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- कोरोना वायरस की जांच के लिए 3 तरह की जांच की जा रही है। इनमें ब्लड टेस्ट, स्वाब टेस्ट और सलाइवा टेस्ट शामिल हैं। ऐंटिबॉडी और ऐंटिजन टेस्ट ब्लड टेस्ट का ही हिस्सा हैं। जबकि स्वाब टेस्ट को ही आरटी-पीसीआर टेस्ट के नाम से भी जाना जाता है। कोरोना जांच के लिए किए जाने वाले ब्लड टेस्ट, स्वाब टेस्ट और सलाइवा टेस्ट में अंतरऐंटिबॉडी और ऐंटिजन टेस्ट दोनों को करने का तरीका लगभग समान होता है। बस इन टेस्ट के दौरान ब्लड के अंदर ऐंटिजन और ऐंटिबॉडी को जांचने के लिए जो कल्चर का होता है, वह कल्चर एक-दूसरे से अलग होता है। कल्चर उस रासायनिक बेस को कहते हैं, जिसमें ऑर्गेनिज़म की जांच की जाती है।स्वाब टेस्ट- इस टेस्ट में नाक का पिछले हिस्सा से स्वाब लिया जाता है। नाक और गले के बीच के जिस हिस्से से स्वाब निकाला जाता है उसे नेज़ोफ्रेंजयि़ल एरिया कहते हैं। साथ ही स्वाब एक तरह का इंस्ट्रूमेंट होता है, जिसमें एक पतली रॉड पर रुई लगाकर उसके जरिए नेज़ोफ्रेंजयि़ल से ऑर्गेनिज़म (वायरस) लिया जाता है। क्योंकि नेज़ोफ्रेंजयि़ल शरीर का वह हिस्सा होता है, जहां वायरस या वैक्टीरिया लोड सबसे अधिक होता है।ऐंटिबॉडी और एंटीजन टेस्ट- ऐंटिबॉडी और एंटीजन टेस्ट दोनों को करने का तरीका लगभग समान होता है।सलाइवा टेस्ट- -सलाइवा टेस्ट को हाल ही एफडीए की तरफ से कोविड-19 की जांच के लिए मजूरी दी गई। क्योंकि हेल्थ एक्सपट्र्स का मानना है कि कुछ पेंशट्स के लिए सलाइवा टेस्ट अधिक सुरक्षित होता है क्योंकि इस टेस्ट में मुंह से सलाइवा लेकर ही जांच की जा सकती है।नेज़ोफ्रेंजयि़ल टेस्ट (स्वाब टेस्ट) की तुलना में सलाइवा टेस्ट कहीं अधिक सहज भी होता है। हेल्थ एक्सपट्र्स सलाइवा टेस्ट का एक और लाभ बताते हुए यह भी कहते हैं कि सलाइवा टेस्ट के जरिए ना केवल कोविड-19 से संक्रमित पेशंट की जांच की जा सकती है। बल्कि उन लोगों के बारे में भी आराम से पता चल जाता है, जो किसी संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए हैं।सलाइवा के लिए भी उसी तरह के प्रोटोकॉल को फॉलो किया जाता है, जिस तरह के प्रोटोकॉल का ध्यान नेज़ोफ्रेंजयि़ल टेस्ट के समय किया जाता है। परीक्षण के समय शरीर में वायरस की उपस्थिति का पता लगाने के लिए उसके जेनेटिक कोड के एक सेग्मेंट को बढ़ाया जाता है।सलाइवा टेस्ट की तुलना में स्वाब टेस्ट को उन प्रोफेशनल्स के स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिक सुरक्षित माना जाता है, जो संक्रमित रोगियों के लगातार संपर्क में आते रहते हैं और जिन्हें परीक्षण के लिए रोगियों के सवाइवा का सैंपल लेना होता है।क्या हैं एंटीजनअब बात करें एंटीजन की, तो ये वो बाहरी पदार्थ है जो कि हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को एंटीबॉडी पैदा करने के लिए एक्टिवेट करता है। एंटीबॉडी बीमारियों से लडऩे में कारगर साबित होता है। एंटीजन वातावरण में मौजूद कोई भी तत्व हो सकता है, जैसे कि कैमिकल, बैक्टीरिया या फिर वायरस। एंटीजन नुकसानदेह है, शरीर में इसका पाया जाना ही इस बात का संकेत है कि शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को एक बाहरी हमले से लडऩे के लिए एंटीबॉडी बनाने पर मजबूर होना पड़ा है।क्या है ऐंटिबॉडी टेस्टइसी तरह ऐंटिबॉडी टेस्ट खून का सैंपल लेकर किया जाता है। इसलिए इसे सीरोलॉजिकल टेस्ट भी कहते हैं. इसके नतीजे जल्द आते हैं और ये आरटी-पीसीआर (RT-PCR test (Real-time reverse transcription-polymerase chain reaction) के मुकाबले कम खर्चीला है। ये टेस्ट ऑन लोकेशन पर किया जा सकता है।हालांकि एंटीबॉडी टेस्ट की कुछ सीमाएं हैं। इसलिए इसे अंतिम नहीं माना जाता है। इस टेस्ट में संक्रमण के बाद एंटीबॉडी बनने का लक्षण पता चलता है। एंटीबॉडी शरीर का वो तत्व है, जिसका निर्माण हमारा इम्यून सिस्टम शरीर में वायरस को बेअसर करने के लिए पैदा करता है। संक्रमण के बाद एंटीबॉडीज बनने में कई बार एक हफ्ते तक का वक्त लग सकता है, इसलिए अगर इससे पहले एंटीबॉडी टेस्ट किए जाएं तो सही जानकारी नहीं मिल पाती है। इसके अलावा इस टेस्ट से कोरोना वायरस की मौजूदगी की सीधी जानकारी भी नहीं मिल पाती है। इसलिए अगर मरीज का एंटी बॉडी टेस्ट निगेटिव आता है तो भी मरीज का आरटी-पीसीआर टेस्ट करवाया जाता है।इस टेस्ट को कोरोना की पहचान के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय ने गोल्ड स्टैंडर्ड फ्रंटलाइन टेस्ट कहा है। इसमें संभावित मरीज के नाक के छेद या गले से स्वाब लिया जाता है. ये टेस्ट लैब में ही किया जाता है। इस टेस्ट में रिबोन्यूक्लीयर एसिड यानी कि आरएनए की जांच की जाती है। आरएनए वायरस का जेनेटिक मटीरियल है।अगर मरीज से लिए गए सैंपल का जेनेटिक सीक्वेंस SARS-CoV-2 वायरस के जेनेटिक सीक्वेंस से मेल खाता है तो मरीज को कोरोना पॉजिटिव माना जाता है। इस टेस्ट में निगेटिव रिजल्ट तभी आता है जबकि मरीज के शरीर में वायरस मौजूद नहीं रहते हैं।बता दें कि आरटी-पीसीआर कोरोना टेस्टिंग की महंगी प्रणाली है। इसमें सैंपल से आरएनए निकालने वाली मशीन की जरूरत पड़ती है। इसके लिए एक प्रयोगशाला और प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों की भी जरूरत पड़ती है। इस टेस्ट को करने में लैब में ही 4 से 5 घंटे का समय लगता है। इसकी लागत भारत म साढ़े चार हजार रुपये के करीब आती है। हालांकि कोरोना टेस्टिंग की ये सबसे विश्वसनीय पद्धति है।---
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18 जुलाई 1947 यानी आज से ठीक 73 साल पहले भारत के बंटवारे पर मुहर लगाने वाला इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट यानी भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम वजूद में आया। इस एक्ट के तहत जहां देश को करीब 200 सालों के संघर्ष के बाद आजादी मिलने जा रही थी तो वहीं भारत के बंटवारे की भी मुहर लग गई और पाकिस्तान के रूप में नए देश के अस्तित्व में आने का रास्ता साफ हो गया।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 युनाइटेड किंगडम की पार्लियामेंट द्वारा पारित वह विधान है जिसके अनुसार ब्रिटेन शासित भारत का दो भागों (भारत तथा पाकिस्तान) में विभाजन किया गया। यह अधिनियम को 18 जुलाई 1947 को स्वीकृत हुआ और 15 अगस्त 1947 को भारत बंट गया। भारतीय संवैधानिक विकास के क्रम में अनेक विधेयक ब्रिटिश संसद ने पारित किए लेकिन सन् 1947 का भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा भारत के लिए अंतिम किन्तु सबसे अत्यधिक महत्वपूर्ण अधिनियम था।लॉर्ड माउंटबेटन को भारत के विभाजन और सत्ता के त्वरित हस्तान्तरण के लिए भारत भेजा गया। 3 जून 1947 को माउंटबेटन ने अपनी योजना प्रस्तुत की जिसमे भारत की राजनीतिक समस्या को हल करने के विभिन्न चरणों की रुपरेखा प्रस्तुत की गयी थी। प्रारम्भ में यह सत्ता हस्तांतरण विभाजित भारत की भारतीय सरकारों को डोमिनियन के दर्जे के रूप में दी जानी थीं।माउंटबेटन योजना के मुख्य प्रस्ताव-भारत को भारत और पाकिस्तान में विभाजित किया जायेगा,-बंगाल और पंजाब का विभाजन किया जायेगा और उत्तर पूर्वी सीमा प्रान्त और असम के सिलहट जिले में जनमत संग्रह कराया जायेगा।-पाकिस्तान के लिए संविधान निर्माण हेतु एक पृथक संविधान सभा का गठन किया जायेगा।-रियासतों को यह छूट होगी कि वे या तो पाकिस्तान में या भारत में सम्मिलित हो जायें या फिर खुद को स्वतंत्र घोषित कर दें।-भारत और पाकिस्तान को सत्ता हस्तान्तरण के लिए 15 अगस्त 1947 का दिन नियत किया गया।-ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 को जुलाई 1947 में पारित कर दिया। इसमें ही वे प्रमुख प्रावधान शामिल थे जिन्हें माउंटबेटन योजना द्वारा आगे बढ़ाया गया था।सभी राजनीतिक दलों ने माउंटबेटन योजना को स्वीकार कर लिया। सर रेडक्लिफ की अध्यक्षता में दो आयोगों का ब्रिटिश सरकार ने गठन किया जिनका कार्य विभाजन की देख-रेख और नए गठित होने वाले राष्ट्रों की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को निर्धारित करना था। स्वतंत्रता के समय भारत में 565 छोटी और बड़ी रियासतें थीं। भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल जी ने इस सन्दर्भ में कठोर नीति का पालन किया। 15 अगस्त 1947 तक जम्मू कश्मीर, जूनागढ़ व हैदराबाद जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर सभी रियासतों ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे। गोवा पर पुर्तगालियों और पुदुचेरी पर फ्रांसीसियों का अधिकार था। - किशनगढ़ शैली पेटिंग की एक शैली है, जिसका संबंध राजस्थान से है। जोधपुर से वंशीय सम्बन्ध होने तथा जयपुर से निकट होते हुए भी किशनगढ़ में एक स्वतंत्र शैली का विकास हुआ। सुन्दरता की दृष्टि से इस शैली के चित्र विश्व-विख्यात हैं। अन्य स्थानों की तरह यहां भी प्राचीन काल से चित्र बनते रहे। किशनगढ़ राज्य के संस्थापक किशन सिंह कृष्ण के अनन्योपासक थे। इसके पश्चात् सहसमल, जगमल और रुपसिंह ने यहां शासन किया। मानसिंह व राजसिंह (1706-48) ने यहां की कलाशैली के भरपूर सहयोग दिया। परन्तु किशनगढ़ शैली का समृद्ध काल राजसिंह के पुत्र सामन्त सिंह (1699-1764) के काल से आरंम्भ होता है।नागरीदारा की शैली में वैष्णव धर्म के प्रति श्रद्धा, चित्रकला के प्रति अभिरुचि तथा अपनी प्रेयसी वणी-ठणी से प्रेम का चित्रण महत्वपूर्ण है। कवि हृदय सावन्त सिंह नायिका वणी-ठणी से प्रेरित होकर अपना राज्य छोड़ वणी-ठणी को साथ लेकर वृन्दावन में आकर बस गये और नागर उपनाम से नागर सम्मुचय की रचना की। नागरीदास की वैष्णव धर्म में इतनी श्रद्धा थी और उनका गायिका वणी ठणी से प्रेम उस कोटि का था कि वे अपने पारस्परिक प्रेम में राधाकृष्ण की अनुभूति करने लगे थे। उन दोनों के चित्र इसी भाव को व्यक्त करते है। चित्रित सुकोमला वणी-ठणी को भारतीय मोनालिसा नाम भी दिया गया है। काव्यसंग्रह के आधार पर चित्रों के सृजन कर श्रेय नागरी दास के ही समकालीन कलाकार निहालचन्द को है। वणी-ठणी में कोकिल कंठी नायिका की दीर्घ नासिका, कजरारे नयन, कपोलों पर फैले केशराशि के साथ दिखलाया गया है। इस प्रकार इस शैली में कला, प्रेम और भक्ति का सामंजस्य है। निहालचन्द के अलावा सूरजमल इस समय का प्रमुख चित्रकार था। अन्य शैलियों की तरह इस शैली में भी गीत-गोविन्द का चित्रण हुआ।इस शैली के चेहरे लम्बे, कद लम्बा तथा नाक नुकीली रहती है। नारी नवयौवना, लज्जा से झुकी पतली और लम्बी है। धनुषाकार भ्रू-रेखा, खंजन के सदृश नयन तथा गौरवर्ण है। अधर पतले और हिगुली रंग के हैं। हाथ मेहंदी से रचे तथा महावर से रचे पैर हंै। नाक में मोती से युक्त नथ पहने, उच्च वक्ष स्थल पर पारदर्शी छपी चुन्नी पहन रूप यौवना सौदर्य की पराकाष्ठा है। स्थानीय गोदोला तालाब तथा किशनगढ़ के नगर को दूर से दिखाया जाना इस शैली की अन्य विशेषता है। चित्रों को गुलाबी और हरे छींटदार हाशियों से बांधा गया है। चित्रों में दिखती वेषभूषा फर्रुखसियर कालीन है। इन विशेषताओं को हम वृक्षों की घनी पत्रावली अट्टालिकाओं तथा दरबारी जीवन की रात की झांकियों, सांझी के चित्रों तथा नागरीदास से सम्बद्ध वृन्दावन के चित्रों में देख सकते हंै।---
- जल की उत्पत्ति कैसे हुई? इस प्रश्न के उत्तर के लिए पुराणों का मंथन करना पड़ेगा। आधुनिक भौतिक-विज्ञान के अनुसार जल की उत्पत्ति हाईड्रोजन+ऑक्सीजन इन दो गैसों पर विद्युत की प्रक्रिया के कारण हुई है। पौराणिक सिद्धान्त के अनुसार वायु और तेज की प्रतिक्रिया के कारण जल उत्पन्न हुआ है। यदि वायु को गैसों का समुच्चय एवं तेज को विद्युत माना जाये तो इन दोनों ही सिद्धांतों में कोई अन्तर नहीं है। अत: जल की उत्पत्ति का पौराणिक सिद्धांत पूर्णतया विज्ञान-सम्मत सिद्ध होता है।आधुनिक वैज्ञानिक आकाश, वायु तेज, जल और पृथ्वी को तत्व नहीं मानते। न मानने का कारण तत्व संबंधी अवधारणा है। तत्व के सम्बन्ध में पौराणिक अवधारणा यह है कि जिसमें तत (अर्थात् पुरुष/विष्णु/ब्रह्म) व्याप्त हो, वह तत्व कहलाता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार तत्व केवल मूल पदार्थ होता है। वस्तुत: तत्त्व और तत्व में बहुत अन्तर है।जल की उत्पत्ति के संबंध में एक अन्य पुरातन- अवधारणा भी विचारणीय है। लगभग सभी पुराणों और स्मृतियों में यह श्लोक (थोड़े-बहुत पाठभेद से) दिया रहता है जो इस अर्थ का वाचक है कि जल की उत्पत्ति नर (पुरुष = परब्रह्म) से हुई है अत: उसका (अपत्य रूप में) प्राचीन नाम नार है, चूंकि वह (नर) नार में ही निवास करता है, इसलिए उस नर को नारायण कहते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार इस समग्र संसार के सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का सबसे पहला नाम नारायण है। दूसरे शब्दों में में भगवान का जलमय रूप ही इस संसार की उत्पत्ति का कारण है। हरिवंश पुराण भी इसकी पुष्टि करता है कि आप: सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं। हरिवंश में कहा गया है कि स्वयंभू भगवान् नारायण ने नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से सर्वप्रथम जल की ही सृष्टि की। फिर उस जल में अपनी शक्ति का आधीन किया जिससे एक बहुत बड़ा हिरण्यमय-अण्ड प्रकट हुआ। वह अण्ड दीर्घकाल तक जल में स्थित रहा। उसी में ब्रह्माजी प्रकट हुए। इस हिरण्यमय अण्ड के दो खण्ड हो गये। ऊपर का खण्ड द्युलोक कहलाया और नीचे का भूलोकÓ दोनों के बीच का खाली भाग आकाश कहलाया। स्वयं ब्रह्माजी आपव कहलाये। जल केवल नारायण ही नहीं, ब्रह्मा विष्णु और महेश (रूद्र) तीनों है।वायु पुराण के अनुसार जल शिव की अष्टमूर्तियों में से एक है। दूसरे शब्दों में रूद्र की उपासना के लिए जो आठ प्रतीक निर्धारित हैं उनमें से एक जल है। ये आठ प्रतीक क्रमश: सूर्य, मही, जल, वह्नि (पशुपति), वायु, आकाश, दीक्षित ब्राह्मण तथा चन्द्र हैं। इनमें शिव का जो रसात्मक रूप है वह भव कहलाता है और जल में निवास करता है। इसलिए भव और जल से सम्पूर्ण भूत समूह (प्राणी) उत्पन्न होता है और वह सबको उत्पन्न करता है। अत: भवन-भावन-सम्बंध होने के कारण जल जीवों का संभव कहलाता है। इसी कारण कहा गया है कि जल में मल-मूत्र नहीं त्यागना चाहिए। न थूकना चाहिए। जलरूप भव की पत्नी उषा और पुत्र उशना माने गये हैं। पुराणों और स्मृतियों के अनुसार जल आधिदैविक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक तीनों रूपों में विद्यमान है।वेदों में जल को आपो देवता कहा गया है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद - इन तीनों संहिताओं में, यद्यपि जल के लिए पूरे एक सौ पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त हुए हैं।----
- तुर्की के बेहद मशहूर और करीब 500 किलोमीटर की लंबाई में फैले लायकन वे पर स्थित है बटरफ़्लाई वैली। लायकन वे दक्षिण तुर्की का समुद्रतटीय इलाका है। इसमें ही करीब 86 हजार वर्ग मीटर के दायरे में फैली है बटरफ़्लाई वैली। नाम से जाहिर है, यह तितलियों की घाटी है। यहां करीब एक सौ प्रजाति की रंग-बिरंगी तितलियां पाई जाती हैं। इनमें नारंगी, काली और सफेद बाघ जैसे रंगों वाली तितलियां भी शामिल हैं।इस वैली तक केवल पानी के रास्ते पहुंचा जा सकता है। यहां पर भूमध्य सागर में दूर डूबता हुआ सूर्य किसी लालमणि की तरह चमकता नजर आता है। बटरफ़्लाई वैली में 350 मीटर की ऊंचाई से एक झरना भी गिरता है, जो बाद में एक शांत नदी का रूप ले लेता था। इससे ही इलाके में लैवेंडर के फूल वाले पौधों और चेस्ट (नीले और सफेद फूल देने वाली यूरोपिय झाड़ी) को पानी मिलता है। यही झाड़ी तितलियों के प्राकृतिक निवास है। तुर्की की सरकार ने 1987 में इस वैली को संरक्षित इलाका घोषित कर दिया था ताकि तितलियों और स्थानीय वनस्पतियों को संरक्षित रखा जाए। बटरफ़्लाई वैली से महज पांच किलोमीटर उत्तर में स्थित द्वीप है ओलूडेनिज़। यहां पहुंचने वाली पर्यटकों की भारी भीड़ ने इस द्वीप के प्राकृतिक संसाधनों को काफी नुकसान पहुंचाया है।ओलूडेनिज़ का मतलब नीली खाड़ी होता है। यह द्वीप कभी दुनिया से पूरी तरह कटा हुआ था लेकिन 1980 के दशक में यहां पर्यटकों का पहुंचना शुरू हुआ। मौजूदा समय में पर्यटकों के चलते प्राकृतिक खूबसूरती के नष्ट होने का उदाहरण बन चुका है। पूरा द्वीप नियोन की रंग बिरगी और अंग्रेजी रेस्टोरेंट से भरा हुआ नजऱ आता है। समुद्री तटों पर समुद्री लुटेरों के जहाज़ और शराब से भरे क्रूज दिखते हैं। इनके अलावा समुद्री तटों पर नशे में झूमते टूरिस्ट और पैरा-ग्लाइडिंग के चलते धुएं से भरा आसमान नजऱ आता है।बटरफ़्लाई वैली के साथ ऐसा नहीं हुआ। पहले अनातोलिया टूरिज़्म डेवलपमेंट कोऑपरेटिव ने स्थानीय गांव वालों से ये घाटी 1981 में खऱीदी और 1984 में इसे पर्यटन के लिए खोल दिया। तीन साल के बाद तुर्की सरकार ने इसे राष्ट्रीय संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया। इस फ़ैसले के साथ ही इलाके में स्थायी निर्माण गैर-कानूनी हो गया। मौजूदा समय में यहां केवल टेंट और अस्थायी घर बनाने की इजाज़त है। इसके अलावा यहां की प्राकृतिक वनस्पतियों का व्यवसायिक उत्पादन शुरू नहीं किया गया है। जैतून, अनार, नींबू, संतरा, अखरोट, आड़ू, खुबानी, पॉम, ओलियंडर और लॉरेल जैसे फल यहां उगते हैं। प्राकृतिक तौर पर बेहद सुंदर इस द्वीप पर भी साल के आठ महीनों में अप्रैल और नवंबर के बीच में पर्यटकों का समूह पहुंचता है। यहां बिजली उपलब्ध नहीं है। बिजली केवल और केवल रात में खाने की सार्वजनिक जगह पर उपलब्ध होती है, हर किसी को यहीं खाना खाना होता है।-------------
- हरी सब्जियों की बात ही अलग होती है। हरी सब्जियां हमारी रोजमर्रा की जरूरतों का हिस्सा हैं। कुछ सब्जियां ऐसी होती हैं, जिनकी कीमती सुनकर आप हैरान कर जाएंगे। ऐसी ही एक सब्जी है गुच्छी, जो हजारों रूपए किलो बिकती है। यह फंफूदी परिवार का एक सदस्य है। इसे मशरुम भी कहते हैं। इस सब्जी को हिंदी भाषी राज्यों में स्पंज मशरूम के नाम से भी जाना जाता है।गुच्छी पहाड़ी इलाकों में उगाई जाने वाली सब्जी है जिसे दुनिया की सबसे महंगी सब्जी माना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम मार्कुला एस्क्यूलेंटा है। इसकी कीमत हमेशा आसमान छूती है। इसका निर्यात भी बड़ी मात्रा में किया जाता है।भारत में गुच्छी की पैदावार हिमाचल प्रदेश, कश्मीर और हिमालय के ऊंची पहाड़ी में की होती है। कीमत के लिहाज से इसमें पौष्टिता भी भरपूर होती है। इसमें विटामिन बी और डी के अलावा विटामिन सी और विटामिन के प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। माना जाता है कि इसके नियमित इस्तेमाल से दिल की बीमारी से बचा जा सकता है।नेपाल में इसे गुच्छी च्याउ के नाम से जाना जाता है। गुच्छी एक प्रकार का प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला मशरूम है जिसका तना सफेद व हल्के पीले रंग का होता है। यह अंदर से खोखला होता है जबकि इसका ऊपरी हिस्सा हल्का भूरा सफेदीपन से सिलेटी भूरे रंग का बहुत ही नरम हिस्सा होता है। यह क्षारीय मिट्टी से लेकर अम्लीय मिट्टी में उगता है। गुच्छी को बसंत ऋतु की शुरूआत में जंगलों, बागों, आंगन, वाटिकाओं व हाल ही में जलकर नष्ट होने वाले क्षेत्रों में अपने आप ही उग आते हैं। इसकी अधिक कीमत होने की एक वजह ये भी है कि इसकी खेती नहीं की जा सकती। आमतौर पर मिलने वाले मशरुम की भारत में बड़ी मात्रा में खेती हो रही है, लेकिन गुच्छी के साथ ऐसा नहीं है। यह प्राकृतिक रूप से पैदा होती है। जंगलों में गुच्छी फरवरी से अप्रैल माह के बीच मिलती है। इस सब्जी को पहाड़ों पर लोग ढूंढकर इक_ा करते हैं और ठंड के मौसम में इसका इस्तेमाल करते हैं।गुच्छी की मांग सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी काफी है। पाकिस्तान, अमरीका, यूरोप, फ्रांस, इटली और स्विट्जरलैंड जैसे देशों में कुल्लू की गुच्छी की खासी मांग है। इसकी उत्पत्ति के कारण इसे पूर्वोत्तर अमरीका में मे-मशरूम के नाम से भी जाना जाता है।गुच्छी के फूलों या बीजकोश के गुच्छों की तरकारी बनती है। यह स्वाद में बेजोड़ और कई औषधियों गुणों से भरपूर है। भारत और नेपाल में स्थानीय भाषा में इसे गुच्छी, छतरी, टटमोर या डुंघरू कहा जाता है।गुच्छी ऊंचे पहाड़ी इलाके के घने जंगलों में कुदरती रूप से पाई जाती है। जंगलों के अंधाधुंध कटान के कारण यह अब काफी कम मात्रा में मिलती है। चीन में इस मशरूम का इस्तेमाल सदियों से शारीरिक रोगों/क्षय को ठीक करने के लिए किया जा रहा है। गुच्छी मशरूम में 32.7 प्रतिशत प्रोटीन, 2 प्रतिशत फैट, 17.6 प्रतिशत फाइबर, 38 प्रतिशत कार्बोहायड्रेट पाया जाता है, इसीलिए यह काफी स्वास्थ्यवर्धक होता है। गुच्छी मशरूम से प्राप्त एक्सट्रैक्ट की तुलना डायक्लोफीनेक नामक आधुनिक सूजनरोधी दवा से की गई है। इसे भी सूजनरोधी प्रभावों से युक्त पाया गया है। इसके प्रायोगिक परिणाम ट्यूमर को बनने से रोकने और कीमोथेरेपी के रूप में प्रभावी हो सकते हैं। गठिया जैसी स्थितियों होने वाले सूजन को कम करने के लिए मोरेल मशरूम एक औषधीय एक रूप में काम करती है। ऐसा माना जाता है कि मोरेल मशरूम प्रोस्टेट व स्तन कैंसर की संभावना को कम कर सकता है।----
- एक चांद के हैं दुनिया में अनेक नामचंद्रमा को हम बचपन से चंदा मामा कहते आए हैं। दुनिया में चांद के कई नाम है, जो उसकी रंगत, आकार, प्रकार के हिसाब से रखे गए हैं। देखें ऐसे ही कुछ नाम-1. ब्लू मून- अंग्रेजी में वंस इन अ ब्लू मून मुहावरे का इस्तेमाल किसी ऐसी घटना के लिए किया जाता है जो कभी कभार ही होती है। आसमान में ब्लू मून भी ढाई साल में एक बार ही दिखता है। ढाई साल में एक बार ऐसा होता है कि एक ही महीने में दो बार पूर्णिमा का चांद दिखे, कुछ वैसे ही जैसे चार साल में एक बार फरवरी में एक दिन ज्यादा होता है।2. ब्लड मून- हिंदी में इसका अनुवाद होगा खूनी चांद और यह नाम इसे अपनी रंगत के कारण मिलता है। पूर्ण चंद्र ग्रहण के दौरान कई बार चांद लाल रंग का दिखता है। इस लाल रंग के कारण ही इसे ब्लड मून कहा जाता है। इस ग्रहण के दौरान धरती चांद और सूरज के बीच से कुछ इस तरह से गुजरती है कि कुछ देर के लिए चांद पर सूरज की जरा सी भी रोशनी नहीं पड़ती।3. सुपरमून- आपने देखा होगा कई बार पूर्णिमा का चांद बहुत ही बड़ा दिखाई पड़ता है। इसे सुपरमून कहा जाता है। चांद का आकार कैसा दिखेगा यह धरती से उसकी दूरी पर निर्भर करता है। जब वह धरती के सबसे करीबी बिंदु तक पहुंच जाता है, तब पूर्णिमा का चांद सुपरमून कहलाता है। यह सामान्य चांद से 14 फीसदी बड़ा और 30 फीसदी ज्यादा चमकीला होता है।4. सुपर ब्लड मून- सुपरमून का विशाल आकार और ब्लड मून का रंग, ये दोनों जब मिल जाते हैं तो बनता है सुपर ब्लड मून, यानी चांद को ऐसे वक्त में ग्रहण लगता है जब वह धरती के सबसे करीब होता है। इस लाल रंग के विशाल चांद का नजारा अद्भुत होता है।5. सुपर ब्लू ब्लड मून- ऐसा भी हो सकता है कि ढाई साल में एक बार जो पूर्णिमा का खास चांद निकले वह सुपर ब्लड मून हो। ऐसे में वह सुपर ब्लू ब्लड मून कहलाएगा। आखिरी बार 31 जनवरी 2018 को ऐसा हुआ था। वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि अगली बार ऐसा नजारा 31 जनवरी 2037 में देखने को मिलेगा।6. फ्लावर मून- मई के महीने में दिखने वाले पूर्णिमा के चांद को फ्लावर मून कहा जाता है। इसका चांद के रंग रूप से तो कोई लेना देना नहीं है, लेकिन यूरोप में यह वक्त होता है जब तरह तरह के नए फूल खिल रहे होते हैं। यह चांद एकदम सफेद होता है, जिस कारण इसे मिल्क मून भी कहा जाता है। कुछ जगहों पर इसे मदर्स मून के नाम से भी जाना जाता है।7. हारवेस्ट मून- सितंबर के महीने में पूर्णिमा के बेहद चमकदार चांद का यह नाम होता है। यूरोप में इस दौरान पतझड़ शुरू होने वाला होता है और खेतों की कटाई का वक्त होता है। पुराने जमाने में जब बिजली नहीं होती थी, तब पूर्णिमा के चांद की रोशनी में यह किया जाता था, इसीलिए इसे हारवेस्ट मून कहते हैं।8. वुल्फ मून- इसी तरह जनवरी वाले पूर्णिमा के चांद को वुल्फ मून यानी भेडिय़े वाला चांद कहा जाता है, जबकि इसका भेडिय़ों से कोई लेना देना नहीं है। प्राचीन यूरोप में हर महीने के चांद को अलग-अलग नाम दिए गए थे। इसी क्रम में फरवरी वाला स्नो मून, अप्रैल वाला पिंक मून और जून वाला स्ट्रॉबेरी मून कहलाता है।--
- हमारी दुनिया में मधुमक्खियों की सबसे खूबसूरत देन है शहद। मधुमक्खियों की अपनी एक अनोखी दुनिया है। दुनिया भर में मधुमक्खियों की लगभग 20 हजार से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें ज्यादातर घरों में दिखने वाली मधुमक्खियां शामिल हैं। मधुमक्खियों की कुछ ही प्रजातियां हैं, जिनसे शहद उत्पादन किया जाता है। इनमें यूरोपीय हनी-बी सबसे उपयुक्त है। दक्षिण एशिया में मधुमक्खियों की लगभग 6 प्रजातियां हैं, जिन्हें शहद बनाने के लिए पाला जाता है।भारत में भुनगा या डम्भर मधुमक्खी पाई जाती है, जो कि आकार में सबसे छोटी होती है। यह सबसे कम शहद देती है। इनके शहद का स्वाद भी थोड़ा खट्टा होता है, लेकिन आयुर्वेद में इस शहद को बहुत उपयुक्त माना जाता है। खास बात है कि ये मधुमक्खियां जड़ी बूटियों के उन नन्हें फूलों से भी पराग इक_ा कर लेती हैं, जहां अन्य कीट नहीं पहुंच पाते हैं। इनका वैज्ञानिक नाम एपिस मेलीपोना है।हैरान कर देने वाली यह है कि मक्खियों की अधिकतर प्रजातियां डंक नहीं मारती हैं। वैज्ञानिकों की मानें, तो नर मधुमक्खी कभी डंक नहीं मारती है, ऐसा सिर्फ मादा मधुमक्खी ही करती है। आपको जानकर हैरानी होगी मधुमक्खियां 1 किलो शहद बनाने में लगभग 40 लाख फूलों का रस चुस्ती है। एक स्वस्थ मक्खी का जीवनकाल लगभग 45 दिनों का होता है।मधुमक्खियों के दो पेट होते हैं जिनमें से एक का उपयोग वह खाना खाने के लिए व दूसरे का उपयोग फूलों का रस इक_ा करने में करती हैं। मधुमक्खियों में भी कुत्तों की तरह ही बम ढूंढने की शक्ति होती है। इनमें 170 तरह के सूंघने वाले रिसेप्टर्स होते हैं।मधुमक्खियों के झुंड में एक लीडर मक्खी होती है जो इन मक्खियों की रानी होती है। छत्ते में रहने वाली हजारों मक्खियों को रानी मक्खी के आदेश का पालन करना पड़ता है।धरती पर मौजूद सभी जीव-जंतुओं में से मधुमक्खियों की भाषा सबसे कठिन है। एक मधुमक्खी औसतन 1 घंटे में 183 बार पंख फडफ़ड़ा सकती है। एक जानकारी के मुताबिक मधुमक्खियों की उडऩे की तीव्रता 15 किलोमीटर प्रति घंटे की होती है।----
- चूहा एक छोटा सा प्राणी है जिसे हम दो कारणों से काफ़ी जानते हैं। एक तो यह कि ये हमारे घर का कोई सामान जैसे कि कपड़े, किताबें और अनाज कुतर-कुतर खऱाब कर देता है और दूसरा यह हमारे देवता श्री गणेश महाराज की सवारी है। चूहे चीजों को क्यों कुतरते हैं? दरअसल चूहे के दांत बहुत तेज़ी से बढ़ते रहते हंै, अगर वो अपने इन दांतों को किसी चीज से ना घिसाएं तो साल भर में चूहों के दांत एक दो इंच तक बढ़ जाएंगे जो उनके जबड़े को फाड़ डालेंगे। मतलब कि कुतरना चुहों को मज़बूरी है शौक नहीं।धरती पर चूहों की आबादी इंसानों से दस गुणा ज्यादा है। पांच - छह चुहे मिलकर एक आदमी का ख़ाना आसानी से चट कर सकते हैं। चूहों का एक जोड़ा साल में एक हजार बच्चे पैदा कर सकता है।एक मादा चूहा दो महीने की उम्र में बच्चों को जन्म दे सकती है और हर तीन हफ्तों में 12 बच्चे पैदा कर सकती है। एक चूहे का औसतन जीवन काल 1 से 2 साल तक होता है। अगर किसी चूहे की पूरी देखभाल की जाए तो वो 5 साल तक भी जी सकता है। चूहा डेढ़ फुट तक लंबी छलांगे लगा सकता है और पानी में तैर भी सकता है। अमरीकी शोधकर्ताओं का कहना है कि चुहे तरह-तरह की आवाजें सुन कर गाना भी गा सकते हैं। एक चूहे का एक मिनट में औसतन 632 बार धड़कता है जबकि मनुष्यों का प्रति मिनट सिर्फ 60 से 100 बार।शोधकर्ताओं का कहना है कि चूहे का मस्तिष्क भी कुछ-कुछ इंसानों की तरह ही व्यवहार करता है और उसमें भी सीखने की अद्भुत क्षमता है। चूहे ध्वनि की गति से भी तेज़ अल्ट्रासॉनिक तरंगे पैदा करते हैं जिनकी तीव्रता 50 से 100 किलोहर्ट्ज़ के बीच होती है। इंसानों के कान इस तीव्रता की ध्वनि तरंगें नहीं सुन सकते हैं। जब इन तरंगों को इस लायक बनाया गया कि इंसान उन्हें सुन सके, तो ये आवाजें सीटियों के जैसी थी।---
- सदाफूली या सदाबहार या सदा सुहागिन बारहों महीने खिलने वाले फूलों का एक पौधा है। इसकी आठ जातियां हैं। इनमें से सात मेडागास्कर में तथा आठवीं भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाती है। इसका वैज्ञानिक नाम केथारेन्थस है। भारत में पाई जाने वाली प्रजाति का वैज्ञानिक नाम केथारेन्थस रोजस है।मेडागास्कर मूल की यह फूलदार झाड़ी भारत में कितनी लोकप्रिय है इसका पता इसी बात से चल जाता है कि लगभग हर भारतीय भाषा में इसको अलग नाम दिया गया है- उडिय़ा में अपंस्कांति, तमिल में सदाकाडु मल्लिकइ, तेलुगु में बिल्लागैन्नेर्स, पंजाबी में रतनजोत, बांग्ला में नयनतारा या गुलफिरंगी, मराठी में सदाफूली और मलयालम में उषामालारि।विकसित देशों में रक्तचाप शमन की खोज से पता चला कि सदाबहार झाड़ी में यह क्षार अच्छी मात्रा में होता है। इसलिए अब यूरोप भारत चीन और अमेरिका के अनेक देशों में इस पौधे की खेती होने लगी है। अनेक देशों में इसे खांसी, गले की खऱाश और फेफड़ों के संक्रमण की चिकित्सा में इस्तेमाल किया जाता है। सबसे रोचक बात यह है कि इसे मधुमेह के उपचार में भी उपयोगी पाया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सदाबहार में दर्जनों क्षार ऐसे हैं जो रक्त में शकर की मात्रा को नियंत्रित रखते है।भारत में ही केंद्रीय औषधीय एवं सुगंध पौधा संस्थान द्वारा की गई खोजों से पता चला है कि सदाबहार की पत्तियों में विनिकरस्टीन नामक क्षारीय पदार्थ भी होता है जो कैंसर, विशेषकर रक्त कैंसर (ल्यूकीमिया) में बहुत उपयोगी होता है। आज यह पौधा संजीवनी बूटी का काम कर रहा है। बगीचों की बात करें तो 1980 तक यह फूलों वाली क्यारियों के लिए सबसे लोकप्रिय पौधा बन चुका था, लेकिन इसके रंगों की संख्या एक ही थी- गुलाबी। 1998 में इसके दो नए रंग ग्रेप कूलर (बैंगनी आभा वाला गुलाबी जिसके बीच की आंख गहरी गुलाबी थी) और पिपरमिंट कूलर (सफेद पंखुरियां, लाल आंख) विकसित किए गए।वर्ष 1991 में रॉन पार्कर की कुछ नई प्रजातियां बाज़ार में आईं। इनमें से प्रिटी इन व्हाइट और पैरासॉल को आल अमेरिका सेलेक्शन पुरस्कार मिला। इन्हें पैन अमेरिका सीड कंपनी द्वारा उगाया और बेचा गया। इसी वर्ष कैलिफोर्निया में वॉलर जेनेटिक्स ने पार्कर ब्रीडिंग प्रोग्राम की ट्रॉपिकाना शृंखला को बाज़ार में उतारा। इन सदाबहार प्रजातियों के फूलों में नए रंग तो थे ही, आकार भी बड़ा था और पंखुरियां एक दूसरे पर चढ़ी हुई थीं। 1993 में पार्कर जर्मप्लाज्म ने पैसिफ़का नाम से कुछ नए रंग प्रस्तुत किए। जिसमें पहली बार सदाबहार को लाल रंग दिया गया। इसके बाद तो सदाबहार के रंगों की झड़ी लग गई और आज बाज़ार में लगभग हर रंग के सदाबहार पौधों की भरमार है।यह फूल सुंदर तो है ही आसानी से हर मौसम में उगता है, हर रंग में खिलता है और इसके गुणों का भी कोई जवाब नहीं, शायद यही सब देखकर नेशनल गार्डेन ब्यूरो ने सन 2002 को इयर आफ़ विंका के लिए चुना। विंका या विंकारोज़ा, सदाबहार का अंग्रेज़ी नाम है।-----
- इंसान तो लंबी दूरी की यात्रा करने के लिए कार, ट्रेन, बस, शिप और प्लेन का सहारा लेता है, लेकिन दुनिया में जीवों की यात्रा देखकर आपको लगेगा कि इंसान अपने दम पर सफर करने में बहुत फिसड्डी है।1. सालमन मछली (3,800 किलोमीटर)नारंगी मांस वाली सालमन मछली अपने जीवन के शुरुआती 2-3 साल नदी के ठंडे पानी में बिताती है। नदी में अंडे देने के बाद सालमन समंदर के खारे पानी की यात्रा पर निकल पड़ती है। 3-4 साल खारे पानी में बिताने के बाद यह मछली अपने आखिरी दिन बिताने के लिए नदी के ठंडे पानी में लौटती है।2. मोनार्क तितली (करीब 4,800 किलोमीटर)कनाडा और उत्तरी अमेरिका में पाई जाने वाली यह तितली सर्दियों से पहले हजारों किलोमीटर की उड़ान भर मेक्सिको जाती है। सिर्फ दो-तीन महीने जीने वाली ये तितलियां अपना ज्यादातर वक्त इधर से उधर जाने में ही खपा देती हैं। यात्रा के दौरान नेविगेशन के लिए वे पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का सहारा लेती हैं.ा।3. रेंडियर (करीब 5 हजार किलोमीटर)रेंडियर या कारीबो कहलाने वाला ये वन्य जीव यूरोप, एशिया और उत्तर अमेरिका में पाया जाता है। बर्फ पिघलने के बाद सामने आने वाली हरी घास चरने के लिए इनका झुंड एक दिन में 70 किलोमीटर का फासला तय करता है।4. सेमीपालमैटेड सैंडपाइपर (करीब 5,300 किलोमीटर)समंदर किनारे रहने वाली यह चिडिय़ा सर्दियों से ठीक पहले कनाडा छोड़ देती है और लंबी उड़ान भर अमेरिका के दक्षिणी इलाकों में पहुंचती है। बड़े झुंड में उडऩे वाले ये परिंदे बिना रुके अटलांटिक महासागर पार करने की क्षमता रखते हैं।5. ड्रैगनफ्लाई (करीब 17 हजार किलोमीटर)ड्रैगनफ्लाई कहे जाने वाले कीटों की कुछ प्रजातियां चार पीढिय़ों तक लगातार सफर पर होती हैं। पुरानी पीढ़ी मरती जाती है और लगातार पैदा होती नई पीढ़ी आगे बढ़ती जाती है। सर्दियों में वह दक्षिण एशिया के लिए उड़ान भरती है। हवा और मैग्नेटिक फील्ड की मदद से उन्हें अपने रास्ते का पता चलता है।ॉ6. लेदरबैक कछुआ (करीब 20 हजार किलोमीटर)समंदर में रहने वाला यह कछुआ अटलांटिक और प्रशांत महासागर को पार करता है। खाने की खोज में यह अटलांटिक महासागर से कैलिफोर्निया के पास मौजूद प्रशांत महासागर के दूसरे छोर तक जाता है। वहां यह जेलीफिश का शिकार करता है।7. नॉदर्न एलिफेंट सील (करीब 21 हजार किलोमीटर)सील की यह प्रजाति कैलिफोर्निया के तट से अपनी यात्रा शुरू करती है और अंत में बिल्कुल उसी जगह पर लौटती है। यह हर साल 21 हजार किलोमीटर का फासला पूरा करती है। इस दौरान यह समुद्र की असीम गहराई में काफी वक्त बिताती है।8. हंपबैक व्हेल (करीब 23 हजार किलोमीटर)इस स्तनधारी जीव के नाम सबसे लंबी यात्रा का रिकॉर्ड है। हंपबैक व्हेल दुनिया के पांचों महासागरों को छूती है। जून जुलाई में यह यूरोप और अमेरिका की तरफ जाती है। सर्दियों में विषुवत रेखा के पास और नवंबर दिसंबर में दक्षिणी गोलार्ध के इर्द गिर्द।9. सूटी शियरवॉटर (करीब 65 हजार किलोमीटर)बत्तख जैसा दिखने वाला यह परिंदा मूल रूप से न्यूजीलैंड के आस पास रहता है, लेकिन सर्दियों में ठंड से बचने और खाने की तलाश में यह प्रशांत महासागर के गुनगुने इलाकों का रुख करता है। शियरवॉटर हर दिन 900 से 1,000 किलोमीटर की दूरी तय करते हैं। यात्रा पूरी करने में इन्हें 200 दिन लगते हैं।आर्कटिक टेर्न ( करीब 71 हजार किलोमीटर)113 ग्राम वजन वाली यह चिडिय़ा दुनिया में सबसे लंबी यात्रा करती है। हर साल यह उत्तरी ध्रुव के आर्कटिक सर्कल से दक्षिणी ध्रुव के अंटार्कटिक इलाके तक जाती है। जिस ध्रुव में ज्यादा सूरज चमकता है, यह चिडिय़ा वहां पहुंच जाती है।---
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खूनी दरवाजा , जिसे लाल दरवाजा भी कहा जाता है, दिल्ली में बहादुर शाह जफ़ऱ मार्ग पर दिल्ली गेट के निकट स्थित है। यह दिल्ली के बचे हुए 13 ऐतिहासिक दरवाजों में से एक है। यह पुरानी दिल्ली के लगभग आधा किलोमीटर दक्षिण में, फिऱोज़ शाह कोटला मैदान के सामने स्थित है। इसके पश्चिम में मौलाना आज़ाद चिकित्सीय महाविद्यालय का द्वार है। यह असल में दरवाजा न होकर तोरण है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसे सुरक्षित स्मारक घोषित किया है।
खूनी दरवाजे का यह नाम तब पड़ा जब यहां मुग़ल सल्तनत के तीन शहज़ादों - बहादुरशाह जफ़ऱ के बेटों मिजऱ्ा मुग़ल और किज़्र सुल्तान और पोते अबू बकर - को ब्रिटिश जनरल विलियम हॉडसन ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गोली मार दी थी। मुग़ल सम्राट के आत्मसमर्पण के अगले ही दिन विलियम हॉडसन ने तीनों शहज़ादों को भी समर्पण करने पर मजबूर कर दिया। 22 सितम्बर को जब वह इन तीनों को हुमायूं के मक़बरे से लाल किले ले जा रहा था, तो उसने इन्हें इस जगह रोका, और गोलियां दाग कर मार डाला। इसके बाद शवों को इसी हालत में ले जाकर कोतवाली के सामने प्रदर्शित कर दिया गया। इसके नाम के कारण बहुत सी अमानवीय घटनाएं इसके साथ जोड़ी जाती हैं, जिनको सत्यापित करना संभव नहीं है।
कहा जाता है कि अकबर के बाद जब जहांगीर मुग़ल सम्राट बना तो अकबर के कुछ नवरत्नों ने उसका विरोध किया। जवाब में जहांगीर ने नवरत्नों में से एक अब्दुल रहीम खाने-खाना के दो लड़कों को इस दरवाजे पर मरवा डाला और इनके शवों को यहीं सडऩे के लिये छोड़ दिया गया था। औरंगज़ेब ने अपने बड़े भाई दारा शिकोह को सिंहासन की लड़ाई में हरा कर उसके सिर को इस दरवाजे पर लटकवा दिया। 1739 में जब नादिर शाह ने दिल्ली पर चढ़ाई की तो इस दरवाजे के पास काफ़ी खून बहा। लेकिन कुछ सूत्रों के अनुसार यह खून-खराबा चांदनी चौक के दड़ीबा मुहल्ले में स्थित इसी नाम के दूसरे दरवाजे पर हुआ था। और कुछ कहानियों से भी ऐसा लगता है कि मुग़ल काल में भी इसे खूनी दरवाजा कहा जाता था, लेकिन ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार 1857 की घटनाओं के बाद से ही इसका यह नाम पड़ा।
भारत के विभाजन के दौरान हुए दंगों में भी पुराने किले की ओर जाते हुए कुछ शरणार्थियों को यहां मार डाला गया। दिसंबर 2002 से आम जनता के लिये यह स्मारक बंद कर दिया गया। यह दरवाजा 15.5 मीटर ऊंचा है और दिल्ली क्वाट्र्सजाइट पत्थर का बना है। इसके ऊपर चढऩे के लिये तीन सीढिय़ां भी बनी हैं।
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वेद और पुराणों में कल्पवृक्ष का उल्लेख मिलता है। कल्पवृक्ष स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। पौराणिक धर्मग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है, क्योंकि इस वृक्ष में अपार सकारात्मक ऊर्जा होती है।
पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पवृक्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना सुरकानन वन (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। पद्मपुराण के अनुसार पारिजात ही कल्पतरु है। ओलिएसी कुल के इस वृक्ष का वैज्ञानिक नाम ओलिया कस्पीडाटा है। यह यूरोप के फ्रांस और इटली में बहुतायत मात्रा में पाया जाता है। यह दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में भी पाया जाता है। भारत में इसका वानस्पतिक नाम बंबोकेसी है। इसको फ्रांसीसी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने 1775 में अफ्रीका में सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नाम अडनसोनिया टेटा रखा गया। इसे बाओबाब भी कहते हैं।वृक्षों और जड़ी-बूटियों के जानकारों के मुताबिक यह एक बेहद मोटे तने वाला फलदायी वृक्ष है जिसकी टहनी लंबी होती है और पत्ते भी लंबे होते हैं। दरअसल, यह वृक्ष पीपल के वृक्ष की तरह फैलता है और इसके पत्ते कुछ-कुछ आम के पत्तों की तरह होते हैं। इसका फल नारियल की तरह होता है, जो वृक्ष की पतली टहनी के सहारे नीचे लटकता रहता है। इसका तना देखने में बरगद के वृक्ष जैसा दिखाई देता है। इसका फूल कमल के फूल में रखी किसी छोटी- सी गेंद में निकले असंख्य रुओं की तरह होता है।पीपल की तरह ही कम पानी में यह वृक्ष फलता-फूलता हैं। सदाबहार रहने वाले इस कल्पवृक्ष की पत्तियां बिरले ही गिरती हैं, हालांकि इसे पतझड़ी वृक्ष भी कहा गया है।यह वृक्ष लगभग 70 फुट ऊंचा होता है और इसके तने का व्यास 35 फुट तक हो सकता है। 150 फुट तक इसके तने का घेरा नापा गया है। इस वृक्ष की औसत जीवन अवधि 2500-3000 साल है। कार्बन डेटिंग के जरिए सबसे पुराने फस्र्ट टाइमर की उम्र 6 हजार साल आंकी गई है।औषध गुणों के कारण कल्पवृक्ष की पूजा की जाती है। भारत में रांची, अल्मोड़ा, काशी, नर्मदा किनारे, कर्नाटक आदि कुछ महत्वपूर्ण स्थानों पर ही यह वृक्ष पाया जाता है। पद्मपुराण के अनुसार परिजात ही कल्पवृक्ष है।इसमें संतरे से 6 गुना ज्यादा विटामिन सी होता है। गाय के दूध से दोगुना कैल्शियम होता है और इसके अलावा सभी तरह के विटामिन पाए जाते हैं। यह वृक्ष जहां भी बहुतायत में पाया जाता है, वहां सूखा नहीं पड़ता। यह रोगाणुओं का डटकर मुकाबला करता है। इस वृक्ष की खासियत यह है कि कीट-पतंगों को यह अपने पास फटकने नहीं देता और दूर-दूर तक वायु के प्रदूषण को समाप्त कर देता है। इस मामले में इसमें तुलसी जैसे गुण हैं।पानी के भंडारण के लिए इसे काम में लिया जा सकता है, क्योंकि यह अंदर से (वयस्क पेड़) खोखला हो जाता है, लेकिन मजबूत रहता है जिसमें 1 लाख लीटर से ज्यादा पानी रखने की क्षमता होती है। इसकी छाल से रंगरेज की रंजक (डाई) भी बनाई जा सकती है। चीजों को सान्द्र बनाने के लिए भी इस वृक्ष का इस्तेमाल किया जाता है। - 7 जून, 2019 को पहली बार विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस मनाया गया। इसे संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा दिसंबर 2018 में खाद्य और कृषि संगठन के सहयोग से अपनाया गया था। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य सुरक्षित खाद्य मानकों को बनाए रखने के में जागरूकता पैदा करना और खाद्य जनित बीमारियों के कारण होने वाली मौतों को कम करना है। इस दिन को मनाने के पीछे खाद्य सुरक्षा के प्रति लोगों को जागरूक करने का उद्देश्य था। जो खराब भोजन का सेवन करने की वजह से गंभीर रोगों के शिकार बन जाते हैं।खाद्य सुरक्षा का उद्देश्य यह सुनिश्चित किया जाना है कि हर व्यक्ति को पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित और पौष्टिक भोजन मिल सके। हालांकि डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों की मानें तो दुनियाभर में लगभग 10 में से 1 व्यक्ति दूषित भोजन का सेवन करने से बीमार पड़ जाता है। जो कि सेहत के लिए एक बड़ा खतरा है। साल 2019 में वल्र्ड फूड सेफ्टी डे की थीम खाद्य सुरक्षा, सभी का व्यवसाय थी। संयुक्त राष्ट्र ने इस साल के लिए कोई थीम जारी नहीं की है।संयुक्त राष्ट्र ने अपनी दो एजेंसियों - खाद्य और कृषि संगठन तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन को दुनिया भर में खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिये नामित किया है। खाद्य सुरक्षा क्यों आवश्यक है और इसे कैसे हासिल किया जा सकता है?Ó इस पर चर्चा करने के लिये संयुक्त राष्ट्र ने दिशा-निर्देश विकसित किये हैं। इसके पांच मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं-1. सरकारों को सभी के लिये सुरक्षित और पौष्टिक भोजन सुनिश्चित करना चाहिये।2. कृषि और खाद्य उत्पादन में अच्छी प्रथाओं को अपनाने की आवश्यकता है।3. व्यापार करने वालों लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि खाद्य पदार्थ सुरक्षित है।4. सभी उपभोक्ताओं को सुरक्षित, स्वस्थ और पौष्टिक भोजन प्राप्त करने का अधिकार है।5. खाद्य सुरक्षा एक साझा जि़म्मेदारी है। सुरक्षित, पौष्टिक और पर्याप्त भोजन अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के साथ ही भूख जैसी समस्या को समाप्त कर सकता है।भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने राज्यों द्वारा सुरक्षित खाद्य उपलब्ध कराए जाने के प्रयासों के संदर्भ में राज्य खाद्य सुरक्षा इंडेक्स विकसित किया है। इस इंडेक्स के माध्यम से खाद्य सुरक्षा के पांच मानदंडों पर राज्यों का प्रदर्शन आंका जाएगा। इन श्रेणियों में निम्नलिखित मानदंड शामिल हैं- मानव संसाधन और संस्थागत प्रबंधन, कार्यान्वयन, खाद्य जांच-अवसंरचना और निगरानी, प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण और उपभोक्ता सशक्तीकरण।----
- जो दुनिया के लिए इंडिया है, वह इस देश में रहने वाले बहुत से लोगों के लिए भारत या हिंदुस्तान है। इसी तरह जापानी अपने देश को निप्पॉन कहते हैं। दुनिया में ऐसे और भी देश हैं जिनके एक से ज्यादा नाम हैं, देखें सूची-रूस- हम जिसे अंग्रेजी में रशिया और हिंदी में रूस से नाम से जानते हैं, उसे रूसी भाषा में रोसिया कहा जाता है।चीन- एक उभरती विश्व महाशक्ति का नाम दुनिया के लिए चीन या चाइना है, लेकिन चीनी भाषा में उसका नाम चुंगकुओ है।भूटान- भारत के करीबी पड़ोसी भूटान के लोग अपने देश को स्थानीय भाषा में द्रुक युल कहते हैं।मालदीव- हिंद महासागर में द्वीपों पर बसा मादलीव दक्षिण एशिया का सबसे छोटा देश है। उसे स्थानीय धीवेही भाषा में धीवेही राजे कहते हैं।स्विट्जरलैंड- स्विट्जरलैंड का नाम वहां बोली जाने वाली चारों भाषाओं फ्रेंच, जर्मन, इटैलियन और रोमांश में अलग है। इसे क्रमश: सुइस, श्वात्स, स्वीजेरा और स्वीजरा कहते हैं।जर्मनी- जब भी दमदार मशीनों, शानदारों कारों और टेक्नोलॉजी की बात आती है तो सबकी जुबान पर जर्मनी का नाम होता है, लेकिन जर्मन में उसे डॉयचलांड कहते हैं।पोलैंड-जर्मनी के पड़ोसी पोलैंड का नाम स्थानीय पोलिश भाषा में पोल्स्का है। 3.85 करोड़ की आबादी के साथ यह यूरोपीय संघ में पांचवा सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है।ग्रीस- दुनिया भर के सैलानियों का पसंदीदा ठिकाना ग्रीस अब शरणार्थी और आर्थिक संकट की वजह से सुर्खियों में रहता है। ग्रीक भाषा में उसका नाम हेलास है।अल्बानिया- पूर्वी यूरोप के इस छोटे से देश को स्थानीय अल्बानियाई भाषा में श्कीपेरिया कहते हैं।अर्मेनिया- अर्मेनिया की सीमाएं ईरान, तुर्की, अजरबैजान और जॉर्जिया से मिलती है। इस देश का नाम स्थानीय अर्मेनियाई भाषा में हायास्तान है।ऑस्ट्रिया- यूरोपीय देश ऑस्ट्रिया भी उन देशों में शामिल है जिनके दो नाम हैं। स्थानीय जर्मन भाषा में उसे ओएस्ट्रेराइश कहते हैं।क्रोएशिया- यूरोप का यह देश अपने सुंदर तटों और प्राकृतिक सुंदरता के लिए मशहूर है। क्रोएशिया का नाम स्थानीय भाषा में हृवात्स्का है।मिस्र- दुनिया की पुरानी सभ्यताओं में से एक की जन्मस्थली का नाम अंग्रेजी में ईजिस्पट है, लेकिन स्थानीय अरबी भाषा में उसे मिस्र कहते हैं।इस्टोनिया- उत्तरी यूरोप में बाल्टिक सागर के पूर्वी तट पर बसा है इस्टोनिया, जिसे स्थानीय इस्टोनियाई भाषा में एस्ती कहते हैं।जॉर्जिया- रूस से टकराव की वजह से कई बार सुर्खियों रहे जॉर्जिया को स्थानीय जॉर्जियन भाषा में साकआर्तवेलो कहते हैं।उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया- दुनिया के सबसे अलग थलग देशों में शामिल उत्तर कोरिया को स्थानीय लोग चोसोन कहते हैं। इसी तरह दक्षिण कोरिया को कोरियन भाषा में हांगुक कहते हैं।लिथुआनिया- उत्तरी यूरोप में स्थित लिथुआनिया को स्थानीय लिथुआनियन भाषा में लीतुवा कहते हैं। इसकी सीमाएं पोलैंड, बेलारूस और रूस के कालिनिनग्राद इलाके से लगती हैं।नॉर्वे- दुनिया के सबसे खुश और समृद्ध देशों में शुमार होने वाले नॉर्वे को स्थानीय नॉर्वेजियन भाषा में नॉर्गे कहते हैं।स्वीडन- यूरोपीय देश स्वीडन का नाम भी स्थानीय भाषा में थोड़ा सा अलग है। स्वीडिश लोग अपने देश को स्वेरिगे के नाम से पुकारते हैं।ट्यूनिशिया- वर्ष 2011 की अरब क्रांति की जन्मस्थली के तौर पर दुनिया ट्यूनिशिया का नाम जानती है, लेकिन उसे स्थानीय अरबी भाषा में तुनेस कहते हैं।
- आम्रपाली राजा चेतक के समय में वैशाली की अतिसुंदर राजनर्तकी थी। गौतम बुद्ध के वैशाली पधारने पर आम्रपाली ने उन्हें अपने यहां भोजन करने के लिए आमंत्रित किया था और भगवान बुद्ध के पहुंचने पर उन्हें भोजन कराया था। आम्रपाली ने अजातशत्रु से प्रेम होने के बावजूद देशप्रेम की ख़ातिर अजातशत्रु के अनुग्रह को अस्वीकार कर दिया। उस समय के उपलब्ध सहित्य में अजातशत्रु के पिता बिंबसार को भी गुप्त रूप से उसका प्रणयार्थी बताया गया है। आम्रपाली को लेकर भारतीय भाषाओं में बहुत से काव्य, नाटक और उपन्यास लिखे गए हैं।इतिहासकार मानते हैं कि मात्र 11 वर्ष की छोटी-सी उम्र में ही आम्रपाली को सर्वश्रेष्ठ सुंदरी घोषित कर नगरवधु या जनपद कल्याणी बना दिया गया था। वैशाली गणतंत्र के कानून के अनुसार हजारों सुंदरियों में आम्रपाली का चुनाव कर उसे सर्वश्रेष्ठ सुंदरी घोषित कर जनपद कल्याणी की पदवी दी गई थी। इसके बाद गणतंत्र वैशाली के क़ानून के तहत आम्रपाली को राजनर्तकी बनना पड़ा। प्रसिद्ध चीनी यात्री फ़ाह्यान और ह्वेनसांग के यात्रा वृतांतों में भी वैशाली गणतंत्र और आम्रपाली पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। दोनों ने लगभग एकमत से आम्रपाली को सौंदर्य की मूर्ति बताया है। कहा जाता है कि आम्रपाली को एक बार जो देख लेता था, वह मंत्रमुग्ध हो जाता था।आम्रपाली के रूप की चर्चा जगत प्रसिद्ध थी और उस समय उसकी एक झलक पाने के लिए सुदूर देशों के अनेक राजकुमार उसके महल के चारों ओर छावनी डाले रहते थे। बिंबसार ने आम्रपाली को पाने के लिए वैशाली पर जब आक्रमण किया, तब संयोगवश उसकी पहली मुलाकात आम्रपाली से ही हुई। वह आम्रपाली के रूप-सौंदर्य पर मुग्ध हो गया। माना जाता है कि आम्रपाली से प्रेरित होकर बिंबसार ने अपने राजदरबार में राजनर्तकी के प्रथा की शुरुआत की थी। कहा जाता है कि बिंबसार को आम्रपाली से एक पुत्र भी हुआ था, जो बाद में बौद्ध भिक्षु बन गया था।उस युग में राजनर्तकी का पद बड़ा गौरवपूर्ण और सम्मानित माना जाता था। साधारण जन तो उस तक पहुंच भी नहीं सकते थे। समाज के उच्च वर्ग के लोग भी उसके कृपाकटाक्ष के लिए लालायित रहते थे। कहते हैं, भगवान तथागत ने भी उसे आर्या अंबा कहकर संबोधित किया था तथा उसका आतिथ्य ग्रहण किया था। धम्मसंघ में पहले भिक्षुणियां नहीं ली जाती थीं, यशोधरा को भी बुद्ध ने भिक्षुणी बनाने से मना कर दिया था, किंतु आम्रपाली की श्रद्धा, भक्ति और मन की विरक्ति से प्रभावित होकर नारियों को भी उन्होंने संघ में प्रवेश का अधिकार प्रदान किया। संभवत आम्रपाली अभिजात कुलीना थी और इतनी सुंदर थी कि लिच्छवियों की परंपरा के अनुसार उसके पिता को उसे सर्वभोग्या बनाना पड़ा। संभवत: उसने गणिका का जीवन भी बिताया था।
- दुनिया में सिर्फ 11 देश ऐसे हैं जहां कोरोना वायरस का कोई मामला दर्ज नहीं हुआ है। इनमें से ज्यादातर देश आम दिनों में भी दुनिया से कटे ही रहते हैं। आइये जाने ऐसे देश के बारे में .....1. किरीबाती- मध्य प्रशांत महासागर में बसा यह देश बाकी दुनिया से सिर्फ एयर रूट और समंदर के जरिए जुड़ा है। देश की आबादी सवा लाख से जरा ज्यादा है।2. मार्शल आइलैंड्स- मध्य प्रशांत महासागर का यह देश भी द्वीपों का समूह हैै। देश की आबादी करीब 60 हजार हैै।3. माइक्रोनेशिया- 600 द्वीप समूहों वाला यह देश मुख्य रूप से चार द्वीपों पर बसता हैै। पश्चिमी प्रशांत महासागर के इस देश की जनसंख्या 1 लाख 12 हजार से थोड़ा ज्यादा हैै।5. नाऊरू- ऑस्ट्रेलिया के पूर्वोत्तर में बसा नाऊरू भी द्वीपीय देश हैै। हवाई यातायात बंद होते ही यह देश दुनिया से कट गया। इसकी करीब 13 हजार की आबादी कोरोना की चपेट में आने से बच गईै।6. पलाऊ- करीब 18 हजार आबादी वाले पश्चिमी प्रशांत महासागर के इस देश में भी कोरोना का कोई मामला नहीं हैै।7.समोआ- प्रशांत महासागर का यह द्वीपीय देश बाकी दुनिया से दूर रहने के कारण कोरोना से बच गयौ। समोआ की आबादी करीब दो लाख हैै।8. सोलोमन आइलैंड्स- दक्षिणी प्रशांत महासागर में 600 से ज्यादा द्वीपों से मिलकर बना सोलोमन आइलैंड भी कोविड-19 महामारी से बचा हुआ हैै। देश की आबादी 6.52 लाख से ज्यादा हैै।9. टोंगा- दक्षिणी प्रशांत महासागर में 170 द्वीपों से मिलकर बना यह देश भी कोरोना के प्रकोप से सलामत हैै। 1.3 लाख आबादी वाले टोंगा के कई द्वीप इंसान के रहने लायक नहीं हैंै।10. तुर्कमेनिस्तान- 60 लाख की आबादी वाला तुर्कमेनिस्तान अकेला ऐसा देश है जो तीन तरफ से जमीन से घिरा हुआ हैै। ईरान और अफगानिस्तान जैसे पड़ोसियों के बावजूद तुर्कमेनिस्तान का दावा है कि उसके यहां कोरोना का एक भी मामला नहीं आया हैै।10. तुवालू -साढ़े 11 हजार जनसंख्या वाले प्रशांत महासागर के तुवालू में भी कोई केस सामने नहीं आया हैै।11. वनुआतु- दक्षिणी प्रशांत महासागर में 2.92 लाख की आबादी वाला यह देश भी कोरोना मुक्त हैै।----
- एक जून यानी विश्व दुग्ध दिवस। संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर साल 1 जून को विश्व दुग्ध दिवस मनाया जाता है। इसका मकसद डेयरी या दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में स्थिरता, आजीविका और आर्थिक विकास का योगदान है। दुनियाभर में दूध से पोषित हो रहे लोगों व इससे चलने वाली आजीविका के कारण इस दिन को विशेष महत्व दिया जाता है। इस दिन को मनाने का मकसद दुनियाभर में दूध को वैश्विक भोजन के रूप में मान्यता देना है।हर साल दुग्ध दिवस के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा एक थीम निर्धारित किया जाता है। इस थीम का मकसद यह होता है कि लोगों तक दूध की पहुंच को आसान बनाया जा सके साथ ही लोगों को दूध के प्रति जागरूक भी किया जा सके। वर्ष 2020 की थीम है-वल्र्ड मिल्क डे की 20वीं वर्षगांठ।साल 2001 में इस दिन को मनाने की शुरुआत हुई थी। इसकी शुरुआत संयुक्त राष्ट्र के विभाग खाद्य औऱ कृषि संगठन द्वारा की गई थी। अब सवाल आता है कि 1 जून को ही क्यों चुना गया, तो इसकी वजह है कि संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन द्वारा इसे मान्यता दिए जाने से पहले इसी दिन बहुत से देश विश्व दुग्ध दिवस पहले से ही मना रहे थे। पिछले साल विश्व दुग्ध दिवस में 72 देशों ने भाग लिया था। इन देशों में लगभग 586 प्रोग्राम्स का आयोजन किया गया था।भारत में 26 नवंबर को राष्ट्रीय दुग्ध दिवस मनाया जाता है, क्योंकि इसी दिन साल 1921 में श्वेत क्रांति के जनक व भारत में दुग्ध उत्पादन के जनक कहे जाने वाले वर्गीज कुरियन का जन्म हुआ था। भारत एक कृषि प्रधान राष्ट्र है ऐसे में हमारे लिए विश्व दुग्ध दिवस बहुत महत्व रखता है। जब से हम पैदा हुए हैं, दूध हमारे भोजन में मुख्य भोजन है। यह पूरे देश में संस्कृतियों और क्षेत्रों में समान है। खाना पकाने में दूध के उपयोग की भिन्नता है, लेकिन यह एक दिन में कम से कम एक भोजन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।दूध पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इसमें कैल्सियम, मैगनिशियम, ऑयोडीन, आयरन, पोटेशियम, फोलेट्स, जिंक, फॉसफोरस, विटामिन डी, राइबोफ्लेविन, विटामिन ए, विटामिन बी12, प्रोटीन, स्वस्थ फैट होते हैं। क्योंकि इसमें उच्च गुणवत्ता के प्रोटीन और दूसरे कई अमीनो एसिड और फैटी एसिड मौजूद होता है तो दूध एक एनर्जी ड्रिंक हो सकता है, जो शरीर को तुरंत ऊर्जा दे.---
- दुनिया भर में आज 31 मई को विश्व तंबाकू निषेध दिवस- वल्र्ड नो टोबैको डे 2020 मनाया जा रहा है। यह दिन खासतौर पर तंबाकू के सेवन को रोकने और तंबाकू के कारण सेहत को होने वाले नुकसान के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए मनाया जाता है।इस दिन की शुरुआत विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा इसलिए की गई ताकि लोगों को तंबाकू का सेवन करने के कारण होने वाले नुकसान के बारे में जागरूक किया जा सके। इसके अलावा वल्र्ड नो टोबैको डे पर तंबाकू खाने वाले लोगों को कई प्रकार के कैंसर और गंभीर स्वास्थ्य जोखिमों से बचे रहने के बारे में भी जानकारी दी जाती है।इस बार वल्र्ड नो टोबैको डे 2020 की थीम युवाओं पर केंद्रित हैं। हम सभी यह बात जानते हैं कि आज की युवा पीढ़ी कितनी तेजी से तंबाकू निर्मित पदार्थों का सेवन करने में आगे बढ़ रही है। स्मोकिंग, हुक्का, कच्ची तंबाकू, पान मसाला आदि पदार्थ तंबाकू से कहीं ना कहीं जरूर तैयार किए जाते हैं और युवाओं के द्वारा इसका बड़े पैमाने पर सेवन भी किया जा रहा है जो उनके स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है।इस बात को ध्यान में रखते हुए विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा इस बार वल्र्ड नो टोबैको डे 2020 की थीम युवाओं को इंडस्ट्री के बहकावे से बचाते हुए, उन्हें तंबाकू और निकोटीन का उपयोग करने से रोकना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा 1987 में इस दिन को प्रभाव में लाया गया था।वैश्विक वयस्क तंबाकू सर्वेक्षण (जीएटीएस) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 15 साल या उससे अधिक उम्र के करीब 30 करोड़ लोग तंबाकू सेवन करते हैं। इनमें से लगभग 20 करोड़ लोग तंबाकू को गुटखा, खैनी, पान मसाला या पान के रूप में सीधे सेवन करते हैं, जबकि करीब दस करोड़ लोग ऐसे हैं जो सिगरेट, हुक्का या फिर सिगार में तंबाकू भरकर इसका धुआं अपने फेफड़ों में भर लेते हैं।--
- महिष्मति की पहचान मध्यप्रदेश के खारगो जि़ले के महेश्वर नामक कस्बे से की गयी है। चेदि जनपद की राजधानी (पाली माहिस्सती) जो नर्मदा के तट पर स्थित थी। इसका अभिज्ञान जि़ला इंदौर में स्थित महेश्वर नामक स्थान से किया गया है जो पश्चिम रेलवे के अजमेर-खंडवा मार्ग पर बड़वाहा स्टेशन से 35 मील दूर है।महाभारत काल के समय यहां राजा नील का राज्य था जिसे सहदेव ने युद्ध में परास्त किया था। राजा नील महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़ते हुए मारे गये थे। बौद्ध साहित्य में माहिष्मती को दक्षिण-अवंति जनपद का मुख्य नगर बताया गया है। बुद्धकाल में यह नगरी समृद्धिशाली थी तथा व्यापारिक केंद्र के रूप में विख्यात थी। तत्पश्चात उज्जयिनी की प्रतिष्ठा बढऩे के साथ साथ इस नगरी का गौरव कम होता गया। फिर भी गुप्त काल में 5वीं शती तक माहिष्मती का बराबर उल्लेख मिलता है। कालिदास ने रघुवंश में इंदुमती के स्वयंवर के प्रसंग में नर्मदा तट पर स्थित माहिष्मती का वर्णन किया है और यहां के राजा का नाम प्रतीप बताया है।माहिष्मती नरेश को कालिदास ने अनूपराज भी कहा है । जिससे ज्ञात होता है कि कालिदास के समय में माहिष्मती का प्रदेश नर्मदा के तट के निकट होने के कारण अनूप (जल के निकट स्थित) कहलाता था। पौराणिक कथाओं में माहिष्मती को हैहयवंशीय कार्तवीर्य अर्जुन अथवा सहस्त्रबाहु की राजधानी बताया गया है। किंवदंती है कि इसने अपनी सहस्त्र भुजाओं से नर्मदा का प्रवाह रोक दिया था। चीनी यात्री युवानच्वांग, 640 ई. के लगभग इस स्थान पर आया था। उसके लेख के अनुसार उस समय माहिष्मती में एक ब्राह्मण राजा राज्य करता था। अनुश्रुति है कि शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करने वाले मंडन मिश्र तथा उनकी पत्नी भारती माहिष्मती के ही निवासी थे। कहा जाता है कि महेश्वर के निकट मंडलेश्वर नामक बस्ती मंडन मिश्र के नाम पर ही विख्यात है। माहिष्मती में मंडन मिश्र के समय संस्कृत विद्या का अभूतपूर्व केंद्र था।महिष्मति का नाम हाल के वर्षों में उस वक्त खबरों में आया जब फिल्म बाहुबली में इस नाम के राज्य का उल्लेख किया गया।
- टिड्डी ऐक्रिडाइइडी परिवार के ऑर्थाप्टेरा गण का कीट है। हेमिप्टेरा गण के सिकेडा वंश का कीट भी टिड्डी या फसल टिड्डी कहलाता है। इसे लधुश्रृंगीय टिड्डा भी कहते हैं। संपूर्ण संसार में इसकी केवल छह जातियां पाई जाती हैं। यह प्रवासी कीट है और इसकी उड़ान दो हजार मील तक पाई गई है। इसकी प्रमुख प्रजातियां हैं-1. उत्तरी अमरीका की रॉकी पर्वत की टिड्डी2. स्किस टोसरका ग्रिग्ररिया नामक मरुभूमीय टिड्डी,3. दक्षिण अफ्रीका की भूरी एवं लाल लोकस्टान पारडालिना तथा नौमेडैक्रिस सेंप्टेमफैसिऐटा4. साउथ अमरीकाना और5. इटालीय तथा मोरोक्को टिड्डी। इनमें से अधिकांश अफ्रीका, ईस्ट इंडीज, उष्ण कटिबंधीय आस्ट्रेलिया, यूरेशियाई टाइगा जंगल के दक्षिण के घास के मैदान तथा न्यूजीलैंड में पाई जाती हैं।मादा टिड्डी मिट्टी में कोष्ठ बनाकर, प्रत्येक कोष्ठ में 20 से लेकर 100 अंडे तक रखती है। गरम जलवायु में 10 से लेकर 20 दिन तक में अंडे फूट जाते हैं, लेकिन उत्तरी अक्षांश के स्थानों में अंडे जाड़े भर प्रसुप्त रहते हैं। शिशु टिड्डी के पंख नहीं होते तथा अन्य बातों में यह वयस्क टिड्डी के समान होती है। वयस्क टिड्डियों में 10 से लेकर 30 दिनों तक में प्रौढ़ता आ जाती है और तब वे अंडे देती हैं। कुछ जातियों में यह काम कई महीनों में होता है। टिड्डी का विकास आद्र्रता और ताप पर अत्याधिक निर्भर करता है।वयस्क टिड्डियां गरम दिनों में झुंडों में उड़ा करती हैं। उडऩे के कारण पेशियां सक्रिय होती हैं, जिससे उनके शरीर का ताप बढ़ जाता है। वर्षा तथा जाड़े के दिनों में इनकी उड़ानें बंद रहती हैं। मरुभूमि टिड्डियों के झुंड, ग्रीष्म मानसून के समय, अफ्रीका से भारत आते हैं और पतझड़ के समय ईरान और अरब देशों की ओर चले जाते हैं। इसके बाद ये सोवियत एशिया, सिरिया, मिस्र और इजरायल में फैल जाते हैं। इनमें से कुछ भारत और अफ्रीका लौट आते हें, जहां दूसरी मानसूनी वर्ष के समय प्रजनन होता है।लोकस्टा माइग्रेटोरिया नामक टिड्डी एशिया तथा अफ्रीका के देशों में फसल तथा वनस्पति का नाश कर देती है।
- राजा विक्रमादित्य के किस्से बहुत मशहूर हैं। उनके पराक्रम की गाथाएं आज भी किताबों में मिल जाती हैं। राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों के विषय में भी काफी उल्लेख मिलता है। राजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नोंं में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता का डंका देश-विदेश में बजता था।1. धन्वंतरि- धन्वंतरि का जिक्र हमारे पुराणों में मिलता है, ऐसा कहा जाता है कि ये रोगों से मुक्ति दिलवाया करते थे। शल्य तंत्र के प्रवर्तक को धन्वंतरि कहा जाता है, ये विक्रमादित्य की सेना में भी मौजूद थे। जिनका कार्य युद्ध में घायल हुए सैनिकों को जल्द से जल्द ठीक करना होता था।2. क्षपणक- राजा विक्रमादित्य के दरबार के दूसरे नवरत्न थे क्षपणक। जैन साधुओं को क्षपणक कहा जाता है, दिगंबर शाखा के साधुओं को नग्न क्षपणक नाम से जाना जाता है। मुद्राराक्षस में भी क्षपणक के वेश में गुप्तचरों का उल्लेख किया गया है।3. शंकु- राजा विक्रमादित्य के दरबार में शंकु को काफी प्राथमिकता दी जाती है। शंकु को विद्वान, ज्योतिषशास्त्री माना जाता है। वास्तव में इनका कार्य क्या था इसका उल्लेेख नहीं मिलता। ज्योतिर्विदाभरण में इन्हें कवि के रूप में भी चित्रित किया गया है।4. वेताल भट्ट- वेताल कथाओं के अनुसार राजा विक्रमादित्य ने अपने साहसिक प्रयत्न से अग्नि वेताल को अपने वश में कर लिया था। वेताल अदृश्य रूप में राजा की बहुत सी परेशानियों को हल करता है और उनके लिए काफी मददगार साबित होता है। प्राचीन काल में भट्ट की उपाधि महापंडितों को दी जाती थी, वेताल भट्ट से तात्पर्य, भूत-प्रेत की साधना में प्रवीणता से है।5.घटखर्पर- घटखर्पर के विषय में भी अल्प जानकारी ही उपलब्ध है। ये महान कवि थे, ऐसा माना जाता है कालिदास के साथ रहते हुए ही इन्हें कविता के क्षेत्र में निपुणता प्राप्त हुई थी। घटखर्पर ने यह प्रतिज्ञा ली थी जो भी कवि उन्हें यमक रचना में पराजित कर देगा, वह उसके घर घड़े के टुकड़े से पानी भरेंगे।6. वररुचि- वररुचि ने पत्रकौमुदि नामक काव्य की रचना की थी। काव्यमीमांसा के अनुसार वररुचि ने पाटलिपुत्र में शास्त्रकार परीक्षा उत्तीर्ण की थी, वहीं कथासरित्सागर के अंतर्गत इस बात का उल्लेख है कि वररुचि का दूसरा नाम कात्यायन था।7. पत्रकौमुदी- पत्रकौमुदी काव्य के आरंभ में ही वररुचि ने यह लिखा है कि राजा विक्रमादित्य के कहने पर ही उन्होंने इसकी रचना की थी। उन्होंने विद्यासुंदर की रचना भी विक्रमादित्य के आदेश अनुसार की थी।8. वराहमिहिर-पंडित सूर्यनारायण व्यास के अनुसार राजा विक्रमादित्य की सभा में वराहमिहिर नामक ज्योतिष के प्रकांड पंडित भी शामिल थे।9. महाकवि कालीदास-महाकवि कालिदास को राजा विक्रमादित्य की सभा का प्रमुख रत्न माना जाता है। इनका नाम दुनिया के महान कवियों में शुमार है।-----
- इतिहास में आज- 12 मईफ्लोरेंस नाइटिंगेल का जन्म 12 मई, 1820 को इटली के फ्लोरेंस में हुआ था। उनके पिता का नाम विलियम नाइंटिगेल और मां का नाम फेनी नाइटिंगेल था। विलियम नाइटिंगेल बैंकर थे और काफी धनी थे। परिवार को किसी चीज की कमी नहीं थी। फ्लोरेंस जब किशोरी थीं उस समय वहां लड़कियां स्कूल नहीं जाती थीं। बहुत सी लड़कियां तो बिल्कुल नहीं पढ़ती थीं। लेकिन विलियम अपनी बेटियों को पढ़ाने को लेकर बहुत गंभीर थे। उन्होंने अपनी बेटियों को विज्ञान, इतिहास और गणित जैसे विषय पढ़ाए।फ्लोरेंस नर्स बनना चाहती थीं जो मरीजों और परेशान लोगों की देखभाल करे। फ्लोरेंस ने अपनी इच्छा अपने माता-पिता को बताई। यह सुनकर उनके पिता काफी नाराज हुआ। उस समय नर्सिंग को सम्मानित पेशा नहीं माना जाता था, लेकिन फ्लोरेंस अपनी बातों पर अड़ गईं। आखिरकार उनके माता-पिता को उनकी बातों को मानना पड़ा। 1851 में फ्लोरेंस को नर्सिंग की पढ़ाई की अनुमति दे दी गई। 1853 में उन्होंने लंदन में महिलाओं का एक अस्पताल खोला। वहां उन्होंने बहुत अच्छा काम किया।1854 में क्रीमिया का युद्ध हुआ। उस युद्ध में ब्रिटेन, फ्रांस और तुर्की एक तरफ थे तो दूसरी तरफ रूस। युद्ध मंत्री सिडनी हर्बर्ट फ्लोरेंस को जानते थे। उन्होंने क्रीमिया में नर्सों का एक दल लेकर फ्लोरेंस को पहुंचने को कहा। जब नर्सें वहां पहुंचीं तो अस्पताल की हालत देखकर काफी दंग रह गईं। अस्पताल खचाखच भरे हुए और गंदे थे। फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने अस्पताल की हालत सुधारने पर ध्यान दिया। उन्होंने बेहतर चिकित्सीय उपकरण खरीदे। मरीजों के लिए अच्छे खाने का बंदोबस्त किया। जख्मी सैनिकों की सही से देखभाल की। नतीजा यह हुआ कि सैनिकों की मौत की संख्या में गिरावट आई।फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने मरीजों की देखभाल में दिन-रात एक कर दिया। रात के समय में जब सब सो रहे होते थे, वह सैनिकों के पास जातीं। यह देखतीं कि सैनिकों को कोई तकलीफ तो नहीं है। अगर कोई तकलीफ होती तो उसको दूर करती ताकि सैनिक आराम से सो सकें। जो लोग खुद से लिख नहीं पाते थे, उनकी ओर से वह उनके घरों पर पत्र भी लिखकर भेजती थीं। रात के समय जब वह मरीजों को देखने जातीं तो लालटेन हाथ में लेकर जाती थीं। इस वजह से सैनिकों ने उनको लेडी विद लैंप कहना शुरू कर दिया।1856 में वह युद्ध के बाद लौटीं। तब तक उनका नाम काफी फैल चुका था। अखबारों में उनकी कहानियां छपीं। लोग उनको नायिका समझने लगे। रानी विक्टोरिया ने खुद पत्र लिखकर उनका शुक्रिया अदा किया। सितंबर 1856 में रानी विक्टोरिया से उनकी भेंट हुई। उन्होंने सैन्य चिकित्सा प्रणाली में सुधार पर चर्चा की। इसके बाद बड़े पैमाने पर सुधार हुआ। सेना ने डॉक्टरों को प्रशिक्षण देना शुरू किया। अस्पताल साफ हो गए और सैनिकों को बेहतर कपड़ा, खाना और देखभाल की सुविधा मुहैया कराई गी। लंदन के सेंट थॉमस हॉस्पिटल में 1860 में नाइटिंगेल ट्रेनिंग स्कूल फॉर नर्सेज खोला गया। न सिर्फ वहां नर्सों को शानदार प्रशिक्षण दिया जाता ता बल्कि अपने घर से बाहर काम करने की इच्छुक महिलाओं के लिए नर्सिंग को सम्मानजनक करियर भी बनाया।
- इम्यूनोथेरेपी एक तरह का उपचार है जो शरीर के प्रतिरोधी तंत्र (इम्यून सिस्टम) को प्रेरित करता है, उसे बढ़ाता या मजबूत बनाता है। इम्यूनोथेरेपी का प्रयोग कुछ विशेष प्रकार के कैंसर और इन्फ्लेमेटरी रोगों जैसे रियूमेटायड अर्थराइटिस, क्रोंस डिजीज और मल्टीपल स्क्लेरोसिस रोगों का इलाज करने के लिए किया जाता है। इसे बॉयोलॉजिकल थेरेपी, बॉयोथेरेपी या बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडिफायर (बीआरएम) थेरेपी भी कहा जाता है।शरीर का इम्यून सिस्टम जीवाणु और अन्य बाह्य सामग्री की पहचान करता है और उन्हें नष्ट करता है। हमारी प्राकृतिक प्रतिरक्षा प्रणाली कैंसर की कोशिकाओं को बाहरी या असामान्य रूप में पहचान सकती हैं। सामान्य कोशिकाओं की अपेक्षा कैंसर कोशिकाओं की बाहरी कोशिकीय सतह पर एक विशिष्ट प्रोटीन होता है जिसे एंटीजन कहा जाता है। एंटीजन वे प्रोटीन हैं जो इम्यून सिस्टम द्वारा निर्मित किए जाते हैं। वे कैंसर कोशिकाओं के एंटीजन से जुड़ जाते हैं और उन्हें असामान्य कोशिकाओं के रूप में चिन्हित करते हैं। यदि इम्यून सिस्टम हमेशा सही से कार्य करे तो केमिकल सिग्नल चिन्हित कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए इम्यून सिस्टम में विशेष कोशिकाओं को शामिल करते हैं। हालांकि इम्यून सिस्टम स्वयं हमेशा सही ढंग से कार्य नहीं करता है।इम्यूनोथेरेपी प्रतिरोधी तंत्र (इम्यून सिस्टम) को कैंसर से लडऩे के लिए प्रेरित करने में सहायक होता है। इम्यूनोथेरेपी में इस्तेमाल किये जाने वाले केमिकल जिनको प्राय: बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर कहा जाता है क्योंकि वे शरीर के सामान्य इम्यून सिस्टम को कैंसर के खतरे से निपटने लायक बनाते हैं। कुछ बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर वे केमिकल होते हैं, जो शरीर में प्राकृतिक रूप से मौजूद होते हैं, लेकिन किसी व्यक्ति के इम्यून सिस्टम को उन्नत करने में सहायता के लिए बड़ी मात्रा में ये प्रयोगशाला में बनाए जाते हैं। बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर कैंसर से लडऩे में कई प्रकार से सहायक हो सकते हैं। वे किसी ट्यूमर को नष्ट करने के लिये अधिक इम्यू्न सिस्टम कोशिकाओं को शामिल कर सकते हैं। या वे कैंसर कोशिकाओं को इम्यून सिस्टम के आक्रमण के प्रति असुरक्षित कर देते हैं।यहां प्रचलित इम्यूनोथेरेपी के कुछ उदाहरण हैं-इंटरफेरॉंन्स-ये केमिकल शरीर के प्रतिरोधी प्रतिक्रिया को मजबूत करते हैं। ये कैंसर कोशिकाओं को तेजी से बढऩे से रोकने के लिए सीधे उन पर कार्य करते हैं।इंटरल्यूबकिंस- ये केमिकल शरीर की प्रतिरोधी कोशिकाओं (इम्यून सेल्स) विशेषकर लिम्फोसाइट्स(एक प्रकार की श्वेत रक्त कणिका) की बढ़ोत्तरी तेज करते हैं।कालोनी स्टिमुलेटिंग फैक्टर- ये केमिकल बोन मैरो स्टे्म सेल्स का बनना तेज करते हैं। बोन मैरो स्टेम सेल्स का प्रयोग विशेषकर श्वेत रक्त कणिकाएं संक्रमणों से लडऩे के लिए करती हैं। लेकिन वे अक्सर कैंसर की आशंका होने पर किए जाने वाले उपचार कीमोथेरेपी या रेडिएशन थेरेपी के कारण नष्ट हो जाती हैं। कालोनी स्टिमुलेटिंग फैक्टर (उदाहरण के लिए जीसीएसएफ या जीएमसीएसएफ) का इस्तेमाल अन्य कैंसर उपचारों के बाद रक्त में नई कोशिकाओं के विकास में सहायता के लिए किया जाता है।---
- भारत की पहली महिला न्यायाधीश न्यायमूर्ति अन्ना चांडी का जन्म आज ही के दिन हुआ था। (जन्म 4 मई 1905 -निधन 20 जुलाई 1966) । वे 1937 में एक जिला अदालत में भारत में पहली महिला न्यायाधीश बनीं। वे भारत में पहली महिला न्यायाधीश तो थी ही, शायद दुनिया में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद (1959) तक पहुंचने वाली वे दूसरी महिला थीं।न्यायमूर्ति चांडी का जन्म 4 मई 1905 को भारत के तत्कालीन त्रावणकोर राज्य (अब केरल) में एक मलयाली सीरियाई ईसाई माता पिता के यहां हुआ था। उन्होंने 1926 में लॉ में पोस्ट-ग्रैजुएट डिग्री ली थी। अन्ना चांडी अपने राज्य की ऐसी पहली महिला थीं जिन्होंने लॉ की डिग्री ली। इसके बाद उन्होंने बैरिस्टर के तौर पर कोर्ट प्रैक्टिस शुरू कर दी। साल 1937 में त्रावणकोर के दीवान सर सीपी रामास्वामी अय्यर ने अन्ना चांडी को मुंसिफ के तौर पर अपॉइंट किया जिसके बाद वह भारत की पहली महिला जज बन गईं। 1948 में अन्ना चांडी प्रमोशन पाकर जिला जज बन गईं। चांडी भारत के किसी हाई कोर्ट की पहली महिला जज भी बनीं। साल 1959 में न्यायमूर्ति अन्ना चांडी को केरल हाई कोर्ट का जज नियुक्त किया गया। अन्ना ने 1967 तक हाई कोर्ट के जज के तौर पर काम किया।हाई कोर्ट से रिटायरमेंट के बाद न्यायमूर्ति अन्ना चांडी को लॉ कमीशन ऑफ इंडिया में नियुक्त कर दिया गया। न्यायमूर्ति चांडी को महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठाने के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने श्रीमती नाम से एक मैगजीन भी निकाली थी जिसमें उन्होंने महिलाओं से जुड़े मुद्दों को जोर-शोर से उठाया। उन्होंने अपनी आत्मकथा नाम से अपनी ऑटोबायॉग्राफी भी लिखी थी। साल 1996 में केरल में 91 साल की उम्र में जस्टिस अन्ना चाण्डी का निधन हो गया