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सूर्य भले ही हमारे लिए ऊर्जा का एक स्रोत है लेकिन इसके बावजूद धरती पर कई ऐसी जगहें हैं जहां वर्ष में कुछ महीने ही बस सूरज की रोशनी मिलती है. जिसमें एक जगह है आर्कटिक सर्कल के उत्तर में स्थित नॉर्वे का टॉम्सो शहर, जहां हर वर्ष नवंबर से जनवरी तक तीन महीने तक सूरज नहीं दिखाई देता है. वहीं यदि आप इससे दक्षिण में चलेंगे को नॉर्वे का रजुकान गांव आता है, जहां छह महिने तक सूर्य की रोशनी देखने को नहीं मिलती है. ऐसे जगह पर लोग सदियों से रह रहे हैं. लेकिन विशेषज्ञों ने इस समस्या का हल कर दिया. तकनीती विशेषज्ञों ने इस मुश्किल को सन मिरर लगाकर हल किया है. सूर्य के प्रकाश की दिशा में पहाड़ों पर विशाल सन मिरर की शृंखला लगाई गई, जिससे सूर्य की किरणों परावर्तित होकर पहाड़ी की तलहटी में रोशनी की है. ये आइडिया एक सदी पहले यहीं के इंजीनियर सैम आइड का था. जिसे मार्टिन एंडरसन ने पूरा किया था. मार्टिन पहले शख्स थे जिन्हें रजुकान में सूर्य की रोशनी नहीं दिखने पर बेचैन हो गए थे. उन्होंने स्थानीय अधिकारियों की मदद से 8 लाख डॉलर की लागत से सन मिरर लगवाए थे. इससे पहले लोग केबल कार के जरिए सूरज की रोशनी देखने ऊपर जाते थे. हालांकि अब यहां दिन भर प्रकाश रहता है.
- अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के वैज्ञानिकों ने शनि ग्रह के सबसे बड़े चांद टाइटन की सबसे ऊंची चोटी की खोज की। इसकी ऊंचाई &,&&7 मीटर है. इसका पता नासा के कैसिनी अभियान के दौरान लगा। वैज्ञानिकों के अनुसार यह सबसे ऊंची चोटी तीन पहाड़ी रेखाओं के समूह के बीच दिखाई दी है। इस समूह को मिथरिम मोंटेस कहा जाता है। टाइटन की Óयादातर ऊंची चोटियों को उसकी भूमध्य रेखा के नजदीक देखा गया।नासा की सर्वो'च चोटियों की ऊंचाई & हजार मीटर के करीब है। चोटियों के अध्ययन में कैसिनी के राडार से प्राप्त तस्वीरों और अन्य आंकड़ों को शामिल किया गया।यह राडार टाइटन के धुंधले वातावरण के पार स्पष्ट तस्वीरें खींचने में सक्षम है। वैज्ञानिकों ने मिथरिस मोंटेस और टाइटन के कुछ अन्य हिस्सों में भी में इस चोटी के समकक्ष ऊंचाई वाली चोटियां देखी है।-----
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बोलिविया में सालर डि उयूनी दुनिया का सबसे बड़ा नमक का मैदान है। यह समुद्र तल से 3,656 मीटर ऊंचाई पर एंडीज पठार के 10,500 वर्ग किलोमीटर में फैला है। साथ ही यह बोलिविया का सबसे लोकप्रिय पर्यटन केंद्र है। दुनिया भर से पर्यटक यहां के विशाल सफेद मैदान को देखने आते हैं। सफेद मैदान के बीच ज्वालामुखीय चट्टानें छोटे द्वीपों की तरह दिखती हैं, मानो सफेद कैनवास पर काले बिंदु हों। इनमें सबसे मशहूर है क्वेशुआ में इंका का घर या इंकाहाउसी। इंका सभ्यता के लोग नमक के मैदान को पार करते समय अस्थायी रूप से यहां शरण लेते थे।
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1910 के दशक में अमेरिका के हॉलैंड द्वीप पर 300 से भी ज्यादा घर थे, जहां लोग रहते थे, लेकिन बाद में समुद्र की तेज लहरों से यहां की मिट्टी कटने लगी और धीरे-धीरे सारे घर पानी में समा गए। अब इस आइलैंड पर सिर्फ एक ही घर बचा हुआ है, जो लोगों को बेहद ही हैरान करता है।
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आयरलैंड के रोस्कोमन में एक महल है, जो सदियों से वीरान है। इसे मैकडर्मोट कैसल के नाम से जाना जाता है। कहते हैं कि इसे 12वीं सदी में बनाया गया था, लेकिन इसके बनने के कुछ ही साल बाद इसमें आग लग गई और महल के अंदर मौजूद 34 लोग जलकर मर गए। तब से लेकर आज तक यह महल वीरान पड़ा हुआ है। यहां कोई नहीं रहता है।
- तवांग मठ भारत का सबसे बड़ा मठ है और पोटाला पैलेस के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मठ। यह अरुणाचल प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में है जो तवांग नदी की घाटी में स्थित है। यह 17 वीं सदी के दौरान मेरा लामा द्वारा स्थापित किया गया था। यह मठ पांडुलिपियों, पुस्तकों और अन्य कलाकृतियों के अद्भुत संग्रह के कारण भी प्रसिद्ध है। 300 साल पहले बने इस मठ को बौद्ध भिक्षु अंतरराष्ट्रीय धरोहर मानते हैं।अरुणाचल प्रदेश का तवांग मठ 1680 में मेराक लामा लोद्रे ग्यास्तो ने बनवाया। यह बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा मठ हैं जिसमें 570 से ज्यादा बौद्ध भिक्षु रहते हैं। समुद्र तल से 10 हजार फुट की ऊंचाई पर तवांग चू घाटी में बने इस मठ में दुनिया भर के बौद्ध भिक्षु और पर्यटक आते हैं। तवांग मठ में दलाई लामा भी आए।इस मठ को गालडेन नमग्याल लहात्से के नाम से भी जाना जाता है। इस मठ का मुख्य आकर्षण यहां स्थित भगवान बुद्ध की 28 फीट ऊंची प्रतिमा और प्रभावशाली तीन तल्ला सदन है। मठ में एक विशाल पुस्तकालय भी है, जिसमें प्रचीन पुस्तक और पांडुलिपियों का बेहतरीन संकलन है। ऐसा माना जाता है कि ये पांडुलिपि 17वीं शताब्दी की है। एक मान्यता के अनुसार मठ बनाने के लिए इस स्थान का चयन एक काल्पनिक घोड़े ने किया था। तब मठ के संस्थापक मेराक लामा को मठ बनाने के लिए उपयुक्त स्थान ढूंढने में काफी कठिनाई हो रही थी। इसमें ता का अर्थ होता है- घोड़ा और वांग का अर्थ होता है-आशीर्वाद दिया हुआ। चूंकि इस स्थान को दिव्य घोड़े ने अपना आशीर्वाद दिया था, इसलिए इसका नाम तवांग पड़ा।
- भारत में भी तरह - तरह से कॉफी बनाई जाती है। इनका स्वाद ऐसा कि बस पीते ही रह जाएं। एक नजर इन अलग-अलग कॉफी पर-एस्प्रेसो - इस मिक्स को कई तरह की कॉफियों में एक बेस की तरह इस्तेमाल किया जाता है। एस्प्रेसो, उबले पानी और काफी बींस का मिक्स होता है। इसे तैयार करने के लिए अलग मिक्सर और ग्राइंडर का भी इस्तेमाल किया जाता है।फ्रापुचीनो - स्टारबक्स की खासियत माने जाने वाली फ्रापुचीनो में कॉफी के साथ शक्कर, दूध, एस्प्रेसो समेत बर्फ भी मिलाया जाता है। इसमें कॉफी के ऊपर क्रीम की एक मोटी परत होती है।कैरेमल मकियाटो -इस कॉफी को दुनिया में काफी पसंद किया जाता है। फ्रापैचिनो की ही तरह इसे भी बनाने में 5 मिनट से कम का समय लगता है। इसमें एस्प्रेसो के साथ बर्फ, क्रीम, दूध, सिरप और कैरेमल (भुनी हुई शक्कर) की परत होती है।कैफे मोका-कैफे लाटे और कैफे मोका लगभग एक जैसी ही नजर आती है। इस कॉफी में एस्प्रेसो का बेस होता है और इसे गर्म दूध और चॉकलेट के साथ तैयार किया जाता है। कुछ खास रेस्तरां इस कॉफी में क्रीम भी इस्तेमाल करते हैं।अमेरिकानो-कई एस्प्रेसो बेस वाले ड्रिंक दूध का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन अमेरिकानो में ऐसा नहीं होता। इसमें एस्प्रेसो का इस्तेमाल होता है लेकिन उसे गर्म पानी के साथ मिलाया जाता है। मतलब इसमें कॉफी जैसी ही ताकत होती है लेकिन अलग स्वाद के साथ।कैफे कुबानो- इस कॉफी को क्यूबन कॉफी या क्यूबन एस्प्रेसो भी कहते हैं। क्यूबा ने इटली से पहली बार कॉफी तैयार करने की ऐस्प्रेसो मशीन को आयात किया। जिसके बाद इस एस्प्रेसो का क्यूबा में ईजाद किया गया. यह एस्प्रेसो शॉट थोड़ा सा मीठा होता है और कई कॉफी ड्रिंक में यह बेस का काम करता है।कैफे लाटे-कैफे लाटे में एक तिहाई एस्प्रेसो, दो-तिहाई स्टीम दूध और तकरीबन एक सेंटीमीटर झाग की परत होती है। यह दुनिया के सबसे लोकप्रिय कॉफी ड्रिंक में से एक है। सजावट के लिए ऊपर से इसमें कोको पाउडर का भी इस्तेमाल किया जाता है।आइरिश कॉफी- इस कॉफी में कॉकटेल होता है। इसमें कॉफी, चीनी और मोटी क्रीम के साथ घुली होती है आइरिश व्हिस्की। इसके इतिहास को लेकर कहा जाता है कि ठंड से यात्रियों को बचाने के लिए 1940 में अमेरिका के एक शेफ ने कॉफी के साथ व्हिस्की को मिला दिया। इसे बेहद ही पसंद किया गया, और ईजाद हो गई आइरिश कॉफी।कैपुचीनो- यह इतालवी कॉफी आमतौर पर एस्प्रेसो और गर्म दूध के साथ बनाई जाती है। इसमें दूध का झाग सबसे ऊपर नजर आता है. आमतौर पर झाग की मोटी परत के लिए दूध को स्टीमर के साथ तैयार किया जाता है। स्टीमर झाग पैदा करने के लिए एक तरह की मशीन होती है।कैफे ओल-इस कॉफी का शाब्दिक अर्थ होता है, दूध के साथ कॉफी। जैसे कि नाम से जाहिर है इसमें गुनगुना दूध और कॉफी बीन्स मिलाया जाता है। यह कोई साधारण मिलाना नहीं होता, मिक्स थोड़ा-बहुत भी ऊपर नीचे हुआ तो स्वाद खराब हो सकता है। कॉफी को ऐसे पकाया जाता है जिससे कप में क्रीम की परत तैयार हो जाए।--
- विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस हर वर्ष 15 मार्च को मनाया जाता है। उपभोक्ताओं के अधिकारों और आवश्यकताओं के प्रति विश्व में जागरूकता फैलाने के लिए मनाया जाता है। इसका उद्देश्य उपभोक्ताओं के अधिकारों का सम्मान करना और बाजार में उनके शोषण को रोकना है। वर्ष 2020 का विषय है- सदैव सजग उपभोक्ता।विश्व में पहली बार 15 मार्च, 1962 को भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने 13 मार्च, 1983 को अंतरराष्ट्रीय उपभोक्ता अधिकार दिवस मनाया था। कैनेडी ने अपने भाषण में पहली बार उपभोक्ता अधिकारों की परिभाषा को रेखांकित किया। वे विश्व के पहले व्यक्ति माने जाते हैं जिन्होंने औपचारिक रूप से उपभोक्ता अधिकारों को परिभाषित किया था। इसके बाद प्रतिवर्ष इसे 15 मार्च से मनाया जाने लगा है।भारत में प्रतिवर्ष 24 दिसंबर, को राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस मनाया जाता है।
- भारतीय सेना में तीन तरह के कर्मी होते हैं-1. कमिशंड ऑफिसर- ये सेना के सीनियर मैनेजमेंट होते हैं। जनरल से लेकर लेफ्टिनेंट तक के रैंक इसके तहत आते हैं। ये आईएएस के समकक्ष माने जाते हैं।2. जूनियर कमिशंड ऑफिसर- ये सेना के जूनियर मैनेजमेंट होते हैं। सेना में सूबेदार मेजर से लेकर नायब सूबेदार तक के रैंक इसके तहत आते हैं।3. नॉन-कमिशंड ऑफिसर- ये जेसीओ द्वारा दिए गए आदेश पर अमल करते हैं। हवलदार से लेकर सिपाही तक के रैंक इसके तहत आते हैं।सभी सैन्य कर्मियों की वर्दी पर अलग-अलग बैज लगे होते हैं। बैज देखकर पता चल जाता है कि यह अधिकारी किस पद पर है। आइए जानते हैं रैंक और बैज...लेफ्टिनेंट- पहचान: बैज पर पांच किनारों वाले दो सितारे। कमिशंड ऑफिसर रैंक में यह सबसे शुरुआती पद है।कैप्टन- पहचान: बैज पर पांच किनारों वाले तीन सितारे। दो साल की कमिशंड सर्विस पूरी होने पर समय सीमा के आधार पर यह प्रमोशन मिलता है।मेजर-पहचान: बैज पर अशोक चिह्न। समयसीमा के हिसाब से 6 साल की कमिशंड सर्विस पूरी करने पर प्रमोशन मिलता है।लेफ्टिनेंट कर्नल- पहचान: बैज पर पांच किनारों वाला एक सितारा और इसके ऊपर अशोक चिह्न। कमीशंड सेवा में 13 साल रहने के बाद प्रमोशन मिलता है।कर्नल- पहचान: बैज पर पांच किनारों वाले दो सितारे और इनके ऊपर अशोक चिह्न। कर्नल के पद पर प्रमोशन चयन के जरिए कमिशंड सर्विस में 15 साल रहने के बाद होता है।ब्रिगेडियर- पहचान: बैज पर पांच किनारों वाले तीन सितारे और इनके ऊपर अशोक चिह्न। ब्रिगेडियर के पद पर प्रमोशन चयन के जरिए कमिशंड सर्विस में 25 साल रहने के बाद होता है।मेजर जनरल- पहचान: बैज पर पांच किनारों वाला सितारा और इसके नीचे तलवार और डंडा क्रॉस रूप में। मेजर जनरल पद पर प्रमोशन चयन के जरिए कमिशंड सर्विस में 32 साल तक रहने के बाद होता है।लेफ्टिनेंट जनरल-पहचान: बैज पर अशोक चिह्न और इसके नीचे तलवार और डंडा क्रॉस रूप में। लेफ्टिनेंट जनरल को कमिशंड सर्विस में 36 साल तक रहने के बाद चुना जाता है। वह वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ या आर्मी कमांडर्स का पद भी संभाल सकते हैं।जनरल या सेना प्रमुख- पहचान: बैज पर अशोक चिह्न। इसके नीचे पांच किनारों वाला सितारा। इसके नीचे तलवार और डंडा क्रॉस रूप में। फील्ड मार्शल के मानद रैंक के बाद यह सर्वोच्च रैंक होता है। सिर्फ चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ ही यह रैंक हासिल कर सकता है।फील्ड मार्शल- पहचान: बैज पर अशोक चिह्न और खिलते कमल की माला में तलवार और डंडा क्रॉस रूप में चिह्न। यह इंडियन आर्मी का सर्वोच्च रैंक है। ये अपने पद से कभी रिटायर नहीं होते।सूबेदार मेजर/रिसालदार मेजर- पहचान: बैज पर स्ट्राइप के साथ अशोक चिह्न। चयन से प्रमोशन के बाद इस रैंक तक पंहुचा जाता है।सूबेदार/रिसालदार- पहचान: बैज पर स्ट्राइप के साथ दो सुनहरे सितारे। इस रैंक पर चयन के जरिए प्रमोशन होता है। रिटायरमेंट- 30 साल की सर्विस या 52 साल की उम्र में जो भी पहले हो।नायब सूबेदार/नायब रिसालदार- पहचान: बैज पर स्ट्राइप के साथ एक सुनहरा सितारा। इस रैंक पर प्रमोशन चयन के आधार पर होता है। कुछ स्थितियों में सीधे भर्ती भी होती है।सैनिक- पहचान: इसकी वर्दी पर कोई निशान नहीं होता। इनकी पहचान कॉर्प्स से होती है, जिसमें वह सर्विस देता है। मसलन, सिग्नल्स के सिपाही को सिग्नलमैन, पैदल सेना के सिपाही को राइफलमैन और बख्तरबंद कॉर्प्स के सिपाही को गनर कहा जाता है।लांस नायक- पहचान: एक धारी वाली पट्टी। प्रमोशन चुनाव के आधार पर होता है। रिटायरमेंट- 22 साल की सर्विस या 48 साल की उम्र।नायक या लांस दफादार- पहचान: बैज पर दो धारियों वाली पट्टी। प्रमोशन चुनाव के आधार पर। 24 साल की सर्विस या 49 साल की उम्र में ये रिटारयर होते हैं।हवलदार या दफादार- पहचान: बैज पर तीन धारियों वाली पट्टी। इस रैंक पर चयन के आधार पर प्रमोशन होता है।
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गोल्डफिश इकलौती ऐसी मछली है, जो अपनी आंखें कभी भी बंद नहीं करती है। इसका मतलब ये नहीं है कि वो सोती नहीं हैं। गोल्डफिश सोती हैं, ठीक वैसे ही जैसे बाकी के जीव-जंतु सोते हैं।
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जहां एक सामान्य व्यक्ति का दिल एक मिनट में 72 बार धड़कता है, वहीं एक छिपकली का दिल एक मिनट में 1000 बार धड़कता है। यह बेहद ही हैरान करने वाली बात है।
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कछुए को धरती पर सबसे ज्यादा दिन तक जीने वाले जीवों में से एक माना जाता है। ये 200-250 साल तक जिंदा रहते हैं। इस वक्त धरती पर कछुओं की 300 से भी ज्यादा प्रजातियां मौजूद हैं। शायद ही आप ये बात जानते होंगे कि कछुओं के दांत नहीं होते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि हर साल 23 मई को विश्व कछुआ दिवस मनाया जाता है। -
डॉल्फिन को भारत की राष्ट्रीय मछली के तौर पर हम जानते हैं, लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि डॉल्फिन पांच से आठ मिनट तक अपनी सांस रोक कर रख सकती है। जी हां, यह बिल्कुल सच है। इतना ही नहीं, डॉल्फिन एक आंख खुली रख कर भी सो सकती है।
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दुनिया का सबसे बड़ा पक्षी शुतुरमुर्ग है, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि उनकी आंखें उनके दिमाग से ज्यादा बड़ी होती हैं। शुतुरमुर्ग की आंखें दो इंच तक लंबी और मोटी होती हैं। इतनी बड़ी आंखें धरती पर मौजूद किसी भी अन्य जीव की नहीं होतीं। - पृथ्वी पर मौजूद हरेक जीव अहम भूमिका निभाता है लेकिन जब बात धरती पर जीवन को जारी रखने की होती है तो कुछ जीव दूसरों की तुलना में ज्यादा जरूरी हो जाते हैं। आइये जानें ऐसे कौन से वो 8 जीव हैं, जिसके बिना पृथ्वीं पर जीवन संभव नहीं है।1. मधुमक्खी- यह कोई छिपी बात नहीं है कि मधुमक्खियां बेहद जरूरी हैं। रॉयल जियोग्राफिकल सोसायटी ने तो उन्हें पृथ्वी का सबसे अहम प्राणि घोषित किया है। दुनिया में परागण कराने वाला यह सबसे पुराना जीव कई पौधों की प्रजातियों के जीवन चक्र में अहम भूमिका निभाता है और स्वस्थ इकोसिस्टम को बनाए रखता है। हम जिन फसलों को खाते हैं, उनमें से 70 फीसदी उन पर निर्भर हैं।2. चींटी- हम उन्हें कीट भी कहते हैं लेकिन वास्तव में इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। अंटार्कटिका को छोड़ पृथ्वी के हर महाद्वीप में चीटियां मौजूद हैं और ये कई भूमिकाएं निभाती हैं। इनमें मिट्टी में पोषक तत्वों को वितरण से ले कर बीजों को फैलाना और दूसरे कीटों को खाना भी शामिल है। वैज्ञानिक दुनिया भर में चीटियों की बांबी पर जलवायु परिवर्तन के असर को जानने में जुटे हैं।3. कवक या कुकुरमुत्ता- ना तो ये पौधे हैं ना जानवर, सूक्ष्मजीव या फिर प्रोटोजोआ। कवक को कभी कभी पृथ्वी पर मौजूद जीवन का पांचवा वर्ग कहा जाता है। उनके बगैर हमारा शायद अस्तित्व ही नहीं रहेगा। ये जल, थल और वायु हर जगह मौजूद हैं। ये पृथ्वी के प्राकृतिक पोषण को रिसाइकिल करते हैं। इनकी कुछ प्रजातियां तो ऐसी हैं जो पारा जैसे हानिकारक धातुओं और पोलियूरेथेन प्लास्टिक को भी पचा सकती हैं।4. फाइटोप्लैंकटन- फाइटोप्लैंकटन यानि सूक्ष्म जलीय वनस्पति पृथ्वी पर जीवन के लिए कितने जरूरी हैं यह समझना थोड़ा कठिन है। इनका एक योगदान तो यह है कि पृथ्वी के वायुमंडल में मौजूद ऑक्सीजन का दो तिहाई हिस्सा यही पैदा करते हैं। इनके बगैर वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम हो जाएगी और पर्यावरण के लिए असुविधा होगी। इसके साथ ही ये मरीन इकोसिस्टम के फूड चेन का आधार हैं।5. केंचुआ- मामूली सा दिखना वाला केंचुआ पृथ्वी के जीवमंडल के लिए इतना जरूरी है कि इसे इकोसिस्टम इंजीनियर भी कहा जाता है। ये जीव मिट्टी में हवा भर कर उसे पोषक बनाते हैं और कार्बनिक पदार्थों को रिसाइकिल करते हैं। इसके साथ ही भोजन चक्र में भी इनकी जगह बेहद अहम है। कई पारिस्थितिकियों में अहम स्थान रखने के बावजूद कई प्रजातियां मिट्टी के अम्लीकरण की वजह से खतरे में हैं।6.प्राइमेट- हमासे सबसे करीबी जैविक रिश्तेदार प्राइमेट, मानव जीव विज्ञान के बारे में कई तरह की अंतरदृष्टी देते हैं। ये बायोडाइवर्सिटी के लिए भी बेहद जरूरी है् और उष्णकटिबंधीय जंगलों के लिए अहम प्रजातियां हैं। ये इन जंगलों के लिए एक तरह से माली हैं जो बीजों को बिखेरते हैं और नए पौधों के उगने की जगह बनाते हैं। अगर हम इन जंगलों को बचाए रखना चाहते हैं तो हमें इन प्राइमेटों के अस्तित्व को वहां बनाए रखना होगा।7. कोरल- कोरल को अकसर समुद्र का वर्षावन कहा जाता है। कोरल रीफ कई तरह की भूमिकाएं निभाते हैं। इनमें तटों की रक्षा से लेकर भोजन तंत्र का आधार होना भी शामिल है। रिसर्चरों का अनुमान है कि कोरल रीफ एक चौथाई समुद्री जीवों के लिए घर भी हैं। इस तरह से ये पृथ्वी के सबसे जटिल इकोसिस्टम का निर्माण करते हैं। अगर हम कोरल रीफ को खो बैठे, तो हम असंख्य समुद्री जीवों को भी खो देंगे।8.5. चमगादड़- केला, बाओबाब और टकिला में क्या समानता है? ये सभी परागण और कीटों के नियंत्रण के लिए चमगादड़ पर निर्भर हैं। दुनिया भर में चमगादड़ों की अलग अलग प्रजातियां एक जरूरी पारिस्थतिकीय भूमिका निभाती हैं जिनकी वजह से कई फसलों का जीवन संभव होता है। चमगादड़ों की स्वस्थ आबादी कीटनाशकों पर होने वाले करोड़ों डॉलर के खर्च को बचा सकती हैं और वो एक मजबूत इकोसिस्टम की निशानी हैं।---
- साइलेंट वैली यानी शांत घाटी राष्ट्रीय उद्यान केरल के पलक्कड़ जिले में नीलगिरी की पहाडिय़ों में स्थित है। यह उद्यान भारत के दक्षिण-पश्चिमी घाट के वर्षा वनों और आर्द्र उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन के आखिरी अनछुए छोर पर है। यह घाटी नीलगिरी अंतर्राष्ट्रीय जैवमंडल संरक्षित क्षेत्र के केंद्र में है और विश्व विरासत स्थल के रूप में मान्य पश्चिमी घाट का हिस्सा है।यह क्षेत्र आम भाषा में सैरंध्रीवनम कहलाता है, जिसे मलयालम भाषा में सैरंध्री का वन कहते हंै। स्थानीय हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार सैरंध्री का अर्थ द्रौपदी है। पांडव अपने वनवास के दौरान घूमते हुए केरल पहुंच गए थे, जहां वे एक जादुई घाटी में आ गए, जहां लहराते हुए घास के मैदान तंग वन घाटियों से मिलते थे, एक गहरी हरी नदी अगम्य वन में अपना रास्ता ढूंढती हुई सी लगती है, जहां सुबह और शाम, बाघ और हाथी किनारे पर एक साथ पानी पीते थे, जहां सब कुछ सामंजस्यपूर्ण था और जहां इंसान नहीं पहुंचा था। वर्ष 1847 में वनस्पतिशास्त्री रॉबर्ट वाइट शांत घाटी क्षेत्र के जलभंडारण का अनुसंधान करने के लिए गए पहले अंग्रेज थे।अंग्रेजों ने इस क्षेत्र का नाम शांत घाटी इसलिए दिया, क्योंकि वहां शोर करने वाले सिकाडा कीड़ों का अभाव था। अन्य कहानी के अनुसार इस नाम का संबंध सैरंध्री नाम के अंग्रेजी रूपांतरण से जुड़ा है। तीसरी कहानी घाटी की अनछुई प्रकृति की तरफ इशारा करती है अर्थात जहां कोई इंसानी शोर नहीं होता। शांत घाटी में लघुपुच्छ वानरों की बड़ी संख्या निवास करती है, जो कि नर-वानरों की लुप्तप्राय प्रजाति है। शांत घाटी राष्ट्रीय पार्क प्राकृतिक वर्षावनों का एक अनूठा स्थल है। यह विविध प्रकार के जीवों का वास है, जिनमें से कुछ विशेष रूप से पश्चिमी घाट के ही हैं।कुंटीपूझा नदी इस पार्क के उत्तर से दक्षिण की तरफ 15 किलोमीटर लम्बाई से गुजरती हुई भारतापूझा नदी में मिलती है। साफ, स्वच्छ और बारहमासी होना नदी की विशेषता है। शांत घाटी में वृक्ष प्रजातियों की संख्या (0.4 हेक्टेयर में 84 प्रजातियों के 118 संवहनी पौधे) बहुत ज्यादा है, जबकि दूसरे उष्ण कटिबंधीय वनों में 60 से 140 प्रजातियां ही उपलब्ध होती हैं। मुदुगार और इरुला जनजातीय लोग इस क्षेत्र के मूल निवासी हैं और वे पास की अत्तापदी संरक्षित वन्य क्षेत्र की घाटी में रहते हैं। इसके अलावा, कुरुंबर लोग पार्क के बाहर के क्षेत्र में नीलगिरी की पहाडिय़ों के निकट रहते हैं।शांत घाटी के जीवों के बारे में अध्ययन से पता चलता है कि इस घाटी में अद्भुत और दुर्लभ जीव हैं। दुर्लभ इसलिए, क्योंकि पश्चिमी घाट के पूरे क्षेत्र में इनकी कई मूल प्रजातियां मनुष्यों की बस्तियों के विस्तार या अन्य कारणों से अपने आशियाने उजडऩे के कारण लुप्तप्राय हो गयी हैं। फिर भी, इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत कम मानवीय घुसपैठ के कारण यहां शांत घाटी में कुछ विशेष प्रकार के जीव अभी भी उपलब्ध हैं। यह अद्वितीय इसलिए है कि अब तक एकत्र थोड़े बहुत आंकड़ों और वर्गीकरण, प्राणि-वृत्तांत और पारिस्थितिक अध्ययन की दृष्टि से उपलब्ध यह जानकारी वैज्ञानिक दृष्टि से बहुत दिलचस्प है। पश्चिमी घाट की शांत घाटी में 50 से 100 साल पहले तक बडी संख्या में कीड़ों, मछलियों, उभयचरों, सर्पों, और स्तनधारियों की प्रजातियां उपलब्ध थीं और अभी भी मौजूद हैं। 1970 तक यह एक अनजाना, और अछूता वन क्षेत्र था। क्षेत्र में प्रस्तावित एक पनबिजली परियोजना की घोषणा के बाद 1984 में यहां पार्क का निर्माण हुआ। अब शांत घाटी के दो क्षेत्र हैं। मुख्य क्षेत्र (89.52 वर्ग किमी) और सुरक्षित क्षेत्र (148 वर्ग किमी)। मुख्य क्षेत्र संरक्षित है और वन्य जीवन में कोई दखलंदाजी नहीं है। केवल वन विभाग के कर्मचारियों, वैज्ञानिकों, और वन्य जीवन फोटोग्राफरों यहां जाने की अनुमति है।
- जोधपुर। खेती करने के अलग-अलग तरीके होते हैं। आधुनिक तकनीक के आ जाने से अब किसान कम लागत में अधिक लाभ पाने वाली खेती करने पर जोर दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों के किसान भी अब नई तकनीक अपनाने में रुचि दिखा रहे हैं।आज हम आपको एक ऐसे किसान के बारे में बता रहे हैं, जो राजस्थान में जोधपुर और पाली जिले के सीमा के पास बसे बिलाड़ा गांव के रहने वाले हैं। इस प्रगतिशील किसान का नाम है राजाराम शीरवी राठौड़। उन्होंने अपने क्षेत्र में पानी की कमी को देखते हुए मटका खेती विकसित की है। उनका मानना है कि इस तकनीक से एक तो सिंचाई के लिए पानी कम लगता , दूसरे अच्छी पैदावार भी ली जा सकती है। इसे जैविक जुगाड़ तकनीक कहा जा सकता है। इस प्रगतिशील किसान राजाराम शीरवी राठौड़ ने पहले तो पुराने मटके जमीन में गाड़े। इसमें उन्होंने जीवामृत और डीकंपोस्ट खाद भरी। मटके में जहां छेद किए गए हैं वहां कोई छोटा पत्थर रख दिया जाता है ताकि उसमें बाहर की मिट्टी न जा पाए। इसी छेद के पास बीज बोये जाते हैं।इस विधि से बेलें सामान्य बुआई की अपेक्षा न सिर्फ काफी तेजी से बड़ी होती हैं, बल्कि वो रोगमुक्त भी होती हैं। इसमें फल भी अधिक आते हैं। उन्होंने अपनी मेढ़ों के किनारे तीन-तीन फीट पर मटके गाड़े हैं।राजाराम राठौड़ बताते हैं, इस विधि से एक बार घड़े में पानी भरने से वो करीब 2 महीने तक चलता है। उनका कहना है कि बिना किसी रासायनिक कीटनाशक और उर्वरक के इस जैविक खेती में सामान्य से अधिक उत्पादन होता है। श्री राठौड़ का कहना है कि कद्दू, लौकी, करेला, लोबिया और तरोई जैसी बेल वाली फसलें लेने के लिए किसान मटका विधि का प्रयोग कर सकते हैं। मटके में वेस्ट डीकंपोजर या जीवामृत मिला पानी डालकर उसे ऊपर से ढंक देना होता है। मटके में भरे पानी से बीजों को नमी और माइक्रोन्यूटेंट मिलते रहते हैं, जिससे वो तेजी से बढ़ते हैं। राजाराम के मुताबिक इस विधि से किसानों को अपने खेतों की मेढ़ों के पास बुआई करने से ज्यादा फायदा मिलेगा। इस विधि में एक बार जमीन में दबाया गया मटका कई वर्षों तक काम करता रहता है। बस उसमें पानी भरते रहने चाहिए।राजाराज राठौड़ करीब 150 बीघे खेत के मालिक हैं और वर्ष 2011 से जैविक खेती कर रहे हैं। अपने खेतों में वो जीरा, गेहूं, सौंफ, मिर्च, कपास जैसी फसल भी लेते हैं।---
- दरभा एक प्रकार की उष्णकटिबंधीय घास है। हिन्दू संस्कृति में इस दरभा घास को दूर्वा (दूब) के नाम से जाना जाता है। मारवाडी भाषा में इसे ध्रो कहा जाता है। हिंदी में इसे दूब, दुबडा, संस्कृत में दुर्वा, सहस्त्रवीर्य, अनंत, भार्गवी, शतपर्वा, शतवल्ली, मराठी में पाढरी दूर्वा, काली दूर्वा, गुजराती में धोलाध्रो, नीलाध्रो, अंग्रेजी में कोचग्रास, क्रिपिंग साइनोडन, बंगाली में नील दुर्वा, सादा दुर्वा आदि नामों से जाना जाता है।दरभा घास (डेस्मोटाचा बिपिन्नाटा) वैदिक शास्त्रों में पवित्र सामग्री के तौर पर माना जाता है और धार्मिक अनुष्ठानों में इसे शुद्ध करने वाला पदार्थ बताया गया है। ग्रहण के दौरान, दरभा घास को खाद्य वस्तुओं में खमीर उठाने के लिए डाला जाता है और ग्रहण के समाप्त होने के बाद उसे हटा लिया जाता था। वैदिक काल में दरभा घास का प्रयोग कीटाणुनाशक के तौर पर किया जाता था क्योंकि यह एकमात्र ऐसी घास थी जो ग्रहण के दौरान कीटाणुनाशक के रूप में इस्तेमाल की जा सकती थी। ग्रहण के दौरान नीले और पराबैगनी विकिरण जो अपने प्राकृतिक असंक्रमित प्रकृति के लिए जाने जाते हैं, पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होते। जिसके कारण ग्रहण के दौरान खाद्य उत्पादों में अनियंत्रित सूक्ष्म जीवों का विकास हो जाता है।तंजावुर के शस्त्र विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने उष्णकटिबंधीय घास दरभा को इको- फ्रेंडली भोजन संरक्षक बताया। घास दरभा पर यह अध्ययन संयुक्त रूप से सेंटर फॉर नैनोटेक्नोलॉजी एंड एडवांस्ड बायोमटेरियल्स और शस्त्र विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर एडवांस्ड रिसर्च इन इंडियन सिस्टम ऑफ मेडिसिन के क्रमश: डॉ. पी मीरा और डॉ. पी बृन्दा की देखरेख में किया गया था। दरभा घास के खमीर बनाने के गुण की खोज के क्रम में शोधकर्ताओं ने दरभा घास, लेमन ग्रास, बरमुडा ग्रास और बैंम्बू ग्रास समेत घास के पांच उष्णकटिबंधीय प्रजातियों को गाय के दही में रखा और पाया कि यह आसानी से खमीर में बदल सकता है।दरभा घास के इलेक्ट्रॉनिक माइक्रोस्कोपी ने जबरदस्त नैनो- पैटर्न और वर्गीकृत या माइक्रो संरचना दिखाया जबकि यह बात अन्य घासों में नहीं थी। वर्गीकृत सतह सुविधाओं (हिरैरकल सरफेस फीचर्स) में दरभा घास अकेला था जिसने बड़ी भारी संख्या में बैक्टिरिया को आकर्षित करते पाया गया. ये बैक्टिरिया दही के जमने के लिए जिम्मेदार हैं।दरभा का इस्तेमाल हानिकारक रसायनिक परिरक्षकों (प्रिजर्वेटिव्स) के स्थान पर प्राकृतिक खाद्य परिरक्षक के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अलावा दरभा घास पर वर्गीकृत नैनो पैटन्र्स स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में अनुप्रयोग खोज सकते हैं जहां जीवाणुहीन स्थितियां जरूरी होती हैं।पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी। दूब घास विष्णु का ही रोम है, अत: सभी देवताओं में यह पूजित हुई और अग्र पूजा के अधिकारी भगवान गणेश को अति प्रिय हुई। तभी से पूजा में दूर्वा का प्रयोग अनिवार्य हो गया।---
- देश में होली पर विभिन्न तरह की परंपराएं देखने को मिलती है। कुछ काफी अनोखी भी होती है। ऐसे ही एक परंपरा मध्यप्रदेश की भील प्रजाति में देखने को मिलती है। होली के अवसर पर भील बाहुल्य क्षेत्रों में हाट (बाजार) लगता है। यहां पर आदिवासी खरीदारी करने के लिए पहुंचते हैं, लेकिन इस दौरान जीवनसाथी चुनने की परंपरा का निर्वहन भी होता है। इस भगोरिया मेला कहा जाता है।इस हाट में आदिवासी युवा एक खास तरह का वाद्ययंत्र बजाकर नृत्य करते हैं और वहां विवाह योग्य किसी लड़की को गुलाल लगा देते हैं। बदले में यदि लड़की भी उसे गुलाल लगा देती है, तो इसे दोनों की रजामंदी मान ली जाती है। फिर लड़का उस लड़की को भगाकर ले जाता है। फिर दोनों की शादी हो जाती है। शादी के लिए परिवार वालों की सहमति जरूरी नहीं होती है।वहीं युवती द्वारा गुलाल का प्रत्युत्तर न देने पर युवक दूसरी लड़की की तलाश में जुट जाता है।इस समुदाय के लड़के-लड़कियां पूरे साल इस पर्व का इंतजार करते हैं। हर साल होली के समय होने वाले प्रणय पर्व भगोरिया मेला का इंतजार भील युवक-युवतियां पूरे साल करते हैं। इस दौरान भील समुदाय के लोग कहीं भी हों वो घर वापस जरूर आते हैं।--
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टमाटर विश्व में सबसे ज्यादा प्रयोग होने वाली सब्जी है। इसका पुराना वानस्पतिक नाम लाइकोपोर्सिकान एस्कुलेंटम मिल है। वर्तमान समय में इसे सोलेनम लाइको पोर्सिकान कहते हैं। बहुत से लोग तो ऐसे हैं जो बिना टमाटर के खाना बनाने की कल्पना भी नहीं कर सकते। इसकी उत्पत्ति दक्षिण अमेरिकी ऐन्डीज़ में हुआ। मेक्सिको में इसका भोजन के रूप में प्रयोग आरम्भ हुआ और अमेरिका के स्पेनिस उपनिवेश से होते हुये विश्वभर में फैल गया।
टमाटर में भरपूर मात्रा में कैल्शियम, फास्फोरस व विटामिन सी पाये जाते हैं। एसिडिटी की शिकायत होने पर टमाटरों की खुराक बढ़ाने से यह शिकायत दूर हो जाती है। हालांकि टमाटर का स्वाद अम्लीय होता है, लेकिन यह शरीर में क्षारीय प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है। लाल-लाल टमाटर देखने में सुन्दर और खाने में स्वादिष्ट होने के साथ पौष्टिक होते हैं। इसके खट्टे स्वाद का कारण यह है कि इसमें साइट्रिक एसिड और मैलिक एसिड पाया जाता है जिसके कारण यह प्रत्यम्ल (एंटासिड) के रूप में काम करता है। टमाटर में विटामिन ए काफी मात्रा में पाया जाता है। यह आंखों के लिये बहुत लाभकारी है।शरीर के लिए टमाटर बहुत ही लाभकारी होता है। इससे कई रोगों का निदान होता है। टमाटर शरीर से विशेषकर गुर्दे से रोग के जीवाणुओं को निकालता है। यह पेशाब में चीनी के प्रतिशत पर नियंत्रण पाने के लिए प्रभावशाली होने के कारण यह मधुमेह के रोगियों के लिए भी बहुत उपयोगी होता है। कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम होने के कारण इसे एक उत्तम भोजन माना जाता है। टमाटर से पाचन शक्ति बढ़ती है। इसके लगातार सेवन से जिगर बेहतर ढंग से काम करता है और गैस की शिकायत भी दूर होती है। जो लोग अपना वजन कम करने के इच्छुक हैं, उनके लिए टमाटर बहुत उपयोगी है। एक मध्यम आकार के टमाटर में केवल 12 कैलोरीज होती है, इसलिए इसे पतला होने के भोजन के लिए उपयुक्त माना जाता है। इसके साथ साथ यह पूरे शरीर के छोटे-मोटे विकारों को भी दूर करता है। टमाटर के नियमित सेवन से श्वास नली का शोथ कम होता है। प्राकृतिक चिकित्सकों का कहना है कि टमाटर खाने से अतिसंकुचन भी दूर होता है और खांसी तथा बलगम से भी राहत मिलती है। इसके सेवन से रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है।भारत में बेहद लोकप्रिय टमाटर की चटनी को बहुत ही कम समय में बनाया जा सकता है। यह चटनी नाश्ते में समोसे, आलू बड़ा, पकोड़े, बड़े, डबलरोटी आदि के साथ आसानी से खायी जा सकती है। वैसे टमाटर की मीठी चटनी टुमैटो कैचप या सॉस के रूप में आम बाज़ार में भी मिलती है। अब तो इसका व्यावसायिक दृष्टि से उत्पादन भी होने लगा है।वनस्पति वैज्ञानिक तौर पर टमाटर फल है। इसका अंडाशय अपने बीज के साथ सपुष्पक पौधा का है। हालांकि, टमाटर में अन्य खाद्य फल की तुलना में काफी कम शक्कर सामग्री है और इसलिए यह उतना मीठा नहीं है। यह पाक उपयोगों के लिए एक सब्जी माना जाता है।-------------- -
चिरायता (Swertia chirata) ऊंचाई पर पाया जाने वाला पौधा है। इसकी पत्तियां और छाल बहुत कड़वी होती और वैद्यक में ज्वर-नाशक तथा रक्तशोधक मानी जाती है। इसकी छोटी-बड़ी अनेक जातिया होती हैं; जैसे- कलपनाथ, गीमा, शिलारस, आदि। इसे जंगलों में पाए जानेवाले तिक्त द्रव्य के रूप में होने के कारण किराततिक्त भी कहते हैं। किरात व चिरेट्टा इसके अन्य नाम हैं। चरक के अनुसार इसे तिक्त स्कंध तृष्णा निग्रहण समूह में तथा सुश्रुत के अनुसार अरग्वध समूह में गिना जाता है।
यह हिमालय प्रदेश में कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक 4 से 10 हजार फीट की ऊंचाई पर होता है। नेपाल इसका मूल उत्पादक देश है। कहीं-कहीं मध्य भारत के पहाड़ी इलाकों व दक्षिण भारत के पहाड़ों पर उगाने के प्रयास किए गए हैं। कालमेघ को हरा चिरायता नाम भी दिया गया है। इनकी पहचान करने का एक ही तरीका है कि दिखने में एक से होते हुए भी शेष स्वाद में अर्ध तिक्त या मीठे होते हैं। छाल के अंदर की बनावट को ध्यान से देखकर भेद किया जा सकता है।मीठे चिरायते का तना आयताकार होता है तथा असली चिरायते की तुलना में मज्जा का भाग अपेक्षाकृत कम होता है। शेष सभी मिलाकर औषधियों को उनके विशिष्ट लक्षणों द्वारा पहचाना जा सकता है। चिरायते में पीले रंग का एक कड़ुवा अम्ल-ओफेलिक एसिड होता है। इस अम्ल के अतिरिक्त अन्य जैव सक्रिय संघटक हैं। दो प्रकार के कडुवे ग्लग्इकोसाइड्स चिरायनिन और एमेरोजेण्टिन, दो क्रिस्टलीयफिनॉल, जेण्टीयोपीक्रीन नामक पीले रंग का एक न्यूट्रल क्रिस्टल यौगिक तथा एक नए प्रकार का जैन्थोन जिसे सुअर्चिरन नाम दिया गया है। एमेरोजेण्टिन नामक ग्लाईकोसाइड विश्व के सर्वाधिक कड़वे पदार्थों में से एक है। इसका कड़वापन एक करोड़ चालीस लाख में एक भाग की नगण्य सी सान्द्रता पर भी अनुभव होता रहता है। यह सक्रिय घटक ही चिरायते की औषधीय क्षमता का प्रमुख कारण भी है। - छतरपुर। दुनिया में आज भी ऐसे कई रहस्य हैं, जो अभी तक रहस्य ही बने हुए हैं, क्योंकि उनके बारे में पता लगाने में वैज्ञानिक भी फेल हो गए हैं। आज हम आपको एक ऐसे रहस्यमय कुंड के बारे में बताने जा रहे हैं, जो भारत में है और इसके बारे में कहा जाता है कि कुंड की गहराई का पता आज तक वैज्ञानिक भी नहीं लगा पाए हैं। इस रहस्यमय कुंड का नाम है भीम कुंड, जो मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले करीब 70 किलोमीटर दूर बाजना गांव में स्थित है।इस कुंड की कहानी महाभारत काल से जुड़ी हुई है। इस कुंड के बारे में कहा जाता है कि महाभारत काल में जब पांडव अज्ञातवास पर थे और इधर-उधर भटक रहे थे, तो उन्हें बहुत प्यास लगी, लेकिन उन्हें कहीं भी पानी नहीं मिला। तब भीम ने अपनी गदा से जमीन पर मारकर यह कुंड बनाया और अपनी प्यास बुझायी। कहते हैं कि 40-80 मीटर चौड़ा यह कुंड देखने में बिल्कुल एक गदा के जैसा है। यह कुंड देखने में तो बिल्कुल साधारण सा लगता है, लेकिन इसकी खासियत आपको हैरान कर देगी। इस कुंड के बारे में कहा जाता है कि जब भी एशियाई महाद्वीप में कोई प्राकृतिक आपका (बाढ़, तूफान, सुनामी) घटने वाली होती है, कुंड का पानी अपने आप बढऩे लगता है।
- चंपा प्राचीन काल में अंग देश की राजधानी। विष्णु पुराण से पता चलता है कि पृथुलाक्ष के पुत्र चंप ने इस नगरी को बसाया था। जनरल कनिंघम के अनुसार भागलपुर (बिहार राज्य) के समीपस्थ ग्राम चंपा नगर और चंपापुर प्राचीन चंपा के स्थान पर ही बसे हैं।महाभारत के अनुसार जरासंध ने कर्ण को चंपा या मालिनी का राजा मान लिया था। वायु पुराण ; हरिवंश पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार भी चंपा का दूसरा नाम मालिनी था। चंपा को चंपपुरी भी कहा गया है--चंपस्य तु पुरी चंपा या मालिन्यभवत् पुरा। इससे यह भी सूचित होता है कि चंपा का पहला नाम मालिनी था और चंप नामक राजा ने उसे चंपा नाम दिया था। दिग्घनिकाय के वर्णन के अनुसार चंपा अंग देश में स्थित थी। महाभारत से सूचित होता है कि चंपा गंगा के तट पर बसी थी। प्राचीन कथाओं से सूचित होता है कि इस नगरी के चतुर्दिक् चंपक वृक्षों की मालाकार पंक्तियां थीं। इस कारण इसे चंपमालिनी या केवल मालिनी कहते थे।जातक कथाओं में इस नगरी का नाम कालचंपा भी मिलता है। महाजनक जातक के अनुसार चंपा मिथिला से साठ कोस दूर थी। इस जातक में चंपा के नगर द्वार तथा प्राचीर का वर्णन है जिसकी जैन ग्रंथों से पुष्टि होती है। औपपातिक सूत्र में नगर के परकोटे, अनेक द्वारों, उद्यानों, प्रसादों आदि के बारे में निश्चित निर्देश मिलते हैं। जातक-कथाओं में चंपा की श्री, समृद्धि तथा यहां के सम्पन्न व्यापारियों का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। चंपा में कौशेय या रेशम का सुन्दर कपड़ा बुना जाता था जिसका दूर-दूर तक भारत से बाहर दक्षिणयहां से पूर्व एशिया के अनेक देशों तक व्यापार होता था। (रेशमी कपड़े की बुनाई की यह परम्परा वर्तमान भागलपुर में अभी तक चल रही है)। चंपा के व्यापारियों ने हिन्द-चीन पहुंचकर वर्तमान अनाम के प्रदेश में चंपा नामक भारतीय उपनिवेश स्थापित किया था। साहित्य में चंपा का कुणिक अजातशत्रु की राजधानी के रूप में वर्णन है। औपपातिक-सूत्र में इस नगरी का सुंदर वर्णन है और नगरी में पुष्यभद्र की विश्रामशाला, वहां के उद्यान में अशोक वृक्षों की विद्यमानता और कुणिक और उसकी महारानी धारिणी का चंपा से सम्बन्ध आदि बातों का उल्लेख है। इसी ग्रंथ में तीर्थंकर महावीर का चंपा में समवशरण करने और कुणिक की चंपा की यात्रा का भी वर्णन है। चंपा के कुछ शासनाधिकारियों जैसे गणनायक, दंडनायक और तालवार के नाम भी इस सूत्र में दिए गए हैं।जैन उत्तराध्ययन सूत्र में चंपा के धनी व्यापारी पालित की कथा है जो महावीर का शिष्य था। जैन ग्रंथ विविधतीर्थकल्प में इस नगरी की जैनतीर्थों में गणना की गई है। इस ग्रंथ के अनुसार बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्म चंपा में हुआ था। इस नगरी के शासक करकंडु ने कुण्ड नामक सरोवर में पार्श्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी। वीरस्वामी ने वर्षाकाल में यहाँ तीन रातें बिताई थीं। कुणिक (अजातशत्रु) ने अपने पिता बिंबसार की मृत्यु के पश्चात राजगृह छोड़कर यहां अपनी राजधानी बनाई थी।युवानच्वांग (वाटर्स 2,181) ने चंपा का वर्णन अपने यात्रावृत्त में किया है। दशकुमार चरित्र 2, चरित्रों में चंपा का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि यह नगरी 7वीं शती ई. या उसके बाद तक भी प्रसिद्ध थी। चंपापुर के पास कर्णगढ़ की पहाड़ी (भागलपुर के निकट) है जिससे महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अंगराज कर्ण से चंपा का सम्बन्ध प्रकट होता है। चंपा इसी नाम की नदी और गंगा के संगम पर स्थित थी।--
- बीगल- बीगल बेहद वफादार माने जाते हैं। ये आमतौर पर खुश रहते हैं। इन कुत्तों को अक्सर प्रतियोगिताओं में आप पुरस्कार जीतते भी देखते होंगे। बीगल को प्रशिक्षण देना आसान है, ये विनम्र होते हैं, लेकिन इस कुत्ते में अपने बारे में सोचने की काबिलियत नहीं होती।मैसटिफ- कुत्तों की यह प्रजाति इंसानों के साथ गहरी दोस्ती गांठती है, लेकिन अच्छे दिल का यह मतलब नहीं कि यह कुत्ता होशियार भी है। मैसटिफ को जटिल निर्देश समझने और उनके आधार पर काम करने में दिक्कत होती है. इन्हें बहुत प्रशिक्षण देना बेकार है।बुलडॉग- बुलडॉग से दोस्ती करना और इसके साथ खेलना आसान है, लेकिन इसकी इन्हीं खूबियों की वजह से यह मालिक पर निर्भर भी रहता है। अगर इन्हें अकेला छोड़ा जाए तो ये घर का कोई एक कोना या फर्नीचर पकड़ कर वहीं बैठे रहना पसंद करते हैं।चिहुआहुआ- इस कुत्ते का भी अपने मालिक से खास संबंध होता है., लेकिन इसके अलावा वे किसी और बात की खास परवाह नहीं करते। चिहुआहुआ को अक्सर मतलबी भी माना जाता है। ये थोड़े बिगड़ैल और ढीठ भी होते हैं, जो करना चाहते हैं, वही करते हैं। इस तरह के कुत्तों के लिए ट्रेनिंग स्कूलों में खास जगह नहीं।वायमरानर- वायमरानर को समझदार कुत्ता माना जाता है, लेकिन जानवरों के डॉक्टर बताते हैं कि ये कुत्ते एक जगह खामोशी से नहीं बैठ सकते। ये कुत्ते अक्सर भाग भी जाते हैं और फिर परेशानी में फंसे पाए जाते हैं।आयरिश सेटर- आयरिश सेटर को रोमांच अच्छा लगता है, लेकिन इस कुत्ते को अपनी सीमा का सही अंदाजा नहीं होता। वह निर्धारित नहीं कर पाता कि कहां उसकी हद खत्म हो रही है और कहां वह नियम तोड़ रहा है। अगर इसकी ठीक ट्रेनिंग ना हो तो मदद की बजाय यह कुत्ता मालिक के लिए सिरदर्द बन सकता है।पग- पग के लिए सबसे अहम इसकी भूख है। इसे मालिक से खाना मांगना खूब आता है, लेकिन अगर इसके साथ कोई ऐसा खेल या काम करना चाहते हैं जिसमें खाने का कोई जिक्र ना हो तो ये परवाह नहीं करते।----
- महाराष्ट्र के बुलढाना जिले की लोनार झील अपने अंदर कई रहस्यों को समेटे है। लगभग 5 लाख 70 हजार साल पुरानी इस झील का जिक्र पुराणों, वेदों और दंत कथाओं में भी है। आकाशीय उल्का पिंड की टक्कर से निर्मित खारे पानी की दुनिया की पहली झील है लोनार। इसका खारा पानी इस बात का प्रतीक है कि कभी यहां समुद्र हुआ करता था।लोनार झील के सन्दर्भ में स्कन्द पुराण में बहुत रोचक कहानी है। बताते हैं कि इस इलाके में लोनासुर नामक एक दानव रहा करता था। उसने आस-पास के देशों को तो अपने कब्जे में ले ही लिया था, देवताओं को भी युद्ध की खुली चुनौती दे दी थी। उसके आतंक से त्रस्त होकर मनुष्य तो मनुष्य, देवताओं ने भी विष्णु से लोनासुर से रक्षा करने की अपील की। भगवान विष्णु ने आनन-फानन में एक ख़ूबसूरत युवक को तैयार किया, जिसका नाम दैत्यसुदन रखा गया। दैत्यसुदन ने पहले लोनासुर की दोनों बहनों को अपने मोहपाश में बांधा फिर एक दिन उनकी मदद से उस एक मांद का मुख्यद्वार खोल दिया, जिसमें लोनासुर छिपा बैठा था। महीनों तक दैत्यसुदन और लोनासुर में युद्ध चलता रहा और अंत में लोनासुर मारा गया। मौजूदा लोनार झील लोनासुर की मांद है और लोनार से लगभग 36 किमी दूर स्थित दातेफाल की पहाड़ी में उस मांद का ढक्कन मौजूद है। पुराण में झील के पानी को लोनासुर का रक्त और उसमें मौजूद नमक को लोनासुर का मांस बताया गया है।नासा से लेकर दुनिया की तमाम एजेंसियां इस झील पर शोध कर चुकी हैं। लोनार झील का जिक्र ऋग्वेद और स्कंद पुराण में भी मिलता है। पद्म पुराण और आईन-ए-अकबरी में भी इसका जिक्र है। कहते हैं कि अकबर झील का पानी सूप में डालकर पीता था। हालांकि, इसे पहचान 1823 में मिली उस वक्त मिली, जब ब्रिटिश अधिकारी जेई अलेक्जेंडर यहां पहुंचे थे।लोनार झील के पास कई प्राचीन मंदिरों के भी अवशेष हैं। इनमें दैत्यासुदन मंदिर भी शामिल है। यह भगवान विष्णु, दुर्गा, सूर्य और नरसिम्हा को समर्पित है। इसके अलावा यहां प्राचीन लोनारधर मंदिर, कमलजा मंदिर, मोठा मारुति मंदिर मौजूद हैं। इनका निर्माण करीब 1000 साल पहले यादव वंश के राजाओं ने कराया था। 10वीं शताब्दी में झील के खारे पानी के तट पर शिव मंदिर का निर्माण हुआ था जिसमें 12 शिवलिंग स्थापित किए गए थे।---