भगवान का नाम किस विश्वास के साथ लेना चाहिये? भगवन्नाम लेने के संबंध में जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा महत्वपूर्ण मार्गदर्शन!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 231
(भूमिका - भगवान का नाम स्वयं ही भगवान है। भगवान अपने नाम के आधीन रहते हैं। निम्नांकित प्रवचन में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज हमें समझा रहे हैं कि हमारे हृदय की भावना/विश्वास कैसा होना चाहिये कि जिससे नामोच्चारण का हमें पूर्ण लाभ प्राप्त हो सके....)
भगवन्नाम लेते समय यदि आँखों से आँसू न निकले, सात्त्विक भावों का उद्रेक नहीं हुआ तो तुमने भगवन्नाम ही नहीं लिया। तुमने यह नहीं माना कि नाम में भगवान् की सारी शक्तियाँ हैं। इसलिये ऐसे हृदय के लिये कहा - 'अश्मसारम्', वह वज्र का हृदय है। ऐसे हृदय के लिये तुलसीदास ने झुंझला कर कहा;
हिय फाटहु फूटहु नयन, जरहु सो तन केहि काम।
द्रवइ स्रवइ पुलकइ नहीं, तुलसी सुमिरत राम।।
गद्गद गिरा नयन बह नीरा।
(रामायण)
यदि हम यह मान लें कि जिस भगवान् के नाम में भगवान् बैठा है, वह नाम मैं ले रहा हूँ। यदि हमको यह ज्ञात हो जाय कि हमारी अंगूठी एक करोड़ की है तो एक करोड़ रुपयों के नोटों को देखकर जितनी खुशी होगी, उतनी ही प्रसन्नता अँगूठी के देखने से होगी। सीधी सी बात। लेकिन हमको यदि यह विश्वास नहीं है कि एक करोड़ की अंगूठी है, एक हजार की है - ऐसा विश्वास है तो एक हजार रुपया पाने का जो सुख होगा वही अंगूठी पाने का होगा। और यदि किसी ने कह दिया कि यह नकली है तो हम भी उसके प्रति उसी प्रकार की भावना बना लेंगे। इसी प्रकार नाम लेने में भी बेगारी करेंगे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे...
अर्थात् इस तरह से बोलेंगे जैसे कोई बेगारी में पकड़ा गया हो। आजकल संकीर्तन भी इसी तरह से होते हैं रुपया देकर। हमारे देश में अखंड संकीर्तन भी इसी प्रकार से स्थान-स्थान पर होते हैं। रुपया दे-देकर लोगों को किराये पर बुलाया जाता है। ठीक है, बिल्कुल न करने से कुछ करना अच्छा है लेकिन सेठ जी को यह भ्रम है कि हम रुपये से संकीर्तन कराकर वैकुण्ठ पहुँच जायेंगे, यह धोखा है। उसके लिए तो स्वयं को ही साधना करनी होगी। अतएव भगवन्नाम, गुण, लीलादि का संकीर्तन यही रहस्य रखता है कि उसमें हम भगवान् का अध्याहार करें। राधा-कृष्ण उसमें व्याप्त हैं, ऐसी भावना दृढ़ करें। जब ऐसी भावना दृढ़ होती जायगी तो भगवन्नाम का माधुर्य हमको अनुभव में आयेगा, तब सात्त्विक भावों का उद्रेक होगा। उनके नाम को सुनने से, उनके नाम के लेने से, उनके नाम के पढ़ने से, हम उस अवस्था पर पहुँच जायेंगे जहाँ खड़े होकर भगवान् शंकर कह रहे हैं;
रकारादीनि नामानि श्रृण्वतो मम पार्वति।
मनः प्रसन्नतां याति रामनामाभिशंकया॥
हे पार्वती ! यदि कोई 'रा' कहता है तो मैं विभोर हो जाता हूँ कि अब यह 'म' कहने वाला है। भले ही उसकी रावण कहने की इच्छा (मंशा) हो। मैं 'रा' के कहते ही विभोर हो जाता हूँ। जैसे द्वेषभाव से उपासना करने वाला कहता है;
रत्नानि च रथांश्चैव वित्रासं जनयंति मे।
रत्न, रथ आदि में 'र' का नाम सुनते ही मैं काँपने लगता हूँ कि 'राम' आ गये। मारीच इतना डर गया था।
तो भगवान् में मन का अनुराग शत प्रतिशत हो। 'मामेकं शरणं व्रज' - एक प्रतिशत की भी दूरी न रहे, हमको यहाँ पहुँचना है। वहाँ पहुँचने के लिए भगवान् तो हमारे पास नहीं हैं किंतु उन्होंने कृपा करके अपने नाम में, अपनी लीला में, अपने धाम में, अपने संत में अपने आपको शत प्रतिशत रख दिया है। अपनी सारी शक्तियाँ रख दी हैं कि भाई तुमको कहीं जाना भी नहीं है। कोई पैर रहित हो, वह वृन्दावन कैसे जायेगा? उन्होंने कहा, कहीं जाने की जरूरत नहीं है। मैंने तो अपने नाम में अपनी सारी शक्तियाँ रख दी हैं, तुम चाहे जहाँ रहो;
प्रभु व्यापक सर्वत्र समाना।
अतएव नाम, गुण, लीलादि का अवलम्ब लेकर अर्थात् नाम में नामी को मानकर हमारा प्यार बढ़ेगा और यह प्यार बढ़ते-बढ़ते जब हम अनन्य अवस्था पर पहुँच जायेंगे तो,
मद्भक्तिं लभते पराम्। (गीता)
तब वह पराभक्ति मिलेगी।
भक्त्या मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
(गीता)
तब हम परब्रह्म का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करेंगे। जब पूर्ण ज्ञान होगा तो पूर्ण प्रेम हो जायगा। जितना ज्ञान उतना प्रेम, जितना विश्वास उतना प्रेम । उतने ही प्रतिशत नपा तुला।
जैसे बाल्मीकि ने 'मरा' शब्द को भगवन्नाम मानकर विश्वास कर लिया। जैसे धन्नाजाट ने भांग घोटने वाले भंगघुटने को शालिग्राम भगवान् मानकर विश्वास कर लिया। ऐसे ही यदि हम भगवन्नाम में भगवान् हैं, यह विश्वास करके भगवन्नाम संकीर्तन, गुण संकीर्तन करें तो हमारे अन्तःकरण में सात्त्विक भावों का उद्रेक होगा। तब गुरु कृपा से दिव्य प्रेम मिलेगा। तब जीव वेद के अनुसार,
सदा पश्यंति सूरयः तद्विष्णोः परमं पदम् । (वेद)
भगवान् के लोक में भगवान् के नित्य ज्ञान और नित्य आनंद से युक्त होकर,
सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता। (वेद)
भगवान् की नित्य सेवा में, नित्य काल के लिये आनंदमय हो जायगा। यह नाम-संकीर्तन का संक्षिप्त रहस्य है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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