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 अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस: लेडी ऑफ द लैंप फ्लोरेंस नाइटिंगेल, जिन्होंने नर्स और सैनिक  होने  को दिलाया सम्मानित पेशा
आज के दौर में जब डॉक्टर एवं नर्स हमारे लिए भगवान का रूप बनकर उभरे हैं, वे इस महामारी के काल में अपने जीवन को दांव पर लगाकर हमारी सेवा में जुटे हुए हैं।  आज दुनिया भर में नर्सें जिस सेवा-भाव में मरीजों की देखभाल में लगी हुई हैं। उनके भीतर इस अलख को जगाने वाली महिला  फ्लोरेंस नाइटिंगेल का आज  12 मई को जन्मदिन है। 
 फ्लोरेंस नाइटेंगल जिन्होंने पूरी दुनिया को यह सिखाया कि कैसे आप एक मरीज की पूरे निस्वार्थ भाव से सेवा कर सकते हैं। वह फ्लोरेंस नाइटेंगल ही थीं, जिन्होंने अपने सेवा भावना और दयालुता से नर्स के पेशे को एक बेहद सम्मानित पेशे के रूप में स्थापित किया।  फ्लोरेंस का जन्म उस दौर में हुआ था, जब नर्स और सैनिकों को इस समाज में वह सम्मान नहीं मिल सका था, जिस सम्मान की दृष्टि से उन्हें आज देखा जाता है।
 एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी फ्लोरेंस का बचपन ब्रिटेन के पार्थेनोप इलाके में बीता. उनके पिता विलियम एडवर्ड नाइटिंगेल एक समृद्ध जमींदार थे. फ्लोरेंस एवं उनकी पढ़ाई घर पर ही हुई। फ्लोरेंस का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब लड़कियों के जीवन का अर्थ बस यही हुआ करता था कि बड़े होने पर एक धनी व्यक्ति से उनकी शादी कर दी जाए और वे अपने परिवार तथा सामाजिक सरोकारों में उलझकर ही अपना जीवन व्यतीत कर दें, लेकिन फ्लोरेंस को यह मंजूर नहीं था, उन्होंने अपने परिवार के सामने नर्सिंग सीखने की इच्छा जाहिर की। 
 बताते हैं कि फ्लोरेंस जब अपने परिवार के साथ यूरोप के सफर पर गई थीं, उस दौरान उन्होंने हर शहर में बने अस्पतालों एवं लोगों की सेवा के लिए बने संस्थानों के बारे में जानकारी इक_ा की। उन्होंने यह सभी आंकड़े अपनी डायरी में लिखे।  सफर के अंत में उन्होंने अपने परिवार से कहा कि 'ईश्वर ने उसे मानवता की सेवा का आदेश दिया है लेकिन यह नहीं बताया कि सेवा किस तरह से करनी है।' इसके बाद फ्लोरेंस ने नर्स बनने की इच्छा जाहिर की। उनके पिता ने फ्लोरेंस का काफी विरोध किया, लेकिन अंतत: उन्होंने अपनी बेटी की बात मान ली और जर्मनी में प्रोटेस्टेंट डेकोनेसिस संस्थान से फ्लोरेंस ने नर्सिंग का प्रशिक्षण लिया।  वर्ष 1853 में उन्होंने लंदन में महिलाओं के लिए एक अस्पताल 'इंस्टीच्यूट फॉर द केयर ऑफ सिंक जेंटलवुमेन' खोला, जहां उन्होंने मरीजों की देखभाल के लिए बहुत सारी बेहतरीन सुविधाएं उपलब्ध कराई और नर्सों के लिए कार्य करने की स्थिति में भी सुधार किया।  साल 1854 में क्रीमिया का युद्ध चल रहा था। इस युद्ध में ब्रिटेन, तुर्की और फ्रांस एक तरफ थे और रूस दूसरी तरफ। वह ऐसा दौर था, जब सैनिकों की जान की कीमत नहीं थी। घायल हुए सैनिक मरने के लिए छोड दिए जाते थे।  ब्रिटिश सरकार द्वारा फ्लोरेंस के नेतृत्व में अक्तूबर 1854 में 38 नर्सों का एक दल घायल सैनिकों की सेवा के लिए तुर्की भेजा गया। फ्लोरेंस ने वहां पहुंचकर  अस्पताल की हालत सुधारने के अलावा घायल और बीमार सैनिकों की देखभाल में दिन-रात एक कर दिया, जिससे सैनिकों की स्थिति में काफी सुधार हुआ। उनकी मेहनत रंग लाई और कुछ दिनों में ही युद्ध में घायल हुए सैनिकों की संख्या में कमी आई। इस दौरान फ्लोरेंस रात-रात घायल सैनिकों के पास जाकर उनका हालचाल लेती थीं और उनके हाथ में एक लैंप होता था तब से ही उन्हें 'लेडी विद द लैंप' के नाम से ही संबोधित किया जाने लगा।
 इस युद्ध के बाद फ्लोरेंस ब्रिटेन में काफी लोकप्रिय हो गईं और अखबारों में उनकी प्रशंसा से भरे लेख लिखे गए। ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने भी फ्लोरेंस को धन्यवाद दिया और उनसे मिलकर उनसे प्रशंसा की। रानी विक्टोरिया से मुलाकात के समय फ्लोरेंस ने यह सिफारिश की कि सैनिकों को अच्छी सुविधा, अच्छे कपड़े और अच्छा खान-पान उपलब्ध कराया जाए। फ्लोरेंस की सिफारिश का असर हुआ और सैन्य चिकित्सा प्रणाली में बड़े पैमाने पर सुधार संभव हुआ और उसके बाद से ब्रिटेन में सैनिकों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा। साल 1859 में उन्होंने परिवार के बीमार सदस्यों की सही देखरेख सिखाने के लिए 'नोट्स ऑन नर्सिंग' पुस्तक भी लिखी, जिसकी मदद से कई लोगों ने नर्सिंग सीखी।  इसी दौरान भारत में संक्रामक रोगों से लाखों लोगों की मौत को देखते हुए फ्लोरेंस इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि भारत में लोगों के बीमार होने का एक बड़ा कारण यह है कि वहां लोग पीने के लिए गंदा पानी इस्तेमाल कर रहे हैं।  उनकी सिफारिश के बाद ही भारत में पीने के लिए साफ पानी के इस्तेमाल को लेकर सजगता बढ़ी।  साल 1910 में  90 साल की उम्र में फ्लोरेंस नाइटेंगल का निधन हो गया।    

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