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 कर्मी, ज्ञानी, योगी सभी को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भक्ति की शरण में आना होगा! पढ़ें, श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद का रहस्य क्या है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 317

(भूमिका - जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत यह प्रवचन उनके द्वारा किये गये 'नारद भक्ति दर्शन' की व्याख्या के 11-वें प्रवचन का अंश है। आचार्य श्री ने 'नारद भक्ति दर्शन' की व्याख्या अक्टूबर 1990 में, भक्तिधाम मनगढ़ में की थी...)

भगवान् की कृपा को रियलाइज करने का अभ्यास करो, कितनी कृपा है। कितनी कृपा है? आज दिन भर में हम यहाँ गये, वहाँ गये, ये किया और कितनी कृपा है, कहीं एक्सीडेन्ट नहीं हुआ, कहीं ऐसा कोई खतरा नहीं हुआ, पूरा दिन बीत गया, इतनी कृपा है उसकी (भगवान की)! हम तो ऐसे कृतघ्नी हैं कि कितनी ही बड़ी चीज मिले, कोई मूल्य ही नहीं समझते। जैसे - गंगाजी प्रयाग में है तो प्रयाग में रहने वाला गंगा नहाने साल में एक बार भी नहीं जाता। अजी, वहाँ कौन जाय इतनी दूर, यहाँ से दूर है, दूर। चार फर्लांग है। अभी इंग्लैंड, अमेरिका और बम्बई, कलकत्ता से आने वाले तो नहा रहे हैं और तुम चार फर्लांग बोल रहे हो। वह उसका महत्त्व नहीं समझता।

मैं जो आप लोगों को यह समझाता हूँ एक घंटे, इसका मूल्य भी आप लोगों में से कोई नहीं समझता, एक भी नहीं समझता। वरना पागल हो जाय वो खुशी में, क्या मिल रहा है ये? करोड़ों कल्प शास्त्र वेद के अध्ययन से जो न मिलता, वो बैठे-बैठे फ्री में मिल रहा है ऐसे। ये कौन-सी भगवत्कृपा हो रही है मेरे ऊपर और क्यों हो रही है, मैंने किया क्या है, इस जीवन में? सब गन्दे काम किये। सब इन्द्रियों के सुख के लिये सामान इकट्ठे करने का, सब चार सौ बीस, उसी का प्लान, उसी की प्रैक्टिस की। फिर भी इतनी कृपा उनकी हो रही है। कृपा को रियलाइज़ करना सबसे बड़ी बात है। यही भगवान् के माहात्म्य-ज्ञान का सेंस है।

माहात्म्य-ज्ञान... वो अकारण करुण हैं, बिना कारण के कृपा करते हैं। आग जल रही है, बिना कारण के वो टेम्प्रेचर दे रही है। आप दस फुट की दूरी पर बैठे हुए कॉंप रहे हैं ठण्ड में, आग कहती है - आ जाओ न मेरे पास, मैं कुछ पैसा नहीं लूँगी, आ जाओ, तुम्हारी ठण्ड चली जायेगी, भाई! नहीं, तुम्हारे पास तो नहीं आयेंगे, ठण्ड में ठिठुरते रहेंगे, तुम्हारे पास नहीं आयेंगे। अनन्त जीवों को हमने आत्मसमर्पण किया, माँ को, बाप को, बेटे को, बीबी को, पति को, हर जन्म में किया। खाली महापुरुष और भगवान् के शरणागत नहीं हुए, वहाँ प्रतिज्ञा किए हैं कि तुम दोनों की शरण में नहीं जायेंगे, बाकी गधों के पास जाने में हमें कोई लज्जा नहीं। इतना दुराग्रह है, अन्यथा क्या बात है? क्या माँगते हैं भगवान्?

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।
(गीता 18-62)

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
(गीता 18-66)

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता 9-22)

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
(गीता 12-6)

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(गीता 12-7)

वो तो हर जगह प्रतिज्ञा कर रहे हैं, केवल हम उसको मानें। तो नारद जी कहते हैं कि ये माहात्म्य-ज्ञान परमावश्यक है और जब अवतार नहीं है तब तो बहुत ही आवश्यक है। इसलिये माहात्म्य-ज्ञान हो फिर भक्ति हो।

देखो नम्बर एक - माहात्म्य-ज्ञान, नम्बर दो - भक्ति। कौन-सा विश्व में ऐसा भक्त, भक्ति कर सकता है कि भगवान् को जाने न, कोई महापुरुष बतावे न और भक्ति करने लग जाय। उसे क्या मालूम है, किसकी भक्ति करना है, क्या बलाय है, भक्ति? तो माहात्म्य-ज्ञान हुआ - नम्बर एक, भक्ति नम्बर दो। तब फिर भक्ति जब करने लगा तो;

जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम्।
(भाग. 1-2-7)

फिर भक्ति से ज्ञान हुआ और जब भक्ति से ज्ञान हुआ तो और भक्ति हुई, फिर और ज्ञान हुआ, फिर और भक्ति हुई, इस प्रकार बढ़ते बढ़ते अन्त में भक्ति ही रह जायेगी, परिपूर्ण अवस्था में, ज्ञान का लय हो जायेगा। इसलिये कर्म, योग, ज्ञान - सबसे श्रेष्ठ बताई गई भक्ति;

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको   योगी   तस्माद्योगी   भवार्जुन।।
(गीता 6-46)

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥
(गीता 6-47)

कर्मियों से, तपस्वियों से, ज्ञानियों से, योगियों से सबसे श्रेष्ठतर है भक्ति। भक्ति के बिना कोई कर्म, धर्म, योग, ज्ञान कुछ भी हो, 'न मां साधयति'। परम ज्ञानी बन जायेगा, उसकी पहिचान क्या? उतनी ही तेज, उच्च कोटि का भक्त होना चाहिये। अगर भक्ति नहीं करता है और कहता है - मैं ज्ञानी हूँ तो वो पागलखाने वाला ज्ञानी है, थ्योरिटिकल ज्ञानी है, ज्ञानाभिमानी है। ऐसे ज्ञानाभिमानियों के लिये तो;

येऽन्येऽरविंदाक्षविमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः।
आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतंत्यधोऽनादृतयुष्मदंघ्रयः॥
(भाग. 10-2-32)

वो श्रीकृष्ण भक्ति और श्रीकृष्ण का सम्मान नहीं कर रहा है इसलिये 'आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं' - गिर जाता है। 'परत खगेस न लागहिं बारा' - आधार नहीं है, बेचारे के पास। निराधार कोई भी नहीं रह सकता।
तो कर्म का आधार भक्ति, ज्ञान का आधार भक्ति, योग का आधार भक्ति क्योंकि माया-निवृत्ति बिना भक्ति के हो ही नहीं सकती, कोई भी हो - यया सर्वमवाप्यते। वेदव्यास कहते हैं;

यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत्।
योगेन  दानधर्मेण  श्रेयोभिरितरैरपि।।
(भाग. 11-20-32)

अगर कोई जिद्द करे कि हमको साहब माया-निवृत्ति और श्रीकृष्ण प्राप्ति नहीं चाहिये, स्वर्ग चाहिये। वह भी ले लो बाबा। वो तो बड़ी जल्दी दे देंगे। बड़ा अच्छा है। वो तो पहले देने को तैयार हैं;

कागभुशुंडि माँगु वर, अति प्रसन्न मोहिं जान।
अणिमादिक सिधि अपर निधि, मोक्ष सकल सुख खान।

सब दे देंगे। जितनी छोटी चीज़ माँगो, दानी को देने में उतना ही आराम है, उसको क्या प्रॉब्लम है? स्वर्ग तो छोटी चीज़ है न ! असली कर्म वो है जिसमें कि वो भक्ति शरण्य हो, कर्म सर्वेन्ट हो। असली ज्ञान वो है जिसमें भक्ति स्वामी हो, मेन हो और ज्ञान सर्वेन्ट हो। यानी योग, ज्ञान, कर्म कुछ भी हो, उसकी स्वामिनी भक्ति होनी चाहिये।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।
(गीता 7-14)

अकाट्य नियम है। इसीलिये मधुसूदन सरस्वती सरीखे अद्वैत वेदान्ती भी एडमिट करते हैं कि कर्म गुह्य है, ज्ञान गुह्यतर है और भक्ति गुह्यतम है। देखो! 18 वें अध्याय के 63 वें श्लोक में कहा गया कि ज्ञान जो है;

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
(गीता 18-63)

यहाँ 'तरं' शब्द का प्रयोग किया भगवान् ने यानी गुप्त से अधिक गुप्त। ज्ञान के लिये कहा और उसके बाद - 'सर्वगुह्यतमं भूयः' - 64 वें श्लोक में यह कहा, 18 वें अध्याय में। सबसे गुप्त बात सुन। वो क्या बात?

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
(गीता 18-65)

इसका अर्थ भी किया मधुसूदन सरस्वती ने - नवधा भक्ति करो श्रीकृष्ण की। ये सबसे प्राइवेट, ये गुह्यतम सिद्धान्त है और इसके बाद थोड़ा उसको धुक्-धुक् हो रही थी, अर्जुन को, कि वो कहते हैं - 'तमेव शरणं गच्छ' - उसकी शरण में जाओ उसकी, उसकी किसकी? कुछ कनफ्यूज्ड हो रहा था तो भगवान् ने कहा, अच्छा सुन;

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
(गीता 18-66)

तू उसकी और इसकी मत जा, मेरी शरण में आजा, सीधे-सीधे, छुट्टी मिली। मैंने तो आपको गुरु बनाया है महाराज !

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।
(गीता 2-7)

हाँ-हाँ, तो गुरु की शरण में आ जा तो भी वही लक्ष्य प्राप्त होगा। तेरा बुद्धि लगाना बन्द हो जाय, बस इतनी कृपा कर। हाँ इसके बाद फिर उसी अध्याय में संदेह गया। अब तो खोल-खोल कर कह दिया, मेरी शरण में आ जा - ऐसा कोई गुरु कहेगा सब गुरु कहेंगे भगवान् की शरण में जाओ। अरे! स्वयं कह रहा हूँ;

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
(गीता 18-73)

तो कोई भी ज्ञानी हो, सबसे बड़ा ज्ञानी ही होता है, ये कर्मी-वर्मी तो सब ऐसे ही सड़े-गले होते हैं। इनकी गिनती की जाये? लेकिन;

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।
(गीता 15-19)

इस गीता वाक्य पर भी मधुसूदन सरस्वती ने भाष्य किया कि जो प्रेमपूर्ण भक्ति है, वह पूर्ण ज्ञानी होने के बाद और बलवान् होकर आयेगी, उसको आना पड़ेगा। अगर नहीं आती है तो ज्ञानी-व्यानी नहीं, धोखा है उसको। वो मुग़ालते में है कि मैं ज्ञानी हूँ। अरे! ऐसे तो सभी ज्ञानी थ्योरी में हो सकते हैं। क्या, ज्ञान में कोई थ्योरी है लम्बी-चौड़ी? 'तत् त्वम् असि', तू ब्रह्म है और 'अहं ब्रह्मास्मि', मैं ब्रह्म हूँ। बस हो गया और ज्ञान में कुछ नहीं है क्योंकि उसका न नाम है, न रूप है, न गुण है, न लीला है, न परिभाषा है - अनिर्वचनीय, अनिर्वचनीय, सब अनिर्वचनीय। संसार? अनिर्वचनीय। माया? अनिर्वचनीय। ब्रह्म? अनिर्वचनीय। (बस) हो गया ज्ञान, पूरा हो गया। अनिर्वचनीय माने क्या? बताया नहीं जा सकता। बताया नहीं जा सकता तो पूछा ही क्यों जाय फिर, जब बताया नहीं जा सकता तो? सगुण साकार में तो इतने माहात्म्य हैं, अनन्त गुण हैं, एक-एक गुण की परिभाषा करो तो अनन्त काल तक भी समाप्त न होंगे और वो बेचारा निर्गुण, निर्विशेष, निराकार ब्रह्म ! हाँ, एक रसिक कहता है कि ;

प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः।
न तं भर्तारमिच्छन्ति षंडं पतिमिवस्त्रियः।।

कोई स्त्री विषय सुख चाहती है, पुत्र चाहती है। ये दो एम (लक्ष्य/उद्देश्य) से ब्याह करती है और ब्याह होने जा रहा है। उसको मालूम हो जाय कि जिससे ब्याह होने जा रहा है, वह नपुंसक है, क्लीव है तो भला क्यों ब्याह करेगी? पागल है, दिमाग खराब है, उसका 'षंडं' माने नपुंसक, 'पतिमिवस्त्रियः' - कोई स्त्री उसको पति नहीं बनायेगी। तो उसी प्रकार कोई भी जीव ऐसे ब्रह्म को क्या इष्टदेव बनावे कि;

प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः।

न वो कृपा कर सकता है, न कोप कर सकता है। अरे! कोप ही कर दे और मार दे तो भी जीव कल्याण हो जाय। श्रीकृष्ण ने जिस जिसको मारा, कल्याण हो गया न? वो कोप भी नहीं कर सकता और कृपा भी नहीं कर सकता। शंकराचार्य ने कहा था न;

उदासीनः स्तब्धः सततमगुण: संगरहितो, भवांस्तात: कातः परमिह भवेज्जीवनगतिः।
अकस्मादस्माकं यदि न कुरुषेस्नेहमथतद्, वसस्वस्वीयांतर्विमल जठरेऽस्मिन्पुनरपि॥
(शंकराचार्य)

तो इसलिये उससे हम माया निवृत्ति करायेंगे। कैसे? इसलिये ज्ञानी को भी आना पड़ता है भक्ति की शरण में, तब भगवान् अपनी कृपा से ज्ञान भी देते हैं - उन लोगों को अनुकम्पा करके, कृपा करके ज्ञान देते हैं और माया-निवृत्ति भी करा देते हैं और जो शरणागत नहीं होगा, भक्ति की शरण में नहीं आयेगा, वो बस कुछ दूर जायेगा, फिर अध:पतन, फिर उठा फिर अध:पतन, यही हुआ करेगा। आप लोगों ने देखा होगा ये चीटियाँ, कुछ सामान खाने का अपने बच्चों के लिये ले जाती हैं - जैसे चना है, कोई लावा है, कोई अनाज है, उसको मुँह में पकड़ के और दीवाल पर चढ़ती हैं। थोड़ी दूर चढ़ती हैं फिर गिर पड़ती हैं लेकिन बार-बार ऐसे ही करती हैं;

कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन विवेक।

हाँ, तो अब आप लोग समझ गये होंगे कि वो भक्ति भगवान् से भी बड़ी है, उसके बिना कोई कर्मी, ज्ञानी अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकता, लेकिन हमको निष्कामता पर ही विशेष ध्यान देना है, माहात्म्य ज्ञानयुक्त भक्ति पर। ऐसी भक्ति अगर हम करेंगे तो अन्त:करण की शुद्धि होगी, फिर गुरु कृपा से दिव्य प्रेम मिलकर हम अपने अनन्तकालीन भविष्य को आनन्दमय, सुखमय बना सकेंगे। 

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'नारद भक्ति दर्शन' व्याख्या (प्रवचन - 11)
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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