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- 25 अप्रैल 1983 को जर्मनी के उत्तरी शहर हैम्बर्ग में हलचल थी। स्टैर्न पत्रिका के संपादक ने एक अंतरराष्ट्रीय प्रेस कॉन्फ्रेंस में शताब्दी की सनसनी पेश की, हिटलर की गोपनीय डायरी, जिसका पता किया था स्टैर्न के रिपोर्टर गैर्ड हाइडेमन ने। यह खबर पाने के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस में 250 पत्रकार मौजूद थे। पत्रिका के संपादकीय में लिखा गया था कि तृतीय राइष का इतिहास फिर से लिखना होगा।ऐसा नहीं है कि हिटलर की डायरी के अस्तित्व पर किसी को शक नहीं हुआ हो, लेकिन स्टैर्न के मुख्य संपादक पेटर कॉख ने डायरी की सच्चाई पर संदेह को रिमोट डायगोनोस्टिक बताया। दो हफ्ते में ही सारा हंगामा थम गया, सनसनी खत्म हो गई। हिटलर की गोपनीय डायरी धोखाधड़ी साबित हुई। जर्मनी के संघीय अपराध कार्यालय बीकेए और संघीय अभिलेखागार ने उन्हें जालसाजी बताया और वह भी मामूली स्तर की। जिस कागज पर कथित डायरी लिखी गई थी, उस पर एक रसायन था जो युद्ध के बाद बाजार में आया था।स्टैर्न की पूरी दुनिया में बड़ी किरकिरी हुई। मुख्य संपादकों की नौकरी गई। यह मामला पत्रकारीय विफलता की मिसाल बन गया। प्रकाशक हेनरी नानेन को कहना पड़ा कि स्टैर्न शर्मसार है। इस मामले से स्टैर्न की छवि को तो नुकसान पहुंचा ही, उसकी बिक्री पर भी भारी असर हुआ। बहुत से लोगों ने उस समय सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिका को खरीदना भी बंद कर दिया। छवि और बिक्री के संकट से उबरने में स्टैर्न को सालों लग गए।
- किसी भी वाहन में लगने वाले टायरों का रंग हमेशा काला ही होता है। दरअसल कच्चा रबर हल्के पीले रंग का होता है, लेकिन टायर बनाने के लिए उसमें काला कार्बन मिलाया जाता है जिससे रबर जल्दी न घिसे।अगर सादा रबर का टायर 8 हज़ार किलोमीटर चल सकता है तो कार्बन युक्त टायर एक लाख किलोमीटर चल सकता है। इसीलिए वाहनों में काले रंग के टायरों का ही इस्तेमाल किया जाता है। काले कार्बन की भी कई श्रेणियां होती हैं और रबर मुलायम होगी या सख्त यह इस पर निर्भर करेगा कि कौन सी श्रेणी का कार्बन उसमें मिलाया गया है। मुलायम रबर के टायरों की पकड़ मज़बूत होती है लेकिन वो जल्दी घिस जाते हैं जबकि सख्त टायर आसानी से नहीं घिसते।
- भारत में हर साल 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाया जाता है। ये दिन भारतीय संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1992 के पारित होने का प्रतीक है, जो 24 अप्रैल 1993 से लागू हुआ था। इस दिन को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत साल 2010 से हुई थी।पूरे देश को चलाने में सिर्फ केंद्र सरकार या सिर्फ राज्य सरकार सक्षम नहीं हो सकती है। ऐसे में स्थानीय स्तर पर भी प्रशासनिक व्यवस्था जरूरी है। इस काम के लिए बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में 1957 में एक समिति का गठन किया गया था। समिति ने अपनी सिफारिश में जनतांत्रिक विकेंद्रीकरण की सिफारिश की जिसे पंचायती राज कहा गया है।1992 को संविधान में 73वां संशोधन कर पहली बार पंचायती राज संस्थान की पेशकश की गई। इसके तहत स्थानीय निकायों को शक्तियां दी गईं। पंचायती राज के तहत गांव, इंटरमीडिएट और जिलास्तर पर पंचायतें संस्थागत बनाई गई हैं। राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस जमीनी स्तर से राजनीतिक शक्ति के विकेंद्रीकरण के इतिहास को बताता है। उनकी आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की शक्ति को दर्शाता है। राजस्थान देश का पहला राज्य बना जहां पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई। इस योजना का शुभारम्भ तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने नागौर जिले में 2 अक्टूबर 1959 को किया था।भारत में पंचायती राज व्यवस्था की देखरेख के लिए 27 मई 2004 को पंचायती राज मंत्रालय को एक अलग मंत्रालय बनाया गया। भारत में हर साल 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का कारण 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 है जो 24 अप्रैल 1993 से लागू हुआ था।पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम, तहसील, तालुका और जिला आते हैं। भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राजव्यवस्था अस्तित्व में रही है, भले ही इसे विभिन्न नाम से विभिन्न काल में जाना जाता रहा हो। पंचायती राज व्यवस्था को कमोबेश मुग़ल काल तथा ब्रिटिश काल में भी जारी रखा गया। ब्रिटिश शासन काल में 1882 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड रिपन ने स्थानीय स्वायत्त शासन की स्थापना का प्रयास किया था, लेकिन वह सफल नहीं हो सका। ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की स्थिति पर जाँच करने तथा उसके सम्बन्ध में सिफ़ारिश करने के लिए 1882 तथा 1907 में शाही आयोग का गठन किया। इस आयोग ने स्वायत्त संस्थाओं के विकास पर बल दिया, जिसके कारण 1920 में संयुक्त प्रान्त, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में पंचायतों की स्थापना के लिए क़ानून बनाये गये। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान भी संघर्षरत लोगों के नेताओं द्वारा सदैव पंचायती राज की स्थापना की मांग की जाती रही।---
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आज का दिन कवि और नाटककार विलियम शेक्सपीयर के नाम है। दुनिया के महानतम कवियों और नाटककारों में एक शेक्सपीयर का जन्म और निधन दोनों इसी तारीख से जुड़ा हुआ है। वैसे तो शेक्सपीयर के जन्म के बारे में जो वर्णन मौजूद है उसके मुताबिक उनका 26 अप्रैल 1564 के दिन बप्तिस्मा किया गया था, लेकिन ऐसी संभावना जताई जाती है कि उनका जन्म 23 अप्रैल 1564 को हुआ था और उनका निधन भी इसी तारीख को 1616 में हुआ। उन्हें अक्सर इंग्लैंड का राष्ट्रीय कवि भी कहा जाता है। उनके नाम पर 38 नाटक, 154 सॉनेट, दो लंबी कविताएं हैं। हालांकि कुछ ऐसा भी है जो है तो शेक्सपीयर के नाम लेकिन उन्होंने ही लिखा होगा इस बारे में संदेह है। उनके नाटकों का अनुवाद कई भाषाओं में होता है। माना जाता है कि 1949 में 49 साल की उम्र में वह नाटकों से रिटायर हो गए। शेक्सपीयर के निजी जीवन के बारे में हालांकि जानकारी कम ही है कि वे कैसे दिखाई देते थे, कौन से धर्म के थे या जो नाटक उनके नाम पर लिखे गए हैं, वो उन्होंने लिखे भी हैं या नहीं।
बहरहाल इन विवादों से परे हैमलेट, किंग लेयर, ओथेलो, मैकबेथ जैसे नाटक अंग्रेजी साहित्य के नायाब नाटक हैं, जो आज इतने साल बाद भी पसंद किए जाते हैं और उनका अलग अलग दृष्टिकोणों के साथ मंचन होता रहता है। 23 अप्रैल को 1616 में शेक्सपीयर का 52 साल की उम्र में निधन हो गया। - वह जिसने रूसी क्रांति का नेतृत्व किया, जिसके नाम पर एक विचारधारा कायम है, आज ही के दिन 1870 में हुआ था उसका जन्म। रूस के माक्र्सवादी विचारक व्लादिमीर लेनिन का जन्म 22 अप्रैल 1870 को सिमबिस्र्क में हुआ था। लेनिन माक्र्सवाद से प्रेरित थे और इसी के आधार पर उन्होंने रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की 1917 में उनके नेतृत्व में रूसी क्रांति ने सिर उठाया। इसके कारण 1922 में सोवियत संघ की स्थापना हुई।समाज और दर्शनशास्त्र को लेकर लेनिन के माक्र्सवादी विचारों ने रूस ही नहीं दुनिया भर को प्रभावित किया। उनकी इस विचारधारा को लेनिनवाद के नाम से जाना जाता है। लंबी बीमारी के बाद 21 जनवरी 1924 को दिल का दौरा पडऩे से लेनिन की मौत हो गई। उनकी मृत्यु पर उनके सम्मान में रूस के पश्चिमी तटवर्ती इलाके सेंट पीटर्सबर्ग का नाम बदल कर लेनिनग्राद कर दिया गया, हालांकि रूस में कई लोग शहर के कम्युनिस्ट नाम से सहमत नहीं थे। इसलिए 1991 में इसे दोबारा बदल कर सेंट पीटर्सबर्ग कर दिया गया।---
- इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलता है कि आज ही के दिन अमेरिका में विकसित पहले फिल्म प्रोजेक्टर का प्रदर्शन किया गया था। यह साल था 1895।वुडविल लैथम और उनके बेटे ओटवे और ग्रे ने अमेरिका में विकसित पैनटॉप्टिकॉन को पहली बार प्रदर्शित किया था। हालांकि अमेरिका में थॉमस एडिसन के काइनेटोस्कोप के इस्तेमाल से चलचित्र का प्रदर्शन सालों से हो रहा था, लेकिन इसके जरिए एक साथ कई लोग फिल्म नहीं देख सकते थे। फिल्म को देखने के लिए बाइस्कोप जैसी चीज का इस्तेमाल होता था।लैथम भाइयों ने अपने पिता वुडविल और एडिसन के प्रयोगशाला में सहायक रहे डब्ल्यू के एल डिक्सन की मदद लेकर ऐसी मशीन बनाई जो आदमकद तस्वीरों को पर्दे पर पेश कर सके ताकि ज्यादा से ज्यादा दर्शक एक साथ उसे देख सकें। वुडविल, डिक्सन और एडिसन के एक पूर्व कर्मचारी की मदद से लैथम लूप तैयार किया था। लूप की मदद से तस्वीर पर्दे पर आसानी से प्रदर्शित होती और फिल्म को खींचने की भी जरूरत नहीं पड़ती। हालांकि दूसरी ओर फ्रांस के लुमियेर बंधु भी मोशन पिक्चर को प्रदर्शित करने वाले प्रोजेक्टर पर काम कर रहे थे। उसी साल उन्होंने पेरिस में आयोजित एक औद्योगिक सम्मेलन में पहली बार सार्वजनिक रूप से एक फिल्म दिखाई। लुमियेर बंधु में से एक, लुई लुमियेर अपने आसपास की चीजों के वीडियो उतारते थे। यह वीडियो आसपास के जीवन को सच्चे रूप में पेश करता था। इसी तरह उन्होंने लुमियेर फैक्ट्री से बाहर निकलते कामगारों का भी एक वीडियो रिकार्ड किया, जिसे पहली स्क्रीनिंग में दिखाया गया था। फिल्म दिखाने की इस तकनीक को लुमियेर भाइयों ने तुरंत अपने नाम पर पेटेंट करा लिया।-----
- 20 अप्रैल की तारीख कई ऐतिहासिक घटनाओं के चलते इतिहास में दर्ज है। उसमें से एक है एडोल्फ हिटलर का जन्मदिन। दुनिया को आतंकित करने वाले हिटलर का जन्म 20 अप्रैल, 1889 को हुआ था। उसके 50वें जन्मदिन को 1939 में जर्मनी के राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया गया था।हिटलर राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन कामगार पाटी के नेता थे। इस पार्टी को प्राय: नाजी पार्टी के नाम से जाना जाता है। सन् 1933 से सन् 1945 तक वह जर्मनी के शासक रहे। हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार माना जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध तब हुआ, जब उनके आदेश पर नात्सी सेना ने पोलैंड पर आक्रमण किया। फ्रांस और ब्रिटेन ने पोलैंड को सुरक्षा देने का वादा किया था और वादे के अनुसार उन दोनों ने नाज़ी जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी।हिटलर का उत्थान प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात जहां एक ओर तानाशाही प्रवृति का उदय हुआ। वहीं दूसरी और जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में नाजी दल की स्थापना हुई। जर्मनी के इतिहास में हिटलर का वही स्थान है जो फ्रांस में नेपोलियन बोनाबार्ट का, इटली में मुसोलनी का और तुर्की में मुस्तफा कमालपाशा का। हिटलर के पदार्पण के फलस्वरुप जर्मनी का कार्यकलाप हो सका। उन्होंने असाधारण योग्यता, विलक्षण प्रतिभा और राजनीतिक कटुता के कारण जर्मनी गणतंत्र पर अपना अधिपत्य कायम कर लिया । जर्मनी में हिटलर का अभ्युदय और शक्ति की प्राप्ति एकाएक नहीं हुई। उनकी शक्ति का विकास धीरे-धीरे हुआ। आर्थिक कठिनाइयों के कारण उसकी शिक्षा अधूरी रह गई। वे वियेना में भवन निर्माण कला की शिक्षा लेना चाहते थे। लेकिन उसके भाग्य में तो जर्मनी का पुर्णनिर्माण लिखा था। प्रथम विश्व युद्ध से ही उनका भाग्योदय होने लगा। वे जर्मन सेना में भर्ती हो गए। उन्हें बहादुरी के लिए आयरन क्रास की उपाधि मिली। युद्ध समाप्ति के पश्चात् उन्होंने सक्रिय राजनीति में रुचि लेना शुरू किया।
- स्लोवाकिया यूरोप महाद्वीप में स्थित एक ऐसा देश है, जो चारों तरफ से जमीन से घिरा हुआ है यानी इसकी किसी सीमा पर समुद्र या महासागर नहीं है। उत्तर में पोलैंड, दक्षिण में हंगरी, पूर्व में यूक्रेन और पश्चिम में चेक गणराज्य और ऑस्ट्रिया से घिरा यह देश 1993 में चेकोस्लोवाकिया से अलग होने के बाद बना था। इस देश से जुड़ी ऐसी कई रोचक बातें हैं, जिसके बारे में बहुत कम ही लोग जानते होंगे, जैसे कि ....1. यूरोपीय महाद्वीप की दूसरी सबसे लंबी नदी डेन्यूब स्लोवाकिया के बीच से होकर गुजरती है। 2850 किलोमीटर लंबी यह नदी 10 देशों में बहती है। नील नदी के अलावा दुनिया में शायद ही ऐसी कोई नदी हो, जो इतने सारे देशों से होकर बहती हो।2. वैसे आमतौर पर कोई भी देश अपनी राजधानी देश के बीच में रखना चाहता है, क्योंकि यह सुरक्षा की दृष्टि से अच्छा होता है, लेकिन स्लोवाकिया की राजधानी ब्रातिस्लावा दुनिया की एकमात्र ऐसी राजधानी है, जो दो देशों की सीमाओं से सटी हुई है। ब्रातिस्लावा, ऑस्ट्रिया और हंगरी की सीमा को छूती है।3. स्लोवाकिया एक संसदीय गणतंत्र है, जिसकी राष्ट्रीय परिषद में 150 सदस्य होते हैं। इन सदस्यों को हर चार साल में आम चुनाव द्वारा चुना जाता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि साल 2002 तक इस देश में सांसद राष्ट्रपति का चुनाव किया करते थे, लेकिन बाद में यहां के संविधान में संशोधन कर दिया गया। अब यहां राष्ट्रपति आम चुनावों द्वारा चुने जाते हैं।
- लहसुन का प्रयोग, सूप, सब्जी, दाल, रोटी, नान आदि भोजन की लगभग सभी चीजों में होता है। इसके गुणों को देखते हुए ही इसके सम्मान में हर साल 19 अप्रैल को अंतरराष्ट्रीय लहसुन दिवस मनाया जाता है। अनेक देशों में इसे मिठाइयों और पेय में भी डाला जाता है। अनेक प्रकार की वाइन में इसका प्रयोग होता है। महान यूनानी चिकित्सक हिप्पोक्रेट्स ने भी लहसुन को कई रोगों की अचूक दवा बताते हुए लहसुन के गुणों के बारे में विस्तार से लिखा है। कई औषधियों में इसका उपयोग किया जाता है।ईसाई देवी देवता शास्त्र के अनुसार जब शैतान ने ईडेन गार्डेन का त्याग किया तब उसके बांएं पदचिह्न से लहसुन की उत्पत्ति हुई। अनेक जनजातियों में इसका प्रयोग भूत और चुड़ैलों को भगाने में किया जाता है। मच्छरों, दीमकों और कीटों को भगाने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है।लहसुन की तीन सौ से भी अधिक किस्में विश्व में पाई जाती हैं और इसके प्रयोग के प्रमाण ईसापूर्व 4 हजार वर्ष से भी पहले के मिलते हैं। मिस्र में पिरामिड बनाने वाले मजदूरों को भोजन में लहसुन, नमक और रोटी दी जाती थी। मिशिगन झील के किनारे उगने वाली लहसुन की एक प्रजाति शिकागुआ, के नाम पर शिकागो शहर का नामकरण किया गया था। कहा जाता है कि लहसुन को सब से पहले चीन में उगाया गया और चीन से यह दुनिया में फैल गया।100 ग्राम लहसुन का रासायनिक विश्लेषण करने पर पता चलता है कि इसमें करीब 6.3 ग्राम प्रोटीन, 0.1 ग्राम वसा, 29.8 ग्राम कार्बोज, 62 ग्राम नमी, 0.8 ग्राम रेशा, 30 मि.ग्रा. कैल्शियम, 301 मि.ग्रा. फॉस्फोरस, 1.2 मि.ग्रा. लौहतत्व, 0.06 मि.ग्रा. थायेमीन, 0.23 मि.ग्रा रिबोफ्लेविन, 0.4 मि.ग्रा. नियासिन, 13 मि.ग्रा. विटामिन सी, 145 कि. कैलोरी ऊर्जा होती है। लहसुन में 17 अमीनो ऐसिड पाए जाते हैं, साथ ही प्रोबायोटिक इन्युलिन भी पाया जाता है जो पाचक बैक्टीरिया को बढ़ाता है, इसी के कारण पाचन तंत्र को लाभ मिलता है।
- आज के दिन दुनिया ने खोया उसे जिसने विज्ञान को नई गति दी। भौतिकशास्त्र के मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन का 18 अप्रैल 1955 को निधन हो गया।भौतिक शास्त्र में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले आइंस्टाइन ने दुनिया को सापेक्षता का सिद्धांत दिया। द्रव्यमान और ऊर्जा के बीच संबंध बताने वाला भौतिक शास्त्र का अहम समीकरण E=mc2 देने के लिए उन्हें याद किया जाता है। इसे विज्ञान जगत के सबसे अहम समीकरणों में से एक माना जाता है। 1921 में उन्हें भौतिक शास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में 300 से अधिक रिसर्च पेपर प्रकाशित किए।14 मार्च 1879 को जर्मन शहर उल्म में एक यहूदी परिवार में पैदा हुए आइंस्टाइन बचपन से ही बहुत जहीन और शरारती थे। उनकी शरारतों के कारण उन्हें स्कूल से निकाल भी दिया गया था। क्लर्क के तौर पर नौकरी करते हुए उन्होंने गणित के समीकरणों पर काम जारी रखा। 1933 में वह जर्मनी से अमेरिका पहुंचे और वहीं बस गए। 1940 में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता स्वीकार ली। जीवन के आखरी दिनों में वह इंस्टीट्यूट फॉर एडवांस स्टडीज से जुड़े हुए थे। उनकी मृत्यु प्रिंस्टन के एक अस्पताल में तीन दिन भर्ती रहने के बाद 76 साल की उम्र में हुई। जीवन के अंतिम दिनों में वह अकेले रहा करते थे।
- पन्ना । कभी बाघ शून्य हो चुका मध्यप्रदेश का पन्ना टाईगर रिजर्व इस वर्ष अपनी विश्व में मिसाल बन चुकी सफलता का दशक वर्ष मना रहा है। लॉकडाउन के चलते पन्ना टाईगर रिजर्व में इस साल 16 अप्रैल को होने वाला मुख्य समारोह स्थगित कर दिया गया। समारोह में देश और विदेश के वन्यप्राणी विशेषज्ञ बाघ पुन: स्थापना में सहयोग देने वाले स्थानी नागरिक और जनप्रतिनिधि भाग लेने वाले थे ।पन्ना टाईगर रिजर्व के लिये 16 अप्रैल 2010 ऐतिहासिक दिन है जब कान्हा टाईगर रिजर्व से लाई गई बाघिन टी-2 ने पहली बार शावकों को जन्म देकर रिजर्व में पुन: बाघों की आबादी का सुखद आगाज किया था। यह बहुत बड़ी सफलता थी, जिसकी दुनियाभर के वन्यप्राणी विशेषज्ञों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। तभी से पन्ना को बाघ पुन: स्थापना में विश्वगुरू का दर्जा मिला आज रिजर्व में छोटे-बड़े 50 से अधिक बाघ-बाघिन है।पन्ना भारत का बाइसवां बाघ अभयारण्य है और मध्यप्रदेश का पांचवां। रिजर्व विंध्यन रेंज में स्थित है और यह राज्य के उत्तर में पन्ना और छतरपुर जिलों में फैला हुआ है। पन्ना राष्ट्रीय उद्यान 1981 में बनाया गया था। इसे 1994 में भारत सरकार द्वारा एक परियोजना टाइगर रिजर्व घोषित किया गया था। राष्ट्रीय उद्यान में 1975 में बनाए गए पूर्व गंगऊ वन्यजीव अभयारण्य के क्षेत्र शामिल हैं। इस अभयारण्य में वर्तमान उत्तर और दक्षिण के क्षेत्रीय वन शामिल हैं। पन्ना वन प्रभाग, जिसके निकटवर्ती छतरपुर वन प्रभाग का एक भाग बाद में जोड़ा गया था। पन्ना जिले में पार्क के आरक्षित वन और छतरपुर की ओर कुछ संरक्षित जंगल अतीत में पन्ना, छतरपुर और बिजावर रियासतों के तत्कालीन शासकों के शिकारगाह थे।--
- 1. मारबुर्ग वायरस- इसे दुनिया का सबसे खतरनाक वायरस कहा जाता है। वायरस का नाम जर्मनी के मारबुर्ग शहर पर पड़ा जहां 1967 में इसके सबसे ज्यादा मामले देखे गए थे। 90 फीसदी मामलों में मारबुर्ग के शिकार मरीजों की मौत हो जाती है।2. इबोला वायरस- वर्ष 2013 से 2016 के बीच पश्चिमी अफ्रीका में इबोला संक्रमण के फैलने से ग्यारह हजार से ज्यादा लोगों की जान गई। इबोला की कई किस्में होती हैं। सबसे घातक किस्म के संक्रमण से 90 फीसदी मामलों में मरीजों की मौत हो जाती है।3. हंटा वायरस- कोरोना के बाद इन दिनों चीन में हंटा वायरस के कारण एक व्यक्ति की जान जाने की खबर ने खूब सुर्खियां बटोरी हैं। यह कोई नया वायरस नहीं है। इस वायरस के लक्षणों में फेफड़ों के रोग, बुखार और गुर्दा खराब होना शामिल हैं।4. रेबीज- कुत्तों, लोमडिय़ों या चमगादड़ों के काटने से रेबीज का वायरस फैलता है। हालांकि पालतू कुत्तों को हमेशा रेबीज का टीका लगाया जाता है , लेकिन भारत में यह वायरस आज भी समस्या बना हुआ है। एक बार वायरस शरीर में पहुंच जाए और समय पर इलाज न हो, तो मौत पक्की है।5. एचआईवी-अस्सी के दशक में एचआईवी की पहचान हुई। एचआईवी के कारण एड्स होता है जिसका आज भी पूरा इलाज संभव नहीं है।6. चेचक- इंसानों ने हजारों सालों तक इस वायरस से जंग लड़ी। मई 1980 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने घोषणा की कि अब दुनिया पूरी तरह से चेचक मुक्त हो चुकी है। उससे पहले तक चेचक के शिकार हर तीन में से एक व्यक्ति की जान जाती रही।7. इन्फ्लुएंजा- दुनिया भर में सालाना हजारों लोग इन्फ्लुएंजा का शिकार होते हैं। इसे फ्लू भी कहते हैं। वर्ष 1918 में जब इसकी महामारी फैली तो दुनिया की 40 प्रतिशत आबादी संक्रमित हुई और पांच करोड़ लोगों की जान गई। इसे स्पेनिश फ्लू का नाम दिया गया।8. डेंगू- मच्छर के काटने से डेंगू फैलता है। अन्य वायरस के मुकाबले इसका मृत्यु दर काफी कम है, लेकिन इसमें इबोला जैसे लक्षण हो सकते हैं। 2019 में अमेरिका ने डेंगू के टीके को अनुमति दी।9. रोटा- यह वायरस नवजात शिशुओं और छोटे बच्चों के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक होता है। वर्ष 2008 में रोटा वायरस के कारण दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के लगभग पांच लाख बच्चों की जान गई।10.कोरोना वायरस- इस वायरस की कई किस्में हैं। वर्ष 2012 में सऊदी अरब में मर्स फैला जो कि कोरोना वायरस की ही किस्म है। यह पहले ऊंटों में फैला, फिर इंसानों में। इससे पहले 2002 में सार्स फैला था जिसका पूरा नाम सार्स-कोव यानी सार्स कोरोना वायरस था। यह वायरस 26 देशों तक पहुंचा।वर्ष 2020 में दुनिया के अधिकांश हिस्सों में फैले कोरोना वायरस के कारण होने वाली बीमारी का नाम कोविड-19 दिया गया है।-----
- खगोल विज्ञानियों ने अब तक के सबसे बड़े सुपरनोवा यानि तारों के विस्फोट का पता लगाया है। यह किसी आम सुपरनोवा से 10 गुना अधिक शक्तिशाली बताया जा रहा है।यह ना केवल सामान्य सुपरनोवा से 10 गुना अधिक शक्तिशाली है बल्कि उससे करीब 500 गुना ज्यादा चमकदार भी। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह सुपरनोवा दो विशाल तारों के आपस में टकरा कर एक हो जाने के दौरान बना है। ब्रिटेन और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने नेचर एस्ट्रोनॉमी नाम के पीयर रिव्यू जर्नल में प्रकाशित अपने रिसर्च पेपर में इसका खुलासा किया है। ब्रिटेन की बर्मिंघम यूनिवर्सिटी और अमेरिका के हार्वर्ड-स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिजिक्स ने अपनी इस खोज को SN2016aps नाम दिया है। स्टडी के सहलेखक इडो बर्गर ने इसे इसके आकार और चमक के अलावा भी कई दूसरे मायनों में भी बेहद खास बताया।असल में आमतौर पर ऐसे सुपरनोवा अपनी कुल ऊर्जा का केवल एक फीसदी दिखने वाले प्रकाश की रेंज में उत्सर्जित करते हैं, लेकिन SN2016aps इससे कहीं बड़ा हिस्सा इस दृश्य प्रकाश के रूप में निकालता है। वैज्ञानिकों ने इस सुपरनोवा में इतनी ऊर्जा होने का अनुमान लगाया है जो 200 ट्रिलियन ट्रिलियन गीगाटन टीएनटी के विस्फोट के बराबर होगी। इस तरह की असामान्य ऊर्जा वाले सुपरनोवा के आसपास के बादल में हाइड्रोजन की बहुत अधिक मात्रा होने का पता चला है. रिसर्चरों ने इसका अर्थ यह निकाला है कि यह सुपरनोवा जरूर हमारे सूर्य जैसे दो तारों के आपस में मिल जाने के कारण बना होगा। वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसी घटना का जिक्र अब तक केवल सैद्धांतिक तौर पर होता आया था लेकिन पहली बार ऐसा कुछ होने का प्रमाण मिला है। उन्हें उम्मीद है कि आगे इससे मिलते जुलते और सुपरनोवा का भी पता चलेगा जिनसे यह जानने में मदद मिलेगी कि बहुत पहले हमारा ब्रह्मांड और उसका माहौल कैसा हुआ करता था।क्या होता है सुपरनोवाकिसी बुजुर्ग तारे के टूटने से वहां जो ऊर्जा पैदा होती है, उसे ही सुपरनोवा कहते हैं। कई बार एक तारे से जितनी ऊर्जा निकलती है, वह हमारे सौरमंडल के सबसे मजबूत सदस्य सूर्य के पूरे जीवनकाल में निकलने वाली ऊर्जा से भी ज्यादा होती है। सुपरनोवा की ऊर्जा इतनी शक्तिशाली होती है कि उसके आगे हमारी धरती की आकाशगंगा कई हफ्तों तक फीकी पड़ सकती है।आमतौर पर सुपरनोवा के निर्माण में व्हाइट ड्वार्फ की अहम भूमिका होती है जिसके एक चम्मच द्रव्य का वजन भी करीब 10 टन तक हो सकता है। ज्यादातर व्हाइट ड्वार्फ गर्म होते होते अचानक गायब हो जाते हैं, लेकिन कुछ गिने चुने व्हाइट ड्वार्फ दूसरे तारों से मिल कर सुपरनोवा का निर्माण करते हैं। इस बार दिखे सुपरनोवा में व्हाइट ड्वार्फ तारे से नहीं टकराया बल्कि दो तारे ही आपस में टकराए हैं और अंतरिक्ष विज्ञान के आज तक के इतिहास का सबसे बड़ा सुपरनोवा पैदा कर गए हैं। आरपी/एमजे (डीपीए)।----
- 17 अप्रैल 1815 का दिन इंडोनेशिया के लिए आफत लेकर आया। कई दिनों से थर्रा रहा तमबोरा ज्वालामुखी इस दिन उग्र होकर फट पड़ा। करीब एक लाख लोग मारे गए। तमबोरा के धमाके को अब तक सबसे बड़ा ज्वालामुखी विस्फोट कहा जाता है। यह इंडोनेशिया के सुमबवा द्वीप पर है। सैकड़ों साल से शांत पड़ा यह ज्वालामुखी पांच अप्रैल 1815 को कंपन पैदा करने लगा। पांच दिन बाद उससे राख उठने लगी।17 अप्रैल को बड़ा विस्फोट हुआ लावा और धुआं आस पास के इलाके में फैल गया। गुबार इतना गहरा था कि कई दिनों तक सूरज नहीं दिखाई पड़ा। धमाके की वजह से सुमबवा द्वीप पर डेढ़ मीटर मोटी राख की परत बिछ गई। सूनामी भी आई। ज्वालामुखी की गडग़ड़ाहट डेढ़ सौ किलोमीटर दूर तक सुनाई पड़ रही थी। ज्वालामुखी जब तक पूरी तरह शांत हुआ तब तक द्वीप के दस हजार बाशिंदे मारे जा चुके थे। बाकी मौतें आस पास के इलाकों में हुईं। विस्फोट के बाद तमबोरा का चेहरा बदल गया। ज्वालामुखी की ऊंचाई 14 हजार फुट से घटकर 9 हजार फुट रह गई।---
- कोरोना वायरस के संक्रमण के बीच पूरी दुनिया में पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट या पीपीई की मांग आपूर्ति बढ़ गई है। यह कोरोना वायरस से जारी जंग में ढाल बनकर सामने आया है। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को कोरोना वायरस से सुरक्षित रखने के लिए पीपीई किट एक आवश्यक उपकरण है।पीपीई किट का प्रयोग न सिर्फ कोविड-19 के लिए किया जा रहा है बल्कि पहले भी इसका प्रयोग इबोला जैसे गंभीर संक्रामक रोगों में किया जाता रहा है। आइये जाने कि पीपीई किट क्या है, पीपीई किट कैसे काम करती है, पीपीई किट को लेकर भारत सरकार की गाइडलाइन क्या है।पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट एक मेडिकल डिवाइस या उपकरण है जो स्वास्थ्य कर्मचारियों द्वारा संक्रामक रोगों (बैक्टीरिया, वायरस आदि से फैले संक्रमण) से खुद को सुरक्षित रखने के लिए पहना जाता है। पीपीई, स्वास्थ्य कर्मी के शरीर को संक्रामक विषाणुओं या संक्रमित व्यक्ति के शरीर के साथ संपर्क को रोकता है, जिसमें एक संक्रामक एजेंट हो सकता है। पीपीई एक संभावित संक्रामक एजेंट और स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता के बीच एक दीवार का काम करता है।पीपीई में ग्लव्स, गाउन, शू कवर, हेड कवर, मास्क, रेस्पिरेटर (श्वासयंत्र), आंखों की सुरक्षा, फेस शील्ड और गॉगल्स शामिल हैं। इसमें दस्ताने, संभावित संक्रामक पदार्थों या दूषित सतहों को सीधे छूने पर दस्ताने आपकी रक्षा करने में मदद करते हैं। गाउन, जूते और हेड कवर, एक दूषित वातावरण के अंदर संभावित जोखिम से बचाते हैं। सर्जिकल मास्क नाक और मुंह को शरीर के तरल पदार्थ के छींटों से बचाने में मदद करते हैं, इससे पहले कि आप सांस लें, श्वासयंत्र हवा को फि़ल्टर कर देती है। इसी प्रकार के गॉगल्स आंखों की सुरक्षा करता है।विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइन के मुताबिक, पीपीई को बहुत ही सावधानी के साथ पहना और निकाला जाता है। इसे पहनने के दौरान, सबसे पहले गाउन पहना जाता है, उसके बाद फेस शील्ड और फिर बाकी चीजें। और जब इसे उतारते हैं तो सबसे पहले गाउन उतारना चाहिए इसके बाद ग्लब्स उतारकर अच्छे से हाथ धोएं। इसके बाद बाकी उपकरण को उतारें और दोबारा हाथ धोएं।कोरोना वायरस संक्रमण के चलते पीपीई की डिमांड अचानक से बढ़ी है। पूरे विश्व में चीन इसका सर्वाधिक उत्पादन करता है। हालांकि, भारत में भी पीपीई किट का उत्पादन तेजी से बढ़ा है। भारत सरकार ने अनुमान लगाया है कि 25 अप्रैल तक पीपीई का उत्पादन एक दिन में लगभग 30 हजार यूनिट होगा। भारत में रेलवे समेत कई सरकारी और गैर सरकारी कंपनियां पीपीई के निर्माण में दिन-रात लगी हैं।--
- इंडोनेशिया का क्राकाटोआ ज्वालामुखी दुनिया के सबसे खतरनाक ज्वालामुखियों में से एक है। इसने 1883 में जब यह फूटा था, तब काफी तबाही मची थी। करीब 357 मीटर ऊंचाई वाला इस ज्वालामुखी ने उस वक्त 36 हजार से ज्यादा लोगों की जान ली थी। 1883 में क्राकाटोआ में हुआ विस्फोट दुनिया का सबसे भयावह ज्वालामुखी विस्फोट है। इसके कारण आने वाले कुछ सालों में ग्लोबल लेवल पर तापमान में बढ़त देखी गई।यह विस्फोट इतना भयानक था कि आधुनिक इतिहास में इतनी तबाही किसी और ज्वालामुखी ने नहीं मचाई। क्राकाटोआ के उस विस्फोट में पहले एटम बम से 13 हजार गुना ज्यादा शक्ति थी। वही बम जो अमेरिका ने 1945 में जापान के हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराया था। 1883 के विस्फोट को लगभग आधी दुनिया ने सुना। उस विस्फोट को दुनिया का सबसे भयानक विस्फोट कहा जाता है। 1883 के विस्फोट की गूंज वहां से करीब 4,800 किलोमीटर दूर मॉरीशस तक सुनाई दी। उस वक्त के आधिकारिक रिकॉर्ड बताते हैं कि लावा और विस्फोट से आई सुनामी ने 165 गांव और कस्बे पूरी तरह तबाह कर दिए। इसके अलावा 132 गांव-कस्बों को बुरी तरह नुकसान पहुंचा था।क्राकाटोआ ज्वालामुखी अप्रैल 2020 को फिर फूट पड़ा है। राजधानी जकार्ता जो कि इस ज्वालामुखी से करीब 150 किलोमीटर दूर है, वहां तक इसके धमाके की आवाज सुनी गई। सैटेलाइट तस्वीरों से हवा में 15 किलोमीटर ऊपर तक ज्वालामुखी का धुआं रिकॉर्ड किया गया है। बताया जा रहा है कि दिसंबर 2018 के बाद से सबसे मजबूत विस्फोट है।----
- पाबूजी की फड़ एक प्रकार का गीत नाट्य है, जिसे अभिनय के साथ गाया जाता है। यह राजस्थान में विख्यात है। फड़ लम्बे कपड़े पर बनाई गई एक कलाकृति होती है, जिसमें किसी लोक देवता (विशेष रूप से पाबूजी या देवनारायण) की कथा का चित्रण किया जाता है। फड़ को लकड़ी पर लपेट कर रखा जाता है। इसे धीरे-धीरे खोल कर भोपा तथा भोपी द्वारा लोक देवता की कथा को गीत व संगीत के साथ सुनाया जाता है। पाबूजी के अलावा अन्य लोकप्रिय फड़ देवनारायण जी की फड़ होती है।राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता पाबूज के यशगान में पावड (गीत) गाये जाते हैं और मनौती पूर्ण होने पर फड़ भी बांची जाती है। पाबूजी की फड़ पूरे राजस्थान में विख्यात है, जिसे भोपे बांचते हैं। ये भोपे विशेषकर थोरी जाति के होते हैं। फड़ कपड़े पर पाबूजी के जीवन प्रसंगों के चित्रों से युक्त एक पेंटिंग होती है। भोपे पाबूजी के जीवन कथा को इन चित्रों के माध्यम से कहते हैं और गीत भी गाते हैं। इन भोपों के साथ एक स्त्री भी होती है, जो भोपे के गीतोच्चारण के बाद सुर में सुर मिलाकर पाबूजी की जीवन लीलाओं के गीत गाती है। फड़ के सामने ये नृत्य भी करते हैं। ये गीत रावण हत्था पर गाये जाते हैं, जो सारंगी के जैसा वाद्य यंत्र होता है। पाबूजी की फड़ लगभग 30 फीट लम्बी तथा 5 फीट चौड़ी होती है। इस फड़ को एक बांस में लपेट कर रखा जाता है।राजस्थान में कुछ जगहों पर जाति विशेष के भोपे पेशेवर पुरोहित होते हैं। उनका मुख्य कार्य किसी मन्दिर में देवता की पूजा करना तथा देवता के आगे नाचना, गाना तथा कीर्तन आदि करना होता है। पाबूजी तथा देवनारायण के भोपे अपने संरक्षकों (धाताओं) के घर पर जाकर अपना पेशेवर गाना व नृत्य के साथ फड़ के आधार पर लोक देवता की कथा कहते हैं। राजस्थान में पाबूजी तथा देवनारायण के भक्त लाखों की संख्या में हैं। इन लोक देवताओं को कुटुम्ब के देवता के रूप में पूजा जाता है और उनकी वीरता के गीत चारण और भाटों द्वारा गाए जाते हैं। भोपों ने पाबूजी और देवनारायण जी की वीरता के सम्बन्ध में सैंकड़ों लोक गीत रचें हैं और इनकी गीतात्मक शौर्यगाथा को इनके द्वारा फड़ का प्रदर्शन करके आकर्षक और रोचक ढंग से किया जाता है। पाबूजी के भोपों ने पाबूजी की फड़ के गीत को अभिनय के साथ गाने की एक विशेष शैली विकसित कर ली है।
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जकार्ता। तनाह लोत मंदिर इंडोनेशिया का सबसे खूबसूरत प्राचीन मंदिरों में एक है। यह समुद्र देवता को समर्पित है। यह मंदिर बाली द्वीप की एक बहुत बड़ी समुद्री चट्टान पर बना हुआ है। यह मंदिर आस-पास फैली प्राकृतिक छटा की वजह से देखने में काफी सुंदर लगता है। अनुमान के अनुसार इसका निर्माण 15 वीं शताब्दी में हुआ है।
यह मंदिर जिस चट्टान पर बना है, उसका निर्माण हजारों साल के दौरान समुद्री पानी के ज्वार से हुए क्षरण के फलस्वरूप हुआ है।इस अनोखे मंदिर के बनने की कहानी भी बेहद ही रोचक है। इस मंदिर का नाम तनाह लोत है। तनाह लोट का मतलब समुद्री भूमि (समुद्र में भूमि) होता है। यह मंदिर बाली में सागर तट पर बने उन सात मंदिरों में से एक है, जिन्हें एक श्रृंखला के रूप में बनाया गया है, जिसकी खासियत ये है कि हर मंदिर से अगला मंदिर स्पष्ट दिखता है। यह मंदिर जिस शिला पर टिका हुआ है, वह 1980 में कमजोर होकर झडऩे लगी थी, जिसके बाद मंदिर और उसके आसपास के क्षेत्र को खतरनाक घोषित कर दिया गया था। बाद में जापान की सरकार ने इसे बचाने के लिए इंडोनेशियाई सरकार की मदद की थी। तब जाकर चट्टान के लगभग एक तिहाई हिस्से को कृत्रिम चट्टान से ढंककर एक नया रूप दिया गया।कहते हैं कि तनाह लोत मंदिर का निर्माण 15वीं सदी में निरर्थ नाम के एक पुजारी ने कराया था। समुद्र तट के किनारे-किनारे चलते हुए वो इस जगह पर पहुंचे थे, जिसके बाद इस जगह की सुंदरता उन्हें भा गई। वो यहां रात भर ठहरे भी थे। उन्होंने ही आसपास के मछुआरों से इस जगह पर समुद्र देवता का मंदिर बनाने का आग्रह किया था। इस मंदिर में पुजारी निरर्थ की भी पूजा होती है। माना जाता है कि बुरी आत्माओं और बुरे लोगों से इस मंदिर की सुरक्षा इसकी शिला के नीचे रहने वाले विषैले और खतरनाक सांप करते हैं। कहते हैं कि पुजारी निरर्थ ने अपनी शक्ति से एक विशाल समुद्री सांप को पैदा किया था, जो आज भी इस मंदिर की सुरक्षा में तैनात है।तनाह लोत मंदिर सागर तट पर बने उन सात मंदिरों में से एक है जिन्हें एक श्रृंखला के रूप में बनाया गया है। सूर्यास्त के समय इस मंदिर की जो आभा होती है, उसे सैलानी अभूतपूर्व कहते हैं।-- - लखनऊ भारत के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी है। इस शहर में, लखनऊ जिला और लखनऊ मंडल का प्रशासनिक मुख्यालय भी है। लखनऊ शहर अपनी खास नज़ाकत और तहजीब वाली बहुसांस्कृतिक खूबी, दशहरी आम के बाग़ों तथा चिकन की कढ़ाई के काम के लिये जाना जाता है।लखनऊ प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा था। यह भगवान राम की विरासत थी जिसे उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण को समर्पित कर दिया था। इसलिए इसे लक्ष्मणावती, लक्ष्मणपुर या लखनपुर के नाम से जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया। यहां से अयोध्या भी मात्र 40 मील दूरी पर स्थित है। एक अन्य कथा के अनुसार इस शहर का नाम, लखन अहीर जो कि लखन किले के मुख्य कलाकार थे, के नाम पर रखा गया था। लखनऊ के वर्तमान स्वरूप की स्थापना नवाब आसफउद्दौला ने 1775 ई. में की थी। अवध के शासकों ने लखनऊ को अपनी राजधानी बनाकर इसे समृद्ध किया। लेकिन बाद के नवाब विलासी और निकम्मे सिद्ध हुए। इन नवाबों के काहिल स्वभाव के परिणामस्वरूप आगे चलकर लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध का बिना युद्ध ही अधिग्रहण कर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। 1850 में अवध के अन्तिम नवाब वाजिद अली शाह ने ब्रिटिश अधीनता स्वीकार कर ली। लखनऊ के नवाबों का शासन इस प्रकार समाप्त हुआ।सन 1902 में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूनाइटेड प्रोविन्स या यूपी कहा गया। सन 1920 में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद से बदल कर लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ स्थापित की गयी। स्वतंत्रता के बाद 12 जनवरी सन 1950 में इस क्षेत्र का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रख दिया गया और लखनऊ इसकी राजधानी बना। इस तरह यह अपने पूर्व लघुनाम यूपी से जुड़ा रहा। गोविंद वल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री बने। अक्टूबर 1963 में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश एवं भारत की प्रथम महिला मुख्यमंत्री बनीं।---
- महाभारत के अनुसार जरासंध ने कर्ण को चंपा या मालिनी का राजा मान लिया था। प्राचीन काल में चंपा नगरी अंग देश की राजधानी थी। अंग प्रदेश 16 महाजनपदों में एक है। चंपा नगरी इसी नाम की नदी और गंगा के संगम पर स्थित थी। यह भागलपुर जिले (बिहार राज्य) का हिस्सा है। विष्णु पुराण में उल्लेख है कि पृथुलाक्ष के पुत्र चंप ने इस नगरी को बसाया था--ततश्चंपो यशच्म्पां निवेश्यामास।जनरल कनिंघम के अनुसार भागलपुर के समीपस्थ ग्राम चंपा नगर और चंपापुर प्राचीन चंपा के स्थान पर ही बसे हैं। वायु पुराण ; हरिवंश पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार भी चंपा का दूसरा नाम मालिनी था। चंपा को चंपपुरी भी कहा गया है--चंपस्य तु पुरी चंपा या मालिन्यभवत् पुरा। इससे यह भी सूचित होता है कि चंपा का पहला नाम मालिनी था और चंप नामक राजा ने उसे चंपा नाम दिया था।दिग्घनिकाय के वर्णन के अनुसार चंपा अंग देश में स्थित थी। महाभारत से सूचित होता है कि चंपा गंगा के तट पर बसी थी--चर्मण्वत्याश्च यमुनां ततो गंगा जगाम ह, गंगाया सूत विषयं चंपामनुययौ पुरीम। प्राचीन कथाओं से सूचित होता है कि इस नगरी के चतुर्दिक् चंपक वृक्षों की मालाकार पंक्तियां थीं। इस कारण इसे चंपमालिनी या केवल मालिनी कहते थे।जातक कथाओं में इस नगरी का नाम कालचंपा भी मिलता है। महाजनक जातक के अनुसार चंपा मिथिला से साठ कोस दूर थी। इस जातक में चंपा के नगर द्वार तथा प्राचीर का वर्णन है जिसकी जैन ग्रंथों से पुष्टि होती है। औपपातिक सूत्र में नगर के परकोटे, अनेक द्वारों, उद्यानों, प्रसादों आदि के बारे में निश्चित निर्देश मिलते हैं। जातक-कथाओं में चंपा की श्री, समृद्धि तथा यहां के सम्पन्न व्यापारियों का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। चंपा में कौशेय या रेशम का सुन्दर कपड़ा बुना जाता था जिसका दूर-दूर तक भारत से बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों तक व्यापार होता था। (रेशमी कपड़े की बुनाई की यह परम्परा वर्तमान भागलपुर में अभी तक चल रही है)।चंपा के व्यापारियों ने हिन्द-चीन पहुंचकर वर्तमान अनाम के प्रदेश में चंपा नामक भारतीय उपनिवेश स्थापित किया था। साहित्य में चंपा का कुणिक अजातशत्रु की राजधानी के रूप में वर्णन है। औपपातिक-सूत्र में इस नगरी का सुंदर वर्णन है और नगरी में पुष्यभद्र की विश्रामशाला, वहां के उद्यान में अशोक वृक्षों की विद्यमानता और कुणिक और उसकी महारानी धारिणी का चंपा से सम्बन्ध आदि बातों का उल्लेख है। इसी ग्रंथ में तीर्थंकर महावीर का चंपा में समवशरण करने और कुणिक की चंपा की यात्रा का भी वर्णन है। चंपा के कुछ शासनाधिकारियों जैसे गणनायक, दंडनायक और तालवार के नाम भी इस सूत्र में दिए गए हैं।जैन उत्तराध्ययन सूत्र में चंपा के धनी व्यापारी पालित की कथा है जो महावीर का शिष्य था। जैन ग्रंथ विविधतीर्थकल्प में इस नगरी की जैनतीर्थों में गणना की गई है। इस ग्रंथ के अनुसार बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्म चंपा में हुआ था। इस नगरी के शासक करकंडु ने कुण्ड नामक सरोवर में पाश्र्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी। वीरस्वामी ने वर्षाकाल में यहां तीन रातें बिताई थीं। कुणिक (अजातशत्रु) ने अपने पिता बिंबसार की मृत्यु के पश्चात राजगृह छोड़कर यहाँ अपनी राजधानी बनाई थी।युवानच्वांग (वाटर्स 2,181) ने चंपा का वर्णन अपने यात्रावृत्त में किया है। दशकुमार चरित्र 2, चरित्रों में चंपा का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि यह नगरी 7वीं शती ई. या उसके बाद तक भी प्रसिद्ध थी। चंपापुर के पास कर्णगढ़ की पहाड़ी (भागलपुर के निकट) है जिससे महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अंगराज कर्ण से चंपा का संबंध प्रकट होता है।--महाभारत के अनुसार जरासंध ने कर्ण को चंपा या मालिनी का राजा मान लिया था। प्राचीन काल में चंपा नगरी अंग देश की राजधानी थी। अंग प्रदेश 16 महाजनपदों में एक है। चंपा नगरी इसी नाम की नदी और गंगा के संगम पर स्थित थी। यह भागलपुर जिले (बिहार राज्य) का हिस्सा है। विष्णु पुराण में उल्लेख है कि पृथुलाक्ष के पुत्र चंप ने इस नगरी को बसाया था--ततश्चंपो यशच्म्पां निवेश्यामास।जनरल कनिंघम के अनुसार भागलपुर के समीपस्थ ग्राम चंपा नगर और चंपापुर प्राचीन चंपा के स्थान पर ही बसे हैं। वायु पुराण ; हरिवंश पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार भी चंपा का दूसरा नाम मालिनी था। चंपा को चंपपुरी भी कहा गया है--चंपस्य तु पुरी चंपा या मालिन्यभवत् पुरा। इससे यह भी सूचित होता है कि चंपा का पहला नाम मालिनी था और चंप नामक राजा ने उसे चंपा नाम दिया था।दिग्घनिकाय के वर्णन के अनुसार चंपा अंग देश में स्थित थी। महाभारत से सूचित होता है कि चंपा गंगा के तट पर बसी थी--चर्मण्वत्याश्च यमुनां ततो गंगा जगाम ह, गंगाया सूत विषयं चंपामनुययौ पुरीम। प्राचीन कथाओं से सूचित होता है कि इस नगरी के चतुर्दिक् चंपक वृक्षों की मालाकार पंक्तियां थीं। इस कारण इसे चंपमालिनी या केवल मालिनी कहते थे।जातक कथाओं में इस नगरी का नाम कालचंपा भी मिलता है। महाजनक जातक के अनुसार चंपा मिथिला से साठ कोस दूर थी। इस जातक में चंपा के नगर द्वार तथा प्राचीर का वर्णन है जिसकी जैन ग्रंथों से पुष्टि होती है। औपपातिक सूत्र में नगर के परकोटे, अनेक द्वारों, उद्यानों, प्रसादों आदि के बारे में निश्चित निर्देश मिलते हैं। जातक-कथाओं में चंपा की श्री, समृद्धि तथा यहां के सम्पन्न व्यापारियों का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। चंपा में कौशेय या रेशम का सुन्दर कपड़ा बुना जाता था जिसका दूर-दूर तक भारत से बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों तक व्यापार होता था। (रेशमी कपड़े की बुनाई की यह परम्परा वर्तमान भागलपुर में अभी तक चल रही है)।चंपा के व्यापारियों ने हिन्द-चीन पहुंचकर वर्तमान अनाम के प्रदेश में चंपा नामक भारतीय उपनिवेश स्थापित किया था। साहित्य में चंपा का कुणिक अजातशत्रु की राजधानी के रूप में वर्णन है। औपपातिक-सूत्र में इस नगरी का सुंदर वर्णन है और नगरी में पुष्यभद्र की विश्रामशाला, वहां के उद्यान में अशोक वृक्षों की विद्यमानता और कुणिक और उसकी महारानी धारिणी का चंपा से सम्बन्ध आदि बातों का उल्लेख है। इसी ग्रंथ में तीर्थंकर महावीर का चंपा में समवशरण करने और कुणिक की चंपा की यात्रा का भी वर्णन है। चंपा के कुछ शासनाधिकारियों जैसे गणनायक, दंडनायक और तालवार के नाम भी इस सूत्र में दिए गए हैं।जैन उत्तराध्ययन सूत्र में चंपा के धनी व्यापारी पालित की कथा है जो महावीर का शिष्य था। जैन ग्रंथ विविधतीर्थकल्प में इस नगरी की जैनतीर्थों में गणना की गई है। इस ग्रंथ के अनुसार बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्म चंपा में हुआ था। इस नगरी के शासक करकंडु ने कुण्ड नामक सरोवर में पाश्र्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी। वीरस्वामी ने वर्षाकाल में यहां तीन रातें बिताई थीं। कुणिक (अजातशत्रु) ने अपने पिता बिंबसार की मृत्यु के पश्चात राजगृह छोड़कर यहाँ अपनी राजधानी बनाई थी।युवानच्वांग (वाटर्स 2,181) ने चंपा का वर्णन अपने यात्रावृत्त में किया है। दशकुमार चरित्र 2, चरित्रों में चंपा का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि यह नगरी 7वीं शती ई. या उसके बाद तक भी प्रसिद्ध थी। चंपापुर के पास कर्णगढ़ की पहाड़ी (भागलपुर के निकट) है जिससे महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अंगराज कर्ण से चंपा का संबंध प्रकट होता है।--महाभारत के अनुसार जरासंध ने कर्ण को चंपा या मालिनी का राजा मान लिया था। प्राचीन काल में चंपा नगरी अंग देश की राजधानी थी। अंग प्रदेश 16 महाजनपदों में एक है। चंपा नगरी इसी नाम की नदी और गंगा के संगम पर स्थित थी। यह भागलपुर जिले (बिहार राज्य) का हिस्सा है। विष्णु पुराण में उल्लेख है कि पृथुलाक्ष के पुत्र चंप ने इस नगरी को बसाया था--ततश्चंपो यशच्म्पां निवेश्यामास।जनरल कनिंघम के अनुसार भागलपुर के समीपस्थ ग्राम चंपा नगर और चंपापुर प्राचीन चंपा के स्थान पर ही बसे हैं। वायु पुराण ; हरिवंश पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार भी चंपा का दूसरा नाम मालिनी था। चंपा को चंपपुरी भी कहा गया है--चंपस्य तु पुरी चंपा या मालिन्यभवत् पुरा। इससे यह भी सूचित होता है कि चंपा का पहला नाम मालिनी था और चंप नामक राजा ने उसे चंपा नाम दिया था।दिग्घनिकाय के वर्णन के अनुसार चंपा अंग देश में स्थित थी। महाभारत से सूचित होता है कि चंपा गंगा के तट पर बसी थी--चर्मण्वत्याश्च यमुनां ततो गंगा जगाम ह, गंगाया सूत विषयं चंपामनुययौ पुरीम। प्राचीन कथाओं से सूचित होता है कि इस नगरी के चतुर्दिक् चंपक वृक्षों की मालाकार पंक्तियां थीं। इस कारण इसे चंपमालिनी या केवल मालिनी कहते थे।जातक कथाओं में इस नगरी का नाम कालचंपा भी मिलता है। महाजनक जातक के अनुसार चंपा मिथिला से साठ कोस दूर थी। इस जातक में चंपा के नगर द्वार तथा प्राचीर का वर्णन है जिसकी जैन ग्रंथों से पुष्टि होती है। औपपातिक सूत्र में नगर के परकोटे, अनेक द्वारों, उद्यानों, प्रसादों आदि के बारे में निश्चित निर्देश मिलते हैं। जातक-कथाओं में चंपा की श्री, समृद्धि तथा यहां के सम्पन्न व्यापारियों का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। चंपा में कौशेय या रेशम का सुन्दर कपड़ा बुना जाता था जिसका दूर-दूर तक भारत से बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों तक व्यापार होता था। (रेशमी कपड़े की बुनाई की यह परम्परा वर्तमान भागलपुर में अभी तक चल रही है)।चंपा के व्यापारियों ने हिन्द-चीन पहुंचकर वर्तमान अनाम के प्रदेश में चंपा नामक भारतीय उपनिवेश स्थापित किया था। साहित्य में चंपा का कुणिक अजातशत्रु की राजधानी के रूप में वर्णन है। औपपातिक-सूत्र में इस नगरी का सुंदर वर्णन है और नगरी में पुष्यभद्र की विश्रामशाला, वहां के उद्यान में अशोक वृक्षों की विद्यमानता और कुणिक और उसकी महारानी धारिणी का चंपा से सम्बन्ध आदि बातों का उल्लेख है। इसी ग्रंथ में तीर्थंकर महावीर का चंपा में समवशरण करने और कुणिक की चंपा की यात्रा का भी वर्णन है। चंपा के कुछ शासनाधिकारियों जैसे गणनायक, दंडनायक और तालवार के नाम भी इस सूत्र में दिए गए हैं।जैन उत्तराध्ययन सूत्र में चंपा के धनी व्यापारी पालित की कथा है जो महावीर का शिष्य था। जैन ग्रंथ विविधतीर्थकल्प में इस नगरी की जैनतीर्थों में गणना की गई है। इस ग्रंथ के अनुसार बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्म चंपा में हुआ था। इस नगरी के शासक करकंडु ने कुण्ड नामक सरोवर में पाश्र्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी। वीरस्वामी ने वर्षाकाल में यहां तीन रातें बिताई थीं। कुणिक (अजातशत्रु) ने अपने पिता बिंबसार की मृत्यु के पश्चात राजगृह छोड़कर यहाँ अपनी राजधानी बनाई थी।युवानच्वांग (वाटर्स 2,181) ने चंपा का वर्णन अपने यात्रावृत्त में किया है। दशकुमार चरित्र 2, चरित्रों में चंपा का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि यह नगरी 7वीं शती ई. या उसके बाद तक भी प्रसिद्ध थी। चंपापुर के पास कर्णगढ़ की पहाड़ी (भागलपुर के निकट) है जिससे महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अंगराज कर्ण से चंपा का संबंध प्रकट होता है।--
- कोई कीड़ा करीब 10 लाख रुपए प्रति किलो में मिलता है, यह आश्चर्य में डालने वाली बात है, पर यह सच है। भारत में इसे कीड़ा जड़ी के नाम से जाना जाता है। वहीं नेपाल और चीन में इसे यार्सागुम्बा कहते हैं। तिब्बत में इसका नाम यार्सागन्बू है। अंग्रेजी में इसे कैटरपिलर फंगस कहते हैं, क्योंकि यह फंगस (कवक) की प्रजाति से ही संबंध रखता है।यह एक तरह का जंगली मशरूम है जो हैपिलस फैब्रिकस नाम के एक कीड़े के ऊपर उगता है। पीले-भूरे रंग की इस जड़ी का आधा हिस्सा कीड़ा और आधा हिस्सा जड़ी जैसा नजर आता है, इसलिए इसे कीड़ा जड़ी कहा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम कॉर्डिसेप्स साइनेसिस है।कीड़ा जड़ी हिमालय में समुद्र तल से 3,500 से लेकर 5,000 मीटर तक की ऊंचाई पर मिलती है। उत्तराखंड में कुमाऊं के धारचुला और गढ़वाल के चमोली में कई परिवारों के लिए यह आजीविका का साधन है। वह इन जड़ी को इक_ा करके बेचते हैं। भारत के उत्तराखंड के अलावा यह जड़ी चीन, नेपाल और भूटान के हिमालयी क्षेत्रों में भी मिलती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह जड़ी करीब 18 लाख रुपये किलो बिकती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी भारी मांग को देखते हुए इसकी तस्करी भी होती है।यह महंगा इसलिए बिकता है, क्योंकि इसका इस्तेमाल ताकत बढ़ाने की दवाओं समेत कई कामों में होता है। माना जाता है कि यह रोग प्रतिरक्षक क्षमता को बढ़ाता है और फेफड़े के इलाज में भी यह काफी कारगर है। बरसों से इसका इस्तेमाल जड़ी- बूटी में किया जा रहा है।कीड़ा जड़ी का इस्तेमाल प्राकृतिक स्टीरॉयड की तरह किया जाता है। यौन शक्ति बढ़ाने में यह जड़ी काफी असरदार है। इसी वजह से इसे हिमालयी वायग्रा के नाम से जाना जाता है। जहां अंग्रेजी वायग्रा के इस्तेमाल से दिल को कमजोर होने का खतरा रहता है, वहीं इस जड़ी के इस्तेमाल से स्वास्थ्य पर कोई खराब असर नहीं पड़ता है। कैंसर जैसी बीमारी के इलाज में भी इस जड़ी को काफी असरदार माना जाता है। आयुर्वेद के मुताबिक, सांस और गुर्दे की बीमारी को सही करने में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। साथ ही यह जड़ी शरीर में रोगरोधी क्षमता को भी बढ़ाती है।भारत के कई हिस्सों में, कैटरपिलर कवक का संग्रह कानूनी है, लेकिन इसका व्यापार अवैध है। पहले नेपाल में यह कीड़ा प्रतिबंधित था, लेकिन बाद में इस प्रतिबंध को हटा दिया गया।
- मधुमक्खियां फूलों के रस से शहद का निर्माण करती हैं और उससे अपने छत्ते में जमा करके रखती हैं, जिससे सर्दी के मौसम में उनके पास खाने-पीने की कमी न हो। मधुमक्खियों का छत्ता मोम से बनता है और 1 ग्राम मोम बनाने के लिए मधुमक्खी 16 ग्राम शहद का प्रयोग करती हैं। यह छत्ता मधुमक्खियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके प्रत्येक कोष्ठ का प्रयोग मधुमक्खियां अपने बच्चों (लार्वा) को रखने और शहद को जमा करने के लिए करतीं हैं।हरेक कोष्ठ की दीवारें इस प्रकार बनी होतीं हैं कि वे एक दूसरे को 120 डिग्री के कोण पर काटती हैं और एक व्यापक षट्कोण समिति के साथ छत्ता बनाती हैं। सराहना योग्य बात ये है की मधुमक्खियां हरेक कोष्ठ को बिल्कुल सही दूरी पर और एकदम सटीक कोण पर बनाती हैं। ये वाकई में प्रशंसनीय है। मधुमक्खियां बिना इंजीनियरिंग पढ़े हुए भी अच्छी इंजीनियर होती हैं। किंतु, मधुमक्खी के छत्ते के कोष्ट षट्कोण आकार के होते क्यों हैं?यही प्रश्न बहुत से वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में भी आया और इस पर शोध किया गया। शोध के अनुसार इस प्रकार बनाया गया ढांचा, निश्चित आयतन में कम से कम मोम का उपयोग करके बनाया जा सकता है। मधुमक्खियों से मनुष्य ने सीखा कि कैसे कम से कम सामग्री का उपयोग करके अधिक से अधिक मजबूत ढांचे बनाये जा सकते हैं।अगर फूलों के आस-पास मंडराते समय मधुमक्खियों को खतरे का आभास होता है तो वे अपने ही अंदाज में अपने साथियों को खतरे के प्रति आगाह कर देती हैं। वैज्ञानिकों को इस बात का तब पता चला जब उन्होंने कुछ फूलों के पास मरी हुई मधुमक्खियां रख दीं और फिर अध्ययन किया कि वहां आने वाली अन्य मधुमक्खियां खतरे के प्रति क्या प्रतिक्रिया देती हैं। अध्ययन से पता चला कि खतरे को भांपते ही वे एक अनोखे नृत्य (वैगल डांस) के ज़रिए दूसरी मधुमक्खियों तक संदेश पहुंचा देती हैं कि आगे खतरा है। जब मधुमक्खियां अपने छत्ते की ओर वापस आती हैं तो ये एक जटिल किस्म का नृत्य करती हैं। इसके बारे में 40 साल पहले पता लगाया गया था। अगर उन्हें लगता है कि फूलों के आस-पास मकडिय़ों आदि के जाल में फंसने का ख़तरा है तो वे छत्ते पर लौटकर ऐसा नहीं करती। यानी मधुमक्खियों ये पता लगा लेती हैं कि कुछ फूलों के पास जाना खतरनाक हो सकता है और वे खतरे का ये संदेश अपने विगल डांस के माध्यम से दूसरे साथियों को भी देती हैं।
- वर्ष 1857 में देश में आजादी की पहली चिंगारी सुलगाने वाले मंगल पांडे को आठ अप्रैल के दिन फांसी दे दी गई थी। मंगल पांडे (जन्म- 19 जुलाई, 1827; मृत्यु- 8 अप्रैल, 1857) का नाम भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अग्रणी योद्धाओं के रूप में लिया जाता है, जिनके द्वारा भड़काई गई क्रांति की ज्वाला से अंग्रेज़ ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन बुरी तरह हिल गया था। मंगल पांडे की शहादत ने भारत में पहली क्रांति के बीज बोए थे।मारो फिरंगी को.. यह प्रसिद्ध नारा भारत की स्वाधीनता के लिए सर्वप्रथम आवाज़ उठाने वाले क्रांतिकारी मंगल पांडे की जुबां से 1857 की क्रांति के समय निकला था। भारत की आज़ादी के लिए क्रांति का आगाज़ 31 मई, 1857 को होना तय हुआ था, परन्तु यह दो माह पूर्व 29 मार्च, 1857 को ही आरम्भ हो गई।1857 के विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ था। सिपाहियों को 1853 में एनफ़ील्ड बंदूक दी गयी थीं, जो कि 0.577 कैलीबर की बंदूक थी तथा पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी। नयी बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली का प्रयोग किया गया था, परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारूद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस में डालना पड़ता था। कारतूस का बाहरी आवरण में चर्बी होती थी, जो कि उसे नमी अर्थात् पानी की सीलन से बचाती थी।सिपाहियों के बीच अफ़वाह फ़ैल चुकी थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है। यह सिपाहियों की धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था। 29 मार्च सन् 1857 को नए कारतूस को प्रयोग करवाया गया, मंगल पाण्डे ने आज्ञा मानने से मना कर दिया। इस पर अंग्रेज अफ़सर ने सेना को हुकम दिया कि उसे गिरफ्तार किया जाये, सेना ने हुक्म नहीं माना। पलटन के सार्जेंट हडसन स्वयं मंगल पांडे को पकडऩे आगे बढ़ा तो, पांडे ने उसे गोली मार दी, तब लेफ्टीनेंट बल आगे बढ़ा तो उसे भी पांडे ने गोली मार दी। घटनास्थल पर मौजूद अन्य अंग्रेज़ सिपाहियों नें मंगल पांडे को घायल कर पकड़ लिया। उन्होंने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान किया। किन्तु उन्होंने उनका साथ नहीं दिया। उन पर मुक़दमा (कोर्ट मार्शल) चलाकर मौत की सज़ा सुना दी गई। मंगल पांडे को की फांसी की तिथि 18 अप्रैल नियत की गई थी, लेकिन कई छावनियों में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ असंतोष भड़ता देख, अंग्रेजों ने मंगल पांडे को 10 दिन पहले ही फांसी देने का फैसला लिया।8 अप्रैल का दिन मंगल पांडे की फांसी के लिए निश्चित किया गया। बैरकपुर के जल्लादों ने मंगल पांडे के पवित्र ख़ून से अपने हाथ रंगने से इनकार कर दिया। तब कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाए गए। 8 अप्रैल, 1857 के सूर्य ने उदित होकर मंगल पांडे के बलिदान का समाचार संसार में प्रसारित कर दिया।
- अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य समस्याओं पर दुनिया भर के देशों के आपसी सहयोग के लिए 7 अप्रैल, वर्ष 1948 में बड़ा कदम उठाया गया था। संयुक्त राष्ट्र की स्वास्थ्य मामलों की एजेंसी विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को हुई थी। इसीलिए आज के दिन को विश्व स्वास्थ्य दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।विश्व स्वास्थ्य संगठन, स्वास्थ्य के लिए संयुक्त राष्ट्र की विशेषज्ञ एजेंसी है। यह एक अंतर-सरकारी संगठन है जो आमतौर पर सदस्य देशों के स्वास्थ्य मंत्रालयों के जरिए उनके साथ मिलकर काम करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन दुनिया में स्वास्थ्य संबंधी मामलों में नेतृत्व प्रदान करने, स्वास्थ्य अनुसंधान एजेंडा को आकार देने, नियम और मानक तय करने, प्रमाण आधारित नीतिगत विकल्प पेश करने, देशों को तकनीकी समर्थन प्रदान करने और स्वास्थ्य संबंधी रुझानों की निगरानी और आकलन करने के लिए जिम्मेदार है।इस संगठन का उद्देश्य है दुनिया भर के लोगों के स्वास्थ्य का स्तर ऊंचा करना। डब्ल्यूएचओ का मुख्यालय स्विट्जरलैंड के जेनेवा शहर में स्थित है। इसकी स्थापना पर 22 जुलाई 1946 को संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन सभी 61 सदस्य देशों ने सहमति जताई थी। इस समय 194 देश विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य हैं।डब्ल्यूएचओ की स्थापना से अब तक संगठन ने कई जानलेवा बीमारियों और चेचक जैसी महामारियों को मिटाने में उल्लेखनीय कदम उठाए हैं। इस समय संगठन का खास ध्यान कोरोना वायरस, टीबी, कैंसर और एचआईवी जैसी बड़ी बीमारियों पर है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चुनौती के रूप में सामने खड़ी हैं। पोषण, खाद्य सुरक्षा और यौन संबंधी बीमारियां भी डब्ल्यूएचओ के कार्यक्षेत्र में अहम हैं।भारत के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के कंट्री कार्यालय का मुख्यालय दिल्ली में है और देश भर में उसकी उपस्थिति है।डब्ल्यूएचओ यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्थापना दिवस को हर साल विश्व स्वास्थ्य दिवस के तौर पर मनाया जाता है। हर साल विश्व स्वास्थ्य दिवस की थीम अलग-अलग होती है। इस साल यानी 2020 के लिए विश्व स्वास्थ्य दिवस की थीम नर्सों और मिडवाइफ की सहायता करें है। इस थीम के माध्मय से नर्सों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों की अहम भूमिका को सराहा गया है।अपनी स्थापना के बाद से डब्ल्यूएचओ ने स्मॉल पॉक्स बिमारी को खत्म करने में बड़ी भूमिका निभाई है। फिलहाल डब्ल्यूएचओ एड्स, इबोला और टीबी जैसी खतरनाक बिमारियों की रोकथाम पर काम कर रहा है। डब्ल्यूएचओ वल्र्ड हेल्थ रिपोर्ट के लिए जिम्मेदार होता है जिसमें पूरी दुनिया से जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का एक सर्वे होता है।
- बीजिंग। अनुसंधानकर्ताओं ने पश्चिमी चीन के 60 से 90 लाख साल पुरानी चट्टानों से पक्षियों की एक नयी प्रजाति का जीवाश्म खोजा है। यह खोज तिब्बती पठार के छोर पर शुष्क, बंजर प्राकृतिक वास होने की ओर इशारा करती है। तिब्बत का पठार अभी अपनी वर्तमान अधिकतम ऊंचाई तक बढ़ गया है।चीनी विज्ञान अकादमी के अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि यह पक्षी सैंडग्रोस प्रजाति का है। सैंडग्रोस पक्षियों की 16 प्रजातियों का समूह है जो पंडुक और कबूतरों से संबंधित है जो यूरोप, एशिया और अफ्रीका के सबसे शुष्क इलाकों में रहते हैं। अध्ययन में नयी प्रजाति को लिंग्जियाविस इनएक्वोसस नाम दिया गया है और यह सैंडग्रोस जीवाश्म रिकॉर्ड में आए करीब दो करोड़ साल के अंतर को पाटती है।अनुसंधानकर्ताओं ने बताया कि आधे कंकाल के रूप में मिले जीवाश्म में शरीर का ज्यादातर हिस्सा है जैसे कंधे की हड्डियां, विशबोन (कांटानुमा हड्डी), दोनों पंखों की हड्डियां, रीढ़ का जोड़ और पैर का हिस्सा है। साथ ही बताया कि सिर वाला हिस्सा गायब था। अध्ययन के प्रथम लेखक जी जिहेंग ने कहा, एशिया के सैंडग्रोस के सबसे पुराने जीवाश्म और समूह के सबसे पूर्ण जीवाश्म के तौर पर मिला यह नया कंकाल सैंडग्रोस की उत्पत्ति की हमारी समझ को विस्तार देने के साथ ही तिब्बती पठार से जुड़े पारिस्थितिकी तंत्र को समझने में प्रमुख कड़ी साबित होगा। खोज के आधार पर वैज्ञानिकों ने कहा कि तिब्बती पठार के बगल का हिस्सा भी उतना ही शुष्क था जब लिंग्जियाविस इनएक्वोसस मायोसीन के तौर पर प्रसिद्ध अवधि के दौरान पाए जाते थे। यह अध्ययन फ्रंटियर्स इन इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन जर्नल में प्रकाशित हुआ है।