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- मुंबई । लोकप्रिय संगीतकार अनिल बिश्वास की आज पुण्यतिथि है। जानी-मानी गायिका लता मंगेशकर ने अनिल बिश्वास को याद करते हुए उन्हें कोटि - कोटि नमन किया है। साथ ही लता दीदी ने अपने ट्वीटर अकाउंट में उनका संगीतबद्ध किया हुए एक गीत पोस्ट किया है। यह गीत है तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है......। इस गीत को लता मंगेशकर ने गाया है। यह गीत फिल्म लाडली का है जो वर्ष 1949 में प्रदर्शित हुई थी।भारतीय सिनेमा जगत में अनिल बिश्वास को एक ऐसे संगीतकार के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने मुकेश , तलत महमूद समेत कई पाश्र्व गायकों को कामयाबी के शिखर पर पहुंचाया।मुकेश के रिश्तेदार मोतीलाल के कहने पर अनिल बिश्वास ने मुकेश को अपनी एक फिल्म में गाने का अवसर दिया था लेकिन उन्हें मुकेश की आवाज पसंद नहीं आयी बाद में उन्होंने मुकेश को वह गाना अपनी आवाज में गाकर दिखाया। इस पर मुकेश ने अनिल बिश्वास ने कहा, दादा बताइये कि आपके जैसा गाना भला कौन गा सकता है यदि आप ही गाते रहेंगे तो भला हम जैसे लोगों को कैसे अवसर मिलेगा। मुकेश की इस बात ने अनिल विश्वास को सोचने के लिये मजबूर कर दिया और उन्हें रात भर नींद नही आयी। अगले दिन उन्होंने अपनी फिल्म ..पहली नजर ..में मुकेश को बतौर पाश्र्वगायक चुन लिया और निश्चय किया कि वह फिर कभी व्यावसायिक तौर पर पाश्र्वगायन नही करेंगे।वर्ष 1937 में महबूब खान निर्मित फिल्म जागीरदार अनिल बिश्वास के सिने कॅरिअर की अहम फिल्म साबित हुयी जिसकी सफलता के बाद बतौर संगीत निर्देशक वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गये। वर्ष 1942 में अनिल बांबे टॉकीज से जुड़ गये और 2500 रुपये मासिक वेतन पर काम करने लगे। वर्ष 1948 में प्रदर्शित फिल्म अनोखा प्यार अनिल बिश्वास के सिने कॅरिअर के साथ..साथ व्यक्तिगत जीवन में अहम फिल्म साबित हुयी। फिल्म का संगीत तो हिट हुआ ही साथ ही फिल्म के निर्माण के दौरान उनका झुकाव भी पाश्र्वगायिका मीना कपूर की ओर हो गया। बाद में अनिल और मीना कपूर ने शादी कर ली। साठ के दशक में अनिल ने फिल्म इंडस्ट्री से लगभग किनारा कर लिया और मुंबई से दिल्ली आ गये।इस बीच उन्होंने सौतेला भाई, छोटी छोटी बातें जैसी फिल्मों को संगीतबद्ध किया। फिल्म ,छोटी छोटी बातें हालांकि बॉक्स ऑफिस पर कामयाब नहीं रही लेकिन इसका संगीत श्रोताओं को पसंद आया। इसके साथ ही फिल्म राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित की गयी। वर्ष 1963 में बिश्वास दिल्ली प्रसार भारती में बतौर निदेशक काम करने लगे और वर्ष 1975 तक काम करते रहे। वर्ष 1986 में संगीत के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुये उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अपने संगीतबद्ध गीतों से लगभग तीन दशक तक श्रोताओं का दिल जीतने वाले इस महान संगीतकार ने 31 मई 2003 को इस दुनिया को अलविदा कहा।अनिल बिस्वास की पत्र-पत्रिका और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चर्चा 1994 में हुई, जब म.प्र. शासन के संस्कृति विभाग ने उन्हें लता मंगेशकर अलंकरण से सम्मानित किया। लता मंगेशकर अपने गायन के आरंभिक चरण में गायिका नूरजहां से प्रभावित थीं। अनिल दा ने लता को छवि से मुक्ति दिलाकर शुद्ध-सात्विक लता मंगेशकर बनाया। अनिल दा के संगीत में लताजी के कुछ उम्दा गीतों की बानगी देखिए- मन में किसी की प्रीत बसा ले (आराम), बदली तेरी नजर तो नजारे बदल गए (बड़ी बहू), रूठ के तुम तो चल दिए (जलती निशानी)।स्वयं लताजी ने इस बात को स्वीकार किया है कि अनिल दा ने उन्हें समझाया कि गाते समय आवाज में परिवर्तन लाए बगैर श्वास कैसे लेना चाहिए। यह आवाज तथा श्वास प्रक्रिया की योग कला है। अनिल दा उन्हें लतिके कहकर पुकारते थे। इसी तरह मुकेश को सहगल की आवाज के प्रभाव से मुक्त कराकर उसे नई शैली प्रदान करने में अनिल दा का ही हाथ है।तलत महमूद की मखमली आवाज पर अनिल दा फिदा थे। तलत की आवाज के कम्पन और मिठास को अनिल दा ने रेशम-सी आवाज कहा था। किशोर कुमार से फिल्म फरेब (1953) में अनिल दा ने संजीदा गाना क्या गवाया, आगे चलकर इस शरारती तथा नटखट गायक के संजीदा गाने देव आनंद-राजेश खन्ना के प्लस-पाइंट हो गए।अनिल बिश्वास के हिट गीत-* 1943 -किस्मत * दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है* धीरे-धीरे आ रे बादल धीरे-धीरे जा* 1945 - पहली नजर * दिल जलता है, तो जलने दे* 1948 -अनोखा प्यार * याद रखना चाँद-तारों इस सुहानी रात को* 1948 - गजरे * दूर पपीहा बोला रात आधी रह गई* 1949 -लाड़ली * तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है* 1950 - आरजू * ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल* 1950 -लाजवाब * जमाने का दस्तूर है ये पुराना* 1951 - आराम * शुक्रिया, ऐ प्यार तेरा शुक्रिया* 1952 -तराना * सीने में सुलगते है अरमाँ* एक मैं हूँ एक मेरी बेकसी की शाम है* 1953 - फरेब * आ मोहब्बत की बस्ती बसाएँगे हम* 1954 - वारिस * राही मतवाले, तू छेड़ एक बार मन का सितार* 1957- जलती निशानी * रूठ के तुम तो चल दिए अब मैं दुआ को क्या करूँ* 1957 -परदेसी * रिमझिम बरसे पानी आज मोरे अँगना
- 0 जाने-माने संगीतकार नौशाद की पुण्यतिथि पर विशेष0 मुफलिसी में नौशाद बिल्डिंग की सीढिय़ों के नीचे सोया करते थे और एक मशहूर एक्ट्रेस उन पर पैर रखकर चली जाती थीं.....आलेख- मंजूषा शर्माबीते जमाने के सुमधुर संगीत की बात जब भी चलती है तो संगीतकार नौशाद का नाम बड़े आदर से लिया जाता रहा है। 40 के दशक से अपना संगीत कॅरिअर शुरु करने वाले नौशाद की अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक यही सोच रही कि अभी तो उन्हें और बेहतरीन संगीत देना है।नौशाद का कलाकार मन आज के रिमिक्स या नकल वाले गाने तैयार करने से बचता रहा, शायद इसीलिए वे अपने बंगले में पुराने सुमधुर संगीत के साये में जीवन बसर कर रहे थे। पाकिस्तान में जब मुगल ए आजम और ताजमहल की धूम मची हुई है। इनके गाने लोग बड़े चाव से सुन रहे हैं, लेकिन उसे तैयार करने वाला इंसान बढ़ती उम्र की बंदिशों के कारण इस सफलता को देखने के लिए इन फिल्मों के प्रीमियर के मौके पर पाकिस्तान नहीं जा पाया।नौशाद का फिल्मी कॅरिअर 64 साल तक लगातार चलता रहा, लेकिन इस दौरान उन्होंने केवल 67 फिल्मों में ही संगीत दिया। लेकिन उनका सुमधुर संगीत इस बात का प्रमाण है कि गुणवत्ता, संख्या से अधिक प्रभावशाली होती है।नौशाद साहब को अपनी आखिरी फिल्म के सुपर फ्लाप होने का बेहद अफसोस रहा। यह फिल्म थी सौ करोड़ की लागत से बनने वाली अकबर खां की ताजमहल, जो रिलीज होते ही औंधे मुंह गिर गई। मुगले आजम को जब रंगीन किया गया, तो उन्हें बेहद खुशी हुई। मारफ्तुन नगमात जैसे संगीत की अप्रियतम पुस्तक के लेखक ठाकुर नवाब अली खां और नवाब संझू साहब से प्रभावित रहे नौशाद ने मुंबई में मिली बेपनाह कामयाबियों के बावजूद लखनऊ से अपना रिश्ता कायम रखा। मुंबई में भी नौशाद साहब ने एक छोटा सा लखनऊ बसा रखा था, जिसमें उनके हम प्याला हम निवाला थे- मशहूर पटकथा और संवाद लेखक वजाहत मिर्जा चंगेजी, अली रजा और आगा जानी कश्मीरी (बेदिल लखनवी), मशहूर फिल्म निर्माता सुल्तान अहमद और मुगले आजम में संगतराश की भूमिका निभाने वाले हसन अली कुमार।यह बात कम लोगों को ही मालूम है कि नौशाद साहब शायर भी थे और उनका दीवान आठवां सुर नाम से प्रकाशित हुआ। पांच मई 2006 को इस फनी दुनिया को अलविदा कह गए नौशाद साहब को लखनऊ से बेहद लगाव था और इसे उनकी खुद की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है- रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है। ये कूचा मेरा जाना पहचाना है। क्या जाने क्यूं उड़ गए पंछी पेड़ों से भरी बहारों में गुलशन वीराना है।नौशाद का जन्म 25 दिसबर, 1919 को लखनऊ में मुंशी वाहिद अली के घर में हुआ था। उन्होंने मात्र 17 साल की उम्र में ही अपनी किस्मत आजमाने के लिए मुंबई की राह पकड़ी। शुरुआती संघर्ष के दिनों में उन्हें उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां, उस्ताज झंडे खां और पंडित खेमचंद्र प्रकाश जैसे गुणी उस्तादों की सोहबत नसीब हुई।नौशाद की आंखों ने फिल्म संगीत का सपना तब देखा था, जब मूक फिल्मों का दौर था। उस समय के जाने-माने गुरुओं उस्ताद गुबत अली, उस्ताद युसूफ अली और उस्ताद बब्बन साहिब से तालीम लेकर नौशाद ने मुंबई की राह पकड़ी। आंखों में कुछ कर दिखाने का सपना था और संघर्ष करने का जज्बा। मुंबई की भूलभुलैया से वे वाकिफ नहीं थे। उन्होंने 15 रुपए का टिकट लिया वो भी फस्र्ट क्लास का और मुंबई की राह पकड़ ली। जेब में 15-20 रुपए की पूंजी ही थी। लखनऊ जैसे शहर से मायानगरी पहुंचने पर इन सपनों को साकार करने में नौशाद को कई-कई रातें भूखे पेट गुजारनी पड़ीं।मुंबई का फुटपॉथ तो उनका साथी बनता जा रहा था। वे अक्सर उस दौर को याद करते हुए बताते थे कि कैसे बारिश से बचने के लिए वे दादर में एक बिल्डिंग की सीढिय़ों के पास पैसेज पर बिस्तर लगाकर सो जाया करते थे और उस दौर की एक जानी-मानी नायिका, जो उसी बिल्डिंग के फ्लैट पर रहा करती थी, सुबह-सुबह जब काम पर निकलती तो मेरे ऊपर पैर रखकर चली जाती थी। बाद में नौशाद ने उस अभिनेत्री का नाम बताया -लीला चिटणीस। उनकी तारीफ में नौशाद कहा करते थे- वे निहायत आला लेडी थी। वो इस मामले में बेकसूर थीं । उन्हें क्या पता था कि कोई उनकी सीढिय़ों के पास पड़ा रहता है। नौशाद ने अपना पहला गाना भी लीला चिटणीस की आवाज में रिकॉर्ड किया था फिल्म थी-कंचन और गाना था- बता दो मोहे कौन गली गए श्याम।नौशाद की मीना कुमारी के साथ भी कुछ ऐसी ही सुखद यादें जुड़ी हुई थीं। नौशाद उनके पिता अलीबख्श साहब को बहुत गुणी व्यक्ति मानते थे। अक्सर उनकी मुलाकात होती थी। मीना कुमारी और उनकी बहनें, उस वक्त काफी छोटी थीं। अपनी शैतानी से वे अक्सर नौशाद को परेशान किया करती थीं। तीनों नौशाद के घर पर रोज पत्थर फेंकती थीं। एक रोज अलीबख्श साहब नौशाद के घर पहुंचे। वे आपस में बातें कर रहे थे। कमरे के पास खुला टैरेस था। अलीबख्श साहब ने देखा कि वहां पर बहुत सारे पत्थर पड़े हुए हैं। उन्होंने जिज्ञासावश पूछा कि भाई, यहां इतने सारे पत्थर क्यों पड़े हुए हैं। नौशाद ने तुरंत बताया कि यह सब आपकी बेटियों की मेहरबानी है। आपकी लड़कियां पत्थर फेंका करती हैं। अलीबख्श फौरन घर गए और मधु, मीना और खुर्शीद की पिटाई की। इस घटना के बाद से तीनें बहनें नौशाद से खूब चिढऩे लगी थीं। यह एक संयोग ही रहा कि मीना कुमारी की बतौर नायिका पहली फिल्म बैजू बावरा का संगीत भी नौशाद ने ही तैयार किया था। इस फिल्म का ही गाना है, बचपन की मोहब्बत को दिल से न जुदा करना जब याद मेरी आए मिलने की दुआ करना.....इसी फिल्म के लिए नौशाद को पहला फिल्म फेयर अवार्ड मिला और मीना कुमारी ने भी इसी फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठï अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार जीता।सुरैया को भी मात्र तेरह साल की उम्र में बतौर प्लेबैक सिंगर पेश करे वाले नौशाद ही थे। उन्होंने ही फिल्म शारदा में नायिका मेहताब के लिए सुरैया की आवाज ली। सुरैया हमेशा यह बात याद करती थीं कि वे नौशाद ही थे, जिनके कारण उन्होंने गाना ना जानते हुए भी एक गायिका के तौर पर लोकप्रियता प्राप्त की। इस फिल्म के गाने को सुनकर कुंदनलाल सहगल ने अपनी नायिका के लिए सुरैया का चयन किया था।नौशाद को स्वतंत्र रुप से पहली फिल्म मिली- शारदा, जिसमें सुरैया से उन्होंने गाया गवाया ,लेकिन उन्हें सफलता मिली फिल्म- रतन से। प्लेबैक सिंगिग शुरु करने का श्रेय जहां नौशाद को जाता है, वहीं उन्होंने ही साउंड मिक्सिंग यानी आवाज तथा संगीत को अलग-अलग रिकॉर्ड करने तथा बाद में उन्हें मिलाकर गाना तैयार करने की तकनीक भी पहले पहल इस्तेमाल की।नौशाद एक समय सबसे मंहगे संगीतकार माने जाते थे। उन्हें एक फिल्म के संगीत के लिए ढाई हजार मिला करते थे। इसके बाद भी उन्हें पुरस्कारों के मामले में हमेशा पीछे छोड़ दिया जाता था। हालांकि उन्हें दादा साहब फाल्के सम्मान भी मिला था, लेकिन सही समय पर पुरस्कार का मिलना जितनी खुशी देता है, इस बात का शायद पुरस्कार का चयन करने वालों को पता नहीं होता है।नौशाद को पहली बार स्वतंत्र रूप से 1940 में प्रेम नगर में संगीत देने का अवसर मिला, लेकिन उनकी अपनी पहचान बनी 1944 मेें प्रदर्शित हुई फिल्म रतन, से जिससे जोहरा बाई अम्बाले वाली, अमीर बाई कर्नाटकी, करन दीवान और श्याम के गाए गीत बहुत लोकप्रिय हुए और यही से शुरू हुआ कामयाबी का ऐसा सफर जो कम लोगों के हिस्से ही आता है।अंदाज, आन, मदर इंडिया, अनमोल घड़ी, बैजू बावरा, अमर, स्टेशन मास्टर, शारदा, कोहिनूर, उडऩ खटोला, दीवाना, दिल्लिगी, दर्द, दास्तांन, शबाब, बाबुल, मुगले आजम, दुलारी, शाहजहां, लीडर, संघर्ष, मेरे महबूब, साज और आवाज, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम, गंगा जुमना, आदमी, गंवार, साथी, तांगेवाला, पालकी, आईना, धर्मकांटा, पाकीजा (गुलाम मोहम्मद के साथ संयुक्त रूप से), सन ऑफ इंडिया, लव एंड गाड सहित अन्य कई फिल्मों में उन्होंने अपने संगीत से लोगों को झूमने पर मजबूर किया।उन्होंने छोटे पर्दे के लिए द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान और अकबर द ग्रेट जैसे धारावाहिकों में भी संगीत दिया। उनका तैयार किया हुआ संगीत और प्यारी-प्यारी धुनें आज भी बजा करती हैं और आज की पीढ़ी भी उसे बड़े चाव से सुनती है, क्योंकि अच्छा संगीत वही है, जो कानों को प्यारा लगे और दिल तक पहुंचे।
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जयंती पर विशेष
भारतीय फिल्म संगीत के सबसे सुरीले गायक मन्ना डे का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता रहा है। मन्ना डे की आवाज हर दौर में पसंद की गई। अनेक राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पुरस्कार जीतने के बाद उन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए भी चुना गया। यह बात अलग है कि इतने सुरीले गायक को वो मुकाम नहीं मिल पाया जिसके वे वास्तव में हकदार थे।1950 से 1970 के दशक को हिंदी फिल्म संगीत का स्वर्णिम युग कहा जाता है और इसे स्वर्णिम बनाने में मन्ना डे की सुनहरी आवाज का बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हें रवीन्द्र संगीत का भी चितेरा माना जाता था। उनके गाए मीठे गीतों की बानगी देखिए।ए भाई जरा देख के चलो, कस्मे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या, ए मेरी जोहरा जबीं, पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, ए मेरे प्यारे वतन आदि गीतों के बोल, मूड और माहौल भले ही अलग-अलग है लेकिन इन सब में एक बात समान है कि इन्हें भारतीय फिल्म संगीत के सबसे सुरीले गायक मन्ना डे ने अपनी आवाज से संवारा है ।कई राष्टï्रीय पुरस्कारों , राज्य सरकारों के सम्मान और श्रेष्ठ गायक के ढेरों पुरस्कारों से सम्मानित मन्ना डे को 1971 में पद्मश्री और 2005 में पद्म विभूषण से अलंकृत किया गया । संगीत को उनके योगदान को देखते हुए उन्हें वर्ष 2007 का दादा साहब फालके पुरस्कार देने की घोषणा की गई।मन्ना डे ने 1943 में तमन्ना फिल्म में पहली बार पाश्र्वगायक के तौर पर अपनी आवाज दी और उसके बाद वह धीरे-धीरे हिंदी फिल्म संगीत के एक ठोस स्तंभ बनते चले गए। 1950 से 1970 के दशक को हिंदी फिल्म संगीत का स्वर्णिम युग कहा जाता है और इसे स्वर्णिम बनाने में मन्ना डे की सुनहरी आवाज का बहुत बड़ा योगदान रहा । उन्होंने मोहम्मद रफी, किशोर कुमार और मुकेश के साथ मिलकर भारतीय फिल्म संगीत की एक मजबूत नींव रखी । किसी भी फिल्म का संगीत इन चारों की पुरसोज आवाज के बिना अधूरा माना जाता था और इनमें भी मन्ना डे को शास्त्रीय संगीत का पारंगत कहा जाए तो गलत नहीं होगा ।एक मई 1919 को पूरण चंद्र और महामाया डे के यहां जन्मे प्रबोध चंद्र डे को आप और हम मन्ना डे के नाम से जानते हैं। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि मन्ना डे को बचपन में पहलवानी और मुक्केबाजी का शौक हुआ करता था। कहां रफ टफ पहलवानों का अक्खड़ मिजाज और कहां गायकी के महीन सुर, दोनों में कहीं कोई समानता नहीं लेकिन मन्ना डे ने इन दोनों में बेहतरीन तरीके से तालमेल बिठाया। स्काटिश चर्च कॉलेज के दिनों में मन्ना डे अपने सहपाठियों की फरमाइश पर अकसर गाया करते थे। उनके चाचा संगीताचार्य के सी डे ने बहुत छुटपन में ही उन्हें संगीत की बारीकियों से अवगत कराया और उनकी मीठी आवाज ने उन्हें हर गीत को चाशनी बना देने का हुनर बख्शा।1942 में मन्ना डे अपने चाचा के पास मुंबई गए और वहां उनके सहायक के तौर पर काम करना शुरू कर दिया। कुछ समय तक वह सचिन देव बर्मन के सहायक रहे और बाद में कुछ अन्य संगीत निर्देशकों के साथ भी काम किया। इस दौरान वह उस्ताद अमन अली खान और उस्ताद अब्दल रहमान खान से गायकी की बारीकियां सीखते रहे ।उन्होंने 1943 में तमन्ना फिल्म में सुरैया के साथ युगल गीत गाया। यह गाना खूब सफल रहा और उनकी ठहरी हुई पुरकशिश आवाज को खूब पसंद किया गया । इसके बाद उन्होंने राम राज्य, कविता, महाकवि, विक्रमादित्य, प्रभु का घर, वाल्मीकी और गीत गोविंद जैसी फिल्मों के लिए अपनी आवाज दी। उन दिनों फिल्में बहुत कम बनती थीं इसलिए वह भी साल में एकाध फिल्म में ही गीत गा पाते थे।50 के दशक तक मन्ना डे एक मंझे हुए पाश्र्व गायक के तौर पर स्थापित हो गए और उन्होंने आवारा, दो बीघा जमीन, हमदर्द, परिणीता, चित्रांगदा, बूट पालिश और श्री 420 जैसी फिल्मों के लिए पाश्र्व गायन किया। आमतौर पर राजकपूर की फिल्मों में मुकेश अपनी आवाज दिया करते थे लेकिन कुछ गीतों के लिए राज कपूर ने मन्ना डे की आवाज पर भरोसा किया । श्री 420 का मुड़ मुड़ के न देख, मुड़ मुड़ के, मेरा नाम जोकर का ए भाई जरा देख के चलो और बॉबी फिल्म का ना मांगू सोना चांदी आदि ऐसे ही कुछ गीत हैं।मन्ना डे की आवाज हर दौर में पसंद की गई। उन्होंने शोले, लावारिस, सत्यम शिवम सुंदरम, चोरों की बारात, क्रांति, कर्ज, सौदागर, हिंदुस्तान की कसम, बुडढ़ा मिल गया जैसी तमाम फिल्मों के गीतों को स्वर दिया । उन्होंने देश के महान शास्त्रीय गायकों में शुमार भीमसेन जोशी के साथ फिल्म बसंत बहार में केतकी गुलाब जूही, चंपक बन फूले जैसा शुद्ध शास्त्रीय राग पर आधारित गीत गाकर अपनी सुर साधना का परिचय दिया । उन्हें रवीन्द्र संगीत का भी चितेरा माना जाता था और उन्होंने करीब 3500 से अधिक गीत गाए।दादा साहब फालके पुरस्कार से पहले मन्ना डे को 1969 में फिल्म मेरे हुजूर के लिए और 1971 में बांग्ला फिल्म निशी पद्मा के लिए राष्टï्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें 1985 में लता मंगेशकर पुरस्कार दिया। इसके अलावा भी उन्हें पाश्र्वगायन के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उनके गाए सदाबहार गीत आज भी लोगों के दिलों में गहरे तक उतरने की क्षमता रखते हैं।आलेख- मंजूषा शर्मा - पुण्यतिथि पर विशेषआलेख -मंजूषा शर्मामीना कुमारी- टुकड़े टुकड़े दिन बिता, धज्जी धज्जी रात मिली31 मार्च 1972 को मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी ने अंतिम सांसें लीं। मीना कुमारी ने हिन्दी सिनेमा जगत में जिस मुकाम को हासिल किया वो आज भी याद किया जाता है । वे जितनी उच्चकोटि की अदाकारा थीं उतनी ही उच्चकोटि की शायरा भी। अपने दर्द, ख्वाबों की तस्वीरों और ग़म के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम लोगों को मालूम है। उन्होंने अपनी भावनाओं को जिसतरह से नज्मों और शेरो शायरी में ढाला उन्हें पढ़कर लगता है कि जैसे कोई नसों में हजारों सुईयां इसतरह चुभो रहा हो, कि उफ करने की हिम्मत भी न हो रही हो। सिर्फ सिसकियों की आवाज कानों में गूंज रही है।सुंदर चांद सा नूरानी चेहरा और उस पर आवाज़ में ऐसा मादक दर्द, सचमुच एक दुर्लभ उपलब्धि का नाम था मीना कुमारी। इन्हें ट्रेजेडी क्वीन यानी दर्द की देवी जैसे खिताब दिए गए। पर यदि उनके सपूर्ण अभिनय संसार की पड़ताल करें तो एक सीमा में उन्हें बांधना उनके सिनेमाई व्यक्तित्व के साथ नाइंसाफी ही होगी। गम के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम कलमकारों के बूते की बात होती है।मीना कुमारी के लिए गम का ये दामन शायद अल्लाह ताला की वदीयत थी जैसे। तभी तो कहा उन्होंने - कहां अब मैं इस गम से घबरा के जाऊं, कि यह ग़म तुम्हारी वदीयत है मुझको।मीना कुमारी ने अपनी जिंदगी में बहुत से गम झेले । कहा जाता है कि पैदा होते ही उनके पिता अली बख्श ने रुपये के तंगी और पहले से दो बेटियों के बोझ से घबरा कर अपनी नवजात बेटी महजबीं यानी मीना कुमारी को एक मुस्लिम अनाथ आश्रम में छोड़ आए। अम्मी के काफी रोने -धोने पर मीना कुमारी की घर वापसी हुई। इसीलिए छोटी सी उम्र में उन्होंने अपने परिवार का बोझ अपने कांधों पर ले लिया और अभिनेत्री बन गईं। परिवार हो या वैवाहिक जीवन मीना जी को तन्हाइयां हीं मिली और शायद इसीलिए उनकी शायरी और आवाज में उनका दर्द उभर आता था। उन्हें सच्चे प्रेम की हमेशा तलाश रही और एक बच्चे की आस ने उन्हें अंदर तक तोड़ कर रख दिया था।उनकी एक नज्म है जिसमें उन्होंने अपने दिल का दर्द जैसे निचोड़ कर रख दिया है। इस नज्म को उन्होंने गुलजार साहब के कहने पर ही अपनी आवाज में रिकॉर्ड करवाया।चांद तन्हा है,आस्मां तन्हादिल मिला है कहां -कहां तन्हां।बुझ गई आस, छुप गया ताराथात्थारता रहा धुआं तन्हां।जिंदगी क्या इसी को कहते हैंजिस्म तन्हां है और जां तन्हां।हमसफऱ कोई गर मिले भी कहींदोनों चलते रहे यहां तन्हां।जलती -बुझती -सी रौशनी के परेसिमटा -सिमटा -सा एक मकां तन्हां।राह देखा करेगा सदियों तकछोड़ जायेंगे ये मकां तन्हा।अपनी इस नज्म की तरह मीना कुमारी भी तन्हां बसर करते हुए एकदिन सचमुच सारे जहां को तन्हां कर गईं । जब तक जिन्दा रहीं दर्द चुनते रहीं संजोती रहीं और अपने आप को नशे में डुबोती रहीं। कहा जाता है कि इसी शराब ने उनकी जान ले लीं। वह कोई साधारण अभिनेत्री नहीं थी, उनके जीवन की त्रासदी, पीड़ा, और वो रहस्य जो उनकी शायरी में अक्सर झांका करता था, वो उन सभी किरदारों में जो उन्होंने निभाया बाखूबी झलकता रहा। फिल्म साहब बीवी और गुलाम में मीना कुमारी की छोटी बहू की भूमिका को देखकर आज भी ऐसा लगता है कि जैसे यह भूमिका केवल उन्हीं के लिए लिखी गई थीं और इसमें उनकी निजी जिंदगी का सारा दर्द जैसे साकार हो गया है। न जाओ सैया छुडाके बैयां... गाती उस नायिका की छवि कभी जेहन से उतरती ही नहीं।मीना कुमारी ने लिखा है-टुकड़े -टुकड़े दिन बिता, धज्जी -धज्जी रात मिलीजितना -जितना आंचल था, उतनी हीं सौगात मिली।जब चाह दिल को समझे, हंसने की आवाज़ सुनीजैसा कोई कहता हो, ले फिऱ तुझको मात मिली।होंठों तक आते -आते, जाने कितने रूप भरेजलती -बुझती आंखों में, सदा-सी जो बात मिली।मीना कुमारी गुलजार साहब के काफी करीब थी, लेकिन यह केवल एक शायरा और गुरु का रिश्ता था। तभी तो मरने से पहले उन्होंने अपनी सारी नज्में और शेरो शायरी गुलजार के नाम कर दी। एक बार गुलज़ार साहब ने मीना कुमारी को उनकी एक तस्वीर के साथ एक नज्म पढऩे को दी जिसे उन्होंने खास मीना के लिए ही लिखा था-शहतूत की शाख़ पे बैठी मीनाबुनती है रेशम के धागेलम्हा -लम्हा खोल रही हैपत्ता -पत्ता बीन रही हैएक एक सांस बजाकर सुनती है सौदायनएक -एक सांस को खोल कर आपने तन पर लिपटाती जाती हैअपने ही तागों की कैदीरेशम की यह शायरा एक दिनअपने ही तागों में घुट कर मर जायेगी।इसे पढ़ कर मीना जी हंस पड़ी थीं। कहने लगीं-जानते हो न, वे तागे क्या हैं ? उन्हें प्यार कहते हैं। मुझे तो प्यार से प्यार है। प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है। इतना प्यार कोई अपने तन से लिपटाकर मर सके, तो और क्या चाहिए ?उनकी वसीयत के मुताबिक प्रसिद्ध फि़ल्मकार और लेखक गुलज़ार को मीनाकुमारी की 25 निजी डायरियां प्राप्त हुईं। उन्हीं में लिखी नज्मों, गजलों और शेरो के आधार पर गुलज़ार ने मीनाकुमारी की शायरी का एकमात्र प्रामाणित संकलन तैयार किया ।इसमें गुलजार साहब ने लिखा- मैं, इस मैं से बहुत डरता हूं।शायरी मीना जी की है, तो फिर मैं कौन ? मैं क्यों ?मीना जी की वसीयत में पढ़ा कि अपनी रचनाओं, अपनी डायरियों के सर्वाधिकार मुझे दे गई हैं। हालांकि उन पर अधिकार उनका भी नहीं था, शायर का हक़ अपना शेर-भर सोच लेने तक तो है; कह लेने के बाद उस पर हक़ लोगों का हो जाता है। मीना जी की शायरी पर वास्तविक अधिकार तो उनके चाहने वालों का है। और वह मुझे अपने चाहने वालों के अधिकारों की रक्षा का भार सौंप गई हैं। यह पुस्तक मेरी उस जि़म्मेदारी को निभाने का प्रयास है।निर्देशक विजय भट्ट ने महजबीं को मीना कुमारी का नया नाम दिया था। फिर कमाल अमरोही ने उनसे निकाह करने के बाद उन्हें नाम दिया मंजू। नाज उपनाम से वे शायरी किया करती थीं। पर नाम बदलने से भी मीना कुमारी की किस्मत नहीं बदली। सच्चे प्यार की तलाश उन्हें ताउम्र रही-प्यार सोचा था, प्यार ढूंढ़ा थाठंडी-ठंडी-सी हसरतें ढूंढ़ीसोंधी-सोंधी-सी, रूह की मिट्टीतपते, नोकीले, नंगे रस्तों परनंगे पैरों ने दौड़कर, थमकर,धूप में सेंकीं छांव की चोटेंछांव में देखे धूप के छालेअपने अन्दर महक रहा था प्यार -ख़ुद से बाहर तलाश करते थेवहीं एक जगह मीना कुमारी ने अपने जज्बातों को कुछ इसतरह से बयां किया-ये रात ये तन्हाईये दिल के धड़कने की आवाज़ये सन्नाटाये डूबते तारों कीखा़मोश गजल खवानीये वक्त की पलकों परसोती हुई वीरानीजज्बा़त ए मुहब्बत कीये आखिरी अंगड़ाईबजाती हुई हर जानिबये मौत की शहनाईसब तुम कब बुलाते हैंपल भर को तुम आ जाओबंद होती मेरी आंखों मेंमुहब्बत का एक ख्वाब सजा जाओ।मीना कुमारी जब तक जिन्दा थीं, सरापा दिल की तरह जिन्दा रहीं। दर्द चुनती रहीं, बटोरती रहीं और दिल में समोती रहीं। भगवान कभी - कभी किसी के कॅरिअर में इतनी रौशनी भर देता है कि उसकी चकाचौंध से उसका अपना दिल का कोना अंधेरों में भर जाता है, मीना कुमारी के साथ शायद ऐसा ही कुछ हुआ होगा। जब तक जिंदा रहीं रिश्तेदारों के लिए खर्च करती रहीं। तभी तो मौत के बाद उनकी लाश लावारिस अस्पताल में पड़ी थी, क्योंकि उनके इलाज के पैसे नहीं चुकाए गए थे। आखिरकार मीना कुमारी के एक जबरदस्त प्रशंसक रहे उसी अस्पताल के ही एक डॉक्टर ने यह बिल अदा किया। तब जाकर उनका अंतिम संस्कार हो पाया।
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जब सुनील दत्त-नरगिस ने मीना कुमारी को पाकीजा फिल्म पूरी करने के लिए मनाया
आलेख - मंजूषा शर्मा-------आपके पांव देखे .. बहुत हसीन है, इन्हें ज़मीन पे मत उतारीएगा मैले हो जाएंगे... जैसे संवादों से सजी फिल्म पाकीजा की जब - जब बात होगी, कमाल अमरोही यानी सैयद आमिर हैदर और उसके संगीत का जिक्र होगा। फिल्म के शायराना संवाद कमाल अमरोही की ही कलम से निकले। यदि वे आज जिंदा होते तो शायद इसी तरह की क्लासिक फिल्में बना रहे होते।फिल्म, पाकीज़ा को बनने में 14 साल लगे, पर आज भी यह फिल्म क्लासिक फिल्मों में गिनी जाती है। फिल्म की सफलता को देखने के लिए न तो मुख्य नायिका मीना कुमारी जिंदा थीं, और ही इसके संगीतकार गुलाम मोहम्मद। एक प्रकार से कहा जाए तो उनकी मौत ने ही इस फिल्म को हिट बना दिया था। हालांकि यह अपने दौर की पहली फिल्म थी जिसमें दो- दो संगीतकार थे, गुलाम मोहम्मद और नौशाद।फिल्म को कमाल अमरोही ने 1956 में पत्नी मीना कुमारी के साथ ब्लैक एंड व्हाइट में बनाना शुरू किया और फिल्म के नायक का किरदार अशोक कुमार को दिया, लेकिन 14 साल में काफ़ी कुछ बदल गया और अशोक कुमार की जगह वो किरदार राज कुमार को मिल गया। फिल्म के बनने के दौरान ही मीना कुमारी और कमाल अमरोही का तलाक़ हो गया और फिल्म के संगीत निर्देशक गुलाम मोहम्मद का निधन, जिस वजह से फिल्म डब्बा बंद हो गयी। फिर जब सुनील दत्त और नरगिस ने फिल्म के कुछ भाग देखे तो उन्होंने मीना कुमारी को फिल्म पूरी करने के लिए मनाया और संगीत के लिए नौशाद साहब को लाया गया। कहते है कि मीना कुमारी उस वक्त काफ़ी शराब पीने की वजह से बीमार रहती थीं और इसलिए फिल्म के ज्यादातर दृश्यों में उन्हें बैठे हुए दिखाया गया है। फिल्म का आखिरी गाना -आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे, तीरे नजऱ देखेंगे...... पद्मा खन्ना पर फिल्माया गया है और मीना कुमारी के दृश्यों को काफ़ी नज़दीक से लिया गया है। फिल्म का सबसे मजबूत पहलू उसके संवाद और उसके गाने हैं। फिल्म के संवाद कमाल अमरोही ने लिखे जो शायरी से कम नहीं हैं, जिसका एक-एक लफ्ज मुस्लिम समाज की बारीकिय़ां दिखाता है। फिल्म का संगीत पक्ष भी काबिले तारीफ है।ठाढ़े रहियो ओ बांके यार रे...60 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में फिल्म पाकीजा के निर्माण की योजना बनी थी। फिल्म-निर्माण प्रक्रिया में इतना अधिक समय लग गया कि दो संगीतकारों को फिल्म का संगीत तैयार करना पड़ा। वर्ष 1972 में प्रदर्शित पाकीजा के संगीत के लिए संगीतकार गुलाम मोहम्मद ने शास्त्रीय रागों का आधार लेकर एक से बढ़कर एक गीतों की रचना की थी। इन्हीं में से एक राग मांड पर आधारित ठुमरी - ठाढ़े रहियो ओ बांके यार रे... थी। यह परम्परागत ठुमरी नहीं है, इसकी रचना मजरुह सुल्तानपुरी ने की है परन्तु भावों की चाशनी से पगे शब्दों का कसाव इतना आकर्षक है कि परम्परागत ठुमरी का भ्रम होने लगता है। राजस्थान की प्रचलित लोकधुन से विकसित होकर एक मुकम्मल राग का दर्जा पाने वाले राग मांड में निबद्ध होने के कारण नायिका के मन की तड़प का भाव मुखर होता है। ठुमरी में तबले पर दादरा और तीनताल का अत्यन्त आकर्षक प्रयोग किया गया है।संगीतकार गुलाम मोहम्मद ने इस ठुमरी के साथ-साथ चार-पांच अन्य गीत अपने जीवनकाल में ही रिकॉर्ड करा लिए थे। इसी दौरान वह ह्रदय रोग से पीडि़त हो गए थे। उनके अनुरोध पर फिल्म के दो गीत - यूं ही कोई मिल गया था.. और चलो दिलदार चलो... संगीतकार नौशाद ने रिकॉर्ड किया। फिल्म पाकीज़ा के निर्माण के दौरान ही गुलाम मोहम्मद 18 मार्च, 1968 को इस दुनिया से रुखसत हो गए। उनके निधन के बाद फिल्म का पाश्र्व संगीत और कुछ गीत नौशाद ने परवीन सुल्ताना, राजकुमारी और वाणी जयराम की आवाज में जोड़े। इस कारण गुलाम मोहम्मद के स्वरबद्ध किए कई आकर्षक गीत फिल्म में शामिल नहीं किये जा सके। फिल्म में शामिल नहीं किये गए गीतों को रिकार्ड कम्पनी एच.एम.वी. ने बाद में पाकीजा रंग विरंगी शीर्षक से जारी किया था। महत्वाकांक्षी फिल्म पाकीजा गुलाम मोहम्मद के निधन के लगभग चार वर्ष बाद प्रदर्शित हुई थी। संगीत इस फिल्म का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष सिद्ध हुआ, किन्तु इसके सर्जक इस सफलता को देखने के लिए हमारे बीच नहीं थे।फिल्म पाकीजा में गुलाम मोहम्मद ने लता मंगेशकर की आवाज़ में राग पहाडी पर आधारित एकल गीत - चलो दिलदार चलो... रिकॉर्ड किया था, परन्तु फिल्म में इसी गीत को लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी के युगल स्वरों में नौशाद ने रिकॉर्ड कर शामिल किया था। एकल गीत में जो प्रवाह और स्वाभाविकता है, वह युगल गीत में नहीं है।फिल्म की कहानीपाकीजा की कहानी एक पाक दिल तवायफ साहिबजान (मीना कुमारी) की है, जो नरगिस (मीना कुमारी) और शहाबुद्दीन (अशोक कुमार) की बेटी है। जब शहाबुद्दीन का परिवार एक तवायफ़ (नरगिस) को अपनाने से इनकार कर देता है तो नरगिस एक कब्रिस्तान में आकर रहने लगती है और वहीं अपनी बेटी साहिबजान को जन्म देकर गुजऱ जाती है। साहिबजान अपनी खाला नवाब जान के साथ दिल्ली के कोठे पर बड़ी होती है और मशहूर तवायफ़ बनती है। 17 साल बाद शहाबुद्दीन को जब इस बात की खबर मिलती है तो वो अपनी बेटी को लेने उसके कोठे पहुंचता है, लेकिन उसे वहां कुछ नसीब नहीं होता। एक सफऱ के दौरान साहिबजान की मुलाकात सलीम (राज कुमार) से होती है और सलीम का एक खत साहिबजान के ख्यालों को पर दे जाता है। सलीम उसे अपने साथ निकाह करने के लिए कहता है और साहिबजान को मौलवी साहब के पास ले जाता है। नाम पूछे जाने पर सलीम, साहिबजान का नाम पाकीजा बतलाता है जो साहिबजान को अपना अतीत याद करके पर मजबूर कर देता है और वो उसे छोड़ कर वापिस कोठे पर आ जाती है।एक दिन साहिबजान के पास सलीम की शादी पर मुजरा करने का न्योता आता है और वो उसे कबूल कर लेती है, लेकिन वो इस बात से अंजान होती है की यह वही हवेली है जिसके दरवाजे से कभी उसकी मां नरगिस को दुत्कार कर निकाला गया था। सलीम, शहाबुद्दीन का भतीजा है और साहिबजान को आज उसके प्यार और परिवार के सामने मुजरा करना है। फिल्म का यह आखिरी सीन होता है। इसी दृश्य में -आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे, गीत फिल्माया गया ।फिल्म का एक-एक दृश्य इतनी बारीकी से फिल्माया गया है कि वह आपको एक अलग दुनिया में ले जाता है। इस फिल्म को कमाल अमरोही के साथ-साथ मीना कुमारी और संगीतकार गुलाम मोहम्मद की सबसे श्रेष्ठ फिल्म माना जाता है। कभी किसी और अंक में हम एच.एम.वी.के अलबम- पाकीजा रंग विरंगी का जिक्र करेंगे। इस अलबम को सुनने के बाद आपको इस बात का अफसोस हो सकता है कि आखिरकार ये गाने पाकीजा में क्यों नहीं शामिल किए गए।----़ -
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में स्थित पवित्र धार्मिक नगरी राजिम में प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक पंद्रह दिनों का मेला लगता है। राजिम तीन नदियों का संगम है इसलिए इसे त्रिवेणी संगम भी कहा जाता है, यहाँ मुख्य रूप से तीन नदिया बहती है, जिनके नाम क्रमशः महानदी, पैरी नदी तथा सोढुर नदी है, राजिम तीन नदियों का संगम स्थल है, संगम स्थल पर कुलेश्वर महादेव जी विराजमान है। वर्ष 2001 से राजिम मेले को राजीव लोचन महोत्सव के रूप में मनाया जाता था, 2005 से इसे कुम्भ के रूप में मनाया जाता रहा था, और अब 2019 से राजिम पुन्नी मेला महोत्सव मनाया जा रहा है। यह आयोजन छत्तीसगढ़ शासन धर्मस्व एवं पर्यटन विभाग एवम स्थानीय आयोजन समिति के सहयोग से होता है। मेला की शुरुआत कल्पवाश से होती है पखवाड़े भर पहले से श्रद्धालु पंचकोशी यात्रा प्रारंभ कर देते है पंचकोशी यात्रा में श्रद्धालु पटेश्वर, फिंगेश्वर, ब्रम्हनेश्वर, कोपेश्वर तथा चम्पेश्वर नाथ के पैदल भ्रमण कर दर्शन करते है तथा धुनी रमाते है। 101 कि॰मी॰ की यात्रा का समापन होता है और माघ पूर्णिमा से मेला का आगाज होता है, राजिम माघी पुन्नी मेला में विभिन्न जगहों से हजारो साधू संतो का आगमन होता है, प्रतिवर्ष हजारो के संख्या में नागा साधू, संत आदि आते है, तथा विशेष पर्व स्नान तथा संत समागम में भाग लेते है, प्रतिवर्ष होने वाले इस माघी पुन्नी मेला में विभिन्न राज्यों से लाखो की संख्या में लोग आते है और भगवान श्री राजीव लोचन तथा श्री कुलेश्वर नाथ महादेव जी के दर्शन करते है और अपना जीवन धन्य मानते है। लोगो में मान्यता है की भनवान जगन्नाथपुरी जी की यात्रा तब तक पूरी नही मानी जाती जब तक भगवान श्री राजीव लोचन तथा श्री कुलेश्वर नाथ के दर्शन नहीं कर लिए जाते, राजिम माघी पुन्नी मेला का अंचल में अपना एक विशेष महत्व है। राजिम अपने आप में एक विशेष महत्व रखने वाला एक छोटा सा शहर है राजिम गरियाबंद जिले का एक तहसील है प्राचीन समय से राजिम अपने पुरातत्वो और प्राचीन सभ्यताओ के लिए प्रसिद्द है राजिम मुख्य रूप से भगवान श्री राजीव लोचन जी के मंदिर के कारण प्रसिद्द है। राजिम का यह मंदिर आठवीं शताब्दी का है। यहाँ कुलेश्वर महादेव जी का भी मंदिर है। जो संगम स्थल पर विराजमान है। राजिम माघी पुन्नी मेला प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक चलता है। इस दौरान प्रशासन द्वारा विविध सांस्कृतिक व् धार्मिक आयोजन आदि होते रहते है। -
यह आवश्यक होगा कि हम भारतीय मुसलमान, ईसाई, यहूदी, पारसी और अन्य सभी लोग जिनके लिए भारत उनका घर है, साथ जीने और मरने के लिए एक समान ध्वज को अपनाएं : महात्मा गांधी---
दुनिया में हर राष्ट्र का अपना एक ध्वज है। ध्वज प्रतीक है राष्ट्र की स्वतंत्रता और संप्रभुता का। अंग्रेजों की गुलामी के समय हमारे देश में इंग्लैंड का ध्वज यूनियन जैक फहराया जाता था। परतंत्रता की इन बेड़ियों को तोड़ना आसान न था लेकिन हम भारत माता के लाखों उन सपूतों के आभारी हैं, जिन्होंने अपना भविष्य और अपने परिवार की चिंता छोड़ मां भारती की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। हमारा राष्ट्रीय ध्वज, लहरता-फहरता ये तिरंगा उसी महान स्वतंत्रता संग्राम की एक उत्पत्ति है।
हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा न सिर्फ हमें उनकी याद दिलाता है जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए अपना बलिदान कर दिया बल्कि हमें राष्ट्र के प्रति हमारे कर्त्तव्यों के प्रति भी जागरूक करता है। यह हमें यह भी याद दिलाता है कि स्वतंत्रता आसान नहीं, अमूल्य उपलब्धि है।
यह तिरंगा हमारे देश की विभिन्नता में एकता का पवित्रतम प्रतीक है। भाषाएं-संस्कृतियां अनेक हैं, दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों को मानने वाले लोग हमारे देश में रहते हैं और इन तमाम विविधताओं के बावजूद हमारा राष्ट्रीय ध्वज हमें एक भावना में बांधता है, हमें भारतीय कहलाने का गौरव प्रदान करता है।
पहले, हमारे देश में अलग-अलग झंडे थे, जो अलग-अलग शासन, काल और अलग-अलग क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते थे। अंग्रेजों ने अपने यूनियन जैक को प्रदर्शित किया, मुगलों का अपना झंडा था और इसी तरह सैकड़ों शासकों के अपने-अपने झंडे थे। गौर करने की बात यह है कि ये राजाओं के झंडे थे, प्रजा के नहीं।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान श्री पिंगली वेंकैया द्वारा डिजायन किया हुआ ध्वज अपनाया गया, जो विविधताओं के देश भारत की जनता का प्रतिनिधित्व करता है। हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान सभा ने जब तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया तो इसे उन लोगों से ही दूर रखा गया, जिनका प्रतिनिधित्व करने के लिए यह था: हम भारत के लोग। गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस जैसे चुनिंदा मौकों को छोड़कर आम नागरिकों को राष्ट्रीय ध्वज प्रदर्शित करने की अनुमति नहीं थी। एक जन-आंदोलन से जिस तिरंगे की उत्पत्ति हुई, वह जन-ध्वज न बनकर सरकारी ध्वज बन गया।
मेरा मन मुझसे कहता कि तिरंगा के माध्यम से देशभक्ति प्रदर्शित करो लेकिन यह हमारा मौलिक अधिकार नहीं था इसलिए मैंने जनता को यह अधिकार दिलाने का संकल्प लिया। मुझे इस अधिकार के लिए लगभग एक दशक लंबा अथक कानूनी संघर्ष करना पड़ा। 23 जनवरी 2004 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वी.एन. खरे, न्यायमूर्ति बृजेश कुमार और न्यायमूर्ति एस.बी. सिन्हा की पीठ ने फैसला सुनाया कि पूरे सम्मान के साथ राष्ट्रीय ध्वज को स्वतंत्र रूप से प्रदर्शित करने का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में निहित है जो एक भारतीय नागरिक का मौलिक अधिकार है। मौलिक अधिकार की इस व्याख्या ने देश के एक नागरिक की राष्ट्र के प्रति निष्ठा और समर्पण की भावना प्रदर्शित करने और उसकी अभिव्यक्ति को परिभाषित किया। दिल्ली उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति डी.पी. वाधवा और न्यायमूर्ति एम.के. शर्मा ने कहा कि देश के नागरिकों को सम्मानजनक तरीके से राष्ट्रीय ध्वज प्रदर्शित करने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। तिरंगा के माध्यम से देशभक्ति की भावना प्रदर्शित करने का अधिकार मिलने के बाद संसद ने सर्वसम्मति से 2005 में संबंधित कानून में संशोधन किया जो भारतीय ध्वज संहिता के कुछ नियमों में बदलाव का आधार बना और जिससे लैपल पिन, कलाई बैंड और टी-शर्ट के माध्यम तिरंगा प्रदर्शित करने की अनुमति आम नागरिकों को मिल गई। चूंकि हमें साल के 365 दिन स-सम्मान ध्वज प्रदर्शित करने या पहनने का अधिकार नहीं था, इसलिए हमारे यहां अधिकांश देशों की तरह झंडा दिवस की अवधारणा भी नहीं थी। हमारे यहां सशस्त्र सेना झंडा दिवस तो मनाया जाता है, लेकिन राष्ट्रीय ध्वज दिवस नहीं। अब जब हम 23 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले की 16वीं वर्षगांठ मना चुके हैं और 26 जनवरी को राष्ट्रीय महापर्व गणतंत्र दिवस मना रहे हैं तो यह उचित समय है जब हम गंभीरता से विचार करें कि अपने राष्ट्रीय ध्वज के लिए भी एक दिन समर्पित किया जाए। विश्व के अधिकतर देशों में राष्ट्रीय ध्वज दिवस मनाया जाता है ताकि वहां के नागरिक आत्मावलोकन कर सकें और अपने देश के झंडे के साथ अपने रिश्ते को अभिव्यक्त कर सकें। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश राष्ट्रीय ध्वज सप्ताह मनाते हैं, जिसमें देश के सभी सरकारी भवनों, परेडों और अन्य कार्यक्रमों में झंडे को प्रदर्शित किया जाता है।
मेरा मानना है कि भारत में भी 23 जनवरी से 26 जनवरी गर्व के साथ प्रतिदिन तिरंगा फहराने का अधिकार मिलने की तिथि से गणतंत्र होने की तिथि, तक राष्ट्रीय ध्वज सप्ताह मनाया जाना चाहिए । आखिरकार, यह हमारा राष्ट्रीय ध्वज है जो हमें हमारे गणतंत्र की भावना में बांधता है।
(लेखक कुरुक्षेत्र के पूर्व सांसद और फ्लैग फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष हैं)
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रायपुर। राजधानी रायपुर में स्वामी विवेकानंद की याद में राष्ट्रीय स्मारक बनाया जाएगा। यह बातें 30 साल पहले चर्चा में आईं थी, मगर अब यह सच साबित होती दिख रही हैं। अब तक किसी न किसी वजह से स्मारक बनाने का काम रुका ही हुआ था। दरअसल रायपुर में जहां स्वामी विवेकानंद रहे थे, वह स्थान रायबहादुर भूतनाथ डे चेरिटेबल ट्रस्ट के अधीन है। उचित व्यवस्थापन तय न हो पाने की सूरत में यहां कुछ भी काम अब तक नहीं हो सका था। मगर अब 2 जनवरी को हुए कैबिनेट के फैसले में ट्रस्ट को जमीन और भवन देने के मुद्दे पर निर्णय लिया गया। ट्रस्ट को नगर निगम के पास मौजूदा भूमि में स्थान दिया जाएगा। वर्तमान में ट्रस्ट स्कूल भी चला रहा है, इन्हें नया स्कूल भी बनाकर दिया जाएगा ताकि बच्चों की पढ़ाई का नुकसान न हो। जिला प्रशासन और ट्रस्ट से मिली जानकारी के मुताबिक ट्रस्ट को जमीन दिए जाने को लेकर हर स्तर पर बातचीत हो चुकी है। जल्द ही इसकी प्रक्रिया भी शुरू की जाएगी। ट्रस्ट के राजेंद्र बैनर्जी ने बताया कि यह हमारे लिए गौरव की बात है कि जहां स्वामी जी रहे, उस जगह पर सरकार स्मारक बनाना चाहती है। हमनें अपनी शर्तें सरकार के सामने रखीं हैं, जिस पर वह राजी भी हैं। हमें उन्हें जगह देने में कोई समस्या नहीं है। जानकारी के मुताबिक यहां स्मारक बनाए जाने की कोशिशें राज्य विभाजन के पहले से की जा रही हैं। 1988 के दौर में जब अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे तब भी इस भवन को संरक्षित करने की कोशिशें हुईं मगर बात नहीं बनी। इसके बाद हर बार प्रयास होते रहे मगर कामयाबी नहीं मिल सकी थी।
यह होगा स्मारक में
संस्कृति विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक यहां स्वामी विवेकानंद से जुड़ी पुस्तकें, उनके रायपुर आने की घटनाओं का चित्रण, उनके भाषण, विवेकानंद के अनमोल विचार और उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को दिखाती गैलेरी बनाई जा सकती है। फिलहाल भवन को खाली कराए जाने की प्रक्रिया होनी है, इसके बाद यह प्रोजेक्ट और भी चीजों को शामिल कर शुरू किया जाएगा। भवन के खाली होने के बाद इसके ढांचे को पुरातत्व विभाग के एक्सपर्ट वैसे ही सहेजेंगे जैसा यह सालों पहले हुआ करता था।
रायपुर में स्वामी विवेकानंद
रायपुर में स्वामी विवेकानंद ने सन 1877 से 1879 के बीच अपना बचपन बिताया था। रायपुर का एयरपोर्ट हो या प्रमुख तालाब यह विवेकानंद के नाम पर किए जाने के पीछे की असल वजह है। रायपुर के रामकृष्ण मिशन से मिली जानकारी के मुताबिक सन् 1877 ई. में स्वामी विवेकानंद रायपुर आये। तब उनकी आयु 14 वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी (आज की आठवीं कक्षा के समकक्ष) में पढ़ रहे थे। उनके पिता विश्वनाथ दत्त तब अपने काम की वजह से रायपुर में ही रह रहे थे। विवेकानंद अपने छोटे भाई महेन्द्र, बहन जोगेन्द्रबाला तथा माता भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर के लिये रवाना हुए। तब ट्रेन की सुविधा रायपुर तक नहीं थी। माना जाता है कि तब वह जबलपुर तक ट्रेन से आए इसके बाद रायपुर बैलगाड़ी से आए। इस यात्रा में 15 दिनों का वक्त लगा। कहा जाता है कि इस यात्रा में भी विवेकानंद ने बहुत कुछ सीखा। रायपुर में अच्छा स्कूल नहीं था। इसलिये विवेकानंद पिता से ही पढ़ा करते थे। रामकृष्ण मिशन के मुताबिक इस भवन में तब के कई विद्वानों का उठना-बैठना होता था। बच्चा समझकर कोई अगर स्वामी विवेकानंद की बातों को नजर अंदाज करता तो इसका वह विरोध भी करते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र ने ऐसा ही किया तो स्वामी विवेकानंद ने कहा था-आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं, जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि-विचार नहीं होता, किन्तु यह धारणा नितांत गलत है।
रायपुर में स्वामी विवेकानंद ने यह सीखा
विवेकानंद अपने पिता के साथ रायपुर के भवन में खाना भी पकाया करते थे। रायपुर में उन्होंने शतरंज खेलना भी सीख लिया, फिर यहीं विश्वनाथ बाबू ने विवेकानंद को संगीत की पहली शिक्षा दी। विवेकानंद को बचपन से ही संगीत से बेहद लगाव था, उनके पिता भी संगीत में बेहद अच्छे कलाकार थे। इस वजह से आए दिन शाम के वक्त यहां संगीत के रियाज से गलियां गूंजा करती थीं। विवेकानंद आगे चलकर अच्छे गायक भी बने।
मिली थी चांदी की घड़ी
करीब डेढ़ वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ दत्त सपरिवार कलकत्ता लौट आये। लंबे समय तक स्कूल नहीं जाने की वजह से शिक्षकों ने विवेकानंद को पहले तो स्कूल में एडमिशन नहीं दिया। कुछ वक्त इस घटना से वह निराश रहे, लेकिन बाद में उन्हें विशेष आग्रह पर स्कूल में दाखिला मिला उन्होंने स्कूल में परीक्षा न सिर्फ पास की बल्कि स्कूल में टॉप किया था। इस पर स्वामी विवेकानंद के पिता ने उन्हें तोहफे में उस जमाने में चांदी की घड़ी दी थी। -
फारुख शेख. पुण्यतिथि. 28 दिसंबर
मंजूषा शर्मा
बॉलीवुड के एक उम्दा कलाकार रहे फारुख शेख की 28 दिसंबर को पुण्यतिथि है। इसी दिन वर्ष 2013 को दुबई में उनका दिल का दौरा पडऩे से निधन हो गया था। बात नाटकों की हो या फि र घोर कमर्शियल फिल्में हो या फिर आर्ट फिल्में, सभी में फारुख शेख ने अपनी अदायगी से एक अलग छाप छोड़ी।
फारुख शेख ने हर तरह की फिल्मों में काम किया और थियेटर में तो जैसे उनका मन ही रमता था। तुम्हारी अमृता, नाटक उनका काफी लोकप्रिय हुआ था जिसमें उन्होंने शबाना आजमी के साथ काम किया था। इस नाटक में स्टेज पर वे कुर्सी पर बैठे जब शबाना आजमी के साथ अपने संवाद इतने मनोभावों और संजीदगी से बोलते थे कि मात्र दो कलाकारों वाला नाटक किसी को भी अंत तक बोझिल नहीं लगता था।
फारुख शेख साहब की पुण्यतिथि पर उन पर फिल्माया गई एक गजल बार.बार याद आ रही है जो फिल्म बाजार में शामिल की गई है। यह गजल है फि र छिड़ी रात बात फूलों की, रात है या बारात फूलों की...। शानदार बेमिसाल और अद्भुत है ये गजल और उतना ही प्यारा खय्याम का संगीत। फिल्म बाजार वर्ष 1982 में रिलीज हुई थी। इस फिल्म निर्देशक थे सागर सरहदी। समर्थ कलाकारों की पूरी फौज थी इस फिल्म में, लेकिन हर कलाकार का अपना अंदाज। नसीरूद्दीन शाह, फारुख शेख, स्मिता पाटिल, सुप्रिया पाठक जैसे मंजे हुए कलाकारों से सजी इस फिल्म ने अपनी अलग ही छाप छोड़ी थी। फिर छिड़ी रात... गजल को लिखा है मखदूम मोहिउद्दीन ने। फूलों पर लिखी गई गजलों में मेरे खयाल से इससे खूबसूरत गजल कोई और नहीं हो सकती फिर लता मंगेशकर और तलत अजीज की पाक और चाशनी में डूबी आवाज का साथ। इस फिल्म में फारुख शेख की जोड़ी सुप्रिया पाठक के साथ बनी थी। रिकॉर्ड कंपनी एचएमवी ने जब इस फिल्म के गानों के रिकॉर्ड और कैसेट्स जारी किए थे, तो इसमें हर गानों के साथ फिल्म के कलाकारों के कुछ संवाद भी थे। और वो भी ऐसे भावुक और असरदार संवाद कि पूछिए, मत । जैसे कि फिर छिड़ी रात.... गजल में फारुख और सुप्रिया की आवाज गूंजती है। फारुख फिल्म में बेरोजगार युवक के रोल में थे जो रिक्शा चलाया करता था। वे सुप्रिया से बहुत प्यार करते थे। इस गाने के फिल्मांकन से पहले दिखाया गया है कि किस तरह से फारुख, सुप्रिया को देखने के बहाने आवाज देते हुए चिल्लाते हैं. चूडिय़ा ले लो चूडिय़ां , रंग बिरंगी चूडिय़ां और उनकी आवाज सुनकर सुप्रिया उन्हें बुलाती है. ओ चूड़ी वाले चूड़ी दिखाओ न। या फिर नसीर का वो संवाद..कभी रास्ते में मिल गयीं तो पहचान लोगी मुझे । तो स्मिता पाटिल जवाब देती हैं..सलाम जरूर करूंगी....और शुरू होता है फिल्म का एक और गाना..करोगे याद तो हर बात याद आएगी।
यह उन दिनों की बात है, जब टेप रिकॉर्डर का जमाना था और लोग अपनी पसंद के गाने रिकॉर्ड कराने के लिए घंटों रिकॉर्ड वाले की दूकान में बैठे रहते थे। घर पर ऐसा ही एक कैसेट आया और फिल्म के गाने सुनने को मिले। स्कूल.कॉलेज का ज़माना और इतने रूमानी गीतों का साथ। हालांकि उम्र का तकाजा था कि उस वक्त इन गानों का अर्थ पूरी तरह से समझ नहीं आया और न ही फिल्म की कहानी ही। लेकिन इसके गानों की सुमधुर धुनें दिल में ऐसे घर कर गईं कि आज भी इनके एक-एक शब्द और धुनें याद है। इस फिल्म का कैसेट मैंने आज तक संभाल कर रखा है और मजे की बात है कि 37 साल के बाद भी यह कैसेट अच्छे से बज भी रहा है।
फिर छिड़ी रात गजल को लता मंगेशकर और गजल गायक तलत अजीज ने गाया है। उस समय तलत साहब बॉलीवुड में नए -नए आए थे और उनकी लीक से हटकर आवाज ने बॉलीवुड के फिल्म निर्माताओं को भी आकर्षित किया था। इस फिल्म के पहले वे 1981 में आई फिल्म उमराव जान में फारुख शेख के लिए गा चुके थे। बाजार फिल्म का संगीत भी खय्याम साहब ने दिया था और वे तलत साहब की आवाज से खासे प्रभावित थे। फिल्म बाजार के लिए भी उन्होंने तलत को लिया।
गजल थोड़ी लंबी है। मखदूम साहब ने इसे पांच अंतरे में लिखा लेकिन खय्याम साहब ने फिल्म में इसके तीन अंतरों को शामिल किया। लंबी $गजल होने के बाद भी इसका रोमांटिक अंदाज और प्यारी धुन बोरियत का अहसास नहीं कराती। मखदूम साहब का लिखा पूरा गाना है.
फि र छिड़ी रात बात फूलों की , रात है या बारात फूलों की ।
फू ल के हार, फूल के गजरे, शाम फूलों की रात फूलों की ।
आपका साथ, साथ फूलों का, आपकी बात, बात फूलों की ।
नजरें मिलती हैं जाम मिलते हैं, मिल रही है हयात फूलों की ।
कौन देता है जान फूलों पर, कौन करता है बात फूलों की ।
वो शराफत तो दिल के साथ गई, लुट गई कायनात फूलों की ।
अब किसे है दमागे तोहमते इश्क, कौन सुनता है बात फूलों की ।
मेरे दिल में सरूर.,.सुबह बहार, तेरी आंखों में रात फूलों की ।
फूल खिलते रहेंगे दुनिया में, रोज निकलेगी बात फूलों की ।
ये महकती हुई गजल मखदूम, जैसे सहरा में रात फूलों की ।
फिल्म में शामिल की गई $इस गजल में वायलिन पर कुछ अरबी धुन की स्वर लहरियां गाने की रुहानियत बढ़ा देती है। सितार का कितना खूबसूरत इस्तेमाल हुआ है इसमें । धुन के साथ गजल इतनी नाजुक कि सारा रोमांस आंखों पर उतर आए। तसल्ली से आज फिर इस गजल को सुनियेगा और दाद दीजिएगा उस दौर के मौसिकारों, कलाकारों और गीतकारों की मेहनत को जो दिल से निकलने वाले गाने तैयार किया करते थे।
कुछ बरस पहले एक साक्षात्कार में खय्याम साहब ने इस फिल्म की याद करते हुए बताया था कि किस तरह से इसमें उस दौर के उम्दा शायरों की रचनाओं को संगीत में पिरोया गया था। उन्होंने बताया.. वो हमारी फिल्म आपको याद होगी, बाजार । उसमें ये सागर सरहदी साहब हमारे मित्र हैं, दोस्त हैं, तो ऐसा सोचा सागर साहब ने कि खय्याम साहब, कुछ अच्छा आला काम किया जाए, अनोखी बात की जाए। तो सोचा गया कि बड़े शायरों के कलाम इस्तेमाल किए जाएं फिल्म के संगीत में। हो सकता है कि शायद लोगों की समझ में ना आए। निर्माता .निर्देशक ने जब कहा कि आप ने बिलकुल ठीक सोचा है। फिर फिल्म में शायर मीर तकी मीर ;( दिखाई दिए यूंं के बेखुद किया) मिर्जा शौक (देख लो आज हमको जी भर के), बशीर नवाज (करोगे याद तो हर बात याद आएगी), इन सब को इस्तेमाल किया। फिर मखदूम मोहिउद्दीन, फिर छिड़ी रात बात फूलों की ,यह उनकी बहुत मशहूर गजल है, और मखदूम साहब के बारे में कहूंगा कि बहुत ही रोमांटिक शायर हुए हैं। और हमारे हैदराबाद से ताल्लुख, और बहुत रेवोल्युशनरी शायर। जी हां बिलकुल, अपने राइटिंग में भी, और अपने किरदार में भी। वो एक रेवोल्युशनरी, वो चाहते थे कि हर आम आदमी को उसका हक मिले।
चलत-चलते फारुख शेख साहब की बातें। उनके बारे में बॉलीवुड के प्राय: सभी कलाकारों की यही राय थी कि उनसे मिलने के बाद आप उनके प्रशंसक हुए बिना
नहीं रह सकते थे। शालीन, शिष्ट, अदब, इज्जत और नफासत से भरा उनकी बात और व्यवहार हिंदी फिल्मों के आम कलाकारों से उन्हें अलग करता था। उन्हें कभी ओछी, हल्की और निंदनीय बातें करते किसी ने नहीं सुना। विनोदप्रिय, मिलनसार और शेर-शायरी के शौकीन फारुख शेख ने अपनी संवाद अदायगी का लहजा कभी नहीं छोड़ा। पहली फिल्म गर्म हवा के सिकंदर से लेकर आखिरी फिल्म क्लब 60 तक के उनके किरदारों को पलट कर देखें तो एक सहज निरंतरता नजर आती है। अपनी पहली फिल्म गर्म हवा में फारुख को केवल 750 रुपए मिले थे वो भी 15 बरस के बाद। यह उनकी धैर्यता का ही परिचायक था। ऐसे कलाकार केवल दुनिया को अलविदा कह पाते हैं, लेकिन उनकी फिल्में, उनका काम और उनकी शख्सियत उन्हें हमेशा इतिहास के पन्नों में जीवित रखती हैं। -
मंजूषा शर्मा
नौशाद अली, भारतीय सिनेमा की संगीत की दुनिया का का वो नाम है, जो संगीत गढ़ते नहीं थे, बल्कि सुरों का जादू बिखेरते थे। उनके संगीत में एक तरफ जहां ठेठ शास्त्रीय संगीत पुट मिलता है, तो लोक संगीत का भी नौशाद साहब ने अपने गीतों में बखूबी इस्तेमाल किया है। पहली फिल्म में संगीत देने के 64 साल बाद तक अपने साज का जादू बिखेरते रहने के बावजूद नौशाद ने केवल 67 फिल्मों में ही संगीत दिया, लेकिन उनका कौशल इस बात की जीती जागती मिसाल है कि गुणवत्ता संख्या बल से कहीं आगे होती है।
नौशाद का संगीत काफी संघर्ष के बाद ही लोगों तक पहुंचा है। उन्हें अपने दौर में मुंबई में फुटपॉथ पर रातें गुजारनी पड़ी थीं। दिन में संघर्ष और रात में फुटबॉथ का बसेरा, इन परिस्थितियों के कारण जिदंगी के सारे रंग-रूप एक चलचित्र की तरह नौशाद के दिलो दिमाग में बस गए थे, जो उनके संगीत में साफ दिखाई देते हैं। नौशाद साहब का जन्म 25 दिसंबर 1919 में लखनऊ में मुंशी वाहिद अली के घर में हुआ था। वे 17 साल की उम्र में ही अपनी किस्मत आजमाने के लिए मुंबई चले आए थे।
आज नौशाद साहब के जन्मदिन के अवसर पर मैं उनकी तीन उन फिल्मों का जिक्र कर रही हूं, जो मेरी नजर में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सुरीली कलाकृतियां हैं।
1. मुगल-ए-आज़म - मुगल ए- आजम, फिल्म को कुछ साल पहले जब रंगीन करके दोबारा रिलीज किया गया, तो किसी ने नहीं सोचा था कि इसे इतना शानदार रिस्पांस मिलेगा। फिल्म के गाने अपने दौर में तो सर्वश्रेष्ठ रहे ही हैं और आज भी जब बजते हैं, तो लोगों के दिलों को सुकून ही देते हैं। इस बारे में शायद ही किसी को शक हो कि फिल्मी इतिहास में इसका संगीत नौशाद का सर्वोत्तम संगीत रहा है। इस फिल्म के ज्यादातर गानों में नौशाद साहब ने कहानी के मूड के लिहाज से अपनी पसंदीदा गायिका लता मंगेशकर की आवाज ली है। हर गाने में शास्त्रीयता की झलक मिलती है। इन गानों में कम से कम म्यूजिक इंस्टूमेंट्स का इस्तेमाल किया गया और कहीं भी तेज ऑर्केस्ट्रा या कम्प्यूटरीकृत तकनीकी या आधुनिकता का आभास नहीं होता। शायद इसीलिए पुराने गानों में गायकों की आवाज ज्यादा स्पष्ट तौर से उभरकर सामने आती थी। फिल्म में लताजी का राग गारा में गाया हुआ गीत -मोहे पनघट पे नंद लाल छेड़ गयो रे.....एक तरह से कव्वाली भी है और लोक परंपरा, मान्यताओं के अनुरूप कान्हा के साथ गोपियों की छेड़-छाड़ भी इसमें नजर आती है। इस गाने में नायिका मधुबाला की खूबसूरती देखते ही बनती है। इस गाने की हर बात उम्दा है- फिर उसका ट्रैक हो या फिर खालिस उर्दू के साथ प्रचलित लोक भाषा का इस्तेमाल और फिर उनको लेकर रचा गया नौशाद का बे-नायाब सुरों का जाल, जिसमें श्रोता अंदर तक घुसता चला जाता है।
इसी फिल्म में नौशाद साहब ने रागदरबारी में एक गाना रचा- प्यार किया तो डरना क्या.. काफी खूबसूरत है। इसी गाने में शीश महल के साथ मधुबाला की झलक उस जमाने की बेहतरीन तकनीक को पेश करती है। फिल्म का एक और गाना राग यमन में है जिसके बोल हैं- खुदा निगेबान..जिसमें नफीस उर्दू के बोल हैं तो उनमें रची बसी लता की मिठास भी है। फिल्म में नौशाद साहब ने उस्ताद बड़े गुलाम अली साहब से काफी मनुहार करके दो गीत गाने के लिए मना लिया था - प्रेम जोगन बन के और शुभ दिन आयो राज दुलारा...। जिसमें से प्रेम जोगन.. गाना भी पूरी तरह से शास्त्रीय था और इसे दिलीप कुमार और मधुबाला पर फिल्माया गया था, जो फिल्मी इतिहास का सबसे रोमांटिक सीन कहा जाता है। फिल्म में कुल 12 गाने थे। एक गाने में रफी साहब और एक अन्य गाने में शमशाद बेगम की आवाज का इस्तेमाल नौशाद साहब ने किया।
2. बैजू बावरा- जैसा की फिल्म के नाम से जाहिर है कि यह फिल्म पुराने जमाने में शास्त्रीय गायक रहे बैजू बावरा के जीवन पर आधारित है। फिल्म में भारत भूषण और मीना कुमारी मुख्य भूमिकाओं में थे। यह वो फिल्म है जिसके बाद नौशाद की संगीत दुनिया में पहचान बनी। फिल्म 1952 में बनी थी और इसी फिल्म के लिए नौशाद साहब ने पहला फिल्म फेयर अवार्ड जीता था। ये फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में अपना अलग महत्व रखती है खासकर शास्त्रीय रागों के इस्तेमाल में। इसका मशहूर भजन मन तरपत हरि दर्शन.. को आज भी सबसे बढिय़ा भक्ति गीतों में शुमार किया जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि इस गीत के बोल लिखे हैं मोहम्मद शकील ने, इसको गाया है मोहम्मद रफी ने और धुन बनाई है नौशाद ने, जो यह साबित करता है कि संगीत की दुनिया किसी भी मजहब से नहीं बंधी है।
फिल्म के अन्य मशहूर गानों में शामिल है राग दरबारी पर आधारित-ओ दुनिया के रखवाले.. जिसे गाया था नौशाद के पसंदीदा गायक रफी ने। झूले में पवन के, गीत को लता और रफी दोनों ने अपनी आवाज़ दी, इसमें राग पीलू का इस्तेमाल किया गया। राग भैरवी में तू गंगा की मौज...को कौन भूल सकता है...जिसके सुंदर बोल, कोरस इफैक्ट और ऑर्केस्ट्रा सब मिलकर इस गीत को एक नया रूप देते हैं। फिल्म में कुल 13 गाने थे। आज गावत मन मेरो झूम के.. गीत राग देसी पर आधारित था और इसमें नौशाद साहब ने उस्ताद आमिर खान और डी. वी. पल्सुकर जैसे ठेठ शास्त्रीय गायकों का इस्तेमाल किया। वहीं दूर कोई गाये गीत राग देस पर आधारित था। मोहे भूल गए सांवरिया गीत लता ने गाया और इसमें नौशाद ने राग भैरवी और राग कालिन्दा का मिला जुला रूप पेश किया। बचपन की मोहब्बत गीत राग मान्द, इंसान बनो...और लंगर कन्हैया जी ना मारो-राग तोड़ी, घनन घनन घना गरजो रे - राग मेघ और एक सरगम में उन्होंने राग दरबारी का प्रयोग किया। एक प्रकार से फिल्म के पूरे ही गानों में शास्त्रीय रागों का इस्तेमाल नौशाद ने किया।
3. कोहिनूर-नौशाद द्वारा संगीतबद्ध एक और फिल्म थी कोहिनूर। यह फिल्म 1960 में बनी और इसमें दिलीप कुमार तथा मीना कुमारी मुख्य भूमिकाओं में थे। यह फिल्म मेलोडी के अलावा भी और कईं कारण से मील का पत्थर रही। मधुबन में राधिका नाचे रे.. गाना आज भी पसंद किया जाता है। इस पूर्णतया राग प्रधान गीत के लिए रफी साहब की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। नौशाद जोखिम उठाने में कभी भी नहीं हिचकिचाते थे। नये नये प्रयोग करना उन्हें अच्छा लगता था। इस फिल्म के निर्देशक थोड़े घबराये हुए थे, क्योंकि यह गाना किसी भी लिहाज से पारंपरिक कव्वाली नहीं था और न ही ये सामान्य गानों की तरह अथवा पाश्चात्य रूप लिए हुए था। फिर भी इस गाने की धुन अपने आप में आधुनिकता समेटे हुए थी जिसको अपनी आवाज़ से रफी साहब ने और सुरीला बना दिया था। नौशाद इस गाने को लेकर इतने विश्वास से भरे हुए थे कि वे कोहिनूर के लिए जो भी पैसे उन्हें मिल रहे थे, वो भी वापस करने को तैयार थे अगर बॉक्स ऑफिस पर ये गीत पिट जाता। लेकिन जो हुआ वो सब ने देखा और सुना। यह गाना पूरे भारत में अपने शास्त्रीय संगीत और रिदम की वजह से कामयाब हुआ। इसी फिल्म के अन्य गीत थे- ढल चुकी शाम-ए-गम..., जादूगर कातिल..तन रंग लो जी..। सभी गानों की खास बात उसका संगीत तो था ही साथ ही बहुत खूबसूरत बोल भी थे। फिल्म में दस गाने थे। एक गाना ही आशा भोंसले की आवाज में था जादूकर कातिल... बाकी सभी में लता और रफी की आवाज नौशाद ने ली थी। फिल्म का एक गाना काफी हिट हुआ और वह था दो सितारों का जमीं पर है मिलन आज की रात... राग पहाड़ी से प्रेरित था।
हालांकि नौशाद के काम को और भारतीय संगीत में उनके योगदान को इन तीन फिल्मों में कतई नहीं समेटा जा सकता। उनका योगदान संगीत की दुनिया में निस्संदेह सराहनीय और अतुलनीय है।
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पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का निधन
नई दिल्ली। तिरुनेलै नारायण अइयर शेषन (टी.एन. शेषन) ने 84 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया। वे भारत के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त थे। शेषन 12 दिसंबर 1990 से 11 दिसंबर 1996 तक भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर रहे। उनको भारत का सबसे प्रभावशाली मुख्य चुनाव आयुक्त माना जाता था। शेषन को चुनाव में पारदर्शिता और निष्पक्षता को बढ़ावा देने के लिए याद किया जाता है। इसके लिए टी.एन. शेषन का तत्कालीन सरकार और नेताओं को साथ कई बार टकराव भी हुआ, लेकिन शेषन कभी डिगे नहीं।
हैली के. अस्मेरोम और एलिसा पी. रीस द्वारा संपादित किताब डेमोक्रेटाइजेशन एंड ब्यूरोक्रेटिक न्यूट्रेलिटी में टी.एन. शेषन के संघर्ष की कहानी का जिक्र है। इस किताब में पेज नंबर 275 पर लिखा है कि 1962 में टी.एन. शेषन का एक ही दिन में सुबह 10.30 बजे से 5 बजे शाम तक 6 बार ट्रांसफर किया गया था। टी.एन. शेषन ने एक ग्रामीण अफसर को 3000 रुपए का घपला करने के लिए रोका था, इसलिए उनका ट्रांसफर हुआ था। इतना नही नहीं, रेवेन्यू मंत्री की बात न मानने पर टी.एन. शेषन को तमिलनाडु में मंत्री ने अपनी गाड़ी से ऐसी जगह उतार दिया था, जहां सुनसान इलाका था। टी.एन. शेषन इतने संघर्षशील और ईमानदार थे कि नेता और कई अधिकारी उनसे डरते थे। अपनी इसी व्यवहार के चलते उन्होंने बतौर मुख्य चुनाव आयुक्त बेहद पारदर्शिता और निष्पक्षता से चुनाव कराने के कानून का पालन किया। केरल के पलक्कड़ जिले के तिरुनेलै में जन्मे टी. एन. शेषन तमिलनाडु कैडर से 1955 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी थे।
1996 में रमन मैग्सेसे अवॉर्ड
टी. एन. शेषन ने भारत के 18वें कैबिनेट सचिव के रूप में 27 मार्च 1989 से 23 दिसंबर 1989 तक सेवा दी। सरकारी सेवाओं के लिए उनको साल 1996 में रमन मैग्सेसे अवॉर्ड से भी नवाजा गया था। साल 1997 में टी.एन. शेषन ने राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ा था, लेकिन उनको जीत नहीं मिली थी। टी. एन. शेषन को के.आर. नारायण के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। रिटायर होने के बाद टी.एन. शेषन देशभक्त ट्रस्ट की स्थापना की और समाज सुधार में सक्रिय भूमिका निभाते रहे।
कुछ समय के लिए लेक्चरर भी रहे
शेषन ने मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज से ग्रेजुएट की पढ़ाई की थी, वहीं पर कुछ समय के लिए लेक्चरर भी रहे। टी.एन. शेषन ने ऊर्जा मंत्रालय के डायरेक्टर, अंतरिक्ष विभाग के संयुक्त सचिव, कृषि विभाग के सचिव, ओएनजीसी के सदस्य समेत अन्य पदों पर अपनी सेवाएं दी। भारतीय नौकरशाही के लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर काम करने के बावजूद वो चेन्नई में यातायात आयुक्त के रूप में बिताए गए दो वर्षों को अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय मानते थे। -साभार -
(राज्योत्सव पर विशेष लेख -ए.बी. काशी)
पर्यटन शब्द सुनते ही मन के झरोखों में सुन्दर प्राकृतिक दृश्य-पर्वत, पहाड़, नदी-नाले, सुरम्य वादियां, ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं धार्मिक स्थलों की तस्वीरें झलकती है। पर्यटन स्थलों पर भ्रमण करने से मन को सुकुन और शांति तो मिलती ही है इसके साथ ही प्रकृति की अद्भूत एवं अप्रतिम छटा भी देखने को मिलती है। यू तो समूचे विश्व में पर्यटन के खजाने हैं। लोग अपनी रूचि और सामर्थ्य के अनुसार पर्यटन का आनंद लेते हैं।
पर्यटन की दृष्टि से छत्तीसगढ़ अत्यंत समृद्ध राज्य है। छत्तीसगढ़ की धरती वन और खनिज संपदा से भरपूर तो है ही इसके साथ ही यहां की कला, संस्कृति और पर्यटन स्थल भी आकर्षण के केन्द्र है। छत्तीसगढ़ के पर्यटन मंत्री श्री ताम्रध्वज साहू के कुशल नेतृत्व में छत्तीसगढ़ पर्यटन मण्डल द्वारा प्रदेश में पर्यटन विकास एवं पर्यटकों की गतिविधियों के लिए राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में लगभग 138 स्थल पर्यटन स्थल के रूप में रूप में चिन्हित है। पर्यटन के बहुआयामी क्षेत्र में विशेषकर जनजातीय अंचलों में स्थित चुनिंदा पर्यटन स्थलों में खान-पान एवं आवास की बेहतरीन सुविधायुक्त होटल, मोटल, रिसॉर्ट एवं रेस्टोरेंट का निर्माण कर पर्यटकों को सुविधाएं दी जा रही है।
भारत के हृदय स्थल में स्थित छत्तीसगढ़ राज्य के उत्तर में सतपुड़ा पहाड़ियों का उच्चतम भूभाग है तो मध्य में महानदी तथा उसकी सहायक नदियों का मैदानी भाग है। इसके दक्षिण में बस्तर का विस्तृत पठार है। छत्तीसगढ़ प्राचीन स्मारकों, दुर्लभ वन्य प्राणियों, नक्काशीदार मंदिरों, बौद्ध स्थलों, राजमहलों, जलप्रपातों, गुफाओं एवं शैलचित्रों से परिपूर्ण है। यहां ऐतिहासिक, पुरातात्विक, धार्मिक एवं प्राकृतिक पर्यटन स्थल है। यहां राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्य प्राणी अभ्यारण्यों के साथ-साथ गौरवशाली लोक संस्कृति का अद्वितीय उदाहरण भी है। बस्तर क्षेत्र में कुटुमसर गुफा एवं कांगेर घाटी, राष्ट्रीय उद्यान, चित्रकोट जलप्रपात महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। इसके साथ ही छत्तीसगढ़ पर्यटन मण्डल द्वारा गंगरेल जलाशय धमतरी में पर्यटकों के लिए विश्व स्तरीय साहसिक क्रीड़ा की व्यवस्था की गई है। कबीरधाम जिले में बैगा टूरिस्ट रिसॉर्ट, सरोधा दादर में ट्रायवल टूरिज्म के अन्तर्गत ओपन एयर थियेटर की व्यवस्था है।
छत्तीसगढ़ पर्यटन मण्डल द्वारा पर्यटकों की सुविधा के लिए अनेक पर्यटन इकाईयां संचालित की गई है। इनमें राजधानी रायपुर में होटल जोहार छत्तीसगढ़, धमतरी जिले में बरदिहा लेक व्यू टूरिस्ट कॉटेज गंगरेल, बस्तर जिले में दंडामी लक्जरी रिसॉर्ट चित्रकोट और गोरगा टूरिस्ट रिसॉर्ट तीरथगढ़, महासमुंद जिले में हरेली ईको रिसॉर्ट मोहदा बारनवापारा और व्हेनसांग टूरिस्ट रिर्सार्ट सिरपुर, मुंगेली जिले में सोनभद्र टूरिस्ट रिसॉर्ट आमाडोब, बिलासपुर जिले में छेर-छेरा टूरिस्ट कॉटेज कबीर चबुतरा और गौरा-गौरी लेक व्यू टूरिस्ट कॉटेज खूंटाघाट, सरगुजा जिले में शैला टूरिस्ट रिसॉर्ट मैनपाट, बालोद जिले में सुआ लेक व्यू टूरिस्ट रिसॉर्ट तान्दुला, कबीरधाम जिले में नागमोरी टूरिस्ट कॉटेज भोरमदेव और बैगा टूरिस्ट रिसॉर्ट सरोधादादर तथा रायपुर जिले में पर्यटक विश्रामगृह चम्पारण्य शामिल है।
छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थलों के बारे में पर्यटकों को सुलभ जानकारी उपलब्घ कराने तथा पर्यटन स्थलों के भ्रमण के लिए व्यक्तिगत एवं टूर पैकेज के अन्तर्गत आरक्षण की सुविधा प्रदान करने के लिए छत्तीसगढ़ पर्यटन मण्डल द्वारा नई दिल्ली सहित प्रदेश में तेरह स्थानों पर पर्यटन सूचना केन्द्र स्थापित किया गया है। पर्यटन मण्डल द्वारा स्वामी विवेकानंद एयरपोर्ट माना रायपुर, टिकट काउंटर के पास रेल्वे स्टेशन रायपुर, महंत घासीदास संग्रहालय परिसर रायपुर, रेल्वे स्टेशन बिलासपुर ग्राम सिरपुर जिला महासमुन्द, रेल्वे स्टेशन डोंगरगढ़, अनारक्षित टिकट काउंटर के सामने रेल्वे स्टेशन दुर्ग, धनवंतरी भवन सिहावा रोड़ जिला धमतरी, शहीद पार्क चौपाटी परिसर जगदलपुर, सरहुल होटल चंडीरमा अंबिकापुर, बस स्टैण्ड चंपारण्य, कोडातरई रायगढ़ और चाणक्य भवन नई दिल्ली में पर्यटन सूचना केन्द्र स्थापित की गई है। -
-जिन्हें देखने के लिए लड़कियों से लेकर महिलाएं तक बेताब रहती थी
-13 अक्टूबर- जन्मदिन पर विशेष
आलेख-मंजूषा शर्मा
अभिनेता अशोक कुमार अपने जमाने के सबसे हैंडसम स्टार थे। उन्हें देखने के लिए लड़कियों से लेकर महिलाएं तक बेताब रहती थीं। वे अपने जमाने के पहले एंटी हीरो रहे हैं। यंग स्टार से लेकर दादा तक की भूमिकाओं में लोगों का दिल जीतने वाले दादामुनि यानी अशोक कुमार का 13 अक्टूबर को जन्मदिन है।13 अक्टूबर 1911 को उनका जन्म भागलपुर में एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में हुआ था। इनके पिता कुंजलाल गांगुली पेशे से वकील थे। अशोक कुमार ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मध्यप्रदेश के खंडवा शहर में प्राप्त की। बाद मे उन्होंने अपनी स्नातक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की। इस दौरान उनकी दोस्ती शशधर मुखर्जी से हुई। भाई बहनों में सबसे बड़े अशोक कुमार की बचपन से ही फिल्मों मे काम करके शोहरत की बुंलदियो पर पहुंचने की चाहत थी, लेकिन वह अभिनेता नहीं बल्कि निर्देशक बनना चाहते थे। अपनी दोस्ती को रिश्ते में बदलते हुए अशोक कुमार ने अपनी इकलौती बहन की शादी शशधर मुखर्जी से कर दी। सन 1934 मे न्यू थिएटर मे बतौर लेबोरेट्री असिस्टेंट काम कर रहे अशोक कुमार को उनके बहनोई शशधर मुखर्जी ने बाम्बे टॉकीज में अपने पास बुला लिया।
अशोक कुमार भारतीय सिनेमा के शुरुआती सुपरस्टार्स में से एक रहे हैं। हालांकि एक्टिंग के क्षेत्र में आने का इरादा अशोक कुमार का कभी नहीं था। वो हिमांशु राय के बॉम्बे टॉकीज में बतौर लैब असिस्टेंट काम करते थे और फिर अचानक एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि हिंदी सिनेमा को अशोक कुमार जैसा शानदार अभिनेता मिल गया।
दरअसल फिल्म जीवन नैया (1936) की हीरोइन देविका रानी थीं। जो बॉम्बे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय की पत्नी थीं। इस फिल्म के हीरो थे नजमुल हसन। फिल्म की शूटिंग के दौरान ही देविका रानी, नजमुल हसन के साथ चली गईं। इसके कुछ वक्त बाद देविका रानी तो लौट आईं लेकिन हिमांशु राय ने फिल्म के हीरो को बाहर कर दिया और अशोक कुमार को हीरो बनाने का फैसला किया। हालांकि, फिल्म के डायरेक्टर फ्रांज ओस्टेन इसे सही फैसला नहीं मान रहे थे, लेकिन हिमांशु राय अडिग रहे और उन्होंने अशोक कुमार को बतौर हीरो कास्ट कर लिया। अशोक कुमार खुद भी एक्टिंग नहीं करना चाहते थे लेकिन झिझक के बावजूद वो फिल्म में रोल करने के लिए तैयार हो गए।
अशोक कुमार का असली नाम कुमुदलाल गांगुली था, लेकिन हिमांशु राय के कहने पर उन्होंने अपना स्कीन नेम अशोक कुमार रख लिया और फिर वो आगे इसी नाम से जाने गए। हालांकि लोग उन्हें प्यार से दादामुनि कह कर भी बुलाते थे। 1936 में आई उनकी फिल्म अछूत कन्या सुपरहिट साबित हुई।
अछूत कन्या हिंदी सिनेमा की शुरुआती हिट फिल्मों में शामिल थीं। इस फिल्म में भी अशोक कुमार की हीरोइन देविका रानी ही थी। इस फिल्म के बाद दोनों की जोड़ी सुपरहिट हो गई और दोनों ने एक बाद एक लगातार 6 फिल्में की। दोनों की आखिरी फिल्म अंजान थी जो बॉक्स ऑफिस पर नहीं चली।
अशोक कुमार इन सभी फिल्मों के हीरो तो थे, लेकिन वो देविका रानी की छाया में ही काम करते रहे। इसके बाद अशोक कुमार की जोड़ी लीला चिटनिस के साथ भी काफी पसंद की गई और दोनों ने कंगन , बंधन और आजाद जैसी कामयाब फिल्में दी, लेकिन 1941 में लीला चिटनिस के साथ आई उनकी फिल्म झूला ने उन्हें हिंदी सिनेमा के सबसे भरोसेमंद अभिनेताओं में शामिल कर दिया।
अशोक कुमार भारत की आजादी से पहले ही बड़े सितारे बन चुके थे और देश की आजादी के बाद भी उनकी कामयाबी का सिलसिला चलता रहा। 1943 में आई फिल्म किस्मत ने अशोक कुमार की किस्मत बदल दी। पहली बार किसी भारतीय कलाकार ने एक फिल्म में एंटी हीरो का किरदार निभाया था।
इस फिल्म ने सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और किस्मत की सफलता के बाद अशोक कुमार भारत के पहले सुपरस्टार के तौर पर उभरे। अशोक कुमार 50 के दशक में भी पर्दे पर छाए रहे। हालांकि इस दौरान दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद जैसे सितारों का उदय भी हो चुका था लेकिन अशोक कुमार ने अपनी पोजिशन कायम रखी।
अशोक कुमार हिंदी सिनेमा के कई सितारों के मेंटोर भी रहे. उनके प्रोडक्शन तले बनी फिल्म जिद्दी से देवआनंद ने अपने करिअर की शुरुआत की। इसी फिल्म से हिंदी सिनेमा को प्राण जैसा अभिनेता भी मिला। अशोक कुमार की गाइडेंस में ही बॉम्बे टॉकीज के जरिए मधुबाला का करिअर भी लॉन्च हुआ। 1949 में आई फिल्म महल में अशोक कुमार और मधुबाला साथ थे और इसी फिल्म का गाना आएगा आने वाला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था और इसी गाने ने लता मंगेश्कर को भी पहचान दिलाई थी।
ऋषिकेश मुखर्जी और शक्ति सामंत जैसे निर्देशकों को तैयार करने का श्रेय भी अशोक कुमार को दिया जाता है। अशोक कुमार शौकिया तौर पर होम्योपैथी की भी प्रैक्टिस किया करते थे। अशोक कुमार ने अपने भाइयों किशोर कुमार और अनूप के लिए भी राह बनाई और किशोर कुमार आगे जाकर गायन, अभिनय में काफी मशहूर हो गए। बड़े इत्तफाक की बात है किअशोक कुमार के जन्मदिन के दिन ही 13 अक्टूबर 1987 को किशोर कुमार इस दुनिया से रुखसत हुए थे। -
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती पर विशेष
आलेख-मंजूषा शर्मा
भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की इस साल 2 अक्टूबर को 151 वीं जयंती मनाई जाएगी। पूरी दुनिया में भारत देश के साथ महात्मा गांधी का नाम इस तरह से रच बस गया है, जैसे दोनों के बिना एक दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। बचपन से हम महात्मा गांधी को पढ़ते - गुनते आ रहे हैं। कभी उनकी जीवनी, कभी कृतित्व- आदर्श, कभी भाषण और न जाने क्या- क्या है, हर बार इनमें कुछ नया सीखने को मिल जाता है। आज भी महात्मा गांधी का नाम लेते ही होठों पर एक ही वाक्य रटा- रटाया सा याद आ जाता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था। बचपन से याद उस जगह में जब जाने का मौका मिला, तो जिज्ञासा और भी बढ़ गई। शायद बचपन में जाते तो पोरबंदर के महत्व को इतनी मजबूती से नहीं समझ पाते।
महात्मा गांधी का यह घर अब एक मंदिर जैसे संग्रहालय का रूप ले चुका है। यहां पर उनके परिवार वालों के अलावा, उनके जीवन से जुड़े बहुत से वाकये और तस्वीरें लोगों के लिए कौतूहल का विषय रहती हैं। बापू के जन्म स्थान, उनके तिमंजिला पैतृक निवास को देखने के लिए आज भी बड़ी संख्या में लोग रोजाना पहुंचते हैं। इसका नाम कीर्ति मंदिर है। अब यहां पर कोई नहीं रहता, इसे अब एक पुरातात्विक स्थल- विरासत के रूप में सहेज कर रख दिया गया है। इस घर को महात्मा गांधी के प्रपितामह यानी दादा के पिता हरिजीवन दास ने 1777 में एक स्थानीय विधवा महिला मांड़बाई से खरीदा था। उस समय वह मकान सिर्फ एक मंजिला था। फिर जैसे - जैसे परिवार बढ़ता गया, पीढिय़ों की जरूरतों के अनुसार घर का विस्तार मंजिलों में होता गया और एक दिन तिमंजिला मकान खड़ा हो गया। गांधीजी का जन्म भले ही इस मकान में हुआ था, लेकिन उनका ज़्यादातर बचपन राजकोट में बीता। दरअसल उनके पिता करमचंद गांधी और दादा उत्तमचंद गांधी पोरबंदर स्टेट के दीवान हुआ करते थे।इस मकान को देखने के बाद इसके बारे में और भी अधिक जानने की इच्छा ने पोरबंदर में एक दिन और ठहरने को बेचैन कर दिया। खोजखबर के बाद पता चला कि इस घर का विस्तार कीर्ति मंदिर के रूप में नानजी कालिदास मेहता और पोरबंदर के महाराजा नटवर सिंह ने बापू की अनुमति से करवाया था। यह वर्ष 1944 की बात थी, जब बापू ने भारत छोड़ो आंदोलन चलाया था। नानजी कालिदास मेहता पोरबंदर के मशहूर उद्योगपति थे। नानजी कालिदास मेहता के पोते जय मेहता से मशहूर अभिनेत्री जूही चावला ने शादी की है।
भारत छोड़ो आंदोलन के कारण बापू को आगा खां पैलेस में नजरबंद किया गया था। रिहाई के बाद उनकी तबीयत काफी खराब थी। उनकी तबीयत को देखते हुए ही नानजी कालिदास मेहता उन्हें अपने पंचगिनी स्थित फार्म हाउस ले आए थे। इसी दौरान एक दिन नानजी मेहता और पोरबंदर के महाराजा नटवर सिंह बापू के पास पहुंचे और उनके मकान को विस्तार देने की इजाज़त मांगी। साथ ही उन्हें मकान को लेकर अपनीे भावनाओं से भी अवगत कराया। बापू ने उनकी इच्छा का सम्मान किया और इसके लिए हामी भर दी। उस वक्त कस्तूरबा गांधी भी स्वर्ग सिधार चुकी थी। परिवार के अन्य सदस्यों ने इस फैसले पर आपत्ति नहीं की। लिहाजा यह मकान नानजी मेहता और नटवर सिंह को बेच दिया गया। बताया जाता है कि रजिस्ट्रेशन के कागज़ों पर खुद बापू ने दस्तखत किए थे।
इसके बाद इस मकान का विस्तार शुरू हुआ। मकान से सटाकर एक मंदिरनुमा इमारत बनाई गई, जिसे कीर्ति मंदिर नाम दिया गया। यह सिर्फ कहने को मंदिर है, क्योंकि इसमें भारत के सभी प्रमुख धर्मों के प्रतीकों को जगह दी गई है। महात्मा गांधी हमेशा धर्मनिरपेक्षता की बात कहा करते थे। उनकी भावनाओं के अनुरूप ही इस मंदिर में सभी धर्मों के अंश दिख जाते हैं। कहीं मंदिर का गुंबद बना है, कहीं मस्जि़द की जालियां लगी हैं, कहीं बौद्ध प्रतीक बने हैं। लेकिन यह सब पूरा होते महात्मा गांधी नहीं देख पाए। 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिड़ला हाउस में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। बापू का 79 साल की उम्र में निधन हुआ था, इसलिए कीर्ति मंदिर को 79 फीट ऊंचा ही बनाया गया है।
वर्ष 1949 में इस मंदिर का निर्माण पूरा हुआ। इसमें प्रवेश करते ही महात्मा गांधी के जीवन से जुड़ी यादें परत- दर - परत सामने आती चली जाती हैं। एक बड़े से अहाते में इसे संग्रहालय का रूप दिया गया है। प्रवेश करते ही तीन ओर गलियारा नजर आता है, तो बाईं ओर महात्मा गांधी के जन्मस्थान उनके पैतृक घर को उसके प्राचीन स्वरूप में यथावत रखा गया है। लेकिन समय की मार अब मकान में नजर आने लगी है। मकान की सीढिय़ां अब भी लकडिय़ों की हैं। छत पर लकड़ी का पटाव और हर मंजिले में पारंपरिक गुजराती घरों की पहचान बन चुके लकड़ी के पाटे वाले झूले के लिए जतन से छत पर निकाले गए लोहे के कुंदे नजर आते हैं। सीढिय़ां चढ़ते वक्त परेशानी न हो, इसके लिए पकडऩे को गांठ वाली रस्सियां। सामने प्रवेश करते हुए ही बाईं ओर रसोई और उसके समीप पानी संग्रह कर रखने की गुजरात की प्राचीन व्यवस्था। कमरे में रौशनी के लिए पर्याप्त प्रबंध और सबसे अच्छी बात दीवार की आलेनुमा अलमारी में पैसा संजोकर रखने की पारंपरिक विधि। एक स्थान पर बड़ा सा स्वास्तिक जमीन पर नजर आता है। वहां पर लिखा है यही वो जगह है जहां महात्मा गांधी का जन्म हुआ था। मकान की ऊपर मंजिलों पर जाने के लिए संकरी सी लकडिय़ों वाले जीने हैं। ऊपर पर महात्मा गांधी का अध्ययन कक्ष है, जहां की खिड़की से बाहर का पूरा नजारा साफ दिखता है। रौशनी- हवा-पानी की पर्याप्त व्यवस्था।27 मई 1950 को देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कीर्ति मंदिर का उद्घाटन किया था। सरदार पटेल ने फीता काटकर नहीं, बल्कि चाबी से ताला खोलकर उद्घाटन की रस्म निभाई थी। इस मंदिर को बने भी अब 70 साल हो रहे हैं, लेकिन तब से लेकर अब तक इसमें कुछ ज्यादा बदलाव नहीं किए गए हैं। यदि इस पावन स्थान को हम यूंू ही बरसों- बरस संजो कर रखने में कामयाब हो गए तो एक दौर में यह स्थान वाकई किसी मंदिर की तरह की प्रसिद्धि और आस्था पा लेगा।
कीर्ति मंदिर के आस-पास कोई खास ताम-झाम नजर नहीं आता है। काफी शांति रहती हैं। कुछ दुकानें जरूर खुली हैं। वहीं पर एक दुकान पर मेरी नजर ठिठकी और मैं वहां जाने से अपने आप को नहीं रोक पाई- महिला जो हूं। इस दुकान के शो कैश पर कुछ पुराने जमाने की यादें ताजा करते हुए पारंपरिक आभूषण किसी को भी लुभा लेते हैं। इसमें पुरानी गुजराती कारिगरी के बेजोड़ नमूने के साथ एक भरोसा भी झलकता है। ये आभूषण पीतल के थे, लेकिन ऑर्डर देने पर दुकानदार वैसे ही स्वर्णाभूषण देने की बात भी कह रहा था। अब के जमाने में इतने भारी-भरकम स्वर्णाभूषण पहनने की बात करना भी खतरे से खाली नहीं लगा। खैर। हम बात कर रहे थे- पोरबंदर शहर और बापू की। यहां के कीर्तिमंदिर के पीछे नवी खादी है जहां गांधीजी की पत्नी कस्तूरबा गांधी का जन्म हुआ था।अन्य दर्शनीय स्थल
पोरबंदर श्रीकृष्ण के परम मित्र सुदामा की भी जन्मस्थली है। इसलिए इसे सुदामापुरी भी कहा जाता है। पोरबन्दर बहुत ही पुराना बंदरगाह हुआ करता था। यहीं पर गुजरात का सबसे अच्छा समुद्र किनारा भी है। कीर्ति मंदिर के अलावा देखने के लिए 10वीं शताब्दी का घुमली गणेश मंदिर, 6ठीं शताब्दी का सूर्य मंदिर और सुदामापुरी मंदिर है, जहां के प्रांगण में छोटी सी 84 भूलभुलैया है, जो सुदामाजी के द्वारिका से वापसी के बाद अपनी कुटिया खोजने की बात की याद दिलाते हैं। इसके साथ ही संदीपनी विद्यानिकेतन, वर्धा वन्यजीव अभयारण्य, पोरबंदर पक्षी अभयारण्य, हुज़ूर महल, जेठवा शासक राणा सुल्तानजी प्रतिहार का दरबारगढ़ महल और जेठवा शासक राणा सुल्तानजी का चोरो महल भी यहां के दर्शनीय स्थल हैं। और हां नेहरु तारामंडल भी आप जा सकते हैं, जो सिटी सेंटर से 2 किलोमीटर दूर है। नेहरु तारामंडल में दोपहर में चलने वाला शो गुजराती भाषा में होता है। नेहरु तारामंडल पर दिन भर शो चलते रहते हैं।
तरह-तरह के फूड्स
यदि आप अब तक पोरबंदर नहीं गए, तो एक बार जरूर हो आइये। अक्टूबर से फरवरी तक का मौसम यहां का काफी सुहाना होता है। बापू की यादों से जुड़ी इस शांत जगह में जाने से यकीनन आप को सुकून ही मिलेगा। सच में आप को लगेगा कि आप अपने बापू की नगरी ही आए हैं। सीधे-सादे लोग, खिचड़ी-कढ़ी का स्वादिष्ट गठजोड़, चूरमा लड्डू, गुड़ वाली दाल और कम मसाले वाला खाना, हां पत्ता गोभी-गाजर, मिर्च का हल्दी डला अनोखा स्वाद वाला सलाद, खाना मत भूलिएगा। स्वाद और पेट के लिए काफी हल्के- खांडवी, थेपला, मुठिया, फाफड़ा, जलेबी - पूरी और उनधियु की तिकड़ी। (उनधियु को कई प्रकार की सब्जियों को मिला कर और ढेर सारे मसाले डालकर बनाना जाता है।) दाल, चावल और सब्जियों का अनूठा मिश्रण हांडवो के साथ ही सुरती लोचो, भी यहां के खास व्यंजन है। सुरती लोचो कम तेल से भाप में पका, मसालेदार देशी चटनी, मिर्च और सेव के साथ परोसा जाने वाला खास गुजराती पारम्परिक स्ट्रीट फूड है। खमन और तरह-तरह के ढोकले की बात ही मत पूछिए, जिस गली जाइयेगा एक नया स्वाद मिलेगा। और एक और फूड का स्वाद अभी तक याद है और वह है खीचू- सबसे ज्यादा स्वास्थ्यकारी और जल्दी से बनने वाला नाश्ता । यह चावल के आटा और मसालों का संयोजन है जो गरम पानी में पकाया जाता है तथा इसमें तेल और लाल मिर्च का तड़का लगाकर खाया जाता है। सब कुछ बड़ा स्वादिष्ट, एकदम घर जैसा।
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आलेख- मंजूषा शर्मा
सुरों की मलिका लता मंगेशकर यानी सबकी प्यारी लता दीदी, 28 सितंबर को अपना 90 वां जन्मदिन मनाने जा रही हैं। 28 सितंबर, 1929 को उनका जन्म मराठी ब्रम्हण परिवार में, मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में सबसे बड़ी बेटी के रूप में पंडित दीनानाथ मंगेशकर के मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। लता दीदी ने गायकी में जो ऊंचाइयां हासिल की हैं, वहां आज तक कोई पहुंच नहीं पाया है और न ही पहुंच पाएगा। लता दीदी हैं ही ऐसी कि उनकी तुलना करना नामुमकिन है। उनके जन्मदिन पर भगवान से यही प्रार्थना है कि लताजी दीर्घायु हों और उनकी पाक-साफ आवाज से पूरी कायनात सुरीली होती रहे...बरसों बरस तक।
आज उनके जन्मदिन पर उनके गाये कुछ गानों का हम यहां जिक्र कर रहे हैं, जो लताजी के भी पसंदीदा हैं।
1. नैनों में बदरा छाए (फिल्म -मेरा साया- 1966)
2. ए मेरे वतन के लोगों (फिल्म हकीकत-1964)
3.सत्यम शिवम सुंदरम ( सत्यम शिवम सुंदरम-1978)
4. कुछ दिन ने कहा (अनुपमा-1966)
5. लग जा गले (वो कौन थी-1964)
6. रहे न रहे हम (ममता-1966)
7. आएगा आएगा आने वाला (महल- 1949)
8. प्यार किया तो डरना क्या (मुगल ए आजम- 1960)
9. जरा की आहट (हकीकत- 1964)
10. ए दिले नादान (रजिया सुल्तान-1983)
11. अजीब दास्तां है ये (दिल अपना और प्रीत पराई-1960)
12. वो भूली दास्तां (संजोग-1961)
13. तेरे बिना जिंदगी से (आंधी-1975)
14. दिखाई दिए यूं (बाजार- 1982)
15. क्या जानूं सजन (बहारों के सपने - 1967)
इन सब के अलावा मुझे लताजी की गाया एक भजन काफी पसंद है और वो है अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम ....। यह गीत फिल्म हम दोनों का है और इस गाने का फिल्मांकन अभिनेत्री नंदा और लीला चिटनीस पर हुआ है। फिल्म में साधना और देवानंद मुख्य भूमिकाओं में थे। फिल्म में देवसाहब की दोहरी भूमिका थी। फिल्म के हर गाने लोकप्रिय हुए थे। लेकिन इसका भजन अल्लाह तेरो नाम, आज भी फिल्मी भजनों के श्रंृखला में हिट माना जाता है। इसे लिखा साहिर लुधियानवी ने।
फिल्म हम दोनों 1961 की फिल्म थी जिसका निर्माण किया था देव आनंद ने अपने नवकेतन के बैनर तले। फि़ल्म का निर्देशन किया अमरजीत ने। निर्मल सरकार की कहानी पर इस फि़ल्म के संवाद और पटकथा को साकार किया विजय आनंद ने। देव आनंद, नंदा और साधना अभिनीत इस फि़ल्म में संगीत दिया था जयदेव का। इस फि़ल्म में लता जी के गाए दो भजन ऐसे हैं कि जो फि़ल्मी भजनों में बहुत ही ऊंचा मुक़ाम रखते हैं। अल्लाह तेरो नाम के अलावा दूसरा भजन है-प्रभु तेरो नाम जो ध्याये फल पाए।
दोनों ही भजनों को सुनकर लगता है कि जैसे लता जी ने उन्हें अंतर्आत्मा से गाया है। अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम भजन में धर्मनिरपेक्षता साफ झलकती है। यह भजन राग गौड़ सारंग पर आधारित है। शांत रस इसका भाव ही है। जाहिर है कि इसे सुनने के बाद मन शांत हो जाता है यदि आप इसे दिल से सुने तब। शांत रस मन का वह भाव है, वह स्थिति है जिसमें है सुकून है चैन है। इसलिए यह रस तभी जागृत हो सकता है जब हम ध्यान और साधना से इसे जागृत करें।
1962 के चीनी आक्रमण के समय दिल्ली में आयोजित सिने कलाकारों के एक समारोह की शुरुआत लताजी ने इसी भजन से की थी। इस भजन की रिकॉर्डिंग के समय की अपनी एक कहानी है। संगीतकार जयदेव, संगीतकार सचिनदेव बर्मन के सहायक हुआ करते थे। हम दोनों फिल्म में उन्होंने अकेले ही संगीत संयोजन का जिम्मा लिया। उस समय लता और बर्मन साहब के बीच कुछ कहासुनी हो गई थी और उनके संबंध अच्छे नहीं चल रहे थे। ऐसे में जयदेव इस बात को लेकर असमंजस में थे कि वे लता जी को अपनी फिल्म में लें या न लें । दरअसल न चाहते हुए भी जयदेव इस विवाद का हिस्सा बन गए थे। लता के बिना इस भजन में भला कैसे प्राण फूंका जा सकता था। फिर उनके मन में कर्नाटक संगीत की सुपरस्टार एम. एस. सुब्बूलक्ष्मी से यह भजन गवाने की बात उठी, लेकिन बाद में जयदेव ने मन को कड़ा किया और निश्चय किया कि वे लता से ही ये भजन गवाएंगे। सुलह कराने के लिए जयदेव ने रशीद खान को लता के पास भेजा और अपना संदेश भिजवाया। जाहिर है कि लता ने साफ इंकार कर दिया। ऐसे में देवआनंद सामने आए और उन्होंने लता से कहा कि यदि वे फिल्म का हिस्सा नहीं बनेंगी, तो वे जयदेव को ही हटाकर किसी और को संगीत निर्देशन की जिम्मेदारी सौंप देंगे। यह सुनकर लताजी के समक्ष असमंजस की स्थिति निर्मित हो गई। लता जी यह भी जानती थीं कि जयदेव ने फिल्म में कमाल की कम्पोजिशन की है। आखिरकार वे मानीं और स्टुडियो रिकॉडिंग के लिए पहुंच गईं। आखिरकार एक लंबे संघर्ष के बाद दोनों भजन रिकॉर्ड किए गए और यह संघर्ष नाकामयाब नहीं रहा। दोनों ही भजन हिट हो गए। जयदेव ने फिल्म में आशा जी से अभी न जाओ छोड़कर, जैसा गीत गवाया।
जाने-माने शास्त्रीय गायक पंडित जसराज ने एक बार कहा था कि इस भजन को जब उन्होंने सुना तो उनकी आंखों में आंसू आ गए और अभिभूत होकर वे आधी नींद से जाग गए। लता ने भी 1967 में घोषित अपने दस सर्वश्रेष्ठ गीतों में तो इसे शामिल किया था।
लता जी की आवाज में और भी कई भजन हैं, जिनमें 1952 की फिल्म नौ बहार के गाने ए री मैं तो प्रेम दीवानी प्रमुख है। इस गाने को नलिनी जयवंत पर फिल्माया गया था। साथ में अशोक कुमार भी थे। इस गाने का संगीत दिया था संगीतकार रोशन ने। गाने के बोल लिखे थे सत्येन्द्र अत्थैया ने। यह गाना राग तोड़ी पर आधारित है। लेकिन इस गाने और इस फिल्म का जिक्र फिर कभी। -
आशा भोंसले जन्मदिन 8 सितंबर पर विशेष
आलेख-मंजूषा शर्मा
पार्श्व गायिका आशा भोंसले 8 सितंबर को 86 साल की हो रही हैं। जिंदादिल, उमंंग से भरी, खनकती आवाज की मालकिन, हर गाने में गजब का माड्यूलेशन, नई आवाज को प्रेरित करने वाली आशा भोंसले आज भी फिल्म इंडस्ट्री में सबकी आशा ताई हैं, जो एक मुलाकात में ही लोगों को जिंदगी का फलसफा समझा जाती हैं। उम्र के तकाजे की वजह से उन्होंने भले ही अब पाश्र्व गायन से दूरी बना ली हैं, लेकिन जब भी किसी टीवी रियलिटी शो या फिर कार्यक्रम में पहुंचती हैं, अपना रंग जमा देती हैं।
वे पार्श्व गायन से भले ही दूर हैं, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में काफी सक्रिय रहती हैं और अपने से जुड़े लोगों से मिलती- जुलती रहती हैं। अभी कुछ दिन पहले ही गणेश चतुर्थी के मौके पर वे गायक कलाकार स्वर्गीय मुकेश के पोते और एक्टर नील नितिन मुकेश के घर पहुंची। इस दौरान नील आशा ताई के सामने गाने से नहीं चूके और आशा ताई का ही फेवरेट सॉग जाने जां ढूंढता फिर रहा, गाकर सुनाया। नील ने इस मौके का एक वीडियो और फोटो अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर शेयर भी किया। इस गाने में नील के साथ आशा ताई भी आलाप देती नजर आ रही हैं।
आशा ताई के 86 वें जन्मदिन के मौके पर उन्हीं के गाये एक गीत की चर्चा करते हैं। ये गाना है-मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है। यह फिल्म इजाज़त में शामिल किया गया था, जो वर्ष 1987 में प्रदर्शित हुई थीं। इस फिल्म के लिए आशा भोंसले को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
गाने के बोल सुनकर साफ पता चल जाता है कि ऐसा गाना और कोई नही सिर्फ गुलजार साहब ही लिख सकते हैं। दरअसल यह एक नज्म है। इस गाने के लिए उन्हें भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।
पूरा गाना है-
मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा हैं
सावन के कुछ भीगे भीगे दिन रखे हैं
और मेरे एक ख़त में लिपटी रात पडी हैं
वो रात बुझा दो, मेरा वो सामान लौटा दो
पतझड़ हैं कुछ, हैं ना ...
पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट
कानों में एक बार पहन के लौटाई थी
पतझड़ की वो शांख अभी तक कांप रही हैं
वो शांख गिरा दो, मेरा वो सामान लौटा दो
एक अकेली छतरी में जब आधे आधे भीग रहे थे
आधे सूखे, आधे गिले, सुखा तो मैं ले आई थी
गिला मन शायद, बिस्तर के पास पड़ा हो
वो भिजवा दो, मेरा वो सामान लौटा दो
एक सौ सोलह चांद की रातें, एक तुम्हारे कांधे का तिल
गीली मेहंदी की खुशबू, झूठमूठ के शिकवे कुछ
झूठमूठ के वादे भी, सब याद करा दो
सब भिजवा दो, मेरा वो सामन लौटा दो
एक इजाजत दे दो बस
जब इस को दफऩाऊंगी
मैं भी वही सो जाऊंगी.....
गुलजार सादगी और अपनी ही भाषा में सरलता से हर बात कह देते हैं कि लगता है कोई अपनी ही बात कर रहा है. उनकी यह लेखन की सादगी जैसे रूह को छू लेती है ..गुलजार जी का सोचा और लिखा आम इंसान का लिखा- उनके द्वारा कही हुई सीधी सी बात भी आंखों में एक सपना बुन देता है ..जिस सहजता व सरलता से वे कहते हैं वो इन पंक्तियों में दिखाई देती है।
फिल्म इजाजत का गाना मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास है, आशा भोसले का सबसे पसंदीदा गाना है। एक इंटरव्यू में आशा भोसले ने कहा था कि ये गाना पंचम के साथ उनके खूबसूरत रिश्ते की एक बानगी है। आशा ताई बताती हैं कि जब ये गाना गुलजार साहब ने लिखा था। तो पंचम दा ने कहा था कि पहली बार ऐसा होगा कि कोई गाना अपने बोल की वजह से अखबार की सुर्खियां बनेगा।
गुलज़ार साहब और पंचम दा की जोड़ी ने एक से बढ़कर एक गीत दिए हैं। जब गुलज़ार साहब मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है.. नज्म को लिखकर पंचम के पास लेकर गए और बोले इस पर गाना बनाना है तो पंचम दा ने कहा यार कल से टाइम्स ऑफ़ इंडिया लेकर आ जाना और बोलना इस न्यूज़ पर भी गाना बनाओ । पहले तुम्हारा गाना तो समझ आए। लेकिन उन्होंने गाने की रुह को समझा और एक प्यारी सी धुन भी बना दी। यह गाना सुनकर ऐसा लगता है जैसे जि़न्दगी से जि़न्दगी कुछ कहना चाहती है या अपना दिया कुछ उधार वापस चाहती है, जैसे कुछ कहीं फिर से छूट गया है और एक कसक तथा कुछ पाने की एक उम्मीद शब्दों में ढल जाती है।
शायद उस वक्त का यह पहला ऐसा गाना था, जिसमें कोई तुकबंदी नहीं थी सही मायने में यह नॉन रिमिंग लिरिक्स था। गाने के पाŸव में बजता म्यूजिक सॉफ्ट है। इसमें संतूर का इस्तेमाल हुआ है जिसे उल्हास बापट ने बजाया है। उल्लास , वर्ष 1978 से पंचम दा की म्यूजिक टीम से जुड़ गए और 1942 टु लव स्टोरी फिल्म तक साथ रहे। इजाजत के गाने में उल्लास बापट ने कमाल का संतूर वादन किया है। गाने में पंचम दा का ट्रेंड साफ झलकता है कुछ इसी प्रकार का म्यूजिक फिल्म मौसम में मदन मोहन साहब ने भी तैयार किया था।
फिल्म इजाजत सुबोध घोष की लिखी बांगला कहानी पर आधारित है जिसकी पटकथा गुलजार ने लिखी और निर्देशन भी उन्हीं का था। इसमें नसीरुद्दीन शाह, रेखा, अनुराधा पटेल के अलावा शशि कपूर ने भी काम किया। इस गाने में रेखा और नसीर नजर आते हैं। नसीर, माया का लिखा खत पढ़कर पत्नी रेखा को सुनाते हैं-
एक दफा वो याद है तुमको, बिन बत्ती जब साईकिल का चालान हुआ था
हमने कैसे भूखे प्यासे बेचारों सी एक्टिंग की थी,
हवलदार ने उल्टा एक अठन्नी दे कर भेज दिया था
एक चवन्नी मेरी थी, वो भिजवा दो....
इसके बाद यह गाना पार्श्व में बजता है और अनुराधा पटेल गाते हुए अपने प्रेमी से कहती हैं- कि उसने भले ही उसका भौतिक सामान लौटा दिया है, लेकिन अब वह उसके तमाम वो अहसास भी वापस कर दें, जो उसके साथ बिताए क्षणों के साक्षी रहे हंै। यह गाना एक प्रकार से फिल्म की पूरी कहानी का ही निचोड़ है। गाने के अंत में माया कहती हैं-
एक इजाजत दे दो बस
जब इस को दफऩाऊंगी
मैं भी वही सो जाऊंगी.....
पूरी कहानी नसीर-रेखा और अनुराधा पटेल के बीच घूमती है। अनुराधा पटेल यानी माया अपने नाम के अनुरूप एक माया है, जो नसीर की प्रेमिका रहती है, लेकिन नसीर और रेखा की शादी हो जाती है। दोनों की खुशहाल शादीशुदा जिदंगी है। जब भी माया उनकी जिदंगी के बीच आती है, पारिवारिक जीवन में तनाव आ जाता है। आखिरकार एक दिन रेखा, नसीर को छोड़कर चली जाती है और दूसरी शादी कर लेती है। उधर , माया यानी अनुराधा भी आत्महत्या करने का प्रयास करती है और एक दिन हादसे में उसकी मौत हो जाती है। यह फिल्म सामान्तर फिल्म जगत का हिस्सा थी और एक खास वर्ग ने ही उसे पसंद किया था।
मेरा कुछ सामान, नाम से गुलजार साहब ने बाद में अपने गानों का एक अलबम भी निकाला जिसे वर्ष 2005 में सारेगामा कंपनी ने रिलीज किया था। वहीं आशा भोंसले के 75 जन्मदिन पर भी इसी कंपनी ने जो अलबम जारी किया था, उसका नाम भी मेरा कुछ सामान, रखा गया था जिसमें यह गाना शामिल था। मई 2011 में गुलजार की कहानियों पर आधारित जिन नाटकों का मंचन मुंबई और दिल्ली में हुआ था, उस श्रृंखला का नाम भी मेरा कुछ सामान- रखा गया था। -
आलेख- मंजूषा शर्मा
संगीतकार सलिल चौधरी के गाने आज की पीढ़ी भी बड़ी शिद्धत से सुनती और गुनगुनाती है, क्योंकि उन्होंने हमेशा दिल तक पहुंचने वाले गाने तैयार किए हैं। भारतीय फि़ल्म जगत को अपनी मधुर संगीत लहरियों से सजाने-संवारने वाले संगीतकार सलिल चौधरी ने जितने मधुर गाने हिन्दी में तैयार किए, उतने ही मलयालम और बांग्ला फिल्मों में भी दिए हैं। फि़ल्म जगत में सलिल दा के नाम से मशहूर सलिल चौधरी को सर्वाधिक प्रयोगवादी एवं प्रतिभाशाली संगीतकार के तौर पर जाना जाता है। मधुमती, दो बीघा जमीन, आनंद, मेरे अपने जैसी फि़ल्मों के मधुर संगीत के जरिए सलिल चौधरी आज भी लोगों के दिलों-दिमाग पर छाए हुए हैं। वे पूरब और पश्चिम के संगीत मिश्रण से एक ऐसा संगीत तैयार करते थे, जो परंपरागत संगीत से काफ़ी अलग होता था। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण उन्होंने लोगों के दिलों में अपनी अलग ही जगह बनाई थी। गायक कलाकार यसुदास उन्हीं की खोज हैं। 5 सितंबर 1995 को उन्होंने संगीत की दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।
5 सितंबर को उनकी पुण्यतिथि पर उनकी एक फिल्म मधुमती के एक गीत की चर्चा। ये गाना है -मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अंखियां थक गईं पंथ निहार, आजा रे परदेसी....लता मंगेशकर ने इतनी खूबसूरती से गाया है कि इस गाने को बार - बार सुनने का दिल करता है। इस गाने में प्रीत के बिछड़ जाने का गम भी है और एक प्रेमिका की दर्दभरी पुकार, जो अपने प्रियतम की राह देख रही है। लता मंगेशकर ने यदि इसमें अपना दर्द पिरोया है, तो संगीतकार सलिल चौधरी ने इसमें दिल को छू लेने वाला संगीत दिया है। गाने में कवि शैलेन्द्र ने जैसे अपना पूरा दर्द उड़ेल दिया है। पाश्र्व गायिका लता मंगेशकर सलिल दा की पसंदीदा गायिका रहीं। लताजी की सुरमयी आवाज़ के जादू से सलिल चौधरी का संगीत सज उठता था। उस दौर की किसी फि़ल्म के गाने की गायिका लताजी और संगीतकार सलिल जी हों तो गानों के हिट होने में कोई संशय नहीं रहता था।
मधुमती फिल्म में सलिल चौधरी ने ज्यादातर पहाड़ी रागों का इस्तेमाल ज्यादा किया था। चूंकि फिल्म की कहानी भी ग्रामीण परिवेश की थी। यह फिल्म में 1958 में प्रदर्शित हुई थी। उस वक्त इसके गाने खूब बजा करते थे और अब भी इसके सभी गाने कानों में मिश्री घोल जाते हैं। फिल्म में पूरे दस गाने थे और सभी ने लोगों के दिलों में जगह बनाई। सलिल दा ने इन गानों की ऐसी मीठी धुनें तैयार की कि आज तक उनकी चमक बरकरार है। फिल्म में दिलीप कुमार और वैजयंती माला की जोड़ी थी। मधुमती पुनर्जनम की कहानी पर आधारित एक सस्पेन्स फि़ल्म थी। मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अंखियां थक गईं पंथ निहार, आजा रे परदेसी.... गाने के लिए ही लताजी को अपने जीवन का पहला फि़ल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। हालांकि इस फिल्म ने विभिन्न श्रेणियों में आठ फिल्म फेयर पुरस्कार जीते थे। यह शायद पहली हिन्दी फि़ल्म है जिसमें वैजयंती माला ने तीन-तीन रोल निभाये । इस फि़ल्म के निर्माता और निर्देशक बिमल रॉय थे। इस फि़ल्म को सन् 1958 में अन्य पुरस्कारों के अलावा सर्वेश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। । इस फिल्म से कई निर्माताओं ने प्रेरणा ली और अपनी फिल्मेें बनाई। उसमें राजेश खन्ना और हेमामालिनी की फिल्म कुदरत और शाहरुख खान- दीपिका पादुकोण की फिल्म ओमशांति ओम का नाम शामिल है।
आज रे परदेसी गाना राग बागश्री जिसे बागेश्वरी भी कहा जाता है, पर आधारित है। गाने के अंतरे के बोल हैं-मैं दीये की ऐसी बाती, जल ना सकी जो बुझ भी ना पाती , या फिर मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा बात जऱा सी जैसी उपमाओं के पीछे कितनी दार्शनिक और गंभीर बातें छुपी हुई हैं, यह इस गाने को समझने वाले ही बता सकते हैं।
पूरा अंतरा है- मैं दिए की ऐसी बाती, जल न सकी जो बुझ भी न पाती
आ मिल मेरे जीवन साथी, आजा रे, मैं तो कब से खड़ी इस पार..
तुम संग जनम जनम के फेरे, भूल गये क्यूं साजन मेरे
तड़पत हूं मैं सांझ सवेरे, आजा रे, मैं तो कब से खड़ी इस पार..
मैं नादिया फिर भी मैं प्यासी, भेद ये गहरा बात जऱा सी
बिन तेरे हर सांस उदासी, आजा रे, मैं तो कब से खड़ी इस पार..
इस फिल्म का एक और गाना जो लताजी की आवाज में है- घड़ी - घड़ी मोरा दिल धड़के... भी राग बागेश्री में रचा गया है।
राग बागेश्री काफी ठाट का राग हैं। इस राग में ग व नि स्वर कोमल हैं ,कोमल स्वरों को जब लिखा जाता हैं तो उनके नीचे एक आड़ी रेखा लगाई जाती हैं ,आरोह में रे व प स्वर वर्जित हैं ,अवरोह में केवल प वर्जित हैं । इसका गायन वादन समय मध्यरात्रि का हैं । इस राग के वादी संवादी स्वर हैं म व सा कुछ लोग वादी कोमल नि और संवादी कोमल ग भी बताते हैं । यह राग मध्यम प्रधान राग हैं यानी इस राग में म स्वर का बहुत प्रयोग हैं किंतु आजकल लोग इसमें ध का प्रयोग अधिक कर रहे हैं ।
काफी थाट के अन्तर्गत माना जाने वाला यह राग कर्नाटक संगीत के नटकुरंजी राग से काफी मिलता-जुलता है। राग बागेश्री में पंचम स्वर का अल्पत्व प्रयोग होता है। षाड़व-सम्पूर्ण जाति के इस राग के आरोह में ऋषभ वर्जित होता है। कुछ विद्वान आरोह में पंचम का प्रयोग न करके औड़व-सम्पूर्ण रूप में इस राग को गाते-बजाते हैं। इसमें गान्धार और निषाद स्वर कोमल प्रयोग किये जाते हैं। राग का वादी स्वर मध्यम और संवादी स्वर षडज होता है। यह राधा का सर्वप्रिय राग माना जाता है।
मधुमति के अन्य गानों में शामिल हैं- सुहाना सफर और ये मौसम हंसी-मुकेश , जुल्मी संग आंख लड़ी -लता मंगेशकर, चढ़ गयो पापी बिछुआ -लता मंगेशकर, मन्ना डे , दिल तड़प तड़प के -लता मंगेशकर, मुकेश, घड़ी घड़ी मोरा दिल धड़के -लता मंगेशकर, हम हाल-ऐ-दिल सुनाएंगे- मुबारक बेगम , जंगल में मोर नाचा और टूटे हुये ख़्वाबों ने-मोहम्मद रफ़ी। -
आलेख- मंजूषा शर्मा
गुलजार- जन्म-18 अगस्त 1936
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता......
साफ, झक सफेद और कड़क कुर्ता पायजामा, बालों में झांकती सफेदी, आंखों पर सुनहरा चश्मा और जब शब्द मुंह से निकले, तो जैसे सारे शोर थम जाए और वक्त जैसे अल्फाजों के मायाजाल में अपने आप को ही भुला बैठे । पाक साफ आवाज और शब्दों का जादू ऐसा कि एक-एक शब्द जिंदगी की सच्चाई को परत दर परत खोल जाए। कभी सूफीयाना अंदाज, तो कभी बेफ्रिकी की तल्खी, तो कभी रिश्तों की ऐसी गहराई कि जिसे नाप पाना किसी इंसान के बस में न हो। रुह का गालिब सा शायराना अंदाज। ये किसी आम इंसान की तस्वीर नहीं हो सकती। सच है गुलजार साहब एक आम इंसान तो कभी थे ही नहीं और न कभी बन पाएंगे।
समपूरन सिंह कालरा यानी गुलजार 1936 में वर्तमान पाकिस्तान के झेलम जिले में जन्मे ज़रूर, लेकिन हिन्दुस्तानी मौसमों की आबो-हवा उन्हें इस तरह रास आई कि उर्दू तहजीब की रेशमी चादर लपेट कर फकीराना शान और रिन्दाना तेवर से अपनी रचनाओं से कला और साहित्य का खजाना भरते रहे।
गीतकार के रूप में 10 मर्तबा फि़ल्म फेअर अवार्ड जीतने वाले गुलजार एक अच्छे शायर, एक कामयाब स्क्रिप्ट राइटर, एक बेमिसाल डायरेक्टर और एक चुम्बकीय व्यक्तित्व के मालिक हैं। उन्होंने बहुत कुछ लिखा है और लिख रहे हैं। पुरस्कारों की लंबी फेहरिश्त भी उनके नाम के साथ जुड़ी है। साहित्य अकादमी पुरस्कार 2002 में। पद्मभूषण - 2004 गुलजार को भारत सरकार द्वारा सन 2004 में कला क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये महाराष्ट्र राज्य से हैं। ऑस्कर (सर्वश्रेष्ठ मौलिक गीत का) - 2009 में अंग्रेजी चलचित्र स्लमडॉग मिलियनेयर के गीत जय हो के लिए। ग्रैमी पुरस्कार- 2010 में और सबसे बॉलीवुड का सबसे अलहदा दादा साहब फाल्के सम्मान - 2013। फिल्म इंडस्ट्री में जब भी रुहानी गीतों की चर्चा होगी, गुलजार साहब का नाम सबसे आगे लिखा जाएगा।
आज उनकी नज्मों की चर्चा-
गुलजार साहब की एक नज्म है, जो मुझे बहुत पसंद है, शायद इसलिए क्योंकि इसमें रिश्ते को वो सच्चाई नजर आती है, जो हम कभी-कभी देखकर भी नहीं देख पाते और समझ कर भी नहीं समझ पाते। रिश्तों की बात हो वे जुलाहे से भी साझा हो जाते हैं। दिल में उठने वाले तूफान, आवेग, सुख, दुख, इच्छाएं, अनुभूतियां सब कुछ गुलजार साहब की लेखनी से निकल कर ऐसे आ जाते हैं जैसे कि वे हमारी या फिर हमारे आसपास की ही बातें हो। इसके एक-एक शब्द जैसे रिश्तों की एक -एक गिरह खोलते चले जाते हैं- उन्होंने लिखा है-
मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बांध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में, लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नजऱ आती हैं मेरे यार जुलाहे..
सच है टूटा रिश्ता कभी सच्चाई से जुड़ नहीं पाता और जब भी सांसे लेता है, तो जिंदगी की एक बार की टूटन हमेशा उसके साथ साये की तरह चिपकी रहती है। तागे-तागे जोड़कर कपड़े बुनता जुलाहा ही उन गांठों को देख पाता है और महसूस कर पाता है। यह नज्म गुलजार साहब की किताब यार जुलाहें की अंश है। जिसे उन्होंने अपनी आवाज में रिकॉर्ड भी किया है। इसे जगजीत सिंह और गुलजार के अलबम मरासिम में शामिल किया गया है। इसके साथ एक गजल है- जिंदगी यूं हुई बसर तन्हा, काफिला साथ और सफर तन्हा.......
अनगिनत नज्मों, कविताओं और गजलों की समृद्ध दुनिया है गुलजार साहब की। इस किताब में उनकी नज्में अपना सूफियाना रंग लिए हुए शायर का जीवन-दर्शन व्यक्त करती हैं। इस अभिव्यक्ति में जहां एक ओर जैसे निर्गुण कवियों की बोली-बानी के करीब पहुंचने वाली उनकी आवाज या कविता का स्थायी फक्कड़ स्वभाव एकबारगी उदासी में तब्दील होता हुआ नजऱ आता है। उदासी की यही भावना और उसमें सूक्ष्मतम स्तर तक उतरा हुआ अवसाद-भरा जीवन का निर्मम सत्य, इन नज्मों की सबसे बड़ी ताक़त बन कर उभरता है और यही बातें गुलजार साहब को खास बना जाती हैं।
इसी तरह एक और नज्म है जो उनकी किताब रात पश्मीने की, में शामिल की गई हैं-
रात में जब भी मेरी आंख खुले
नंगे पांवों ही निकल जाता हूं
आसमानों से गुजऱ जाता हूं
दूधिया तारों पे पांव रखता
चलता रहता हूं यही सोचके मैं
कोई सय्यारा अगर जागता
मिल जाये कहीं
इक पड़ोसी की तरह पास
बुला ले शायद
और कहे - आज की रात यहीं रह जाओ
तुम ज़मीं पर हो अकेले -
मैं यहां तनहा हूं।
इन नज्मों में गुलजार साहब का अपना दर्द भी रिसता नजर आता है। फिर वह चाहे विभाजन का दर्द हो या निजी रिश्तों के टूटने का।
उनकी एक और नज्म है-
फिर किसी दर्द को सहला के सुजा लें आंखें
फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़ कर एक बार
नाम ले कर किसी हमनाम को आवाज़ ही दें लें।
गुलजार साहब की लिखी एक एक पंक्ति, एक एक लफ्ज के साए से होकर जब दिल गुजरती है, तो यकीनन् कुछ अलग ही अहसाल होनेे लगता है। सुबह की ताजगी हो, रात की चांदनी हो, सांझ की झुरमुट हो या सूरज का ताप, उन्हें खूबसूरती से अपने लफ्ज़ों में पिरो कर किसी भी रंग में रंगने का हुनर तो बस गुलजार साहब को ही आता है।
शायद इसलिए दर्द की मलिका कही जाने वाली मीनाकुमारी अपनी नज्मों की वसीयत गुलजार साहब के नाम कर गईं। उन्हें भरोसा था कि एक गुलजार ही हैं, जो इन नज्मों की कद्र जानते हैं और उन्हें अच्छी तरह से समझते भी हैं। मीना कुमारी अपने अंतिम समय में गुलजार साहब के काफी करीब थीं।
एक जगह गुलजार साहब ने लिखा है-
मैं जब छांव छांव चला था अपना बदन बचा कर
कि रूह को एक खूबसूरत जिस्म दे दूं
न कोई सिलवट, न दाग कोई
न धूप झुलसे, न चोट खाएं
न जख्म छुए, न दर्द पहुंचे
बस एक कोरी कंवारी सुबह का जिस्म पहना दूं रूह को मैं
मगर तपी जब दोपहर दर्दों की, दर्द की धूप से
जो गुजरा तो रूह को छांव मिल गई है .
अजीब है दर्द और तस्कीं (शान्ति ) का सांझा रिश्ता
मिलेगी छांव तो बस कहीं धूप में मिलेगी ...
जिस शख्स को शान्ति तुष्टि भी धूप में नजऱ आती है मुहावरों के नये प्रयोग अपने आप खुलने लगते हैं उनकी कलम से। बात चाहे रस की हो या गंध की, उनके पास जा कर सभी अपना वजूद भूल कर उनके हो जाते हैं और उनकी लेखनी में रच बस जाते है। यादों और सच को वे एक नया रूप दे देते है। उदासी की बात चलती है तो गुलजार साहब बीहड़ों में उतर जाते हैं, बर्फीली पहाडिय़ों में रम जाते हैं।
तुम्हारे गम की डली उठा कर
जुबान पर रख ली हैं मैंने
वह कतरा कतरा पिघल रही है
मैं कतरा कतरा ही जी रहा हूं
पिघल पिघल कर गले से उतरेगी ,आखिरी बूंद दर्द की जब
मैं सांस की आखरी गिरह को भी खोल दूंगा.....
जब हम गुलजार साहब के फिल्मी गाने सुनते हैं तो अहसास होता है की यह तो हमारे आस पास के लफ्ज़ हैं पर अक्सर कई गीतों में गुलज़ार साब ने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो श्रोता को चकित कर देते हैं। जैसे की उन्होंने कोई जाल बुना हो और हम उसमें बहुत आसानी से फंस जाते हैं। दो अलग-अलग शब्द जिनका साउंड बिल्कुल एक तरह होता है और वो प्रयोग भी इस तरह किए जा सकते हैं की कुछ अच्छा ही अर्थ निकले गीत का...गुलज़ार साहब ने अक्सर ही ऐसा किया है। बात उनके मोरा गोरा अंग लइले गीत की हो या फिर कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना या फिर नमक इश्क का...गीत की चले, हर बार एक गुलजार साहब एक नया तिलिस्म पैदा कर जाते हैं।
जगजीत सिंह की आवाज में मरासिम अलबम की एक गज़़ल है -
हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक्त के शाख से लम्हें नहीं तोड़ा करते...
इस गज़़ल में एक शेर है-
शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालों के लिए दिल नहीं थोड़ा करते....
यह गुलजार साहब ने शायद उन लोगों के लिखा है, जो रिश्तों की टूटन को दिल से लगाए बैठे रहते हैं और सोचते हंै कि अब सारा कुछ खत्म हो गया है, लेकिन ऐसा नहीं है, अच्छा -बुरा जैसा भी रिश्ता बनता है, फिर वह चाहे हमेशा के लिए साथ न चले, लेकिन उसकी तपीश दिल में हमेशा यादों के साथ रहती है।
गुलजार साहब की गजलें, नज्में, गीत उनके -कुछ और नज्में, पुखराज, रात पश्मीने की और त्रिबेनी में संकलित हैं। उनकी कहानियों के संग्रह रावी पार, खराशें और धुंआ अपनी एक अलग कशिश रखते हैं। आनंद, मौसम, लिबास, आंधी, खुशबू जैसी फिल्मों की पटकथा उन्होंने ही लिखी। फिल्मों में लिखे उनके अनगिनत गाने आज भी बज रहे हैं और आज की पीढ़ी के संगीतकार भी उनके रुहानी गीतों की धुने बड़ी संजीदगी से तैयार कर रहे हैं। शब्दों का यह बाजीगर 18 अगस्त को 83 साल का हो रहा है।
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तेजबहादुर सिंह भुवाल
छत्तीसगढ़ मा किसान मन के पहली तिहार के शुरूआत हरेली तिहार ले होथे। ये तिहार ला किसान मन खेती के बोआई, बियासी के बाद मनाथे। जेमा नागर, गैंती, कुदाली, फावड़ा ला चक उज्जर करके औउ गौधन के पूजा-पाठ करथे संग मा कुलदेवी-देवता, इन्द्र देवता, ठाकुर देव ला घलो सुमरथे। ये दिन किसान मन पर्यावरण बनाये राखे बर और सुख-शांति बनाये रखे के प्रार्थना करथे। बैगा मन रात में गांव के सुरक्षा करे बर पूजा-पाठ करथे। धान के कटोरा छत्तीसगढ़ महतारी ला किसान मन खेती-किसानी के उन्नति और विकास बर सुमरथे।
ये बखत हरेली तिहार में खुशहाली बढ़हिस हे जब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल हा गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ राज्य के सपना ला सच करे बर छत्तीसगढ़ के पहली तिहार हरेली मा सामान्य छुट्टी देके प्रदेश के सबो लोगन ला भेंट दीस हे। मुख्यमंत्री हा सरकार बने के तुरंत बाद किसान मन के किसानी करजा ला माफ करिस हे। धान खरीदी ला 2500 रूपया प्रति क्विंटल करीस, कृषि भूमि के अधिग्रहण में 4 गुना मुआवजा के नियम बनाईस। एखरे साथ नरवा-गरवा-घुरवा औउ बारी के योजना चालू करके किसान मन बर उखर नदाये लोक संस्कृति औउ पारंपरिक चिन्हारी ला वापस लाईस हे। किसान मन ला ऐखर ले आर्थिक मजबूती मिलही। ये दरी हरेली तिहार छत्तीसगढ़ी संस्कृति के नवा कलेवर में नजर आही। प्रदेश में हरेली तिहार में सबे जिला मा विशेष आयोजन कर पकवान बनाये औउ आनी-बानी के खेल कराये जाही। नदाये तिहार ला अब सबो लोग-लईका मन जानए औउ मनाये येखर बर तिहार मन छुट्टी ला लागू करे गेहे।
ये दिन गांव-देहात में घरो-घर गुड़-चीला, फरा के संग गुलगुला भजिया, ठेठरी-खुरमी, करी लाडू, पपची, चैसेला, औउ भोभरा घलो बनाए जाथे, जेखर ले हरेली तिहार के उमंग ला दुगुना कर देथे। ये साल हरेली अमावस्या गुरूवार के पड़त हे, किसान मन अपन किसानी औजार के पूजा-पाठ कर गाय-बैला ला औषधि खवाये जाथे, ताकि वो हा सालभर स्वस्थ्य रहाय। गांव-देहात के संगे-संग शहर मन डाहर घलो हरेली तिहार मनाये जाथे। ऐसे माने जाथे कि हरेली तिहार बर खेती-किसानी के पहली काम हा पूरा हो जथे। यानी बोआई, बियासी के बाद किसान औउ गरवा मन आराम करथे। ये दिन गाय-गरवा मन ला बीमारी ले बचाय बर बगरंडा और नमक खवाय जाथे औउ आटा मा दसमूल-बागगोंदली ला मिलाके घलो खवाथे।
हरेली के दिन लोहार औउ राऊत मन घरो-घर मुहाटी मा नीम के डारा औउ चैखट में खीला ठोंके जाथे। मान्यता हे कि ऐसे करे ले ओ घर में रहैय्या मन के अनिष्ट ले रक्षा होथे। हरेली अमावस्या ला गेड़ी तिहार के नाम से घलो जानथे। ये दिन लईका मन बांस में खपच्ची लगाकर गेड़ी खपाथे। गेड़ी मा चढ़कर लईका मन रंग-रंग के करतब घलो दिखाते औउ लईका मन अपन साहस और संतुलन के प्रदर्शन घलो करथे। गांव मा लईका मन बर गेड़ी दौड़, खो-खो, कबड्डी, फुगड़ी, नरियल फेक खेल के आयोजन घलो करे जाथे।
खेती किसानी के पहली काम-बुआई औउ बियासी के बाद किसान भाई मन पानी औउ चीखला में खेत जाए बर गेड़ी बनाथे। ऐसे माने जाथे कि ऐखर ले सांप, बिच्छी, कीड़ा-मकोड़ा ले डर नहीं रहाय। छत्तीसगढ़ के पहली हरेली तिहार ले तिहार मन चालू हो जथे। एक के बाद एक तिहार आथे, जेमा हरेली तीज, नागपंचमी, राखी, कृष्ण जन्माष्टमी, तीजा, गणेश चैथ, श्राद्ध पक्ष प्रारंभ, नवरात्री, दशहरा, करवा चैथ, धनतेरस, दिवाली आथे। सबो तिहार ला छत्तीसगढ़ मा बड़े धूमधाम और जुरमिल के मनाये जाथे। ये दिन सबोझन ला खेती-किसानी औउ हरयाली ला बचाये बर कीरिया खाना चाही, तभे तो उपज बढ़ही औउ सबे सुखी रिही। जय छत्तीसगढ़ महतारी।