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 अनेक बार उच्च साधक या महापुरुष के बाहरी व्यवहार को देखकर दुर्भावना हो जाती है, इससे हानि और बचाव क्या है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 269

(भूमिका - प्रत्येक साधक और साधारण व्यक्ति के लिये भी नीचे उद्धरण में दिये गये एक-एक शब्द पर बारम्बार चिन्तन परमावश्यक है। क्योंकि इसमें छिपे रहस्य से अनजान हम सभी जाने-अनजाने एक महान अपराध के भँवर में फँस जाते हैं, जिसकी हमको बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा निःसृत इस उद्धरण पर आइये हम गंभीरतापूर्वक मनन करें...)

साधक का प्रश्न ::: महाराज जी! किसी साधक के बाहरी व्यवहार को देखकर कई बार दुर्भावना हो जाती है जबकि वह उच्च साधक होता है, इसका क्या उपाय है?

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::: भगवान् की सब बातें अनन्त मात्रा की हैं। पूर्ण माने अनन्त मात्रा की हर बात। उनके संसार (ब्रह्माण्ड) अनन्त, नाम अनन्त, रूप अनन्त, गुण अनन्त, लीला अनन्त, धाम अनन्त और सन्त अनन्त। और ऐसे अनन्त हैं कि अनन्त से अनन्त निकालो तो भी अनन्त बचेगा;

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।
(वृहदारण्यक उप. 5-1-1)

पूर्ण से पूर्ण निकालो तो भी पूर्ण बचेगा। संसार में पूर्ण से पूर्ण निकालो तो जीरो बचेगा।

कौन जानता है? जब तक कोई पूर्ण न हो जाए तब तक कौन अधूरा है, कौन पूर्ण है यह जानना असम्भव है। बेपढ़ी लिखी अँगूठा छाप और चार-चार, छह-छह, बच्चे वाली गोपियाँ और ब्रह्मा, शंकर चरणधूलि चाहते हैं। जब ये कहो, तो लोग कहते हैं - 'क्या गपोड़े हैं आप भी!! हम जानते हैं उन गोपियों को, कब ब्याह हुआ और कब क्या हुआ। संसार में आसक्त हैं और आप कहते हैं कि उद्धव, ब्रह्मा, शंकर सब चरणधूलि माँगते हैं!!' इसलिए किसी के बारे में कभी कोई राय बनानी ही नहीं चाहिए।

अगर दोष देखा तो उसमें कमी मानेगा। उसकी बुद्धि उसमें दोष देखगी। ये हमसे कम अकल है, हमसे कम सुंदर है, हमसे कम पैसा है, हमसे कम नॉलिज है। ये सब विचार आयेगा, बस पतन हो गया। भीतर क्या उसके पास यह जानने की शक्ति नहीं है। तो ये बाहरी चीजों को देख कर क्या निर्णय करोगे? पता नहीं कौन कितना प्यार करता है भगवान् से, गुरु से? ये नापने का पैमाना तो किसी के पास है ही नहीं। तो बाहर की चीजों से क्या तुलना करेगा कोई।

एक संत थे। अभी पाँच सौ वर्ष पहले की बात है, गौरांग महाप्रभु के जमाने में। उनका नाम पुंडरीक विद्यानिधि था। वह बड़े ऐशो आराम के सामान में रहते थे। सोने का तो पलंग, कोई राजा महाराजा भी ऐसा नहीं रह सकता था जैसे वो रहते थे। गौरांग महाप्रभु ने कहा, 'भई! एक बहुत बड़े भक्त से मिलने जाना है हमको स्वयं।'

लोगों ने पूछा, 'महाराज जी! किसका मिलने जाना है?' तो उन्होंने कहा 'पुंडरीक विद्यानिधि से'। सब चौके। अरे! वह तो घोर संसारी है। कोई राजा महाराजा भी वैसा नहीं होगा। आपस में कहने लगे। महाप्रभु जी मुस्कराकर चल दिए। पीछे-पीछे सब गये कि मामला क्या है? महाप्रभु जी मजाक कर रहे हैं? क्या बात है, क्यों जा रहे हैं वहाँं? उसको आना चाहिए महाप्रभु जी के पास। गये। महाप्रभु जी को देख कर वो पलंग से उठ गए। दोनों गले मिले। ये सब दृश्य  देख रहे हैं लोग। फिर उसी के पलंग पर वो भी बैठे और महाप्रभु जी भी बैठे उसी पर। ये भी लोगों ने देखा। ये कैसे बाबा जी हैं! और हमारे महाप्रभु जी के बराबर में बैठे हैं! तो गदाधर भट्ट थे, उनका ज्यादा दिमाग खराब हुआ। वो खास थे गौरांग महाप्रभु के, विद्वान् भी थे, शास्त्र वेद के।

खैर, वहाँ से महाप्रभु जी लौट आये और सब साथ चले आये। फिर अकेले में उन्होंने पूछा कि महाराज! ये आप वहाँ क्यों गए? और फिर गए तो ऐसी असभ्यता किया उन्होंने, उसी पलंग पर खुद बैठ गए और उसी पर आपको बिठा दिया? तो महाप्रभु जी ने भौंहे टेढ़ी की। उन्होंने कहा कि तुम सर्वज्ञ हो? नहीं महाराज! सर्वज्ञ तो आप हैं। फिर तुमने कैसे निश्चय किया? चले जाओ हमारे सामने से और जाकर के पुंडरीक विद्यानिधि की शरण में जाओ और उन्हें गुरु मानो और उनकी बताई साधना करो। अब आंख खुली उनकी। हा! महाराज जी सीरियस हो के कह रहे हैं। हम तो समझ रहे थे कि ये सब महाराज जी जोक कर रहे हैं आज? तो उन्हें जाना पड़ा।

तो कौन जान सकता है? बड़े-बड़े सम्राट हुए हमारे देश में ध्रुव, प्रह्लाद, अम्बरीष बड़े-बड़े वैभव स्वर्ग से भी बड़े और सब गृहस्थ। अम्बरीष हों, चाहे वशिष्ठ हों, सब स्त्री बच्चे वाले। अब उनको भी हम लोगों ने देखा होगा उस जमाने में। अरे तब भी तो हम थे। हमने कहा  ये प्रह्लाद!, इनको महापुरुष कहते हैं लोग!!

इसलिए कोई महापुरुष हो, चाहे राक्षस हो अपने मन में दूसरे के प्रति हमेशा अच्छी भावना होनी चाहिए, जिससे अच्छा विचार अंतःकरण मे आवे। वो जो है वो ही रहेगा ही। वह राक्षस होगा तो राक्षस रहेगा। महापुरुष होगा तो महापुरुष रहेगा। हम अपने अंदर की दुर्भावना अगर लाते हैं, तो हमने तब अपना अंतःकरण बिगाड़ दिया। अब भगवान् जो थोड़ा पैर रखे थे आने के लिए, एबाउट टर्न चल दिए। क्योंकि तुम तो औरों को बुलाते हो। मैं ऐसे घर में नहीं रहता। इसलिए कहीं भी छोटापन नहीं देखना चाहिए। ये हमसे बड़ा है। हर एक के प्रति - 'सबहिं मानप्रद आप अमानी'।

एक उच्च साधक का लक्षण है किसी में भी दुर्भावना नहीं, पता नहीं कौन क्या है, किस-किस भाव से कौन उपासना करता है। सबके तरीके अलग-अलग हैं। आज कोई सचमुच भी मक्कार है तो क्यों है? प्रारब्ध के कारण है। वो 25 तारीख को उसका प्रारब्ध खतम हो जाएगा। तो फिर वो सदाचारी हो जाएगा पहले की तरह। और हम दुर्भावना किए बैठे हैं उसके ऊपर। हमारा तो सत्यानाश हो गया और वो तो बन गया। उसमें बहुत रहस्य हैं। इसलिए साधक को दूसरे की ओर देखना ही नहीं चाहिए। और देखे भी कभी या बुद्धि लग भी जाय तो पता नहीं कौन क्या है भैया, अपन झगड़े में न पड़ो। बीबी पति के, पति बीबी के अंदर की बात को नहीं जान सकता।

एक सेठ जी कभी भगवान् का नाम न ले और न मन्दिर जायें। सेठानी परेशान थी कि यह नास्तिक पति मिला। एक दिन सोते समय, अंगड़ाई लेते समय उन्होंने कहा 'राधे'। तो सबेरे स्त्री ने सब दान-पुण्य करना शुरू कर दिया। ब्राह्मण भोजन का इन्तजाम किया। खुशी मना रही थी। सेठ जी ने कहा- क्यों री, आज तो न जन्माष्टमी है, न रामनवमी है, कुछ त्यौहार तो नहीं! उन्होंने कहा आज बहुत बड़ा त्यौहार है पतिदेव! क्या? आपने आज सोते समय करवट बदलने लगे तो 'राधे' कहा। हा! राधे नाम निकल गया बाहर!!! भक्ति के तरीके अपने-अपने सबके हैं। स्त्री नहीं समझ पाई इतने दिन से।

और फिर एक बात सबसे बड़ी और है  वह हमेशा ध्यान में रखो सब लोग कि कोई व्यक्ति खराब हो, राक्षस हो, भगवान् का निन्दक, सन्तों का निन्दक, सबसे बड़ा पाप ये ही है। ये लगातार करता हो। लेकिन एक बात बताओ कि ऐसा कोई पापी विश्व में है जिसके अंत:करण में भगवान् न बैठे हों? अरे! कुत्ता, बिल्ली, गधा कोई भी ऐसा प्राणी है जिसके भीतर भगवान् श्रीकृष्ण न बैठे हों? तो फिर तो बराबर हो ही गया तुम्हारे। और सब चीज़ का मूल्य कुछ नहीं है। एक तराजू में सोना भी रखा गया, चांदी भी रखा, हीरा भी रखा है और पारस भी रखा है और एक तराजू के पलड़े में खाली पारस रखा है। तो तोलोगे तो क्या बराबर ही निकलेगा। क्योंकि पारस दोनों में है। अब हीरे मोती की क्या कीमत है, हो न हो? पारस दोनों में है। तो भगवान् तो सब प्राणियों में हैं। इसीलिये वेदव्यास और तुलसीदास सब संतों ने कहा कि - 'पर पीडा सम नहिं अधमाई'।

सबसे बड़ा पाप है दूसरे को दुःख देना, ये न सोचना हैं कि इसके अंदर भी श्रीकृष्ण बैठे हैं। जैसे हम आज एस.पी. हैं, कलेक्टर हैं और हमारा कोई नौकर है, चपरासी है और हमने अपनी सीट के कारण डाँटा, फटकारा, दण्ड दिया। ये भूल गए कि इसके अंदर भी वही बैठे हैं जो हमारे अंदर हैं। तो ये सब सोचने की बात है। इसका अभ्यास करे धीरे-धीरे तो हृदय में कोई गलत चीज न आने पावे।

देखो, आप लोग दाल चावल सब खाते हैं। खाते-खाते कोई कंकड़ आ गया तो ऐसे मुँह बनाकर उसको हाथ से निकाल कर बाहर कर देते हैं। निगल नहीं जाते। धोखेे में चला जाय तो बात अलग है। ऐसे ही कोई भी अच्छी चीज आवे ठीक है। किसी का गुण आवे बहुत अच्छा है। अरे! चौबीस गुरु बनाये दत्तात्रेय ने। कुत्ते को गुरु बनाया, गधे को गुरु बनाया। भगवान् के अवतार थे दत्तात्रेय। लेकिन उन्होंने कहा - भई! इसमें भी ऐसे गुण है जो मनुष्यों से अधिक बलवान है। वो आदमी में नहीं है। किसी आदमी की नाक ऐसी है, जो बता दे कि इधर से गया है चोर? कोई आई. ए. एस. ऐसा हुआ आज तक? और कुत्ता बता देता है इधर से गया है, बारह घण्टे पहले, वह चलता है उसी-उसी रास्ते से, आगे-आगे। इसीलिये सब जगह अच्छी चीज जहाँ दिखाई पड़े, ले लो और जहां खराब चीज दिखाई पड़े वहाँ सोच लो कि पता नहीं क्या रहस्य है ऊपर-ऊपर से एक्टिंग कर रहा है खराबी की।

अरे! गोपियाँ कितनी गालियाँ देती थीं भगवान् को। हम लोग अगर वहाँ होते या रहे हों, तो सुने होंगे और कहा होगा, ये भगवान् की भक्त है! क्या अंडबंड बोल रही है।

एक सखी ने किशोरी जी से कहा कि तुम नन्दनन्दन से क्यों प्यार करती हो? वो तो बड़ा लम्पट है, हर लड़की के पीछे घूमता रहता है और सबको धोखा देता है। तो किशोरी जी ने कहा, सखि! तू नहीं जानती वो ऐसा क्यो करतें हैं? वो ऐसा इसलिए करते हैं कि हमारा उनका प्यार पब्लिक में आउट न हो। यानी एक दोष को भी गुण के रूप में ले लेना। प्रेमी की पहचान है। वेद की ऋचायें कहती हैं, अरे! मैं जानती हूँ अनादिकाल से। राजा बलि को ठगा और शूर्पणखा के नाक कान कटवा दिये, बाली को छिप कर मारा, मुझे सब मालूम है इसका पुराना चिट्ठा पहले का। तो सखि कहती है फिर छोड़ो! हटाओ। अरे! ये नहीं हो सकता। उसका चिन्तन, उससे प्यार, वह कम नहीं होगा। हम उस व्यवहार पर भी लट्टू हैं। देखो, सर्वसमर्थ हो कर भी और बालि को छिप कर मारा, ये कलंक मोल लिया। सभी संसार में बदनामी कि उसकी पीठ में मार रहे हैं। उसको माला पहना कर मार रहे हैं। मथुरा से भागकर द्वारिका चले गए, रणछोर की डिग्री लेने के लिए। सारी दुनियाँ में बदनामी हो गई। तुम्हारे भगवान कैसे हैं? तो कौन समझ सकता है? भगवान् का रहस्य तो खैर समझने की बात नहीं है। मनुष्यों में कौन उच्च कोटि का साधक है, कौन निम्न कोटि का है और कौन कब किसका पतन हो जाय ये भी एक स्ट्रांग पॉइन्ट है। समझे रहना चाहिए। एक क्षण के कुसंग ने अजामिल को इतना बड़ा पापी बना दिया। एक क्षण का, एक मिनिट का भी नहीं।

एक वेश्या को एक शूद्र दासी के लड़के ने चिपटा करके, नंगे होकर के प्यार किया, वो दृश्य एक सेकिण्ड को देखा और आँख बन्द करके भागा अजामिल, घर आया, लेकिन वो चिन्तन धंस गया था उसकी खोपड़ी में। अब फिर उस वेश्या के पीछे अपनी स्त्री को छोड़ दिया और सारा धन घर का बेच दिया और बुढ़ापे तक पड़ा रहा वहीं वेश्या के घर। तो इसलिए कौन कब उठेगा, कौन कब गिर जाएगा, कोई कह नहीं सकता। इस पर विश्वास नहीं करना है मन के ऊपर, कि हाँ हम तो समझते हैं। बड़े-बड़े योगी लोग गिर गए। इसलिए कभी, कभी भी दूसरे के प्रति दुर्भावना नहीं करना चाहिए। भले ही आपकी दुर्भावना सही हो उसके प्रति। एक तो सही है कि नहीं ये ही नहीं जान सकते तुम और जान भी लो तो इस क्षण में दुर्भावना है और अगले क्षण में उल्टा हो गया सब वो। उसका प्रारब्ध खतम हो गया। यही सब गड़बड़ियाँ तो हम करते हैं जो साधना करते हुए भी आगे नहीं बढ़ते। जिसको देखा ऐं! ये क्या है? ऐं! ये क्या है? ऐं! मैं-मैं बड़ा भक्त हूँ, मैं बड़ा सेवक हूँ, मैं बड़ा दानी हूँ; दिमाग में ऐसा रोग पैदा करके और सब जगह छोटी भावना कर लिया, तुच्छ भावना। इससे बचना चाहिए। बस कमाने पर ध्यान रखें।

हृदय के अंदर अच्छी अच्छी चीजों का, अच्छे अच्छे गुणों का, अच्छी-अच्छी बातों का चिन्तन हो। खराब बात कोई कहे तो सुनो नहीं, पढ़ो नहीं, सोचो नहीं। तुरन्त सँभल जाओ। जैसे कोई मच्छर काट लेता है तो होशियार हो जाता है। इसने काट लिया। किसी के ड्राइंग रुम में कोई अपने घर का कूड़ा कचरा फेंके तो कौन पसन्द करेगा, कौन स्वीकार करेगा, पचास गाली दे देगा वह घर वाला। ऐसे ही दिल तो ड्राइंग रूम है भगवान् के लिए। इसमें गंदी चीज कहीं से भी, कैसे भी तुम लाए तो गन्दा हो गया। भगवान् तो कहते हैं जो ला चुके हैं उसे निकालो। साफ करो। माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति, का प्यार ये सब संसार का, विषय भोग का, ये सब निकालो। और तुम ला रहे हो। तो भगवान् कहते हैं हमसे कहते हो आ जाओ, कहाँ आऊँ? कहीं जगह भी है?

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक, भाग - 2
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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