पुण्य हो, इतना बड़ा वो तराजू के एक पलड़े में रख दो; गो कोटि दानं ग्रहणेषुु काशी। और प्रयाग गंगायुतकल्पवास:, प्रयाग में कल्पवास करते हैं लोग माघ में, दस हजार वर्ष तक कोई कल्पवास करे, उसका जो पुण्य हो, वो भी तराजू के पलड़े में रख दो और यज्ञायुतुम मेरु सुवर्णदानम् , सुमेरु गिरि पहाड़ को कोई दान कर दे, सोने का पहाड़ पूरा यज्ञ में, जो पुण्य हो वो भी तराजू के एक पलड़े में रख दो और एक तरफ 'गोविन्द' नाम रख दो तो वो सब उसकी बराबरी नहीं कर सकता। गोविंदनाम्ना न कदापि तुल्यम्।

तो भगवान् सर्वत्र है और सबसे बड़ी बात हमारे हृदय में है। ये बात मान लो, मान लो, गाँठ बाँध लो। हजार बार वेद कह रहा हैं, शास्त्र कह रहे हैं, पुराण कह रहे हैं, सन्त कह रहे हैं और कृपालु ने भी हजार बार कहा आप लोगों को। नहीं मानते, भूल जाते हैं। जो मैं सोच रहा हूँ कोई नहीं जानता, ये प्राइवेसी नहीं हो सकती है। वो अंदर बैठा नोट कर रहा हैं, ये बात रियालज़ करो। बार-बार अभ्यास करो इसको तो इतना सुख मिलेगा तुमको जैसे कोई कंगाल खरबपति हो जाय एक सेकण्ड में ऐसे। हमारे दिल में वो बैठे हैं, महसूस करो, इसको रियलाइज़ करो। फिर बाहर भागना बन्द हो जाय। और अगर तीर्थ में जाओ तो किसी महापुरुष के साथ जाओ तो लाभ मिलेगा। वो उस महापुरुष के साथ सत्संग भी मिलेगा, इसलिए लाभ मिलेगा।  पत्थर की और लक्कड़ की और सोने चांदी की मूर्ति में क्या है? उसमें भी ईश्वर व्याप्त है, वह तुम्हारे अंदर भी व्याप्त है, इसमें कोई अन्तर नहीं है।

तीर्थ में महापुरुष जाते हैं इसलिए वो तीर्थ हैं, महापुरुष न जायें तो तीर्थ का कुछ नहीं। सब एक-सी पृथ्वी है, एक-सा जल है, एक-सी वायु है, एक-सा सब कुछ है। आप लोगों ने पढ़ा होगा इतिहास में, हमारे इसी भारतवर्ष के सब मन्दिर तोड़ दिए गए थे एक जमाने में, सोमनाथ वगैरह के बड़े-बड़े। मन्दिर में पत्थर की मूर्ति ने क्या कमाल दिखाया?

वेदव्यास कहते हैं कि वह तो भावना बनाने से आपको लाभ मिलता है, किसी मूर्ति में कोई विशेष बात नहीं होती है। लेकिन हम लोग चूँकि शास्त्र-वेद नहीं जानते, इसलिए ऊँचाई पर, पहाड़ पर, एक मन्दिर बनवा के छोटा-सा, इसमें एक दुर्गा जी की मूर्ति रख दो। ऐ बहुत बड़ा महत्व है, वो दुर्गा जी का। अरे! वो दुर्गा जी हों, चाहे वैष्णो देवी हों, चाहे आपकी बगल के मन्दिर वाली देवी जी हों और आपके हृदय में तो आपकी देवी जी राधा बैठी हैं, काहे को परेशान हो रहे हैं, यहाँ-वहाँ दौड़ने में। देख आवें। क्या देखोगे? क्या चीज़ देखकर विभोर होओगे तुम? जितने लोग जगन्नाथ जी के दर्शन करने गए, सच-सच बतावें कि जितना सुख उन्हें अपनी बीबी, अपने बेटे, अपनी माँ, बाप, अपने दोस्तों को देखने में मिलता है, उतनी खुशी मिली?  देखा, जय हो, जय हो, एबाउट टर्न। ये तो आपने भगवान् का अपमान किया कि अपने बेटे, माँ-बाप, स्त्री-पति के बराबर भी भगवान् का स्थान नहीं माना और दर्शन करके एबाउट टर्न और तुरन्त जल्दी चलो।

तो तीर्थ का महत्व कुछ नहीं होता, उसके भीतर भगवद् भावना करने का महत्व होता है। भीतर भगवत् भावना जितनी करोगे, उतना ही लाभ मिलेगा। जितने लोग गए जगन्नाथ जी, जो वहां खड़े होकर मूर्ति के सामने आँसू बहाया, बस वो गया तीर्थ करने, बाकी कुछ नहीं। तो भगवान् के धाम, भगवान् के नाम, भगवान् के सन्त, ये सब एक हैं लेकिन भावना हो, बस ये शर्त है। उसी सन्त के प्रति नामपराध भी कमा लो और उसी सन्त के प्रति शरणागत होकर भगवत्प्राप्ति भी कर लो। इसी प्रकार भगवान् के अवतार काल में भी उन्हीं भगवान् को देखा, सब अलग-अलग लोगों ने, अलग-अलग प्रकार से देखा। जो सन्त थे उन्होंने भगवान् के रूप में देखा और सबने नहीं देखा, उन्हें वह फल नहीं मिला। तो हमको हमारी भावना का फल मिलेगा। अगर कोई तीर्थ में जाता है, जाय लेकिन वो किसलिए जाय ये सोच ले।

हमारा लक्ष्य है राधाकृष्ण का प्रेम पाना। ये वहां हुआ? नहीं हुआ। तो आप व्यर्थ में चले गए, तन को कष्ट पहुंचाया, मन को कष्ट पहुंचाया, धन को बिगाड़ा, कोई लाभ नहीं, नुकसान हुआ अलग। और अगर हमारी भक्ति बढ़ी राधा-कृष्ण में तो जहाँ चाहो, वहाँ जाओ। जिस मन्दिर में, जिस मयखाने में, जहाँ भी तुम्हारा मन लग जाए भगवान् में, वहाँ जाओ।

जप तप नियम योग निज धर्मा।
श्रुति सम्भव नाना शुभ कर्मा ।।
ज्ञान दया दम तीरथ मज्जन।
जहँ लगि धर्म कहे श्रुति सज्जन।।
आगम निगम पुरान अनेका।
पढ़े सुने कर फल प्रभु एका।।

एक फल;

तव पद पंकज प्रीति निरंतर।

बस भगवान् में हमारा प्रेम बढ़ा, ठीक-ठीक तीर्थ आपने किया। प्रेम नहीं बढ़ा तो बेकार गया। प्रेम कम हो गया, वहाँ के लोगों के व्यवहार से और नुकसान हो गया और अपराध अर्जित हो गया। क्या करें, वहाँ का पुजारी ऐसा हमको तंग कर रहा था, वहाँ का वो। अरे! आप तो भगवान् के दर्शन करने गए थे? हाँ, गए तो थे, लेकिन वो ऐसे लोग मिल गए हमको वहाँ। तो हमारा मन, हमारे राधाकृष्ण और हमारे गुरु बस इतने के अंदर रहे। जहां कहीं भी इतने में लाभ मिले वहां जाओ। जहाँ वह लाभ नहीं मिला उसको नमस्ते।

तज्यो पिता प्रहलाद विभीषण बंधु भरत महतारी।

मां बाप का सबका त्याग कर देते हैं जहाँ भगवतप्रेम मे वृद्धि न हो तो तीर्थ का महत्व तभी है जब हमारा मन राधा कृष्ण मे अधिक लग जाय। ये ध्यान रखकर तीर्थ में जाना चाहिए।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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