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कइसे तोला बचावव बेटी
कविता -लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
चारों कोती रावण - दुशासन , खींचत लुगरा तोर ।कइसे तोला बचावँव मैं , आँसू बरसत मोर ।।
आज सुरक्षित नइहे बेटी , अपन घर अंगना म ।गिधवा नजर डारे बइठे , लाज बचावव किशना ।अत्याचार अमावस कस , मुंधियार हे घनघोर ।कइसे तोला बचावंव मैं , आँसू बरसत मोर ।।
भेस बदल के दानव घुमय , भेस बदलय शिकारी ।फंदा डारे बइठे हे सब , दुर्जन के नइहे चिन्हारी ।गली - गली म बइठे डाकू , घर- दुआर मा चोर ।कइसे तोला बचावंव मैं , आँसू बरसत मोर ।।
बेटी ल कोख म मारय , नारी ला सतावय ।इज्जत लूटत हे बेटी के , दुष्ट रूप देखावय ।बेटी पढावव आघु बढावव , ज्ञान के करव अंजोर ।कइसे तोला बचावंव मैं , आँसू बरसत मोर ।। -
- कविता
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
सुंदर मधुबन जगत बनाएँ ,
खुशियों के हम फूल खिलाएँ ।
सुख के पंछी उतरें ऑंगन ,
नित-नित कलरव-गान सुनाएँ ।।
मोह, लोभ, मद, काम-क्रोध को ,
विलुप्त कर दें भाव-भूमि से ।
क्षमा ,दया को रोपित कर दें ,
पौध प्यार की जन-मन सरसे ।।
नेह,प्रेम का नीर सींच कर ,
चलो शांति के बीज उगाएँ ।।
सुंदर मधुबन जगत बनाएँ ।
खुशियों के हम फूल खिलाएँ ।।
कलित ललित शीतल सुखदायी
मृदु मंद पवन मंथर-मंथर ।
शांत सलिल उर्मिल प्रवाह में ,
जीवन-नैया चलती सत्वर ।
आ बिखेरें प्यार की खुशबू ,
जीवन के सुख-साज सजाएँ ।।
सुंदर मधुबन जगत बनाएँ ।
खुशियों के हम फूल खिलाएँ ।।
सृजन करें नव गीतों का हम ,
जीवन में सुख-संगीत भरें ।
पावन हो जाए यह धरती ,
शुभ पुण्य कर्म हम सभी करें ।
महित मुदित मोहक हो दुनिया,
विषमताओं को हम मिटाएँ ।।
सुंदर मधुबन जगत बनाएँ ।
खुशियों के हम फूल खिलाएँ ।। - शीत के दोहे-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)----------मार्गशीर्ष सेहत भरा, मिले खूब फल शाक।योगासन व्यायाम कर, आलस रखना ताक ।।
आतप ने झुलसा दिया, ठिठुराता हेमंत ।बाट जोहती प्रेयसी, कब आओगे कंत ।।
पावन प्रीति पुनीत का,कर लोगे अनुभास ।अदरक वाली चाय ज्यों, महक बुलाती पास ।।
घूँट चाय की भर रहे, पुष्पित पाटल ओष्ठ।नैन-चषक ये भर रहे, प्रणयी हृदय-प्रकोष्ठ।।
विरही खग मन का उड़े, करने प्रिये मिलाप।प्रीति- रजाई से मिले, शिथिल देह को ताप ।।
शीत प्रभाती भोर में, डाले धुंध पड़ाव ।ठंड-ठिठुरते गात को, राहत सिर्फ अलाव।।
बदमिजाज मौसम हुआ,पल-पल बदले रूप।शीत-निठुर के सामने, बेबस होती धूप ।।
माह दिसंबर दे रहा, ठंडक का अनुभास ।ऊनी स्वेटर शॉल ने, जगह बनाई खास ।। -
तुम शिव हो जाना
------------------------कविता--लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)लोग तुम्हें बुरा बोलेंगे ,हँसेंगे तुम्हारे पहनावे पर ,तुम्हारी जीवन-शैली पर,जीर्ण-शीर्ण आवास पर ,इन सबसे विचलित मत होनापार्थिव हो जाना,तुम शिव हो जाना ।
आगे जाने नहीं देंगे विरोधी,बढ़ गए तो गिराने कीभरसक कोशिश होगी ,अपमानों के शूल चुभोकर,छीन लेंगे है तुम्हें जो प्रिय,पी जाना अपमानों का गरल,या क्रोध में तांडव कर जाना ,फिर शांतचित्त राजीव हो जाना ।तुम शिव हो जाना ।।
उच्च विचार, शक्ति-संपन्न ,धीर-वीर, सहनशील बन।छल-कपट से दूर सरल हो,भोलेनाथ जीत सके जग का मन ।रख हृदय में राम ही बस ,आशुतोष बन मुस्कुराना ,चिरंजीव हो जाना ।तुम शिव हो जाना ।। - पांचवा मौसम क्लाइमेट चेंज के वार का !साल 1987 में रीलिज हुई फिल्म सिंदूर का यह हिट गाना आज भी लोगों की जुबां पर रहता है, पतझड़ सावन बसंत बहार...एक बरस के मौसम चार, मौसम चार...पाँचवा मौसम प्यार का...लता मंगेशकर के गाये इस गीत में कोयल के कूकू करने और बुलबुल के गाने, फूलों के खिलने, बादल के बरसने की पंक्तियां संवेदनाओं को रोमांचित कर देती हैं। मौसम तो चार होते हैं, लेकिन आज पांचवा मौसम क्लाइमेट चेंज के वार का है जिससे हर आदमी जूझ रहा है। बुलबुल के गीत और कोयल की कूकू सुनने को कान तरसते हैं, एक बरस के मौसम चार की पूरी चाल बदल गई है।हम सभी जानते हैं परिवर्तन संसार का शाश्वत नियम है, लेकिन जो परिवर्तन पूरी पृथ्वी और मानव-समाज को संकट में ला दे, वह शाश्वत नियम न होकर मनुष्य की अप्राकृतिक क्रिया की अप्राकृतिक प्रतिक्रया है। सरल शब्दों में कहें तो ठंड के मौसम में बरसात और गर्मी झेलने की विवशता, घर के भीतर गर्मी तो बाहर ठंड, बेमौसम बारिश, बेमौसम गर्मी फलस्वरूप प्राकृतिक विपदाओं के साथ बीमारियों का तोहफा। कहने का आशय है क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) की इस जंग से हर आदमी जूझ रहा है। लगभग छह साल पहले वर्ष 2017 में महान भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने बीजिंग में टेनसेंट वी शिखर सम्मेलन में ऊर्जा की बढ़ती खपत और तेजी से बढ़ते धरती के तापमान को लेकर चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था कि यदि यही हालात रहे तो आने वाले 600 वर्षों में पृथ्वी आग का गोला बन जाएगी और मानव को दूसरे ग्रह पर बस्ती बसानी होगी। धरती आग का गोला बनती जा रही है। हर साल बढ़ती गर्मी का रिकार्ड सिर्फ भारत में ही नहीं टूट रहा है, पूरे विश्व का तापमान बढ़ता जा रहा है।कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपने शोध में बताया है कि बढ़ते तापमान की वजह से इंसान का दिमाग सिकुड़ रहा है और इंसान की लंबाई भी घट रही है। यानी तापमान का सीधा संबंध इंसान के आकार से भी है। जलवायु परिवर्तन से विश्व के अधिकांश देश परेशान हैं।हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने अगले पांच वर्षों में वैश्विक तापमान बढ़ने की संभावना व्यक्त की है। वर्ष 2023 से 2027 तक सबसे गर्म पांच साल रहेंगे। यह चिंता सिर्फ आज की नहीं है। यदि 26 साल पहले सन 1997 में जापान के क्योटों में विश्वभर के पर्यावरण वैज्ञानिकों की बैठक की तफ लौटें तो उस समय यह निर्णय लिया गया था कि सभी औद्योगिकृत देश अपने यहाँ ग्रीन हाउस गैसों की उत्सर्जन की मात्रा में कटौती करेंगे। इस पर पूरी ईमानदारी से अमल किया गया होता तो आज परिणाम कुछ और होते।वैश्विक तापमान में प्रतिदशक 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि नहीं होती। 2030 तक धरती के तापमान में 1.5 डिग्री की बढ़ोतरी हो जाने का अनुमान है। वजह साफ है मशीनी युग में जंगलों की कटाई, कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस जैसे जैव ईंधनों का अंधाधुंध उपयोग और वायुमंडल में निरंतर बढ़ती कार्बन-डायआक्साईड की मात्रा। कार्बन डाई ऑक्साइड को मानव जनित ग्रीन हाउस गैस माना जाता है जो पिछले कुछ दशकों से धरती के तापमान को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार मानी जा रही है। परिणाम भी सामने है, पृथ्वी का गर्म होता वायुमंडल, ध्रुवीय क्षेत्र के पिघलते हिम, समुद्र का बढ़ता जल स्तर, कहीं सूखा, कही बाढ़, वन्य जीवन का संटक में अस्तित्व, अवसाद, बेचैनी, निराशा के बीच मनुष्य की कम होती जीवन-प्रत्याशा और बीमारियाँ।पूरी दुनिया के लिए इस समय जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी समस्या है। देशभर के लोगों को जलवायु परिवर्तन के प्रति जागरुक करने के उद्देश्य से पिछले माह पृथ्वी दिवस पर देश की राजधानी दिल्ली में ग्लोबल क्लाइमेट क्लॉक लॉन्च की गई। यह घड़ी इस बात की जानकारी देगी कि सिर्फ 6 साल 90 दिन और 22 घंटे में कैसे धरती का तापमान 1.5 डिग्री बढ़ जाएगा। 2030 में तय समय के बाद यह घड़ी बंद हो जायेगी। संकेत यह है कि छह साल बाद जलवायु परिवर्तन का हम सबके जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसकी उलटी गिनती शुरू हो चुकी है।शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य जन्म के साथ ही अनेक ऋण भी लेकर आता है। देव ऋण, पितृ ऋण, गुरु ऋण आदि की बात कही जाती है। भावी सुख-सुविधाओं और संतुष्टि के लिए मनुष्य अनेक प्रकार के ऋण चुकाता भी है। लेकिन हम सभी पर सबसे बड़ा ऋण प्रकृति का भी होता है। बिना प्रकृति के मानव जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हम जन्म लेते ही पहला दर्शन प्रकृति का करते हैं और उसकी गोद में सांस लेना शुरू करते हैं। इंडिया वाटर पोल में डॉ. ज्योती व्यास विश्व तापमान में वृद्धि के संबंध में अपने आलेख में समाधान के रास्ते बताते हुए लिखती हैं, ‘’जीवाश्म ईधनों के दहन में कमी लाने के साथ ही हमें वनों की ओर लौटना चाहिए, वन कटाई करके जो नुकसान हमने किया है, उसकी भरपाई भी हम करें।‘’ वे आगे और समाधान बताती हैं, ‘’जिस प्रकार आधुनिकता के नाम पर हम धरती का उपयोग कर रहे हैं, उसके घटकों का बेजा उपयोग कर रहे हैं, उस पर कानूनन रोक लगाई जाए। परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को बढ़ावा दे।‘’ वस्तुतः यह सारे कदम उठाना न सिर्फ समय की मांग है अपितु प्रकृति के प्रति ऋण उतारने का श्रेष्ठ कदम भी है। यदि इस तरह के कदम उठाये जाते हैं तो आने वाले छह सालों में मानव जीवन के सामने आऩे वाली चुनौतियों से निपटा जा सकता है। यही युग की मांग है जिससे धरती को आग का गोला बनाने से रोका जा सके।हमें इतिहास से प्रेरणा लेनी चाहिए। भारतीय संस्कृति में प्रकृति को माता माना गया है और हम सब प्रकृति की संतान हैं। महाकवि कालीदास कुमारसंभव महाकाव्य और रघुवंश महाकाव्य में प्रकृति के सौंदर्य के साथ उसके संरक्षण का भी संदेश देते हैं।जर्नल आफ एडवांस एंड स्कॉलरली इन एलाइड एजुकेशन में विनोद कुमार अपने शोध आलेख कालिदास के महाकाव्यों में प्रकृति संरक्षण का संदेश में अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों की तरफ ध्यान आकर्षित करते हैं। वे लिखते हैं कि कालिदास पौधों के रोपण एवं वृक्षों के संरक्षण के प्रति इतने अधिक आग्रही है कि वे कहते हैं ‘’यदि कोई विष का वृक्ष स्वयं उग आए और बड़ा हो जाये तो उसे भी नहीं काटना चाहिए।‘विषवृक्षोपि संवध्र्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्’, क्योंकि वह प्राणियों को हानि की अपेक्षा लाभ ही अधिक पहुंचाने वाला होगा। माँ पार्वती के द्वारा वृक्ष से स्वयं टूट कर गिरे हुए पत्तों को ही आहार के रूप में ग्रहण करने का वर्णन तो कालिदास के प्रकृति संरक्षण की पराकाष्ठा है।‘’प्राचीन ऋषिवर और महानवेत्ता प्रकृति के दोहन के दुष्परिणामों से अवगत थे। कहते हैं कि सम्राट अशोक ने लाखों वृक्ष लगवाए थे और काटने पर दण्ड का भी प्रावधान किया था। वृक्ष काटने पर दण्ड के प्रावधान तो आज भी हैं, लेकिन फिर भी जंगल के जंगल कट रहे हैं। भावी पीढ़ी के सुखद भविष्य के लिए जलवायु परिवर्तन को लेकर वैश्विक स्तर पर सख्त कानून की जरूरत है। धऱती को आग का गोला बनने की स्टीफन हॉकिंग की चेतावनी पर हँसने की बजाए गंभीरता से लिया जाना चाहिए।भारत ने एक नवंबर 2022 को ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन पर शिखर सम्मेलन में पूरी दुनिया के सामने ’पंचामृत रणनीति’ का प्रस्ताव रखा। पाँच रणनीति में पहली-वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 500 मेगावाट तक करना, दूसरी-अपनी 50 प्रतिशत ऊर्जा ज़रूरतें, रीन्यूएबल एनर्जी से पूरी करना, तीसरी-2030 तक ही कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी करना, चौथी-कार्बन तीव्रता में 30 प्रतिशत तक की कमी करना और पांचवी-2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन हासिल करना शामिल है। नेट जीरो लक्ष्य हासिल करने की यह रणनीति असल में ’क्लाइमेट चेंज’ की जंग है जिसमें शामिल होने की जरूरत आज पूरे विश्व को है। इसके लिए पहला कदम होगा हम सभी को अपनी जीवन शैली में बदलाव करना। इस ’पंचामृत’ को हासिल करना चुनौती जरूर है,. लेकिन इससे पूरी दुनिया को पाँच बड़े लाभ भी होंगे, पूरे विश्व का बढ़ता तापमान थमने लगेगा, पृथ्वी की जीवसृष्टि का तनाव कम होगा, ध्रुवों और हिमालय पर्वत के तेजी से पिघल रहे हिम की समस्या के समाधान के रास्ते निकलेंगे, प्रकृति के साथ खिलवाड़ में कमी आएगी और मनुष्य में श्वसन और हृदय सहित अन्य रोगों की हो रही बढ़ोत्तरी में कमी आएगी। आवश्यकता है प्रकृति से प्रेम को पांचवां मौसम बनाने की और मानवीय गतिविधयों के पैटर्न में बदलाव की।
- --लेखक -डॉ. कमलेश गोगिया, वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद्देवभूमि भारत का छब्बीसवां राज्य छत्तीसगढ़ जहाँ इंद्रधनुषी सांस्कृतिक विविधताएँ और बहुलताएँ तो हैं, लेकिन आंतरिक एकता भी है; जो वास्तव में छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति और उसकी पहचान भी है। इस आंतरिक एकता को समझने के लिए पैनी दृष्टि चाहिए और सूक्ष्म विश्लेषण। यहाँ की आंतरिक एकता हर पाँच साल के विधानसभा चुनाव में ‘साइलेंट किलर’ अथवा दूसरे शब्दों में कहें, ‘मूक बहुमत’ के रूप में जब अभिव्यक्त होती है तो आश्चचयर्जनक परिणाम और परिवर्तन दृष्टिगत होने लगते हैं। तब सारे एक्जिट पोल और पूर्वानुमान की सत्यता पर संदेह के बादल मंडराने तो लगते ही हैं, परिणाम आने पर वे अंततः असत्य प्रमाणित होकर छँटते चले जाते हैं। विधानसभा चुनाव-2023 के परिणाम इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जिसके अप्रत्याशित परिणामों की चर्चा पूरे देश की मीडिया और राजनीति में थी।छत्तीसगढ़ में जनता का मूक बहुमत ही निर्णयकारी होता है, जो तमाम सर्वेक्षण और दावों को पटलकर रख देता है। वास्तव में छत्तीसगढ़ की जनता की नब्ज को समझ पाना इतना आसान भी नहीं है, जितना समझा जाता है। कब जन-समर्थन सारे कयासों और अनुमानों को सिरे से दरकिनार कर दें, कुछ कहा नहीं जा सकता और परिणाम उम्मीदों के विपरीत ही आते हैं। फिर हमें याद आते हैं राष्ट्रकवि दिनकर, जिनकी लोकतंत्र का अलख जगाने वाली रचनाएँ आज भी प्रासंगिक प्रतीत होती हैं। एक बानगी देखिये-हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँवह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।लोकतांत्रिक गणराज्य में जनता की ताकत का अहसास कराती ये पंक्तियाँ भी प्रासंगिक हैं-अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का हैतैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।3 दिसंबर, 2023, रविवार को छत्तीसगढ़ के राजनीतिक सरोवर में उदित होते सूर्य-रश्मियों के स्वर्णिम प्रकाश में कमल की पंखुड़ियाँ खिलकर जनता के फैसले का विजयी-उद्घोष करेंगी, यह कोई नहीं जानता था। इस सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अनेक महानुभवों को सहसा इन परिणामों के पूर्वानुमान पर शत-प्रतिशत भरोसा नहीं था। हाँ, कयास और दावे जरूर थे। यह कोई नहीं जानता था कि जनता ने अपने मन में मतदान के दिन ही कमल की पंखुड़ियाँ खिलाकर रखी हैं और संकेत दे रखा है परिणाम के दिनों तक इंतजार का। इन अप्रत्याशित परिणामों से जाहिर है कि आम जनता, विशेषकर मातृ-शक्ति, युवा वर्ग और आम गरीब-मानस भी देश के प्रधानमंत्री के सूत्र वाक्य- ‘मोदी की गारंटी’ का तहे-दिल से स्वागत कर रहा है। इस सूत्र वाक्य की सार्थकता लोकसभा चुनाव-2024 के पूर्वानुमानों की सशक्त आधारभूमि तैयार कर रही है। भाजपा ने यह चुनाव साइलेंट किलर जनता के रुख को समझते हुए मोदी की गारंटी पर लड़ा और अंतिम समय में विनम्र-भाव के हथियार के साथ एकजुट होकर कड़ा परिश्रम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे में भारत रत्न स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की प्रसिद्ध कविता ‘कदम मिलाकर चलना होगा' की पंक्तियाँ स्मरण हो उठती हैं-उजियारे में, अंधकार में,कल कछार में, बीच धार में,घोर घृणा में, पूत प्यार में,क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,जीवन के शत-शत आकर्षक,अरमानों को ढलना होगा,कदम मिलाकर चलना होगा।इन पंक्तियों का केंद्रीय भाव आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। फिर वह जीवन का सामाजिक, आर्थिक या फिर राजनीतिक क्षेत्र ही क्यों न हो। कोई भी संकट क्यों न आ जाए, हिम्मत न हाकर उसका सामना प्यार से करना चाहिए। आगे वे लिखते हैं -सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,प्रगति चिरंतन कैसा इति अथ,सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,असफल, सफल समान मनोरथ,सब कुछ देकर कुछ न मांगतेपावस बनकर ढलना होगाकदम मिलाकर चलना होगा।राज्य की जनता ने भारतीय जनता पार्टी की सरकार को पाँच साल के विश्राम के बाद पुनः अवसर प्रदान किया है तो उन अऩेक नई उम्मीदों के साथ, जिन्हे पूर्ण करने के वादे घोषणा पत्र में किये गये है। महिला, युवा, गरीब जनता और हर वर्ग को इंतजार है....सभी विजयी प्रत्याशियों को छत्तीसगढ़ आज डॉट-कॉम की हार्दिक शुभकामनाएँ...जय 'जन' जोहार...
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-लघुकथा
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
उदय उस बहुमंजिला इमारत के चौथे माले पर रहता था , भागदौड़ भरी जिंदगी में कसरत , व्यायाम के लिए समय कहाँ. बस वह अपने फ्लैट लिफ्ट से न जाकर सीढ़ियों से जाया करता । चढ़ना - उतरना ही उसका व्यायाम था । सुबह ऑफिस जाते वक्त और शाम को लौटते वक्त तीसरे माले के एक फ्लैट में अक्सर उसे एक बुजुर्ग दिखतीं जो उदय को देखकर मुस्कुरा उठतीं और उदय उन्हें नमस्ते कर लेता , बस इतना ही रिश्ता था उनके बीच - मुस्कान और सलाम का । एक दिन शाम को उदय को वो आंटी जी नहीं दिखी तो उसे कुछ कमी सी महसूस हुई और हाथ - मुँह धोकर वह उनके फ्लैट की घण्टी बजा रहा था । अंकल जी ने दरवाजा खोला - ऑन्टी जी दिखाई नहीं दी आज , उनकी तबीयत तो ठीक है ना " उदय ने कुछ झिझकते हुए पूछा ।" नहीं बेटे रमा की तबीयत ठीक नहीं है , आओ अंदर बैठो । " अंकल ने उसे बड़े स्नेह से भीतर बुलाया । उदय के बराबर उनका बेटा विदेश में रहता था । उनकी पत्नी रमा उदय को देखकर इसलिए खुश हो जाती । उदय का यूँ घर आकर उसके स्वास्थ्य के बारे में पूछना दोनों को भावाभिभूत कर गया था । उदय ने उनसे कहा -"अंकल जी कुछ सामान लाना हो या कोई भी काम हो , आप मुझे बोल दिया कीजिए । आपको बार - बार नीचे उतरने की जरूरत नहीं । " बुजुर्ग दम्पत्ति की आँखें खुशी से भर आईं थीं । रमा जी तो अपनी बीमारी भूलकर उसे खिलाने - पिलाने में व्यस्त हो गई थी । पराये शहर में उदय को परिवार मिल गया था और उन बुजुर्गों को जीने का सहारा । एक प्यारा सा रिश्ता बन गया था उनके बीच जिसने उनके जीवन के खालीपन को स्नेह से भर दिया था । -
-लेखक -डॉ. कमलेश गोगिया, वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद् (प्रोफेसर, मैट्स यूनिवर्सिटी, रायपुर)
क्रिकेट अनिश्चताओं का खेल है ! कौन सा ओवर मैच का पूरा पासा पलट दे या कौन बल्लेबाज या गेंदबाज मैच को निर्णायक मोड़ दे दे…! कुछ भी पहले से कहा नहीं जा सकता। कब उम्मीदों की किरण से अरमानों के पंख रोशन हो जाएँ और कब उम्मीदों पर पानी फिर जाए...कुछ भी निश्चित नहीं होता ! हाँ, निश्चित होती है हार या फिर जीत जो खेल के मैदान में किसी भी खेल की अंतिम परिणति होती है। रोमांच और ग्लैमर से भरे इस खेल में किसी टीम के संकट के क्षणों में हर शख्स को इंतजार रहता है किसी न किसी चमत्कार का! कोई करिश्मा हो जाए तो वह घटना अद्भुत बन जाती है। वर्ल्ड कप-2023 में भारतीय टीम का सपना पूरा नहीं हुआ, लेकिन इस पूरी यात्रा ने अनेक नये इतिहास जरूर रच दिये। हार-जीत का सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण महीनों तक होता रहेगा, लेकिन इससे परे कुछ दूसरे भी पहलू हैं जो काफी अहम प्रतीत होते हैं। जाहिर है यह हार निराशाजनक है और सभी के दिल टूट गये, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत ने हर मैच में जोश, जज्बे और जुनून के साथ लगातार जीत हासिल कर फाइनल में प्रवेश किया था। वास्तव में इस वर्ल्ड कप में भारतीय क्रिकेट टीम दुनिया में सबसे मजबूत टीम बनकर उभरी है। यह उसके फ़ाइनल तक प्रभावी प्रदर्शन से प्रमाणित होता है। इस हार से परे भी अनेक दूसरे महत्वपूर्ण पहलू हैं जिनका विश्लेषण भी आवश्यक जान पड़ता है।
पूरी दुनिया की नजरें वर्ल्ड कप फाइनल पर टिकी रहीं। अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम में मैच शुरू होने के पहले भारतीय वायु सेना की सूर्यकिरण टीम ने आसमान में अद्भुत एयर शो का प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन ने देश-दुनिया को मंत्रमुग्ध कर दिया। भारत में ऐसा पहली बार हुआ जब किसी क्रिकेट मैच और विशेष रूप से वर्ल्ड कप में टॉस के बाद और मैच शुरू होने से पहले इस तरह का अद्भुत प्रदर्शन किया गया हो। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, साल 1996 में सूर्यकिरण एरोबैटिक टीम का गठन किया गया था। ये टीम इंडियन एयर फोर्स के 52वें स्क्वाड्रन का हिस्सा है। इस टीम के विमानों से ही भारतीय वायुसेना अपने फाइटर जेट के पायलटों को युद्धाभ्यास के लिए ट्रेनिंग देती है। विश्व कप-2023 में भारत के खेल प्रेम के साथ युद्ध कौशल का अभ्यास पूरी दुनिया ने देखा। वर्ल्ड कप में इस बात का भी अहसास हुआ कि खेल में अब प्रतिस्पर्धा का स्वरूप बदलता जा रहा है। विराट कोहली का टीम इंडिया की जर्सी पाकिस्तान के कप्तान बाबर को भेंट करना खेल भावना का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
निःसंदेह भारतीय क्रिकेट टीम अपने ही घर में दो बार विश्व कप का खिताब हासिल करने वाली दुनिया की पहली टीम बन सकती थी, लेकिन यह सम्भव न हो सका, लेकिन भारतीय टीम के प्रयासों को कतई कमतर नहीं आंका जा सकता। भारत 1983 और 2011 में दो बार वर्ल्ड कप का खिताब और 2007 का टी-20 का खिताब जीतने वाली विश्व में पहली टीम है। मसलन भारत ने 60 ओवर, 50 ओवर तथा 20 ओवर का वर्ल्ड कप जीता है। यह मुकाम हासिल करना किसी अन्य देश के लिए कभी भी संभव प्रतीत नहीं होता।
भारत को 20 साल बाद आस्ट्रेलिया से 2003 का बदला लेने का अवसर जरूर मिला था, जिस पर टीम इंडिया चूक गई, लेकिन अनेक नये इतिहास भी रचे। इस विश्व कप में भारत बिना कोई मैच हारे, लगातार जीत दर्ज कर फाइनल तक पहुँची। इस विश्व कप में सबसे ज्यादा 40 शतक लगे जो अब तक नहीं लगे थे। सभी टीमों के बल्लेबाजों ने शतक लगाए तो विराट कोहली ने शतकों का अर्धशतक लगाया। 2015 के वर्ल्ड कप में 38 शतक लगे थे। रोहित शर्मा वर्ल्ड कप में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले दुनिया के पहले कप्तान बने। ऐसी बहुत सी बातें हैं जो भारतीय क्रिकेट टीम को सर्वश्रेष्ठ प्रमाणित करती हैं, क्या हमें इन तथ्यों का आंकलन नहीं करना चाहिए ? क्रिकेट पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोता है। कहीं पूजा तो कहीं हवन, मन्नतें...हर शख्स की चाहत होती है भारत विश्व का सिरमौर बने। यह भावना भारत की सांस्कृतिक विविधता में उसकी आधारभूत एकता से परिपूर्ण देवभूमि देश के दर्शन कराती है। इस वर्ल्ड कप में भारतीय टीम पहले मैच से अपनी श्रेष्ठ कोशिशें की बदौलत जीत हासिल करते हुए फाइनल तक पहुँची। फाइनल में भी उसकी कोशिशें जारी रहीं। यह कोशिशें आगे भी जारी रहनी चाहिए। गलतियाँ और कमियाँ सुधारने के लिए विश्लेषण को आवश्यक समझा जाता है, लेकिन यह समय अब तक के प्रदर्शन पर हौसला अफ़ज़ाई का भी है। हिन्दी कविता के अमिट हस्ताक्षर सोहनलाल द्विवेदी जी की यह सुप्रसिद्ध कालजयी रचना स्मरण हो आती है-
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। -
गीत
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
जीवन कौशल सीखा मैंने, खेत और खलिहानों में ।
मोती बनते यहाँ स्वेद-कण, श्रमिकों के अवदानों में ।।
मिट्टी की सोंधी खुशबू है , दिल के भोले - भालों में ।
अहंकार छल दम्भ नहीं है , इनके सरल सवालों में ।
समरसता है मन में इनके , हों अपनों बेगानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।
मान एक - दूजे का करते , मिलजुल कर सब रहते हैं।
आपस में कोई भेद नहीं , सुख - दुख साझा करते हैं ।
बढ़ने वाली चाल न चलते , होड़ नहीं नादानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत औऱ खलिहानों में ।।
गाँव मुझे अब भी प्यारा है , शोभा यहाँ निराली है ।
मन में कोई भी खोट नहीं , जेब भले ही खाली है ।
मन का आँगन बहुत बड़ा है , ममता भरी मचानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।
छोटे - छोटे सपने पलते , इनके निश्छल नैनों में ।
मधुरस का सा स्वाद भरा है , इनके देशज बैनों में ।
संस्कारों को जीते हैं ये , परंपरा के गानों में ।।
जीवन कौशल सीखा मैंने , खेत और खलिहानों में ।।
--Mobael No.-9424132359 -
-सुआ गीत
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
पढ़ लिख के सुघ्घर आघु हम पढबो, आघु हम बढ़बो न रे सुआ न, भाग जाही हमरो जाग न रे सुआ न भाग जाहि हमरो जाग ।।
तरी हरी नाना मोर ना ना नहरी सुआ न भाग जाही हमरो जाग ।।
इस्कूल जाबो अपन गियान बढाबो , गियान बढाबो ना रे सुआ न । पढबो सुघर सुघ्घर किताब नारे सुआ न पढबो हम अब्बड़ किताब ।
तरी हरी नाना मोर ना नाहरी ना ना रे सुआ ना सिखबो करे बर हिसाब ना रे सुआ ना सिखबो करे बर हिसाब ।।
मेहनत करके अपन किस्मत बनाबो , अपन किस्मत बनाबो
रे सुआ ना समय ल करव झन खराब ना रे सुआ न समय ल करव झन खराब ।
तरी हरी नाना मोर ना नाहरी नाना रे सुआ ना दुनिया ल देबो जवाब ना रे सुआ ना दुनिया ला देबो जवाब ।।
जम्मो बेटी पढही , अउ आघु आघु बढ़ ही ना रे सुआ ना
पढ़ लिख के पाहीं रुआब ना रे सुआ ना पढ़ लिख के पाहीं रुआब ।।
तरी हरी नाना मोर ना नाहरी ना ना रे सुआ ना , कुरीति जाही जम्मो भाग ना रे सुआ ना कुरीति जाही जम्मो भाग ।।
तरी हरी नाना मोर ना नाहरी ना ना रे सुआ ना फूल जाहि खुशी के गुलाब ना रे सुआ हो फूल जाहि सुख के गुलाब ।।
--Mobael No.-9424132359 - - कविता-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)पाए और गँवाए कितने , इस बार दीवाली में ।रूठे मित्र मनाए कितने , इस बार दीवाली में ।।
बरसों जमा कबाड़ निकाला , स्वच्छ कर कोना-कोना ।भाई मतभेद मिटाए कितने , इस बार दीवाली में ।।
सतरंगी लड़ियों से रोशन , झिलमिल महल -चौबारे ।अंतस दीप जलाए कितने , इस बार दीवाली में ।।
द्वेष-बैर को मन में पाला , छुपकर मूल्य कुतर रहे ।मूषक-दंभ भगाए कितने , इस बार दीवाली में ।।
छप्पन भोग लगे लक्ष्मी को , वस्त्राभूषण भी चढ़े ।भूखे अन्न खिलाए कितने , इस बार दीवाली में ।।** - लघुकथा--लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)पिछले कई दिनों से दीपावली की तैयारी में जुटी प्रियल थककर चूर हो गई थी । सफाई है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती और हर बार कुछ न कुछ रह ही जाता है । इस बार प्रियल ने पूरे घर को जगमगाने की तैयारी की थी ...छुट्टियाँ लगने के बाद ही सही तरीके से काम हो पाता है , उसके पहले तो बस छोटे - मोटे काम होते रहते हैं । चलो इसी बहाने फालतू चीजें बाहर निकल जाती हैं और घर साफ - सुथरा लगता है । दीपावली के दिन सुबह से लक्ष्मी जी के पूजन की तैयारियाँ करते- करते प्रियल के हाथ - पैर जवाब देने लगे थे । रात को दिये जलाने के बाद बड़ी हसरत से अपनी नई साड़ी के साथ पहनने के लिए खूब ढूँढ-ढूँढ कर खरीदी गई चूड़ियों और आभूषणों की ओर देख रही थी पर थके हुए शरीर ने बिल्कुल साथ न दिया..और जैसे - तैसे तैयार होकर उसने पूजा की । कोई न कोई कसर रह जाती है हर बार....सारे काम तो हो जाते हैं पर उसका अपना ही कुछ छूट जाता है ..न पार्लर जा पाई... न कहीं और... अच्छे से तैयार होने की साध तो पूरी नहीं कर पाई ...पर अपने चमकते - दमकते आशियाने को देखकर उसने संतोष भरी राहत की साँस ली और दर्द भरी पिंडलियों में मालिश करने लगी ।
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# वास्तव में धनतेरस का उस धन सम्पत्ति से कोई सम्बन्ध नही है,जिसके विज्ञापनों से सारा बाजार ,सारा मीडिया पटा हुआ है. आज ही के दिन आयुर्वेदाचार्य एवं चिकित्सक धन्वन्तरि का हुए थे इन्होंने ही वनस्पतियों से औषधियों निकालने की परिकल्पना को मूर्त रूप दिया था ।इसलिए ही इनके एक हाथ में अमृत कलश और दूसरे हाथ में वनस्पतियों से चिकित्सा याआयुर्वेद की अवधारणा की गई है ।
"धन तेरस का धन से कोई संबंध नहीं है !"धन्वंतरि का जन्म त्रयोदशी के दिन होने के कारण इसे धन तेरस बोला जाता है । पर बढ़ते हुए वैश्विक बाजारीकरण एवं भौतिकतावाद की अंध दौड़ ने इसके रूप को गलत ढंग से प्रेषित किया है । और कुछ लोगों ने एक कदम आगे बढ़ कर इसे तारों ,ग्रहो नक्षत्रों को भी बाजार से जोड़ कर खरीदी, बिक्री के अनुकूल बता दिया .धन्वंतरी ने औषधीय वनस्पतियों के ज्ञाता होने के कारण उन्होंने यह बताया कि समस्त वनस्पतियाँ औषधि के समान हैं उनके गुणों को जान कर उनका सेवन करना व्यक्ति के शरीर के अंदर निरोगिता लाएगा जो स्वस्थ रहने में सहायक है,इसीलिएअमृत भी कहा जा सकता है .प्रकृति से जो औषधीय गुण अनेक वनस्पतियों को प्राप्त हुए हैं ,वह बेमिसाल हैं।धन्वंतरि को वनस्पतियों पर आधारित आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही वनस्पतियों को ढूंढ ढूंढ कर अनेक औषधियों की खोज की थी। बताया जाता है ,इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया ,जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थेसुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे. उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) माने जाते हैं ,धन्वंतरि की स्मृति में ही इस दिन को "राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस" के रूप में भी मनाया जाता है ।याद रहे, उत्तम स्वस्थ्य एवम निरोगीशरीर ही जीवन की अमूल्य पूँजी और धन का प्रतीक है इसलिए आज का दिन धनतेरस के रूप में जाना जाता है ।ध्यान दें धनतेरस का इस प्रकार भौतिक सम्पत्ति, धनराशि, बहुमुल्य सम्पतियों, सोने चाँदी, वाहनों से कोई संबंध नहो है.इस धनतेरस पर सभी नागरिकों के अच्छे स्वास्थ्य,मानसिक एवं शारीरिक समृद्धि की कामना . -
- लेखिका डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
आज माधुरी सुबह से ही रसोई में घुसी हुई थी । नाश्ता , दोपहर का खाना , फिर ढेर सारे पकवान भी तो बनाने थे । आज दीपावली जो है ...आज तो आने - जाने वालों का तांता लगा रहेगा । उसे भूख भी लग आई थी लेकिन वह चुपचाप काम में लगी रही । जानती थी , जरा सी भूल हुई नहीं कि उस पर तानों की बौछार हो जायेगी । माधुरी एक सुंदर सुशिक्षित व मधुर स्वभाव वाली लड़की थी ।
तभी तो साधारण परिवार की होते हुए भी राजीव व उसके पिताजी दोनों को एक ही नजर में भा गई थी । सिर्फ माँ इस विवाह के विरुद्ध थी । वह एक अच्छे खानदान व बड़े घर की बेटी को ही अपनी बहू बनाना चाहती थी, पर राजीव की जिद के आगे उनकी एक न चली । अंततः माधुरी इस घर में दुल्हन बनकर आ ही गई । आते ही उसने घर के सारे काम सँभाल लिए । ऐसा लगता था मानो घर की हर चीज उसकी सृजनशीलता की तारीफ कर रही हो । उसने कभी अपनी सास को भी शिकायत का मौका नहीं दिया ...लेकिन पता नहीं उनके मन में क्या धारणा घर कर गई थी कि वह माधुरी के हर कार्य में गलती निकालती । उसे फटकारने या ताना मारने का कोई मौका वे नहीं छोड़तीं थी । पिताजी व राजीव हमेशा माधुरी का पक्ष लेते , उसे समझाते रहते व उसे खुश रखने का प्रयास करते ताकि वह माँ की बातों से दुखी न हो । राजीव उसे धैर्य रखने को कहता " समय के साथ माँ भी बदल जाएंगी.. उनके स्नेहिल हृदय के द्वार तुम्हारे लिये भी अवश्य ही खुलेंगे"। पति का यह आश्वासन उसे अपने कर्तव्य - पथ पर डटे रहने की प्रेरणा देता और पिता तुल्य ससुर जी का प्रेम सासु माँ की कटुक्तियों पर मलहम की तरह काम करता । वैसे वह महसूस करती कि माँ जी दिल की बुरी नहीं है... उसके प्रति रूखेपन का कारण शायद अपने इकलौते बेटे की शादी में अपनी जिद न चल पाने का मलाल था या बेटे को खोने का भय...जो कभी - कभी ज्वालामुखी के लावे की तरह अचानक फूट पड़ता था । खयालों में खोई माधुरी की तन्द्रा माँ जी की आवाज से टूटी । वह खाना लगाने को कह रही थीं और माधुरी सबको खाना परोसने लगी ।
शाम को जल्दी से तैयार होकर वह पूजा की तैयारी करने लगी । माँ जी भी दीयों में तेल भरने लगीं । रात को पूजा के बाद सभी छत पर टहलने लगे । दीपशिखाओं की रोशनी से सारा शहर जगमगा रहा था । पिताजी और राजीव पटाखे छुड़ाने नीचे चले गए और माँ जी और माधुरी ऊपर से ही उन्हें देखने लगीं । तभी अचानक माधुरी ने देखा कि माँ जी की साड़ी के लटकते हुए पल्लू में आग लग गई है और वे बेखबर रोशनी देखने में मग्न हैं । माधुरी ने एक पल की भी देरी नहीं कि और माँ जी की ओर लपकी । तब तक शायद उन्हें भी इस बात का एहसास हो गया था । वे घबराहट में कुछ सोच भी नहीं पाई थीं कि माधुरी उनके पास पहुँच गई और अपने हाथों से साड़ी में लगी आग को बुझाने लगी । आग तो जल्दी बुझ गयी पर उसका हाथ काफी झुलस गया ।
माँ जी कुछ देर हतप्रभ सी खड़ी रहीं फिर माधुरी के हाथों को पकड़कर फूट - फ़ूटकर रोने लगीं - मैंने तुम्हें हमेशा भला - बुरा कहा । कभी दो मीठे बोल नहीं कहे .....फिर भी तुम मेरी सेवा करती रही और आज मेरे लिए ये तूने क्या कर लिया, अपने हाथ जला लिए । मुझे माफ करना बेटी , आज मुझे मालूम हुआ व्यक्ति का आकलन उसके गुणों , व्यवहार से करना चाहिए न कि धन - दौलत से । मुझे माफ़ कर दो.." ।
माधुरी को लगा उसे सब कुछ मिल गया और वह माँ जी के सीने से लग गई एक दुलारी बेटी की तरह । अब उसे दीपशिखा की ज्योति अति सुहानी लग रही थी क्योंकि उसने उसके मन के उदासी रूपी अँधेरे को हर लिया था और उसके चारों तरफ खुशियाँ जगमगा उठी थीं ....साथ ही ससुराल में मातृप्रेम जो मिल गया था ।
--स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग, छत्तीसगढ़
-Mobael No.-9424132359 - -लेखक -डॉ. कमलेश गोगिया, वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद् (प्रोफेसर, मैट्स यूनिवर्सिटी, रायपुर)-पहले एक कहानी -एक बार एक बाघ के गले में एक हड्डी का टुकड़ा अटक गया। बाघ ने उसे निकालने की बड़ी कोशिश की, परन्तु सफलता नहीं मिली। पीड़ा से भागकर वह इधर-उधर दौड़-भाग करने लगा। किसी भी जानवर को सामने देखते ही वह कहता, ‘’भाई, .यदि तुम मेरे गले में अटका हुआ हड्डी का टुकड़ा बाहर निकाल दो, तो मैं तुम्हें एक विशेष पुरस्कार दूंगा और आजीवन तुम्हारा ऋणि रहूँगा।‘’ परन्तु कोई भी जीव भय के कारण उसकी सहायता करने को राज़ी न होता।पुरस्कार के लोभ में आकर एक बगुला हड्डी के टुकड़े को निकालने के लिए तैयार हो गया। उसने बाघ के मुँह में अपनी लम्बी चोंच डाल दी, और काफ़ी प्रयास करने के बाद आखिरकार उस हड्डी को निकालने में सफल हुआ। बाघ को बड़ी राहत मिली। पर जब बगुले ने पुरस्कार की बात उठाई, तो बाघ ने अपनी आँखें तरेरकर दाँत पीसते हुए कहा, ‘’अरे मूर्ख तूने मेरे मुख में अपनी चोंच डाल दी थी, फिर भी तू अब तक जीवित है। इसी को अपना सौभाग्य मान। तू ऊपर से पुरस्कार माँग रहा है। यदि तुझे अपनी जान प्यारी है, तो तत्काल मेरी आँखों के सामने से दूर हो जा, नहीं तो मैं अभी तेरी गर्दन मरोड़कर रख दूँगा।‘’ यह सुनकर बगुला हक्का-बक्का रह गया और तुरन्त वहाँ से चलता बना। यह कहानी सबक देती है कि दुष्टों के साथ मेलजोल कभी ठीक नहीं रहता और दुष्टों पर कभी भरोसा करना भी उचित नहीं।अब दूसरी कहानी-एक गधा और सियार साथ-साथ शिकार करने जा रहे थे। कुछ दूर जाने पर उन्होंने देखा कि उनके रास्ते के बीचों-बीच एक सिंह बैठा हुआ है। संकट उपस्थित देखकर सियार तत्काल सिंह के निकट पहुँच गया और उससे धीमे स्वर से कहने लगा, ‘’महाराज यदि आप कृपा करके मुझे प्राणदान दें, तो मैं यह गधा आपको सौंप दूंगा।‘’ सिंह राज़ी हो गया। सियार ने बड़ी चालाकी से गधे को सिंह का आहार बना दिया। पर गधे को मारने के बाद सिंह ने सियार को भी मार डाला और अगले दिन का भोजन पूरा किया। इस कहानी से यह प्रेरणा मिलती है कि दूसरों के लिए गड्ढा खोदने वाला खुद भी गड्ढे में गिरता है।ये दोनों कहानियाँ यूनान के महापुरुष ईसप ने सदियों पूर्व रची थीं। देवभूमि भारत में जिस तरह पंचतंत्र और हितोपदेश जैसे ग्रंथ की रचना की गई वैसे ही यूनान में ईसप नामक महापुरुष ने नीतिपरक कथाओं की रचना की थी और ये कथाएँ बीते दो हजार वर्ष से पूरे विश्व में लोकप्रिय हैं। इन कथाओं को ईसप फेबल्ज़ कहा जाता है।इस आलेख में शामिल कहानियाँ ‘ईसप की शिक्षाप्रद कथाएँ’ नामक पुस्तक से ली गई हैं। यह पुस्तक रायपुर के स्वामी विवेकानंद आश्रम के पुस्तकालय में मिली। यह कोलकाता के रामकृष्ण मठ के प्रकाशन केंद्र अद्वैत आश्रम से वर्ष 2018 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का संकलन एवं अनुवाद स्वामी विदेहात्मानंद जीने और स्वामी विमोहानन्द जी व श्रीमती मधु दर ने संपादन किया है। सरल और सहज भाषा में ईसप की कथाओं का आनंद लेने वाली यह कृति मुझे सर्वश्रेष्ठ लगी, बनिस्बद नेट के सर्च इंजन में सिर खपाने के। इस संकलन में 252 कहानियां हैं। इसके प्रकाशक अद्वैत आश्रम के अध्यक्ष स्वमी मुक्तिदानन्द प्रकाशकीय में लिखते हैं, ‘’इस युग के महान सन्त और विचारक श्री विनोबा ने एक बार गीता पर प्रवचन करते हुए कहा था, ‘सृष्टि के प्रति छोटे बच्चों को इतना कौतूहल मालूम होता है, उसी पर तो सारी ईसप-मीति रची गई है।‘ईसप को सर्वत्र ईश्वर दिखाई देते थे। अपनी प्रिय पुस्तकों की सूची में मैं ईसप-नीति का नाम पहले रखूँगा, भूलूँगा नहीं। ईसप के राज्य में केवल दो हाथों वाला तथा दो पाँवों वाला मनुष्य ही नहीं, बल्कि उसमें सियार, कुत्ते, कोए, हिरन, खरगोश, कछुए, साँप, केंचुए-सभी बातचीत करते हैं और हँसते भी हैं।...ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती है।’’ईसप की कथाओं के पात्र मनुष्य से ज्यादा पशु-पक्षी हैं जो नीति और सदाचार की प्रेरणा देते हैं। ईसप ने अनेक कहानियाँ लिखीं जिनके उदाहरण हमें हमारे जीवन में और समाज में दो हजार साल बाद भी देखने को मिलते हैं। उनकी कहानियां जीवन के हर पहलू पर प्रकाश डालकर सदाचार के लिए प्रेरित करती हैं।मोर और बगुला नामक कहानी की बानगी देखिए-एक मोर अपने शानदार पंख फैलाए खड़ा था कि उसके पास से एक बगुला गुजरा। मोर ने अहंकारपूर्वक उस मटमैले पंखों वाले बगुले की निन्दा करते हुए कहा, ‘’मैं तो एक राजा के समान इंद्रधनुष के सारे रंगों से सज़ा हुआ हूँ, जबकि तुम्हारे पंख तो बिलकुल बेरंग हैं।‘’ बगुला बोला, ‘’वह तो ठीक है, पर मैं आकाश की बुलंदियों में उड़ सकता हूँ और अपनी आवाज को सितारों तक पहुँचा देता हूँ, जबकि तुम एक मुर्गे के समान कूड़े के ढेर के इर्द-गिर्द घूमते रहते हो।‘’ यह कहानी रूप की तुलना में गुणवत्ता पर ज्यादा महत्व देने की शिक्षा देती है।अक्सर बिना परिणाम के विचार किये गये कर्म का भुगतान भी करना पड़ता है। दो मेढक की कहानी विचारपूर्वक कर्म करने की शिक्षा इस तरह देती है- एक तालाब में दो मेढक रहा करते थे। एक बार गर्मी के मौसम में वह तालाब सूख गया दोनों मेढक तब एक साथ एक नये घऱ की तलाश में निकल पड़े। रास्ते में वे जल से परिपूर्ण एक गहरे कुएँ के पास से होकर गुजरे। उसे देखकर एक मेढक ने दूसरे से कहा, ‘’क्यों न हम इस कुएँ को ही अपना घर बना लें।’’ इस पर दूसरे मेढक ने अपनी सूझ-बूझ का परिचय देते हुए कहा- ‘’लेकिन मान लो इसका पानी भी कभी सूख जाए, तो हम इतनी गहराई से बाहर कैसे निकलेंगे।‘’अहंकार न करने की सीख देने वाली दीपक और रोशनी नामक कहानी के अनेक प्रसंग समाज में देखने को मिलते हैं। यह कहानी है-तेल से भरे हुए एक जलते हुए दीपक ने डींग हाँकते हुए कहा कि वह सूर्य से भी अधिक प्रकाश देता है। तभी सहसा एक हवा का झोंका आया और चिराग गुल हो गया। उसके मालिक ने उसे दुबारा जलाकर कहा, ज्यादा डींग मत हाँक, बल्कि अब से चुपचाप रोशनी देकर ही संतुष्ट रह। जान ले कि तारों तक को दुबारा जलाने की जरूरत नहीं होती। वस्तुतः थोड़ी सी ही उपलब्धि पर घमण्ड नहीं करना चाहिए। इतिहास गवाह है कि अहंकार से ही रावण का वध हुआ था।वास्तव में प्रेरक कथाएँ जीवन का सही मार्गदर्शन करती हैं। कथाओं की सहायता से समाज को प्रेरणा देते रहने का कार्य महापुरुष, ऋषिगण सदियों से करते रहे हैं। प्राचीन काल से ही लोक-व्यवहार, नीति-सदाचार के तत्वों को कथाओं के माध्यम से समझाया जाता रहा है। आज भी कथाओं का ही सहारा लेकर प्रवचन दिये जाते हैं। वेब-वर्ल्ड के इस आधुनिक युग में अब ऑडियो बुक्स से कथाएँ सुनी जाती हैं। संचार के माध्यम कितने भी पारंपरिक या आधुनिक हो जाएं, कथाएँ सदैव हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनी रहेंगी। आखिर हर व्यक्ति के जीवन की में हर क्षण घट रही घटनाएँ भी तो कथा ही हैं। ईसप की प्रेरणास्पद कहानियों के संग्रह को प्रवाहमयी व सरल भाषा शैली के साथ प्रस्तुत करने के लिए रामकृष्ण मठ के स्वामी मुक्तिदानन्द स्वामी विदेहात्मानंद, स्वामी विमोहानन्द व श्रीमती मधु दर को साधुवाद...।
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लेखिका- डॉ. दीक्षा चौबे*
घर के आँगन-द्वार सजे हैं,
सिंदूरी रंगोली से ।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।।पुरवाई शीतलता लाती,क्लांत-शांत है जग सारा।
शीघ्र पहुँच विश्राम चाहता , दिनकर पथिक थका हारा।
नीड़ों पर हलचल आवाजें, बाट जोहते दाने की ।
प्रातकाल से माँ निकली है, जुगत लगाने खाने की।
मुस्कानें खिलतीं आने पर,
निकले क्या-क्या झोली से।।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।।दिन भर का सब हाल सुनाते,खुली पोटली अनुभव की।
मित्रों से अनबन सुलझ गई, बात तोतली शैशव की ।
सदा अभावों से उलझी माँ, ढकती कमियों की पेटी ।
मात-पिता के हालातों को, समझ रहे बेटा-बेटी ।
सुख का सांध्य-दीप जल जाता,
सबकी हँसी-ठिठोली से।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।।संध्या के परिदृश्य कई हैं,खुशी कहीं पसरा मातम।
कहीं विरह में आँसू बहते,कहीं हो रहा है संगम।
मुश्किल पल में आगे बढ़ते,पलते नैनों में सपने ।
अपना-अपना युद्ध लड़ें सब,संग चले हैं जो अपने ।
सुख की तितली जहाँ थिरकती,
खुशी छलकती बोली से।।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।। -
पुण्यतिथि पर विशेष
साहिर लुधियानवी हिंदी सिनेमा के बड़े नग़्मा-निगारों में से एक थे। जिस समय उनका गीत लेखन के क्षेत्र में आगमन हुआ वह दौर भारी हंगामाखेज था, चारों तरफ तक़्सीम की त्रासदी पसरी हुई थी। इंसानियत को शर्मसार करने की कोई कोर-कसर नहीं बची थी। साथ ही आलमी सतह पर दूसरी जंग-ए-अज़ीम (विश्वयुद्ध) की विभीषिका भी दुनिया के सामने थी। तबाही का ऐसा मंज़र दुनिया ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। उस दौर की त्रासदी, साहिर की ज़ाती पीड़ा यानी ग़म-ए-हयात में पैवस्त होकर उनके गीतों में हमेशा नमूदार होती रही।साहिर ने खुद कहा भी – दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं ।साहिर अकेले ऐसे गीतकार हुए जिनके गीत उस पूरे माशरे की तर्जुमानी करते हैं। साहिर के गीतों में एक इंसान के अंदर की कशमकश, उसके अंदर की आग, बग़ावत और फिर वही मामूली आदमी की बेबसी कहीं न कहीं दिख ही जाती है। हालांकि उस समय कई बडे शायर फ़िल्मी गीत लेखन के क्षेत्र में आए, फ़िल्मों में आने से पहले उनकी शायरी में भी वही कैफ़ियत, जज़्बात की तपिश, तरक़्क़ीपसंदी थी। लेकिन कुछेक मौकों को छोड़कर उनके फ़िल्मी गीतों में वह कैफ़ियत नहीं दिखी जो ताउम्र साहिर के गीतों में रही। कई शायरों को तो सिनेमा की दुनिया रास ही नहीं आई।रूमानियत का रंगफ़िल्मी गीतकारों में साहिर की रूमानियत का रंग औरों से जुदा था। उनके यहां रूमानियत थी – कभी न ठंडी पड़ने वाली मद्धिम आंच की तरह। उनकी रूमानियत के तेवर बग़ावती तो थे ही, उसमें अजीब सी नीम-उदासी, नॉस्टैल्जिया का रंग भी था, साथ ही उसमें कुदरती नीरवता, स्वप्नशीलता और विह्वलता थी। मिसाल के तौर पर साहिर के फ़िल्म धर्मपुत्र (1962) के इस गीत को देखिए :मैं जब भी अकेली होती हूँ तुम चुपके से आ जाते होऔर झाँक के मेरी आँखों में बीते दिन याद दिलाते हो …..उदासी का कैनवाससाहिर के फ़िल्मी गीतों में पसरी उदासी का कैनवास इतना बड़ा है कि ज़ाती उदासी आलमी उदासी में तब्दील होती दिखाई देती है। हिन्दी फ़िल्मों में शायद ही ऐसा रंग किसी और के यहां मिले। फ़िल्मों से इतर यह रंग सबसे ज्यादा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के यहां है। उदासी के ये रंग आप फ़िल्म प्यासा (1957) के गीतों में देख सकते हैं। मसलन- ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं…,जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला…, तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम… ।बोल सरल लेकिन महज तुकबंदी नहींसिचुएशन और कैरेक्टर के हिसाब से इनके गीतों के बोल कहीं सरल हैं लेकिन वहां भी महज तुकबंदी, सपाटबयानी नहीं है। सरलता और मायने दोनों देखना हो तो, बानगी के तौर पर फ़िल्म फिर सुबह होगी (1958) का यह गीत देखिए:दो बूँदे सावन की…इक सागर की सीप में टपके और मोती बन जायेदूजी गंदे जल में गिरकर अपना आप गंवायेकिसको मुजरिम समझे कोई, किसको दोष लगाये
दो कलियां गुलशन कीइक सेहरे के बीच गुँधे और मन ही मन इतरायेएक अर्थी के भेंट चढ़े और धूलि मे मिल जायेकिसको मुजरिम समझे कोई, किसको दोष लगाये
दो सखियाँ बचपन कीइक सिंहासन पर बैठे और रूपमती कहलायेदूजी अपने रूप के कारण गलियों मे बिक जायेकिसको मुजरिम समझे कोई किसको दोष लगाये…इसके अलावा और भी कुछ गीतों को देखिए। इन गीतों के बोल में न सिर्फ देसी लालित्य है बल्कि इनके मा’नी भी काफी गहरे हैं। मिसाल के तौर पर फ़िल्म चित्रलेखा (1964) का गीत –मन रे तू काहे ना धीर धरेवो निर्मोही मोह ना जाने, जिनका मोह करेमन रे …इस जीवन की चढ़ती ढलतीधूप को किसने बांधारंग पे किसने पहरे डालेरूप को किसने बांधाकाहे ये जतन करेमन रे …
उतना ही उपकार समझ कोईजितना साथ निभा देजनम मरण का मेल है सपनाये सपना बिसरा देकोई न संग मरेमन रे …इस गीत के पहले बंद में साहिर जीवन की नश्वरता को कितने आसान अंदाज में बयां करते हैं। यही रंग मिर्ज़ा ग़ालिब के यहां कुछ इस तरह से है – मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यूँ रात भर नहीं आती।फ़िल्म हम दोनों (1961) का गीत- अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम … भी देख सकते हैं।अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नामसबको सन्मति दे भगवान
इस धरती का रूप ना उजड़ेप्यार की ठंडी धूप ना उजड़ेसबको मिले सुख का वरदान….
मांगों का सिन्दूर ना छूटेमाँ बहनों की आस ना टूटेदेह बिना दाता, भटके ना प्राण…
ओ सारे जग के रखवालेनिर्बल को बल देने वालेबलवानों को दे दे ज्ञान ….इस गीत के अंतिम बंद को देखिए जिसमें साहिर कहते हैं – बलवानों को दे दे ज्ञान…। यहां साहिर एक तरह से सर्वसत्तावादी (Totalitarianism) सोच, सत्ता की निरंकुशता पर गांधीवादी तरीके से ही सही प्रश्न उठाते हैं।सियासी सोच का फ़लकसाहिर की अपने माशरे (दौर) पर हमेशा पैनी नजर रही। जब तक एक गीतकार को अपने माशरे की व्यापक समझ नहीं होगी तब तक वह एक साथ अलग अलग सिचुएशन और कैरेक्टर के लिए गीत नहीं लिख सकता। मतलब वह एक सफल गीतकार नहीं हो सकता।उनकी सियासी सोच का फ़लक भी काफी बड़ा था, जिसमें हर तरह के मौज़ूआत शामिल थे। वे घोषित मार्क्सवादी तो थे ही, साथ साथ एक गांधीवादी भी थे। जिसकी सबसे बड़ी मिसाल उनके गीत हैं। फिल्म नया दौर (1957) के गीत को लीजिए, जो पूरी तरह से गांधी की सोच की तर्जुमानी करते हैं। मसलन, साथी हाथ बढाना…, ये देश है वीर जवानों का …।जंग को लेकर जो उनकी सोच रही उस पर भी आप गांधी के असर को देख सकते हैं। उदाहरण के लिए फ़िल्म ताजमहल का उनका लिखा गीत, … ख़ुदा-ए-बर्तर तिरी ज़मीं पर ज़मीं की ख़ातिर ये जंग क्यूँ है …सुनिए।ज़मीं भी तेरी है हम भी तेरे ये मिलकियत का सवाल क्या हैये क़त्ल-ओ-ख़ूँ का रिवाज क्यूँ है ये रस्म-ए-जंग-ओ-जिदाल क्या हैलेकिन ग़ालिब के रंग ‘जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद, फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है’ – में मिलकियत को लेकर जो उनका सवाल है। वह यह दिखाता है कि उन पर मार्क्सवाद का कितना असर था।साहिर एक हद तक आदर्शवादी भी थे। जिसे आप उनकी मानवतावादी सोच से भी जोड़ सकते हैं। उन्हें हिंदोस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की गहरी समझ थी। तभी तो बच्चे की मासूमियत के जरिए फिरकों में बंटी इस दुनिया पर जैसा तंज़ फ़िल्म ‘धूल का फूल’ के गीत …. तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा….में है, शायद ही इसकी कोई दूसरी मिसाल हो। इस गीत के अंतरे यानी बंद को देखिए, किस तरह से मज़हबी सियासत के नापाक मंसूबों को बेनक़ाब करती है।अच्छा है अभी तक तेरा कुछ नाम नहीं हैतुझको किसी मज़हब से कोई काम नहीं हैजिस इल्म ने इंसान को तक़सीम किया हैउस इल्म का तुझ पर कोई इलज़ाम नहीं है………दुख का रंग भी साहिर के यहां यकसां नहीं था। उनके अंदर इंसानी तकलीफ और बेचैनी को पढने का गजब शऊर था। व्यवस्था और समाज के दोहरेपन, विसंगतियों और खोखलेपन पर साहिर ने अपने फ़िल्मी गीतों के जरिए जमकर प्रहार किया, जिसकी सबसे बडी मिसाल उनकी फ़िल्म प्यासा है। कहें तो हर एहसास/मानवीय संवेदना को उन्होंने पढ़ने की, बुनने की भरपूर कोशिश की। इतने बडे/विविध एहसासात को गीतों में उतारने के लिए उनके पास लफ़्ज़ों का ज़ख़ीरा भी था।उनके गीत एक ही साथ क्लास और आम लोग दोनों के बीच लोकप्रिय हुए। जबरदस्त राजनीतिक व सामाजिक चेतना और व्यापक मानवतावादी सोच की वजह से एक तरफ जहां उनकी स्वीकार्यता पढे लिखे मध्यम वर्ग में भी रही। वहीं आम लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता की सबसे बड़ी वजह थी – आम हिंदुस्तानी की ज़िंदगी को लेकर उनकी बडी बारीक समझ। उनके बहुत सारे गीत बहुत सरल भी है और आजतक आम लोगों की ज़बान पर हैं मसलन… तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले …, बाबुल की दुआएं लेती जा…, मेरे दिल में आज क्या है…, अभी न जाओ छोड़कर…, मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया…, चलो इक बार फिर से अजनबी……, वगैरह।प्यासा के बाद उन्होंने सचिन देव बर्मन के साथ कभी काम नहीं किया। प्यासा और नया दौर के बाद शायद ही कोई अन्य क्लासिक फ़िल्म के लिए उन्होंने गीत रचे। अन्य बड़े निर्माता निर्देशकों के साथ भी उनकी इक्का-दुक्का फ़िल्में ही आई। उनकी बहुत सारी फ़िल्में सार्थक थी लेकिन उन्हें ग्रेट क्लासिक फ़िल्मों की कतार में नहीं रखा जा सकता।साहिर ने दो तरह की फ़िल्मों के लिए गीत लिखा। एक तरफ तो गुरुदत्त और बीआर चोपड़ा जैसे निर्माता-निर्देशकों के लिए, जिन्होंने अपनी फ़िल्मों के जरिए हमेशा कोई न कोई सामाजिक संदेश देने की कोशिश की। ऐसी फ़िल्मों में साहिर के शायर होने का रंग उरूज पर दिखा। इन फ़िल्मों में तो यह लगता ही नहीं है कि यह किसी गीतकार की रचना है। शायरी भी यहां आला दर्जे की लगती है। वैसे इन फ़िल्मों में साहिर की कई पुरानी रचनाओं को हूबहू भी ले लिया गया। वहीं दूसरी तरफ साहिर की बहुत सारी फ़िल्में ऐसी भी हैं जिसे आप मसाला या आम फार्मूला वाली फ़िल्में कह सकते हैं लेकिन इन फ़िल्मों में भी साहिर के गीतों की स्तरीयता/मेयार में कोई कमी नहीं आई, चाहे सिचुएशन व कैरेक्टर जैसे भी हों। इन गीतों में भी साहिर मा’नी पैदा कर ही गए हैं। जिससे आप बतौर गीतकार उनकी रेंज/वर्सेटिलिटी का अंदाजा लगा सकते हैं।साहिर की शायरी उनके गीतों से कभी जुदा नहीं हुई और यही सबसे अलग बात थी साहिर लुधियानवी की। साहिर के कई गीत सुनेंगे तो आपको लगेगा कि कैरेक्टर और सिचुएशन के जितने रंग/आयाम हो सकते हैं वहां तक उन्होंने इन गीतों में जाने का प्रयास किया है। फ़िल्म मुझे जीने दो का गीत …तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ ….या फ़िल्म त्रिशूल का गीत…तू मेरे साथ रहेगा मुन्ने …सुनिए ।तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ (फ़िल्म मुझे जीने दो)और दुआ देके परेशान सी हो जाती हूँ ।
मेरे मुन्ने मेरे गुलज़ार के नन्हे पौधेतुझको हालात की आंधी से बचाने के लियेआज मैं प्यार के आंचल में छुपा लेती हूँकल ये कमज़ोर सहारा भी न हासिल होगाकल तुझे कांटों भरी राहों पे चलना होगाज़िंदगानी की कड़ी धूप में जलना होगातेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ |तेरे माथे पे शराफत की कोई मोहर नहींचंद बोसें हैं मुहब्बत के, सो भी क्या हैंमुझ सी माओं की मुहब्बत का कोई मोल नहींमेरे मासूम फ़रिश्ते तू अभी क्या जानेतुझको किस किसके गुनाहों की सजा मिलनी हैदीन और धर्म के मारे हुए इंसानों कीजो नज़र मिलनी है तुझको वो खफा मिलनी हैतेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँऔर दुआ देके परेशान सी हो जाती हूँ | …….________________________________तू मेरे साथ रहेगा मुन्ने! (फिल्म त्रिशूल)ताकि तू जान सकेतुझको परवान चढ़ाने के लिएकितनी संगीन मराहिल से तेरी माँ गुज़रीतू मेरे साथ रहेगा मुन्ने !
ताकि तू देख सकेकितने पाँव मेरी ममता के कलेजे पे पड़ेकितने ख़ंजर मेरी आँखों, मेरे कानों में गड़ेतू मेरे साथ रहेगा मुन्ने !
मैं तुझे रहम के साये में न पलने दूँगीजिन्दगानी की कड़ी धूप में जलने दूँगीताकि तप- तप के तू फ़ौलाद बनेमाँ की औलाद बनेतू मेरे साथ रहेगा मुन्ने
जब तलक होगा तेरा साथ निभाऊँगी मैंफिर चली जाऊँगी उस पार के सन्नाटे मेंऔर तारों से तुझे झाँकूँगीज़ख़्म सीने में लिए फूल निगाहों में लिएतेरा कोई भी नहीं मेरे सिवामेरा कोई भी नहीं तेरे सिवातू मेरे साथ रहेगा मुन्ने ! ……………अपने गीतों में साहिर ने एक औरत के एहसास, दास्तां को जितनी बारीकी से बुना किसी और दूसरे गीतकार ने नहीं। ऐसे सिचुएशन और भी फ़िल्मों में आए लेकिन इस तरह के गीत आपको नहीं मिलेंगे। कभी कभी लगता है साहिर अपने हर गीत में सोच और जज़्बात की तपिश से खेलना चाहते थे। वे अपने गीतों में कैरेक्टर और सिचुएशन को कितनी बारीकी से बुनते थे। इसका अंदाज़ा आप उनके ऐसे ही गीतों से लगा सकते हैं। - -अद्भुत आदित्य की अद्भुत बातें-2-लेखक -डॉ. कमलेश गोगिया, वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद् (प्रोफेसर, मैट्स यूनिवर्सिटी, रायपुर)बचपन में मैग्नीफाइंग ग्लास (आवर्धक लैंस) पर सूर्य की बिखरी रोशनी को एक जगह केंद्रित कर कागज पर आग लगाने का खेल खूब खेल करते थे। लेकिन इसके छिपी आगे बढ़ने की प्रेरणा का संकेत बाद में समझ आया। सूर्य की रोशनी की तरह बिखरे हमारे विचारों को भी किसी एक लक्ष्य पर केंद्रित करने से सफलता मिलना तय है। अब बात करते हैं सूर्य के अलौकिक पक्ष की।हममें से अधिकांशतः ने बालीवुड की बेहतरीन माने जाने वाली फिल्म थ्री इडियट (2009) देखी है जिसके अनेक दृश्य रोमांचकारी हैं। इस फिल्म में डिलीवरी का सीन भी सबसे ज्यादा संवेदनशील है। एक बच्चे को जन्म देने की पूरी प्रक्रिया के बीच वह दृश्य याद कीजिए जब जन्म के बाद नाभि से जुड़े गर्भनाल को क्लीप लगाकर नवजात शिशु के शरीर के पास से काट दिया जाता है। गर्भनाल का एक सिरा गर्भाशय से जुड़ा होता है और दूसरा शिशु की नाभि से। हम सब जन्म के पूर्व गर्भ में नाभि के माध्यम से ही ईश्वरस्वरूपा माँ से जुड़े थे और अपने शरीर के विकास के लिए नाभि से ही सारी वस्तुएँ प्राप्त की थीं।पका हुआ आहार माता के रक्त के माध्यम से निरंतर प्राप्त कर अपनी विकास यात्रा प्रारंभ की थी। नौ माह की पूरी अवधि में सारी जरूरतो की पूर्ति नाभि मार्ग से ही की थी। जन्म के बाद नाल काटकर सम्बन्ध विच्छेद किया गया और फिर नाभि की भूमिका और उपयोगिता यहाँ समाप्त मान ली गई। विज्ञान में नाभि को लगभग महत्वहीन ही समझा गया है, लेकिन अध्यात्म के दृष्टिकोण से देखें तो इसका महत्व पूरे शरीर में है। वेदों में और भारतीय योगशास्त्र में इसका विशेष महत्व है।पौराणिक आख्यानों में भगवान विष्णु की नाभि से कमल के उत्पन्न होने वाले चित्र सिर्फ अध्यात्मिक नहीं, इसके पीछे विज्ञान भी छिपा है। एक आध्यात्मिक विज्ञान में प्रेमयोगी वज्र लिखते हैं कि सृष्टि रचना पुराणों में शरीर रचना के माध्यम से समझाई गई है। माँ को आप विष्णु मान सकते हो। उसका शरीर एक शेषनाग की तरह ही केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के रूप में है, जो मेरुदंड में स्थित है। वह नाग हमेशा ही सेरेब्रोस्पाइनल फ्लुइड रूपक समुद्र में डूबा रहता है। उस नाग में जो कुंडलिनी या माँ की संवेदनाएं चलती हैं, वे ही भगवान विष्णु का स्वरूप है, क्योंकि शक्ति और शक्तिमान भगवान में तत्वतः कोई अंतर नहीं। गर्भावस्था के दौरान जो नाभि क्षेत्र में माँ का पेट बाहर से उभरा होता है, वही भगवान विष्णु की नाभि से कमल का प्रकट होना है। विकसित गर्भाशय को भी माँ के शरीर की नसें-नाड़ियाँ माँ के नाभी क्षेत्र के आसपास से ही प्रविष्ट होती हैं। खिले हुए कमल की पंखुड़ियों की तरह ही गर्भाशय में प्लेसेंटोमस और कोटीलीडनस उऩ नसों के रूप में स्थित कमल की डंडी से जुड़े होते हैं। वे संरचनाएं फिर इसी तरह शिशु की नाभि से कमल की डंडी जैसी नेवल कोर्ड से जुड़ी होती हैं। ये संरचनाएं शिशु को पोषण उपलब्ध कराती हैं। शिशु ही ब्रह्मा है, जो उस खिले हुए कमल पर विकसित होता है।योगशास्त्र में नाभि को सूर्य चक्र कहा गया है। वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रणेता पं. श्रीराम शर्मा आचार्य अध्यात्म -मर्मज्ञों के हवाले से लिखते हैं, सबसे पहले मानवीय प्राण नाभि केन्द्र से स्पन्दित होकर ह्रदय से टकराता है। ह्रदय और फेफड़ों में रक्त शोधन करके सारे शरीर में संचार करने में सहायता करता है। नाभि के पीछे स्थित सूर्यचक्र (सोलर प्लक्सेज) वह केन्द्र बिन्दु है जहाँ से सारी प्रमुख धाराएँ विभिन्न अंगों में जाती है। एक प्रकार से इसे जंकशन स्टेशन की उपमा दी जा सकती है जहाँ से अनेक रेलवे लाइन विभिन्न दिशाओं में जाती हैं। सारे शरीर की स्फूर्ति इसी केन्द्र की सशक्तता पर निर्भर करती है। साधारणतया यह महत्वपूर्ण केन्द्र प्रायः लुप्त अवस्था में पड़ा रहता है। अतः इसकी शक्ति का न तो कुछ ज्ञान होता है और न इससे कुछ लाभ ही उठा पाते हैं। (30 वर्ष पूर्व-1997, अखण्ड ज्योति)आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रवि शंकर अपनी कृति सच्चे साधक के लिए एक अंतरंग वार्ता (नित्यदिन के ज्ञानसूत्र) में लिखते हैं कि सूर्य चक्र अत्यंत प्रभावशाली है- केन्द्रीय स्नायु प्रणाली, नेत्र तंतुओं व उदर पर। होने वाली घटना के संबंध में सजग करने की अनुभूति भी सूर्य-चक्र द्वारा प्रभावित है। सूर्य चक्र शरीर का दूसरा मस्तिष्क भी कहलाता है। सूर्य चक्र के संकुचित होने पर दुख और उदासीनता आ जाती है, मन नकारात्मक भावों से भर जाता है। सूर्य चक्र के विस्तृत होने पर आध्यात्मिक चेतना जागृत होती है, मन स्वच्छ और केन्द्रित होता है।यह सारी गथा लिखने का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि नाभि एक सक्रिय केंद्र है जिसे सूर्यचक्र कहा गया है और धरती पर जीवन का आधार भी सूर्य है। पृथ्वी और चंद्रमा का अपना कोई प्रकाश नहीं है, वे सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशवान हैं। विज्ञान ने सूर्य के भौतिक स्वरूप से सम्पर्क कर प्रकाश, ऊर्जा से लेकर काल-ज्ञान तक प्राप्त किया लेकिन हमारा भारतीय दर्शन यह मानता है कि इसके आध्यात्मिक सम्पर्क कहीं ज्यादा सशक्त होने के साथ ही रहस्यमय भी है। भारतीय योगशास्त्रो में सूर्य का ध्यान करने का महत्व इसिलए प्रतिपादित किया जाता रहा है। सूर्य तो हर व्यक्ति के भीतर नाभि में बसा है, जरूरत उसे उदय करने की है। सूर्य के वैज्ञानिक और आध्यात्मिक पक्ष के अनेक प्रसंग हैं और हर प्रसंग अलौलिकताओं व संभावनाओं से भरा हुआ है।
- -लघुकथा-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)उमा नवरात्रि का व्रत रखती है और नौ कन्याओं को आमंत्रित कर भोजन कराती है । हर बार वह अपनी कामवाली बाई को बोल देती है ,वही अपने मोहल्ले की लड़कियों को ले आती है । ये बच्चियाँ बड़े शौक से सभी व्यंजन खातीं हैं यह देखकर उमा का मन तृप्त हो जाता है वरना उसकी सहेलियों के बच्चों के तो खाने में सौ नखरे । यह सब्जी नहीं खाएँगे ,वह नहीं खाएँगे पूरी थाली भरी रह जाती और वे आधी-अधूरी चीजें खाकर उठ जातीं..कहीं और भी जाना है । उन्हें पेंसिल बॉक्स,रबर बैंड,पिन इत्यादि उपहार देकर विदा ही किया था कि कुछ दूर जाकर एक नन्हीं वापस आई और कहने लगी -" आंटी खाना बहुत अच्छा था। अब नवरात्रि कब आएगी, अगली बार भी बुलाओगी न मुझे ?" उसकी इस मनुहार ने झकझोर दिया था उसे -" जरूर बेटा " कहते हुए उमा की आँखें नम हो आईं थीं और मन ने कुछ संकल्प लिया था । अब कन्या-भोजन कराने के लिए सिर्फ नवरात्रि का इंतजार नहीं करेगी वह ।
- लेखक -डॉ. कमलेश गोगिया, वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद् (प्रोफेसर, मैट्स यूनिवर्सिटी, रायपुर)हर भारतीय के लिए यह गर्व की बात है कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के चंद्रयान-3 ने सफलता के मुकाम हासिल किए। चंद्रयान की सफलता के बाद सूर्य पर अध्ययन के दृष्टिकोण से लॉन्च किया गया आदित्य एल-1 मिशन भी सफलता की राह पर अग्रसर है। निःसंदेह यह मिशन सूरज की रोशनी, प्लाज्मा और चुंबकिय क्षेत्र का महत्वपूर्ण अध्ययन करने में कामयाब होगा और दुनिया को अनेक नये सूत्र मिलेंगे। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह भारत का पहला सौर मिशन है। लेकिन हमारे महान ऋषि-मनीषी सदियों पूर्व आदित्य पर अनुसंधानरत रहकर अनेक महत्वूर्ण जानकारियाँ और नये-नये रहस्य उद्घाटित करने में सफल होते रहे हैं। आदित्य अर्थात सूर्य जिसके अऩेक नाम हैं, जैसे- रवि, दिनकर, सूरज, भास्कर, मार्तंड, मरीची, प्रभाकर, सविता, पतंग, दिवाकर, हंस, भानु, अंशुमाली आदि।यदि सूर्य के आध्यात्मिक पक्ष की बात की जाए तो हमारा पूरा भारतीय वैदिक साहित्य सूर्य की स्तुति, उसके अनेक वैज्ञानिक तथ्यों और महत्वपूर्ण जानकारियों से भरा पड़ा है। यजुर्वेद में सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः स्वाहा (3-9) से लेकर प्रश्नोपनिषद (1-8) में प्राणः प्रजानामुत्दयत्येष सूर्यः के माध्यम से सूर्य की महिमा और स्तुति का स्थान-स्थान पर हुआ है। आदित्य ह्रदय का रहस्य जानकर ही भगवान श्रीराम ने रावण का वध किया था। प्राचीन भारतीय साहित्य में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि भगवान श्री कृष्ण के पुत्र साम्य का कुष्ठ रोग भी सूर्य चिकित्सा से ही दूर हुआ था।दो वर्ष पहले का एक वाकया है, हमारे पड़ोसी को पुत्री-रत्न की प्राप्ति हुई। उल्लास का वातावरण निर्मित हुआ, किन्तु परिजनों के माथे पर चिंता की लकीरें भी उमड़ पड़ी थीं, क्योंकि नवजात बालिका को पीलिया हो गया था। चिकित्सकों ने दवाइयों के साथ कुछ देर सुबह उदित होते सूर्य की किरणों में रखने की भी बात कही। जो कहा गया उसका वैसा ही पालन हुआ, बालिका जल्द ही स्वस्थ हो गई। पीलिया जैसे रोगों में उदित होते सूर्य की किरणों से मिलने वाले लाभ के संबंध में हमारे वेदों में भी उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद (अर्थव-1-22) में सूर्य चिकित्सा के माध्यम से ह्रदय रोग और पीलिया को दूर करने के संदर्भ में उल्लेख मिलता है कि-अनु सूर्य मुदयतां हृद्द्योतो हरिमा च ते।गो रोहितस्य वर्णेन तेन त्वा परिदध्यसि।।इसका अर्थ यह है कि तुम्हारा पीलापन (पीलिया) तथा ह्रदय की जलन सूर्य की अनुकूलता से उड़ जाए। रश्मियों के तथा उस प्रकाश के लाल रंग को तुझे सब ओर से धारण करना है। भाव यह है कि पीलिया और ह्रदय रोगों में सूर्योदय के समय सूर्य की लाल रश्मियों के प्रकाश में खुले शरीर बैठना तथा लाल रंग की गौ के दूध का सेवन करना बहुत ही लाभदायक होता है। सूर्य को आदि देव कहा गया है और सूर्य के संबंध में अनेक अद्भुत प्रसंग हमें मिलते हैं। सूर्य विज्ञान में सिद्धहस्त परमहंस स्वामी विशुद्धानंद जी के संबंध में तीस वर्ष पूर्व प्रकाशित पत्रिका अखण्ड ज्योति (1993) में यह उल्लेख मिलता है कि स्वामी विशुद्धानंद जी ने एकाकी गहन शोध कर सूर्य विज्ञान विधा को तिब्बत की दुर्गम गुफाओं से लाकर वाराणसी में प्रतिष्ठित किया। इन्हें सुगंधी बाबा भी कहा जाता था क्योंकि वे सूर्य विज्ञान और स्फटिक से तरह-तरह की सुगंध पैदा कर देते थे। सूर्य के माध्यम से शून्य से ताजी चीजें प्रकट करना, मुरझाए फूल को ताजा करने का भी जिक्र मिलता है। इन बातों का उल्लेख प्रसिद्ध इण्डोलाजिस्ट और प्राच्यविद् पाल ब्रंटन ने अपनी शोध पुस्तिका ‘ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया’ में सूर्य विज्ञान को समर्पित एक निबंध में भी किया है। भारतीय संस्कृति, अध्यात्म और ज्ञान-विज्ञान सदियो से पूरे विश्व को आकर्षित करता रहा है और भारत का गुप्त-ज्ञान पूरे विश्व में अध्ययन का केंद्र बिंदु भी रहा है। पाल ब्रंटन का भारतव्यापी शोध का उद्देश्य भी यही रहा होगा।कहते हैं कि परमहंस स्वामी विशुद्धानंद मात्र सुपात्र और पवित्र अंतःकरण वाले व्यक्तियों के सामने ही सूर्य विज्ञान का प्रदर्शन, सविता देवता की साधना, गायत्री अनुष्ठान व योग साधना की प्रेरणा देते थे। कभी भी उनका प्रदर्शन कथित चमत्कार दिखाने या ख्याति प्राप्त करने के लिए नहीं किया गया। यहां दो बातें सामने आती हैं सुपात्र और पवित्र अंतःकरण, संकेत साफ है कि सूर्य विज्ञान में पारंगत होने के लिए प्रबल इच्छाशक्ति के साथ अच्छी नियत की शर्त है। परमहंस स्वामी विशुद्धानंद सूर्य विज्ञान और आत्मबल से दृश्य वस्तु की मूल प्रकृति में परिवर्तन कर देते थे। उनके शिष्य पंडित गोपीनाथ कविराज सूर्य विज्ञान के संबंध में लिखते हैं कि यह विधा विशुद्धतः सूर्य रश्मियों के ज्ञान पर निर्भर है। इनके विभिन्न प्रकार के संयोग व वियोग होने पर विभिन्न प्रकार के पदार्थों की अभिव्यक्ति होती है। विभिन्न रश्मियों का परस्पर सुनियोजित संगठन ही सूर्य विज्ञान है। इसके लिए सही विधा की जनकारी जरूरी है। अद्भुत-सी प्रतीत होने वाली इन बातों पर सहसा विश्वास नहीं किया होगा। लेकिन सूर्य विज्ञान के ही माध्यम से सौर ऊर्जा का लाभ आज पूरा विश्व उठा रहा है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। सौर ऊर्जा से आज लोगों के घर से लेकर कार्यालय तक रोशन हो रहे हैं। भारत के चंद्रयान-3 मिशन की सफलता में सौर प्रौद्योगिकी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।जब सूर्य विज्ञान की बात की जाती है तो वाराह मिहिर का भी उल्लेख आता है। वाराह मिहिर ने सदियों पूर्व खगोल गणनाएँ कर दी थीं। ये गणनाएँ आज भी सटीक प्रमाणित होती हैं। यह बात सदैव वैज्ञानिकों को हतप्रभ करती रही है कि वाराह मिहिर ने जब ये खगोल गणनाएं तब न तो कोई यंत्र-उपकरण थे और न ही कोई प्रयोगशाला। कहा जाता है कि उनकी बचपन से अंतरिक्ष के रहस्य जानने की प्रबल इच्छा रहती थी जिससे माता-पिता परेशान रहा करते थे और पड़ोसी भी मजाक बनाया करते थे। लेकिन प्रबल इच्छाशक्ति, प्रगाण प्रार्थना, सच्ची लगन के आगे कोई बाधा आड़े नहीं आ सकी। प्रथम बार सूर्य (मिहिर) बालक की निष्ठा, निर्भयता और साहस की परीक्षा लेने वाराह के रूप में आए थे।यह उल्लेख भी मिलता है कि शूद्र इतरा का पुत्र सूर्य की उपासना से ही ब्रह्मर्षि ऐतरेय हो गया और ऐतरेय उपनिषद अस्तित्व में आया। जाहिर है कि भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक पक्ष का आधार सूर्य की उपासना है। प्रतिदिन सूर्य को अर्घ्य देने से लेकर सूर्य नमस्कार और सूर्यभेदन प्राणायाम के फलस्वरूप मिलने वाले स्वास्थ्य लाभ से आज पूरा विश्व अवगत है। वैदिक काल से चली आ रही यह परंपरा हमारे ऋषियों के सूर्य विज्ञान के आधार पर किये गये गहन शोध और अध्ययन का ही परिणाम है। पृथ्वी पर जीवन का आधार ही सूर्य है जिसे सृष्टि का प्राण कहा गया है। पूरी सृष्टि में आदित्य अद्भुत है जिसमें अनेक रहस्य छिपे हुए हैं। वैदिक काल से लेकर आज तक इन रहस्यों पर से पर्दा उठाने के प्रयास जारी हैं और आगे भी जारी रहेंगे। फिलहाल पूरी दुनिया की नजरें इस समय आदित्य एल-1 पर टिकी हैं जिससे भविष्य में और भी नये रहस्य उजागर होने वाले हैं।क्रमशः जारी....
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गीत
लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
देवी माता , के चरणों में , नमन करो ।सेवा श्रद्धा , से माता का , भजन करो ।
बड़ी कृपा है , माँ धरती पर , चरण धरी ।सफल हुई है , सभी साधना , शरण पड़ी ।शुद्ध भावना , शुचि राहों पर , गमन करो ।।देवी माता , के चरणों में , नमन करो ।।
पाप कलुष से , दूर रहें सब , कुपित न हों ।प्रेम भाव से , गले मिले मन , भ्रमित न हों ।छाँट खार को , जगत पुष्प से , चमन करो ।।देवी माता , के चरणों में , नमन करो ।।
नारी देवी , का स्वरूप है , ध्यान रखो ।आदर करके , घर में ऊँचा , स्थान रखो ।देव धरा के , मात- पिता हैं , मनन करो ।।देवी माता , के चरणों में , नमन करो ।। - स्कूल के दिनों में सबसे कठिन विषय हुआ करता था गणित, सबसे कम नंबर भी इसी विषय में मिला करते थे। ट्यूशन भी इसी विषय की लगवाई जाती थी। गणित शब्द बेचैन किया करता था। परीक्षा के दिन सबसे ज्यादा गणित का पर्चा ही दिल की धड़कने बढ़ाया करता था। लेकिन व्यवहारिक जीवन में जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ने पर यह गणित समझ में आने लग जाता है कि बिना संख्याओं के जीवन ही नहीं है। ऑनलाइन शापिंग करने से लेकर रोजमर्रा के जीवन की विभिन्न जरूरतों को पूरा करने, नौकरी, व्यापार-व्यवसाय, क्रिकेट, राजनीति और स्कूल से लेकर कॉलेज तक बिना संख्याओं के कुछ भी नहीं...आदिकाल से गणित का संबंध मानव से है। वास्तव में गणित के बिना जीवन ही नहीं है। हमारे चारों ओर का वातावरण देख लें, या दिन-प्रतिदिन का व्यवहार, दैनिक जीवन में घर हो या बाहर, क्रय-विक्रय, बाजार, आय-व्यय, गणित के ज्ञान के बिना जीवन व्यर्थ है। जोड़ना-घटाना, गिनना, गुणा और भाग हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। वैदिक साहित्य में गणित शब्द का प्रयोग अऩेक बार हुआ है। डॉ. महेंद्र मिश्रा ‘वैदिक गणित’ में लिखते हैं, ‘’गणित शब्द बुहत प्राचीन है। इसका शाब्दिक अर्थ इस प्रकार है- वह शास्त्र जिसमें गणना की प्रधानता है। मान्यताओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि गणित, अंक, आधार, चिह्न आदि संक्षिप्त संकेतों का वह विधान है जिसकी सहायता से परिणाम, दिशा तथा स्थान का बोध होता है। गणित विषय का प्रारंभ गिनती से ही हुआ और संख्या पद्धति इसका विशेष क्षेत्र है जिसकी सहायता से गणित की अन्य शाखाओँ का विकास हुआ।‘’ सच तो यह भी है कि यदि गणित न हो तो आज हम दुनिया के किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति तक व्हाट्सएप, मेल, इंस्टाग्राम या सोशल मीडिया के किसी भी प्लेटफार्म में पलक झपकते ही संदेश भेजने में भी सक्षम नहीं हो पाते। न तो कम्प्यूटर का अविष्कार ही संभव हो पाता और न तो वेबसाइट्स की कल्पना को साकार किया जा सकता था। दुनिया की समस्त विधाओं में गणित का महत्व एक स्वर से स्वीकार किया गया है। भारतीय संस्कृति में गणित के महत्व से पूरी दुनिया अवगत है। यही कारण है कि अरब में एक से नौ तक की संख्या को ‘हिन्दसां’ कहते हैं।खैर, अऩेक बातें हैं गणित की, मूल मुद्दा है गणित की कुछ विशेष संख्याओं के महत्व का और यह संख्या है नौ (9)। मान्यता है कि यह बड़ा ही अद्भुत अंक है जो सभी अंकों में सबसे ज्यादा शक्तिशाली है। कहीं-कहीं इसे ईश्वरीय अंक भी माना गया है। ईश्वरस्वरूपा माँ के गर्भधारण करने से लेकर संतान को जन्म देने तक की पूरी प्रक्रिया 9 माह तक चलती है। सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति में अंक 9 के महत्व से भला कौन अवगत नहीं है। 15 अक्टूबर 2023 से शारदीय नवरात्रि प्रारंभ हो रही है। नवरात्रि के भी नौ दिन होते हैं जिसमें माँ नवदुर्गा के नौ स्वरूपों शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री का पूजन किया जाता है। ग्रहों की संख्या भी 9 मानी गई है। उपासना में जप के दौरान 108 मनकों की माला से ही जप किये जाने का विधान है। 108 का योग भी 9 ही होता है।अब सवाल यह है कि मनकों की संख्या 108 ही क्यों ? खोजबीन करने पर वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रणेता पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के संपादन में 66 साल पूर्व सन् 1957 के मार्च माह में प्रकाशित अखंड ज्योति में प्रो. अवधूत गोरेगाँव के आलेख में एक सटीक जवाब मिला। वे लिखते हैं, ‘’प्रकृति विज्ञान की दृष्टि से विश्व में प्रमुख रूप से कुल 27 नक्षत्रों को मान्यता दी गई है। तथा प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण ज्योतिष-शास्त्र में प्रसिद्ध हैं। 27 को चार से गुणा करने पर 108 संख्या होती है। अतः 108 संख्या समस्त विश्व का प्रतिनिधित्व करने वाली सिद्ध होती है। इसके अलावा दिन और रात हमारे श्वासों की संख्या गिनी जाए तो 24 घंटे में 21 हजार 6 सौ होती है। इस हिसाब से दिन भर के श्वासों की संख्या 10800 और रात भर के श्वासों की संख्या भी 10800 हुई। इसका योग भी 9 ही होता है। कहा जाता है कि यह सूर्य की 21600 कलाओं का प्रतीक भी है। माला के एक-एक दाने को सूर्य की एक-एक कला का प्रतीक भी माना गया है। इस प्रकार 108 की संख्या ब्रह्मांड की ब्रह्मांडीय संरचना का प्रतिनिधित्व करती है। वेदों में इसका उल्लेख इस प्रकार मिलता है-षट् शतानि दिवारात्रौ सहस्त्राण्येक विंशतिः।एतत्संख्यात्मकं मंन्त्रं जीवो जपति सर्वदा।(चूड़ामणि उपनिषद 32-33)जाहिर है कि वैदिक काल से संख्याओं का महत्व बना हुआ है। यह भी माना जाता है कि 12 राशियों और 9 ग्रह का गुणा करने पर 108 का योग प्राप्त होता है। भगवान शिव के 108 नाम माने गये हैं। 9 के अद्भुत संयोग की तरफ और आगे बढ़ते हैं। औसतन एक सामान्य मानव का दिल एक मिनट में 72 बार धड़कता है जिसका योग 9 होता है। प्रतिदिन का हिसाब लगाएं तो 115,200 बार और प्रतिवर्ष 42,048,000 बार। इनका योग करके भी देख लीजिए, उत्तर 9 ही आएगा। महाभारत का पूरा युद्ध भी 18 दिन चला था जिसका योग 9 होता है। श्रीमद भगवत् गीता में भी 18 अध्याय हैं जिसका योग 9 होता है। ध्यान करने की 108 प्रकार की विधियां मानी गई हैं। मनुष्य में 9 प्रकार की भावनाएं प्रेम, मस्ती, दुःख, क्रोध, शौर्य, भय, घृणा, आश्चर्य और शांती मानी गई हैं। नाट्शास्त्र में इसे नवरस कहा गया है। मूल्यवान रत्न 9 माने गये हैं जिन्हें नवरत्न कहा गया है- माणिक, हीरा, नीलम, पुखराज, पन्ना, लाल मूंगा, मोती, वैदूर्य, गोमेद।एक पूर्ण कोण 360 अंश का और एक सीधा कोण 180 अंश का होता है। एक सर्किल 360 डिग्री का होता है। दिशासूचक यंत्र पर भी 360 अंश के कोण बने होते हैं। 45 अंश ईशान दिशा, 90 अंश पूर्व दिशा, 135 अंश आग्नेय दिशा, 180 अंश दक्षिण दिशा, 225 अंश नैऋत्य दिशा, 270 अंश पश्चिम दिशा, 315 अंश वायव्य दिशा और 360 अंश से उत्तर दिशा की जानकारी मिलती है।स्वर्गीय मानवगुरु श्री चंद्रशेखर गुरुजी का एक आलेख manavguru.org में मिला- ‘विश्व शक्ति की गोपनीय चाबी है अंक ‘9’ इसमें नौ अंक से संबंधित अनेक प्रमाणित बातों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाया गया है। वे लिखते हैं कि विश्व में जितने भी आकार बने हुए है वे 9 अंक से बने हुए हैं। इनमें चौरस, आयात, त्रिकोण, पंचकोण, षटकोण का जिक्र है। वे बताते हैं कि बौद्ध धर्म में पाली भाषा में भगवान बुद्ध के 9 गुणों का वर्णन दिया हैः अरहम, सम्मासबुद्धों, विज्जाचरणसंपन्नो, सुगतो– उदात्त, लोकविदू, अनुत्तरोपुरीसधम्मसारथी, सत्ता देवमनुसान्न, बुद्धों, भगवा। ईसाई धर्म में पवित्र आत्मा के 9 फल होते हैं- प्रेम, आनंद, शांति, संयम, दया, अच्छाई, विश्वास, सभ्यता और आत्म–संयम। हमारी धरती 1674 किलोमीटर प्रतिघंटा की स्पीड से घूमती है। इसका योग (1+6+7+4=18= 1+8 =9) भी नौ ही आता है।इस संख्या की मुख्य विशेषता यह है कि इसे किसी भी संख्या से गुणा करने पर उसका योग 9 ही आता है। फिर, वह संख्या कितनी भी छोटी हो या कितनी भी बड़ी। उदाहरण के दौर पर 9 X 2 =18 = 1+8= 9। नौ का पूरा पहाड़ा ही देख लें, योग नौ ही आएगा। वस्तुतः अध्यात्म से लेकर विज्ञान तक में अंक 9 का विशेष महत्व है जिसका उल्लेख हमें वेदों में मिलता है। पूरे विश्व में भारतीय वैदिक साहित्य की महत्ता आज भी कम नहीं है। हमें सदैव गौरवान्वित होना चाहिए हमारे महान वैदिक साहित्य पर।
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कहानी
लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
बाहर यह क्या कोलाहल हो रहा है , शेविंग करते हुए राज ने अपनी पत्नी पूजा से पूछा । कॉलेज जाने के लिए वह तैयार हो रहा था ,अभी नहाकर आया था । अरे ! वही मिश्रा सर के घर की लड़ाई है , आज तो यह सड़क तक आ पहुँची । अच्छा नहीं लगता तमाशबीन बनकर वहाँ खड़े होना लेकिन देखो लोगों की भीड़ ; उन्हें तो बहुत मजा आता है किसी की इज्ज़त का मजाक उड़ते देख । उनकी पारिवारिक समस्या उनको सुलझाने देना चाहिए लेकिन हर जगह जज बनकर खड़े हो जाते हैं । बात शायद बहुत बढ़ गई है तभी बाहर तक आई है , जरा देखो पूजा । अब तुम मुझे भी वही करने बोल रहे हो जो अन्य पड़ोसी कर रहे हैं । मैं उन्हें और शर्मिंदा नही करना चाहती , वैसे भी उनकी छोटी बहू कुछ ज्यादा ही तेज है , कब पड़ोसियों पर ही बिगड़ जाए कुछ कह नहीं सकते ।हमारे घर के दो घरों के बाद मिश्रा सर का घर है । यहाँ के एक स्वशासी महाविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य ईश्वरीप्रसाद मिश्रा सर को कौन नहीं जानता । मैंने भी उसी महाविद्यालय से पढ़ाई की है । मिश्रा सर बहुत अच्छे स्वभाव के थे पर बहुत अनुशासनप्रिय । सदैव छात्रों के हित में निर्णय लेने वाले , एक बार फीस नहीं बढ़ाने को लेकर कॉलेज प्रबंधन से भी भिड़ गए थे । छात्र , शिक्षक , पालक सभी उनका सम्मान करते थे और उनसे थोड़ा डरते भी थे । उनके सख्त होने के कारण ही महाविद्यालय का बहुत नाम हो गया था । वहाँ बहुत अच्छी पढ़ाई होती थी और शासकीय महाविद्यालय की तुलना में अधिक प्रतिभाएँ निकलती थीं । न सिर्फ पढ़ाई बल्कि खेल , एन. सी.सी. , राष्ट्रीय सेवा योजना , शोधकार्य इत्यादि क्षेत्रों में भी हमारा महाविद्यालय अग्रणी हो गया था ,यह सब उनके परिश्रम का कमाल था । अपने कार्यकाल में उन्होंने महाविद्यालय को विकास के चरम पर पहुँचा दिया था । किसी भवन की बुनियाद यदि मजबूत हो तो वह अपने-आप सुरक्षित हो जाती है उसी प्रकार मिश्रा सर ने उस कॉलेज की बुनियाद सुदृढ बना दी थी जिसका लाभ उनके सेवानिवृत्त होने के बाद भी कॉलेज को मिलता रहा और उस पर सफलता की कई मंजिलें बनती गईं ।मेरी तरह न जाने कितने छात्र वहाँ से पढ़कर अपना सुखद भविष्य गढ़ रहे हैं और मिश्रा सर जैसे कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक के प्रति श्रद्धा भाव से पूरित हैं । परंतु दीपक तले अँधेरा की उक्ति के अनुसार उनके अपने घर में असंतोष और कलह छाया हुआ है । यह सब देखकर मेरा मन बहुत दुखी होता है । बहुत इच्छा होती है कि सर के लिए कुछ करूँ परंतुप्रत्येक संबंध की अपनी एक मर्यादा होती है ,उसी के चलते अपने-आपको रोक लेता हूँ ।मिश्रा सर के दो बेटे हैं , दोनों उनकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे । दोनों पढ़ाई में सामान्य ही थे , जैसे-तैसे पढ़ाई पूरी करके किसी प्रायवेट कम्पनी में नौकरी करने लगे थे । पर इससे उनके जीवन में विशेष फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मिश्रा सर ने अपने जीवन में इतनी प्रतिष्ठा कमाई थी जो उन्हें परिवार ,समाज में आदर और यश दिलाने के लिए पर्याप्त थी । अपने व्यवहार और क्रियाकलापों से बेटे उनके इस नाम को मिट्टी में मिलाने पर तुले हुए थे । आप क्या काम करते हैं से कहीं बढ़कर आप क्या व्यवहार करते हैं, यह मायने रखता है । जिस माता-पिता ने अपनी सारी जिंदगी अपने बच्चों के नाम कर दी उनको संतान यदि आदर और देखभाल न दे पाए तो बहुत दुख होता है । पूरी जिंदगी व्यर्थ हुई सी प्रतीत होती है । मैं उन्हें अपना आदर्श मानता था और उनकी प्रेरणा से मैंने शोध कार्य किया और मुझे शासकीय महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक का पद मिला । यह तो मेरा सौभाग्य है कि मैंने भी उसी कॉलोनी में घर लिया जहाँ मिश्रा सर रहते थे । मेरे मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा और आदर की भावना थी और मेरे जैसे न जाने कितने छात्रों को उन्होंने आगे बढ़ने की प्रेरणा दी थी । आज वे सभी उनके प्रति श्रद्धावनत होंगे ,पर उनके अपने बच्चे आज उनसे दुर्व्यवहार कर रहे हैं ।अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा देखकर माता-पिता को अपार संतुष्टि मिलती है । वे चाहते हैं कि बच्चे सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करें । उनकी शादी कर उनका परिवार बढ़ते देख सुकून से वृद्धावस्था को जीना चाहते हैं । सुख-सुविधाओं के लिए मन नहीं भागता पर बच्चों की खुशी और उनके साथ में ही वे हर खुशी ढूँढते हैं । जीवन की आपाधापी बच्चों को समय कम देती है पर वे इस बात को समझते हैं । जब दोनों पीढ़ी में तालमेल का अभाव होता है तभी तनाव और झगड़े होते हैं । दोनों बेटों की शादी के बाद ही सर के घर में समस्याएँ उत्पन्न होने लगीं थीं । दोनों बहुओं के बीच मनमुटाव का समाधान उन्होंने यह निकाला कि घर के पास ही बड़े बेटे को किराए पर एक घर लेकर दे दिया और स्वयं छोटे बेटे के साथ रहने लगे । उनकी छोटी बहू स्वभाव की बहुत तेज थी और सासूमाँ के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पा रही थी । बड़े बेटे के अलग हो जाने के बाद भी गृहक्लेश बना रहा । कहाँ तो सर सेवानिवृत्त होने के बाद अपने छोटे से बगीचे की देखभाल करते हुए , स्वाध्याय करते हुए सुकून से जीवन बिताना चाहते थे पर सब कुछ अपने मन मुताबिक कहाँ होता है । इंसान न जाने कितनी योजनाएँ बनाता है पर भविष्य के अंक में क्या छुपा है कोई नहीं जानता । सिर्फ वर्तमान ही है जिसमें हम जो चाहें कर सकते हैं पर वर्तमान भविष्य की तैयारियों में बीत जाता है ।बहुत दिनों तक कोशिश करने के बाद भी वे सास-बहू में सामंजस्य स्थापित करने में सफल नहीं हुए । थक हार कर उन्होंने छोटे बेटे को एक नया घर देने और वहाँ शिफ्ट होने की सलाह दी परन्तु वह और उसकी पत्नी टस से मस नहीं हुए । इस विशाल घर पर अपना अधिकार खो देने का भय उन्हें आतंकित कर रहा था । आज तो उन्होंने अति कर दी थी सर और उनकी पत्नी को घर से बाहर निकाल कर उन्होंने द्वार बंद कर लिया था । कितने शौक से उन्होंने यह घर बनाया था । इतना बड़ा अपमान एक पिता के मन को आहत कर गया था । बड़ा बेटा उन्हें अपने घर ले गया था परंतु इस घटना से सर विषाद की अवस्था में चले गए थे । उस घटना के कुछ माह बाद उस दिन मैंने उनके छोटे बेटे और बहू को सामान लेकर कहीं और जाते देखा । उसके जाने के बाद पुलिस ने घर पर ताला लगा दिया था । आस-पड़ोस से जानकारी मिली कि मिश्रा सर ने कोर्ट में अपने बेटे के खिलाफ केस कर दिया है अपना घर वापस लेने के लिए । वह घर उन्होंने स्वयं अपनी मेहनत की कमाई से बनाया था इसलिए उनका अधिकार पाना तय था । बेटा कितनी भी बड़ी गलती करता तो वे माफ कर देते लेकिन वह घर उनके अतीत की खूबसूरत यादों का संग्रहालय था । उसकी हर ईंट में न जाने कितनी स्मृतियाँ साँस लेती थीं । घर के लालच में बेटे ने एक बेहद संवेदनशील और भावुक पिता का हृदय व्यथित कर दिया था । आज घर के साथ उसने माता-पिता की स्नेह-छाया भी खो दी थी । -
दीक्षा के दोहे
धुंध यह अविश्वास का , फैल रहा चहुँ ओर ।
निकले सूरज आस का , सुख की हो तब भोर ।।
पनघट यह नीला गगन, मेह-कुंभ हैं नीर ।सखियाँ भरती चाँदनी ,झिलमिल करता चीर ।।भोजन टटका ही करें , सेहत बने सुजान ।दूध दही फल खाइए, नित्य योग कर ध्यान ।।संचित कर गुल्लक सदा, सुख के पल अनमोल ।व्याकुल हो जब मन कभी, संग्रह स्मृति के खोल।।साध निशाना मारती , सुधियों भरी गुलेल ।झोली में कुछ पल गिरे, खुशियों से हो मेल ।।मिले कभी भाई-बहन, बचपन की तस्वीर ।यादों की गठरी खुली , बातों की रसखीर।।अम्मा लेती लाड़ से ,अजब-गजब से नाम ।ममता के मधु में पगी , गोदी थी सुखधाम ।।लेखिका -डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)M-9424132359- -
विशेष लेख : 2 अक्टूबर महात्मा गांधी जन्म दिवस
महात्मा गांधी महामानव के साथ एक जीवन मूल्य भी है
(एल.डी. मानिकपुरी, सहायक जनसम्पर्क अधिकारी)
सत्य और अहिंसा के पुजारी के रूप में विश्व विख्यात महात्मा गांधी की आज जयंती है। भारत सहित पूरी दुनिया उनके आदर्शों और विचारों को जानने, समझने और स्वीकार करने में लगे हुए हैं।किंतु आज की परिस्थिति में यह कैसे संभव था कि अहिंसा और सत्य के बल पर इस महान देश को स्वतंत्रता मिली होगी! लेकिन सत्य भी है व इतिहास साक्षी है कि मोहनदास करमचंद गांधी की जीजिविषा ने, उनके आत्मबल ने अंग्रेजों की तानाशाही, जुल्म और गुलामी के खिलाफ उन्होंने अहिंसाऔर सत्य की मन्त्र को ही चुना और इस तरह करोड़ों भारतवासियों के महात्मा बन गए।
महात्मा गांधी को जानने, समझने, पढ़ने और उनको आत्मसात करने के लिए बड़े दिल और दिमाम की जरूरत है। महात्मा गांधी ने जहां आदिवासियों, अनुसूचित जातियों, पिछड़े तबकों की समस्याओं और जरूरत को न सिर्फ समझे बल्कि उन्होंने उस दौर में जीया भी। छुआछूत, ऊंचनीच, जाति-धर्म और रंग के खिलाफ मुखर होकर वैचारिक हथियार के दम पर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले महात्मा की आज हम सबकी जरूरत है।
जब हम ग्राम स्वराज की बात करते हैं, तब परम्परागत व्यवसाय, लोक संस्कृति, पर्व, खान-पान, बोली-भाषा को उचित मान और नई पीढ़ी को उससे जोड़कर रखना भी है। विगत पौने पांच बरस से छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की सरकार है। सरकार बनाते ही उन्होंने किसानों, ग्रामीणों, श्रमिकों, आदिवासियों, अनुसूचित जातियों, पिछड़े वर्गाे, युवाओं, महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिए ऐसी नीति तैयार की है, जो आने वाली पीढ़ियों को न्यायसंगत अधिकार भी दे रही है।
जब न्याय की बात होती है तो थाना, अदालत, कोर्ट-कचहरी आंखों के सामने दिखाई पड़ती है, इसके बावजूद मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने साफ और स्पष्ट करते हुए है कि हमारी सरकार किसी के हक को मारकर आगे नहीं बढ़ेगी। साथ ही जरूरतमंद लोगों और समाज के सभी वर्गों को सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक, आर्थिक न्याय मिले इसके लिए सरकार हर समय डटे रहेगी । सम्भवतः यही वह रीति- नीति है, जो बापू के पथ पर चलने में मददगार साबित हुई है।
जब हम नीति और न्याय की बात करते हैं, तब विगत पौने पांच बरसों के आंकड़े ढूंढने लगते हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर जब यह देखने को मिलता है कि आदिवासियों का मुख्य आय का जरिया तेन्दूपत्ता, लघुवनोपज आदि उत्पाद का सही दाम और सही समय पर मिलने लगे हैं, वहां निवासरत रहने वाले लोगों के जीवनस्तर में बदलाव देखने को मिल रहा है तब यह सामाजिक न्याय बन जाता है और यह सरकार की उत्कृष्ट नीति, सार्थक निर्णय का ही परिणाम रहा है।
कभी सोचने में भी मुश्किल होता था कि एक गरीब व सामान्य परिवार के बच्चे भी प्रदेश के उत्कृष्ट अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ेगा किंतु यह भी दूरदर्शी नीति और सकारात्मक निर्णय का ही परिणाम रहा है कि अब प्रदेश के लाखों बच्चे स्वामी आत्मानंद उत्कृष्ट स्कूल में पढ़ाई के साथ अच्छी अधोसंरचना के साथ खेलकूद में भी भाग ले रहे हैं।
जब कभी सर्दी-खांसी, बुखार परिवार के किसी सदस्य को हो जाए तो कुछ पल के लिए परेशानी बढ़ जाती है लेकिन यह भूपेश सरकार की नीति ही है जिन्होंने अस्पताल को चौखट तक ला दिया। परिवार के किसी भी सदस्य को कोई गंभीर बीमारी हो जाए तो आर्थिक स्थिति बुरी तरह से चरमरा जाती है, लेकिन एक संवेदनशील और लोक कल्याणकारी सरकार की अवधारणा पर चलने वाली भूपेश सरकार ने मुख्यमंत्री विशेष सहायता योजना के तहत पात्र व जरूरतमंद मरीजो के लिए 25 लाख रूपए तक मदद करने की जो नीति तैयार की है, वह भी एक न्याय है। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी देश की आर्थिक स्थिति में अक्सर असर डालता है। किंतु छत्तीसगढ़ में भूपेश सरकार की ही नीति रही है, जिन्होंने कोरोना जैसे विपदा के समय भी आम लोगों को भरपेट भोजन, मनरेगा व अन्य रोजगार मुहैया कराने में सफल हुए। प्रदेश के लाखों युवाओं को बेरोजगारी भत्ता दिया जा रहा है, उन्हें प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है ताकि रोजगार व स्वरोजगार करने में मदद मिले। छत्तीसगढ़ में बेरोजगारी दर लगातार कम रहना प्रदेश के लिए गौरव की बात है, तो गरीबी रेखा से जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या में कमी होना भी एक सुखद परिणाम है।
लोगों की बुनियादी जरूरतों, भोजन, आवास, सड़क, बिजली, अस्पताल, स्कूल, पीने की साफ पानी, रोजगार पर आंकलन करते हैं। तब हमें वह स्कूल की दीवार भी दिखाई देती है जो विगत 13 बरसों से बंद थीं। राज्य सरकार की संवेदनशील पहल के कारण अब स्कूल भी खुल गई और शिक्षा की रोशनी भी चमकने लगी है। बस्तर से लेकर सरगुजा तक सड़क और पुल-पुलिया, 24 घंटे बिजली और हर परिवार को पक्का आवास देने जैसे कार्य योजना ने राज्य सरकार की नीति को ‘छत्तीसगढ़ मॉडल’ में बदल दी।
कौन सोच सकता था कि प्रदेश में गोबर व गौमूत्र की भी खरीदी होगी, लेकिन यही नीति ने तो ग्रामीणों और पशुपालकों के जीवन स्तर को संवारने का काम तो किया ही, उनकी आर्थिक स्थिति को भी मजबूत करने में भी बड़ा योगदान दिया है। सुराजी योजना, गोधन न्याय योजना ने तो देश के अन्य राज्यों को अपनी ओर खींचने को विवश किया। कई कार्यों के लिए भारत सरकार से सम्मान प्राप्त हुए और सराहना भी मिली। तब ऐसी नीति, निर्णय और न्याय से बापू के उस ग्राम स्वराज के सपने को साकार करने में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनकी सरकार ने जिस जुनून और परिश्रम के साथ जुटे हैं तब यहां के लोगों ने सहसा कहना शुरू कर दिए कि ‘भूपेश है तो भरोसा है।’ और इस तरह बापू के बताए मार्ग पर चलते हुए राज्य सरकार कुपोषण से छुटकारा पाने के लिए मुख्यमंत्री सुपोषण अभियान छेड़ा है तो अन्नदाताओं के उपज का सही दाम दिलाने के लिए राजीव गांधी किसान न्याय योजना और राजीव गांधी भूमिहीन कृषि मजदूर न्याय योजना के माध्यम से इन परिवारों को आर्थिक मदद भी की जा रही है।
महात्मा गांधी जी को याद करते व श्रद्धांजलि देते समय, हमें यह संकल्प भी लेना होगा कि मीठी जुबान, सद्व्यवहार, सहयोग, सद्भाव, संवेदनशीलता, सहानुभूति, सत्य और अहिंसा ही वह शस्त्र है, जिनके बल पर समाज, प्रदेश व देश के विकास में अपनी योगदान दे सकते हैं।
महामानव बापू निश्चित ही इस धरती में भौतिक रूप में नहीं है लेकिन उनके विचार, सिद्धांत युगों-युगों तक अमर रहेगा। नमन बापू..।