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रायपुर। शारदीय नवरात्र की आज से शुरुआत हो चुकी है। नौ दिनों तक चलने वाले इस पर्व में मां शक्ति की आराधना की जाती है। प्रथम दिन कलश स्थापना के साथ ही दुर्गासप्तमी और गीता का भी पाठ किया जाता है। पहले दिन मां शक्ति के शैलपुत्री स्वरूप की विधि विधान से पूजा की जाती है।
मां शैलपुत्री को पर्वतराज हिमालय की पुत्री माना जाता है। इनका वाहन वृषभ है इसलिए इनको वृषारूढ़ा और उमा के नाम से भी जाना जाता है। देवी सती ने जब पुनर्जन्म ग्रहण किया तो इसी रूप प्रकट हुईं इसीलिए देवी के पहले स्वरूप के तौर पर माता शैलपुत्री की पूजा होती है। मां शैलपुत्री की उत्पत्ति शैल से हुई है और मां ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और उनके बाएं हाथ में कमल शोभायमान है। उन्हें माता के सती के रूप में भी पूजा जाता है। नवरात्र के पहले दिन शुभ मुहूर्त देखकर कन्या एवं धनु लग्न में अथवा अभिजिन्मुहूर्त में कलश स्थापना की जाती है। पुराणों में कलश को भगवान गणेश का स्वरूप बताया गया है इसलिए कलश की स्थापना के साथ दुर्गा का आह्वान किया जाता है। इसलिए कलश की स्थापना पहले ही दिन कर दी जाती है। इसके बाद अन्य देवी-देवताओं के साथ माता शैलपुत्री की पूजा होती है। मान्यता है कि मां शैलपुत्री को सफेद वस्तु अतिप्रिय हैं इसलिए नवरात्रि के पहले दिन मां को सफेद वस्त्र और सफेद फूल चढ़ाया जाता है।
रायपुर के ज्योतिषाचार्य डॉ. दत्तात्रेय होस्केरे के अनुसार मां शैलपुत्री की कृपा पाने के लिए घी और उससे बने मीठे पदार्थों का भोग लगाना चाहिए। आज के दिन सफेद वस्त्र पहनना चाहिए। वास्तु दोष को शांत करने के लिए भी मां शैलपुत्री की आराधना करें। इसके साथ ही पूर्व दिशा में यदि कोई वास्तु दोष को तो वह माता शैलपुत्री की आराधना से दूर होता है। इसके लिए पूर्व दिशा में जल का छिड़काव करके माता के किसी भी मंत्र का जाप करना चाहिए। मांगलिक कन्याएं यदि माता की पूजा करें तो मंगल ग्रह की शांति होती है।
माना जाता है कि मां शैलपुत्री की आराधना से मनोवांछित फल और कन्याओं को उत्तम वर की प्राप्ति होती है। मां के इस पहले स्वरूप को जीवन में स्थिरता और दृढ़ता का प्रतीक माना जाता है। शैल का अर्थ होता है पत्थर और पत्थर को दृढ़ता की प्रतीक माना जाता है। महिलाओं को इनकी पूजा से विशेष फल की प्राप्ति होती है। नवरात्र में प्रतिदिन एक अथवा एक-एक वृद्धि से अथवा प्रतिदिन दुगुनी-तिगुनी के वृद्धिक्रम से अथवा प्रत्येक दिन नौ कुंवारी कन्याओं के पूजन का विधान है। इस संबंध में कुलाचार के हिसाब से भी पूजन कर सकते हैं, कुलाचार के आधार पर षष्ठी से नवमी तक कुंवारी पूजन के दिन निर्धारित है। -
मंजूषा शर्मा
रायपुर। छत्तीसगढ़ में मां शक्ति के प्राचीन मंदिरों की एक लंबी श्रंृखला है। शारदीय और चैत्र नवरात्र पर इन मंदिरों में भक्तों का तांता लगा रहता है। इस दौरान इन मंदिरों को आकर्षक रूप से संवारा जाता है। मां शक्ति की कृपा पाने और उनके दर्शनों के लिए दूर- दूर से लोग पहुंचते हैं।
इन्हीं प्राचीन मंदिरों में से एक हैं मां चंद्रहासिनी देवी मंदिर, जो राजधानी रायपुर से करीब 221 किमी की दूर जांजगीर-चाम्पा जिले के डभरा तहसील में चंद्रपुर में स्थित है। मांड नदी, लात नदी और महानदी के त्रिवेणी संगम पर स्थित होने के कारण इस मंदिर की महत्ता और बढ़ गई है। इस मंदिर को भक्तगण मां शक्ति के 52 सिद्ध शक्तिपीठों में से एक मानते हैं। चंंद्रमा की आकृति जैसा मुख होने के कारण इसकी प्रसिद्धि चंद्रहासिनी और चंद्रसेनी मां के रूप में हुई है। प्राचीन ग्रंथों में संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि मां सती का वामकपोल (वामगण्ड) महानदी के पास स्थित पहाड़ी में गिरा, जो बाराही मां चंद्रहासिनी का मंदिर बना और मां की नथनी नदी के बीच टापू में गिरी, जिससे मां नाथलदाई के नाम से मंदिर बना।
मंदिर परिसर में लगातार विस्तार हो रहा है। परिसर में अब आकर्षक रूप से पौराणिक और धार्मिक कथाओं की झाकियां, समुद्र मंथन, महाबलशाली पवन पुत्र, कृष्ण लीला, चीरहरण, महिषासुर वध, नवग्रह की मूर्तियां, शेष शै्यया, सर्वधर्म सभा, चारों धाम की झांकियां तथा अन्य देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियां स्थापित की गई हैं, जो इस मंदिर की शोभा में चार चांद लगा रही है। भक्तों की सुविधा के लिए मंदिर तक पहुंचने के लिए छोटी- छोटी सीढ़ी बनाई गई हैं। वैसे तो यहां पर साल भर भक्तों का आना होता है, लेकिन नवरात्र के मौके पर यहां पर बड़ी संख्या में भक्त माता के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। दूसरे राज्यों से भी लोग मां चंद्रहासिनी के दर्शनों के लिए आते हैं। पूरा मंदिर परिसर माता के जयकारों और भजनों से गूंजता रहता है। भक्त माता के दरबार में नारियल,अगरबत्ती, फूलमाला भेंटकर पूजा-अर्चना करते हैं और अपनी मनोकामना पूरी करते हैं।
नवरात्र में लोग अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए यहां पर ज्योतिकलश प्रज्जवलित करते हैं। इस बार यहां पर करीब 14 हजार मनोकामना ज्योति कलश स्थापित किए गए हैं। चंद्रहासिनी मंदिर के कुछ दूर आगे महानदी के बीच मां नाथलदाई का मंदिर स्थित है जो रायगढ़ जिले की सीमा अंतर्गत आता है। मान्यता है कि मां चंद्रहासिनी के दर्शन के बाद माता नाथलदाई के दर्शन भी जरूरी है। मां नाथलदाई को मां चंद्रहासिनी की छोटी बहन माना जाता है।
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रायपुर। इस साल शारदीय नवरात्रि 29 सितंबर से शुरू हो रही है। 7 अक्टूबर तक चलने वाले मां आदिशक्ति की आराधना का यह पर्व पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है। इस नौ दिनों के दौरान जगह-जगह पंडालों में विभिन्न स्वरूपों में देवी प्रतिमाएं स्थापित कर भक्त गण विधि विधान से माता रानी की पूजा अर्चना करते हैं।
इस दौरान बड़ी संख्या में लोग व्रत और उपवास रखते हैं। कोई शक्ति की पूजा पूरे 9 दिन का व्रत रखता है करता है, तो कोई उपवास रखता है। कुछ लोग प्रथमा, पंचमी और अष्टमी का व्रत रखते हैं। कुछ लोग एक वक्त का खाना खाना खाकर व्रत रखते हैं, तो कोई केवल फलाहारी और लेकर व्रत पूरा करते हैं। कुछ लोग इन नौ दिनों में नमक का सेवन भी नहीं करते हैं और केवल तरल पदार्थों लेते हैं।
त्यौहारों के दिन व्रत- उपवास रखने की परंपरा भारत में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। लोग इसे धर्म और आस्था का पर्याय मानते हैं, लेकिन अब विज्ञान ने भी साबित कर दिखाया है कि व्रत रखना फायदेमंद भी होता है। भारत में ज्यादातर लोगों का भोजन अनाज ही होता है। डॉक्टर थोड़ा- थोड़ा करके दिन में चार बार खाने की सलाह देते हैं। वहीं प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार इंसान केवल एक वक्त का भोजन करके भी स्वस्थ रह सकता है, लेकिन इस दौरान उसे अपने भोजन में पोषक तत्वों और कैलोरीज का भी ध्यान रखना चाहिए। वैज्ञानिकों का मानना है कि संयमित भोजन के साथ व्रत या उपवास रखने से आपका वजन भी कम होता है, बल्कि पाचन तंत्र भी दुरुस्त रहता है। यही नहीं दिमाग भी बेहतर तरीके से काम करता है।
शोध से यह बात भी सच साबित हुई है कि उपवास शरीर के शुगर को कंट्रोल करता है। खासतौर पर यह बात उन लोगों पर साबित होती है, जिन्हें डायबीटीज होने का खतरा है या फिर उनका ब्लड शुगर बार्डर पर है। उपवास रखने से इंसुलिन रेजिस्टेंस कम होता है, लेकिन इस दौरान खान-पान में संयम भी बरतने की सलाह दी जाती है, जैसे कि अधिक कैलोरी वाला भोजन, या फिर ज्यादा शक्कर का इस्तेमाल। वैज्ञानिक हफ्ते में कम से कम एक दिन उपवास रखने की सलाह देते हैं। इसका कारण यह है कि ऐसा करने से दिल भी सेहतमंद होता है। इससे शरीर में खराब कोलेस्ट्राल की मात्रा कम हो जाती है। इसके अलावा खून में मौजूद ट्राईग्लिसराइड्स भी 25 प्रतिशत तक कम हो जाते हैं।
शोध से यह बात साबित हो चुकी है कि उपवास रखने से इंसान की उम्र बढ़ती है। शरीर और त्वचा पर बढ़ती उम्र के निशान भी कम होने लगते हैं।
कितने तरह के होते हैं व्रत या उपवास
1. पानी -इस दौरान केवल पानी का सेवन किया जाता है।
2. जूस- कुछ समय के लिए सिर्फ फलों या सब्जियों का जूस पीकर ही व्रत रखा जाता है।
3. इंटरमिटेंट फास्टिंग- कुछ देर या कुछ दिन के लिए खाने के बीच कम से 12 से 16 घंटे का अंतराल रखा जाता है।
4. आंशिक उपवास- इसमें खाने-पीने की कुछ चीजें, प्रोसेस्ड फूड, ऐनिमल प्रॉडक्ट्स, कैफीन आदि का सेवन नहीं करते।
5. कैलरी कंट्रोल- हर दिन कुछ हफ्तों तक कैलरी पर स्ट्रिक्ट कंट्रोल रखा जाता है।
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सामान्य धारणा यह है कि जिनकी मृत्यु हो जाती है वह पितर बन जाते हैं। शास्त्रों में मनुष्यों पर तीन प्रकार के ऋण कहे गये हैं -देव ऋण, ऋषि ऋण एवम पितृ ऋण। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितरों की तृप्ति के लिए उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करके पितृ ऋण को उतारा जाता है। श्राद्ध में तर्पण, ब्राह्मण भोजन एवं दान का विधान है।
शास्त्रों में श्राद्ध पक्ष में दान की महिमा के बारे में बताया गया है। इन दिनों क्या दान करना चाहिए और क्यों? इस बारे में हमारे पौराणिक ग्रंथों में विस्तार से उल्लेख मिलता है। वैसे, इन दिनों अनाज का दान करना शुभ माना गया है।
अनाज में गेहूं, चावल का दान गरीबों को किया जाता है। इसके पीछे मंशा यह रहती है कि कोई भी व्यक्ति इन दिनों में भूखा न रहे। नमक का दान भी कर सकते हैं। इससे पितर जल्द प्रसन्न होते हैं। इन दिनों में नमक का दान करना बेहद उपयुक्त माना गया है। तिल का दान भी श्रेष्ठ माना गया है। विशेष तौर पर काले तिल का दान करने से नकारात्मक शक्तियों का साया और संकट, विपदाओं से निजात मिलती है। यदि व्यक्ति को किसी तरह की आर्थिक समस्या नहीं है तो वह सोने-चांदी का भी दान जरूरतमंद लोगों को कर सकता है। सोने का दान करने से घर में कलह-क्लेश नहीं आता है। वहीं, चांदी का दान करने से पितरों का आशीर्वाद मिलता है।
शास्त्रों में कहा गया है कि गुड़, घी, भूमि का दान भी किया जा सकता है। गुड़ का दान करने से दरिद्रता का नाश होता है। घी का दान करना शुभ माना गया है। भूमि दान करने से आर्थिक रूप से संपन्नता आती है। इन सभी में गौ दान का सबसे ज्यादा पुण्यदायक माना गया है।
इस लोक में मनुष्यों द्वारा दिए गये हव्य -कव्य पदार्थ पितरों को कैसे मिलते हैं यह विचारणीय प्रश्न है। जो लोग यहां मृत्यु को प्राप्त होते हैं वायु शरीर प्राप्त करके कुछ जो पुण्यात्मा होते हैं स्वर्ग में जाते हैं, कुछ अपने पापों का दंड भोगने नरक में जाते हैं तथा कुछ जीव अपने कर्मानुसार स्वर्ग तथा नर्क में सुखों या दुखों के भोगकी अवधि पूर्ण करके नया शरीर पा कर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं। शास्त्रों के अनुसार जब तक पितर श्राद्धकर्ता पुरुष की तीन पीढिय़ों तक रहते हैं (पिता, पितामह, प्रपितामह) तब तक उन्हें स्वर्ग और नर्क में भी भूख प्यास, सर्दी, गर्मी का अनुभव होता है पर कर्म न कर सकने के कारण वे अपनी भूख -प्यास आदि स्वयं मिटा सकने में असमर्थ रहते हैं। इसीलिए श्रृष्टि के आदि काल से ही पितरों के निमित्त श्राद्ध का विधान हुआ। देव लोक और पितृ लोक में स्थित पितर तो श्राद्ध काल में अपने सूक्ष्म शरीर से श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मणों के शरीर में स्थित हो कर श्राद्ध का सूक्ष्म भाग ग्रहण करते हैं तथा अपने लोक में वापिस चले जाते हैं। श्राद्ध काल में यम, प्रेत तथा पितरों को श्राद्ध भाग ग्रहण करने के लिए वायु रूप में पृथ्वी लोक में जाने की अनुमति देते हैं, पर जो पितर किसी योनी में जन्म ले चुके हैं उनका भाग सार रूप से अग्निष्वात, सोमप, आज्यप, बहिर्पद , रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक्, नान्दीमुख नौ दिव्य पितर जो नित्य एवम सर्वज्ञ हैं, ग्रहण करते हैं तथा जीव जिस शरीर में होता है वहां उसी के अनुकूल भोग प्राप्ति करा कर उन्हें तृप्त करते हैं। मनुष्य मृत्यु के बाद अपने कर्म से जिस भी योनि में जाता है उसे श्राद्ध अन्न उसी योनि के आहार के रूप में प्राप्त होता है। श्राद्ध में पितरों के नाम, गोत्र, मंत्र और स्वधा शब्द का उच्चारण ही प्रापक हैं जो उन तक सूक्ष्म रूप से हव्य कव्य पहुंचाते हैं। स्वधा को पितरों की पत्नी का दर्जा मिला हुआ है, जो प्रजापिता दक्ष की कन्या थीं।
शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध में जो अन्न पृथ्वी पर गिरता है उस से पिशाच योनि में स्थित पितर, स्नान से भीगे वस्त्रों से गिरने वाले जल से वृक्ष योनि में स्थित पितर, पृथ्वी पर गिरने वाले जल व गंध से देव योनि में स्थित पितर, ब्राह्मण के आचमन के जल से पशु, कृमि व कीट योनि में स्थित पितर, अन्न व पिंड से मनुष्य योनि में स्थित पितर तृप्त होते हैं।
गरूड़ पुराण से यह जानकारी मिलती है कि मृत्यु के पश्चात मृतक व्यक्ति की आत्मा प्रेत रूप में यमलोक की यात्रा शुरू करती है। शास्त्रों में बताया गया है कि चन्द्रमा के ऊपर एक अन्य लोक है जो पितर लोक कहलाता है। शास्त्रों में पितरों को देवताओं के समान पूजनीय बताया गया है। पितरों के दो रूप बताये गये हैं देव पितर और मनुष्य पितर। देव पितर का काम न्याय करना है। यह मनुष्य एवं अन्य जीवों के कर्मो के अनुसार उनका न्याय करते हैं।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि वह पितरों में अर्यमा नामक पितर हैं। यह कहकर श्री कृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि पितर भी वही हैं। पितरों की पूजा करने से भगवान विष्णु की ही पूजा होती है। विष्णु पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी के पृष्ठ भाग यानी पीठ से पितर उत्पन्न हुए। पितरों के उत्पन्न होने के बाद ब्रह्मा जी ने उस शरीर को त्याग दिया, जिससे पितर उत्पन्न हुए थे। -
रायपुर। भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कहते हैं, क्योंकि यह दिन भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिवस माना जाता है। श्रीकृष्ण के बारे में कहा जाता है कि उनकी 16 हजार रानियां थीं। इस संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं।
पौराणिक कथाओं के मुताबिक सबसे पहले कृष्ण ने रुक्मिणी का हरण कर उनसे विवाह किया था। बताया जाता है कि एक दिन अर्जुन को साथ लेकर भगवान कृष्ण वन विहार के लिए निकले। जिस वन में वे विहार कर रहे थे वहां पर सूर्य पुत्री कालिंदी, श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने की कामना से तप कर रही थी। कालिंदी की मनोकामना पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण ने उसके साथ विवाह कर लिया। फिर एक दिन श्रीकृष्ण उÓजयिनी की राजकुमारी मित्रबिन्दा को स्वयंवर से वर लाए। उसके बाद श्री कृष्ण ने कौशल के राजा नग्नजित के सात बैलों को एक साथ नाथ कर उनकी कन्या सत्या से विवाह किया। उसके बाद उन्होंने कैकेय की राजकुमारी भद्रा से विवाह हुआ। भद्रदेश की राजकुमारी लक्ष्मणा भी कृष्ण को चाहती थी, लेकिन उनका परिवार कृष्ण से विवाह के लिए राजी नहीं था तब लक्ष्मणा को श्रीकृष्ण अकेले ही हरकर ले आए। इस तरह कृष्ण की आठ पत्नियां हुईं- रुक्मिणी, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा। इन 8 पटरानियों अष्टा भार्या कहा जाता था। इनसे श्रीकृष्ण के 80 पुत्र हुए हैं।
1. श्रीकृष्ण-रुक्मिणी के पुत्रों के नाम- प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरुगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू।
2.जाम्बवती-कृष्ण के पुत्रों के नाम- साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ और क्रतु।
&.सत्यभामा-कृष्ण के पुत्रों के नाम- भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।
4.कालिंदी-कृष्ण के पुत्रों के नाम- श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक।
5.मित्रविन्दा-श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम- वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महांस, पावन, वह्नि और क्षुधि।
6.लक्ष्मणा-श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम- प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊध्र्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित।
7.सत्या-श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम- वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगुप्त, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुंति।
8.भद्रा-श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम- संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।
किसतरह हुई श्रीकृष्ण की 16 हजार रानियां
पौराणिक कथाओं के मुताबिक एक दिन देवराज इंद्र ने भगवान कृष्ण को बताया कि प्रागÓयोतिषपुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। इंद्र की प्रार्थना स्वीकार कर के श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को साथ लेकर गरुड़ पर सवार हो प्रागÓयोतिषपुर पहुंचे। वहां पहुंचकर भगवान कृष्ण ने सत्यभामा की सहायता से सबसे पहले मुर दैत्य सहित मुर के छह पुत्र- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण का संहार किया। दैत्य के वध हो जाने का समाचार सुन भौमासुर अपने सेनापतियों और दैत्यों की सेना को साथ लेकर युद्ध के लिए निकला। भौमासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया और घोर युद्ध के बाद अंत में कृष्ण ने सत्यभामा की सहायता से उसका वध कर डाला। इस तरह भौमासुर को मारकर श्रीकृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर उसे प्रागÓयोतिष का राजा बनाया। भौमासुर के द्वारा हरण कर लाई गईं 16 हजार कन्याओं को श्रीकृष्ण ने मुक्त कर दिया। ये सभी अपहृत नारियां थीं या फिर भय के कारण उपहार में दी गई थीं अन्यथा किसी और माध्यम से उस कारागार में लाई गई थीं। सामाजिक मान्यताओं के चलते भौमासुर द्वारा बंधक बनकर रखी गई इन नारियों को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं था, तब अंत में श्रीकृष्ण ने सभी को आश्रय दिया और उन सभी कन्याओं ने श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। इस तरह से श्रीकृष्ण की 16 हजार रानियां हुईं। -
रायपुर। 15 अगस्त को श्रावण मास की पूर्णिमा है, यानी रक्षा बंधन का त्यौहार। बहनें अपने भाइयों की सलामती और उनकी लंबी उम्र की कामना के साथ उन्हें रक्षा सूत्र बांधेंगी। अच्छी चौघडिय़ा सुबह 05 बजकर 50 मिनट से सुबह 07 बजकर 28 मिनट तक है यानि ये राखी बांधने का अच्छा मुहूर्त है। इसके बाद राखी बांधने का शुभ मुहूर्त सुबह 10 बजकर10 मिनट से रात 8 बजकर 10 मिनट तक है।
इधर, राजधानी रायपुर के बाजारों में राखी खरीददारी के कारण काफी रौनक रही। सुबह से ही गोलबाजार और मालवीय रोड की दुकानों में महिलाओं की जबरदस्त भीड़ देखने को मिली। बाजार में जगह-जगह स्टॉल लगाए गए हैं, जहां रंगबिरंगी राखियां बिक रही हैं। इस बार डोरियां राखी और झूमर वाले लूंबा की मांग ज्यादा है। इसके अलावा मेहंदी लगाने वालों की दुकानों में भी बड़ी संख्या में महिलाएं दिखाई दीं। डिजाइन के हिसाब से मेहंदी लगाने की कीमत वसूली जा रही है। इस बार राखी के अलावा मेहंदी की कीमतों में भी अच्छा खासा इजाफा हुआ है।
सावन पूर्णिमा से ही श्रवण नक्षत्र की शुरुआत होगी। 15 अगस्त को गुरुवार का दिन होने से इसका महत्व और बढ़ गया है। माना जाता है कि इस दिन गंगापूजन, शिव पूजन और विष्णुपूजन करने से आयु, आरोग्य विद्या सहित हर मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इसलिए इस बार रक्षा बंधन के त्यौहार का महत्व और बढ़ गया है। सावन पूर्णिमा के दिन ही श्रवण नक्षत्र की शुरुआत होती है। इस बार रक्षाबंधन पर भद्राकाल भी नहीं पड़ रहा है और न ही किसी प्रकार का ग्रहण है। इसी कारण इस बार रक्षाबंधन शुभ संयोग लेकर आया है। इसे सौभाग्यशाली भी माना जा रहा है।
पूर्णिमा और राखी बांधने का मुहूर्त
सावन पूर्णिमा 14 अगस्त की रात 9 बजकर 15 मिनट पर शुरू होगी। वहीं इसका समापन 15 अगस्त को रात 11 बजकर 29 मिनट पर होगा। अच्छी चौघडिय़ा सुबह 05 बजकर 50 मिनट से सुबह 07 बजकर 28 मिनट तक है यानि ये राखी बांधने का अच्छा मुहूर्त है। इसके बाद राखी बांधने का शुभ मुहूर्त सुबह 10 बजकर10 मिनट से रात 8 बजकर 10 मिनट तक है।
राहुकाल पर रखें ध्यान
ज्योतिष शास्त्री के अनुसार राहुकाल दोपहर 02 बजकर 02 मिनट से शुरू होकर दोपहर 03 बजकर 43 मिनट तक रहेगा। इस अवधि के दौरान आपको राखी नहीं बांधनी चाहिए। राहुकाल में किसी भी तरह का शुभ कार्य करना वर्जित माना गया है। अगर आपने भाई को राखी राहुकाल शुरू होने से ठीक 1 मिनट पहले भी बांध दी है तो आप आगे की क्रिया को जारी रखें इससे किसी तरह का कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन राहुकाल शुरू होने के बाद राखी ना बांधें।