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सौर मंडल के ग्रहों पर बने रेत के टीलों से मिल सकती है उनके मौसम की जानकारी


मेलबर्न।  मंगल या शुक्र की सतह पर होना कैसा लगता होगा? या इनसे भी दूर प्लूटो या शनि के उपग्रह टाइटन की सतह कैसी होती होगी? इस उत्सुकता के कारण ही आज से 65 वर्ष पहले स्पूतनिक-एक को अंतरिक्ष में छोड़ा गया था और तभी से हम अंतरिक्ष की गहराइयों की खोज कर रहे हैं। पर अब तक हम केवल सतही तौर पर जान पाए हैं कि सौर मंडल के अन्य ग्रह और पिंड कैसे काम करते हैं। ‘नेचर एस्ट्रोनॉमी' शोध पत्रिका में प्रकाशित हमारे नए अध्ययन में सामने आया है कि ‘सैंड ड्यून' (रेत के टीले) सुदूर ग्रहों के मौसम की स्थिति के बारे में जानकारी दे सकते हैं। अंग्रेज कवि विलियम ब्लेक अपनी एक कविता में कल्पना करता है कि ‘रेत के एक कण में पूरा संसार देखा जा सकता है।' हमने अपने अनुसंधान में इसे अक्षरशः महसूस किया। हमारे अध्ययन में रेत के टीलों की मौजूदगी से सतह की स्थिति का आकलन करने का विचार पनपा। रेत के टीले या ‘ड्यून' के अस्तित्व के लिए कुछ चीजों का होना जरूरी है। पहले तो रेत के कण मौजूद होने चाहिए। इसके बाद इतनी तेज हवाएं चलनी चाहिए कि इन कणों को सतह से ऊपर इकठ्ठा होने में मदद मिले, लेकिन ये हवाएं इतनी तेज नहीं होनी चाहिए कि रेत के कणों को वातावरण में पहुंचा दे। अभी तक, हवाओं की गति और तलछट जमा होने का मापन सीधे तौर पर पृथ्वी और मंगल पर ही संभव हो सका है। हालांकि, उपग्रहों और धूमकेतु तथा अन्य पिंडों पर भी हवा के वेग के कारण जमा हुए धूल के कणों से बनी आकृतियां देखी गई हैं। इन रेत के टीलों के अस्तित्व से ही पता चलता है कि इनके निर्माण के लिए जरूरी चीजें उस ग्रह या पिंड पर मौजूद रही होंगी। हमने अपना ध्यान शुक्र, पृथ्वी, मंगल, टाइटन, ट्राइटन (नेप्च्यून का सबसे बड़ा उपग्रह) और प्लूटो पर केंद्रित किया है। इन पिंडों के बारे में दशकों से बहस होती रही है। ट्राइटन पर बहने वाली वायु से बनी आकृतियों को हम प्लूटो के सतह पर बने टीलों से पृथक कैसे कर सकते हैं जबकि दोनों के वायुमंडल बेहद हल्के हैं? हमें मंगल पर रेत और धूल के तूफान क्यों दिखाई देते हैं जबकि वहां हवा की गति मंद होती है? और क्या शुक्र के बेहद गर्म और घने वायुमंडल में रेत हवा में उसी तरह उड़ सकती है जैसे धरती पर वायु या पानी बहता है? हमारे अध्ययन में वायु के बहने का अनुमान पेश किया गया है और यह कि इन पिंडों पर धूल और रेत के कण जितनी आसानी से टूटते हैं ताकि हवा उन्हें बहा ले जाए। टाइटन के बारे में बात करें तो हमें पता है कि उस उपग्रह की मध्यरेखा में रेत के टीले मौजूद हैं, लेकिन हमें यह नहीं पता कि वहां कौन सा पदार्थ एकत्र है। क्या वह पूरी तरह से ‘आर्गेनिक' (कार्बन से बने पदार्थ) है जो वायुमंडल से गिरा है या वह और घनी बर्फ है? हमने पाया कि टाइटन की मध्यरेखा के क्षेत्र में अगर हवा चलने से आर्गेनिक धुंध बहेगी तो टकरा कर वह पदार्थ विखंडित हो जाएगी। इससे पता चलता है कि टाइटन पर रेत के टीले पूरी तरह आर्गेनिक पदार्थ की धुंध से नहीं बने हैं। टीले बनने के लिए लंबे समय तक हवा चलना जरूरी है, जैसे कि धरती पर बने बहुत से ‘सैंड ड्यून' लाखों साल पुराने हैं। हमने यह भी पाया कि प्लूटो पर मीथेन या नाइट्रोजन बर्फ को बहाकर ले जाने के लिए वायु की गति बेहद तेज होनी चाहिए। इससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या प्लूटो की सपाट सतह पर मौजूद ‘स्पूतनिक प्लेनिशिया', रेत का टीला है भी या नहीं। यह आकृतियां कणों के जमाव की बजाय ठोस से सीधा वाष्प बने पदार्थों से निर्मित हो सकती हैं। इस प्रक्रिया को ‘सब्लिमेशन' कहा जाता है। मंगल के उत्तरी ध्रुव पर ऐसा ही कुछ दिखाई देता है। मंगल के अध्ययन से हमें पता चला कि वहां पृथ्वी की अपेक्षा, वायु जनित धूल अधिक मात्रा में जमा होती है। इससे पता चलता है कि मंगल का वायुमंडल तेज ठंडी हवाओं को रोक पाने में उतना सक्षम नहीं है।


 

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