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- आलेख-मंजूषा शर्माआजादी की वर्षगांठ के मौके पर आज हम एक ऐसे गीत की चर्चा कर रहे हैं, जिसे राष्ट्रीय गीत होने का दर्जा प्राप्त है। इस गीत को 1952 में आई फिल्म आनंद मठ में शामिल किया गया था।फिल्म और इस गीत की चर्चा से पहले इसकी रचना के इतिहास पर एक नजर-वंदे मातरम् की रचना बंकिमचंद्र चटर्जी या चट्टोपाध्याय ने की थी। उन्होंने 7 नवम्बर, 1876 ई. में बंगाल के कांतल पाडा नामक गांव में इस गीत की रचना की थी। वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बंगाली भाषा में थे। राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया। अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया। वंदे मातरम गीत स्वतंत्रता की लड़ाई में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था। 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1881 में अपने उपन्यास आनंदमठ में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की मांग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही दशप्रहरणधारिणी (दुर्गा), कमला (लक्ष्मी) और वाणी (सरस्वती) के उद्धरण दिए गए हैं।मूल गीत इस प्रकार है-सुजलां सुफलां मलयजशीतलामसस्य श्यामलां मातरम् .शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीमफुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम,सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् .सुखदां वरदां मातरम् ॥कोटि कोटि कन्ठ कलकल निनाद करालेद्विसप्त कोटि भुजैर्ध्रत खरकरवालेके बोले मा तुमी अबलेबहुबल धारिणीम् नमामि तारिणीमरिपुदलवारिणीम् मातरम् ॥तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि ह्रदि तुमि मर्मत्वं हि प्राणा: शरीरेबाहुते तुमि मा शक्ति,हृदये तुमि मा भक्ति,तोमारै प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे ॥त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणीकमला कमलदल विहारिणीवाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वामनमामि कमलां अमलां अतुलामसुजलां सुफलां मातरम् ॥श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितामधरणीं भरणीं मातरम् ॥मूल रूप से गाया जाने वाला वंदे मातरम गीत किस राग पर आधारित है, आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। यह मूल रूप से एक बांगला रचना है और इस पर रवीन्द्र संगीत की झलक साफ देखने को मिलती है। पहली बार यह गीत पंडित ओंकारनाथ ठाकुर की आवाज में रिकॉर्ड किया गया था। इसका पूरा श्रेय सरदार बल्लभ भाई पटेल को जाता है। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का यह गीत दि ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ़ इंडिया के रिकार्ड में आज भी दर्ज है। वहीं रवीन्द्र नाथ टैगोर ने पहली बार 'वंदे मातरमÓ को बंगाली शैली में लय और संगीत के साथ कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गाया।अब कुछ चर्चा फिल्म आनंद मठ के बारे मेंफिल्म आनंद मठ में यह गीत शामिल किया गया है, जो इसी नाम के उपन्यास पर आधारित फिल्म थी। इस उपन्यास की रचना बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी। इस गीत को लता मंगेशकर और हेमंत कुमार ने आवाजें दी हैं। यह फिल्म 1952 में रिलीज हुई थी और उस समय तक देश आजाद हो चुका था, लेकिन देशभक्ति पूर्ण फिल्मों का बनना जारी था। फिल्म में 18 वीं शताब्दी में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संन्यासी विद्रोह की कहानी थी। संन्यासी विद्रोह भारत की आज़ादी के लिए बंगाल में अंग्रेज़ हुकूमत के विरुद्ध किया गया एक प्रबल विद्रोह था। संन्यासियों में अधिकांश शंकराचार्य के अनुयायी थे। इस विद्रोह को कुचलने के लिए तत्कालीन वायसराय वारेन हेस्टिंग्स को कठोर कार्यवाही करनी पड़ी थी। दरअसल भारतीय जनता के तीर्थ स्थानों पर जाने पर लगे प्रतिबंध ने शान्त संन्यासियों को भी विद्रोह पर उतारू कर दिया था। इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर, प्रदीप कुमार , भारत भूषण, गीता बाली, अजीत, रंजना ,जानकीदास और मुराद ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं। फिल्म का निर्देशन हेमेन गुप्ता ने किया था। फिल्मस्तान कंपनी के बैनर तले फिल्म का निर्माण हुआ था, जो उस वक्त की एक नामी फिल्म निर्माण कंपनी थी। फिल्म में संगीत हेमंत कुमार ने दिया था । यह वह दौर था, जब हेमंत कुमार बांगला फिल्मों से हटकर हिन्दी फिल्मों में पांव जमाने का प्रयास कर रहे थे।फिल्म में चार गाने शामिल किए गए थे । वंदे मातरम गीत, फिल्म में दो बार बजता है, एक बार लता मंगेशकर की आवाज में और दूसरी बार हेमंत दा की आवाज में। लता ने फिल्म में गीता बाली के लिए प्लेबैक किया था। वहीं अभिनेता प्रदीप कुमार, अजीत के लिए यह गाना हेमंत कुमार ने खुद गाया है। लता की आवाज में गाए इस गीत में बैकग्राऊंड में हेमंत कुमार और कोरस की आवाजें सुनाई देती हैं। गीत के फिल्मांकन में पृथ्वीराज कपूर , प्रदीप कुमार और गीता बाली नजर आते हैं। लता की आवाज में ज्यादा ओज पैदा करने का प्रयास किया गया है। यह मौका होता है आजादी के संघर्ष में संन्यासियों के कूच पर जाने का और गीता बाली उन्हें इस गीत के माध्यम से देश के प्रति उनका कर्तव्य याद दिलाती हैं। वहीं हेमंत कुमार की आवाज में गाए इस गीत के प्रारंभ में राग में कुछ बदलाव किए गए हंै। गाने में भारत भूषण, अजीत और प्रदीप कुमार के साथ आम लोगों को भी दिखाया गया जो इस संन्यासी विद्रोह का हिस्सा बनते हैं। यह गाना लता की आवाज में गाए गीत की तुलना में थोड़ा लंबा है क्योंकि इसमें मां दुर्गा की स्तुति भी की गई है।फिल्म के एक गाने जय जगदीश हरे में गीता रॉय की आवाज ली गई थी जिसमें उनका साथ दिया था हेमंत कुमार ने। इस गाने को 60-90 के दशक में सिनेमाहॉल में फिल्म शुरू करने से पहले बजाया जाता है। यहां मैं महासमुन्द की एक टॉकीज का जिक्र करना चाहूंगी। मुझे याद है जब बचपन में हम फिल्म देखने के लिए राम टॉकीज जाया करते थे, तो फिल्म शुरू होने से पहले ये गाना जरूर बजता था। टॉकीज में हॉरर , एक्शन या रोमांटिक किसी भी मूड की फिल्म क्यों न लगी हो, फिल्म शुरू करने से पहले इस गाने का बजना जैसे एक परंपरा बन गई थी। इसका कारण क्या था, पता नहीं, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि उस वक्त यह गीत किसी शासकीय अनिवार्यता का हिस्सा तो नहीं था। कारण चाहे जो भी रहा हो, लेकिन इसी माध्यम से ही सही, यह गीत बरसों तक जनमानस के दिल और जुबां पर बसा रहा। फिल्म आनंद मठ में यह गाना पृथ्वीराज कपूर और गीता बाली पर फिल्माया गया है।आनंदमठ फिल्म से ही अभिनेता प्रदीप कुमार ने हिन्दी फिल्मों में कदम रखा था। वे बांगला स्टार थे और हेमंत दा ही उन्हें इस फिल्म से हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में लेकर आए थे। फिल्म के रिलीज के बाद वंदेमातरम गीत काफी लोकप्रिय हुआ और फिर इसे स्वतंत्रता दिवस और 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के मौके पर आयोजित हर समारोह में बजाया जाने लगा और यह परंपरा आज भी कायम है। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने जब इस गाने को लिखा था, तब उन्होंने शायद नहीं सोचा रहा होगा, कि मूल रूप से संन्यासी विद्रोह से जुड़ा यह गीत एक दिन देश की आनबान का प्रतीत बनकर राष्ट्रीय गीत बनेगा। इस फिल्म की चर्चा के बीच एक कलाकार को हम जरूर याद करना चाहेंगे और वे हैं अजीत। फिल्म जंजीर के मोना डार्लिंग वाले खलनायक अजीत की आनंदमठ प्रारंभिक फिल्मों से एक थी। यह वह दौर था जब अजीत नायक की भूमिका अदा किया करते थे। उनका पूरा नाम हामिद अली खान था।
- आलेख-मंजूषा शर्मामहान गायक मोहम्मद रफी साहब की पुण्यतिथि के मौके पर हम आज उनके गाए एक गाने की चर्चा कर रहे हैं। गाने का मुखड़ा है- ओ दूर के मुसाफिर, हम को भी साथ ले ले रे, हम को भी साथ ले ले, हम रह गए अकेले। यह गाना फिल्म उडऩ खटोला में शामिल किया गया था। इसे सुरों से संवारा था नौशाद साहब ने और लिखा शकील बदायूनीं साहब ने ।मोहम्मद रफी शुरुआत से ही नौशाद साहब के फेवरेट गायक थे। एक प्रकार से मोहम्मद रफी का फिल्मी दुनिया में प्रवेश नौशाद साहब की सिफारिशी चिट्ठी के बदौलत ही हुआ था। 1955 में जब फिल्म उडऩ खटोला के संगीत संयोजन की जिम्मेदारी नौशाद साहब को सौंपी गई, तो उन्होंने रफी और लता मंगेशकर की जोड़ी को लिया। फिल्म में उन्होंने शास्त्रीय रागों पर आधारित कई गाने तैयार किए जिसमें से एक गीत ओ दूर के मुसाफिर भी था, जो राग पहाड़ी पर आधारित है। इस फिल्म का निर्माण सनी आर्ट प्रोडक्शन ने किया था। शास्त्रीय संगीत के सरस रुपांतरण में बढ़ते रिद्म का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से नौशाद की इस फिल्म में नजर आता है। इस फिल्म में लता के गाए गीत मोरे सैंया जी उतरेंगे पार हो ,.. में राग पीलू के साथ लोकरंग की ताल सुनने को मिलती है। उडऩ खटोले वाले राही (लता और साथी) , हमारे दिल से न जाना धोखा न खाना ...गीतों में लता की मीठी लोच भरी आवाज सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर देती है। दर्द के लिए भैरव राग के सुर लेकर नौशाद साहब ने इस फिल्म में -सितारों की महफिल सजी..., गीत तैयार किया और उदासी की गहराई लेकर -न रो ए दिल, राग भैरवी के साथ -न तूफां से खेलो , न साहिल से खेलो जैसे सहाबहार गीत पेश किए। नौशाद जी अपनी कम्पोजिशन हमेशा फिल्म की कहानी और सिचुएशन को ध्यान में रखकर बनाते थे। उडऩ खटोला फिल्म के साथ भी उन्होंने ऐसा ही किया।पूरे गाने के बोल इस प्रकार हैं....चले आज तुम जहां से, हुई जिंदगी परायीतुम्हें मिल गया ठिकाना, हमें मौत भी ना आई।ओ दूर के मुसाफिर, हम को भी साथ ले ले रेहम को भी साथ ले ले, हम रह गये अकेले।तू ने वो दे दिया गम, बेमौत मर गये हमदिल उठ गया जहां से, ले चल हमें यहां सेकिस काम की ये दुनियां, जो जिंदगी से खेले।सूनी हैं दिल की राहें, खामोश हैं निगाहेंनाकाम हसरतों का, उठने को हैं जनाज़ाचारों तरफ लगे हैं, बरबादियों के मेले रे..हम रह गए अकेले.....।इस गाने के अंत में रफी साहब के स्वर काफी ऊंचे हो जाते हैं। गाने में साजों का शोर नहीं है बल्कि कोरस की आवाज ही काफी अच्छी लगती है। गाने में दिखाया गया है कि प्रेमी अपनी प्रेमिका को मौत के मुंह में जाता देखकर दुखी है और अपने अकेले होने के अहसास को वह शब्दों में बयां कर रहा है साथ ही उसकी दुनिया से शिकायत भी है कि- किस काम की ये दुनियां, जो जिंदगी से खेले। इस गाने में दिलीप कुमार और निम्मी दोनों नजर आते हैं। गाने के अंत में निम्मी को पहाड़ी नदी में कूदते दिखाया गया है।इस फिल्म के पूरे गाने शकील साहब ने ही लिखे थे। उस जमाने में ज्यादातर पूरी फिल्म के गाने लिखने का जिम्मा किसी एक गीतकार को ही दिया जाता था। उसे फिल्म की कहानी बता दी जाती थी और कई बार तो शूटिंग के दौरान सेट पर ही गीतकार को बुलाकर गाने तैयार करवा लिए जाते थे। स्टुडियो में एक तरफ गीतकार गाने लिखते थे और वहीं पर संगीतकार उनकी धुन तैयार कर गायकों से गाने भी गवा लिया करते थे। एक गाने के लिए गायक कलाकार कई बार पूरे दिन स्टुडियो पर रियाज कर किया करते थे। आज के जैसे नहीं कि एक गायक आया और अपना वर्जन गा कर चला गया। बाद में दूसरा आया और अपने हिस्से के बोल गाकर चला गया। बाकी काम कम्प्यूटर पर हो रहा है। उडऩ खटोला फिल्म में 9 गाने थे और सभी एक से बढ़कर एक। इस फिल्म के गानों में नौशाद ने राग जयजयवंती, पहाड़ी, भैरवी, राग पीलू जैसे शास्त्रीय रागों का बखूबी इस्तेमाल किया।नौशाद साहब को राग पहाड़ी काफी पसंद था। उन्होंने मोहम्मद रफ़ी से इस राग पर आधारित कई गीत गवाए। रफी की एकल आवाज़ में गाया फिल्म दुलारी का गीत - सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगे ......इसी राग पर आधारित है। इसी फि़ल्म के एक और गीत -तोड़ दिया दिल मेरा.. के लिए भी नौशाद साहब ने इसी राग पर आधारित बंदिशें तैयार कीं। यह राग जितना शास्त्रीय है, उससे भी ज़्यादा यह जुड़ा हुआ है पहाड़ों के लोक संगीत से। इसलिए इसमें लोक संगीत की झलक मिलती है। यह पहाड़ों का संगीत है, जिसमें प्रेम, शांति और वेदना के सुर सुनाई देते हैं। राग पहाड़ी पर असंख्य फि़ल्मी गानें बने हैं। जिनमें से नौशाद के स्वरबद्ध किए कुछ गीत हैं-1. आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले (राम और श्याम)2. दिल तोडऩे वाले तुझे दिल ढ़ूंढ रहा है (सन ऑफ़ इंडिया)3. दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन आज की रात (कोहिनूर)4. जवां है मोहब्बत हसीं है ज़माना (अनमोल घड़ी)5. कोई प्यार की देखे जादूगरी (कोहिनूर)6. तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया रे (गंगा जमुना)अब फिल्म उडऩखटोला की कहानी के बारे में । इस फिल्म में दिलीप कुमार के अपोजिट निम्मी थीं। फिल्म को निर्देशित किया था एस. यू. सनी ने । फिल्म में जीवन और टुनटुन भी प्रमुख भूमिकाओं में थे। फिल्म की कहानी कुछ इस प्रकार थी- फिल्म का हीरो काशी यानी दिलीप कुमार एक अभिशप्त विमान से यात्रा कर रहा होता कि वह विमान क्रेश हो जाता है और एक नगर के बाहर जा गिरता है । इस नगर में एक रानी का शासन है। जिसकी देवी का नाम संगा है। काशी को सोनी नाम की एक लड़की बचाती है और उसे अपने घर ले आती है। जहां वह अपने पिता और भाई हीरा के साथ रहती है। सड़कें ब्लॉक होने की वजह से काशी अपने घर वापस लौटने में असमर्थ है। वहां पर रहने के लिए उसे रानी की अनुमति लेना अनिवार्य है। ऐसे में वह राजरानी से मिलता है, तो देखता है कि वह काफी खूबसूरत है। रानी भी काशी से प्रभावित होती है और उसे अपने महल में रहने और उसके लिए गाने के लिए कहती है। इस बीच काशी और सोनी एक दूसरे को अपना दिल दे बैठते हैं और वे छिपकर एक दूसरे से मिलते हैं। सोनी एक लड़के शिबु का भेष धरकर काशी से मिलती है। इधर राजरानी के प्यार को काशी ठुकरा देता है। फिल्म में राजरानी का रोल अभिनेत्री सूर्या कुमारी ने निभाया था। इस फिल्म का तमिल वर्जन भी बना जिसका नाम था वानारथम।यह फिल्म चली तो एक प्रकार से नौशाद के गानों की वजह से । उस समय दिलीप कुमार और निम्मी की जोड़ी भी हिट हुई थी। इस जोड़ी ने आन (1952), दीदार, दाग और अमर (1954) फिल्म में भी काम किया। इनमें से उडऩखटोला इस जोड़ी की आखिरी फिल्म थी।
- पुण्यतिथि पर विशेष आलेख-मंजूषा शर्मामोहम्मद रफी, संगीत की दुनिया का वो नाम है, जिनके गाए गाने आज भी हर पीढ़ी की पसंद बने हुए हैं। वे न केवल एक अच्छे गायक बल्कि एक अच्छे इंसान भी थे। दरअसल वे महज़ एक आवाज़ नहीं; गायकी की पूरी रिवायत थे। पिछले करीब साठ दशक से लोग उनकी आवाज सुन रहे हैं।पंजाब के एक छोटे से क़स्बे से निकल कर मोहम्मद रफ़ी नाम का एक किशोर बरसो पहले मुंबई आता है। साथ में न कोई जमींदारी जैसी रईसी या पैसों की बरसात, न कोई गॉड फ़ादर सिर्फ एक प्यारी सी आवाज, जो हर तरह के गीत गाने की हिम्मत रखता था। फिर वह चाहे किसी भी स्केल का हो। सा से लेकर सा तक यानी सात स्वरों के हर स्वर में । कोई ख़ास पहचान नहीं ,सिफऱ् संगीतकार नौशाद साहब के नाम का एक सिफ़ारिशी पत्र। किस्मत ने पलटा खाया और अपनी आवाज, इंसानी संजीदगी के बूते पर यह सीधा सादा युवक मोहम्मद रफ़ी पूरी दुनिया में छा गया। संघर्ष का दौर काफी लंबा था और मुफलिसी भी साथ चल रही थी। संगीत का यह साधक किसी भी परिस्थिति में रुकना नहीं चाहता था। उस दौर का एक वाकया सुनने में आया जिसका जिक्र आज यहां कर रहे हैं।मोहम्मद रफी साहब संघर्ष के दिनो में मायूस भी हो गए थे, लेकिन दिल में कुछ कर दिखाने का जज्बा उन्हें पंजाब लौटने नहीं दे रहा था। नौशाद साहब ने उन्हें गाने का मौका दिया। मुंबई में रिकॉर्डिंग हुई और रफी साहब ने सबको प्रभावित किया। काम खत्म हो चुका था, तो सभी लोग स्टुडियो से बाहर निकल गए। लेकिन रफ़ी साहब स्टुडियो के बाहर देर तक खड़े रहे। तकऱीबन दो घंटे बाद तमाम साजि़ंदों का हिसाब-किताब करने के बाद नौशाद साहब स्टुडियो के बाहर आकर रफ़ी साहब को देख कर चौंक गए । पूछा तो बताते हैं कि घर जाने के लिये लोकल ट्रेन के किराये के पैसे नहीं है। नौशाद साहब अवाक रह गए और बोले- अरे भाई भीतर आकर मांग लेते ...रफ़ी साहब का जवाब -अभी काम पूरा हुआ नहीं और अंदर आकर पैसे मांगूं ? हिम्मत नहीं हुई नौशाद साहब। सीधा- सरल जवाब सुनकर नौशाद साहब की आंखें छलछला आईं हैं। न कोई छलावा न कोई दिखाया और न ही ज्यादा पाने की चाहत। बस जो मिल गया उसे को मुकद्दर समझ लिया।सही मायने में सहगल साहब के बाद मोहम्मद रफ़ी एकमात्र नैसर्गिक गायक थे। उन्होंने अच्छे ख़ासे रियाज़ के बाद अपनी आवाज़ को मांजा था। उन्हें देखकर लोग सहसा विश्वास ही नहीं कर पाते थे कि शम्मी कुमार साहब के लिए याहू ,.... जैसे हुडदंगी गाने वे ही गाया करते हैं।उनके बारे में संगीतकार वसंत देसाई कहते थे -रफ़ी साहब कोई सामान्य इंसान नहीं थे...वह तो एक शापित गंधर्व थे जो किसी मामूली सी ग़लती का पश्चाताप करने इस मृत्युलोक में आ गया। एक तरफ किशोर कुमार अपने पारिश्रमिक को लेकर एकदम परफेक्ट थे। दूसरी तरफ रफी साहब संकोची इंसान। कई बार उनके पैसे इसी वजह से डूब गए, क्योंकि उन्होंने संकोच की वजह से पैसे मांगे नहीं। रफी साहब कभी काम मांगने भी नहीं गए। जो मिल गया, गा लिया।अपने कॅरिअर में रफ़ी साहब को श्यामसुंदर, नौशाद, ग़ुलाम मोहम्मद, मास्टर ग़ुलाम हैदर, खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल भगतराम जैसे गुणी मौसीकारों का सान्निध्य मिला जो उनके लिए फायदेमंद भी रहा। रफ़ी साहब ने क्लासिकल म्युजि़क का दामन कभी न छोड़ा। बैजूबावरा में उन्होंने राग मालकौंस (मन तरपत)और दरबारी (ओ दुनिया के रखवाले) को जिस अधिकार और ताक़त के साथ गाया , उसे गाने की हिम्मत आज भी बहुत कम लोग कर पाते हैं। उस दौर की फिल्मों में जब भी क्लासिकल म्यूजिक की बात चलती थी, तो संगीतकार रफी साहब और मन्ना डे के पास ही जाते थे। रफी साहब की आवाज नायकों के लिए ज्यादा सूट करती थी, इसीलिए उन्हें मन्ना दा की तुलना में लीड गाने ज्यादा मिले।
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पुण्यतिथि पर विशेष -आलेख मंजूषा शर्मा
हिंदी सिनेमा में कई ऐसी मशहूर अभिनेत्रियां रहीं जिन्होंने न सिर्फ अपनी खूबसूरती बल्कि अपने अभिनय से भी लोगों के दिलों में जगह बनाई । ऐसी ही एक अदाकारा हैं लीला नायडू। 1954 में मिस इंडिया की विजेता रही अभिनेत्री लीला नायडू ने 50-60 के दशक में मोहक अंदाज़ और अदाकारी से लोगों को अपने मोहपाश में बाँधे रखा। अनुराधा, ये रास्ते हैं प्यार के, उम्मीद, आबरू, द गुरू जैसी फि़ल्मों में शानदार अभिनय से दिलों में बस गई थीं। अपने सशक्त अभिनय के लिए मशहूर लीला नायडू का निधन आज ही के दिन वर्ष 2009 में हुआ था।लीला नायडू वर्ष 1954 में फेमिना मिस इंडिया का खिताब जीतकर चर्चा में आई। उस वक्त उनकी उम्र मात्र 14 की थी। उसी दौरान वोग मैग्जीन की दुनियाभर में 10 सबसे ज्यादा खूबसूरत महिलाओं की लिस्ट में भी लीला नायडू का नाम शामिल किया गया। इस लिस्ट में रानी गायत्री देवी भी शामिल थीं।कहा जाता है कि राजकपूर लीला नायडू की खूबसूरती के कायल हो गए थे और उन्हें लेकर फिल्म बनाने वाले थे। फिल्म की कहानी मुल्कराज आनंद ने लिखी। जब लीला स्क्रीन टेस्ट के लिए पहुंची को उन्हें पता चला कि फिल्म की कहानी गांव की पृष्ठभूमि की है। जेनेवा और स्विटजरलैंड में पली बढ़ी लीला गांव की जिंदगी से नावाकिफ थी। उसी दौरान राजकपूर ने लीला को बताया कि वे उन्हें अपनी चार फिल्मों के लिए साइन करना चाहते हैं। लेकिन लीला तो गांव की जिंदगी पर बनी राजकपूर की पहली फिल्म में अपने आप को एडजस्ट नहीं कर पा रही थीं। लीला को लगा कि वे इस फिल्म की भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पाएंगी। आखिरकार उन्होंने फिल्म से हाथ खींच लिया। इसतरह से राजकपूर की एक नहीं बल्कि चार-चार फिल्में उनके हाथ से निकल गईं। इसी दौरान लीला ने विदेश का रास्ता पकड़ा और फिर पांच साल बाद उनकी वापसी फिल्म अनुराधा से हुई। दरअसल लीला का जन्म भले ही मुंबई में हुआ था, लेकिन उनकी दीक्षा-शिक्षा जेनेवा और स्विटजरलैंड में हुई थी। उनके पिता पट्टीपति रामैया नायड़ू परमाणु भौतिकविद थे और नोबेल पुरस्कार विजेता मैरी क्यूरी के लिए काम कर चुके थे। .बाद में उन्होंने यूनेस्को से लेकर टाटा कंपनी में सलाहकार के पद पर भी काम किया।वर्ष 1960 में लीला नायडू विदेश से लौटी और मशहूर फिल्मकार ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म अनुराधा से बॉलीवुड में कदम रखा। फिल्म में उन्होंने अभिनेता बलराज साहनी की पत्नी का किरदार निभाया था। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था। इस फिल्म का संगीत मशहूर सितारवादक रविशंकर ने तैयार किया था। जिसके गाने काफी लोकप्रिय हुए थे। फिल्म के लता मंगेशकर के गाए दो गाने काफी मशहूर हुए- हाय रे वो दिन क्यूं न आए... और जाने कैसे सपनों में खो गई अंखिया...। दोनों ही गाने लीला नायडू पर फिल्माए गए थे।लीला को वास्तविक पहचान वर्ष 1963 में रिलीज हुई फिल्म ये रास्ते हैं प्यार के से मिली। फिल्म में उनके साथ अभिनेता सुनील दत्त हीरो थे। फिल्म की कहानी चर्चित नानावटी कांड पर आधारित थी। लीला ने बहुत कम फिल्में कीं। उन्होंने वही फिल्में स्वीकार की जिसके लिए उनका मन गवाही देता था। लीला ने मर्चेंट आइवोरी प्रोडक्शन द्वारा निर्मित फिल्म द हाउसहोल्डर में भी उन्होंने अभिनय किया, जिसका निर्देशन जेम्स आइवोरी ने किया था। फिल्म में उनकी जोड़ी शशिकपूर के साथ काफी पसंद की गई। वर्ष 1969 में द गुरू फिल्म में काम करने के बाद लीला ने फिल्मी दुनिया को अलविदा कह दिया।लीला ने मात्र 17 साल की उम्र में होटल व्यवसायी तिलक राज ओबराय (टिक्की ओबराय) से शादी कर ली, जो उनसे 16 साल बड़े थे। तिलक राज मशहूर होटल ओबेराय के मालिक थे। उनकी जुड़वा बेटियां हुईं माया और प्रिया। बाद में दोनों में तलाक हो गया। ओबेराय ने दोनों बेटियों की कस्डटी ली। कुछ समय बाद उन्होंने अपने बचपन के मित्र और साहित्यकार डॉम मॉरिस से शादी कर ली एवं हांगकांग चली गईं। दस वर्ष वहां बिताने के बाद वे फिर भारत वापस आ गईं। 1985 में श्याम बेनेगल की फिल्म त्रिकाल से इन्होंने हिंदी फिल्मी दुनिया में फिर प्रवेश किया। 1992 में प्रदीप कृष्णन द्वारा निर्देशित फिल्म इलेक्ट्रिक मून में इन्होंने आखिरी बार अभिनय किया था।लीला नायडू की निजी जिंदगी उथल-पुथल भरी रही। अपने आखिरी दिनों में उन्होंने खुद को सभी से अलग कर लिया और गुमनाम जिंदगी बिताने लगीं। आर्थरायटिस की बीमारी के कारण उनका चलने-फिरना भी लगभग बंद हो गया था। इसी दौरान आर्थिक तंगी से भी वे परेशान रहीं। आखिरकार उन्हें अपने घर में किराएदार रखने पड़े। 2009 में उन्हें इन्फ्लूएंजा की बीमारी हुई जिसकी वजह से उनके फेफड़ों ने काम करना बंद कर दिया। 28 जुलाई 2009 को उन्होंने इस संसार को गुमनामी में ही अलविदा कह दिया। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष) - शानदार अभिनेता मनोज कुमार यानी भारत कुमार आज अपना 84 वां जन्मदिन मना रहे हैं। उनका भारत कुमार नाम उनकी देशभक्ति वाली फिल्मों का इतिहास देखते हुए पड़ा। मनोज कुमार अपने दौर में जनता के साथ नेताओं के भी फेवरेट अभिनेता थे। मनोज कुमार ने बहुत सी भूमिकाएं निभाई, रोमांटिक रोल भी किए , लेकिन उनकी देशभक्ति वाली भूमिकाओं के सामने सब फीके पड़ गए।1937 में जन्मे अभिनेता ने 20 वर्ष की आयु में बॉलीवुड में फिल्म फैशन से डेब्यू किया था, जिसे वे स्वयं अपनी पसंदीदा फिल्म मानते हैं। मनोज कुमार राज कपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर में भी गजब का अभिनय किया है। फिल्म कांच की गुडिय़ा में उन्होंने पहली बार मुख्य भूमिका निभाई है। मनोज कुमार न सिर्फ एक अच्छे अभिनेता हैं बल्कि निर्देशक एवं फिल्म निर्माता के रूप में भी उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है। फिल्म उपकार के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था।एक समय ऐसा था जब लोग मनोज कुमार को भारत कुमार ही कहने लगे थे, इसके पीछे वजह यह थी कि अधिकतर फिल्मों में उनके किरदार का नाम भारत था। हालांकि, उनका वास्तविक नाम हरिकृष्णा गिरी गोस्वामी था लेकिन वह दिलीप कुमार और अशोक कुमार से प्रेरित थे इसलिए उन्होंने अपना नाम मनोज कुमार रखा। मनोज कुमार का जन्म पाकिस्तान के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। दस वर्ष की आयु में वे परिवार के साथ एबटाबाद, पाकिस्तान छोड़कर भारत विभाजन के समय भारत आए। कुछ समय परिवार के साथ विजय नगर के किंग्सवे कैंप में शरणार्थियों के रूप में रहे और बाद में दिल्ली आ गए।मनोज कुमार ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उनके नेताओं से अच्छे संबंध रहे हैं। लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी उनकी फिल्मों को पसंद किया करते थे। उपकार फिल्म की प्रेरणा उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नारे 'जय जवान-जय किसान' से मिली थी। वर्ष 1965 में मनोज कुमार ने स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह के जीवन पर आधारित फिल्म शहीद में काम किया था, जिसके बाद उनकी छवि एक देशभक्त की बन गई थी।मिल चुके हैं इतने अवॉड्र्सबॉलीवुड में देशभक्ति का दौर लाने वाले का श्रेय मनोज कुमार को जाता है। फिल्म उपकार के लिए 1968 में नेशनल फिल्म अवॉर्ड मिला था। 1972 में बेईमान के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला। 1992 में कला में योगदान के लिए पद्मश्री से नवाजा गया। साल 1999 में फिल्मफेयर का लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला। उन्हें साल 2016 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार भी मिला।इन फिल्मों को अपने दम पर कराया है हिटफिल्मों की बात करें तो 'हरियाली और रास्ता', 'हिमालय की गोद में', 'दो बदन', 'सावन की घटा', 'पत्थर के सनम', 'उपकार', 'पूरब और पश्चिम', 'वो कौन थी', 'रोटी कपड़ा और मकान' और 'क्रांति' जैसी मूवीज में काम किया। निजी जिंदगी की बात करें तो मनोज कुमार और शशि के दो बेटे हैं, जिनका नाम विशाल और कुणाल है।
- काशी , वाराणसी या फिर बनारस, काशी विश्वनाथ की नगरी के रूप में विख्यात है। इसके अलावा इस प्राचीन नगर में अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इसे उसकी रंग बिरंगी बनारसी साडिय़ों के लिए भी पूरे भारत में जाना जाता है, लेकिन इस शहर में ऐसा बहुत कुछ है जो आपको अपनी ओर आकर्षित कर लेगा। इस शहर के बारे में कहा जाता है कि यदि कोई एक बार यहां की खासियत जान लेगा, तो उसे यहां से लौटने का मन नहीं करेगा। जानिए बनारस से जुड़ी कुछ खूबसूरत बातें.....वैदिक परंपरा का गुंजनवाराणसी में दो दर्जन से ज्यादा वैदिक विद्यालय हैं, जिनमें श्री विद्यामठ भी एक है। विद्यापीठ में दाखिला लेने वाले छात्रों की उम्र 12 साल से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। छात्रों की दिनचर्या रोज सुबह 4 बजे शुरू होती है। हर दिन गंगा के तट पर योगाभ्यास, फिर वेद और शास्त्रों की पढ़ाई और शाम को आरती के साथ छात्रों का दिन खत्म होता है।अलौकिक सूर्योदयबनारस की सुबह अलौकिक है। लालिमा से भरे सूर्य की रोशनी, गंगा और घाटों को गजब का सौंदर्य देती है। सुबह सुबह भीड़ भाड़ कम होने की वजह से भी प्रकृति का ये नजारा और दिलकश और आध्यात्मिक हो जाता है।बनारस हिंदू यूनिवर्सिटीभारत के मशहूर विश्वविद्यालयों में शुमार बीएचयू (बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी) भी काशी यानी बनारस की शान है। 1916 में मदनमोहन मालवीय और एनी बेसेंट द्वारा स्थापित किया गई बीएचयू पढ़ाई के साथ साथ सबसे बड़ी आवासीय यूनिवर्सिटी के लिए विख्यात है। इसके कैंपस को देखने भी लाखों सैलानी पहुंचते हैं।हर तरह का भोजनबनारस में भारत के करीबन हर राज्य का पारंपरिक भोजन मिल जाता है। इसकी वजह यहां हर राज्य से आने वाले श्रद्धालु और उनके लिए बनाए गए कुछ खास घाट हैं। नाश्ते या भोजन के लिए बनारस में दर्जनों विकल्प मौजूद रहते हैं। बनारसी चाट, मटर पोहा, कचोरी, मिट्टी के कुल्हड़ में दही-रबड़ी, सौंधा दूध, गर्मी में रसीली लीची और आमों की अनेक वैरायटी.. सर्दियों में अमरूद की बहार।अविरल धारा में डुबकीहिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक गंगा नदी में डुबकी लगाने से इंसान पापमुक्त हो जाता है। काशी में डुबकी लगाना और भी पवित्र माना जाता है। हिंदू धर्म में पंडिताई का काम करने वाले ब्राह्मणों के लिए जीवन में एक बार काशी जाना अनिवार्य सा माना जाता है। पंचांग भी यहीं से निकलते हैं।भांग के कई रूपबनारस में आपसे अगर कोई कहें कि मिश्राम्बू पिएंगे तो सावधान हो जाइए। मिश्राम्बू भले ही बड़ा आध्यात्मिक सा नाम लगे, लेकिन यह भांग है। यह दूध और बादाम के शेक में मिली हुई भांग हैं। बनारस में इसके अलावा भांग, चरस, गांजे और लड्डू के रूप में मिलती है।गंगा के पारबनारस के स्थानीय युवा और यूनिवर्सिटी के छात्र नहाने के लिए गंगा पार कर घाटों के दूसरी तरफ जाते हैं। कुछ युवा नहाने धोने के बाद नदी किनारे बैठ दोस्तों से गप्प लड़ाते हैं और चिलम भी पीते हैं।अलग ही है बनारसी पानभारत में पान का पत्ता तीन तरह का मिलता है। बनारसी, कलकतिया और महोबनी । तीनों में बनारसी पत्ते का स्वाद काफी अलग है। बनारस में कत्था भी अलग किस्म का इस्तेमाल किया जाता है । साथ ही पान में कच्ची सुपारी डाली जाती है । यह चीजें बनारसी पान को स्पेशल बनाती हैं।बनारसी सिल्क और साड़ीबनारस में रेशम पैदा नहीं किया जाता है। यहां, बेंगुलुरू और चीन से रेशम के धागे मंगाए जाते हैं । उन धागों से खूबसूरत साडिय़ां बनाने का हुनर बनारस के बुनकर ही जानते हैं । शहर में बुनकरों के तीन मुख्य इलाके हैं, जहां करीब 22 हजार बुनकर परिवार रहते हैं। ज्यादातर बुनकर अब मशीनों के सहारे काम करते हैं।ईको फ्रेंडली चुस्कीबनारस में आपको प्लास्टिक के कप-गिलास काफी कम दिखाई पड़ेंगे। शहर में ज्यादातर दुकानों और ठेलों पर मिट्टी के कुल्हड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। लस्सी, रबड़ी, चाय और कॉफी तक कुल्हड़ों में दी जाती है, लेकिन प्लास्टिक में पैक दूसरी चीजें अब भी बड़ी मुसीबत बनी हुई हैं।गंगा आरतीवाराणसी में हर शाम होने वाली गंगा आरती देखने हर दिन हजारों लोग जुटते है। ज्यादातर भीड़ मुख्य रूप से दो घाटों पर ही होती है, दशाश्वमेध और अस्सी घाट पर। आरती चाहे तो घाट पर बैठ कर देखी जा सकती है, या फिर नाव में बैठकर । आरती के बाद घाटों पर काफी देर तक मेले जैसा माहौल रहता है। इस दौरान खिलौने बेचने वाले लोग या श्रद्धालुओं के मस्तक पर भस्म लगाने वाले बाबा भी दिखाई पड़ते हैं । भस्म लगाने के बाद कुछ बाबा कम से कम 10 रुपये के नोट की उम्मीद करते हैं । सिक्के देने पर वह नाराज होते हैं और बनारसी अंदाज में अप्रिय शब्दों से संबोधित करते हैं ।बनारस की रातयह कहावत आम है कि जिसे कहीं जगह नहीं मिलती, उसे काशी में जगह मिल जाती है। 84 घाटों के शहर बनारस में हजारों लोग बेघर रहते हैं। उनका जीवन भिक्षा और धर्मार्थ होने वाले आयोजनों से चलता है। इस तरह जीवन चलाने वाले ज्यादातर लोग मजबूरी या अपनी इच्छा से घर बार छोड़ कर काशी पहुंचे हैं।जीवन का अंतवाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर हर वक्त चिताए जलती रहती हैं। चिता जलाने का काम करने वाले एक डोम राजा कहते हैं कि, "यह माया मुक्त क्षेत्र है, यहां शोक और माया मोह के लिए कोई जगह नहीं है। इस क्षेत्र से बाहर निकलते ही संसार फिर इंसान पर हावी हो जाता है। " औसतन 24 घंटे में यहां 70 दाह संस्कार किए जाते हैं।
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-मखमली आवाज की मलिका मुबारक बेगम का मुफलिसी में बीता उम्र का अंंतिम पड़ाव
(पुण्यतिथि पर विशेष)नींद उड़ जाए तेरी चैन से सोने वालेये दुआ मांगते हैं नैन ये रोने वालेनींद उड़ जाए तेरी..ये गीत 1968 में आई फिल्म जुआरी का है। इस गीत को आवाज़ देने वाली हिन्दी फिल्मों की मशहूर गायिका मुबारक बेगम की आज पुण्यतिथि है। मुबारक बेगम का एक और गाना काफी लोकप्रिय रहा- कभी तन्हाइयों में यूं हमारी याद आएगी...। आज से चार साल पहले 18 जुलाई 1916 को मखमली आवाज की मलिका मुबारक बेगम में अंतिम सांस ली।मुबारक बेगम जिनकी आवाज़ सुनकर बिजलियां कौंध जाती हैं, दिल थम जाता है। 1950 से 1970 के बीच उनकी आवाज़ से हिंदी सिनेमा की गलियां रोशन थीं। उस दौर में शंकर-जयकिशन, खय्याम, एसडी बर्मन जैसे बड़े संगीतकारों के सुरों के साथ अपनी जादुई आवाज़ घोली।1950 और 60 के दशक में मुबारक बेगम की सुरीली आवाज का जादू चला। उन्होंने हमराही, हमारी याद आएगी, देवदास, मधुमती, सरस्वतीचंद्र जैसे कई हिट फिल्मों के गाने गाए। उम्र के अंतिम पड़ाव में मुबारक बेगम के दिन काफी मुफलिसी में बीते। उम्र की बीमारियों ने उन्हें जकड़ लिया और उनके बेटे के पास उनके इलाज के लिए पैसे नहीं थे। टैक्सी चलाकर वह किसी तरह अपने परिवार का खर्च चला रहा था। .बेटी के निधन के बाद से मुबारक बेगम की तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी थी। उन्होंने लोगों से मदद मांगी, सरकार को से भी गुहार लगाई। कुछ मदद मिली भी, लेकिन वह काफी नहीं थी। आखिरकार सुनील दत्त ने उनकी मुश्किल को समझा और अपने प्रभाव का उपयोग कर जोगेश्वरी में सरकारी कोटे से उनको एक छोटा-सा फ्लैट दिलवा दिया। उन्हें सात सौ रुपये माहवार की पेंशन भी मिलने लगी। मुबारक बेगम की आवाज के दीवाने दुनियाभर में फैले हुए हैं। उनकी दयनीय हालत देख उनके प्रशंसक कुछ न कुछ रुपये हर महीने उन्हें भिजवाते रहे। आखिर सात सौ रुपये महीने में गुजारा कैसे संभव था। बेटा टैक्सी चलाने लगा। पड़ोसी विश्वास नहीं कर पाते कि यह बूढ़ी, बीमार और बेबस औरत वह गायिका है जिसके गीत लोगों को दीवाना बना दिया करते थे। आखिरकार 18 जुलाई को वे इस दुनिया से ही रुखसत हो गईं।मुबारक बेगम के बारे में कहा जाता है कि वे पढ़ी- लिखी नहीं थीं, लेकिन गाने को इसकदर कंठस्थ कर रिकॉर्डिंग किया करती थीं कि कहीं कोई चूक नहीं हो पाती थी। मुबारक बेगम जब बुलंदियों को छू रही थीं तभी फि़ल्मी दुनिया की राजनीति ने उनकी शोहरत पर ग्रहण लगाना शुरू कर दिया। मुबारक को जिन फि़ल्मों में गीत गाने थे, उन फि़ल्मों में दूसरी गायिकाओं की आवाज़ को लिया जाने लगा। मुबारक बेगम का दावा है कि फि़ल्म जब जब फूल खिले का गाना परदेसियों से ना अंखियां मिलाना उनकी आवाज़ में रिकॉर्ड किया गया, लेकिन जब फि़ल्म का रिकॉर्ड बाजाऱ में आया तो गीत में उनकी आवाज़ की जगह लता मंगेशकर की आवाज़ थी। यही घटना फि़ल्म काजल में भी दोहराई गयी। और सातवां दशक आते आते मुबारक बेगम फि़ल्म इंटस्ट्री से बाहर कर दी गयीं। 1980 में बनी फि़ल्म राम तो दीवाना है में मुबारक का गाया गीत सांवरिया तेरी याद में उनका अंतिम गीत था। करीब सवा सौ फि़ल्मों में अपनी आवाज़ का जादू जगाने वाली मुबारक बेगम को कभी कोई बड़ा फि़ल्मी पुरस्कार या सम्मान नहीं मिला, क्योंकि वे तो काम के प्रति समर्पित , निश्छल थी और राजनीति करना नहीं जानती थीं।. (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष) -
मुंबई। बॉलीवुड में नाम और शोहरत हासिल करने के बाद कई स्टार्स ऐसे भी हैं, जो अपने आखिरी समय में अकेलापन देखा। 60 से लेकर 80 के दशक में इन सेलेब्स की एक झलक पाने के लिए लाखों-करोड़ों फैंस घंटों-घंटों सड़कों पर इंतजार करते थे। आज हम अपनी इस लिस्ट में आपको बॉलीवुड की उन अदाकाराओं के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसके बाद आखिरी समय में इलाज कराने तक के पैसे नहीं थे। देखें ये लिस्ट...
प्रिया राजवंशकहा जाता है कि फिल्म 'हीर रांझा' में नजर आईं प्रिया राजवंश लोकप्रिय अभिनेता देव आनंद के भाई चेतन आनंद के साथ लिव-इन रिलेशन में रहती थीं। चेतन की मौत के बाद बॉलीवुड में उन्हें सहारा देने वाला कोई नहीं था और वो अकेली पड़ गईं। रिपोट्र्स की मानें तो चेतन के दोनों बेटों ने प्रिया की गोली मारकर हत्या कर दी थीं।विमीबी.आर. चोपड़ा की फिल्म 'हमराज' से इंडस्ट्री में शुरुआत करने के बाद विमी ने दर्शकों के बीच अलग पहचान बनाई थी। विमी को शराब की लत लगने की वजह से उनका सब कुछ बिक गया था। एक्ट्रेस की मौत के बाद उनकी बॉडी को अंतिम संस्कार के लिए ठेले पर श्मशान घाट ले जाया गया था।परवीन बॉबी80 के दशक की मशहूर अभिनेत्री परवीन बॉली की मौत 20 जनवरी, 2005 को हो गई थी, लेकिन उनकी बॉडी 22 जनवरी को उनके फ़्लैट से निकाली गई। परवीन बाबी ने आत्महत्या की थी या उनकी मौत हुई थी, ये आज तक कोई नहीं जान पाया परवीन बाबी सिजोफ्रेनिया नाम की मानसिक बीमारी से पीडि़त थीं, जो कि अनुवांशिक बीमारी थी। यही वजह थी कि इसके ठीक होने के आसार न के बराबर थे। एक व्हील चेयर, दो जोड़ी कपड़े, कुछ दवाइयां, चंद पेंटिंग्स और कैनवास ही परवीन के अंतिम दिनों के साथी थे। बताया जाता है कि परवीन डायबिटीज़ और पैर की बीमारी गैंगरीन से पीडि़त थीं जिसकी वजह से उनकी किडनी और शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। 2002 से उन्होंने किसी से मिलना जुलना भी बंद कर दिया था।साधना शिवदसानीसाधना शिवदसानी अपने जमाने की मशहूर अदाकाराओं में से एक थीं। 60 और 70 के दशक में एक्ट्रेस की खूबसूरती और उनके फैशन सेंस का हरकोई दीवाना था। साधना ने मशहूर निर्देशक राम कृष्ण नय्यर के साथ शादी की थी। पति की मौत के बाद साधना को आर्थिक तंगी से होकर गुजरना पड़ा था। आपको जानकार हैरानी होगी कि साधना काफी सालों तक लोकप्रिय सिंगर आशा भोंसले के फ्लैट में एक किरायेदार के रूप में रही थीं।नंदानंदा भी बॉलीवुड की खूबसूरत अदाकाराओं में से तक थीं। एक्ट्रेस के कंधों उनके परिवार की जिम्मेदारी थी और इसी वजह से वो कभी शादी नहीं कर पाई थीं। 53 साल की उम्र में नंदा ने फेमस डायरेक्टर मनमोहन देसाई के साथ सगाई की, लेकिन दोनों की शादी नहीं हो पाई। शादी से पहले ही मनमोहन देसाई की रहस्यमय तरीके से अपने घर की छत से नीचे गिरने से मौत हो गई थी। नंदा इससे काफी टूट गई थीं। नंदा की मौत हार्ट अटैक होने की वजह से हुई थी।मीना कुमारीमीना कुमार को बॉलीवुड की 'ट्रैजेडी क्वीन' के नाम से भी जाना जाता है। मीना कुमारी बॉलीवुड की फेमस और लोकप्रिय अभिनेत्रियों में से एक थीं। कमाल अमरोही से शादी होने के बाद भी मीना कुमारी अकेलेपन का शिकार रहीं। मीना कुमार ने 38 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। कहते हैं कि उनकी मौत अस्पताल में हुई और उनके इलाज का बिल देने कोई रिश्तेदार सामने नहीं आया। आखिरकार उनके एक प्रशंसक डॉक्टर ने पैसे चुकाये और फिर उनका अंतिम संस्कार हो सका।अचला सचदेवअचला सचदेव भी बॉलीवुड की पॉपुलर एक्ट्रेसेस में एक थीं। गुमनामी की दुनिया में जिंदगी गुजारने के बाद एक्ट्रेस की मौत पुणे के अस्पताल में हुई थी। पति के निधन के बाद अचला अकेली पड़ गई थीं। आखिर दिनों में अचला के पास इलाज कराने तक के पैसे नहीं थे। -
जन्मदिन पर विशेष
फिल्मी परदे पर सबको हंसाने वाली प्यारी टुनटुन (जन्म11 जुलाई 1923 - निधन 23 नवम्बर 2003) की आज जयंती है। वे लोगों के दिलों में ऐसे छाई कि आज भी यदि कोई मोटी महिला दिख जाती है, तो लोग मजाक में उसे टुनटुन कह देते हैं। टुनटुन ने अपना कॅरिअर पार्श्व गायिका के रूप में अपने मूल नाम उमा देवी खत्री से शुरू किया था। अफसाना लिख रही रही हूं... गीत उन्होंने ही गाया है।नूरजहां के प्रति दीवानगी और गायिकी के जुनून ने उन्हें मथुरा से मुंबई पहुंचाया। चाचा के घर में पली-बढ़ी उमा देवी की हैसियत परिवार में एक नौकर के समान थी। घरेलू काम के सिलसिले में उमादेवी का दिल्ली के दरियागंज इलाके में रहने वाले एक रिश्तेदार के घर अक्सर आना-जाना लगा रहता था। वहीं उनकी मुलाक़ात अख्तर अब्बास क़ाज़ी से हुई, जो दिल्ली में आबकारी विभाग में निरीक्षक थे। काज़ी साहब उमा देवी का सहारा बने, लेकिन वे लाहौर चले गए।इस बीच उमा देवी ने भी गायिका बनने का ख्वाब पूरा करने के लिए मुंबई जाने की योजना बना ली। दिल्ली में जॉब करने वाली उनकी एक सहेली की मुंबई में फि़ल्म इंडस्ट्रीज के कुछ लोगों से पहचान थी। एक बार जब वो गांव आई, तो उसने उमा देवी को निर्देशक नितिन बोस के सहायक जव्वाद हुसैन का पता दिया। वर्ष 1946 था और उमादेवी 23 बरस की थी। वे किसी तरह हिम्मत जुटाकर गांव से भागकर मुंबई आ गई। जव्वाद हुसैन ने उन्हें अपने घर पनाह दी। मुंबई में उमा देवी की दोस्ती अभिनेता और निर्देशक अरूण आहूजा और उनकी पत्नी गायिका निर्मला देवी से हुई, जो मशहूर अभिनेता गोविंदा के माता-पिता थे। इस दंपत्ति ने उमा देवी का परिचय कई प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से करवाया। उस समय तक अख्तर अब्बास काज़ी साहब भी मुंबई आ गए थे। 1947 में उमा देवी और काज़ी साहब ने शादी कर ली।उसके बाद उमा देवी काम की तलाश करने लगी। उन्हें कहीं से पता चला कि डायरेक्टर अब्दुल रशीद करदार फि़ल्म दर्द बना रहे हैं. वे उनके स्टूडियो पहुंचकर उनके सामने खड़े हो गई। उन्होंने पहले कभी करदार साहब को नहीं देखा था। बेबाक तो वो बचपन से ही थी, उनसे ही सीधे पूछ बैठी, करदार साहब कहां मिलेंगे? मुझे उनकी फि़ल्म में गाना गाना है। शायद उनका ये बेबाक अंदाज़ करदार साहब को पसंद आ गया, इसलिए बिना देर किये उन्होंने संगीतकार नौशाद के सहायक गुलाम मोहम्मद को बुलाकर उमा देवी का टेस्ट लेने को कह दिया। उस टेस्ट में उमादेवी ने फिल्म जीनत में नूरजहां द्वारा गाया गीत आँधियां गम की यूं चली गाया। हालांकि उमा देवी एक प्रशिक्षित गायिका नहीं थी, लेकिन रेडियो पर गाने सुनकर और उन्हें दोहराकर वे अच्छा गाने लगी थी। बरहलाल, उनका गया गाना सबको पसंद आया और वो 500 रुपये की पगार पर नौकरी पर रख ली गई।जब उमा देवी की मुलाक़ात नौशाद से हुई, तो उनसे भी बेबकीपूर्ण अंदाज़ में उन्होंने कह दिया कि उन्हें अपनी फि़ल्म में गाना गाने का मौका दें, नहीं तो वे उनके घर के सामने समुद्र में डूबकर अपनी जान दे देंगी। नौशाद साहब भी उनकी बेबाकी पर हैरान थे। खैर, उन्होंने उमा देवी को गाने मौका दिया और दर्द फिल्म का गीत अफ़साना लिख रही हूं ...उनसे गवाया। यह गीत बहुत हिट हुआ और आज तक लोगों की ज़ेहन में बसा हुआ है। उस फि़ल्म के अन्य गीत आज मची है धूम, ये कौन चला, बेताब है दिल .. भी लोगों को बहुत पसंद आये।फिर क्या था , उमा देवी की गायिका के रूप में गाड़ी चल पड़ी। कई फि़ल्मी गीतों को उन्होंने अपनी सुरीली आवाज़ से सजाया। 1947 में ही बनी फि़ल्म नाटक में उन्हें गाने का मौका मिला और उन्होंने गीत दिलवाले जल कर मर ही जाना गाया। फिर 1948 की फि़ल्म अनोखी अदा में दो सोलो गीत काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाए, दिल को लगा के हमने कुछ भी न पाया और फि़ल्म चांदनी रात में शीर्षक गीत'चांदनी रात है, हाय क्या बात है, में भी उन्होंने अपनी आवाज़ दी। उमादेवी को गाने के मौके मिलते रहे और वो गाती रहीं। उन्होंने कई फि़ल्मों में गाने गए। उनके द्वारा गाये गए गीत लगभग 45 के आस-पास हैं।बच्चों के जन्म के साथ उनकी पारिवारिक जि़म्मेदारियां बढ़ रही थी। साथ ही लता मंगेशकर , आशा भोंसले जैसी संगीत की विधिवत् शिक्षा प्राप्त गायिकाओं का भी बॉलीवुड फि़ल्म इंडस्ट्रीज में पदार्पण हो चुका था। उमादेवी ने गायन का प्रशिक्षण नहीं लिया था। इसलिए धीरे-धीरे उनका गायन का काम सिमटता गया और एक दिन वह अपना गायन करिअर छोड़कर पूरी तरह अपने परिवार में रम गई। परिवार चलाना मुश्किल हुआ तो उमादेवी ने फिर से फि़ल्मों में काम करने का मन बनाया।वे अपने गुरू नौशाद साहब से मिली। उमादेवी फिर से फि़ल्मों में गाना चाहती थीं, लेकिन समय आगे निकल चुका था। स्थिति को देखते हुए नौशाद साहब ने उन्हें कहा, तुम अभिनय में हाथ क्यों नहीं आजमाती? उमादेवी ने अपने बेबाक अंदाज़ में उन्होंने कह दिया, मैं एक्टिंग करूंगी, लेकिन दिलीप कुमार के साथ। दिलीप कुमार उस समय के सुपरस्टार थे। इसलिए उमादेवी की बात सुनकर नौशाद साहब हंस पड़े, लेकिन इसे किस्मत ही कहा जाए कि अपने अभिनय करिअर की शुरूआत उमादेवी ने दिलीप कुमार के साथ ही की। फिल्म थी - बाबुल जिसमें हिरोइन थीं - नर्गिस। उस वक्त उमा देवी का वजन काफी बढ़ गया था। दिलीप कुमार ने ही मोटी उमा को देखकर टुनटुन नाम दिया और यह नाम हमेशा के लिए उनके साथ जुड़ गया। फि़ल्म रिलीज़ हुई और छोटे से रोल में भी उनका अभिनय काफ़ी सराहा गय। उसके बाद आई मशहूर निर्माता-निर्देशक और अभिनेता गुरु दत्त की फि़ल्म मिस्टर एंड मिस 55 में उन्होंने अपने अभिनय के वे जौहर दिखाए कि हर कोई उनका कायल हो गया.बाद में टुनटुन की ख्याति इतनी बढ़ गई थी कि फि़ल्मकार उनके लिए अपनी फि़ल्म में विशेष रूप से रोल लिखवाया करते थे और टुनटुन भी हर रोल को अपने शानदार अभिनय से यादगार बना देती थीं। 70 के दशक के बाद उन्होंने फि़ल्मों में काम करना कम कर दिया और अधिकांश समय अपने परिवार के साथ गुजारने लगी। उनकी अंतिम फिल्म 1990 में आई कसम धंधे की थी। 24 नवंबर 2003 में उन्होंने इस दुनिया से विदा ली, लेकिन आज भी वे हिन्दी फिल्मों की पहली और सबसे सफ़ल महिला कॉमेडियन के रूप में याद की जाती हैं।---- -
अभिनेता दिलीप कुमार अपने 12 भाई-बहनों में सबसे ज्यादा सफल रहे। उनके एक भाई नासीर ने भी अभिनय जगत में कदम रखा और अपने दौर में कई हिट फिल्में दीं। बेगम पारा, सुरैया जैसी नामी नायिकाओं के साथ फिल्में की। पद्म विभूषण से भी नवाजे गए.. लेकिन भाई दिलीप कुमार के सामने टिक नहीं पाए और गुमनामी में खो गए।
कहते हैं शोहरत और ग्लैमर की चकाचौंध से भरी फिल्म इंडस्ट्री बाहर से जितनी आकर्षक नजर आती है, असलियत में कुछ और ही है। उगते सूरज की इबादत यहां की रीत रही है। जिनकी चमक फीकी पड़ जाती है उन्हें जल्द ही भुला दिया जाता है। इंडस्ट्री में अलग-अलग समय में कई ऐसे कलाकार आए, जिन्होंने अपने करियर के शुरुआती दौर में तो खूब नाम कमाया, लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे गुमनाम हो गए। अभिनेता नासिर खान के साथ भी ऐसा ही हुआ।अभिनेता नासिर खान ने अपने करियर में उन्होंने आठ फिल्मफेयर, पद्म विभूषण और कई अन्य बड़े अवॉर्ड हासिल किए। अपने फिल्मी सफर में उन्होंने 29 फिल्मों में काम किया था। हीरो के तौर पर उनकी आखिरी फिल्म 'आदमी' थी। इसमें अपने जमाने की बोल्ड एक्ट्रेस बेगमपारा हीरोइन थी जिनसे बाद में नासीर ने निकाह कर लिया। पिक्चर रिलीज होने के बाद नासिर ने बेगम पारा से निकाह किया था। नासिर खान अपने भाई दिलीप कुमार के साथ भी कई फिल्मों में नजर आए थे। इनमें से एक मूवी थी 'गंगा जमुना'। इसको सत्येन बोस ने बनाया था। दो भाइयों की कहानी पर बुनी गई पिक्चर में अभिनय भी असल जिंदगी के भाई कर रहे थे। नासिर खान ने इसमें पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभाई थी।अभिनय भी असल जिंदगी के भाई कर दिलीप कुमार और नासिर का करियर लगभग एक साथ ही शुरू हुआ था। दिलीप कुमार ने 1944 में फिल्म 'ज्वार भाटा' से करियर की शुरुआत की तो वहीं, 1945 में फिल्म 'मजदूर' से नासिर खान कैमरे के आगे आए। इसके बाद नासिर ने 'शहनाई' फिल्म में काम किया और सफलता हासिल की। वहीं, दिलीप कुमार तब तक तीन सफल फिल्में कर चुके थे। इसके बाद 1951 में नासिर ने 'नगीना' में काम किया। उस वक्त दिलीप 'दीदार' में अभिनय कर रहे थे। फिर नासिर धीरे-धीरे लगातार दिलीप कुमार से पिछड़ते चले गए। कुछ समय के बाद उन्होंने फिल्मी दुनिया को ही अलविदा कह दिया। वो नासिक में खेती-बाड़ी करने लगे थे। उनका वहां पोल्ट्री फार्म भी था।बेगम पारा से शादी के बाद दोनों को तीन संतान हुईं। इनमें एक बेटा नादिर खान, दूसरा बेटा अयूब खान और बेटी लुबना हैं। बाद में अयूब बॉलीवुड फिल्मों में अभिनेता बने। नासिर तीन मई 1974 को इस दुनिया से अलविदा कह गए। नौ दिसंबर 2008 में उनकी पत्नी बेगम पारा का भी निधन हो गया। नासिर खान ने अपने करियर के दौरान 'मजदूर, 'अंगारे, 'खजाना, 'नाजनीन, 'हंगामा, 'नगीना, 'आगोश, 'श्रीमतीजी, 'जवाब , 'दायरा, 'इनाम, 'सोसायटी, 'आसमान, 'खूबसूरत, 'शीशम, 'चारमीनार, 'साया, 'गंगा जमुना, 'सौदागर और 'नखरे जैसी 29 फिल्मों में काम किया। - -तालाब संरक्षण से प्रकृति को समझने का मिला अवसरआलेख- धर्मधाम गौरवगाथा समिति, धमधा जिला दुर्ग छत्तीसगढ़धमधा में 126 तालाब थे। हमने गोपाल तालाब में काम शुरू किया तो सबके मन में एक ही सवाल था कि यही तालाब ही क्यों। यह तालाब तो साल में 8 महीने सूखा रहता है। बहुत अच्छे से पानी भी नहीं भरता। इस गोपाल तालाब का कोई उपयोग भी नहीं है। इसमें बड़े-बड़े पत्थर हैं, जिसके कारण न तो आदमी घुसता है और न मवेशी। इसके पार में भी पेड़-पौधे नहीं हैं। केवल मुरम ही मुरम है, जहां कोई पौधा उगता भी नहीं है। फिर गोपाल तालाब में क्या किया जा रहा है, क्या यहां कोई कब्जा जमाना उद्देश्य है।हमने लोगों के सवालों पर विचार किया तो इन सबके उत्तर हमें अपने आप मिलने लगे।यदि गोपाल तालाब की तरह हर तालाब पर ध्यान देना छोड़ दिया गया तो धीरे-धीरे सभी 126 तालाब खत्म हो जाएंगे।(1) 1823 में बना था गोपाल तालाब -वैसे इस तालाब में काष्ठस्तंभ मिलना बहुत महत्व रखता है। हमने काष्टस्तंभ को फिर से स्थापित करने के लिए उसे निकाला तो उसमें 1823 का चाँदी का सिक्का मिला, जो इस तालाब की ऐतिहासिकता को दर्शाता है। इससे यह फायदा हुआ कि हमारे तालाबों की क्या परंपरा थी, किस काल में ये बने हमें इसकी जानकारी हुई। सबसे बड़ी बात धमधा में जोड़ी में तालाब और भी हैं, लेकिन केवल गोपाल-गोपालिन तालाब ही जिसमें दोनों तालाब में स्तंभ गड़ाए गए थे। इसे लोगों के ध्यान में नहीं लाया जाता तो संभवत: यह बात लोग बिसरा देते।(2) तालाब के मुकुट की तरह होते हैं स्तंभ-हमने गोपाल तालाब को फिर से तालाब जैसा सम्मान दिलाने का प्रयास किया है। इसके लिए प्राचीन संस्कार के अनुसार काष्ठस्तंभ की स्थापना की है, जो किसी तालाब का शिखर या मुकुट की तरह होता है। इस तालाब में पानी कम भरता है क्योंकि इसके लिए पानी के आने का रास्ता कम हो गया है। इसके लिए सड़क के दूसरी ओर से पानी लाने के लिए पार को जेसीबी से खुदाई की गई है। गोपालिन तालाब से गोपाल तालाब को जोडऩे भी पार को फोड़ा गया है। ताकि दोनों में पानी का आदान-प्रदान हो सके। अभी इसमें चार-पाँच महीने पानी भरा रहता है हमारा प्रयास है कि इसमें सालभर पानी भरा रहे। वह भी प्राकृतिक बारिश के पानी से। हम ट्यूबवेल से तालाब भरने के पक्षधर नहीं हैं।(3) जीव-जन्तु और पक्षियों का आश्रय स्थल होते हैं तालाब-एक तालाब कई जीवों का घर होता है। इसमें सांप, मेढ़क, केकड़ा, मछली के साथ छोटे-छोटे जीव पलते हैं। इसके ऊपर चिडिय़ा विचरण करती हैं। ये एक-दूसरे के साथ सह-अस्तित्व के साथ निर्वाह करते हैं। पानी कम होने से तालाब में जीव-जन्तुओं की संख्या कम है। इसके लिए हमने तालाब में मछली भी लाकर छोड़ी है। ताकि सभी आहार प्रणाली के माध्यम से एक-दूसरे से विकसित होते रहे।(4) कर्क रेखा में होने के कारण जल्दी सूखते हैं तालाब-तालाब जल्दी सूखने के तीन कारण हैं, पहला पानी कम भरना, दूसरा सूर्य के प्रकाश से वाष्पीकरण और तीसरा मुरम जमीन होने के कारण जल्दी सोखना। पहले कारण के समाधान के लिए हमने पानी के आवक का स्त्रोत बढ़ा दिया है। चूंकि छत्तीसगढ़ पृथ्वी के बीच स्थित है। यहां से कर्क रेखा गुजरती है। इसलिए यहां का वातावरण उष्ण कटीबंधीय है। सूरज की रोशन यहां सबसे ज्यादा समय तक पड़ती है, लिहाजा तालाबों का पानी अधिक वाष्पीकृत होता है। इसके समाधान के लिए हमने गोपाल तालाब में कमल का रोपण किया है। इसके पत्ते पानी के ऊपर फैल जाते हैं, जिससे वाष्पीकरण कम होता है। तीसरी समस्या मुरम जमीन होने के कारण पानी के जल्दी सूखने की है, इस समस्या से कमल की जड़ें कुछ निजात दिला सकती है। दलदल में जड़ें घुसने से पानी का रिसाव कुछ कम होगा।(5) मुरम में नहीं उग पाते पौधे-हम तालाब के चारों ओर घना वृक्षारोपण करना चाहते हैं, क्योंकि पेड़-पौधों की जड़ें भूमि जल स्तर को बनाए रखती हैं। गोपाल तालाब धमधा के सबसे ऊंची भूमि पर होने के कारण जल स्तर जल्दी घट जाता है। पेड़-पौधों की संख्या बढ़ाकर इसे कुछ हद तक रोका जा सकता है।पेड़-पौधे लगाने के लिए गोपाल तालाब में सबसे बड़ी समस्या यहां की मुरम वाली जमीन है, क्योंकि मुरम वाली जमीन पर कोई पौधा जल्दी उगता नहीं है। जो पौधे उगते हैं, उसे मवेशी चर देते हैं। कुछ बच जाते हैं, उसे लोग खेतों में घेरा करने या फिर जलाने के लिए काट देते हैं।(6) छिंद के पांच हजार बीज लगाए गोपाल तालाब के पार में-गोपाल तालाब की इस समस्या के लिए हमने यहां का वैज्ञानिक अध्ययन किया, जिसमें हमें नई बात पता लगी। यहां छिंद के पेड़ काफी हैं, वे सुरक्षित भी हैं और उन्हें मवेशी नहीं खाते, न ही लोग काटते हैं। छिंद के पौधों आसानी से उग जाते हैं। इसलिए हमने गोपाल तालाब के पार में लगभग पाँच हजार छिंद की अच्छी किस्म के बीजों का रोपण किया है।(7) छिंद के सहारे उगते हैं नीम और बरगद-छिंद लगाने का दूसरा बड़ा फायदा यह होगा कि छिंद घना होता है। इसमें पक्षी बैठकर बीट करते हैं, जिसमें कई बड़े पौधों के बीज होते हैं। गोपाल तालाब में वर्तमान में हर छिंद के पास घनी झाडिय़ा उगी हुई हैं। उन झाडिय़ों के भीतर नीम, सीताफल, गस्ती, पीपल, परसा सहित कई पेड़ उग चुके हैं। उनकी ऊँचाई भी 10-12 फीट तक हो चुकी है। झाडिय़ों के बीच होने के कारण यह मवेशियों की पहुंच से बच जाता है और लोग भी नहीं काट पाते हैं। यदि हमारे छिड़के हुए छिंद के बीज उगते हैं तो इसी तरह से बड़े पेड़ इनके सहारे उगेंगे।(8) पाताल से पानी खींच लेती हैं छिंद की जड़ें-छिंद की जड़ें बहुत गहरी होती है, जो भू-गर्भ से पानी खींचते हैं, इसलिए छिंद के पेड़ के आसपास मिट्टी में नमी रहती है, जिससे दूसरे पौधों को नमी मिल जाती है। हमने छिंद और झडिय़ों के बीच में कुछ पौधे लगा रहे हैं ताकि यहां बड़े पेड़ उग सके और उन्हें मवेशी नुकसान न पहुंचाएं।वरना मुरम जमीन में पेड़ उगाना मुश्किल है।(9) प्रकृति और जीव जगत के संबंध को पहचानने का मिला अवसर -गोपाल तालाब में काष्ठस्तंभ की स्थापना से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। प्रकृति में कैसी व्यवस्था है, पेड़ एक-दूसरे को उगने में कैसे सहायता करते हैं। वे पक्षियों के रहने के लिए छाया देते हैं। पक्षी पेड़ों के वंश बढ़ाने का काम बीजों को उगाकर करते हैं। ये सभी चीजें मनुष्य को आपस में मिलजुलकर रहना सीखाते हैं। एक-दूसरे की सहायता करते हुए सुखपूर्वक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। गोपाल तालाब का यह काम जीवन और प्रकृति को समझने की दिशा में महत्वपूर्ण काम रहा।(10) धमधा की पहचान हैं तालाब-भविष्य में इसी तरह हम तालाबों का सरंक्षण करने का प्रयास करेंगे क्योंकि ये धमधा की पहचान ही नहीं, जीवन का साधन है।गोपाल तालाब पर आधारित स्मारिका का विमोचन 20 जून 2021 को दोपहर 3 बजे होगा। इसमें पधारकर अपनी भागीदारी दें।
- पुण्यतिथि 2 जून पर विशेषसजीले ख्वाबों को सिने पर्दे पर अपने ही रंगों में उतारने में माहिर बॉलीवुड के शोमैन राजकपूर का आज ही के दिन निधन हो गया था। 1988 को उन्हें एक फिल्म समारोह के दौरान दिल का दौरा पड़ा और ठीक एक माह तक अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझते हुए 2 जून 1988 को 63 साल की उम्र में हिंदी फिल्मों का यह महान फनकार संसार को अलविदा कह गया।राजकपूर का निधन हिंदी सिनेमा के ऐसे युग का अवसान था, जिसकी लोकप्रियता उसके जीते-जी ही दंतकथा जैसी अविश्वसनीय थी। अभिनय, निर्देशन सहित सिनेमा से जुड़े हर पक्ष में समान नियंत्रण के साथ राजकपूर अपनी फिल्मों में मर्मज्ञ की तरह सामाजिक विषमताओं और उसकी ख़ूबसूरती को उतनी ही शिद्दत से स्वर देते रहे। राजकपूर की फिल्में कला-साहित्य, सामाजिकता व व्यवसायिकता का बेजोड़ मिश्रण बनकर दर्शकों के दिलों तक उतरती रहीं।राजकपूर का फिल्मी जीवन हालांकि 1936 में आई फिल्म 'इंकलाब' से शुरू हुआ , लेकिन हम आज चर्चा कर रहे हैं फिल्म वाल्मीकि की जो 1946 में रिलीज हुई थी। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि फिल्मी परदे पर रोमांटिक भूमिकाओं से शोहरत पाने वाले राजकपूर कभी नारद मुनि का रोल भी कर सकते हैं? लेकिन यह सच है। फिल्म वाल्मीकि में राजकपूर नारद मुनि के ही रोल में थे। फिल्म में मुख्य भूमिका यानी महर्षि वाल्मीकि का रोल उनके ही पिता पृथ्वीराज कपूर ने निभाया था और नायिका थीं शांता आप्टे, जिन्होंने पृथ्वीराज की पत्नी का रोल निभाया था। फिल्म का निर्देशन भालजी पेंढरकर ने किया था। फिल्म अपने दौर में हिट रही, क्योंकि उस समय पौराणिक और धार्मिक कहानियों पर आधारित फिल्मों को पसंद किया जाता था। इसी फिल्म से राजकपूर के लिए हीरो बनने का रास्ता भी साफ हो गया। इसके बाद उन्हें बतौर हीरो फिल्म मिली नीलकमल जिसमें उनकी नायिका थी मधुबाला। यह फिल्म 1947 में रिलीज हुई थी।राज कपूर ने बाल कलाकार के रूप में फिल्म इंकलाब 1935, हमारी बात 1943, गौरी 1943 में अभिनय कर चुके थे। फि़ल्म वाल्मीकि 1946, नारद और अमरप्रेम 1948 में राज कपूर ने कृष्ण की भूमिका बखूबी निभाई थी। अभिनय करने के बावजूद उनके मन में तो स्वयं निर्माता-निर्देशक बनने की और फि़ल्म का निर्माण करने की आग सुलग रही थी। राज कपूर का सपना 24 साल की उम्र में पूरा हुआ जब उन्होंने फि़ल्म आग 1948 में पहली बार पर्दे पर प्रमुख भूमिका निभाने के साथ फिल्म का निर्माण और निर्देशन किया था। फिल्म बनाने का सपना तो पूरा हो गया लेकिन उनके सपनो की भूख और बढ़ती गई अब उनका एक और सपना था। वह अपना खुद का स्टूडियो बनाना चाहते थे. जिसके लिए उन्होंने चेम्बूर में चार एकड़ ज़मीन पर 1950 में अपने आर. के. स्टूडियो की महत्पूर्ण स्थापना की। अपने स्टूडियो में उन्होंने 1951 में फिल्म आवारा में रूमानी नायक की भूमिका निभाकर काफी ख्याति अर्जित की।राज कपूर ने 1949 में बरसात श्री 420 (1955), जागते रहो (1956) के साथ 1970 में मेरा नाम जोकर फिल्म देकर सबके दिलो पर राज किया। राज कपूर का हर अंदाज लोगों को काफी पसंद आया लेकिन सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र चार्ली चैपलिन का गऱीब, ईमानदार आवारा का ही प्रतिरूप है।राज कपूर का प्रिय रंगबचपन से ही राज कपूर को सफ़ेद रंग मनमोहक लगता था। जब भी वह सफ़ेद साड़ी पहने किसी स्त्री को देखते थे तो उनकी तरह आकर्षित हो जाते थे। उनका यह सफेद रंग के प्रति मोह जीवन भर बना रहा। उनकी फिल्मों में अधिकतर अभिनेत्रियां सफ़ेद साड़ी पहने ही अभिनय करती नजर आती थी। उन्होंने जब कृष्णा को पहली बार देखा था, तो वो भी सफेद साड़ी में थीं। कृष्णा की सादगी पर राजकपूर इस कदर फिदा हो गए थे, कि उन्हें तुरंत ही उनसे शादी के लिए हां कह दिया था।संगीतराज कपूर को संगीत की अच्छी खासी समझ थी। जब फिल्म का गीत बनाया जाता था तो राज कपूर को पहले सुनाया जाता था। अपने आर. के. बैनर तले राज कपूर ने संगीत की कई टीम को तैयार किया था। जिनमें गीतकार- शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, शंकर जयकिशन, रविन्द्र जैन, वि_लभाई पटेल, छायाकार- राघू करमरकर, गायक- मुकेश, मन्ना डे, कला निर्देशक- प्रकाश अरोरा, राजा नवाथे जैसे कई लोग शामिल थे।गायनराज कपूर ने अभिनय के साथ साथ पहली बार फि़ल्म दिल की रानी में अपना प्लेबैक दिया था। फि़ल्म दिल की रानी में मुख्य नायिका मधुबाला थी। राज कपूर के द्वारा पहली बार दिए गए प्लेबैक गीत का मुखड़ा ओ दुनिया के रखवाले बता कहां गया चितचोर है। इस फिल्म के आलावा राज कपूर ने फि़ल्म जेलयात्रा में भी गीत गाया।हिन्दी फि़ल्मों के शोमैनराज कपूर को हिन्दी फि़ल्मों का शोमैन कहा जाता है।राज कपूर की फि़ल्मों में मौज-मस्ती के साथ प्रेम, हिंसा के साथ अध्यात्म एवं समाजवाद मौजूद रहता था। उनकी बेहतरीन फि़ल्में उनके गीत आज भी भारतीयों के साथ विदेशी सिने प्रेमियों के भी पसंदीदा सूची में सबसे ऊपर के स्थान पर काबिज हैं। राज कपूर ने अधिकतर सामान्य कहानी को इतनी भव्यता और शालीनता से फिल्मों का निर्माण किया की सभी दर्शक बार-बार देखने को उत्सुक रहते हैं।महत्वाकांक्षी फि़ल्मराजकपूर की महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी फि़ल्म मेरा नाम जोकर समाज के गंभीर और मानव स्वभाव पर आधारित है। साथ ही उनकी फिल्म आवारा लीक से काफी हटकर थी। उनकी यह पहली विदेश में भी काफी पसंद की गई थी। फि़ल्म के माध्यम से उन्होंने स्पष्ट तरीके से बताया था कि अपराध का ख़ून से किसी तरह का कोई संबंध नहीं है। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
- हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में बहुत से अभिनेता हुए हैं, जिन्होंने एक ही प्रकार का रोल कई फिल्मों में निभाया। ऐसे कलाकारों को टाइप्ड कलाकार कहा जाता था। ऐसे ही एक अभिनेता हुए हैं जगदीश राज खुराना...जिन्होंने पुलिस वाले के रोल में ऐसी जान डाली कि जब कभी किसी फिल्म में पुलिस को दिखाये जाने की बात आती तो डायरेक्टर को अभिनेता जगदीश राज खुराना की ही याद आती। उनका नाम सबसे अधिक बार पुलिसवाले का किरदार निभाने के लिए गिनीज बुक ऑफ वल्डऱ् रिेकॉड्र्स में भी दर्ज है।उनका एक डॉयलॉग लगभग सभी फिल्मों में सुनाई दे जाता है- 'पुलिस ने तुम्हें चारों तरफ से घेर लिया है'. भागने का और कोई रास्ता नहीं है। तुम्हारी भलाई इसी में है कि खुद को कानून के हवाले कर दो।' बॉलीवुड की फिल्मों में मुजरिम चाहे अमिताभ बच्चन हो या देव आनंद , एक दौर ऐसा था जब पुलिस की वर्दी में सायरन वाली जीप से अक्सर एक ही शख्स उतरता था और वो थे जगदीश राज।करीब 5 दशक तक जगदीश राज ने सिनेमा की दुनिया में पुलिसवाले की भूमिका निभाई। कभी अच्छा, तो कभी बुरा। जगदीश राज हर तरह के पुलिसवाले की भूमिका में नजर आए। सिनेमाई पर्दे पर 50 साल लंबे करियर में जगदीश राज का नाम इतना लोकप्रिय था कि फिल्म की पटकथा लिखते वक्त ही तय हो जाता था कि इस सीन में पुलिस वाले का किरदार तो जगदीश राज ही निभाएंगे। फिर चाहे देव आनंद की 'सीआईडी' हो या 'जॉनी मेरा नाम', अमिताभ बच्चन की 'डॉन' हो या 'दीवार' पुलिस की वर्दी में जगदीश राज ही नजर आए।जगदीश राज का जन्म 1928 में अंग्रेजी हुकूमत के दौर में पंजाब के सरगोढ़ा में हुआ। यह अब पाकिस्तान में है। 85 साल की उम्र में जगदीश राज इस दुनिया को अलविदा कह गए। 28 जुलाई 2013 को मुंबई के जुहू इलाके में अपने घर पर उन्होंने आखिरी सांसें लीं। वह सांस में तकलीफ की बीमारी से जूझ रहे थे।उन्होंने अपने दौर के लगभग सभी टॉप के कलाकारों के साथ काम किया। उनकी प्रमुख फिल्में हैं- 'गैम्बलर', 'काला बाजार', 'दो चोर', 'सिलसिला', 'हम दोनों', 'नसीब', 'बोल राधा बोल', 'बेवफा सनम' सीआईडी, 12 ओ क्लॉक, कानून, वक्त, रोटी, इत्तेफ़ाक, सफर, जॉनी मेरा नाम आदि फि़ल्मों में पुलिस निरीक्षक का अभिनय मिलने के बाद इन्होंने पुलिस की वर्दी सिलवा ली थी और फि़ल्म निर्माता का फोन आते ही वर्दी के साथ शूटिंग पर पहुंच जाते थे।यह दिलचस्प है कि जगदीश राज खुराना का नाम जब गिनीज बुक में दर्ज करवाने के पीछे एक हॉलिवुड के कास्टिंग डायरेक्टर का हाथ है। हॉलिवुड के एक कास्टिंग डायरेक्टर ने उनकी फिल्मों की लंबी लिस्ट देखकर ही गिनीज बुक की टीम को जांच के लिए मुंबई बुलवाया था। जब नाम दर्ज हो गया तो उसके बाद उन्हें 'लोहा' और 'नाइंसाफी' फिल्म में पुलिस कमिश्नर का रोल मिला। इस पर एक्टर ने कहा था, 'चलो, इसी बहाने मेरा प्रमोशन तो हुआ।'जगदीश राज अपने पीछे दो बेटियां और एक बेटा बॉबी राज छोड़ गए हैं। 80 और 90 दशक की एक्ट्रेस अनिता राज, जगदीश राज की ही बेटी हैं। उनकी दूसरी बेटी का नाम रूपा मल्होत्रा हैं। जगदीश राज ने साल 1992 में फिल्मों से संन्यास ले लिया था। जबकि उनकी आखिरी फिल्म साल 2004 में रिलीज हुई। अक्षय कुमार और श्रीदेवी की इस फिल्म में भी जगदीश राज पुलिस वाले की भूमिका में थे। वे इस बार डीआईजी बने थे।
- मदर्स डे 9 मई पर विशेषमां और बच्चों का रिश्ता इस दुनिया का सबसे खूबसूरत रिश्ता है, जो बगैर किसी शर्त और बगैर किसी उम्मीद के बेपनाह प्यार के साथ पूरा होता है। मां शब्द के लिए दुनियाभर के साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है। मां ही दुनिया में ईश्वर द्वारा बनाई गई एक ऐसी कृति है, जो निस्वार्थ भाव में मरते दम तक अपने बच्चों पर प्यार लुटाती रहती है। जानिए मदर्स डे का इतिहास और महत्व------मदर्स डे का इतिहास9 मई 1914 को अमेरिकी प्रेसिडेंट वुड्रो विल्सन ने एक कानून पास किया था और इस कानून के मुताबिक हर वर्ष मई माह के हर दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया गया। इसके बाद ही मदर्स डे अमेरिका, भारत सहित कई दूसरे देशों में भी मनाया जाने लगा।गौरतलब है कि सबसे पहले Mothers Day मनाने की शुरुआत अमेरिका से हुई थी। अमेरिका में एक सामाजिक कार्यकर्ता थी, जिसका नाम एना जार्विस था और अपनी मां से बहुत प्यार करती थीं, यह कारण था कि उन्होंने न कभी शादी की और न कोई बच्चा पाला। मां की मौत होने के बाद प्यार जताने के लिए एना जार्विस ने मई माह के दूसरे रविवार को मदर्स डे के रूप में मनाने की शुरुआत की थी। फिर धीरे-धीरे कई देशों में मदर्स डे मनाया जाने लगा। अब दुनिया के अधिकांश देशों में मदर्स डे मनाया जाता है।मदर्स डे का महत्वअपनी मां के त्याग, बलिदान, करुणा, दया और निःस्वार्थ प्रेम के प्रति आभार प्रकट करने के लिए मदर्स डे मनाया जाता है। बदलते समय के साथ मदर्स डे को मनाने के तरीके भी जरूर बदलते जा रहे हैं, लेकिन इन दिन को मनाने का उद्देश्य आज भी नहीं बदला है। अपनी मां के प्रति प्यार जताने के लिए आजकल कई लोग मां को गिफ्ट्स, कार्ड्स या कुछ खास चीज देते हैं। वैसे तो मां को प्यार करने और तोहफे देने के लिए किसी खास दिन की जरूरत कभी नहीं पड़ती लेकिन फिर भी मदर्स डे के दिन मां को सम्मान दिया जाता है।
- पुण्यतिथि पर विशेषअपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री नरगिस को इंडियन सिनेमा की क्वीन माना जाता है। वह अपनी सौम्यता, अपने आत्मविश्वास और सबसे ज्यादा अपनी आंखों के लिए मशहूर थीं। फिल्मों के जानकार कहते हैं कि शायद ही नरगिस के बाद कोई ऐसी ऐक्ट्रेस हुई हो जिसकी आंखें उनके जितनी सुंदर और बोलने वाली हों। आज ही के दिन वर्ष 1981 में कैंसर जैसी बीमारी ने उन्हें अपने परिवार और प्रशंसकों से हमेशा के लिए दूर कर दिया।नरगिस का जन्म 1 जून 1929 को कोलकाता में हुआ था और उनका असली नाम फातिमा राशिद था। नरगिस बचपन में अपने भाई अनवर हुसैन और अख्तर हुसैन के साथ फुटबॉल और क्रिकेट खेलती थीं। बात जब कॅरिअर की आई तो उन्होंने फिल्मों का रुख किया।फिल्मों में उनकी जोड़ी सबसे ज्यादा राजकपूर के साथ पसंद की गई। दोनों ने अनेक हिट फिल्में दी जिसके गाने आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं। दोनों के अफेयर के किस्से भी खूब उड़े। राजकपूर कहा करते थे कि कृष्णा भले ही उनके बच्चों की मां हैं, लेकिन उनकी फिल्मों की मां तो नरगिस ही है। फ़स्र्ट फ़ैमिली ऑफ़ इंडियन सिनेमा- द कपूर्स किताब में लिखा है नरगिस ने अपना दिल, अपनी आत्मा और यहां तक कि अपना पैसा भी राज कपूर की फि़ल्मों में लगाना शुरू कर दिया। जब आर के स्टूडियो के पास पैसों की कमी हुई तो नरगिस ने अपने सोने के कड़े तक बेच डाले। उन्होंने आरके फि़ल्म्स के कम होते खज़़ाने को भरने के लिए बाहरी प्रोड्यूसरों की फि़ल्मों जैसे अदालत, घर संसार और लाजवंती में काम किया। बाद में राज कपूर ने उनके बारे में एक मशहूर लेकिन संवेदनहीन वकतव्य दिया, मेरी बीवी मेरे बच्चों की मां है, लेकिन मेरी फि़ल्मों की मां तो नरगिस ही है। राज कपूर के छोटे भाई शशि कपूर बताते थे- नरगिस आर के फि़ल्म्स की जान थीं। उनका कोई सीन न होने पर भी वो सेट्स पर मौजूद रहती थीं।नरगिस ने मदर इंडिया, आग, बरसात, अंदाज, आधी रात, आवारा, श्री 420 और नया दिन नई रात जैसी तमाम हिट फिल्मों में काम किया। उनकी मदर इंडिया ऐसी भारतीय फिल्म थी जो पहली बार ऑस्कर के नॉमिनेशन तक पहुंची। यही वह फिल्म थी जिसके बाद नरगिस और सुनील दत्त ने शादी का फैसला किया। फिल्म में सुनील दत्त भी अहम रोल में थे।शादी में सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि नरगिस मुस्लिम और सुनील हिंदू थे। दोनों का अफेयर काफी सुर्खियों में रहा। कहा जाता है कि इस बात को जानकर मुंबई का एक काफी नामी डॉन नाराज हो गया था। डॉन ने सुनील दत्त को धमकी तक दे डाली मगर सुनील साहस दिखाते हुए डॉन के पास पहुंच गए। डॉन से सुनील दत्त ने कहा, मैं नरगिस से बेहद मोहब्बत करता हूं और शादी करना चाहता हूं। मैं उन्हें जिंदगीभर खुश रखूंगा। अगर आपको यह गलत लगता है तो मुझे गोली मार दीजिए और सही लगता है तो गले लगा लीजिए। सुनील की यह बात सुनकर डॉन काफी खुश हुआ और उन्हें गले लगा लिया। इसके बाद दोनों ने साल 1958 में शादी कर ली। ये शादी तब तक गुप्त रखी गई जब तक मदर इंडिया रिलीज़ नहीं हुई, क्योंकि इस फि़ल्म में सुनील दत्त नरगिस के बेटे का रोल निभा रहे थे।कहा जाता है कि नरगिस की शादी के निर्णय पर राजकपूर फूट-फूट कर रोये थे। यहां तक जब 3 मई 1981 को नरगिस का निधन हुआ, तो उनके जनाने में राज कपूर आम लोगों के साथ सबसे पीछे चल रहे थे। हर कोई उन्हें आगे उनके पार्थिव शरीर के पास जाने के लिए कह रहा था। लेकिन उन्होंने उनकी बात नहीं मानी। उनकी आँखों पर धूप का चश्मा लगा हुआ था। वो धीमे से बुदबुदाए थे, एक-एक करके मेरे सारे दोस्त मुझे छोड़ कर जा रहे हैं।नरगिस की मौत पैंक्रियाटिक कैंसर की वजह से हुई थी। उस वक्त उनके बेटे संजय दत्त की उम्र 22 साल थी। अगस्त 1980 में नरगिस बीमार हो गई थीं उस वक्त उन्हें पीलिया बताया गया था। उन्हें मुंबई के ब्रीचकैंडी अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन उनकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। जांच के बाद पता चला कि उन्हें कैंसर है। इलाज के लिए नरगिस न्यूयॉर्क भी गई थीं जब वो भारत लौटीं तो उनकी तबीयत बिगड़ती चली गई। करीब 10 महीने कैंसर से जंग के बाद उनकी मौत हो गई। (छत्तीसगढड़ॉटकॉम विशेष)
- पुण्यतिथि पर विशेष---आलेख- मंजूषा शर्मारायपुर। फिल्म इंडस्ट्री में जब भी चॉकलेटी, रोमांटिक हीरो की बात चलेगी, तो इसमें ऋषि कपूर का नाम भी शुमार होगा। एक साल पहले आज ही के दिन अपने परिवारजनों और प्रशंसकों को गमगीन करके वे हमेशा के लिए इस दुनिया से चले गए। अब बस रह गई हैं, तो उनकी यादगार फिल्में, उनका मस्तमौला अंदाज, उनके सुपरहिट गाने और उनके डांस का वो अलहदा अंदाज, जिसने अपने दौर में सबको अपना दीवाना बना दिया था।फिल्म बॉबी में जब उनके पिता राजकपूर ने उन्हें एक रोमांटिक हीरो के रूप में प्रस्तुत किया, तो लोग उन्हें देखते ही रह गए। उनका अंदाज, उनकी स्टाइल, डिंपल कपाडिय़ा के साथ उनकी खूूबसूरत जोड़ी, सभी ने इस फिल्म को हिट बना दिया था। सही मायने में इस फिल्म ने राजकपूर को घाटे से उबार दिया था। न सिर्फ राजकपूर बल्कि नासिर हुसैन और न जाने कितने ही निर्माता-निर्देशकों को ऋषि ने आर्थिक संकट से उबारा था। फिल्मों में ऋषि कपूर द्वारा पहने गए स्वेटर्स काफी पसंद किए जाते थे।4 सितम्बर 1952 को जन्मे ऋषि कपूर ने पहली बार अपने पिता की फिल्म श्री 420 में बाल कलाकार के रूप में काम किया था। फिल्म के एक गाने प्यार हुआ इकरार हुआ,... में गोलमटोल ऋषि अपने भाई रणधीर और बहन रीमा के साथ नजर आए थे। इसकी शूटिंग के लिए फिल्म की नायिका नरगिस को ऋषि को बहुत सी चॉकलेट देकर मनाना पड़ा था।उसके बाद उन्होंने मेरा नाम जोकर फिल्म में राजकपूर के बचपन का रोल निभाया था। फिल्म में गोटमटोल ऋषि को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि एक दिन यह बच्चा हैंडसम और चॉकलेटी हीरो के रूप में सबके दिलों पर राज करेगा। इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।बतौर हीरो ऋषि की पहली फिल्म बॉबी है। ऐसा माना जाता है कि राज कपूर ने अपने बेटे ऋषि कपूर को लांच करने के लिए बॉबी बनाई थी। इस बात की हकीकत बताते हुए ऋषि कपूर ने कहा था कि मेरा नाम जोकर फिल्म की असफलता के बाद उनके पिता राज कपूर के आर्थिक हालात बिगड़ चुके थे जिसकी वजह से वह एक टॉप स्टार को फिल्म के लिए साइन नहीं कर पाए थे। राज कपूर ने एक टीनएज रोमांटिक फिल्म बॉबी प्लान की और इसके लिए उन्होंने ऋषि को चुना। इस फिल्म के लिए उन्हें पहला फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। बॉबी की जबरदस्त सफलता के बाद ऋषि 90 से ज्यादा फिल्मों में रोमांटिक रोल करते नजर आए। कहा जाता है कि बॉबी की शूटिंग के दौरान डिम्पल को ऋषि पसंद करने लगे थे। उन्हें प्रपोज करना चाहते थे, लेकिन डिम्पल ने अचानक राजेश खन्ना से शादी कर सभी को चौंका दिया। राज कपूर ने फिल्म हिना ऋषि कपूर को लेकर ही प्लान की थी, लेकिन उनकी मृत्यु हो गई। बाद में रणधीर कपूर ने इस फिल्म का निर्देशन किया और हीरो के रूप में ऋषि को ही लिया।नीतू कपूर के साथ ऋषि की जोड़ी को बेहद पसंद किया गया। खासतौर पर युवा इस जोड़ी के दीवाने थे। दोनों ने कई फिल्में की और अधिकांश सफल रही। दोनों के बीच अच्छी बॉडिंग थी और यही बॉडिंग शादी के बाद भी उनके जीवन में बनी रही। फिल्म अमर अकबर एंथोनी के एक सीन में ऋषि ने नीतू कपूर को उनके असली नाम नीतू से बुलाया है। इस गलती को ठीक नहीं किया गया और फिल्म के एक दृश्य को आज भी देखा जा सकता है, जबकि नीतू ने फिल्म में मुस्लिम लड़की का किरदार निभाया था।अपनी कोर्टशिप के समय ऋषि बहुत स्ट्रीक्ट बॉयफ्रेंड थे और नीतू को शाम 8:30 के बाद काम करने के लिए मना करते थे। ऋषि कपूर शूटिंग के समय नीतू सिंह के साथ सेट पर शरारतें कर उन्हें तंग करते थे और नीतू को इससे बेहद चिढ़ थी। अमर अकबर एंथोनी फिल्म के सेट पर ऋषि ने नीतू के चेहरे पर काजल फैला दिया था। इस वजह से नीतू को फिर से मेकअप करना पड़ा था। नीतू सिंह की मम्मी नीतू के ऋषि के साथ घूमने के खिलाफ थीं। जब भी यह जोड़ा डेट पर जाता नीतू की कजिन को भी उनकी मां साथ में लगा देती थीं। ऋषि के साथ रिश्ते की शुरुआत के समय नीतू फिल्म इंडस्ट्री में जगह बनाने की कोशिश में थीं, जबकि ऋषि एक सफल अभिनेता थे। नीतू और ऋषि की पहली फिल्म जहरीला इंसान थी। बाद में उनकी काफी धूमधाम से शादी हुई और यह जोड़ी फिल्म इंडस्ट्री की सबसे सफल जोडिय़ों में से एक रही।यश चोपड़ा की फिल्म चांदनी से ऋषि के कॅरिअर में एक बार फिर उछाल आया। श्रीदेवी के साथ उनकी जोड़ी काफी पसंद की गई। वहीं जयाप्रदा के साथ उन्होंने सरगम जैसी सुमधुर गीतों से सजी फिल्म की। ऋषि कपूर के साथ 20 से ज्यादा अभिनेत्रियों ने अपना करिअर शुरू किया।पिछले कुछ सालों से उन्होंने अपने किरदारों में विविधता लाने का प्रयास किया था। 2012 में आई फिल्म अग्निपथ में ऋषि ने विलेन की भूमिका निभाई। वे खोज फिल्म में भी नकारात्मक किरदार निभा चुके थे। करण जौहर के बैनर धर्मा प्रोडक्शन के तले बनी फिल्म स्टूडेंट ऑफ द ईयर में ऋषि कपूर का किरदार गे था। .ऋषि ने एक अंग्रेजी फिल्म भी की है। डोंट स्टॉप ड्रीमिंग (सपने देखना बंद मत कीजिए) को शम्मी कपूर के बेटे आदित्य राज कपूर ने निर्देशित किया था।ऋषि कपूर ने एक फिल्म भी निर्देशित की। ऐश्वर्या राय और अक्षय खन्ना को लेकर उन्होंने आ अब लौट चलें बनाई, लेकिन यह सफल नहीं हो पाई। ऋषि और नीतू कपूर के बेटे रणबीर कपूर के अलावा उनकी एक बेटी रिद्धिमा कपूर साहनी भी है, जो पेशे से फैशन डिजाइनर हैं। वहीं रणबीर कपूर फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय हैं।तीन साल पहले ऋषि की फिल्म मंटो रिलीज हुई थी। उनसे बाद से वे फिल्मों से अलग से हो गए थे। कैंसर की बीमारी से वे जीतकरवे भारत तो आ गए थे, लेकिन किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया।सोशल मीडिया पर रहते थे एक्टिवऋषि कपूर सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय रहते थे। उन्होंने अपना अंतिम ट्वीट 2 अप्रैल 2020 को किया था। इस दिन उन्होंने अपनी फिल्म सरगम के एक गाने राम जी की निकली सवारी, का वीडियो शेयर किया था।पिछले साल अभिनेत्री निम्मी की मृत्यु पर भी उन्होंने निम्मी को याद करते हुए उनके निधन पर शोक व्यक्त किया था। कभी- कभार उनके ट्वीट से विवाद भी खड़ा हो जाता था। लेकिन उन्हें ट्रोल करने वालों को ऋषि अपने अंदाज में जवाब भी देते थे। ऋषि कभी किसी भी तरह की आलोचना की परवाह नहीं करते थे। अपने पिता की तरह ही वे बिंदास जिदंगी जीने पर विश्वास करते थे और जीवन के अंतिम दिनों तक उनका यह अंदाज कायम रहा।
- - अहिरावण वध की याद दिलाती है वीर हनुमान की प्रतिमा- गोविन्द पटेल, धमधा रायपुरधमधा (दुर्ग)। तुलसीदास कृत रामचरित मानस के लंकाकांड में एक प्रसंग है, अहिरावण वध। जी हां, धमधा के दक्षिणमुखी हनुमान की प्रतिमा उसी अहिरावण वध के प्रसंग पर आधारित है। रावण के सभी वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए, जिसके बाद उसने पाताल लोक के अहिरावण से सहायता मांगी। अहिरावण अपनी माया से विभीषण का भेष धारण कर राम के युद्ध छावनी में पहुंच गए और अपनी शक्ति से अंधेरा करके राम-लक्ष्मण को उठाकर पाताल लोक ले गए।जब छावनी में राम-लक्ष्मण नहीं मिले तो सभी चिंतित हुए। उस समय वीर हनुमान ने बताया कि विभीषण जी रात में राम-लक्ष्मण के पास गए थे। तब विभीषण कहते हैं कि मेरा रूप धरने की कला अहिरावण के पास ही है, वही राम-लक्ष्मण को उठाकर ले गया होगा। उसके बाद वीर हनुमान पाताल लोक जाते हैं, वहां उनके पुत्र मकरध्वज से युद्ध लड़ते हैं फिर अहिरावण के हवन को देखते हैं। उसी समय फूलों के जरिए हनुमान अहिरावण की कुलदेवी के पास पहुंचकर देवीरूप बना लेते हैं और अहिरावण के पूजा में चढ़ाए वस्तुएं ग्रहण कर लेते हैं। जब राम-लक्ष्मण को देवी के पास बलि के लिये लाया जाता है तो अहिरावण कहते हैं कि अपने ईष्टदेव को आखिरी बार याद कर लो। तब राम कहते हैं कि राक्षसों तुम्हारा अंतिम समय आ चुका है, अब तुम्हारा नाश तुम्हारी कुलदेवी ही करेगी। इसके बाद वीर हनुमान सभी राक्षसों पर टूट पड़ते हैं।उस प्रसंग में राक्षस कहते हैं किनिशिचर सकल त्रसित में भारी, कहहिं बचन भय हृदय विचारी।अहिरावण भल कीन्ह न काजू, आने कपट वेष सुरराजू।।अर्थात् पाताल लोक के सभी राक्षस सोचते हैं कि हमारे राजा अहिरावण में कपटवेश धारण कर राम-लक्ष्मण को हर लाये। इसीलिये हमारी देवी रूठ गई है। अहिरावण का वध वीर हनुमान ने इसी देवीरूप में की थी, जिसकी प्रतिमा धमधा के बजरंग चौक स्थित हनुमान मंदिर में प्रतिष्ठित है।इसका अर्थ यह दावा करने का नहीं है कि यह मूर्ति रामायण काल की है, बल्कि यह प्रतिमा उस घटना की याद दिलाती है और वीर हनुमान के देवीरूप को दर्शाता है।इस प्रतिमा को धमधा के अलबख्सा तालाब के पास खेत से प्राप्त की गई थी। आज भी उस खेत को खाली छोड़कर रखा गया है। यहां पहले पुजारी ब्रम्हचारी जी महाराज हुए। उन्होंने इस मंदिर की ख्याति और गरिमा को अनूठी प्रतिष्ठा दिलाई। पुजारी का आकलन है कि पूरे भारत में हनुमान जी की देवीरूपी प्रतिमा कहीं देखने-सुनने को नहीं मिलती, केवल यहीं हनुमान जी देवी रूप में हैं। खड्ग और खप्पर है, जो देवी के भूषण हैं।-
- दास्ताँनें यूं ही खत्म नहीं होती काया चली जाती है,परंतु छाया की माया का वजूद कायम रहता है।डॉ. सुभाष पांडे को उनके जीवन काल में अपनी काया से ऐसी माया मिली जिसकी छाया उनका परिचय बन गई है। जनसेवा के मार्ग के अनुयायी, सच्चे समाज सेवक, प्रेम, निष्ठा, कर्तव्य, क्रांति एवं निडरता की निर्झरिणी के रूप में सुभाष बाबू का परिदृश्य उभरता रहेगा। डॉक्टर पांडे समाज के वह अग्रगण्य व्यक्ति थे, जिनके सिद्धांतों, उदारता एवं जीवंत स्वभाव के आधार पर नए समाज और नई संस्कृति की रचना हो सकती है। अपने कर्तव्यों को पूरा कर डॉ पांडे अनंत यात्रा की ओर, अन्य ग्रह मंडल को आलोकित करने निकल पड़े हैं या फिर आसमान की चादर पर यादों का सितारा बनकर जगमगाने लगे हैं।डॉ पांडे का जीवन वह अफसाना है जिसे अंजाम का मुकाम हासिल नहीं हुआ। हिमालयी वैचारिक ऊंचाइयों और चट्टानी इरादों के पर्याय रहे डॉ सुभाष पांडे की विदाई असामयिक एवं जनमानस की कोरोना जैसे विराट युद्ध के लिए समाज एवं स्वास्थ्य विभाग को पूर्ण भक्ति से समर्पित है। उनका जीवन सम्मोहन एवं किसी फिल्म दृश्य व गीत से परिपूर्ण था, जो सुरीली यादें बनकर यकीनन हमारे मस्तिष्क में चिरस्थाई छवि अंकित कर बाकी की जिंदगानी को खुशगवार रखने का जरिया बन गया।सिलसिला 1956 से आरंभ होता है। साधारण मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे डॉ सुभाष पांडे बाल्यावस्था से ही चंचल स्वभाव, गीत संगीत के कद्रदान, सिने प्रेमी, बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनके पिता प्रो.जय नारायण पांडे राजनीति शास्त्र व अंग्रेजी के अध्यापक रहे। छत्तीसगढ़ अंचल में फ्रीडम मूवमेंट का प्रतिनिधित्व करते हुए प्रो. जय नारायण पांडे ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में अपनी अविस्मरणीय छवि स्थापित की। मात्र 9 वर्ष की अल्प आयु में पिता की असामयिक मृत्यु ने नन्हे सुभाष को झकझोर कर रख दिया। उनके व्यक्तित्व निर्माण की धारा में उनकी माता स्वर्गीय श्रीमती श्याम कुमारी पांडे जी का परोक्ष योगदान रहा।उनका परिवार तीन पीढिय़ों से नयापारा , रायपुर का स्थायी निवासी है। अद्भुत तार्किक शैली और विषय की गूढता के साथ वाद विवाद प्रतियोगिता एवं गीत संगीत के प्रति उनकी असाधारण रुचि रही। सुभाष पांडे जी की ख्याति रायपुर गवर्नमेंट स्कूल के ऑलराउंडर छात्र के रूप में थी। कालांतर में उन्होंने रायपुर के शासकीय चिकित्सा महाविद्यालय से एमबीबीएस की डिग्री प्राप्त की। इस दौरान उनके स्नेही कोमल ह्रदय वाले, मासूमियत, शरारती स्वभाव की प्रभावी छाप स्मृति का पर्याय बन आनंद की अनुभूति बनी रही। साथी-संगवारियों के साथ नाटिका में अनारकली की भूमिका हो या अपने सिनेमा के प्रति प्रेम से उपजे आनंद के चरमोत्कर्ष को एकमुश्त बांटने की चाहत, उन्हें अन्य लोगों से एक अलग छवि प्रदान करती थीं।उच्च शिक्षा हेतु डॉ पांडे ने मुंबई नगरी की ओर रुख किया, जहां से वे अपने जीवन काल के उस दौर के संघर्ष, जनमानस के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण एवं वास्तविक जिंदगी में व्यावहारिक भाईचारे की चिंतनधारा के प्रत्यक्षदर्शी बने। विद्यार्थी जीवन में जिस कर्मठता का परिचय उन्होंने दिया, अंत काल तक निष्ठा का बुनियादी गुण, निडरता, समाज सेवा, कर्तव्यपरायणता उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को निर्भरणी के माध्यम से सतत् बहने वाली ज्ञान धारा का प्रवाह निर्वाध गति से जनहित में जारी रखा।डॉ पांडे ने शासकीय सेवा द्वारा अंचल में कुछ ऐसी मिसाल कायम की, जिस पर कलम चलाने पर फक्र महसूस होता है। राज्य विभाजन के पश्चात उन्होंने छत्तीसगढ़ स्वास्थ्य सेवाओं में टीकाकरण अधिकारी होते हुए 15 वर्षों तक यह जिम्मेदारी संभाली। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने पल्स पोलियो अभियान, शिशु संरक्षण अभियान, इंद्रधनुष अभियान, आयोडीन जनित रोगों से जुड़े अभियान के परिपेक्ष में अपनी उत्कृष्टता को प्रमाणित किया।जब-जब डॉ. पांडे ने मंच पर अपनी वशीकरण मंत्र वाली भाषा का प्रयोग किया उनकी ओजस्वी वाणी, शब्द विन्यास मर्म और उस लहजे ने लोगों को वशीभूत किया। उनका विषय वस्तु पर केंद्रित अध्ययन गूढता लिए हुए थ। अपने कार्यकाल में अनेक बार प्रशस्ति प्राप्त करते हुए डॉ पांडे अलंकृत हुए एवं पदोन्नति प्राप्त कर दुर्ग क्षेत्र के सीएमएचओ के रूप में पदस्थ रहे।कार्यकुशलता का प्रमाण देते हुए डॉ पांडे ने संयुक्त संचालक स्वास्थ्य सेवाएं, छत्तीसगढ़ का कार्य संपादित किया। इसके पश्चात् वे कोरोना नियंत्रण के राज्य नोडल अधिकारी के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते रहे। कोरोना से जंग के प्रथम चरण में डॉ सुभाष ने पराक्रम का परचम लहराया एवं निरंतर अपने कार्यों द्वारा जिम्मेदारियों को निभाते हुए दूसरी बार कोरोना से पीडि़त हो गए। डॉ पांडे ने चिकित्सालय में भर्ती होने के उपरांत भी अपनी कार्यालयीन जिम्मेदारियों का निर्वहन किया।डॉ. पांडे की निष्ठा, निडरता, कर्तव्यपरायणता एवं कर्म निश्चिता का खामियाजा उनके परिजनों ने चुकाया। 14 अप्रैल 2021 को 64 वर्ष की आयु में डॉ पांडे के जीवनपट की यवनिका गिरने के बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि पृथ्वी लोक में फरिश्ते इंसानी शक्ल लिए समाज को इंसानी इबारतें सिखलाने आते हैं। डॉ सुभाष पांडे उन्हीं फरिश्तों में से एक रहे हैं। यथार्थवादी पथप्रदर्शक की यशस्वी गाथा, डॉ. सुभाष पांडे चंद्रमणि की तरह चमकती रहेगी।आलेख- डॉ. यथार्थ पांडे
- जाने-माने अभिनेता मनोज कुमार किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, 60 के दशक में बॉलीवुड के सुपरस्टार रह चुके इस एक्टर ने अपने दौर में लगभग सभी टॉप की नायिकाओं के साथ फिल्में की। भारत कुमार के रूप में उन्होंने देशभक्ति पूर्ण फिल्मों की एक श्रंृखला शुरू की और इन्हीं फिल्मों से उन्होंने लोकप्रियता भी हासिल की। आज हम उनकी लव लाइफ के बारे में चर्चा कर रहे हैं।मनोज कुमार ने बॉलीवुड को एक से बढ़कर एक कई हिट फि़ल्में दी थी। उनकी गिनती सिनेमा के दिग्गज अभिनेताओं में होती है। बेहतरीन अभिनय के लिए मनोज कुमार को 'पद्मश्री' और 'दादा साहब फाल्के' पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। लेकिन इनकी निजी लाइफ के बारे में कम ही लोगों को पता होगा। मनोज कुमार की चाची ने उनका नाम 'हरिकृष्ण गोस्वामी' रखा था। कॉलेज के दिनों में उन्होंने अपना नाम बदलकर मनोज कुमार रख लिया। दरअसल, वह सिनेमा के महान अभिनेता दिलीप कुमार के बहुत बड़े फैन थे और उन्होंने उनकी फिल्म 'शबनम' को देखने के बाद उनके अभिनय से प्रेरित होकर खुद का नाम 'मनोज कुमार' रख लिया।साल 2013 में, महान अभिनेता मनोज कुमार और उनकी पत्नी, शशि गोस्वामी का दैनिक जागरण के साथ एक इंटरव्यू हुआ था। ये पहला मौक़ा था, जब उन्होंने अपनी प्रेम कहानी के बारे में खुलकर बात की थी। इंटरव्यूवर ने मनोज कुमार से उनकी पत्नी शशि के साथ हुई पहली मुलाकात के वक्त क्या कुछ हुआ था? उस पर थोड़ा प्रकाश डालने के लिए कहा, जिसके बाद एक्टर मनोज कुमार ने अपनी प्रेम कहानी के बारे में तमाम बातों का खुलासा किया।मनोज कुमार ने बताया- ''मैं पढ़ाई के लिए अपने एक दोस्त के घर पुरानी दिल्ली जाया करता था, और उसी वक्त मैंने शशि को अपने जीवन में पहली बार देखा था। भगवान की कसम, मैंने अपने पूरे जीवन में कभी किसी लड़की को बुरी नीयत के साथ नहीं देखा था। लेकिन शशि के अंदर एक अलग सा जादू था। जो बार-बार मेरी आंखों को खींचकर उसके चेहरे की तरफ ले जाता था। तकरीबन डेढ़ साल तक हम दोनों एक-दूसरे को दूर से ही निहारते रहे, क्योंकि उस वक्त हम दोनों में से किसी एक की भी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि एक-दूसरे से कुछ बात कर सकें।मनोज कुमार ने आगे कहा-, ''हम अपने कुछ दोस्तों की मदद से शशि के साथ दिल्ली के एक चर्चित सिनेमाघर, 'ओडियन सिनेमा' में एक बार एक फिल्म देखने के लिए गए थे। उस मूवी का नाम 'उडनखटोला' था। अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने के बाद, हमने आगे चलकर और जल्दी-जल्दी मिलना शुरू कर दिया था। उस वक्त मेरे घरवालों को भी हमारे रिश्ते से कोई एतराज नहीं था। जबकि शशि की मां और उसके भाई इस रिश्ते के खिलाफ थे।'' ,'' हम दोनों में से कोई भी पकड़ा न जा सके, इसलिए मैं अपने स्कूल की छत और शशि अपने घर की छत पर खड़ी हुआ करती थी, ताकि हम दोनों एक दूसरे को देख सकें।'' आखिर प्रेम की जीत हुई और शशि जीवन भर के लिए उनकी संगिनी बन गईं।मनोज कुमार ने बताया कि- ''शादी के बाद मेरी फिल्म 'हरियाली और रास्ता' ब्लॉकबस्टर साबित हुई है। मुझे अपने जीवन में ये सबसे बड़ा परिवर्तन देखने को मिला है। इस फिल्म ने मुझे और मेरी पत्नी दोनों को सुपरस्टार बना दिया था। लेकिन शशि हर समय इसका क्रेडिट ले लेती हंै।"
- बंगाल मूल के फिल्मकार सत्यजीत राय विश्व के महान फिल्मकारों में निर्विवाद रूप से गिने जाते हैं। उन्होंने जिंदगी में अधिकतर बंगाली भाषा में ही फिल्में बनाईं, लेकिन प्रतिष्ठा के मामले में उनकी फिल्में हिंदी भाषा की कमर्शियल बॉलीवुड फिल्मों से बहुत ऊपर रखी जाती थीं। जानते हैं वो किस्सा बॉलीवुड की सुपरस्टार एक्ट्रेस वहीदा रहमान को जब बंगाल के इस डायरेक्टर ने अपनी छोटी सी फिल्म करने के लिए विनम्र होकर फोन किया, तो वहीदा का क्या जवाब था?दरअसल, 1962 में रिलीज हुई सत्यजीत राय की फि़ल्म अभिजान में वहीदा रहमान ने गुलाबी का रोल किया था। ये फि़ल्म वहीदा ने तब चुनी जब वो प्यासा (1957), कागज़ के फूल (1959)और चौदहवीं का चांद (1960) जैसी फि़ल्मों से बहुत बड़ी स्टार बन चुकी थीं। इसमें उनकी कास्टिंग यूं हुई, कि सत्यजीत राय ने किसी के ज़रिए वहीदा के घर पत्र भिजवाया जिसमें लिखा था, "मेरे लीडिंग मैन सौमित्र चैटर्जी और मेरी यूनिट का मानना है कि मेरी अगली फि़ल्म की हीरोइन गुलाबी के रोल में आप सबसे उपयुक्त हैं। अगर आप ये रोल करने को हां कहती हैं तो मुझे बड़ी खुशी होगी।"पत्र पाकर वहीदा बहुत खुश हुईं कि सत्यजीत राय जैसे फि़ल्मकार ने उन्हें इस रोल में सोचा। कुछ दिन बाद वहीदा ने सत्यजीत राय को फोन किया जो सामने से बोले, "वहीदा, आप हिंदी फि़ल्मों में बहुत सारा पैसा कमाती हो। मैं छोटे बजट वाली छोटी फि़ल्में बनाता हूं।" इस पर वहीदा ने जवाब दिया, "साहब, मुझे क्यों लज्जित कर रहे हैं? मेरे लिए ये गर्व की बात है। आपने अपने साथ काम करने की बात करके मुझे इतना सम्मान दिया है। पैसे की कोई समस्या नहीं है। आप आगे से इसका जिक्र नहीं करना।"इस तरह से वहीदा ने सत्यजीत राय के हिसाब से ही यह फिल्म की। इस फिल्म में मशहूर किशोर कुमार की पहली पत्नी रुमागुहा ठाकुरदा और सौमित्र चटर्जी जैसे कलाकारों ने भी अभिनय किया था। फिल्म की कहानी ताराशंकर बंध्योपाध्याय ने लिखी थी।
- पुण्यतिथि पर विशेषआलेख-मंजूषा शर्माअंग्रेजी कवि लार्ड बायरन ने कहा था - ईश्वर जिन्हें प्यार करता है, वे जवानी में मर जाते हैं। नूतन के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। नूतन अभी सक्रिय ही थीं, कि ऊपर से बुलावा आ गया। वे बॉलीवुड में हर तरह की भूमिकाएं निभा रही थीं। फिल्मकार और अभिनेता विजय आनंद उन्हें सबसे अच्छी अभिनेत्री मानते थे। वे उन अभिनेत्रियों में थीं, जिन्हें अभिनय जन्मजात मिला हुआ था।---वर्ष 1956 में नूतन स्टार बनीं और उसी वर्ष उन्हें फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार फिल्म सीमा (1956) के लिए मिला। उसके बाद पांच बार उन्होंने यह पुरस्कार जीता। बिमल राय की सुजाता और बंदिनी, सुब्बा राव की मिलन और राजखोसला की फिल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की, के साथ ही फिल्म मेरी जंग में शानदार काम के लिए विशेष प्रशस्ति पत्र मिला।युवा दिलीप कुमार की नायिका न बन पाने का अफसोसनूतन की युवा दिलीप कुमार की नायिका न बन पाने का अफसोस हमेशा रहा। उनकी मौसी नलिनी जयवंत फिल्म शिकस्त में दिलीप कुमार की नायिका थीं। नूतन फिल्म शिवा में उनकी नायिका बनने जा रही थी, पर रमेश सहगल की इन दो फिल्मों से केवल शिकस्त बन पाई और नूतन की इच्छा अधूरी रह गई। हालांकि इस फिल्म के लिए दो गीत लता मंगेशकर की आवाज में रिकॉर्ड भी किए जा चुके थे। बाद में फिर नूतन को कोई भी फिल्म दिलीप साहब के साथ नहीं मिली, जबकि वे उस दौर की लोकप्रिय और सफल नायिका थीं। जब सुभाष घई की फिल्म कर्मा में उन्हें दिलीप कुमार की पत्नी का रोल निभाने का मौका मिला, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसके बाद दोनों ने फिल्म कानून अपना अपना में भी साथ काम किया।अनारकली न बन पाईं नूतनबहुत कम लोगों को यह मालूम है कि मधुबाला ने अनारकली की जिस भूमिका से लोगों के दिलों में जो अमिट जगह बनाई , उसकी हकदार पहले नूतन ही थीं। के. आसिफ जब मुगल-ए-आजम फिल्म की योजना बना रहे थे, तब उन्होंने अनारकली की भूमिका के लिए नूतन का ही चयन किया था, लेकिन आखिरकार यह रोल मधुबाला को मिला और मधुबाला ने इस भूमिका के साथ पूरा न्याय किया। इसमें कोई शक नहीं कि मधुबाला बेहद खूबसूरत थीं। पर इसका ये मतलब नहीं है कि फिल्म में मोहे पनघट पर नंद लाल ,.. गीत गाती नूतन भी कहीं से बुरी लगती। यह भूूमिका तो नूतन को मात्र 15 साल की उम्र में मिली थी। दरअसल अगर नूतन ने अनारकली (मुगल-ए-आजम फिल्म का उस समय यही नाम था) की भूमिका 1951 में निभाई होती, तो वे पांच वर्षों के अंदर गीतों पर बेहतरीन अभिनय करने वाली यह अभिनेत्री रुपहले परदे की अनारकली, लैला और हीर बन जाने का कीर्तिमान स्थापित कर लेती। पर नूतन ने जवानी में अनारकली की उस भूमिका को हाथ से जाने दिया।फिल्मकार के. आसिफ ने सबसे पहले 1944 में नरगिस को अनारकली की भूमिका के लिए चुना था। तब नौशाद नहीं , अनिल बिश्वास इसके संगीतकार थे। पर यह फिल्म बीच में ही अटक गई , क्योंकि उसके लेखक शिराज अली हकीम पाकिस्तान में जाकर बस गए थे। 1951 में जब के. आसिफ ने फिर से अनारकली बनाने का विचार किया तो अनिल बिश्वास की जगह नौशाद और नरगिस की जगह नूतन को चुना। नूतन के लिए यह शानदार मौका था , क्योंंिक अगर नूतन ने यह भूमिका स्वीकार कर ली होती तो उनकी तुलना बीना राय से की जाती। बीना राय एस. मुखर्जी की फिल्म अनारकली में अनारकली की भूूमिका निभा रही थीं। उस समय एक ही साथ तीन फिल्में अनारकली के नाम से शुरू हो रही थीं। के.आसिफ की अनारकली , मीनाकुमारी-कमाल अमरोही की अनारकली और बीना राय -एस. मुखर्जी की अनारकली। पर शायद नूतन में अभी वह आत्मविश्वास नहीं आया था जो अमिय चक्रवर्ती की फिल्म सीमा के साथ स्टार बनने के बाद आया। इसलिए उन्होंने जोर दिया कि वे इस भूमिका के लिए ठीक नहीं रहेंगी और चाहा कि यह भूमिका फिर से नरगिस को ही मिले। जब तक कमाल अमरोही अनारकली पर अपना पहला सेट लगाते, तब तक एस. मुखर्जी ने अपने प्रसिद्ध फिल्मस्तान बैनर के तले बीना राय को अनारकली के रूप में परदे पर पेश कर दिया।कॅरिअर की शुरूआत में ही पीछे जाने से नूतन को नुकसान तो हुआ। लेकिन बाद में वे फिल्म लैला मजनूं में शम्मी कपूर के साथ लैला बनकर आई। फ्लिमकार के. आसिफ के उच्च स्तर से सीधे उतरकर उन्हें एन. अरोड़ा के स्तर तक आना पड़ा।बीना राय को -ये जिंदगी उसी की है, जैसा खूबसूरत गीत देने वाले एस. मुखर्जी ने नूतन की प्रतिभा को महसूस किया और अनारकली के हीरो प्रदीप कुमार के साथ फिल्म हीर में लिया। पर लैला मजनूं और हीर , दोनों ही असफल फिल्में साबित हुईं। इस तरह नूतन के हाथ से परदे पर अमर होनेे के दो मौके फिसल गए। इससे यही साबित होता है कि नूतन को सजा सजाया सौभाग्य नहीं मिलना था। उन्हें मेहनत और कड़ी मेहनत करके ही खुद को श्रेष्ठï अभिनेत्री के रूप में साबित करना था। अनिल बिश्वास ने हीर में नूतन के लिए अनेक खूबसूरत रचनाएं रची। पर फिल्म द्वितीय विश्व युद्ध के दस साल प्रदर्शित हुई और अनिल बिश्वास के कॅरिअर की शुरूआत भी इसी के साथ हुई।फिल्म सीमा में बलराज साहनी के गीत -पंख हैं कोमल , आंख हैं धुंधली , जाना है सागर पार (मन्ना डे) गीत में नूतन ने किस कदर गहरे भाव दिए हैं। यह गीत संगीतकार शंकर ने राग दरबारी में तैयार किया था।सुजाता का रोमांटिक गीतनूतन के अभिनय के विस्तार को 1956 में आई फिल्म सुजाता में भी देखा जा सकता है। इस फिल्म में सुनील दत्त फोन पर अपना प्रेम - जताते हैं और दूसरी तरफ नूतन की खामोश प्रतिक्रियां हैं।इस फिल्म में शुरू में बिमल राय को एक साधारण से अभिनेता सुनील दत्त पर फोन पर गाए रोमांटिक गीत को फिल्माने का खयाल बिल्कुल पसंद नहींं आया। जबकि एस. डी. बर्मन परेशान हो गए थे। वे उम्र में बड़े थे और उन्होंने बिमल राय को लगभग डांटते हुए कहा था- कैसे निर्देशक हो तुम। तुम में इतना आत्मविश्वास नहीं है कि अपने हीरो से एक कोमल गीत को फोन पर गाते हुए नहीं दिखा सकते। क्या तुम प्यार समझते हो? तुम नहीं जानते, क्योंकि तुमने कभी प्यार नहीं किया है। तुम जीवन के सुंदर अनुभव से वंचित हो। तुम कल्पना नहीं कर सकते कि कोई लड़का किसी लड़की को फोन पर प्रेम गीत सुनाए। शेक्सपियर ने कहा था - प्यार आंखों से नहीं दिखता। पर शेक्सपियर की यह बात तुम नहीं समझ सकते हो।बर्मन दा ने मजरूह के इस गीत को इतना सुंदर तैयार किया कि यह गीत तलत महमूद के सर्वश्रेष्ठ गीतों में से माना जाता है। वैसे दादा चाहते थे कि यह गीत रफी साहब गाए, लेकिन बिमल राय ने साफ कह दिया कि फोन वाला गीत वे फिल्म में तभी रखेंगे, जब उसे सुनील दत्त के लिए तलत गाएंगे। बर्मन दादा तब भी रफी को ही चाहते थे, पर उनकी जिद टल गई और बर्मन दादा अंत तक तलत के प्रति अनिश्चय की भावना लिए रहे। यहां तक उन्होंने रिकॉर्डिंग के समय भी कह दिया कि तलत मेरे इस गीत को बरबाद मत करना।तलत ने यह गीत दिल लगाकर गाया और गीत लोगों के दिलों में बस गया। आज भी जब फोन पर गीत फिल्माए जाते हैं, तो लोगों के दिलों में सुनील दत्त पर और नूतन पर फिल्माए इस गीत की ही याद ताजा हो जाती है। सचिन दा को इस गीत को फिल्माने की ज्यादा चिंता नहीं थी, क्योंकि वे जानते थे कि इसमें वह अभिनेत्री है, जिसे भावपूर्ण भूमिकाएं करने के लिए कभी ग्लिसरीन की जरूरत नहीं पड़ी।नूतन के सूक्ष्म अभिनय ने जादू किया और इसी फिल्म मेेंं नूतन ने काली घटा छाए , मेरा जिया तरसाए गाने में भी कितना सुंदर अभिनय किया है। हो सकता है कि इस गीत के लिए बिमल दा को अपनी प्रिय गायिका लता की कमी महसूस हुई हो, लेकिन आशा भोंसले ने भी अपनी आवाज का वो जादू दिखाया कि लोगों ने इसे केवल आशा का ही गीत माना। नूतन के अभिनय ने जो इसे सजीव बना दिया था।---------
- आलेख-मंजूषा शर्मागुजरे जमाने के सदाबहार गीतों में एक गीत था- मेरे पिया गए रंगून.....आज भी लोगों को पसंद आता है। हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में टेलीफोन पर बहुत कम गाने फिल्माए गए हैं। फिल्म पतंगा का यह गीत उस दौर का गीत है जब टेलीफोन खास लोगों तक ही सीमित था।सन् 1949 में एक फिल्म आई थी पतंगा जिसका एक बड़ा ही खूबसूरत गीत है- मेरा पिया गए रंगून , जहां से किया है टेलीफून, तुम्हारी याद सताती है जिया में आग लगाती है...। इस गीत को ऑल टाइम फेवरिट कहा जा सकता है, क्योंकि आज रिमिक्स के जमाने में भी इस गीत को प्रमुखता से लोगों ने गाया है।1949 में एच. एस. रवैल पहली बार फि़ल्म निर्देशन के क्षेत्र में उतरे वर्मा फि़ल्म्स के बैनर तले बनी इसी फि़ल्म, यानी कि पतंगा के साथ। फि़ल्म शहनाई की सफलता के बाद संगीतकार सी. रामचन्द्र और गीतकार राजेन्द्र कृष्ण की जोड़ी जम चुकी थी। इस फि़ल्म में भी इसी जोड़ी ने गीत-संगीत का पक्ष संभाला। पतंगा के मुख्य कलाकार थे- श्याम और निगार सुल्ताना। याकूब और गोप, जिन्हें भारत का लॉरेन और हार्डी कहा जाता था, इस फि़ल्म में शानदार कॅामेडी की।टेलीफ़ोन पर बने गीतों का जि़क्र करना इस गीत के बिना अधूरा समझा जाएगा। बल्कि यूं कहें कि टेलीफ़ोन पर बनने वाला यह सब से लोकप्रिय गीत रहा है । शमशाद बेग़म और स्वयं चितलकर यानी संगीतकार सी. रामचंद्र का गाया हुआ यह गीत उस वक्त फि़ल्म संगीत के लिए एक नया कॉन्सेप्ट था । भले इस गीत को सुन कर ऐसा लगता है कि नायक और नायिका एक दूसरे से टेलीफ़ोन पर बात करे हैं, लेकिन असल में यह गीत एक स्टेज शो का हिस्सा है। उन दिनों बर्मा में काफ़ी भारतीय जाया करते थे, शायद इसीलिए इस गाने में रंगून शहर का इस्तेमाल हुआ है। (द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का रंगून से गहरा नाता था)।आज के दौर में शायद ही रंगून का जि़क्र किसी फि़ल्म में आता होगा। फि़ल्म पतंगा के दूसरे हल्के फुल्के हास्यप्रद गीतों में शामिल है शमशाद बेग़म का गाया गोरे गोरे मुखड़े पे गेसू जो छा ग..., दुनिया को प्यारे फूल और सितारे, मुझको बलम का ना...., शमशाद और रफ़ी का गाया डुएट बोलो जी दिल लोगे तो क्या क्या दोगे... और पहले तो हो गई नमस्ते नमस्ते...., शमशाद और चितलकर का गाया एक और गीत -ओ दिलवालों दिल का लगाना अच्छा है पर कभी कभी....। इस फिल्म में लता मंगेशकर ने भी कुछ गीत गाए। एक गाना था शमशाद बेग़म के साथ -प्यार के जहान की निराली सरकार है.., और तीन दर्द भरे एकल गीत भी गाए, जिनमें जो सब से ज़्यादा हिट हुआ था वह था -दिल से भुला दो तुम हमें, हम ना तुम्हे भुलाएंगे...। लेकिन फिल्म का केवल एक गीत ही- मेरे पिया गए रंगून... आज भी बजता है। आज नए अंदाज और आवाज के बाद भी इस गाने की मूल आत्मा में कहीं न कहीं संगीतकार सी. रामचंद्र जीवित हैं।
- पुण्यतिथि पर विशेष- आलेख मंजूषा शर्माहिन्दी फिल्म एक्ट्रेस की ये काफी पुरानी तस्वीर है और इसे देखकर अंदाज लगाना जरा मुश्किल है कि आखिर ये कौन हैं, पर ये अपने दौर में हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री का काफी लोकप्रिय चेहरा हुआ करता था। ये हैं फिल्मी परदे की सबसे लोकप्रिय मौसी यानी लीला मिश्रा। जिसने भी फिल्म शोले देखी है उसे धर्मेंद्र का टंकी पर चढ़कर मौसी को धमकी देने वाला सीन याद तो होगा ही और वो अमिताभ बच्चन का धर्मेन्द्र की खासियत बताते हुए मौसी को उनकी बेटी हेमामालिनी के लिए शादी का प्रपोजल देना...लोग भूले नहीं हैं। बरसों बीत गए हैं, लेकिन शोले फिल्म का आज भी अपना क्रेज बना हुआ है।1975 में रिलीज हुई इस फिल्म का निर्देशन रमेश सिप्पी ने किया था और इस फिल्म की कहानी, कलाकार, डायलॉग और गाने सब कुछ अमर हो गए. फिल्म का हर छोटा बड़ा किरदार, सीक्वेंस, गाने और डायलॉग आज भी लोग दोहराते हैं। इसी फिल्म में एक किरदार था मौसी का जिसे निभाया था एक्ट्रेस लीला मिश्रा ने। आज (17 जनवरी) ही के दिन 1988 में लीला मिश्रा का 80 साल की आयु में हार्ट अटैक से निधन हो गया था।उनकी पुण्यतिथि पर कुछ उनकी बातें....लीला मिश्रा की शादी प्रपातगढ़ के जमींदार घराने के रामप्रसाद मिश्रा के साथ मात्र 12 साल में हो गई थी और 17 साल की उम्र तक वे दो लड़कियों की मां भी बन गई थीं। उनके पति को अभिनय का शौक था। वे कश्मीरी नाटकों में काम किया करते थे। उन्हीं दिनों बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ था और कलाकारों के लिए नए दरवाजे खुले थे। लीला के पति राम प्रसाद बनारस से मुंबई आते-जाते रहते थे और उन्हें मुंबई में एक फिल्म कंपनी में काम मिल गया।इसी दौरान दादा साहेब फाल्के के लिए काम करने वाले मामा शिंदे ने लीला को देखा और उनके पति को रोल ऑफर कर दिया। मामा शिंदे और रामप्रसाद में अच्छी दोस्ती भी थीं। पहले तो मिश्रा जी ने इंकार कर दिया लेकिन फिर मान गए...दोनों की पहली फि़ल्म एक साथ आई जिसका नाम था ''सती सलोचना''। इस फिल्म में मिश्रा जी का रोल था रावण का और लीला का रोल था रावण की पत्नी मंदोदरी का...लेकिन कमाल की बात ये रही कि इस फि़ल्म की फ़ीस के तौर पर लीला जी को मिले 500 रुपए और उनके शौहर मिश्रा जी को मिले 150 रुपए...। दरअसल उस वक्त अच्छे घराने की बहू बेटियों को फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। फिर उन्हें होनहार फिल्म का प्रस्ताव मिला जिसमें उन्हें अभिनेता साहू मोडक की नायिका का रोल निभाना था। लीला मिश्रा ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। इसके लिए लीला मिश्रा की दलील थी कि जिस माहौल में उनकी परवरिश हुई है , वो उन्हें इस बात की इजाज़त नहीं देता कि वो किसी ग़ैर मर्द के समीप जाएं। कंपनी को जब लीला के इंकार की वजह पता चली, तो एक नया रास्ता निकाला गया और उन्हें मोडक की मां का रोल करने का प्रस्ताव दे दिया। यकीन मानिए मात्र 18 साल की उम्र में लीला मिश्रा ने नायक की मां बनना स्वीकार कर लिया। फिर ये जैसे एक सिलसिला चल पड़ा....कभी मां, कभी मौसी, कभी चाची तो कभी नानी... दादी... लीला मिश्रा ने एक के बाद एक फिल्में करनी शुरू कर दी। किसी फिल्म में तो वे नायक की उम्र से भी छोटी रहती, लेकिन मां के रोल में नजर आती।लीला मिश्रा की उल्लेखीय फिल्म में अनमोल घड़ी (1946), आवारा (1951), नर्गिस-बलराज साहनी की फिल्म लाजवंती (1958), शीशमहल, दाग, शिकस्त, सेहरा, कॉलेज गर्ल, उम्मीद, छोटी छोटी बातें, दोस्ती, राम और श्याम, रात और दिन, धरती कहे पुकार के, तुम से अच्छा कौन है, सुहाना फल, दुश्मन, लाल पत्थर, शोले, गीत गाता चल, महबूबा, पलकों की छांव में , किनारा, दुल्हन वही तो पिया मन भाये, शतरंज के खिलाड़ी, सावन को आने दो, चश्मे बद्दूर, अबोध आदि। उनकी आखिरी फिल्म 1986 में आई तन बदन थी।लीला मिश्रा एक सहज अभिनेत्री थी और अपने किरदार से पूरी तरह से जुड़ जाती थीं, चाहे उनका रोल ग्रे शेड्स लिए ही क्यों न हो। यही कारण है कि उन्होंने काफी लंबे समय तक काम किया। अपने मिलनसार स्वभाव के कारण वे कलाकारों , निर्माता, निर्देशकों के बीच काफी लोकप्रिय भी थीं। फिल्म इंडस्ट्री में उन्होंने कई रोल निभाए, लेकिन लोग उन्हें आज भी मौसी नाम से ही याद किया करते हैं।------
- जन्मदिवस पर विशेष- आलेख मंजूषा शर्माफिल्म इंडस्ट्री की सबसे खूूबसूरत एक्ट्रेस रही मधुबाला के साथ इस हीरो को बहुत कम लोग पहचान पाएंगे। यह फिल्म सैंया का दृश्य है और यह 1951 में बनी थी। फिल्म में दो हीरो थे अजित और दूसरे थे सज्जनलाल पुरोहित। जी हां, मधुबाला के साथ बतौर हीरो सज्जन नजर आए थे जिन्होंने फिल्म जॉनी मेरा नाम में हेमामालिनी के पिता का रोल निभाया था। आज ही के दिन वर्ष 1921 में राजस्थान के जयपुर में अभिनेता सज्जन का जन्म हुआ था। उनके जन्मदिन के मौके उनसे जुड़ी कुछ ऐसी बातों की हम चर्चा कर रहे हैं जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। अभिनेता सज्जन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। फिल्म अभिनेता, थियेटर कलाका, संवाद लेखक, डायरेक्टर और गीतकार.. सज्जन के कितने ही रूप देखने को मिले।अभिनेता सज्जन ने 40-50 के दशक में कई फिल्मों में हीरो का रोल निभाया। उन्होंने अपने दौर की टॉप की एक्ट्रेस नर्गिस, मधुबाला, नलिनी जयवंत और नूतन के हीरो बनकर फिल्में की।बात करें फिल्म सैंया की। वैसे तो मधुबाला के साथ दो-तीन फिल्मों में सज्जन ने काम किया, लेकिन फिल्म सैंया में वो मधुबाला के प्रेमी बने हैं। यह लव-ट्राएंगल मूवी थी, जिसमें मधुबाला एक अनाथ लड़की की भूमिका में हैं, जिनसे दो भाइयों को प्रेम हो जाता है। इनमें से एक भाई बने हैं सज्जन, तो दूसरे भाई की भूमिका अजीत ने निभाई है। यह फिल्म अंग्रेजी फिल्म 'डुअल इन द सन' की हिन्दी रीमेक थी, जिसमें सज्जन नेगेटिव भूमिका में थे। फिल्म की शूटिंग महाबलेश्वर में हुई थी। इस फिल्म के बारे में उन्होंने कहा था, 'मुझे फिल्म में कास्ट करके निर्माता-निर्देशक सादिक बाबू ने बड़ा रिस्क लिया था, लेकिन फिल्म कामयाब हो गई। मुझे इस तरह के किरदार दोबारा नहीं मिले। मैं किसी खास किरदार को लेकर टाइपकास्ट नहीं हुआ। हालांकि, फिल्म की सफलता के बाद मैंने अपने घर का नाम बदल कर 'सैंया' ही रख लिया।' हालांकि बाद में उन्होंने यह घर ही छोड़ दिया।इसके एक साल बाद सज्जन फिल्म 'निर्मोही' में नूतन के हीरो के रूप में नजर आऐ। मदन मोहन के संगीत में इंदीवर के गीतों को लता मंगेशकर ने आवाज दी। हालांकि, फिल्म ने कुछ खास कमाल नहीं किया, लेकिन इसके संगीत ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं।सज्जन लाल पुरोहित ने अपने करिअर में 150 से अधिक फिल्मों में काम किया, लेकिन उनकी यादगार भूमिकाओं में सस्पेंस थ्रिलर मूवी बीस साल बाद भी है। पूरी फिल्म में वे बैसाखी लिए एक आम इंसान की तरह घूमते नजर आते हैं। साल 1962 में रिलीज़ हुई इस फिल्म में उनके द्वारा निभाए गए डिटेक्टिव मोहन त्रिपाठी के किरदार को लोग आज तक याद करते हैं।साल 1964 के दौरान दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, 'अपने पिछले प्रोजेक्ट्स को याद करूं, तो मुझे ऐसा रोल चुनने में मुश्किल होती है, जिसे मैं 'उत्कृष्ट' कहूं। ईमानदारी से कहूं, तो मैंने कभी भी ऐसा कलात्मक प्रदर्शन नहीं किया है, जिसे 'सर्वोत्कृष्टÓ की श्रेणी में रखा जा सके।' उन्होंने तलाक', 'काबुलीवाला' और 'बीस साल बाद' जैसी फिल्मों का हिस्सा होने पर खुशी भी जाहिर की थी। उनका कहना था कि इन फिल्मों में काम करने की वजह से मेरा नाम स्क्रीन पर हमेशा के लिए दर्ज हो गया, वरना मैं तो भूला दिया जाता और सिर्फ थिएटर के मंच तक ही सिमटा रह जाता।आज़ादी से पहले भारत में 'बैरिस्टर' बनने का एक अलग ही चार्म था। लिहाजा, सज्जन ने भी बैरिस्टर बनने की ठान ली। ग्रेजुशन कर पहुंच गए कलकत्ता। यहां उन्हें 'ईस्ट इंडिया कंपनी' में नौकरी भी मिल गई। यहीं से उन्हें अभिनय का चस्का लगा और फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएं भी मिलने लगी। इसी दौरान 'गल्र्स स्कूल' में उन्हें शशिकला के हीरो का रोल मिल गया। साल 1949 में रिलीज़ हुई इस फिल्म के गाने कवि प्रदीप ने लिखे थे। इस फिल्म के बारे में सज्जन ने कहा था, 'काश इस तरह के दमदार किरदार वाली फिल्में मुझे और मिली होतीं।' उन्होंने जब मुंबई की राह पकड़ी। रात में फुटपाथ उनका आशियाना होता और दिन में स्टुडियो। काफी मुफलिसी के दिन उन्होंने काटे। इसी दौरान उन्हें मशहूर निर्देशक केदार शर्मा के सहायक का काम मिल गया। तब राज कपूर भी केदार शर्मा के असिस्टेंट हुआ करते थे। गजानन जागीरदार और वकील साहिब के असिस्टेंट का काम भी सज्जन ने पकड़ लिया। इस तरह से वो महीने के 35 रूपये महीना कमा लिया करते थे। इसी दौरान फिल्म धन्यवाद में उन्हें हीरो बनने का मौका मिला। फिल्म में उनकी नायिका हंसा वाडकर थीं।अभिनेता सज्जन को लिखने का भी शौक था और उन्हें कई फिल्मों के संवाद और गाने लिखे। जब हीरो के रूप में उनकी फिल्में असफल होने लगी तो उन्होंने इसे अपनी किस्मत मानकर चरित्र भूमिकाएं निभाने से परहेज नहीं किया।साल 1968 में आई मल्टीस्टारर मूवी 'आंखेंÓ में सज्जन ने एक छोटा सा रोल किया था। वहीं से वो रामानंद सागर के करीब आ गए। बाद में रामानंद सागर ने 'विक्रम और बेतालÓ में उन्हें विलेन 'बेतालÓ की भूमिका में लिया। उस वक्त 'बेताल' का डायलॉग तब बच्चे-बच्चे की ज़बान पर चढ़ गया था और वो था, 'तू बोला, तो ले मैं जा रहा हूं. मैं तो चला!'बाद में उनका एक महत्वपूर्ण काम उनकी एक अद्भुत पुस्तक "रस भाव दर्शन ' के रूप में सामने आया। मशहूर फोटोग्राफर ओ.पी. शर्मा के साथ मिलकर उन्होंने लगभग दो हजार साल पुराने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित इस पुस्तक की रचना की। इसमें शृंगार रस, करुणा रस जैसे रसों और 49 भावों को सज्जन ने अपनी मुख मुद्रा से दिखाया है। 17 मई 2000 को उन्होंने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कहा। उन्हेें आज लोग भले ही याद न करें... क्योंकि जब जमाना तेजी से रुख बदलता है, तो या तो बहुत सी चीजें धुंधली पड़ जाती हैं या भुला दी जाती हैं। अभिनेता सज्जन भी इनमें से एक हैं।
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स्वामी विवेकानंद की आज जयंती है। जानते हैं एक रोचक कथा, जिसमें स्वामी स्वामी विवेकानंद और जमशेदजी टाटा की मुलाकात हुई और स्वामी विवेकानंद के आइडिया से बदल गई भारत की तस्वीर बदल गई।
1893 में एक ही जहाज पर स्वामी विवेकानंद और जमशेदजी टाटा यात्रा कर रहे थे। वैंकुवर जा रहे इस जहाज में इन दो महान हस्तियों ने काफी समय बिताया। इस दौरान विवेकानंद ने जमशेदजी को एक ऐसा आइडिया दिया जिसने भारत की तकदीर ही बदल दी। जमशेदजी टाटा देश में औद्योगिक क्रांति के लिए पूरी कोशिश में जुटे थे। वह भारत में स्टील इंडस्ट्री की नींव रखना चाहते थे। यात्रा के दौरान विवेकानंद ने उन्हें ज्ञान से प्रभावित किया। जमशेदजी ने इसके बाद उस भगवाधारी संत से कई मुद्दों पर राय ली और उसे अमल में लाया।
विवेकानंद से बातचीत के दौरान जमशेदजी टाटा ने जापान के विकास और तकनीक की चर्चा की और भारत में एक स्टील उद्योग लगाने की बात कही। उन्होंने कहा कि वह ऐसे उपकरण और तकनीक की खोज में हैं जो भारत को एक मजबूत औद्योगिक राष्ट्र बनाने में मदद करे। उस वक्त महज 30साल के रहे विवेकानंद ने अपने से 24साल बड़े 54 साल के जमशेदजी टाटा को गरीबों और भारतीयों को मदद करने का आइडिया दिया। टाटा के जीवटता की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा कि भारत की असली उम्मीद यहां के लाखों लोगों की संपन्नता से जुड़ी है। उन्होंने टाटा से कहा कि वह जापान से माचिस का आयात करने की बजाए उसे भारत में ही बनाएं इससे ग्रामीण इलाके में रहने वाले गरीबों की मदद होगी। स्वामी विवेकानंद के विज्ञान का ज्ञान और कूट-कूटकर भरी देशभक्ति ने जमशेदजी टाटा को काफी प्रभावित किया। उन्होंने विवेकानंद से अपने अभियान में मदद करने और भारत में एक रिसर्च संस्थान की स्थापना के लिए मदद मांगी। विवेकानंद ने मुस्कुराते हुए कहा कि यह कितना ही सुंदर होगा कि आप पश्चिम के विज्ञान और तकनीक तथा भारत के अध्यात्म से लेकर मानवतावाद की पढ़ाई हो।
विवेकानंद की इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर जमशेद जी टाटा ने 23नवंबर 1898 को उन्हें एक पत्र लिखा और उनके साथ बातचीत की याद दिलाई और विश्वस्तरीय संस्थान खोलने की अपनी प्रतिबद्धता भी बताई। १८९८ में टाटा ऐसे संस्थान खोलने के लिए उचित जगह की तलाश में थे। वह उस समय मैसूर के दीवान शहयाद्री अय्यर से मिले और दोनों ने मिलकर उस वक्त के मैसूर के शासक कृष्णाराजा वडयार-ढ्ढङ्क को बेंगलूर में करीब 372एकड़ जमीन देने के लिए राजी किया। विवेकानंद का तो जुलाई 1902में निधन हो गया और ठीक उसके दो साल बाद जमशेदजी टाटा का भी निधन हो गया। लेकिन दोनों विभूतियों का सपना उनके निधन के बाद पूरा हुआ। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस का 1909 में जन्म हुआ जिसका 1911 में नाम बदलकर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस कर दिया गया।