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- छतरपुर। दुनिया में आज भी ऐसे कई रहस्य हैं, जो अभी तक रहस्य ही बने हुए हैं, क्योंकि उनके बारे में पता लगाने में वैज्ञानिक भी फेल हो गए हैं। आज हम आपको एक ऐसे रहस्यमय कुंड के बारे में बताने जा रहे हैं, जो भारत में है और इसके बारे में कहा जाता है कि कुंड की गहराई का पता आज तक वैज्ञानिक भी नहीं लगा पाए हैं। इस रहस्यमय कुंड का नाम है भीम कुंड, जो मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले करीब 70 किलोमीटर दूर बाजना गांव में स्थित है।इस कुंड की कहानी महाभारत काल से जुड़ी हुई है। इस कुंड के बारे में कहा जाता है कि महाभारत काल में जब पांडव अज्ञातवास पर थे और इधर-उधर भटक रहे थे, तो उन्हें बहुत प्यास लगी, लेकिन उन्हें कहीं भी पानी नहीं मिला। तब भीम ने अपनी गदा से जमीन पर मारकर यह कुंड बनाया और अपनी प्यास बुझायी। कहते हैं कि 40-80 मीटर चौड़ा यह कुंड देखने में बिल्कुल एक गदा के जैसा है। यह कुंड देखने में तो बिल्कुल साधारण सा लगता है, लेकिन इसकी खासियत आपको हैरान कर देगी। इस कुंड के बारे में कहा जाता है कि जब भी एशियाई महाद्वीप में कोई प्राकृतिक आपका (बाढ़, तूफान, सुनामी) घटने वाली होती है, कुंड का पानी अपने आप बढऩे लगता है।
- चंपा प्राचीन काल में अंग देश की राजधानी। विष्णु पुराण से पता चलता है कि पृथुलाक्ष के पुत्र चंप ने इस नगरी को बसाया था। जनरल कनिंघम के अनुसार भागलपुर (बिहार राज्य) के समीपस्थ ग्राम चंपा नगर और चंपापुर प्राचीन चंपा के स्थान पर ही बसे हैं।महाभारत के अनुसार जरासंध ने कर्ण को चंपा या मालिनी का राजा मान लिया था। वायु पुराण ; हरिवंश पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार भी चंपा का दूसरा नाम मालिनी था। चंपा को चंपपुरी भी कहा गया है--चंपस्य तु पुरी चंपा या मालिन्यभवत् पुरा। इससे यह भी सूचित होता है कि चंपा का पहला नाम मालिनी था और चंप नामक राजा ने उसे चंपा नाम दिया था। दिग्घनिकाय के वर्णन के अनुसार चंपा अंग देश में स्थित थी। महाभारत से सूचित होता है कि चंपा गंगा के तट पर बसी थी। प्राचीन कथाओं से सूचित होता है कि इस नगरी के चतुर्दिक् चंपक वृक्षों की मालाकार पंक्तियां थीं। इस कारण इसे चंपमालिनी या केवल मालिनी कहते थे।जातक कथाओं में इस नगरी का नाम कालचंपा भी मिलता है। महाजनक जातक के अनुसार चंपा मिथिला से साठ कोस दूर थी। इस जातक में चंपा के नगर द्वार तथा प्राचीर का वर्णन है जिसकी जैन ग्रंथों से पुष्टि होती है। औपपातिक सूत्र में नगर के परकोटे, अनेक द्वारों, उद्यानों, प्रसादों आदि के बारे में निश्चित निर्देश मिलते हैं। जातक-कथाओं में चंपा की श्री, समृद्धि तथा यहां के सम्पन्न व्यापारियों का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। चंपा में कौशेय या रेशम का सुन्दर कपड़ा बुना जाता था जिसका दूर-दूर तक भारत से बाहर दक्षिणयहां से पूर्व एशिया के अनेक देशों तक व्यापार होता था। (रेशमी कपड़े की बुनाई की यह परम्परा वर्तमान भागलपुर में अभी तक चल रही है)। चंपा के व्यापारियों ने हिन्द-चीन पहुंचकर वर्तमान अनाम के प्रदेश में चंपा नामक भारतीय उपनिवेश स्थापित किया था। साहित्य में चंपा का कुणिक अजातशत्रु की राजधानी के रूप में वर्णन है। औपपातिक-सूत्र में इस नगरी का सुंदर वर्णन है और नगरी में पुष्यभद्र की विश्रामशाला, वहां के उद्यान में अशोक वृक्षों की विद्यमानता और कुणिक और उसकी महारानी धारिणी का चंपा से सम्बन्ध आदि बातों का उल्लेख है। इसी ग्रंथ में तीर्थंकर महावीर का चंपा में समवशरण करने और कुणिक की चंपा की यात्रा का भी वर्णन है। चंपा के कुछ शासनाधिकारियों जैसे गणनायक, दंडनायक और तालवार के नाम भी इस सूत्र में दिए गए हैं।जैन उत्तराध्ययन सूत्र में चंपा के धनी व्यापारी पालित की कथा है जो महावीर का शिष्य था। जैन ग्रंथ विविधतीर्थकल्प में इस नगरी की जैनतीर्थों में गणना की गई है। इस ग्रंथ के अनुसार बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्म चंपा में हुआ था। इस नगरी के शासक करकंडु ने कुण्ड नामक सरोवर में पार्श्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी। वीरस्वामी ने वर्षाकाल में यहाँ तीन रातें बिताई थीं। कुणिक (अजातशत्रु) ने अपने पिता बिंबसार की मृत्यु के पश्चात राजगृह छोड़कर यहां अपनी राजधानी बनाई थी।युवानच्वांग (वाटर्स 2,181) ने चंपा का वर्णन अपने यात्रावृत्त में किया है। दशकुमार चरित्र 2, चरित्रों में चंपा का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि यह नगरी 7वीं शती ई. या उसके बाद तक भी प्रसिद्ध थी। चंपापुर के पास कर्णगढ़ की पहाड़ी (भागलपुर के निकट) है जिससे महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अंगराज कर्ण से चंपा का सम्बन्ध प्रकट होता है। चंपा इसी नाम की नदी और गंगा के संगम पर स्थित थी।--
- बीगल- बीगल बेहद वफादार माने जाते हैं। ये आमतौर पर खुश रहते हैं। इन कुत्तों को अक्सर प्रतियोगिताओं में आप पुरस्कार जीतते भी देखते होंगे। बीगल को प्रशिक्षण देना आसान है, ये विनम्र होते हैं, लेकिन इस कुत्ते में अपने बारे में सोचने की काबिलियत नहीं होती।मैसटिफ- कुत्तों की यह प्रजाति इंसानों के साथ गहरी दोस्ती गांठती है, लेकिन अच्छे दिल का यह मतलब नहीं कि यह कुत्ता होशियार भी है। मैसटिफ को जटिल निर्देश समझने और उनके आधार पर काम करने में दिक्कत होती है. इन्हें बहुत प्रशिक्षण देना बेकार है।बुलडॉग- बुलडॉग से दोस्ती करना और इसके साथ खेलना आसान है, लेकिन इसकी इन्हीं खूबियों की वजह से यह मालिक पर निर्भर भी रहता है। अगर इन्हें अकेला छोड़ा जाए तो ये घर का कोई एक कोना या फर्नीचर पकड़ कर वहीं बैठे रहना पसंद करते हैं।चिहुआहुआ- इस कुत्ते का भी अपने मालिक से खास संबंध होता है., लेकिन इसके अलावा वे किसी और बात की खास परवाह नहीं करते। चिहुआहुआ को अक्सर मतलबी भी माना जाता है। ये थोड़े बिगड़ैल और ढीठ भी होते हैं, जो करना चाहते हैं, वही करते हैं। इस तरह के कुत्तों के लिए ट्रेनिंग स्कूलों में खास जगह नहीं।वायमरानर- वायमरानर को समझदार कुत्ता माना जाता है, लेकिन जानवरों के डॉक्टर बताते हैं कि ये कुत्ते एक जगह खामोशी से नहीं बैठ सकते। ये कुत्ते अक्सर भाग भी जाते हैं और फिर परेशानी में फंसे पाए जाते हैं।आयरिश सेटर- आयरिश सेटर को रोमांच अच्छा लगता है, लेकिन इस कुत्ते को अपनी सीमा का सही अंदाजा नहीं होता। वह निर्धारित नहीं कर पाता कि कहां उसकी हद खत्म हो रही है और कहां वह नियम तोड़ रहा है। अगर इसकी ठीक ट्रेनिंग ना हो तो मदद की बजाय यह कुत्ता मालिक के लिए सिरदर्द बन सकता है।पग- पग के लिए सबसे अहम इसकी भूख है। इसे मालिक से खाना मांगना खूब आता है, लेकिन अगर इसके साथ कोई ऐसा खेल या काम करना चाहते हैं जिसमें खाने का कोई जिक्र ना हो तो ये परवाह नहीं करते।----
- महाराष्ट्र के बुलढाना जिले की लोनार झील अपने अंदर कई रहस्यों को समेटे है। लगभग 5 लाख 70 हजार साल पुरानी इस झील का जिक्र पुराणों, वेदों और दंत कथाओं में भी है। आकाशीय उल्का पिंड की टक्कर से निर्मित खारे पानी की दुनिया की पहली झील है लोनार। इसका खारा पानी इस बात का प्रतीक है कि कभी यहां समुद्र हुआ करता था।लोनार झील के सन्दर्भ में स्कन्द पुराण में बहुत रोचक कहानी है। बताते हैं कि इस इलाके में लोनासुर नामक एक दानव रहा करता था। उसने आस-पास के देशों को तो अपने कब्जे में ले ही लिया था, देवताओं को भी युद्ध की खुली चुनौती दे दी थी। उसके आतंक से त्रस्त होकर मनुष्य तो मनुष्य, देवताओं ने भी विष्णु से लोनासुर से रक्षा करने की अपील की। भगवान विष्णु ने आनन-फानन में एक ख़ूबसूरत युवक को तैयार किया, जिसका नाम दैत्यसुदन रखा गया। दैत्यसुदन ने पहले लोनासुर की दोनों बहनों को अपने मोहपाश में बांधा फिर एक दिन उनकी मदद से उस एक मांद का मुख्यद्वार खोल दिया, जिसमें लोनासुर छिपा बैठा था। महीनों तक दैत्यसुदन और लोनासुर में युद्ध चलता रहा और अंत में लोनासुर मारा गया। मौजूदा लोनार झील लोनासुर की मांद है और लोनार से लगभग 36 किमी दूर स्थित दातेफाल की पहाड़ी में उस मांद का ढक्कन मौजूद है। पुराण में झील के पानी को लोनासुर का रक्त और उसमें मौजूद नमक को लोनासुर का मांस बताया गया है।नासा से लेकर दुनिया की तमाम एजेंसियां इस झील पर शोध कर चुकी हैं। लोनार झील का जिक्र ऋग्वेद और स्कंद पुराण में भी मिलता है। पद्म पुराण और आईन-ए-अकबरी में भी इसका जिक्र है। कहते हैं कि अकबर झील का पानी सूप में डालकर पीता था। हालांकि, इसे पहचान 1823 में मिली उस वक्त मिली, जब ब्रिटिश अधिकारी जेई अलेक्जेंडर यहां पहुंचे थे।लोनार झील के पास कई प्राचीन मंदिरों के भी अवशेष हैं। इनमें दैत्यासुदन मंदिर भी शामिल है। यह भगवान विष्णु, दुर्गा, सूर्य और नरसिम्हा को समर्पित है। इसके अलावा यहां प्राचीन लोनारधर मंदिर, कमलजा मंदिर, मोठा मारुति मंदिर मौजूद हैं। इनका निर्माण करीब 1000 साल पहले यादव वंश के राजाओं ने कराया था। 10वीं शताब्दी में झील के खारे पानी के तट पर शिव मंदिर का निर्माण हुआ था जिसमें 12 शिवलिंग स्थापित किए गए थे।---
- भारत की राजधानी दिल्ली सिर्फ देश की राजधानी ही नहीं बल्कि अपनी अपनी खूबसूरती के कारण भी लोगों के दिलों में बसी हुई है। 8 शहरों को लेकर बसाई गई दिल्ली का एक लंबा इतिहास रहा है। एक प्राचीन किवदंती है कि जिसने दिल्ली पर शासन किया, उसने भारत पर शासन किया। दिल्ली की स्थापना का संदर्भ महाभारत में मिलता है। दिल्ली को हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र ने पांडवों को आसपास के क्षेत्र में अपना साम्राज्य स्थापित करने के निर्देश दिए। दिल्ली जिन 8 नगरों को मिलाकर बनाई गई हैं , वे हैं-इंद्रप्रस्थ- दिल्ली का एक हिस्सा खांडवप्रस्थ के नाम से जाना गया। पांडव राजकुमार, युधिष्ठिर ने खांडववन नामक जंगल क्षेत्र को साफ करके दिल्ली में इन्द्रप्रस्थ नामक शहर की स्थापना की। वास्तव में यह इतना आकर्षक शहर था कि कौरव पांडवों के शत्रु बन गए। कल्कि पुराण में भी इसका उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार इंद्रप्रस्थ नामक नगरी के आबाद होने से पहले यहां पर एक घना जंगल था, जो खांडव वन या इंद्र वन कहलाता था। चंद्रवंशी राजा सुदर्शन ने इस जंगल को साफ कराकर एक नगर बसाया। इस शहर का नाम खांडवप्रस्थ रखा गया। खांडवप्रस्थ का विस्तार पांच गांवों तक था और पांडवों ने यहीं पर अपना नगर बसाया था।पिथौरा- दिल्ली के आठ शहर 1/9 लाल कोट अथवा किला राय पिथौरा किला राय पिथौरा का निर्माण पृथ्वीराज चौहान ने कराया था। इस किले की प्राचीरों के खंडहर अभी भी कुतुब मीनार के आसपास के क्षेत्र में आंशिक रूप से देखे जा सकते हैं। तोमर और चौहान वंश के काल में दिल्ली में मंदिरों का निर्माण हुआ। यह माना जाता है कि कुववत-उल-इस्लाम मस्जिद और कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताइस हिन्दू मंदिरों के अवशेष मौजूद हैं। महरौली स्थित लौह स्तम्भ जंग लगे बिना विभिन्न संघर्षों का मूक गवाह रहा है और राजपूत वंश के गौरव और समृद्धि को कहानी बयान करता है।महरौली- महरौली कभी हिंदुओं की जागीर हुआ करती थी..लेकिन पृथ्वी राज चौहान की मुगलों से हार हो जाने के बाद महरौली क्षेत्र अतिक्रमणकारियों की गद्दी बना रहा, जो कभी पूर्ववर्ती हिन्दुओं की राजधानी रहा था।सीरी- सीरी जिसे अब हौज खास के रूप ,से जाना जाता है..इसका निर्माण अलाउद्दीन खिलजी ने किया था, उसने सन 1303 ई. में अपनी राजधानी सीरी में स्थापित की।फिरोजाबाद- वर्तमान में फिरोज़ाबाद को फिरोज शाह कोटला का निर्माण फिरोज शाह तुगलक ने कराया था। फिरोज शाह ने कलां मस्जिद, चौंसठ खंबा, बेगमपुर मस्जिद और उसके समीप बिजय मंडल तथा बारा खंबा तुगलक के काल में निर्मित अन्य महत्वपूर्ण भवन हैं। उसने रिज के जंगलों में अनेक सरायों का निर्माण भी करवाया। इन सरायों में भूली भटियारी का महल, पीर गरीब और मालचा महल अभी भी मौजूद हैं।शेरगढ़-शेर शाह ने दिल्ली के एक अन्य शहर को बसाया। यह शहर जिसे शेरगढ़ के नाम से जाना जाता है, दीनपनाह के खंडहरों पर बसाया गया था, जिसे हुमायूं द्वारा बसाया गया था। शेरगढ़ के अवशेष आज के पुराने किले के रूप में देखे जा सकते हैं।शाहजहानाबाद-शाहजहानाबाद को शाहजहां ने बसाया था,हालांकि अब इसे पुरानी दिल्ली के नाम से जाना जाता है। यह चारदीवारी वाला शहर था, और इसके कुछ दरवाज़े और दीवार के कुछ हिस्से अभी भी मौजूद हैं।नई दिल्ली-नई दिल्ली की नींव वर्ष 15 दिसंबर, 1911 को दिल्ली दरबार के दौरान भारत के सम्राट, जॉर्ज पंचम ने रखी। ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड इर्विन द्वारा 13 फऱवरी 1931 को नई दिल्ली का उद्घाटन हुआ। भारत में ब्रिटिश शासकों की राजधानी रहा नई दिल्ली शहर, विभिन्न शासकों द्वारा निर्मित शहरों की श्रंृखला का आठवां शहर था।-----------
- कन्हेरी गुफाएं मुंबई शहर के पश्चिमी क्षेत्र में बसे में बोरीवली के उत्तर में स्थित हैं। कन्हेरी की गणना पश्चिमी भारत के प्रधान बौद्ध मंदिरों में की जाती है और उसका वास्तु अपने द्वार, खिड़कियों तथा मेहराबों के साथ कार्ले की शिल्प परंपरा का अनुकरण करता है।कन्हेरी का चैत्य गृह अपनी कई विशिष्टताओं के कारण प्रसिद्ध है। हीनयान संप्रदाय का यह चैत्य मंदिर आंध्र सत्ता के प्राय: अंतिम युगों में दूसरी शती ई. के अंत में निर्मित हुआ था। यह बना प्राय: कार्ले की परंपरा में ही हैं, उसी तरह इसका चैत्य हाल है। स्तंभों पर युगल आकृतियाँ इसमें भी बैठाई गई हैं। दोनों में अतंर मात्र इतना है कि कन्हेरी की कला उतनी प्राणवान और शालीन नहीं, जितनी कार्ले की है।कार्ले की गुफ़ा से इसकी गुफ़ा कुछ छोटी है। लगभग एक तिहाई छोटी यह गुफ़ा अपूर्ण भी रह गई है। इसकी बाहरी दीवारों पर जो महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ बनी हैं, उनसे स्पष्ट है कि इस पर महायान संप्रदाय का भी बाद में प्रभाव पड़ा और हीनयान उपासना के कुछ काल बाद बौद्ध भिक्षुओं का संबंध इससे टूट गया था, जो गुप्त काल आते-आते फिर जुड़ गया। यद्यपि यह नया संबंध महायान उपासना को अपने साथ लिए आया, जो बुद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियों से प्रभावित है। इन मूर्तियों में बुद्ध की एक मूर्ति 25 फुट ऊंची है।कन्हेरी के चैत्य मंदिर की संरचना इस प्रकार है-चतुर्दिक फैली वन संपदा के बीच बहती जलधाराएं, जिनके ऊपर उठती हुई पर्वत की दीवार और उसमें कटी कन्हेरी की गहरी लंबी गुफ़ा। बाहर एक प्रांगण नीची दीवार से घिरा है, जिस पर मूर्तियां बनी हैं और जिससे होकर एक सोपान मार्ग चैत्य द्वार तक जाता है। दोनों ओर द्वारपाल निर्मित हैं और चट्टानी दीवार से निकली स्तंभों की परंपरा बनती चली गई है। कुछ स्तंभ अलंकृत भी हैं। स्तंभों की संख्या 34 है और समूची गुफ़ा की लंबाई 86 फुट, चौड़ाई 40 फुट और ऊंचाई 50 फुट है। स्तंभों के ऊपर की नर-नारी-मूर्तियों को कुछ लोगों ने निर्माता दंपति होने का भी अनुमान किया है, जो संभवत: अनुमान मात्र ही है। कोई प्रमाण नहीं, जिससे इनको इस चैत्य का निर्माता माना जाए।
- कैटरपिलर , लेपिडोप्टेरा प्रजाति (कीड़े की एक प्रजाति जिसमें तितलियां और मॉथ शामिल हैं) के एक सदस्य के लार्वा रूप हैं। आहार के मामले में वे अधिकांशत: शाकाहारी हैं, लेकिन कुछ प्रजातियां कीटभक्षी है। कैटरपिलर खाऊ होते हैं और इनमें से कई को कृषि में कीट माना जाता है। कई मॉथ प्रजातियों को, कृषि उत्पाद और फलों को नुकसान पहुंचाने के कारण उनकी कैटरपिलर अवस्था में ज्यादा जाना जाता है।कुछ कैटरपिलर बाल वाले होते हैं और उन्हें छूने पर हाथों पर खुजली होने की संभावना होती है। कैटरपिलर, मोल्ट्स की एक श्रृंखला के माध्यम से विकसित होते हैं। अन्य सभी कीड़ों की तरह, कैटरपिलर छाती और पेट से लगे हुए छोटे सुराखों की एक श्रृंखला के माध्यम से श्वास लेते हंै जिसे झरोखा कहा जाता है। ये शरीर गुहा में श्वासनली के एक नेटवर्क में फ़ैल जाती हैं। पिरैलिडे परिवार के कुछ कैटरपिलर जलीय होते हैं और उनके पास गिल होते हैं जो उन्हें पानी के नीचे सांस लेने में मदद करते हैं।कैटरपिलर में करीब 4 हजार मांसपेशियां होती हैं (मनुष्यों में 629 होती हैं)। वे पीछे के हिस्से की मांसपेशियों के संकुचन के माध्यम से चलते हैं जिससे रक्त आगे के हिस्से में धकेला जाता है और धड़ लम्बा हो जाता है। औसत कैटरपिलर में अकेले सिर के खंड में 248 मांसपेशियां होती हैं।कैटरपिलर की दृष्टि खराब होती है। भोजन का पता लगाने के लिए वे अपने छोटे एंटीना पर भरोसा करते हैं। कुछ कैटरपिलर कंपन का पता लगाने में सक्षम होते हैं । कैटरपिलर का शरीर नरम होता है जो निर्मोक के बीच तेजी से विकसित हो सकता है। केवल सिर का कैप्सूल कठोर होता है। कैटरपिलर में जबड़ा, पत्ते चबाने के लिए तेज और कठोर होता है; अधिकांश वयस्क लेपिडोप्टेरा में, जबड़ा बेहद छोटा या नरम होता है। कैटरपिलर के जबड़े के पीछे रेशम के जोड़-तोड़ के लिए स्पिनरेट होता है।कई जानवर कैटरपिलर का भक्षण करते हैं चूंकि उनमें प्रोटीन की अधिकता होती है। कैटरपिलर ने आत्मरक्षा के विभिन्न तरीके विकसित किए हैं। कैटरपिलर के चिह्न और शरीर के कुछ ख़ास अंग उसे जहरीला और आकार में बड़ा दिखा सकते हैं और इस प्रकार उसे डरा सकते हैं । कैटरपिलर के कुछ प्रकार वास्तव में जहरीले होते हैं और एसिड फेंकने में सक्षम होते हैं। कुछ कैटरपिलर में लंबा चाबुक-सदृश अंग उनके शरीर के छोर के साथ संलग्न होता है। कैटरपिलर मक्खियों को डराने के लिए इन अंगों को हिलाता है।कैटरपिलर ने ठंड, गर्मी या शुष्क पर्यावरण जैसी भौतिक स्थितियों के खिलाफ बचाव गुण विकसित किया है। गिनेफोरा ग्रोनलैन्डिका जैसी कुछ आर्कटिक प्रजातियों में एक निष्क्रिय अवस्था में रहने के लिए शारीरिक अनुकूलन के अलावा बास्किंग और एकत्रीकरण का विशेष व्यवहार पाया जाता है। कैटरपिलर को खाने की मशीन कहा गया है और वे पत्तियों को अंधा-धुंध खाते हैं। अधिकांश प्रजातियां, अपने शरीर के बड़ा होने के साथ अपनी त्वचा का चार या पांच बार त्याग करते हैं, और वे अंतत: एक वयस्क रूप में कोषस्थ कीट बन जाते हैं। कैटरपिलर बहुत जल्दी बड़े हो जाते हैं; जैसे कि एक टोबेको होर्नवोर्म अपना वजऩ बीस दिन से कम में दस हजार गुना बढ़ा लेता है। यह अनुकूलन जो उन्हें इतना ज्यादा खाने के लिए सक्षम बनाता है, एक विशेष मिडगट में एक ऐसा तंत्र है जो आयनों को तुरंत लुमेन (मिडगट गुहा) में भेजता है, ताकि पोटेशियम स्तर को रक्त की तुलना में मिडगट गुहा में उच्चता पर रखा जा सके।------
- दुनिया के सबसे महंगे पदार्थ की कीमत सुनकर आप हैरान रह जाएंगे। इसका नाम जानने के बाद आप ये सोच भी नहीं सकेंगे कि वाकई में इसकी कीमत इतनी ज्यादा होगी। दुनिया की सबसे महंगा पदार्थ ऐंटिमैटर(प्रतिपदार्थ) है।प्रतिपदार्थ पदार्थ का एक ऐसा प्रकार है जो प्रतिकणों जैसे पाजिट्रॉन, प्रति-प्रोटॉन, प्रति-न्यूट्रॉन मे बना होता है। ये प्रति-प्रोटॉन और प्रति-न्युट्रॉन प्रति क्वार्कों मे बने होते हैं। 1 ग्राम प्रतिपदार्थ को बेचकर दुनिया के 100 छोटे-छोटे देशों को खरीदा जा सकता है। 1 ग्राम प्रतिपदार्थ की कीमत 31 लाख 25 हजार करोड़ रुपये है। नासा के अनुसार, प्रतिपदार्थ धरती का सबसे महंगा मैटीरियल है। 1 मिलिग्राम प्रतिपदार्थ बनाने में 160 करोड़ रुपये तक लग जाते हैं। जहां यह बनता है, वहां पर दुनिया की सबसे अच्छी सुरक्षा व्यवस्था मौजूद है। इतना ही नहीं नासा जैसे संस्थानों में भी इसे रखने के लिए एक मजबुत सुरक्षा घेरा है। कुछ खास लोगों के अलावा प्रतिपदार्थ तक कोई भी नहीं पहुंच सकता है। दिलचस्प है कि प्रतिपदार्थ का इस्तेमाल अंतरिक्ष में दूसरे ग्रहों पर जाने वाले विमानों में ईधन की तरह किया जा सकता है।----
- दुनिया को हार्ट-लंग पम्प जैसी जीवनदायी मशीन देने वाले महान सर्जन जॉन हेबर्न गिब्बॉन ने 5 फरवरी, 1973 में आखिरी सांस ली। गिब्बॉन को ओपन हार्ट सर्जरी का जनक भी कहा जाता है।साल 1970 आते आते काफी डॉक्टर जान चुके थे कि समय पर दिल का ऑपरेशन हो तो कई लोगों को बचाया जा सकता है, लेकिन हृदय के ऑपरेशन के दौरान खून फेफड़ों में भर जाया करता था। इस परेशानी से कैसे निपटा जाए ये किसी की समझ में नहीं आ रहा था। तभी जॉन हेबर्न गिब्बॉन जूनियर एक उपकरण बनाकर लाए और महान आविष्कारकों में शामिल हो गए।वर्ष 1930 में जॉन हेबर्न गिब्बॉन एक रिसर्च फैलो के तौर पर हावर्ड गए। वहां उन्होंने देखा कि हृदय के ऑपरेशन के दौरान कई मरीज अपने ही खून की वजह से मारे जा रहे हैं। असल में खून फेफड़ों में भर जाता था और इससे मरीज का दम घुट जाता था।1935 में गिब्बॉन एक मशीन लेकर अस्पताल पहुंचे। यह असल में एक पम्प था। इसे हार्ट-लंग मशीन नाम दिया गया। गिब्बॉन ने साथियों के साथ एक बिल्ली की हार्ट सर्जरी की और इस मशीन को टेस्ट किया। नतीजे अप्रत्याशित थे। सर्जरी के दौरान बिल्ली के फेफड़ों में खून नहीं भरा। इस प्रयोग ने इंसान की ओपन हार्ट सर्जरी के रास्ते खोल दिए। गिब्बॉन को ओपन हार्ट सर्जरी का जनक भी कहा जाता है। आज भी दुनिया भर में हार्ट सर्जरी के दौरान इसी पम्प का इस्तेमाल होता है।पांच फरवरी 1973 को 70 साल की उम्र में गिब्बॉन ने दुनिया को अलविदा कहा। विश्व को सुरक्षित हार्ट सर्जरी देने वाले गिब्बॉन की मौत टेनिस खेलते वक्त हार्ट अटैक से हुई।---
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हज़ारो साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदानरगिस एक प्रकार का खूबसूरत फूल है, जो सर्दियों में खिलता है। यह नॉरशिसस वंश का पुष्प है। यह सफ़ेद , पीले और अनेक रंगों का होता है। इसकी पत्तियां लंबी और पतली होती हैं। इसे अंग्रेजी में डैफोडिल्स कहा जाता है।इस फूल के बारे में अल्लामा इक़बाल का शेर है-हज़ारो साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है,बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।इकबाल की ये पंक्तियां उनकी नज्म तुलू-ए-इस्लाम से हैं। इसमें उन्होंने इस्लाम के उदय का वर्णन किया है।हज़ारो साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है......इस पंक्ति के आगे पीछे की दो-दो लाइनें इस तरह से हैंजहांबानी से है दुश्वार-तर, कार-ए-जहांबीनीजिगर खूं हो तो चश्म-ए-दिल में होती है, नजऱ पैदा।हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती हैबड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।नवा पैदा हो ऐ बुलबुल, के हो तेरे तरन्नुम सेकबूतर के तन-ए-नाज़ुक में शाहीन का जगि़र पैदा।एक यूनानी किवदंती के अनुसार नार्सिसस नाम का एक सुंदर यूनानी युवक था । उसके अप्रतिम सौंदर्य को देखकर कोई भी उस पर मोहित हो जाता था किंतु वह किसी के प्रेम को भी स्वीकार नहीं करते था, क्योंकि उसेें स्वयं अपने सौंदर्य का आभास नहीं था। एक बार एक इको नाम की अप्सरा को उससे प्रेम हो गया, लेकिन नार्सिसस ने उसके प्रेम को भी अस्वीकार कर दिया, जिस कारण वह अप्सरा व्याकुल हो गयी। अप्सरा की यह अवस्था देखकर देवी नेमसिस ने नार्सिसस को एक झील में जाने के लिए प्रेरित किया। नार्सिसस जब झील में गया तो वहां अपने प्रतिबिंब को देखकर स्वयं ही मोहित हो गया और उस झील में ही विलीन हो गया। उस स्थान पर एक सुन्दर पुष्प उगा जिसे नरगिस के नाम से जाता जाता है।इस फूल को लेकर कई किंवदंतियां हंै। एक किंवदंती के अनुसार नरगिस न केवल शरद ऋतु के जाने का प्रतीक है बल्कि समृद्धि, धन और अच्छे भाग्य का प्रतीक भी माना जाता है। वेल्स में, यह कहा जाता है कि यदि आपको डैफोडिल फूल इसके खिलने के मौसम से पहले दिखाई दे जाता है तो आपके अगले 12 महीनों में धन की कमी नहीं होगी। चीनी किंवदंती के अनुसार नव वर्ष पर यदि डैफोडिल फूल खिलता है तो यह साल भर में अतिरिक्त धन और अच्छी किस्मत लाने वाला कहलाता है। कुछ देशों में पीले रंग का डैफोडिल ईस्टर के साथ जुड़ा हुआ है। यह फूल सौभाग्य लाता है और दुर्भाग्य को दूर करता है।श्रीनगर में नरगिस के फूलों के बगीचे को एशिया में अपनी तरह का सबसे बड़ा बाग माना जाता है। यहां नरगिस के फूलों के बीच शांति का एक अपूर्व सा अनुभव होता है। श्रीनगर में इस उद्यान को देखकर लगता है मानों किसी ने कालीन बिछा रखा है। ये गार्डन कई लोगों को रोजग़ार मुहैया कराता है। वसंत के दिनों में पीला नरगिस सबसे ज्यादा खिलता है। इसके नाम का एक बहुत ही विशेष अर्थ है। यह एक बारहमासी फूल है और इसका हल्का पीला फूल वसंत के आने का पहला संकेत है। ये फूल मार्च के महीने में खिलता है और पुन: उद्भव और नई शुरुआत का प्रतीक है। ये फूल यह इंगित करता है कि शरद चली गई है और वसंत के आगमन का समय आ गया है।नरगिस मंद-मधुर सुगंध वाला कंदीय पौधा है। नरगिस की सफेद पांच पंखुडिय़ों के बीच पीला सुगंधित प्याला खुला होता है और पांच फूल एक साथ एक टहनी पर चक्राकार रूप से खिलते हैं। इस फूल का जिक्र मुगलकालीन इतिहास में भी मिलता है। हिमाचल प्रदेश में सर्दियों में इस फूल की बहार आती है। खासकर कुल्लू क्षेत्र में ये फूल ज्यादा मिलते हैं। नरगिस का फूल 2 हफ्तों तक सूखता नहीं है। कुल्लू क्षेत्र में फाल्गुन संक्राति को स्वर्ग प्रवास पर गए देवी -देवताओं के पृथ्वी में आगमन के मौके पर आयोजित होने वाली पूजा में इस फूल का खास महत्व होता है। लोग अपने इष्ट देवताओं का स्वागत इस नरगिस फूल से करते हैं। वहीं देवताओं के कार-करिदें अपनी पारंपारिक वेशभूषा से सज्जित सधारण कपड़ों के साथ सिर पर कुल्लूवी टोपी में नरगिस फूल की दो डंडियां खास तौर से लगाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह फूल सिर्फ साज-सज्जा के लिए ही माना जाता है। अंतर्राष्ट्रीय फूल मार्के्रट में इस नरगिस फूल की बहुत मांग है। -
नई दिल्ली में गणतंत्र दिवस समारोह का समापन हर साल बीटिंग द रिट्रीट कार्यक्रम से होता है। गणतंत्र दिवस समारोह के जश्न की शुरुआत जहां परेड से होती है वहीं समापन बीटिंग द रिट्रीट के बाद होता है। इसेे गणतंत्र दिवस के ठीक तीन बाद आयोजित किया जाता है। इस कार्यक्रम में थल सेना, वायु सेना और नौसेना के बैंड पारंपरिक धुन के साथ मार्च करते हैं। यह सेना की बैरक वापसी का प्रतीक है। हर साल 29 जनवरी की शाम यानी गणतंत्र के तीसरे दिन बीटिंग रिट्रीट का आयोजन होता है।
यह कार्यक्रम राष्ट्रपति भवन रायसीना हिल्स में किया जाता है, जिसके मुख्य अतिथि राष्ट्रपति होते हैं। यह आयोजन तीन सेनाओं के एक साथ मिलकर सामूहिक बैंड वादन से आरंभ होता है। इसमें तीन सेनाओं के बैंड देश के राष्ट्रपति के सामने बैंड बजाते हैं। इस दौरान ड्रमर भी एकल प्रदर्शन (जिसे ड्रमर्स कॉल कहते हैं) करते हैं। इसके अलावा ड्रमर्स की ओर से एबाइडिड विद मी (यह महात्मा गांधी की प्रिय धुनों में से एक कहीं जाती है) बजाई जाती है और ट्युबुलर घंटियों की ओर से चाइम्स बजाई जाती हैं, जो काफी दूरी पर रखी होती हैं और इससे एक मनमोहक दृश्य बनता है।यह कार्यक्रम राष्ट्रपति भवन और संसद के पास विजय चौक पर आयोजित किया जाता है। बैंड वादन के बाद रिट्रीट का बिगुल वादन होता है, जब बैंड मास्टर राष्ट्रपति के समीप जाते हैं और बैंड वापिस ले जाने की अनुमति मांगते हैं। इसका मतलब ये होता है कि 26 जनवरी का समारोह पूरा हो गया है और बैंड मार्च वापस जाते समय लोकप्रिय धुन सारे जहां से अच्छा बजाते हैं। शाम 6 बजे तीनों भारतीय सेनाओं के बैंड धुन बजाते हैं और राष्ट्रीय ध्वज को उतार लिया जाता है। इसके साथ ही राष्ट्रगान गाया जाता है और इस प्रकार गणतंत्र दिवस के आयोजन का औपचारिक समापन होता है।1950 में भारत के गणतंत्र बनने के बाद बीटिंग द रिट्रीट कार्यक्रम को अब तक दो बार रद्द किया गया था। 27 जनवरी 2009 को भारत के 8वें राष्ट्रपति रामस्वामी वेंकटरमण का लंबी बीमारी के बाद निधन हो जाने के कारण बीटिंग रिट्रीट कार्यक्रम रद्द कर दिया गया था। इससे पहले 26 जनवरी 2001 को गुजरात में आए भूकंप के कारण बीटिंग द रिट्रीट कार्यक्रम को रद्द कर दिया गया था।--- -
नई दिल्ली: गूगल अपने टेक्नोलॉजी को दिन ब दिन और बेहतर करने की कोशिश में लगा हुआ है. हाल ही में कैंसर जैसे घातक बीमारी की सटीक पहचान से सुर्खियों में आने वाले गूगल अब एक और तकनीक लाने की तैयारी में जुटा है. कंपनी ने दावा किया है कि मौसम को लेकर आपको 6 घंटे पहले बिलकुल सटीक जानकारी दे दिया जाएगा. इसके लिए अब तक सभी शोध बेहद आशाजनक साबित हुए हैं. हाल ही में गूगल ने इस सप्ताह के एक ब्लॉग पोस्ट में नए शोध को साझा किया. इस रिसर्च के अनुसार गूगल की आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस गूगल मशीन लर्निंग की मदद से मौसम का पूर्वानुमान लगाने में बेहद सटीक साबित हो रहा है. शोधकर्ताओ ने बताया कि किस तरह उन्होंने कुछ ही मिनटों की कैलकुलेशन के बाद ही 6 घंटे में होने वाली बारिश की आशंका जताई थी. जो बाद में बेहद ही सटीक और सही निकली.
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साल का पहला चंद्रग्रहण आज
रायपुर। वर्ष 2020 का पहला चंद्र ग्रहण धार्मिक दृष्टि से बेअसर रहेगा। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार अधिकांश पंचांगों ने इसका उल्लेख नहीं किया है। जिसमें उल्लेख किया गया, उसमें इसे धार्मिक दृष्टि से महत्वहीन बताया गया है। इसके चलते चंद्रग्रहण के सूतक के साथ यम-निमय लागू नहीं होंगे। यह देशभर में नजर आएगा। चंद्र ग्रहण 10 जनवरी शुक्रवार को होगा। रात 10:38 पर इसका स्पर्श काल, मध्य काल 12:40 और मोक्ष रात 2:42 बजे होगा। रात 12.40 बजे ग्रहण चरम पर रहेगा, जिसमें चंद्रमा का 85 प्रतिशत भाग उप छाया से ढंक जाएगा।
काली मंदिर खजराना के ज्योतिष विद पं. शिवप्रसाद तिवारी ने बताया कि ग्रहण यूनाइटेड स्टेट, ब्राजील, अर्जेंटीना को छोड़कर भारत सहित दुनियाभर में दिखाई देगा। ज्योतिष विद विजय अड़ीचवाल ने बताया कि इस चंद्र ग्रहण का उल्लेख अधिकांश पंचांगों में नहीं किया गया है। धार्मिक दृष्टि से यह महत्वहीन है।
ज्योतिषियों के अनुसार मंद पडऩे की क्रिया को मान्ध कहा जाता है। मान्ध चंद्र ग्रहण होने से यह चंद्रमा को धुंधला ही कर पाएगा और चंद्रमा की कला में कोई कमी नहीं आएगी। इस दौरान चंद्रमा पृथ्वी की उपछाया से होकर गुजरेगा। साथ ही यह एक खगोलीय घटना के रूप में ही मान्य रहेगा। इस ग्रहण में चंद्रमा की कला कम नहीं होने से दान-पुण्य और सूतक की आवश्यकता नहीं रहेगी। ग्रहण से पृथ्वी के वायुमंडल में मौजूद प्रदूषण की मात्रा का पता लगाया जाएगा।
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नील नदी अफ्रीका की ही नहीं, बल्कि दुनिया की सबसे लंबी नदी है। यह नदी मिस्र और सूडान के निवासियों को एक प्रकार से जीवन प्रदान करती है। यह 6 हजार 648 किलोमीटर लंबी है। यह तांदानीका के पहाड़ों से निकल कर अफ्रीका से होती हुई भूमध्य सागर में गिरती है।
मिस्र में जमीन की उर्वरता इस नदी में हर साल आने वाली बाढ़ पर निर्भर करती है। जमीन की इसी उपजाऊपन के कारण मिस्र के प्राचीन निवासी समृद्ध थे और इसी कारण वे हर संकट के बाद भी जीवित रह सके। उनका प्राचीन धर्म भी नील की ही देन था और उस समय वे मिस्र निवासियों के जीवन का केन्द्र यही नील नदी थी।जहां से यह नदी शुरु होती है, वहां तीन प्रसिद्ध विशाल झीलें हैं, - विक्टोरिया, एलबर्ट और एडवर्ड । ये भूमध्य रेखा के दक्षिण में उष्ण प्रदेश में स्थित हैं। यहां अधिकांश बरसात सर्दियों में होती है। बरसात का पानी इन विशाल झीलों में भर जाता है और यही पानी पूरे साल इस नदी में बहता रहता है। इस क्षेत्र में बाढ़ नीली नील और अटबरा नदियोंं के कारण आती है। ये नदियां गर्मी की बारिशों का पानी लेकर इथियोपिया के पहाड़ों से इतनी तेज गति से उतरती हैं कि बहुत सारी मिट्टïी और पौधों की खाद भी अपने साथ घसीट लाती है। यही खाद और मिट्टïी नील के किनारों पर फैल जाती है और वह भूमि जिसे रेगिस्तान रहना चाहिए था, वह मरुद्यान में बदल जाती है। नील नदी के महत्व का अनुमान इसी बात से लगाया जाता है कि पूरे मिस्र की 95 फीसदी आबादी इसी नदी के किनारे बसी हुई है और यह क्षेत्र पूरे देश का तीसवां हिस्सा है।ऩील नदी का प्रमुख स्रोत कांगों है, जहां से होती हुई कंगेरा नदी विक्टोरिया झील तक बहती है। सेबत और अन्य नदियां नील में ही गिरती हैं। इस तरह ये इसके विस्तार को बढ़ाती हैं। इस जगह से आगे इस नदी को सफेद नील के नाम से पुकारा जाता है।नीली नदी इस नदी की सबसे लंबी सहायक नदी है। इसका स्रोत इथियोपिया की टाना झील है। खारतूम में नीली और सफेद नील मिल जाती ैऔर यहां से लेकर समद्र तक छह ऐसे जलप्रपात हैं, जिनमें कोई जहाज या नाव नहीं चल सकती। सूडान में जलप्रपातों से भारी मात्रा मेें बिजली पैदा की जाती है। इन स्थानों के चारों ओर पानी को रोककर बहाया जाता है। नील नदी पर दो बहुत बड़े बांध बने हुए हैं। ये बांध और जलप्रपात बिजली उत्पादन करके मिस्र की अधिकांश बिजली की जरूरतों को पूरा करते हैं। - धुंडिराज गोविन्द फालके उपाख्य दादासाहब फालके (जन्म 30 अप्रैल 1870 - निधन 16 फऱवरी 1944) को भारतीय फिल्म उद्योग का पितामह कहा जाता है।दादा साहब फालके, सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे। वह मंच के अनुभवी अभिनेता थ और शौकिया जादूगर थे। कला भवन बड़ौदा से फोटोग्राफी का एक पाठ्यक्रम भी किया था। उन्होंने फोटो केमिकल प्रिंटिंग की प्रक्रिया में भी प्रयोग किये थे। उन्होंने क्रिसमस के अवसर पर 'ईसामसीहÓ पर बनी एक फिल्म देखी। फिल्म देखने के दौरान ही फालके ने निर्णय कर लिया कि उनकी जिंदगी का मकसद फिल्मकार बनना है। उन्हें लगा कि रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्यों से फिल्मों के लिए अच्छी कहानियां मिलेंगी। उनके पास सभी तरह का हुनर था। वह नए-नए प्रयोग करते थे। अत: प्रशिक्षण का लाभ उठाकर और अपनी स्वभावगत प्रकृति के चलते प्रथम भारतीय चलचित्र बनाने का असंभव कार्य करनेवाले वह पहले व्यक्ति बने।उन्होंने 5 पौंड में एक सस्ता कैमरा खरीदा और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया। फिर दिन में 20 घंटे लगकर प्रयोग किये। ऐसे उन्माद से काम करने का प्रभाव उनकी सेहत पर पड़ा। उनकी एक आंख जाती रही। उस समय उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया। सामाजिक निष्कासन और सामाजिक गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने अपने जेवर गिरवी रख दिए। उनके अपने मित्र ही उनके पहले आलोचक थे। अत: अपनी कार्यकुशलता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक बर्तन में मटर बोई। फिर इसके बढऩे की प्रक्रिया को एक समय में एक फ्रेम खींचकर साधारण कैमरे से उतारा। इसके लिए उन्होंने टाइमैप्स फोटोग्राफी की तकनीक इस्तेमाल की। इस तरह से बनी अपनी पत्नी की जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर, ऊंची ब्याज दर पर ऋण प्राप्त करने में वह सफल रहे।फरवरी 1912 में, फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स करने के लिए वह इंग्लैण्ड गए और एक सप्ताह तक सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा। कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में मदद की। उन्होंने 'राजा हरिशचंद्रÓ बनायी। चूंकि उस दौर में उनके सामने कोई और मानक नहीं थे, अत: सब कामचलाऊ व्यवस्था उन्हें स्वयं करनी पड़ी। अभिनय करना सिखाना पड़ा, दृश्य लिखने पड़े, फोटोग्राफी करनी पड़ी और फिल्म प्रोजेक्शन के काम भी करने पड़े। महिला कलाकार उपलब्ध न होने के कारण उनकी सभी नायिकाएं पुरुष कलाकार थे । होटल का एक पुरुष रसोइया सालुंके ने भारतीय फिल्म की पहली नायिका की भूमिका की। शुरू में शूटिंग दादर के एक स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में अपनी पत्नी की सहायता से डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे । छह माह में 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई। 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में यह रिलीज की गई। यह फिल्म जबरदस्त हिट रही।दादा साहब फाल्के पुरस्कार सबसे पहले किसे मिलादादा साहब फाल्के के ही सम्मान में दादा साहब फाल्के पुरस्कार हर साल फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ी किसी हस्ती को भारतीय सिनेमा में उसके आजीवन योगदान के लिए दिया जाता है। इस पुरस्कार का प्रारम्भ दादा साहब फाल्के के जन्म शताब्दि-वर्ष 1969 से हुआ। उस वर्ष राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार के लिए आयोजित 17वें समारोह में पहली बार यह सम्मान अभिनेत्री देविका रानी को प्रदान किया गया। तब से अब तक यह पुरस्कार वर्ष के अंत में अथवा अगले वर्ष के आरम्भ में राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार के लिए आयोजित समारोह में प्रदान किया जाता है। वर्तमान में इस पुरस्कार में 10 लाख रुपये और स्वर्ण कमल दिये जाते हैं। (साभार- विकिपीडिया)
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11 नवंबर को होने जा रही है दुर्लभ खगोलीय घटना
नई दिल्ली। किसी शायर ने लिखा है- तुमने अपने चेहरे पर जो ये तिल सजा रखा है, अब पता चला हुस्न पर पहरा बिठा रखा है। तिल किसी की भी खूबसूरती पर चार चांद लगा देता है। मगर, दुनिया को जीवन देने वाले सूर्य पर किसी की नजर न लगे, इस वजह से हर सौ साल में 13 बार बुध ग्रह सूर्य के सामने से निकलते हुए उसके चेहरे का तिल बन जाता है। यह दुर्लभ घटना इस साल 11 नवंबर को होने जा रही है, जिसे देखने के लिए दुनियाभर के खगोलविद तैयारियां कर रहे हैं।
अगली बार यह घटना साल 2032 में ही देखने को मिलेगी। बुध का गोचर इसलिए होता है क्योंकि यह हमारे सौर मंडल के दो ग्रहों में से एकलौता है, जो धरती की तुलना में सूर्य के ज्यादा करीब चक्कर लगाता है। ऐसा करने वाला दूसरा ग्रह शुक्र है, जिसे भारतीय ज्योतिष में भोग-विलास, पत्नी, भौतिक सुखों का कारक माना जाता है। बुध की कई कक्षाओं में धरती से देखने पर बुध या तो सूर्य के ऊपर से या नीचे से गुजरते हुए दिखता है।
कभी-कभी धरती और बुध की कक्षाएं इस तरह से सामने आ जाती हैं कि बुध धरती और सूर्य के बीच से होता हुआ गुजरता है। जब ऐसा होता है, तो धरती से देखने पर बुध ग्रह तिल की तरह एक छोटे बिंदु के जैसा दिखता है। इसका व्यास सूर्य के व्यास की तुलना में 0.5 फीसद होता है।
नासा की ऐसी सलाह
नासा ने कहा कि धरती पर हमारे नजरिये से हम सिर्फ बुध और शुक्र को सूर्य के सामने से गुजरते हुए देख सकते हैं लिहाजा यह दुर्लभ घटना है, जिसे कोई भी देखने से चूकना नहीं चाहेगा। सही सुरक्षा उपकरणों के साथ धरती के किसी भी हिस्से पर मौजूद लोग सूर्य के आगे से एक छोटे से बिंदु को धीरे-धीरे गुजरते हुए देख सकेंगे। नासा ने इसके साथ ही यह चेतावनी भी दी है कि सूर्य को नग्न आंखों से देखने पर यह टेलिस्कोप में बिना सुरक्षा व्यवस्था किए देखने पर गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। हो सकता है कि इसकी वजह से किसी की आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली जाए। लिहाजा, सोलर फिल्टर का इस्तेमाल करना न भूलें।
पर्याप्त समय तक दिखेगा नजारा
यह घटना सोमवार को 11.35 मिनट जीएमटी पर शुरू होगी और करीब 5.5 घंटे तक चलेगी। लिहाजा, इसे देखने के लिए आपके पास पर्याप्त समय होगा। हालांकि, धरती के कुछ हिस्सों जैसे अमेरिका के पश्चिमी तटों पर मौजूद लोग इसे तब तक नहीं देख सकेंगे, जब तक कि सूर्य आकाश में दिखने नहीं लगेगा। शुक्र के गोचर से उलट बुध को ऐसी स्थिति में देखने के लिए आपको सन फिल्टर वाले टेलिस्कोप की जरूरत होगी क्योंकि यह बहुत छोटा ग्रह है। बताते चलें कि शुक्र सहित अन्य ग्रह पर्याप्त बड़े हैं कि उन्हें नग्न आंखों से देखा जा सके। -
नई दिल्ली। आज अंतर्राष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस है। उपराष्ट्रपति एम.वेंकैया नायडू ने विश्व समुदाय से महिलाओं को सशक्त बनाने में सर्वोच्च प्राथमिकता देने की अपील की है। उन्होंने ट्वीट संदेश में इसे वैश्विक एजेंडा बनाने और अधिक से अधिक महिलाओं को उद्यमिता तथा आत्मनिर्भरता के रास्ते पर चलने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध किया। श्री नायडू ने कहा कि महिलाओं का सशक्तीकरण समग्र, समान और सतत विकास का केन्द्र है। उपराष्ट्रपति ने कहा कि ग्रामीण उद्यमिता के लिए इको-प्रणाली शुरू करने के अलावा महिलाओं को रोजगार कौशल प्रदान करने की तत्काल आवश्यकता है।
कब से मनाया जा रहा है अंतर्राष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 15 अक्टूबर 2008 को पहला अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस मनाया था। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस दिवस को मनाकर ग्रामीण महिलाओं की भूमिका को सम्मानित करने का निर्णय लिया था। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इस दिवस को मनाने की घोषणा 18 दिसंबर 2007 को की गई थी। ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं और लड़कियां बहु-आयामी गरीबी से पीडि़त हैं।
अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस का मुख्य उद्देश्य कृषि विकास, ग्रामीण विकास, खाद्य सुरक्षा तथा ग्रामीण गरीबी उन्मूलन में ग्रामीण महिलाओं के महत्व के प्रति लोगों को जागरूक करना है। इसके अलावा ग्रामीण महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका और उनके योगदान को सम्मानित करना भी इसका उद्देश्य है।
इस साल अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस 2019 का विषय है- Rural Women and Girls Building Climate Resilience । संयुक्त राष्ट्र (यूएन) महासचिव एंटोनियो गुतेरस ने ग्रामीण महिलाओं तथा लड़कियों के अधिकारों की रक्षा की अपील की है। उन्होंने सभी देशों के लिए समृद्ध, न्यायसंगत तथा शांतिपूर्ण भविष्य बनाने हेतु ग्रामीण महिलाओं और लड़कियों के सशक्तीकरण को जरूरी बताया है।
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कृष्णवट भारत के कुछ भागों में पाए जाने वाले एक विशेष प्रकार के बरगद के वृक्ष को कहा जाता है। इसके पत्ते मुड़े हुए होते हैं। ये देखने में दोने के आकार के होते हैं। कृष्णवट के पत्तों में दूध, दही, मक्खन आदि खाद्य पदार्थों का आसानी से सेवन किया जा सकता है।
इस वृक्ष के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि भगवान कृष्ण बाल्यावस्था से ही गायों को चराने के लिए वन में जाया करते थे। जब गाय चर रही होती थीं, तब कृष्ण किसी वृक्ष पर बैठकर मधुर बांसुरी बजाया करते थे। बांसुरी की आवाज सुनते ही गोपियां सभी कार्य छोड़ कर उनके पास दौड़ी चली आती थीं। वे अपने साथ दही-मक्खन आदि भी ले आती थीं। कृष्ण जिस स्थान पर बैठकर बांसुरी बजाया करते थे, उसके पास ही बरगद का एक पेड़ था। वह बरगद के पत्ते तोड़ते और दोने बनाते और दही-मक्खन आदि रखकर गोपियों के साथ खाते।
कृष्ण को बरगद के पत्तों से दोने बनाने में बहुत समय लगता था और गोपियां भी बेचैनी अनुभव करने लगती थीं। कृष्ण गोपियों के मन की बात सच समझ गये। उन्होंने तुरंत ही अपनी माया से वृक्ष के सभी पत्तों को दोनों के आकार वाले पत्तों में बदल दिया। इस प्रकार बरगद की एक नई प्रजाति का जन्म हुआ। वर्तमान समय में भी दोने के आकार के पत्तों वाले बरगद के वृक्ष पाये जाते हैं। इनका आकार सामान्य बरगद से कुछ छोटा होता है। पश्चिम बंगाल में कृष्णवट कहीं-कहीं देखने को मिल जाता है। उत्तराखंड में देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान में भी कृष्णवट के कुछ वृक्ष हैं।
कृष्णवट पर कुछ विदेशी वनस्पति शास्त्रियों ने शोध भी किया है। 1901 में कैंडोल ने इसका अध्ययन करने के बाद इसे सामान्य बरगद से अलग एक विशिष्ट जाति का वृक्ष माना और इसे कृष्ण के नाम पर वैज्ञानिक नाम दिया- फ़ाइकस कृष्णीसी द कंदोल , किंतु विख्यात भारतीय वैज्ञानिक के. विश्वास इसका विरोध करते हैं। उनका मत है कि कृष्णवट एक अलग जाति का वृक्ष नहीं है। यह बरगद की ही एक प्रजाति है। -
आज भारत में महिलाओं का चिकित्सा के क्षेत्र में काम करना आम बात है,लेकिन आज से करीब डेढ़ सौ साल पहले जब महिलाओं के लिए शिक्षा भी दूभर थी, ऐसे में भारत की एक महिला ने डॉक्टर की डिग्री हासिल कर महिलाओं के लिए एक नए अध्याय की शुरुआत की। ये थी आनंदी गोपाल जोशी, जो भारत की पहली महिला चिकित्सक थी।
31 मार्च 1865 को उनका जन्म पुणे में एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनका विवाह नौ साल की अल्पायु में उनसे करीब 20 साल बड़े गोपालराव से हो गया था। जब 14 साल की उम्र में वे मां बनीं और उनकी एकमात्र संतान की मृत्यु 10 दिनों में ही गई। इस हादसे से उन्हें बहुत बड़ा आघात लगा। अपनी संतान को खो देने के बाद उन्होंने प्रण किया कि वह एक दिन डॉक्टर बनेंगी और ऐसी असमय मौत को रोकने का प्रयास करेंगी। उनके पति गोपालराव ने भी उनको भरपूर सहयोग दिया ।
मराठी उपन्यासकार श्री. ज. जोशी ने अपने उपन्यास आनंदी गोपाल में लिखा है- गोपाल की जि़द थी कि वे अपनी पत्नी को ज़्यादा-से-ज़्यादा पढ़ाएं।ं उन्होंने ऐसा करते पुरातनपंथी ब्राह्मण-समाज का तिरस्कार झेला, पुरुषों के लिए भी निषिद्ध, सात समंदर पार अपनी पत्नी को अमेरिका भेजकर उसे पहली भारतीय महिला डॉक्टर बनाने का इतिहास रचा।
उपन्यास में आगे लिखा है, गोपालराव की आनंदी से शादी की शर्त ही यही थी कि वे पढ़ाई करेंगी। आनंदी के मायके वाले भी उनकी पढ़ाई के खिलाफ थे। शादी के वक्त आनंदी को अक्षर ज्ञान भी नहीं था. गोपाल ने उन्हें क,ख,ग से पढ़ाया।
नन्ही सी आनंदी को पढ़ाई से खास लगाव नहीं था। उस वक्त समाज में मिथक था कि जो औरत पढ़ती है उसका पति मर जाता है.। आनंदी को गोपाल डांट-डपट कर पढ़ाते। एक दफा उन्होंने आनंदी को डांटते हुए कहा, तुम नहीं पढ़ोगी तो मैं अपना मज़हब बदलकर क्रिस्तानी बन जाऊंगा। अक्षर ज्ञान के बाद गोपाल, आनंदी के लिए अगली कक्षा की किताबें लाए। फिर वे कुछ दिन के लिए शहर से बाहर चले गए। जब वापस लौटे तो देखा कि आनंदी घर में खेल रही थी। वे गुस्से से बोले कि तुम पढ़ नहीं रही हो। आनंदी ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, जितनी किताबें थी उन्होंने सभी पढ़ लिया है।
उपन्यास आनंदी गोपालÓ मराठी साहित्य में क्लासिकÓ माना जाता है और इसका अनुवाद कई भाषाओं में हो चुका है। आनंदीबाई के जीवन पर कैरोलिन वेलस ने भी 1888 में बायोग्राफी लिखी। इस उपन्यास पर आधारित आनंदी गोपाल नाम से सीरियल भी बना और उसका प्रसारण दूरदर्शन पर किया गया था।
गोपालराव ने आनंदीबाई को डॉक्टरी का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया। 1880 में उन्होंने एक प्रसिद्ध अमेरिकी मिशनरी रॉयल वाइल्डर को एक पत्र भेजा, जिसमें उन्होंने संयुक्त राज्य में औषधि अध्ययन में आनंदीबाई की रूचि के बारे में बताया और खुद के लिए अमेरिका में एक उपयुक्त पद के बारे में पूछताछ किया। वाइल्डर ने उनके प्रिंसटन की मिशनरी समीक्षा में पत्राचार प्रकाशित किया। थॉडिसीया कार्पेन्टर, जो रोज़ेल, न्यू जर्सी की निवासी थीं, ने अपने दंत चिकित्सक के लिए इंतजार करते वक्त यह पढ़ा। औषधि अध्ययन करने के लिए आनंदीबाई की इच्छा और पति गोपालराव के समर्थन से प्रभावित होकर उन्होंने अमेरिका में आनंदीबाई के लिए आवास की पेशकश की।
जब जोशी युगल कलकत्ता में थे, आनंदीबाई का स्वास्थ्य कमजोर हो रहा था। वह कमजोरी, निरंतर सिरदर्द, कभी-कभी बुखार और कभी-कभी सांस की वजह से पीडि़त थीं। थिओडिकिया ने बिना परिणाम के, अमेरिका से उसकी दवाएं भेजीं। वर्ष 1883 में गोपालराव को सेरामपुर में स्थानांतरित कर दिया गया था, और उन्होंने कमजोर स्वास्थ्य के बावजूद मेडिकल अध्ययन के लिए आनंदीबाई को अमेरिका भेजने का फैसला किया और गोपालराव ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए अन्य महिलाओं के लिए उदाहरण बनने के लिए कहा।
थॉर्बोर्न नामक एक चिकित्सक जोड़े ने आनंदीबाई को पेंसिल्वेनिया के महिला चिकित्सा महाविद्यालय में आवेदन का सुझाव दिया। पश्चिम में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए आनंदीबाई की योजनाओं के बारे में जानने पर, रूढि़वादी भारतीय समाज ने उन्हें बहुत दृढ़ता से दबा दिया।
आनंदीबाई ने सेरमपुर कॉलेज (पश्चिम बंगाल) हॉल में समुदाय को संबोधित किया, जिसमें अमेरिका जाने और मेडिकल डिग्री प्राप्त करने के फैसले को समझाया। उन्होंने भारत में महिला डॉक्टरों की जरूरत पर बल दिया और भारत में महिलाओं के लिए एक मेडिकल कॉलेज खोलने के अपने लक्ष्य के बारे में बात की (आनंदीबाई मेडिकल कॉलेज)। उनके भाषण ने प्रचार प्राप्त किया, और पूरे भारत में वित्तीय योगदान शुरू हो गए।
आनंदीबाई मेडिकल क्षेत्र में शिक्षा पाने के लिए अमेरिका गईं और साल 1886 में (19 साल की उम्र में) उन्होंने एमडी डिग्री हासिल कर ली। वे यह डिग्री पाने वाली और पहली भारतीय महिला डॉक्टर बनीं। डिग्री लेने के बाद आनंदीबाई वापस देश लौटीं, लेकिन उस दौरान वे टीबी की शिकार हो गईं। दिन पर दिन सेहत में गिरावट के चलते 26 फरवरी 1887 को 22 वर्ष की कम उम्र में ही आनंदी का निधन हो गया।
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सरस्वती नदी का ऋग्वेद की चौथे पुस्तक छोड़कर सभी पुस्तकों में कई बार उल्लेख किया गया है। केवल यही ऐसी नदी है जिसके लिए ऋग्वेद की छन्द संख्या 6.61,7.95 और 7.96 में पूरी तरह से समर्पित भजन दिए गए हैं। वैदिक काल में सरस्वती की बड़ी महिमा थी और इसे परम पवित्र नदी माना जाता था, क्योंकि इसके तट के पास रहकर तथा इसी नदी के पानी का सेवन करते हुए ऋषियों ने वेदों को रचा और वैदिक ज्ञान का विस्तार किया।
इसी कारण सरस्वती को विद्या और ज्ञान की देवी के रुप में भी पूजा जाने लगा। ऋग्वेद के नदी सूक्त में सरस्वती का इस प्रकार उल्लेेख है कि इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया । सरस्वती ऋग्वेद में केवल नदी देवी के रूप में वर्णित है (इसकी वंदना तीन सम्पूर्ण तथा अनेक प्रकीर्ण मंत्रों में की गई है), किंतु ब्राह्मण ग्रथों में इसे वाणी की देवी या वाच् के रूप में देखा गया, क्योंकि तब तक यह लुप्त हो चुकी थी परन्तु इसकी महिमा लुप्त नहीं हुई और उत्तर वैदिक काल में सरस्वती को मुख्यत:, वाणी के अतिरिक्त बुद्धि या विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी माना गया है और ब्रह्मा की पत्नी के रूप में इसकी वंदना के गीत गाए गए हंै। ऋग्वेद में सरस्वती को नदीतमा की उपाधि दी गयी है। उसकी एक शाखा 2.41.16 में इसे सर्वश्रेष्ठ मां,सर्वश्रेष्ठ नदी,सर्वश्रेष्ठ देवी कहकर संबोधित किया गया है। यही प्रशंसा ऋग्वेद के अन्य छंदों 6.61,8.81,7.96 और 10.17 में भी की गयी है। नवेद के श्लोक 7.9.52 तथा अन्य जैसे 8.21.18 में सरस्वती नदी को दूध और घी से परिपूर्ण बताया गया है। ऋग्वेद के श्लोक 3.33.1 मे इसे गाय की तरह पालन करने वाली बताया गया है। ऋग्वेद के श्लोक 7.36.6 में सरस्वती को सप्तसिंधु नदियों की जननी बताया गया है।
ऋग्वेद के बाद के वैदिक साहित्यों में सरस्वती नदी के विलुप्त होने का उल्लेेख आता हैं ,इसके अतिरिक्त सरस्वती नदी के उद्गम स्थल की प्लक्ष प्रस्रवन के रुप में पहचान की गई है जो कि यमुनोत्री के पास ही स्थित है। यजुर्वेदयजुर्वेद की वाजस्नेयी संहिता 34.11 में कहा गया है कि पांच नदियां अपने पूरे प्रवाह के साथ सरस्वती नदी में प्रविष्ट होती हैं, यह पांच नदियां पंजाब की सतलुज, रावी, व्यास, चेनाव और दृष्टावती हो सकती हैं ।
वाल्मीकि रामायण में भरत के केकय देश से अयोध्या आने के प्रसंग में सरस्वती और गंगा को पार करने का वर्णन है- सरस्वती च गंगा च युग्मेन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारूण्डं प्राविशद्वनम्म। सरस्वती नदी के तटवर्ती सभी तीर्थों का वर्णन महाभारत में शल्यपर्व के 35 वें से 54 वें अध्याय तक सविस्तार दिया गया है। इन स्थानों की यात्रा बलराम ने की थी। जिस स्थान पर मरूभूमि में सरस्वती लुप्त हो गई थी उसे विनशन कहते थे। महाभारत में तो सरस्वती नदी का उल्लेख कई बार किया गया है। सबसे पहले तो यह बताया गया है कि कई राजाओं ने इसके तट के समीप कई यज्ञ किए थे। वर्तमान सूखी हुई सरस्वती नदी के समान्तर खुदाई में 5500 - 4000 वर्ष पुराने शहर मिले हंै जिनमें कालीबंगा और लोथल भी है यहां कई यज्ञ कुण्डों के अवशेष भी मिले हंै जो महाभारत में कहे तथ्य को प्रमाणित करती है। महाभारत में यह भी वर्णन आता है कि निषादों और मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने इनके प्रदेशों मे जाना बंद कर दिया जो इसके सूखने की प्रथम अवस्था को दर्शाती है, साथ ही यह भी वर्णन मिलता है कि सरस्वती नदी मरुस्थल में विनाशन नामक स्थान पर लुप्त हो फिर पुन किसी स्थान पर प्रकट होती है। -
मूली कृषक सभ्यता के सबसे प्राचीन आविष्कारों में से एक है। 3000 वर्षो से भी पहले के चीनी इतिहास में इसका उल्लेख मिलता है। अत्यंत प्राचीन चीन और यूनानी व्यंजनों में इसका प्रयोग होता था और इसे भूख बढ़ाने वाली समझा जाता था। यूरोप के अनेक देशों में भोजन से पहले इसको परोसने परंपरा का उल्लेख मिलता है। मूली शब्द संस्कृत के मूल शब्द से बना है। आयुर्वेद में इसे मूलक नाम से, स्वास्थ्य का मूल (अत्यंत महत्वपूर्ण) बताया गया है।
मूली में प्रोटीन, कैल्शियम, गन्धक, आयोडीन तथा लौह तत्व पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इसमें सोडियम, फॉस्फोरस, क्लोरीन तथा मैग्नीशियम भी होता है। मूली में विटामिन ए भी होता है। विटामिन बी और सी भी इससे प्राप्त होते हैं। मूली धरती के नीचे पौधे की जड़ होती हैं। धरती के ऊपर रहने वाले पत्ते भी पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। इसी प्रकार मूली के पौधे में आने वाली फलियां मोगर भी समान रूप से उपयोगी और स्वास्थ्यवर्धक है। स्वास्थ्य तथा उपचार की दृष्टि से छोटी, पतली और चरपरी मूली ही उपयोगी है। ऐसी मूली त्रिदोष (वात, पित्त और कफ) नाशक है। इसके विपरीत मोटी और पकी मूली त्रिदोष कारक मानी जाती है।
100 ग्राम मूली में अनुमानित निम्न तत्व हैं -प्रोटीन - 0.7 ग्राम, वसा - 0.1 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट - 3.4 ग्राम, कैल्शियम - 35 मि.ग्रा., फॉस्फोरस - 22 मि.ग्रा, लोह तत्व - 0.4 मि.ग्रा., केरोटीन- 3 मा.ग्रा., थायेसिन - 0.06 मि.ग्रा., रिवोफ्लेविन - 0.02 मि.ग्रा., नियासिन - 0.5 मि.ग्रा., विटामिन सी - 15 मि.ग्रा.।
अनेक छोटी बड़ी व्याधियां मूली से ठीक की जा सकती हैं। मूली का रंग सफेद है, लेकिन यह शरीर को लालिमा प्रदान करती है। भोजन के साथ या भोजन के बाद मूली खाना विशेष रूप से लाभदायक है। मूली और इसके पत्ते भोजन को ठीक प्रकार से पचाने में सहायता करते हैं। वैसे तो मूली के पराठें, रायता, तरकारी, आचार तथा भुजिया जैसे अनेक स्वादिष्ट व्यंजन बनते हैं,मगर सबसे अधिक लाभकारी होती है कच्ची मूली। भोजन के साथ प्रतिदिन एक मूली खा लेने से व्यक्ति अनेक बीमारियों से मुक्त रह सकता है।
मूली में फॉलिक एसिड, विटामिन सी और एंथोकाइनिन की भरमार होती है। ये तत्व शरीर को कैंसर से लडऩे में मदद करते हैं। यह माना जाता है कि मुंह, पेट, आंत और किडनी के कैंसर से लडऩे में यह बहुत सहायक होती है।
मूली खाने से शरीर की विषैली गैस (कार्बन डाई ऑक्साइड) का निष्कासन होता है तथा जीवनदायी ऑक्सीजन की प्राप्ति होती है। मूली खाने से दांत मंसूड़े मजबूत होते हैं, हड्डियों में मजबूती आती है। थकान मिटाने और नींद लाने में भी मूली सहायक है।
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मौसम विभाग समय - समय पर मौसम के हिसाब से रेड, आरेंज और यलो अलर्ट जारी करता है। यह मौसम विभाग का लोगों को मौसम के बारे में सचेत करने का अपना तरीका है। इसके लिए विभाग कुछ चुनिंदा रंगों का इस्तेमाल करता है, जैसे कि रेड, आरेंज और यलो और ग्रीन अलर्ट। मौसम विभाग के अनुसार अलर्ट जारी करने के लिए रंगों का चुनाव कुछ एजेंसियों के साथ मिलकर किया जाता है।
भीषण गर्मी, सर्द लहर, मानसून या फिर चक्रवाती तूफान आदि की सूचना देने के लिए ही इस प्रकार के रंगों का इस्तेमाल लिया जाता है। जैसे- जैसे मौसम अपने चरम पर पहुंचता है, यानी तेज गर्मी, ठंड या फिर बारिश, वैसे - वैसे अलर्ट का रंग गहरा लाल हो जाता है। किसी चक्रवाती तूफान की भीषणता की सूचना भी इन्हीं रंगों के माध्यम से दी जाती है। जितना भीषण तूफान होगा, उसकी सूचना के लिए उतने ही गहरे लाल रंग का इस्तेमाल किया जाएगा।
आइये जाने इस रंगों के अलर्ट का क्या अर्थ है-
1. ग्रीन अलर्ट- यानी कहीं से कोई खतरा नहीं है।
2. यलो अलर्ट-इस रंग का अर्थ है कि खतरे से सचेत रहे। मौसम विभाग इस रंग का इस्तेमाल लोगों को सचेत करने के लिए करता है।
3. आरेंज अलर्ट- इस रंग का अर्थ है खतरा, तैयार रहें। जैसे- जैसे मौसम और खराब होता जाता है, तो यलो अलर्ट को आरेंज अलर्ट कर दिया जाता है। इसके माध्यम से लोगों को यहां- वहां नहीं जाने और सावधानी बरतने की सलाह दी जाती है।
4. रेड अलर्ट- इस रंग का अर्थ है खतरनाक स्थिति। जब मौसम अपने खतरनाक स्तर तक पहुंच जाता है और भारी नुकसान की आशंका रहती है, तब मौसम विभाग रेड अलर्ट जारी करता है। -
कद्दू का नाम सुनते ही अधिकांश लोग नाक-मुंह बनाने लगाते हैं। लेकिन इस पीले से फल में ढेर सारे गुण भरे हैं। इसमें खूब रेशा यानी की फाइबर होता है जिससे पेट हमेशा साफ रहता है। यह फ्री रैडिकल से भी बचाता है।
प्राचीन काल से भारत में इसके उपयोग सब्जी और हलवे के रूप में किया जा रहा है। भारत में यह बहुतायक में उगाया जाता है। आहार विशेषज्ञ भी इसके गुणों के कारण लोगों को इसे खाने की सलाह दे रहे हैं। अब तो बाजार में इसके भुने हुए बीज भी मिलने लगे हैं, जो अलसी की तरह खाए जाते हैं। कद्दू के बीज भी आयरन, जिंक, पोटेशियम और मैग्नीशियम के अच्छे स्रोत हैं।
दरअसल कद्दू में मुख्य रूप से बीटा केरोटीन पाया जाता है, जिससे विटामिन ए मिलता है। पीले और संतरी कद्दू में केरोटीन की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है। बीटा केरोटीन एंटीऑक्सीडेंट होता है जो शरीर में फ्री रैडिकल से निपटने में मदद करता है। कद्दू और इसके बीज में विटामिन सी और ई, आयरन, कैलशियम, मैग्नीशियम, फॉसफोरस, पोटैशियम, जिंक, प्रोटीन और फाइबर आदि होते हैं। इसमें श्वेतसार, कुकुर्बिटान नामक क्षाराभ, प्रोटीन-मायोसिन, वाईटेलिन शर्करा क्षार आदि पाए जाते हैं।
कद्दू बलवर्धक होता है और रक्त तथा पेट साफ करता है, पित्त व वायु विकार दूर करता है और मस्तिष्क के लिए भी बहुत फायदेमंद होता है। कद्दू के छिलके में भी एंटीबैक्टीरिया तत्व होता है जो संक्रमण फैलाने वाले जीवाणुओं से रक्षा करता है। शायद इन्हीं खूबियों के कारण कद्दू को प्राचीन काल से ही गुणों की खान माना जाता रहा है। यह खून में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करने में सहायक होता है और अग्नयाशय को भी सक्रिय करता है। इसी वजह से चिकित्सक मधुमेह के रोगियों को कद्दू के सेवन की सलाह देते हैं।
माना जाता है कि कद्दू की उत्पत्ति उत्तरी अमेरिका में हुई होगी। इसके सबसे पुराने बीज 7 हजार से 5 हजार ईसा पूर्व के हैं। पश्चिमी एशिया में इसका इस्तेमाल मीठे व्यंजन बनाने में किया जाता है। अमेरिका, मेक्सिको, चीन और भारत इसके सबसे बड़े उत्पादक देश हैं। इसके साथ ही यह विश्व के अनेक देशों की संस्कृति के साथ जुड़ा है। उपवास के दिनों में फलाहार के रूप में भी इससे बने विशेष पकवानों का सेवन किया जाता है।
आयुर्वेदीय चिकित्सा पद्धति में कद्दू का इस्तेमाल कई रोगों के इलाज करने में प्रयोग किया जाता है। हिन्दी में इसको काफीफल, कद्दू, रामकोहला, तथा संस्कृत में कुष्मांड, पुष्पफल, वृहत फल, वल्लीफल कहते हैं। इसका लेटिन नाम बेनिनकासा हिष्पिड़ा है। यह कोशातकी (कुकुर्बिटेसी) कुल का फल है। यह अंटार्कटिका को छोड़कर बाकी पूरी दुनिया में उगाया जाता है। -
हिंदू धर्म में जहां तैतीस करोड़ देवी- देवता हैं, वहीं अनेक सम्प्रदाय भी हैं। प्राचीनकाल में देव, नाग, किन्नर, असुर, गंधर्व, भल्ल, वराह, दानव, राक्षस, यक्ष, किरात, वानर, कूर्म, कमठ, कोल, यातुधान, पिशाच, बेताल, चारण आदि जातियां हुआ करती थीं। देव और असुरों के झगड़े के चलते धरती के अधिकतर मानव समूह दो भागों में बंट गए। पहले बृहस्पति और शुक्राचार्य की लड़ाई चली, फिर गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र की लड़ाई चली। इन लड़ाइयों के चलते समाज दो भागों में बंटता गया।
हजारों वर्षों तक इनके झगड़े के चलते ही पहले सुर और असुर नाम की दो धाराओं का धर्म प्रकट हुआ, यही आगे चलकर यही वैष्णव और शैव में बदल गए। लेकिन इस बीच वे लोग भी थे, जो वेदों के एकेश्वरवाद को मानते थे और जो ब्रह्मा और उनके पुत्रों की ओर से थे। इसके अलावा अनीश्वरवादी भी थे। कालांतर में वैदिक और चर्वाकवादियों की धारा भी भिन्न-भिन्न नाम और रूप धारण करती रही।
शैव और वैष्णव दोनों संप्रदायों के झगड़े के चलते शाक्त धर्म की उत्पत्ति हुई जिसने दोनों ही संप्रदायों में समन्वय का काम किया। इसके पहले अत्रि पुत्र दत्तात्रेय ने तीनों धर्मों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव के धर्म) के समन्वय का कार्य भी किया। बाद में पुराणों और स्मृतियों के आधार पर जीवन-यापन करने वाले लोगों का संप्रदाय बना जिसे स्मार्त संप्रदाय कहते हैं।
इस तरह वेद और पुराणों से उत्पन्न 5 तरह के संप्रदायों माने जा सकते हैं- 1. वैष्णव, 2. शैव, 3. शाक्त, 4 स्मार्त और 5 वां वैदिक संप्रदाय। वैष्णव जो विष्णु को ही परमेश्वर मानते हैं, शैव जो शिव को परमेश्वर ही मानते हैं, शाक्त जो देवी को ही परमशक्ति मानते हैं और स्मार्त जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं। अंत में वे लोग जो ब्रह्म को निराकार रूप जानकर उसे ही सर्वोपरि मानते हैं।
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भारत की नदियां देश की प्राचीन सभ्यताओं का एक महत्वपूर्ण अंग है। यहां नदियों की पूजा की जाती है। भारत की कई पुरानी सभ्यताओं का विकास इन नदियों के किनारे ही हुआ है। एक नजर भारत में बहने वाली प्रमुख नदियों पर।
गंगा- गंगा भारत की सबसे प्रमुख नदियों में से एक है। यह उत्तराखंड राज्य में हिमालय के गंगोत्री ग्लेशियर से निकलती है। करीब 2525 किलोमीटर लंबी यह नदी उत्तर प्रदेश, बिहार होते हुए बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इस नदी का इतिहास उतना ही पुराना माना जाता है, जितनी भारतीय सभ्यता। यह नदी भारत में पवित्र नदी भी मानी जाती है तथा इसकी उपासना मां तथा देवी के रूप में की जाती है। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौन्दर्य और महत्त्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किये गये हैं। इस नदी में मछलियों तथा सर्पों की अनेक प्रजातियां तो पायी जाती ही हैं, तथा मीठे पानी वाले दुर्लभ डॉलफिन भी पाई जाती है। यह कृषि, पर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है तथा अपने तट पर बसे शहरों की जलापूर्ति भी करती है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। इसके ऊपर बने पुल, बांध और नदी परियोजनाएं भारत की बिजली, पानी और कृषि से सम्बन्धित ज़रूरतों को पूरा करती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। इसलिए गंगा का पानी कभी खराब नहीं होता है।
ब्रह्मपुत्र- ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत में हिमालय के अंगशी ग्लेशियर से निकलती है और यह भारत में अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है। यहां इसे दिहांग के नाम से जाना जाता है जबकि असम में इसे ब्रह्मपुत्र कहा जाता है। इसके बाद यह नदी बांग्लादेश पहुंचती है। यहां इसे जमुना कहा जाता है। गंगा नदी के साथ मिलकर यह एक डेल्टा सुंदरबन का निर्माण करती है और बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इसकी कुल लंबाई करीब 2900 किलोमीटर है।
यमुना- यमुना नदी भारत के उत्तराखंड स्थित बंदरपूंछ के दक्षिणी ढाल पर स्थित यमुनोत्री ग्लेशियर से निकलती है. इसकी लंबाई करीब 1,370 किलोमीटर है। मथुरा वृंदावन होते हुए यह नदी इलाहाबाद में गंगा नदी से मिल जाती है। हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि जो लोग इसके पानी में स्नान कर लेते हैं, उन्हें मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है, लेकिन अब भारत की सबसे दूषित नदियों में से एक है।
यमुना- यमुना नदी भारत के उत्तराखंड स्थित बंदरपूंछ के दक्षिणी ढाल पर स्थित यमुनोत्री ग्लेशियर से निकलती है। इसकी लंबाई करीब 1,370 किलोमीटर है। मथुरा वृंदावन होते हुए यह नदी इलाहाबाद में गंगा नदी से मिल जाती है. हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि जो लोग इसके पानी में स्नान कर लेते हैं, उन्हें मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है, लेकिन अब भारत की सबसे दूषित नदियों में से एक है।
कावेरी- कावेरी नदी का उद्गम कर्नाटक के पश्चिमी घाट में तलकावेरी से हुआ है। इसकी शुरुआत एक छोटे तालाब से होती है, जिसे कुंडीके तालाब के नाम से भी जाना जाता है। कर्नाटक और तमिलनाडु में करीब 760 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद यह नदी बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है।
कृष्णा -कृष्णा नदी महाराष्ट्र के महाबालेश्वर के समीप पश्चिमी घाट से निकलती है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश होते हुए करीब 1,290 किलोमीटर की यात्रा के बाद यह बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है. हिंदू धर्म में इस नदी का काफी महत्व है। इस नदी पर दो बड़े बांध श्रीसैलम और नागार्जुन सागर बांध बने हैं।
नर्मदा- नर्मदा नदी मध्य प्रदेश के जिले अमरकंटक से निकलती है. पूर्व से पश्चिम की ओर बहने वाली यह नदी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात होते हुए करीब 1289 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद अरब सागर में मिल जाती है। दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा सरदार सरोवर बांध नर्मदा नदी पर ही बना है।
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