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- बालोद से पंडित प्रकाश उपाध्याय
हस्तरेखा विज्ञान में विभिन्न तरह की रेखाओं का विस्तार से वर्णन मिलता है, लेकिन इनमें जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा और हृदय रेखा प्रमुख तीन रेखाएं मानी गयी हैं। इसके साथ ही भाग्य रेखा और मंगल रेखाएं भी हाथों में मिलती हैं। अनेक हाथों में रेखाएं दोमुखी होती हैं। दोमुखी रेखाओं का जीवन में व्यापक असर पड़ता है। इन्हीं में से एक है जीवन रेखा।
-हाथ में जीवन रेखा व्यक्ति के जीवन के बारे में बहुत से सवालों का जवाब देती है। यदि हाथ में जीवन रेखा दोमुखी है और दूसरी शाखा बाहर की ओर हो तो ऐसे लोग विदेश जाकर स्थायी रूप से बस जाते हैं, लेकिन यदि जीवन रेखा से निकली दूसरी शाखा अंदर की ओर हो तो ऐसे लोग विदेश तो जाते हैं, लेकिन निश्चित समय के बाद धन कमाकर लौट आते हैं।
-जीवन रेखा को नीचे की ओर काटने वाली रेखाएं व्यक्ति के स्वास्थ्य का संकेत देती है। ये रेखाएं जिस उम्र में जीवन रेखा काटती हैं उस उम्र में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हो सकती हैं।
-दोमुखी जीवन व्यक्ति के विवाह का संकेत भी देती है। बाहर की ओर जीवन रेखा से निकली रेखा व्यक्ति की दूर राज्य और बिल्कुल अलग संस्कृति में शादी का संकेत होती है। ऐसे लोगों की आजीविका भी घर से दूर होती है। इसी तरह यदि शाखा अंदर की ओर है तो शादी बिल्कुल नजदीक होती है और ये अपनी आजीविका भी घर के पास रहकर ही कमाते हैं।
-यदि जीवन रेखा और मस्तिष्क रेखा ऊपर से अलग-अलग हों तो ऐसे लोग अपना काम खुद करते हैं। इस तरह के लोग दूसरे का हस्तक्षेप बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं होता। इनका स्वभाव भी क्रोधी होता है। इनका सामाजिक दायरा बहुत छोटा होता है। -
- बालोद से पंडित प्रकाश उपाध्याय
हथेली में सूर्य पर्वत शनि की ओर झुक जाए तो व्यक्ति जज एवं सफल अधिवक्ता होता है। यदि सूर्य पर्वत दूषित हो जाए तो व्यक्ति अपराधी प्रवृत्ति का हो जाता है। यदि सूर्य एवं शुक्र पर्वत उभार वाले है तो व्यक्ति विपरीत लिंग के प्रति शीघ्र एवं स्थायी प्रभाव डालने वाला, धनवान, परोपकारी, सफल प्रशासक, सौंदर्य और विलासिताप्रिय होता है। सूर्य पर्वत पर जाली हो तो गर्व करने वाला, लेकिन कुटिल स्वभाव का होता है। ऐसा व्यक्ति किसी पर विश्वास नहीं करता। तारे का चिह्न होने पर धनहानि होती है, लेकिन प्रसिद्धि अप्रत्याशित रूप से मिलती है। गुणा का चिन्ह हो तो सट्टा या शयेर में धन का नाश हो सकता है। सूर्य पर्वत पर त्रिभुज हो तो उच्च पद की प्राप्ति, प्रतिष्ठा तथा प्रशासनिक लाभ होते हैं। सूर्य पर्वत पर चौकड़ी हो तो लाभ तथा सफलता की प्राप्ति होती है।
सूर्य पर्वत एवं बुध पर्वत के संयुक्त उभार की स्थिति में व्यक्ति में योग्यता, चतुराई तथा निर्णय शक्ति अधिक होती है। ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठ वक्ता, सफल व्यापारी या उच्च स्थानों का प्रबंधक होता है। ऐसे व्यक्तियों में धन पाने की असीमित महत्वाकांक्षा होती है। हथेली में सूर्य पर्वत के साथ यदि बृहस्पति का पर्वत भी उन्नत हो तो व्यक्ति विद्वान, मेधावी और धार्मिक विचारों वाला होता है। अनामिका उंगली के मूल में सूर्य का स्थान होता है। सूर्य का उभार जितना अधिक होगा, प्रभाव भी उतना ही अधिक मिलेगा। सूर्य पर्वत का उभार अच्छा, स्पष्ट होने के साथ सरल सूर्य रेखा हो तो व्यक्ति श्रेष्ठ प्रशासक, पुलिसकर्मी, सफल उद्यागेपति होता है। यदि पर्वत अधिक उभार वाला हो और रेखा कटी या टूटी हो तो व्यक्ति अभिमानी, स्वार्थी, क्रूर, कंजूस और अविवेकी होता है। -
- बालोद से पंडित प्रकाश उपाध्याय
ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को ग्रहों का राजा माना गया है। सूर्य एक निश्चित अवधि में एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है। सूर्य के राशि परिवर्तन का सभी 12 राशियों पर प्रभाव पड़ता है। जिन राशि के जातकों की सूर्य की स्थिति कुंडली में उच्च व शुभ होती है उन्हें शुभ फलों की प्राप्ति होती है। सूर्य 14 अप्रैल को मंगल ग्रह की राशि मेष में प्रवेश करने जा रहे हैं। सूर्य के मेष राशि में आने से कई राशि के जातकों को लाभ होगा। जानें सूर्य गोचर से किन राशि के जातकों को होगा लाभ-
1. मेष राशि- ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, सूर्य का गोचर मेष राशि के प्रथम भाव में होगा। इस दौरान आपके मान-सम्मान में वृद्धि होगी। सेहत में सुधार होगा। आत्मविश्वास में वृद्धि होगी। कार्यों में सफलता हासिल होगी। हालांकि पारिवारिक जीवन से कुछ मानसिक तनाव हो सकता है।
2. कर्क राशि- सूर्य का गोचर कर्क राशि के जातकों के लिए लाभकारी सिद्ध होगा। सूर्य का गोचर आपकी राशि के दशम भाव में होगा। सूर्य के मेष राशि में आने से आपको करियर में जबरदस्त लाभ मिलेगा। व्यापारियों को मुनाफा होगा। नौकरी की तलाश कर रहे जातकों को शुभ समाचार मिल सकता है।
3. सिंह राशि- सिंह राशि वालों के लिए सूर्य का मेष राशि में गोचर लाभकारी साबित होगा। इस अवधि में आपके भाग्यवश कुछ काम बनेंगे। रुके हुए कार्य पूरे होंगे। जिस कार्य की शुरुआत करेंगे, उसमें सफलता हासिल करेंगे। मान-सम्मान में वृद्धि होगी। कारोबार में सफलता हासिल होगी। यात्रा में लाभ होगा।
4. मिथुन राशि- मिथुन राशि के जातकों के लिए सूर्य गोचर बेहद लाभकारी साबित होगा। सूर्य का गोचर आपके आय भाव में हो रहा है। इस दौरान आपकी आय में इजाफा हो सकता है। आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। आपके अटके हुए काम पूरे होंगे। आमदनी के नए साधन बनेंगे। मन की इच्छा इस अवधि में पूरी हो सकती है। - राजधानी रायपुर में प्रमुख शक्तिपीठों में एक प्राचीन महामाया मंदिर भी है। साल भर यहां पर माता के भक्तों की भीड़ लगी रहती है। माता का प्रताप ही कुछ ऐसा है कि एक बार वहां जाने वाले भक्त की इच्छा बार-बार माता के दर्शन करने की होती है। इस मंदिर की ऐतिहासिकता और प्रताप हर किसी को प्रभावित करता है। मां का दरबार सदियों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। तांत्रिक पद्धति से बने इस मंदिर में दूर-दूर से भक्त आते हैं। माना जाता है कि मंदिर में महामाया माता से सच्चे मन से की गई प्रार्थना हमेशा पूरी होती है।इतिहासमहामाया मंदिर का इतिहास करीब छह सौ साल पुराना है। इस मंदिर की स्थापना हैहयवंशी कलचुरिया वंश के राजा मोरध्वज ने करवाई थी । छत्तीसगढ़ में इस वंश का शासन काफी समय तक रहा। इस वंश के राजाओं ने इस क्षेत्र में छत्तीस किले यानी गढ़ बनवाए और इस वजह से इस राज्य का नाम छत्तीसगढ़ हुआ। इन गढ़ों में प्रमुख है रतनपुर और रायपुर। इन दोनों स्थानों में महामाया मंदिर का निर्माण किया गया। रायपुर के महामाया मंदिर की बात करें तो शुरू से ही यह हिस्सा आसपास के क्षेत्र से अधिक ऊंचाई पर था। आज भी कमोबेश यही स्थित है। एक ओर कंकाली तालाब, दूसरी ओर महाराज बंध तालाब और तीसरी ओर पुरानी बस्ती की तरफ ढलान है। भले की प्राचीन डबरियां पर लुप्तप्राय हो गई हैं, लेकिन ढलान आज भी कायम है ।जनश्रुति के अनुसार इस मंदिर की प्रतिष्ठा हैहयवंशी राजा मोरध्वज के हाथों किया गया था। बाद में भोंसला राजवंशीय सामन्तों व अंग्रेजी सल्तनत द्वारा भी इसकी देखरेख की गई है। किवदन्ती है कि एक बार राजा मोरध्वज अपनी रानी कुमुद्धती देवी (सहशीला देवी) के साथ राज्य के भ्रमण में निकले थे, जब वे वापस लौट रहे थे, तो प्रात: काल का समय था। राजा मोरध्वज के मन में खारुन नदी पार करते समय विचार आया कि प्रात: कालीन दिनचर्या से निवृत्त होकर ही आगे यात्रा की जाए। यह सोचकर नदी किनारे (वर्तमान महादेवघाट) पर उन्होंने पड़ाव डलवाया। दासियां कपड़े का पर्दा कर रानी को स्नान कराने नदी की ओर ले जाने लगीं। जैसे ही नदी के पास पहुंचीं तो रानी व उनकी दासियां देखती हैं कि बहुत बड़ी शीला पानी में है और तीन विशालकाय सर्प वहां मौजूद हैं। यह दृश्य देखकर वे सभी डर गईं और पड़ाव में लौट आईं। इसकी सूचना राजा को भेजी गई। राजा ने भी यह दृश्य देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। तत्काल अपने राज ज्योतिषी व राजपुरोहित को बुलवाया। उनकी बताई सलाह पर राजा मोरध्वज ने स्नान आदि के पश्चात विधिपूर्वक पूजन किया और शीला की ओर धीरे-धीरे बढऩे लगे। तीन विशालकाय सर्प वहां से एक-एक कर सरकने लगे। उनके हट जाने के बाद राजा ने उस शीला को स्पर्श कर प्रणाम किया और सीधा करवाया। सभी लोग यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि वह शीला नहीं महिषासुरमर्दिनी रूप में अष्टभुजी भगवती की मूर्ति है। यह देख सभी ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।कहा जाता है कि उस समय मूर्ति से आवाज निकली। हे राजन! मैं तुम्हारी कुल देवी हूं। तुम मेरी पूजा कर प्रतिष्ठा करो, मैं स्वयं महामाया हूं। राजा ने अपने पंडितों, आचार्यों व ज्योतिषियों से विचार विमर्श कर सलाह ली। सभी ने सलाह दी कि भगवती मां महामाया की प्राण-प्रतिष्ठा की जाए। तभी जानकारी प्राप्त हुई कि वर्तमान पुरानी बस्ती क्षेत्र में एक नये मंदिर का निर्माण किया जा रहा है। उसी मंदिर को देवी के आदेश के अनुसार ही कुछ संशोधित करते हुए निर्माण कार्य को पूरा करके पूर्णत: वैदिक व तांत्रिक विधि से आदिशक्ति मां महामाया की प्राण प्रतिष्ठा की गई। कहा जाता है कि माता ने राजा से कहा था कि वह उनकी प्रतिमा को अपने कंधे पर रखकर मंदिर तक ले जाएं। रास्ते में प्रतिमा को कहीं रखें नहीं। अगर प्रतिमा को कहीं रखा तो मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगी। राजा ने मंदिर पहुंचने तक प्रतिमा को कहीं नहीं रखा , लेकिन मंदिर के गर्भगृह में पहुंचने के बाद वे मां की बात भूल गए और जहां स्थापित किया जाना था, उसके पहले ही एक चबूतरे पर रख दिया। बस प्रतिमा वहीं स्थापित हो गई। राजा ने प्रतिमा को उठाकर निर्धारित जगह पर रखने की कोशिश की , लेकिन नाकाम रहे। प्रतिमा को रखने के लिए जो जगह बनाई गई थी वह कुछ ऊंचा स्थान थी। इसी वजह से आज भी मां की प्रतिमा चौखट से तिरछी दिखाई पड़ती है। जानकारों के मुताबिक मंदिर का निर्माण राजा मोरध्वज ने तांत्रिक विधि से करवाया था। इसकी बनावट से भी कई रहस्य जुड़े हुए हैं। मंदिर के गर्भगृह के बाहरी हिस्से में दो खिड़कियां एक सीध पर हैं। सामान्यत: दोनों खिड़कियों से मां की प्रतिमा की झलक नजर आनी चाहिए ,लेकिन ऐसा नहीं होता। दाईं तरफ की खिड़की से मां की प्रतिमा का कुछ हिस्सा नजर आता है परंतु बाईं तरफ नहीं। माता के मंदिर के बाहरी हिस्से में सम्लेश्वरी देवी का भी मंदिर है। सूर्योदय के समय किरणें सम्लेश्वरी माता के गर्भगृह तक पहुंचती हैं। सूर्यास्त के समय सूर्य की किरणें मां महामाया के गर्भगृह में उनके चरणों को स्पर्श करती हैं। मंदिर की डिजाइन से यह अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है कि प्रतिमा तक सूर्य की किरणें पहुंचती कैसे होंगी। पौराणिक मान्यता है कि मंदिर के साथ दिव्य शक्तियां जुड़ी हुई हैं।मंदिर के इतिहास पर सबसे पहले 1977 में महामाया महत्तम नामक किताब लिखी गई। इसके बाद मंदिर ट्रस्ट ने 1996 में इसका संशोधित अंक प्रकाशित करवाया। 2012 में मंदिर की ओर से प्रकाशित की गई रायपुर का वैभव श्री महामाया देवी मंदिर को इतिहासकारों ने प्रमाणिक किया है। सभी किवदंतियों और जनश्रुति का उल्लेख प्रमाणिक किताबों में मिलता है।
- मां शक्ति की उपासना का पर्व नवरात्र में व्रत और उपवास करने को शुभकारी माना गया है। इन नौ दिनों में भक्तगण यथाशक्ति माता की उपासना में लगे रहते हैं। नवरात्र में वैसे तो हर दिन का अपना अलग महत्व है, लेकिन अष्टमी और नवमीं तिथि को खास तौर से शुभ माना जाता है और इस दिन नौ कन्याओं का पूजन और उन्हें भोजन कराने की परंपरा रही है। हवन के पश्चात नौ कन्याओं को माता का प्रतीक स्वरूप मानकर उनका पूजन किया जाता है।नवरात्रि की अष्टमी तिथि के दिन हवन और उसके बाद नवमी तिथि को कन्या पूजन करने के बाद माता रानी को विदा करके व्रत का पारण किया जाता है। कुछ लोग हवन के बाद अष्टमी तिथि को ही कन्या पूजन कराते हैं। अष्टमी तिथि को मां महागौरी और नवमी तिथि को मां सिद्धिदात्री की पूजा करने का विधान है। नवमी तिथि को मां सिद्धिदात्री के पूजन के साथ कन्या भोजन कराने विशेष महत्व है। नौ कन्याओं के साथ एक बालक को भी बटुक भैरव या लांगुर का रुप मानकर पूजन किया जाता है। 2 वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक की कन्याओं को भोजन कराने का विशेष महत्व माना गया है।क्या खिलाएंवैसे तो कन्याओं को यथाशक्ति अनुसार भोजन कराना चाहिए। मां भगवती को खीर, मिठाई, फल, हलवा, चना, मालपुआ प्रिय है इसलिए कन्यापूजन के दिन कन्याओं को खाने के लिए पूरी, चना और हलवा दिया जाता है। कन्याओं को केसर युक्त खीर, हलवा, पूड़ी का खिलाना चाहिए। ध्यान रखें कि उनके लिए बनाए खाने में लहसुन, प्याज का इस्तेमाल न हो।उम्र के अनुसार देवी तक पहुंचेगा अंशदुर्गा शप्तशती में कन्या भोजन के लिए दो वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक की कन्याओं को भोजन करने की बात कही गयी है। दुर्गा सप्तशती के अनुसार दो वर्ष की कन्या कुमारी होती, तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छह वर्ष की कालिका, सात वर्ष की चंडिका, आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा होती है। आप जिस उम्र की कन्या को भोजन करावाते हैं उससे सम्बन्धित देवी तक कन्या के माध्यम से उनका अंश पहुंच जाता है।भोजन कराने के साथ यह आवश्यक है कि आपके जरिए किसी भी कन्या का निरादर न हो। दस वर्ष तक की कन्या में मां का अंश मौजूद रहता और वह मां की तरह ही शुद्ध और निश्छल होती हैं। जो भक्त श्रद्धा भाव से कन्याओं में उनका अंश मानकर भोजन करवाता है उस भक्त पर सदा मां अनुकम्पा बनी रहती है। मान्यता है कि जो व्यक्ति कन्याओं का निरादर करते हैं उसके घर वे कभी नहीं जाती हैं और वह व्यक्ति मां के क्रोध का भागी बनता है।किस उम्र की कन्या पूजन से क्या है लाभ-2 वर्ष की कन्या गरीबी दूर करती है।-3 वर्ष की कन्या धन प्रदान करती है।-4 वर्ष की कन्या अधूरी इच्छाएं पूरी करती है।-5 वर्ष की कन्या रोगों से मुक्ति दिलाती है।-6 वर्ष की कन्या विद्या, विजय और राजसी सुख प्रदान करती है।-7 वर्ष की कन्या ऐश्वर्य दिलाती है।-8 वर्ष की कन्या शांभवी स्वरूप से वाद-विवाद में विजय दिलाती है।-9 वर्ष की कन्या दुर्गा के रूप में शत्रुओं से रक्षा करती है।-10 वर्ष की कन्या सुभद्रा के रूप में आपकी सभी इच्छाएं पूरी करती है।
- बालोद से पंडित प्रकाश उपाध्यायआज मां कालरात्रि, 29 मार्च को महागौरी और 30 मार्च को मां सिद्धिदात्री की पूजा की जाएगी। साथ ही इन तीन दिन कई शुभ योग बन रहे हैं, जिससे इन तिथियों का भी महत्व बढ़ गया है। ज्योतिष शास्त्र में सप्तमी तिथि, अष्टमी तिथि और नवमी तिथि का महत्व बताते हुए कुछ उपाय बताए गए हैं। इन उपायों के करने से मां जातक की हर इच्छा पूरी करती है।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, काले उबले चने, गुड़, सुपाड़ी, रुई और नए पान पर सिक्का रखकर को तीन दिन मां दुर्गा को अर्पित करें। इन पांचों चीजों को पूरी भक्तिभाव से मां दुर्गा को अर्पित करें और इस मंत्र का जप करें। ऐसा करने से मां दुर्गा बेहद प्रसन्न होती हैं और घर में कभी धन-धान्य की कमी नहीं होगी। यह चीजें बहेद सस्ती हैं और आसानी से उपलब्ध भी हो जाएंगी।ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।।इस उपाय से माता का मिलेगा आशीर्वादइस उपाय से माता का मिलेगा आशीर्वादमाता को प्रसन्न करने के लिए संधि आरती कर सकते हैं। संधि काल दो प्रहर, दो तिथि, दो दिन, दो पक्ष के मिलने के समय को संधि काल कहा जाता है। सप्तमी तिथि के समापन और अष्टमी तिथि की शुरुआत के काल में आप मां दुर्गा की संधि आरती कर सकते हैं। साथ ही संधि आरती में मां दुर्गा की आरती सुबह, दोपहर, शाम और रात में भी की जाती है। आरती से पहले मां को पांच सूखे मेवे और लाल चुनरी माता को अर्पित करें। यह आप तीनों दिन कर सकते हैं। ऐसा करने से मां दुर्गा का आशीर्वाद मिलेगा और आर्थिक समृद्धि होगी।इस जप से परेशानियों का होता है अंततंत्र शास्त्र में देवी के 32 नाम का जप करना बहुत शुभ और लाभकारी माना गया है। सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथि की रात में माता के नाम का 108 बार जप करें। ऐसा करने से मां दुर्गा की कृपा बनी रहती है और जो भी परेशानी चल रही होती है, उससे मुक्ति मिल जाएगी।इस उपाय से ग्रहों का मिलता है शुभ प्रभावग्रहों के अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिए ये तीनों तिथियां बहुत उत्तम मानी जाती है। आप सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथि की शाम को दुर्गा चालीसा, अर्गलास्तोत्र, कीलक स्तोत्र और दुर्गा सप्तशती का पाठ कर सकते हैं। पाठ खत्म होने के बाद छोटा सा हवन भी करें। हवन में आप जायफल, लौंग, इलायची, काले तिलस काली मिर्च, शहद, कमल गट्टा, सुपारी, घी, गूगल की आहुति दें और 108 बार 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे' मंत्र का जप करें। ऐसा करने से ग्रहों के अशुभ प्रभाव जैसे राहु-केतु या शनि से मुक्ति मिलती है और पूरे परिवार की तरक्की होती है।कई लोगों का व्रत सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथि को समाप्त हो जाता है और कन्या पूजन करके अंतिम दिन हवन किया जाता है। ध्यान रखें कि हवन को ईशान कोण में करें और तीनों दिन मां दुर्गा की शास्त्रीय पद्धति से पूजा-अर्चना करें। ऐसा करने सभी रोगों से मुक्ति मिल जाती है और धन वैभव में वृद्धि होती है।यह उपाय छात्रों के लिए बेहद उत्तमनवरात्रि सभी के लिए कल्याणकारी मानी जाती है और मां दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए यह बेहद उत्तम दिन होते हैं। पढ़ाई में मन नहीं लगता या जो याद करते हैं, भूल जाते हैं, अगर इस तरह की समस्या का छात्र सामना कर रहे हैं तो सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथि में से किसी एक दिन माता को ध्वजा अर्पित करें और हर दिन इस मंत्र का जप करें। ऐसा करने से ज्ञान और बुद्धि में वृद्धि होती है और अपना मार्ग खुद चुनते हैं।'ॐ शारदा माता ईश्वरी मैं नित सुमरि तोय हाथ जोड़ अरजी करूं विद्या वर दे मोय।'
- छत्तीसगढ़ में मां शक्ति के प्राचीन मंदिरों की एक लंबी श्रृंखला है। शारदीय और चैत्र नवरात्र पर इन मंदिरों में भक्तों का तांता लगा रहता है। इस दौरान इन मंदिरों को आकर्षक रूप से संवारा जाता है। मां शक्ति की कृपा पाने और उनके दर्शनों के लिए दूर- दूर से लोग पहुंचते हैं।इन्हीं प्राचीन मंदिरों में से एक हैं मां चंद्रहासिनी देवी मंदिर, जो राजधानी रायपुर से करीब 221 किमी की दूर जांजगीर-चाम्पा जिले के डभरा तहसील में चंद्रपुर में स्थित है। मांड नदी, लात नदी और महानदी के त्रिवेणी संगम पर स्थित होने के कारण इस मंदिर की महत्ता और बढ़ गई है। इस मंदिर को भक्तगण मां शक्ति के 52 सिद्ध शक्तिपीठों में से एक मानते हैं। चंंद्रमा की आकृति जैसा मुख होने के कारण इसकी प्रसिद्धि चंद्रहासिनी और चंद्रसेनी मां के रूप में हुई है। प्राचीन ग्रंथों में संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि मां सती का वामकपोल (वामगण्ड) महानदी के पास स्थित पहाड़ी में गिरा, जो बाराही मां चंद्रहासिनी का मंदिर बना और मां की नथनी नदी के बीच टापू में गिरी, जिससे मां नाथलदाई के नाम से मंदिर बना।मंदिर परिसर में लगातार विस्तार हो रहा है। परिसर में अब आकर्षक रूप से पौराणिक और धार्मिक कथाओं की झाकियां, समुद्र मंथन, महाबलशाली पवन पुत्र, कृष्ण लीला, चीरहरण, महिषासुर वध, नवग्रह की मूर्तियां, शेष शैश्या , सर्वधर्म सभा, चारों धाम की झांकियां तथा अन्य देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियां स्थापित की गई हैं, जो इस मंदिर की शोभा में चार चांद लगा रही है। भक्तों की सुविधा के लिए मंदिर तक पहुंचने के लिए छोटी- छोटी सीढ़ी बनाई गई हैं। वैसे तो यहां पर साल भर भक्तों का आना होता है, लेकिन नवरात्र के मौके पर यहां पर बड़ी संख्या में भक्त माता के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। दूसरे राज्यों से भी लोग मां चंद्रहासिनी के दर्शनों के लिए आते हैं। पूरा मंदिर परिसर माता के जयकारों और भजनों से गूंजता रहता है। भक्त माता के दरबार में नारियल,अगरबत्ती, फूलमाला भेंटकर पूजा-अर्चना करते हैं और अपनी मनोकामना पूरी करते हैं।नवरात्र में लोग अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए यहां पर ज्योतिकलश प्रज्ज्वलित करते हैं। चंद्रहासिनी मंदिर के कुछ दूर आगे महानदी के बीच मां नाथलदाई का मंदिर स्थित है जो रायगढ़ जिले की सीमा अंतर्गत आता है। मान्यता है कि मां चंद्रहासिनी के दर्शन के बाद माता नाथलदाई के दर्शन भी जरूरी है। मां नाथलदाई को मां चंद्रहासिनी की छोटी बहन माना जाता है।किंवदंतियों के अनुसार हजारों वर्षो पूर्व माता चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि को छोड़कर उदयपुर और रायगढ़ से होते हुए चंद्रपुर में महानदी के तट पर आ गई। महानदी की पवित्र शीतल धारा से प्रभावित होकर माता यहां पर विश्राम करने लगती हैं। वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी उनकी नींद नहीं खुलती।एक बार संबलपुर के राजा की सवारी यहां से गुजरती है, तभी अनजाने में चंद्रसेनी देवी को उनका पैर लग जाता है और माता की नींद खुल जाती है। फिर स्वप्न में देवी उन्हें यहां मंदिर निर्माण और मूर्ति स्थापना का निर्देश देती हैं। संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। राजपरिवार ने मंदिर की व्यवस्था का भार यहां के एक जमींदार को सौंप दिया। उस जमींदार ने माता को अपनी कुलदेवी स्वीकार करके पूजा अर्चना की। इसके बाद से माता चंद्रहासिनी की आराधना जारी है। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉमविशेष)
- मां दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। मान्यता है कि इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है।इनका वाहन सिंह है और यह कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं। नवरात्र में यह अंतिम देवी हैं। हिमाचल के नंदापर्वत पर इनका प्रसिद्ध तीर्थ है।माना जाता है कि इनकी पूजा करने से बाकी देवियों कि उपासना भी स्वयं हो जाती है। यह देवी सर्व सिद्धियां प्रदान करने वाली देवी हैं। उपासक या भक्त पर इनकी कृपा से कठिन से कठिन कार्य भी आसानी से संभव हो जाते हैं। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आठ सिद्धियां होती हैं। इसलिए इस देवी की सच्चे मन से विधि विधान से उपासना-आराधना करने से यह सभी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। कहते हैं भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिव जी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अद्र्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है।विधि-विधान से नौंवे दिन इस देवी की उपासना करने से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। मां के चरणों में शरणागत होकर हमें निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उपासना करनी चाहिए। इस देवी का स्मरण, ध्यान, पूजन हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हैं और अमृत पद की ओर ले जाते हैं।मंत्र- सिद्ध गन्धर्व यक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।सेव्यमाना सदा भूयाात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।मां सिद्धिदात्री की पूजा विधिइस दिन मां की पूजा अर्चना करने के लिए विशेष हवन किया जाता है। यह नवरात्रि का आखिरी दिन है तो इस दिन मां की पूजा अर्चना करने के बाद अन्य देवताओं की भी पूजा की जाती है। इस दिन भी बाकी दिनों की तरह सबसे पहले लकड़ी की चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर उसपर मां की मूर्ति रखकर आरती और हवन करें। हवन करते वक्त सभी देवी देवताओं के नाम से आहुति दें। इसके बाद मां के नाम से आहुति दें। बता दें की दुर्गा सप्तशती के सभी श्लोक के साथ मां की आहुति दी जाती है। देवी ते बीज मंत्र “ऊँ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमो नम: का 108 बार जप करके आहुति दें। अंत में आरती करें।सिद्धिदात्री का भोगमान्यता है कि मां सिद्धिदात्री को मौसमी फल, चना, पूड़ी, खीर, नारियल और हलवा अति प्रिय है। इसलिए इस दिन मां को उन्ही चीजों का भोग लगाना चाहिए।
मां सिद्धिदात्री की आरतीजय सिद्धिदात्री तू सिद्धि की दातातू भक्तों की रक्षक तू दासों की माता,तेरा नाम लेते ही मिलती है सिद्धितेरे नाम से मन की होती है शुद्धि!!कठिन काम सिद्ध कराती हो तुमजब भी हाथ सेवक के सर धरती हो तुम,तेरी पूजा में तो न कोई विधि हैतू जगदम्बे दाती तू सर्वसिद्धि है!!रविवार को तेरा सुमरिन करे जोतेरी मूर्ति को ही मन में धरे जो,तुम सब काज उसके कराती हो पूरेकभी काम उसके रहे न अधूरे!!तुम्हारी दया और तुम्हारी यह मायारखे जिसके सर पर मैया अपनी छाया,सर्व सिद्धि दाती वो है भाग्यशालीजो है तेरे दर का ही अम्बे सवाली!!हिमाचल है पर्वत जहां वास तेरामहा नंदा मंदिर में है वास तेरा,मुझे आसरा है तुम्हारा ही मातावंदना है सवाली तू जिसकी दाता!! - मां दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। नवरात्रि में आठवें दिन महागौरी शक्ति की पूजा की जाती है। नाम से प्रकट है कि इनका रूप पूर्णत: गौर वर्ण है। इनकी उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। अष्टवर्षा भवेद् गौरी यानी इनकी आयु आठ साल की मानी गई है। इनके सभी आभूषण और वस्त्र सफेद हैं। इसीलिए उन्हें श्वेताम्बरधरा कहा गया है। इनकि चार भुजाएं हैं और वाहन वृषभ है इसीलिए इन्हें वृषारूढ़ा भी कहा गया है। इनके ऊपर वाला दाहिना हाथ अभय मुद्रा है तथा नीचे वाला हाथ त्रिशूल धारण किया हुआ है। ऊपर वाले बांए हाथ में डमरू धारण कर रखा है और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। इनकी पूरी मुद्रा बहुत शांत है।पति रूप में शिव को प्राप्त करने के लिए महागौरी ने कठोर तपस्या की थी। इसी कारण से इनका शरीर काला पड़ गया, लेकिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर कांतिमय बना दिया। उनका रूप गौर वर्ण का हो गया। इसीलिए यह महागौरी कहलाईं। यह अमोघ फलदायिनी हैं और इनकी पूजा से भक्तों के तमाम कल्मष धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं।एक और मान्यता के अनुसार एक भूखा सिंह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती है। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गई, लेकिन वह देवी के तपस्या से उठने का प्रतीक्षा करते हुए वहीं बैठ गया। इस प्रतीक्षा में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आ गई। उन्होंने दया भाव से उसे अपना वाहन बना लिया क्योंकि वह उनकी तपस्या पूरी होने के प्रतीक्षा में स्वयं भी तप कर बैठा। कहते है जो स्त्री मां की पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं उनके सुहाग की रक्षा देवी स्वयं करती हैं।मंत्र- श्वेते वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचि:।महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥अन्य नाम- इन्हें अन्नपूर्णा, ऐश्वर्य प्रदायिनी, चैतन्यमयी भी कहा जाता है।माता महागौरी पूजा विधिनवरात्रि के आठवें दिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ कपड़े पहनें और माता का मंत्र जप करते हुए ध्यान करें। इसके बाद पूजा स्थल पर हर रोज की तरह गंगाजल से छिड़काव करें और पांच देसी घी के दीपक जलाएं। फिर मां महागौरी की पूजा शुरू करने से पहले मां के कल्याणकारी मंत्र ओम देवी महागौर्यै नम: मंत्र का जप करें। इसके बाद माता को धूप, दीप, फूल, फल रोली, अक्षत आदि पूजा की सामग्री अर्पित करें। महागौरी की पूजा में सफेद फूल अर्पित करें और नारियल या नारियल से बनी चीजों का भोग लगाएं। कुछ लोग नवमी के दिन कन्या पूजन करते हैं तो कुछ अष्टमी तिथि को। माता की पूजा में भक्तों को गुलाबी रंग के वस्त्र पहनने चाहिए।मां महागौरी आरतीजय महागौरी जगत की माया।जया उमा भवानी जय महामाया॥हरिद्वार कनखल के पासा।महागौरी तेरी वहां निवासा॥चंद्रकली ओर ममता अंबे।जय शक्ति जय जय मां जगंदबे॥भीमा देवी विमला माता।कौशिकी देवी जग विख्यता॥हिमाचल के घर गौरी रूप तेरा।महाकाली दुर्गा है स्वरूप तेरा॥सती हवन कुंड में था जलाया।उसी धुएं ने रूप काली बनाया॥बना धर्म सिंह जो सवारी में आया।तो शंकर ने त्रिशूल अपना दिखाया॥तभी मां ने महागौरी नाम पाया।शरण आनेवाले का संकट मिटाया॥शनिवार को तेरी पूजा जो करता।मां बिगड़ा हुआ काम उसका सुधरता॥भक्त बोलो तो सोच तुम क्या रहे हो।महागौरी मां तेरी हरदम ही जय हो॥
- मां दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन मां कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन सहस्रार चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। कहा जाता है कि कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। नाम से अभिव्यक्त होता है कि मां दुर्गा की यह सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है अर्थात जिनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। नाम से ही जाहिर है कि इनका रूप भयानक है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। अंधकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति हैं कालरात्रि। काल से भी रक्षा करने वाली यह शक्ति है।इस देवी के तीन नेत्र हैं। यह तीनों ही नेत्र ब्रह्मांड के समान गोल हैं। इनकी सांसों से अग्नि निकलती रहती है। यह गर्दभ की सवारी करती हैं। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वर मुद्रा भक्तों को वर देती है। दाहिनी ही तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। यानी भक्तों हमेशा निडर, निर्भय रहो। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग है। इनका रूप भले ही भयंकर हो लेकिन यह सदैव शुभ फल देने वाली मां हैं। इसीलिए यह शुभंकरी कहलाईं। अर्थात इनसे भक्तों को किसी भी प्रकार से भयभीत या आतंकित होने की कतई आवश्यकता नहीं। उनके साक्षात्कार से भक्त पुण्य का भागी बनता है।कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। इसलिए दानव, दैत्य, राक्षस और भूत-प्रेत उनके स्मरण से ही भाग जाते हैं। यह ग्रह बाधाओं को भी दूर करती हैं और अग्नि, जल, जंतु, शत्रु और रात्रि भय दूर हो जाते हैं। इनकी कृपा से भक्त हर तरह के भय से मुक्त हो जाता है।मंत्र- एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥कथापौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक बार चण्ड-मुंड और रक्तबीज नाम राक्षसों ने भूलोक पर हाहाकार मचा दिया था तब देवी दुर्गा ने चण्ड - मुंड का संहार किया परन्तु जैसे ही उन्होंने रक्तबीज का संहार किया तब उसका रक्त जमीन पर गिरते ही हज़ारों रक्तबीज उतपन्न हो गए। तब रक्तबीज के आतंक को समाप्त करने हेतु मां दुर्गा ने लिया था मां कालरात्रि का स्वरुप। मां कालरात्रि काल की देवी हैं। मां दुर्गा यह स्वरुप बहुत ही डरावना है।मां कालरात्रि की पूजा विधिनवरात्रि के सप्तम दिन मां कालरात्रि की पूजा करने से साधक के समस्त शत्रुओं का नाश होता है। हमे माता की पूजा पूर्णतया नियमानुसार शुद्ध होकर एकाग्र मन से की जानी चाहिए। माता काली को गुड़हल का पुष्प अर्पित करना चाहिए। कलश पूजन करने के उपरांत माता के समक्ष दीपक जलाकर रोली, अक्षत से तिलक कर पूजन करना चाहिए और मां काली का ध्यान कर वंदना श्लोक का उच्चारण करना चाहिए। तत्पश्चात मां का स्त्रोत पाठ करना चाहिए। पाठ समापन के पश्चात माता जो गुड़ का भोग लगा लगाना चाहिए। तथा ब्राह्मण को गुड़ दान करना चाहिए।माता को गुड़हल का फूल करें अर्पितमाता काली एवं कालरात्रि को गुड़हल का फूल बहुत पसंद है। इन्हें 108 लाल गुड़हल का फूल अर्पित करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। साथ ही जिन्हें मृत्यु या कोई अन्य भय सताता हो, उन्हें अपनी या अपने सम्बन्धी की लंबी आयु के लिए मां कालरात्रि की पूजा लाल सिन्दूर व ग्यारह कौडिय़ों से सुबह प्रथम पहर में करनी चाहिए। मां कालरात्रि की इस विशेष पूजा से जीवन से जुड़े समस्त भय दूर हो जाएंगे।
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पंडित प्रकाश उपाध्याय
चैत्र शुक्ल पक्ष में पांच योगों में पड़ने वाली रामनवमी तिथि विशेष फलदायी होगी।
रामनवमी पर इस बार गुरु पुष्य योग, अमृत सिद्धि योग, रवि योग, सर्वार्थ सिद्धि योग और गुरु योग का संयोग है। राम नवमी के दिन इन पांचों योग के होने से श्रीराम की पूजा का शीघ्र फल मिलेगा। इस दिन किए कार्यों में सफलता प्राप्त होगी। पंडित प्रकाश उपाध्याय के अनुसार गुरु पुष्य योग और अमृत सिद्धि योग 30 मार्च को प्रात 10:59 बजे आरंभ होगा और 31 मार्च की सुबह 06:13 बजे तक रहेगा। गुरु योग, सर्वार्थ सिद्धि योग और रवि योग सूर्योदय से सूर्यास्त तक रहेगा।
उन्होंने बताया कि रामनवमी के दिन शुभ मुहूर्त में भगवान श्रीराम का केसरयुक्त दूध से अभिषेक कर श्रीराम चरित मानस का पाठ करें। समयाभाव में पूरा पाठ न कर सकें तो सुन्दकाण्ड का पारायण अवश्य करें। इससे घर में खुशहाली आती है। धन वैभव की वृद्धि होती है। रामनवमी के दिन एक कटोरी में गंगा जल रखकर उसके सामने रामरक्षा मंत्र ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं रामचन्द्राय श्रीं नम’ का जप 108 बार करें। इसके बाद जल को घर के हर कोने-छत पर छिड़क दें। ऐसा करने से घर का वास्तु दोष समाप्त हो जाता है। - मां दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। उस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। नवरात्रि में छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा की जाती है। इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं।कात्य गोत्र में विश्व प्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की। कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं। इनका गुण शोधकार्य है। इसीलिए इस वैज्ञानिक युग में कात्यायनी का महत्व सर्वाधिक हो जाता है। इनकी कृपा से ही सारे कार्य पूरे जो जाते हैं। यह वैद्यनाथ नामक स्थान पर प्रकट होकर पूजी गईं। मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा की थी। यह पूजा कालिंदी यमुना के तट पर की गई थी। इसीलिए यह ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य है। यह स्वर्ण के समान चमकीली हैं और भास्वर हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। दायीं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। मां के बाँयी तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। इनका वाहन भी सिंह है। इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि इस देवी की उपासना करने से परम पद की प्राप्ति होती है।मंत्र- चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥माता का स्वरूप- मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य है। ये स्वर्ण के समान चमकीली हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। दाईं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। मां के बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। मां कात्यायनी का वाहन सिंह है।मां कात्यायनी की पौराणिक कथामां दुर्गा के इस स्वरूप की प्राचीन कथा इस प्रकार है कि एक प्रसिद्ध महर्षि जिनका नाम कात्यायन था, ने भगवती जगदम्बा को पुत्री के रूप में पाने के लिए उनकी कठिन तपस्या की। कई हजार वर्ष कठिन तपस्या के पश्चात् महर्षि कात्यायन के यहां देवी जगदम्बा ने पुत्री रूप में जन्म लिया और कात्यायनी कहलायीं। ये बहुत ही गुणवंती थीं। इनका प्रमुख गुण खोज करना था। इसीलिए वैज्ञानिक युग में देवी कात्यायनी का सर्वाधिक महत्व है। मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित रहता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस दिन जातक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होने के कारण मां कात्यायनी के सहज रूप से दर्शन प्राप्त होते हैं। साधक इस लोक में रहते हुए अलौकिक तेज से युक्त रहता है।पूजा का महाउपाययदि किसी व्यक्ति की शादी में तमाम तरह की अड़चनें आ रही हैं या फिर वैवाहिक जीवन में कोई समस्या है तो आज के दिन ऐसे जातकों को माता की विशेष रूप से पूजा-आराधना करनी चाहिए। आज के दिन मां कात्यायनी की विधि पूर्वक स्तुति करने से सुखद वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद प्राप्त होता है और सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। जिन साधकों को विवाह से सम्बंधित समस्या है, इस दिन मां को हल्दी की गांठे माता को अर्पित करने से मां उन्हें उत्तम फल प्रदान करती हैं।पूजा विधिनवरात्रि के छठवें दिन स्नान-ध्यान के पश्चात् लाल रंग के कपड़े पहन कर मां कात्यायनी की प्रतिमा या फोटो के सामने माता का ध्यान करें। इसके बाद कलश आदि पूजन करने के बाद के बाद मां कात्यायनी की पीले रंग के फूलों से विशेष पूजा अर्चना करें। पूजा के पश्चात् मां कात्यायनी की वंदना या श्लोक पढऩा करना न भूलें। इसके पश्चात् मां का स्त्रोत पाठ करें और फिर मां को पीले नैवेद्य का भोग लगाएं।
- कल्चुरी शासक ने नागर शैली में कराया था मंदिर का निर्माणछत्त्तीसगढ़ के तीनों महामाया मंदिर रतनपुर, अंबिकापुर और रायपुर, प्राचीन काल से लोगों की आस्था का केंद्र रहे हैं। नवरात्रि पर्व के दौरान यहां पर खूब रौनक हुआ करती है।रियासतकालीन राजधानी व संभाग मुख्यालय अंबिकापुर में मां महामाया व विंध्यवासिनी देवी विराजमान हैं। मां महामाया को अंबिका देवी भी कहा गया है। मान्यता है कि इनके नाम पर ही रियासतकालीन राजधानी का नामकरण विश्रामपुर से अंबिकापुर हुआ।प्रचलित दंत कथा के अनुसार अंबिकापुर में मां महामाया का धड़ जबकि बिलासपुर के रतनपुर में उनका सिर स्थापित है। सरगुजा महाराजा बहादुर रघुनाथशरण सिंहदेव ने जहां विंध्यासिनी देवी की मूर्ति को विंध्याचल से लाकर मां महामाया के साथ स्थापित कराया, तो वहीं मां महामाया की मूर्ति की प्राचीनता के संबंध में अलग-अलग दंत कथा प्रचलित हंै। कहा जाता है कि आदिकाल से ही यह क्षेत्र सिद्ध तंत्र कुंज के नाम से विख्यात था। यहां पर भी असम की कामाख्या देवी के मंदिर जैसी तंत्र पूजा हुआ करती थी।कहा जाता है कि मंदिर के निकट ही श्रीगढ़ पहाड़ी पर मां महामाया व समलेश्वरी देवी की स्थापना की गई थी। समलेश्वरी देवी की प्रतिमा को उड़ीसा के संबलपुर से श्रीगढ़ के राजा साथ लेकर आए थे। उसी दौरान सरगुजा क्षेत्र में मराठा सैनिकों का आक्रमण हुआ। दहशत में आए दो बैगा में से एक ने महामाया देवी तथा दूसरे ने समलेश्वरी देवी की प्रतिमा को कंधे पर उठाया और भागने लगे। इसी दौरान घोड़े पर सवार सैनिकों ने उनका पीछा किया। एक बैगा महामाया मंदिर स्थल पर तथा दूसरा समलाया मंदिर स्थल पर पकड़ा गया। इस कारण महामाया मंदिर व समलाया मंदिर के बीच करीब 1 किलोमीटर की दूरी है। वहीं प्रदेश के जिन स्थानों पर महामाया मां की मूर्ति स्थापित की गई है उसके सामने ही समलेश्वरी देवी विराजमान हैं। इसके बाद मराठा सैनिकों ने दोनों की हत्या कर दी। दंत कथा के अनुसार मराठा सैनिकों ने माता रानी की मूर्तियों को अपने साथ ले जाना चाहा, लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पाए। अंत में उन्होंने मूर्ति का सिर काट लिया और रतनपुर की ओर चल पड़े, लेकिन दैवीय प्रकोप से उन सब सैनिकों का संहार हो गया। इसलिए अंबिकापुर में माता का धड़ और रतनपुर में माता का सिर विराजमान है।ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि 17वीं सदी तक मराठों का अभ्युदय हो चुका था। सन् 1758 में बिंबाजी भोसले के नेतृत्व में सरगुजा में मराठा आक्रमण का उल्लेख है। मराठों की सेना गंगा की तरफ जाते हुए इस राज्य में आई। मराठों का उद्देश्य केवल नागपुर से काशी और गया के तीर्थ मार्ग को निष्कंटक बनाना था। संभावना व्यक्त की जाती है कि आक्रमण अंबिकापुर के श्रीगढ़ में भी हुआ हो।शारदीय नवरात्र पर सिर होता है प्रतिस्थापितअंबिकापुर स्थित मां महामाया देवी व समलेश्वरी देवी का सिर हर वर्ष परंपरानुरूप शारदीय नवरात्र की अमावस्या की रात में प्रतिस्थापित किया जाता है। नवरात्र पूजा के पूर्व कुम्हार व चेरवा जनजाति के बैगा विशेष द्वारा मूर्ति का जलाभिषेक कराया जाता है। अभिषेक से मूर्ति पूर्णता को प्राप्त हो जाती है और खंडित होने का दोष समाप्त हो जाता है। आज भी यह परंपरा कायम है। माता का सिर बनाकर उस पर मोम की परत चढ़ाई जाती है और फिर माता के धड़ के ऊपर इसे स्थापित किया जाता है। बाद में पुराने सिर का विसर्जन कर दिया जाता है। वहीं पुरातन परंपरा के अनुसार शारदीय नवरात्र को सरगुजा महाराजा महामाया मंदिर में आकर पूजा अर्चना करते हैं। जागृत शक्तिपीठ के रूप में मां महामाया सरगुजा राजपरिवार की अंगरक्षिका के रूप में पूजनीय हैं।महामाया मंदिर का वर्तमान स्वरूपवर्ष 1879 से 1917 के मध्य में कल्चुरीकालीन शासक बहादुर रघुनाथ शरण सिंहदेव ने नागर शैली में ऊंचे चबूतरे पर इस मंदिर का निर्माण करवाया था। चारों तरफ सीढ़ी और स्तंभ युक्त मंडप बना है। बीचो बीच एक कक्ष है जिसे गर्भगृह कहते हैं। यहीं पर मां महामाया विराजमान हैं। गर्भगृह के चारों ओर स्तंभयुक्त मंडप बनाया गया है। मंदिर के सामने एक यज्ञशाला व पुरातन कुआं भी है। समय के साथ यहां पर भक्तों के लिए काफी सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं।मां महामाया, विंध्यवासिनी व समलेश्वरी देवी की कृपा इस अंचल के लोगों को पुरातन समय से ही प्राप्त हो रही है। मां महामाया के दर्शन के बाद समलेश्वरी देवी की के दर्शन से ही पूजा की पूर्णता होती है। इसलिए श्रद्धालु महामाया मंदिर के बाद समलाया मंदिर में भी मां के दर्शन करते हैं। वहीं अंबिकापुर में यहां मां महामाया के दर्शन करने के पश्चात रतनपुर-बिलासपुर मार्ग पर स्थापित भैरव बाबा के दर्शन करने पर ही पूजा पूर्ण मानी जाती है।
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भारत में कई प्राचीन देवी-देवताओं के मंदिर हैं। इनमें से कई मंदिर का इतिहास हजारों साल से भी अधिक पुराना है। आज हम एक बेहद चमत्कारी मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं। यहां स्थापित माता की मूर्ति तीन पहर में अलग-अलग स्वरुप बदलती है। आइए जानते हैं इस मंदिर के बारे में -
लहर की देवी का यह मंदिर झांसी (मध्यप्रदेश) के सीपरी में स्थित है। इस मंदिर का निर्माण बुंदेलखंड के चंदेल राज के समय किया गया था। यहां के राजा का नाम परमाल देव था। राजा के दो भाई थे, जिनका नाम आल्हा-उदल था। कहा जाता है कि आल्हा की पत्नी और महोबा की रानी मछला का पथरीगढ़ के राजा ज्वाला सिंह ने अपहरण कर लिया था। ऐसा कहा जाता है कि आल्हा ने ज्वाला सिंह को पराजित करने और ज्वाला सिंह से रानी को वापस लाने के लिए अपने भाई के सामने अपने पुत्र की बलि इसी मंदिर में चढ़ा दी थी। लेकिन देवी ने इस बलि को स्वीकर नहीं किया और उस बालक को जीवित कर दिया। मान्यताओं के अनुसार जिस पत्थर पर आल्हा ने अपने पुत्र की बलि दी थी, वह पत्थर आज भी इसी मंदिर में सुरक्षित है।लहर की देवी को मनिया देवी के रूप में भी जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि लहर की देवी, मां शारदा की बहन हैं। यह मंदिर 8 शीला स्तंभों पर खड़ा है। मंदिर के प्रत्येक स्तंभ पर आठ योगिनी अंकित हैं। इस प्रकार यहां 64 योगिनी मौजूद हैं। मंदिर परिसर में भगवान गणेश, शंकर, शीतला माता, अन्नपूर्णा माता, भगवान दत्तात्रेय, हनुमानजी और काल भैरव के भी मंदिर हैं।माना जाता है कि इस मंदिर में मौजूद लहर की देवी की मूर्ति दिन में तीन बार स्वरूप बदलती है। प्रात:काल में बाल्यावस्था में, दोपहर में युवावस्था में और सायंकाल में देवी मां प्रौढ़ा अवस्था में मां नजर आती हैं। हर पहर में देवी का अलग-अलग श्रृंगार किया जाता है। प्रचलित कथाओं के अनुसार कालांतर में पहूज नदी का पानी पूरे क्षेत्र तक पहुंचा करता था। इस नदी की लहरें माता के चरणों को छूती थीं इसलिए मंदिर में स्थापित मां की मूर्ति को लहर की देवी कहा जाता है। माना जाता है कि मंदिर में विराजमान देवी तान्त्रिक हैं इसलिए यहां पर अनेक तान्त्रिक क्रियाएं भी होती हैं। नवरात्रों में माता के दर्शन के लिए यहां हज़ारों की संख्या में भीड़ उमड़ती है। नवरात्र में अष्टमी की रात को यहां भव्य आरती का आयोजन होता है। -
जीवन में जब भी किसी से मुलाकात होती है तो मन में हमेशा ये ख्याल आता है कि क्या ये व्यक्ति सही है. कई बार हम किसी से मिले और उनका बातें करने का तरीका अच्छा लगा या उनके विचार अच्छे लगे तो ऐसा लगता है कि ये ही व्यक्ति जीवनसाथी बनने के लिए सही है. धीरे धीरे दोनों का व्यवहार और सितारे मिलने शुरू हो जाते हैं. कुछ लोग पहली मुलाकात में ही अच्छे दोस्त हो जाते हैं. जबकि कुछ लोगों के साथ सालों तक रहने के बाद भी उनके विचार हमसे नहीं मिलते. उनसे एक समय आने के बाद लड़ाई झगड़े, विवाद भी होने लगते हैं. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, कई राशियां एक दूसरे के साथ बहुत कम्फर्टेबल होती है और कुछ राशियां एक दूसरे के साथ रह भी नहीं पाती है. तो आइए जानते हैं कि कौन कौन सी ऐसी राशियां हैं जो परफेक्ट जोड़ी नहीं बन सकती है.
1. मकर और मेष राशि
अच्छे विचारों और रहन-सहन वाले मकर राशि के लोगों की मनमौजी और बेसब्र रहने वाले मेष राशि वालों के साथ बिल्कुल भी मेल नहीं बनता है. मेष राशि के नियंत्रण में रखने के स्वभाव के कारण मकर राशि के लोग उनसे परेशान रहते हैं और बहुत तनाव महसूस करते हैं.
2. कुंभ और वृषभ राशि
कुंभ राशि वाले जिद्दी, आजाद ख्यालों वाले लोग होते हैं. जिसके कारण उनकी अक्सर वृषभ राशि वालों से नहीं बनती है. अगर कुंभ और वृषभ राशि वालों की जोड़ी बन जाए तो इनमें बहुत ज्यादा लड़ाई झगड़ा होगा, छोटी छोटी बातों पर लड़ाई होगी. वृषभ राशि के लोग कुंभ राशि वालों के खुले विचारों से बिल्कुल भी समझौता नहीं करते हैं.
3. मीन और मिथुन राशि
मीन राशि वाले सहज व्यवहार के होते हैं तो अक्सर वे मिथुन राशि के लोगों को समझ नहीं पाते हैं. मिथुन राशि के लोग सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं जबकि मीन राशि के लोग दूसरों की भावनाओं, इच्छाओं का पूरी तरह से ख्याल रखते हैं. साथ ही मीन राशि के लोग बेहद मददगार होते हैं. जिसके कारण दोनों का व्यवहार एक दूसरे से पूरी तरह विपरीत होता है इसलिए दोनों अच्छी जोड़ी नहीं कहलाती है.
4. मेष और कर्क राशि
मेष राशि के लोग तेजतर्रार होते हैं. जब ये लोग अच्छे लोगों के साथ रिश्ते में आते हैं तो उन्हें दिक्कतें ही आती हैं. कर्क राशि वाले लोग दूसरों का ख्याल रखने वाले और अच्छे विचार के लोग होते हैं. एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत स्वभाव होने के कारण इन्हें एक-दूसरे का साथ देने में बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ता है. मेष राशि वाले लोग जितने एक्स्ट्रोवर्ट (खुद को आसानी से व्यक्त करने वाले) स्वभाव वाले होते हैं, मकर राशि के लोग उतने ही अंतर्मुखी होते हैं.
5. वृषभ और सिंह राशि
वृषभ और सिंह ये दोनों स्वभाव से जिद्दी होते हैं. सिंह राशि वाले सिर्फ अपने बारे में ही सोचते हैं जिसकी वजह से सहज स्वभाव वाले वृषभ राशि वालों को दिक्कत होती है. सिंह राशि वालों को लाइमलाइट में रहना अच्छा लगता है जबकि वृषभ राशि वाले अपनी ही दुनिया में रहना चाहते हैं जिसकी वजह से दोनों के बीच अक्सर लड़ाई होती है.
6. मिथुन और कन्या
उत्साहित और जिज्ञासु स्वभाव के मिथुन राशि के लोगों को जरूरत से ज्यादा प्रैक्टिकल कन्या राशि वाले बोरिंग लगते हैं. मिथुन राशि वाले लोग मौजमस्ती और प्यार करने में यकीन रखते हैं तो कन्या राशि वालों की पहली प्राथमिकता उनका काम होता है. मिथुन राशि वाले अपना प्यार बेझिझक दिखाते हैं वहीं कन्या राशि वाले इस मामले में बहुत संकोची होते हैं. इस वजह से दोनों में तालमेल की कमी होती है.
7. कर्क और तुला राशि
कर्क राशि वाले लोग अपनी ईमानदारी, स्थिरता, उदारता और संवेदनशीलता की वजह से जाने जाते हैं जबकि तुला राशि के लोग ढुलमुल और दिखावटी स्वभाव वाले होते हैं. ये दोनों एक-दूसरे के साथ बिल्कुल बेमेल होते हैं. कर्क राशि वालों को तुला राशि वालों के साथ बहुत धैर्य से काम लेना होता है और ये धैर्य जब जवाब दे जाए तो रिश्ते खराब हो सकते हैं.
8. धनु और मीन
धनु राशि वाले लोग अपने नैतिक और दार्शनिक विचार के लिए जाने जाते हैं. धनु राशि वाले लोग अपने आसपास के माहौल को बिल्कुल खुशनुमा बना देते हैं और जबकि मीन राशि के लोग खुद में ही रहते हैं और इन्हें समझना मुश्किल होता है. मीन राशि के लोग जरूरत से ज्यादा भावुक होते हैं जिन्हें समझना धनु राशि वालों के लिए मुश्किल हो जाता है.
9. सिंह और वृश्चिक राशि
हंसी मजाक करने के शौकीन सिंह राशि वालों को जिद्दी स्वभाव वाले वृश्चिक राशि वालों से तालमेल बिठाने में बहुत कठिनाई होती है. सिंह राशि वाले अपने नेतृत्व करने की क्षमता की वजह से जाने जाते हैं और इसी आदत की वजह से वो हमेशा वृश्चिक राशि वालों के निशाने पर रहते हैं. दोनों के बीच आपस में बहुत तर्क होते हैं जो अक्सर ही लड़ाई में बदल जाती है.
10. कन्या और धनु राशि
कन्या राशि वाले किसी भी काम को परफेक्शन के साथ करते हैं और दूसरों से भी यही उम्मीद करते हैं. इनकी इसी आदत की वजह से आजाद विचारों वाले धनु राशि वालों को अपनी जिंदगी में दखल का एहसास होता रहता है. वो कन्या राशि वालों के साथ एक तरीके का दबाव महसूस करते हैं जिसकी वजह से इनका रिश्ता सही तरीके से नहीं चल पाता.
11. तुला और मकर राशि
तुला राशि के लोग खुले विचार वाले होते हैं और मकर राशि के लोग भी अपने अच्छे व्यवहार के लिए जाने जाते हैं. मकर राशि के लोग कभी-कभी बिल्कुल सख्त हो जाते हैं जिसकी वजह से तुला राशि वालों को उनके साथ देने में दिक्कत महसूस होती है. ये दोनों राशि वाले एक-दूसरे के साथ कंफर्टेबल नहीं महसूस करते हैं.
12. वृश्चिक और कुंभ राशि
वृश्चिक और कुंभ राशि वाले स्वभाव से एक दूसरे के बिल्कुल उलट होते हैं. इन दोनों के रिश्ते में प्यार और ईमानदारी की कमी होती है. एक-दूसरे के साथ आगे बढ़ने और किसी भी तरह के निर्णय लेने में ये एकमत नहीं हो पाते हैं. इस वजह से इनकी आपस में बिल्कुल भी नहीं बनती है. -
-बालोद से पंडित प्रकाश उपाध्याय
ग्रहों के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए और उनकी स्थिति मजबूत करने के लिए ज्योतिषी रत्न धारण करने की सलाह देते हैं। रत्नशास्त्र में 8 रत्न और 84 उपरत्नों का जिक्र किया गया है। हर रत्न किसी न किसी ग्रह से संबंधित है। ग्रह से संबंधित रत्न धारण करने से व्यक्ति को विशेष लाभ मिलता है। आज हम आपको एक ऐसे ही रत्न के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे धारण करने से गुरु बृहस्पति प्रसन्न होते हैं और आपके लिए समाज में मान-सम्मान का कारक बनते हैं।
पुखराज गुरु बृहस्पति का रत्न है। यह पीले रंग का रत्न है। जिसे पुरूष दाएं हाथ की तर्जनी उंगली में और महिलाएं दाएं व बाएं दोनों हाथों की तर्जनी उंगली में पहन सकती है। इसे सोने, पंच धातु या अष्ट धातु के साथ पहना जा सकता है। पुखराज रत्न को गुरुवार के दिन सुबह 5 से 9 बजे के बीच धारण करना चाहिए।
पुखराज धारण करने के फायदें-
इस रत्न को धारण करने से नौकरी, बिजनेस, एकेडमिक करियर में सफलता मिलने लगती है। साथ ही साथ वित्तीय व सामाजिक स्थिति में सुधार, वैवाहिक जीवन में खुशहाली, स्वास्थ्य में लाभ और संतान का स्वास्थ्य भी बेहतर बना रहता है।
धारण करने की विधि-
ज्योतिषी सलाह के अनुसार पुखराज रत्न को धारण करने से पहले गंगाजल सुर गाय के कच्चे दूध में तीन बार डुबों कर शुद्ध कर लें। ऐसा करते समय ॐ स्त्रीं ब्रह्म बृहस्पतये नमः" मंत्र का कुल 108 बार जाप करें। इस मंत्र का जाप करते हुए पुखराज को अंगूठी या पेंडेंट के रूप में धारण कर लें।
रत्न धारण करने की सलाह
मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, वृश्चिक, धनु और मीन राशि के जातक पुखराज रत्न धारण कर सकते हैं।
राशि के जातक भूलकर भी न करें धारण
कन्या, तुला और कुंभ राशि के जातक भूलकर भी पुखराज रत्न धारण न करें। -
-बालोद से पंडित प्रकाश उपाध्याय
सूर्य पर्वत एवं बुध पर्वत के संयुक्त उभार की स्थिति में व्यक्ति में योग्यता, चतुराई तथा निर्णय शक्ति अधिक होती है। ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठ वक्ता, सफल व्यापारी या उच्च स्थानों का प्रबंधक होता है। ऐसे व्यक्तियों में धन पाने की असीमित महत्वाकांक्षा होती है। हथेली में सूर्य पर्वत के साथ यदि बृहस्पति का पर्वत भी उन्नत हो तो व्यक्ति विद्वान, मेधावी और धार्मिक विचारों वाला होता है। अनामिका उंगली के मूल में सूर्य का स्थान होता है। सूर्य का उभार जितना अधिक होगा, प्रभाव भी उतना ही अधिक मिलेगा। सूर्य पर्वत का उभार अच्छा, स्पष्ट होने के साथ सरल सूर्य रेखा हो तो व्यक्ति श्रेष्ठ प्रशासक, पुलिसकर्मी, सफल उद्योगपति होता है। यदि पर्वत अधिक उभार वाला हो और रेखा कटी या टूटी हो तो व्यक्ति अभिमानी, स्वार्थी, क्रूर, कंजूस और अविवेकी होता है।
हथेली में सूर्य पर्वत शनि की ओर झुक जाए तो व्यक्ति जज एवं सफल अधिवक्ता होता है। यदि सूर्य पर्वत दूषित हो जाए तो व्यक्ति अपराधी प्रवृत्ति का हो जाता है। यदि सूर्य एवं शुक्र पर्वत उभार वाले है तो व्यक्ति विपरीत लिंग के प्रति शीघ्र एवं स्थायी प्रभाव डालने वाला, धनवान, परोपकारी, सफल प्रशासक, सौंदर्य और विलासिताप्रिय होता है। सूर्य पर्वत पर जाली हो तो गर्व करने वाला, लेकिन कुटिल स्वभाव का होता है। ऐसा व्यक्ति किसी पर विश्वास नहीं करता। तारे का चिह्न होने पर धनहानि होती है, लेकिन प्रसिद्धि अप्रत्याशित रूप से मिलती है। गुणा का चिन्ह हो तो सट्टा या शेयर में धन का नाश हो सकता है। सूर्य पर्वत पर त्रिभुज हो तो उच्च पद की प्राप्ति, प्रतिष्ठा तथा प्रशासनिक लाभ होते हैं। सूर्य पर्वत पर चौकड़ी हो तो लाभ तथा सफलता की प्राप्ति होती है। - नवरात्रि का पांचवां दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। मां अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं। यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरद मुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। पहाड़ों पर रहकर सांसारिक जीवों में नवचेतना का निर्माण करने वालीं स्कंदमाता। कहते हैं कि इनकी कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है। स्कंद कुमार कार्तिकेय की माता के कारण इन्हें स्कंदमाता नाम से अभिहित किया गया है। इनके विग्रह में भगवान स्कंद बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं।यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। यह कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है। शास्त्रों में इसका पुष्कल महत्व बताया गया है। इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। भक्त को मोक्ष मिलता है। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कांतिमय हो जाता है। अत: मन को एकाग्र रखकर और पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में कठिनाई नहीं आती है। उनकी पूजा से मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है। यह देवी विद्वानों और सेवकों को पैदा करने वाली शक्ति है। यानी चेतना का निर्माण करने वालीं। कहते हैं कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम महाकाव्य और मेघदूत रचनाएं स्कंदमाता की कृपा से ही संभव हुईं।मंत्र- सिंहसनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी॥कथा- पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी स्कंदमाता ही हिमालय की पुत्री हैं और इस वजह से इन्हें पार्वती कहा जाता है। महादेव की पत्नी होने के कारण इन्हें माहेश्वरी भी कहते हैं। इनका वर्ण गौर है इसलिए इन्हें देवी गौरी के नाम से भी जाना जाता है। मां कमल के पुष्प पर विराजित अभय मुद्रा में होती हैं इसलिए इन्हें पद्मासना देवी और विद्यावाहिनी दुर्गा भी कहा जाता है। भगवान स्कंद यानी कार्तिकेय की माता होने के कारण इनका नाम स्कंदमाता पड़ा। स्कंदमाता प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं की सेनापति बनी थीं। इस वजह से पुराणों में कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है।कैसे करें स्कंदमाता की पूजा- नवरात्रि के पांचवें दिन सबसे पहले स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें। अब घर के मंदिर या पूजा स्थान में चौकी पर स्कंदमाता की तस्वीर या प्रतिमा स्थापित करें। गंगाजल से शुद्धिकरण करें। अब एक कलश में पानी लेकर उसमें कुछ सिक्के डालें और उसे चौकी पर रखें। अब पूजा का संकल्प लें। इसके बाद स्कंदमाता को रोली-कुमकुम लगाएं और नैवेद्य अर्पित करें। अब धूप-दीपक से मां की आरती उतारें. आरती के बाद घर के सभी लोगों को प्रसाद बांटें और खुद भी ग्रहण करें। स्कंद माता को सफेद रंग पसंद है। आप श्वेत कपड़े पहनकर मां को केले का भोग लगाएं। मान्यता है कि ऐसा करने से मां निरोगी रहने का आशीर्वाद देती हैं।स्कंदमाता का मनपसंद रंग और भोगस्कंदमाता को नारंगी रंग पसंद है। दिन भर व्रत रखने के बाद शाम को माता को केले का भोग लगाया जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से शरीर स्वस्थ रहता है।
- बालोद से पंडित प्रकाश उपाध्यायआज चैत्र नवरात्रि का चौथा दिन है. नवरात्रि के चौथे दिन मां कुष्मांडा की पूजा अर्चना की जाती है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा था, तब इसी देवी ने अपने हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी. अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा ब्रह्मांड की रचना करने के कारण इस देवी को कूष्मांडा कहा गया है. मां कुष्मांडा की आठ भुजाएं हैं, इसलिए इन्हें अष्टभुजा भी कहा जाता है. इनके सात हाथों में कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र और गदा हैं. माता के आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है. इस देवी का वाहन सिंह है. मां के इस स्वरूप की पूजा करने से जीवन में सुख-समृद्धि और उन्नति आती है. ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में मां के इस रूप का तेज व्याप्त है.नवरात्रि के चौथे दिन के उपाय-नवरात्रि के चौथे दिन मां दुर्गा के कूष्मांडा स्वरूप की विधीपूर्वक पूजा-अर्चना करें. मां को नारियल, लाल फल और मालपुए का भोग लगाएं इसके बाद घी का दीपक जला कर आरती करें. लंबी आयु के लिए मां कूष्मांडा से प्रार्थना करें.-आज रात में पीपल के पेड़ के नीचे की थोड़ी सी मिट्टी लाएं और उसे अपने घर में रखें. इस मिट्टी पर दूध, दही, घी, अक्षत, रोली चढ़ाए और उसके आगे दिया जलाएं. फिर अगले दिन इस मिट्टी को वापस पीपल के पेड़ के नीचे डालें दें. ऐसा करने से किसी भी कार्य में आ रही सारी बाधाएं समाप्त होती हैं.-नवरात्रि के चौथे दिन मिट्टी की पूजा करने के बाद बाधा निवारण मंत्र की एक माला यानि 108 बार जप करें. इससे कार्य में आ रही बाधाएं दूर होती हैं.-संतान प्राप्ति में बाधा आ रही है तो नवरात्रि के चौथे दिन कुछ खास उपाय जरूर करें. लौंग और कपूर में अनार के दाने मिला कर मां दुर्गा को आहुति दें. इससे संतान सुख की प्राप्ति का वरदान मिलता है. आहुति से पहले इस सामग्री पर बाधा निवारण मन्त्र जरुर पढ़ना चाहिए.-कारोबार में तरक्की के लिए लौंग और कपूर में कोई भी पीले रंग का फूल मिलाएं और इससे मां दुर्गा को आहुति दें. आहुति से पहले इस सामग्री पर बाधा निवारण मंत्र की एक माला जप करें.-परिवार में किसी का स्वास्थ्य अक्सर ही खराब रहता हो तो 152 लौंग और 42 कपूर के टुकड़े लें. नारियल की गिरी, शहद और मिश्री मिला कर इससे हवन करें. इससे व्यक्ति की सेहत में तेजी से सुधार होने लगता है.-विवाह में रुकावट के लिए भी नवरात्रि के चौथे दिन के उपाय लाभकारी माने जाते हैं. इसके लिए 36 लौंग और 6 कपूर के टुकड़े लें में हल्दी और चावल मिलाकर मां दुर्गा को आहुति दें. आहुति से पहले लौंग और कपूर पर बाधा निवारण मंत्र का ग्यारह माला जप करें. इससे शीघ्र विवाह के योग बनते हैं.
- नवरात्र-पूजन के चौथे दिन कुष्मांडा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन अदाहत चक्र में अवस्थित होता है।नवरात्रि में चौथे दिन देवी को कुष्मांडा के रूप में पूजा जाता है। अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है।इस देवी की आठ भुजाएं हैं, इसलिए अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमश: कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृत में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्मांडा। इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है। अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। यह देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है। विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। यह देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख समृद्धि और उन्नति प्रदान करती हैं। अंतत: इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए।मंत्र- सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे॥मां कुष्मांडा की कथापौराणिक कथा के अनुसार मां कुष्मांडा का अर्थ होता है कुम्हड़ा। मां दुर्गा असुरों के अत्याचार से संसार को मुक्त करने के लिए कुष्मांडा का अवतार लिया था। मान्यता है कि देवी कुष्मांडा ने पूरे ब्रह्माण्ड की रचना की थी। पूजा के दौरान कुम्हड़े की बलि देने की भी परंपरा है। इसके पीछे मान्यता है ऐसा करने से मां प्रसन्न होती हैं और पूजा सफल होती है।मां कुष्मांडा की पूजा विधिनवरात्रि के चौथे दिन सुबह स्नान करने के बाद मां कुष्मांडा स्वरूप की विधिवत करने से विशेष फल मिलता है। पूजा में मां को लाल रंग के फूल, गुड़हल या गुलाब का फूल भी प्रयोग में ला सकते हैं, इसके बाद सिंदूर, धूप, गंध, अक्षत् आदि अर्पित करें। सफेद कुम्हड़े की बलि माता को अर्पित करें। कुम्हड़ा भेंट करने के बाद मां को दही और हलवा का भोग लगाएं और प्रसाद में वितरित करें।
- मां दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। इस दिन साधक का मन मणिपूर चक्र में प्रविष्ट होता है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाई देने लगती हैं।देवी का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी माना गया है। इसीलिए कहा जाता है कि हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखकर साधना करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है। इस देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का आधा चंद्र है। इसीलिए इस देवी को चंद्रघंटा कहा गया है। इनके शरीर का रंग सोने के समान बहुत चमकीला है। इस देवी के दस हाथ हैं। वे खड्ग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं। सिंह पर सवार इस देवी की मुद्रा युद्ध के लिए उद्धत रहने की है। इसके घंटे सी भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य और राक्षस कांपते रहते हैं। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाईं देने लगती हैं। इस देवी की आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है। यह देवी कल्याणकारी है।पूजन विधि- माता की चौकी (बाजोट) पर माता चंद्रघंटा की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें। इसके बाद गंगा जल या गोमूत्र से शुद्धिकरण करें। चौकी पर चांदी, तांबे या मिट्टी के घड़े में जल भरकर उस पर नारियल रखकर कलश स्थापना करें। इसके बाद पूजन का संकल्प लें और वैदिक एवं सप्तशती मंत्रों द्वारा मां चंद्रघंटा सहित समस्त स्थापित देवताओं की षोडशोपचार पूजा करें। इसमें आवाहन, आसन, पाद्य, अध्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, सौभाग्य सूत्र, चंदन, रोली, हल्दी, सिंदूर, दुर्वा, बिल्वपत्र, आभूषण, पुष्प-हार, सुगंधित द्रव्य, धूप-दीप, नैवेद्य, फल, पान, दक्षिणा, आरती, प्रदक्षिणा, मंत्र पुष्पांजलि आदि करें। तत्पश्चात प्रसाद वितरण कर पूजन संपन्न करें।मंत्र- पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता।प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता॥माता चंद्रघंटा की कथादेवताओं और असुरों के बीच लंबे समय तक युद्ध चला. असुरों का स्वामी महिषासुर था और देवताओं के इंद्र। महिषासुर ने देवाताओं पर विजय प्राप्त कर इंद्र का सिंहासन हासिल कर लिया और स्वर्गलोक पर राज करने लगा। इसे देखकर सभी देवतागण परेशान हो गए और इस समस्या से निकलने का उपाय जानने के लिए त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास गए। देवताओं ने बताया कि महिषासुर ने इंद्र, चंद्र, सूर्य, वायु और अन्य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए हैं और उन्हें बंधक बनाकर स्वयं स्वर्गलोक का राजा बन गया है। देवताओं ने बताया कि महिषासुर के अत्याचार के कारण अब देवता पृथ्वी पर विचरण कर रहे हैं और स्वर्ग में उनके लिए स्थान नहीं है। यह सुनकर ब्रह्मा, विष्णु और भगवान शंकर को अत्यधिक क्रोध आया। क्रोध के कारण तीनों के मुख से ऊर्जा उत्पन्न हुई। देवगणों के शरीर से निकली ऊर्जा भी उस ऊर्जा से जाकर मिल गई। यह दसों दिशाओं में व्याप्त होने लगी। तभी वहां एक देवी का अवतरण हुआ। भगवान शंकर ने देवी को त्रिशूल और भगवान विष्णु ने चक्र प्रदान किया। इसी प्रकार अन्य देवी देवताओं ने भी माता के हाथों में अस्त्र शस्त्र सजा दिए। इंद्र ने भी अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतरकर एक घंटा दिया। सूर्य ने अपना तेज और तलवार दिया और सवारी के लिए शेर दिया। देवी अब महिषासुर से युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार थीं। उनका विशालकाय रूप देखकर महिषासुर यह समझ गया कि अब उसका काल आ गया है। महिषासुर ने अपनी सेना को देवी पर हमला करने को कहा। देवी ने एक ही झटके में ही दानवों का संहार कर दिया। इस युद्ध में महिषासुर तो मारा ही गया, साथ में अन्य बड़े दानवों और राक्षसों का संहार मां ने कर दिया। इस तरह मां ने सभी देवताओं को असुरों से अभयदान दिलाया।
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नवरात्र पर्व के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को मां के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इस देवी को तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया।
कहते हैं मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है। इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए।
मंत्र- दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥
कथा- पूर्वजन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया। कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रहकर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया। कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की। यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं।
पूजा विधि- देवी को पंचामृत से स्नान कराएं, फिर अलग-अलग तरह के फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर, अर्पित करें। देवी को सफेद और सुगंधित फूल चढ़ाएं। इसके अलावा कमल या गुड़हल का फूल भी देवी मां को चढ़ाएं। मिश्री या सफ़ेद मिठाई से मां का भोग लगाएं आरती करें एवं हाथों में एक फूल लेकर उनका ध्यान करें।
1. या देवी सर्वभूतेषु मां ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
2. दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।
देवी की पूजा करते समय सबसे पहले हाथों में एक फूल लेकर प्रार्थना करें-
इधाना कदपद्माभ्याममक्षमालाक कमण्डलु
देवी प्रसिदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्त्मा
मां ब्रह्मचारिणी का स्रोत पाठ
तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥
"मां ब्रह्मचारिणी का कवच"
त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।
स्वरूप
माता अपने इस स्वरूप में बिना किसी वाहन के नजर आती हैं। मां ब्रह्मचारिणी के दाएं हाथ में माला और बाएं हाथ में कमंडल है।
महत्त्व
माता ब्रह्मचारिणी हमें यह संदेश देती हैं कि जीवन में बिना तपस्या अर्थात कठोर परिश्रम के सफलता प्राप्त करना असंभव है। बिना श्रम के सफलता प्राप्त करना ईश्वर के प्रबंधन के विपरीत है। अत: ब्रह्मशक्ति अर्थात समझने व तप करने की शक्ति हेतु इस दिन शक्ति का स्मरण करें। योग-शास्त्र में यह शक्ति स्वाधिष्ठान में स्थित होती है। अत: समस्त ध्यान स्वाधिष्ठान में करने से यह शक्ति बलवान होती है एवं सर्वत्र सिद्धि व विजय प्राप्त होती है। -
- दक्षिणाभिमुखी प्राकृतिक प्रस्तर प्रतिमा का अपना विशेष शास्त्रीय महत्व
-आधा दर्जन पहाडिय़ों के साथ जुड़ी हैं कई कथाएं, किंवदंतियां
-करीब 70 बरसों से हो रहा है मड़ई मेले का आयोजन
आलेख- वरिष्ठ पत्रकार अनिल पुरोहित
छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में बागबाहरा तहसील मुख्यालय से करीब पांच किलोमीटर दूर स्थित ग्राम घुंचापाली से लगी लगभग आधा दर्जन पहाडिय़ों की शृंखला चंडी डोंगरी के नाम से काफी प्रसिद्धि अर्जित कर चुकी है। यहीं है आसुरी शक्तियों व दैवीय आपदाओं की रक्षक मानी जाने वाली मां चंडी देवी का मंदिर, जिसके आसपास का स्थान प्राकृतिक रूप से जंगल व पहाडिय़ों घिरा हुआ है। यहां के प्राकृतिक वातावरण और मां के आंचल तले निर्मित चंडी बांध ने इसे पर्यटन की दृष्टि से भी उभारा है। इन पहाडिय़ों के साथ कई कथाएं, किंवदंतियां और घटनाएं जुड़ी हैं जिनके बारे में लोग कम ही जानते हैं।
श्रद्धा और भक्ति का प्रमुख केंद्र बन चुकी इस चंडी डोंगरी में मां चंडी देवी विराजमान हैं। रौद्ररूपिणी मां चंडी की साढ़े 23 फीट ऊंची दक्षिणाभिमुखी प्राकृतिक प्रस्तर प्रतिमा का अपना विशेष शास्त्रीय महत्व है। ऐसी प्रतिमा कदाचित ही कहीं और देखने को मिले। तंत्र साधना की प्रमुख स्थली माना जाने वाला यह स्थल अब एक पीठ के रूप में भी ख्याति अर्जित कर चुका है। मां चंडी की महिमा और प्रभाव से जनसामान्य काफी प्रभावित है और इस क्षेत्र में लोग प्रत्येक कार्य मां चंडी के भक्तिपूर्वक स्मरण से ही शुरू करते हैं। मां के चमत्कार से जुड़े अनेक प्रसंगों की चर्चा यहां सुनी जाती हैं। एक बहुश्रुत चर्चा यह भी है कि मां चंडी के इस मंदिर की पूर्व दिशा में स्थित पहाड़ ठाड़ डोंगर (खड़ा पहाड़) से मध्यरात्रि में एक प्रकाश-पुंज निकलता है और मां के चरणों में विलीन हो जाता है! अनेक लोग हैं जो इस अलौकिक दृश्य को साक्षात देखने का दावा करते हैं और इसे सिद्ध बाबा के शक्ति-पुंज की संज्ञा देते हैं। यहां कई गुफाएं हैं जहां वर्षों पहले वन्य प्राणियों का बसेरा हुआ करता था। इनमें से चंडी जलाशय से लगा भाग भलवा माड़ा के नाम से जाना जाता है।
गागर में सागर!
पहाड़ी के नीचे बघवा माड़ा और मंदिर वाली पहाड़ी के मार्ग पर पांच फीट गहरा और लगभग इतना ही चौड़ा एक कुआं है। ऊंचे पथरीले भाग में स्थित इस कुएं की विशेषता यह है कि बारहों महीने इसमें पानी भरा रहता है और कभी कम नहीं होता! कहते हैं वह सोतेनुमा (गढ़ा) स्थल है जो दर्शनार्थियों के साथ ही वन्य प्राणियों के लिए पेयजल प्राप्ति का साधन था। आज भी स्थिति ऐसी ही है। आज तो इसी कुएं के जल से माता के मंदिर में विभिन्न निर्माण कार्य कराए जा रहे हैं। अपनी इसी विशिष्टता के कारण यह कुआं गागर में सागर की उपमा अर्जित कर चुका है। पिछले चार-पांच दशकों में पूर्व सरपंच स्व. शंकरलाल अग्रवाल, राजमिस्त्री स्व. लखनलाल सोलंकी, स्व. बेनीराम चंद्राकर, पूर्व नपा अध्यक्ष स्व. विद्यासागर अग्रवाल, स्व. गोरेलाल श्रीवास्तव, बाबूलाल आदि ने इस कुएं के पुनरुद्धार के काम में रुचि लेकर इस दिशा में सक्रिय पहल की। बाद में के. एस. ठाकुर ने इस कुएं को बंधवाने का काम पूरा किया।
पूजा पद्धति
गोड़ बहुल क्षेत्र और ओडि़शा से नजदीक होने के कारण कमोबेश उन्हीं परंपराओं के अनुसार यहां मां की पूजा की जाती रही है। तब यहां पशु-बलि अनिवार्य हुआ करती थी। पहले वर्ष में दो बार, दशहरा और चैत्र पूर्णिमा को यहां धूमधाम से पूजा की जाती थी। इस दौरान बैगा द्वारा देवी को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि देकर उसका रक्त एक कटोरे में भरकर रख दिया जाता था और वहीं जंगल में बकरे को पकाकर उसे प्रसाद रूप में ग्रहण कर लिया जाता था। इस प्रसाद को घर नहीं लाया जाता था। तब महिलाओं के लिए यह प्रसाद और मंदिर में जाना वर्जित था। माना जाता है कि तंत्र-साधना के लिए इस स्थान की गोपनीयता बनाए रखने के लिए ही ऐसे प्रतिबंध लगाए गए होंगे। पर बाद में, कहते हैं कि माता ने स्वयं इस भ्रांति को दूर कर उन्हें चमत्कार दिखाकर समीप से पूजा-पाठ का अवसर दिया और उनकी मनोकामनाएं पूर्ण कीं। मां की कृपा से अनेक नि:संतान महिलाओं को संतान-सुख, रोगियों को आरोग्य-सुख प्राप्त होने की कई चर्चाएं क्षेत्र में सुनी जाती हैं। कालांतर में, साधकों के साथ ही भक्तों का माता के दरबार में जब आना-जाना बढ़ा, तब से यहां वैदिक और शास्त्रीय रीति से पूजन होने लगा। 1950-51 में नवरात्रि पर्व पर पहली बार यहां दुर्गा सप्तशती का पाठ और शत चंडी महायज्ञ कर पूजा प्रारंभ कराए जाने की बात जानकार बताते हैं। उसी समय से शुरू हुआ मड़ई मेला अब तक जारी है। उन दिनों पं. चंद्रशेखर मिश्र और पं. चतुर्भुज मिश्र चैत्र और शारदीय नवरात्रि पर्व में यहां का पूजा-विधान संपन्न कराया करते थे। बागबाहरा के पुराना थानापारा निवासी स्व. गोपालप्रसाद देवांगन को तो काफी समय तक किसी भी समय मां का बुलावा आते ही इस मंदिर में अकेले ही पहुंच जाने के लिए जाना जाता है! कहते हैं कि उन्हें माता की सिद्धि प्राप्त थी। चूंकि यह ग्राम घुंचापाली की कुलदेवी है, इसलिए इसी ग्राम के बैगा रहे हैं। आगे चलकर यहां अनेक मातासेवक पुजारियों के अलावा पं. सियाकिशोरी शरण भी आसपास के युवकों को साथ लेकर पूजा-अर्चना करते रहे हैं।
पत्थर की नागिन
इस पहाड़ी से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर ही ग्राम जुनवानी में नागिन डोंगरी है। यहां लगभग 60 फीट लंबा एक ऐसा स्थान है मानो वहां कोई सर्प पड़ा हो और जिसे किसी ने धारदार हथियार से टुकड़े-टुकड़े कर दिया हो। जुनवानी के ग्रामीण श्रावण के महीने में इसकी 'ग्राम रसिका' के रूप में पूजा करते हैं। यहां पड़े अनेक निशान ऐसा आभास देते हैं कि कोई सर्प अभी-अभी ही वहां से गुजरा है। यहां कुछ ऐसे बिंदु हैं जहां पत्थरे के टुकड़े मारने से वहां मधुर ध्वनि निकलती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो इस डोंगरी के गर्भ में कुछ छिपा है।
संतुलित अंडाकार पत्थर
चंडी मंदिर चढ़ते समय दायीं ओर पहाड़ी के ढलान धरातल पर कोई 17 फीट लंबा अंडाकार विशालकाय पत्थर दर्शनार्थियों के आकर्षण का एक केंद्र होता है। वर्षों से उसी स्थान पर उसी स्थिति में अवस्थित यह पत्थर प्रकृति और मां चंडी के चमत्कार के रूप में श्रद्धा का केंद्र बन गया है। इसी डोंगरी में एक स्थान ऐसा भी है जहां छोटा-कंकड़ मारने पर आवाज गूंजती है। दर्शनार्थी इस बिंदु पर कंकड़ मारकर यह आवाज सुनते हैं।
नगाड़ा पत्थर
मां चंडी के मंदिर के एकदम बाजू में गस्ति वृक्ष के नीचे दो विशालकाय नगाड़ा रूपी दो पत्थर अगल-बगल रखे हुए हैं। इसी के पास है एक तुलसी पौधा, जहां नवरात्रि पर्व पर नाग देवता के दर्शन होने की बात श्रद्धालु भक्त बताते हैं। यहां की बघवा माड़ा पहाड़ी पर स्थित अनेक गुफाएं दर्शकों के मनोरंजन का केंद्र हैं। मंदिर जाते समय राम भक्त हनुमानजी का एक मंदिर है जो पहले गुफा में विराजमान थे। इसके ठीक सामने भैरव बाबा की मुक्ताकाशी प्रतिमा एक वृक्ष के नीचे स्थित थी। अब मंदिर बनाकर इन दोनों देव प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा कर दी गई है। मां के मंदिर के ठीक पीछे एक गुफा में मां काली विराज रही हैं।
हो रहे हैं बहुत-से काम
चंडी देवी मंदिर के निर्माण की दिशा में पांच-छ: दशकों से चल रहे प्रयास अब काफी सीमा तक साकार हो चुके हैं और अभी भी बहुत-से काम चल रहे हैं। विशाल ज्योति-कलश भवन, इसी से लगकर स्व. हरकेशराय अग्रवाल की स्मृति में उनके परिजनों द्वारा बनवाया गया विशाल सभाकक्ष, भव्य मंदिर, व्यवस्थित यज्ञशाला, पानी टंकी, भोजन शाला और भोजन हाल आदि अब इस मंदिर को काफी सुविधा संपन्न केंद्र के रूप में स्थापित कर चुके हैं। मंदिर के सतत विकास में जुटी चंडी मंदिर समिति इस मंदिर परिसर के बहुमुखी विकास के काम हाथ में लिए हुए है। इस काम में समिति को श्रद्धालु भक्तों का मुक्त सहयोग भी प्राप्त हो रहा है।
(छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष) -
शास्त्रों के अनुसार नवरात्रि माता भगवती की आराधना,संकल्प, साधना और सिद्धि का दिव्य समय है। यह तन-मन को निरोग रखने का सुअवसर भी है। देवी भागवत के अनुसार देवी ही ब्रह्मा,विष्णु एवं महेश के रूप में सृष्टि का सृजन,पालन और संहार करती हैं। भगवान महादेव के कहने पर रक्तबीज शुंभ-निशुंभ,मधु-कैटभ आदि दानवों का संहार करने के लिए मां पार्वती ने असंख्य रूप धारण किए किंतु देवी के प्रमुख नौ रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है। नवरात्रि का प्रत्येक दिन देवी मां के विशिष्ठ रूप को समर्पित होता है और हर स्वरुप की उपासना करने से अलग-अलग प्रकार के मनोरथ पूर्ण होते हैं। नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है।
ये ही नवदुर्गा में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इस देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। यही सती के नाम से भी जानी जाती हैं।
मंत्र- वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम ॥
पूजा विधि-
सर्वप्रथम शुद्ध होकर चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर देवी शैलपुत्री की प्रतिमा स्थापित करें। तत्पश्चात कलश स्थापना करें। प्रथम पूजन के दिन शैलपुत्री के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा लाल फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती है। उसके बाद उनकी वंदना मंत्र का एक माला जाप करे तत्पश्चात उनके स्त्रोत पाठ करें। यह पूर्ण होने के बाद माता शैलपुत्री को सफेद चीजों का भोग लगाएं और यह शुद्ध गाय के घी में बना होना चाहिए। माता को लगाए गए इस भोग से रोगों का नाश होता है।
कथा- एक बार जब सती के पिता प्रजापति दक्ष ने यज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया, पर भगवान शंकर को नहीं। सती अपने पिता के यज्ञ में जाने के लिए विकल हो उठीं। शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है, उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है। परन्तु सती संतुष्ट नही हुईं। सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुंचीं तो सिर्फ मां ने ही उन्हें स्नेह दिया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे। भगवान शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव था। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे। इससे सती को क्लेश पहुंचा। वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा अपनेआप को जलाकर भस्म कर लिया।
इस दारुण दुख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने तांडव करते हुये उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मी और शैलपुत्री कहलाईं। शैलपुत्री का विवाह भी फिर से भगवान शंकर से हुआ। शैलपुत्री शिव की अद्र्धांगिनी बनीं। इनका महत्व और शक्ति अनंत है। -
आलेख - मंजूषा शर्मा
छत्तीसगढ़ में देवी मंदिरों की श्रृंखला में डोंगरगढ़ का प्रसिद्ध बम्लेश्वरी मंदिर भी बरसों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। प्राचीन काल में यह स्थान कामावती नगर के नाम से विख्यात था। समय के साथ राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन द्वारा मंदिर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में भक्तों के लिए अनेक सुविधाओं का विस्तार किया गया है, जिससे यहां अब और भी भक्त पहुंचने लगे हैं। वैसे तो साल भर यहां पर भक्तों का आना लगा ही रहता है, लेकिन शारदीय और चैत्र नवरात्र में दूर-दूर से भक्त माता के दरबार में मत्था टेकने के लिए पहुंचते हैं। इस मौके पर पहाड़ी के नीचे भव्य मेला भी लगता है, जो स्थानीय के साथ -साथ अनेक लोगों के लिए रोजगार का साधन भी उपलब्ध कराता है।
ऊंचे पर्वत पर विराजमान मां बम्लेश्वरी देवी के दर्शन के लिए श्रद्घालुओं को करीब एक हजार एक सौ एक सीढिय़ां चढऩी पड़ती है। रोप- वे की सुविधा शुरू हो जाने से भक्तों का माता के दरबार तक पहुंचना और आसान हो गया है। अतीत के अनेक तथ्यों को अपने गर्भ में समेटे ये पहाड़ी अनादिकाल से जगत जननी मां बमलेश्वरी देवी की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति का साक्षी हैं। कहा जाता है कि मां बम्लेश्वरी के आशीर्वाद से भक्तों को शत्रुओं को परास्त करने की शक्ति मिलती है साथ ही विजय का वरदान मिलता है। 1,600 फीट ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थित मां बमलेश्वरी देवी मंदिर आध्यात्मिक महत्व के साथ - साथ कई किंवदंतियों को भी अपने में समाहित किए हुए है।
दो- पहर आरती का महत्व
मां बम्लेश्वरी के दरबार में दो- पहर होने वाली आरती का भी काफी महत्व है। घंटी-घडियालों के बीच आरती की लौ के साथ मंदिर में भक्ति का अलौकिक नजारा देखने वालों को बांध लेता है, भक्ति के रस में डुबो देता है। मां बम्लेश्वरी बगलामुखी का रूप हैं , जो हिमाचल के कांगड़ा में सुंदर पहाडिय़ों के बीच साक्षात विराजमान हैं। मान्यता है कि 10 महाविद्याओं में से एक मां बगलामुखी के दरबार में भगवान राम ने तपस्या कर रावण पर विजय प्राप्त करने का आशीर्वाद प्राप्त किया था।
अद्भुत है माता की महिमा
चारों तरफ पहाड़ों से घिरे डोंगरगढ़ का इतिहास अद्भुत है। राजा विक्रमादित्य से लेकर खैरागढ़ रियासत तक के कालपृष्ठों में मां बम्लेश्वरी की महिमा गाथा मिलती है। दंतकथा है कि आज के करीब ढाई हजार साल पहले इस नगर का नाम कामावतीपुरी था। यहां राजा वीरसेन का शासन था। उनकी कोई संतान नहीं थी। राजा को यह जानकारी मिली कि नर्मदा नदी के तट पर एक तीर्थ है, महिष्मती, जहां भगवान शिव की आराधना करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। राजा-रानी ने शुभ मुहुर्त में नर्मदा नदी के तट पर भगवान शंकर और पार्वती की आराधना की। इस प्रार्थना के एक वर्ष बाद उन्हें सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। इस चमत्कार से अभिभूत होकर राजा वीरसेन ने पहाड़ी की चोटी पर मां पार्वती के मंदिर की स्थापना की। भगवान शिव अर्थात महेश्वर की पत्नी होने के कारण पार्वती जी का नाम महेश्वरी भी है। कालान्तर में महेश्वरी देवी ही बम्लेश्वरी कहलाने लगी। तब से ऐसी मान्यता है कि मां बम्लेश्वरी की जो सच्चे मन से पूजा करता है, उसके सब दुख-दर्द दूर हो जाते हैं।
वैसे भी डोंगरगढ़ की पर्वतवासिनी, मां बम्लेश्वरी के मंदिर की प्राचीनता संदेह की परिधि से सर्वथा बाहर है क्योंकि आस्था का आंकलन कभी नहीं किया जाता। यहां पर मां शक्ति बम्लेश्वरी रूप में विराजमान हैं जो करीब ढाई हजार से अधिक वर्षों से करोड़ों श्रद्घालुओं की श्रद्घा एवं उपासना का केंद्र बनी हुई है।
डोंगरगढ़ तहसील
बात करें डोंगरगढ़ की तो यह राजनांदगांव जिले की सबसे बड़ी तहसील है। राजसी पहाड़ों और तालाबों के साथ, डोंगगढ़ शब्द से लिया गया है- डोंगर का मतलब पहाड़ और गढ़ का अर्थ किला है। पहले डोंगरगढ़ रियासत में शामिल था और खैरागढ़ नरेश कमल नारायण सिंह की वजह से इसकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंची। उन्होंने ही पहाड़ी की तलहटी पर छोटी बम्लई माता मंदिर का निर्माण करवाया। सन् 1964 में मंदिर के संचालन के लिए राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक समिति बनाई जो श्री बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट समिति के नाम से जानी जाती है। इस समिति ने बम्लेश्वरी मंदिर के विकास में अहम भूमिका निभाई।
करीब एक हजार सीढिय़ों की चढ़ाई करने के बाद जब भक्त ऊंची पहाड़ी पर माता के दरबार में पहुंचते हैं, तो उनकी सारी थकान छूमंतर हो जाती है। मां का प्रताप ही कुछ ऐसा है। ऊपर से डोंगरगढ़ शहर को देखना अपने आप में रोमांचक अनुभव है। नवरात्र के दौरान रात्रि में पूरी पहाड़ी रौशनी से जगमगा उठती है। दिन के समय यहां पहुंचे तो पहाड़ों और जंगलों की नैसर्गिक सुषमा यात्रियों के मन को शांति प्रदान करने के साथ ही अलौकिक सुख का अनुभव कराती है।
अन्य आकर्षण-
तपस्वी तालाब से जुड़ी हैं कई मान्यताएं
पहाड़ी की तलहटी पर तपस्वी तालाब भी है जिसके बारे में कई मान्यताएं और किवदंतियां हैं। कहा जाता है कि ऋषि-मुनि इसके आसपास की गुफाओं में तप करने आते थे इसलिए इसका नाम तपस्वी तालाब हो गया।
टोनही बम्लाई का मंदिर
डोंगरगढ़ में मां रणचण्डी देवी का मंदिर भी भक्तों की आस्था का केंद्र है जिसे टोनही बम्लाई भी कहा जाता है। मान्यता है कि इस मंदिर में पहले इस बात की जांच पड़ताल की जाती थी कि संबंधित व्यक्ति जादू-टोने का शिकार तो नहीं है। मंदिर में भक्त दीपक या अगरबत्ती जलाने के लिए अगर माचिस जलाता है और उसकी माचिस नहीं जलती है तो यह माना जाता है कि उस पर जादू-टोना किया गया है। माचिस अगर जल जाती है तो तंत्र-मंत्र की बात निर्मूल साबित होती है।
मंदिर मार्ग में रणचण्डी मंदिर के अलावा नागदेवता का मंदिर भी है। भीम पैर के संदर्भ में भी कई दंत कथाएं हैं। कहा जाता है कि पाण्डव और भगवान राम ने भी इस नगरी में कुछ वक्त व्यतीत किया था।
सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह
मां बम्लेश्वरी मंदिर के लिए विख्यात डोंगरगढ़ में हिन्दू- मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह भी है। मुस्लिम समाज यहां टेकरी वाले बाबा और कश्मीर वाले बाबा की दरगाह में सजदा करते हैं, तो सिख ऐतिहासिक गुरूद्वारे में कीर्तन। ईसाइयों का ब्रिटिश कालीन चर्च भी मौजूद है। बौद्घ धर्मावलंबियों ने यहां प्रज्ञागिरी में भगवान बुद्घ की विशाल प्रतिमा स्थापित की है, जो दूर से स्पष्ट नजर आ जाती है।
आदिवासियों के अराध्य बूढ़ादेव के मंदिर की अपनी अलग दंत कथा है तो दंतेश्वरी मैया भी यहां विराजमान है। मूंछ वाले राजसी वैभव के हनुमान जी की छह फीट ऊंची मूर्ति के अलावा खुदाई में निकली जैन तीर्थंकर चंद्रप्रभु की प्रतिमा भव्य एवं विशाल है।