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- पाबूजी की फड़ एक प्रकार का गीत नाट्य है, जिसे अभिनय के साथ गाया जाता है। यह राजस्थान में विख्यात है। फड़ लम्बे कपड़े पर बनाई गई एक कलाकृति होती है, जिसमें किसी लोक देवता (विशेष रूप से पाबूजी या देवनारायण) की कथा का चित्रण किया जाता है। फड़ को लकड़ी पर लपेट कर रखा जाता है। इसे धीरे-धीरे खोल कर भोपा तथा भोपी द्वारा लोक देवता की कथा को गीत व संगीत के साथ सुनाया जाता है। पाबूजी के अलावा अन्य लोकप्रिय फड़ देवनारायण जी की फड़ होती है।राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता पाबूज के यशगान में पावड (गीत) गाये जाते हैं और मनौती पूर्ण होने पर फड़ भी बांची जाती है। पाबूजी की फड़ पूरे राजस्थान में विख्यात है, जिसे भोपे बांचते हैं। ये भोपे विशेषकर थोरी जाति के होते हैं। फड़ कपड़े पर पाबूजी के जीवन प्रसंगों के चित्रों से युक्त एक पेंटिंग होती है। भोपे पाबूजी के जीवन कथा को इन चित्रों के माध्यम से कहते हैं और गीत भी गाते हैं। इन भोपों के साथ एक स्त्री भी होती है, जो भोपे के गीतोच्चारण के बाद सुर में सुर मिलाकर पाबूजी की जीवन लीलाओं के गीत गाती है। फड़ के सामने ये नृत्य भी करते हैं। ये गीत रावण हत्था पर गाये जाते हैं, जो सारंगी के जैसा वाद्य यंत्र होता है। पाबूजी की फड़ लगभग 30 फीट लम्बी तथा 5 फीट चौड़ी होती है। इस फड़ को एक बांस में लपेट कर रखा जाता है।राजस्थान में कुछ जगहों पर जाति विशेष के भोपे पेशेवर पुरोहित होते हैं। उनका मुख्य कार्य किसी मन्दिर में देवता की पूजा करना तथा देवता के आगे नाचना, गाना तथा कीर्तन आदि करना होता है। पाबूजी तथा देवनारायण के भोपे अपने संरक्षकों (धाताओं) के घर पर जाकर अपना पेशेवर गाना व नृत्य के साथ फड़ के आधार पर लोक देवता की कथा कहते हैं। राजस्थान में पाबूजी तथा देवनारायण के भक्त लाखों की संख्या में हैं। इन लोक देवताओं को कुटुम्ब के देवता के रूप में पूजा जाता है और उनकी वीरता के गीत चारण और भाटों द्वारा गाए जाते हैं। भोपों ने पाबूजी और देवनारायण जी की वीरता के सम्बन्ध में सैंकड़ों लोक गीत रचें हैं और इनकी गीतात्मक शौर्यगाथा को इनके द्वारा फड़ का प्रदर्शन करके आकर्षक और रोचक ढंग से किया जाता है। पाबूजी के भोपों ने पाबूजी की फड़ के गीत को अभिनय के साथ गाने की एक विशेष शैली विकसित कर ली है।
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जकार्ता। तनाह लोत मंदिर इंडोनेशिया का सबसे खूबसूरत प्राचीन मंदिरों में एक है। यह समुद्र देवता को समर्पित है। यह मंदिर बाली द्वीप की एक बहुत बड़ी समुद्री चट्टान पर बना हुआ है। यह मंदिर आस-पास फैली प्राकृतिक छटा की वजह से देखने में काफी सुंदर लगता है। अनुमान के अनुसार इसका निर्माण 15 वीं शताब्दी में हुआ है।
यह मंदिर जिस चट्टान पर बना है, उसका निर्माण हजारों साल के दौरान समुद्री पानी के ज्वार से हुए क्षरण के फलस्वरूप हुआ है।इस अनोखे मंदिर के बनने की कहानी भी बेहद ही रोचक है। इस मंदिर का नाम तनाह लोत है। तनाह लोट का मतलब समुद्री भूमि (समुद्र में भूमि) होता है। यह मंदिर बाली में सागर तट पर बने उन सात मंदिरों में से एक है, जिन्हें एक श्रृंखला के रूप में बनाया गया है, जिसकी खासियत ये है कि हर मंदिर से अगला मंदिर स्पष्ट दिखता है। यह मंदिर जिस शिला पर टिका हुआ है, वह 1980 में कमजोर होकर झडऩे लगी थी, जिसके बाद मंदिर और उसके आसपास के क्षेत्र को खतरनाक घोषित कर दिया गया था। बाद में जापान की सरकार ने इसे बचाने के लिए इंडोनेशियाई सरकार की मदद की थी। तब जाकर चट्टान के लगभग एक तिहाई हिस्से को कृत्रिम चट्टान से ढंककर एक नया रूप दिया गया।कहते हैं कि तनाह लोत मंदिर का निर्माण 15वीं सदी में निरर्थ नाम के एक पुजारी ने कराया था। समुद्र तट के किनारे-किनारे चलते हुए वो इस जगह पर पहुंचे थे, जिसके बाद इस जगह की सुंदरता उन्हें भा गई। वो यहां रात भर ठहरे भी थे। उन्होंने ही आसपास के मछुआरों से इस जगह पर समुद्र देवता का मंदिर बनाने का आग्रह किया था। इस मंदिर में पुजारी निरर्थ की भी पूजा होती है। माना जाता है कि बुरी आत्माओं और बुरे लोगों से इस मंदिर की सुरक्षा इसकी शिला के नीचे रहने वाले विषैले और खतरनाक सांप करते हैं। कहते हैं कि पुजारी निरर्थ ने अपनी शक्ति से एक विशाल समुद्री सांप को पैदा किया था, जो आज भी इस मंदिर की सुरक्षा में तैनात है।तनाह लोत मंदिर सागर तट पर बने उन सात मंदिरों में से एक है जिन्हें एक श्रृंखला के रूप में बनाया गया है। सूर्यास्त के समय इस मंदिर की जो आभा होती है, उसे सैलानी अभूतपूर्व कहते हैं।-- - लखनऊ भारत के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी है। इस शहर में, लखनऊ जिला और लखनऊ मंडल का प्रशासनिक मुख्यालय भी है। लखनऊ शहर अपनी खास नज़ाकत और तहजीब वाली बहुसांस्कृतिक खूबी, दशहरी आम के बाग़ों तथा चिकन की कढ़ाई के काम के लिये जाना जाता है।लखनऊ प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा था। यह भगवान राम की विरासत थी जिसे उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण को समर्पित कर दिया था। इसलिए इसे लक्ष्मणावती, लक्ष्मणपुर या लखनपुर के नाम से जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया। यहां से अयोध्या भी मात्र 40 मील दूरी पर स्थित है। एक अन्य कथा के अनुसार इस शहर का नाम, लखन अहीर जो कि लखन किले के मुख्य कलाकार थे, के नाम पर रखा गया था। लखनऊ के वर्तमान स्वरूप की स्थापना नवाब आसफउद्दौला ने 1775 ई. में की थी। अवध के शासकों ने लखनऊ को अपनी राजधानी बनाकर इसे समृद्ध किया। लेकिन बाद के नवाब विलासी और निकम्मे सिद्ध हुए। इन नवाबों के काहिल स्वभाव के परिणामस्वरूप आगे चलकर लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध का बिना युद्ध ही अधिग्रहण कर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। 1850 में अवध के अन्तिम नवाब वाजिद अली शाह ने ब्रिटिश अधीनता स्वीकार कर ली। लखनऊ के नवाबों का शासन इस प्रकार समाप्त हुआ।सन 1902 में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूनाइटेड प्रोविन्स या यूपी कहा गया। सन 1920 में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद से बदल कर लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ स्थापित की गयी। स्वतंत्रता के बाद 12 जनवरी सन 1950 में इस क्षेत्र का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रख दिया गया और लखनऊ इसकी राजधानी बना। इस तरह यह अपने पूर्व लघुनाम यूपी से जुड़ा रहा। गोविंद वल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री बने। अक्टूबर 1963 में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश एवं भारत की प्रथम महिला मुख्यमंत्री बनीं।---
- महाभारत के अनुसार जरासंध ने कर्ण को चंपा या मालिनी का राजा मान लिया था। प्राचीन काल में चंपा नगरी अंग देश की राजधानी थी। अंग प्रदेश 16 महाजनपदों में एक है। चंपा नगरी इसी नाम की नदी और गंगा के संगम पर स्थित थी। यह भागलपुर जिले (बिहार राज्य) का हिस्सा है। विष्णु पुराण में उल्लेख है कि पृथुलाक्ष के पुत्र चंप ने इस नगरी को बसाया था--ततश्चंपो यशच्म्पां निवेश्यामास।जनरल कनिंघम के अनुसार भागलपुर के समीपस्थ ग्राम चंपा नगर और चंपापुर प्राचीन चंपा के स्थान पर ही बसे हैं। वायु पुराण ; हरिवंश पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार भी चंपा का दूसरा नाम मालिनी था। चंपा को चंपपुरी भी कहा गया है--चंपस्य तु पुरी चंपा या मालिन्यभवत् पुरा। इससे यह भी सूचित होता है कि चंपा का पहला नाम मालिनी था और चंप नामक राजा ने उसे चंपा नाम दिया था।दिग्घनिकाय के वर्णन के अनुसार चंपा अंग देश में स्थित थी। महाभारत से सूचित होता है कि चंपा गंगा के तट पर बसी थी--चर्मण्वत्याश्च यमुनां ततो गंगा जगाम ह, गंगाया सूत विषयं चंपामनुययौ पुरीम। प्राचीन कथाओं से सूचित होता है कि इस नगरी के चतुर्दिक् चंपक वृक्षों की मालाकार पंक्तियां थीं। इस कारण इसे चंपमालिनी या केवल मालिनी कहते थे।जातक कथाओं में इस नगरी का नाम कालचंपा भी मिलता है। महाजनक जातक के अनुसार चंपा मिथिला से साठ कोस दूर थी। इस जातक में चंपा के नगर द्वार तथा प्राचीर का वर्णन है जिसकी जैन ग्रंथों से पुष्टि होती है। औपपातिक सूत्र में नगर के परकोटे, अनेक द्वारों, उद्यानों, प्रसादों आदि के बारे में निश्चित निर्देश मिलते हैं। जातक-कथाओं में चंपा की श्री, समृद्धि तथा यहां के सम्पन्न व्यापारियों का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। चंपा में कौशेय या रेशम का सुन्दर कपड़ा बुना जाता था जिसका दूर-दूर तक भारत से बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों तक व्यापार होता था। (रेशमी कपड़े की बुनाई की यह परम्परा वर्तमान भागलपुर में अभी तक चल रही है)।चंपा के व्यापारियों ने हिन्द-चीन पहुंचकर वर्तमान अनाम के प्रदेश में चंपा नामक भारतीय उपनिवेश स्थापित किया था। साहित्य में चंपा का कुणिक अजातशत्रु की राजधानी के रूप में वर्णन है। औपपातिक-सूत्र में इस नगरी का सुंदर वर्णन है और नगरी में पुष्यभद्र की विश्रामशाला, वहां के उद्यान में अशोक वृक्षों की विद्यमानता और कुणिक और उसकी महारानी धारिणी का चंपा से सम्बन्ध आदि बातों का उल्लेख है। इसी ग्रंथ में तीर्थंकर महावीर का चंपा में समवशरण करने और कुणिक की चंपा की यात्रा का भी वर्णन है। चंपा के कुछ शासनाधिकारियों जैसे गणनायक, दंडनायक और तालवार के नाम भी इस सूत्र में दिए गए हैं।जैन उत्तराध्ययन सूत्र में चंपा के धनी व्यापारी पालित की कथा है जो महावीर का शिष्य था। जैन ग्रंथ विविधतीर्थकल्प में इस नगरी की जैनतीर्थों में गणना की गई है। इस ग्रंथ के अनुसार बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्म चंपा में हुआ था। इस नगरी के शासक करकंडु ने कुण्ड नामक सरोवर में पाश्र्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी। वीरस्वामी ने वर्षाकाल में यहां तीन रातें बिताई थीं। कुणिक (अजातशत्रु) ने अपने पिता बिंबसार की मृत्यु के पश्चात राजगृह छोड़कर यहाँ अपनी राजधानी बनाई थी।युवानच्वांग (वाटर्स 2,181) ने चंपा का वर्णन अपने यात्रावृत्त में किया है। दशकुमार चरित्र 2, चरित्रों में चंपा का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि यह नगरी 7वीं शती ई. या उसके बाद तक भी प्रसिद्ध थी। चंपापुर के पास कर्णगढ़ की पहाड़ी (भागलपुर के निकट) है जिससे महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अंगराज कर्ण से चंपा का संबंध प्रकट होता है।--महाभारत के अनुसार जरासंध ने कर्ण को चंपा या मालिनी का राजा मान लिया था। प्राचीन काल में चंपा नगरी अंग देश की राजधानी थी। अंग प्रदेश 16 महाजनपदों में एक है। चंपा नगरी इसी नाम की नदी और गंगा के संगम पर स्थित थी। यह भागलपुर जिले (बिहार राज्य) का हिस्सा है। विष्णु पुराण में उल्लेख है कि पृथुलाक्ष के पुत्र चंप ने इस नगरी को बसाया था--ततश्चंपो यशच्म्पां निवेश्यामास।जनरल कनिंघम के अनुसार भागलपुर के समीपस्थ ग्राम चंपा नगर और चंपापुर प्राचीन चंपा के स्थान पर ही बसे हैं। वायु पुराण ; हरिवंश पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार भी चंपा का दूसरा नाम मालिनी था। चंपा को चंपपुरी भी कहा गया है--चंपस्य तु पुरी चंपा या मालिन्यभवत् पुरा। इससे यह भी सूचित होता है कि चंपा का पहला नाम मालिनी था और चंप नामक राजा ने उसे चंपा नाम दिया था।दिग्घनिकाय के वर्णन के अनुसार चंपा अंग देश में स्थित थी। महाभारत से सूचित होता है कि चंपा गंगा के तट पर बसी थी--चर्मण्वत्याश्च यमुनां ततो गंगा जगाम ह, गंगाया सूत विषयं चंपामनुययौ पुरीम। प्राचीन कथाओं से सूचित होता है कि इस नगरी के चतुर्दिक् चंपक वृक्षों की मालाकार पंक्तियां थीं। इस कारण इसे चंपमालिनी या केवल मालिनी कहते थे।जातक कथाओं में इस नगरी का नाम कालचंपा भी मिलता है। महाजनक जातक के अनुसार चंपा मिथिला से साठ कोस दूर थी। इस जातक में चंपा के नगर द्वार तथा प्राचीर का वर्णन है जिसकी जैन ग्रंथों से पुष्टि होती है। औपपातिक सूत्र में नगर के परकोटे, अनेक द्वारों, उद्यानों, प्रसादों आदि के बारे में निश्चित निर्देश मिलते हैं। जातक-कथाओं में चंपा की श्री, समृद्धि तथा यहां के सम्पन्न व्यापारियों का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। चंपा में कौशेय या रेशम का सुन्दर कपड़ा बुना जाता था जिसका दूर-दूर तक भारत से बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों तक व्यापार होता था। (रेशमी कपड़े की बुनाई की यह परम्परा वर्तमान भागलपुर में अभी तक चल रही है)।चंपा के व्यापारियों ने हिन्द-चीन पहुंचकर वर्तमान अनाम के प्रदेश में चंपा नामक भारतीय उपनिवेश स्थापित किया था। साहित्य में चंपा का कुणिक अजातशत्रु की राजधानी के रूप में वर्णन है। औपपातिक-सूत्र में इस नगरी का सुंदर वर्णन है और नगरी में पुष्यभद्र की विश्रामशाला, वहां के उद्यान में अशोक वृक्षों की विद्यमानता और कुणिक और उसकी महारानी धारिणी का चंपा से सम्बन्ध आदि बातों का उल्लेख है। इसी ग्रंथ में तीर्थंकर महावीर का चंपा में समवशरण करने और कुणिक की चंपा की यात्रा का भी वर्णन है। चंपा के कुछ शासनाधिकारियों जैसे गणनायक, दंडनायक और तालवार के नाम भी इस सूत्र में दिए गए हैं।जैन उत्तराध्ययन सूत्र में चंपा के धनी व्यापारी पालित की कथा है जो महावीर का शिष्य था। जैन ग्रंथ विविधतीर्थकल्प में इस नगरी की जैनतीर्थों में गणना की गई है। इस ग्रंथ के अनुसार बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्म चंपा में हुआ था। इस नगरी के शासक करकंडु ने कुण्ड नामक सरोवर में पाश्र्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी। वीरस्वामी ने वर्षाकाल में यहां तीन रातें बिताई थीं। कुणिक (अजातशत्रु) ने अपने पिता बिंबसार की मृत्यु के पश्चात राजगृह छोड़कर यहाँ अपनी राजधानी बनाई थी।युवानच्वांग (वाटर्स 2,181) ने चंपा का वर्णन अपने यात्रावृत्त में किया है। दशकुमार चरित्र 2, चरित्रों में चंपा का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि यह नगरी 7वीं शती ई. या उसके बाद तक भी प्रसिद्ध थी। चंपापुर के पास कर्णगढ़ की पहाड़ी (भागलपुर के निकट) है जिससे महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अंगराज कर्ण से चंपा का संबंध प्रकट होता है।--महाभारत के अनुसार जरासंध ने कर्ण को चंपा या मालिनी का राजा मान लिया था। प्राचीन काल में चंपा नगरी अंग देश की राजधानी थी। अंग प्रदेश 16 महाजनपदों में एक है। चंपा नगरी इसी नाम की नदी और गंगा के संगम पर स्थित थी। यह भागलपुर जिले (बिहार राज्य) का हिस्सा है। विष्णु पुराण में उल्लेख है कि पृथुलाक्ष के पुत्र चंप ने इस नगरी को बसाया था--ततश्चंपो यशच्म्पां निवेश्यामास।जनरल कनिंघम के अनुसार भागलपुर के समीपस्थ ग्राम चंपा नगर और चंपापुर प्राचीन चंपा के स्थान पर ही बसे हैं। वायु पुराण ; हरिवंश पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार भी चंपा का दूसरा नाम मालिनी था। चंपा को चंपपुरी भी कहा गया है--चंपस्य तु पुरी चंपा या मालिन्यभवत् पुरा। इससे यह भी सूचित होता है कि चंपा का पहला नाम मालिनी था और चंप नामक राजा ने उसे चंपा नाम दिया था।दिग्घनिकाय के वर्णन के अनुसार चंपा अंग देश में स्थित थी। महाभारत से सूचित होता है कि चंपा गंगा के तट पर बसी थी--चर्मण्वत्याश्च यमुनां ततो गंगा जगाम ह, गंगाया सूत विषयं चंपामनुययौ पुरीम। प्राचीन कथाओं से सूचित होता है कि इस नगरी के चतुर्दिक् चंपक वृक्षों की मालाकार पंक्तियां थीं। इस कारण इसे चंपमालिनी या केवल मालिनी कहते थे।जातक कथाओं में इस नगरी का नाम कालचंपा भी मिलता है। महाजनक जातक के अनुसार चंपा मिथिला से साठ कोस दूर थी। इस जातक में चंपा के नगर द्वार तथा प्राचीर का वर्णन है जिसकी जैन ग्रंथों से पुष्टि होती है। औपपातिक सूत्र में नगर के परकोटे, अनेक द्वारों, उद्यानों, प्रसादों आदि के बारे में निश्चित निर्देश मिलते हैं। जातक-कथाओं में चंपा की श्री, समृद्धि तथा यहां के सम्पन्न व्यापारियों का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। चंपा में कौशेय या रेशम का सुन्दर कपड़ा बुना जाता था जिसका दूर-दूर तक भारत से बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों तक व्यापार होता था। (रेशमी कपड़े की बुनाई की यह परम्परा वर्तमान भागलपुर में अभी तक चल रही है)।चंपा के व्यापारियों ने हिन्द-चीन पहुंचकर वर्तमान अनाम के प्रदेश में चंपा नामक भारतीय उपनिवेश स्थापित किया था। साहित्य में चंपा का कुणिक अजातशत्रु की राजधानी के रूप में वर्णन है। औपपातिक-सूत्र में इस नगरी का सुंदर वर्णन है और नगरी में पुष्यभद्र की विश्रामशाला, वहां के उद्यान में अशोक वृक्षों की विद्यमानता और कुणिक और उसकी महारानी धारिणी का चंपा से सम्बन्ध आदि बातों का उल्लेख है। इसी ग्रंथ में तीर्थंकर महावीर का चंपा में समवशरण करने और कुणिक की चंपा की यात्रा का भी वर्णन है। चंपा के कुछ शासनाधिकारियों जैसे गणनायक, दंडनायक और तालवार के नाम भी इस सूत्र में दिए गए हैं।जैन उत्तराध्ययन सूत्र में चंपा के धनी व्यापारी पालित की कथा है जो महावीर का शिष्य था। जैन ग्रंथ विविधतीर्थकल्प में इस नगरी की जैनतीर्थों में गणना की गई है। इस ग्रंथ के अनुसार बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्म चंपा में हुआ था। इस नगरी के शासक करकंडु ने कुण्ड नामक सरोवर में पाश्र्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी। वीरस्वामी ने वर्षाकाल में यहां तीन रातें बिताई थीं। कुणिक (अजातशत्रु) ने अपने पिता बिंबसार की मृत्यु के पश्चात राजगृह छोड़कर यहाँ अपनी राजधानी बनाई थी।युवानच्वांग (वाटर्स 2,181) ने चंपा का वर्णन अपने यात्रावृत्त में किया है। दशकुमार चरित्र 2, चरित्रों में चंपा का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि यह नगरी 7वीं शती ई. या उसके बाद तक भी प्रसिद्ध थी। चंपापुर के पास कर्णगढ़ की पहाड़ी (भागलपुर के निकट) है जिससे महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अंगराज कर्ण से चंपा का संबंध प्रकट होता है।--
- कोई कीड़ा करीब 10 लाख रुपए प्रति किलो में मिलता है, यह आश्चर्य में डालने वाली बात है, पर यह सच है। भारत में इसे कीड़ा जड़ी के नाम से जाना जाता है। वहीं नेपाल और चीन में इसे यार्सागुम्बा कहते हैं। तिब्बत में इसका नाम यार्सागन्बू है। अंग्रेजी में इसे कैटरपिलर फंगस कहते हैं, क्योंकि यह फंगस (कवक) की प्रजाति से ही संबंध रखता है।यह एक तरह का जंगली मशरूम है जो हैपिलस फैब्रिकस नाम के एक कीड़े के ऊपर उगता है। पीले-भूरे रंग की इस जड़ी का आधा हिस्सा कीड़ा और आधा हिस्सा जड़ी जैसा नजर आता है, इसलिए इसे कीड़ा जड़ी कहा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम कॉर्डिसेप्स साइनेसिस है।कीड़ा जड़ी हिमालय में समुद्र तल से 3,500 से लेकर 5,000 मीटर तक की ऊंचाई पर मिलती है। उत्तराखंड में कुमाऊं के धारचुला और गढ़वाल के चमोली में कई परिवारों के लिए यह आजीविका का साधन है। वह इन जड़ी को इक_ा करके बेचते हैं। भारत के उत्तराखंड के अलावा यह जड़ी चीन, नेपाल और भूटान के हिमालयी क्षेत्रों में भी मिलती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह जड़ी करीब 18 लाख रुपये किलो बिकती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी भारी मांग को देखते हुए इसकी तस्करी भी होती है।यह महंगा इसलिए बिकता है, क्योंकि इसका इस्तेमाल ताकत बढ़ाने की दवाओं समेत कई कामों में होता है। माना जाता है कि यह रोग प्रतिरक्षक क्षमता को बढ़ाता है और फेफड़े के इलाज में भी यह काफी कारगर है। बरसों से इसका इस्तेमाल जड़ी- बूटी में किया जा रहा है।कीड़ा जड़ी का इस्तेमाल प्राकृतिक स्टीरॉयड की तरह किया जाता है। यौन शक्ति बढ़ाने में यह जड़ी काफी असरदार है। इसी वजह से इसे हिमालयी वायग्रा के नाम से जाना जाता है। जहां अंग्रेजी वायग्रा के इस्तेमाल से दिल को कमजोर होने का खतरा रहता है, वहीं इस जड़ी के इस्तेमाल से स्वास्थ्य पर कोई खराब असर नहीं पड़ता है। कैंसर जैसी बीमारी के इलाज में भी इस जड़ी को काफी असरदार माना जाता है। आयुर्वेद के मुताबिक, सांस और गुर्दे की बीमारी को सही करने में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। साथ ही यह जड़ी शरीर में रोगरोधी क्षमता को भी बढ़ाती है।भारत के कई हिस्सों में, कैटरपिलर कवक का संग्रह कानूनी है, लेकिन इसका व्यापार अवैध है। पहले नेपाल में यह कीड़ा प्रतिबंधित था, लेकिन बाद में इस प्रतिबंध को हटा दिया गया।
- मधुमक्खियां फूलों के रस से शहद का निर्माण करती हैं और उससे अपने छत्ते में जमा करके रखती हैं, जिससे सर्दी के मौसम में उनके पास खाने-पीने की कमी न हो। मधुमक्खियों का छत्ता मोम से बनता है और 1 ग्राम मोम बनाने के लिए मधुमक्खी 16 ग्राम शहद का प्रयोग करती हैं। यह छत्ता मधुमक्खियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके प्रत्येक कोष्ठ का प्रयोग मधुमक्खियां अपने बच्चों (लार्वा) को रखने और शहद को जमा करने के लिए करतीं हैं।हरेक कोष्ठ की दीवारें इस प्रकार बनी होतीं हैं कि वे एक दूसरे को 120 डिग्री के कोण पर काटती हैं और एक व्यापक षट्कोण समिति के साथ छत्ता बनाती हैं। सराहना योग्य बात ये है की मधुमक्खियां हरेक कोष्ठ को बिल्कुल सही दूरी पर और एकदम सटीक कोण पर बनाती हैं। ये वाकई में प्रशंसनीय है। मधुमक्खियां बिना इंजीनियरिंग पढ़े हुए भी अच्छी इंजीनियर होती हैं। किंतु, मधुमक्खी के छत्ते के कोष्ट षट्कोण आकार के होते क्यों हैं?यही प्रश्न बहुत से वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में भी आया और इस पर शोध किया गया। शोध के अनुसार इस प्रकार बनाया गया ढांचा, निश्चित आयतन में कम से कम मोम का उपयोग करके बनाया जा सकता है। मधुमक्खियों से मनुष्य ने सीखा कि कैसे कम से कम सामग्री का उपयोग करके अधिक से अधिक मजबूत ढांचे बनाये जा सकते हैं।अगर फूलों के आस-पास मंडराते समय मधुमक्खियों को खतरे का आभास होता है तो वे अपने ही अंदाज में अपने साथियों को खतरे के प्रति आगाह कर देती हैं। वैज्ञानिकों को इस बात का तब पता चला जब उन्होंने कुछ फूलों के पास मरी हुई मधुमक्खियां रख दीं और फिर अध्ययन किया कि वहां आने वाली अन्य मधुमक्खियां खतरे के प्रति क्या प्रतिक्रिया देती हैं। अध्ययन से पता चला कि खतरे को भांपते ही वे एक अनोखे नृत्य (वैगल डांस) के ज़रिए दूसरी मधुमक्खियों तक संदेश पहुंचा देती हैं कि आगे खतरा है। जब मधुमक्खियां अपने छत्ते की ओर वापस आती हैं तो ये एक जटिल किस्म का नृत्य करती हैं। इसके बारे में 40 साल पहले पता लगाया गया था। अगर उन्हें लगता है कि फूलों के आस-पास मकडिय़ों आदि के जाल में फंसने का ख़तरा है तो वे छत्ते पर लौटकर ऐसा नहीं करती। यानी मधुमक्खियों ये पता लगा लेती हैं कि कुछ फूलों के पास जाना खतरनाक हो सकता है और वे खतरे का ये संदेश अपने विगल डांस के माध्यम से दूसरे साथियों को भी देती हैं।
- वर्ष 1857 में देश में आजादी की पहली चिंगारी सुलगाने वाले मंगल पांडे को आठ अप्रैल के दिन फांसी दे दी गई थी। मंगल पांडे (जन्म- 19 जुलाई, 1827; मृत्यु- 8 अप्रैल, 1857) का नाम भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अग्रणी योद्धाओं के रूप में लिया जाता है, जिनके द्वारा भड़काई गई क्रांति की ज्वाला से अंग्रेज़ ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन बुरी तरह हिल गया था। मंगल पांडे की शहादत ने भारत में पहली क्रांति के बीज बोए थे।मारो फिरंगी को.. यह प्रसिद्ध नारा भारत की स्वाधीनता के लिए सर्वप्रथम आवाज़ उठाने वाले क्रांतिकारी मंगल पांडे की जुबां से 1857 की क्रांति के समय निकला था। भारत की आज़ादी के लिए क्रांति का आगाज़ 31 मई, 1857 को होना तय हुआ था, परन्तु यह दो माह पूर्व 29 मार्च, 1857 को ही आरम्भ हो गई।1857 के विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ था। सिपाहियों को 1853 में एनफ़ील्ड बंदूक दी गयी थीं, जो कि 0.577 कैलीबर की बंदूक थी तथा पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी। नयी बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली का प्रयोग किया गया था, परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारूद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस में डालना पड़ता था। कारतूस का बाहरी आवरण में चर्बी होती थी, जो कि उसे नमी अर्थात् पानी की सीलन से बचाती थी।सिपाहियों के बीच अफ़वाह फ़ैल चुकी थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है। यह सिपाहियों की धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था। 29 मार्च सन् 1857 को नए कारतूस को प्रयोग करवाया गया, मंगल पाण्डे ने आज्ञा मानने से मना कर दिया। इस पर अंग्रेज अफ़सर ने सेना को हुकम दिया कि उसे गिरफ्तार किया जाये, सेना ने हुक्म नहीं माना। पलटन के सार्जेंट हडसन स्वयं मंगल पांडे को पकडऩे आगे बढ़ा तो, पांडे ने उसे गोली मार दी, तब लेफ्टीनेंट बल आगे बढ़ा तो उसे भी पांडे ने गोली मार दी। घटनास्थल पर मौजूद अन्य अंग्रेज़ सिपाहियों नें मंगल पांडे को घायल कर पकड़ लिया। उन्होंने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान किया। किन्तु उन्होंने उनका साथ नहीं दिया। उन पर मुक़दमा (कोर्ट मार्शल) चलाकर मौत की सज़ा सुना दी गई। मंगल पांडे को की फांसी की तिथि 18 अप्रैल नियत की गई थी, लेकिन कई छावनियों में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ असंतोष भड़ता देख, अंग्रेजों ने मंगल पांडे को 10 दिन पहले ही फांसी देने का फैसला लिया।8 अप्रैल का दिन मंगल पांडे की फांसी के लिए निश्चित किया गया। बैरकपुर के जल्लादों ने मंगल पांडे के पवित्र ख़ून से अपने हाथ रंगने से इनकार कर दिया। तब कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाए गए। 8 अप्रैल, 1857 के सूर्य ने उदित होकर मंगल पांडे के बलिदान का समाचार संसार में प्रसारित कर दिया।
- अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य समस्याओं पर दुनिया भर के देशों के आपसी सहयोग के लिए 7 अप्रैल, वर्ष 1948 में बड़ा कदम उठाया गया था। संयुक्त राष्ट्र की स्वास्थ्य मामलों की एजेंसी विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को हुई थी। इसीलिए आज के दिन को विश्व स्वास्थ्य दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।विश्व स्वास्थ्य संगठन, स्वास्थ्य के लिए संयुक्त राष्ट्र की विशेषज्ञ एजेंसी है। यह एक अंतर-सरकारी संगठन है जो आमतौर पर सदस्य देशों के स्वास्थ्य मंत्रालयों के जरिए उनके साथ मिलकर काम करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन दुनिया में स्वास्थ्य संबंधी मामलों में नेतृत्व प्रदान करने, स्वास्थ्य अनुसंधान एजेंडा को आकार देने, नियम और मानक तय करने, प्रमाण आधारित नीतिगत विकल्प पेश करने, देशों को तकनीकी समर्थन प्रदान करने और स्वास्थ्य संबंधी रुझानों की निगरानी और आकलन करने के लिए जिम्मेदार है।इस संगठन का उद्देश्य है दुनिया भर के लोगों के स्वास्थ्य का स्तर ऊंचा करना। डब्ल्यूएचओ का मुख्यालय स्विट्जरलैंड के जेनेवा शहर में स्थित है। इसकी स्थापना पर 22 जुलाई 1946 को संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन सभी 61 सदस्य देशों ने सहमति जताई थी। इस समय 194 देश विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य हैं।डब्ल्यूएचओ की स्थापना से अब तक संगठन ने कई जानलेवा बीमारियों और चेचक जैसी महामारियों को मिटाने में उल्लेखनीय कदम उठाए हैं। इस समय संगठन का खास ध्यान कोरोना वायरस, टीबी, कैंसर और एचआईवी जैसी बड़ी बीमारियों पर है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चुनौती के रूप में सामने खड़ी हैं। पोषण, खाद्य सुरक्षा और यौन संबंधी बीमारियां भी डब्ल्यूएचओ के कार्यक्षेत्र में अहम हैं।भारत के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के कंट्री कार्यालय का मुख्यालय दिल्ली में है और देश भर में उसकी उपस्थिति है।डब्ल्यूएचओ यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्थापना दिवस को हर साल विश्व स्वास्थ्य दिवस के तौर पर मनाया जाता है। हर साल विश्व स्वास्थ्य दिवस की थीम अलग-अलग होती है। इस साल यानी 2020 के लिए विश्व स्वास्थ्य दिवस की थीम नर्सों और मिडवाइफ की सहायता करें है। इस थीम के माध्मय से नर्सों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों की अहम भूमिका को सराहा गया है।अपनी स्थापना के बाद से डब्ल्यूएचओ ने स्मॉल पॉक्स बिमारी को खत्म करने में बड़ी भूमिका निभाई है। फिलहाल डब्ल्यूएचओ एड्स, इबोला और टीबी जैसी खतरनाक बिमारियों की रोकथाम पर काम कर रहा है। डब्ल्यूएचओ वल्र्ड हेल्थ रिपोर्ट के लिए जिम्मेदार होता है जिसमें पूरी दुनिया से जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का एक सर्वे होता है।
- बीजिंग। अनुसंधानकर्ताओं ने पश्चिमी चीन के 60 से 90 लाख साल पुरानी चट्टानों से पक्षियों की एक नयी प्रजाति का जीवाश्म खोजा है। यह खोज तिब्बती पठार के छोर पर शुष्क, बंजर प्राकृतिक वास होने की ओर इशारा करती है। तिब्बत का पठार अभी अपनी वर्तमान अधिकतम ऊंचाई तक बढ़ गया है।चीनी विज्ञान अकादमी के अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि यह पक्षी सैंडग्रोस प्रजाति का है। सैंडग्रोस पक्षियों की 16 प्रजातियों का समूह है जो पंडुक और कबूतरों से संबंधित है जो यूरोप, एशिया और अफ्रीका के सबसे शुष्क इलाकों में रहते हैं। अध्ययन में नयी प्रजाति को लिंग्जियाविस इनएक्वोसस नाम दिया गया है और यह सैंडग्रोस जीवाश्म रिकॉर्ड में आए करीब दो करोड़ साल के अंतर को पाटती है।अनुसंधानकर्ताओं ने बताया कि आधे कंकाल के रूप में मिले जीवाश्म में शरीर का ज्यादातर हिस्सा है जैसे कंधे की हड्डियां, विशबोन (कांटानुमा हड्डी), दोनों पंखों की हड्डियां, रीढ़ का जोड़ और पैर का हिस्सा है। साथ ही बताया कि सिर वाला हिस्सा गायब था। अध्ययन के प्रथम लेखक जी जिहेंग ने कहा, एशिया के सैंडग्रोस के सबसे पुराने जीवाश्म और समूह के सबसे पूर्ण जीवाश्म के तौर पर मिला यह नया कंकाल सैंडग्रोस की उत्पत्ति की हमारी समझ को विस्तार देने के साथ ही तिब्बती पठार से जुड़े पारिस्थितिकी तंत्र को समझने में प्रमुख कड़ी साबित होगा। खोज के आधार पर वैज्ञानिकों ने कहा कि तिब्बती पठार के बगल का हिस्सा भी उतना ही शुष्क था जब लिंग्जियाविस इनएक्वोसस मायोसीन के तौर पर प्रसिद्ध अवधि के दौरान पाए जाते थे। यह अध्ययन फ्रंटियर्स इन इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
- दुनिया में एक ऐसा राजा भी था, जो अपनी अजीबोगरीब सनक के लिए जाना जाता है। उसे ऐसी सनक थी कि वह लंबाई के हिसाब से अपने सैनिकों को सैलरी देता था। यानी जिसकी लंबाई ज्यादा, उसे मोटी तनख्वाह मिलती थी। यह सुनने में अजीब तो लगता है, लेकिन है बिल्कुल सच।यह कहानी करीब 250 साल पहले की है, जब प्रशा एक राज्य हुआ करता था, जिसका साल 1932 में जर्मनी में विलय हो गया। यहीं का एक राजा था फ्रेडरिक विलियम प्रथम, जिसने 1713 से लेकर 1740 तक प्रशा पर राज किया। वैसे तो वो एक शांत और दयावान राजा था, लेकिन अपनी सेना के विस्तार का बहुत शौक था। कहते हैं कि उसके राजा बनने से पहले प्रशा की सेना में करीब 38 हजार सैनिक होते थे, जिसे बढ़ाकर उसने करीब 83 हजार कर दिया।राजा फ्रेडरिक को लंबे सैनिकों से काफी लगाव था। उसके राज्य में लंबे सैनिकों की एक अलग रेजिमेंट थी, जिसे पॉट्सडैम जाएंट्स कहते हैं। इस रेजिमेंट में सारे सैनिक छह फीट से ज्यादा के थे। राजा फ्रेडरिक की सेना में जो लंबा सैनिक था, उसका नाम जेम्स किर्कलैंड था और उसकी लंबाई सात फीट एक इंच थी। राजा फ्रेडरिक की सबसे खास बात ये थी कि वह भले ही लंबे सैनिकों को अपनी सेना में भर्ती करता था, लेकिन वह युद्ध नहीं चाहता था। कुछ इतिहासकारों की मानें तो वह सिर्फ दूसरे राज्यों को डराने के लिए ऐसा करता था। चूंकि वह एक शांतिप्रिय और उदार राजा था, इसलिए अन्य राजाओं से भी उसके अच्छे संबंध थे। लिहाजा उस देश के राजा भी अपने लंबे सैनिकों को फ्रेडरिक की सेना में भर्ती होने के लिए भेज देते थे।इसके अलावा आसपास के जमींदार भी अपने सबसे लंबे मजदूरों को उसके पास भेज देते थे। बाद में राजा फ्रेडरिक का शौक सनक में बदल गया। कहते हैं कि वह अपने लंबे सैनिकों को अजीबोगरीब कामों में लगाने लगा। जैसे कि वो जब उदास होता तो 200-300 सैनिकों को महल के अंदर बुलाता और उनसे नाच-गाना करवाता। इसके अलावा जब वो कभी बीमार पड़ता तो लंबे सैनिकों को कहता कि वो उसके कमरे में हथियारों के साथ मार्च करें। राजा फ्रेडरिक के बारे में यह भी कहा जाता है कि उसने एक खास तरह का रैक बनवा रखा था। पहले से ही जो लंबे सैनिक थे, उन्हें उस रैक में बांधकर खींचा जाता था, ताकि उनकी लंबाई और बढ़ सके। उसके इस सनक की वजह से कई सैनिकों की मौत हो गई थी।----
- वर्ष 1894 की बात है जब डॉ. जॉन कैलोग मिशिगन अमरीका के बैटल क्रीक सेनेटेरियम के सुप्रिटेंडेंट थे। वे तथा उनके भाई कीथ कैलोग मरीजों की सेवा करते थे। वहां कुछ मरीजों को शाकाहारी भोजन ही दिया जाता था और इसके लिए कीथ उबले हुए गेहूं का इस्तेमाल करते थे। एक दिन कीथ उबले हुए गेहूं का इस्तेमाल करना भूल गए और वे एकदम ढीले पड़ गए। कीथ ने उनको फेंका नहीं और एक रोलर के नीचे डाल दिया.। उन्हें लगा कि इससे गेहूं का आटा बन जाएगा, परंतु ऐसा नहीं हुआ। बल्कि इससे छोटे छोटे फ्लेक्स बन गए। कीथ ने उन फ्लेक्स को दूध में मिलाकर मरीजों को खिलाया जो उन्हें काफी पसंद आया।इसके बाद जॉन और कीथ ने कई अन्य दानों के साथ प्रयोग किया। मक्के के दानों के साथ किया गया प्रयोग सबसे सफल रहा और कीथ और जॉन ने अपने कोर्न फ्लेक्स को ग्रेनोस नाम दिया और उसका पेटेंट करा लिया। 1906 में कीथ ने कैलोग्स कम्पनी स्थापित की और कोर्न फ्लेक्स बेचने लगे। जॉन ने उनकी कम्पनी में खुद को शामिल नहीं किया क्योंकि वे इसके वाणिज्यिक इस्तेमाल और इसमें चीनी मिलाए जाने के खिलाफ थे।
- विंटेज कारें अतीत और तकनीकी विकास की गवाह हैं। कुछ ऐसी ही लोकप्रिय कारें हैं-1. फोर्ड मॉडल टी (1908)- हेनरी फोर्ड ने फोर्ड मॉडल टी के जरिये परिवहन में क्रांति की। यह पहली कार थी, जिसे आम लोग खरीद सकते थे। हेनरी फोर्ड ने कनवेयर बेल्ट का इस्तेमाल कर फैक्ट्रियों की तस्वीर भी बदली। तब की आधुनिक फैक्ट्री के चलते मॉडल टी का खूब उत्पादन हुआ। शौकीन आज भी इस कार को सबसे ज्यादा चाहते हैं।2. रोल्स-रॉयस फैंटम (1925)- वर्ष 1920 के दशक में रोल्स-रॉयस ने अपनी लक्जरी कार फैंटम उतारी। इसने बाजार में धूम मचाई। फैंटम नाम भी खूब चर्चित हुआ और कंपनी ने अगले आठ मॉडल भी फैंटम नाम से पेश किए। 40 हॉर्स पावर की इस कार का इंटीरियर मालिक की पसंद के मुताबिक बनाया जाता था।3. अल्फा रोमियो 8सी (1938)- इसे फैमिली कार भी कहा जाता था लेकिन इसका इस्तेमाल रेसिंग में भी होता रहा। अल्फा रोमियो ने 8सी के जरिये इटैलियन ब्रांड के तौर पर अपनी पहचान बनाई। इटैलियन कारों को तेज और सेक्सी माना जाने लगा। वर्ष 1930 के दशक की इस कार में 8 सिलेंडर थे। शुरू में बहुत कम कारें बनाई गईं ताकि लोगों में इसे पाने की होड़ बनी रहे।4. मर्सिडीज बेंज 300एसएल (1957)-पंछी के पंख की तरह ऊपर की ओर खुलने वाले दरवाजों के जरिये मर्सिडीज 300एसएल ने आम सड़कों की रेसिंग कार के रूप में पहचान बनाई। यह दुनिया की पहली कार है जिसमें डायरेक्ट फ्यूल इंजेक्शन लगा था। पूरी तरह अल्युमिनियम बॉडी वाली 300एसएल के सिर्फ 29 मॉडल बनाए गए। आज ये मॉडल विटेंज कारों की लिस्ट में खासे मशहूर हैं।5. कैडिलैक एल्डोराडो (1959)- वर्ष 1980 के दशक में यह कार कई फिल्मों और म्यूजिक वीडियो में दिखाई पड़ी। पुरानी एल्डोराडो आज भी कार डिजायनिंग का अहम प्रतीक है।6. जैगुआर ई-टाईप (1961)- सदाबहार डिजायन, शानदार डिटेल और जबरदस्त क्षमता, जैगुआर ई-टाईप के जरिये ब्रिटेन ने कार निर्माण में खासी शोहरत पाई। ई-टाईप को अमेरिका में एक्सके-ई के नाम से भी जाना जाता है। वर्ष 1960 के दशक में आई इस कार ने डिजायनिंग का चेहरा बदल दिया। इसे आज भी दुनिया की सबसे खूबसूरत 100 कारों में गिना जाता है।7. एस्टन मार्टिन डीबी5 (1964)- नाम मार्टिन, पूरा नाम एस्टन मार्टिन. जेम्स बॉन्ड के डायलॉग की तरह यह कार भी बॉन्ड सिरीज की फिल्मों की पहचान है. डीबी5 के सिर्फ 1000 मॉडल बाजार में आए लेकिन इन्होंने कार डिजायन को नई दिशा दी.8. फोर्ड शेल्बी जी टी 350 मुस्टांग (1965)- मुस्टांग सैलिस को फोर्ड के दमदार डिजायन के लिए जाना जाता है. लेकिन असल में यह शेल्बी जीटी350 का ही डिजायन है. इसे रेसर और डिजायनर कारोल शेल्बी ने डिजायन किया. यह आज भी शौकिया डिजायनरों को लुभाती है. समय के साथ इस कार का बोनट लंबा और उसके भीतर छुपा इंजन भी ताकतवर होता गया.9. शेवरले कैमारो आरएस/एसएस (1969)-यह कार फोर्ड मुस्टांग को सीधी टक्कर देने के इरादे से उतारी गई। पहले इसका नाम पैंथर रखा गया, लेकिन लॉन्च से कुछ ही दिन पहले शेवरले ने नाम बदल दिया।10. एमजी एमजीबी रोडस्टर- विंटेज कारों की रैली में आम तौर पर एमजीबी सबसे ज्यादा नजर आती है। यह पहली कार थी जिसमें टक्कर का असर कम करने के लिए क्रम्पल जोन था। ब्रिटेन की यह हल्की स्पोर्ट्स कार आज भी कई नई स्पोर्ट्स कारों पर भारी पड़ती है।--------------
- बैंकों को अपने दैनिक कामकाज के लिए प्राय: ऐसी बड़ी रकम की जरूरत होती है जिनकी मियाद एक दिन से ज्यादा नहीं होती। इसके लिए बैंक जो रिजर्व बैंक से रात भर के लिए (ओवरनाइट) कर्ज लेते हैं। इस कर्ज पर रिजर्व बैंक को उन्हें जो ब्याज देना पड़ता है, उसे ही रीपो रेट कहते हैं।रीपो रेट वह दर होती है जिस पर बैंकों को आरबीआई कर्ज देता है। बैंक इस कर्ज से ग्राहकों को ऋण देते हैं। रीपो रेट कम होने से मतलब है कि बैंक से मिलने वाले कई तरह के कर्ज सस्ते हो जाएंगे। जैसे कि होम लोन, व्हीकल लोन वगैरह।रिवर्स रीपो रेटजैसा इसके नाम से ही साफ है, यह रीपो रेट से उलट होता है। यह वह दर होती है जिस पर बैंकों को उनकी ओर से आरबीआई में जमा धन पर ब्याज मिलता है। रिवर्स रीपो रेट बाजारों में नकदी की तरलता को नियंत्रित करने में काम आती है। बाजार में जब भी बहुत ज्यादा नकदी दिखाई देती है, आरबीआई रिवर्स रेपो रेट बढ़ा देता है। ताकि बैंक ज्यादा ब्याज कमाने के लिए अपनी रकमे उसके पास जमा करा दे।सीआरआरदेश में लागू बैंकिंग नियमों के तहत हरेक बैंक को अपनी कुल नकदी का एक निश्चित हिस्सा रिजर्व बैंक के पास रखना होता है। इसे ही कैश रिजर्व रेश्यो (सीआरआर) या नकद आरक्षित अनुपात कहते हैं।एसएलआरजिस दर पर बैंक अपना पैसा सरकार के पास रखते है, उसे एसएलआर कहते हैं। नकदी की तरलता को नियंत्रित करने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है। कमर्शियल बैंकों को एक खास रकम जमा करानी होती है जिसका इस्तेमाल किसी इमरजेंसी लेन-देन को पूरा करने में किया जाता है। आरबीआई जब ब्याज दरों में बदलाव किए बगैर नकदी की तरलता कम करना चाहता है तो वह सीआरआर बढ़ा देता है, इससे बैंकों के पास लोन देने के लिए कम रकम बचती है।एमएसएफआरबीआई ने पहली बार वित्त वर्ष 2011-12 में सालाना मॉनेटरी पॉलिसी रिव्यू में एमएसएफ का जिक्र किया था और यह कॉन्सेप्ट 9 मई 2011 को लागू हुआ। इसमें सभी शेड्यूल कमर्शियल बैंक एक रात के लिए अपने कुल जमा का 1 फीसदी तक लोन ले सकते हैं। बैंकों को यह सुविधा शनिवार को अलावा हरेक वर्किंग डे में मिलती है।-0----
- एल्कोहल बेस्ड हैंड सैनिटाइजर साबुन की तरह प्रभावी हो सकते हैं अगर उनका ठीक से उपयोग किया जाए तो। हालांकि इस बात का ध्यान रखने की जरूरत है कि इनमें कम से कम 60 प्रतिशत एल्कोहल होने की जरूरत है। एल्कोहल इस वायरस को नष्ट कर सकता है। इसके लिए बस करना ये है कि अपने हाथ की हथेली पर एक छोटी सी बूंद डालकर पूरे हाथ पर मलना है। इसे जल्दी से पोंछना आपके लिए अच्छा नहीं होगा। सैनिटाइजर की एक छोटी से बूंद आपके उपयोग के लिए पर्याप्त है और आपके हाथ को कीटाणुओं से साफ रखने का काम कर सकती है। हैंड सैनिटाइजर का प्रयोग करते वक्त ये ध्यान रखें कि आप इसे अपने हाथों पर, अपनी उंगलियों के बीच और अपने हाथ के पिछले हिस्से पर रगडऩा न भूलें।कुछ परिस्थितियों में साबुन और पानी को कीटाणु साफ करने के लिए सबसे अच्छा माना जाता है। दरअसल साबुन और पानी की क्षमता सूक्ष्मजीवों को फंसाने और धोने की है। वहीं एल्कोहल कीटाणुओं को मारने में बहुत प्रभावी है, लेकिन यह आपके हाथ को धोता नहीं है। इस उदाहरण के साथ इस बात को समझिए अगर किसी व्यक्ति को छींक आई और उसने अपने हाथ से अपनी नाक और मुंह को ढंका। ऐसा करने से उसके बलगम की छींके उसके हाथ में ही रह गई। उसके हाथ में मौजूद इस बैक्टीरिया या वायरस को निष्क्रिय करने के लिए बहुत अधिक सैनिटाइजर की जरूरत पड़ेगी।इस बात को भी जानना बेहद जरूरी है कि कुछ कीटाणु और बैक्टीरिया बहुत ही ज्यादा नरम, वसायुक्त नहीं होते हैं, जिन पर साबुन के बुलबुले बड़ी आसानी से हमला कर सकते हैं और उन्हें नष्ट कर सकते हैं- जैसे हेपेटाइटिस ए वायरस, पोलियोवायरस, मेनिन्जाइटिस और निमोनिया। इसलिए अगली बार जब भी आप अपने हाथों को धोएं तो उन सभी साबुन के बुलबुले पर गर्व करें, जिन्हें आप बना रहे हैं और उन सूक्ष्म, मृत बैक्टीरिया को मारने का आनंद लें, जिन्हें आप नाले में बहाकर दूसरों की जान बचा रहे हैं।--
- भारतीय इतिहास में व्यापार के क्षेत्र की जब भी चर्चा होती है, तो उसमें रेशम मार्ग का उल्लेख मिलता है। आज से दो हजार साल पहले चीन में खुला व्यापार मार्ग रेशम मार्ग विश्वविख्यात है । यह मार्ग चीन और एशिया , यूरोप तथा अफ्रीका के देशों के साथ व्यापार का पुल रहा था ।रेशम मार्ग प्राचीन चीन से मध्य एशिया से हो कर दक्षिण एशिया, पश्चिम एशिया , यूरोप तथा उत्तरी अफ्रीका तक जाने वाला थल व्यापार रास्ता था । बड़ी मात्रा में चीन के रेशम और रेशम वस्त्र इसी मार्ग से पश्चिम तक पहुंचाये जाने के कारण इस मार्ग का नाम रेशम मार्ग रखा गया । पुरातत्वीय खोज से पता चला है कि रेशम मार्ग ईसा पूर्व पहली शताब्दी के चीन के हान राजवंश के समय संपन्न हुआ था , उस समय रेशम मार्ग आज के अफगानिस्तान , उज्जबेकस्तान , ईरान और मिश्र के अल्जेंडर नगर तक पहुंचता था और इस का एक दूसरा रास्ता पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के काबुल से हो कर फारसी खाड़ी तक पहुंचता था , जो दक्षिण की दिशा में आज के कराची तक पहुंच जाता था और फिर समुद्री मार्ग से फारसी खाड़ी और रोम तक पहुंच जाता था ।ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ले कर ईस्वी दूसरी शताब्दी तक रेशम मार्ग के किनारे किनारे पूर्व से पश्चिम तक चार बड़े बड़े सम्राज स्थित थे , वे थे पूर्वी एशिया में चीन का हान राजवंश , मध्य एशिया व भारत के उत्तरी भाग पर शासन करने वाला कुशान , पश्चिमी एशिया का पार्शिया , जो प्राचीन इरान का दास व्यवस्था वाला राज्य था एवं यूरोप का रोम सम्राज थे । रेशम मार्ग से इन प्राचीन सभ्यता वाले राज्यों में प्रत्यक्ष आवाजाही सुलभ हुई थी। रेशम मार्ग और उस के शाखा रास्तों के जरिए पूर्व और पश्चिम के बीच आवाजाही बहुत व्यस्त हुआ करती थी । चीनी ऐतिहासिक उल्लेेख के मुताबिक चीन में जो अखरोट , खरबूज , तरबूजा , काली मिर्च और गाजर उगते हैं , वह सब पश्चिम से चीन में लाए गए थे । ईस्वी सातवीं शताब्दी से नौवीं शताब्दी तक के चीन के थांग राजवंश काल में रेशम मार्ग सब से ज्यादा व्यस्त रहा था । चीन और पश्चिम के देशों के बीच आवाजाही भी जोरों पर थी । पश्चिम के दुर्लभ और कीमती पशुपक्षी , रत्न मसाला , शीशे के बर्तन , सोने व चांदी की सिक्काएं तथा मध्य व पश्चिम एशिया के संगीत , नृत्य ,पेयजल तथा वस्त्र आभूषण भी चीन में आए और चीन से रेशम , रेशमी कपड़े , कृषि उपजें , कागज उत्पादन कला , छपाई कला , राख की शिल्प कला , चीनी मिट्टी के बर्तन , बारूद और कंपास आदि दूसरे देशों में पहुंचे , जिस से विश्व की सभ्यता के विकास के लिए भारी योगदान किया गया था ।व्यापार के साथ रेशम मार्ग से सांस्कृतिक आदान प्रदान भी बहुत क्रियाशील रहा था । बौद्ध धर्म चीन के पश्चिमी हान राजवंश के काल ( ईसापूर्व 206--ईस्वी 25) में चीन में आया । ईस्वी तीसरी शताब्दी में चीन के सिन्चांग में गिजर गुफा खोदी गई , जिस में अब भी दस हजार वर्ग मीटर के भित्ति चित्र सुरक्षित है , जिस से बौद्ध धर्म के चीन में आने के प्रारंभिक इतिहास की झलक मिलती है । अनुमान है कि बौद्ध धर्म भारत से रेशम मार्ग से सिन्चांग के गिजर पहुंचा , फिर वहां से कांसू प्रांत के तङहुंग तक आया , इस के बाद चीन के भीतरी इलाकों में फैल गया । रेशम मार्ग से चलते चलते अनेक बौद्ध गुफाएं सुरक्षित हुई देखी जाती हैं , जिन में तङहुंग की मकाओ गुफा तथा लोयांग की लुंगमन गुफा विश्वविख्यात है । दसवीं शताब्दी में चीन के सुंग राजकाल में ही रेशम मार्ग व्यापार के लिए बहुत कम प्रयोग किया गया । रेशम मार्ग लम्बे अरसे से महत्वपूर्ण रहा था , उस ने विश्व सभ्यता के विकास में खास अहम भूमिका अदा की थी । इधर के सालों में युनेस्को ने रेशम मार्ग पर अनुसंधान की योजना शुरू की और रेशम मार्ग को वार्तालाप के रास्ते की संज्ञा दी , ताकि पूर्व और पश्चिम के बीच वार्तालाप और आदान-प्रदान बढ़ जाए ।-------
- नई दिल्ली। हिंद महासागर में अनुसंधान के दौरान सार्क की एक नई प्रजाति का पता चला है। पूर्वी अफ्रीका के इलाके में सार्क की नई प्रजाति के दो एक साथ नजर आये हैं। प्रारंभिक परीक्षण के दौरान समुद्र वैज्ञानिकों ने कहा है कि यह सिक्स गिल शॉ सार्क की प्रजाति की हैं। आकार में यह अभी काफी छोटी हैं। नजर आने के लिहाज से ये तीन से चार साढ़े चार फीट लंबी हैं।इस प्रजाति की दूसरी सार्क नजर आने से वैज्ञानिक भी हैरान हुए हैं। इससे पहले इस प्रजाति के होने का अंदेशा समुदी्र वैज्ञानिकों को नहीं था। इस एक खोज से वैज्ञानिकों ने फिर इस बात को दोहराया है कि अब भी आधुनिक विज्ञान समुद्र के अंदर के बारे में बहुत कुछ नहीं जान सका है। पश्चिम जर्मनी के हैमबर्ग के एलासमोब्रांच रिसर्च लैब के समुद्र वैज्ञानिक सिमोन वेइगमान कहते हैं कि अभी भी समुद्र की गहराइयों में छिपे रहस्यों को पूरी तरह समझने में शायद काफी वक्त लगेगा क्योंकि हर गहराई तक इंसान आज भी अपनी आधुनिक तकनीक के बाद भी नहीं पहुंच पाया है। उन्होंने ही अपने सहयोगियों के साथ मिलकर इस सार्क की नई प्रजाति के बारे में अपनी रिपोर्ट जारी की है।यह रिपोर्ट वैज्ञानिक पत्रिका पीएलओएस वन में गत 18 मार्च को प्रकाशित हुई है। वैज्ञानिक परिभाषा के मुताबिक यह शॉ सार्क 23 फीट तक लंबी भी हो सकती है। इनमें से कई के पास दोनों तरफ पांच पांच गलफड़े होते हैं। सिर्फ इस सार्क की नई प्रजाति के पास दोनों तरफ छह छह गलफड़े हैं।
- अबूधाबी । कोरोना के खिलाफ छिड़े महायुद्ध में हैंड सैनिटाइजर बड़ा हथियार बनकर सामने आया है। सैनिटाइजर की मांग इतनी तेजी से बढ़ी कि दुकानों में इसकी संख्या घट गई है। अब कहते हैं न कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है तो इस संकट के समय में एक भारतीय स्टुडेंट ने रोबॉट सैनिटाइजर का इजाद कर दिया।दुबई में सातवीं के स्टूडेंट ने एक रोबॉट बनाया जो 0.5 सेटीमीटर से भी कम दूरी पर हाथ की पहचान कर उसे सैनिटाइज कर देता है। खलीज टाइम्स की रिपोर्ट में ऐसा ही दावा किया गया है। स्टूडेंट दुबई के स्प्रिंग डेल्स स्कूल में पढ़ता है जिसका नाम सिद्ध सांघवी है। सिद्ध ने बताया कि उसकी मां ने एक विडियो दिखाया था जिसमें लोग अपने हाथों की सफाई के लिए सैनिटाइजर के डब्बे को बार-बार छू कर उससे तरल पदार्थ निकाल रहे हैं। सिद्ध का कहना है बॉटल छूने से तो वह संक्रमित हो गया और यहीं से मुझे रोबॉट बनाने का आइडिया आया। सिद्ध ने कहा, क्योंकि कोरोनो वायरस दूषित सतहों को छूने से फैलता है। बाल वैज्ञानिक सिद्ध ने कहा, इसलिए मैंने सोचा कि क्यों साइंस, टेक्नालॉजी, इंजीनियरिंग व मैथ्स यानी स्टेम की मदद का उपयोग करके कुछ बनाया जाए जिससे मशीन बिना किसी व्यक्ति के संपर्क में आए उसके हाथ को साफ कर देगा।---
- नई दिल्ली। विश्व इतिहास में कई बड़े युद्ध हुए हैं, जो सालों तक चले हैं। अब प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध को ही देख लीजिए, जो चार साल और छह साल तक चले हैं। लेकिन इतिहास में एक ऐसा युद्ध भी हुआ है, जो महज 38 मिनट तक ही चला था, क्योंकि इतने में ही दुश्मनों ने अपने घुटने टेक दिए थे। इस युद्ध को इतिहास के सबसे छोटे युद्ध के तौर पर जाना जाता है। यह युद्ध इंग्लैंड और जांजीबार के बीच लड़ा गया था।जांजीबार एक द्वीपसमूह है और फिलहाल तंजानिया का एक अद्र्ध-स्वायत्त हिस्सा है। बात 1890 की है, जब जांजीबार ने ब्रिटेन और जर्मनी के बीच हुई एक संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इस संधि की वजह से जांजीबार पर ब्रिटेन का अधिकार हो गया, जबकि तंजानिया का अधिकांश हिस्सा जर्मनी के हिस्से में चला गया। संधि के बाद ब्रिटेन ने जांजीबार की देखभाल का जिम्मा हमद बिन थुवैनी के हाथों में सौंप दिया, जिसके बाद थुवैनी ने खुद को वहां का सुल्तान घोषित कर दिया। हमद बिन थुवैनी ने 1893 से 1896 यानी तीन साल तक शांति और जिम्मेदारी से जांजीबार पर अपना शासन चलाया, लेकिन 25 अगस्त 1896 को उनकी मौत हो गई, जिसके बाद थुवैनी के भतीजे खालिद बिन बर्घाश ने खुद को जांजीबार का सुल्तान घोषित कर दिया और जांजीबार की सत्ता हथिया ली। कहते हैं कि सत्ता हथियाने के लिए खालिद ने ही हमद बिन थुवैनी को जहर देकर मार दिया था। अब चूंकि जांजीबार पर ब्रिटेन का अधिकार था, ऐसे में बिना उनकी इजाजत के खालिद बिन बर्घाश द्वारा जांजीबार की सत्ता हथिया लेना उन्हें नागवार गुजरा, जिसके बाद ब्रिटेन ने खालिद को सुल्तान पद से हटने का आदेश दिया, लेकिन खालिद ने उनके इस आदेश को अनसुना कर दिया। ऊपर से उसने अपनी और महल की सुरक्षा के लिए चारों तरफ करीब तीन हजार सैनिकों को तैनात कर दिया।यह बात जब ब्रिटेन को पता चली तो उसने एक बार फिर खालिद से सुल्तान पद छोडऩे को कहा, लेकिन खालिद ने ऐसा करने से मना कर दिया। अब जांजीबार को फिर से अपने अधिकार में लेने के लिए ब्रिटेन के पास बस एक ही रास्ता बचा था और वो था युद्ध। लिहाजा ब्रिटेन ने पूरी तैयारी और रणनीति के साथ जांजीबार पर आक्रमण के लिए अपनी नौसेना भेजी। 27 अगस्त 1896 की सुबह ब्रिटिश नौसेना ने अपने जहाजों से जांजीबार के महल पर बमबारी शुरू कर दी और उसे नष्ट कर दिया। महज 38 मिनट में ही एक संघर्ष विराम की घोषणा हुई और युद्ध समाप्त हो गया। इसे ही इतिहास का सबसे छोटा युद्ध माना जाता है।---
- दुनिया में हर साल 20 मार्च को विश्व गोरैया दिवस मनाया जाता है। इस चिडिय़ा के बारे में जागरूकता बढ़ाने और इसके संरक्षण के लिए प्रत्येक वर्ष 20 मार्च को विश्व गोरैया दिवस मनाया जाता है। घरों के आसपास नजर आने वाली गोरैया लुप्त होने के कगार पर है।इसकी आबादी में तेजी से आ रही गिरावट को देखते हुए भारतीय पर्यावरणविद मोहम्मद दिलावर की नेचर फोरएवर सोसायटी ने इस पहल की शुरुआत की थी। पहला विश्व गोरैया दिवस 2010 में दुनिया के विभिन्न भागों में मनाया गया।घरेलू गौरैया (पासर डोमेस्टिकस) एक पक्षी है जो यूरोप और एशिया में सामान्य रूप से हर जगह पाया जाता है। इसके अतिरिक्त पूरे विश्व में जहाँ-जहाँ मनुष्य गया इसने उनका अनुकरण किया और अमरीका के अधिकतर स्थानों, अफ्रीका के कुछ स्थानों, न्यूज़ीलैंड और आस्ट्रेलिया तथा अन्य नगरीय बस्तियों में अपना घर बनाया। शहरी इलाकों में गौरैया की छह तरह ही प्रजातियां पाई जाती हैं। ये हैं हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंड स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो और ट्री स्पैरो। इनमें हाउस स्पैरो को गौरैया कहा जाता है। यह शहरों में ज्यादा पाई जाती हैं। आज यह विश्व में सबसे अधिक पाए जाने वाले पक्षियों में से है। लोग जहाँ भी घर बनाते हैं देर सबेर गौरैया के जोड़े वहाँ रहने पहुँच ही जाते हैं।गोरैया एक छोटी चिडिय़ा है। यह हल्की भूरे रंग या सफेद रंग में होती है। इसके शरीर पर छोटे-छोटे पंख और पीली चोंच व पैरों का रंग पीला होता है। नर गोरैया का पहचान उसके गले के पास काले धब्बे से होता है। 14 से 16 से.मी. लंबी यह चिडिय़ा मनुष्य के बनाए हुए घरों के आसपास रहना पसंद करती है। यह लगभग हर तरह की जलवायु पसंद करती है पर पहाड़ी स्थानों में यह कम दिखाई देती है। शहरों, कस्बों गाँवों और खेतों के आसपास यह बहुतायत से पाई जाती है। नर गौरैया के सिर का ऊपरी भाग, नीचे का भाग और गालों पर पर भूरे रंग का होता है। गला चोंच और आँखों पर काला रंग होता है और पैर भूरे होते है। मादा के सिर और गले पर भूरा रंग नहीं होता है। नर गौरैया को चिड़ा और मादा चिड़ी या चिडिय़ा भी कहते हैं।
- लैम्बिक एक प्रकार की बियर है जो खास तौर से बेल्जियम में तैयार की जाती है। इसे बेल्जियम की सबसे विशिष्ट बियर कहा जा सकता है। ये बेल्जियम की सेने घाटी, जिसमें ब्रसेल्स भी स्थित है, के वातावरण में मौजूद जंगली यीस्ट के किण्वन से बनाई जाती है तथा इसमें प्रयुक्त हॉप्स भी बासी होते हैं।सामान्यत: 3 से 5 वर्ष तक इसे लकड़ी के पीपों में परिपक्वित किया जाता है। इनका स्वाद इतना अम्लीय और खट्टा होता है कि पहली बार बहुत से लोग अचम्भित हो जाते हैं। अक्सर इन्हें कई फलों जैसे चेरी, स्ट्रॉबेरी आदि के साथ भिगो कर उन फलों के स्वाद पर आधारित किया जाता है। 1860 में लुई पास्चर द्वारा यीस्ट के विभिन्न प्रकारों के विकास से पहले सभी बियर इसी विधि से बनाई जाती थीं। लैम्बिक बियर अधिकांशत: शुद्ध रूप में नहीं पी जाती है और यदि पी भी जाती है तो 1 या 2 वर्ष तक परिपक्वन वाली। मुख्यत: दो या अधिक वर्षों की लैम्बिक बियर को मिलाकर या फलों के साथ मिलाकर इन्हें पिया जाता है।अलग-अलग वर्षों की पुरानी मिश्रित लैम्बिक बियर को गॉज़ कहते हैं। इसमें नई लैम्बिक (कम वर्षों के लिये परिपक्वित) बियर में मिठास और फलों का स्वाद देती है जबकि पुरानी लैम्बिक बियर में खटास और अनूठा स्वाद लेकर आती है। गॉज़ सबसे अधिक बिकने वाली लैम्बिक बियर है। इसे बियर की दुनिया की शैम्पेन भी कहते हैं। मोर्ट सुबाइट, कैन्टिलॉन और टिमरमन्स कुछ प्रमुख गॉज़ ब्रांड्स हैं। इसके अलावा फ़ैरो, क्रिक और फ्रैम्बोज़ेन अन्य लैम्बिक बियर हैं जो इसमें क्रमश: चीनी, चेरी और रेस्पबेरी मिलाकर बनाई जाती हैं।
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सूर्य भले ही हमारे लिए ऊर्जा का एक स्रोत है लेकिन इसके बावजूद धरती पर कई ऐसी जगहें हैं जहां वर्ष में कुछ महीने ही बस सूरज की रोशनी मिलती है. जिसमें एक जगह है आर्कटिक सर्कल के उत्तर में स्थित नॉर्वे का टॉम्सो शहर, जहां हर वर्ष नवंबर से जनवरी तक तीन महीने तक सूरज नहीं दिखाई देता है. वहीं यदि आप इससे दक्षिण में चलेंगे को नॉर्वे का रजुकान गांव आता है, जहां छह महिने तक सूर्य की रोशनी देखने को नहीं मिलती है. ऐसे जगह पर लोग सदियों से रह रहे हैं. लेकिन विशेषज्ञों ने इस समस्या का हल कर दिया. तकनीती विशेषज्ञों ने इस मुश्किल को सन मिरर लगाकर हल किया है. सूर्य के प्रकाश की दिशा में पहाड़ों पर विशाल सन मिरर की शृंखला लगाई गई, जिससे सूर्य की किरणों परावर्तित होकर पहाड़ी की तलहटी में रोशनी की है. ये आइडिया एक सदी पहले यहीं के इंजीनियर सैम आइड का था. जिसे मार्टिन एंडरसन ने पूरा किया था. मार्टिन पहले शख्स थे जिन्हें रजुकान में सूर्य की रोशनी नहीं दिखने पर बेचैन हो गए थे. उन्होंने स्थानीय अधिकारियों की मदद से 8 लाख डॉलर की लागत से सन मिरर लगवाए थे. इससे पहले लोग केबल कार के जरिए सूरज की रोशनी देखने ऊपर जाते थे. हालांकि अब यहां दिन भर प्रकाश रहता है.
- अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के वैज्ञानिकों ने शनि ग्रह के सबसे बड़े चांद टाइटन की सबसे ऊंची चोटी की खोज की। इसकी ऊंचाई &,&&7 मीटर है. इसका पता नासा के कैसिनी अभियान के दौरान लगा। वैज्ञानिकों के अनुसार यह सबसे ऊंची चोटी तीन पहाड़ी रेखाओं के समूह के बीच दिखाई दी है। इस समूह को मिथरिम मोंटेस कहा जाता है। टाइटन की Óयादातर ऊंची चोटियों को उसकी भूमध्य रेखा के नजदीक देखा गया।नासा की सर्वो'च चोटियों की ऊंचाई & हजार मीटर के करीब है। चोटियों के अध्ययन में कैसिनी के राडार से प्राप्त तस्वीरों और अन्य आंकड़ों को शामिल किया गया।यह राडार टाइटन के धुंधले वातावरण के पार स्पष्ट तस्वीरें खींचने में सक्षम है। वैज्ञानिकों ने मिथरिस मोंटेस और टाइटन के कुछ अन्य हिस्सों में भी में इस चोटी के समकक्ष ऊंचाई वाली चोटियां देखी है।-----
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बोलिविया में सालर डि उयूनी दुनिया का सबसे बड़ा नमक का मैदान है। यह समुद्र तल से 3,656 मीटर ऊंचाई पर एंडीज पठार के 10,500 वर्ग किलोमीटर में फैला है। साथ ही यह बोलिविया का सबसे लोकप्रिय पर्यटन केंद्र है। दुनिया भर से पर्यटक यहां के विशाल सफेद मैदान को देखने आते हैं। सफेद मैदान के बीच ज्वालामुखीय चट्टानें छोटे द्वीपों की तरह दिखती हैं, मानो सफेद कैनवास पर काले बिंदु हों। इनमें सबसे मशहूर है क्वेशुआ में इंका का घर या इंकाहाउसी। इंका सभ्यता के लोग नमक के मैदान को पार करते समय अस्थायी रूप से यहां शरण लेते थे।
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1910 के दशक में अमेरिका के हॉलैंड द्वीप पर 300 से भी ज्यादा घर थे, जहां लोग रहते थे, लेकिन बाद में समुद्र की तेज लहरों से यहां की मिट्टी कटने लगी और धीरे-धीरे सारे घर पानी में समा गए। अब इस आइलैंड पर सिर्फ एक ही घर बचा हुआ है, जो लोगों को बेहद ही हैरान करता है।
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आयरलैंड के रोस्कोमन में एक महल है, जो सदियों से वीरान है। इसे मैकडर्मोट कैसल के नाम से जाना जाता है। कहते हैं कि इसे 12वीं सदी में बनाया गया था, लेकिन इसके बनने के कुछ ही साल बाद इसमें आग लग गई और महल के अंदर मौजूद 34 लोग जलकर मर गए। तब से लेकर आज तक यह महल वीरान पड़ा हुआ है। यहां कोई नहीं रहता है।