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- राजस्थान का प्रमुख शहर बीकानेर, सुनहरी रेत के टीलों, ऊँटों और वीर राजपूत राजाओं के साथ रेगिस्तान के गहरे रोमांस की मिसाल है। राजस्थान राज्य के उत्तर पश्चिमी भाग में यह शहर थार रेगिस्तान के बीच में स्थित है। यह राठौर राजकुमार, राव बीकाजी द्वारा वर्ष 1488 में स्थापित किया गया था। यह शहर अपनी समृद्ध राजपूत, संस्कृति स्वादिष्ट भुजिया नमकीन रंगीन त्योहारों, भव्य महलों, सुंदर मूर्तियों और विशाल रेत के पत्थर के बने किलों के लिए प्रसिद्ध है। यह शहर 'बीकाजी' और 'हल्दीराम' जैसे विश्व प्रसिद्ध वैश्विक ब्रांडों का उद्गम स्थल रहा है।मुख्य भोजन ऐसा जिससे मुंह में पानी आ जाये। बीकानेर विशाल भुजिया उद्योग का उद्गम स्थल रहा है, जो कि 1877 में राजा ड़ूगर सिंह के शासनकाल में शुरू किया गया। बीकानेर में भुजिया सबसे पहले ड़ूगरशाही के नाम से शुरू की गई जो कि राजा के मेहमानों के नाश्ते के तहत निर्मित की गई। उसके बाद से यह सबकी पसंद बनता चला गया। बीकानेरी भुजिया बेसन, मसाले, कीट दाल, वनस्पति तेल, नमक, लाल मिर्च, काली मिर्च, इलायची, और लौंग के साथ तैयार की जाती है।बड़े मिठाई और नमकीन कंपनियों में से एक, 'हल्दीराम के' भुजिया सेव ब्रांड वर्ष 1937 में गंगा भीसेन अग्रवाल द्वारा स्थापित किया गया था। दुनिया भर में पहचान बना चुके हल्दीराम के भुजिया की खास बात इसका कुरकुरा और स्वादिष्ट होना है। गंगाजी को उनकी मां और लोग प्यार से हल्दीराम कहते थे। यही कारण है कि इस प्रोडक्ट का नाम हल्दीराम रखा गया। गंगाजी ने भुजिया की रेसिपी अपनी एक आंटी से सीखी थी। एक बार उन्होंने बीकानेर में एक फैमिली के स्टॉल पर यह भुजिया रेसिपी ट्राय की, जिसे लोगों ने काफी पसंद किया।हल्दीराम की बनाई भुजिया जब लोगों को पसंद आई तो उन्होंने इसे बड़े स्तर पर शुरू करने की योजना बनाई। उन्होंने एक दुकान खोली, जिसमें यह भुजिया बेचना शुरू किया। यह भुजिया आम तौर पर मिलने वाली भुजिया से पतली और चटपटी थी इसलिए यह जल्द ही लोगों के बीच लोकप्रिय हो गई। हल्दीराम ने इस भुजिया का नाम पहले तो बीकानेर के राजा डूंगर सिंह के नाम पर डूंगर सेव रखा। कुछ ही समय में उनकी यह भुजिया ब्रैंड के रूप में स्थापित हो गई।बीकानेर में तो हल्दीराम की भुजिया के चर्चे जोर शोर से होने लगे थे। इस कारोबार को आगे ले जाने का किस्सा भी मजेदार है। दरअसल हल्दीराम अपने एक रिश्तेदार की शादी में शरीक होने कोलकाता गए थे। तब उन्हें आइडिया आया कि क्यों ना यहां भी भुजिया की एक दुकान खोली जाए। बस, इस आइडिया के साथ उन्होंने वहां एक दुकान खोली और वह चल निकली। हालांकि हल्दीराम की पहली पीढ़ी उनके इस कारोबार का ज्यादा विस्तार नहीं कर सकी, लेकिन उनकी दूसरी पीढ़ी यानी की उनके पोतों ने इस कारोबार को और विस्तार दिया और 1970 में नागपुर और 1982 में दिल्ली तक ले गए। अब तो कंपनी के 30 से अधिक नमकीन प्रोडक्ट्स मौजूदा समय में बाजार में हैं। इनमें सबसे मशहूर है आलू भुजिया।
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बीजिंग। चांद पर चीन के तीसरे यान का उतरना उसके बढ़ते महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष कार्यक्रम का हिस्सा है जिसमें मंगल पर रोबोट, पुन: इस्तेमाल होने वाले अंतरिक्ष यान का विकास और चांद की सतह पर मानव भेजने की उसकी योजना शामिल है। इसी कड़ी में 1970 के दशक के बाद ‘चांगए 5' मिशन चंद्रमा की चट्टानों के अंश पृथ्वी पर वापस लाने का पहला प्रयास है। चीन की अंतरिक्ष एजेंसी ने घोषणा की है कि ‘चांगए 5' ने बुधवार को चंद्रमा की सतह से नमूने एकत्र किए जो मंगलवार को चांद पर उतरा। अंतरिक्ष अन्वेषण चीन की सत्तारूढ़ कम्यूनिस्ट पार्टी के लिए एक राजनीतिक उपलब्धि है जो चीन की आर्थिक वृद्धि के अनुरूप वैश्विक प्रभाव चाहती है। चीन इस मामले में अमेरिका तथा रूस से एक पीढ़ी पीछे है, लेकिन इसका खुफिया और सैन्य कार्यक्रम तेजी से आगे बढ़ रहा है। यह विशिष्ट अभियानों को अंजाम दे रहा है। अगर यह सफल रहा तो बीजिंग इससे अंतरिक्ष क्षेत्र में अग्रणी बन जाएगा। अंतरिक्ष क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि चांद पर चीन के तीसरे यान का उतरना उसके बढ़ते महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष कार्यक्रम का हिस्सा है जिसमें मंगल पर रोबोट, पुन: इस्तेमाल होने वाले अंतरिक्ष यान का विकास और चांद की सतह पर मानव भेजने की उसकी योजना शामिल है।
- विश्व में कई ऐसे देश हैं जिनके कानून के बारे में जानकर आप हैरान हो जाएंगे।- शराब, सिगरेट, तंबाकू, पान मसाला आदि चीजों पर प्रतिबंध के बारे में आपने अक्सर सुना होगा, लेकिन क्या आपने च्युइंग गम पर रोक के बारे में कभी सुना है? बता दें कि सिंगापुर में साल 2004 से ही च्युइंग गम पर रोक है। इस कानून के पीछे सरकार की दलील है कि साफ-सफाई रखने में दिक्कत आती है। इतना ही नहीं, इस देश में आप बाहर से भी च्युइंग गम नहीं ला सकते हैं। अगर आपके पास च्युइंग गम होगा तो इसे हवाई अड्डे पर ही आपसे ले लिया जाएगा।- पूर्वी अफ्रीका में बुरुंडी एक ऐसा देश है जहां आप जॉगिंग नहीं कर सकते हैं। स्वास्थ्य के लिए जॉगिंग करना भले ही लाभदायक है, लेकिन आप इस देश में इसे नहीं कर सकते हैं। दरअसल साल 2014 में यहां के राष्ट्रपति ने जॉगिंग पर रोक लगा दी। इस अजीबोगरीब कानून के पीछे उन्होंने दलील दी कि लोग असमाजिक गतिविधियों के लिए जॉगिंग की मदद लेते हैं।-इंग्लैंड में कानून है कि यहां संसद में किसी की मौत नहीं हो सकती। 2007 में इसे यूके का सबसे बेतुका कानून करार दिया गया था। लोगों ने कहा था कि इस कानून का कोई आधार नहीं है। हालांकि ये भी कहा गया था कि इस कानून के बारे में कहीं लिखित व्याख्या नहीं है।-बच्चे भले ही आपके हों, लेकिन आप उनके नाम अपनी मर्जी से नहीं रख सकते हैं। इसके लिए सरकार तय करेगी कि आप क्या नाम रखेंगे? यह अजूबा कानून डेनमार्क में है। डेनमार्क में आप अपने बच्चे का नाम मर्जी से नहीं रख सकते हैं। इसके लिए सरकार की तरफ से 7 हजार नामों की एक सूची दी जाएगी जिनमें से एक नाम आपको चुनना होगा। आपको अपने बच्चे का पहला नाम इस तरह रखना होगा कि जिससे उसके लिंग का पता चले। अगर आप अपने पसंद से कोई नाम रखना चाहते हैं जो सूची में नहीं है तो आपको चर्च और सरकार से मंजूरी लेनी पड़ेगी।- उत्तरी कोरिया के तानाशाह किम जोंग की तानाशाही से तो आप वाकिफ ही होंगे। किम जोंग अपने देश में अजीबोगरीब कानून बनाने के लिए भी मशहूर हैं। बता दें कि उत्तर कोरिया में नीले रंग की जींस पर रोक है। पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव से बचाने के लिए उत्तरी कोरिया में इसे प्रतिबंधित किया गया है।
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भारत और म्यांमार की सीमा के पास एक झील है, जिसे 'लेक ऑफ नो रिटर्न' के नाम से जाना जाता है। यह झील कुछ रहस्यमय घटनाओं के कारण पूरी दुनिया में कुख्यात है। ऐसा कहा जाता है कि इस झील के पास आज तक जो भी गया, वो कभी लौट कर नहीं आ सका।
यह रहस्यमय झील अरुणाचल प्रदेश में स्थित है। कहते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिकी विमान के पायलटों ने यहां पर समतल जमीन समझकर आपातकालीन लैंडिंग करा दी थी, लेकिन उसके बाद वो जहाज पायलटों सहित बेहद ही रहस्यमय तरीके से गायब हो गया था। बाद में इसी क्षेत्र में काम करने वाले अमेरिकी सैनिकों को झील और गायब होने वाले जहाज और पायलटों का पता लगाने के लिए भेजा गया, लेकिन वो भी वहां से वापस नहीं लौट सके। इस झील से जुड़ी एक और कहानी भी खूब प्रचलित है, जिसके अनुसार द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापानी सैनिक वापस लौट रहे थे, लेकिन वो रास्ता भटक गये। वो जैसे ही झील के पास पहुंचे, वहां मौजूद रेत में धंस गए और वो भी अन्य घटनाओं की तरह रहस्यमय तरीके से गायब हो गए। यहां अक्सर लोग घूमने के लिए आते रहते हैं, लेकिन झील के अंदर जाने की हिम्मत कोई भी नहीं कर पाता है। कहते हैं कि इस झील के रहस्य का पता लगाने की काफी कोशिश की गई, लेकिन अब तक नाकामी ही हाथ लगी है। - कुत्ते और बिल्ली बीमार होने पर घास खाते हैं। कई जीव ऐसे ही अपना प्राकृतिक इलाज करते हैं।चिंपाजी जब विषाणुओं के संक्रमण से बीमार होते हैं या फिर उन्हें डायरिया या मलेरिया होता है तो वे एक खास पौधे तक जाते हैं। चिंपाजियों का पीछा कर वैज्ञानिक आसपिलिया नाम के पौधे तक पहुंचे । इसकी खुरदुरी पत्तियां चिंपाजियों का पेट साफ करती हैं। आसपिलिया की मदद से परजीवी जल्द शरीर से बाहर निकल जाते हैं। संक्रमण भी कम होने लगता है। तंजानिया के लोग भी इस पौधे का दवा के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।काला प्लम विटेक्स डोनियाना, बंदर बड़े चाव से खाते हैं। ये सांप के जहर से लड़ता है। येलो फीवर और मासिक धर्म की दवाएं बनाने के लिए इंसान भी इसका इस्तेमाल करता है। मेमना बड़ी भेड़ों को चरते हुए देखता है और काफी कुछ सीखता है। कीड़़े की शिकायत होने पर भेड़ ऐसे पौधे चरती है जिनमें टैननिन की मात्रा बहुत ज्यादा हो। तबियत ठीक होने के बाद भेड़ फिर से सामान्य घास चरने लगती है।फ्रूट फ्लाई कही जाने वाली बहुत ही छोटी मक्खियां परजीवी से लडऩे के लिए सड़ते फलों का सहारा लेती हैं। फलों के खराब पर उनमें अल्कोहल बनता है। फ्रूट फ्लाई ऐसे फलों में अंडे देती हैं ताकि विषाणु और परजीवियों खुद मर जाएं। विषाणु के चलते बीमार होने पर गीजू ऐसे पौधे खाता है जिनमें एल्कोलॉयड बहुत ज्यादा हो।मोनार्क तितली अंडे देने के लिए मिल्कवीड पौधे का इस्तेमाल करती है। इसके फूल में बहुत ज्यादा कार्डेनोलिडेन होता है, जो तितली के दुश्मनों के लिए जहरीला होता है। मधुमक्खियां प्रोपोलिस बनाती हैं। ये शहद और प्राकृतिक मोम का मिश्रण है। यह बैक्टीरिया, विषाणु और संक्रमण से बचाता है. शहद का इस्तेमाल इंसान, बंदर, भालू और चिडिय़ा भी करते हैं।मेक्सिको की गोरैया घोंसला बनाने के लिए सिगरेट के ठुड्डों का सहारा लेने लगी है। रिसर्चरों के मुताबिक सिग्रेट बट्स में काफी निकोटिन होता है जो परजीवियों से बचाता है, लेकिन इसके नुकसान भी हैं। बिल्ली और कुत्ते प्राकृतिक रूप से शुद्ध शाकाहारी नहीं हैं, लेकिन बीमार पडऩे पर दोनों खास किस्म की घास खाते हैं। घास खाने के उनका पेट गड़बड़ा जाता है और बीमार कर रही चीज उल्टी या दस्त के साथ बाहर आ जाती है।कुआला पेड़ पौधे और छाल खाता है, लेकिन बीमार होने पर वो खाने के तुरंत बाद मिट्टी खाता है। मिट्टी खुराक के अम्लीय और क्षारीय गुणों को फीका कर देती है।कापुचिन बंदरों के पास इंसान की तरह मच्छरदानी नहीं होती, लेकिन मच्छरों से बचने के लिए वो अपने शरीर पर खास गंध वाला पेस्ट रगड़ते हैं। गंध से परजीवी दूर भागते हैं। कनखजूरा खुद को एक खास तरह के जहर में लपेट लेता है। वैज्ञानिकों को लगता है जीव जंतुओं ने लाखों साल के विकास क्रम में अपनी रक्षा के लिए कई जानकारियां जुटाई और भावी पीढ़ी को दीं।----
- कागज तराश, चीन की एक पारंपरिक कला है। कागज़ कटिंग का दूसरा नाम है ख जी( कागज तराश), जो चीन की हान जाति की सब से पुरानी लोक कलाओं में से एक है। लाल कागज़ व दूसरे रंग के कागज़ को कैंची व चाकू से भांति भांति के बेलबूटे और तस्वीरें काटी जाती हैं। चीन में इस कला का इतिहास कोई दो हज़ार से अधिक वर्ष पुराना है और चीनी लोक कलाओं में व्यापक लोकप्रिय कला कृति है। कागज कटिंग एक जालीदार कलाकृति है, जो दृष्टि में लोगों को परिप्रेक्ष्य का अनुभव और कलात्मक उपभोग दे सकती है। लोग कागज, सोने व चांदी की पन्नी, पत्ते छिलका, कपड़ा, चमड़ा व मानव निर्मित चमड़ा आदि सपाट सामग्रियों पर कागज कटिंग करते हैं।कागज़ कटिंग चीन में व्यापक प्रचलित परम्परागत सजावट की लोक कलाओं में से एक है। सुलभ सामग्री, कम खर्च, फौरी प्रभाव और व्यापक इस्तेमाल से इस कला का व्यापक स्वागत किया जाता है। कागज कटिंग की कृति आम तौर पर ग्रामीण महिलाएं फ़ुरसत के समय बनाती हैं, जो व्यवहारिक उपयोग की चीज़ के रूप में इस्तेमाल की जा सकती है और साथ ही जीवन को अलंकृत भी किया जा सकती है। देश के विभिन्न स्थलों में कागज कटिंग देखने को मिलती है, विभिन्न स्थलों की भिन्न भिन्न स्टाइल पर भिन्न भिन्न शाखाएं भी पैदा हुई हैं। कागज कटिंग में सौंदर्य बोध के बारे में लोगों की रुचि-पसंद और राष्ट्र का सामाजिक मनोभाव प्रतिबिंबित होता है। वह सब से स्पष्ट राष्ट्रीय विशेषता रखने वाली कलाओं में से एक है, क्योंकि वह न केवल खूबसूरत और उत्कृष्ट है, साथ ही पूर्व की विशेष मोहन शक्ति भी संजोए रखती है, जिससे लोगों को जीवन में खुशहाली और प्रसन्नता और उल्लास का माहौल भी महसूस होता है।
- मशरूम को खाने में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन इसकी कुछ प्रजातियां ही खाने के लायक होती हैं। कई मशरूम जहरीले होते हैं। प्रकृति में तरह-तरह के मशरूम मिलते हैं, कई खूबसूरत होते हैं, तो कई डरावने और बदसूरत, बदबूदार.... देखिए कुछ सबसे सुंदर और सबसे भयानक मशरूम।- ऑक्टोपस जैसे दिखने वाला मशरूम ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और मलय द्वीपसमूहों पर पाया जाता है। जर्मनी में पहली बार 1934 में ऐसा मशरूम मिला था। यह जहरीला नहीं है। इसकी चिपचिपी परत को हटाकर इसे खाया जा सकता है, लेकिन यह उम्मीद मत करिए कि इसका स्वाद बढिय़ा होगा।- बदबूदार ऑक्टोपस जैसा दिखने वाले इस मशरूम को आप शैतान की ऊंगलियां कह सकते हैं। बाकी सभी मशरूमों की तरह यह भी ना तो पेड़ है और ना ही प्राणी। विज्ञान कुकुरमुत्तों को एक अलग ही श्रेणी में रखता है। इससे ना सिर्फ सड़े हुए मीट की बदबू आती है, बल्कि यह दिखता भी वैसा ही है। बहुत सी मक्खियां और कीड़े इसकी तरफ खिंचे चले आते हैं।- जिलेरिया पॉलीमोर्फा मशरूम को मरे हुए व्यक्ति की उंगलियों के नाम से भी जाना जाता है। यह मशरूम आम तौर पर किसी मृत पेड़ पर उगता है । बाहर से इसका रंग गहरा काला या फिर काली रंगत वाला भूरा हो सकता है, लेकिन अंदर से यह सफेद और रेशेदार होता है । यह बिल्कुल मरे हुए आदमी की ऊंगलियां लगती हैं ।- हाइडनेलम पेकी नाम का मशरूम खूनी दांत जैसा दिखते है। जब यह मशरूम बड़ा होता है तो इसके अंदर से खून जैसा लाल रंग का द्रव निकलता रहता है । इसीलिए इसे "खूनी दांत" या फिर "शैतान का दांत" भी कहा जाता है । इस पर छोटे- छोटे कांटे भी होते हैं । इसी वजह से इसे खाया नहीं जा सकता ।-शैतान का दांत कहे जाने वाले ये मशरूम मध्य यूरोप में खूब मिलते हैं। इसकी 15 प्रजातियां हैं । मशरूमों में इसे दुर्लभ माना जाता है । इसलिए इनका संरक्षण होना चाहिए । इस मशरूम के साथ कुछ और भी मशरूम पाए जाते हैं जैसे कि "सूअर के कान" कहे जाने वाले मशरूम ।- सूअर के कान जैसा दिखने वाला मशरूम का नाम गोम्फस ग्वासेटस है, लेकिन यह दिखता बिल्कुल सूअर के कान जैसा है । इसे जर्मनी में 1998 में "मशरूम ऑफ द ईयर" चुना गया था । इसका स्वाद भी बहुत अच्छा है । शाकाहारी लोग भी इसे बिना चिंता आराम से खा सकते हैं । -- सियाथस स्ट्रेटस मशरूम को आम बोलचाल में चिडिय़ा के घोंसले वाले मशरूम कहा जाता है । ये मशरूम दुनिया भर में पाए जाते हैं, लेकिन ये सिर्फ देखने में ही अच्छे लग रहे हैं । इनका स्वाद अच्छा नहीं है.-नकाबपोश महिला- यह मशरूम भी बदबूदार मशरूमों की श्रेणी में गिना जाता है । आकार को देखते हुए कुछ लोग इसे पर्दे वाली महिला कहते हैं । इसका वैज्ञानिक नाम फेलस इंडस्ट्रियाटस है । चीनी खाने में इसका इस्तेमाल होता है । इसमें काफी मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और फाइबर होता है ।- मस्तिष्क कहें या आंत- पको मस्तिष्क या फिर आंतों की बनावट की याद दिलाता है, लेकिन इसके कई आकार हो सकते हैं । मांस जैसा इसका रंग कभी कभी रेड वाइन जैसा भी दिख सकता है ।आप इसे खा सकते हैं, अगर खाना चाहें तो...- जुड़वा बच्चे- इस मशरूम को देखकर ऐसा लगता है कि गर्भ में भ्रूण अपने विकास के शुरुआती चरण में हैं और दो भ्रूण आपस में एक दूसरे से चिपके हुए हों । निश्चित तौर पर आप इसे खा नहीं सकते।- हेरिसियम एरिनासेयुस नाम का मशरूम अपने बाल जैसे रेशों की वजह से ध्यान खींचता ह। आम बोलचाल में कुछ लोग इसे शेर के बाल कहते हैं तो कुछ बंदर का सिर । एशिया में यह मशरूम खाया जाता है । चीनी पारंपरिक दवाओं में भी इसका इस्तेमाल होता है, लेकिन इसे दुर्लभ मशरूम प्रजातियों में गिना जाता है ।
- कानपुर के राजकीय पॉलिटेक्निक के छात्रों ने एक ऐसी आटा चक्की बनाई है, जिसे साइकिल की तरह चलाने पर गेहूं पिस जाएगा। इससे दो फायदे होंगे, एक तो कसरत हो जाएगी दूसरी बिजली भी बचेगी। यह मॉडर्न वर्क आउट एंड ग्राइंडिंग मशीन छात्र अमन शर्मा, प्रियंका शर्मा, शौर्य वर्मा, मो. हुसैन और अनिल कुशवाहा ने बनाई है। इस मशीन में एक साइकिल के फ्रेम का उपयोग किया गया है। फ्रेम की साफ्ट (रॉड) में सर्कुलर स्टोन (दो) फिट किया गया है। इस स्टोन को बेल्ट के माध्यम से मोटर से जोड़ दिया है। जब आप साइकिल के फ्रेम में बैठकर पैडल चलाएंगे तो स्टोन भी घूमेगा। इन स्टोन के बीच में जब गेहूं पहुंचता तो वह पिस जाता है।
- दुनियाभर में सांपों की 2500-3000 के करीब प्रजातियां पाई जाती हैं। हालांकि इनमें से कुछ ही सांप जहरीले होते हैं और कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो पलभर में किसी को भी मौत की नींद सुला सकते हैं। दरअसल, सांप के मुंह में विष की थैली होती है, जिससे जुडे़ दांत तेज और खोखले होते हैं। ऐसे में वो जब भी किसी को काटते हैं तो उनका विष उस व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाता है। क्या आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि सांपों की जीभ आगे से दो हिस्सों में क्यों बंटी हुई होती है? इसके पीछे एक पौराणिक कहानी बताई जाती है, जो हैरान कर देती है।सांपों की जीभ दो भागों में कटी हुई होने के पीछे एक गहरा रहस्य छुपा हुआ है, जिसका उल्लेख महाभारत में मिलता है। महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखी गई महाभारत में सांपों की जीभ से जुड़ी एक बहुत ही रोचक कथा है। महाभारत के अनुसार, महर्षि कश्यप की 13 पत्नियां थीं। इनमें से कद्रू भी एक थी। सभी नाग कद्रू की ही संतान हैं। वहीं, महर्षि कश्यप की एक अन्य पत्नी का नाम विनता था, जिनके पुत्र पक्षीराज गरुड़ हैं। एक बार महर्षि कश्यप की दोनों पत्नियों कद्रू और विनता ने एक सफेद घोड़ा देखा। उसे देखकर कद्रू ने कहा कि इस घोड़े की पूंछ काली है और विनता ने कहा कि नहीं सफेद है। इस बात पर दोनों में शर्त लग गई। तब कद्रू ने अपने नाग पुत्रों से कहा कि वो अपना आकार छोटा करके घोड़े की पूंछ से लिपट जाएं, ताकि घोड़े की पूंछ काली नजर आए और वह शर्त जीत जाएं। उस समय कुछ नाग पुत्रों ने ऐसा करने से मना कर दिया। तब कद्रू ने अपने पुत्रों को ही शाप दे दिया कि तुम राजा जनमेजय के यज्ञ में भस्म हो जाओगे। शाप की बात सुनकर सभी नाग पुत्र अपनी माता के कहेनुसार उस सफेद घोड़े की पूंछ से लिपट गए, जिससे उस घोड़े की पूंछ काली दिखाई देने लगी। शर्त हारने के कारण विनता कद्रू की दासी बन गईं। जब विनता के पुत्र गरुड़ को ये बात पता चली कि उनकी मां दासी बन गई है तो उन्होंने कद्रू और उनके नाग पुत्रों से पूछा कि तुम्हें मैं ऐसी कौन सी वस्तु लाकर दूं, जिससे कि मेरी माता तुम्हारे दासत्व से मुक्त हो जाएं। तब नाग पुत्रों ने कहा कि तुम हमें स्वर्ग से अमृत लाकर दोगे तो तुम्हारी माता हमारी माता के दासत्व से मुक्त हो जाएंगी।नागपुत्रों के कहेनुसार गरुड़ स्वर्ग से अमृत कलश ले आए और उसे कुशा (एक प्रकार की धारदार घास) पर रख दिया। उन्होंने सभी नागों से कहा कि अमृत पीने से पहले सभी स्नान करके आएं। गरुड़ के कहने पर सभी नाग स्नान करने चले गए, लेकिन इसी बीच देवराज इंद्र वहां आ गए और अमृत कलश लेकर पुन: स्वर्ग चले गए। जब सभी नाग स्नान करके आए तो उन्होंने देखा कि कुशा पर अमृत कलश नहीं है। इसके बाद सांपों ने उस घास को ही चाटना शुरू कर दिया, जिस पर अमृत कलश रखा था। उन्हें लगा कि इस जगह पर अमृत का थोड़ा अंश जरूर गिरा होगा। ऐसा करने से उन्हें अमृत ही प्राप्ति तो नहीं हुई, लेकिन घास की वजह ही उनकी जीभ के दो टुकड़े हो गए।
- बाघ की सबसे लंबी पैदल-यात्रा'वॉकर' ने भारत में अब तक दर्ज 'एक बाघ द्वारा सबसे लंबी पैदल-यात्रा' पूरी कर ली है। अब इस बाघ ने महाराष्ट्र के ज्ञानगंगा अभयारण्य को अपना घर बना लिया है। वॉकर को वन्य-जीव अधिकारियों ने यह नाम दिया है। साढ़े तीन साल के इस नर बाघ ने पिछले साल जून में महाराष्ट्र के एक वन्य-जीव अभयारण्य में अपना घर छोड़ दिया था। वह संभवतः शिकार, अपने लिए अलग इलाके या एक साथी की तलाश में था। रेडियो कॉलर से लैस इस बाघ ने महाराष्ट्र और तेलंगाना के सात जिलों में 3,000 किमी की यात्रा की और अब वो एक जगह पर बस गया है। जिस रेडियो कॉलर के सहारे उसे ट्रैक किया जा रहा था, उसे अप्रैल में हटा दिया गया था। 205 वर्ग किलोमीटर में फैले ज्ञानगंगा अभयारण्य में तेंदुए, नीलगाय, जंगली सूअर, मोर और हिरण रहते हैं। वन्यजीव अधिकारियों का कहना है कि वॉकर वहां रहने वाला एकमात्र बाघ है। महाराष्ट्र के वरिष्ठ वन अधिकारी नितिन काकोडकर ने बताया, 'अब उसे 'टैरेटरी' (सीमा) की चिंता नहीं है और यहां शिकार भी पर्याप्त हैं।अब वन्यजीव अधिकारी इस बात पर विचार कर रहे हैं कि क्या उन्हें वॉकर को साथी देने के लिए एक मादा बाघ को अभयारण्य में ले जाना चाहिए या नहीं। बाघ अकेले रहने वाला जीव नहीं है। इसलिए उसे साथी की जरूरत तो है, लेकिन अभयारण्य में एक दूसरे बाघ को ले जाना, एक आसान निर्णय नहीं है। काकोडकर कहते है, 'ज्ञानगंगा कोई बड़ा अभयारण्य नहीं है। इसके चारों ओर खेती होती है। इसके अलावा, अगर वॉकर यहां प्रजनन करता है, तो बाकी जानवरों पर दबाव बढ़ेगा।
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गिनीज बुक के अजीबोगरीब रिकॉर्ड
फेमस होने की तलब इंसान को या तो टैलेंटेड बनाती है या अजीबो-गरीब हरकतें करने पर मजबूर करती है. इन दोनों ही कैटेगरी में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वालों का नाम गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज होता है. इस किताब में वैसे तो हजारों लोगों के नाम हैं, लेकिन कुछ बहुत ज्यादा लोकप्रिय और खास हैं. हैरतंगेज कारनामा करने वाले ऐसे ही कुछ लोगों से आपका परिचय कराते हैं.
नीलांशी पटेल- साल 2019 में गुजरात की नीलांशी पटेल ने टीनेजर कैटेगरी में सबसे लंबे बाल रखने का गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया था. उन्होंने 190 सेंटीमीटर लंबे बालों के साथ ये कीर्तिमान स्थापित किया था.
पीटर ग्लेजब्रुक- खाने में प्याज का जायका लेने वाले तो आपने बहुत देखे होंगे, लेकिन प्याज को सीने से लगाकर रखने वाला नहीं देखा होगा. इंग्लैंड के पीटर ग्लेजब्रुक दुनिया की सबसे बड़ी प्याज के मालिक हैं. जिस प्याज के साथ उन्होंने ये वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया है, उसका वजन 8 किलोग्राम से भी ज्यादा है.
राम सिंह चौहान- राजस्थान के राम सिंह चौहान भी अपनी लंबी मूछों के दम पर इस रिकॉर्ड बुक में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं. राम सिंह ने अपनी 14 फीट लंबी मूछों को 39 साल से नहीं काटा है.
ज्योति अमागे- नागपुर की रहने वाली ज्योति अमागे के नाम दुनिया की सबसे छोटी महिला का गिनीज रिकॉर्ड है. ज्योति का कद सिर्फ 24.7 इंच है. उन्होंने अपने 18वें जन्मदिन पर साल 2011 में ये रिकॉर्ड बनाया था.
थ्री डी पेंटिंग- ब्रिटेन के आर्टिस्ट जो हिल्स के नाम दुनिया की सबसे बड़ी थ्रीडी पेंटिंग बनाने का रिकॉर्ड दर्ज है. करीब 12,000 स्क्वेयर फीट की ये थ्रीडी पेंटिंग उन्होंने लंदन के कैनरी वॉर्फ में बनाई थी. इस पेंटिंग का दृष्य ऊंचाई से देखकर आप हैरान रह जाएंगे.
स्वेलाना पैंक्रातोवा- रशिया की 49 वर्षीय स्वेलाना पैंक्रातोवा दुनिया में सबसे लंबी टांगों की मालिक हैं. 51.9 इंच लंबी टांगों के साथ पैंक्रातोवा का नाम गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है.
ईजोबेल वैर्ली- ईजोबेल वैर्ली के नाम शरीर पर सबसे ज्यादा टैटू गुदवाने का रिकॉर्ड दर्ज है. गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड के मुताबिक, उन्होंने 49 साल की उम्र में अपने जिस्म पर पहला टैटू बनवाया था. उनके शरीर का करीब 93% हिस्सा टैटू से ढका हुआ था. साल 2015 में 77 साल की उम्र में उनका निधन हो गया.
क्रिस वॉल्टन- क्रिस वॉल्टन के नाम दुनिया में सबसे लंबे नाखून रखने का रिकॉर्ड है. उनके बाएं हाथ के नाखून 10 फीट 2 इंच लंबे हैं, जबकि दाएं हाथ में 9 फीट 7 इंच के नाखून हैं. वो 18 साल से अपने नाखून बढ़ा रही हैं.
- भारत में पोस्टआफिस की एक समृद्ध श्रंृखला रही है। आज दुनिया की सबसे बड़ी डाक सेवा भारत में है। लगभग 500 साल पुरानी भारतीय डाक प्रणाली आज दुनिया की सबसे विश्वसनीय और बेहतर डाक प्रणाली मानी जाती है। आज हम आपको देश में एक ऐसे अनोखे पोस्ट आफिस के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसे तैरते हुए पोस्टआफिस के नाम से जाना जाता है।जम्मू-कश्मीर में है तैरने वाला डाकघर जम्मू-कश्मीर में जहां शाम होते ही सड़क पर सन्नाटा छा जाता है, वहीं श्रीनगर में डल झील के किनारे बना डाकघर रात को भी खुला रहता है। कुछ साल पहले तक यह डाकघर बुरी हालत में था। इमारत पुरानी थी, रंग-रोगन फीका पड़ चुका था, जाले लगे थे। श्रीनगर के इस 24 घंटे खुले रहने वाले डाकघर की काया पलटने वाले यहां के पोस्टमास्टर जनरल जॉन सैमूएल थे। सैम्युअल ने आते ही इसकी सफाई की जिम्मेदारी ली। सैम्युअल के प्रयासों का ही परिणाम है कि आज यह डाकघर एक पर्यटन के केंद्र के रूप में उभरा है। सैम्युअल के प्रयत्नों से आज कश्मीर के 1700 डाक खाने काम कर रहे है। इस डाकघर को सर्वश्रेष्ठ प्रदर्षन में दूसरा स्थान मिला। दूसरे डाकघरों से अलग हैं कुछ चीजें धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की मशहूर डल झील में स्थित इस "फ्लोटिंग पोस्ट ऑफिस" में वो सारे कामकाज होते हैं जो दूसरे सामान्य पोस्ट ऑफिस में होते हैं। हालांकि इस पोस्ट ऑफिस में कुछ चीजें दूसरे डाकघरों से अलग भी हैं। मसलन, इस डाकखाने की मुहर पर तारीख और पते के साथ शिकारी खे रहे नाविक की तस्वीर बनी होती है। ये पोस्ट है तो अंग्रजों के जमाने का लेकिन इसे नया नाम (फ्लोटिंग पोस्ट ऑफिस) साल 2011 में मिला। पहले इसका नाम 'नेहरू पार्क पोस्ट ऑफिस' था पहले इस पोस्ट ऑफिस का नाम "नेहरू पार्क पोस्ट ऑफिस" था, लेकिन 2011 में तत्कालीन चीफ पोस्ट मास्टर जान सैम्युअल ने इसका नाम "फ्लोटिंग पोस्ट ऑफिस" रखवाया।अगस्त, 2011 में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और तत्कालीन केंद्रीय संचार और आईटी मंत्री सचिन पायलट ने इसका उद्घाटन किया। ये पोस्ट ऑफिस जिस हाउसबोट में है उसमें दो कमरे हैं। एक कमरा पोस्ट ऑफिस के तौर पर काम करता है और दूसरा कमरा संग्रहालय के तौर पर। संग्रहालय में भारतीय डाक के इतिहास से जुड़ी सामग्री प्रदर्शन के लिए रखी गई है। आप ये न समझिएगा कि ये "तैरता डाकघर" केवल सजावट की चीज है। डल झील के हाउसबोट में रुकने वाले सैलानी और वहां घूमने वाले पर्यटक अपने मित्रों-परिजनों को डाक भेजने के लिए इस्तेमाल करते हैं। स्थानीय नागरिक इस डाकघर की बचत योजनाओं का भी लाभ उठाते हैं और अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई इसमें जमा करते हैं। डल झील इलाके में करीब 50 हजार लोग रहते होंगे। आम तौर पर इस पोस्ट ऑफिस को कामकाज में कोई दिक्कत नहीं आती लेकिन साल 2014 में आई बाढ़ में ये पोस्ट ऑफिस भी संकट में घिर गया था। राहत एवं बचाव दल के जवानों ने इस पोस्ट ऑफिस को बाढ़ के दौरान एक जगह अंकुश लगाकर बांधना पड़ा था। जब बाढ़ थम गई तो इसे दोबारा डल झील में वापस लाया गया।
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सायनाइड के बारे में तो आपने सुना ही होगा, जिसे बेहद ही खतरनाक जहर माना जाता है। इसी की तरह ही एक और खतरनाक जहर है, जिसे पोलोनियम 210 कहा जाता है। हालांकि इसके बारे में बहुत कम ही लोगों को पता है। माना जाता है कि इसका सिर्फ एक ग्राम ही हजारों लोगों को मौत की नींद सुला सकता है। इस वजह से इसे दुनिया का सबसे खतरनाक जहर कहें तो गलत नहीं होगा। दरअसल पोलोनियम 210 एक रेडियोएक्टिव तत्व है, जिससे निकलने वाला रेडिएशन इंसानी शरीर के अंदरूनी अंगों के साथ-साथ डीएनए और इम्यून सिस्टम को भी तेजी से तबाह कर सकता है। मृत शरीर में इसकी मौजूदगी का पता लगाना भी बेहद ही मुश्किल काम होता है। वैसे भारत में तो इस जहर की जांच मुमकिन ही नहीं है। पोलोनियम-210 की खोज मशहूर भौतिकविद और रसायनशास्त्री मैरी क्यूरी ने साल 1898 में की थी। उन्हें रसायन विज्ञान के क्षेत्र में रेडियम के शुद्धीकरण (आइसोलेशन ऑफ प्योर रेडियम) के लिए रसायन शास्त्र का नोबेल पुरस्कार भी मिला था। इसके अलावा उन्हें रेडियोएक्टिविटी की खोज के लिए भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी मिला था। वैसे पोलोनियम का नाम पहले रेडियम एफ रखा गया था, लेकिन बाद में इसे बदल दिया गया। वैज्ञानिकों के मुताबिक, पोलोनियम-210 अगर नमक के छोटे कण जितना भी इंसान के शरीर में चला जाए तो पल भर में उसकी मौत हो सकती है। इसे पहचानना बहुत मुश्किल है, क्योंकि अगर इसे खाने में मिला दिया जाए तो इसके स्वाद का पता ही नहीं चल पाता। कहते हैं कि पोलोनियम जहर की पहली शिकार इसकी खोजकर्ता मैरी क्यूरी की बेटी ईरीन ज्यूलियट क्यूरी थी, जिसने इसका एक छोटा सा कण खा लिया था। इसकी वजह से उनकी तुरंत ही मौत हो गई थी। इसके अलावा माना जाता है कि इस्त्रायल के सबसे बड़े दुश्मन माने जाने वाले फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफात की मौत भी इसी जहर से हुई थी। इसकी जांच के लिए उनके शव को दफनाने के कई साल बाद कब्र से निकाला गया था। स्विट्जरलैंड के वैज्ञानिकों ने यह दावा किया कि उनके शव के अवशेषों में रेडियोधर्मी पोलोनियम-210 मिला था।
- भारतीय घरों में रोजाना इस्तेमाल होने वाली हल्दी का लैटिन नाम है- करकुमा लौंगा। वहीं अंग्रेजी में इसे टरमरिक कहते हैं। इसका वानस्पतिक पारिवारिक नाम हैं-जिन्जिबरऐसे।हल्दी भारतीय वनस्पति है। यह अदरक की प्रजाति का 5-6 फुट तक बढऩे वाला पौधा है जिसमें जड़ की गाठों में हल्दी मिलती है। हल्दी पाचन तन्त्र की समस्याओं, गठिया, रक्त-प्रवाह की समस्याओं, कैंसर, जीवाणुओं (बैक्टीरिया) के संक्रमण, उच्च रक्तचाप और एलडीएल कोलेस्ट्रॉल की समस्या और शरीर की कोशिकाओं की टूट-फूट की मरम्मत में लाभकारी है। आयुर्वेद में हल्दी को एक महत्वपूर्ण औषधि कहा गया है। भारतीय परिवारों में धार्मिक रूप से इसको बहुत शुभ समझा जाता है। उच्च तापमान पर पकाने से भी हल्दी के औषधीय गुणों का नाश नहीं होता।भारत विश्व में हल्दी का सबसे बड़ा उत्पादक देश है, क्योंकि विश्व में हल्दी के उत्पादन का 80 प्रतिशत से अधिक उत्पादन भारत में ही होता है। क्षेत्रफल के हिसाब से देश के मसाला उत्पादन क्षेत्र के तहत 60 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में हल्दी उगाई जाती है। हल्दी की खेती श्रीलंका, बंगला देश, पाकिस्तान, थाईलैंड, चीन, ताइवान तथा हैती, जमैका और पेरू में भी बड़े पैमाने पर होती है। भोजन को स्वाद, सुगंध और रंगत देने के अतिरिक्त, मसालों में पाचक गुण भी होता है और इनमें गठिया, दमा, (ब्रांकियल अस्थमा) घाव भरने, अपच तथा हृदय और मानसिक रोगों जैसी पुरानी बीमारियों के उपचार के गुण भी होते हैं। मसालों तथा पौधों में पादप रसायन (फाइटो केमिकल्स) जैसे तत्व होते हैं, जो मूलत: पौधों की सुरक्षा करते हैं, लेकिन अब उन्हें विटामिन के बराबर माना जाता है। और इसे, इंसानों के लिए काफी उपयोगी भी समझा जाता है। इन रसायनों के कारण ही मसाले अब दादी मां के घरेलू नुस्खों की पोटली से बाहर निकलकर, आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में पहुंच गए हैं। इस प्राचीन पदार्थों यानी मसालों के बारे में नए-नए औषधीय अनुसंधान किए जा रहे हैं और नई जानकारियां दी रही हैं। मसालों के औषधीय गुणों को अब वैज्ञानिक अनुसंधान के जरिये बढ़ाने की कोशिश की जा रही है। खाद्य पदार्थों, पौष्टिकता और पुराने रोगों के बारे में किए गए हाल के अध्ययनों से पता चला है कि आहार और आहार संबंधी आदतों को बदलने से अधिकतम पौष्टिकता प्राप्त की जा सकती है और पौधों से मिलने वाले पोषक तत्वों से (फाइटोन्यूट्रीएंटस) पुरानी बीमारियों का खतरा कम किया जा सकता है। हल्दी में अनिवार्य तेल, वसीय तेल, कम मात्रा में सूक्ष्म पोषक तत्व और हल्दी को रंग देने वाला पदार्थ करक्यूपिन होता है। करक्यूमिन में कई औषधीय गुण होते हैं।हल्दी के कुछ अन्य औषधीय गुणों की वैज्ञानिक रूप से जांच की गई है। इनमें कैंसर उत्पन्न करने वाले तत्वों के असर को कम करना, इसके एंटी आक्सीडेंट होना और डीएनए को होने वाले नुकसान को ठीक करने की इसकी क्षमता शामिल है। एक अध्ययन से यह भी पता चला है कि चूहों में गैलेक्टोज से होने वाला मोतियाबिन्द करकुकिन से विलम्बित हो जाता है, जिससे मोतियाबिन्द के विकास की प्रक्रिया रूक जाती है। यह भी पाया गया कि हल्दी और करकुकिन से आंव (इंटेस्टोइनक मुकोसा) में विषरोधी एंजाइम बढ़ते हैं तथा पशुओं में होने वाले परिवर्तन और टयूमर बनना कम होता है।---
- भिक्षुकोपनिषद एक प्रकार का शुक्ल यजुर्वेदीय उपनिषद है। इस उपनिषद में आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण हेतु भिक्षा द्वारा जीवन-यापन करने वाले संन्यासियों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। इस उपनिषद में कुल पांच मंत्र हैं। इस उपनिषद में बताया गया है कि मोक्ष की कामना रखने वाले भिक्षुओं की चार श्रेणियां होती हैं- कुटीचक्र, बहूदक, हंस और परमहंस।कुटीचक्र- इस श्रेणी के भिक्षु गौतम, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य और वसिष्ठ आदि के समान आठ ग्रास भोजन लेकर योगमार्ग से मोक्ष के लिए प्रयत्न करते हैं। इसमें मात्र शरीर की रक्षा के लिए न्यूनतक भोजन ग्रहण करने का विधान है।बहूदक-इस श्रेणी के भिक्षु त्रिदण्ड, कमण्डलु, शिखा, यज्ञोपवीत और काषाय वस्त्र धारण करते हैं। मधु-मांस आदि का पूर्णत: त्याग करते हैं। किसी सदाचारी व्यक्ति के घर से भिक्षा द्वारा आठ ग्रास भोजन ग्रहण करके योगमार्ग द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होते हैं।हंस- इस श्रेणी के भिक्षु किसी गांव में एक रात्रि, नगर में पांच रात्रि, तीर्थक्षेत्र में सात रात्रि से अधिक निवास नहीं करते। वे गोमूत्र और गोबर का आहार ग्रहण करते हुए नित्य चान्द्रायण व्रत का पालन करके योगमार्ग से मोक्ष की खोज करते हैं।परमहंस- इस श्रेणी के भिक्षु संवर्तक, आरूणि, श्वेतकेतु, जड़भरत, दत्तात्रेय, शुकदेव, वामदेव और हारीतक आदि की भांति आठ ग्रास भोजन ग्रहण करके योगमार्ग में विचरण करते हुए मोक्ष-प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इनका निवास किसी वृक्ष के नीचे, किसी शून्य गृह में या फिर श्मशान में होता है। उनके लिए द्वैत भाव का कोई अभिमत नहीं होता। मिट्टी और सोने में कोई भेद नहीं होता। वे सभी वर्णों में समान भाव से भिक्षावृत्ति करते हैं और सभी जीवों में अपनी आत्मा के दर्शन करते हैं। वे शुद्ध मन से परमहंस वृत्ति का पालन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं।------
- हिंदू धर्म में राम को विष्णु का सातवां अवतार माना जाता है। वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे - इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था। जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे। मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र, रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुंची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी। रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार हैब्रह्माजी से मरीचि हुए। मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप के पुत्र विवस्वान थे। विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण हुए। बाण के पुत्र अनरण्य हुए। अनरण्य से पृथु हुए। पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। धुंधुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनश्व के पुत्र मान्धाता हुए। मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। सुसन्धि के दो पुत्र हुए-धु्रवसन्धि एवं प्रसेनजित। धु्रवसन्धि के पुत्र भरत हुए। भरत के पुत्र असित हुए। असित के पुत्र सगर हुए। सगर के पुत्र का नाम असमंज था। असमंज के पुत्र अंशुमान हुए। अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतरा था। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे। ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है।रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए। प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे। शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए। सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए। शीघ्रग के पुत्र मरु हुए। मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे। प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए। अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। नहुष के पुत्र ययाति हुए। ययाति के पुत्र नाभाग हुए। नाभाग के पुत्र का नाम अज था। अज के पुत्र दशरथ हुए।दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए। इस प्रकार ब्रम्हा की उन्चालिसवी पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ। राम के पुत्र लव कुश को सभी जानते हैं। वहीं लक्ष्मण के पुत्र चन्द्रकेतु तथा चित्रांगद हुए। भरत के पुत्रों के नाम पुष्कल और मणिभद्र थे। शत्रुघन के पुत्र सुबाहु तथा भद्रसेन कहलाए।-------------
- वाइन का नाम सुनते हैं तो अंगूर ही याद आता है। हरे अंगूर से व्हाइट वाइन और काले अंगूर से रेड वाइन, लेकिन और भी कई फल हैं जिनका इस्तेमाल वाइन बनाने के लिए किया जाता है और इन्हें फ्रूट वाइन कहा जाता है।अंगूरयूरोप में वाइन का मतलब अंगूर की वाइन से ही होता है, लेकिन भारत समेत बहुत से एशियाई देशों में तरह- तरह की फ्रूट वाइन प्रचलित हैं जिन्हें लोग घरों में भी बनाते हैं।आलूबुखाराचीन, जापान और कोरिया में प्लम वाइन काफी लोकप्रिय है। इसके अलावा आलूबुखारे से यहां प्लम लिकर भी बनाया जाता है जिसमें अल्कोहल की मात्रा काफी ज्यादा होती है।अनारइजरायल में अनार से वाइन बनाई जाती है और इसे रिमोन कहा जाता है। यह खास किस्म के अनार से बनती है जो सामान्य अनार से काफी ज्यादा मीठे होते हैंषकेलासोचने में थोड़ा अजीब लगता है, लेकिन केले से भी वाइन तैयार की जा सकती है क्योंकि बाकी फलों की तुलना में इनमें चीनी की मात्रा काफी ज्यादा होती है। भारत की बनाना वाइन दुनिया भर में जानी जाती हैषलीचीचीन में लीची से बनी वाइन काफी पी जाती है। इसमें 10 से 18 फीसदी अल्कोहल होता है। सुनहरे रंग की इस वाइन को परंपरागत चीनी खाने के साथ पिया जाता है।संतरावैसे तो अंगूर से बनी एक खास किस्म की वाइन को भी ऑरेंज या ऐम्बर वाइन के नाम से जाना जाता है लेकिन संतरों से बनी ऑरेंज वाइन बनाना बहुत ही मुश्किल होता है. इसमें साफ सफाई का बहुत ख्याल रखना होता है।अनानासथाईलैंड और अन्य दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में अनानास के रस से बनी वाइन काफी चाव से पी जाती है। इसमें करीब 10 प्रतिशत अल्कोहल होता है. मेक्सिको और कुछ अफ्रीकी देशों में भी यह प्रचलित है।चेरीपिछले कुछ सालों में डेनमार्क और क्रोएशिया में चेरी वाइन का चलन चला है। चीन में भी चेरी की खूब पैदावार होती है, इसलिए वहां भी इसे अच्छी मात्रा में बनाया जाने लगा है।बेरीब्लैकबरी, ब्लूबेरी, क्रैनबेरी, गूजबेरी, सीबेरी और रसबेरी समेत कई तरह के फलों से वाइन बनाई जा सकती है। अमेरिका, पूर्वी अफ्रीका, फिलीपींस और भारत में इनका इस्तेमाल किया जाता है।और भी कई फल- भारत के मेघालय में नाशपाती, स्ट्रॉबेरी, अमरूद, तरबूज, टमाटर, काजू और कटहल से भी वाइन बनाई जाती है। भारत सरकार ने घरों में बनने वाली इन वाइनों को कानूनी वैधता प्रदान की है। भारत के कुछ इलाकों में इलायची से बनी वाइन की काफी मांग रहती है।----
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1. आंध्रप्रदेश- आंध्रप्रदेश अधिनियम 1953 द्वारा आंध्र राज्य बनाया गया जिसमें मद्रास राज्य के कुछ हिस्से रखे गए। राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 द्वारा इसका आंध्र प्रदेश नाम दिया गया।
2. केरल- राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 द्वारा मूल संविधान के भाग ख राज्य, ट्रावनकोर-कोचीन के स्थान पर राज्य बनाया गया।
3. गुजरात- मुम्बई पुनर्गठन अधिनियम, 1960 द्वारा मुम्बई राज्य को गुजरात और महाराष्टï्र दो राज्यों में विभाजित कर दिया गया।
4. महाराष्ट्र- मुम्बई पुनर्गठन अधिनियम, 1960 द्वारा मुम्बई राज्य से महाराष्ट्र बनाया गया।
5. नागालैण्ड- असम राज्य से नागा हिल्स-ल्युएन्सांग क्षेत्र को निकालकर नागालैण्ड राज्य अधिनियम, 1962 द्वारा इस राज्य की पृथक राज्य के रूप में स्थापना की गई।
6. हरियाणा- पंजाब पुनगर्ठन अधिनियम 1956 द्वारा पंजाब राज्य के राज्य क्षेत्र के एक भाग को काटकर भारत संघ का 17वां राज्य हरियाणा की स्थापना की गई।
7. कर्नाटक- राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 द्वारा मूलत: भाग ख के मैसूर राज्य से मैसूर राज्य निर्मित कर 1973 में इसे कर्नाटक नाम दिया गया।
8. हिमाचल प्रदेश- हिमाचल प्रदेश को सबसे पहले हिमाचल प्रदेश राज्य अधिनियम, 1970 अधिनियम करके राज्य की सूची में 18वां राज्य बनाया गया. संविधान की पहली अनुसूची के भाग ग के राज्यक्षेत्रों की सूची से इसे हटा दिया गया।
9. मणिपुर और त्रिपुरा- मणिपुर और त्रिपुरा को जो मूलत: भाग ग राज्य थे, पूर्वोत्तर क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम, 1971 द्वारा केंद्र शासित प्रदेश की स्थिति से उन्नतकर पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया।
10. मेघालय- संविधान के 23वें संशोधन अधिनियम, 1969 द्वारा अनुच्छेद 241 और 371 क जोड़कर पहले मेघालय को असम राज्य के स्वायत्त रूज्य के रूप की संज्ञा दी गई तथा बाद में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया और पूर्वोत्तर क्षेत्र पुनर्गठन अधिनियम, 1971 द्वारा पहली अनुसूची में 21वें राज्य के रूप में स्थान दिया गया।
11. सिक्किम- भारत के एक रक्षित राज्य अर्थात सिक्किम को संविधान के 35वें संशोधन अधिनियम, 1974 द्वारा सहयुक्त राज्य का दर्जा दिया गया तथा बाद में संविधान के 36वें संशोधन अधिनियम, 1975 द्वारा इसे संविधान की पहली अनुसूची में 22वें राज्य के रूप में स्थान दिया गया।
12. मिजोरम- मिजोरम राज्य अधिनियम, 1986 द्वारा मिजोरम को केंद्रशासित प्रदेश के दर्जे से बढ़ाते हुए संविदान की पहली अनुसूची के 23वें राज्य के रूप में स्थान दिया गया।
13. अरुणाचल प्रदेश- संविधान संशोधन के माध्यम से अरुणाचल प्रदेश अधिनियम, 1986 को अधिनियमित करके इसे केंद्रशासित प्रदेश से पूर्ण राज्य के रूप में नामित किया गया।
14. गोवा- गोवा, दमन और दीव पुनर्गठन अधिनियम, 1987 द्वारा इस संघ राज्यक्षेत्र में से गोवा राज्य को अलग करके उसे राज्य बना दिया गया तथा दमन और दीव को केंद्रशासित प्रदेश रहने दिया गया।
15. छत्तीसगढ़- मध्यप्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000 के अनुसार मध्यप्रदेश के राज्यक्षेत्र से कुछ राज्य क्षेत्र अलग करके 26वें प्रदेश के रूप में इस राज्य की स्थापना की गई।
16. उत्तरांचल- उत्तरप्रदेश- उत्तरप्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000 के द्वारा 27 वें प्रदेश के रूप में इस राज्य का गठन किया गया। अब इस राज्य का नाम उत्तराखंड रख दिया है।
17. झारखंड- बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 के द्वारा बिहार के राज्यक्षेत्र से कुछ राज्यक्षेत्र निकालकर 28वें प्रदेश के रूप में इस राज्य का गठन किया गया।
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- महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति के इतिहास वर्ग में आता है। कभी कभी इसे केवल भारत कहा जाता है। यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। इसी में अक्षौहिणी सेना का उल्लेख मिलता है। दरअसल अक्षौहिणी प्राचीन भारत में सेना का माप हुआ करता था। ये संस्कृत का शब्द है। विभिन्न स्रोतों से इसकी संख्या में कुछ कुछ अंतर मिलते हैं। प्राचीन भारत में सेना के चार अंग होते थे-हाथी, घोड़े, रथ और पैदल। जिस सेना में ये चारों अंग होते थे, वह चतुरंगिणी सेना कहलाती थी। महाभारत के युद्घ में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट होने का उल्लेख मिलता है। आइये जानें कैसी होती थी यह अक्षौहिणी सेना .......महाभारत के अनुसार-एक अक्षौहिणी में 21 हजार 870 हाथी, 21 हजार 870 रथ, 65 हजार 610 घोड़े और 1 लाख 9 हजार 350 पैदल सैनिक होते थे। महाभारत के युद्ध में इस प्रकार की 18 अक्षौहिणी सेना ने भाग लिया था और सभी नष्ट हो गई थी।महाभारत के आदिपर्व और सभापर्व में सेना का उल्लेख इस प्रकार है--एक रथ, एक हाथी, पांच पैदल सैनिक और तीन घोड़े-बस, इन्हीं को सेना के मर्मज्ञ विद्वानों ने पत्ति कहा है।-इस पत्ति की तिगुनी संख्या को विद्वान पुरुष सेनामुख कहते हैं। तीन सेनामुखो को एक गुल्म कहा जाता है।- तीन गुल्म का एक गण होता है, तीन गण की एक वाहिनी होती है और तीन वाहिनियों को सेना का रहस्य जानने वाले विद्वानों ने पृतना कहा है।- तीन पृतना की एक चमू तीन चमू की एक अनीकिनी और दस अनीकिनी की एक 'अक्षौहिणी' होती है।- एक अक्षौहिणी सेना में रथों की संख्या 21 हज़ार 870 बताई गई है। हाथियों की संख्या भी इतनी ही कहनी चाहिये।- एक अक्षौहिणी में पैदल मनुष्यों की संख्या एक लाख 9350 होती है।-इसी तरह एक अक्षौहिणी सेना में घोड़ों की ठीक-ठीक संख्या 65 हजार 610 कही गयी है।
फ़ारसी विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक अलबरुनी के अनुसारअलबरुनी ने अक्षौहिणी की परिमाण-संबंधी व्याख्या इस प्रकार की है--एक अक्षौहिणी में 10 अंतकिनियां होती हैं।-एक अंतकिनी में 3 चमू होते हैं।-एक चमू में 3 पृतना होते हैं।-एक पृतना में 3 वाहिनियां होती हैं।-एक वाहिनी में 3 गण होते हैं।-एक गण में 3 गुल्म होते हैं।-एक गुल्म में 3 सेनामुख होते हैं।-एक सेनामुख में 3 पंक्ति होती हैं।-एक पंक्ति में 1 रथ होता है।शतरंज के हाथी को रूख कहते हैं जबकि यूनानी इसे युद्ध-रथ कहते हैं। इसका आविष्कार एथेंस में मनकालुस'(मिर्तिलोस) ने किया था और एथेंसवासियों का कहना है कि सबसे पहले युद्ध के रथों पर वे ही सवार हुए थे। लेकिन उस समय के पहले उनका आविष्कार एफ्रोडिसियास (एवमेव) हिन्दू कर चुका था, जब महाप्रलय के लगभग 900 वर्ष बाद मिस्त्र पर उसका राज्य था। उन रथों को दो घोड़े खींचते थे। रथ में एक हाथी, तीन सवार और पांच प्यादे होते हैं।- हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथी होता है जो बाणों से सुसज्जित होता है, उसके दो साथियों के पास भाले होते हैं और एक रक्षक होता है जो पीछे से सारथी की रक्षा करता है और एक गाड़ीवान होता है।- हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है; कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं और उसका विदूषक हौहवा होता है जो युद्ध से इतर अवसरों पर उसके आगे चलता है।- तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या 2 लाख 84 हजार 323 होती है (एवमेव के अनुसार)। जो लोग घुड़सवार होते हैं उनकी संख्या 87 हजार 480 होती है। एक अक्षौहिणी में हाथियों की संख्या 21 हजार 870 होती है, रथों की संख्या भी 21 हजार 870 होती है, घोड़ों की संख्या 1 लाख 53 हजार 90 और मनुष्यों की संख्या 4 लाख 59 हजार 283 होती है।एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या 6 लाख 34 हजार 243 होती है। अठारह अक्षौहिणीयों के लिए यही संख्या एक करोड़ 14 लाख 16 हजार 374 हो जाती है अर्थात 3 लाख 93 हजार 660 हाथी, 27 लाख 55 हजार 620 घोड़े, 82 लाख 67 हजार 94 मनुष्य हो जाती है।------ - मदनघंटी एक औषधीय पौधा है जो रक्तशोधक होता है। इसकी जड़ों का इस्तेमाल विभिन्न रोगों के इलाज में किया जाता है। इसकी जड़े पौष्टिक, रक्त शोधक (खून को सोखने वाली) गुणों की वजह से सार्सपरिला या अन्नतमूल की जगह पर उपयोग में ली जाती हैं। इसके बीज को कॉफी की तरह इस्तेमाल किया जाता है। इसे घास की जगह पर भैंस को खिलाने से भैंस का दूध बढ़ता है।हिन्दी में इसे मदनघंटी, गुजराती में मधुर जड़ी, शर सर शेख लो, तमिल में नक्टेचुरी, तेलुगू में मदन ग्रंथि, लैटिन में स्परमेकोसी हिस्पिडा, बोरेरिया हिस्पिड कहा जाता है।
- उपनिषद्- उपनिषद् शब्द का अर्थ है वह शास्त्र या विद्या जो गुरु के निकट बैठकर एकांत में सीखी जाती है। उपनिषद् ज्ञान पर बल देता है एवं ब्रह्म एवं आत्मा के संबंधों को निरूपित करता है। उपनिषदों की रचना की परंपरा मध्य काल तक चलती रही। माना जाता है कि अल्लोपनिषद् अकबर के युग में लिखा गया। इसलिए उपनिषदों की संख्या बहुत बड़ी है। मुक्तिका उपनिषद् के अनुसार कुल 108 उपनिषद् हैं।शंकराचार्य ने 11 उपनिषदों पर टीकाएं लिखी हैं। 13 उपनिषद् बहुत महत्वपूर्ण है इसमें से दो ऐतरेय एवं कौषतिकी उपनिषद् ऋग्वेद से संबंधित है। दो अन्य छांदोग्य एवं केन उपनिषद् सामवेद से संबंधित हैं। चार, तैत्तिरीय, कठ, श्वेताश्वतर तथा मैत्रायिणी का संबंध कृष्ण यजुर्वेद से है, तो वृहदारण्यक तथा इश उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद से। मुंडक, मांडुक्य एवं प्रश्न उपनिषद् अथर्ववेद से संबंधित हैं। उपनिषद् को वेदान्त कहा गया है। कठ, श्वेताश्वर, ईश तथा मुडक उपनिषद् छदोबद्ध है। केन और प्रश्न उपनिषद् के कुछ भाग छंद एवं कुछ भाग गद्य है। शेष सात गद्य हैं। तत्त्वमसि तुम अर्थात् पुत्र के प्रति कथित शब्द उपनिषदों का प्रधान प्रसंग है।पी.एल. भार्गव नामक इतिहासकार ने उपनिषदों की क्रमावली बनायी है:मूल रूप में ब्रह्म सिद्धांत उल्लेख करने वाले वृहदाराण्यक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, कौषितकी, केन तथा ईश उपनिषद् सबसे प्राचीन हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् से संकेत मिलता है कि प्राचीनकाल के बुद्धिमान मनुष्य संतान नहीं चाहते थे।सांख्य शब्दों की जानकारी तथा विष्णु के प्रति झुकाव के कारण कठ उपनिषद् उसके बाद का है। कठोपनिषद् में आत्मा को पुरूष कहा गया है। वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद बड़ा रोचक है। उसी प्रकार कठोपनिषद् का यम-नचिकेता संवाद उल्लेखनीय है। मुण्डकोपनिषद् में यह घोषित किया गया कि सत्यमेव जयते।श्वेताश्वतर उपनिषद् में परमात्मा को रूद्र कहा गया है, इस आधार पर इसे कठ उपनिषद् के बाद का माना जाता है।मैत्रायिणी उपनिषद् में त्रिमूर्ति तथा चार आश्रमों के सिद्धांत का उल्लेख है। साथ ही इसमें पहली बार निराशावाद के तत्व मिलते हैं। अत: इसे सबसे बाद का उपनिषद् माना जाता है। नृसिंहपूर्वतापनी उपनिषद् संभवत: सबसे प्राचीन उपनिषद् था। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार, धर्म के तीन स्कंध होते हैं- 1. यज्ञ, अध्ययन और दान , 2. तप और 3. गुरू के आश्रम में ब्रह्मचारी के रूप में रहना।छांदोग्य उपनिषद् में सर्वखल्विदं ब्रह्म अर्थात बह्म ही सब कुछ है कहकर अद्वैतवाद की प्रतिष्ठा की गई है।---
- अकबर और बीरबल की कहांनियां तो खूब सुनी होंगी आपने बचपन में, लेकिन क्या आपने बीरबल के छत्ते की कहानी सुनी है? नहीं सुनी तो अब हम आपको सुनाते हैं। बीरबल का छत्ता हरियाणा और राजस्थान के बीच एक जगह, नारनौल में है जो जिला महेंद्रगढ़ के अंदर आता है। क्योंकि बीरबल का छत्ता राय बालमुकुंद ने बनवाया था इसलिए इसका नाम पहले बालमुकुन्द था, लेकिन बाद में इसका नाम बदल कर बीरबल का छत्ता रख दिया गया।इससे पहले कि हम आपको इसका नाम बदलने का कारण बताएं, पहले इसके बदले हुए नाम का मतलब जान लेते हैं। छत्ता मतलब घर, तो इस हिसाब से बीरबल का छत्ते का अर्थ है बीरबल का घर। दरअसल ऐसा कहा जाता है कि अकबर के नवरत्नों में से एक बीरबल, राजकाज के सिलसिले में यहां आते थे और इस छत्ते में रहते थे। इसलिए इसका नाम बीरबल का छत्ता पड़ गया। वैसे तो ये जगह बहुत खूबसूरत है, लेकिन जब बात बीरबल के छत्ते की आती है तो युवाओं में रोमांच और बुजगऱ्ों में भय दौडऩे लगता है। बीरबल के छत्ते का रहस्य दरअसल बीरबल के छत्ते को रहस्यमयी माना जाता है।बुज़ुर्गों का मानना है कि ये एक भूतीया जगह है। कहते हैं कि यहां एक सुरंग है, जिसके रास्ते दो तरफ खुलते हैं, एक दिल्ली की ओर और दूसरा जयपुर की ओर। अमूमन तौर पर इस सुरंग में किसी का भी जाना निषेध है क्योंकि कहा जाता है कि इस सुरंग में जाना वाला कभी लौट कर वापस नहीं आ पाया। इतना ही नहीं यहां रह रहे बुज़ुर्गों की मानें तो सालों पहले इस सुरंग से एक बारात दिल्ली की ओर जाने को रवाना हुई , लेकिन पहुंची नहीं और हैरानी की बात तो ये कि बारात का उस सुरंग या आस-पास की किसी जगह पर कोई नामो निशान भी नहीं मिला। ऐसी कई घटनाएं घटने के बाद प्रशासन ने सुरंग को बंद कर दिया। बीरबल के छत्ते का इतिहास पानीपत कि दूसरी लड़ाई के बाद नारनौल की बागडोर अकबर के हाथों में आ गई और अकबर ने सम्राट हेमू को पकडऩे के लिए बतौर इनाम नारनौल को शाह कुली खान को सौंप दिया। इस तरह शाह कुली खान यहां की जागीर का मालिक बन गया। अकबर के शासनकाल में यहां राय बालमुकुन्द के छत्ते का निर्माण हुआ जिसे बीरबल का छत्ता के नाम से जाना जाता है। ये दो मंजिला भवन बनावट में किले और महल जैसा दिखता है, लेकिन सही ढंग से देख-रेख नहीं होने की वजह से ये धीरे धीरे नष्ट हो रहा है।
- पुराणों, वेदों में भारत की कई नदियों का वर्णन मिलता है। इसी में से एक है सरयू नदी, जिसे घाघरा नदी भी कहते हैं। घाघरा नदी का उद्गम दक्षिणी तिब्बत के मापचाचुंग ग्लेशियर से हुआ है, जहां इसे गोग्रा एवं कर्णाली के नाम से जाना जाता है। इसे सरयू नदी , सरजू, शारदा, आदि नामों से भी जाना जाता है। सरयू नदी वैदिक कालीन नदी है जिसका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। सरयू नदी को बौद्ध ग्रंथों में सरभ के नाम से पुकारा गया है। इतिहासविद् कनिंघम ने अपने एक मानचित्र पर इसे मेगस्थनीज द्वारा वर्णित सोलोमत्तिस नदी के रूप में चिन्हित किया है और ज्यादातर विद्वान टालेमी द्वारा वर्णित सरोबेस नदी के रूप में मानते हैं।पुराणों में वर्णित है कि सरयू नदी भगवान विष्णु के नेत्रों से प्रकट हुई है। आनंद रामायण में उल्लेख है कि प्राचीन काल में शंकासुर दैत्य ने वेद को चुरा कर समुद्र में डाल दिया और स्वयं वहां छिप गया था। तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण कर दैत्य का वध किया था और ब्रह्मा को वेद सौंप कर अपना वास्तविक स्वरूप धारण किया। उस समय हर्ष के कारण भगवान विष्णु की आंखों से प्रेमाश्रु टपक पड़े। ब्रह्मा ने उस प्रेमाश्रु को मानसरोवर में डाल कर उसे सुरक्षित कर लिया। इस जल को महापराक्रमी वैवस्वत महाराज ने बाण के प्रहार से मानसरोवर से बाहर निकाला। यही जलधारा सरयू नदी कहलाई।रामायण में वर्णित है कि सरयू अयोध्या से होकर बहती है। रामचरित मानस में तुलसीदास ने इस नदी का गुणगान किया है। मत्स्य पुराण के अध्याय 121 और वाल्मीकि रामायण के 24वें सर्ग में इस नदी का वर्णन है। वामन पुराण के 13वें अध्याय, ब्रह्म पुराण के 19वें अध्याय और वायु पुराण के 45वें अध्याय में गंगा, यमुना, गोमती, सरयू और शारदा, आदि नदियों का हिमालय से प्रवाहित होना बताया गया है। रामायण के अनुसार इसी नदी में भगवान राम ने जलसमाधि ली थी।जहां तक घाघना नाम की बात है, तो घाघरा नाम संस्कृत शब्द घग्घर से लिया गया है। घग्घर शब्द का अर्थ है जल की गडग़ड़ाहट की आवाज। वास्तव में इस नदी के जल प्रवाह से इसी प्रकार की आवाज सुनाई देती है, जिसके कारण इस नदी का नाम घाघरा पड़ा। यह नदी हिमालय से निकलकर बलिया और छपरा के बीच में गंगा में मिल जाती है।अपने ऊपरी भाग में, जहां इसे काली नदी के नाम से जाना जाता है, यह काफ़ी दूरी तक भारत (उत्तराखण्ड राज्य) और नेपाल के बीच सीमा बनाती है। घाघरा रामायण काल में सरयू कोसल जनपद की प्रमुख नदी थी-सरयू नदी का ऋग्वेद में उल्लेख है और यह कहा गया है कि यदु और तुर्वसस ने इसे पार किया था। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में सरयू का नामोल्लेख किया है। पद्मपुराण के उत्तरखंड में भी सरयू नदी का माहात्म्य वर्णित है। सरयू नदी अयोध्यावासियों की बड़ी प्रिय नदी थी।----
- सत्यानाशी एक प्रकार का औषधीय पौधा है। शरीर में रोगों का नाश करने के अद्भुत गुण के कारण ही इसका नाम सत्यानाशी पड़ा। इस वनस्पति का उद्गम अमेरिका से माना जाता है लेकिन अब यह सम्पूर्ण भारतवर्ष में समुद्रतल से 1500 मीटर तक कि उंचाई तक मिल जाती है। पर्वतीय क्षेत्र में भी ढलानों पर इस कंटीली वनस्पति को देखा जा सकता है। इसे स्वर्णक्षीरी,भड-भाड़, फिरंगी धतूरा जैसे नामों से जाना जाता है ।इस वनस्पति का लेटीन नाम आरगेमोन मेक्सिकाना है जिसे अंग्रेजी में मेक्सिकन पोपी के नाम से भी जाना जाता है । इसके 2 से 4 फुट की झाड़ी में छोटे-छोटे कांटेदार पत्तियां इसकी खास पहचान है। यह वनस्पति कुमांऊं एवं गढ़वाल (जौनसार) के हिमालयी क्षेत्र में पाई जाने वाली लुप्त होने के खतरे का सामना कर रही इथनो-मेडिसिनल वनस्पतियों के अंतर्गत आती है। मेक्सिको में इसे सुखाकर औधषीय बनाई जाती है और इसका इस्तेमाल रीनल-कोलिक (किडनी में होनेवाले दर्द ) एवं प्रसव वेदना को कम करने के लिए किया जाता रहा है । स्पेनिश लोगों द्वारा भी इसका कारडोसानटो नाम से मदहोश एवं वेदना कम करने वाली चाय को बनाने में प्रयोग किया जाता रहा है । इसके बीज विषैले होते हंै इसलिए खाने योग्य नहीं होते हैं । सरसों के तेल में इसके बीजों की मिलावट के कारण ही वर्ष 1998 में भारत देश में ड्राप्सी हुआ था।यह रेचक गुणों के साथ-साथ तिक्त,भेदन एवं उत्क्लेश करने वाली औषधि है ,जिसका प्रयोग पेट के कीड़ों से लेकर, खुजली, विष, आनाह, कफ़-पित्त एवं त्वचा रोगों में किया जा सकता है । इसके अलावा कई रोगों के उपचार में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।
- बोरोबुदुर अथवा बरबुदुर इंडोनेशिया के मध्य जावा प्रान्त के मगेलांग नगर में स्थित 9वीं सदी का महायान बौद्ध मन्दिर है। यह छ: वर्गाकार चबूतरों पर बना हुआ है जिसमें से तीन का ऊपरी भाग वृत्ताकार है। यह 2,672 उच्चावचो और 504 बुद्ध प्रतिमाओं से सुसज्जित है। इसके केन्द्र में स्थित प्रमुख गुंबद के चारों और स्तूप वाली 72 बुद्ध प्रतिमाएं हैं। यह विश्व का सबसे बड़ा और विश्व के महानतम बौद्ध मंदिरों में से एक है।इसका निर्माण 9वीं सदी में शैलेन्द्र राजवंश के कार्यकाल में हुआ। मंदिर की बनावट जावाई बुद्ध स्थापत्यकला के अनुरूप है जो इंडोनेशियाई स्थानीय पंथ की पूर्वज पूजा और बौद्ध अवधारणा निर्वाण का मिश्रित रूप है। मंदिर में गुप्त कला का प्रभाव भी दिखाई देता है जो इसमें भारत के क्षेत्रिय प्रभाव को दर्शाता है मगर मंदिर में स्थानीय कला के दृश्य और तत्व पर्याप्त मात्रा में सम्मिलित हैं जो बोरोबुदुर को अद्वितीय रूप से इंडोनेशियाई निगमित करते हैं। स्मारक गौतम बुद्ध का एक पूजास्थल और बौद्ध तीर्थस्थल है। तीर्थस्थल की यात्रा इस स्मारक के नीचे से आरम्भ होती है और स्मारक के चारों ओर बौद्ध ब्रह्माडिकी के तीन प्रतीकात्मक स्तरों कामधातु (इच्छा की दुनिया), रूपध्यान (रूपों की दुनिया) और अरूपध्यान (निराकार दुनिया) से होते हुये शीर्ष पर पहुंचता है। स्मारक में सीढिय़ों की विस्तृत व्यवस्था और गलियारों के साथ 1460 कथा उच्चावचों और स्तम्भवेष्टनों से तीर्थयात्रियों का मार्गदर्शन होता है। बोरोबुदुर विश्व में बौद्ध कला का सबसे विशाल और पूर्ण स्थापत्य कलाओं में से एक है।साक्ष्यों के अनुसार बोरोबुदुर का निर्माण कार्य 9वीं सदी में आरम्भ हुआ और 14वीं सदी में जावा में हिन्दू राजवंश के पतन और जावाई लोगों द्वारा इस्लाम अपनाने के बाद इसका निर्माण कार्य बंद हुआ। इसके अस्तित्व का विश्वस्तर पर ज्ञान 1814 में सर थॉमस स्टैमफोर्ड रैफल्स द्वारा लाया गया और इसके इसके बाद जावा के ब्रितानी शासक ने इस कार्य को आगे बढ़ाया। बोरोबुदुर को उसके बाद कई बार मरम्मत करके संरक्षित रखा गया। इसकी सबसे अधिक मरम्मत, यूनेस्को द्वारा इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में सूचीबद्ध करने के बाद 1975 से 1982 के मध्य इंडोनेशिया सरकार और यूनेस्को द्वारा की गई।बोरोबुदुर अभी भी तीर्थयात्रियों के लिए खुला है और वर्ष में एक बार वैशाख पूर्णिमा के दिन इंडोनेशिया में बौद्ध धर्मावलम्बी स्मारक में उत्सव मनाते हैं। बोरोबुदुर इंडोनेशिया का सबसे अधिक दौरा किया जाने वाला पर्यटन स्थल है।---