तीन प्रकार के कर्म और शरीर, पाँच प्रकार के क्लेश, पाँच तरह के कोष और तीन प्रकार के ताप कौन-कौन से होते हैं?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 265
साधक का प्रश्न ::: महाराज जी! तीन प्रकार के कर्म कौन-कौन से हैं? तीन प्रकार के शरीर कौन-कौन से हैं? पांच प्रकार के क्लेश कौन-कौन से हैं? पांच प्रकार के कोश कौन-कौन से हैं? तीन प्रकार के ताप कौन-कौन से हैं?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::: एक साधक ने प्रश्न किया है कि तीन प्रकार के कर्म कौन-कौन से हैं, तीन प्रकार के शरीर कौन-कौन से हैं, पाँच प्रकार के क्लेश कौन-कौन से, पाँच प्रकार के कोश कौन-कौन से, तीन प्रकार के ताप कौन-कौन से हैं? तो आप लोग नोट कर लें। ऐसे तो फिर कहेंगे भूल गए।
तीन प्रकार का कर्म - एक का नाम संचित कर्म, एक का नाम प्रारब्ध कर्म, एक का नाम क्रियमाण कर्म। क्रियमाण कर्म से ही संचित कर्म बनता है। क्रियमाण माने हम वर्तमान काल में जो कर्म करते हैं अच्छे-बुरे कुछ भी, उसको क्रियमाण कर्म कहते हैं। एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा कर्म करते हैं न। पहले मन से सोचते हैं, प्लान बनाते हैं, फिर इन्द्रियों के द्वारा करते हैं; और अनन्त जन्मों का इसी प्रकार का जो स्टॉक है उसको संचित कर्म कहते हैं। इसमें अनन्त पाप, अनन्त पुण्य होते हैं। उसको संचित कर्म कहते हैं। उस संचित कर्म से थोड़ा-सा अंश, समुद्र की एक बूंद की तरह, निकालकर भगवान हमारे लिये प्रारब्ध बनाते हैं, भाग्य, लक। जो हमको कम्पलसरी भोगना पड़ता है। क्रियमाण करना तो हमारे हाथ में है। अच्छा करें बुरा करें। लेकिन प्रारब्ध भोगना, भुगवाना ये भगवान के हाथ में है। यानी वो भोगना पडेगा। मान लो किसी ने भगवत्प्राप्ति कर ली तो? उसको भी भोगना पड़ेगा लेकिन एक अन्तर होगा कि महापुरुष को उसकी फीलिंग नहीं होगी। आपका भी बेटा मरेगा, महापुरुष का भी बेटा मरेगा। महापुरुष मुस्कुराता रहेगा, आप रोते रहेंगे। आपका भी घर जलेगा, महापुरुष का भी जलेगा। आप छाती पीट कर रोयेंगे, महापुरुष भगवान की लीला समझकर हँसेगा। यानी उसको फीलिंग नहीं होगी, लेकिन प्रारब्ध भोगना पड़ेगा ज्ञानी को भी, भक्त को भी। तो ये तीन प्रकार के कर्म हुए। संचित कर्म हमारे अनन्त हैं। उसको न हम जान सकते हैं न जानने से कोई फायदा। प्रारब्ध कर्म थोड़ा-सा है। जिसमें हम पूरा परिश्रम सही-सही करते हैं फिर भी सफलता नहीं मिलती है या बिना परिश्रम के बड़ा लाभ मिल जाता है। लॉटरी खुल गई, तो ये प्रारब्ध है। बुरा-अच्छा दोनों प्रकार का आता है और भोगने के बाद समाप्त हो जाता है।
अब एक कर्म बचा, क्रियमाण कर्म। इसी पर जोर देते हैं महापुरुष, शास्त्र-वेद कि तुम और अब कुछ मत सोचो बस वर्तमान में भगवान में मन को लगाओ, अच्छा कर्म करो। तो क्या होगा कि जब भगवत्प्राप्ति होगी तब प्रारब्ध तो भोग कर समाप्त हो जाएगा, वो थोड़ा-सा होता है, उसकी फीलिंग होगी नहीं इसलिए होना न होना बराबर है और संचित कर्म भगवान क्षमा कर देते हैं। भगवत्प्राप्ति हुई बस तुरन्त पिछले सब पाप-पुण्य माफ कर दिये गये।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि।
(गीता 18-66)
पाप माने, पाप-पुण्य दोनों। पुण्य भी बन्धनकारक है। 'पुण्येन पुण्यं लोकम्'। स्वर्ग मिलता है, वह भी बन्धन कारक है। 'सुकृत दुष्कृते धुनुते'। पुण्य-पाप दोनों को भगवान समाप्त कर देते हैं। तो ये तीन प्रकार के कर्म बताए गए हैं।
अब शरीर समझिए। तीन प्रकार के शरीर भी होते हैं। एक तो तुम्हारा ये शरीर, इसको कहते हैं कि स्थूल शरीर हैं; माने जो आँख से दिखाई पड़े, जिसका स्पर्श संभव हो। लम्बा-चौड़ा, हट्टा-कट्टा, मोटा सब प्रकार का शरीर होता है न। ये स्थूल शरीर है। एक होता है सूक्ष्म शरीर जो मरने के बाद जीवात्मा के साथ जाता है। ये स्थूल शरीर नहीं जाता है। ये तो आप लोग ही देखते हैं। तो ये सूक्ष्म शरीर अठारह तत्त्वों से बनता है। पाँच ज्ञानेन्द्रिय - ये आँख, कान, नाक, रस, त्वचा; पांच कर्मेन्द्रिय - हाथ पैर वगैरह; पाँच प्राण - प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान। ये पंद्रह। एक मन, एक बुद्धि, एक अंहकार। तो ये अठारह तत्त्वों का सूक्ष्म शरीर होता है। ये मरने के उपरान्त 'सहैवैतै: सर्वैरुत्क्रामति' जीवात्मा के साथ जाता है। गीता भी कहती है 'गृहीत्वैतानि संयाति'। और जब महाप्रलय होता है तो उसमें ये सूक्ष्म शरीर भी नहीं रहता है। एक तीसरा शरीर होता है उसको कहते हैं कि कारण शरीर हैं। वह सब से बलवान होता। वह काहे का होता है? वह वासना का होता है। इच्छायें। वही है मेन खतरा। तो ये तीन प्रकार का शरीर होता है।
पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं - अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश। अविद्या माने अज्ञान, अस्मिता माने अहंकार, राग माने अटैचमेन्ट, द्वेष माने दुश्मनी, अभिनिवेश माने मृत्यु का भय। मैं मर जाऊं। 105 बुखार हो गया बेटा को, ये क्या! जल्दी डाक्टर लाओ कहीं मर न जाय। हर समय मरने का भय है। हाँ, कोई मरना नहीं चाहता। बीमार है, बूढ़ा है, कैन्सर हो गया है, पता है मरना है। अरे भई डॉक्टर दवा तुम क्यों नहीं देते। डॉक्टर कहता है कि आप बच नहीं पाएंगे। अरे! दवा देकर देखो, क्या पता बच जायें। ये पाँच क्लेश होते हैं।
पाँच कोश होते हैं - एक अन्नमय कोश, एक प्राणमय कोश, एक मनोमय कोश, एक विज्ञानमय कोश, एक आनंदमय कोश। इनका बन्धन है। अन्नमय कोश तो ये स्थूल शरीर है। अन्न खाते हैं न आप रोटी, दाल, चावल। अगर ये नहीं मिले तो गया। प्राणमय कोश पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण ये दस तत्त्वों का प्राणमय कोश होता है। एक मन और पाँच ज्ञानेन्द्रिय आँख, कान, नाक आदि इन छहों का एक मनोमय कोश होता है और पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक बुद्धि इन छहों का विज्ञानमय कोश होता है और जो वासनात्मक शरीर है कारण शरीर वो आनन्दमय कोश है। इन पाँच कोशों के जलने के बाद मुक्ति होती है।
तीन ताप - एक आध्यात्मिक ताप, एक आधिभौतिक ताप, एक आधिदैविक ताप। तो आध्यात्मिक ताप दो प्रकार का होता है; एक शारीरिक ताप, एक मानसिक ताप। शरीर की कष्ट, बीमारी। आज फीवर हो गया, आज डायरिया हो गया, आज ये हो गया, आज ये हो गया। रोज कुछ न कुछ चलता रहता है। भोगते रहते हैं हम लोग। क्या करें भई! डॉक्टरों का भला होता रहता है। तो ये शारीरिक कष्ट। और दूसरा मानसिक कष्ट, वह सबसे बड़ा है। कामनाएँ पैदा हों, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष कई प्रकार की मन की जो बीमारी है जिससे हम परेशान होते हैं। एक आदमी ने कहा - गेट आउट, हमारे घर से निकल जाओ। हमको गेट आउट कहा, हम देखेंगे। अरे! सुनो जी। अरे! सुनो जी ।... ये लो कीर्तन, भजन, स्मरण, मनन सब होने लगा। सेन्टैन्स बोला है वह खाली, 'गेट आउट, चले जाओ'। 'गेट आउट' कहा है। अरे! ऐसे कैसे चले आवैं ऐसे। हमारी तौहीन हो गई। तौहीन, इन्सल्ट। अरे! तुम तो आत्मा हो, तुम्हारा क्या बिगाड़ा? फील कर रहे हों इसलिए वह बिगड़ेगा। वरना आपको तो हँसना चाहिए। ठीक कहा आपने गेट आउट। हम और चले जाते हैं दूर। तो ये मानसिक रोग काम, क्रोध, लोभ, मोह। ये दोनों आध्यात्मिक ताप हैं। और आधिभौतिक ताप होता है जो दूसरे के द्वारा अकारण मिल जाय। हाँ, ये हमारा पड़ोसी बड़ा पैसा वाला हो रहा है इसको कुछ तंग करना चाहिए, इसको परेशान करना चाहिए, इसको बदनाम करना चाहिए बिना कारण के। और एक होता है आधिदैविक ताप, जैसे- सर्दी, गर्मी। अधिक ठण्ड पड़ रही है और जाना है हमको लखनऊ। जाना होगा। तो ये तीन प्रकार के ताप हैं।
तो तीन प्रकार के ताप, तीन प्रकार के कर्म, तीन प्रकार के शरीर, पांच प्रकार के क्लेश और पांच प्रकार के कोश, आप को बता दिये जितनी मेरी योग्यता थी।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक, भाग 2, प्रश्न संख्या 3
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)
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