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देश की भयावह जगहों में से एक अग्रसेन की बावली
नई दिल्ली में  जंतर मंतर के पास बनी अग्रसेन की बावली 14वीं शताब्दी में महाराजा अग्रसेन के आदेश पर बनवायी गयी थी। लोगों का कहना है कि कभी बावली का पानी काला था । देश की सबसे भयावह जगहों की सूची में इसका नाम भी शामिल है। ऊपर-ऊपर से तो यह बावली लाल बलुए पत्थरों से बनी दीवारों के कारण बेहद सुंदर लगती है, लेकिन आप जैसे -जैसे इसकी सीढिय़ों से नीचे उतरते जाते हैं, एक अजीब सी गहरी चुप्पी फैलने लगती और आकाश गायब होने लगता है।
इस बावली के तमाम ऐसे अनसुलझे रहस्य हैं, जो आज तक राज ही हैं। हालांकि अब तो लोग यहां के शांत वातावरण में किताबें पढऩे के लिए भी आते हैं। कई लोग इसकी खूबसूरती के कारण भी यहां खींचे चले आते हैं।
बावली के शून्य शांत वातावरण में पत्थर की ऊंची-ऊंची दीवारों के बीच जब कबूतरों की गुटरगूँ और चमकादड़ों की चीखें और फडफ़ड़ाहट गूंजती है, तो बावली का माहौल पूरे शरीर में सिहरन पैदा कर देता है। लोगों का कहना है कि  कई बार तो यहां आने वालों ने किसी अदृश्य साया को भी महसूस किया है।
 फिलहाल अग्रसेन की बावली, एक संरक्षित पुरातात्विक स्थल है, जो नई दिल्ली में कनॉट प्लेस के पास स्थित है। इस बावली में सीढ़ीनुमा कुएं में करीब 105 सीढिय़ां हैं। 14वीं शताब्दी में महाराजा अग्रसेन ने इसे बनाया था। सन 2012 में भारतीय डाक अग्रसेन की बावली पर डाक टिकट जारी किया गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) और अवशेष अधिनियम 1958 के तहत भारत सरकार द्वारा संरक्षित हैं। इस बावली का निर्माण लाल बलुए पत्थर से हुआ है। अनगढ़ तथा गढ़े हुए पत्थर से निर्मित यह दिल्ली की बेहतरीन बावलियों में से एक है। 
कऱीब 60 मीटर लंबी और 15 मीटर ऊंची इस बावली के बारे में विश्वास है कि महाभारत काल में इसका निर्माण कराया गया था। बाद में अग्रवाल समाज ने इस बावली का जीर्णोद्धार कराया। यह दिल्ली की उन गिनी चुनी बावलियों में से एक है, जो अभी भी अच्छी स्थिति में हैं।  
 बावली की स्थापत्य शैली उत्तरकालीन तुग़लक़ तथा लोदी काल (13वी-16वी ईस्वी) से मेल खाती है।  लाल बलुए पत्थर से बनी इस बावली की वास्तु संबंधी विशेषताएं तुग़लक़ और लोदी काल की तरफ़ संकेत कर रहे हैं, लेकिन परंपरा के अनुसार इसे अग्रहरि एवं अग्रवाल समाज के पूर्वज अग्रसेन ने बनवाया था। इमारत की मुख्य विशेषता है कि यह उत्तर से दक्षिण दिशा में 60 मीटर लम्बी तथा भूतल पर 15 मीटर चौड़ी है।  पश्चिम की ओर तीन प्रवेश द्वार युक्त एक मस्जिद है। यह एक ठोस ऊंचे चबूतरे पर किनारों की भूमिगत दालानों से युक्त है। इसके स्थापत्य में  व्हेल मछली की पीठ के समान छत, चैत्य आकृति  की नक्काशी युक्त चार खम्बों का संयुक्त स्तम्भ, चाप स्कन्ध में प्रयुक्त पदक अलंकरण इसे विशिष्टता प्रदान करता है। 
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