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- जेसीबी कंपनी के मशीनों को आपने जरूर देखा होगा। कंस्ट्रक्शन से जुड़े कामों में इस कंपनी के मशीनों का इस्तेमाल दुनियाभर के हर देशों में होता है। इस कंपनी के मशीनों में एक विशेष खासियत ये है कि इनका रंग पीला होता है। लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि ये मशीन आखिर पीले रंग की ही क्यों होती है, किसी और रंग की क्यों नहीं?जेसीबी के मशीनों के पीले रंग के बारे में जानने से पहले इस कंपनी के बारे में कुछ अनोखी बातें भी हम जान लेते हैं। आपको बता दें कि जेसीबी ब्रिटेन की मशीन बनाने वाली एक कंपनी है, जिसका मुख्यालय इंग्लैंड के स्टैफर्डशायर शहर में है। इसके प्लांट दुनिया के चार महाद्वीपों में हैं। जेसीबी दुनिया की पहली ऐसी कंपनी है, जो बिना नाम के साल 1945 में लॉन्च हुई थी। इसको बनाने वाले ने बहुत दिनों तक इसके नाम को लेकर सोच-विचार किया, लेकिन कोई अच्छा सा नाम न मिलने के कारण इसका नाम इसके आविष्कारक 'जोसेफ सायरिल बमफोर्ड' के नाम पर ही रख दिया गया।आपको जानकर हैरानी होगी कि जेसीबी पहली ऐसी निजी ब्रिटिश कंपनी थी, जिसने भारत में अपनी फैक्ट्री लगाई थी। आज के समय में जेसीबी मशीन का पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा निर्यात भारत में ही किया जाता है।साल 1945 में जोसेफ सायरिल बमफोर्ड ने सबसे पहली मशीन एक टीपिंग ट्रेलर (सामान ढोने वाला ट्रेलर) बनायी थी, जो उस वक्त बाजार में 45 पौंड यानी आज के हिसाब से करीब 4000 रुपये में बिकी थी।दुनिया का पहला और सबसे तेज रफ्तार ट्रैक्टर 'फास्ट्रैक' जेसीबी कंपनी ने ही साल 1991 में बनायी थी। इस ट्रैक्टर की अधिकतम रफ्तार 65 किलोमीटर प्रति घंटा थी। इस ट्रैक्टर को 'प्रिंस ऑफ वेल्स' पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है।आपको ये जानकर हैरानी होगी कि साल 1948 में जेसीबी कंपनी में महज छह लोग काम करते थे, लेकिन आज के समय में दुनियाभर में लगभग 11 हजार कर्मचारी इस कंपनी में काम करते हैं।शुरुआत में जेसीबी मशीनें सफेद और लाल रंग की बनती थीं, लेकिन बाद में इनका रंग पीला कर दिया गया। दरअसल, इसके पीछे तर्क ये है कि इस रंग के कारण जेसीबी खुदाई वाली जगह पर आसानी से दिख जाती है, चाहे दिन हो या रात। इससे लोगों को आसानी से पता चल जाता है कि आगे खुदाई का काम चल रहा है।
- भिंडी खाने वालों के लिए एक अच्छी खबर। अब वे हरी भिंडी के साथ-साथ लाल भिंडी का भी मजा ले सकते हैं। भारतीय वैज्ञानिकों की 23 साल की मेहनत सफल हो गई है और उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि अब खेतों में लहलहा रही है लाल भिंडी की फसल।उम्दा स्वाद, आकर्षक रंग, और पौष्टिक तत्वों से भरपूर लाल भिंडी जिसे काशी लालिमा के नाम से भी जानते हैं भिंडी को चाहने वालों के लिए किसी सौगात से कम नहीं है।भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान ने 23 साल की मेहनत के बाद भिंडी की नई प्रजाति काशी लालिमा विकसित करने में सफलता पाई है। लाल रंग की यह भिंडी एंटी ऑक्सीडेंट, आयरन और कैल्शियम सहित अन्य पोषक तत्वों से भरपूर है।इस कलर की भिंडी अब तक पश्चिमी देशों में प्रचलन में रही है और भारत में आयात होती रही है। इसकी विभिन्न किस्मों की कीमत 100 से 500 रुपये प्रति किलो तक है।'दरअसल लाल भिंडी के विकास की इसी तरह की भिंडी से हुआ जो कभी कहीं और पाई गई थी। वैज्ञानिकों ने चयन विधि का प्रयोग करके इसी लाल भिंडी की प्रजाति को और विकसित किया। इस भिंडी में आम हरी सब्जी यहां तक की भिंडी में पाए जाने वाले क्लोरोफिल की जगह एंथोसाइनिन की मात्रा होती है जो इसके लाल रंग का वजह है।भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान के तकनीकी अधिकारी बताते हैं कि इस भिंडी को लगाने में किसानों को डेढ़ गुना तक फायदा होगा, क्योंकि इसको लगाने के तरीके से लेकर लागत तक सब कुछ सामान्य भिंडी की तरह है। इस आकर्षक भिंडी को बेचकर किसान डेढ़ गुना ज्यादा मुनाफा बाजार से कमा लेंगे।वहीं संस्थान के निदेशक की मानें तो ये भिंडी अपने आप में बहुत ज्यादा चमत्कारी है खासकर गर्भवती महिलाओं के लिए जिनके शरीर में फॉलिक अम्ल की कमी के चलते बच्चों का मानसिक विकास नहीं हो पाता है। वह फॉलिक अम्ल भी इस काशी लालिमा भिंडी में पाया जाता है। इतना ही नहीं इस भिंडी में पाए जाने वाले तत्व लाइफ स्टाइल डिजीज जैसे हृदय संबंधी बीमारी, मोटापा और डायबिटिज को भी नियंत्रित करती है।संस्थान के निदेशक बताते हैं कि लाल या हरी भिंडी पकने के बाद स्वाद में एक जैसी ही होती है। वे बताते हैं कि इस भिंडी को बेचकर किसान काफी मुनाफा कमाएंगे। अभी वैज्ञानिक इस लाल भिंडी की पैदावार को बढ़ाने पर भी काम कर रहे हैं। एक हेक्टेयर में हरी भिंडी 190-200 क्विंटल तक पैदावार देती है तो वहीं काशी लालिमा की उपज 130-150 क्विंटल तक ही है।निदेशक बताते हैं कि उनके संस्थान के पहले छत्तीसगढ़ के कुछ जनजाति इलाकों में कुछ छात्र लाल भिंडी पैदा कर रहे हैं, लेकिन सबसे पहले भारत में इसको परिष्कृत रूप में वाराणसी के भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान में उगाया गया है. इससे पहले अमेरिका के क्लीमसन विवि में भी लाल भिंडी को उगाया जा चुका है।
- नयी दिल्ली। भारतीय वैज्ञानिकों के एक समूह ने किफायती थ्रीडी रोबोटिक गतिमान छाया (फैंटम) तैयार की है जो सांस लेने के दौरान मानव फेफडों की गति को दोबारा पैदा कर सकती है और इसका उपयोग यह पता लगाने के लिए किया जा सकता है कि क्या किसी गतिशील लक्ष्य पर रेडिएशन सही तरीके से केंद्रित है या नहीं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने सोमवार को यह जानकारी दी। इस फैंटम को इंसानों को लिटाए जाने वाले बिस्तर पर लगे सीटीस्कैनर पर लगाया गया है। आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर आशीष दत्त और लखनऊ पीजीआई में प्रोफेसर के जे मारिया दास ने इसे मिल कर तैयार किया है। सांस लेने से फेफड़े में होने वाली गति के कारण पेट के ऊपरी हिस्से और छाती से जुड़े कैंसर के ट्यूमर को लक्षित रेडिएशन देना मुश्किल काम होता है। इस गति के कारण उपचार के दौरान ट्यूमर के अलावा एक बड़ा हिस्सा रेडिएशन के संपर्क में आता है और इस वजह से ट्यूमर के आस पास के ऊतक भी प्रभावित होते हैं। किसी मरीज में फेफडे की गति को नियंत्रित करके लक्षित स्थान पर रेडिएशन दिया जा सकता है ताकि वह अन्य हिस्से को नुकसान पहुंचाए बिना असरदार हो। लेकिन इंसानों पर इसे करने से पहले इसकी प्रभाविता को रोबोटिक छाया पर जांचना जरूरी है।
- नयी दिल्ली। भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर), भोपाल के अनुसंधानकर्ताओं ने पौधों में ऐसे मुख्य जीन की पहचान की है जिससे उसमें एक प्रोटीन का पता चला है जो किसी पौधे में बीज के विकास को नियंत्रित करता है। पत्रिका ‘प्लांट साइकोलॉजी' में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि अनुसंधानकर्ताओं ने इस जीन की प्रकृति और इससे जुड़े प्रोटीन तथा पौधे के शुरुआती विकास में इनकी भूमिका के बारे में बताया। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार, किसी नमी, तापमान, हवा और प्रकाश समेत उचित पर्यावरणीय परिस्थितियों में बीज का अंकुरण जटिल प्रक्रिया है जिसमें कई जैव रासायनिक, शारीरिक और रूपात्मक बदलाव शामिल हैं। कई पौधों में अंकुरण का पहला कदम पहली भ्रूणीय पत्ती का विकास है जिसे बीजपत्र कहा जाता है। बीजपत्र उस कोमल अंकुर की रक्षा करते हैं जो पौधे के ऊपरी हिस्से में विकसित होगा और इसके निकलने का समय महत्वपूर्ण है। आईआईएसईआर, भोपाल के जैविक विज्ञान विभाग के असोसिएट प्रोफेसर सौरव दत्ता ने कहा, ‘‘प्रतिकूल परिस्थितियां जैसे कि असामयिक बारिश से बीजपत्र समय से पूर्व पैदा हो सकता है जिससे कोमल शाखा को नुकसान पहुंच सकता है और पौधे की वृद्धि रुक सकती है। यह उन वजहों में से एक है जिसके कारण अप्रत्याशित मौसम परिस्थितियों के चलते किसानों की फसलें बर्बाद हो जाती हैं।'' उन्होंने कहा, ‘‘फसलों को बर्बाद होने से बचाने के लिए बीजपत्र के खुलने के समय को नियंत्रित करना कारगर हो सकता है। यह ज्ञात है कि ब्रासीनोस्टीरॉयड (बीआर) नाम का हार्मोन अंधेरे में बीजपत्र को खोलने के लिए जिम्मेदार होता है और प्रकाश से बीजपत्र को खुलने में मदद मिलती है जबकि प्रकाश और बीआर के बीच के आणविक विनियमन को अभी तक अच्छे तरीके से समझा नहीं गया था।'' आईआईएसईआर के वैज्ञानिकों ने पाया कि बीबीएक्स32 नामक जीन में जिस प्रोटीन का पता चला है वह प्रकाश के संकेत को नकारात्मक रूप से नियंत्रित करता है और सरसों परिवार से संबंधित अरबीडोप्सिस पौधे में बीजपत्र को खोलने में बीआर संकेतक को बढ़ावा देता है। अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि ऐसे नियंत्रण से कठोर पर्यावरणीय परिस्थितियों से पौधों को बचाने में मदद मिल सकती है और इससे अधिक पैदावार हो सकती है।
- मेरु पर्वत, एक ऐसा स्थान है, जिसका उल्लेख आपको लगभग सभी प्रमुख धर्मों में मिल जाएगा, यहाँ तक कि इससे जुड़ी मान्यताएं भी लगभग समान हैं। पौराणिक कहानियों और दस्तावेजों में मेरु पर्वत का जिक्र एक ऐसे पर्वत के तौर पर मिलता है, जो सोने के समान चमकीले सुनहरे रंग का है तथा इसके पांच मुख्य शिखर हैं। हिमालय की गोद में स्थित मेरु पर्वत की विशेषता यही समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि इसे ब्रह्मा का निवास स्थान भी माना जाता है।हिन्दू धर्म से जुड़े दस्तावेजों में मेरु पर्वत को अलौकिक पर्वत की संज्ञा दी गई है और इसे सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा समेत समस्त देवी-देवताओं का स्थान कहा गया है। पौराणिक हिन्दू खगोलीय ग्रंथ, सूर्य सिद्धांत के अनुसार मेरु पर्वत पृथ्वी की नाभि पर स्थित है। इसके अलावा यह भी उल्लिखित है कि सुमेरु अर्थात मेरु पर्वत, उत्तरी ध्रुव और कुमेरु पर्वत दक्षिणी ध्रुव पर स्थित है, जिसका अर्थ है कि मेरु पर्वत का आकार उत्तर से दक्षिण ध्रुव तक फैला हुआ है। मेरु पर्वत को स्वर्ग की संज्ञा दी जाती है जिसकी संरचना धरती पर होने के बावजूद भी धरती पर नहीं हुई है।पौराणिक कथाओं में मेरु पर्वत के विषय में बहुत कुछ कहा गया है। मत्स्य पुराण और भागवत पुराण में इसकी ऊंचाई 84 हजार योजन (10 लाख 82 हजार किलोमीटर) बताई गई है, जो धरती के कुल व्यास से करीब 85 गुणा है। इसका फैलाव 16 हजार योजन, ऊपर की ओर की चौड़ाई 32 हजार योजन और नीचे की चौड़ाई 16 हजार योजन है। कूर्म पुराण के अनुसार इस विशाल क्षेत्र के बीचो-बीच जंबूद्वीप स्थित है, जिसके मध्य में स्थित है सुनहरा मेरु पर्वत। हम मुख्यत: चार दिशाओं से परिचित हैं और हिन्दू धर्म में इन चारों दिशाओं के अलग-अलग द्वारपाल या संरक्षक बताए गए हैं।पूर्वी दिशा का संरक्षण इन्द्र देव के हाथ है, पश्चिमी दिशा की रक्षा वरुण देव करते हैं, दक्षिण दिशा की रक्षा स्वयं मृत्यु के देवता यम द्वारा की जाती है और उत्तरी दिशा के द्वारपाल धनकुबेर हैं। ये चारों देव मेरु पर्वत को अलग-अलग दिशाओं को एक अभिभावक की तरह देखते हैं। केवल हिन्दू धर्म में ही नहीं बल्कि जैन और बौद्ध धर्म के लोग भी मेरु पर्वत को स्वर्ग की संज्ञा देते हैं। यहाँ तक कि प्राचीन यूनानी कथाओं में मेरु को ही ऑलिम्पस पर्वत का नाम दिया गया है जहाँ देवताओं के राजा ज्यूस निवास करते हैं। जावा (इंडोनेशिया) में प्रचलित लोक कथाओं में भी मेरु पर्वत का जिक्र देवताओं के पौराणिक निवास के रूप में किया गया है। पंद्रहवी शताब्दी से संबंधित प्राचीन पांडुलिपियों में जावा द्वीप के उद्भव और मेरु पर्वत के कुछ हिस्सों को जावा द्वीप से क्यों जोड़ा गया, इसका भी रहस्य बताया गया है।जावा की इस प्राचीन पांडुलिपि के अनुसार बतारा गुरु (शिव) ने विष्णु और ब्रह्मा को यह आदेश दिया कि वह इस द्वीप पर मानवता को जन्म दें और समस्त द्वीप को मनुष्यों से भर दें। उस समय जावा द्वीप हर समय हिलता और सागर पर बहता रहता था। ऐसे हालात में मनुष्यों का वहां रहना कठिन था, इसलिए द्वीप को स्थिर रखने के लिए ब्रह्मा और विष्णु ने महामेरु पर्वत के भाग को जंबूूद्वीप पर ले जाकर उसे जावा द्वीप से जोडऩे का निश्चय किया। इसके परिणाम के तौर पर जावा के सबसे लंबे पर्वत, सुमेरु पर्वत की स्थापना हुई। ऐसा कहा जाता है आदिकाल में मेरु पर्वत से जुड़ी अवधारणा इतनी पुख्ता और मजबूत थी कि कई बेहद प्राचीन मंदिरों का निर्माण भी इस पर्वत की संरचना की तरह ही हुआ है। हिन्दू, जैन और बौद्ध मंदिर इस बात के सशक्त उदाहरण हैं।मेरु पर्वत की चोटी पर 33 देवताओं का निवास स्थान है। इंद्र भी यहीं रहते हैं। इसकी हर ढलान पर इस पर्वत के चार अभिभावक यम, कुबेर, इन्द्र और वरुण देव रहते हैं। इसके नीचे अन्य पौराणिक पात्र जैसे अप्सरा, गंधर्व, यक्ष, नाग, सिद्ध, विद्याधर रहते हैं और सबसे नीचे असुरों का वास है।
- अमृता शेरगिल प्रख्यात भारतीय कलाकार थी। बचपन से ही संगीत व अभिनय इनके साथी बन गए थे। ये बहुत ही प्रतिभावान कलाकार थी। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने इन्हें भारत के नौं सर्वश्रेष्ठ कलाकारों में शामिल किया है। महज आठ वर्ष की आयु में ही ये वायलिन और पियानों बजाने के साथ ही कैनवास पर भी हाथ आजमाने लगी थी। इनकी शिक्षा भले ही पेरिस में हुई लेकिन इनका मन सदैव भारतीय रहा और वहां से आर्ट की शिक्षा लेने के बाद ये जल्द ही भारत लौट आई। मात्र 22 वर्ष की आयु में ही ये एक तकनीकी तौर पर भी कलाकार बन चुकी थीं और अपनी असामान्य प्रतिभा के कारण उनमें एक कालाकार के सारे गुण मौजूद थे। जब 1941 में ये अपने पति के साथ लाहौर चली गई। यहां इनकी पहली एकल प्रदर्शनी होनी थी लेकिन अचानक बहुत बीमार होने के कारण ये प्रख्यात प्रतिभावान कलाकार मात्र 28 वर्ष की आयु में शून्य में विलीन हो गई। हाल ही में अमृता शेरगिल की पेंटिंग “इन द लेडीज एनक्लोजर”, सैफ्रनआर्ट द्वारा नीलामी कराई गई। जिसमें इनकी पेंटिंग 37.8 करोड़ रुपये में बिकी और इसी के साथ वह दुनिया में दूसरी सबसे मंहगी भारतीय कलाकृति बन गई है।इससे पहले सबसे महंगी पेंटिंग का खिताबइसी साल कालाकार वी एस गायतोंडे द्वारा बनाई गई 1961 की पेंटिंग 39.98 करोड़ रुपये में बिकी थी। यह कलाकृति वैश्विर स्तर पर अब तक की सबसे महंगी भारतीय कलाकृति है। जब अमृता शेरगिल भारत वापस आई तो इसके कुछ सालों बाद उनके द्वारा 1938 में ‘ऑयल ऑन कैनवस’ पर बनाई गई पेंटिंग ने भी एक वैश्विक कीर्तिमान स्थापित किया है।अमृता शेरगिल अपने विवाह के बाद पुश्तैनी घर गोरखपुर में बस गई थी। यह पेंटिंग यहीं उनके गोरखपुर में बनाई गई थी। इस पेंटिंग में खेत में कुछ महिलाओं को दर्शाया गया है। सैफ्रनआर्ट के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और सह संस्थापक दिनेश वजीरानी ने एक बयान में कहा, ''अमृता शेरगिल की बेहतरीन पेंटिंग कीर्तिमान स्थापित करने वाली बिक्री से एक कलाकार के रूप में उनके स्तर का पता चलता है और यह उनकी प्रतिभा तथा कौशल का प्रमाण है।''उन्होंने यह भी कहा कि, ''इस कलाकृति में एक कलाकार के रूप में उनके विकास की झलक मिलती है और यह कलाकार के रूप में कई वर्षों की गई तपस्या की परिणति है।'' वजीरानी ने कहा कि यह पेंटिंग शेरगिल द्वारा बनाई गई दुर्लभ कलाकृति है।
- हम समय जानने के लिए घड़ी का इस्तेमाल करते हैं। बाजार में तरह-तरह की घडिय़ां मौजूद हैं। वैदिक काल में भी समय का पता लगाने के लिए अपने तरीके थे। वैदिक घड़ी के कांटे और घंटे वैदिक ज्ञान की जानकारी भी देते हैं। ऐसी ही घड़ी के बारे में हम बता रहे हैं जो बहुत कुछ कहती है।इस घड़ी में 1 से 12 के स्थान पर क्रमश: ब्रह्म, अश्विनौ, त्रिगुणा, चतुर्वेदा, पञ्चप्राणा:, षड्रसा:, सप्तर्षय:, अष्टसिद्धय:, नवद्रव्याणि, दशदिश:, रुद्रा: एवं आदित्या: लिखा है। ये सभी देवताओं अथवा गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं और जिस स्थान पर वे हैं उनकी संख्या भी उतनी ही है। इनमें से 12 आदित्य, 11 रूद्र एवं 2 अश्विनीकुमारों की गिनती हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध 33 कोटि देवताओं में की जाती है। इनमें एक समूह 8 वसुओं का भी है जो इस चित्र में वर्णित नहीं है। आइये इसे इसे समझते हैं।1.00 बजे - ब्रह्म - हमारे पुराणों में आदि एवं अंत ब्रह्म से ही माना गया है। ब्रह्म एक ही होता है जो सत्य एवं सनातन है। कहा गया है - एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति। अर्थात, ब्रह्म एक ही है, दूसरा कोई नहीं।2.00 बजे - अश्विनौ - ये अश्विनीकुमारों का प्रतिनिधित्व करता है जो दो होते हैं - नासत्य एवं दसरा। नासत्य सूर्योदय एवं दसरा सूर्यास्त का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये 33 कोटि देवताओं में से एक हैं। यही दोनों भाई महाभारत में माद्रीपुत्र नकुल एवं सहदेव के रूप में जन्मे थे।3. बजे- त्रिगुणा - ये प्रत्येक जीव के तीन गुणों - सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन तीनों गुणों का मिश्रण एवं एक गुण की प्रधानता सभी जीवों में होती है। केवल श्रीहरि विष्णु इन तीन गुणों से परे, अर्थात त्रिगुणातीत माने जाते हैं।4.00 बजे- चतुर्वेदा - ये परमपिता ब्रह्मा द्वारा रचित चारो वेदों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद।5.00 बजे- पञ्चप्राणा: - ये जीवों के पांच प्राणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मानव शरीर को 5 प्राण एवं 5 उप-प्राण में विभक्त किया गया है। 5 मुख्य प्राण हैं - अपान, समान, प्राण, उदान एवं व्यान। उसी प्रकार 5 उप-प्राण हैं - देवदत्त, वृकल, कूर्म, नाग एवं धनञ्जय।6.00 बजे- षड्रसा: - ये छह रसों का प्रतिनिधित्व करते हैं (षड्रसा: = षड + रस)। किसी भी वास्तु का स्वाद इन्ही 6 रसों के कारण अलग-अलग होता है। ये हैं - मधुर (मीठा), अम्ल (खट्टा), लवण (नमकीन), कटु (कड़वा), तिक्त (तीखा) एवं कसाय (कसैला)।7.00 बजे- सप्तर्षय: - ये सप्तर्षियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे तो प्रत्येक मन्वन्तर में सप्तर्षि अलग-अलग होते हैं किन्तु प्रथम स्वयंभू मनु के काल के सप्तर्षियों, जो ब्रह्मदेव के मानस पुत्र हैं, को प्रधानता दी जाती है। ये हैं - मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य एवं वशिष्ठ।8.00 बजे- अष्टसिद्धय: - ये अष्ट सिद्धियों का प्रतिनिधित्व करती है। महाबली हनुमान के पास अष्ट सिद्धि थी। इसके बारे में कहा गया है - अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा। प्राप्ति: प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धय:।। अर्थात, अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व - ये 8 सिद्धियाँ "अष्टसिद्धि" कहलाती हैं।9.00 बजे- नवद्रव्याणि - ये नौ निधियों का प्रतिनिधित्व करती है। महावीर हनुमान एवं यक्षराज कुबेर इन नौ निधियों के स्वामी हैं, किन्तु जहाँ कुबेर इन नौ निधियों को किसी को प्रदान नहीं कर सकते, हनुमान इसे दूसरे को प्रदान कर सकते हैं। हनुमान की नौ निधियां हैं - रत्न किरीट, केयूर, नूपुर, चक्र, रथ, मणि, भार्या, गज एवं पद्म। कुबेर की नौ निधियां हैं - पद्म, महापद्म, नील, मुकुंद, नन्द, मकर, कच्छप, शंख एवं खर्व।10.00 बजे- दशदिश: - ये दसो दिशाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रत्येक दिशा के स्वामी को दिक्पाल कहते हैं। ये हैं - पूर्व (इंद्र), आग्नेय (अग्नि), दक्षिण (यम), नैऋत्य (सूर्य), पश्चिम (वरुण), वायव्य (वायु), उत्तर (कुबेर), ईशान (सोम), उर्ध्व (ब्रह्मा) एवं अधो (अनंत)।11.00 बजे- रुद्रा: - ये 11 रुद्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये सभी भगवान शंकर के रूप माने जाते हैं और 33 कोटि देवताओं में स्थान पाते हैं। ये हैं - शम्भू, पिनाकी, गिरीश, स्थाणु, भर्ग, भव, सदाशिव, शिव, हर, शर्व एवं कपाली।12.00 बजे- आदित्या: - ये 12 आदित्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्ही आदित्यों को हम आम भाषा में देवता कहते हैं। ये महर्षि कश्यप एवं दक्षपुत्री अदिति के पुत्र हैं हुए 33 कोटि देवताओं में स्थान रखते हैं। ये हैं - इंद्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान (सूर्य), अंशुमान, मित्र, वरुण एवं विष्णु (वामन)।
- डायनासोर हमेशा से ही लोगों के लिए कौतूहल का विषय रहे हैं। इन पर कई सारे शोध हुए जो अब तक जारी हैं। डायनासोर का नाम सुनते ही लोगों के मन में एक विशालकाय जानवर की तस्वीर बनती है लेकिन क्या आपको पता है कि ठंडे खून के ये जीव छोटे आकार के भी होते थे। हाल ही में चीन के शोधकर्ताओं ने जीवाश्मों का अध्ययन किया है जिसके बाद उन्हें बहुत ही छोटे आकार के डायनासोर के बारे में बहुत ही रोचक जानकारी मिली है। शोधकर्ताओं के मुताबिक अल्वारेजसॉर प्रजाति के डायनासोर ने अपने खाने की खुराक में बदलाव किया था और इन डायनासोर ने चींटियों को खाना शुरू कर दिया था। जिसके कारण बाद में उनका आकार तेजी से कम होने लगा था।कहां और किसने किया ये अध्ययनबीजिंग में इंस्टीट्यूट ऑफ वर्टिबरेट पेलिओन्टोलॉजी एवं पेलिओएंथ्रोपोलॉजी और ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी के पीएचडी छात्र जिचुआन किन की अगुआई में यह अध्ययन किया गया। जिसमें पाया गया कि अल्वारेजसॉर डायनासोर ने आज से करीब 10 करोड़ साल पहले अपनी खुराक में बदलाव करते हुए चींटियों को खाना शुरु किया था और इस खुराक को अपनाने के बाद अपना आकार बहुत तेजी से कम करना शुरू कर दिया था। ये डायनासोर मुर्गे के आकार तक छोटे हुआ करते थे।पहले ऐसा होता है इन डायनासोर का आकारपुराने नमूनों के आधार पर अध्ययन में पाया गया कि इन डायनासोर का आकार आकार विशाल टर्की या छोटे शतरमुर्ग के आकार के बराबर हुआ करता था। ये कम से कम 10 से 70 किलो के भार के वजनी थे। उस समय के अधिकांश अल्वारेजसॉर डायनासोर पतले, दो पैरों वाले हुआ करते थे और छिपकली, शुरुआती स्तनपायी जीव और शिशु डायनासोर के तौर पर अपनी खुराक लेते थे।खुराक में बदलाव के कारण हुआ आकार में बदलावअध्ययन के मुताबिक अल्वारेजसॉर के उद्भव काल के बाद के समय में नमूनों के आकार के अनुसार इनका आकार एक मुर्गे के बराबर छोटा हो गया था। जिचिन के अनुसार है कि उनके आकार में इस तरह का बदलाव इसलिए हुए क्योंकि वे चींटियां खाने लगे थे। जिचुआन के पर्यवेक्षकों में से एक ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइकल बेंटन का इस बारे में कहना है कि खाने की बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण खुराक में यह बड़ा बदलाव हुआ होगा।लगभग दर्जनभर नमूनों को लेकर किया गया अध्ययनजिचुन ने अल्वारेजसॉर प्रजाति डायनासोर के दर्जन भर नमूनों का अध्ययन किया और लाखों साल तक किस तरह उनके आकार में बदलाव हुआ इसका अध्ययन किया। इस तरह से पीढ़ी दर पीढ़ी उनके आकार में बदलाव हुआ। अल्वारेजसॉर डायनासोर उत्तर ज्यूरासिक काल से लेकर उत्तर क्रिटेशियस काल में रहा करते थे। इसका मतलब से वे 16 करोड़ साल से 7 करोड़ साल पहले के समय में चीन मंगोलिया, और दक्षिण अमेरिका में पाए जाते थे।
- क्या आपको मालूम है दुनिया में सबसे बड़ी जीव कही जाने वाली ब्लू व्हेल का दिल कितना बड़ा होता है? क्या ये वास्तव किसी छोटी मारुति 800 या अल्टो कार जितना लंबा-चौड़ा होता है। इसका वजन कितना होता है. कई लोगों के लिए भी इसे मिलकर उठाना बहुत मुश्किल होता है। ब्लू व्हेल के दिल के बारे में जानकर आप हैरान हो जाएंगे।दुनिया में जितने भी जीव-जंतु हैं. उनमें सबसे भारी और विशालकाय ब्लू व्हेल होती है। आप हैरान हो जाएंगे अगर उसके दिल यानि हृदय की लंबाई-चौड़ाई और वजन के बारे में जानेंगे। कुल मिलाकर ये मान लीजिए कि उसका दिल दुनिया में सबसे बड़ा दिल होता है। हालांकि कुछ लोगों का कहना था कि ब्लू व्हेल का दिल बिल्कुल वॉक्सवैगन बीटल्स कार के बराबर होता है यानि 14 फीट लंबा, 06 फीट चौड़ा और 05 फीट ऊंचा।इसके बाद साइंटिस्ट ने इसके दिल की माप की कि ये असल में कितना बड़ा होता है। ये कतई आसान नहीं था। हालांकि ब्लू व्हेल का एक दिल कनाडा में टोरंटो स्थित रॉयल ओंटेरियो म्युजियम में रखा है। इसका दिल 05 फीट लंबा, 04 फीट चौड़ा और पांच फीट ऊंचा होता है। इसका वजन करीब 190 किलो के आसपास होता ह। यानि कि अगर 04-05 मनुष्य एक साथ खड़े हो जाएं तो उन्हें जोड़कर जो माप आएगी, वो ब्लू व्हेल के दिल के बराबर होगी।व्हेल का वजन आमतौर 40 हजार पाउंड माना जाता है। अगर उसका दिल 400 पाउंड का है तो इसका मतलब ये हुआ दिल का वजन उसके कुल वजन का 01 फीसदी होता है। हालांकि इतना बड़ा दिल इस धरती पर किसी जीव-जंतु का नहीं होता। अफ्रीकन हाथी को फिलहाल जमीन पर रहने वाला सबसे लंबा-चौड़ा जानवर माना जाता है, इसका गोलाकार हृदय 30 पाउंड यानि करीब 13.6 किलो का होता है। यानि व्हेल का दिल हाथी के हृदय से 14 गुना ज्यादा भारी होता है ।क्या आपको मालूम है कि एक मनुष्य के दिल का वजन कितना होता है। ये करीब 10 औंस के बराबर होता है यानि 283 ग्राम अगर किलो की बात करें तो एक पाव से थोड़ा ज्यादा। यानि व्हेल के दिल का वजन मनुष्य के दिल की तुलना में 640 गुना ज्यादा होता है।ब्लू व्हेल का वजन सामान्य तौर पर 150 टन से 200 टन के बीच होता है। आकार में डायनासोर भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते। एक बड़ी ब्लू व्हेल की लंबाई 30 मीटर यानि 98 फीट के आसपास होती है-मतलब बोइंग 737 के करीब बराबर। जब व्हेल का बच्चा पैदा होता है तो ये वजन में 02-03 टन का होता है तो लंबाई में करीब 08 मीटर का। ब्लू व्हेल तकरीबन दुनिया के सभी महासागरों में मिलती है। ये हर साल हजारों मील की यात्रा करती हैं। हां इनका दिमाग बहुत छोटा होता है। ये करीब 06 किलो का होता है जबकि मनुष्य का दिमाग करीब 1.4 किलो का। चूंकि व्हेल सबसे ज्यादा आक्सीजन लेती है, लिहाजा उसके फेफड़े भी सबसे बड़े होते हैं। इसकी क्षमता 5 हजार लीटर की होती है।व्हेल की पूंछ करीब 7.6 मीटर की होती है यानि बड़ी डबल डेकर बसों जैसी। मोटे तौर पर एक व्हेल मछली एक बोइंग 737 के बराबर होती है। इसमें तीन से चार डबल डेकर बसें समा सकती हैं। 5 बड़े अफ्रीकन हाथी अगर एक लाइन से खड़े कर दिए जाएं तो इसके बराबर होंगे। 11 कारें इसमें समा सकती हैं। अब अगर इसके वजन की बात करें तो वजन में ये 04 बोइंग 737 के बराबर होती है तो 15 डबल डेकर बसों, 40 अफ्रीकी हाथियों, 270 कारों और 3333 मनुष्यों के वजन के बराबर है।--
- नई दिल्ली। अब तक आपने एक से बढ़ कर एक रेसिंग कारें देखी है लेकिन दुनिया की पहली फ्लाइंग रेस कार ने आकार ले लिया है। ऑस्ट्रेलियाई कंपनी ने दुनिया की पहली उडऩे वाली रेसिंग कार अलउदा एमके-3 की उड़ान का सफल परीक्षण किया है। यह कार 0-100 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार को महज 2.8 सेकेंड में पूरा करने में सक्षम है। बता दें कि विश्व में बहुत सारे निर्माता पहले से ही इस पर काम कर रहे हैं।यह कार वस्तुओं का पता लगाने के लिए रडार और लिडार दोनों से लेस है। इस साल फ्लाइंग रेस प्रतियोगिता तीन जगहों पर आयोजित की जाएगी, हालांकि इसका खुलासा अभी नहीं किया गया है, लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि अलउदा एमके-3 इसमें सबसे पसंदीदा रेसिंग कार बन सकती है।इन खूबियों से भरपूर वाहन : एमके-3 एक 130 किलो का वाहन है जिसमें चार्जिंग के लिए रिमूवेबल बैटरी भी है। यह केवल 2.8 सेकंड में 0 से 100 किमी की रफ्तार पकडऩे में सक्षम है और एक बार चार्ज करने पर लगभग 10-15 मिनट तक उड़ सकती है। इससे पहले इस साल फरवरी में अलउदा को दुनिया के सामने पहली बार पेश किया गया था। अलउदा को दूर से एक सिमुलेटर के जरिये कंट्रोल किया जाता है।उडऩे वाली कारों की होगी रेसिंगइस वक्त जहां ऑटोमोबाइल सेक्टर में जहां कई रेसिंग कारों ने तहलका मचा रखा है वहीं, जल्द ही उडऩे वाली कारें रेसिंग कारों के रूप में सफल हो सकती हैं। अलउदा पहली इलेक्ट्रिक फ्लाइंग रेस कार है। यानी यह न केवल तेज होगी बल्कि प्रदूषण भी नहीं फैलाएगी।
- नयी दिल्ली। रोगियों अथवा किसी की भी देखभाल करना कभी आसान नहीं होता और बात जब ऐसी महामारी की हो जहां देखभाल करने वाले खुद ही अस्वस्थ हों या उनके संक्रमण की चपेट में आने का खतरा हो तो न केवल शारीरिक बल्कि भावनात्मक और मानसिक तनाव भी बढ़ जाता है। कोविड-19 महामारी की दूसरी भयावह लहर के दौरान देश के कई हिस्सों में संक्रमण फैलने पर बीमार लोगों की देखभाल करने वालों पर दबाव बढ़ गया चाहे वे पति/पत्नी हों, बच्चे हों या माता-पिता और वे अब भी इस बीमारी के तनाव से जूझ रहे हैं। खुद अस्वस्थ होने के बावजूद देखभाल करने वाले लोगों को हफ्तों तक अपने परिवार के मरीजों के लिए खाना पकाना पड़ा और घर की साफ-सफाई करनी पड़ी और सबसे बड़ी बात उन्हें सब कुछ इतनी सावधानी से करना पड़ा कि वे खुद संक्रमित न हो जाए। महामारी की दूसरी लहर के दौरान देश भर में लोग अस्पताल में बिस्तरों, दवाईयों और चिकित्सकीय ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे थे। ऐसे में कोरोना से संक्रमित होने के बावजूद कई लोगों ने अपने परिवार के ऐसे सदस्यों की देखभाल की, जिनकी हालत गंभीर थी। अपने पिता मधुकर के कोरोना वायरस से संक्रमित पाए जाने के बाद 34 वर्षीय भूषण शिंदे ने कहा, ‘‘कोविड-19 से संक्रमित मरीज की देखभाल करने के दौरान सबसे बड़ी चुनौती उथल-पुथल की स्थिति में भी दिमाग शांत रखना है।' बीमारी के संक्रामक होने के कारण संक्रमित व्यक्ति को पृथकवास में रहना पड़ता है, जिसके कारण कोई दोस्त या परिवार के सदस्य के मदद न कर पाने के कारण मानसिक दबाव बढ़ता है। मुंबई में रहने वाले भूषण ने कहा कि उन्हें और उनके पिता दोनों को ही बुखार, खांसी और बदन दर्द के हल्के लक्षण दिखने शुरू हुए थे लेकिन जल्द ही उनके 65 वर्षीय पिता की हालत बिगड़ने लगी। बाद में उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनके लिए सबसे तनावपूर्ण वह दौर रहा जब उन्हें रेमडेसिविर इंजेक्शन के लिए भागदौड़ करनी पड़ी और वह भी न केवल अपने पिता के इलाज के लिए बल्कि अपने 83 वर्षीय अंकल और एक रिश्तेदार के लिए भी जो उसी वक्त बीमार पड़े थे। उन्होंने कहा, ‘‘रेमडेसिविर की व्यवस्था करने की भागदौड़ में मुझे अपनी शारीरिक और मानसिक स्थिति को दरकिनार रखना पड़ा और इसका असर मेरे शरीर पर पड़ा।'' इस बात को दो महीने बीत चुके हैं लेकिन संघर्ष अब भी जारी है। भूषण और मधुकर कोविड-19 के बाद होने वाली स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझ रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘‘एक दिन आपको अच्छा महसूस होता है और फिर अगले दो-तीन दिन आप बीमार और कमजोर महसूस करते हो। कई बार मुझे लगता है कि यह बीमारी मेरे धैर्य की परीक्षा ले रही है।'' कोविड-19 विशेषज्ञ सुचिन बजाज सलाह देते हैं कि जब हालात ठीक हो जाएं तो देखभाल करने वाले लोगों को आराम करना चाहिए। दिल्ली में उजाला सिग्नस ग्रुप हॉस्पिटल्स के संस्थापक बजाज ने कहा, ‘‘ महामारी की दूसरी लहर के दौरान ऐसे कई जगह देखने को मिला, जहां कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों की देखभाल करने वाले स्वयं संक्रमित हो गए और फिर उनकी देखभाल परिवार के अन्य संक्रमित मरीजों को करनी पड़ी। ऐसे कई जगह हुआ, जहां पूरा परिवार ही संक्रमित हो गया।'' बजाज ने कहा, ‘‘जरूरत से ज्यादा काम का बोझ मत डालो और याद रखिए कि आप कोई सुपरमैन या सुपरवुमैन नहीं हैं तथा सबसे ज्यादा यह याद रखिए कि इसके लिए खुद को जिम्मेदार न ठहराए।'' दवा कंपनी मर्क द्वारा सितंबर-अक्टूबर 2020 में किए एक अध्ययन के अनुसार, करीब 39 प्रतिशत भारतीय युवा आबादी ने पहली बार महामारी के दौरान बीमार लोगों की देखभाल की। कोविड-19 के मरीजों की देखभाल करने वालों में अधिकतर युवा शामिल थे। ऐसे कार्य करने का उनके पास कोई अनुभव नहीं था। यह महामारी अचानक आई, जिसके लिए उन्हें तैयारी करने का भी समय नहीं मिला।मनोचिकित्सक ज्योति कपूर ने कहा कि बीमारी से जूझने का संघर्ष कहीं ज्यादा वक्त तक रह सकता है। उन्होंने कहा, ‘‘इसका देखभाल करने वाले लोगों पर कहीं ज्यादा मनोवैज्ञानिक असर पड़ा है। कोविड मरीजों में तनाव बढ़ने, पैनिक अटैक और मनोविकृति के मामले बढ़ गए हैं।'' मरीजों की देखभाल करने वाले कई लोगों ने अपने हरसंभव प्रयासों के बावजूद इस महामारी के कारण अपने प्रियजनों को खो दिया है और चिकित्सकों ने उन्हें सलाह दी है कि इसके लिए वह खुद को जिम्मेदार नहीं ठहराएं।मनोचिकित्सक ने कहा, “ मनोवैज्ञानिक तनाव को कम करने के लिए मुझसे सलाह लेने वाली 26 साल की एक महिला ने करीब एक माह पहले कोविड-19 के कारण अपने पिता को खो दिया। लेकिन अब भी अस्पतालों में चिकित्सा उपकरणों की आवाज सुनकर वह घबरा जाती है।” दिल्ली में रहने वाली मानसी अरोड़ा और उनके पति अक्सर इस बारे में बात किया करते थे कि बूढ़े होने पर वे किस तरह से अपने माता-पिता की सेवा करेंगे। लेकिन कोविड-19 उनके परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ बनकर टूटा। मानसी के ससुर और सास दोनों ही कोरोना से संक्रमित हो गए। इसके बाद मानसी और उनके पति भी कोरोना से संक्रमित हो गए। दोनों के लिए वे 20 दिन बेहद तनावपूर्ण रहे जब मानसी के ससुर को दिल्ली में एक कोविड केयर केन्द्र में भर्ती कराया गया और उसके बाद एक अस्पताल में ले जाया गया। मानसी ने बताया कि कोविड केयर केन्द्र में दवाईयां, ऑक्सीजन और भोजन समेत सभी सुविधाएं होने के बावजूद ऑक्सीजन पर निर्भर मरीजों को भी कई कार्य खुद ही करने पड़ते थे। मानसी ने कहा, “ इस दौरान हम कई दिनों तक नहीं सोए थे। स्वाद और गंध चले जाने के कारण भोजन करना भी एक चुनौती थी। लेकिन उस समय हमारे लिए अपने माता-पिता का स्वास्थ्य सर्वोच्च प्राथमिकता थी। मेरे पति भी कोविड केयर केन्द्र ही भर्ती हो गए और मैं घर से आवश्यक सामान लाकर उन्हें दिया करती थी। करीब 100 किलोग्राम वजन का ऑक्सीजन सिलिंडर भी हमें खुद से ही खींच कर ले जाना पड़ता था। इसके बाद सबसे भयावह दौर उस समय आया जब मेरे ससुर को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए हमें कड़ी मशक्कत करनी पड़ी।कोलकाता के रहने वाले रवि शर्मा और उनके माता-पिता भी इस लहर के दौरान कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए। 25 वर्षीय रवि ने कहा, “ मेरे माता-पिता को कुछ मीटर चलने में भी परेशानी हो रही थी, यह देखना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल था। यदि मैं स्वयं अस्वस्थ नहीं होता तो उनकी और अधिक मदद कर सकता था।” केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से बृहस्पतिवार को जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में कोविड-19 के कारण अब तक 3,91,981 लोगों की मौत हो चुकी है।
- अब मोबाइल फोन के कैमरे से भी बैक्टीरिया का पता लगाया जा सकता है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने मोबाइल कैमरे में बदलाव किया और इसे एलईडी ब्लैक लाइट से जोड़ा। इस कैमरे से इंसान की जुबान को स्कैन किया गया। इस दौरान दांतों के बैक्टीरिया चमकते हुए नजर आए। इसकी मदद से एक्ने के बैक्टीरिया भी देखे जा सकते हैं। डॉ. किंगहुआ कहते हैं, जब स्किन के घाव नहीं भरते हैं तब पोरफायरिन मॉलीक्यूल अधिकतर स्किन पर देखा जा सकता है क्योंकि कई बैक्टीरिया मौजूद होते हैं। इसे तैयार करने वाली वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों का कहना है, स्मार्टफोन दुनियाभर में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। यह लोगों के बजट में हैं और उनके लिए बैक्टीरिया की जांच करना आसान है। इस डिवाइस की मदद से घर पर लोग जान सकेंगे बैक्टीरिया है या नहीं। शोधकर्ता डॉ. रुईकैंन्ग वैंग का कहना है, स्किन और मुंह के बैक्टीरिया हमारे स्वास्थ्य पर असर डालते हैं। दांत और मुंह के मसूढ़ों के बैक्टीरिया घाव को भरने की रफ्तार को धीमा करते हैं।बैक्टीरिया का ऐसे पता लगाते हैंबैक्टीरिया की जांच के लिए 3डी रिंग वाले मोबाइल कैमरे में 10 एलईडी लाइट लगाई गईं। शोधकर्ताओं का कहना है, बैक्टीरिया खास तरह की तरंगें छोड़ता है, इसलिए यह आम मोबाइल कैमरे से पकड़ में नहीं आता। लेकिन ब्लैक एलईडी लाइट से इनकी तरंगों का पता लग जाता है। साबित हो जाता है कि बैक्टीरिया मौजूद है।स्किन पर अधिक दिखते हैं बैक्टीरियाशोधकर्ता डॉ. किंगहुआ का कहना है, एलईडी लाइट जलने पर बैक्टीरिया से निकलने वाला खास तरह का मॉलीक्यूल (पोरफायरिन) लाल चमकदार सिग्नल देता है। इसे स्मार्टफोन का कैमरा कैप्चर कर लेता है।
- इतिहास में कई ऐसे भयानक युद्ध हुए हैं, जिनमें लाखों लोगों की मौतें हुई हैं। एक ऐसे ही युद्ध की शुरुआत आज से करीब 65 साल पहले हुई थी, जिसे वियतनाम युद्ध के नाम से जाना जाता है। वियतनाम युद्ध शीतयुद्ध काल में वियतनाम, लाओस और कंबोडिया की धरती पर लड़ी गई एक भयंकर लड़ाई का नाम है। लगभग 20 साल तक चली यह लड़ाई साल 1955 में शुरू हुई थी, जो 1975 में जाकर खत्म हुई।यह युद्ध उत्तरी वियतनाम और दक्षिण वियतनाम की सरकार के बीच लड़ा गया था। इसे 'द्वितीय हिंद-चीन युद्ध' भी कहा जाता है। इस भीषण युद्ध में एक तरफ चीनी जनवादी गणराज्य और अन्य साम्यवादी देशों से समर्थन प्राप्त उत्तरी वियतनाम की सेना थी, तो दूसरी तरफ अमेरिका और मित्र देशों के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़ रही दक्षिणी वियतनाम की सेना। यह युद्ध और भी भयानक तब हो गया था जब लाओस जैसे छोटे से देश ने उत्तरी वियतनाम की सेना को अपनी धरती पर लड़ाई के लिए इजाजत दे दी।इससे अमेरिका पूरी तरह बौखला गया और उसे सबक सिखाने के लिए हवाई हमले की योजना बनाई। अमेरिकी वायुसेना ने दक्षिण पूर्व एशिया के इस छोटे से देश लाओस पर इतने बम गिराए कि कहा जाता है कि लाओस का भविष्य बारूद के ढेर के नीचे दबा हुआ है।कहते हैं कि अमेरिका ने साल 1964 से लेकर 1973 तक पूरे नौ साल लाओस में हर आठ मिनट में बम गिराए थे। एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका ने प्रतिदिन दो मिलियन डॉलर (आज के हिसाब से करीब 15 करोड़ रुपये) सिर्फ और सिर्फ लाओस पर बमबारी करने में ही खर्च किए थे।मीडिया रिपोट्र्स के मुताबिक, 1964 से 1973 तक अमेरिका ने लगभग 260 मिलियन यानी 26 करोड़ क्लस्टर बम वियतनाम पर दागे थे, जो कि इराक के ऊपर दागे गए कुल बमों से 210 मिलियन यानी 21 करोड़ अधिक हैं। एक अनुमान के मुताबिक, इस भीषण युद्ध में 30 लाख से भी अधिक लोग मारे गए थे, जिसमें 50 हजार से अधिक अमेरिका सैनिक भी शामिल हैं।कई लोगों का मानना है कि इस युद्ध में अमेरिका की हार हुई थी। हालांकि कई विशेषज्ञों का मानना है कि 20 साल तक चले इस भीषण युद्ध में किसी की भी जीत नहीं हुई। युद्ध की वजह से अमेरिकी सरकार को अपने ही लोगों और अंतरराष्ट्रीय दबाव का सामना करना पड़ा था, जिसके बाद वह युद्ध से पीछे हट गया था।साल 1973 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अपनी सेना वापस बुला ली थी। उसके बाद कम्युनिस्ट मित्रों द्वारा समर्थित उत्तरी वियतनाम की सेना ने देश के सबसे बड़े शहर साइगोन पर कब्जा जमा लिया और इसी के साथ साल 1975 में युद्ध खत्म हो गया।
- देशभर में रोजाना किसी ना किसी इलाके में मानूसन और प्री-मानसून की बरसात हो रही है। मौसम विभाग की तरफ से रोजाना बारिश का अलर्ट जारी किया जा रहा है। फिलहाल दक्षिण-पश्चिम मानसून देश के ज्यादातर इलाकों में सक्रिय हो चुका है, लेकिन उत्तरी क्षेत्रों में पहुंचने में उसकी रफ्तार कम हो गई है। हालांकि, उत्तरी क्षेत्रों में भी प्री-मानसून बरसाते हो रही हैं। नेपाल और बिहार में हुई भारी बारिश के कारण कई स्थानों पर बाढ़ जैसी स्थिति बनी हुई है, तो वहीं झारखंड, बंगाल समेत पूर्वी भारत में भारी बारिश की आशंका जताई गई है।मुंबई समेत देश में ऐसे कई इलाके हैं, जहां लगातार अधिक बारिश होने से जलभराव की समस्या हो जाती है और इससे जनजीवन काफी प्रभावित होता है। लेकिन दुनियाभर में कुछ ऐसी जगहें भी हैं जहां साल भर सबसे अधिक बारिश होती है। आज हम आपको इस लेख के माध्यम से भारत समेत दुनिया की ऐसी 5 जगहों के बारे में बताएंगे, जहां सबसे अधिक बारिश होती है।मासिनराम, मेघालयभारत के मेघालय में स्थित मासिनराम एक ऐसा गांव है, जहां दुनियाभर में सबसे अधिक बारिश होती है। मासिनराम एक पहाड़ी स्थान है, जहां हिमालय की चोटियां बंगाल की खाड़ी से आने वाले बादलों को रोक लेती हैं और ये बादल बरस जाते हैं। यहां औसतन सालाना बारिश 11,871 मिलीमीटर होती है।चेरापूंजी, मेघालयचेरापूंजी भी मेघालय में ही स्थित है, जो मासिनराम से करीब 15 किलोमीटर दूर है। चेरापूंजी दुनिया का दूसरा सबसे नम स्थान है और यहां सालाना करीब 11,777 मिलीमीटर तक बारिश होती है। गर्मी के मौसम में भी यहां का तापमान 23 डिग्री तक जाता है और मानसून आते ही जोरदार बारिश से मौसम ठंडा हो जाता है।क्रोप्प नदी, न्यूजीलैंडन्यूजीलैंड में स्थित क्रोप्प नदी 9 किलोमीटर लंबी है। वैसे इस देश में मौसम तो काफी सूखा रहता है, लेकिन क्रोप्प नदी के आसपास के इलाकों में बहुत तेज बारिश होती है। यहां सालाना 11,516 मिलीमीटर बारिश होती है।सैन एंटोनियो, अफ्रीकासैन एंटोनियो डे यूरेका को सिर्फ यूरेका गांव के नाम से भी जाना जाता है। इस गांव को दुनिया के सबसे नम गांव की लिस्ट में शामिल किया गया है। यहां सालाना 10,450 मिलीमीटर बारिश होती है।
- नयी दिल्ली। सूजन वाले गठिया के गंभीर रोग और अवसाद से उबरने में योग एक सहायक चिकित्सा पद्धति साबित हो सकता है। एक नये अध्ययन में यह दावा किया गया है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स), दिल्ली में 66 मरीजों पर 2017 और 2020 के बीच किये गये एक परीक्षण में यह पाय गया कि योग इन मामलों में रोग की गंभीरता को कम करता है और जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाता है। अध्ययन के नतीजे योग को इस गंभीर रोग के इलाज में सहायक पद्धति के रूप में अपनाने का समर्थन करता है। अध्ययन के नतीजों से यह पता चलता है कि योग के बाद रोग से उबरने में मदद मिली। मोलेक्यूलर रिप्रोडक्शन ऐंड जेनेटिक्स, शरीर रचना विज्ञान विभाग, की लैब प्रोफेसर डॉ रीमा डाडा ने बताया कि फ्रंटियर्स इन बायोसाइंस में 2021 में प्रकाशित अध्ययन में रोग से उबरने में योग की भूमिका पर बल दिया गया है। उन्होंने कहा, ‘‘इस अति विशेषज्ञता के युग में मस्तिष्क-शरीर को दुरूस्त करने की जरूरत है। योग सूजन वाले गठिया के रोगी को ठीक करने में सहायक भूमिका निभाने की अपार क्षमता रखता है।'
- कई महीनों बाद आगरा ता ताज महल पर्यटकों के लिए दोबारा खोल दिया गया है, जो दुनिया का एक अजूबा है। क्या आप दुनिया के सात अजूबों के नाम गिना सकते हैं? लीजिए, याद कर लीजिए.. वर्ष 2007 के बाद से ये हैं दुनिया के सात अजूबे, और दो बोनस अजूबे... जानें क्या हैं ये.....ताज महलसाल 2000 में एक सर्वे शुरू हुआ जो सात साल तक चला। उस पोल में करोड़ों लोगों ने हिस्सा लिया और दुनिया के 21 अजूबों में से अपनी पसंद चुनी। सर्वोच्च सात अजूबों में भारत का ताजमहल शामिल हुआ।पेट्राजॉर्डन के पेट्रा को रोज सिटी भी कहते हैं। गुलाबी पहाड़ी को काटकर बनाए गए मंदिरों और मकबरों के इस शहर को यूनेस्को ने इन्सानी सभ्यता और संस्कृति की सबसे कीमती विरासतों में से एक माना है।चीन की दीवारइंसान द्वारा बनाई गई सबसे लंबी इमारत, यह अद्भुत कृति 21 हजार 196 किलोमीटर लंबी है, लेकिन लोग कहते हैं ना कि अंतरिक्ष से सिर्फ चीन की दीवार नजर आती है, वह सच नहीं सिर्फ मिथक है।चिचेन इत्जामेक्सिको के युकातन प्रायद्वीप पर स्थित चिचेन इत्जा सीढिय़ों वाले पिरामिड के लिए मशहूर है। यह माया सभ्यता का राजनीतिक और सांस्कृति केंद्र था।माचू पीचूपेरू का माचू-पिचू प्राचीन इंका शहर में आज भी इन्सानी सभ्यता की कहानी कहता है। हालांकि पर्यटकों की बड़ी तादाद से इस इमारत को नुकसान पहुंच रहा है जो विशेषज्ञों के लिए चिंता की बात है।कोलोसियमइटली का कोलोसियम मौजूदा सात अजूबों में एकमात्र यूरोपीय इमारत है। अब इसे नया रूप दिया जा रहा है और इसका फर्श दोबारा बनाया जा रहा है।ईसा की मूरतब्राजील के रियो डे जेनेरा में खड़ी यह 30 ऊंची मूर्ति 1,145 टन वजनी है। इसकी बाहों का फैलाव 28 मीटर है। इसे 1931 में बनाया गया था।पिरामिडकभी मिस्र के पिरामिड सात अजूबों में शामिल थे लेकिन साल 2007 के बाद से नहीं। संयोगवश दुनिया के सात अजूबे गिनने की परंपरा ग्रीक इतिहासकारों ने ही शुरू की थी लेकिन यह शाहकार अब इनमें शामिल नहीं है, बल्कि पोल में इसे नौवां नंबर मिला।वहीं आठवां नंबर नोएश्वानस्टाइन कासल को मिला।जर्मनी के बवेरिया में 1869 में लुडविग द्वितीय ने यह महल बनवाया था। बहुत मामूली अंतर से यह महल सातवां अजूबा बनते बनते रह गया।-----
- पेइचिंग। चीन में धरती के सबसे बड़े स्तनधारी का 265 लाख साल पुराना अवशेष मिला है। यह जीव दिखने में आज के गैंडों की तरह था। अवशेषों का अध्ययन करने के बाद इस स्तनधारी का वजन हाथी से चार गुना ज्यादा बताया जा रहा है। आधुनिक समय के गैंडों का यह विशालकाय पूर्वज 26.5 मिलियन साल पहले चीन में घूमा करता था। चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंसेज के अनुसार, 26 फीट लंबा और 16 फीट ऊंचा यह जीव धरती का सबसे बड़ा स्तनपायी था।वैज्ञानिकों ने बताया कि Paraceratherium linxiaense नाम के इस विशाल जीव का वजन 24 टन था। यह एक अफ्रीकी हाथी से चार गुना ज्यादा भारी था। अफ्रीका के हाथियों को आज पृथ्वी पर चलने वाला सबसे बड़ा जानवर माना जाता है। 26.5 मिलियन साल पहले बिना सींग वाले ये विशालकाय शाकाहारी जानवर एशिया में घूमते थे।ये जीव पत्तियां, मुलायम पौधे और झाडिय़ों को खाने के लिए एक जंगल से दूसरे जंगल का सफर करते थे। इस विशालकाय जानवर के जीवाश्म अवशेष से पता चलता है कि इसकी गर्दन 23 फीट ऊंचे पेड़ों तक पहुंच जाती थी। जिससे यह उनकी नरम पत्तियों और टहनियों को खाता था। इस जीवाश्म की खोज चीन के गांसु में एक प्रागैतिहासिक कब्रिस्तान में की गई है।चीनी शोधकर्ताओं ने बताया कि इस विचित्र जानवर की खोपड़ी पतली थी। इसकी एक छोटी सूंड और असामान्य रूप से लंबी और मांसल गर्दन थी। यह दोस्ताना व्यवहार रखने वाला एक विशालकाय जीव था। एशियाई महाद्वीप में इन जीवों को प्रागैतिहासिक लकड़बग्घा और विशाल मगरमच्छों का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं, ये जीव हिमयुग के ठंड को भी झेले।इस रिसर्च के प्रमुख लेखक प्रोफेसर ताओ डेंग ने कहा कि इसका वजन 24 टन था, जो चार अफ्रीकी हाथियों या आठ सफेद गैंडों के कुल वजन के समान था। यह लगभग 16 फीट ऊंचा और 26 फीट लंबा है, लंबे पैर दौडऩे के लिए अच्छे थे। इसका ऊंचा सिर पेड़ के शीर्ष पर पत्तियों तक पहुंचने के लिए कुल 23 फीट तक ऊपर उठता था। प्रोफेसर डेंग ने कहा कि इसकी नाक की सूंड शाखाओं के चारों ओर लपेटने के लिए बेहद उपयोगी थी। इसके सामने के तेज दांत पत्तियों और डालियों को काट डालते थे।
- -आधुनिक जीवनशैली भी निकट दृष्टि दोष होने का एक कारण-जो बच्चे घर से बाहर अधिक समय बिताते हैं, उनमें निकट दृष्टि दोष विकसित होने की संभावना कम होती हैलंदन। ब्रिटेन के बच्चों में निकट दृष्टि दोष या मायोपिया बढ़ रहा है और पिछले 50 बरस में निकट दृष्टि दोष से पीडि़त बच्चों की संख्या दोगुनी हो गई है। दुनियाभर की बात करें तो एक अनुमान के अनुसार 2050 तक दुनिया की आधी आबादी निकट दृष्टिदोष का शिकार होगी। हालांकि निकट दृष्टि दोष के कारणों की बात की जाए तो इसका एक कारण पारिवारिक हो सकता है और दूसरा पर्यावरण से जुड़ा है, जो बच्चे के बहुत अधिक समय तक घर के भीतर रहने की वजह से हो सकता है।ज्यादातर लोगों में, निकट दृष्टि दोष आनुवांशिकी और पर्यावरणीय दोनों कारकों के मिश्रण से विकसित होता है। लेकिन ऐसे प्रमाण मिले हैं कि आधुनिक जीवनशैली भी निकट दृष्टि दोष होने का एक कारण हो सकती है। हालांकि वैज्ञानिक अभी भी पूरी तरह से निश्चित नहीं हैं कि ऐसा क्यों होता है। उदाहरण के लिए, शोध से पता चलता है कि बच्चा जितना समय घर से बाहर बिताता है, वह निकट दृष्टि दोष विकसित करने के उनके जोखिम में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। अधिकांश अध्ययनों से पता चलता है कि जो बच्चे घर से बाहर अधिक समय बिताते हैं, उनमें निकट दृष्टि दोष विकसित होने की संभावना कम होती है। इसी तरह जिन बच्चों को स्कूल के घंटों के दौरान घर से बाहर अधिक समय बिताना पड़ता है, उनमें निकट दृष्टि दोष की शुरुआत की दर घर से बाहर समय नहीं बिताने वाले बच्चों की तुलना में कम होती है। लेकिन शोधकर्ता अभी भी निश्चित नहीं हैं कि ऐसा क्यों है।एक सिद्धांत यह है कि घर के भीतर के मुकाबले बाहर के प्रकाश का उच्च स्तर हमारे रेटिना रिसेप्टर्स (आंखों में प्रकाश संकेतों को संसाधित करने वाली नसें) में अधिक डोपामाइन जारी करता है, जिससे निकट दृष्टि दोष होने की आशंका कम होती है। एक अन्य सुझाव यह है कि बच्चों द्वारा आमतौर पर घर से बाहर की जाने वाली ढेरों शारीरिक गतिविधियां उनकी आंखों में दृष्टिदोष को पनपने से रोकती हैं। हालांकि अध्ययन यह भी बताते हैं कि इसका प्रभाव बहुत ही कम होता है। यह भी सुझाव दिया गया है कि हम घर के भीतर और बाहर जो जो देखते हैं वह भी नजर कमजोर होने की एक वजह हो सकती है। उदाहरण के लिए, एक अध्ययन से पता चलता है कि घर के भीतर सादा साधारण वातावरण और दीवारें देखते रहने से दृष्टिदोष हो सकता है। हो सकता है कि शहरी क्षेत्रों में इसी वजह से निकट दृष्टि दोष अधिक आम हो । हालांकि, इसे समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है।यह सच है कि आधुनिक जीवन शैली में अक्सर हमें अपना बहुत सारा समय घर के अंदर बिताना होता है। उदाहरण के लिए, स्कूल छोडऩे की उम्र अब पहले से ज्यादा हो चुकी है और उच्च शिक्षा ग्रहण करने वालों की संख्या में भी इजाफा हुआ है, जिससे बच्चे औपचारिक शिक्षा में अधिक समय व्यतीत कर रहे हैं, जो दृष्टिदोष का एक कारण हो सकता है। यद्यपि ब्रिटेन में बच्चों पर इसके प्रभाव को लेकर अभी तक कोई अध्ययन नहीं किया गया है, लेकिन अन्य स्थानों पर पूर्व में मिले प्रारंभिक परिणाम बताते हैं कि महामारी अधिक बच्चों में दृष्टिदोष विकसित करने का कारण बन सकती है - लेकिन एक अनुमान है कि इसका प्रभाव कम ही होगा। अभी यह देखा जाना बाकी है कि क्या महामारी दृष्टिदोष में स्थायी वृद्धि का कारण बन सकती है। फिलहाल तो बच्चों में दृष्टिदोष का जोखिम कम करने के लिए सबसे अच्छी सलाह यह है कि वह दिन में कम 40 मिनट घर से बाहर बिताएं।
- कोरोना महामारी के समय में तमाम तरह की शोध चल रही हैं, उन्हीं में से एक शोध के नतीजे चौंकाने वाले रहे हैं. जानकारी के मुताबिक कैनेरीज (Canaries) नाम केपीले और नारंगी रंग के ये खूबसूरत पक्षी जब भी अपने आसपास किसी बीमार पक्षी को देखते हैं तो इनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता खुद-ब-खुद उस बीमारी के लिए सक्रिय हो जाती है. वह भी सिर्फ देखने भर से.बायोलॉजी लेटर्स पर प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक एक पक्षी ऐसा है जो अपने आसपास किसी पक्षी को सिर्फ बीमार देखता है तो उसके शरीर की इम्यूनिटी सक्रिय हो जाती है. ये अजूबे से कम नहीं है. यूनिवर्सिटी ऑफ कनेक्टीकट की डिजीस इकोलॉजिस्ट एश्ले लव कहती हैं कि यह अद्भुत खोज है. उन्होंने कहा कि कुछ पुरानी स्टडीज ये बताती है कि संभावित बीमारी के खतरे को देखकर इन पक्षियों के इम्यून सेल्स यानी प्रतिरोधक कोशिकाएं सक्रिय हो जाती हैं.एश्ले लव का कहना है कि इंसानों पर हुए एक एक्सपेरीमेंट से यह पता चलता है कि सिर्फ किसी बीमार शख्स की फोटो देखने से शरीर में इन्फ्लेमेशन स्टिमुलेटिंग केमिकल्स साइटोकाइन्स सक्रिय हो जाते हैं. शरीर में इनकी गतिविधियां बढ़ जाती हैं.एश्ले लव और उनके साथियों ने 10 कैनरीज को माइकोप्लाज्मा गैलीसेप्टीकम दिया गया. जिससे वो सुस्त हो गए. इस दौरान एक कैनरी को वायरस से संक्रमित किया गया. और बाकियों को उनके साथ छोड़ दिया गया.एश्ले लव की टीम को हैरान कर देने वाले नतीजे देखने को मिलते हैं. एक बीमार पक्षी को देखकर बाकी के 9 कैनरीज पक्षियों के शरीर में इम्यूनिटी बढ़ जाती है. बीमारी के घुसपैठ की आशंका को भांपते हुए इन कैनरीज पक्षियों के शरीर में CH50 नाम की प्रक्रिया होती है. इन 9 पक्षियों के शरीर में सफेद रक्त कोशिकाओं की मात्रा बढ़ जाती है. हालांकि इनके शरीर में साइटोकाइन्स की मात्रा में ज्यादा अंतर नहीं आता. खून की जांच में पता चलता है कि 9 स्वस्थ कैनरीज के शरीर में MG बैक्टीरिया नहीं मिला.
- जापान में ऐसी आइसक्रीम खाई जाती हैं, जो दुनिया में कहीं नहीं मिलती। आइसक्रीम के दीवाने इस देश में स्वादों की फेहरिस्त बहुत अनोखी है। ना पिघलने वाली आइसक्रीम भी है। जापान में जितनी तरह की आइसक्रीम मिलती है, उसकी लज्जत का कोई जवाब नहीं। सोया सॉस से लेकर लहसुन, ईल और शार्क के पंख जैसे फ्लेवर्स भी उपलब्ध हैं। लेकिन ना पिघलने वाली आइसक्रीम तो जापानी जीनियस का गजब ही उदाहरण है, लेकिन आइसक्रीम बनाने में जापान का कौशल यहां से तो शुरू होता है।जापान में तापमान बढऩा शुरू हो गया है और लोग उमस के लिए तैयार हो रहे हैं, लेकिन वे परेशान नहीं, खुश हैं क्योंकि आइसक्रीम खाने को मिलेगी। अब से सितंबर तक, जैसे- जैसे तापमान बढ़ेगा, जापान में आइसक्रीम की बिक्री बढ़ेगी। इस द्वीप पर आइसक्रीम 1878 में पहुंची थी जब किसी विदेशी नाविक व्यापारी ने योकोहोमा को इसका स्वाद पहली बार चखाया था, लेकिन तब से आइसक्रीम ऐसी बसी कि अब यहीं की हो गई है। इसके विशाल घरेलू ब्रैंड्स हैं जो हागेन-डाज जैसे अंतरराष्ट्रीय ब्रैंड्स को तगड़ा मुकाबला देते हैं और इसका राज है वे घरेलू नए फ्लेवर्स जो जापानियों ने तैयार किए हैं। वजह तो पता नहीं, पर ये ज्यादातर घरेलू कंपनियां ऐतिहासिक शहर कानाजावा में स्थित हैं जिसे जापान की आइसक्रीम कैपिटल भी कहते हैंकानाजावा स्थित यामाटो सोया सॉस एंड मीजो कंपनी के प्रवक्ता ईजी ताशिरो कहते हैं, "वैसे तो हम मसाले बनाने वाली कंपनी हैं लेकिन 15 साल पहले हमने कुछ अलग करने की कोशिश की हमने सोचा कि जैसे जापानी लोग पारपंरिक चीजों जैसे सोया और मीजो को पसंद करते हैं, तो क्यों ना इन्हें आइसक्रीम में डालकर देखा जाए " और नतीजा था, सोया सॉस फ्लेवर वाली वनीला आइसक्रीम. डीडब्ल्यू से बातचीत में ताशिरो ने बताया कि प्रयोग बेहद सफल रहा है वह कहते हैं, "मुझे लगता है कि पहली बार ट्राई करने पर ज्यादातर लोग हैरान होते हैं इसका स्वाद सोया सॉस जैसा तो नहीं है आइसक्रीम में यह कैरामल जैसी ज्यादा लगती है। " अपने कासल और पारंपरिक बागों के लिए मशहूर इस शहर में थोड़ा बहुत घूमकर ही पता चल जाता है कि क्यों लोग कानाजावा का नाम आइसक्रीम के साथ लेते हैं। यहां आपको आइसक्रीम मिलेगी, जिस पर स्वर्ण भस्म से लेकर होजिचा ग्रीन टी तक छिड़क कर दी जाती हैं। राइस वाइन के फ्लेवर वाली आइसक्रीम भी है और, नाकातानी तोफू कंपनी तोफू आइसक्रीम भी बनाती है। बसंत में खूब पसंद किए जाने वाला फ्लेवर है चेरी ब्लॉसम या फिर भुनी शकरकंद भी।न पिघलने वाली आइसक्रीम भी कानाजावा में ही बनाई गई थी। हालांकि यह एक हादसे के चलते हुए था। बताते हैं कि बायोथेरेपी डिवेलपमेंट रिसर्च सेंटर कंपनी और कानाजावा यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक मिलकर स्ट्रॉबरी पॉलीफिनोल पाउडर से एक कुदरती स्वास्थ्यवर्धक फ्लेवर बनाने पर काम कर रहे थे, लेकिन उन्होंने देखा कि जब इसे पानी के साथ मिलाकर जमाया गया तो जो बना उसमें और आइसक्रीम में फर्क करना मुश्किल था और यह पिघल नहीं रहा था।अप्रैल 2017 में इसे कानाजावा आइसक्रीम कंपनी ने पहली बार बाजार मे उतारा था और अब यह अलग-अलग आकारों और स्वादों में उपलब्ध है। गर्मी शुरू होते ही टोक्यो के सनशाइन सिटी में एक आइसक्रीम थीम पार्क खोला जाता है, जहां पूरे जापान के कुल्फी वाले जमा होते हैं और अपने-अपने यहां के स्वाद लेकर आते हैं जो एक दूसरे से एकदम भिन्न हैं.। जैसे कि दक्षिणी जापान की घोड़े के कच्चे मांस के फ्लेवर वाली आइसक्रीम. या फिर मध्य जापान के धान के खेतों से चावल के स्वाद वाली कुल्फी। नागोया से आती है चिकन विंग के फ्लेवर वाली आइसक्रीम। कहीं मिर्ची वाली तीखी आइसक्रीम है तो केकड़ा, झींगा, बैंगन, काली चीनी और लहसुन का स्वाद भी उपलब्ध है।--
- अभी हाल ही में अपने देश में इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च यानी आईसीएमआर ने रैपिड एंटीजन टेस्ट को मंजूरी दी थी। साथ ही एक एडवाइजरी भी जारी की थी, जिसमें मायलैब कोविड-19 होम टेस्ट को घर पर करने का तरीका और सावधानी के बारे में बताया गया था। अब एक और नई तकनीक कोरोना (कोविड-19) की जांच के लिए सामने आई है। ये तकनीक इजरायल में पेश की गई है। इजराइल के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक का विकास किया है, जिसके माध्यम से आसानी से कोरोना की जांच की जा सकती है। इस तकनीक का नाम है 'इलेक्ट्रिक नाक' । वैज्ञानिकों ने यह दावा किया है कि इस नाक के प्रयोग से 94 फीसदी तक कोरोना के सही परिणाम सामने आएंगे।कैसे काम करती है इलेक्ट्रिक नाक?बता दें कि यह तकनीक विजन इंस्टीट्यूट इजरायल के वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई है। उन्होंने जानकारी दी है कि यह एक 3 डी प्रिंटेड इलेक्ट्रॉनिक नाक है, जिसे नाक में लगाकर प्रयोग किया जा सकता है। जब कोरोना संक्रमित नाक को अपनी नाक में लगाता है तो नाक के अंदर जो रसायन मौजूद होते हैं उनकी इलेक्ट्रिक नोज जांच करके परिणाम बताता है कि मरीज सकारात्मक है या नकारात्मक। अब सवाल यह है कि वह रसायन की स्मैल को यह नोज को कैसे पहचानते हैं? बता दें कि शोधकर्ताओं के अनुसार, हर बीमारी की अपनी एक खुशबू होती है। ऐसे में उस खुशबू से शरीर के मेटाबॉलिक प्रोसेस में बदलाव होता है। इसी फार्मूले का इस्तेमाल नई जांच को तैयार करने के दौरान किया गया है। ऐसे में यह पेन नाक में वोलेटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स की जांच करने में कारगर है।यह एक लंबी ट्यूब की तरह होती है, जिसमें खास सेंसर लगे हैं। ऐसे में यह नाक के अंदर मौजूद वायरस का पता लगाती है इसलिए इसका नाम पेन 3 रखा गया है।कैसे की गई इस नई तकनीक की जांच?इस नई तकनीक की जांच के लिए 503 लोगों की मदद ली गई। उन लोगों से इलेक्ट्रिक नोज देकर सूंघने के लिए कहा गया, जिसके दौरान 27 लोगों की रिपोर्ट कोरोना वायरस पॉजिटिव आई। ये जानकारी नई तकनीक ने एक दम सटीक दी है। प्रोफेसर सोबेन के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, इस तकनीक का प्रयोग हम भीड़ वाले इलाकों में कर सकते हैं। इसके अलावा एयरपोर्ट पर भी इस तकनीक में इसका इस्तेमाल करना सुरक्षित है।
- नॉटिंघम (ब्रिटेन)। हमारे सौरमंडल की दशकों से जारी खोज में हमारे पड़ोसी ग्रहों में से एक शुक्र ग्रह की हर बार अनदेखी की गई या उसके बारे में जानने-समझने के बहुत ज्यादा प्रयास नहीं किए गए लेकिन अब चीजें बदलने वाली हैं। नासा के सौरमंडल खोज कार्यक्रम की ओर से हाल में की गई घोषणा में दो मिशनों को हरी झंडी दी गई है और ये दोनों मिशन शुक्र ग्रह के लिए हैं। इन दो महत्वाकांक्षी मिशनों को 2028 से 2030 के बीच शुरू किया जाएगा।नासा के ग्रह विज्ञान विभाग के लिए एक महत्त्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है क्योंकि उसने 1990 के बाद से शुक्र ग्रह तक किसी मिशन को नहीं भेजा है। यह अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के लिए उत्साहित करने वाली खबर है। शुक्र ग्रह पर परिस्थितियां प्रतिकूल हैं। उसके वातावरण में सल्फरिक एसिड है और सतह का तापमान इतना गर्म है कि सीसा पिघल सकता है। लेकिन यह हमेशा से ऐसा नहीं रहा है। ऐसा माना जाता है कि शुक्र ग्रह की उत्पत्ति बिलकुल धरती की उत्पत्ति के समान हुई थी। तो आखिर ऐसा क्या हुआ कि वहां की परिस्थितियां धरती के विपरीत हो गईं? धरती पर, कार्बन मुख्यत: पत्थरों के भीतर मुख्य रूप से फंसी हुआ है जबकि शुक्र ग्रह पर यह खिसकर वातावरण में चला गया जिससे इसके वातावरण में तकरीबन 96 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड है। इससे बहुत ही तेज ग्रीनहाउस प्रभाव उत्पन्न हुआ जिससे सतह का तापमान 750 केल्विन (470 डिग्री सेल्सियस या 900 डिग्री फारेनहाइट) तक चला गया है। ग्रह का इतिहास ग्रीनहाउस प्रभाव को पढऩे और धरती पर इसका प्रबंधन कैसे किया जाए, यह समझने का बेहतरीन मौका उपलब्ध कराएगा। इसके लिए ऐसे मॉडलों का इस्तेमाल किया जा सकता है जिसमें शुक्र के वायुमंडल की चरम स्थितियों को तैयार किया जा सकता है और परिणामों की तुलना धरती पर मौजूदा स्थितियों से कर सकते हैं।
- हम अब केवल बोलकर बातें नहीं करते, रोजाना काफी बातें मैसेज या चैट में लिखकर भी होती हैं और ऐसी बातचीत में भावनाओं को खुलकर जाहिर करने के लिए इमोजी सबसे बड़ा सहारा होती है। इंस्टाग्राम, फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर भी हम अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए जमकर इमोजी का इस्तेमाल करते हैं। कहा जाता है कि एक तस्वीर हजार शब्दों के बराबर प्रभावशाली होती है, वैसे ही एक इमोजी उस बात को आसानी से जाहिर कर देती है, जिसके लिए हमें सैकड़ों अक्षर टाइप करने पड़ते।अगर आप भी इमोजी के शौकीन हैं तो आपने यकीनन ध्यान दिया होगा कि पिछले कुछ सालों में कई नई इमोजी हमारे चैटिंग की-बोर्ड में शामिल की गई है। इनका मकसद हमारी डिजिटल बातचीत में लैंगिक, उम्र से जुड़े और नस्लीय भेदभाव को मिटाना है। वैसे अगर आप ध्यान न दे सके हो तो अभी अपना चैटिंग की-बोर्ड खोलिए और इमोजी के 'स्माइली एंड पीपल' सेक्शन में सांता क्लॉज को खोजिए।महिला-पुरुष और बिना जेंडर वाले सैंटा को बनाने वाली कौन?आपको इमोजी में तीन तरह के सैंटा मिलेंगे। एक मर्द (मिस्टर क्लॉज), एक महिला (मिसेज क्लॉज) और एक ऐसा सैंटा जिसे स्पष्ट तौर पर महिला या पुरुष दोनों नहीं समझा जा सकता यानि मक्स क्लॉज (अपनी लैंगिक पहचान व्यक्त न करने वाले व्यक्ति के लिए संबोधन)। इन अलग-अलग जेंडर वाले सैंटा की त्वचा के रंग को भी आप अपने मनमुताबिक बना सकते हैं। यह बदलाव इसलिए किया गया है ताकि सभी जेंडर और नस्ल वाले लोगों को चैटिंग की-बोर्ड में जगह दी जा सके।अब सवाल यह उठता है कि दुनिया में जितनी तरह के लोग हैं, सबकी चैटिंग की-बोर्ड में जगह बन सके इसके लिए अपना दिमाग कौन खर्च करता है, तो उस महिला का नाम है जेनिफर डेनियल। वर्तमान में जेनिफर 'इमोजी सबकमेटी फॉर द यूनिकोड कंसोर्टियम' की प्रमुख हैं। यही संस्था हमारे चैट बॉक्स की इमोजी डिजाइन करने के लिए जिम्मेदार है। जेनिफर समानता को बढ़ाने वाली और विचारोत्तेजक इमोजी की पक्की समर्थक हैं। मिस्टर क्लॉज, मिसेज क्लॉज और मक्स क्लॉज वाली इमोजी के पीछे उन्हीं का दिमाग है।अब कोरोना के बाद की दुनिया के लिए इमोजी बना रहीं जेनिफरफिलहाल जेनिफर कोरोना महामारी के बाद की दुनिया को एक इमोजी के जरिए दिखाने के मिशन पर हैं। इसके लिए वे न सिर्फ साधारण लोगों से सुझाव ले रही हैं बल्कि अपने काम में आम लोगों की सलाह भी ले रही हैं। वे पूछ रही हैं कि वे जो डिजाइन बना रही हैं, वे महामारी के बाद के माहौल को दिखाने में सक्षम हैं या नहीं। जेनिफर कहती हैं, 'ऐसी इमोजी का पहले से मौजूद कोई नमूना नहीं है. यह न सिर्फ मेरे लिए बल्कि इंसानी बातचीत के भविष्य के लिए भी उत्साहभरा काम है।'हाल ही में उनका एक इंटरव्यू इकॉनॉमिक टाइम्स पर प्रकाशित हुआ। जिसमें 'इमोजी हमारे लिए इतनी जरूरी क्यों हैं' सवाल के जवाब में जेनिफर का कहना था, 'मेरी समझ कहती है कि हम 80त्न समय बिना कुछ बोले खुद को व्यक्त करते हैं। जब हम बोलते भी हैं तो इसके कई तरीके होते हैं. हम चैटिंग उस तरह करते हैं, जैसे हम बातचीत करते हैं। इस दौरान हम अनौपचारिक और लापरवाह होते हैं। इस दौरान आप टाइप करते-करते थकें तो इमोजी से अपनी बात कह दें। ' (डीडब्ल्यू से साभार)
- कोरोना वायरस और लॉकडाउन के कारण दुनिया भर की एयरलाइंस कंपनियों पर भी बुरा असर पड़ा है। जानते हैं दुनिया भर की एयरलाइंस कंपनियों की क्या स्थिति है-लुफ्थांसाजर्मन एयरलाइन कंपनी लुफ्थांसा को कोरोना वायरस के चलते 2020 की छमाही में करीब तीन अरब यूरो का घाटा हुआ। लुफ्थांसा प्रमुख कास्र्टन स्पोर कहते हैं कि कंपनी को लंबे समय के लिए अपना आकार छोटा करना होगा। जर्मनी में ही कंपनी की 11 हजार नौकरियां खतरे में हैं।क्वांटसऑस्ट्रेलिया की सबसे बड़ी एयरलाइन कंपनी क्वाटंस एलान कर चुकी है कि वह 2023 तक दुनिया के सबसे बड़े यात्री विमान एयरबस ए380 को बिल्कुल नहीं उड़ाएगी । कंपनी 6,000 नौकरियां खत्म कर चुकी है , बाकी बचे स्टाफ में भी ज्यादातर लोग कुछ ही घंटों के लिए काम कर रहे हैं ।इंडिगोभारत की सबसे बड़ी एयरलाइन कंपनी इंडिगो ने अपने स्टाफ में 10 फीसदी कटौती का एलान किया है। भारत में कोरोना का प्रकोप अभी तक खत्म नहीं हुआ है। कंपनी जबरदस्त कॉस्ट कटिंग मोड में भी चली गई है।रायनएयरयूरोप की चोटी की किफायती एयरलाइन कंपनी रायनएयर को इस साल के पहले छह महीनों में टिकट बिक्री में 95 फीसदी गिरावट देखनी पड़ी। सस्ते टिकट वाली आइरिश कंपनी को पहली बार नुकसान झेलना पड़ा है। इस साल कंपनी को अपने 19,000 कर्मचारियों में से सिर्फ 3,000 को चुनना पड़ा।इंटरनेशनल एयरलाइंस ग्रुप (आईएजी)ब्रिटिश स्पैनिश ग्रुप का ऑपरेटिंग लॉस 1.37 अरब यूरो है. इसकी सहायक कंपनी ब्रिटिश एयरवेज में 12,000 नौकरियों पर तलवार लटक रही है. ग्रुप की बाकी एयरलाइंस में बड़ी संख्या में नौकरियां जाना तय है.एयर फ्रांस-केएलएमफ्रेंच डच एयरलाइन ग्रुप को 1.55 अरब यूरो का नुकसान हुआ है। पिछले साल की पहली छमाही के मुकाबले 2020 में टिकट सेल 85 फीसदी गिरी है। ग्रुप 7, 580 नौकरियां खत्म करने जा रहा है। डच एयरलाइन केएलएम तो 2022 तक 33,000 फ़ुल टाइम जॉब्स में 5,000 को खत्म करने जा रही है।ईजीजेटब्रिटेन की बजट एयरलाइन ईजीजेट को अप्रैल, मई और जून में ही 36 करोड़ यूरो का घाटा हुआ है। एयरलाइन के 315 विमानों के बेड़े में से सिर्फ 10 ही इस्तेमाल हुए। ईजीजेट ने चेतावनी दी है कि उसे 4,500 नौकरियां खत्म करनी पड़ सकती हैं।नॉर्वेजियनसस्ते टिकट बेचने वाली नॉर्वे की यह एयरलाइन कंपनी अपने आंकड़े अगस्त अंत में पेश करेगी। स्वीडन और डेनमार्क में इसकी सहायक कंपनियां अप्रैल से बंद हैं। पायलटों और केबिन क्रू को मिलाकर 4,700 नौकरियां धार पर हैं।एसएएसडैनिश एयरलाइन ग्रुप में आधी यानि करीब 5,000 नौकरियां खतरे में हैं। डेनमार्क, स्वीडन और वालेनबेर्ग फाउंडेशन जैसे बड़े शेयर होल्डरों ने कंपनी को बचाने के लिए एक रेस्क्यू पैकेज का एलान किया है।विजहंगरी की लो कॉस्ट एयरलाइन विज को पहले ही हो चुकी बुकिंग से राहत मिली. अप्रैल से जून के बीच कंपनी को 90 लाख यूरो का फायदा हुआ, लेकिन उसके बाद से नुकसान ही हो रहा है। कंपनी के 20 फीसदी कर्मचारियों लग रहा है कि उन्हें सेवा समाप्ति का लेटर मिल सकता है।कोंडोरजर्मन हॉलिडे एयरलाइन की पैरेंट कंपनी थॉमस कुक 2019 में दिवालिया हो गई। अब कोंडोर अलग कंपनी है। एयरलाइन को लगता है कि वह अपने स्टाफ में कटौती किए बिना कोरोना संकट से निकल जाएगी। कंपनी ने अपने आंकड़े जारी नहीं किए हैं।
- दुनिया में सबसे ज्यादा कौन सा फल खाया जाता है ... आम, सेब, केला, तरबूज, अंगूर या संतरा? इनमें से कोई नहीं, हो सकता है दुनिया के सबसे पसंदीदा फल का नाम सुनकर आप चौंक जाएं?1. टमाटरटमाटर दुनिया में सबसे ज्यादा खाया जाने वाला फल है. आप सोच रहे होंगे कि टमाटर तो फल नहीं है बल्कि एक सब्जी है. नहीं, टमाटर असल में एक फल है। दुनिया भर में हर साल करोड़ो टन टमाटर का उत्पादन होता है और सबसे अधिक इसका इस्तेमाल भी होता है, फिर वह सब्जी, , सलाद या फिर सॉस के रूप में। 2019 में इसका वैश्विक उत्पादन 18 करोड़ टन से अधिक था।2. केलादुनिया का दूसरा सबसे पसंदीदा फल केला है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन का कहना है कि 2019 में केले का वैश्विक उत्पादन 11.6 करोड़ टन रहा। इसमें आधे से ज्यादा केले एशियाई देशों में उगाए गए। असल केले की खेती गर्म जलवायु में ही होती है।3. तरबूजगर्मी के दिनों में ठंडा-ठंडा तरबूज तरोताजा कर देता है। दुनिया में कम ही लोग होंगे जिन्हें तरबूज पसंद ना हो। इसीलिए 2019 में तरबूज 10 करोड़ टन के साथ तीसरा सबसे पसंदीदा फल रहा। दिलचस्प बात यह है कि दुनिया का अस्सी फीसदी तरबूज एशियाई देशों में उगता है।4. सेबसेब एशिया से लेकर अमेरिका तक हर महाद्वीप में उगाया और पसंद किया जाने वाला फल है। वर्ष 2019 में सेबों का वैश्विक उत्पादन 8.7 करोड़ टन का उत्पादन हुआ। इस तरह यह दुनिया का चौथा सबसे पसंदीदा फल है। फल के तौर पर खाए जाने के अलावा इसका इस्तेमाल जूस और कई दूसरे पेय बनाने में भी होता है।5. अंगूरना सिर्फ फल के तौर पर अंगूर की बहुत खपत है, बल्कि उसका इस्तेमाल दुनिया की महंगी शराब बनाने में होता ह। इसीलिए यह भी दुनिया के टॉप 5 पसंदीदा फलों में शामिल है। 2019 में अंगूर के वैश्विक 7.7 करोड़ टन उत्पादन में एशिया (34.6 प्रतिशत) और यूरोप (37.8 प्रतिशत) की हिस्सेदारी लगभग बराबर रही है।6. संतरेसबसे पसंदीदा फलों की सूची में संतरों को छठे स्थान पर रखा जा सकता है। 2019 में दुनिया भर में 7.8 करोड़ टन संतरों का उत्पादन हुआ। संतरों के उत्पादन में एशिया के 39.8 प्रतिशत के बाद अमेरिका और लैटिन अमेरिका (39.5 प्रतिशत) का स्थान आता है। यूरोप में इटली, स्पेन, फ्रांस और पुर्तगाल में संतरे होते हैं।7. आम, अमरूद और मैंगोटीनआम के शौकीन इस सूची में अपने पसंदीदा फल का इतंजार कर रहे होंगे? तो आम, अमरूद और मैंगोटीन का कुल वैश्विक उत्पादन 2019 में 5.5 करोड़ टन रहा। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने तीनों फलों को एक श्रेणी में रखा है। मैंगोटीन दक्षिण पूर्व एशिया के साथ साथ दक्षिण पश्चिम भारत में भी उगता है।