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-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)भटक नहीं जाना राहों में , सच्चाई का भान रहे ।लक्ष्य सदा रखना नजरों में , और कहीं मत ध्यान रहे ।।
कंटकीर्ण मुश्किल राहों में , कदम सँभाले चलना है ।छँट जाएँगे स्याह अँधेरे, दीप ज्योति-सम जलना है ।राह सही चुन पाओगे यदि ,भले-बुरे का ज्ञान रहे ।।लक्ष्य सदा रखना नजरों में ,और कहीं मत ध्यान रहे ।।
एकलव्य-सम करो साधना ,सूक्ष्म दृष्टि अर्जुन जैसी ।अपनी कमियों को अपनाकर ,कर लें दूर झिझक कैसी ।पंख हौसलों के लग जाएँ , ऊँची सदा उड़ान रहे ।।लक्ष्य सदा रखना नजरों में , और कहीं मत ध्यान रहे ।।
खुली आँख से देखो सपने , निज जीवन में रंग भरो ।मन में नई उमंगें भरकर , स्वप्न सभी साकार करो ।आत्म-परीक्षण करते रहना , क्षमता का संज्ञान रहे ।।लक्ष्य सदा रखना नजरों में , और कहीं मत ध्यान रहे ।। -
- कविता
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
अंतस में स्नेह-दीप बालें नए साल में ।
खुशियों भरे गीत गा लें नए साल में ।।
मुश्किलों की गहरी रातों का अंतिम प्रहर ।
स्वर्ण किरण रवि मुख पर डालें नए साल में ।।
धरती के कण-कण में छुपी हुई खुशहाली ।
सच्ची खुशी संतोष पा लें नए साल में ।।
दुख पीड़ा की गठरी को शीश नहीं बाँधें ।
इत्र सुधियों की महका लें नए साल में ।।
नागफनी के बीज न बोना मन-मधुवन में ।
सद्भावों के फूल खिला लें नए साल में ।।
भूलें सारी कड़वी बातें द्वेष-दंभ तज दें ।
हृदय को गंगा जल बना लें नए साल में ।। - श्री पीयूष गोयल(लेखक वाणिज्य एवं उद्योग, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण, उपभोक्ता मामले और वस्त्र मंत्री हैं)साल भर पहले लागू होने वाला भारत-ऑस्ट्रेलिया आर्थिक सहयोग एवं व्यापार समझौता (इंडऑस ईसीटीए) इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि कैसे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार की प्रमुख पहलों को मद्देनजर रखते हुए सभी हितग्राहियों के साथ व्यापक परामर्श के बाद सूझ-बूझ के साथ योजना बनाई जाती है तथा आम आदमी समेत छोटे एवं मध्यम उद्योग के लाभ के लिए प्रभावी ढंग से उन्हें क्रियान्वित किया जाता है।इंडऑस ईसीटीए दो क्रिकेट-प्रेमी देशों के बीच पारस्परिक रूप से लाभप्रद समझौता है, जो हमारे अमृत काल में आत्मविश्वासी और आकांक्षी नए भारत के वैश्विक दृष्टिकोण को दर्शाता है। यह दो संसदीय लोकतंत्रों के बीच रणनीतिक साझेदारी को मजबूत करता है, जो कानून के शासन का समर्थन करते हैं और समान कानूनी प्रणालियां रखते हैं। दोनों देश जापान और अमेरिका के साथ क्वाड का हिस्सा हैं। दोनों देश जापान के साथ त्रिपक्षीय आपूर्ति श्रृंखला अनुकूलन पहल (एससीआरआई) में शामिल हो गए हैं। दोनों देश 14-सदस्यीय इंडो पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क (आईपीईएफ) के भी सदस्य हैं।मुक्त व्यापार संधि (एफटीए) एक दशक से अधिक समय में किसी विकसित देश के साथ भारत की पहली व्यापार संधि है, जिसमें अपार क्षमता निहित है। भारत मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया से कच्चा माल और मध्यवर्ती सामान आयात करता है, जबकि इसका निर्यात मुख्य रूप से तैयार उत्पाद हैं। इसलिए, एफटीए भारतीय उद्यमियों की उत्पादन लागत को कम करेगा और उनके सामान को घरेलू व अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में अधिक प्रतिस्पर्धी बनाएगा। इससे भारतीय स्टार्ट-अप को आगे बढ़ने के बेहतरीन अवसर भी मिलते हैं।निर्यात में मजबूत वृद्धिआंकड़ों से स्पष्ट होता है कि इंडऑस ईसीटीए ने एक बहुत ही आशाजनक शुरुआत की है, जिसने मोदी सरकार के इस विश्वास को मजबूत किया है कि इससे श्रम-केंद्रित क्षेत्रों में लाखों नौकरियां पैदा करने में मदद मिलेगी, क्योंकि भारतीय उत्पादों को विशाल ऑस्ट्रेलियाई बाजार में शत-प्रतिशत शुल्क-मुक्त पहुंच मिलती है।अप्रैल-नवंबर 2023-24 में ऑस्ट्रेलिया को भारत का माल निर्यात 14 प्रतिशत बढ़ा है, जो चुनौतीपूर्ण वैश्विक माहौल में बाकी दुनिया के साथ भारत के व्यापार की तुलना में निर्णायक रूप से बेहतर प्रदर्शन है। प्रमुख विकसित अर्थव्यवस्थाओं में मांग सिकुड़ गई है। ऑस्ट्रेलिया का कुल आयात चार प्रतिशत कम हो गया है, लेकिन भारत से इसकी खरीदारी जोरदार तरीके से बढ़ी है। ऑस्ट्रेलिया से भारत का आयात 19 प्रतिशत कम हो गया है, जिससे व्यापार घाटे में 39 प्रतिशत कमी आ गई है।रोजगार का सृजन करने वाले क्षेत्रों में प्रेफेंशियल लाइन्स के तहत ऑस्ट्रेलिया को निर्यात में जोरदार वृद्धि हुई। ऑस्ट्रेलिया को इंजीनियरिंग सामानों का निर्यात अप्रैल-अक्टूबर 2023-24 में 24 प्रतिशत बढ़ गया, जबकि कुल निर्यात में केवल एक प्रतिशत की वृद्धि हुई। रेडीमेड कपड़ों में, ऑस्ट्रेलिया को शिपमेंट में 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि कुल निर्यात में गिरावट आई। आर्थिक सहयोग एवं व्यापार समझौते (ईसीटीए) ने ऑस्ट्रेलिया को इलेक्ट्रॉनिक्स सामान और प्लास्टिक के शिपमेंट में इन क्षेत्रों में समग्र निर्यात से बेहतर प्रदर्शन करने में मदद की।इसके अलावा, भारत ऑस्ट्रेलिया को 700 से अधिक नई वस्तुओं का निर्यात कर रहा है। वर्ष 2023-24 के पहले 10 महीनों में ये निर्यात 335 मिलियन अमेरिकी डॉलर का है, जिसमें 65 मिलियन डॉलर के स्मार्टफोन भी शामिल हैं। अन्य नए उत्पादों में रत्न और आभूषण क्षेत्र की कई वस्तुएं, लाइट ऑयल, गैर-औद्योगिक हीरे और साथ ही रेशम से बने स्कर्ट और कपड़े शामिल हैं।एफडीआई में बड़ा उछालहमारे व्यापार साझीदार मानते हैं कि प्रधानमंत्री ने भारतीय अर्थव्यवस्था को सराहनीय ढंग से आगे बढ़ाया है, जिससे इस उथल-पुथल भरी दुनिया में भारतीय अर्थव्यवस्था आशा की किरण बन गई है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में, भारत 2027 तक एक विकसित देश बनने की राह पर है। हमारे व्यापारिक साझेदार इस ताकत को पहचानते हैं और कृषि व डेयरी जैसे हमारे संवेदनशील क्षेत्रों की सुरक्षा के बारे में हमारी चिंताओं को समझते हैं।भारत के विकास पथ में विश्वास, निवेशक अनुकूल नीतियों और प्रधानमंत्री श्री मोदी द्वारा किए गए परिवर्तनकारी सुधारों के साथ इंडऑस ईसीटीए ने भारत को ऑस्ट्रेलियाई व्यवसायों के लिए और भी अधिक आकर्षक बना दिया है।इस वर्ष जनवरी से सितंबर तक ऑस्ट्रेलिया से कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़कर 307.2 मिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया, जो पूरे 2022 में प्राप्त 42.43 मिलियन अमेरिकी डॉलर का सात गुना है। परामर्श सेवाओं में एफडीआई 2022 में 0.15 मिलियन अमेरिकी डॉलर के मामूली स्तर से बढ़कर 248 मिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है।सेवा क्षेत्र में काफी वृद्धि दर्ज की गई है। भारत के आईटी और व्यावसायिक सेवाओं के निर्यात ने अपनी मजबूत गति जारी रखी। शिक्षा, ऑडियो-विजुअल सेवाओं और मोबिलिटी के क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया के साथ अन्य द्विपक्षीय समझौतों से ईसीटीए की गति में इजाफा हुआ है। इसके कारण व्यापार गतिशीलता में 50 प्रतिशत से अधिक और भारतीय छात्रों के लिए अध्ययन के बाद के कामकाजी-वीजा में लगभग शत-प्रतिशत की मजबूत वृद्धि देखी गई। यह इस दिशा में उल्लेखनीय कदम है।ईसीटीए के बाद दोहरे कराधान से मुक्त भारतीय आईटी उद्योग अब समान स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर रहा है। उद्योग जगत के कुछ अनुमानों के अनुसार, पिछले वर्ष इसने करोड़ों डॉलर की बचत की है। ईसीटीए की सफलता से उत्साहित होकर नैसकॉम, ऑस्ट्रेलिया में अपनी उपस्थिति का विस्तार करने के लिए आईटी क्षेत्र में एसएमई को सुविधा प्रदान करने के संबंध में एक तंत्र स्थापित कर रहा है।व्यापार सौदों के लिए नया दृष्टिकोणइंडऑस ईसीटीए और पिछले साल संयुक्त अरब अमीरात के साथ इसी तरह के समझौते पर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय वाणिज्य मंडलों, निर्यातकों, उद्योग-विशिष्ट समूहों, अर्थशास्त्रियों, व्यापार विशेषज्ञों, विभिन्न मंत्रालयों और विभाग सहित उद्योग के हर वर्ग के साथ व्यापक परामर्श के बाद हस्ताक्षर किए गए थे। उद्योग जगत के दिग्गजों ने दोनों एफटीए की काफी सराहना की। यह पिछले व्यापार समझौतों की तुलना में एक बड़ा कदम है, जिनमें इतना व्यापक परामर्श शामिल नहीं था।प्रधानमंत्री श्री मोदी इस बात को लेकर बहुत स्पष्ट हैं कि हर नीति या समझौता राष्ट्रीय हित में होना चाहिए और देश के लिए लाभकारी होना चाहिए। इसी भावना से, हमने मॉरीशस, ऑस्ट्रेलिया और यूएई के साथ व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं तथा वही मार्गदर्शक सिद्धांत अन्य देशों के साथ बातचीत को आकार दे रहे हैं।हम निष्पक्ष, पारदर्शी और पारस्परिक रूप से लाभप्रद समझौतों की आकांक्षा रखते हैं, जो हमारे व्यवसायों को प्रतिस्पर्धी बनाते हैं, उनके लिए नए बाजार खोलते हैं, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये एफटीए व्यापार और वाणिज्य का विस्तार करते हैं तथा आर्थिक विकास को गति देते हैं। इससे रोजगार और व्यापार के अवसर पैदा होते हैं। ऑस्ट्रेलिया के साथ एफटीए ने अपने पहले वर्ष में यह कर दिखाया है। file photo
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विशेष लेख-मनोज सिंह, सहायक संचालक
-गुरूपद संभवराम जी के मार्गदर्शन में 2010 में सोगड़ा के सर्वेश्वरी आश्रम में रोपे गए थे चाय के पौधे-धार्मिेक आस्था के साथ सामाजिक और पर्यावरण संरक्षण में भी आश्रम निभा रहा है महत्वपूर्ण भूमिकारायपुर / जशपुर के चाय उत्पादक जिला के रूप में पहचान दिलाने की शुरूआत वर्ष 2010 में जिले के मनोरा ब्लाक में स्थित अघोरेश्वर भगवान राम की तपोभूमि सोगडा से हुई थी। यहां चाय के पौधों का रोपण, अघोरेश्वर गुरूपद संभवराम जी के मार्गदर्शन में किया गया था। उनके मार्गदर्शन में चाय पत्ती की खुशबू जशपुर और भारत की सीमा से निकल कर चीन और जापान जैसे देशों तक पहुंचने लगी है।सोगड़ा में मई 2010 में चाय बगान लगाए जाने के बाद लगातार चाय पत्ती की तुड़ाई की जा रही है। इन पत्तियों से 22 प्रतिशत तक ग्रीन चाय प्राप्त हो रहा है। उत्पादित चाय के परीक्षण के लिए चीन व जापान के अंतराष्ट्रीय चाय विशेषज्ञों व राष्ट्रीय चाय विकास बोर्ड के पास भेजा गया था। विशेषज्ञों ने सोगड़ा की ग्रीन टी को असम व दार्जिलिंग से बेहतर होने की पुष्टि कर दी है। जापान व चीन, जहां विश्व में सबसे अधिक ग्रीन टी की खपत होती है,जशपुर की जलवायु चाय के उत्पादन के बेहद अनुकूल है।वर्तमान में सौगड़ा में असम में पाए जाने वाली चाय की प्रजाति टीवी 25, 26, 27, दार्जिलिंग की सीपी-1, पीके 78, टीवी और एवी का रोपण किया गया है। जुलाई के प्रथम सप्ताह में रोपे गए इन पौधे की ग्रोथ 4 महीने में ही दो से ढाई फीट की ग्रोथ देखी जा रही है, जबकि असम व दार्जिलिंग में इन पौधों को इतना विकसित होने में ढाई साल लग जाते हैं। यहां उत्पादित चाय पत्ती की प्रोसेसिंग के लिए लगभग 40 लाख की लागत से टी प्रोसेसिंग यूनिट भी स्थापित की गई है।हजारीबाग मे बाबा को मिली थी प्रेरणा -जिले में चाय उत्पादन की प्रेरणा गुरूपद संभव बाबा को हजारीबाग में मिली थी। गुरूपद संभव राम यहां अपने एक भक्त के घर आए हुए थे। भक्त के घर में चाय के लहलहाते पौधे को देख कर जशपुर में चाय उत्पादन की प्रेरणा उन्हें मिली थी। गुरूपद संभव राम, अपने साथ चाय के पौधे लेकर सोगड़ा आए और इन्हें विशेषज्ञों की देखरेख में रोपा गया था। प्रयोग सफल होने पर,शुरूआत में आश्रम के प्रांगड़ के 7 एकड़ में चाय बगान विकसित किया गया है। अब इसका रकबा 20 एकड़ से अधिक हो चुका है। वहीं, गुरूपद संभवराम जी की प्रेरणा ग्रहण करते हुए, छत्तीसगढ़ शासन जिले के जशपुर, मनोरा और बगीचा तहसील में 85 एकड़ से अधिक रकबा में चाय बगान विकसीत कर चुकी है। शासन ने चाय पत्ति की प्रोसेसिंग के लिए बालाछापर में प्रोसेसिंग यूनिट का संचालन भी कर रही है।निःशुल्क चिकित्सा शिविर का आयोजन -सोगड़ा आश्रम,धार्मिक आस्था का केन्द्र होने के साथ,समाज सेवा की गतिविधियों का संचालन किया जाता है। यहां प्रतिवर्ष निःशुल्क चिकित्सा शिविर का आयोजन किया जाता है। इसमें देश के विभिन्न राज्यों से विशेषज्ञ चिकित्सक आ कर अपनी सेवाएं जरूरतमंद मरीजों को देते हैं। इन शिविरों में चिकित्सकीय परामर्श के साथ मरीजों को निःशुल्क दवाई का वितरण भी किया जाता है। सोगड़ा आश्रम पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूकता कार्यक्रम से भी जुड़ा हुआ है। -
लेख
रायपुर / सिखों के दशम गुरु गोविंद सिंह के दो बालकों बाबा जोरावर सिंह जी और बाबा फतेह सिंह जी के शहादत की स्मृति में वीर बाल दिवस मनाने की परंपरा का आरंभ प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने किया है। कई मायनों में यह पहल ऐतिहासिक है। देश के भारत नाम के पीछे कही जाने वाली बहुत सी अनुश्रुतियों में से एक हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत के पुत्र भरत के संबंध में है। जब पहली बार दुष्यंत ने वन में इस बालक को देखा तो वो शेरों के दांत गिन रहा था। भारत के नामकरण के पीछे इस बालक भरत के शौर्य को बताया जाता है।बचपन से ही वीरता के भाव को जगाने का प्रयास हमारी भारतीय संस्कृति में मिलता है और उपनिषदों से इसकी कहानियां मिलनी आरंभ हो जाती है। उपनिषदों में नचिकेता, आरूणि और श्वेतकेतु जैसे जिज्ञासु बालकों का जिक्र है जिनमें सत्य की प्राप्ति के लिए अपना सब कुछ नष्ट करने का साहस था। रामायण और महाभारत में बालकों के पराक्रम की कहानियां भरी हुई हैं। राजर्षि विश्वामित्र जब राजा दशरथ के दरबार में आये और निर्विध्न यज्ञ से निबटने के लिए क्षत्रिय योद्धाओं को भेजने का आग्रह सामने रखा तो उन्होंने केवल श्रीराम और लक्ष्मण को साथ भेजने का आग्रह राजा दशरथ से किया।भारत में नेतृत्व का गुण बचपन से ही देखे जाने की परंपरा रही है। हिंदी में कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। जब चाणक्य ने देश से नंद वंश के समूलनाश का निर्णय लिया तो उन्होंने इसके क्रियान्वयन के लिए एक बालक चंद्रगुप्त को परखा और इसका जिम्मा सौंपा। भारत के सबसे चर्चित योद्धा पृथ्वीराज चौहान भी चौदह वर्ष की आयु में दिल्ली की गद्दी पर बैठे और विदेशी आक्रमणों का प्रतिरोध किया।भारतीय इतिहास के सबसे गौरवमयी क्षणों में वो रहा है जब गुरु गोविंद सिंह के दोनों बेटों ने अपने प्रिय उद्देश्यों तथा स्वधर्म की रक्षा के लिए शहादत दी। साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई में जितना योगदान युवाओं का है उतना ही बालकों का भी। कोई खुदीराम बोस की शहीदी कैसे भूल सकता है। 14 साल की उम्र में खुदीराम बोस ने अंग्रेजी अत्याचार के विरुद्ध बिगूल फूंका और फांसी चढ़ गये। लाखों बच्चें अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़े और इसका विरोध किया।आज से छह सौ साल पहले फ्रांस पर हुए हमले को रोकने एक बच्ची जान आफ आर्क सामने आई और फ्रांस की जनता को एकजुट किया। फ्रांस और पूरी यूरोपीय जनता इस बालिका को वीरता का आदर्श मानती है। 26 दिसंबर को गुरु गोविंद सिंह के बालकों की शहादत की तिथि पर वीर बाल दिवस मनाने की परंपरा आरंभ कर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भारत में वीरता के आदर्शों को जन-जन तक पहुंचाने की सार्थक पहल की है। वीर बाल दिवस के माध्यम से बच्चों को इस देश की महान विरासत को जानने और समझने का मौका मिलता है तथा साहस की परंपरा को निरंतर बढ़ाने की दिशा में यह सार्थक प्रयास होता है। - भारत रत्न युगपुरुष अटल बिहारी वाजपेयी जी के जन्मदिवस पर विशेषदेवभूमि भारत देवताओं, वीर योद्धाओं और महापुरुषों की भूमि है। यह पवित्र भूमि महान आत्माओं के अवतरण की साक्षी रही है। हर युग में मनीषियों ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर समाज और राष्ट्र को नव-चेतना से परिपूर्ण नए युग के पथ पर अग्रसर किया है। इन श्रेष्ठ और महान व्यक्तियों को ही युग-ऋषि की उपाधि से अलंकृत किया जाता है। फिर विरले ही होते हैं वे युग ऋषि जिनका पूरा व्यक्तित्व और कृतित्व उनके न रहने पर भी हर दिलों में अविचल, अमर और ‘अटल’ रहता है।अटल...तीन अक्षरों का यह शब्द अपने में समाए हुए है एक ऐसा व्यक्तित्व जिन्होंने राष्ट्र निर्माण की नई मान्यताओं को स्थापित किया।अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी सिर्फ यशस्वी राजनेता ही नहीं थे, पत्रकार, संपादक, एक संवेदनशील कवि, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक, प्रखर वक्ता, उत्कृष्ट सांसद, लोकप्रिय प्रधानमंत्री, एक असाधारण लोकसेवक,....क्या-क्या नहीं थे बहुआयामी विराट व्यक्तित्व के धनी अटल जी! उनकी वाणी में माँ सरस्वती विराजमान थीं। ईश्वरप्रदत्त उनकी वाणी के ओज में हर शख्स बहने लगता था। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को सिर्फ लेखनी की सीमा में बाँधकर रखना अत्यंत दुष्कर है। उनकी संवेदनशील कविताओं और लेखों के माध्यम से ही नहीं, एंड टीवी पर प्रसारित हो रही उनकी अनसुनी बाल गाथा ‘अटल’ से भी जब उन्हें समझने का प्रयास किया जाता है तो हमें एक ऐसे विराट-पुरुष के दर्शन होते हैं जिनकी भाव-भूमि में व्याष्टि से लेकर समाष्टि तक के विचार समाहित हैं। विशेषकर उनकी कविताओं में, यह विधा उन्हें विरासत में मिली थी। जैसा कि अपने काव्य संग्रह ‘मेरी इंक्वायन कविताएँ’ की भूमिका 'कविता और मैं' में वे लिखते हैं, “मेरे पिता पं. कृष्ण बिहारी वाजपेयी, ग्वालियर रियासत के, अपने जमाने के, जाने-माने कवियों में थे। वह ब्रज भाषा और खड़ी बोली दोनों में लिखते थे। उनकी लिखी ईश्वर प्रार्थना विरासत के सभी विद्यालयों में सामूहिक रूप से गायी जाती थी।“ अटल जी कवि सम्मेलनों में पहले श्रोता के रूप में और फिर उदीयमान किशोर कवि के रूप में जाते थे। पहली कविता ताजमहल पर लिखी गई थी जिसमें ताज के सौंदर्य पक्ष का वर्णन न होकर उसका निर्माण कितने शोषण के बाद हुआ, इसका चित्रण था। वह कविता हाई स्कूल की पत्रिका में छपी थी। यह उनकी सत्यनिष्ठा का प्रत्यक्ष उदाहरण है।राजनीति में आने के बाद उनके लिए कविता और गद्य लेखन के लिए समय निकालना अवश्य कठिन कार्य हो गया, किन्तु उन्होंने जो कुछ भी लिखा वह कालजयी है। अटल जी लिखते हैं, ‘’मैंने जो थोड़ी सी कविताएँ लिखी हैं, वे परिस्थिति सापेक्ष हैं और आसपास की दुनिया को प्रतिबिम्बित करती हैं। अपने कवि के प्रति ईमानदार रहने के लिए मुझे काफी कीमत चुकानी पड़ी है, किन्तु कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच मेल बिठाने का मैं निरन्तर प्रयास करता रहा हूँ।‘’ अटल जी की कविताओं में हमें राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र के पौरुष और गौरव के वर्णन के साथ ही अध्यात्म की सूक्ष्म विवेचनाओं और उनके संवेदनशील मन में छिपी आशाओं, आकांक्षाओं के दर्शन होते हैं। कहा भी गया है कि कवि का आसन बहुत ऊँचा है। राज-राजेश्वरों की भी पहुँच वहाँ तक नहीं है। पद्मश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय के शब्दों में, “कवि ईश्वरीय विभूति सम्पन्न होते हैं। इसीलिए लोग उन्हें पूज्य दृष्टि से देखते हैं और उनकी रचना संसार की स्थाई सम्पत्ति समझी जाती है। इन रचनाओं में सर्वत्र प्रतिभा की प्रभावशालिनी रश्मियों का समावेश रहता है। इस कारण वे मनुष्य की ह्रदय कलिका को खिलाकर उसके अंतर प्रदेश को प्रकाशित करने की शक्ति रखते हैं।“यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि युग-ऋषि अटल जी ईश्वरीय विभूति सम्पन्न थे। वे हमारे बीच नहीं है किन्तु उनकी रचनाएँ आज भी मानव की ह्रदय कलिका खिलाकर अंतर प्रदेश को प्रकाशित करने की शक्ति रखती है। उनकी कविताएँ निराशा के घोर अँधकार को चीरकर आशा के दीप इस तरह जलाती हैं-भरी दुपहरी में अँधियारासूरज परछाईं से हारा।अन्तरतम का नेह निचोड़ें,बुझी हुई बाती सुलगाएँ,आओ फिर से दिया जलाएँ।हम पड़ाव को समझे मंजिललक्ष्य हुआ आँखों से ओझल,वर्तमान के मोहजाल में आने वाला कल न भुलाएँ।आओ फिर से दिया जलाएँ।अटल जी की कविताएँ आज भी प्रासंगिक हैं और सदैव प्रासिंगक रहेंगी। वर्तमान में विकसित भारत@2047 की परिकल्पना को पूरा देश साकार करने एकजुट हो रहा है। अटल जी ने एक नए भारत के निर्माण का स्वप्न काफी पहले ही देखा था जो उनकी कविताओं में भी अभिव्यक्त हुआ था। एक बनगी देखिए-स्वप्न देखा था कभी जो आज हर धड़कन में हैएक नया भारत बनाने का इरादा मन में हैएक नया भारत कि जिसमें एक नया विश्वास होजिसकी आँखों में एक चमक हो, एक नया उल्लास होहो जहाँ सम्मान हर एक जाति, हर एक धर्म कासब समर्पित हों जिसे, वह लक्ष्य जिसके पास होएक नया अभिमान अपने देश पर जन-जन में हैएक नया भारत बनाने का इरादा मन में है।अटल जी की कविताओं में दर्शन का सूक्ष्म विवेचन देखने को मिलता है। उनका विचार था कि मनुष्य कितनी भी ऊंचाइयों को स्पर्श कर ले, लेकिन उसे कभी अपना धरातल नहीं छोड़ना चाहिए। ‘पहचान’ नामक कविता की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-आदमी को चाहिए कि वह जूझे,परिस्थितयों से लड़े,एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।किंतु कितना भी ऊँचा उठे,मनुष्यता के स्तर से न गिरे,अपने धरातल को न छोड़े,अन्तर्यामी से मुँह न मोड़े।एक पाँव धरती पर रख कर हीवामन भगवान ने आकाश, पाताल को जीता था।धरती ही धारण करती है,कोई इस पर भार न बने,मिथ्या अभिमान से न तने।आदमी की पहचान,उसके धन या आसन से नहीं होती,उसके मन से होती है।मन की फकीरी परकुबेर की सम्पदा भी रोती है।विलक्षण कवि अटल जी की काव्य-धारा आज भी अपने ओजपूर्ण आगोश में समेटकर बहा ले जाने को आतुर प्रतीत होती है। अटल जी के विरोधी भी उनके प्रशंसक थे। उनके व्यक्तित्व की यह विशेषता हमें अन्य किसी में दिखलाई नहीं देती। सन् 1992 में पद्मविभूषण सम्मान से अलंकृत होने पर आयोजित सम्मान समारोह में उन्होंने ‘ऊँचाई’ नामक कविता का पाठ किया था जिसकी अंतिम पंक्तियाँ हैं-हे प्रभुमुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देनगैरों को गले लगा न सकूँइतनी रुखाई कभी मत देना।पूरा जीवन भारत माता की सेवा करने में समर्पित करने वाले अटल जी की ‘मौत से ठन गई’ नामक कविता की यह पंक्ति भी देखिये-प्यार इतना परायों से मुझको मिला,न अपनों से बाकी है कोई गिला।उनके कोमल व संवेदनशील ह्रदय का परिचय कराती ‘हीरोशिमा की पीड़ा’ नामक कविता की पंक्तियाँ हैं-किसी रात कोमेरी नींद अचानक उचट जाती है,आँख खुल जाती है,मैं सोचने लगता हूँ किजिन वैज्ञानिकों ने अणु-अस्त्रों काअविष्कार किया थाःवे हिरोशिमा-नागासाकी के भीषण नरसंहार के समाचार सुनकर,रात को सोये कैसे होंगे?क्या उन् एक क्षण के लिए सही, यहअनुभूति हुई कि उनके हाथों जो कुछ हुआ, अच्छा नहीं हुआ यदि हुई, तो वक्त उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं करेगा, किंतु यदि नहीं हुई, तो इतिहास उन्हें कभीमाफ नहीं करेगा।अटल जी ने अनेक किवताएँ लिखीं जिनकी मार्मिक अभिव्यक्ति उनके भाषणों में भी हुआ करती थी। उनकी काव्य-सृष्टि का अद्भुत संसार है जो राष्ट्रीय से लेकर वैश्विक स्तर तक के हर पहलुओं को अपने भीतर समाए हुए है। डॉ. आशीष वशिष्ठ अपनी प्रसिद्ध कृति युग पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका में लिखते हैं, ‘’राजनीतिक जीवन में शुचिता के पक्षधर अटल जी की स्वीकार्यता का आलम यह था कि जब वे लोकसभा का चुनाव हारे तो सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने कहा था कि अटल के बिना सदन सूना लगता है। उन्हें भारत रत्न तो बाद में मिला लेकिन, वाकई वे भारत रत्न थे।‘’ भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले सामावेशी व्यक्तित्व के धनी युग ऋषि अटल जी हर दिल में अविचल रहेंगे।और अंत में दिल की बात –मुझे इस बात पर सदैव गर्व की अनुभूति होती है कि वर्ष 2004 में भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी के हाथों पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए चंदुलाल चंद्राकर पत्रकारिता फेलोशिप से सम्मानित किया गया था। एक महान राजनीतिज्ञ और कवि ही नहीं, महान पत्रकार और संपादक अटल जी के हाथों यह सम्मान प्राप्त हुए 19 वर्ष हो चुके हैं, किन्तु वे पल मेरे ह्रदय में आज भी अविचल हैं जब उन्होंने पुरस्कार देते हुए अपनी मनमोहक मुस्कान के साथ मेरी तरफ देखा था और शुभकामनाएँ दी थीं। वह मेरे जीवन का सर्वश्रेष्ठ पल था जिसकी यादें सदैव अमिट बनी हुई हैं...युग ऋषि अटल जी को शत-शत नमन....वंदे मातरम...
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विशेष लेख
रायपुर। देश के पूर्व प्रधानमंत्री एवं भारतरत्न स्व. श्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती 25 दिसंबर प्रतिवर्ष देशभर में सुशासन दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष यह दिन छत्तीसगढ़ के लिए विशिष्ट होगा। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ की नई सरकार नई पहल करते हुए अपनी नीतियों और योजनाओं को धरातल पर उतार रही है। इसी दिन राज्य सरकार यहां के 13 लाख किसानों को धान के दो वर्ष के बकाया बोनस का उपहार देगी। अनेक जनहितैषी योजनाओं के रूप में भी जनता को सौगात मिलेगी।यह सुखद संयोग ही है कि नई राज्य सरकार के गठन की औपचारिक प्रक्रिया के पहले पखवाड़े का कामकाज सुशासन दिवस से शुरू होगा। पूरे छत्तीसगढ़वासियों के लिए यह गर्व और स्वाभिमान की बात है कि स्व. श्री अटल जी ने ही अपने प्रधानमंत्रित्व काल में छत्तीसगढ़ राज्य की संकल्पना को मूर्त रूप दिया था। छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना अटल जी की ही देन है। उनके जन्मदिवस पर नई सरकार के कार्यक्रमों का शुभारंभ माननीय अटल जी के स्वप्नों को साकार करने की दिशा में एक सार्थक कदम है।सुशासन से आशय सक्षम, न्यायशील और पारदर्शी शासन व्यवस्था से है। अटल जी का जन्मदिन सेवा, त्याग व समर्पण के लिए याद किया जाता है। वर्ष 2014 से इसे देशभर में मनाया जाता है। सुशासन दिवस के दिन कर्तव्य के शुचितापूर्ण पालन की शपथ भी ली जाती है। अटल जी के पदचिन्हों पर चलकर छत्तीसगढ़ सरकार शासन-प्रशासन में शुचिता, पारदर्शिता, जवाबदेही का विकास करने की दिशा में अग्रसर है।छत्तीसगढ़ अपनी युवावस्था के दौर में है। इस ऊर्जा का उपयोग तीव्र गति से समन्वित विकास में किए जाने की आवश्यकता है। राज्य की नई सरकार ने यहां की जरूरतों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए विकास के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। किसानों से 3100 रुपए की दर पर धान की खरीदी, युवाओं को रोजगार, महिलाओं की आर्थिक उन्नति व स्वावलंबन के लिए महतारी वंदन योजना आदि ऐसे सोपान हैं जो समाज की तरक्की के पायदान तय करेंगे।अनुसूचित जनजााति बहुल प्रदेश को श्री विष्णुदेव साय के रूप में आदिवासी मुख्यमंत्री मिले हैं। उनके राज्य के मुखिया बनने से प्रदेश की पारंपरिक तथा सांस्कृतिक विरासत को नवीन आयाम मिलने की आशा की है। अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के कल्याण की प्राथमिकता की भावना सरकार के कामकाज में प्रतिध्वनित हो रही है। सुशासन की अवधारणा यही है कि सभी वर्गों खासकर वंचित तबकों को न्याय तथा सम्मान दिलाने की पहल की जाए।सुशासन की स्थापना में सूचना प्रौद्योगिकी की अहम भूमिका रही है। प्रशासनिक व्यवस्था में इंटरनेट क्रांति से शुचिता और पारदर्शिता में वृद्धि, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सुदृढ़ीकरण, मजदूरों और कृषकों के बैंक खाते में सीधे राशि का भुगतान, राजस्व और अन्य विभागों के आनलाइन पोर्टल, जनोपयोगी सुविधाओं की आनलाइन व्यवस्था से न सिर्फ व्यवस्था में पारदर्शिता आई है बल्कि प्रशासन से जनता की दूरी भी घटी है।इस वर्ष सुशासन दिवस छत्तीसगढ़ की जनता को अनेक सौगातें देकर जाएगा। यह दिवस सबका साथ सबका विकास का मंत्र भी याद दिलाएगा। नई सरकार के कार्यकाल का यह दिवस राज्य में खुशहाली और विकास की ठोस बुनियाद रखेगा। -
कइसे तोला बचावव बेटी
कविता -लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
चारों कोती रावण - दुशासन , खींचत लुगरा तोर ।कइसे तोला बचावँव मैं , आँसू बरसत मोर ।।
आज सुरक्षित नइहे बेटी , अपन घर अंगना म ।गिधवा नजर डारे बइठे , लाज बचावव किशना ।अत्याचार अमावस कस , मुंधियार हे घनघोर ।कइसे तोला बचावंव मैं , आँसू बरसत मोर ।।
भेस बदल के दानव घुमय , भेस बदलय शिकारी ।फंदा डारे बइठे हे सब , दुर्जन के नइहे चिन्हारी ।गली - गली म बइठे डाकू , घर- दुआर मा चोर ।कइसे तोला बचावंव मैं , आँसू बरसत मोर ।।
बेटी ल कोख म मारय , नारी ला सतावय ।इज्जत लूटत हे बेटी के , दुष्ट रूप देखावय ।बेटी पढावव आघु बढावव , ज्ञान के करव अंजोर ।कइसे तोला बचावंव मैं , आँसू बरसत मोर ।। -
- कविता
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
सुंदर मधुबन जगत बनाएँ ,
खुशियों के हम फूल खिलाएँ ।
सुख के पंछी उतरें ऑंगन ,
नित-नित कलरव-गान सुनाएँ ।।
मोह, लोभ, मद, काम-क्रोध को ,
विलुप्त कर दें भाव-भूमि से ।
क्षमा ,दया को रोपित कर दें ,
पौध प्यार की जन-मन सरसे ।।
नेह,प्रेम का नीर सींच कर ,
चलो शांति के बीज उगाएँ ।।
सुंदर मधुबन जगत बनाएँ ।
खुशियों के हम फूल खिलाएँ ।।
कलित ललित शीतल सुखदायी
मृदु मंद पवन मंथर-मंथर ।
शांत सलिल उर्मिल प्रवाह में ,
जीवन-नैया चलती सत्वर ।
आ बिखेरें प्यार की खुशबू ,
जीवन के सुख-साज सजाएँ ।।
सुंदर मधुबन जगत बनाएँ ।
खुशियों के हम फूल खिलाएँ ।।
सृजन करें नव गीतों का हम ,
जीवन में सुख-संगीत भरें ।
पावन हो जाए यह धरती ,
शुभ पुण्य कर्म हम सभी करें ।
महित मुदित मोहक हो दुनिया,
विषमताओं को हम मिटाएँ ।।
सुंदर मधुबन जगत बनाएँ ।
खुशियों के हम फूल खिलाएँ ।। - शीत के दोहे-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)----------मार्गशीर्ष सेहत भरा, मिले खूब फल शाक।योगासन व्यायाम कर, आलस रखना ताक ।।
आतप ने झुलसा दिया, ठिठुराता हेमंत ।बाट जोहती प्रेयसी, कब आओगे कंत ।।
पावन प्रीति पुनीत का,कर लोगे अनुभास ।अदरक वाली चाय ज्यों, महक बुलाती पास ।।
घूँट चाय की भर रहे, पुष्पित पाटल ओष्ठ।नैन-चषक ये भर रहे, प्रणयी हृदय-प्रकोष्ठ।।
विरही खग मन का उड़े, करने प्रिये मिलाप।प्रीति- रजाई से मिले, शिथिल देह को ताप ।।
शीत प्रभाती भोर में, डाले धुंध पड़ाव ।ठंड-ठिठुरते गात को, राहत सिर्फ अलाव।।
बदमिजाज मौसम हुआ,पल-पल बदले रूप।शीत-निठुर के सामने, बेबस होती धूप ।।
माह दिसंबर दे रहा, ठंडक का अनुभास ।ऊनी स्वेटर शॉल ने, जगह बनाई खास ।। -
तुम शिव हो जाना
------------------------कविता--लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)लोग तुम्हें बुरा बोलेंगे ,हँसेंगे तुम्हारे पहनावे पर ,तुम्हारी जीवन-शैली पर,जीर्ण-शीर्ण आवास पर ,इन सबसे विचलित मत होनापार्थिव हो जाना,तुम शिव हो जाना ।
आगे जाने नहीं देंगे विरोधी,बढ़ गए तो गिराने कीभरसक कोशिश होगी ,अपमानों के शूल चुभोकर,छीन लेंगे है तुम्हें जो प्रिय,पी जाना अपमानों का गरल,या क्रोध में तांडव कर जाना ,फिर शांतचित्त राजीव हो जाना ।तुम शिव हो जाना ।।
उच्च विचार, शक्ति-संपन्न ,धीर-वीर, सहनशील बन।छल-कपट से दूर सरल हो,भोलेनाथ जीत सके जग का मन ।रख हृदय में राम ही बस ,आशुतोष बन मुस्कुराना ,चिरंजीव हो जाना ।तुम शिव हो जाना ।। - पांचवा मौसम क्लाइमेट चेंज के वार का !साल 1987 में रीलिज हुई फिल्म सिंदूर का यह हिट गाना आज भी लोगों की जुबां पर रहता है, पतझड़ सावन बसंत बहार...एक बरस के मौसम चार, मौसम चार...पाँचवा मौसम प्यार का...लता मंगेशकर के गाये इस गीत में कोयल के कूकू करने और बुलबुल के गाने, फूलों के खिलने, बादल के बरसने की पंक्तियां संवेदनाओं को रोमांचित कर देती हैं। मौसम तो चार होते हैं, लेकिन आज पांचवा मौसम क्लाइमेट चेंज के वार का है जिससे हर आदमी जूझ रहा है। बुलबुल के गीत और कोयल की कूकू सुनने को कान तरसते हैं, एक बरस के मौसम चार की पूरी चाल बदल गई है।हम सभी जानते हैं परिवर्तन संसार का शाश्वत नियम है, लेकिन जो परिवर्तन पूरी पृथ्वी और मानव-समाज को संकट में ला दे, वह शाश्वत नियम न होकर मनुष्य की अप्राकृतिक क्रिया की अप्राकृतिक प्रतिक्रया है। सरल शब्दों में कहें तो ठंड के मौसम में बरसात और गर्मी झेलने की विवशता, घर के भीतर गर्मी तो बाहर ठंड, बेमौसम बारिश, बेमौसम गर्मी फलस्वरूप प्राकृतिक विपदाओं के साथ बीमारियों का तोहफा। कहने का आशय है क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) की इस जंग से हर आदमी जूझ रहा है। लगभग छह साल पहले वर्ष 2017 में महान भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने बीजिंग में टेनसेंट वी शिखर सम्मेलन में ऊर्जा की बढ़ती खपत और तेजी से बढ़ते धरती के तापमान को लेकर चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था कि यदि यही हालात रहे तो आने वाले 600 वर्षों में पृथ्वी आग का गोला बन जाएगी और मानव को दूसरे ग्रह पर बस्ती बसानी होगी। धरती आग का गोला बनती जा रही है। हर साल बढ़ती गर्मी का रिकार्ड सिर्फ भारत में ही नहीं टूट रहा है, पूरे विश्व का तापमान बढ़ता जा रहा है।कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपने शोध में बताया है कि बढ़ते तापमान की वजह से इंसान का दिमाग सिकुड़ रहा है और इंसान की लंबाई भी घट रही है। यानी तापमान का सीधा संबंध इंसान के आकार से भी है। जलवायु परिवर्तन से विश्व के अधिकांश देश परेशान हैं।हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने अगले पांच वर्षों में वैश्विक तापमान बढ़ने की संभावना व्यक्त की है। वर्ष 2023 से 2027 तक सबसे गर्म पांच साल रहेंगे। यह चिंता सिर्फ आज की नहीं है। यदि 26 साल पहले सन 1997 में जापान के क्योटों में विश्वभर के पर्यावरण वैज्ञानिकों की बैठक की तफ लौटें तो उस समय यह निर्णय लिया गया था कि सभी औद्योगिकृत देश अपने यहाँ ग्रीन हाउस गैसों की उत्सर्जन की मात्रा में कटौती करेंगे। इस पर पूरी ईमानदारी से अमल किया गया होता तो आज परिणाम कुछ और होते।वैश्विक तापमान में प्रतिदशक 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि नहीं होती। 2030 तक धरती के तापमान में 1.5 डिग्री की बढ़ोतरी हो जाने का अनुमान है। वजह साफ है मशीनी युग में जंगलों की कटाई, कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस जैसे जैव ईंधनों का अंधाधुंध उपयोग और वायुमंडल में निरंतर बढ़ती कार्बन-डायआक्साईड की मात्रा। कार्बन डाई ऑक्साइड को मानव जनित ग्रीन हाउस गैस माना जाता है जो पिछले कुछ दशकों से धरती के तापमान को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार मानी जा रही है। परिणाम भी सामने है, पृथ्वी का गर्म होता वायुमंडल, ध्रुवीय क्षेत्र के पिघलते हिम, समुद्र का बढ़ता जल स्तर, कहीं सूखा, कही बाढ़, वन्य जीवन का संटक में अस्तित्व, अवसाद, बेचैनी, निराशा के बीच मनुष्य की कम होती जीवन-प्रत्याशा और बीमारियाँ।पूरी दुनिया के लिए इस समय जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी समस्या है। देशभर के लोगों को जलवायु परिवर्तन के प्रति जागरुक करने के उद्देश्य से पिछले माह पृथ्वी दिवस पर देश की राजधानी दिल्ली में ग्लोबल क्लाइमेट क्लॉक लॉन्च की गई। यह घड़ी इस बात की जानकारी देगी कि सिर्फ 6 साल 90 दिन और 22 घंटे में कैसे धरती का तापमान 1.5 डिग्री बढ़ जाएगा। 2030 में तय समय के बाद यह घड़ी बंद हो जायेगी। संकेत यह है कि छह साल बाद जलवायु परिवर्तन का हम सबके जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसकी उलटी गिनती शुरू हो चुकी है।शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य जन्म के साथ ही अनेक ऋण भी लेकर आता है। देव ऋण, पितृ ऋण, गुरु ऋण आदि की बात कही जाती है। भावी सुख-सुविधाओं और संतुष्टि के लिए मनुष्य अनेक प्रकार के ऋण चुकाता भी है। लेकिन हम सभी पर सबसे बड़ा ऋण प्रकृति का भी होता है। बिना प्रकृति के मानव जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हम जन्म लेते ही पहला दर्शन प्रकृति का करते हैं और उसकी गोद में सांस लेना शुरू करते हैं। इंडिया वाटर पोल में डॉ. ज्योती व्यास विश्व तापमान में वृद्धि के संबंध में अपने आलेख में समाधान के रास्ते बताते हुए लिखती हैं, ‘’जीवाश्म ईधनों के दहन में कमी लाने के साथ ही हमें वनों की ओर लौटना चाहिए, वन कटाई करके जो नुकसान हमने किया है, उसकी भरपाई भी हम करें।‘’ वे आगे और समाधान बताती हैं, ‘’जिस प्रकार आधुनिकता के नाम पर हम धरती का उपयोग कर रहे हैं, उसके घटकों का बेजा उपयोग कर रहे हैं, उस पर कानूनन रोक लगाई जाए। परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को बढ़ावा दे।‘’ वस्तुतः यह सारे कदम उठाना न सिर्फ समय की मांग है अपितु प्रकृति के प्रति ऋण उतारने का श्रेष्ठ कदम भी है। यदि इस तरह के कदम उठाये जाते हैं तो आने वाले छह सालों में मानव जीवन के सामने आऩे वाली चुनौतियों से निपटा जा सकता है। यही युग की मांग है जिससे धरती को आग का गोला बनाने से रोका जा सके।हमें इतिहास से प्रेरणा लेनी चाहिए। भारतीय संस्कृति में प्रकृति को माता माना गया है और हम सब प्रकृति की संतान हैं। महाकवि कालीदास कुमारसंभव महाकाव्य और रघुवंश महाकाव्य में प्रकृति के सौंदर्य के साथ उसके संरक्षण का भी संदेश देते हैं।जर्नल आफ एडवांस एंड स्कॉलरली इन एलाइड एजुकेशन में विनोद कुमार अपने शोध आलेख कालिदास के महाकाव्यों में प्रकृति संरक्षण का संदेश में अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों की तरफ ध्यान आकर्षित करते हैं। वे लिखते हैं कि कालिदास पौधों के रोपण एवं वृक्षों के संरक्षण के प्रति इतने अधिक आग्रही है कि वे कहते हैं ‘’यदि कोई विष का वृक्ष स्वयं उग आए और बड़ा हो जाये तो उसे भी नहीं काटना चाहिए।‘विषवृक्षोपि संवध्र्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्’, क्योंकि वह प्राणियों को हानि की अपेक्षा लाभ ही अधिक पहुंचाने वाला होगा। माँ पार्वती के द्वारा वृक्ष से स्वयं टूट कर गिरे हुए पत्तों को ही आहार के रूप में ग्रहण करने का वर्णन तो कालिदास के प्रकृति संरक्षण की पराकाष्ठा है।‘’प्राचीन ऋषिवर और महानवेत्ता प्रकृति के दोहन के दुष्परिणामों से अवगत थे। कहते हैं कि सम्राट अशोक ने लाखों वृक्ष लगवाए थे और काटने पर दण्ड का भी प्रावधान किया था। वृक्ष काटने पर दण्ड के प्रावधान तो आज भी हैं, लेकिन फिर भी जंगल के जंगल कट रहे हैं। भावी पीढ़ी के सुखद भविष्य के लिए जलवायु परिवर्तन को लेकर वैश्विक स्तर पर सख्त कानून की जरूरत है। धऱती को आग का गोला बनने की स्टीफन हॉकिंग की चेतावनी पर हँसने की बजाए गंभीरता से लिया जाना चाहिए।भारत ने एक नवंबर 2022 को ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन पर शिखर सम्मेलन में पूरी दुनिया के सामने ’पंचामृत रणनीति’ का प्रस्ताव रखा। पाँच रणनीति में पहली-वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 500 मेगावाट तक करना, दूसरी-अपनी 50 प्रतिशत ऊर्जा ज़रूरतें, रीन्यूएबल एनर्जी से पूरी करना, तीसरी-2030 तक ही कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी करना, चौथी-कार्बन तीव्रता में 30 प्रतिशत तक की कमी करना और पांचवी-2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन हासिल करना शामिल है। नेट जीरो लक्ष्य हासिल करने की यह रणनीति असल में ’क्लाइमेट चेंज’ की जंग है जिसमें शामिल होने की जरूरत आज पूरे विश्व को है। इसके लिए पहला कदम होगा हम सभी को अपनी जीवन शैली में बदलाव करना। इस ’पंचामृत’ को हासिल करना चुनौती जरूर है,. लेकिन इससे पूरी दुनिया को पाँच बड़े लाभ भी होंगे, पूरे विश्व का बढ़ता तापमान थमने लगेगा, पृथ्वी की जीवसृष्टि का तनाव कम होगा, ध्रुवों और हिमालय पर्वत के तेजी से पिघल रहे हिम की समस्या के समाधान के रास्ते निकलेंगे, प्रकृति के साथ खिलवाड़ में कमी आएगी और मनुष्य में श्वसन और हृदय सहित अन्य रोगों की हो रही बढ़ोत्तरी में कमी आएगी। आवश्यकता है प्रकृति से प्रेम को पांचवां मौसम बनाने की और मानवीय गतिविधयों के पैटर्न में बदलाव की।
- --लेखक -डॉ. कमलेश गोगिया, वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद्देवभूमि भारत का छब्बीसवां राज्य छत्तीसगढ़ जहाँ इंद्रधनुषी सांस्कृतिक विविधताएँ और बहुलताएँ तो हैं, लेकिन आंतरिक एकता भी है; जो वास्तव में छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति और उसकी पहचान भी है। इस आंतरिक एकता को समझने के लिए पैनी दृष्टि चाहिए और सूक्ष्म विश्लेषण। यहाँ की आंतरिक एकता हर पाँच साल के विधानसभा चुनाव में ‘साइलेंट किलर’ अथवा दूसरे शब्दों में कहें, ‘मूक बहुमत’ के रूप में जब अभिव्यक्त होती है तो आश्चचयर्जनक परिणाम और परिवर्तन दृष्टिगत होने लगते हैं। तब सारे एक्जिट पोल और पूर्वानुमान की सत्यता पर संदेह के बादल मंडराने तो लगते ही हैं, परिणाम आने पर वे अंततः असत्य प्रमाणित होकर छँटते चले जाते हैं। विधानसभा चुनाव-2023 के परिणाम इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जिसके अप्रत्याशित परिणामों की चर्चा पूरे देश की मीडिया और राजनीति में थी।छत्तीसगढ़ में जनता का मूक बहुमत ही निर्णयकारी होता है, जो तमाम सर्वेक्षण और दावों को पटलकर रख देता है। वास्तव में छत्तीसगढ़ की जनता की नब्ज को समझ पाना इतना आसान भी नहीं है, जितना समझा जाता है। कब जन-समर्थन सारे कयासों और अनुमानों को सिरे से दरकिनार कर दें, कुछ कहा नहीं जा सकता और परिणाम उम्मीदों के विपरीत ही आते हैं। फिर हमें याद आते हैं राष्ट्रकवि दिनकर, जिनकी लोकतंत्र का अलख जगाने वाली रचनाएँ आज भी प्रासंगिक प्रतीत होती हैं। एक बानगी देखिये-हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँवह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।लोकतांत्रिक गणराज्य में जनता की ताकत का अहसास कराती ये पंक्तियाँ भी प्रासंगिक हैं-अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का हैतैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।3 दिसंबर, 2023, रविवार को छत्तीसगढ़ के राजनीतिक सरोवर में उदित होते सूर्य-रश्मियों के स्वर्णिम प्रकाश में कमल की पंखुड़ियाँ खिलकर जनता के फैसले का विजयी-उद्घोष करेंगी, यह कोई नहीं जानता था। इस सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अनेक महानुभवों को सहसा इन परिणामों के पूर्वानुमान पर शत-प्रतिशत भरोसा नहीं था। हाँ, कयास और दावे जरूर थे। यह कोई नहीं जानता था कि जनता ने अपने मन में मतदान के दिन ही कमल की पंखुड़ियाँ खिलाकर रखी हैं और संकेत दे रखा है परिणाम के दिनों तक इंतजार का। इन अप्रत्याशित परिणामों से जाहिर है कि आम जनता, विशेषकर मातृ-शक्ति, युवा वर्ग और आम गरीब-मानस भी देश के प्रधानमंत्री के सूत्र वाक्य- ‘मोदी की गारंटी’ का तहे-दिल से स्वागत कर रहा है। इस सूत्र वाक्य की सार्थकता लोकसभा चुनाव-2024 के पूर्वानुमानों की सशक्त आधारभूमि तैयार कर रही है। भाजपा ने यह चुनाव साइलेंट किलर जनता के रुख को समझते हुए मोदी की गारंटी पर लड़ा और अंतिम समय में विनम्र-भाव के हथियार के साथ एकजुट होकर कड़ा परिश्रम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे में भारत रत्न स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की प्रसिद्ध कविता ‘कदम मिलाकर चलना होगा' की पंक्तियाँ स्मरण हो उठती हैं-उजियारे में, अंधकार में,कल कछार में, बीच धार में,घोर घृणा में, पूत प्यार में,क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,जीवन के शत-शत आकर्षक,अरमानों को ढलना होगा,कदम मिलाकर चलना होगा।इन पंक्तियों का केंद्रीय भाव आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। फिर वह जीवन का सामाजिक, आर्थिक या फिर राजनीतिक क्षेत्र ही क्यों न हो। कोई भी संकट क्यों न आ जाए, हिम्मत न हाकर उसका सामना प्यार से करना चाहिए। आगे वे लिखते हैं -सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,प्रगति चिरंतन कैसा इति अथ,सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,असफल, सफल समान मनोरथ,सब कुछ देकर कुछ न मांगतेपावस बनकर ढलना होगाकदम मिलाकर चलना होगा।राज्य की जनता ने भारतीय जनता पार्टी की सरकार को पाँच साल के विश्राम के बाद पुनः अवसर प्रदान किया है तो उन अऩेक नई उम्मीदों के साथ, जिन्हे पूर्ण करने के वादे घोषणा पत्र में किये गये है। महिला, युवा, गरीब जनता और हर वर्ग को इंतजार है....सभी विजयी प्रत्याशियों को छत्तीसगढ़ आज डॉट-कॉम की हार्दिक शुभकामनाएँ...जय 'जन' जोहार...
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-लघुकथा
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
उदय उस बहुमंजिला इमारत के चौथे माले पर रहता था , भागदौड़ भरी जिंदगी में कसरत , व्यायाम के लिए समय कहाँ. बस वह अपने फ्लैट लिफ्ट से न जाकर सीढ़ियों से जाया करता । चढ़ना - उतरना ही उसका व्यायाम था । सुबह ऑफिस जाते वक्त और शाम को लौटते वक्त तीसरे माले के एक फ्लैट में अक्सर उसे एक बुजुर्ग दिखतीं जो उदय को देखकर मुस्कुरा उठतीं और उदय उन्हें नमस्ते कर लेता , बस इतना ही रिश्ता था उनके बीच - मुस्कान और सलाम का । एक दिन शाम को उदय को वो आंटी जी नहीं दिखी तो उसे कुछ कमी सी महसूस हुई और हाथ - मुँह धोकर वह उनके फ्लैट की घण्टी बजा रहा था । अंकल जी ने दरवाजा खोला - ऑन्टी जी दिखाई नहीं दी आज , उनकी तबीयत तो ठीक है ना " उदय ने कुछ झिझकते हुए पूछा ।" नहीं बेटे रमा की तबीयत ठीक नहीं है , आओ अंदर बैठो । " अंकल ने उसे बड़े स्नेह से भीतर बुलाया । उदय के बराबर उनका बेटा विदेश में रहता था । उनकी पत्नी रमा उदय को देखकर इसलिए खुश हो जाती । उदय का यूँ घर आकर उसके स्वास्थ्य के बारे में पूछना दोनों को भावाभिभूत कर गया था । उदय ने उनसे कहा -"अंकल जी कुछ सामान लाना हो या कोई भी काम हो , आप मुझे बोल दिया कीजिए । आपको बार - बार नीचे उतरने की जरूरत नहीं । " बुजुर्ग दम्पत्ति की आँखें खुशी से भर आईं थीं । रमा जी तो अपनी बीमारी भूलकर उसे खिलाने - पिलाने में व्यस्त हो गई थी । पराये शहर में उदय को परिवार मिल गया था और उन बुजुर्गों को जीने का सहारा । एक प्यारा सा रिश्ता बन गया था उनके बीच जिसने उनके जीवन के खालीपन को स्नेह से भर दिया था । -
-लेखक -डॉ. कमलेश गोगिया, वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद् (प्रोफेसर, मैट्स यूनिवर्सिटी, रायपुर)
क्रिकेट अनिश्चताओं का खेल है ! कौन सा ओवर मैच का पूरा पासा पलट दे या कौन बल्लेबाज या गेंदबाज मैच को निर्णायक मोड़ दे दे…! कुछ भी पहले से कहा नहीं जा सकता। कब उम्मीदों की किरण से अरमानों के पंख रोशन हो जाएँ और कब उम्मीदों पर पानी फिर जाए...कुछ भी निश्चित नहीं होता ! हाँ, निश्चित होती है हार या फिर जीत जो खेल के मैदान में किसी भी खेल की अंतिम परिणति होती है। रोमांच और ग्लैमर से भरे इस खेल में किसी टीम के संकट के क्षणों में हर शख्स को इंतजार रहता है किसी न किसी चमत्कार का! कोई करिश्मा हो जाए तो वह घटना अद्भुत बन जाती है। वर्ल्ड कप-2023 में भारतीय टीम का सपना पूरा नहीं हुआ, लेकिन इस पूरी यात्रा ने अनेक नये इतिहास जरूर रच दिये। हार-जीत का सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण महीनों तक होता रहेगा, लेकिन इससे परे कुछ दूसरे भी पहलू हैं जो काफी अहम प्रतीत होते हैं। जाहिर है यह हार निराशाजनक है और सभी के दिल टूट गये, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत ने हर मैच में जोश, जज्बे और जुनून के साथ लगातार जीत हासिल कर फाइनल में प्रवेश किया था। वास्तव में इस वर्ल्ड कप में भारतीय क्रिकेट टीम दुनिया में सबसे मजबूत टीम बनकर उभरी है। यह उसके फ़ाइनल तक प्रभावी प्रदर्शन से प्रमाणित होता है। इस हार से परे भी अनेक दूसरे महत्वपूर्ण पहलू हैं जिनका विश्लेषण भी आवश्यक जान पड़ता है।
पूरी दुनिया की नजरें वर्ल्ड कप फाइनल पर टिकी रहीं। अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम में मैच शुरू होने के पहले भारतीय वायु सेना की सूर्यकिरण टीम ने आसमान में अद्भुत एयर शो का प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन ने देश-दुनिया को मंत्रमुग्ध कर दिया। भारत में ऐसा पहली बार हुआ जब किसी क्रिकेट मैच और विशेष रूप से वर्ल्ड कप में टॉस के बाद और मैच शुरू होने से पहले इस तरह का अद्भुत प्रदर्शन किया गया हो। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, साल 1996 में सूर्यकिरण एरोबैटिक टीम का गठन किया गया था। ये टीम इंडियन एयर फोर्स के 52वें स्क्वाड्रन का हिस्सा है। इस टीम के विमानों से ही भारतीय वायुसेना अपने फाइटर जेट के पायलटों को युद्धाभ्यास के लिए ट्रेनिंग देती है। विश्व कप-2023 में भारत के खेल प्रेम के साथ युद्ध कौशल का अभ्यास पूरी दुनिया ने देखा। वर्ल्ड कप में इस बात का भी अहसास हुआ कि खेल में अब प्रतिस्पर्धा का स्वरूप बदलता जा रहा है। विराट कोहली का टीम इंडिया की जर्सी पाकिस्तान के कप्तान बाबर को भेंट करना खेल भावना का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
निःसंदेह भारतीय क्रिकेट टीम अपने ही घर में दो बार विश्व कप का खिताब हासिल करने वाली दुनिया की पहली टीम बन सकती थी, लेकिन यह सम्भव न हो सका, लेकिन भारतीय टीम के प्रयासों को कतई कमतर नहीं आंका जा सकता। भारत 1983 और 2011 में दो बार वर्ल्ड कप का खिताब और 2007 का टी-20 का खिताब जीतने वाली विश्व में पहली टीम है। मसलन भारत ने 60 ओवर, 50 ओवर तथा 20 ओवर का वर्ल्ड कप जीता है। यह मुकाम हासिल करना किसी अन्य देश के लिए कभी भी संभव प्रतीत नहीं होता।
भारत को 20 साल बाद आस्ट्रेलिया से 2003 का बदला लेने का अवसर जरूर मिला था, जिस पर टीम इंडिया चूक गई, लेकिन अनेक नये इतिहास भी रचे। इस विश्व कप में भारत बिना कोई मैच हारे, लगातार जीत दर्ज कर फाइनल तक पहुँची। इस विश्व कप में सबसे ज्यादा 40 शतक लगे जो अब तक नहीं लगे थे। सभी टीमों के बल्लेबाजों ने शतक लगाए तो विराट कोहली ने शतकों का अर्धशतक लगाया। 2015 के वर्ल्ड कप में 38 शतक लगे थे। रोहित शर्मा वर्ल्ड कप में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले दुनिया के पहले कप्तान बने। ऐसी बहुत सी बातें हैं जो भारतीय क्रिकेट टीम को सर्वश्रेष्ठ प्रमाणित करती हैं, क्या हमें इन तथ्यों का आंकलन नहीं करना चाहिए ? क्रिकेट पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोता है। कहीं पूजा तो कहीं हवन, मन्नतें...हर शख्स की चाहत होती है भारत विश्व का सिरमौर बने। यह भावना भारत की सांस्कृतिक विविधता में उसकी आधारभूत एकता से परिपूर्ण देवभूमि देश के दर्शन कराती है। इस वर्ल्ड कप में भारतीय टीम पहले मैच से अपनी श्रेष्ठ कोशिशें की बदौलत जीत हासिल करते हुए फाइनल तक पहुँची। फाइनल में भी उसकी कोशिशें जारी रहीं। यह कोशिशें आगे भी जारी रहनी चाहिए। गलतियाँ और कमियाँ सुधारने के लिए विश्लेषण को आवश्यक समझा जाता है, लेकिन यह समय अब तक के प्रदर्शन पर हौसला अफ़ज़ाई का भी है। हिन्दी कविता के अमिट हस्ताक्षर सोहनलाल द्विवेदी जी की यह सुप्रसिद्ध कालजयी रचना स्मरण हो आती है-
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। -
गीत
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
जीवन कौशल सीखा मैंने, खेत और खलिहानों में ।
मोती बनते यहाँ स्वेद-कण, श्रमिकों के अवदानों में ।।
मिट्टी की सोंधी खुशबू है , दिल के भोले - भालों में ।
अहंकार छल दम्भ नहीं है , इनके सरल सवालों में ।
समरसता है मन में इनके , हों अपनों बेगानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।
मान एक - दूजे का करते , मिलजुल कर सब रहते हैं।
आपस में कोई भेद नहीं , सुख - दुख साझा करते हैं ।
बढ़ने वाली चाल न चलते , होड़ नहीं नादानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत औऱ खलिहानों में ।।
गाँव मुझे अब भी प्यारा है , शोभा यहाँ निराली है ।
मन में कोई भी खोट नहीं , जेब भले ही खाली है ।
मन का आँगन बहुत बड़ा है , ममता भरी मचानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।
छोटे - छोटे सपने पलते , इनके निश्छल नैनों में ।
मधुरस का सा स्वाद भरा है , इनके देशज बैनों में ।
संस्कारों को जीते हैं ये , परंपरा के गानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।
--Mobael No.-9424132359 -
-सुआ गीत
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
पढ़ लिख के सुघ्घर आघु हम पढबो, आघु हम बढ़बो न रे सुआ न, भाग जाही हमरो जाग न रे सुआ न भाग जाहि हमरो जाग ।।
तरी हरी नाना मोर ना ना नहरी सुआ न भाग जाही हमरो जाग ।।
इस्कूल जाबो अपन गियान बढाबो , गियान बढाबो ना रे सुआ न । पढबो सुघर सुघ्घर किताब नारे सुआ न पढबो हम अब्बड़ किताब ।
तरी हरी नाना मोर ना नाहरी ना ना रे सुआ ना सिखबो करे बर हिसाब ना रे सुआ ना सिखबो करे बर हिसाब ।।
मेहनत करके अपन किस्मत बनाबो , अपन किस्मत बनाबो
रे सुआ ना समय ल करव झन खराब ना रे सुआ न समय ल करव झन खराब ।
तरी हरी नाना मोर ना नाहरी नाना रे सुआ ना दुनिया ल देबो जवाब ना रे सुआ ना दुनिया ला देबो जवाब ।।
जम्मो बेटी पढही , अउ आघु आघु बढ़ ही ना रे सुआ ना
पढ़ लिख के पाहीं रुआब ना रे सुआ ना पढ़ लिख के पाहीं रुआब ।।
तरी हरी नाना मोर ना नाहरी ना ना रे सुआ ना , कुरीति जाही जम्मो भाग ना रे सुआ ना कुरीति जाही जम्मो भाग ।।
तरी हरी नाना मोर ना नाहरी ना ना रे सुआ ना फूल जाहि खुशी के गुलाब ना रे सुआ हो फूल जाहि सुख के गुलाब ।।
--Mobael No.-9424132359 - - कविता-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)पाए और गँवाए कितने , इस बार दीवाली में ।रूठे मित्र मनाए कितने , इस बार दीवाली में ।।
बरसों जमा कबाड़ निकाला , स्वच्छ कर कोना-कोना ।भाई मतभेद मिटाए कितने , इस बार दीवाली में ।।
सतरंगी लड़ियों से रोशन , झिलमिल महल -चौबारे ।अंतस दीप जलाए कितने , इस बार दीवाली में ।।
द्वेष-बैर को मन में पाला , छुपकर मूल्य कुतर रहे ।मूषक-दंभ भगाए कितने , इस बार दीवाली में ।।
छप्पन भोग लगे लक्ष्मी को , वस्त्राभूषण भी चढ़े ।भूखे अन्न खिलाए कितने , इस बार दीवाली में ।।** - लघुकथा--लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)पिछले कई दिनों से दीपावली की तैयारी में जुटी प्रियल थककर चूर हो गई थी । सफाई है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती और हर बार कुछ न कुछ रह ही जाता है । इस बार प्रियल ने पूरे घर को जगमगाने की तैयारी की थी ...छुट्टियाँ लगने के बाद ही सही तरीके से काम हो पाता है , उसके पहले तो बस छोटे - मोटे काम होते रहते हैं । चलो इसी बहाने फालतू चीजें बाहर निकल जाती हैं और घर साफ - सुथरा लगता है । दीपावली के दिन सुबह से लक्ष्मी जी के पूजन की तैयारियाँ करते- करते प्रियल के हाथ - पैर जवाब देने लगे थे । रात को दिये जलाने के बाद बड़ी हसरत से अपनी नई साड़ी के साथ पहनने के लिए खूब ढूँढ-ढूँढ कर खरीदी गई चूड़ियों और आभूषणों की ओर देख रही थी पर थके हुए शरीर ने बिल्कुल साथ न दिया..और जैसे - तैसे तैयार होकर उसने पूजा की । कोई न कोई कसर रह जाती है हर बार....सारे काम तो हो जाते हैं पर उसका अपना ही कुछ छूट जाता है ..न पार्लर जा पाई... न कहीं और... अच्छे से तैयार होने की साध तो पूरी नहीं कर पाई ...पर अपने चमकते - दमकते आशियाने को देखकर उसने संतोष भरी राहत की साँस ली और दर्द भरी पिंडलियों में मालिश करने लगी ।
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# वास्तव में धनतेरस का उस धन सम्पत्ति से कोई सम्बन्ध नही है,जिसके विज्ञापनों से सारा बाजार ,सारा मीडिया पटा हुआ है. आज ही के दिन आयुर्वेदाचार्य एवं चिकित्सक धन्वन्तरि का हुए थे इन्होंने ही वनस्पतियों से औषधियों निकालने की परिकल्पना को मूर्त रूप दिया था ।इसलिए ही इनके एक हाथ में अमृत कलश और दूसरे हाथ में वनस्पतियों से चिकित्सा याआयुर्वेद की अवधारणा की गई है ।
"धन तेरस का धन से कोई संबंध नहीं है !"धन्वंतरि का जन्म त्रयोदशी के दिन होने के कारण इसे धन तेरस बोला जाता है । पर बढ़ते हुए वैश्विक बाजारीकरण एवं भौतिकतावाद की अंध दौड़ ने इसके रूप को गलत ढंग से प्रेषित किया है । और कुछ लोगों ने एक कदम आगे बढ़ कर इसे तारों ,ग्रहो नक्षत्रों को भी बाजार से जोड़ कर खरीदी, बिक्री के अनुकूल बता दिया .धन्वंतरी ने औषधीय वनस्पतियों के ज्ञाता होने के कारण उन्होंने यह बताया कि समस्त वनस्पतियाँ औषधि के समान हैं उनके गुणों को जान कर उनका सेवन करना व्यक्ति के शरीर के अंदर निरोगिता लाएगा जो स्वस्थ रहने में सहायक है,इसीलिएअमृत भी कहा जा सकता है .प्रकृति से जो औषधीय गुण अनेक वनस्पतियों को प्राप्त हुए हैं ,वह बेमिसाल हैं।धन्वंतरि को वनस्पतियों पर आधारित आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही वनस्पतियों को ढूंढ ढूंढ कर अनेक औषधियों की खोज की थी। बताया जाता है ,इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया ,जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थेसुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे. उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) माने जाते हैं ,धन्वंतरि की स्मृति में ही इस दिन को "राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस" के रूप में भी मनाया जाता है ।याद रहे, उत्तम स्वस्थ्य एवम निरोगीशरीर ही जीवन की अमूल्य पूँजी और धन का प्रतीक है इसलिए आज का दिन धनतेरस के रूप में जाना जाता है ।ध्यान दें धनतेरस का इस प्रकार भौतिक सम्पत्ति, धनराशि, बहुमुल्य सम्पतियों, सोने चाँदी, वाहनों से कोई संबंध नहो है.इस धनतेरस पर सभी नागरिकों के अच्छे स्वास्थ्य,मानसिक एवं शारीरिक समृद्धि की कामना . -
- लेखिका डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
आज माधुरी सुबह से ही रसोई में घुसी हुई थी । नाश्ता , दोपहर का खाना , फिर ढेर सारे पकवान भी तो बनाने थे । आज दीपावली जो है ...आज तो आने - जाने वालों का तांता लगा रहेगा । उसे भूख भी लग आई थी लेकिन वह चुपचाप काम में लगी रही । जानती थी , जरा सी भूल हुई नहीं कि उस पर तानों की बौछार हो जायेगी । माधुरी एक सुंदर सुशिक्षित व मधुर स्वभाव वाली लड़की थी ।
तभी तो साधारण परिवार की होते हुए भी राजीव व उसके पिताजी दोनों को एक ही नजर में भा गई थी । सिर्फ माँ इस विवाह के विरुद्ध थी । वह एक अच्छे खानदान व बड़े घर की बेटी को ही अपनी बहू बनाना चाहती थी, पर राजीव की जिद के आगे उनकी एक न चली । अंततः माधुरी इस घर में दुल्हन बनकर आ ही गई । आते ही उसने घर के सारे काम सँभाल लिए । ऐसा लगता था मानो घर की हर चीज उसकी सृजनशीलता की तारीफ कर रही हो । उसने कभी अपनी सास को भी शिकायत का मौका नहीं दिया ...लेकिन पता नहीं उनके मन में क्या धारणा घर कर गई थी कि वह माधुरी के हर कार्य में गलती निकालती । उसे फटकारने या ताना मारने का कोई मौका वे नहीं छोड़तीं थी । पिताजी व राजीव हमेशा माधुरी का पक्ष लेते , उसे समझाते रहते व उसे खुश रखने का प्रयास करते ताकि वह माँ की बातों से दुखी न हो । राजीव उसे धैर्य रखने को कहता " समय के साथ माँ भी बदल जाएंगी.. उनके स्नेहिल हृदय के द्वार तुम्हारे लिये भी अवश्य ही खुलेंगे"। पति का यह आश्वासन उसे अपने कर्तव्य - पथ पर डटे रहने की प्रेरणा देता और पिता तुल्य ससुर जी का प्रेम सासु माँ की कटुक्तियों पर मलहम की तरह काम करता । वैसे वह महसूस करती कि माँ जी दिल की बुरी नहीं है... उसके प्रति रूखेपन का कारण शायद अपने इकलौते बेटे की शादी में अपनी जिद न चल पाने का मलाल था या बेटे को खोने का भय...जो कभी - कभी ज्वालामुखी के लावे की तरह अचानक फूट पड़ता था । खयालों में खोई माधुरी की तन्द्रा माँ जी की आवाज से टूटी । वह खाना लगाने को कह रही थीं और माधुरी सबको खाना परोसने लगी ।
शाम को जल्दी से तैयार होकर वह पूजा की तैयारी करने लगी । माँ जी भी दीयों में तेल भरने लगीं । रात को पूजा के बाद सभी छत पर टहलने लगे । दीपशिखाओं की रोशनी से सारा शहर जगमगा रहा था । पिताजी और राजीव पटाखे छुड़ाने नीचे चले गए और माँ जी और माधुरी ऊपर से ही उन्हें देखने लगीं । तभी अचानक माधुरी ने देखा कि माँ जी की साड़ी के लटकते हुए पल्लू में आग लग गई है और वे बेखबर रोशनी देखने में मग्न हैं । माधुरी ने एक पल की भी देरी नहीं कि और माँ जी की ओर लपकी । तब तक शायद उन्हें भी इस बात का एहसास हो गया था । वे घबराहट में कुछ सोच भी नहीं पाई थीं कि माधुरी उनके पास पहुँच गई और अपने हाथों से साड़ी में लगी आग को बुझाने लगी । आग तो जल्दी बुझ गयी पर उसका हाथ काफी झुलस गया ।
माँ जी कुछ देर हतप्रभ सी खड़ी रहीं फिर माधुरी के हाथों को पकड़कर फूट - फ़ूटकर रोने लगीं - मैंने तुम्हें हमेशा भला - बुरा कहा । कभी दो मीठे बोल नहीं कहे .....फिर भी तुम मेरी सेवा करती रही और आज मेरे लिए ये तूने क्या कर लिया, अपने हाथ जला लिए । मुझे माफ करना बेटी , आज मुझे मालूम हुआ व्यक्ति का आकलन उसके गुणों , व्यवहार से करना चाहिए न कि धन - दौलत से । मुझे माफ़ कर दो.." ।
माधुरी को लगा उसे सब कुछ मिल गया और वह माँ जी के सीने से लग गई एक दुलारी बेटी की तरह । अब उसे दीपशिखा की ज्योति अति सुहानी लग रही थी क्योंकि उसने उसके मन के उदासी रूपी अँधेरे को हर लिया था और उसके चारों तरफ खुशियाँ जगमगा उठी थीं ....साथ ही ससुराल में मातृप्रेम जो मिल गया था ।
--स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग, छत्तीसगढ़
-Mobael No.-9424132359 - -लेखक -डॉ. कमलेश गोगिया, वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद् (प्रोफेसर, मैट्स यूनिवर्सिटी, रायपुर)-पहले एक कहानी -एक बार एक बाघ के गले में एक हड्डी का टुकड़ा अटक गया। बाघ ने उसे निकालने की बड़ी कोशिश की, परन्तु सफलता नहीं मिली। पीड़ा से भागकर वह इधर-उधर दौड़-भाग करने लगा। किसी भी जानवर को सामने देखते ही वह कहता, ‘’भाई, .यदि तुम मेरे गले में अटका हुआ हड्डी का टुकड़ा बाहर निकाल दो, तो मैं तुम्हें एक विशेष पुरस्कार दूंगा और आजीवन तुम्हारा ऋणि रहूँगा।‘’ परन्तु कोई भी जीव भय के कारण उसकी सहायता करने को राज़ी न होता।पुरस्कार के लोभ में आकर एक बगुला हड्डी के टुकड़े को निकालने के लिए तैयार हो गया। उसने बाघ के मुँह में अपनी लम्बी चोंच डाल दी, और काफ़ी प्रयास करने के बाद आखिरकार उस हड्डी को निकालने में सफल हुआ। बाघ को बड़ी राहत मिली। पर जब बगुले ने पुरस्कार की बात उठाई, तो बाघ ने अपनी आँखें तरेरकर दाँत पीसते हुए कहा, ‘’अरे मूर्ख तूने मेरे मुख में अपनी चोंच डाल दी थी, फिर भी तू अब तक जीवित है। इसी को अपना सौभाग्य मान। तू ऊपर से पुरस्कार माँग रहा है। यदि तुझे अपनी जान प्यारी है, तो तत्काल मेरी आँखों के सामने से दूर हो जा, नहीं तो मैं अभी तेरी गर्दन मरोड़कर रख दूँगा।‘’ यह सुनकर बगुला हक्का-बक्का रह गया और तुरन्त वहाँ से चलता बना। यह कहानी सबक देती है कि दुष्टों के साथ मेलजोल कभी ठीक नहीं रहता और दुष्टों पर कभी भरोसा करना भी उचित नहीं।अब दूसरी कहानी-एक गधा और सियार साथ-साथ शिकार करने जा रहे थे। कुछ दूर जाने पर उन्होंने देखा कि उनके रास्ते के बीचों-बीच एक सिंह बैठा हुआ है। संकट उपस्थित देखकर सियार तत्काल सिंह के निकट पहुँच गया और उससे धीमे स्वर से कहने लगा, ‘’महाराज यदि आप कृपा करके मुझे प्राणदान दें, तो मैं यह गधा आपको सौंप दूंगा।‘’ सिंह राज़ी हो गया। सियार ने बड़ी चालाकी से गधे को सिंह का आहार बना दिया। पर गधे को मारने के बाद सिंह ने सियार को भी मार डाला और अगले दिन का भोजन पूरा किया। इस कहानी से यह प्रेरणा मिलती है कि दूसरों के लिए गड्ढा खोदने वाला खुद भी गड्ढे में गिरता है।ये दोनों कहानियाँ यूनान के महापुरुष ईसप ने सदियों पूर्व रची थीं। देवभूमि भारत में जिस तरह पंचतंत्र और हितोपदेश जैसे ग्रंथ की रचना की गई वैसे ही यूनान में ईसप नामक महापुरुष ने नीतिपरक कथाओं की रचना की थी और ये कथाएँ बीते दो हजार वर्ष से पूरे विश्व में लोकप्रिय हैं। इन कथाओं को ईसप फेबल्ज़ कहा जाता है।इस आलेख में शामिल कहानियाँ ‘ईसप की शिक्षाप्रद कथाएँ’ नामक पुस्तक से ली गई हैं। यह पुस्तक रायपुर के स्वामी विवेकानंद आश्रम के पुस्तकालय में मिली। यह कोलकाता के रामकृष्ण मठ के प्रकाशन केंद्र अद्वैत आश्रम से वर्ष 2018 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का संकलन एवं अनुवाद स्वामी विदेहात्मानंद जीने और स्वामी विमोहानन्द जी व श्रीमती मधु दर ने संपादन किया है। सरल और सहज भाषा में ईसप की कथाओं का आनंद लेने वाली यह कृति मुझे सर्वश्रेष्ठ लगी, बनिस्बद नेट के सर्च इंजन में सिर खपाने के। इस संकलन में 252 कहानियां हैं। इसके प्रकाशक अद्वैत आश्रम के अध्यक्ष स्वमी मुक्तिदानन्द प्रकाशकीय में लिखते हैं, ‘’इस युग के महान सन्त और विचारक श्री विनोबा ने एक बार गीता पर प्रवचन करते हुए कहा था, ‘सृष्टि के प्रति छोटे बच्चों को इतना कौतूहल मालूम होता है, उसी पर तो सारी ईसप-मीति रची गई है।‘ईसप को सर्वत्र ईश्वर दिखाई देते थे। अपनी प्रिय पुस्तकों की सूची में मैं ईसप-नीति का नाम पहले रखूँगा, भूलूँगा नहीं। ईसप के राज्य में केवल दो हाथों वाला तथा दो पाँवों वाला मनुष्य ही नहीं, बल्कि उसमें सियार, कुत्ते, कोए, हिरन, खरगोश, कछुए, साँप, केंचुए-सभी बातचीत करते हैं और हँसते भी हैं।...ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती है।’’ईसप की कथाओं के पात्र मनुष्य से ज्यादा पशु-पक्षी हैं जो नीति और सदाचार की प्रेरणा देते हैं। ईसप ने अनेक कहानियाँ लिखीं जिनके उदाहरण हमें हमारे जीवन में और समाज में दो हजार साल बाद भी देखने को मिलते हैं। उनकी कहानियां जीवन के हर पहलू पर प्रकाश डालकर सदाचार के लिए प्रेरित करती हैं।मोर और बगुला नामक कहानी की बानगी देखिए-एक मोर अपने शानदार पंख फैलाए खड़ा था कि उसके पास से एक बगुला गुजरा। मोर ने अहंकारपूर्वक उस मटमैले पंखों वाले बगुले की निन्दा करते हुए कहा, ‘’मैं तो एक राजा के समान इंद्रधनुष के सारे रंगों से सज़ा हुआ हूँ, जबकि तुम्हारे पंख तो बिलकुल बेरंग हैं।‘’ बगुला बोला, ‘’वह तो ठीक है, पर मैं आकाश की बुलंदियों में उड़ सकता हूँ और अपनी आवाज को सितारों तक पहुँचा देता हूँ, जबकि तुम एक मुर्गे के समान कूड़े के ढेर के इर्द-गिर्द घूमते रहते हो।‘’ यह कहानी रूप की तुलना में गुणवत्ता पर ज्यादा महत्व देने की शिक्षा देती है।अक्सर बिना परिणाम के विचार किये गये कर्म का भुगतान भी करना पड़ता है। दो मेढक की कहानी विचारपूर्वक कर्म करने की शिक्षा इस तरह देती है- एक तालाब में दो मेढक रहा करते थे। एक बार गर्मी के मौसम में वह तालाब सूख गया दोनों मेढक तब एक साथ एक नये घऱ की तलाश में निकल पड़े। रास्ते में वे जल से परिपूर्ण एक गहरे कुएँ के पास से होकर गुजरे। उसे देखकर एक मेढक ने दूसरे से कहा, ‘’क्यों न हम इस कुएँ को ही अपना घर बना लें।’’ इस पर दूसरे मेढक ने अपनी सूझ-बूझ का परिचय देते हुए कहा- ‘’लेकिन मान लो इसका पानी भी कभी सूख जाए, तो हम इतनी गहराई से बाहर कैसे निकलेंगे।‘’अहंकार न करने की सीख देने वाली दीपक और रोशनी नामक कहानी के अनेक प्रसंग समाज में देखने को मिलते हैं। यह कहानी है-तेल से भरे हुए एक जलते हुए दीपक ने डींग हाँकते हुए कहा कि वह सूर्य से भी अधिक प्रकाश देता है। तभी सहसा एक हवा का झोंका आया और चिराग गुल हो गया। उसके मालिक ने उसे दुबारा जलाकर कहा, ज्यादा डींग मत हाँक, बल्कि अब से चुपचाप रोशनी देकर ही संतुष्ट रह। जान ले कि तारों तक को दुबारा जलाने की जरूरत नहीं होती। वस्तुतः थोड़ी सी ही उपलब्धि पर घमण्ड नहीं करना चाहिए। इतिहास गवाह है कि अहंकार से ही रावण का वध हुआ था।वास्तव में प्रेरक कथाएँ जीवन का सही मार्गदर्शन करती हैं। कथाओं की सहायता से समाज को प्रेरणा देते रहने का कार्य महापुरुष, ऋषिगण सदियों से करते रहे हैं। प्राचीन काल से ही लोक-व्यवहार, नीति-सदाचार के तत्वों को कथाओं के माध्यम से समझाया जाता रहा है। आज भी कथाओं का ही सहारा लेकर प्रवचन दिये जाते हैं। वेब-वर्ल्ड के इस आधुनिक युग में अब ऑडियो बुक्स से कथाएँ सुनी जाती हैं। संचार के माध्यम कितने भी पारंपरिक या आधुनिक हो जाएं, कथाएँ सदैव हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनी रहेंगी। आखिर हर व्यक्ति के जीवन की में हर क्षण घट रही घटनाएँ भी तो कथा ही हैं। ईसप की प्रेरणास्पद कहानियों के संग्रह को प्रवाहमयी व सरल भाषा शैली के साथ प्रस्तुत करने के लिए रामकृष्ण मठ के स्वामी मुक्तिदानन्द स्वामी विदेहात्मानंद, स्वामी विमोहानन्द व श्रीमती मधु दर को साधुवाद...।
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लेखिका- डॉ. दीक्षा चौबे*
घर के आँगन-द्वार सजे हैं,
सिंदूरी रंगोली से ।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।।पुरवाई शीतलता लाती,क्लांत-शांत है जग सारा।
शीघ्र पहुँच विश्राम चाहता , दिनकर पथिक थका हारा।
नीड़ों पर हलचल आवाजें, बाट जोहते दाने की ।
प्रातकाल से माँ निकली है, जुगत लगाने खाने की।
मुस्कानें खिलतीं आने पर,
निकले क्या-क्या झोली से।।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।।दिन भर का सब हाल सुनाते,खुली पोटली अनुभव की।
मित्रों से अनबन सुलझ गई, बात तोतली शैशव की ।
सदा अभावों से उलझी माँ, ढकती कमियों की पेटी ।
मात-पिता के हालातों को, समझ रहे बेटा-बेटी ।
सुख का सांध्य-दीप जल जाता,
सबकी हँसी-ठिठोली से।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।।संध्या के परिदृश्य कई हैं,खुशी कहीं पसरा मातम।
कहीं विरह में आँसू बहते,कहीं हो रहा है संगम।
मुश्किल पल में आगे बढ़ते,पलते नैनों में सपने ।
अपना-अपना युद्ध लड़ें सब,संग चले हैं जो अपने ।
सुख की तितली जहाँ थिरकती,
खुशी छलकती बोली से।।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।। -
पुण्यतिथि पर विशेष
साहिर लुधियानवी हिंदी सिनेमा के बड़े नग़्मा-निगारों में से एक थे। जिस समय उनका गीत लेखन के क्षेत्र में आगमन हुआ वह दौर भारी हंगामाखेज था, चारों तरफ तक़्सीम की त्रासदी पसरी हुई थी। इंसानियत को शर्मसार करने की कोई कोर-कसर नहीं बची थी। साथ ही आलमी सतह पर दूसरी जंग-ए-अज़ीम (विश्वयुद्ध) की विभीषिका भी दुनिया के सामने थी। तबाही का ऐसा मंज़र दुनिया ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। उस दौर की त्रासदी, साहिर की ज़ाती पीड़ा यानी ग़म-ए-हयात में पैवस्त होकर उनके गीतों में हमेशा नमूदार होती रही।साहिर ने खुद कहा भी – दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं ।साहिर अकेले ऐसे गीतकार हुए जिनके गीत उस पूरे माशरे की तर्जुमानी करते हैं। साहिर के गीतों में एक इंसान के अंदर की कशमकश, उसके अंदर की आग, बग़ावत और फिर वही मामूली आदमी की बेबसी कहीं न कहीं दिख ही जाती है। हालांकि उस समय कई बडे शायर फ़िल्मी गीत लेखन के क्षेत्र में आए, फ़िल्मों में आने से पहले उनकी शायरी में भी वही कैफ़ियत, जज़्बात की तपिश, तरक़्क़ीपसंदी थी। लेकिन कुछेक मौकों को छोड़कर उनके फ़िल्मी गीतों में वह कैफ़ियत नहीं दिखी जो ताउम्र साहिर के गीतों में रही। कई शायरों को तो सिनेमा की दुनिया रास ही नहीं आई।रूमानियत का रंगफ़िल्मी गीतकारों में साहिर की रूमानियत का रंग औरों से जुदा था। उनके यहां रूमानियत थी – कभी न ठंडी पड़ने वाली मद्धिम आंच की तरह। उनकी रूमानियत के तेवर बग़ावती तो थे ही, उसमें अजीब सी नीम-उदासी, नॉस्टैल्जिया का रंग भी था, साथ ही उसमें कुदरती नीरवता, स्वप्नशीलता और विह्वलता थी। मिसाल के तौर पर साहिर के फ़िल्म धर्मपुत्र (1962) के इस गीत को देखिए :मैं जब भी अकेली होती हूँ तुम चुपके से आ जाते होऔर झाँक के मेरी आँखों में बीते दिन याद दिलाते हो …..उदासी का कैनवाससाहिर के फ़िल्मी गीतों में पसरी उदासी का कैनवास इतना बड़ा है कि ज़ाती उदासी आलमी उदासी में तब्दील होती दिखाई देती है। हिन्दी फ़िल्मों में शायद ही ऐसा रंग किसी और के यहां मिले। फ़िल्मों से इतर यह रंग सबसे ज्यादा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के यहां है। उदासी के ये रंग आप फ़िल्म प्यासा (1957) के गीतों में देख सकते हैं। मसलन- ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं…,जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला…, तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम… ।बोल सरल लेकिन महज तुकबंदी नहींसिचुएशन और कैरेक्टर के हिसाब से इनके गीतों के बोल कहीं सरल हैं लेकिन वहां भी महज तुकबंदी, सपाटबयानी नहीं है। सरलता और मायने दोनों देखना हो तो, बानगी के तौर पर फ़िल्म फिर सुबह होगी (1958) का यह गीत देखिए:दो बूँदे सावन की…इक सागर की सीप में टपके और मोती बन जायेदूजी गंदे जल में गिरकर अपना आप गंवायेकिसको मुजरिम समझे कोई, किसको दोष लगाये
दो कलियां गुलशन कीइक सेहरे के बीच गुँधे और मन ही मन इतरायेएक अर्थी के भेंट चढ़े और धूलि मे मिल जायेकिसको मुजरिम समझे कोई, किसको दोष लगाये
दो सखियाँ बचपन कीइक सिंहासन पर बैठे और रूपमती कहलायेदूजी अपने रूप के कारण गलियों मे बिक जायेकिसको मुजरिम समझे कोई किसको दोष लगाये…इसके अलावा और भी कुछ गीतों को देखिए। इन गीतों के बोल में न सिर्फ देसी लालित्य है बल्कि इनके मा’नी भी काफी गहरे हैं। मिसाल के तौर पर फ़िल्म चित्रलेखा (1964) का गीत –मन रे तू काहे ना धीर धरेवो निर्मोही मोह ना जाने, जिनका मोह करेमन रे …इस जीवन की चढ़ती ढलतीधूप को किसने बांधारंग पे किसने पहरे डालेरूप को किसने बांधाकाहे ये जतन करेमन रे …
उतना ही उपकार समझ कोईजितना साथ निभा देजनम मरण का मेल है सपनाये सपना बिसरा देकोई न संग मरेमन रे …इस गीत के पहले बंद में साहिर जीवन की नश्वरता को कितने आसान अंदाज में बयां करते हैं। यही रंग मिर्ज़ा ग़ालिब के यहां कुछ इस तरह से है – मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यूँ रात भर नहीं आती।फ़िल्म हम दोनों (1961) का गीत- अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम … भी देख सकते हैं।अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नामसबको सन्मति दे भगवान
इस धरती का रूप ना उजड़ेप्यार की ठंडी धूप ना उजड़ेसबको मिले सुख का वरदान….
मांगों का सिन्दूर ना छूटेमाँ बहनों की आस ना टूटेदेह बिना दाता, भटके ना प्राण…
ओ सारे जग के रखवालेनिर्बल को बल देने वालेबलवानों को दे दे ज्ञान ….इस गीत के अंतिम बंद को देखिए जिसमें साहिर कहते हैं – बलवानों को दे दे ज्ञान…। यहां साहिर एक तरह से सर्वसत्तावादी (Totalitarianism) सोच, सत्ता की निरंकुशता पर गांधीवादी तरीके से ही सही प्रश्न उठाते हैं।सियासी सोच का फ़लकसाहिर की अपने माशरे (दौर) पर हमेशा पैनी नजर रही। जब तक एक गीतकार को अपने माशरे की व्यापक समझ नहीं होगी तब तक वह एक साथ अलग अलग सिचुएशन और कैरेक्टर के लिए गीत नहीं लिख सकता। मतलब वह एक सफल गीतकार नहीं हो सकता।उनकी सियासी सोच का फ़लक भी काफी बड़ा था, जिसमें हर तरह के मौज़ूआत शामिल थे। वे घोषित मार्क्सवादी तो थे ही, साथ साथ एक गांधीवादी भी थे। जिसकी सबसे बड़ी मिसाल उनके गीत हैं। फिल्म नया दौर (1957) के गीत को लीजिए, जो पूरी तरह से गांधी की सोच की तर्जुमानी करते हैं। मसलन, साथी हाथ बढाना…, ये देश है वीर जवानों का …।जंग को लेकर जो उनकी सोच रही उस पर भी आप गांधी के असर को देख सकते हैं। उदाहरण के लिए फ़िल्म ताजमहल का उनका लिखा गीत, … ख़ुदा-ए-बर्तर तिरी ज़मीं पर ज़मीं की ख़ातिर ये जंग क्यूँ है …सुनिए।ज़मीं भी तेरी है हम भी तेरे ये मिलकियत का सवाल क्या हैये क़त्ल-ओ-ख़ूँ का रिवाज क्यूँ है ये रस्म-ए-जंग-ओ-जिदाल क्या हैलेकिन ग़ालिब के रंग ‘जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद, फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है’ – में मिलकियत को लेकर जो उनका सवाल है। वह यह दिखाता है कि उन पर मार्क्सवाद का कितना असर था।साहिर एक हद तक आदर्शवादी भी थे। जिसे आप उनकी मानवतावादी सोच से भी जोड़ सकते हैं। उन्हें हिंदोस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की गहरी समझ थी। तभी तो बच्चे की मासूमियत के जरिए फिरकों में बंटी इस दुनिया पर जैसा तंज़ फ़िल्म ‘धूल का फूल’ के गीत …. तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा….में है, शायद ही इसकी कोई दूसरी मिसाल हो। इस गीत के अंतरे यानी बंद को देखिए, किस तरह से मज़हबी सियासत के नापाक मंसूबों को बेनक़ाब करती है।अच्छा है अभी तक तेरा कुछ नाम नहीं हैतुझको किसी मज़हब से कोई काम नहीं हैजिस इल्म ने इंसान को तक़सीम किया हैउस इल्म का तुझ पर कोई इलज़ाम नहीं है………दुख का रंग भी साहिर के यहां यकसां नहीं था। उनके अंदर इंसानी तकलीफ और बेचैनी को पढने का गजब शऊर था। व्यवस्था और समाज के दोहरेपन, विसंगतियों और खोखलेपन पर साहिर ने अपने फ़िल्मी गीतों के जरिए जमकर प्रहार किया, जिसकी सबसे बडी मिसाल उनकी फ़िल्म प्यासा है। कहें तो हर एहसास/मानवीय संवेदना को उन्होंने पढ़ने की, बुनने की भरपूर कोशिश की। इतने बडे/विविध एहसासात को गीतों में उतारने के लिए उनके पास लफ़्ज़ों का ज़ख़ीरा भी था।उनके गीत एक ही साथ क्लास और आम लोग दोनों के बीच लोकप्रिय हुए। जबरदस्त राजनीतिक व सामाजिक चेतना और व्यापक मानवतावादी सोच की वजह से एक तरफ जहां उनकी स्वीकार्यता पढे लिखे मध्यम वर्ग में भी रही। वहीं आम लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता की सबसे बड़ी वजह थी – आम हिंदुस्तानी की ज़िंदगी को लेकर उनकी बडी बारीक समझ। उनके बहुत सारे गीत बहुत सरल भी है और आजतक आम लोगों की ज़बान पर हैं मसलन… तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले …, बाबुल की दुआएं लेती जा…, मेरे दिल में आज क्या है…, अभी न जाओ छोड़कर…, मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया…, चलो इक बार फिर से अजनबी……, वगैरह।प्यासा के बाद उन्होंने सचिन देव बर्मन के साथ कभी काम नहीं किया। प्यासा और नया दौर के बाद शायद ही कोई अन्य क्लासिक फ़िल्म के लिए उन्होंने गीत रचे। अन्य बड़े निर्माता निर्देशकों के साथ भी उनकी इक्का-दुक्का फ़िल्में ही आई। उनकी बहुत सारी फ़िल्में सार्थक थी लेकिन उन्हें ग्रेट क्लासिक फ़िल्मों की कतार में नहीं रखा जा सकता।साहिर ने दो तरह की फ़िल्मों के लिए गीत लिखा। एक तरफ तो गुरुदत्त और बीआर चोपड़ा जैसे निर्माता-निर्देशकों के लिए, जिन्होंने अपनी फ़िल्मों के जरिए हमेशा कोई न कोई सामाजिक संदेश देने की कोशिश की। ऐसी फ़िल्मों में साहिर के शायर होने का रंग उरूज पर दिखा। इन फ़िल्मों में तो यह लगता ही नहीं है कि यह किसी गीतकार की रचना है। शायरी भी यहां आला दर्जे की लगती है। वैसे इन फ़िल्मों में साहिर की कई पुरानी रचनाओं को हूबहू भी ले लिया गया। वहीं दूसरी तरफ साहिर की बहुत सारी फ़िल्में ऐसी भी हैं जिसे आप मसाला या आम फार्मूला वाली फ़िल्में कह सकते हैं लेकिन इन फ़िल्मों में भी साहिर के गीतों की स्तरीयता/मेयार में कोई कमी नहीं आई, चाहे सिचुएशन व कैरेक्टर जैसे भी हों। इन गीतों में भी साहिर मा’नी पैदा कर ही गए हैं। जिससे आप बतौर गीतकार उनकी रेंज/वर्सेटिलिटी का अंदाजा लगा सकते हैं।साहिर की शायरी उनके गीतों से कभी जुदा नहीं हुई और यही सबसे अलग बात थी साहिर लुधियानवी की। साहिर के कई गीत सुनेंगे तो आपको लगेगा कि कैरेक्टर और सिचुएशन के जितने रंग/आयाम हो सकते हैं वहां तक उन्होंने इन गीतों में जाने का प्रयास किया है। फ़िल्म मुझे जीने दो का गीत …तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ ….या फ़िल्म त्रिशूल का गीत…तू मेरे साथ रहेगा मुन्ने …सुनिए ।तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ (फ़िल्म मुझे जीने दो)और दुआ देके परेशान सी हो जाती हूँ ।
मेरे मुन्ने मेरे गुलज़ार के नन्हे पौधेतुझको हालात की आंधी से बचाने के लियेआज मैं प्यार के आंचल में छुपा लेती हूँकल ये कमज़ोर सहारा भी न हासिल होगाकल तुझे कांटों भरी राहों पे चलना होगाज़िंदगानी की कड़ी धूप में जलना होगातेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ |तेरे माथे पे शराफत की कोई मोहर नहींचंद बोसें हैं मुहब्बत के, सो भी क्या हैंमुझ सी माओं की मुहब्बत का कोई मोल नहींमेरे मासूम फ़रिश्ते तू अभी क्या जानेतुझको किस किसके गुनाहों की सजा मिलनी हैदीन और धर्म के मारे हुए इंसानों कीजो नज़र मिलनी है तुझको वो खफा मिलनी हैतेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँऔर दुआ देके परेशान सी हो जाती हूँ | …….________________________________तू मेरे साथ रहेगा मुन्ने! (फिल्म त्रिशूल)ताकि तू जान सकेतुझको परवान चढ़ाने के लिएकितनी संगीन मराहिल से तेरी माँ गुज़रीतू मेरे साथ रहेगा मुन्ने !
ताकि तू देख सकेकितने पाँव मेरी ममता के कलेजे पे पड़ेकितने ख़ंजर मेरी आँखों, मेरे कानों में गड़ेतू मेरे साथ रहेगा मुन्ने !
मैं तुझे रहम के साये में न पलने दूँगीजिन्दगानी की कड़ी धूप में जलने दूँगीताकि तप- तप के तू फ़ौलाद बनेमाँ की औलाद बनेतू मेरे साथ रहेगा मुन्ने
जब तलक होगा तेरा साथ निभाऊँगी मैंफिर चली जाऊँगी उस पार के सन्नाटे मेंऔर तारों से तुझे झाँकूँगीज़ख़्म सीने में लिए फूल निगाहों में लिएतेरा कोई भी नहीं मेरे सिवामेरा कोई भी नहीं तेरे सिवातू मेरे साथ रहेगा मुन्ने ! ……………अपने गीतों में साहिर ने एक औरत के एहसास, दास्तां को जितनी बारीकी से बुना किसी और दूसरे गीतकार ने नहीं। ऐसे सिचुएशन और भी फ़िल्मों में आए लेकिन इस तरह के गीत आपको नहीं मिलेंगे। कभी कभी लगता है साहिर अपने हर गीत में सोच और जज़्बात की तपिश से खेलना चाहते थे। वे अपने गीतों में कैरेक्टर और सिचुएशन को कितनी बारीकी से बुनते थे। इसका अंदाज़ा आप उनके ऐसे ही गीतों से लगा सकते हैं। - -अद्भुत आदित्य की अद्भुत बातें-2-लेखक -डॉ. कमलेश गोगिया, वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद् (प्रोफेसर, मैट्स यूनिवर्सिटी, रायपुर)बचपन में मैग्नीफाइंग ग्लास (आवर्धक लैंस) पर सूर्य की बिखरी रोशनी को एक जगह केंद्रित कर कागज पर आग लगाने का खेल खूब खेल करते थे। लेकिन इसके छिपी आगे बढ़ने की प्रेरणा का संकेत बाद में समझ आया। सूर्य की रोशनी की तरह बिखरे हमारे विचारों को भी किसी एक लक्ष्य पर केंद्रित करने से सफलता मिलना तय है। अब बात करते हैं सूर्य के अलौकिक पक्ष की।हममें से अधिकांशतः ने बालीवुड की बेहतरीन माने जाने वाली फिल्म थ्री इडियट (2009) देखी है जिसके अनेक दृश्य रोमांचकारी हैं। इस फिल्म में डिलीवरी का सीन भी सबसे ज्यादा संवेदनशील है। एक बच्चे को जन्म देने की पूरी प्रक्रिया के बीच वह दृश्य याद कीजिए जब जन्म के बाद नाभि से जुड़े गर्भनाल को क्लीप लगाकर नवजात शिशु के शरीर के पास से काट दिया जाता है। गर्भनाल का एक सिरा गर्भाशय से जुड़ा होता है और दूसरा शिशु की नाभि से। हम सब जन्म के पूर्व गर्भ में नाभि के माध्यम से ही ईश्वरस्वरूपा माँ से जुड़े थे और अपने शरीर के विकास के लिए नाभि से ही सारी वस्तुएँ प्राप्त की थीं।पका हुआ आहार माता के रक्त के माध्यम से निरंतर प्राप्त कर अपनी विकास यात्रा प्रारंभ की थी। नौ माह की पूरी अवधि में सारी जरूरतो की पूर्ति नाभि मार्ग से ही की थी। जन्म के बाद नाल काटकर सम्बन्ध विच्छेद किया गया और फिर नाभि की भूमिका और उपयोगिता यहाँ समाप्त मान ली गई। विज्ञान में नाभि को लगभग महत्वहीन ही समझा गया है, लेकिन अध्यात्म के दृष्टिकोण से देखें तो इसका महत्व पूरे शरीर में है। वेदों में और भारतीय योगशास्त्र में इसका विशेष महत्व है।पौराणिक आख्यानों में भगवान विष्णु की नाभि से कमल के उत्पन्न होने वाले चित्र सिर्फ अध्यात्मिक नहीं, इसके पीछे विज्ञान भी छिपा है। एक आध्यात्मिक विज्ञान में प्रेमयोगी वज्र लिखते हैं कि सृष्टि रचना पुराणों में शरीर रचना के माध्यम से समझाई गई है। माँ को आप विष्णु मान सकते हो। उसका शरीर एक शेषनाग की तरह ही केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के रूप में है, जो मेरुदंड में स्थित है। वह नाग हमेशा ही सेरेब्रोस्पाइनल फ्लुइड रूपक समुद्र में डूबा रहता है। उस नाग में जो कुंडलिनी या माँ की संवेदनाएं चलती हैं, वे ही भगवान विष्णु का स्वरूप है, क्योंकि शक्ति और शक्तिमान भगवान में तत्वतः कोई अंतर नहीं। गर्भावस्था के दौरान जो नाभि क्षेत्र में माँ का पेट बाहर से उभरा होता है, वही भगवान विष्णु की नाभि से कमल का प्रकट होना है। विकसित गर्भाशय को भी माँ के शरीर की नसें-नाड़ियाँ माँ के नाभी क्षेत्र के आसपास से ही प्रविष्ट होती हैं। खिले हुए कमल की पंखुड़ियों की तरह ही गर्भाशय में प्लेसेंटोमस और कोटीलीडनस उऩ नसों के रूप में स्थित कमल की डंडी से जुड़े होते हैं। वे संरचनाएं फिर इसी तरह शिशु की नाभि से कमल की डंडी जैसी नेवल कोर्ड से जुड़ी होती हैं। ये संरचनाएं शिशु को पोषण उपलब्ध कराती हैं। शिशु ही ब्रह्मा है, जो उस खिले हुए कमल पर विकसित होता है।योगशास्त्र में नाभि को सूर्य चक्र कहा गया है। वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रणेता पं. श्रीराम शर्मा आचार्य अध्यात्म -मर्मज्ञों के हवाले से लिखते हैं, सबसे पहले मानवीय प्राण नाभि केन्द्र से स्पन्दित होकर ह्रदय से टकराता है। ह्रदय और फेफड़ों में रक्त शोधन करके सारे शरीर में संचार करने में सहायता करता है। नाभि के पीछे स्थित सूर्यचक्र (सोलर प्लक्सेज) वह केन्द्र बिन्दु है जहाँ से सारी प्रमुख धाराएँ विभिन्न अंगों में जाती है। एक प्रकार से इसे जंकशन स्टेशन की उपमा दी जा सकती है जहाँ से अनेक रेलवे लाइन विभिन्न दिशाओं में जाती हैं। सारे शरीर की स्फूर्ति इसी केन्द्र की सशक्तता पर निर्भर करती है। साधारणतया यह महत्वपूर्ण केन्द्र प्रायः लुप्त अवस्था में पड़ा रहता है। अतः इसकी शक्ति का न तो कुछ ज्ञान होता है और न इससे कुछ लाभ ही उठा पाते हैं। (30 वर्ष पूर्व-1997, अखण्ड ज्योति)आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रवि शंकर अपनी कृति सच्चे साधक के लिए एक अंतरंग वार्ता (नित्यदिन के ज्ञानसूत्र) में लिखते हैं कि सूर्य चक्र अत्यंत प्रभावशाली है- केन्द्रीय स्नायु प्रणाली, नेत्र तंतुओं व उदर पर। होने वाली घटना के संबंध में सजग करने की अनुभूति भी सूर्य-चक्र द्वारा प्रभावित है। सूर्य चक्र शरीर का दूसरा मस्तिष्क भी कहलाता है। सूर्य चक्र के संकुचित होने पर दुख और उदासीनता आ जाती है, मन नकारात्मक भावों से भर जाता है। सूर्य चक्र के विस्तृत होने पर आध्यात्मिक चेतना जागृत होती है, मन स्वच्छ और केन्द्रित होता है।यह सारी गथा लिखने का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि नाभि एक सक्रिय केंद्र है जिसे सूर्यचक्र कहा गया है और धरती पर जीवन का आधार भी सूर्य है। पृथ्वी और चंद्रमा का अपना कोई प्रकाश नहीं है, वे सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशवान हैं। विज्ञान ने सूर्य के भौतिक स्वरूप से सम्पर्क कर प्रकाश, ऊर्जा से लेकर काल-ज्ञान तक प्राप्त किया लेकिन हमारा भारतीय दर्शन यह मानता है कि इसके आध्यात्मिक सम्पर्क कहीं ज्यादा सशक्त होने के साथ ही रहस्यमय भी है। भारतीय योगशास्त्रो में सूर्य का ध्यान करने का महत्व इसिलए प्रतिपादित किया जाता रहा है। सूर्य तो हर व्यक्ति के भीतर नाभि में बसा है, जरूरत उसे उदय करने की है। सूर्य के वैज्ञानिक और आध्यात्मिक पक्ष के अनेक प्रसंग हैं और हर प्रसंग अलौलिकताओं व संभावनाओं से भरा हुआ है।