जीव भगवान की किस शक्ति का अंश है? किस प्रकार जीव का भगवान से ही एकमात्र और सब प्रकार का संबंध है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 337
(भूमिका - प्रस्तुत उद्धरण जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित विलक्षण प्रवचन श्रृंखला 'मैं कौन? मेरा कौन?' से लिया गया है। आचार्यश्री ने इस प्रवचन श्रृंखला में कुल 103-प्रवचन दिये थे। इस विकराल कलिकाल में सर्वथा भ्रान्त जीवों के कल्याणार्थ वैदिक सिद्धान्तों पर पूर्ण दृष्टिकोण रखते हुये भगवान राम-कृष्ण प्रापत्यर्थ भक्तियोग की उपादेयता एवं उसका षड्दर्शनों से सम्बन्ध बतलाते हुये विशद व्याख्या की है। निम्न उद्धरण में भक्तिपथ में निष्कामता की सर्वोच्चता के विषय में प्रकाश डाला गया है, जो कि उनके द्वारा 8 दिसम्बर 2009 में भक्तिधाम मनगढ़ में दिये गये इस श्रृंखला के 21-वें प्रवचन का एक अंशमात्र है...)
...तीन तत्त्व सनातन तत्त्व हैं - एक ब्रह्म, एक जीव, एक माया। इनमें जीव और माया भगवान की शक्ति हैं। इसलिये इनको भगवान का अंश भी कहा जाता है और शक्ति और शक्तिमान में भेद भी है, अभेद भी है। तो जब अभेद माना जाता है तो कहा जाता है कि केवल एक तत्त्व भगवान ही है और जब भेद के पक्ष में विचार किया जाता है तो बताया जाता है कि एक नहीं तीन तत्त्व हैं, तीन में किसी ने किसी को बनाया नहीं और कोई किसी का अत्यन्ताभाव नहीं कर सकता।
लेकिन इसमें जीव और माया भगवान की भाँति स्वतंत्र नहीं हैं। ये भगवान के आधीन हैं, उनसे नियंत्रित हैं, ईश्य हैं, शास्य हैं, प्रेर्य हैं और भगवान से जीव का समस्त नाता है। आप लोग एक श्लोक बोलते होंगे;
त्वमेव माता च पिता त्वमेव। त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वेमव।
त्वमेव विद्या द्वविणं त्वमेव। त्वमेव सर्वं मम देव देव।।
(वेदव्यास)
साधारण लोग रामायण तो पढ़ते हैं। जब भगवान राम ने लक्ष्मण से कहा तुम जंगल जाने का, वन जाने का हठ न करो। क्योंकि पिता वृद्ध हैं, जनता को धैर्य दिलाना है। लक्ष्मण ने कहा कि कैसा पिता? ऐं....! कैसा पिता? हाँ;
भ्राता भर्ता च बन्धुश्च पिता च मे राघवः।
(वाल्मीकि रामायण)
मेरे पिता तो आप हैं। एक भाई के सामने उसका छोटा भाई उसको बाप कहे तो हमारे संसार में उसको भेज देंगे पागलखाने में। और भगवान के दरबार में उनका सगा भाई कह रहा है, राम सुन रहे हैं और मुस्कुरा रहे हैं। कोई दण्ड नहीं दिया। डाँटा भी नहीं।
गुरु पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू।
मोरे सबइ एक तुम स्वामी। दीनबन्धु उर *अन्तरयामी।।
मेरे, मेरे माने ये जो अन्दर वाला 'मैं' है। उसके तो सर्वस्व आप हैं न। आपने वेद में बताया है;
अमृतस्य वै पुत्रा:।
(वेद)
फिर आप कैसे कह रहे हैं कि वो पिताजी हैं? अरे हमारे संसार में जितने भी पुत्र हैं वो कभी पिता ठगे और फिर पुत्र हुये, फिर पिता हो जायेंगे। देखिये एक गधे की अकल से समझिये आज आपका बाप मर गया। हाँ, और उसका बेटे में अटैचमेंट है। हाँ, सभी का है। तो मरने के बाद वो कहाँ जायेगा? हाँ, कहाँ जन्म लेगा? पड़ोसी के यहाँ नहीं लेगा। जहाँ अटैचमेंट होता है वहीं जन्म होता है। तो अपने बेटे का बेटा बनेगा। अब उसका बेटा हो गया पिताजी। वेद कहता है;
यः पिता स पुनः पुत्रो यः पुत्रः स पुनः पिता।
एवं संचारचक्रेण कूपचक्रे घटा इव।।
(योगतत्त्वोपनिषद 133)
प्रजामनु प्रजायन्ते।
(भागवत 3-32-20)
वही जीव एक दूसरे के पिता पुत्र बनते जाते हैं। क्योंकि उनका अटैचमेंट है। जिसका जिसमें अटैचमेंट होता है मरने के बाद उसी को प्राप्त होता है। जब अभिमन्यु को मार दिया कौरवों ने तो अर्जुन ने भगवान से जिद्द किया एक बार दिखा दो मेरे बेटे को। भगवान ने कहा ए अठारह बरस तक देखता रहा, अब एक बार दिखा देने से क्या होगा? नहीं नहीं, आप सब कुछ कर सकते हैं। हाँ हाँ कर सकते हैं। लेकिन क्यों? अच्छा ला। आ गये, अभिमन्यु। अरे बेटा! अभिमन्यु ने कहा किसे कह रहे हो बेटा? तुम्हारा बेटा तो वहीं रह गया। अरे तुम्हारे द्वारा शरीर बना था न हमारा? वो तो मैं छोड़ आया। मैं तो आत्मा हूँ। मैं तो उसका (भगवान का) बेटा हूँ।
तो भगवान से हमारा सर्वस्व नाता है और भेदाभेद संबंध भी है। कुछ विषयों में भेद भी है और कुछ विषयों में अभेद भी है। और हम भगवान की जीवशक्ति के अंश हैं, पराशक्ति के अंश नहीं हैं, माया के अंश नहीं हैं। इसलिये हमको तटस्थ शक्ति कहा जाता है। ये हमारा स्वरूप लक्षण है और तटस्थ लक्षण है कि हम भगवान के नित्य दास हैं। मैंने बार बार आपको बताया है कि संसार में कोई नास्तिक हो ही नहीं सकता। अनंतकाल तक कोई प्रयत्न करें कि मैं नास्तिक बन जाऊँ। भगवान को न मानूँ। इम्पॉसिबल। इसलिये कि आनन्द को तो मानोगे। आनन्द को चाहोगे। हाँ, तो उसी का नाम तो भगवान है। वेद शास्त्र पुराण से मैंने अनेक प्रमाणों से बताया था कि आनन्द ही तो भगवान है। भगवान में आनन्द है, ये तो लोग ऐसे ही बोलते हैं काम चलाऊ। अगर भगवान में आनन्द कहोगे तो इसका मतलब भगवान कोई और है, आनन्द उनमें रहता है। ऐसा मानना पड़ेगा। ऐसा नहीं है। आनन्द ही भगवान है, ऐसा है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'मैं कौन? मेरा कौन?' प्रवचन श्रृंखला, प्रवचन - 21
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)
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