समस्त वेदों-शास्त्रों का एकमात्र निष्कर्ष वेदव्यास जी ने क्या बतलाया? मनुष्य का परम कर्तव्य क्या है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 297
(भूमिका - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने प्रस्तुत उद्धरण में यह समझाया है कि साधना, पूजा अथवा किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक कर्म में कौन सी बात सर्वप्रमुख है? इस उद्धरण को पढ़कर हम यह समझेंगे कि किस प्रकार सभी साधनाओं में इस एक 'सावधानी' को जोड़ देने से हम उन साधनाओं के फल को प्राप्त कर लेते हैं, अन्यथा चूक जाते हैं...)
..वेद से लेकर रामायण तक सभी ग्रन्थ एक स्वर से कहते हैं कि भगवान् का ध्यान करना चाहिये। भगवान् के ध्यान से भगवान् मिलते हैं। वेदव्यास ने कहा;
आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुन:।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः॥
(महाभारत, नरसिंह पुराण)
मैंने छहों शास्त्रों को और पुराणों को बार-बार मथा और बार-बार चिन्तन किया तो एक निर्णय निकला - 'ध्येयो नारायणो हरिः', भगवान् का ध्यान करना चाहिये।
स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित्।
(पद्म पुराण, उत्तर खण्ड 71.100)
भगवान् का निरन्तर स्मरण करो, उनको भूलो मत।
यहुर्लभं यदप्राप्यं मनसो यत्र गोचरम् ।
तदप्यप्रार्थितो ध्यातो ददाति मधुसूदन:॥
(गरुड़ पुराण)
ध्यान करने से जो अप्राप्य है वो भी भगवान् दे देते हैं।
भगवान् ब्रह्म कार्त्स्न्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया।
तदध्यवस्यत् कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत्॥
(भागवत 2.2.34)
तीन बार ब्रह्मा ने वेदों को मथा और मथकर एक निष्कर्ष निकला - भगवान् का ध्यान करना चाहिये। ध्यान, स्मरण। 'मनेर स्मरण प्राण'। समस्त साधनाओं में 'स्मरण' प्राण है और सब शरीरेन्द्रियाँ हैं। प्राण निकल गया तो ये शरीर शव हो जाता है, मुर्दा, मिट्टी। मिट्टी भी अच्छी होती है, उसमें खुशबू होती है। और इस मिट्टी में तो बदबू हो जाती है 24 घण्टे में। तो भगवान् का ध्यान करना चाहिये। ये सब शास्त्र वेद कह रहे हैं।
गीता में भरा पड़ा है। भगवान् बड़े सुलभ हैं, लेकिन कैसे? 'अनन्यचेता:', चित्त को भगवान् में ही लगाये रहो। 'ही'; अनन्य। फिर 'यो मां स्मरति'। 'स्मरण।'
अनन्याश्चिन्तयंतो मां ये जना: पर्युपासते।
चिन्तन, ध्यान।
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
(गीता 12.6)
'ध्यायन्त' मेरा ध्यान करे निरन्तर। यानी मन मुझमें लगा दे।
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
(गीता 12.8)
ध्यान करना है, ध्यान। ये ध्यान का काम कौन करता है? आँख, कान, नाक, त्वचा, रसना - ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ध्यान नहीं कर सकती। आँख देखने का काम करती है, कान सुनने का, नासिका सूँघने का, रसना रस लेने का, त्वचा स्पर्श करने का। ध्यान करने का काम कौन करता है? मन, अन्त:करण, चित्त अनेक नाम हैं उसके।
तो ध्यान करना चाहिये भगवान् का, उसी का नाम भक्ति, उपासना, पूजा, पाठ जो कुछ शब्द बोलो। वो सब मन को करना है, इन्द्रियों को नहीं। तो भगवान् का ध्यान करना है, बस एक बात। दूसरी कोई बात न सुनो, न पढ़ो, न सोचो, न करो। ध्यान करना है और अगर कोई और बात पढ़ो, सुनो, करो, तो ध्यान नम्बर एक, बाद में और सब कुछ जैसे कीर्तन, भगवान् का नाम, रूप, गुण, लीला धाम ये गाते हैं। ये रसना का काम है बोलना। लेकिन नम्बर एक ध्यान, फिर गान। यानी इन्द्रियों को अगर साथ लेते हो तो कोई एतराज नहीं है, लेकिन अगर मन साथ में नहीं है तो जीरो में गुणा हो जायेगा। जीरो गुणा जीरो बराबर जीरो, जीरो गुणा लाख बराबर जीरो, जीरो गुणा करोड़ बराबर जीरो। उसका कोई परिणाम नहीं होगा। इसलिये ध्यान ही साधना है, उपासना है, भक्ति है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'रूपध्यान विज्ञान' पुस्तक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)
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