शोमैन राजकपूर, जिनकी रग-रग में बसता था संगीत
2 जून पुण्यतिथि पर विशेष
आलेख- प्रशांत शर्मा , वरिष्ठ पत्रकार
2 जून 2024 को जाने-माने फिल्मकार, अभिनेता और फिल्म इंडस्ट्री के शो मैन राजकपूर को इस दुनिया से अलविदा कहे पूरे 36 साल हो जाएंगे। .2 जून 1988 को फिल्मी दुनिया का एक चमकता सितारा सदा के लिए एक किवदंती बन गया। उनकी पुण्यतिथि जब भी आती है, सोशल मीडिया हो या फिर रेडियो, टीवी की दुनिया, उनके गाने जरूर बजते हैं। उन पर फिल्माए ऐसे- ऐसे सुरीरे नगमे हैं, जब कभी सुनाई दे जाएं तो लोग अपने आप को गुनगुनाने से रोक नहीं पाते हैं। गीत जब मधुर होता है और लोकप्रिय भी तो लोग उसके संगीतकार और गायक कलाकारों को याद करते हैं, लेकिन राजकपूर के साथ ऐसी बात नहीं थी, वे बकायदा गाने में रुचि लेते थे और जब भी उसकी रिकॉर्डिंग होती थी, वे वहां पहुंच जाते थे और फिर चाहे पूरा दिन ही उन्हें क्यों ना देना पड़े वे एक - एक गाने को वक्त देते थे। इसलिए हर गाना उनका अपना गाना बन जाता था। फिल्म के निर्माता राजकपूर होते थे तो वे फिर क्या कहने। दरअसल इसके पीछे उनका संगीत के प्रति प्रेम ही था। वे अच्छे गायक भी थे और ठीकठाक हारमोनियम और तबला भी बजा लिया करते थे। इसलिए रिकॉर्डिंग स्टुडियो में उनकी आखिरी तक दखल रही।
फिल्म हीना का निर्देशन का जिम्मा भी उन्होंने उठाया था। इसी फिल्म एक गाने की रिकॉर्डिंग का एक वीडियो अक्सर सोशल मीडिया में दिख जाता है जिसमें राजकपूर साहब रिकर्ॉंिडग स्टुडियो के बाहर बैठे हुए हैं और लता मंगेशकर माइक में गाना गा रही हैं-गीत "चि_ीए नि दर्द फिऱाक वालिये" । संगीतकार रवीन्द्र जैन भी वहां पर मौजूद थे। फिल्म में एकमात्र यही गाना था जिसे नक्श लायलपुरी ने लिखा बाकी सभी गाने रवीन्द्र जैन की रचना थे। यह दूसरी फिल्म थी, जिसमें राजकपूर ने रवीन्द्र जैन को संगीत का जिम्मा सौंपा था। फिल्म के गाने सभी लोकप्रिय हुए थे। फिल्म 28 जून 1991 को रिलीज हुई थी। राजकपूर ने संगीतकार रवीन्द्र जैन ने पहली बार 1985 में राम तेरी गंगा मैली फिल्म में मौका दिया था। लता मंगेशकर टेक 6 में यह गाना शुरू करती हैं- चिट्ठी.. ना ना ना और वे दोबारा टेक 7 में गाना शुरू करती हैं। इस गाने को रिकॉर्ड करने के दौरान राजकपूर आंखे मूंदकर लता की आवाज और गाने के भाव को महसूस करते नजर आते हैं। उनके चेहर पर एक संतोषजनक मुस्कान हैं जो यह बताती हैं कि वे इस गाने को लेकर कितने संतुष्ट हैं। पर इस फिल्म का वे निर्देशन कर पाते उसके पहले ही भगवान के घर से उनका बुलावा आ गया। बाद में उनके बड़े बेटे रणधीर कपूर ने फिल्म के निर्देशन का जिम्मा उठाया।
खैर हम बात कर रहे थे राजकपूर के संगीत पक्ष की खूबियों की, तो इस महान कलाकार की एक आदत थी कि उन्हें यदि कोई धुन पसंद आ जाती थी तो वे अपनी अगली फिल्म में उसे लेकर एक गाना जरूर बनाते थे और वो गाना फिल्म का टाइटिल सॉग हुआ करता था। यही बात गाने की थी। राजकपूर को यदि कोई गाना पसंद आ जाता तो वे तत्काल उसे अपने फिल्म के लिए बुक कर लेते थे फिर उस फिल्म को बनने में कितना ही वक्त क्यों ना लगे उस दौर में गीतकारों को वाहवाही तो मिलती थी, लेकिन उन्हें मेहनताना कम मिलता था। राजकपूर ने यह ट्रैंड बदला और गीतकारों को तवज्जो भरपूर दी।
राजकपूर की फिल्मों के गाने लोगों को इसलिए भी पसंद आते हैं, क्योंकि उनमें जान हुआ करती है। उन्होंने बहुत से संगीतकारों - गीतकारों के साथ काम किया , लेकिन सबसे ज्यादा मौका शंकर- जयकिशन और गीतकार शैलेन्द्र को दिया।
आज उनके एक लोकप्रिय गीत रमैया वस्तावैया' पर हम चर्चा करते हैं। इस गाने के बनने के पीछे की एक रोचक कहानी है। दरअसल, ‘वस्ता वैया’ तेलुगू शब्द है। जब 1955 को श्री 420 फि़ल्म की शूटिंग चल रही थी, तो पूरी म्यूजिक टीम मस्ती करने के लिए खंडाला जाया करती थी।इस टीम में शंकर,-जयकिशन , गीतकार शैलेन्द्र और हजऱत जयपुरी शामिल थे और वो अक्सर चाय और नाश्ता के लिए रोड साइड रेस्टोरेंट में चले जाया करते थे। उसी रेस्टोरेंट में एक वेटर था जिसका नाम 'रमैया' था।
संगीतकार शंकर हमेशा अपना आर्डर उस वेटर को ही देते थे क्योंकि शंकर भी हैदराबाद से ही थे और उन्हें तेलगु भी आती थी। उस दिन भी शंकर ने ऑर्डर के लिए रमैया को आवाज़ दी , लेकिन वह किसी और काम में व्यस्त था तो उसने उन्हें इंतज़ार करने को कहा। थोड़ा इंतजार करने के बाद उन्होंने फिर कहा 'वस्तावैया?' जिसका मतलब होता है 'जल्दी आओ'। इसके बाद शंकर 'रमैया वस्तावैया' गुनगुनाने लगे जिसके साथ साथ जयकिशन टेबल बजाने लगे। लेकिन सिर्फ एक लाइन से मामला न जमते देख, शैलेन्द्र ने तुरंत जोड़ा- 'मैंने दिल तुझको दिया।' इस तरह बेहतरीन गाना बन गया। राज कपूर को भी यह गाना काफी पसंद आया और उन्होंने फिल्म में इसे शामिल किया। गाने का फिल्मांकन जरा भी बनावटी नहीं है। यह राजकपूर की अपनी सादगी थी जो लोगों को छू जाती थी।
गीतकार शैलेन्द्र के साथ उनका ऐसा अटूट रिश्ता बना कि लोग उनकी जोड़ी को कभी भूला नहीं पाए। शैलेन्द्र को इप्टा के एक कार्यक्रम में राजकपूर ने सुना था। शैलेन्द्र ने गीत पढ़ा था - 'जलता है पंजाब हमारा जलता है पंजाब.' कार्यक्रम समाप्त होने के बाद राज कपूर शैलेन्द्र के पास गए. बोले ,'मैं राज कपूर हूँ. पृथ्वीराज कपूर का बेटा। फिल्म 'आग' बना रहा हूँ. आप उसके लिए गीत लिखेंगे। ' उन दिनों शैलेन्द्र का आदर्शवाद चरम पर था। उन्होंने उत्तर दिया ,'मैं साहित्य रचता हूँ फि़ल्मों - इल्मों में पैसे के लिए नहीं लिखता। ' राज कपूर उदास लौट आए। बात आई गई हो गई.। इसी बीच शैलेन्द्र की पत्नी शकुंतला माँ बनने वाली ली। बंबई में शैलेन्द्र के पास घर नहीं था। पत्नी शकुन झाँसी की रहने वाली थीं। शैलेन्द्र ने सोचा उन्हें झाँसी भेज दिया जाए. कम से कम आने वाले मेहमान का स्वागत अच्छा हो जाएगा। उस वक्त शैलेन्द्र कडक़ी में थे। जेब में दो चार सौ रूपए भी नहीं थे कि शकुन को दे सकते। उन्हें तब राज कपूर की याद आई। वे राज कपूर के महालक्ष्मी दफ़्तर में जा पहुँचे। राजकपूर से कहा-, 'आपको याद है. एक दिन आप मुझसे गाना मांगने आए थे। ' राजकपूर ने कहा ,'कविराज ! बिलकुल याद है। ' शैलेन्द्र ने कहा ,'मुझे पाँच सौ रूपए अभी चाहिए। आपको जो भी काम कराना है करा लीजिए। ' राज कपूर ने उन्हें पाँच सौ रूपए तुरंत दे दिए. बोले ,'कविराज ! आप चिंता न करें। कोई जल्दी नहीं है, मैं आपको बता दूँगा। '
शैलेन्द्र ने पाँच सौ रूपए पत्नी शकुन के हाथ में रखे और कहा ,'जाओ, अच्छी तरह झाँसी जाओ और नए मेहमान का स्वागत धूम धाम से होना चाहिए। 'इसके बाद वे पिता बने और कुछ पैसा आया तो शैलेन्द्र राज कपूर के पास गए और पाँच सौ रूपए लौटाने लगे। राज कपूर ने कहा 'कविराज ! इसे अपने पास रखो। मेरी फि़ल्म 'बरसात' के दो गीत बचे हैं। आपका मन हो तो लिख दीजिए। ' फिर शैलेन्द्र ने दो गीत दिए, जो बरसात के सुपर हिट गीत थे। एक गीत उसका टाइटल सांग था - 'बरसात में हमसे मिले तुम सनम, तुमसे मिले हम। 'इसके बाद शैलेन्द्र फि़ल्मी दुनिया के पहले टाइटल सांग राइटर बन गए।
शीर्षक गीत लिखने का यह रिकॉर्ड हमेशा शैलेन्द्र के नाम रहा। इस फि़ल्म के बाद शैलेन्द्र और राजकपूर की जोड़ी ऐसी जमी कि लोग देखते रह गए। राज कपूर उन्हें अपना पुश्किन कहते थे। जब शैलेन्द्र ने फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' के आधार पर फि़ल्म 'तीसरी क़सम' बनाने का फ़ैसला किया तो उसके नायक राज कपूर ही थे। हीरामन के अनूठे रोल में। दिलचस्प यह है कि एक दिन राज कपूर ने शैलेन्द्र से कहा ,'मेरा मेहनताना दो। ' शैलेन्द्र के पास उन्हें देने के लिए सौ रूपए भी नहीं थे। फिर भी उन्होंने दुखी होकर पूछा ,'भाई ! कितना मेहनताना चाहिए तुम्हें ?'
राज कपूर ने शैलेन्द्र की जेब में हाथ डाला और उसमें से एक रूपए का सिक्का निकाला। बोले ,'मुझे मेरा मेहनताना मिल गया।' तो यह था राज कपूर का सोने का दिल।
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