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योजना ले आत्मनिर्भरता अउ रोजगार के मिलही लाभ
विशेष लेखः- तेजबहादुर सिंह भुवाल
छत्तीसगढ़ मं ये बखत हरेली तिहार म खुशहाली डबल होही। राज्य शासन ह महत्वाकांक्षी योजना ‘‘गोधन न्याय योजना’’ के शुरूआत जो करत हे। गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ राज्य के सपना ला साकार करे बर छत्तीसगढ़ म पाछू साल हरेली तिहार म सामान्य छुट्टी देके प्रदेश के सबो लोगन ला भेंट दे रीहिस। ‘‘सुराजी गांव योजना’’ चालू करके किसान मन बर उखर नदाये लोक संस्कृति अउ पारंपरिक चार चिन्हारी ला वापस लाईस हे। इही योजना ला आगे बढ़ा के गोधन न्याय योजना ले किसान मन ला रोजगार के अवसर अउ आर्थिक रूप ले लाभ पहुंचाय बर चालू करत हे। गोठान म गोवंशीय अउ भैंसवंशीय पशु के पालक मन ले गोबर ला शासकीय दर 2 रूपया किलो खरीदे के शुरूआत करत हे। इही गोबर ला गुणवत्ता युक्त वर्मी कम्पोस्ट खाद बनाके 8 रूपया किलो में बेचे जाहीं। येखर बर गांव-गांव में बनाए गौठान म स्व सहायता समूह मन काम कराही। किसान अउ मजूदर मन ला ऐखर ले रोजगार अउ आर्थिक फायदा मिलही।
योजना ले जैविक खेती ला बढ़ावा मिलही, गांव अउ शहर म रोजगार घलो मिलही, गौपालन अउ गौ-सुरक्षा ला प्रोत्साहन के संगे-संग पशुपालक मन ला आर्थिक लाभ प्राप्त होही। राज्य के महात्वाकांक्षी ‘‘सुराजी गांव योजना’’ के अंतर्गत नरवा, गरवा, घुरवा अउ बाडी के संरक्षण अउ संर्वधन करे जावत हे। येखर बर सबे गांव म गौठान बनाए जाए के काम शुरू हवय।
शासन ह गोधन न्याय योजना लागू करके पशुपालक मन के आय मं वृद्धि, पशुधन विचरण अउ खुल्ला चरई म रोक, जैविक खाद के उपयोग ला बढ़ावा अउ रासायनिक खातू के उपयोग म कमी लाना चाहत हे। खरीफ अउ रबी फसल सुरक्षा होही अउ दु फसली रकबा ह बाडही, स्थानीय स्तर म जैविक खाद के उपलब्धता बनाये बर, स्थानीय स्व सहायता समूह ला रोजगार दे बर, भुइंया ल अउ उपजाउ बनाए बर, विष रहित अन्न उपजाए बर अउ सुपोषण ल बढ़ाए बर जोर देवत हे। गोठान में स्व सहायता समूह द्वारा कई प्रकार के सामग्री बनाए जाही। ऐमा दुग्ध, सब्जी, वर्मी खाद अउ गोबर ले कई प्रकार के समान बना के बेचे जाही।
हमन सभे झन जानथन की देश मा कोरोना वायरस महामारी के आये ले रोजगार, काम-बूता के कमी होगे हे। बड़े संख्या मा मजदूर भाई मन हा अलग-अलग शहर में कमाये-खाये बर गे रीहिस। उहा ले ओमन वापस गांव आवत हे। ओ मन आ तो गे हे फेर काम-बूता बर चिन्ता-फिकर सतावत हे। छत्तीसगढ़ सरकार हा सबेझन के दुख-दर्द दूर करे बर हर संभव प्रयास करते हे। गांव-गांव मा मजदूर मन के पंजीयन करावत हे, जेखर ले ओखर मन बर पर्याप्त काम-बूता दे सकय। मजदूर मन बर उखर योग्यता के अनुसार काम दे जाही। राज्य के महत्वाकांक्षी योजना नरवा, गरूवा, घुरूवा व बाडी के माध्यम से मनरेगा अउ स्व सहायता समूह में सबे ला जोड़े के काम चलत हे। ऐखरे सगे-संग गोधन न्याय योजना से गोठान मा बड़े संख्या मा रोजगार उपलब्ध कराये जाही। कोनो मजदूर, किसान ला गांव-शहर छोड़ के जाए के जरूरत नई पड़ये। सभे झन ला पर्याप्त काम-बूता मिलही।
त बताओ संगवारी हो ये सब खुशी मिलही त हमर पहिली हरेली तिहार ला बने मनाबो ना। तिहार ला खेती-किसानी के बोअई, बियासी के बाद बने सुघ्घर मनाबो। जेमा नागर, गैंती, कुदारी, फावड़ा ला चक उज्जर करके अउ गौधन के पूजा-पाठ करके संग मा कुलदेवी-देवता ला सुमरबो। धान के कटोरा छत्तीसगढ़ महतारी ला, हमर खेती-किसानी के उन्नति अउ विकास बर सुमरबो।
ऐसो गांव मा घरो-घर गुड़-चीला, फरा के संग गुलगुला भजिया, ठेठरी-खुरमी, करी लाडू, पपची, चौसेला, अउ बोबरा घलो बनही। जेखर ले हरेली तिहार के उमंग अउ बढ़ जाही। ये साल हरेली अमावस्या सावन सोमवार के पड़त हे। सब किसान भाई मन अपन किसानी औजार के पूजा-पाठ कर गाय-बैला ला दवई खवाही, ताकि वो हा सालभर स्वस्थ अउ सुघ्घर रहाय। ये दिन गाय-गरवा मन ला बीमारी ले बचाय बर बगरंडा, नमक खवाही अउ आटा मा दसमूल-बागगोंदली ला मिलाके घलो खवाये जाही। ये दिन शहर के रहईयां मन घलो गांव जाके तिहार ला मनाथे।
हरेली तिहार मा लोहार अउ राऊत मन घरो-घर मुहाटी मा नीम के डारा अउ चौखट में खीला ठोंकही। मान्यता हे कि अइसे करे ले ओ घर म रहैय्या मन के विपत्ति ले रक्षा होथे। हरेली अमावस ला गेड़ी तिहार के नाम से घलो जाने जाथे। ये दिन लईका मन बांस में खपच्ची लगाके गेड़ी खपाथे। गेड़ी मा चढ़के लईका मन रंग-रंग के करतब घलो दिखाते अउ लईका मन अपन साहस और संतुलन के प्रदर्शन घलो करथे। राज्य शासन हा पाछू साल ले गांव मा विशेष आयोजन करत हे, जेमा गांव मा लईका मन बर गेड़ी दउड़, खो-खो, कबड्डी, फुगड़ी, नरियल फेक अउ सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन घलो करे जाथे।
छत्तीसगढिया मन ल हरेली तिहार के गाड़ा-गाड़ा बधई, जय छत्तीसगढ़ महतारी। - -मखमली आवाज की मलिका मुबारक बेगम का मुफलिसी में बीता उम्र का अंंतिम पड़ाव(पुण्यतिथि पर विशेष)नींद उड़ जाए तेरी चैन से सोने वालेये दुआ मांगते हैं नैन ये रोने वालेनींद उड़ जाए तेरी..ये गीत 1968 में आई फिल्म जुआरी का है। इस गीत को आवाज़ देने वाली हिन्दी फिल्मों की मशहूर गायिका मुबारक बेगम की आज पुण्यतिथि है। मुबारक बेगम का एक और गाना काफी लोकप्रिय रहा- कभी तन्हाइयों में यूं हमारी याद आएगी...। आज से चार साल पहले 18 जुलाई 1916 को मखमली आवाज की मलिका मुबारक बेगम में अंतिम सांस ली।मुबारक बेगम जिनकी आवाज़ सुनकर बिजलियां कौंध जाती हैं, दिल थम जाता है। 1950 से 1970 के बीच उनकी आवाज़ से हिंदी सिनेमा की गलियां रोशन थीं। उस दौर में शंकर-जयकिशन, खय्याम, एसडी बर्मन जैसे बड़े संगीतकारों के सुरों के साथ अपनी जादुई आवाज़ घोली।1950 और 60 के दशक में मुबारक बेगम की सुरीली आवाज का जादू चला। उन्होंने हमराही, हमारी याद आएगी, देवदास, मधुमती, सरस्वतीचंद्र जैसे कई हिट फिल्मों के गाने गाए। उम्र के अंतिम पड़ाव में मुबारक बेगम के दिन काफी मुफलिसी में बीते। उम्र की बीमारियों ने उन्हें जकड़ लिया और उनके बेटे के पास उनके इलाज के लिए पैसे नहीं थे। टैक्सी चलाकर वह किसी तरह अपने परिवार का खर्च चला रहा था। .बेटी के निधन के बाद से मुबारक बेगम की तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी थी। उन्होंने लोगों से मदद मांगी, सरकार को से भी गुहार लगाई। कुछ मदद मिली भी, लेकिन वह काफी नहीं थी। आखिरकार सुनील दत्त ने उनकी मुश्किल को समझा और अपने प्रभाव का उपयोग कर जोगेश्वरी में सरकारी कोटे से उनको एक छोटा-सा फ्लैट दिलवा दिया। उन्हें सात सौ रुपये माहवार की पेंशन भी मिलने लगी। मुबारक बेगम की आवाज के दीवाने दुनियाभर में फैले हुए हैं। उनकी दयनीय हालत देख उनके प्रशंसक कुछ न कुछ रुपये हर महीने उन्हें भिजवाते रहे। आखिर सात सौ रुपये महीने में गुजारा कैसे संभव था। बेटा टैक्सी चलाने लगा। पड़ोसी विश्वास नहीं कर पाते कि यह बूढ़ी, बीमार और बेबस औरत वह गायिका है जिसके गीत लोगों को दीवाना बना दिया करते थे। आखिरकार 18 जुलाई को वे इस दुनिया से ही रुखसत हो गईं।मुबारक बेगम के बारे में कहा जाता है कि वे पढ़ी- लिखी नहीं थीं, लेकिन गाने को इसकदर कंठस्थ कर रिकॉर्डिंग किया करती थीं कि कहीं कोई चूक नहीं हो पाती थी। मुबारक बेगम जब बुलंदियों को छू रही थीं तभी फि़ल्मी दुनिया की राजनीति ने उनकी शोहरत पर ग्रहण लगाना शुरू कर दिया। मुबारक को जिन फि़ल्मों में गीत गाने थे, उन फि़ल्मों में दूसरी गायिकाओं की आवाज़ को लिया जाने लगा। मुबारक बेगम का दावा है कि फि़ल्म जब जब फूल खिले का गाना परदेसियों से ना अंखियां मिलाना उनकी आवाज़ में रिकॉर्ड किया गया, लेकिन जब फि़ल्म का रिकॉर्ड बाजाऱ में आया तो गीत में उनकी आवाज़ की जगह लता मंगेशकर की आवाज़ थी। यही घटना फि़ल्म काजल में भी दोहराई गयी। और सातवां दशक आते आते मुबारक बेगम फि़ल्म इंटस्ट्री से बाहर कर दी गयीं। 1980 में बनी फि़ल्म राम तो दीवाना है में मुबारक का गाया गीत सांवरिया तेरी याद में उनका अंतिम गीत था। करीब सवा सौ फि़ल्मों में अपनी आवाज़ का जादू जगाने वाली मुबारक बेगम को कभी कोई बड़ा फि़ल्मी पुरस्कार या सम्मान नहीं मिला, क्योंकि वे तो काम के प्रति समर्पित , निश्छल थी और राजनीति करना नहीं जानती थीं।. (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
- जन्मदिन पर विशेष-आलेख- मंजूषा शर्माये जिंदगी उसी की है, जो किसी का हो गया, प्यार ही में खो गया, लता मंगेशकर का यह मशहूर गाना फिल्म अनारकली का है। इस गाने को जब भी याद किया जाएगा, फिल्म की नायिका बीना राय भी कहीं न कहीं जेहन में होंगी। बला की खूबसूरत बीना राय ने अनारकली के रोल में उस वक्त ऐसा रंग जमाया कि उनका कॅरिअर ऊंचाइयों पर पहुंच गया।हालांकि इस फिल्म के कुछ साल बाद के. आसिफ ने मुगले आजम फिल्म में एक्ट्रेस मधुबाला ने अनारकली का रोल निभाया और बहुत से मामलों में यह फिल्म अनारकली से बेहतर साबित हुई। लेकिन नन्दलाल जसवंत लाल की फिल्म अनारकली और नायिका बीना राय को कभी भुलाया नहीं जा सकता और न ही सी. रामचंद्र के सुमधुर संगीत को। 1953 में बनी इस फिल्म में बीना राय के अपोजिट प्रदीप कुमार हीरो थे। तिरछी चितवन और खूबसूरत बोलती उनकी आंखों ने बहुत से दिलों को घायल किया था।पांचवें दशक के आसपास की बात है। अठारह वर्षीया कृष्णा सरीन को निर्माता-निर्देशक किशोर साहू ने अपनी फिल्म काली घटा में दो अन्य युवतियों के साथ पेश किया। इन दो युवतियों में इंद्रा पांचाल किशोर साहू से झगड़ कर इस फिल्म के बाद बॉलीवुड ही छोड़ गई और दूसरी आशा माथुर ने चंद फिल्में करने के बाद निर्माता-निर्देशक मोहन सहगल से शादी कर ली। काली घटा में काम करने वाली युवती कृष्णा सरीन बाद में बीना राय के नाम से हीरोइन बनकर लंबे समय तक लोकप्रिय रहीं।उनकी पहली फिल्म काली घटा ने अभिनय की दृष्टि से कोई कमाल नहीं किया, लेकिन मासूम चेहरे वाली बीना राय ने दर्शकों के दिल में अपनी एक जगह जरूर बना ली। इस फिल्म के तुरंत बाद ही बीना राय ने औरत फिल्म साइन की, जिसमें उनके नायक प्रेमनाथ थे। दरअसल, जिन दिनों औरत का निर्माण चल रहा था, प्रेमनाथ अपने जमाने की हीरोइन मधुबाला के साथ पहले से ही तीन-चार फिल्में कर रहे थे। पत्र-पत्रिकाओं के गॉसिप कॉलम प्रेमनाथ व मधुबाला के इश्क के चर्चे से भरे रहते थे। बहुत से लोगों को यह यकीन था कि प्रेमनाथ और मधुबाला जल्दी ही विवाह बंधन में बंध जाएंगे, लेकिन तभी औरत फिल्म ने अपना कमाल दिखाया और बीना राय की सादगी पर प्रेमनाथ मुग्ध हो गए। मधुबाला पीछे छूट गई। हालांकि मधुबाला से अलगाव की एक वजह थे उनके पिता पठान अताउल्लाह खां।जिस समय बीना राय ने औरत की शूटिंग आरंभ की, वे बॉलीवुड के लिए बिल्कुल नई थीं , जबकि पृथ्वी थियेटर की देन अभिनेता प्रेमनाथ सन् 1948 में पहली गोवाकलर फिल्म अजीत में हीरो बनकर आए। जीजा राजकपूर ने उन्हें अपनी फिल्म आग और उसके बाद बरसात में लिया। इस फिल्म से वे चर्चा में आए और सफल नायकों में शुमार हो गए। औरत फिल्म की शूटिंग के दौरान प्रेमनाथ बीना राय का लंच शेयर करते।उस समय शूटिंग के दौरान सभी का खाना निर्माता अरेंज करते थे, जो बाहर से आता था, लेकिन प्रेमनाथ उसे न खाकर बीना राय के लाए खाने को तवज्जो देते। धीरे-धीरे इस निकटता पर प्रेम का रंग चढऩे लगा। शूटिंग के दौरान दोनों का ज्यादा वक्त साथ-साथ बीतता और उसके बाद घंटों फोन पर बातें होतीं। आखिरकार 1953 के अप्रैल में प्रेमनाथ बीना राय के पति बन गए। इस शादी ने बॉलीवुड को चौंका दिया। बीना राय के साथ ने प्रेमनाथ पर कुछ ऐसा जादू डाला कि वे पहली ही फिल्म में न सिर्फ दिल दे बैठे, बल्कि उन्हें दुल्हन बनाकर अपने घर भी ले आए। सच तो यह है कि यह वैवाहिक बंधन बीना राय के लिए बहुत लकी रहा। शादी के बाद फिल्म अनारकली में उनके किरदार ने देश भर के दर्शकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी। बॉलीवुड के बहुत से लोगों का यह मानना था कि यदि बीना राय की शादी से पहले अनारकली रिलीज हुई होती, तो यह रिश्ता यूं न जुड़ता। न ही बीना राय इतनी शीघ्रता से दिलफेंक प्रेमनाथ के गले में वर माला डालतीं!बीना राय के अनारकली बनने की कहानी भी दिलचस्प है। उन दिनों के. आसिफ ने अनारकली और सलीम की प्रेम कहानी पर आधारित फिल्म मुगल-ए-आजम की जोर-शोर से शुरुआत की थी। फिल्म में मधुबाला और दिलीप कुमार लीड रोल में थे। पर किसी न किसी कारण फिल्म की शूटिंग आगे बढ़ रही थी। इसी दौरान एक छोटे फिल्मकार नन्दलाल जसवंत लाल ने सलीम -अनारकली की कहानी को लेकर अनारकली फिल्म का निर्माण शुरू किया। सलीम बने प्रदीप कुमार और अनारकली का रोल बीना राय के हिस्से में आया। संगीत सी. रामचंद्र तैयार कर रहे थे। फिल्म जल्द बनकर तैयार हो गई और प्रदर्शन के साथ ही फिल्म ने हर मायने में अपना लोहा मनवा लिया। फिल्म के गाने और बीना राय की खूबसूरती ने फिल्म को हिट बना दिया। फिल्म के एक गाने मोहब्बत में ऐसे कदम लडख़ड़ाए जमाने ने समझा हम पी के आये.. में नशे में झूमती अनारकली के रूप में बीना राय की अदाकारी दिलकश और गजब की थी। लोग इस एक गीत के लिए अनारकली को देखने बार-बार गये। उस समय बीना राय के माथे पर बालों की एक घूमती लट के साथ उनका पोस्टर काफी मशहूर हुआ था। 1954-55 में बीना राय को नागिन और देवदास फिल्मों के प्रस्ताव भी मिले थे, मगर बीना राय ने दोनों बड़े प्रस्ताव ठुकरा दिये। बाद में ये दोनों भूमिकाएं वैजयंतीमाला को मिल गयीं। इन दोनों फिल्मों ने वैजयंतीमाला को टॉप पर पहुंचा दिया था।बीना राय और मधुबाला का अंतिम मुकाबला 1960 में हुआ, जब बीना राय को घूंघट और मधुबाला को मुगल-ए-आजम के लिए फिल्मफेयर में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री की श्रेणी में नामित किया गया। उम्मीद की जा रही थी कि मधुबाला यह पुरस्कार जीतेंगी, पर यह पुरस्कार बीना राय को घूंघट में अपनी पारिवारिक भूमिका के लिए मिला।बीना राय की एक और फिल्म ताजमहल 1963 में रिलीज हुई, जिसमें उनके हीरो एक बार फिर प्रदीप कुमार थे। फिल्म संगीत के लिहाज से भी लोकप्रिय रही। जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी, ....जैसे गाने काफी पसंद किए गए। इस फिल्म में बीना राय मुमताज महल की भूमिका में थीं।बीना राय की आखिरी फिल्म थी दादी मां, जो वर्ष 1966 में आई थी। इसके बाद उन्होंने हमेशा के लिए फिल्मी कैमरे को अलविदा कर दिया। अपने 18 साल के फिल्मी कॅरिअर में बीना राय ने केवल 28 फिल्में कीं, लेकिन उनका नाम उस दौर की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्रियों में गिना जाता था।शादी के बाद बीना ने अच्छी गृहणी की तरह अपना घर बार संभाला। पति की मौत के बाद उन्होंने बेटे प्रेमकिशन को अभिनेता बनने की प्रेरणा दी ,लेकिन प्रेमकिशन असफल अभिनेता साबित हुए। दूसरे बेटे मोंटी ने भी कुछेक फिल्में कीं। 6 दिसबंर, 2009 को बीना राय ने इस संसार से विदा ली। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)----
- पुण्यतिथि पर विशेष- आलेख- मंजूषा शर्माफिल्म अभिनेता प्राण, जन्म 12 फरवरी, 1920, निधन- 12 जुलाई 2013, उपलब्धियां- अनगिनत। एक अच्छे इंसान, एक अच्छे अभिनेता और एक शानदार शख्सियत। ज्यादातर लोग उन्हें एक खलनायक और चरित्र अभिनेता के रूप में ही जानते हैं। आज उनके जन्मदिन पर हम उनकी जिदंगी के कुछ अनछुए पहलुओं का जिक्र कर रहे हैं।प्राण साहब ने खलनायकी शुरू करने से पहले कुछ फिल्मों में बतौर हीरो काम भी किया। उस दौरान उनके ऊपर कई गाने भी फिल्माए गए। लेकिन वो गाने इतने लोकप्रिय नहीं हुए, कि लोग उन्हें याद रख सकें। लेकिन कई फिल्मों में खलनायक, सहायक कलाकार होने के बाद भी उन पर कई गाने फिल्माए गए हैं, जो यादगार हैं। आज उन्हीं गानों की चर्चा....प्राण साहब पर फिल्माए गए कुछ गाने मुझे जो याद आ रहे हैं, उनमें फिल्म उपकार का गाना - कश्मे वादे प्यार वफा, जंजीर- यारी है ईमान मेरा, यार मेरी जिंदगी, आके सीधी लगी दिल पे जैसे कटरिया... (फिल्म हाफ टिकट) इत्यादि। जहां तक मुझे याद है प्राण साहब पर कम से कम 25 गाने तो फिल्माए ही गए हैं। आज सिलसिलेवार उनकी ही चर्चा...नूरजहां के हीरो बनेवर्ष 1942 में प्राण साहब ने जब फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा तो वे हीरो बनकर आए। उन्होंने उस वक्त सोचा भी नहीं था कि वे एक दिन हीरो नहीं, बल्कि खलनायक के रूप में इतने मशहूर होंगे कि लोग अपने बच्चों का नाम भी उनके नाम पर रखना पसंद नहीं करेंगे। फिल्म 1942 में प्राण खानदान फिल्म में नूरजहां के साथ हीरो बनकर आए थे। इस फिल्म में प्राण रोमांटिक हीरो थे। हालांकि उस वक्त हीरो अपने लिए प्लेबैंक सिगिंग खुद किया करते थे, लेकिन प्राण साहब का संगीत की दुनिया से कोई वास्ता नहीं था। लिहाजा उन्होंने गाने से इंकार कर दिया और भविष्य में कभी कोशिश भी नहीं की। इस फिल्म में उनके लिए जिस गायक ने गाना गाए , उसका नाम भी उपलब्ध नहीं है। मेरा अनुमान है कि यह आवाज गुलाम हैदर की है। फिल्म में प्राण के किरदार का नाम भी प्राण ही रखा गया था। इस फिल्म में नूरजहां और प्राण पर एक रोमांटिक गाना था.... गाने के बोल उड़ जा पंछी....जिसे नूरजहां और संगीतकार गुलाम हैदर ने गाया था। फिल्म में प्राण को शहजादा जहांगीर के रूप में देखकर लगता ही नहीं, कि ये प्राण हैं। इसी गाने के बोल हैं - उड़ जा पंछी, इंसान को इंसान से आजाद कराएं , उड़ जा पंछी, जो प्राण साहब की जिंदगी के साथ आज सटीक उतरता नजर आ रहा है।शारदा के साथ रोमांटिक फिल्म कीफिल्म गृहस्थी में जो 1948 में रिलीज हुई थी, में भी प्राण पर एक गाना फिल्माया गया था जिसके बोल थे- तेरे नाज उठाने को जी चाहता है। यह गाना प्राण और शारदा पर फिल्माया गया था। फिल्म में प्राण साहब के लिए मुकेश ने गाने गाए थे। वहीं देवआनंद साहब की फिल्म मुनीम जी तक आते प्राण साहब को निगेटिव शेड्स में मजा आने लगा था। 1955 में यह फिल्म रिलीज हुई थी। फिल्म में देवआनंद और नलिनी जयवंत मुख्य भूमिकाओं में थे और प्राण खलनायक बने थे। फिल्म का एक गाना -दिल की उमंगे हैं जवान...में देवआनंद, नलिनी और प्राण पर फिल्माया गया था। जिसे हेमंत कुमार और गीता दत्त ने गाया था। फिल्म में यह गाना देवआनंद , प्राण और नलिनी जयवंत पर फिल्माया गया था, लेकिन यह पहला गाना था, जिसमें प्राण ने काफी बेसुरे तरीके से गाया था और यह आवाज किसकी है, इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता, यहां तक कि इसके कैसेट या रिकॉड्र्स में भी नहीं।है आग हमारे सीने मेंराजकपूर ने जब फिल्म जिस देश में गंगा बहती है, बनाई तो उन्होंने प्राण साहब को इसमें महत्वपूर्ण रोल दिया। इस फिल्म में एक गाना- है आग हमारे सीने में ... तुम भी हो हम भी हैं दोनों हैं आमने -सामने,, में राजकपूर और पद्मिनी के साथ प्राण भी नजर आते हैं। इस गाने में प्राण के लिए मन्ना डे साहब ने अपनी आवाज दी थी। यह फिल्म 1961 में रिलीज हुई थी।प्राण का डांस करने का खास अंदाजप्राण पर फिल्माए गए मजेदार गानों में फिल्म हाफ टिकट का एक मशहूर गाना है - आके सीधी लगी दिल पे तेरी कटरिया...शामिल है। फिल्म में यह गाना किशोर कुमार ने डबल आवाज में गाया है, यानी प्राण के लिए किशोर कुमार ने गाया और लड़की की आवाज में किशोर कुमार ने खुद ही आवाज बदली। फिल्म में प्राण का डांस का अंदाज आज भी लोगों के चेहरे पर मुस्कुराहट ला देता है। वहीं 1963 आई फिल्म दिल ही तो है, में राजकपूर और नूतन पर एक गाने का फिल्मांकन हुआ है- तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी... में प्राण केवल यही कहते नजर आते हैं... मुश्किल होगी, मुश्किल होगी, क्या मुश्किल होगी?--कश्मे वादे प्यार वफा, सब बातें हैं बातों का क्या...प्राण साहब के यादगार गानों में 1967 में आई मनोज कुमार की फिल्म उपकार का नाम सबसे ऊपर रखा जा सकता है। इस फिल्म में प्राण ने मलंग चाचा का किरदार निभाया था। प्राण ने इस फिल्म की शूटिंग के लिए बड़ी मेहनत की। फिल्म की पूरी शूटिंग के दौरान उनका दायां पैर घुटने से बंधा रहता था। इसी फिल्म में एक अर्थपूर्ण गाना प्राण पर फिल्माया गया था जिसके बोल हैं- कश्मे वादे प्यार वफा, सब बातें हैं बातों का क्या...। इस फिल्म के बाद तो जैसे प्राण , मनोज कुमार की फिल्मों का एक अभिन्न हिस्सा ही बन गए। प्राण का कॅरिअर ग्राफ बीच में काफी नीचे पहुंच गया था, क्योंकि उस वक्त तक कई खलनायक उभर कर सामने आ रहे थे। ऐसे में मनोज कुमार ने उपकार में मलंग चाचा के रोल में प्राण को लेकर जैसे उनके कॅरिअर में फिर से जान डाल दी। फिल्म बेईमान (1972) में प्राण और मनोज कुमार पर एक गाना पिक्चाइज हुआ था- हम दो मस्त मलंग।वहीं 1969 में फिल्म नन्हा फरिश्ता में एक गाना था बच्चे में हैं भगवान.. इस गाने को तीन लोगों ने गाया था मोहम्मद रफी, मन्ना डे और महेन्द्र कपूर। यह गाना प्राण, अनवर हुसैन और अजीत पर फिल्माया गया था। इसके अलावा फिल्म विक्टोरिया नंबर 203, प्राण साहब के काफी करीब थी, क्योंकि उन्होंने इसमें काफी हटकर किरदार निभाया था। इस फिल्म में वे अशोक कुमार के साथ गाना गाते नजर आते हैं- दो बेचारे बिना सहारे फिरते हैं मारे - मारे। इस गाने में गायक महेन्द्र कपूर ने प्राण के लिए प्लैबैक सिंगिग की थी।जंजीर फिल्म से चरित्र भूमिकाएं शुरू कीवर्ष 1973 में आई फिल्म जंजीर फिल्म ने अमिताभ बच्चन को एक एंग्री यंग मैन का दर्जा दे दिया तो उनके शेरखान दोस्त यानी प्राण के कॅरिअर में चरित्र भूमिकाओं का एक नया दौर शुरू हुआ। इस फिल्म के एक गाने यारी है ईमान मेरा, का फिल्मांकन जब हो रहा था, प्राण की पीठ में जबर्दस्त दर्द था। बावजूद इसके उन्होंने इस गाने पर शानदार डांस किया, जबकि डांस के मामले में वे हमेशा कच्चे समझे जाते थे। इस फिल्म के बाद तो जैसे प्र्राण और अमिताभ की जोड़ी हिट हो गई। दोनों ने साथ में 14 फिल्में कीं। जिस फिल्म जंजीर ने अमिताभ की किस्मत बदली, वह उन्हें प्राण की सिफारिश से ही मिली थी। फिल्म शराबी में प्राण, अमिताभ के पिता के रोल में थे। अमिताभ के साथ ही उन्होंने 1974 में कसौटी फिल्म की जिसका एक गाना प्राण गाते हैं, काफी रोचक तरीके से फिल्माया गया है- हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है....। फिल्म में प्राण नेपाली की भूमिका में थे और उनके संवाद बोलने का नेपाली अंदाज काफी लोकप्रिय हुआ था।वहीं अमिताभ की ही फिल्म मजबूर में प्राण ने हेलेन के साथ -फिर न कहना माइकल दारू पीके दंगा करता है.. में जमकर ठुमके लगाए।राज की बात कह दूं तोप्राण साहब पर एक कव्वाली भी फिल्माई गई है जो काफी मशहूर हुई थी। यह कव्वाली फिल्म धर्मा की है जिसके बोल हैं- राज की बात कह दूं तो जाने महफिल में क्या ...इस गाने में प्राण साहब बिन्दू के साथ तकरार करते नजर आते हैं। इस गाने को रफी साहब और आशा भोंसले ने गाया था। फिल्म में नवीन निश्चल और रेखा मुख्य भूमिकाओं में थे।ऐसे ही कई और गाने हैं, जिसका हिस्सा प्राण साहब रहे थे। आज जब भी ये गाने बजते हैं, लोगों को प्राण साहब का चेहरा जरूर याद आता है। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
- जन्मदिन पर विशेषफिल्मी परदे पर सबको हंसाने वाली प्यारी टुनटुन (जन्म11 जुलाई 1923 - निधन 23 नवम्बर 2003) की आज बर्थ एनिवर्सिरी है। वे लोगों के दिलों में ऐसे छाई कि आज भी यदि कोई मोटी महिला दिख जाती है, तो लोग मजाक में उसे टुनटुन कह देते हैं। टुनटुन ने अपना कॅरिअर पाश्र्वगायिका के रूप में अपने मूल नाम उमा देवी खत्री से शुरू किया था। अफसाना लिख रही रही हूं... गीत उन्होंने ही गाया है।नूरजहां के प्रति दीवानगी और गायिकी के जुनून ने उन्हें मथुरा से मुंबई पहुंचाया। चाचा के घर में पली-बढ़ी उमा देवी की हैसियत परिवार में एक नौकर के समान थी। घरेलू काम के सिलसिले में उमादेवी का दिल्ली के दरियागंज इलाके में रहने वाले एक रिश्तेदार के घर अक्सर आना-जाना लगा रहता था। वहीं उनकी मुलाक़ात अख्तर अब्बास क़ाज़ी से हुई, जो दिल्ली में आबकारी विभाग में निरीक्षक थे। काज़ी साहब उमा देवी का सहारा बने, लेकिन वे लाहौर चले गए।इस बीच उमा देवी ने भी गायिका बनने का ख्वाब पूरा करने के लिए मुंबई जाने की योजना बना ली। दिल्ली में जॉब करने वाली उनकी एक सहेली की मुंबई में फि़ल्म इंडस्ट्रीज के कुछ लोगों से पहचान थी। एक बार जब वो गांव आई, तो उसने उमा देवी को निर्देशक नितिन बोस के सहायक जव्वाद हुसैन का पता दिया। वर्ष 1946 था और उमादेवी 23 बरस की थी। वे किसी तरह हिम्मत जुटाकर गांव से भागकर मुंबई आ गई। जव्वाद हुसैन ने उन्हें अपने घर पनाह दी। मुंबई में उमा देवी की दोस्ती अभिनेता और निर्देशक अरूण आहूजा और उनकी पत्नी गायिका निर्मला देवी से हुई, जो मशहूर अभिनेता गोविंदा के माता-पिता थे। इस दंपत्ति ने उमा देवी का परिचय कई प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से करवाया। उस समय तक अख्तर अब्बास काज़ी साहब भी मुंबई आ गए थे। 1947 में उमा देवी और काज़ी साहब ने शादी कर ली।उसके बाद उमा देवी काम की तलाश करने लगी। उन्हें कहीं से पता चला कि डायरेक्टर अब्दुल रशीद करदार फि़ल्म दर्द बना रहे हैं. वे उनके स्टूडियो पहुंचकर उनके सामने खड़े हो गई। उन्होंने पहले कभी करदार साहब को नहीं देखा था। बेबाक तो वो बचपन से ही थी, उनसे ही सीधे पूछ बैठी, करदार साहब कहां मिलेंगे? मुझे उनकी फि़ल्म में गाना गाना है। शायद उनका ये बेबाक अंदाज़ करदार साहब को पसंद आ गया, इसलिए बिना देर किये उन्होंने संगीतकार नौशाद के सहायक गुलाम मोहम्मद को बुलाकर उमा देवी का टेस्ट लेने को कह दिया। उस टेस्ट में उमादेवी ने फिल्म जीनत में नूरजहां द्वारा गाया गीत आँधियां गम की यूं चली गाया। हालांकि उमा देवी एक प्रशिक्षित गायिका नहीं थी, लेकिन रेडियो पर गाने सुनकर और उन्हें दोहराकर वे अच्छा गाने लगी थी। बरहलाल, उनका गया गाना सबको पसंद आया और वो 500 रुपये की पगार पर नौकरी पर रख ली गई।जब उमा देवी की मुलाक़ात नौशाद से हुई, तो उनसे भी बेबकीपूर्ण अंदाज़ में उन्होंने कह दिया कि उन्हें अपनी फि़ल्म में गाना गाने का मौका दें, नहीं तो वे उनके घर के सामने समुद्र में डूबकर अपनी जान दे देंगी। नौशाद साहब भी उनकी बेबाकी पर हैरान थे। खैर, उन्होंने उमा देवी को गाने मौका दिया और दर्द फिल्म का गीत अफ़साना लिख रही हूं ...उनसे गवाया। यह गीत बहुत हिट हुआ और आज तक लोगों की ज़ेहन में बसा हुआ है। उस फि़ल्म के अन्य गीत आज मची है धूम, ये कौन चला, बेताब है दिल .. भी लोगों को बहुत पसंद आये।फिर क्या था , उमा देवी की गायिका के रूप में गाड़ी चल पड़ी। कई फि़ल्मी गीतों को उन्होंने अपनी सुरीली आवाज़ से सजाया। 1947 में ही बनी फि़ल्म नाटक में उन्हें गाने का मौका मिला और उन्होंने गीत दिलवाले जल कर मर ही जाना गाया। फिर 1948 की फि़ल्म अनोखी अदा में दो सोलो गीत काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाए, दिल को लगा के हमने कुछ भी न पाया और फि़ल्म चांदनी रात में शीर्षक गीत'चांदनी रात है, हाय क्या बात है, में भी उन्होंने अपनी आवाज़ दी। उमादेवी को गाने के मौके मिलते रहे और वो गाती रहीं। उन्होंने कई फि़ल्मों में गाने गए। उनके द्वारा गाये गए गीत लगभग 45 के आस-पास हैं।बच्चों के जन्म के साथ उनकी पारिवारिक जि़म्मेदारियां बढ़ रही थी। साथ ही लता मंगेशकर , आशा भोंसले जैसी संगीत की विधिवत् शिक्षा प्राप्त गायिकाओं का भी बॉलीवुड फि़ल्म इंडस्ट्रीज में पदार्पण हो चुका था। उमादेवी ने गायन का प्रशिक्षण नहीं लिया था। इसलिए धीरे-धीरे उनका गायन का काम सिमटता गया और एक दिन वह अपना गायन करिअर छोड़कर पूरी तरह अपने परिवार में रम गई। परिवार चलाना मुश्किल हुआ तो उमादेवी ने फिर से फि़ल्मों में काम करने का मन बनाया।वे अपने गुरू नौशाद साहब से मिली। उमादेवी फिर से फि़ल्मों में गाना चाहती थीं, लेकिन समय आगे निकल चुका था। स्थिति को देखते हुए नौशाद साहब ने उन्हें कहा, तुम अभिनय में हाथ क्यों नहीं आजमाती? उमादेवी ने अपने बेबाक अंदाज़ में उन्होंने कह दिया, मैं एक्टिंग करूंगी, लेकिन दिलीप कुमार के साथ। दिलीप कुमार उस समय के सुपरस्टार थे। इसलिए उमादेवी की बात सुनकर नौशाद साहब हंस पड़े, लेकिन इसे किस्मत ही कहा जाए कि अपने अभिनय करिअर की शुरूआत उमादेवी ने दिलीप कुमार के साथ ही की। फिल्म थी - बाबुल जिसमें हिरोइन थीं - नर्गिस। उस वक्त उमा देवी का वजन काफी बढ़ गया था। दिलीप कुमार ने ही मोटी उमा को देखकर टुनटुन नाम दिया और यह नाम हमेशा के लिए उनके साथ जुड़ गया। फि़ल्म रिलीज़ हुई और छोटे से रोल में भी उनका अभिनय काफ़ी सराहा गय। उसके बाद आई मशहूर निर्माता-निर्देशक और अभिनेता गुरु दत्त की फि़ल्म मिस्टर एंड मिस 55 में उन्होंने अपने अभिनय के वे जौहर दिखाए कि हर कोई उनका कायल हो गया.बाद में टुनटुन की ख्याति इतनी बढ़ गई थी कि फि़ल्मकार उनके लिए अपनी फि़ल्म में विशेष रूप से रोल लिखवाया करते थे और टुनटुन भी हर रोल को अपने शानदार अभिनय से यादगार बना देती थीं। 70 के दशक के बाद उन्होंने फि़ल्मों में काम करना कम कर दिया और अधिकांश समय अपने परिवार के साथ गुजारने लगी। उनकी अंतिम फिल्म 1990 में आई कसम धंधे की थी। 24 नवंबर 2003 में उन्होंने इस दुनिया से विदा ली, लेकिन आज भी वे हिन्दी फिल्मों की पहली और सबसे सफ़ल महिला कॉमेडियन के रूप में याद की जाती हैं।----
- जन्मदिन विशेषमुंबई। हिंदी सिनेमा जगत के बेहतरीन अभिनेता संजीव कुमार आज जिंदा होते तो वे अपना 82 वां जन्मदिन मना रहे होते। साथ ही फिल्मों में अपने शानदार अभिनय से लोगों को प्रभावित कर रहे होतेेे। लेकिन मात्र 47 साल की उम्र में वे इस दुनिया से रुखसत हो गए। उन्होंने हर तरह की फिल्में कीं। सबसे ज्यादा जया भादुड़ी के साथ उन्हें पसंद किया। जया फिल्म इंडस्ट्री की वो एकमात्र एक्ट्रेस हैं, जो संजीव कुमार की प्रेमिका बनी, बेटी बनी और फिर बहू के रूप में भी नजर आईं। फिल्म कोशिश में संजीव और जया के अभिनय को खूब सराहना मिली थी।9 जुलाई 1938 को संजीव कुमार का जन्म सूरत में हुआ था। उनका असली नाम हरिहर जेठालाल जरीवाला था और उनके करीबी उन्हें प्यार से हरी भाई कहकर बुलाते थे। इंडस्ट्री की रवायत थी असल जिंदगी के नाम को भुलाकर पर्दे पर नए चमकते हुए नाम को बनाना और ऐसे ही सिनेमा में आने के बाद हरिहर जेठालाल दुनिया के लिए बन गए संजीव कुमार।घर खरीदने का सपना पूरा नहीं हो पायासंजीव कुमार के दौर की बात हो तो अंजू महेन्द्रू का नाम सुनाई दे ही जाता है। राजेश खन्ना से लेकर संजीव कुमार तक अंजू की करीबियां रही हैं। संजीव अंजू को मुंहबोली बहन मानते थे। एक दफा अंजू महेन्द्र ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था कि संजीव कुमार की एक इच्छा मरते समय तक भी पूरी नहीं हो सकी थी। दरअसल संजीव कुमार मुंबई में अपना एक बंगला खरीदना चाहते थे। जब उन्हें कोई बंगला पसंद आता और उसके लिए पैसे जुटाते तब तक उसके भाव बढ़ जाते। यह सिलसिला कई सालों तक चला। अंजू ने इस इंटरव्यू में कहा था- जब पैसा जमा हुआ, घर पसंद आया तो पता चला की वह प्रॉपर्टी कानूनी पचड़े में फंसी है। मामला सुलझे उससे पहले वह चल बसे। तो ऐसे रुपये होने के बावजूद संजीव कुमार मुंबई में अपने खुद के घर का सपना कभी पूरा ही नहीं कर सके।बहुत शक्की थे संजीव कुमारपर्दे पर अक्सर गंभीर किरदार निभाने वाले संजीव कुमार असल जिदंगी में भी संजीदा ही थे। इसी इंटरव्यू में अंजू महेन्द्रू ने संजीव कुमार को लेकर कई दिलचस्प बातें भी साझा की। उन्होंने कहा था- जिन महिलाओं के साथ भी उनका अफेयर रहा उन पर संजीव बहुत शक किया करते थे। उन्हें लगता था कि वे उन्हें नहीं उनके पैसों को चाहती हैं। इसी धारणा के चलते उनकी शादी नहीं हो पाई। संजीव कुमार हेमामालिनी से बेतहाशा प्यार करते थे। वहीं सुलक्षणा पंडित उनके प्यार में पागल थी। संजीव कुमार के ठुकराए जाने के बाद सुलक्षणा डिप्रेशन में चली गईं और उनका कॅरिअर खत्म हो गया। .मौत का लगा रहता था डरएक दिलचस्प बात यह भी है कि संजीव कुमार को हमेशा एक फिक्र यह भी रहती थी कि उनके परिवार में अधिकतर पुरुषों की मौत 50 की उम्र से पहले ही हुई थी। संजीव के छोटे भाई की मृत्यु भी कम उम्र में होने से उनके मन में यह बात और गहरे से बैठ गई। संजीव अक्सर अपने करीबियों से कहते थे कि वह भी जल्दी चले जाएंगे और नियति का खेल देखिए हुआ भी कुछ ऐसा ही और 6 नवंबर 1985 को 47 साल की उम्र में वह भी चल बसे।मौत के बाद रिलीज हुईं फिल्मेंसंजीव कुमार की मौत के बाद 10 फिल्में रिलीज हुई थीं। इनमें से अधिकांश फिल्मों की शूटिंग बाकी रह गई थी। कहानी में फेरबदल कर इन्हें प्रदर्शित किया गया था। 1993 में उनकी अंतिम फिल्म प्रोफेसर की पड़ोसन प्रदर्शित हुई। इसके अलावा कातिल (1986), हाथों की लकीरें (1986), बात बन जाए (1986), कांच की दीवार (1986), लव एंड गॉड (1986), राही (1986) दो वक्त की रोटी (1988), नामुमकिन (1988), ऊंच नीच बीच (1989) फिल्में उनकी मौत के बाद रिलीज हुई थीं।हम हिन्दुस्तानी फिल्म से शुरू किया संजीव ने फिल्मी सफरसंजीव कुमार ने अपने फिल्मी सफर के दौरान कई यादगार भूमिकाएं निभाई थी। उन्होंने 1960 में आई फिल्म हम हिन्दुस्तानी से फिल्मी सफर शुरू किया था। उन्होंने अनुभव (1971), सीता और गीता (1972), कोशिश (1972), अनामिका (1973), नया दिन नई रात (1974), आंधी (1975), शोल (1975), मौसम (1975), उलझन (1975), नौकर (1979), सिलसिला (1981) सहित कई सुपरहिट फिल्मों में काम किया। (छत्तीसगढ़आजडॉट विशेष)
- - ग्रीष्म ऋतु में शर्मिली, संकोची और सिमटी सी ...- बारिश में उछलती, खेलती, कूदती नवयौवना की अनंत ख्वाहिशों की तरह खिलती जलधारा....- सूर्य किरणों का प्रकाश ऐसा प्रतीत हो रहा था , जैसे सफेद धरती को सोने के आभूषणों से सजाया गया हो।-------यात्रा वृतांत: आलेख- सुष्मिता मिश्रारायपुर से 340 किलोमीटर का लंबा सफर। सुखद और रोमांचकारी। सुखद इसलिए क्योंकि चिकनी-चौड़ी सड़क पर चारपहिया में गु्रप के साथ हंसते-बतियाते रहे। ऐसा कांकेर पहुंचने तक ही रहा। उसके बाद के 147 किमी का हमारा सफर रोमांचकारी था। कांकेर में थोड़ी देर स्टे के बाद इस बचे हुए 147 किमी के सफर को हमने पूरी मस्ती के साथ ग्रीन कारपेट पर चलते हुए पूरा किया। बरसात का मौसम, हवा में नमी और कुछ नया देखने की बेसब्री ने सफर को छोटा बना दिया और हम पहुंच गए अपने नियाग्रा यानी चित्रकोट जलप्रपात। 100 मीटर की चौड़ाई में 96 फीट की ऊंचाई से पूरी वेग से गर्जना करते गिर रही मटमैली जलधारा और नीचे उफन रहे दूधिया धुएं के मिश्रण ने पूरे वातावरण को रहस्यमय बना रखा था। अद्भुत, अनोखा और नयनाभिराम। हम और हमारे साथी इंद्रावती के इस दूधिया श्रृंगार को बस निहारते रह गए।वैसे बता दें, इंद्रावती नदी में सालभर पानी रहता है। गर्मी में 100 फीट का चौड़ा पाट गायब हो जाता है, लेकिन नदी की धारा गिरती रहती है। ग्रीष्म ऋतु में नवविवाहिता के समान शर्मिली, संकोची और सिमटी सी लगने वाली यह जलधारा जून-जुलाई की बारिश में उछलती, खेलती, कूदती नवयौवना की अनंत ख्वाहिशों की तरह खिल उठती है।यही वजह है कि जुलाई से दिसंबर तक यहां पर्यटकों की खासी भीड़ रहती है। लोग चित्रकोट के उस विराट रूप से रूबरू होना चाहते हैं, जो इसे एशिया के विश्व प्रसिद्ध नियाग्रा फाल के समकक्ष बनाता है। बाद के महीनों में चित्रकोट की चौड़ाई सिमट जाती है, लेकिन सुकून उतना ही मिलता है, जितना बारिश के दिनों में। खैर, हम और हमारे साथियों ने बारिश के समय ही चित्रकोट के रौद्र रूप का दर्शन करने का प्लान बनाया था और हम पहुंचे भी। यहां पर पूरी इंद्रावती नदी अपनी पूरी चौड़ाई और वेग के साथ नीचे गिर रही थी। सन्नाटा आधा किमी पहले ही टूट चुका था। शोर ही कुछ ऐसा था। वॉटर फाल के करीब पहुंचते ही ठंडी फुहारों ने गुदगुदाना शुरू कर दिया। शरीर में ठंडी झुरझुरी से छूटने लगी। मन उत्साह से भर गया।घंटेभर तक इंद्रावती के इस नायाब देन को निहारने के बाद हमने तय किया कि नीचे कल- कल करती बह रही इंद्रावती तक पहुंचा जाए, छुआ जाए। नदी में जब उफान न हो, तब पर्यटकों को नाव में बैठने की इजाजत होती है। नाविक तैयार थे, लेकिन वे जलप्रपात के करीब जाने को तैयार नहीं थे। जैसे, तैसे कर हमने उनको मनाया और थोड़ा सा रिस्क लेकर उस आलौकिक आनंद को हासिल किया, जिसकी चाहत लेकर हम यहां पहुंचे थे। धुएं को करीब से देखा, जलप्रपात जिस स्थान पर गिरता है, वो स्थान एक कुण्ड की भांति गहरा हरा रंग लिए हुए नजर आया। चट्टान अंदर की ओर पानी की मार से कट चुकी है। उसके ऊपर दूधिया धुआं फैला हुआ था। नाविक जब उसमें प्रवेश करता है, तो ऊपर से प्रतीत होता है कि जैसे पूरी नाव पानी की गुफा में गुम हो गई हो। हमारे आग्रह पर नाविक ने कुछ हिम्मत की, लेकिन हमने ही ज्यादा रिस्क लेना ठीक नहीं समझा।चित्रकोट को निहारते हुए जब दोपहर का वक्त हुआ तो इसका सौंदर्य कुछ और निखर आया। जलकणों पर सूर्य किरणों का प्रकाश ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सफेद धरती को सोने के आभूषणों से सजाया गया हो। यहां की खासियत है इसकी रंगत। चित्रकोट जलप्रपात में उठते हुए जलकणों पर सूर्य की किरणें सुबह पड़ती हैं तो इसका इंद्रधनुषीय रंग पश्चिम में दिखाई देता है और जब यही सूर्य ेिकरणें सूर्यास्त के समय पड़ती हैं, तब यह इन्द्रधनुषीय रंग पूर्व दिशा में अवलोकित होता है। इसकी नैसर्गिक छटा देखते ही बनती है। इस मनोरम दृश्य के आस-पास के क्षेत्रों में प्राकृतिक सौंदर्य अद्वितीय है।अब बात जरा रात की। रात के समय जलप्रपात की आवाज ऐसे लगती है मानो हिमालय से अंलकनंदा प्रवाहित हो रही हो। चन्द्रमा की रौशनी से जलप्रपात ऐसा प्रतीत होता है जैसे अंधरे को चीर कर दूध की धारा आकाशगंगा से धरती पर गिर रही हो। बरसात के दिनों में इसकी छटा ऐसी बिखरती है जैसे जल की धारा को मटमैले रंगों से भर दिया गया हो। यह वही धारा है जो ग्रीष्मऋतु में श्वेत चांदी सी लगती है। रात सुकून भरी रही। रिसार्ट में नींद के आगोश में समाते तक जलप्रपात की आवाज कानों में गूंजती रही।चारों तरफ शांति, सुकून के बीच जल का कल-कल करता मधुर संगीत हमें थपकी देकर सुलाने की चेष्ठा करता रहा। थके तो थे ही, नींद आ ही गई। आखिर दूसरे दिन भोर का नजारा भी तो देखना था। दरअसल, हम जहां रुके थे, वहां से भी इसका मनमोहक नजारा दिखता है। इस जलप्रपात के करीब ही पीडब्ल्यूडी का भवन है, यहां कमरे भी हैं। इसी भवन के पीछे सुंदर लग्जरी रिसोर्ट है, जहां हम ठहरे हुए थे। यह रिसोर्ट पर्यटन मंडल का है। जिसमें एक बड़ा वातानुकूलित कान्फ्रेंस हॉल व 12 लग्जरी कमरे तथा 13 अति सुंदर एसी युक्त टेंट के साथ-साथ जलपान गृह है। जलपान गृह में आप जलप्रपात को निहारते हुए शाकाहारी तथा मांसाहारी भोजन प्राप्त कर सकते हैं।इस जलपान गृह की एक विशेषता है कि इसमें ऊपर की मंजिल से लेकर नीचे तक एक प्रमुख पिल्हर है जो आठ मजबूत पिल्हरों से जुड़ा है जो हमें एक दिन के आठों पहर का अहसास दिलाते हैं। इसकी चौबीस बड़ी-बड़ी खिड़कियां हैं, जो दिन के चौबीस घंटों को दर्शाती हैं। नीचे मंजिल में 14 खिड़कियां हमें दिन के 14 घंटे कार्यरत रहने का संदेश देती है। इसी प्रकार बड़े-बड़े द्वार हमें अपने दिन भर में कुछ बड़े-बड़े कार्य करने को प्रेरित करते हंै। इस लग्जरी रिसोर्ट से ही लगे टेंट हमें राजकीय वैभव का अहसास कराते हैं। यहां के नियम-कायदे भी सख्त हैं। सुबह जब हम इस लग्जरी रिसोर्ट के लिए अंदर जाने की कोशिश कर रहे थे, तो हमें यहां के चौकीदार ने रोक लिया। हमारी पूरी जानकारी ली तथा जांच पड़ताल कर हमें अंदर जाने दिया। हमने बुरा नहीं माना, यह जरूरी भी था। वीराने में ऐसे सर्वसुविधायुक्त रिसोर्ट ने बड़ी राहत दी।जैसे ही हम अंदर की ओर गए वहां पर बहुत बड़ा सुंदर सा हरा-भरा बगीचा देख कर ऐसा लगा मानो किसी ने हरे रंग का कालीन बिछा दिया हो। यहां इतनी हरियाली व सुंदर पुष्प है जिसकी महक से आप तरोताजा हो जाएंगे। इस रिसोर्ट के अंतिम छोर तक आप को हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है। गाड़ी पार्किंग के लिए एक सुनिश्चित जगह है। हरे-भरे मधुबन से आप के लिए पगडंडी रूपी रास्ते का निर्माण किया गया है, जिससे होकर आप कमरे में जाते हैं जो अपनत्व का अहसास कराता है। बाल्कनी में बैठकर जब आप चाय की चुस्की लेते हुए इस मनोरम दृश्य को देखते हुए ध्यान से झरने की खिलखिलाहट को सुनेंगे तो आपको प्रकृति की अमर नाद सुनाई देगी। इसी रिसोर्ट में हमने रात गुजारी।ऐसे भी समझेंचित्रकोट जलप्रपात को अगर ऊपर से देखें तो आपको ऐसा लगेगा जैसे घोड़े की नाल जैसे अद्र्धचंद्राकर रूप में जलधारा प्रवाहित हो रही हो। चट्टानों को ध्यान से देखने पर ऐसा लगता है मानो भगवान ने इन्हें फुर्सत में एक के बाद एक आहिस्ते से तह लगाकर किताब के पन्नों की तरह जिल्दसाजी कर इतिहास लिखा हो।कोलकाता, ओडिशा से भीचित्रकोट की ख्याति विदेशों में भी फैली हुई है। विदेशी भी यहां आते हैं। छत्तीसगढ़ के पर्यटकों के अलावा यहां ओडिशा, कोलकाता से बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं। अगर बस्तर से सरगुजा तक टूरिस्ट सर्किट का काम होता है तो पर्यटकों की संख्या में काफी इजाफा हो सकता है। (छत्तीसगढ़ और आवाज से साभार)
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जन्मदिवस पर विशेष
आलेख- मंजूषा शर्मा-------------------नसीम बानो जिसका नाम शायद आज की पीढ़ी को मालूम भी ना हो और अगर उन्हें बताया जाए कि वे सायरा बानो की मां है, तब भी शायद उन्हें नसीम का चेहरा याद ना आए। इसे वक्त का तकाजा है कहिए या और कुछ। नसीम के जमाने के लोग अब भी उसकी खूबसूरती की याद करते हैं। वे अपने दौर की सबसे प्यारी और सुंदर अभिनेत्री थीं। उस समय अभिनेत्रियों की नेचरल खूबसूरती ही सिने पर्दे पर दिखाई देती थी और जिन्हें देखकर लगता था कि भगवान ने वाकई उन्हें फुरसत के क्षणों में बनाया है। आज के कॉस्मेटिक और प्लास्टिक सर्जरी वाले दौर की तरह नहीं, जहां सौ में से 90 फीसदी अभिनेत्रियों को इसका सहारा लेना पड़ रहा है। नसीम बानो का जन्म 4 जुलाई 1916 को हुआ था, वहीं 18 जून 2002 को उन्होंने इस संसार को अलविदा कहा।नसीम आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन आज भी उनकी फिल्में उनके नाम को जीवित रखे हुए हैं। फिल्मों में 40 के दशक में आई नसीम उन अभिनेत्रियों में से एक मानी जाती थीं, जिनके पास प्राकृतिक सौंदर्य का भंडार था। उन्हें रजत पटल पर अपने आप को खूबसूरत दिखाने के लिए न तो सौंदर्य प्रसाधनों की जरूरत पड़ती थी आौैर ना ही सुंदर कीमती परिधानों की। खूबसूरत, बड़ी-बड़ी आंखें, पतली-पतली उंगलियां, गोरा रंग उन्हें हार्डी लेमार, एवा गार्डनर, विवियन ली और एलिजाबेथ टेलर जैसी दुनिया की रूपमती नायिकाओं की श्रेणी में शामिल करते थे।उस काल की अधिकांश नायिकाएं आर्थिक विपन्नता की कारण अभिनय क्षेत्र में आयी थीं। कुछ तो केवल प्राथमिक स्तर तक ही शिक्षित थीं। ऐसे में काफी पढ़े- लिखे और संपन्न परिवार से आई नसीम का फिल्म जगत में एक विशिष्टï स्थान बना लेना स्वाभाविक ही था। नसीम की खूबसूरती, रहन-सहन, बातचीत का सलीका, दिखावटीपन से अलग जिंदगी, लोगों को सहज ही प्रभावित कर गई। नसीम का फिल्मों में रूझान था, पर घर-परिवार इतने खुले विचारों का न था कि वह उन्हें अभिनय करने की इजाजत दे देता। फिल्मों में आना भी महज एक संयोग था। दिल्ली की नसीम स्कूल की छुट्टिïयों में बंबई आईं तो उन्हें फिल्म स्टूडियो भी देखने का मौका मिला। इसी दौरान उन्होंने फिल्म की शूटिंग भी देखी। उस वक्त वहां मोतीलाल और सबिता देवी की मुख्य भूमिका वाली फिल्म सिल्वर किंग की शूटिंग चल रही थी। नसीम को सब कुछ बड़ा सहज लगा। जाहिर है उनकी खूबसूरती ने कई निर्माताओं को आकर्षित किया और उन्हें फिल्मों में काम करने का प्रस्ताव भी मिल गया। परिवार वालों के लिए स्कूल की पढ़ाई पहली प्राथमिकता रही, लेकिन नसीम ने फिल्मों में काम करने का पक्का इरादा कर लिया।उन्हें अचानक एक दिन सोहराब मोदी की फिल्म का प्रस्ताव मिला। नसीम ने परिवार वालों को मनाने के लिए भूख- हड़ताल शुरू कर दी। आखिरकार बेटी की जिद के आगे मां को झुकना पड़ा। नसीम ने वादा किया कि फिल्म में काम करने के बाद वह कॉलेज की पढ़ाई जारी रखेगी, क्योंकि उनकी मां उन्हें डॉक्टर बनाना चाहती थीं। नसीम शूटिंग के बाद दिल्ली लौटी पर कॉलेज में उन्हें प्रवेश नहीं मिला। वजह थी उनका फिल्मों में काम करना। नसीम ने फिर बंबई का रूख किया और अभिनय संसार को ही अपना लिया। खान बहादुर, मीठा जहर, वासंती और फिर आई पुकार। नसीम ने इस फिल्म में नूरजहां की भूमिका निभाई थी और चंद्रमोहन ने जहांगीर की। यह ऐतिहासिक फिल्म बहुत पसंद की गई।इस फिल्म की एक और खासियत थी- वह थी नसीम का गायिका बनना। फिल्म में अपने गाने नसीम ने खुद गाए और इसके लिए उन्होंने दो साल तक रियाज किया। इस फिल्म में उनका गाया गीत जिंदगी का साज भी क्या साज है लोगों की जुबां पर चढ़ गया। मिनर्वा मूवीटोन की फिल्म शीशमहल में उनके अभिनय की तारीफ हुई। फिल्म में नसीम ने बिना मेकअप के सादी वेशभूषा में एक गरीब परिवार की स्वाभिमानी बेटी का किरदार निभाया। इस फिल्म के बाद तो नसीम को मिनर्वा मूवीटोन की महारानी की संज्ञा दी जाने लगी। फिल्मस्तान की फिल्मों में उस वक्त बीना राय, नलिनी जयवंत की तूती बोल रही थी। इनके बीच इस बैनर की फिल्म चल-चल रे नौजवान नसीम को मिली। नायक थे अशोक कुमार। फिल्म जबरदस्त हिट हुई और नसीम 'ब्यूटी क्वीन के नाम से लोकप्रिय हो गई। शबिस्तान भी फिल्मस्तान की हिट फिल्म हुई। फिल्म में नसीम ने स्पैनिश राजकुमारी जैसी वेशभूषा धारण करके लोगों को लुभाया। इसके बाद फिल्मों का एक लंबा सिलसिला चल पड़ा।बाद की फिल्मों में कुछ ऐसी फिल्में भी आईं जिसमें नसीम ने अपने से 10 साल छोटे नायकों के साथ काम बड़ी सहजता के साथ किया। नसीम के पति एहसान ने निर्माता के रूप में कई फिल्में बनाई- उजाला , मुलाकातें, बेगम, चांदनी रात और अजीब लड़की सभी नसीम की झोली में आईं। इसी दौरान नसीम फिल्म जगत से सात साल तक दूर रहीं। यह समय उन्होंने योरोप में गुजारा। इस अंतराल में सुरैया, नरगिस, मधुबाला, खुर्शीद, नूरजहां, स्वर्णलता, रागिनी, सरदार अख्तर जैसी नायिकाएं आईं और अपनी जगह बनाने में सफल रहीं लेकिन नसीम का अपना एक मुकाम बना रहा। बागी और सिंदबाद जैसी सी ग्रेड की फिल्में करने के कारण नसीम की लोकप्रियता को आघात लगा। नसीम ने इसके बाद छोटी भूमिकाएं करने की बजाय फिल्मी दुनिया को अलविदा कहना ज्यादा उचित समझा। कहा जाता है गुरुदत्त अपनी फिल्म प्यासा में उन्हें एक भूमिका देना चाहते थे, पर नसीम ने इंकार कर दिया। बेटी सायरा बानो के फिल्मों में प्रवेश के बाद भी नसीम को फिल्मों के प्रस्ताव मिलते रहे, पर वे राजी नहीं हुई। यहां तक प्रसिद्घ निर्माता आसिफ को भी उन्होंने साफ मना कर दिया। आसिफ नसीम को मुख्य भूमिका में लेकर नूरजहां बनाना चाहते थे। जब उन्होंने इसका कारण पूछा गया तो उनका एक ही जवाब था- वह अपनी बेटी से तुलना पसंद नहीं करेंगी।नसीम अभिनय से भले ही अलग रहीं, पर ड्रेस डिजाइनर के रूप में वे फिल्मी दुनिया से जुड़ी रहीं। फिल्म आई मिलन की बेला में सायरा बानो द्वारा पहनी गई साड़ी जो काफी लोकप्रिय हुई, नसीम ने ही डिजाइन की थी। फिल्मी गतिविधियों से उनका जुड़ाव बाद तक बना रहा। नसीम जहां भी जातीं लोगों की निगाहें, उनकी खूबसूरती की तारीफ करती नजर आतीं। दिलीप कुमार और सायरा की शादी के वे सख्त खिलाफ थीं, पर समय के साथ उन्होंने समझौता करना सीख लिया। जीवन के अंतिम समय तक सायरा बानो ही उनके पास रहीं। नसीम के काफी करीब रहीं बेगमपारा जो दिलीप कुमार के भाई नासिर खान की पत्नी हैं, उनके जाने की खबर सुनकर मायूस हो उठीं- मुझे उनके साथ काम करने का मौका कभी नहीं मिला क्योंकि वे मेरी बहुत सीनियर थी। वे बहुत सभ्य और सुसंस्कृत महिला थीं। नसीम जितनी खूबसूरत दिखती थी उतनी ही खूबसूरत इंसान भी थीं। मेरी उनसे मुलाकात दिलीप सायरा के निकाह के बाद हुई। नसीम सिने जगत का एक परी चेहरा था। वे जहां भी जातीं, आकर्षण का केंद्र बन जाती थीं। सायरा ही उनके काफी करीब थी।संगीतकार नौशाद भी नसीम के करीबी लोगों में से एक थे। नसीम की दो फिल्मों का संगीत नौशाद ने ही दिया था। नौशाद न्हें हमेशा याद करते हुए कहते थे- नसीम को मैं एक अरसे से जानता था। मैंने जब संगीत के क्षेत्र में कदम रखा, उस वक्त नसीम सोहराब मोदी के साथ फिल्म कर रही थीं। फिल्म का नाम था-'पुकार । फिल्म के प्रचार में नसीम का परिचय दिया था- परी चेहरा-नसीम बानो। नसीम वाकई में एक खूबसूरत और उम्दा अभिनेत्री थी जिसे परी कहना ज्यादा सटीक होगा। मैंने उसकी दो फिल्मों में संगीत दिया- अनोखी अदा और चांदनी रात। जिसका निर्माण नसीम के पति एहसान ने ही किया था।नसीम का जिस्म आज कब्र में खामोश सोया हुआ है, लेकिन उनकी फिल्में और खूबसूरती हमेशा सिने प्रेमियों को उन्हें कभी दफन नहीं होने देंगी। फिल्म पुकार में उनका गाया गीत- जिंदगी का साज भी क्या साज है, बज रहा है और बे- आवाज है, का भाव आज उन पर सटीक उतरता नजर आ रहा है।---- - पंचम दा की जयंती पर विशेष -संगीत की दुनिया के पंचम दा यानी आर. डी. बर्मन की आज जयंती है। वे आज यदि जीवित होते तो अपना 81 वां जन्मदिन मना रहे होते और आज भी वे संगीत के सुरों के साथ अलग-अलग अंदाज में खेल रहे होते।भारतीय फिल्म जगत को कई आइकॉनिक गाने देने वाले म्यूजिक डायरेक्टर आर.डी. बर्मन यानी राहुल देव बर्मन का जन्म जाने-माने संगीतकार सचिन देव बर्मन के कोलकाता स्थित घर में 27 जून 1939 को हुआ था। उन्होंने करीब 330 फिल्मों के लिए म्यूजिक कंपोज किया और ज्यादातर काम अपनी पत्नी आशा भोसले और किशोर कुमार के साथ किया। गुलजार के साथ उनकी जोड़ी खूब जमती थी। गुलजार के भारी भरकम शब्द भले ही उनकी समझ से बाहर हुआ करते थे, लेकिन जब उनकी जोड़ी कोई गाना लेकर आती थी, तो उसे हिट तो होना ही होता था। यह बात पंचमदा खुद स्वीकार करते थे कि गुलजार के गाने उनकी समझ के परे होते हैं।आर डी बर्मन ने साल 1966 में रीटा पटेल से शादी की थी। दोनों की मुलाकात दार्जिलिंग में हुई थी और वो बर्मन की फैन थीं। रीटा ने अपने दोस्तों से शर्त लगाई थी कि वो बर्मन को डेट करेंगी, दोनों ने एक दूसरे को डेट भी किया और साल 1966 में उनकी शादी भी हो गई। बर्मन की शादी लंबे समय तक नहीं चल पाई और साल 1971 में उनका तलाक हो गया। रीटा से अलग होने के बाद पंचम दा एक दिन होटल में बैठे थे और यहां उन्होंने एक प्यारी सी धुन बनाई। इस धुन का इस्तेमाल उन्होंने गुलजार की फिल्म परिचय में किया और गाना था मुसाफिर हूं यारों....। यह फिल्म 1972 में रिलीज हुई थी। गुलजार की लगभग सभी फिल्मों में पंचमदा ने ही संगीत दिया। परिचय, आंधी, खूशबू, इजाजत, किनारा, घर, नमकीन, लिबास, किताब आदि ऐसी ही फिल्में हैं।आर.डी. बर्मन अपने पिता सचिन देव बर्मन के साथ स्टूडियो जाते थे और यहां पहली बार उन्होंने आशा भोसले को देखा और उनसे इतना प्रभावित हो गए कि उन्होंने आशाजी से तुरंत ही आटोग्राफ मांग लिया। यह 1956 की बात थी। दस साल बाद फिल्म तीसरी मंजिल में आर.डी.बर्मन ने आशा भोंसले से संपर्क किया और उनके साथ मिलकर फिल्म के लिएं कमाल के गाने दिए।दोनों के गाने सुनकर ऐसा लगता था कि पंचम का संगीत और आशा की सुरीली आवाज एक दूसरे के लिए ही बने हैं। कई सालों तक उनके अहसास संगीत की लहरियों की तरह रोमांस बनकर बहते रहे। संगीत उन्हें करीब ला रहा था। इस दौर में दोनों ने एक से बढ़कर एक सुपरहिट गाने दिए। आशा भोंसले की आवाज के कमाल के माड्यूलेशन गुण को पंचम दा ने बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया और अपने दौर में लीक से हटकर गाने तैयार किए। संगीत के प्रति दोनों के प्यार ने उनके बीच की दूरियां मिटा दी और पंचम दा ने अपने से 6 साल बड़ी आशा भोंसले को शादी के लिए प्रपोज कर दिया। हालांकि आशा भोंसले को शादी के लिए मनाने में बर्मन दा को काफी मशक्कत करनी पड़ी। आखिर उनका प्यार एक दिन कामयाब हो गया और वे एक हो गए। हालांकि पंचम दा के पिता सचिन देव बर्मन और उनकी मां इस शादी के खिलाफ थे। लेकिन उनका साथ केवल 14 साल ही रहा। 54 साल की उम्र में आर. डी. बर्मन ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। बतौर संगीतकार उनकी आखिरी फिल्म 1942: ए लव स्टोरी भी हिट रही।आर.डी .बर्मन को शराब और सिगरेट की आदत थी जिसके चलते एक दिन आशा उनसे अलग हो गईं। इसके बाद भी दोनों अक्सर मिलते और साथ समय बिताते थे। आशा हर हफ्ते पंचम दा से मिलने उनके घर जाती थीं और साल 1994 में भी वो एक शाम उनसे मिलने घर पहुंचीं तो वहां उन्हें कोई नहीं मिला। पंचम दा के घर काम करने वाले शख्स ने आशा भोसले को फोन कर बताया कि उनकी तबीयत खराब है और वो अस्पताल में भर्ती हैं। 4 जनवरी 1994 को पंचम दा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।जैज, कैबरे, डिस्को और ओपरा म्यूजिक से लेकर शास्त्रीय रागों पर गाने बनाने वाले पंचम दा को लोग आज भी उनके तड़कते भड़कते संगीत के लिए याद करते हैं। उनके रोमांटिक गानों को आज भी कोई टक्कर नहीं दे सकता। गानों में कॉमेडी का भाव भी वे बखूबी लाया करते थे। फिल्म पड़ोसन का गीत एक चतुरनार करते सिंगार.....अपने अनोखे अंदाज के कारण ही हिट हुआ था।आरडी बर्मन ने अपने जीवन में संगीत के साथ कई तरह के प्रयोग किए। उनकी लोकप्रियता की वजह भी यही थी। अंग्रेजी बिट्स पर भी वे कमाल के भारतीय गाने तैयार करते थे। बहुत कम लोगों को मालूम है कि वे सरोद और माउथआर्गन से लेकर कई वाद्ययंत्रों को बखूबी बजाया करते थे।पंचम दा के बनाए कुछ यादगार गीत...1. मेहबूबा मेहबूबा2. जब हम जवां होंगे जाने कहां होंगे3. मुसाफिर यूं यारो...4. आपकी आंखों में कुछ महके हुए से राज है5. एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा6. हम किसी से कम नहीं7. पिया तू अब तो आजा8. रिझरिझ गिरे सावन9. सागर किनारे दिल ये पुकारे10. ओ मेरे दिल के चैन11. तुम आ गए हो नूर आ गया12. नाम गुम जाएगा13 चांद मेरा दिल14. चुरा लिए है तुमने जो दिल को15. कुछ तो लोग कहेंगे....(आलेख- मंजूषा शर्मा)
- जन्मदिन पर विशेष- आलेख मंजूषा शर्माहिंदुस्तानी सिनेमा में जब भी बेहतरीन गीत- गजलों की बात चलेगी तो संगीतकार मदनमोहन को याद किया जाएगा। लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो न हो..... गाना भला कौन भूला सकता है। आज भी हर व्यक्ति इस गाने को अपनी तरह से गुनगुनाता है। आजकल के नए गायक भी इस गाने को अलग - अलग अंदाज में नए वाद्य यंत्रों के साथ गाते हैं, लेकिन न तो वे लता मंगेशकर की आवाज जैसी रुहानी कशिश पैदा कर पाते हैं और न ही उनके संगीत में दिल तक पहुंचने वाले मदन मोहन के संगीत जैसी बात होती है।फिल्म मौसम की बात चलेगी तो लोग गुलजार से ज्यादा मदन मोहन के गानों को याद करते हैं। फिल्म का दिल ढूंढता है फिर वहीं फुरसत के रात दिन.....हो या फिर रुके रुके से कदम.....। गुलजार के पसंदीदा संगीतकार आर. डी बर्मन रहे हैं, लेकिन उन्होंने अपनी इस फिल्म में मदन मोहन साहब को लिया। फिल्म के मूड के हिसाब से मदन मोहन ने ऐसे गजब की धुनें तैयार की कि लोग आज भी इन्हें सुनते रह जाते हैं। दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन,, के लिए उन्होंने 10 धुनें बनायीं थी। फिर उनमें से एक धुन को लेकर यह गाना तैयार किया, तो अमर हो गया। दरअसल, मदन मोहन के अंदर शब्दों के साथ जुड़ी हुई लय को पहचानने की जबरदस्त क्षमता थी।मदन मोहन का जन्म 25 जून, 1926 को बगदाद में हुआ था। उनका पूरा नाम था मदन मोहन कोहली। अपना कॅरिअर उन्होंने सेना में काम करके शुरू किया था, लेकिन संगीत के प्रति झुकाव ने उन्हें संगीतकार बना दिया। सेना छोड़कर लखनऊ में मदन मोहन आकाशवाणी के लिये काम करने लगे। आकाशवाणी में उनकी मुलाकात संगीत जगत् से जुड़े उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ, उस्ताद अली अकबर ख़ाँ, बेगम अख़्तर और तलत महमूद जैसी जानी मानी हस्तियों से हुई। इन हस्तियों से मुलाकात के बाद मदन मोहन काफ़ी प्रभावित हुये और उनका रुझान संगीत की ओर हो गया। अपने सपनों को नया रूप देने के लिये मदन मोहन लखनऊ से मुंबई आ गये। मुंबई आने के बाद मदन मोहन की मुलाकात एस. डी. बर्मन, श्याम सुंदर और सी. रामचंद्र जैसे प्रसिद्ध संगीतकारों से हुई और वह उनके सहायक के तौर पर काम करने लगे। बतौर संगीतकार वर्ष 1950 में प्रदर्शित फि़ल्म आंखें के ज़रिये मदन मोहन फि़ल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए।लता मंगेशकर मदन मोहन को भाई मानती थीं। यह बड़े कमाल की बात है कि अच्छी आवाज के धनी मदन मोहन ने ग़ुलाम हैदर के संगीत में एक डुएट लता के साथ गया था पर वह फिल्म में लिया नहीं गया। ये बात अलग है कि प्रारंभ में लता ने भी उन्हें गभीरता से नहीं लिया और उनके साथ काम करने से मना कर दिया। लेकिन जब फिल्म आंखें का संगीत हिट हुआ तो उन्होंने अपनी राय बदल ली।इसमें कोई दो राय नहीं कि हिंदी फि़ल्म संगीत में गजलों को एक नया रूप देने में मदन मोहन का बहहुत बड़ा हाथ था। लता मंगेशकर तो उन्हें गजलों का बादशाह कहती थीं। लता मंगेशकर के साथ उन्होंने बेहतरीन गजलें तैयार की। मदमोहन के साथ लता की गाई हुई एक से एक नायाब गजलें हैं। फिल्म धुन (1953) की गजल- बड़ी बर्बादियां लेकर दुनिया में प्यार आया, अनपढ़ (1962) की- आपकी नजऱों ने समझा प्यार के काबिल मुझे, दस्तक (1970) की गजल हम हैं मता-ए-कूचा-औ-बाज़ार की तरह, फिल्म जहांआरा की वो चुप रहें तो मेरे दिल के दाग़ जलते हैं, बेहतरीन गजले हैं। राग मालगुंजी में मदन मोहन ने -उनको ये शिकायत है कि हम कुछ नहीं कहते , जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए भी हिन्दी फिल्म जगत की बेहतरीन गजले हैं।मदन मोहन ने दाना पानी (1953) में बेग़म अख्तर से कैफ़ इरफ़ानी की गजल- ऐ इश्क़ मुझे और तो कुछ याद नहीं है गवाई। बेग़म अख्तर उस वक्त फि़ल्मों के लिए गाना छोड़ चुकी थीं, लेकिन मदन मोहन ने उन्हें इस गजल के लिए मना ही लिया। उस वक्त बेगम अख्तर ने यदि किसी के लिए गया तो वे मदन मोहन ही थे।उस दौर के महान संगीतकार नौशाद को इस बात का मलाल रहा कि गजल कंपोज़ीशन में वो मदन मोहन से कमतर थे। जबकि वे शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता था और मदन मोहन साहब इस मामले में उनसे कमतर थे।1964 में चेतन आनंद ने एक फि़ल्म बनायी थी हकीक़त। यह हिंदुस्तानी सिनेमा में किसी जंग को लेकर बनायी हुई अब तक की सबसे मौलिक फि़ल्म मानी जाती है। फिल्म का संगीत तैयार करने का मौका मदन मोहन को मिला और इस बार गाने लिखने वाले थे कैफी आजमी। फिल्म के गाने काफी लोकप्रिय हुए। फिल्म का एक गाना....मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था.....आज भी सुनो तो एक अलग अनुभूति देता है। कर चले हम फि़दा जां-ओ-तन साथियों...गीत तो आज भी आजादी के जश्न की शान है। फिल्म में लता मंगेशकर के हिस्से में एक लाजवाब गाना आया... जरा सी आहट होती कि दिल सोचता है.....मदन मोहन और कैफ़ी साहब ने फिल्म हीर रांझा (1970) हंसते ज़ख्म (1973) में भी काम किया। ऑपेरानुमा फिल्म हीर रांझा के गाने भी खासे लोकप्रिय रहे। हंसते ज़ख्म का वह गीत तुम जो मिल गए हो तो ये लगता है .....फिल्म जगत के बेहतीन रोमांटिक गानों में से है। अपनी मधुर संगीत लहरियों से श्रोताओं के दिल में ख़ास जगह बना लेने वाले मदन मोहन 14 जुलाई 1975 को इस दुनिया से जुदा हो गए। उनकी मौत के बाद वर्ष 1975 में ही मदन मोहन की मौसम और लैला मजनूं जैसी फि़ल्में प्रदर्शित हुई जिनके संगीत का जादू आज भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करता है। मदन मोहन साहब के गानों और गजलों की फेहरिस्त काफी लंबी है और उनके संगीत के बारे में लिखने के लिए शब्द कम।मदन मोहन साहब के सुमधुर संगीत से महक उठे कुछ चुनिंदा गाने.....जिसे लोग कभी भुला नहीं पाएंगे-1. लगा जा लगे कि फिर ये हंसी रात2. नैना बरसे रिमझिम3. नैनों में बदरा छाए बिजली सी चमके हाय4. तू जहां जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा5. ऐ दिल मुझे बता दे तू किस पे आ गया है6. तुम जो मिल गए हो....7. आपकी नजऱों ने समझा प्यार के काबिल मुझे8. माई री मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की9. दिल ढूंढता है फिर वहीं फुरसत के रात दिन10. आपकी नजऱों ने समझा प्यार के काबिल मुझे11. हम प्यार में जलने वालोंं को12. ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नही13. सिमटी सी शर्मायी सी तुम किस दुनिया से आई हो14. कर चले हम फि़दा जां-ओ-तन साथियों15. तेरे लिए हम है जिए....------------
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15 जून-जन्म दिवस--सुरैया
आलेख- मंजूषा शर्मा15 जून 1929 को लाहौर में मल्लिका बेगम ने एक बेटी को जन्म दिया और बड़े प्यार से उसका नाम रखा-सुरैया। मल्लिका बेगम को गायकी का शौक था लिहाजा नन्हीं सुरैया पर भी संगीत का खासा असर पड़ा। सुरैया के बचपन पर सात सुरों का रंग ऐसा चढ़ा कि उनकी रुचि खुद ब खुद फिल्मों में होने लगी। बचपन में कानन बाला, खुर्शीद और सहगल के गीतों को गा-गाकर सुरैया की आवाज गायकी में इतनी पुख्ता हो गई कि लगता ही नहीं था कि उन्होंने संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली है।उस वक्त सुरैया के सामने अभिनेत्री बनने की राह में कड़ी चुनौतियां थीं। 1941 में सुरैया को बतौर अभिनेत्री पहली फिल्म मिली मुमताज महल । मोहन स्टुडियो की इस फिल्म में सुरैया की अभिनेत्री बनने की चाहत तो पूरी हो गई, लेकिन दिल के किसी कोने में गायिका बनने की अभिलाषा बार-बार मचल रही थी। उनकी यह साध भी जल्द की निर्माता-निर्देशक कारदार की फिल्म शारदा में पूरी हीे गई जिसमें सुरैया को पहली बार पाश्र्वगायन का मौका मिला वह भी नौशाद के संगीत निर्देशन में।उन दिनों बंबई टॉकीज में देविका रानी की तूती बोला करती थी। सुरैया की प्रतिभा ने इसे भी चुनौती दी और वे जल्द ही बंबई टॉकीज की एक सदस्य बन गई । पांच सौ रुपए वेतन पर सुरैया ने बंबई टॉकीज की फिल्म हमारी बात से काम शुरू किया। मेहबूब खान की 1946 में बनी सुपर हिट फिल्म अनमोल घड़ी में भी सुरैया ने अपने अभिनय का ऐसा जादू बिखेरा कि नूरजहां जैसी अभिनेत्री के सामने उनका सेकंड लीड रोल भी कमतर साबित नहीं हुआ। हालांकि नूरजहां के हिस्से में जहां चार गाने आए , वहीं सुरैया ने केवल एक गाना गाया - सोचा न था क्या, क्या हो गया.. । गुजरे जमाने की अभिनेत्री नादिरा हमेशा याद किया करती थीं कि उनके पिता कैसे सुरैया को देखने और उनका केवल यही गाना सुनने के लिए थियेटर जाया करते थे और गाना खत्म होते ही थियेटर से बाहर निकल आते थे।सहगल , धर्मेन्द्र भी हो गए थे दीवानेसुरैया की आवाज में एक कशिश थी जिसे जो कोई भी सुनता उनका दीवाना हो जाता था। उनकी मादक आवाज के स्वयं सहगल भी दीवाने थे। एक बार उन्होंने सुरैया को एक रिहर्सल के दौरान सुना और फौरन ही निर्माताओं से सिफारिश कर दी कि उनकी अगली फिल्म तदबीर (1945) में सुरैया को ही नायिका बनाया जाए। इस जोड़ी को लोगों ने पसंद किया और सुरैया को सहगल के साथ दो और फिल्में मिल गईं- उमर खय्याम (1946) और परवाना (1947)। इसके बाद के दो साल भी सुरैया के कॅरिअर के लिए सफल साबित हुए। इन दो बरसों में सुरैया ने तीन हिट फिल्में दीं- प्यार की जीत , बड़ी बहन और दिल्लगी । इन फिल्मों की सफलता ने सुरैया को उस जमाने की सबसे महंगी नायिका बना दिया था। फिल्म दिल्लगी में सुरैया को देखकर धर्मेन्द्र तो उनके दीवाने ही हो गए थे। वे आज भी याद करते हैं कि कैसे सुरैया की यह फिल्म देखने के लिए वे मीलों चलकर थियेटर पहुंचे थे और उन्हें यह फिल्म इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने चालीस बार यह फिल्म देख डाली थी, लेकिन उसके बाद भी उनका मन नहीं भरा था।सुरैया के अभिनय और पुरनूर आवाज ने लोगों पर ऐसा जादू बिखेरा कि उनकी एक झलक पाने के लिए उनके घर के सामने लोगों की रोजाना भीड़ लगी रहती थी। गाने की विधिवत तालीम भले ही सुरैया ने नहीं ली , लेकिन वे घर पर रियाज जरूर किया करती थीं। उनकी सुमधुर खनकती हुई आवाज जब राह चलते लोगों तक पहुंचती थीं तो उनके पैर बरबस ठिठक जाते थे।प्यार की जीत में संगीतकार हुश्नलाल भगतराम के संगीत में सुरैया ने कई हिट गाने गाए- वो पास रहे या दूर रहे , ओ दूर जाने वाले । नौशाद ने फिल्म दिल्लगी में जहां सुरैया की आवाज का गजब इस्तेमाल किया है- मुरली वाले मुरली बजा वाले गीत में । वहीं , सचिन देव बर्मन ने भी सुरैया को फिल्म अफसर में शास्त्रीय राग पर आधारित गाना गवाया- मनमोर हुआ मतवाला , किसने जादू डाला रे.. । यह गीत सुनकर लगता ही नहीं कि यह ऐसी गायिका ने गाया है, जिसे शास्त्रीय संगीत का कोई ज्ञान नहीं है।देवआनंद - सुरैया की प्रेम कहानी का दुखद अंत1950 में सुरैया ने अपने बचपन के मित्र राजकपूर के साथ भी एक फिल्म की जिसका नाम था- दास्तान । सुरैया ने सबसे ज्यादा देवआनंद के साथ छह फिल्में की विद्या (1948), जीत (1949 ), शायर (1949 ), अफसर (1950), नीली (1950) और दो सितारे (1951)। हालांकि कोई भी फिल्म खास सफलता प्राप्त नहीं कर पाई, लेकिन दोनों की जोड़ी चर्चित जरूर रही। सुरैया और देवसाहब की जोड़ी लेकिन वास्तविक जीवन में एक रिश्ते में बदलने से पहले ही टूट गई। कहते हैं सुरैया की नानी बादशाह बेगम चाहती थीं कि देवआनंद धर्म बदल लें। और देव साहब चाहते थे कि शादी के बाद सुरैया फिल्में न करें। बादशाह बेगम को समझौता गवारा न था और आखिरकार एक दिन उन्होंने सुरैया की दी हुई देवआनंद की अंगूठी को समुद्र में फेंक दिया। इस तरह सुरैया और देवआनंद की प्रेम कहानी का दुखद अंत हो गया। देवआनंद ने तो कल्पना कार्तिक से विवाह कर लिया पर सुरैया ने जीवन के अंतिम दिनों तक अकेलेपन को ही अपना साथी बनाए रखा।राष्ट्रपति पुरस्कार हासिल कियासुरैया ने 1950 में बनी फिल्म मिर्जा गालिब ने लिए राष्ट्रïपति पुरस्कार हासिल किया। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान कर रहे थे, तब उनके सुरैया के लिए यही शब्द थे- तुमने मिर्जा गालिब की रूह को जिंदा कर दिया।मुकेश की भी नायिका बनीसुरैया ने जहां गायक तलत महमूद के साथ भी नायिका के बतौर वारिस (1954) फिल्म की । वहीं उन्हें एक और गायक मुकेश की नायिका भी बनने का मौका मिला फिल्म माशूका (1953) में । लेकिन इसके बाद वे एक प्रकार से फिल्मों से अलग सी हो गईं। 1963 में बनी फिल्म रुस्तम सोहराब के बाद सुरैया ने रुपहले पर्दे को हमेशा के लिए विदा कह दिया। सुरैया को भड़कीली पोशाकों और भारी गहनों का बहुत शौक था। जीवन के अंतिम दिनों तक उनका यह शौक बराबर बना रहा। - नरगिस को देखते ही दिल दे बैठे थे सुनील दत्तजन्मदिन पर विशेषमुंबई। बॉलीवुड स्टार सुनील दत्त यदि जीवित होते तो वे आज अपना 91 जन्मदिन मना रहे होते और उनके नाम के साथ और न जाने कितने की कीर्तिमान जुड़ गए होते। फिर वह चाहे फिल्मों की बात हो या राजनीति या फिर समाज सेवा, सभी क्षेत्र में सुनील दत्त ने खूब नाम कमाया।दिग्गज अभिनेता ने अपने फिल्मी कॅरिअर में कई शानदार फिल्में दी थी। उनकी विरासत को उनके बेटे संजय दत्त बेहद शिद्दत से निभा रहे हैं। एक्टर सुनील दत्त एक अच्छे पति और एक बेहद अच्छे पिता थे।जब सुनील दत्त नए-नए मुंबई में आए तब उन्होंने बस डिपो में भी नौकरी की थी। दो वक्त की रोटी के लिए उन्हें ये करना पड़ा था। शॉप रिकॉर्डर का उनका काम था। उन्हें इस बात का रिकॉर्ड रखना रहता था कि जब बस आती थी तो उसमें कितना डीजल ऑयल डालना है। इस बात का रिकॉर्ड रखना होता था कि बस को डैमेज क्या हुआ है। उन्हें ये काम दोपहर के ढाई बजे से रात के साढ़े ग्यारह बजे तक करना पड़ता था।उस समय सुनील दत्त कॉलेज में पढ़ाई भी कर रहे थे। वे सुबह साढ़े सात बजे कॉलेज जाते थे। वे कॉलेज टाइम पर पहुंचे इसके लिए भी उन्हें संघर्ष करना पड़ता था, क्योंकि घर तक जाने के लिए आखिरी बस 12 बजे की होती थी और उन्हें काम पूरा करते-करते साढ़े ग्यारह बज जाते थे। ऐसे में अगर आखिरी बस भी छूट जाती तो उन्हें घर पहुंचने में देरी होती और कॉलेज भी समय पर पहुंचने के लिए उन्हें मशक्कत करनी पड़ती थी।उसके बाद सुनील दत्त ने रेडियो सीलोन में काम किया जो कि दक्षिणी एशिया का सबसे पुराना रेडियो स्टेशन है। एक उद्घोषक के रूप में वे बहुत लोकप्रिय हुए। इसके बाद उन्होंने हिन्दी फि़ल्मों में अभिनय करने की ठानी और बम्बई आ गये। 1955 मे बनी रेलवे स्टेशन उनकी पहली फि़ल्म थी पर 1957 की मदर इंडिया ने उन्हें बालीवुड का फिल्म स्टार बना दिया। डकैतों के जीवन पर बनी उनकी सबसे बेहतरीन फिल्म मुझे जीने दो ने वर्ष 1964 का फि़ल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार जीता। उसके दो ही वर्ष बाद 1966 में खानदान फिल्म के लिये उन्हें फिर से फि़ल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार प्राप्त हुआ।उनकी शादी नरगिस दत्त के साथ हुई थी। जिस वक्त नरगिस दत्त और सुनील दत्त की शादी हुई थी। ये बात काफी चर्चा का विषय रही थी। नरगिस दत्त और राज कपूर के अफेयर के चर्चे हमेशा ही सुर्खियां बनते थे। लेकिन जमाने की सभी बंधनों और बाधाओं को दूर कर सुनील दत्त ने आखिरकार अपना प्यार पा ही लिया था। जानिए कैसी थी इनकी लव स्टोरी-ऐसे हुई थी पहली मुलाकातसुनील दत्त की नरगिस से मुलाकात फिल्म दो बीघा जमीन के सेट पर हुई थी। यहीं पर सुनील दत्त नरगिस को पहली नजर में ही दिल दे बैठे थे। इस वक्त नरगिस बड़ी स्टार थी। जबकि सुनील दत्त का फिल्मी कॅरिअर शुरू ही हुआ था।राज कपूर के इश्क में गिरफ्तार थी नरगिसमीडिया रिपोट्र्स की मानें तो उस वक्त नरगिस की राज कपूर के साथ काफी नजदीकियां थी। वो बैक टू बैक आरके स्टूडियोज की फिल्में करती जा रही थी। उनके कथित अफेयर की काफी बातें होती थी। नरगिस फिल्म स्टार राज कपूर को दिल दे तो बैठी थी। लेकिन वो पहले से ही शादीशुदा थे। जिसकी वजह से इनके प्यार को मंजिल नहीं मिल पाई थी।टूटी नरगिस को मिला था सुनील दत्त का सहाराऐसे वक्त जब नरगिस अंदर से टूट चुकी थी। तब सुनील दत्त ने उन्हें सहारा दिया था। इनकी फिल्म मदर इंडिया के सेट पर सुनील दत्त नरगिस के करीब आए। दरअसल, इस फिल्म के सेट पर आग लग गई थी। इस आग में नरगिस फंस चुकी थी। सुनील दत्त ने अपनी जान पर खेलकर नरगिस को आग से बचाया था। इस हादसे में एक्टर को चोटें भी लगी थी। जिसके बाद नरगिस उनकी शुक्रगुजार हो गईं और दोनों की करीबियां बढऩे लगी।ऑन स्क्रीन बेटे से रचाई शादीफिल्म मदर इंडिया में सुनील दत्त ने नरगिस के बेटे बने थे। ऐसे में इन दोनों ने अपने रिश्ते को मीडिया से काफी बचाकर रखा था। नहीं तो इससे फिल्म पर काफी बुरा असर पड़ सकता था।चुपचाप की थी शादीनरगिस और सुनील दत्त अपने रिश्ते को शुरुआती तौर पर फिल्म मदर इंडिया के चलते लोगों से छिपाकर रखना चाहते थे। इसीलिए 1958 में दोनों ने चुपचाप शादी कर ली थी। इस शादी को दोनों ने साल भर तक छुपाकर रखा था। शादी के बाद भी दोनों अपने-अपने घर पर ही रहते थे। साल भर शादी का ऐलान करते हुए दोनों ने ग्रैंड रिसेप्शन दिया और इसके बाद ही साथ रहना शुरू किया। सुनील दत्त और नरगिस के संजय दत्त के अलावा उनकी दो बेटियां भी है। प्रिया दत्त और नम्रता दत्त। प्रिया राजनीति में आई, तो वहीं नम्रता की शादी अभिनेता कुमार गौरव से हुई।नरगिस के जाने से टूट गए थे सुनील दत्तकैंसर से जूझती नरगिस ने बेटे संजय दत्त की डेब्यू फिल्म रॉकी की रिलीज के चंद दिन पहले ही आखिरी सांस ली थी। जिससे सुनील दत्त का गहरा झटका लगा था और वो बुरी तरह टूट गए थे।
- पुण्यतिथि पर विशेष ....मुंबई। शोमैन के खिताब से नवाजे गए एक्टर और निर्देशक राज कपूर की आज 32वीं पुण्यतिथि है। राज कपूर को बचपन से एक्टिंग करने का शौक था। जैसे जैसे वो बड़े होते गए उनकी रूचि और बढ़ती गयी। 14 दिसंबर 1924 को जन्मे राज कपूर ने अपने फिल्मी करिअर में 3 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 11 फिल्मफेयर पुरस्कार हासिल किए।सफेद साड़ी में कृष्णा को देखते ही राज कपूर हो गए थे दीवाने....- हेलो मैगजीन को दिए अपने एक इंटरव्यू में कृष्णा राज कपूर की बेटी रीमा जैन ने उस वक्त को याद करते हुए राज कपूर और अपनी मां की पहली मुलाकात को याद करते हुए कहा था- उनकी (राज कपूर) महिलाओं को सफेद वस्त्रों में देखने की दीवानगी ने ही शायद उन्हें मेरी मां के प्रति पहली दफा आकर्षित किया था। वह उन्हें अपनी पत्नी के रूप में देखने के लिए प्रेमनाथ अंकल के साथ गए थे (दिवंगत एक्टर प्रेमनाथ कृष्णा कपूर के भाई थे।)। उन्होंने खिड़की से एक खूबसूरत लड़की को सफेद साड़ी में बालों पर मोगरा लगाए हुए देखा, जो कि सितार बजा रही थी। मेरी मां कृष्णा तब सितार का लेसन ले रही थीं। एक आर्टिस्ट होने के नाते उन्होंने इस विजुअल पर रिएक्ट किया। उन्हें देवी सरस्वती की छवि दिखाई दी थी। सफेद कपड़ों में स्त्री की यही छवि उनके दिमाग में बैठ गई, जो कि बाद में उनकी फिल्मों में भी नजर आई। मेरी मां हमेशा सफेद कपड़े ही पहनती थी और उनके बालों में हमेशा फूल लगा होता था। जाहिर है कृष्णा को पहली नजर में देखते ही राजकपूर अपना दिल हार बैठे थे।-दिलचस्प बात यह है कि 1946 में राज कपूर और कृष्णा की शादी में शामिल होने के लिए तब के मशहूर एक्टर अशोक कुमार भी पहुंचे थे और उनकी एक झलक पाने के लिए कृष्णा कपूर बेताब हुए जा रही थी। यही वह क्षण था जब राज कपूर ने फिल्मों में बतौर अभिनेता खुद को साबित करने की ठान ली थी। इसके बाद नीली आंखों वाले इस लेंजेड की कहानी हर कोई जानता है। राज कपूर अपनी को-स्टार्स के साथ अफेयर के लिए भी काफी चर्चित रहे हैं। इसके चलते कृष्णा और राज के बीच तकरार भी हुए। खासकर राज कपूर और नरगिस के रिश्तों ने एक दौर में खूब सुर्खियां बटोरी।-राज कपूर का असली नाम रणबीर राज कपूर था। अभिनेता का नाम उनके पोते रणबीर कपूर ने साझा किया है।- राज कपूर ने भारतीय सिनेमा में अपनी शुरुआत 1945 में आई फिल्म इंकलाब के साथ की, जब वो सिर्फ 10 साल के थे।-मात्र 24 साल की उम्र में उन्होंने अपना स्टूडियो - आर.के. फिल्म्स बनाया था। इस स्टूडियो में बनी पहली फिल्म आग कमर्शियल फ्लॉप थी।-राज कपूर की पहली जॉब क्लैपर बॉय की थी। इस नौकरी से उन्हें 10 रुपये प्रति महीना मिलते थे।- फिल्म बॉबी का एक सीन जब ऋषि कपूर डिम्पल कपाडिय़ा से उनके घर पर मिलते हैं। यह राज कपूर की रियल लाइफ पर आधारित था। नरगिस से उनकी पहली मुलाकात ऐसे ही हुई थी।- किसी दौर में राज कपूर नरगिस दत्त के प्यार में पागल थे। कहा जाता है वो नरगिस को पहली नजर में दिल दे बैठे थे।-राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद को भारतीय सिनेमा की पहली तिकड़ी माना जाता है। उनमें दोस्ती भी खूब थी।- राज कपूर को लेकर एक और किस्सा काफी मशहूर है और वह ये है कि वे कभी बिस्तर पर नहीं सोते थें। राज कपूर की बेटी ने इस किस्से का जिक्र करते हुए एक इंटरव्यू में बताया था, राज कपूर कभी बिस्तर पर नहीं सोते थें। वह जिस भी होटल में ठहरते थे, वह पलंग का गद्दा जमीन पर बिछा कर सोते थें। इसको लेकर उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ता था। उन्होंने बताया, एक बार तो होटल वालों ने वार्निंग देकर छोड़ दिया लेकिन फिर भी वह नहीं माने। उन्होंने दूसरे दिन भी पलंग का बिस्तर लेकर जमीन पर सोए जिसके बाद होटल मैनेजर ने उन पर जुर्माना लगा दिया। हालांकि वह जितने दिन भी होटल में रहे वह पलंग से बिस्तर जमीन पर लगा कर ही सोए और जुर्माना दिया।-राज कपूर के बारे में एक कहानी बार बार सुनाई जाती है कि पचास के दशक में जब नेहरू रूस गए तो सरकारी भोज के दौरान जब नेहरू के बाद वहाँ के प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन के बोलने की बारी आई तो उन्होंने अपने मंत्रियों के साथ आवारा हूं.. गाकर उन्हें चकित कर दिया.-राज कपूर अस्थमा के मरीज थे। राज कपूर जब दादा साहब फाल्के अवार्ड लेने दिल्ली आये थे, वहीं उन्हें अस्थमा का अटैक पड़ गया और उनका 63 साल की उम्र में उनका निधन हो गया था।---
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जयंती पर विशेष
अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री नरगिस का जन्म एक जून को हुआ था। उन्हें इंडियन सिनेमा की क्वीन माना जाता है। वह अपनी सौम्यता, अपने आत्मविश्वास और सबसे ज्यादा अपनी आंखों के लिए मशहूर थीं। फिल्मों के जानकार कहते हैं कि शायद ही नरगिस के बाद कोई ऐसी ऐक्ट्रेस हुई हो जिसकी आंखें उनके जितनी सुंदर और बोलने वाली हों।नरगिस का जन्म 1 जून 1929 को कोलकाता में हुआ था और उनका असली नाम फातिमा राशिद था। नरगिस बचपन में अपने भाई अनवर हुसैन और अख्तर हुसैन के साथ फुटबॉल और क्रिकेट खेलती थीं। बात जब कॅरिअर की आई तो उन्होंने फिल्मों का रुख किया।फिल्मों में उनकी जोड़ी सबसे ज्यादा राजकपूर के साथ पसंद की गई। दोनों ने अनेक हिट फिल्में दी जिसके गाने आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं। दोनों के अफेयर के किस्से भी खूब उड़े। कहा जाता है कि नरगिस मिसेस राजकपूर बनने का सपना संजोये हुए थी, लेकिन राजकपूर पत्नी कृष्णा को नहीं छोडऩा चाहते थे। आखिरकार इस रिश्ते का अंत हो गया। राजकपूर कहा करते थे कि कृष्णा भले ही उनके बच्चों की मां हैं, लेकिन उनकी फिल्मों की मां तो नरगिस ही है। फ़स्र्ट फ़ैमिली ऑफ़ इंडियन सिनेमा- द कपूर्स किताब में लिखा है नरगिस ने अपना दिल, अपनी आत्मा और यहां तक कि अपना पैसा भी राज कपूर की फि़ल्मों में लगाना शुरू कर दिया। जब आर के स्टूडियो के पास पैसों की कमी हुई तो नरगिस ने अपने सोने के कड़े तक बेच डाले। उन्होंने आरके फि़ल्म्स के कम होते खज़़ाने को भरने के लिए बाहरी प्रोड्यूसरों की फि़ल्मों जैसे अदालत, घर संसार और लाजवंती में काम किया। बाद में राज कपूर ने उनके बारे में एक मशहूर लेकिन संवेदनहीन वकतव्य दिया, मेरी बीबी मेरे बच्चों की मां है, लेकिन मेरी फि़ल्मों की मां तो नरगिस ही है।राज कपूर के छोटे भाई शशि कपूर बताते थे- नरगिस आर के फि़ल्म्स की जान थीं। उनका कोई सीन न होने पर भी वो सेट्स पर मौजूद रहती थीं।नरगिस ने मदर इंडिया, आग, बरसात, अंदाज, आधी रात, आवारा, श्री 420 और नया दिन नई रात जैसी तमाम हिट फिल्मों में काम किया। उनकी मदर इंडिया ऐसी भारतीय फिल्म थी जो पहली बार ऑस्कर के नॉमिनेशन तक पहुंची। यही वह फिल्म थी जिसके बाद नरगिस और सुनील दत्त ने शादी का फैसला किया। फिल्म में सुनील दत्त भी अहम रोल में थे।शादी में सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि नरगिस मुस्लिम और सुनील हिंदू थे। दोनों का अफेयर काफी सुर्खियों में रहा। कहा जाता है कि इस बात को जानकर मुंबई का एक काफी नामी डॉन नाराज हो गया था। डॉन ने सुनील दत्त को धमकी तक दे डाली मगर सुनील साहस दिखाते हुए डॉन के पास पहुंच गए। डॉन से सुनील दत्त ने कहा, मैं नरगिस से बेहद मोहब्बत करता हूं और शादी करना चाहता हूं। मैं उन्हें जिंदगीभर खुश रखूंगा। अगर आपको यह गलत लगता है तो मुझे गोली मार दीजिए और सही लगता है तो गले लगा लीजिए। सुनील की यह बात सुनकर डॉन काफी खुश हुआ और उन्हें गले लगा लिया। इसके बाद दोनों ने साल 1958 में शादी कर ली। ये शादी तब तक गुप्त रखी गई जब तक मदर इंडिया रिलीज़ नहीं हुई, क्योंकि इस फि़ल्म में सुनील दत्त नरगिस के बेटे का रोल निभा रहे थे।कहा जाता है कि नरगिस की शादी के निर्णय पर राजकपूर फूट-फूट कर रोये थे। यहां तक जब 3 मई 1981 को नरगिस का निधन हुआ, तो उनके जनाने में राज कपूर आम लोगों के साथ सबसे पीछे चल रहे थे। हर कोई उन्हें आगे उनके पार्थिव शरीर के पास जाने के लिए कह रहा था। लेकिन उन्होंने उनकी बात नहीं मानी। उनकी आँखों पर धूप का चश्मा लगा हुआ था। वो धीमे से बुदबुदाए थे, एक-एक करके मेरे सारे दोस्त मुझे छोड़ कर जा रहे हैं। - मुंबई । लोकप्रिय संगीतकार अनिल बिश्वास की आज पुण्यतिथि है। जानी-मानी गायिका लता मंगेशकर ने अनिल बिश्वास को याद करते हुए उन्हें कोटि - कोटि नमन किया है। साथ ही लता दीदी ने अपने ट्वीटर अकाउंट में उनका संगीतबद्ध किया हुए एक गीत पोस्ट किया है। यह गीत है तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है......। इस गीत को लता मंगेशकर ने गाया है। यह गीत फिल्म लाडली का है जो वर्ष 1949 में प्रदर्शित हुई थी।भारतीय सिनेमा जगत में अनिल बिश्वास को एक ऐसे संगीतकार के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने मुकेश , तलत महमूद समेत कई पाश्र्व गायकों को कामयाबी के शिखर पर पहुंचाया।मुकेश के रिश्तेदार मोतीलाल के कहने पर अनिल बिश्वास ने मुकेश को अपनी एक फिल्म में गाने का अवसर दिया था लेकिन उन्हें मुकेश की आवाज पसंद नहीं आयी बाद में उन्होंने मुकेश को वह गाना अपनी आवाज में गाकर दिखाया। इस पर मुकेश ने अनिल बिश्वास ने कहा, दादा बताइये कि आपके जैसा गाना भला कौन गा सकता है यदि आप ही गाते रहेंगे तो भला हम जैसे लोगों को कैसे अवसर मिलेगा। मुकेश की इस बात ने अनिल विश्वास को सोचने के लिये मजबूर कर दिया और उन्हें रात भर नींद नही आयी। अगले दिन उन्होंने अपनी फिल्म ..पहली नजर ..में मुकेश को बतौर पाश्र्वगायक चुन लिया और निश्चय किया कि वह फिर कभी व्यावसायिक तौर पर पाश्र्वगायन नही करेंगे।वर्ष 1937 में महबूब खान निर्मित फिल्म जागीरदार अनिल बिश्वास के सिने कॅरिअर की अहम फिल्म साबित हुयी जिसकी सफलता के बाद बतौर संगीत निर्देशक वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गये। वर्ष 1942 में अनिल बांबे टॉकीज से जुड़ गये और 2500 रुपये मासिक वेतन पर काम करने लगे। वर्ष 1948 में प्रदर्शित फिल्म अनोखा प्यार अनिल बिश्वास के सिने कॅरिअर के साथ..साथ व्यक्तिगत जीवन में अहम फिल्म साबित हुयी। फिल्म का संगीत तो हिट हुआ ही साथ ही फिल्म के निर्माण के दौरान उनका झुकाव भी पाश्र्वगायिका मीना कपूर की ओर हो गया। बाद में अनिल और मीना कपूर ने शादी कर ली। साठ के दशक में अनिल ने फिल्म इंडस्ट्री से लगभग किनारा कर लिया और मुंबई से दिल्ली आ गये।इस बीच उन्होंने सौतेला भाई, छोटी छोटी बातें जैसी फिल्मों को संगीतबद्ध किया। फिल्म ,छोटी छोटी बातें हालांकि बॉक्स ऑफिस पर कामयाब नहीं रही लेकिन इसका संगीत श्रोताओं को पसंद आया। इसके साथ ही फिल्म राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित की गयी। वर्ष 1963 में बिश्वास दिल्ली प्रसार भारती में बतौर निदेशक काम करने लगे और वर्ष 1975 तक काम करते रहे। वर्ष 1986 में संगीत के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुये उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अपने संगीतबद्ध गीतों से लगभग तीन दशक तक श्रोताओं का दिल जीतने वाले इस महान संगीतकार ने 31 मई 2003 को इस दुनिया को अलविदा कहा।अनिल बिस्वास की पत्र-पत्रिका और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चर्चा 1994 में हुई, जब म.प्र. शासन के संस्कृति विभाग ने उन्हें लता मंगेशकर अलंकरण से सम्मानित किया। लता मंगेशकर अपने गायन के आरंभिक चरण में गायिका नूरजहां से प्रभावित थीं। अनिल दा ने लता को छवि से मुक्ति दिलाकर शुद्ध-सात्विक लता मंगेशकर बनाया। अनिल दा के संगीत में लताजी के कुछ उम्दा गीतों की बानगी देखिए- मन में किसी की प्रीत बसा ले (आराम), बदली तेरी नजर तो नजारे बदल गए (बड़ी बहू), रूठ के तुम तो चल दिए (जलती निशानी)।स्वयं लताजी ने इस बात को स्वीकार किया है कि अनिल दा ने उन्हें समझाया कि गाते समय आवाज में परिवर्तन लाए बगैर श्वास कैसे लेना चाहिए। यह आवाज तथा श्वास प्रक्रिया की योग कला है। अनिल दा उन्हें लतिके कहकर पुकारते थे। इसी तरह मुकेश को सहगल की आवाज के प्रभाव से मुक्त कराकर उसे नई शैली प्रदान करने में अनिल दा का ही हाथ है।तलत महमूद की मखमली आवाज पर अनिल दा फिदा थे। तलत की आवाज के कम्पन और मिठास को अनिल दा ने रेशम-सी आवाज कहा था। किशोर कुमार से फिल्म फरेब (1953) में अनिल दा ने संजीदा गाना क्या गवाया, आगे चलकर इस शरारती तथा नटखट गायक के संजीदा गाने देव आनंद-राजेश खन्ना के प्लस-पाइंट हो गए।अनिल बिश्वास के हिट गीत-* 1943 -किस्मत * दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है* धीरे-धीरे आ रे बादल धीरे-धीरे जा* 1945 - पहली नजर * दिल जलता है, तो जलने दे* 1948 -अनोखा प्यार * याद रखना चाँद-तारों इस सुहानी रात को* 1948 - गजरे * दूर पपीहा बोला रात आधी रह गई* 1949 -लाड़ली * तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है* 1950 - आरजू * ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल* 1950 -लाजवाब * जमाने का दस्तूर है ये पुराना* 1951 - आराम * शुक्रिया, ऐ प्यार तेरा शुक्रिया* 1952 -तराना * सीने में सुलगते है अरमाँ* एक मैं हूँ एक मेरी बेकसी की शाम है* 1953 - फरेब * आ मोहब्बत की बस्ती बसाएँगे हम* 1954 - वारिस * राही मतवाले, तू छेड़ एक बार मन का सितार* 1957- जलती निशानी * रूठ के तुम तो चल दिए अब मैं दुआ को क्या करूँ* 1957 -परदेसी * रिमझिम बरसे पानी आज मोरे अँगना
- 0 जाने-माने संगीतकार नौशाद की पुण्यतिथि पर विशेष0 मुफलिसी में नौशाद बिल्डिंग की सीढिय़ों के नीचे सोया करते थे और एक मशहूर एक्ट्रेस उन पर पैर रखकर चली जाती थीं.....आलेख- मंजूषा शर्माबीते जमाने के सुमधुर संगीत की बात जब भी चलती है तो संगीतकार नौशाद का नाम बड़े आदर से लिया जाता रहा है। 40 के दशक से अपना संगीत कॅरिअर शुरु करने वाले नौशाद की अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक यही सोच रही कि अभी तो उन्हें और बेहतरीन संगीत देना है।नौशाद का कलाकार मन आज के रिमिक्स या नकल वाले गाने तैयार करने से बचता रहा, शायद इसीलिए वे अपने बंगले में पुराने सुमधुर संगीत के साये में जीवन बसर कर रहे थे। पाकिस्तान में जब मुगल ए आजम और ताजमहल की धूम मची हुई है। इनके गाने लोग बड़े चाव से सुन रहे हैं, लेकिन उसे तैयार करने वाला इंसान बढ़ती उम्र की बंदिशों के कारण इस सफलता को देखने के लिए इन फिल्मों के प्रीमियर के मौके पर पाकिस्तान नहीं जा पाया।नौशाद का फिल्मी कॅरिअर 64 साल तक लगातार चलता रहा, लेकिन इस दौरान उन्होंने केवल 67 फिल्मों में ही संगीत दिया। लेकिन उनका सुमधुर संगीत इस बात का प्रमाण है कि गुणवत्ता, संख्या से अधिक प्रभावशाली होती है।नौशाद साहब को अपनी आखिरी फिल्म के सुपर फ्लाप होने का बेहद अफसोस रहा। यह फिल्म थी सौ करोड़ की लागत से बनने वाली अकबर खां की ताजमहल, जो रिलीज होते ही औंधे मुंह गिर गई। मुगले आजम को जब रंगीन किया गया, तो उन्हें बेहद खुशी हुई। मारफ्तुन नगमात जैसे संगीत की अप्रियतम पुस्तक के लेखक ठाकुर नवाब अली खां और नवाब संझू साहब से प्रभावित रहे नौशाद ने मुंबई में मिली बेपनाह कामयाबियों के बावजूद लखनऊ से अपना रिश्ता कायम रखा। मुंबई में भी नौशाद साहब ने एक छोटा सा लखनऊ बसा रखा था, जिसमें उनके हम प्याला हम निवाला थे- मशहूर पटकथा और संवाद लेखक वजाहत मिर्जा चंगेजी, अली रजा और आगा जानी कश्मीरी (बेदिल लखनवी), मशहूर फिल्म निर्माता सुल्तान अहमद और मुगले आजम में संगतराश की भूमिका निभाने वाले हसन अली कुमार।यह बात कम लोगों को ही मालूम है कि नौशाद साहब शायर भी थे और उनका दीवान आठवां सुर नाम से प्रकाशित हुआ। पांच मई 2006 को इस फनी दुनिया को अलविदा कह गए नौशाद साहब को लखनऊ से बेहद लगाव था और इसे उनकी खुद की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है- रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है। ये कूचा मेरा जाना पहचाना है। क्या जाने क्यूं उड़ गए पंछी पेड़ों से भरी बहारों में गुलशन वीराना है।नौशाद का जन्म 25 दिसबर, 1919 को लखनऊ में मुंशी वाहिद अली के घर में हुआ था। उन्होंने मात्र 17 साल की उम्र में ही अपनी किस्मत आजमाने के लिए मुंबई की राह पकड़ी। शुरुआती संघर्ष के दिनों में उन्हें उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां, उस्ताज झंडे खां और पंडित खेमचंद्र प्रकाश जैसे गुणी उस्तादों की सोहबत नसीब हुई।नौशाद की आंखों ने फिल्म संगीत का सपना तब देखा था, जब मूक फिल्मों का दौर था। उस समय के जाने-माने गुरुओं उस्ताद गुबत अली, उस्ताद युसूफ अली और उस्ताद बब्बन साहिब से तालीम लेकर नौशाद ने मुंबई की राह पकड़ी। आंखों में कुछ कर दिखाने का सपना था और संघर्ष करने का जज्बा। मुंबई की भूलभुलैया से वे वाकिफ नहीं थे। उन्होंने 15 रुपए का टिकट लिया वो भी फस्र्ट क्लास का और मुंबई की राह पकड़ ली। जेब में 15-20 रुपए की पूंजी ही थी। लखनऊ जैसे शहर से मायानगरी पहुंचने पर इन सपनों को साकार करने में नौशाद को कई-कई रातें भूखे पेट गुजारनी पड़ीं।मुंबई का फुटपॉथ तो उनका साथी बनता जा रहा था। वे अक्सर उस दौर को याद करते हुए बताते थे कि कैसे बारिश से बचने के लिए वे दादर में एक बिल्डिंग की सीढिय़ों के पास पैसेज पर बिस्तर लगाकर सो जाया करते थे और उस दौर की एक जानी-मानी नायिका, जो उसी बिल्डिंग के फ्लैट पर रहा करती थी, सुबह-सुबह जब काम पर निकलती तो मेरे ऊपर पैर रखकर चली जाती थी। बाद में नौशाद ने उस अभिनेत्री का नाम बताया -लीला चिटणीस। उनकी तारीफ में नौशाद कहा करते थे- वे निहायत आला लेडी थी। वो इस मामले में बेकसूर थीं । उन्हें क्या पता था कि कोई उनकी सीढिय़ों के पास पड़ा रहता है। नौशाद ने अपना पहला गाना भी लीला चिटणीस की आवाज में रिकॉर्ड किया था फिल्म थी-कंचन और गाना था- बता दो मोहे कौन गली गए श्याम।नौशाद की मीना कुमारी के साथ भी कुछ ऐसी ही सुखद यादें जुड़ी हुई थीं। नौशाद उनके पिता अलीबख्श साहब को बहुत गुणी व्यक्ति मानते थे। अक्सर उनकी मुलाकात होती थी। मीना कुमारी और उनकी बहनें, उस वक्त काफी छोटी थीं। अपनी शैतानी से वे अक्सर नौशाद को परेशान किया करती थीं। तीनों नौशाद के घर पर रोज पत्थर फेंकती थीं। एक रोज अलीबख्श साहब नौशाद के घर पहुंचे। वे आपस में बातें कर रहे थे। कमरे के पास खुला टैरेस था। अलीबख्श साहब ने देखा कि वहां पर बहुत सारे पत्थर पड़े हुए हैं। उन्होंने जिज्ञासावश पूछा कि भाई, यहां इतने सारे पत्थर क्यों पड़े हुए हैं। नौशाद ने तुरंत बताया कि यह सब आपकी बेटियों की मेहरबानी है। आपकी लड़कियां पत्थर फेंका करती हैं। अलीबख्श फौरन घर गए और मधु, मीना और खुर्शीद की पिटाई की। इस घटना के बाद से तीनें बहनें नौशाद से खूब चिढऩे लगी थीं। यह एक संयोग ही रहा कि मीना कुमारी की बतौर नायिका पहली फिल्म बैजू बावरा का संगीत भी नौशाद ने ही तैयार किया था। इस फिल्म का ही गाना है, बचपन की मोहब्बत को दिल से न जुदा करना जब याद मेरी आए मिलने की दुआ करना.....इसी फिल्म के लिए नौशाद को पहला फिल्म फेयर अवार्ड मिला और मीना कुमारी ने भी इसी फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठï अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार जीता।सुरैया को भी मात्र तेरह साल की उम्र में बतौर प्लेबैक सिंगर पेश करे वाले नौशाद ही थे। उन्होंने ही फिल्म शारदा में नायिका मेहताब के लिए सुरैया की आवाज ली। सुरैया हमेशा यह बात याद करती थीं कि वे नौशाद ही थे, जिनके कारण उन्होंने गाना ना जानते हुए भी एक गायिका के तौर पर लोकप्रियता प्राप्त की। इस फिल्म के गाने को सुनकर कुंदनलाल सहगल ने अपनी नायिका के लिए सुरैया का चयन किया था।नौशाद को स्वतंत्र रुप से पहली फिल्म मिली- शारदा, जिसमें सुरैया से उन्होंने गाया गवाया ,लेकिन उन्हें सफलता मिली फिल्म- रतन से। प्लेबैक सिंगिग शुरु करने का श्रेय जहां नौशाद को जाता है, वहीं उन्होंने ही साउंड मिक्सिंग यानी आवाज तथा संगीत को अलग-अलग रिकॉर्ड करने तथा बाद में उन्हें मिलाकर गाना तैयार करने की तकनीक भी पहले पहल इस्तेमाल की।नौशाद एक समय सबसे मंहगे संगीतकार माने जाते थे। उन्हें एक फिल्म के संगीत के लिए ढाई हजार मिला करते थे। इसके बाद भी उन्हें पुरस्कारों के मामले में हमेशा पीछे छोड़ दिया जाता था। हालांकि उन्हें दादा साहब फाल्के सम्मान भी मिला था, लेकिन सही समय पर पुरस्कार का मिलना जितनी खुशी देता है, इस बात का शायद पुरस्कार का चयन करने वालों को पता नहीं होता है।नौशाद को पहली बार स्वतंत्र रूप से 1940 में प्रेम नगर में संगीत देने का अवसर मिला, लेकिन उनकी अपनी पहचान बनी 1944 मेें प्रदर्शित हुई फिल्म रतन, से जिससे जोहरा बाई अम्बाले वाली, अमीर बाई कर्नाटकी, करन दीवान और श्याम के गाए गीत बहुत लोकप्रिय हुए और यही से शुरू हुआ कामयाबी का ऐसा सफर जो कम लोगों के हिस्से ही आता है।अंदाज, आन, मदर इंडिया, अनमोल घड़ी, बैजू बावरा, अमर, स्टेशन मास्टर, शारदा, कोहिनूर, उडऩ खटोला, दीवाना, दिल्लिगी, दर्द, दास्तांन, शबाब, बाबुल, मुगले आजम, दुलारी, शाहजहां, लीडर, संघर्ष, मेरे महबूब, साज और आवाज, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम, गंगा जुमना, आदमी, गंवार, साथी, तांगेवाला, पालकी, आईना, धर्मकांटा, पाकीजा (गुलाम मोहम्मद के साथ संयुक्त रूप से), सन ऑफ इंडिया, लव एंड गाड सहित अन्य कई फिल्मों में उन्होंने अपने संगीत से लोगों को झूमने पर मजबूर किया।उन्होंने छोटे पर्दे के लिए द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान और अकबर द ग्रेट जैसे धारावाहिकों में भी संगीत दिया। उनका तैयार किया हुआ संगीत और प्यारी-प्यारी धुनें आज भी बजा करती हैं और आज की पीढ़ी भी उसे बड़े चाव से सुनती है, क्योंकि अच्छा संगीत वही है, जो कानों को प्यारा लगे और दिल तक पहुंचे।
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जयंती पर विशेष
भारतीय फिल्म संगीत के सबसे सुरीले गायक मन्ना डे का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता रहा है। मन्ना डे की आवाज हर दौर में पसंद की गई। अनेक राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पुरस्कार जीतने के बाद उन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए भी चुना गया। यह बात अलग है कि इतने सुरीले गायक को वो मुकाम नहीं मिल पाया जिसके वे वास्तव में हकदार थे।1950 से 1970 के दशक को हिंदी फिल्म संगीत का स्वर्णिम युग कहा जाता है और इसे स्वर्णिम बनाने में मन्ना डे की सुनहरी आवाज का बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हें रवीन्द्र संगीत का भी चितेरा माना जाता था। उनके गाए मीठे गीतों की बानगी देखिए।ए भाई जरा देख के चलो, कस्मे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या, ए मेरी जोहरा जबीं, पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, ए मेरे प्यारे वतन आदि गीतों के बोल, मूड और माहौल भले ही अलग-अलग है लेकिन इन सब में एक बात समान है कि इन्हें भारतीय फिल्म संगीत के सबसे सुरीले गायक मन्ना डे ने अपनी आवाज से संवारा है ।कई राष्टï्रीय पुरस्कारों , राज्य सरकारों के सम्मान और श्रेष्ठ गायक के ढेरों पुरस्कारों से सम्मानित मन्ना डे को 1971 में पद्मश्री और 2005 में पद्म विभूषण से अलंकृत किया गया । संगीत को उनके योगदान को देखते हुए उन्हें वर्ष 2007 का दादा साहब फालके पुरस्कार देने की घोषणा की गई।मन्ना डे ने 1943 में तमन्ना फिल्म में पहली बार पाश्र्वगायक के तौर पर अपनी आवाज दी और उसके बाद वह धीरे-धीरे हिंदी फिल्म संगीत के एक ठोस स्तंभ बनते चले गए। 1950 से 1970 के दशक को हिंदी फिल्म संगीत का स्वर्णिम युग कहा जाता है और इसे स्वर्णिम बनाने में मन्ना डे की सुनहरी आवाज का बहुत बड़ा योगदान रहा । उन्होंने मोहम्मद रफी, किशोर कुमार और मुकेश के साथ मिलकर भारतीय फिल्म संगीत की एक मजबूत नींव रखी । किसी भी फिल्म का संगीत इन चारों की पुरसोज आवाज के बिना अधूरा माना जाता था और इनमें भी मन्ना डे को शास्त्रीय संगीत का पारंगत कहा जाए तो गलत नहीं होगा ।एक मई 1919 को पूरण चंद्र और महामाया डे के यहां जन्मे प्रबोध चंद्र डे को आप और हम मन्ना डे के नाम से जानते हैं। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि मन्ना डे को बचपन में पहलवानी और मुक्केबाजी का शौक हुआ करता था। कहां रफ टफ पहलवानों का अक्खड़ मिजाज और कहां गायकी के महीन सुर, दोनों में कहीं कोई समानता नहीं लेकिन मन्ना डे ने इन दोनों में बेहतरीन तरीके से तालमेल बिठाया। स्काटिश चर्च कॉलेज के दिनों में मन्ना डे अपने सहपाठियों की फरमाइश पर अकसर गाया करते थे। उनके चाचा संगीताचार्य के सी डे ने बहुत छुटपन में ही उन्हें संगीत की बारीकियों से अवगत कराया और उनकी मीठी आवाज ने उन्हें हर गीत को चाशनी बना देने का हुनर बख्शा।1942 में मन्ना डे अपने चाचा के पास मुंबई गए और वहां उनके सहायक के तौर पर काम करना शुरू कर दिया। कुछ समय तक वह सचिन देव बर्मन के सहायक रहे और बाद में कुछ अन्य संगीत निर्देशकों के साथ भी काम किया। इस दौरान वह उस्ताद अमन अली खान और उस्ताद अब्दल रहमान खान से गायकी की बारीकियां सीखते रहे ।उन्होंने 1943 में तमन्ना फिल्म में सुरैया के साथ युगल गीत गाया। यह गाना खूब सफल रहा और उनकी ठहरी हुई पुरकशिश आवाज को खूब पसंद किया गया । इसके बाद उन्होंने राम राज्य, कविता, महाकवि, विक्रमादित्य, प्रभु का घर, वाल्मीकी और गीत गोविंद जैसी फिल्मों के लिए अपनी आवाज दी। उन दिनों फिल्में बहुत कम बनती थीं इसलिए वह भी साल में एकाध फिल्म में ही गीत गा पाते थे।50 के दशक तक मन्ना डे एक मंझे हुए पाश्र्व गायक के तौर पर स्थापित हो गए और उन्होंने आवारा, दो बीघा जमीन, हमदर्द, परिणीता, चित्रांगदा, बूट पालिश और श्री 420 जैसी फिल्मों के लिए पाश्र्व गायन किया। आमतौर पर राजकपूर की फिल्मों में मुकेश अपनी आवाज दिया करते थे लेकिन कुछ गीतों के लिए राज कपूर ने मन्ना डे की आवाज पर भरोसा किया । श्री 420 का मुड़ मुड़ के न देख, मुड़ मुड़ के, मेरा नाम जोकर का ए भाई जरा देख के चलो और बॉबी फिल्म का ना मांगू सोना चांदी आदि ऐसे ही कुछ गीत हैं।मन्ना डे की आवाज हर दौर में पसंद की गई। उन्होंने शोले, लावारिस, सत्यम शिवम सुंदरम, चोरों की बारात, क्रांति, कर्ज, सौदागर, हिंदुस्तान की कसम, बुडढ़ा मिल गया जैसी तमाम फिल्मों के गीतों को स्वर दिया । उन्होंने देश के महान शास्त्रीय गायकों में शुमार भीमसेन जोशी के साथ फिल्म बसंत बहार में केतकी गुलाब जूही, चंपक बन फूले जैसा शुद्ध शास्त्रीय राग पर आधारित गीत गाकर अपनी सुर साधना का परिचय दिया । उन्हें रवीन्द्र संगीत का भी चितेरा माना जाता था और उन्होंने करीब 3500 से अधिक गीत गाए।दादा साहब फालके पुरस्कार से पहले मन्ना डे को 1969 में फिल्म मेरे हुजूर के लिए और 1971 में बांग्ला फिल्म निशी पद्मा के लिए राष्टï्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें 1985 में लता मंगेशकर पुरस्कार दिया। इसके अलावा भी उन्हें पाश्र्वगायन के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उनके गाए सदाबहार गीत आज भी लोगों के दिलों में गहरे तक उतरने की क्षमता रखते हैं।आलेख- मंजूषा शर्मा - पुण्यतिथि पर विशेषआलेख -मंजूषा शर्मामीना कुमारी- टुकड़े टुकड़े दिन बिता, धज्जी धज्जी रात मिली31 मार्च 1972 को मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी ने अंतिम सांसें लीं। मीना कुमारी ने हिन्दी सिनेमा जगत में जिस मुकाम को हासिल किया वो आज भी याद किया जाता है । वे जितनी उच्चकोटि की अदाकारा थीं उतनी ही उच्चकोटि की शायरा भी। अपने दर्द, ख्वाबों की तस्वीरों और ग़म के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम लोगों को मालूम है। उन्होंने अपनी भावनाओं को जिसतरह से नज्मों और शेरो शायरी में ढाला उन्हें पढ़कर लगता है कि जैसे कोई नसों में हजारों सुईयां इसतरह चुभो रहा हो, कि उफ करने की हिम्मत भी न हो रही हो। सिर्फ सिसकियों की आवाज कानों में गूंज रही है।सुंदर चांद सा नूरानी चेहरा और उस पर आवाज़ में ऐसा मादक दर्द, सचमुच एक दुर्लभ उपलब्धि का नाम था मीना कुमारी। इन्हें ट्रेजेडी क्वीन यानी दर्द की देवी जैसे खिताब दिए गए। पर यदि उनके सपूर्ण अभिनय संसार की पड़ताल करें तो एक सीमा में उन्हें बांधना उनके सिनेमाई व्यक्तित्व के साथ नाइंसाफी ही होगी। गम के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम कलमकारों के बूते की बात होती है।मीना कुमारी के लिए गम का ये दामन शायद अल्लाह ताला की वदीयत थी जैसे। तभी तो कहा उन्होंने - कहां अब मैं इस गम से घबरा के जाऊं, कि यह ग़म तुम्हारी वदीयत है मुझको।मीना कुमारी ने अपनी जिंदगी में बहुत से गम झेले । कहा जाता है कि पैदा होते ही उनके पिता अली बख्श ने रुपये के तंगी और पहले से दो बेटियों के बोझ से घबरा कर अपनी नवजात बेटी महजबीं यानी मीना कुमारी को एक मुस्लिम अनाथ आश्रम में छोड़ आए। अम्मी के काफी रोने -धोने पर मीना कुमारी की घर वापसी हुई। इसीलिए छोटी सी उम्र में उन्होंने अपने परिवार का बोझ अपने कांधों पर ले लिया और अभिनेत्री बन गईं। परिवार हो या वैवाहिक जीवन मीना जी को तन्हाइयां हीं मिली और शायद इसीलिए उनकी शायरी और आवाज में उनका दर्द उभर आता था। उन्हें सच्चे प्रेम की हमेशा तलाश रही और एक बच्चे की आस ने उन्हें अंदर तक तोड़ कर रख दिया था।उनकी एक नज्म है जिसमें उन्होंने अपने दिल का दर्द जैसे निचोड़ कर रख दिया है। इस नज्म को उन्होंने गुलजार साहब के कहने पर ही अपनी आवाज में रिकॉर्ड करवाया।चांद तन्हा है,आस्मां तन्हादिल मिला है कहां -कहां तन्हां।बुझ गई आस, छुप गया ताराथात्थारता रहा धुआं तन्हां।जिंदगी क्या इसी को कहते हैंजिस्म तन्हां है और जां तन्हां।हमसफऱ कोई गर मिले भी कहींदोनों चलते रहे यहां तन्हां।जलती -बुझती -सी रौशनी के परेसिमटा -सिमटा -सा एक मकां तन्हां।राह देखा करेगा सदियों तकछोड़ जायेंगे ये मकां तन्हा।अपनी इस नज्म की तरह मीना कुमारी भी तन्हां बसर करते हुए एकदिन सचमुच सारे जहां को तन्हां कर गईं । जब तक जिन्दा रहीं दर्द चुनते रहीं संजोती रहीं और अपने आप को नशे में डुबोती रहीं। कहा जाता है कि इसी शराब ने उनकी जान ले लीं। वह कोई साधारण अभिनेत्री नहीं थी, उनके जीवन की त्रासदी, पीड़ा, और वो रहस्य जो उनकी शायरी में अक्सर झांका करता था, वो उन सभी किरदारों में जो उन्होंने निभाया बाखूबी झलकता रहा। फिल्म साहब बीवी और गुलाम में मीना कुमारी की छोटी बहू की भूमिका को देखकर आज भी ऐसा लगता है कि जैसे यह भूमिका केवल उन्हीं के लिए लिखी गई थीं और इसमें उनकी निजी जिंदगी का सारा दर्द जैसे साकार हो गया है। न जाओ सैया छुडाके बैयां... गाती उस नायिका की छवि कभी जेहन से उतरती ही नहीं।मीना कुमारी ने लिखा है-टुकड़े -टुकड़े दिन बिता, धज्जी -धज्जी रात मिलीजितना -जितना आंचल था, उतनी हीं सौगात मिली।जब चाह दिल को समझे, हंसने की आवाज़ सुनीजैसा कोई कहता हो, ले फिऱ तुझको मात मिली।होंठों तक आते -आते, जाने कितने रूप भरेजलती -बुझती आंखों में, सदा-सी जो बात मिली।मीना कुमारी गुलजार साहब के काफी करीब थी, लेकिन यह केवल एक शायरा और गुरु का रिश्ता था। तभी तो मरने से पहले उन्होंने अपनी सारी नज्में और शेरो शायरी गुलजार के नाम कर दी। एक बार गुलज़ार साहब ने मीना कुमारी को उनकी एक तस्वीर के साथ एक नज्म पढऩे को दी जिसे उन्होंने खास मीना के लिए ही लिखा था-शहतूत की शाख़ पे बैठी मीनाबुनती है रेशम के धागेलम्हा -लम्हा खोल रही हैपत्ता -पत्ता बीन रही हैएक एक सांस बजाकर सुनती है सौदायनएक -एक सांस को खोल कर आपने तन पर लिपटाती जाती हैअपने ही तागों की कैदीरेशम की यह शायरा एक दिनअपने ही तागों में घुट कर मर जायेगी।इसे पढ़ कर मीना जी हंस पड़ी थीं। कहने लगीं-जानते हो न, वे तागे क्या हैं ? उन्हें प्यार कहते हैं। मुझे तो प्यार से प्यार है। प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है। इतना प्यार कोई अपने तन से लिपटाकर मर सके, तो और क्या चाहिए ?उनकी वसीयत के मुताबिक प्रसिद्ध फि़ल्मकार और लेखक गुलज़ार को मीनाकुमारी की 25 निजी डायरियां प्राप्त हुईं। उन्हीं में लिखी नज्मों, गजलों और शेरो के आधार पर गुलज़ार ने मीनाकुमारी की शायरी का एकमात्र प्रामाणित संकलन तैयार किया ।इसमें गुलजार साहब ने लिखा- मैं, इस मैं से बहुत डरता हूं।शायरी मीना जी की है, तो फिर मैं कौन ? मैं क्यों ?मीना जी की वसीयत में पढ़ा कि अपनी रचनाओं, अपनी डायरियों के सर्वाधिकार मुझे दे गई हैं। हालांकि उन पर अधिकार उनका भी नहीं था, शायर का हक़ अपना शेर-भर सोच लेने तक तो है; कह लेने के बाद उस पर हक़ लोगों का हो जाता है। मीना जी की शायरी पर वास्तविक अधिकार तो उनके चाहने वालों का है। और वह मुझे अपने चाहने वालों के अधिकारों की रक्षा का भार सौंप गई हैं। यह पुस्तक मेरी उस जि़म्मेदारी को निभाने का प्रयास है।निर्देशक विजय भट्ट ने महजबीं को मीना कुमारी का नया नाम दिया था। फिर कमाल अमरोही ने उनसे निकाह करने के बाद उन्हें नाम दिया मंजू। नाज उपनाम से वे शायरी किया करती थीं। पर नाम बदलने से भी मीना कुमारी की किस्मत नहीं बदली। सच्चे प्यार की तलाश उन्हें ताउम्र रही-प्यार सोचा था, प्यार ढूंढ़ा थाठंडी-ठंडी-सी हसरतें ढूंढ़ीसोंधी-सोंधी-सी, रूह की मिट्टीतपते, नोकीले, नंगे रस्तों परनंगे पैरों ने दौड़कर, थमकर,धूप में सेंकीं छांव की चोटेंछांव में देखे धूप के छालेअपने अन्दर महक रहा था प्यार -ख़ुद से बाहर तलाश करते थेवहीं एक जगह मीना कुमारी ने अपने जज्बातों को कुछ इसतरह से बयां किया-ये रात ये तन्हाईये दिल के धड़कने की आवाज़ये सन्नाटाये डूबते तारों कीखा़मोश गजल खवानीये वक्त की पलकों परसोती हुई वीरानीजज्बा़त ए मुहब्बत कीये आखिरी अंगड़ाईबजाती हुई हर जानिबये मौत की शहनाईसब तुम कब बुलाते हैंपल भर को तुम आ जाओबंद होती मेरी आंखों मेंमुहब्बत का एक ख्वाब सजा जाओ।मीना कुमारी जब तक जिन्दा थीं, सरापा दिल की तरह जिन्दा रहीं। दर्द चुनती रहीं, बटोरती रहीं और दिल में समोती रहीं। भगवान कभी - कभी किसी के कॅरिअर में इतनी रौशनी भर देता है कि उसकी चकाचौंध से उसका अपना दिल का कोना अंधेरों में भर जाता है, मीना कुमारी के साथ शायद ऐसा ही कुछ हुआ होगा। जब तक जिंदा रहीं रिश्तेदारों के लिए खर्च करती रहीं। तभी तो मौत के बाद उनकी लाश लावारिस अस्पताल में पड़ी थी, क्योंकि उनके इलाज के पैसे नहीं चुकाए गए थे। आखिरकार मीना कुमारी के एक जबरदस्त प्रशंसक रहे उसी अस्पताल के ही एक डॉक्टर ने यह बिल अदा किया। तब जाकर उनका अंतिम संस्कार हो पाया।
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जब सुनील दत्त-नरगिस ने मीना कुमारी को पाकीजा फिल्म पूरी करने के लिए मनाया
आलेख - मंजूषा शर्मा-------आपके पांव देखे .. बहुत हसीन है, इन्हें ज़मीन पे मत उतारीएगा मैले हो जाएंगे... जैसे संवादों से सजी फिल्म पाकीजा की जब - जब बात होगी, कमाल अमरोही यानी सैयद आमिर हैदर और उसके संगीत का जिक्र होगा। फिल्म के शायराना संवाद कमाल अमरोही की ही कलम से निकले। यदि वे आज जिंदा होते तो शायद इसी तरह की क्लासिक फिल्में बना रहे होते।फिल्म, पाकीज़ा को बनने में 14 साल लगे, पर आज भी यह फिल्म क्लासिक फिल्मों में गिनी जाती है। फिल्म की सफलता को देखने के लिए न तो मुख्य नायिका मीना कुमारी जिंदा थीं, और ही इसके संगीतकार गुलाम मोहम्मद। एक प्रकार से कहा जाए तो उनकी मौत ने ही इस फिल्म को हिट बना दिया था। हालांकि यह अपने दौर की पहली फिल्म थी जिसमें दो- दो संगीतकार थे, गुलाम मोहम्मद और नौशाद।फिल्म को कमाल अमरोही ने 1956 में पत्नी मीना कुमारी के साथ ब्लैक एंड व्हाइट में बनाना शुरू किया और फिल्म के नायक का किरदार अशोक कुमार को दिया, लेकिन 14 साल में काफ़ी कुछ बदल गया और अशोक कुमार की जगह वो किरदार राज कुमार को मिल गया। फिल्म के बनने के दौरान ही मीना कुमारी और कमाल अमरोही का तलाक़ हो गया और फिल्म के संगीत निर्देशक गुलाम मोहम्मद का निधन, जिस वजह से फिल्म डब्बा बंद हो गयी। फिर जब सुनील दत्त और नरगिस ने फिल्म के कुछ भाग देखे तो उन्होंने मीना कुमारी को फिल्म पूरी करने के लिए मनाया और संगीत के लिए नौशाद साहब को लाया गया। कहते है कि मीना कुमारी उस वक्त काफ़ी शराब पीने की वजह से बीमार रहती थीं और इसलिए फिल्म के ज्यादातर दृश्यों में उन्हें बैठे हुए दिखाया गया है। फिल्म का आखिरी गाना -आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे, तीरे नजऱ देखेंगे...... पद्मा खन्ना पर फिल्माया गया है और मीना कुमारी के दृश्यों को काफ़ी नज़दीक से लिया गया है। फिल्म का सबसे मजबूत पहलू उसके संवाद और उसके गाने हैं। फिल्म के संवाद कमाल अमरोही ने लिखे जो शायरी से कम नहीं हैं, जिसका एक-एक लफ्ज मुस्लिम समाज की बारीकिय़ां दिखाता है। फिल्म का संगीत पक्ष भी काबिले तारीफ है।ठाढ़े रहियो ओ बांके यार रे...60 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में फिल्म पाकीजा के निर्माण की योजना बनी थी। फिल्म-निर्माण प्रक्रिया में इतना अधिक समय लग गया कि दो संगीतकारों को फिल्म का संगीत तैयार करना पड़ा। वर्ष 1972 में प्रदर्शित पाकीजा के संगीत के लिए संगीतकार गुलाम मोहम्मद ने शास्त्रीय रागों का आधार लेकर एक से बढ़कर एक गीतों की रचना की थी। इन्हीं में से एक राग मांड पर आधारित ठुमरी - ठाढ़े रहियो ओ बांके यार रे... थी। यह परम्परागत ठुमरी नहीं है, इसकी रचना मजरुह सुल्तानपुरी ने की है परन्तु भावों की चाशनी से पगे शब्दों का कसाव इतना आकर्षक है कि परम्परागत ठुमरी का भ्रम होने लगता है। राजस्थान की प्रचलित लोकधुन से विकसित होकर एक मुकम्मल राग का दर्जा पाने वाले राग मांड में निबद्ध होने के कारण नायिका के मन की तड़प का भाव मुखर होता है। ठुमरी में तबले पर दादरा और तीनताल का अत्यन्त आकर्षक प्रयोग किया गया है।संगीतकार गुलाम मोहम्मद ने इस ठुमरी के साथ-साथ चार-पांच अन्य गीत अपने जीवनकाल में ही रिकॉर्ड करा लिए थे। इसी दौरान वह ह्रदय रोग से पीडि़त हो गए थे। उनके अनुरोध पर फिल्म के दो गीत - यूं ही कोई मिल गया था.. और चलो दिलदार चलो... संगीतकार नौशाद ने रिकॉर्ड किया। फिल्म पाकीज़ा के निर्माण के दौरान ही गुलाम मोहम्मद 18 मार्च, 1968 को इस दुनिया से रुखसत हो गए। उनके निधन के बाद फिल्म का पाश्र्व संगीत और कुछ गीत नौशाद ने परवीन सुल्ताना, राजकुमारी और वाणी जयराम की आवाज में जोड़े। इस कारण गुलाम मोहम्मद के स्वरबद्ध किए कई आकर्षक गीत फिल्म में शामिल नहीं किये जा सके। फिल्म में शामिल नहीं किये गए गीतों को रिकार्ड कम्पनी एच.एम.वी. ने बाद में पाकीजा रंग विरंगी शीर्षक से जारी किया था। महत्वाकांक्षी फिल्म पाकीजा गुलाम मोहम्मद के निधन के लगभग चार वर्ष बाद प्रदर्शित हुई थी। संगीत इस फिल्म का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष सिद्ध हुआ, किन्तु इसके सर्जक इस सफलता को देखने के लिए हमारे बीच नहीं थे।फिल्म पाकीजा में गुलाम मोहम्मद ने लता मंगेशकर की आवाज़ में राग पहाडी पर आधारित एकल गीत - चलो दिलदार चलो... रिकॉर्ड किया था, परन्तु फिल्म में इसी गीत को लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी के युगल स्वरों में नौशाद ने रिकॉर्ड कर शामिल किया था। एकल गीत में जो प्रवाह और स्वाभाविकता है, वह युगल गीत में नहीं है।फिल्म की कहानीपाकीजा की कहानी एक पाक दिल तवायफ साहिबजान (मीना कुमारी) की है, जो नरगिस (मीना कुमारी) और शहाबुद्दीन (अशोक कुमार) की बेटी है। जब शहाबुद्दीन का परिवार एक तवायफ़ (नरगिस) को अपनाने से इनकार कर देता है तो नरगिस एक कब्रिस्तान में आकर रहने लगती है और वहीं अपनी बेटी साहिबजान को जन्म देकर गुजऱ जाती है। साहिबजान अपनी खाला नवाब जान के साथ दिल्ली के कोठे पर बड़ी होती है और मशहूर तवायफ़ बनती है। 17 साल बाद शहाबुद्दीन को जब इस बात की खबर मिलती है तो वो अपनी बेटी को लेने उसके कोठे पहुंचता है, लेकिन उसे वहां कुछ नसीब नहीं होता। एक सफऱ के दौरान साहिबजान की मुलाकात सलीम (राज कुमार) से होती है और सलीम का एक खत साहिबजान के ख्यालों को पर दे जाता है। सलीम उसे अपने साथ निकाह करने के लिए कहता है और साहिबजान को मौलवी साहब के पास ले जाता है। नाम पूछे जाने पर सलीम, साहिबजान का नाम पाकीजा बतलाता है जो साहिबजान को अपना अतीत याद करके पर मजबूर कर देता है और वो उसे छोड़ कर वापिस कोठे पर आ जाती है।एक दिन साहिबजान के पास सलीम की शादी पर मुजरा करने का न्योता आता है और वो उसे कबूल कर लेती है, लेकिन वो इस बात से अंजान होती है की यह वही हवेली है जिसके दरवाजे से कभी उसकी मां नरगिस को दुत्कार कर निकाला गया था। सलीम, शहाबुद्दीन का भतीजा है और साहिबजान को आज उसके प्यार और परिवार के सामने मुजरा करना है। फिल्म का यह आखिरी सीन होता है। इसी दृश्य में -आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे, गीत फिल्माया गया ।फिल्म का एक-एक दृश्य इतनी बारीकी से फिल्माया गया है कि वह आपको एक अलग दुनिया में ले जाता है। इस फिल्म को कमाल अमरोही के साथ-साथ मीना कुमारी और संगीतकार गुलाम मोहम्मद की सबसे श्रेष्ठ फिल्म माना जाता है। कभी किसी और अंक में हम एच.एम.वी.के अलबम- पाकीजा रंग विरंगी का जिक्र करेंगे। इस अलबम को सुनने के बाद आपको इस बात का अफसोस हो सकता है कि आखिरकार ये गाने पाकीजा में क्यों नहीं शामिल किए गए।----़ -
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में स्थित पवित्र धार्मिक नगरी राजिम में प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक पंद्रह दिनों का मेला लगता है। राजिम तीन नदियों का संगम है इसलिए इसे त्रिवेणी संगम भी कहा जाता है, यहाँ मुख्य रूप से तीन नदिया बहती है, जिनके नाम क्रमशः महानदी, पैरी नदी तथा सोढुर नदी है, राजिम तीन नदियों का संगम स्थल है, संगम स्थल पर कुलेश्वर महादेव जी विराजमान है। वर्ष 2001 से राजिम मेले को राजीव लोचन महोत्सव के रूप में मनाया जाता था, 2005 से इसे कुम्भ के रूप में मनाया जाता रहा था, और अब 2019 से राजिम पुन्नी मेला महोत्सव मनाया जा रहा है। यह आयोजन छत्तीसगढ़ शासन धर्मस्व एवं पर्यटन विभाग एवम स्थानीय आयोजन समिति के सहयोग से होता है। मेला की शुरुआत कल्पवाश से होती है पखवाड़े भर पहले से श्रद्धालु पंचकोशी यात्रा प्रारंभ कर देते है पंचकोशी यात्रा में श्रद्धालु पटेश्वर, फिंगेश्वर, ब्रम्हनेश्वर, कोपेश्वर तथा चम्पेश्वर नाथ के पैदल भ्रमण कर दर्शन करते है तथा धुनी रमाते है। 101 कि॰मी॰ की यात्रा का समापन होता है और माघ पूर्णिमा से मेला का आगाज होता है, राजिम माघी पुन्नी मेला में विभिन्न जगहों से हजारो साधू संतो का आगमन होता है, प्रतिवर्ष हजारो के संख्या में नागा साधू, संत आदि आते है, तथा विशेष पर्व स्नान तथा संत समागम में भाग लेते है, प्रतिवर्ष होने वाले इस माघी पुन्नी मेला में विभिन्न राज्यों से लाखो की संख्या में लोग आते है और भगवान श्री राजीव लोचन तथा श्री कुलेश्वर नाथ महादेव जी के दर्शन करते है और अपना जीवन धन्य मानते है। लोगो में मान्यता है की भनवान जगन्नाथपुरी जी की यात्रा तब तक पूरी नही मानी जाती जब तक भगवान श्री राजीव लोचन तथा श्री कुलेश्वर नाथ के दर्शन नहीं कर लिए जाते, राजिम माघी पुन्नी मेला का अंचल में अपना एक विशेष महत्व है। राजिम अपने आप में एक विशेष महत्व रखने वाला एक छोटा सा शहर है राजिम गरियाबंद जिले का एक तहसील है प्राचीन समय से राजिम अपने पुरातत्वो और प्राचीन सभ्यताओ के लिए प्रसिद्द है राजिम मुख्य रूप से भगवान श्री राजीव लोचन जी के मंदिर के कारण प्रसिद्द है। राजिम का यह मंदिर आठवीं शताब्दी का है। यहाँ कुलेश्वर महादेव जी का भी मंदिर है। जो संगम स्थल पर विराजमान है। राजिम माघी पुन्नी मेला प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक चलता है। इस दौरान प्रशासन द्वारा विविध सांस्कृतिक व् धार्मिक आयोजन आदि होते रहते है। -
यह आवश्यक होगा कि हम भारतीय मुसलमान, ईसाई, यहूदी, पारसी और अन्य सभी लोग जिनके लिए भारत उनका घर है, साथ जीने और मरने के लिए एक समान ध्वज को अपनाएं : महात्मा गांधी---
दुनिया में हर राष्ट्र का अपना एक ध्वज है। ध्वज प्रतीक है राष्ट्र की स्वतंत्रता और संप्रभुता का। अंग्रेजों की गुलामी के समय हमारे देश में इंग्लैंड का ध्वज यूनियन जैक फहराया जाता था। परतंत्रता की इन बेड़ियों को तोड़ना आसान न था लेकिन हम भारत माता के लाखों उन सपूतों के आभारी हैं, जिन्होंने अपना भविष्य और अपने परिवार की चिंता छोड़ मां भारती की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। हमारा राष्ट्रीय ध्वज, लहरता-फहरता ये तिरंगा उसी महान स्वतंत्रता संग्राम की एक उत्पत्ति है।
हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा न सिर्फ हमें उनकी याद दिलाता है जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए अपना बलिदान कर दिया बल्कि हमें राष्ट्र के प्रति हमारे कर्त्तव्यों के प्रति भी जागरूक करता है। यह हमें यह भी याद दिलाता है कि स्वतंत्रता आसान नहीं, अमूल्य उपलब्धि है।
यह तिरंगा हमारे देश की विभिन्नता में एकता का पवित्रतम प्रतीक है। भाषाएं-संस्कृतियां अनेक हैं, दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों को मानने वाले लोग हमारे देश में रहते हैं और इन तमाम विविधताओं के बावजूद हमारा राष्ट्रीय ध्वज हमें एक भावना में बांधता है, हमें भारतीय कहलाने का गौरव प्रदान करता है।
पहले, हमारे देश में अलग-अलग झंडे थे, जो अलग-अलग शासन, काल और अलग-अलग क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते थे। अंग्रेजों ने अपने यूनियन जैक को प्रदर्शित किया, मुगलों का अपना झंडा था और इसी तरह सैकड़ों शासकों के अपने-अपने झंडे थे। गौर करने की बात यह है कि ये राजाओं के झंडे थे, प्रजा के नहीं।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान श्री पिंगली वेंकैया द्वारा डिजायन किया हुआ ध्वज अपनाया गया, जो विविधताओं के देश भारत की जनता का प्रतिनिधित्व करता है। हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान सभा ने जब तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया तो इसे उन लोगों से ही दूर रखा गया, जिनका प्रतिनिधित्व करने के लिए यह था: हम भारत के लोग। गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस जैसे चुनिंदा मौकों को छोड़कर आम नागरिकों को राष्ट्रीय ध्वज प्रदर्शित करने की अनुमति नहीं थी। एक जन-आंदोलन से जिस तिरंगे की उत्पत्ति हुई, वह जन-ध्वज न बनकर सरकारी ध्वज बन गया।
मेरा मन मुझसे कहता कि तिरंगा के माध्यम से देशभक्ति प्रदर्शित करो लेकिन यह हमारा मौलिक अधिकार नहीं था इसलिए मैंने जनता को यह अधिकार दिलाने का संकल्प लिया। मुझे इस अधिकार के लिए लगभग एक दशक लंबा अथक कानूनी संघर्ष करना पड़ा। 23 जनवरी 2004 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वी.एन. खरे, न्यायमूर्ति बृजेश कुमार और न्यायमूर्ति एस.बी. सिन्हा की पीठ ने फैसला सुनाया कि पूरे सम्मान के साथ राष्ट्रीय ध्वज को स्वतंत्र रूप से प्रदर्शित करने का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में निहित है जो एक भारतीय नागरिक का मौलिक अधिकार है। मौलिक अधिकार की इस व्याख्या ने देश के एक नागरिक की राष्ट्र के प्रति निष्ठा और समर्पण की भावना प्रदर्शित करने और उसकी अभिव्यक्ति को परिभाषित किया। दिल्ली उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति डी.पी. वाधवा और न्यायमूर्ति एम.के. शर्मा ने कहा कि देश के नागरिकों को सम्मानजनक तरीके से राष्ट्रीय ध्वज प्रदर्शित करने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। तिरंगा के माध्यम से देशभक्ति की भावना प्रदर्शित करने का अधिकार मिलने के बाद संसद ने सर्वसम्मति से 2005 में संबंधित कानून में संशोधन किया जो भारतीय ध्वज संहिता के कुछ नियमों में बदलाव का आधार बना और जिससे लैपल पिन, कलाई बैंड और टी-शर्ट के माध्यम तिरंगा प्रदर्शित करने की अनुमति आम नागरिकों को मिल गई। चूंकि हमें साल के 365 दिन स-सम्मान ध्वज प्रदर्शित करने या पहनने का अधिकार नहीं था, इसलिए हमारे यहां अधिकांश देशों की तरह झंडा दिवस की अवधारणा भी नहीं थी। हमारे यहां सशस्त्र सेना झंडा दिवस तो मनाया जाता है, लेकिन राष्ट्रीय ध्वज दिवस नहीं। अब जब हम 23 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले की 16वीं वर्षगांठ मना चुके हैं और 26 जनवरी को राष्ट्रीय महापर्व गणतंत्र दिवस मना रहे हैं तो यह उचित समय है जब हम गंभीरता से विचार करें कि अपने राष्ट्रीय ध्वज के लिए भी एक दिन समर्पित किया जाए। विश्व के अधिकतर देशों में राष्ट्रीय ध्वज दिवस मनाया जाता है ताकि वहां के नागरिक आत्मावलोकन कर सकें और अपने देश के झंडे के साथ अपने रिश्ते को अभिव्यक्त कर सकें। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश राष्ट्रीय ध्वज सप्ताह मनाते हैं, जिसमें देश के सभी सरकारी भवनों, परेडों और अन्य कार्यक्रमों में झंडे को प्रदर्शित किया जाता है।
मेरा मानना है कि भारत में भी 23 जनवरी से 26 जनवरी गर्व के साथ प्रतिदिन तिरंगा फहराने का अधिकार मिलने की तिथि से गणतंत्र होने की तिथि, तक राष्ट्रीय ध्वज सप्ताह मनाया जाना चाहिए । आखिरकार, यह हमारा राष्ट्रीय ध्वज है जो हमें हमारे गणतंत्र की भावना में बांधता है।
(लेखक कुरुक्षेत्र के पूर्व सांसद और फ्लैग फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष हैं)
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रायपुर। राजधानी रायपुर में स्वामी विवेकानंद की याद में राष्ट्रीय स्मारक बनाया जाएगा। यह बातें 30 साल पहले चर्चा में आईं थी, मगर अब यह सच साबित होती दिख रही हैं। अब तक किसी न किसी वजह से स्मारक बनाने का काम रुका ही हुआ था। दरअसल रायपुर में जहां स्वामी विवेकानंद रहे थे, वह स्थान रायबहादुर भूतनाथ डे चेरिटेबल ट्रस्ट के अधीन है। उचित व्यवस्थापन तय न हो पाने की सूरत में यहां कुछ भी काम अब तक नहीं हो सका था। मगर अब 2 जनवरी को हुए कैबिनेट के फैसले में ट्रस्ट को जमीन और भवन देने के मुद्दे पर निर्णय लिया गया। ट्रस्ट को नगर निगम के पास मौजूदा भूमि में स्थान दिया जाएगा। वर्तमान में ट्रस्ट स्कूल भी चला रहा है, इन्हें नया स्कूल भी बनाकर दिया जाएगा ताकि बच्चों की पढ़ाई का नुकसान न हो। जिला प्रशासन और ट्रस्ट से मिली जानकारी के मुताबिक ट्रस्ट को जमीन दिए जाने को लेकर हर स्तर पर बातचीत हो चुकी है। जल्द ही इसकी प्रक्रिया भी शुरू की जाएगी। ट्रस्ट के राजेंद्र बैनर्जी ने बताया कि यह हमारे लिए गौरव की बात है कि जहां स्वामी जी रहे, उस जगह पर सरकार स्मारक बनाना चाहती है। हमनें अपनी शर्तें सरकार के सामने रखीं हैं, जिस पर वह राजी भी हैं। हमें उन्हें जगह देने में कोई समस्या नहीं है। जानकारी के मुताबिक यहां स्मारक बनाए जाने की कोशिशें राज्य विभाजन के पहले से की जा रही हैं। 1988 के दौर में जब अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे तब भी इस भवन को संरक्षित करने की कोशिशें हुईं मगर बात नहीं बनी। इसके बाद हर बार प्रयास होते रहे मगर कामयाबी नहीं मिल सकी थी।
यह होगा स्मारक में
संस्कृति विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक यहां स्वामी विवेकानंद से जुड़ी पुस्तकें, उनके रायपुर आने की घटनाओं का चित्रण, उनके भाषण, विवेकानंद के अनमोल विचार और उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को दिखाती गैलेरी बनाई जा सकती है। फिलहाल भवन को खाली कराए जाने की प्रक्रिया होनी है, इसके बाद यह प्रोजेक्ट और भी चीजों को शामिल कर शुरू किया जाएगा। भवन के खाली होने के बाद इसके ढांचे को पुरातत्व विभाग के एक्सपर्ट वैसे ही सहेजेंगे जैसा यह सालों पहले हुआ करता था।
रायपुर में स्वामी विवेकानंद
रायपुर में स्वामी विवेकानंद ने सन 1877 से 1879 के बीच अपना बचपन बिताया था। रायपुर का एयरपोर्ट हो या प्रमुख तालाब यह विवेकानंद के नाम पर किए जाने के पीछे की असल वजह है। रायपुर के रामकृष्ण मिशन से मिली जानकारी के मुताबिक सन् 1877 ई. में स्वामी विवेकानंद रायपुर आये। तब उनकी आयु 14 वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी (आज की आठवीं कक्षा के समकक्ष) में पढ़ रहे थे। उनके पिता विश्वनाथ दत्त तब अपने काम की वजह से रायपुर में ही रह रहे थे। विवेकानंद अपने छोटे भाई महेन्द्र, बहन जोगेन्द्रबाला तथा माता भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर के लिये रवाना हुए। तब ट्रेन की सुविधा रायपुर तक नहीं थी। माना जाता है कि तब वह जबलपुर तक ट्रेन से आए इसके बाद रायपुर बैलगाड़ी से आए। इस यात्रा में 15 दिनों का वक्त लगा। कहा जाता है कि इस यात्रा में भी विवेकानंद ने बहुत कुछ सीखा। रायपुर में अच्छा स्कूल नहीं था। इसलिये विवेकानंद पिता से ही पढ़ा करते थे। रामकृष्ण मिशन के मुताबिक इस भवन में तब के कई विद्वानों का उठना-बैठना होता था। बच्चा समझकर कोई अगर स्वामी विवेकानंद की बातों को नजर अंदाज करता तो इसका वह विरोध भी करते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र ने ऐसा ही किया तो स्वामी विवेकानंद ने कहा था-आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं, जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि-विचार नहीं होता, किन्तु यह धारणा नितांत गलत है।
रायपुर में स्वामी विवेकानंद ने यह सीखा
विवेकानंद अपने पिता के साथ रायपुर के भवन में खाना भी पकाया करते थे। रायपुर में उन्होंने शतरंज खेलना भी सीख लिया, फिर यहीं विश्वनाथ बाबू ने विवेकानंद को संगीत की पहली शिक्षा दी। विवेकानंद को बचपन से ही संगीत से बेहद लगाव था, उनके पिता भी संगीत में बेहद अच्छे कलाकार थे। इस वजह से आए दिन शाम के वक्त यहां संगीत के रियाज से गलियां गूंजा करती थीं। विवेकानंद आगे चलकर अच्छे गायक भी बने।
मिली थी चांदी की घड़ी
करीब डेढ़ वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ दत्त सपरिवार कलकत्ता लौट आये। लंबे समय तक स्कूल नहीं जाने की वजह से शिक्षकों ने विवेकानंद को पहले तो स्कूल में एडमिशन नहीं दिया। कुछ वक्त इस घटना से वह निराश रहे, लेकिन बाद में उन्हें विशेष आग्रह पर स्कूल में दाखिला मिला उन्होंने स्कूल में परीक्षा न सिर्फ पास की बल्कि स्कूल में टॉप किया था। इस पर स्वामी विवेकानंद के पिता ने उन्हें तोहफे में उस जमाने में चांदी की घड़ी दी थी। -
फारुख शेख. पुण्यतिथि. 28 दिसंबर
मंजूषा शर्मा
बॉलीवुड के एक उम्दा कलाकार रहे फारुख शेख की 28 दिसंबर को पुण्यतिथि है। इसी दिन वर्ष 2013 को दुबई में उनका दिल का दौरा पडऩे से निधन हो गया था। बात नाटकों की हो या फि र घोर कमर्शियल फिल्में हो या फिर आर्ट फिल्में, सभी में फारुख शेख ने अपनी अदायगी से एक अलग छाप छोड़ी।
फारुख शेख ने हर तरह की फिल्मों में काम किया और थियेटर में तो जैसे उनका मन ही रमता था। तुम्हारी अमृता, नाटक उनका काफी लोकप्रिय हुआ था जिसमें उन्होंने शबाना आजमी के साथ काम किया था। इस नाटक में स्टेज पर वे कुर्सी पर बैठे जब शबाना आजमी के साथ अपने संवाद इतने मनोभावों और संजीदगी से बोलते थे कि मात्र दो कलाकारों वाला नाटक किसी को भी अंत तक बोझिल नहीं लगता था।
फारुख शेख साहब की पुण्यतिथि पर उन पर फिल्माया गई एक गजल बार.बार याद आ रही है जो फिल्म बाजार में शामिल की गई है। यह गजल है फि र छिड़ी रात बात फूलों की, रात है या बारात फूलों की...। शानदार बेमिसाल और अद्भुत है ये गजल और उतना ही प्यारा खय्याम का संगीत। फिल्म बाजार वर्ष 1982 में रिलीज हुई थी। इस फिल्म निर्देशक थे सागर सरहदी। समर्थ कलाकारों की पूरी फौज थी इस फिल्म में, लेकिन हर कलाकार का अपना अंदाज। नसीरूद्दीन शाह, फारुख शेख, स्मिता पाटिल, सुप्रिया पाठक जैसे मंजे हुए कलाकारों से सजी इस फिल्म ने अपनी अलग ही छाप छोड़ी थी। फिर छिड़ी रात... गजल को लिखा है मखदूम मोहिउद्दीन ने। फूलों पर लिखी गई गजलों में मेरे खयाल से इससे खूबसूरत गजल कोई और नहीं हो सकती फिर लता मंगेशकर और तलत अजीज की पाक और चाशनी में डूबी आवाज का साथ। इस फिल्म में फारुख शेख की जोड़ी सुप्रिया पाठक के साथ बनी थी। रिकॉर्ड कंपनी एचएमवी ने जब इस फिल्म के गानों के रिकॉर्ड और कैसेट्स जारी किए थे, तो इसमें हर गानों के साथ फिल्म के कलाकारों के कुछ संवाद भी थे। और वो भी ऐसे भावुक और असरदार संवाद कि पूछिए, मत । जैसे कि फिर छिड़ी रात.... गजल में फारुख और सुप्रिया की आवाज गूंजती है। फारुख फिल्म में बेरोजगार युवक के रोल में थे जो रिक्शा चलाया करता था। वे सुप्रिया से बहुत प्यार करते थे। इस गाने के फिल्मांकन से पहले दिखाया गया है कि किस तरह से फारुख, सुप्रिया को देखने के बहाने आवाज देते हुए चिल्लाते हैं. चूडिय़ा ले लो चूडिय़ां , रंग बिरंगी चूडिय़ां और उनकी आवाज सुनकर सुप्रिया उन्हें बुलाती है. ओ चूड़ी वाले चूड़ी दिखाओ न। या फिर नसीर का वो संवाद..कभी रास्ते में मिल गयीं तो पहचान लोगी मुझे । तो स्मिता पाटिल जवाब देती हैं..सलाम जरूर करूंगी....और शुरू होता है फिल्म का एक और गाना..करोगे याद तो हर बात याद आएगी।
यह उन दिनों की बात है, जब टेप रिकॉर्डर का जमाना था और लोग अपनी पसंद के गाने रिकॉर्ड कराने के लिए घंटों रिकॉर्ड वाले की दूकान में बैठे रहते थे। घर पर ऐसा ही एक कैसेट आया और फिल्म के गाने सुनने को मिले। स्कूल.कॉलेज का ज़माना और इतने रूमानी गीतों का साथ। हालांकि उम्र का तकाजा था कि उस वक्त इन गानों का अर्थ पूरी तरह से समझ नहीं आया और न ही फिल्म की कहानी ही। लेकिन इसके गानों की सुमधुर धुनें दिल में ऐसे घर कर गईं कि आज भी इनके एक-एक शब्द और धुनें याद है। इस फिल्म का कैसेट मैंने आज तक संभाल कर रखा है और मजे की बात है कि 37 साल के बाद भी यह कैसेट अच्छे से बज भी रहा है।
फिर छिड़ी रात गजल को लता मंगेशकर और गजल गायक तलत अजीज ने गाया है। उस समय तलत साहब बॉलीवुड में नए -नए आए थे और उनकी लीक से हटकर आवाज ने बॉलीवुड के फिल्म निर्माताओं को भी आकर्षित किया था। इस फिल्म के पहले वे 1981 में आई फिल्म उमराव जान में फारुख शेख के लिए गा चुके थे। बाजार फिल्म का संगीत भी खय्याम साहब ने दिया था और वे तलत साहब की आवाज से खासे प्रभावित थे। फिल्म बाजार के लिए भी उन्होंने तलत को लिया।
गजल थोड़ी लंबी है। मखदूम साहब ने इसे पांच अंतरे में लिखा लेकिन खय्याम साहब ने फिल्म में इसके तीन अंतरों को शामिल किया। लंबी $गजल होने के बाद भी इसका रोमांटिक अंदाज और प्यारी धुन बोरियत का अहसास नहीं कराती। मखदूम साहब का लिखा पूरा गाना है.
फि र छिड़ी रात बात फूलों की , रात है या बारात फूलों की ।
फू ल के हार, फूल के गजरे, शाम फूलों की रात फूलों की ।
आपका साथ, साथ फूलों का, आपकी बात, बात फूलों की ।
नजरें मिलती हैं जाम मिलते हैं, मिल रही है हयात फूलों की ।
कौन देता है जान फूलों पर, कौन करता है बात फूलों की ।
वो शराफत तो दिल के साथ गई, लुट गई कायनात फूलों की ।
अब किसे है दमागे तोहमते इश्क, कौन सुनता है बात फूलों की ।
मेरे दिल में सरूर.,.सुबह बहार, तेरी आंखों में रात फूलों की ।
फूल खिलते रहेंगे दुनिया में, रोज निकलेगी बात फूलों की ।
ये महकती हुई गजल मखदूम, जैसे सहरा में रात फूलों की ।
फिल्म में शामिल की गई $इस गजल में वायलिन पर कुछ अरबी धुन की स्वर लहरियां गाने की रुहानियत बढ़ा देती है। सितार का कितना खूबसूरत इस्तेमाल हुआ है इसमें । धुन के साथ गजल इतनी नाजुक कि सारा रोमांस आंखों पर उतर आए। तसल्ली से आज फिर इस गजल को सुनियेगा और दाद दीजिएगा उस दौर के मौसिकारों, कलाकारों और गीतकारों की मेहनत को जो दिल से निकलने वाले गाने तैयार किया करते थे।
कुछ बरस पहले एक साक्षात्कार में खय्याम साहब ने इस फिल्म की याद करते हुए बताया था कि किस तरह से इसमें उस दौर के उम्दा शायरों की रचनाओं को संगीत में पिरोया गया था। उन्होंने बताया.. वो हमारी फिल्म आपको याद होगी, बाजार । उसमें ये सागर सरहदी साहब हमारे मित्र हैं, दोस्त हैं, तो ऐसा सोचा सागर साहब ने कि खय्याम साहब, कुछ अच्छा आला काम किया जाए, अनोखी बात की जाए। तो सोचा गया कि बड़े शायरों के कलाम इस्तेमाल किए जाएं फिल्म के संगीत में। हो सकता है कि शायद लोगों की समझ में ना आए। निर्माता .निर्देशक ने जब कहा कि आप ने बिलकुल ठीक सोचा है। फिर फिल्म में शायर मीर तकी मीर ;( दिखाई दिए यूंं के बेखुद किया) मिर्जा शौक (देख लो आज हमको जी भर के), बशीर नवाज (करोगे याद तो हर बात याद आएगी), इन सब को इस्तेमाल किया। फिर मखदूम मोहिउद्दीन, फिर छिड़ी रात बात फूलों की ,यह उनकी बहुत मशहूर गजल है, और मखदूम साहब के बारे में कहूंगा कि बहुत ही रोमांटिक शायर हुए हैं। और हमारे हैदराबाद से ताल्लुख, और बहुत रेवोल्युशनरी शायर। जी हां बिलकुल, अपने राइटिंग में भी, और अपने किरदार में भी। वो एक रेवोल्युशनरी, वो चाहते थे कि हर आम आदमी को उसका हक मिले।
चलत-चलते फारुख शेख साहब की बातें। उनके बारे में बॉलीवुड के प्राय: सभी कलाकारों की यही राय थी कि उनसे मिलने के बाद आप उनके प्रशंसक हुए बिना
नहीं रह सकते थे। शालीन, शिष्ट, अदब, इज्जत और नफासत से भरा उनकी बात और व्यवहार हिंदी फिल्मों के आम कलाकारों से उन्हें अलग करता था। उन्हें कभी ओछी, हल्की और निंदनीय बातें करते किसी ने नहीं सुना। विनोदप्रिय, मिलनसार और शेर-शायरी के शौकीन फारुख शेख ने अपनी संवाद अदायगी का लहजा कभी नहीं छोड़ा। पहली फिल्म गर्म हवा के सिकंदर से लेकर आखिरी फिल्म क्लब 60 तक के उनके किरदारों को पलट कर देखें तो एक सहज निरंतरता नजर आती है। अपनी पहली फिल्म गर्म हवा में फारुख को केवल 750 रुपए मिले थे वो भी 15 बरस के बाद। यह उनकी धैर्यता का ही परिचायक था। ऐसे कलाकार केवल दुनिया को अलविदा कह पाते हैं, लेकिन उनकी फिल्में, उनका काम और उनकी शख्सियत उन्हें हमेशा इतिहास के पन्नों में जीवित रखती हैं। -
मंजूषा शर्मा
नौशाद अली, भारतीय सिनेमा की संगीत की दुनिया का का वो नाम है, जो संगीत गढ़ते नहीं थे, बल्कि सुरों का जादू बिखेरते थे। उनके संगीत में एक तरफ जहां ठेठ शास्त्रीय संगीत पुट मिलता है, तो लोक संगीत का भी नौशाद साहब ने अपने गीतों में बखूबी इस्तेमाल किया है। पहली फिल्म में संगीत देने के 64 साल बाद तक अपने साज का जादू बिखेरते रहने के बावजूद नौशाद ने केवल 67 फिल्मों में ही संगीत दिया, लेकिन उनका कौशल इस बात की जीती जागती मिसाल है कि गुणवत्ता संख्या बल से कहीं आगे होती है।
नौशाद का संगीत काफी संघर्ष के बाद ही लोगों तक पहुंचा है। उन्हें अपने दौर में मुंबई में फुटपॉथ पर रातें गुजारनी पड़ी थीं। दिन में संघर्ष और रात में फुटबॉथ का बसेरा, इन परिस्थितियों के कारण जिदंगी के सारे रंग-रूप एक चलचित्र की तरह नौशाद के दिलो दिमाग में बस गए थे, जो उनके संगीत में साफ दिखाई देते हैं। नौशाद साहब का जन्म 25 दिसंबर 1919 में लखनऊ में मुंशी वाहिद अली के घर में हुआ था। वे 17 साल की उम्र में ही अपनी किस्मत आजमाने के लिए मुंबई चले आए थे।
आज नौशाद साहब के जन्मदिन के अवसर पर मैं उनकी तीन उन फिल्मों का जिक्र कर रही हूं, जो मेरी नजर में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सुरीली कलाकृतियां हैं।
1. मुगल-ए-आज़म - मुगल ए- आजम, फिल्म को कुछ साल पहले जब रंगीन करके दोबारा रिलीज किया गया, तो किसी ने नहीं सोचा था कि इसे इतना शानदार रिस्पांस मिलेगा। फिल्म के गाने अपने दौर में तो सर्वश्रेष्ठ रहे ही हैं और आज भी जब बजते हैं, तो लोगों के दिलों को सुकून ही देते हैं। इस बारे में शायद ही किसी को शक हो कि फिल्मी इतिहास में इसका संगीत नौशाद का सर्वोत्तम संगीत रहा है। इस फिल्म के ज्यादातर गानों में नौशाद साहब ने कहानी के मूड के लिहाज से अपनी पसंदीदा गायिका लता मंगेशकर की आवाज ली है। हर गाने में शास्त्रीयता की झलक मिलती है। इन गानों में कम से कम म्यूजिक इंस्टूमेंट्स का इस्तेमाल किया गया और कहीं भी तेज ऑर्केस्ट्रा या कम्प्यूटरीकृत तकनीकी या आधुनिकता का आभास नहीं होता। शायद इसीलिए पुराने गानों में गायकों की आवाज ज्यादा स्पष्ट तौर से उभरकर सामने आती थी। फिल्म में लताजी का राग गारा में गाया हुआ गीत -मोहे पनघट पे नंद लाल छेड़ गयो रे.....एक तरह से कव्वाली भी है और लोक परंपरा, मान्यताओं के अनुरूप कान्हा के साथ गोपियों की छेड़-छाड़ भी इसमें नजर आती है। इस गाने में नायिका मधुबाला की खूबसूरती देखते ही बनती है। इस गाने की हर बात उम्दा है- फिर उसका ट्रैक हो या फिर खालिस उर्दू के साथ प्रचलित लोक भाषा का इस्तेमाल और फिर उनको लेकर रचा गया नौशाद का बे-नायाब सुरों का जाल, जिसमें श्रोता अंदर तक घुसता चला जाता है।
इसी फिल्म में नौशाद साहब ने रागदरबारी में एक गाना रचा- प्यार किया तो डरना क्या.. काफी खूबसूरत है। इसी गाने में शीश महल के साथ मधुबाला की झलक उस जमाने की बेहतरीन तकनीक को पेश करती है। फिल्म का एक और गाना राग यमन में है जिसके बोल हैं- खुदा निगेबान..जिसमें नफीस उर्दू के बोल हैं तो उनमें रची बसी लता की मिठास भी है। फिल्म में नौशाद साहब ने उस्ताद बड़े गुलाम अली साहब से काफी मनुहार करके दो गीत गाने के लिए मना लिया था - प्रेम जोगन बन के और शुभ दिन आयो राज दुलारा...। जिसमें से प्रेम जोगन.. गाना भी पूरी तरह से शास्त्रीय था और इसे दिलीप कुमार और मधुबाला पर फिल्माया गया था, जो फिल्मी इतिहास का सबसे रोमांटिक सीन कहा जाता है। फिल्म में कुल 12 गाने थे। एक गाने में रफी साहब और एक अन्य गाने में शमशाद बेगम की आवाज का इस्तेमाल नौशाद साहब ने किया।
2. बैजू बावरा- जैसा की फिल्म के नाम से जाहिर है कि यह फिल्म पुराने जमाने में शास्त्रीय गायक रहे बैजू बावरा के जीवन पर आधारित है। फिल्म में भारत भूषण और मीना कुमारी मुख्य भूमिकाओं में थे। यह वो फिल्म है जिसके बाद नौशाद की संगीत दुनिया में पहचान बनी। फिल्म 1952 में बनी थी और इसी फिल्म के लिए नौशाद साहब ने पहला फिल्म फेयर अवार्ड जीता था। ये फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में अपना अलग महत्व रखती है खासकर शास्त्रीय रागों के इस्तेमाल में। इसका मशहूर भजन मन तरपत हरि दर्शन.. को आज भी सबसे बढिय़ा भक्ति गीतों में शुमार किया जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि इस गीत के बोल लिखे हैं मोहम्मद शकील ने, इसको गाया है मोहम्मद रफी ने और धुन बनाई है नौशाद ने, जो यह साबित करता है कि संगीत की दुनिया किसी भी मजहब से नहीं बंधी है।
फिल्म के अन्य मशहूर गानों में शामिल है राग दरबारी पर आधारित-ओ दुनिया के रखवाले.. जिसे गाया था नौशाद के पसंदीदा गायक रफी ने। झूले में पवन के, गीत को लता और रफी दोनों ने अपनी आवाज़ दी, इसमें राग पीलू का इस्तेमाल किया गया। राग भैरवी में तू गंगा की मौज...को कौन भूल सकता है...जिसके सुंदर बोल, कोरस इफैक्ट और ऑर्केस्ट्रा सब मिलकर इस गीत को एक नया रूप देते हैं। फिल्म में कुल 13 गाने थे। आज गावत मन मेरो झूम के.. गीत राग देसी पर आधारित था और इसमें नौशाद साहब ने उस्ताद आमिर खान और डी. वी. पल्सुकर जैसे ठेठ शास्त्रीय गायकों का इस्तेमाल किया। वहीं दूर कोई गाये गीत राग देस पर आधारित था। मोहे भूल गए सांवरिया गीत लता ने गाया और इसमें नौशाद ने राग भैरवी और राग कालिन्दा का मिला जुला रूप पेश किया। बचपन की मोहब्बत गीत राग मान्द, इंसान बनो...और लंगर कन्हैया जी ना मारो-राग तोड़ी, घनन घनन घना गरजो रे - राग मेघ और एक सरगम में उन्होंने राग दरबारी का प्रयोग किया। एक प्रकार से फिल्म के पूरे ही गानों में शास्त्रीय रागों का इस्तेमाल नौशाद ने किया।
3. कोहिनूर-नौशाद द्वारा संगीतबद्ध एक और फिल्म थी कोहिनूर। यह फिल्म 1960 में बनी और इसमें दिलीप कुमार तथा मीना कुमारी मुख्य भूमिकाओं में थे। यह फिल्म मेलोडी के अलावा भी और कईं कारण से मील का पत्थर रही। मधुबन में राधिका नाचे रे.. गाना आज भी पसंद किया जाता है। इस पूर्णतया राग प्रधान गीत के लिए रफी साहब की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। नौशाद जोखिम उठाने में कभी भी नहीं हिचकिचाते थे। नये नये प्रयोग करना उन्हें अच्छा लगता था। इस फिल्म के निर्देशक थोड़े घबराये हुए थे, क्योंकि यह गाना किसी भी लिहाज से पारंपरिक कव्वाली नहीं था और न ही ये सामान्य गानों की तरह अथवा पाश्चात्य रूप लिए हुए था। फिर भी इस गाने की धुन अपने आप में आधुनिकता समेटे हुए थी जिसको अपनी आवाज़ से रफी साहब ने और सुरीला बना दिया था। नौशाद इस गाने को लेकर इतने विश्वास से भरे हुए थे कि वे कोहिनूर के लिए जो भी पैसे उन्हें मिल रहे थे, वो भी वापस करने को तैयार थे अगर बॉक्स ऑफिस पर ये गीत पिट जाता। लेकिन जो हुआ वो सब ने देखा और सुना। यह गाना पूरे भारत में अपने शास्त्रीय संगीत और रिदम की वजह से कामयाब हुआ। इसी फिल्म के अन्य गीत थे- ढल चुकी शाम-ए-गम..., जादूगर कातिल..तन रंग लो जी..। सभी गानों की खास बात उसका संगीत तो था ही साथ ही बहुत खूबसूरत बोल भी थे। फिल्म में दस गाने थे। एक गाना ही आशा भोंसले की आवाज में था जादूकर कातिल... बाकी सभी में लता और रफी की आवाज नौशाद ने ली थी। फिल्म का एक गाना काफी हिट हुआ और वह था दो सितारों का जमीं पर है मिलन आज की रात... राग पहाड़ी से प्रेरित था।
हालांकि नौशाद के काम को और भारतीय संगीत में उनके योगदान को इन तीन फिल्मों में कतई नहीं समेटा जा सकता। उनका योगदान संगीत की दुनिया में निस्संदेह सराहनीय और अतुलनीय है।
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पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का निधन
नई दिल्ली। तिरुनेलै नारायण अइयर शेषन (टी.एन. शेषन) ने 84 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया। वे भारत के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त थे। शेषन 12 दिसंबर 1990 से 11 दिसंबर 1996 तक भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर रहे। उनको भारत का सबसे प्रभावशाली मुख्य चुनाव आयुक्त माना जाता था। शेषन को चुनाव में पारदर्शिता और निष्पक्षता को बढ़ावा देने के लिए याद किया जाता है। इसके लिए टी.एन. शेषन का तत्कालीन सरकार और नेताओं को साथ कई बार टकराव भी हुआ, लेकिन शेषन कभी डिगे नहीं।
हैली के. अस्मेरोम और एलिसा पी. रीस द्वारा संपादित किताब डेमोक्रेटाइजेशन एंड ब्यूरोक्रेटिक न्यूट्रेलिटी में टी.एन. शेषन के संघर्ष की कहानी का जिक्र है। इस किताब में पेज नंबर 275 पर लिखा है कि 1962 में टी.एन. शेषन का एक ही दिन में सुबह 10.30 बजे से 5 बजे शाम तक 6 बार ट्रांसफर किया गया था। टी.एन. शेषन ने एक ग्रामीण अफसर को 3000 रुपए का घपला करने के लिए रोका था, इसलिए उनका ट्रांसफर हुआ था। इतना नही नहीं, रेवेन्यू मंत्री की बात न मानने पर टी.एन. शेषन को तमिलनाडु में मंत्री ने अपनी गाड़ी से ऐसी जगह उतार दिया था, जहां सुनसान इलाका था। टी.एन. शेषन इतने संघर्षशील और ईमानदार थे कि नेता और कई अधिकारी उनसे डरते थे। अपनी इसी व्यवहार के चलते उन्होंने बतौर मुख्य चुनाव आयुक्त बेहद पारदर्शिता और निष्पक्षता से चुनाव कराने के कानून का पालन किया। केरल के पलक्कड़ जिले के तिरुनेलै में जन्मे टी. एन. शेषन तमिलनाडु कैडर से 1955 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी थे।
1996 में रमन मैग्सेसे अवॉर्ड
टी. एन. शेषन ने भारत के 18वें कैबिनेट सचिव के रूप में 27 मार्च 1989 से 23 दिसंबर 1989 तक सेवा दी। सरकारी सेवाओं के लिए उनको साल 1996 में रमन मैग्सेसे अवॉर्ड से भी नवाजा गया था। साल 1997 में टी.एन. शेषन ने राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ा था, लेकिन उनको जीत नहीं मिली थी। टी. एन. शेषन को के.आर. नारायण के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। रिटायर होने के बाद टी.एन. शेषन देशभक्त ट्रस्ट की स्थापना की और समाज सुधार में सक्रिय भूमिका निभाते रहे।
कुछ समय के लिए लेक्चरर भी रहे
शेषन ने मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज से ग्रेजुएट की पढ़ाई की थी, वहीं पर कुछ समय के लिए लेक्चरर भी रहे। टी.एन. शेषन ने ऊर्जा मंत्रालय के डायरेक्टर, अंतरिक्ष विभाग के संयुक्त सचिव, कृषि विभाग के सचिव, ओएनजीसी के सदस्य समेत अन्य पदों पर अपनी सेवाएं दी। भारतीय नौकरशाही के लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर काम करने के बावजूद वो चेन्नई में यातायात आयुक्त के रूप में बिताए गए दो वर्षों को अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय मानते थे। -साभार