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- -शासकीय गुण्डाधुर कॉलेज, कोंडागांव में अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष व नेत्र विशेषज्ञ डॉ. दिनेश मिश्र का व्याख्यानकोंडागांव । अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष व नेत्र विशेषज्ञ डॉ. दिनेश मिश्र ने शासकीय गुण्डाधुर स्नातकोत्तर महाविद्यालय कोंडागांव द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और अंधविश्वास विषय पर व्याख्यान देते हुए कहा कि देश में अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों के कारण अक्सर अनेक निर्दोष लोगों को प्रताडऩा का शिकार होना पड़ता है, जिसके निदान के लिए आम जन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास की अत्यंत आवश्यकता है।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा कुछ लोग अंधविश्वास के कारण हमेशा शुभ-अशुभ के फेर में पड़े रहते हंै। यह सब हमारे मन का भ्रम है। शुभ-अशुभ सब हमारे मन के अंदर ही है। किसी भी काम को यदि सही ढंग से किया जाये, मेहनत, ईमानदारी से किया जाए तो सफलता जरूर मिलती है। उन्होंने कहा कि 18वीं सदी की मान्यताएं व कुरीतियां अभी भी जड़े जमायी हुई हैं जिसके कारण जादू-टोना, डायन, टोनही, बलि व बाल विवाह जैसी परंपराएं व अंधविश्वास आज भी वजूद में हैं। जिससे प्रतिवर्ष अनेक मासूम जिन्दगियां तबाह हो रही हैं। उन्होंने कहा कि ऐसे में वैज्ञानिक जागरूकता को बढ़ाने और तार्किक सोच को अपनाने की आवश्यकता है। उन्होंने आगे कहा कि अंधविश्वास को कुरीतियों के विरूद्ध समाज के साथ विद्यार्थियों को भी एकजुट होकर आगे आना चाहिए।डॉ. मिश्र ने कहा प्राकृतिक आपदायें हर गांव में आती है, मौसम परिवर्तन व संक्रामक बीमारियां भी गांव को चपेट में लेती है, वायरल बुखार, मलेरिया, दस्त जैसे संक्रमण भी सामूहिक रूप से अपने पैर पसारते है। ऐसे में ग्रामीण अंचल में लोग कई बार बैगा-गुनिया के परामर्श के अनुसार विभिन्न टोटकों, झाड़-फूंक के उपाय अपनाते हैं। जबकि प्रत्येक बीमारी व समस्या का कारण व उसका समाधान अलग-अलग होता है, जिसे विचारपूर्ण तरीके से ढूंढा जा सकता है। उन्होंने कहा कि बिजली का बल्ब फ्यूज होने पर उसे झाड़-फूंक कर पुन: प्रकाश नहीं प्राप्त किया जा सकता और न ही मोटर सायकल, ट्रांजिस्टर बिगडऩे पर उसे ताबीज पहनाकर सुधारा जा सकता। रेडियो, मोटर सायकल, टी.वी., ट्रेक्टर की तरह हमारा शरीर भी एक मशीन है जिसमें बीमारी आने पर उसके विशेषज्ञ के पास ही जांच व उपचार होना चहिए। डॉ. मिश्र ने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों एवं अंधविश्वासों की चर्चा करते हुए कहा कि बच्चों को भूत-प्रेत, जादू-टोने के नाम से नहीं डराएं क्योंकि इससे उनके मन में काल्पनिक डर बैठ जाता है जो उनके मन में ताउम्र बसा होता है, बल्कि उन्हें आत्मविश्वास, निडरता के किस्से कहानियां सुनानी चाहिए। जिनके मन में आत्मविश्वास व निर्भयता होती है उन्हें न ही नजर लगती है और न कथित भूत-प्रेत बाधा लगती है। यदि व्यक्ति कड़ी मेहनत, पक्का इरादा का काम करें तो कोई भी ग्रह, शनि, मंगल, गुरू उसके रास्ता में बाधा नहीं बनता।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा — देश में जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, झाड़-फूँक की मान्यताओं एवं डायन (टोनही )के संदेह में प्रताडऩा तथा सामाजिक बहिष्कार के मामलों की भरमार है। डायन के सन्देह में प्रताडऩा के मामलों में अंधविश्वास व सुनी-सुनाई बातों के आधार पर किसी निर्दोष महिला को डायन घोषित कर दिया जाता है तथा उस पर जादू-टोना कर बच्चों को बीमार करने, फसल खराब होने, व्यापार-धंधे में नुकसान होने के कथित आरोप लगाकर उसे तरह-तरह की शारीरिक व मानसिक प्रताडऩा दी जाती है। कई मामलों में आरोपी महिला को गाँव से बाहर निकाल दिया जाता है। बदनामी व शारीरिक प्रताडऩा के चलते कई बार पूरा पीडि़त परिवार स्वयं गाँव से पलायन कर देता है। कुछ मामलों में महिलाओं की हत्याएँ भी हुई हंै अथवा वे स्वयं आत्महत्या करने को मजबूर हो जाती हंै। जबकि जादू-टोना के नाम पर किसी भी व्यक्ति को प्रताडि़त करना गलत तथा अमानवीय है। वास्तव में किसी भी व्यक्ति के पास ऐसी जादुई शक्ति नहीं होती कि वह दूसरे व्यक्ति को जादू से बीमार कर सके या किसी भी प्रकार का आर्थिक नुकसान पहुँचा सके। जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, टोनही, नरबलि के मामले सब अंधविश्वास के ही उदाहरण हैं। महाराष्ट्र छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश ओडीसा, झारखण्ड, बिहार, असम सहित अनेक प्रदेशों में प्रतिवर्ष टोनही/डायन के संदेह में निर्दोष महिलाओं की हत्याएँ हो रही हैं, जो सभ्य समाज के लिये शर्मनाक है। नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो ने सन् 2001 से 2015 तक 2604 महिलाओं की मृत्यु डायन प्रताडऩा के कारण होना माना है। जबकि वास्तविक संख्या इनसे बहुत अधिक है। अधिकतर मामलों में पुलिस रिपोर्ट ही नहीं हो पातीं। हमने जब आर टी आई से जानकारी प्राप्त की तब हमें बहुत ही अलग आंकड़े प्राप्त हुए। झारखंड में 7000 ,बिहार में 1679 छत्तीसगढ़ में 1357,ओडिशा 388 में ,राजस्थान 95 में,आसाम में 75 मामलों की प्रमाणिक जानकारी है। जबकि कुछ राज्यों से जवाब ही नहीं मिला। पर समाचार पत्रों में लगभग सभी राज्यों से ऐसी घटनाओं के समाचार मिलते हैं।डॉ. मिश्र ने कहा आम लोग चमत्कार की खबरों के प्रभाव में आ जाते हैं। हम चमत्कार के रूप में प्रचारित होने वाले अनेक मामलों का परीक्षण व उस स्थल पर जाँच भी समय-समय पर करते रहे हैं। चमत्कारों के रूप में प्रचारित की जाने वाली घटनाएँ या तो सरल वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के कारण होती हैं तथा कुछ में हाथ की सफाई, चतुराई होती है जिनके संबंध में आम आदमी को मालूम नहीं होता। कई स्थानों पर स्वार्थी तत्वों द्वारा साधुओं को वेश धारण चमत्कारिक घटनाएँ दिखाकर ठगी करने के मामलों में वैज्ञानिक प्रयोग व हाथ की सफाई के ही करिश्में थे।डॉ. मिश्र ने कहा भूत-प्रेत जैसी मान्यताओं का कोई अस्तित्व नहीं है। भूत-प्रेत बाधा व भुतहा घटनाओं के रूप में प्रचारित घटनाओं का परीक्षण करने में उनमें मानसिक विकारों, अंधविश्वास तथा कहीं-कहीं पर शरारती तत्वों का हाथ पाया गया। आज टेलीविजन के सभी चैनलों पर भूत-प्रेत, अंधविश्वास बढ़ाने वाले धारावाहिक प्रसारित हो रहे हैं। ऐसे धारावाहिकों का न केवल जनता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है बल्कि छोटे बच्चों व विद्यार्थियों पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। इस संबंध में हमने राष्ट्रीय स्तर पर एक सर्वेक्षण कराया है जिसमें लोगों ने ऐसे सीरियलों को बंद किये जाने की मांग की है। ऐसे सीरियलों को बंद कर वैज्ञानिक विकास व वैज्ञानिक दृष्टिकोण बढ़ाने व विज्ञान सम्मत अभिरूचि बढ़ाने वाले धारावाहिक प्रसारित होने चाहिए। भारत सरकार के दवा एवं चमत्कारिक उपचार के अधिनियम 1954 के अंतर्गत झाड़-फूँक, तिलस्म, चमत्कारिक उपचार का दावा करने वालों पर कानूनी कार्यवाही का प्रावधान है। इस अधिनियम में पोलियो, लकवा, अंधत्व, कुष्ठरोग, मधुमेह, रक्तचाप, सर्पदंश, पीलिया सहित 54 बीमारियाँ शामिल हैं। लोगों को बीमार पडऩे पर झाड़-फूँक, तंत्र-मंत्र, जादुई उपचार, ताबीज से ठीक होने की आशा के बजाय चिकित्सकों से सम्पर्क करना चाहिए क्योंकि बीमारी बढ़ जाने पर उसका उपचार खर्चीला व जटिल हो जाता है।डॉ. मिश्र ने कहा अंधविश्वास, पाखंड एवं सामाजिक कुरीतियों का निर्मूलन एक श्रेष्ठ सामाजिक कार्य है जिसमें हाथ बंटाने हर नागरिक को आगे आना चाहिए।
- स्वर कोकिला लता मंगेशकर भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके संगीत ने उन्हें अमर बना दिया है। उन्होंने कई दशकों तक संगीत जगत को समृद्ध किया। हर वक्त, हर मौसम के लिए हमें कोई-न-कोई गाना दिया, फिर चाहे वो मन को मीठा-सा लगने वाला लग जा गले... हो, या खंडहरों में हेमा मालिनी पर फिल्माया नाम गुम जाएगा , या प्यार के मायने समझाता हमने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू..। उनके गाने हमारे हर पल के साथी हैं। आज हम आपको लता मंगेशकर के उन गानों की के बारे में बता रहे हैं, जो ऑफिसियल कभी रिलीज नहीं हो पाए। कुछ गाने फिल्म में शामिल ही नहीं किए गए या फिर फिल्म ही बंद हो गई। लेकिन यूट्यूब पर आप ये गाने सुन सकते हैं।1. जो दर्द दिया तुमने, गीतों में पिरो लेंगेरविंद्र जैन अपने लिखे और कम्पोज़ किए इस गाने को लेकर काफी पज़ेसिव थे। वे चाहते थे कि इस धुन को किसी गायक की आवाज़ न छुए, सिवाय लता जी की आवाज़ के। हालांकि, किसी वजह से ये गाना जिस फिल्म के लिए रिकॉर्ड किया गया था, कभी उसका हिस्सा नहीं बन पाया। 25 सितंबर, 2020 को दिवंगत कम्पोजऱ रविंद्र जैन के नाम से चल रहे ऑफिशियल यूट्यूब चैनल पर ये गाना रिलीज़ किया गया। साथ ही रविंद्र जैन की वो याद शेयर की गई, जो उन्होंने इस गाने को लेकर लिखी थी। उन्होंने लिखा.....मैं बंबई आया था एक सपना लेकर। वो मुंबई जहां विश्व की सबसे सुरीली आवाज़ बसती है। जिसके कंठ में सरस्वती साक्षात बोलती है। वह आवाज़ है स्वर-सम्राज्ञी लता मंगेशकर की आवाज़। समय के साथ मेरा सपना भी पूरा हुआ, मैं जिस दिन प्रभुकुंज (लता दीदी के निवास) की सीढिय़ां चढ़ रहा था, उस दिन मुझे लग रहा था कि मैं उन्नतियों की सीढिय़ों पर चढ़ रहा हूं. क्योंकि वहां लता जी रहती हैं। लता जी को गाना सुनाया, जो उन्हें बहुत अच्छा लगा। गीत सुनकर लता जी ने आशीर्वाद दिया। उस गीत की रिकॉर्डिंग फेमस स्टूडियो ताड़देव में हुई। रिकॉर्डिंग के बाद लता दीदी ने बैठकर पूरा गीत सुना और खूब सराहना भी की। जबकि अक्सर लता जी गाना रिकॉर्ड करने के बाद चली जाती थीं, सुनने के लिए नहीं रुकती थीं. लेकिन वह गीत उन्होंने सुना।2. तुम मेरी जि़ंदगी में कुछ....आर.डी. बर्मन और लता मंगेशकर की जोड़ी ने अनेक सदाबहार गाने दिए. जैसे अमर प्रेम का रैना बीती जाए, या फिर आंधी फिल्म का तेरे बिना जि़ंदगी से कोई शिकवा तो नही। इस जोड़ी ने एक ऐसा गाना भी बनाया था, जो ओरिजिनली रिलीज़ नहीं हो पाया था। 1972 में आई बॉम्बे टू गोवा के लिए लता मंगेशकर ने तुम मेरी जि़ंदगी में कुछ नाम का गाना रिकॉर्ड किया था। जो किसी कारणवश फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाया था। हालांकि, इस गाने को बाद में रिलीज़ किया गया और आप इसे आसानी से सुन सकते हैं।3. ठीक नहीं लगता.....नाइंटीज़ अलबम में संगीतकार विशाल भारद्वाज ने गुलज़ार का लिखा एक गीत कम्पोज़ किया था, टाइटल था ठीक नहीं लगता। आवाज़ थी दी लता मंगेशकर ने। हालांकि, जिस फिल्म के लिए ये गाना रिकॉर्ड किया गया वो कभी बन नहीं पाई। इस वजह से ये गाना भी हमेशा के लिए डिब्बाबंद हो गया। इस बात को कई साल बीत गए। विशाल भारद्वाज ने अपने एक इंटरव्यू में बताया कि उन्होंने इस गाने की रिकॉर्डिंग ढूंढने की कोशिश की, लेकिन कोई सफलता हाथ नहीं लगी। फिर एक दिन 2018 में उनके पास अचानक एक कॉल आया। ये कॉल उस स्टूडियो से था जहां ठीक नहीं लगता.. गीत रिकॉर्ड किया गया था। उन्होंने कहा कि हम अपना स्टूडियो बंद कर रहे हैं। आप के नाम का एक टेप मिला है, अगर लेना हो तो ले लीजिए वरना हम फेंक देंगे। उस टेप में कई गाने थे और उन्हीं में से एक था लता जी का गाया ये गाना। विशाल भारद्वाज ने उस गाने को रीट्रीव किया और रीऑर्कस्ट्रेट कर 28 सितंबर, 2021 यानी लता मंगेशकर के जन्मदिन पर वीबी यूट्यूब चैनल पर रिलीज़ किया। गाने का वीडियो लता जी को ट्रिब्यूट देता है। जहां स्क्रीन पर उनकी लाइफ से जुड़ी बातें दिखाई देती हैं कि कैसे उनका बचपन में नाम हेमा था और उनका नाम लता उनके पिता के एक प्ले के किरदार लतिका के नाम पर पड़ा।4. ये हसीन रात...फस्र्ट पोस्ट के सुभाष झा को दिए एक इंटरव्यू में लता मंगेशकर ने बताया कि पाकीज़ा के डायरेक्टर कमाल अमरोही मजनून नाम की फिल्म बना रहे थे। फिल्म के लिए खय्याम ने एक गीत कम्पोज़ किया था, ये हसीन रात..., जिसे लता मंगेशकर और येसुदास ने मिलकर गाया था। बाद में कमाल को ये फिल्म बंद करनी पड़ी, जिस वजह से ये गाना भी कभी रिलीज़ नहीं हो पाया। उसी इंटरव्यू में लता मंगेशकर ने बताया कि पाकीज़ा के लिए ग़ुलाम मोहम्मद ने कई गाने कम्पोज़ किये थे, जिन्हें लता जी ने अपनी आवाज़ दी थी। उन्होंने बताया कि वह गाने बेहद खूबसूरत थे, लेकिन कभी उन्हें फिल्म में इस्तेमाल नहीं किया गया।5. आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहींसुभाष झा को दिए इंटरव्यू में लता जी ने बताया था कि वो रिकॉर्डिंग के बाद अपने गाने नहीं सुनती थीं। एक रिकॉर्डिंग से दूसरी पर शिफ्ट हो जातीं। इसलिए उन्हें कभी पता नहीं चलता था कि उनका कौन सा गाना फिल्म में इस्तेमाल होगा या नहीं। संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी के लिए उन्होंने एक गाना रिकॉर्ड किया। फिल्म थी मिलन। गाना था आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहीं...। लता जी ने बताया कि वो गाना कम्पोजऱ जोड़ी के फेवरेट गानों में से एक था। फिल्म मिलन में उस गाने को इस्तेमाल नहीं किया गया, हालांकि बाद में अलग से रिलीज़ कर दिया गया था।-----
- आलेख- मंजूषा शर्मासुरों की मलिका लता मंगेशकर यानी सबकी प्यारी लता दीदी की आवाज हमेशा के लिए थम गई है। 6 फरवरी की सुबह उन्होंने इस संसार को विदा कहा। 28 सितंबर, 1929 को उनका जन्म मराठी ब्राम्हण परिवार में, मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में सबसे बड़ी बेटी के रूप में पंडित दीनानाथ मंगेशकर के मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। लता दीदी ने गायकी में जो ऊंचाइयां हासिल की , वहां आज तक कोई पहुंच नहीं पाया । लता दीदी थीं ही ऐसी कि किसी के साथ उनकी तुलना करना नामुमकिन है। अपनी पाक-साफ आवाज से वे जब गाती थीं कि तो लगता था कि पूरी कायनात सुरीली हो गई है।आज हम उनके गाये कुछ गानों का यहां जिक्र कर रहे हैं, जो लताजी के पसंदीदा थे।1. नैनों में बदरा छाए (फिल्म -मेरा साया- 1966)2. ए मेरे वतन के लोगों (फिल्म हकीकत-1964)3.सत्यम शिवम सुंदरम ( सत्यम शिवम सुंदरम-1978)4. कुछ दिन ने कहा (अनुपमा-1966)5. लग जा गले (वो कौन थी-1964)6. रहे न रहे हम (ममता-1966)7. आएगा आएगा आने वाला (महल- 1949)8. प्यार किया तो डरना क्या (मुगल ए आजम- 1960)9. जरा की आहट (हकीकत- 1964)10. ए दिले नादान (रजिया सुल्तान-1983)11. अजीब दास्तां है ये (दिल अपना और प्रीत पराई-1960)12. वो भूली दास्तां (संजोग-1961)13. तेरे बिना जिंदगी से (आंधी-1975)14. दिखाई दिए यूं (बाजार- 1982)15. क्या जानूं सजन (बहारों के सपने - 1967)16. सुनियोजी अराज मारी (1991)17. अल्लाह तेरो नाम (1961)18. नाम गुम जाएगा (1977)- इस गाने की खासियत ये है कि गुलजार साहब ने इसे लता मंगेशकर के लिए ही लिखा था।इन सब के अलावा मुझे लताजी की गाया एक भजन काफी पसंद है और वो है अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम ....। यह गीत फिल्म हम दोनों का है और इस गाने का फिल्मांकन अभिनेत्री नंदा और लीला चिटनीस पर हुआ है। फिल्म में साधना और देवानंद मुख्य भूमिकाओं में थे। फिल्म में देवसाहब की दोहरी भूमिका थी। फिल्म के हर गाने लोकप्रिय हुए थे। लेकिन इसका भजन अल्लाह तेरो नाम, आज भी फिल्मी भजनों के श्रंृखला में हिट माना जाता है। इसे लिखा साहिर लुधियानवी ने।फिल्म हम दोनों 1961 की फिल्म थी जिसका निर्माण किया था देव आनंद ने अपने नवकेतन के बैनर तले। फि़ल्म का निर्देशन किया अमरजीत ने। निर्मल सरकार की कहानी पर इस फि़ल्म के संवाद और पटकथा को साकार किया विजय आनंद ने। देव आनंद, नंदा और साधना अभिनीत इस फि़ल्म में संगीत दिया था जयदेव का। इस फि़ल्म में लता जी के गाए दो भजन ऐसे हैं कि जो फि़ल्मी भजनों में बहुत ही ऊंचा मुक़ाम रखते हैं। अल्लाह तेरो नाम के अलावा दूसरा भजन है-प्रभु तेरो नाम जो ध्याये फल पाए।दोनों ही भजनों को सुनकर लगता है कि जैसे लता जी ने उन्हें अंतर्आत्मा से गाया है। अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम भजन में धर्मनिरपेक्षता साफ झलकती है। यह भजन राग गौड़ सारंग पर आधारित है। शांत रस इसका भाव ही है। जाहिर है कि इसे सुनने के बाद मन शांत हो जाता है यदि आप इसे दिल से सुने तब। शांत रस मन का वह भाव है, वह स्थिति है जिसमें है सुकून है चैन है। इसलिए यह रस तभी जागृत हो सकता है जब हम ध्यान और साधना से इसे जागृत करें।1962 के चीनी आक्रमण के समय दिल्ली में आयोजित सिने कलाकारों के एक समारोह की शुरुआत लताजी ने इसी भजन से की थी। इस भजन की रिकॉर्डिंग के समय की अपनी एक कहानी है। संगीतकार जयदेव, संगीतकार सचिनदेव बर्मन के सहायक हुआ करते थे। हम दोनों फिल्म में उन्होंने अकेले ही संगीत संयोजन का जिम्मा लिया। कहते हैं कि उस समय लता और बर्मन साहब के बीच किसी बात को लेकर वैचारिक मतभेद हो गए थे। ऐसे में जयदेव इस बात को लेकर असमंजस में थे कि वे लता जी को अपनी फिल्म में लें या न लें । लता के बिना इस भजन में भला कैसे प्राण फूंका जा सकता था। फिर उनके मन में कर्नाटक संगीत की सुपरस्टार एम. एस. सुब्बूलक्ष्मी से यह भजन गवाने की बात उठी, लेकिन बाद में जयदेव ने मन को कड़ा किया और निश्चय किया कि वे लता से ही ये भजन गवाएंगे। सुलह कराने के लिए जयदेव ने रशीद खान को लता के पास भेजा और अपना संदेश भिजवाया। जाहिर है कि लता ने साफ इंकार कर दिया। ऐसे में देवआनंद सामने आए और उन्होंने लता दीदी से कहा कि यदि वे फिल्म का हिस्सा नहीं बनेंगी, तो वे जयदेव को ही हटाकर किसी और को संगीत निर्देशन की जिम्मेदारी सौंप देंगे। यह सुनकर लताजी के समक्ष असमंजस की स्थिति निर्मित हो गई। लता जी यह भी जानती थीं कि जयदेव ने फिल्म में कमाल की कम्पोजिशन की है। आखिरकार वे मानीं और स्टुडियो रिकॉडिंग के लिए पहुंच गईं। आखिरकार एक लंबे संघर्ष के बाद दोनों भजन रिकॉर्ड किए गए और यह संघर्ष नाकामयाब नहीं रहा। दोनों ही भजन हिट हो गए। जयदेव ने फिल्म में आशा जी से अभी न जाओ छोड़कर, जैसा गीत गवाया।जाने-माने शास्त्रीय गायक पंडित जसराज ने एक बार कहा था कि इस भजन को जब उन्होंने सुना तो उनकी आंखों में आंसू आ गए और अभिभूत होकर वे आधी नींद से जाग गए। लता ने भी 1967 में घोषित अपने दस सर्वश्रेष्ठ गीतों में तो इसे शामिल किया था।लता जी की आवाज में और भी कई भजन हैं, जिनमें 1952 की फिल्म नौ बहार के गाने ए री मैं तो प्रेम दीवानी प्रमुख है। इस गाने को नलिनी जयवंत पर फिल्माया गया था। साथ में अशोक कुमार भी थे। इस गाने का संगीत दिया था संगीतकार रोशन ने। गाने के बोल लिखे थे सत्येन्द्र अत्थैया ने। यह गाना राग तोड़ी पर आधारित है।
- -ग्रामीण अंधविश्वास में न पड़ेंअंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष डॉ. दिनेश मिश्र ने बताया राजनांदगांव जिले में एक कृषक के यहाँ उसकी गाय के असामान्य बच्चे के जन्म होने पर ग्रामीणों की भीड़ उमडऩे और उस शिशु को चमत्कारिक जान कर,उसके दर्शन के लिए लाइन लगाने, उस की पूजा अर्चना करने की घटना प्रकाश में आई है .जबकि ऐसे शिशु का जन्म होना चमत्कार नहीं है ,यह शरीर की असामान्य वृद्धि होने से सम्भव है।डॉ. दिनेश मिश्र ने बताया कि उन्हें जानकारी मिली है कि राजनांदगांव जिले में तीन आंख और चार नासिका छिद्र के साथ जन्मी बछिया को देखने लोगों का तांता लगा हुआ है। स्थानीय ग्रामीण और आसपास के गांवों के लोग बछिया को चमत्कारिक अवतार" मान पूजा कर रहे हैं। राजनांदगांव जिले के छुईखदान थाना क्षेत्र के अंतर्गत ग्राम पंचायत बुंदेली के आश्रित लोधी नवागांव निवासी किसान हेमंत चंदेल के यहाँ 13 जनवरी को उसके घर की एक गाय ने बछिया को जन्म दिया है, जन्म के बाद से ही अपनी असमान्य शारीरिक संरचना के कारण, नवजात बछिया स्थानीय ग्रामीण जनों और आसपास के कस्बों के निवासियों के लिए कौतूहल का केंद्र बन गई है। बताया जाता है,नवजात बछिया के माथे पर एक अतिरिक्त आंख है और नथुने में दो अतिरिक्त नासिका छिद्र है। पूंछ जटा की तरह है तथा जीभ सामान्य से लंबी है। तीन आंख और चार नासिका छिद्र समेत अन्य भिन्नताओं को लेकर जन्मी इस बछिया को लोग चमत्कारिक अवतार मान पूजा कर रहे हैं।"एचएफ जर्सी नस्ल की गाय पिछले कुछ वर्षों से उक्त कृषक के घर में है और पहले भी उसने तीन बछड़ों को जन्म दिया है, जो सामान्य थे। लेकिन इस बार जन्मी बछिया ने सभी को चौंका दिया है। जब आसपास के लोगों को बछिया के जन्म की जानकारी मिली तब बछिया की एक झलक पाने के लिए वह घर पहुंच गए और लोग बछिया पर फूल और नारियल पैसे चढ़ा रहे हैं,तथा भीड़ जमा हो रही है।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा कभी-कभी मनुष्यों में भी जन्मगत विकृतियों के मामले सामने आते हैं जिनमें कभी- कभी सूंड नुमा नाक ,तो कभी कटे ओंठ, कभी हाथ. पैर ,सिर. आंखों की बनावट में भी विकृति पाई जाती है इसे भ्रूण की असामान्य वृद्धि के कारण हुई जन्मगत विकृति कहा जा सकता है, न ही यह चमत्कार है न अवतार और न ही कोई अलौकिक घटना। इस तरह कि शारीरिक विकृतियां भ्रूण के असामान्य विकास के कारण होती है जो पौष्टिक आहार की कमी, गर्भावस्था में संक्रमण, किसी हानिकारक वस्तु के सेवन से होती है । आमतौर पर ऐसे बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं। इसे चमत्कार नहीं माना जाना चाहिए।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा, " ग्रामीणों को अंधविश्वास में नहीं पडऩा चाहिए। कई घटनाओं में यह देखा गया है कि विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों के लोग जागरूकता की कमी के कारण ऐसे विकृति युक्त नवजात शिशुओं की पूजा करने लगते हैं।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा ग्रामीण अंचल से जन्मगत विकृति के मामले और अनियमित विकास के मामले मनुष्य व पशुओं में अनेक बार सामने आते रहे हैं और कुछ दिनों तक इसे चमत्कार के रूप में प्रचारित होने से भीड़ भी जुटी,चढ़ावा भी इकट्ठा हुआ और बाद में जब लोगों को हमने असलियत की जानकारी दी तो भीड़ छंटने लगी। . जन्मगत विकृति के बारे में ग्रामीणों को को वैज्ञानिक रूप से समझाने की जरूरत है ताकि वे किसी भी भ्रम व अंधविश्वास में न पड़ें.।डॉ. दिनेश मिश्रअध्यक्ष अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति
- -कोई नारी डायन/टोनही नहींडायन या टोनही की धारणा हमारे देश में प्रमुख अंधविश्वासों में से एक है जिसमें किसी महिला को डायन (टोनही) घोषित कर दिया जाता है तथा उस पर जादू-टोना कर बीमारी फैलाने, गाँव में विपत्तियाँ लाने का आरोप लगाकर उसे लांछित किया जाता है। डायन (टोनही) के रूप में आरोपित इन महिलाओं को न केवल सार्वजनिक रूप से बेइज्जत किया जाता है, बल्कि उन्हें शारीरिक प्रताडऩा दी जाती है तथा समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है। ऐसे मामलों में शारीरिक प्रताडऩा इतनी अधिक होती है कि वे महिनों शारीरिक जख्मों का दर्द लिये कराहती रहती है तथा गाँव में उन्हें उपचार मिलना भी संभव नहीं होता। सार्वजनिक रूप से बेइज्जती व अपमान के जख्म तो आजीवन दुख देते हैं। इन स्थानों पर प्रभावशाली समूह का दबाव इतना अधिक रहता है कि प्रताडऩा की घटनाओं की जानकारी गाँव के बाहर नहीं जा पाती तथा प्रताडि़त महिला व उसका परिवार नारकीय जीवन जीता रहता है, ऐसे मामलों में कई बार महिलाएँ आत्महत्या तक कर लेती है।डायन (टोनही) के संदेह में प्रताडऩा के मामले में गाँवों के जनप्रतिनिधि व शासकीय कर्मचारी भी सामने आने का साहस नहीं कर पाते, ऐसे अधिकांश मामलों में जो जानकारी ही गाँवों से बाहर नहीं आ पाती, जिससे कथित बैगाओं का राज कायम हो जाता है। जो गाँव में सभी विपदाओं का कारण जादू-टोना व डायन (टोनही) बताकर, टोनही पकड़वाने, चिन्हित करने, गाँव बाँधने के नाम पर न केवल मनमानी राशि वसूलते हैं बल्कि किसी भी गरीब बेकसूर महिला को डायन (टोनही) घोषित कर हमेशा अभिशप्त जीवन जीने व प्रताडऩा सहने के लिये छोड़ देते हैं, इन बैगाओं द्वारा महिला को डायन (टोनही) न होने का प्रमाण देने के लिये ऐसी परीक्षाएँ ली जाती है जो किसी भी महिलाओं के लिये संभव नहीं है। ऐसे मामलों में खुद को निर्दोष साबित करना बहुत मुश्किल हो जाता है वह भी जब पूरा गाँव ही अंधविश्वास के कारण विरोध में खड़ा हो, जबकि वास्तविकता यह है कि डायन (टोनही) के रूप में घोषित की जाने वाली महिला में इतनी ताकत नहीं होती है कि आत्मरक्षा ही कर सके, दूसरों के नुकसान करना तो संभव ही नहीं है।हम पिछले 26 वर्षों से समाज में फैले अंधविश्वासों एवं सामाजिक कुरीतियों के निर्मूलन के लिए अभियान चला रहे हैं जिसका एक प्रमुख हिस्सा डायन (टोनही) की धारणा का निर्मूलन भी है, इसलिये व्याख्यान, चमत्कारिक घटनाओं की वैज्ञानिक धारणा, विभिन्न ग्रामों में दौरा कर समझाना, अंधविश्वास का पर्याय बनने वाले मामलों की जाँच व सत्य की जानकारी, गोष्ठियाँ, बैठकें की जाती है। वहीं सामाजिक बहिष्कार जैसी कुरीति के भी अनेक मामले लगातार सामने आते रहते हैं,जिससे हजारों परिवार परेशान है उन्हें समाज में वापस लौटाने के लिए भी निरंतर प्रयास किया जाता है.हमें कई बार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न स्थानों के बुद्धिजीवी साथियों, छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, समाज-सुधार के संबंध में विचार पढऩे को मिलते हैं, मेरा यह मानना है कि अंधविश्वासों एवं सामाजिक कुरीतियों का समूल निर्मूलन किसी एक व्यक्ति, एक संगठन या प्रशासन के लिये संभव नहीं है। अलग-अलग स्थानों पर निवास व कार्य कर रहे सभी व्यक्ति यदि इस कार्य के लिये अपना थोड़ा समय व बहुमूल्य विचार हमें प्रदान करें, व सहयोग से कार्य करें तो ऐसा कोई भी कारण नहीं है कि इन कुरीतियों व अंधविश्वासों का निर्मूलन न किया जा सके, नये वर्ष में सर्व सहयोग से यह काम बेहतर ढंग से किया जा सकता है। इच्छुक स्वयंसेवी व्यक्ति व उत्साही कार्यकर्ता मुझसे इस पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।डॉ. दिनेश मिश्रवरिष्ठ नेत्र विशेषज्ञअध्यक्षअंधश्रद्धा निर्मूलन समितिमोबाईल नं. 98274-00859
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--शो मैन राजकपूर की जयंती पर जाने ऐसे ही कुछ किस्से
'शोमैन' के खिताब से नवाजे गए एक्टर और निर्देशक राज कपूर की आज जयंती है। राज कपूर को बचपन से एक्टिंग करने का शौक था। जैसे जैसे वो बड़े होते गए उनकी रूचि और बढ़ती गयी। 14 दिसंबर 1924 को जन्मे राज कपूर ने अपने फिल्मी कॅरिअर में 3 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 11 फिल्मफेयर पुरस्कार हासिल किए।- राज कपूर का असली नाम रणबीर राज कपूर था। अभिनेता का नाम उनके पोते रणबीर कपूर ने साझा किया है। राज कपूर ने भारतीय सिनेमा में अपनी शुरुआत 1945 में आई फिल्म 'इंकलाब' के साथ की, जब वो सिर्फ 10 साल के थे। मात्र 24 साल की उम्र में उन्होंने अपना स्टूडियो - आरके फिल्म्स बनाया था। इस स्टूडियो में बनी पहली फिल्म 'आग' कमर्शियल फ्लॉप थी।- राज कपूर की पहली जॉब क्लैपर बॉय की थी। इस नौकरी से उन्हें 10 रुपये प्रति महीना मिलते थे।- फिल्म 'बॉबी' का एक सीन जब ऋषि कपूर डिम्पल कपाडिय़ा से उनके घर पर मिलते हैं। यह राज कपूर की रियल लाइफ पर आधारित था। नरगिस से उनकी पहली मुलाकात ऐसे ही हुई थी। किसी दौर में राज कपूर नरगिस दत्त के प्यार में पागल थे। कहा जाता है वो नरगिस को पहली नजर में दिल दे बैठे थे।-राज कपूर ने म्यूजिक डायरेक्टर जोड़ी शंकर-जयकिशन के साथ करीब 20 फिल्मों में काम किया। मुकेश और मन्ना डे जैसे मशहूर गायक की हमेशा राज कपूर को आवाज़ देते थे। इनमें से भी मुकेश ने उनके लिए कई गाने गाए। कहा जाता है, जब मुकेश का निधन हुआ, तब राज कपूर ने कहा, 'मैंने अपनी आवाज़ को खो दिया'।- राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद को भारतीय सिनेमा की पहली तिकड़ी माना जाता है। उनके बीच किसी प्रकार की स्पर्धा नहीं थी, बल्कि वे काफी अच्छे दोस्त थे। दिलीप कुमार साहब की शादी उस वक्त की सबसे भव्य शादियों में से एक थी। राज कपूर से उनके रिश्ते ऐसे थे, कि राज कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर और देव आनंद के साथ बारात में सबसे आगे गए थे। असल जिदंगी में राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की जो गहरी दोस्ती थी, लेकिन उसे परदे पर उतारा न जा सका। फिल्म निर्माता विजय आनंद ने एक फिल्म इन तीनों के साथ शुरू ज़रूर की, लेकिन डेट्स की दिक्कतों और अहम के टकराव के कारण यह फिल्म कभी पूरी नहीं हो सकी।-'मेरा नाम जोकर' फिल्म राजकपूर ने काफी लंबी बनाई थी और इसमें दो इंटरवेल थे। इस मूवी को अद्वितीय इसलिए कहा जाता है कि यह हर दौर में नई ही लगती है। यह भारत की सबसे आइकॉनिक फिल्मों में से एक है। कहा जाता है कि फिल्म का सब्जेक्ट इतना गहरा है, कि यह पहली हिंदी फिल्म थी जिसमें दो इंटरवल किए गए और यह फिल्म साढ़े 4 घंटे लंबी है।-जब राज कपूर 'सत्यम शिवम सुंदरम' फिल्म के लिए ऐक्ट्रेस फाइनलाइज़ कर रहे थे। तभी, ज़ीनत एक गांव की लड़की की तरह कपड़े पहनकर और जले हुए चेहरे का मेकअप कर उनके ऑफिस पहुंच गईं। राज कपूर उनके डेडिकेशन से इतने खुश हुए कि तुरंत उन्हें फाइनल कर दिया।- इसे लकी चार्म कह लीजिए या राज की चाहत, उनकी हर हीरोइन ने एक बार सफेद साड़ी ज़रूर पहनी है। कहा जाता है, राज कपूर ने अपनी पत्नी कृष्णा को एक सफेद साड़ी गिफ्ट की थी। उन्हें वह इतनी भाई कि आगे उनकी हर ऐक्ट्रेस ने फिल्म के कम-से-कम एक सीन में वह साड़ी ज़रूर पहनी। कहा जाता है कि राजकपूर की खातिर नरगिस शादी से पहले अक्सर सफेद साड़ी पहना करती थीं।-राज कपूर की बिगड़ती सेहत और अपने जिगरी दोस्त को खो देने के डर ने ऋषिकेश मुखर्जी को इस कदर ख़ौफज़़दा कर दिया कि उन्होंने राज के लिए 'आनंद' बनाई। राज कपूर को अक्यूट ऐस्थमा था।- राज कपूर अस्थमा के मरीज थे। राज कपूर जब दादा साहब फाल्के अवार्ड लेने दिल्ली आये थे, वहीं उन्हें अस्थमा का अटैक पड़ गया और उनका निधन हो गया था।-- - अदाकार-ए-आज़म कहलाए जाने वाले दिलीप कुमार ने इसी साल 7 जुलाई (2021) को 98 के वर्ष की आयु में इस संसार को हमेशा के लिए अलविदा कहा। उनकी फिल्में आज भी लोगों को लुभाती हैं। उन पर एक से बढ़कर गाने भी फिल्माए गए। आज हम उनसे जुड़े कुछ किस्सों को साझा कर रहे हैं।- दिलीप कुमार अपनी ज्यादातर फि़ल्मों में पूरी आस्तीन की शर्ट पहनते थे। आपने आधी आस्तीन के कपड़े पहने उन्हें बहुत कम देखा होगा। एक साक्षात्कार में उन्होंने इसकी एक वजह भी बताई थी। उन्होंने कहा था- "अगर कभी पानी का सीन हो और मैं पानी में उतरूं, तो मेरे हाथों के बाल इधर-उधर हो जाते हैं, जिस वजह से मैं बड़ा सेल्फ़ कांशियस हो जाता हूं। "-दिलीप कुमार साब को बतौर अभिनेता तो हम सबने देखा और सुना है , लेकिन दिलीप कुमार बतौर पड़ोसी कैसे थे ये तजुर्बा हर किसी को नसीब नहीं हुआ। फिल्म अभिनेता सुनील दत्त उनके पड़ोसी और दोस्त भी थे। दिलीप कुमार की पत्नी सायरा बानो और सुनील दत्त की पत्नी नरगिस भी अच्छी सहेलियां थीं। एक बार सुनील दत्त ने अपने एक साक्षात्कार में जिक्र किया था कि "मैंने दिलीप साहब को बतौर स्टूडेंट भी जाना है। एक ज़माने में मैं रेडियो के लिए कलाकारों के इंटरव्यू किया करता था । एक बार दिलीप साहब के इंटरव्यू का भी मौक़ा मिला। मैं एक स्टूडेंट था उस वक़्त और छोटा सा इंटरव्यू करने वाला पत्रकार था, लेकिन दिलीप साब मुझे अपने घर ले गए। अपनी बहनों से, भाइयों से मिलवायाष उस दिन से मेरे दिल में इनके लिए प्यार और सम्मान बढ़ गया। उन्होंने मुझे उस वक़्त से अपने घर का समझा।"- दिलीप साब की राजकपूर के साथ भी अच्छी दोस्ती थीं। फिल्म इंडस्ट्री में उस वक्त राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद की दोस्ती मशहूर थी। लेकिन राजकपूर के साथ उन्होंने केवल एक फिल्म की अंदाज। इस फिल्म के बारे में एक बार दिलीप कुमार ने बताया था कि फिल्म अंदाज़ के डायरेक्टर महबूब खान ने उन्हें और राज कपूर को खुल्ली छूट दे रखी थी कि वो जैसे चाहें सीन करें। दिलीप साब तो कहते हैं कि उन्होंने और राज कपूर ने अंदाज़ में कोई ख़ास काम नहीं किया था। बल्कि उस दौरान तो वे दोनों डरे-सहमे काम किया करते थे। हमेशा ये टेंशन रहता था कि कल का सीन कैसे करेंगे। एक्टिंग की तैयारी के लिए दिलीप साब और राज कपूर साब कभी-कभी दिन में हॉलीवुड फि़ल्मों के सारे शोज़ देखा करते थे। हालांकि राज कपूर कभी-कभी दिलीप साब पर झुंझला भी जाते थे। वो कहते थे यार क्या एक ही फि़ल्म बार-बार देखते रहते हो। दिलीप साब उनसे कहते थे कि एक फि़ल्म तो जल्दी से खत्म हो जाती है। मंजऱ समझ ही नहीं आता। वेस्टर्न फि़ल्में देख दिलीप साब राज कपूर से कहते 'यार ये लोग तो बहुत कम एक्टिंग करते हैं। हम भी ऐसी ही किया करें। इस पर राज कपूर उनसे कहते अरे नहीं युसुफ़ हम ऐसी एक्टिंग नहीं कर सकते। इस तरह की यारबाज़ी इन दो कलाकरों के बीच अक्सर चला करती थी।- फिल्म दीदार फि़ल्म में एक सीन है जिसमें अशोक कुमार दिलीप साब को थप्पड़ मारते हैं। जब ये थप्पड़ वाला सीना होना था, तब अशोक कुमार ने दिलीप साब से कहा कि मैं तुम्हारे गाल के बगल से हाथ ले जाऊंगा। सीन शुरू हुआ, तो कभी दिलीप साब हाथ आने से पहले हट जाएं तो कभी बाद में हटे। अशोक कुमार ने उनसे कहा इसकी टाइमिंग सही करो। अबकी बार जब टेक हुआ तो अशोक कुमार ने हलके से ही हाथ घुमाया था, लेकिन दिलीप साब ने टाइमिंग पकड़ ली और ऐसा रिएक्शन दिया कि लगा जैसे वाकई में उन्हें तमाचे की मार लग गई है।-सालों पहले दिलीप साब से जब पूछा गया कि नई पीढ़ी में हमें अब दिलीप कुमार, मधुबाला जैसे कलाकार क्यों नहीं दिखते। इस बारे में दिलीप साब ने सलीके का जवाब दिया, बोले, "सब मशीन हैं। वो जो कनफ्लिक्ट मधुबाला में या नर्गिस में था, वो आजकल देखने को नहीं मिलता। उनकी अदाकारी बेहतर थी क्योंकि उनके पास रॉ मटेरियल काफ़ी था। वो कहानी की तहरीर समझते थे। आजकल के कलाकारों में ये चीज़ देखने को नहीं मिलती। बदकिस्मती है कि अब हम विदेशी कल्चर से इन्फ्लुएंस हुए जा रहे हैं। ये जो कल्चरल चेंज है इसने हमें उभरने नहीं दिया है। मैं देखता हूं एक्टर्स को। वो टैलेंटेड हैं, लेकिन उनके पास परफॉर्म करने के लिए मटेरियल ही नहीं है। दूसरा उनके अंदर उस मटेरियल को ढूँढने की क्षमता भी नहीं है। ये एक गलती है जो मैं ज्यादातर कलाकारों को करते हुए देखता हूं। उनके अंदर ढूँढने की इच्छा ही नहीं होती। थोड़ा सा जानकर समझ लेते हैं कि सब आ गया है। "
- धमधा के भवानी सिंह को अंग्रेज और भोसले राजाओं ने 1856 में तोप से बांधकर उड़ा दिया था। एक जनश्रृति यह भी है कि किले पर हमला होने के बाद राजा सुरंग के रास्ते भाग गए।आखिर इतने प्रसिद्ध धमधागढ़ के राजा उसके परिवार के लोग कहां गुम हो गए? यह सवाल हर किसी के मन में आता है।इसका जवाब हमें महासमुंद जिले के पिथौरा ब्लॉक के अरण्य गांव में मिला, जहां धमधा के राजा का परिवार आज भी निवासरत हैं और वर्तमान में धमधा के राजा का नाम योगसाय है।उनके परिजनों के अनुसार अंग्रेजों के आक्रमण की खबर के बाद राजा रातोंरात सुरंग के रास्ते से निकल गए थे। वे अरण्य के जंगल में जाकर रहने लगे। उसके बाद कौडिय़ा जमींदारी में नौकर बनकर काम करने लगे। कौडिय़ा के जमींदार की पत्नी विष्णुप्रिया को जब खबर लगी कि वह नौकर नहीं धमधा का राजा है, तब रानी विष्णुप्रिया ने सात गांव की जमींदारी देकर राजा का मान सम्मान लौटाया।बाद में परऊ साय ने अपने ईष्ट बूढ़ादेव का मंदिर धमधा में बनवाया, जिसकी अनुमति 1907 में अंग्रेज अफसर से ली। इसके दस्तावेज भी राजपरिवार के पास है। बूढ़ादेव मंदिर के द्वार में दो मूर्ति बनी है, उसके नीचे परऊ सेवक लिखा हुआ है।धर्मधाम गौरवगाथा की टीम महासमुंद पिथौरा के अरण्य पहुंची और राजपरिवार की जानकारी ली। बताया गया कि परऊ साय के बेटे बूढ़ान साय और जहान साय ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और जेल की यातना झेली। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का ताम्रपत्र देकर सम्मानित भी किया गया है। बूढ़ान साय के नाम पर पिथौरा के कॉलेज का नामकरण भी किया गया है। बूढ़ान साय ने गोंड समाज को संगठित करने समिति बनाकर पंजीयन भी कराया और अपने राजपाठ के लिये लड़ाई लड़ी, लेकिन राजपरिवार को उनका राजपाठ नहीं मिल सका है।2001 में शासन ने राजा किला को केंद्रीय गोंडवाना महासभा के संरक्षण में दे दिया, जिसके बाद से राजपरिवार और उपेक्षित हो गए। आज धमधा के किले पर राजपरिवार को मेहमान की तरह आकर अपना पांरपरिक पूजा पाठ करना पड़ता है। हर साल ईशर गौरा महापूजा राजपरिवार करता है।इस बार 13-14-15 नवंबर 2021 को यह महापूजा होगी। पूरे प्रदेश से मरकाम, सोरी,खुसरो ग्रोत्र वाले इस पूजा में शामिल होते हैं। ये स्वयं को धमधा के पहले राजा सांड विजयी का वंशज बताते हैं, इनके पास दस्तावेज भी हैं, जिनमें बूढ़ादेव मंदिर के निर्माण का उल्लेख है।फिर भी राजपरिवार उपेक्षित बना हुआ है... गुमनामी में जी रहा है।(आलेख- गोविन्द पटेल, धर्मधाम गौरवगाथा समिति धमधा, 9893172336)धमधागढ़ राजा के वंशजों के साथ लेखक गोविंद पटेल और धर्मधाम गौरवगाथा समिति, धमधा के सदस्य
- @ डॉ. मिश्र फाउंडेशन द्वारा जनजागरण.अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष वरिष्ठ नेत्र विशेषज्ञ डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा है कि एक व्यक्ति के नेत्रदान के द्वारा दो दृष्टिहीन व्यक्तियों के जीवन में प्रकाश आ सकता है, स्वयं तथा अपने परिवार के सदस्यों को नेत्र दान के लिए प्रेरित कर नेत्र दान को अपनी पारिवारिक परम्परा बनाएं।डॉ दिनेश मिश्र ने कहा किसी दृष्टिहीन व्यक्ति के कठिनाई भरे जीवन का अंदाज सिर्फ आप कुछ पलों के लिए अपनी आँखें बंद कर ही लगा सकते हैं। आँखें बंद करते ही जीवन के सुन्दर दृश्य प्राकृतिक छटायें, सूर्य, जल, पृथ्वी, आकाश व जनजीवन के विभिन्न रूप अदृश्य हो जाते हैं, वहीं मन में एक भय व असुरक्षा की भावना समाज जाती है और तत्काल आँखें खोलने पर मजबूर हो जाते हैं। प्रकाश व दृष्टि से परे, जीवन का एक दूसरा रूप यह भी जानिए कि पूरी दुनिया में करीब 3 करोड़ लोग पूरी तरह से दृष्टिहीन हैं। भारत में 1 करोड़ 20 लाख लोग पूरी तरह से दृष्टिहीन हैं। 80 लाख लोगों की एक आँख खराब है तथा 4-5 करोड़ लोग कम दृष्टि के कारण घर से बाहर निकलने, मन-माफिक काम करने, चलने-फिरने से पूरी तरह बाधित हैं।डॉ. मिश्र ने प्रकृति ने जीव को दृष्टि एक ऐसा अमूल्य उपहार दिया है जिसकी कोई कीमत नहीं आंकी जा सकती है। जिस अंधकार में हम एक क्षण बिताने की कल्पना नहीं कर सकते, उसी गहन अंधकार में कितने ही लोग जिन्दगी गुजारने को मजबूर हैं। क्या इनके जीवन में प्रकाश की कोई किरण आ सकती है। इस प्रश्न का उत्तर निस्संदेह हाँ, इनमें से काफी लोग मरणोपरांत नेत्रदान से लाभ उठा सकते हैं। आंखों के स्वच्छ पटल अथवा कार्निया में सफेदी आने से होने वाले अंधत्व के उपचार के लिए नेत्र दान से प्राप्त कॉर्निया मिलना आवश्यक है।डॉ. मिश्र ने कहा नेत्रदान वह प्रक्रिया है जिसमें मानव नेत्रदान द्वारा दान-दाताओं से उनकी मृत्यु के बाद ग्रहण किये जाते हैं। नेत्रदान से प्राप्त इन आँखों की स्वच्छ कार्निया को ऐसे दृष्टिहीन व्यक्ति जिनका जीवन कार्निया में सफेदी आ जाने से अंधकारमय हो गया है, को प्रत्यारोपित कर नेत्र ज्योति लौटायी जा सकती है।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा हर स्वस्थ व्यक्ति जिसकी आँखें सही सलामत है, नेत्रदान की घोषणा कर सकता है। ऐसे व्यक्ति जो वायरल हिपेटाईटिस, पीलाया, यकृत रोग, रक्त कैंसर, टी.बी., मस्तिष्क ज्वर, सड्स् से संक्रमित होने से नेत्र नहीं लिये जाते। अप्राकृतिक मौत, एक्सीडेंट की हालत में मजिस्टे्रट की अनुमति से नेत्र ग्रहण किये जा सकते हैं। ऐसे दृष्टिहीन व्यक्ति जिनकी आँखों की कार्निया, किसी बैक्टीरिया, वायरल संक्रमण रोग, दुर्घटना, रासायनिक पदार्थों के गिरने जैसे एसिड, क्षार, घाव, अल्सर आदि के बाद सफेद व अपारदर्शी हो गई हो तथा उससे दृष्टि एकदम कम हो गई हो, का इलाज नेत्रदान से प्राप्त कार्निया प्रत्यारोपण से संभव है। लेकिन रेटिना या आँखों के परदे की बीमारी, परदा उखडऩा, लेंस की बीमारी, मोतियाबिंद, आप्टिक नर्व की बीमारी व चोटों का इलाज कार्निया प्रत्यारोपण से संभव नहीं है। जिन दृष्टिहीनों की आँख पूरी की पूरी, कैसर, चोट या संक्रमण से निकालना पड़ा हो, उन्हें नेत्रदान से लाभ नहीं होता।डॉ. मिश्र ने कहा हमारे देश में पिछले 36 वर्षों से राष्ट्रीय नेत्रदान पखवाड़ा मनाया जाता है। 25अगस्त से 8 सितम्बर तक चलने वाला यह पखवाड़ा राष्ट्रीय नेत्रदान पखवाड़े के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किया जाता है। लेकिन आज भी नेत्रदान की संख्या पिछले कई वर्षों में अंगुलियों में गिनने लायक ही है। जिसके कारण नेत्रदान से लाभांवित होने वाले मरीजों की संख्या अल्प ही रही। जबकि देश के कुछ प्रदेशों में नेत्रदाताओं की संख्या आश्यचर्यजनक रूप से बढ़ी है। नेत्रदान को महादान की संज्ञा दी गई है, भारत में करीब 25 लाख मरीज कार्निया के रोगों से पीडि़त हैं जो नेत्रदान से प्राप्त आँख की बाट जोह रहे हैं, इसमें प्रतिवर्ष 20 हजार दृष्टिहीनों की संख्या जुड़ती जा रही है। जबकि शासकीय व निजी स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रयासों के बावजूद देश में एक साल में करीब बारह हजार नेत्र प्रत्यारोपण के ऑपरेशन हो पाते हैं। श्रीलंका जैसा छोटा देश भी नेत्रदान के मामले में पूरे भारतवर्ष से आगे है।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा पहले शिक्षा का पर्याप्त प्रसार न होने से लोगों में तरह-तरह के अंधविश्वास तथा भ्रांतियां जैसे कुछ लोग यह मानते हैं कि नेत्रदान देने से व्यक्ति अगले जन्म में जन्मांध होगा, तो कुछ लोग भावनात्मक कारणों से मृत शरीर के साथ चीर-फाड़ उचित नहीं मानते तथा नेत्र निकालने की अनुमति नहीं प्रदान करते हैं। तीसरा कारण है - जागरूकता व सामाजिक जिम्मेदारी का अभाव, जबकि भारत में दानवीरता के किस्से हमें सुनने को मिलते रहे हैं। बुद्ध दधीचि, बली व कर्ण जैसे दानवीर भारत की जनता के मानव में रचे बसे हैं, उसके बाद भी नेत्रदान की कम संख्या इस पुनीत कार्यक्रम को आगे बढऩे से रोक रही है ।डॉ. मिश्र ने कहा कार्निया प्रत्यारोपण के ऑपरेशन में अच्छे परिणाम के लिए आवश्यक है कि दान देने वाले व्यक्ति की आँखें मृत्यु के उपरांत जल्द से जल्द निकाल ली जाएं तथा प्रत्यारोपण का ऑपरेशन भी यथासंभव शीघ्र सम्पन्न हो सके। फिर भी छह घंटों के अंदर दानदाता के शरीर से नेत्र निकाल लिये जाने चाहिए एवं 24 घंटों के अंदर प्रत्यारोपित हो जाने पर अच्छे परिणाम आते हैं।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा कई बार दान की घोषणा के बाद भी दानकर्ता के रिश्तेदार इस आशंका से अस्पताल में खबर नहीं करते कि मृत शरीर की चीर-फाड़ कर दुर्दशा क्यों की जाए, लेकिन इस मानसिकता को बदलना आवश्यक है जो निरंतर प्रचार व जन जागरण से ही संभव है।डॉ. मिश्र ने बताया छत्तीसगढ़ में स्थान-स्थान पर ऐसे सामाजिक संगठनों के सहयोग की आवश्यकता है। आवश्यकता पडऩे पर नेत्रदान व नेत्र प्रत्यारोपण के बीच कड़ी का काम कर सके, न केवल मरणासन्न व्यक्ति के परिवार को उस व्यक्ति के मरणोपरांत नेत्रदान के लिए प्रोत्साहित कर सके, बल्कि ऐसे व्यक्ति जिन्हें नेत्र प्रत्यारोपण की आवश्यकता है उन्हें भी नेत्रों के उपलब्ध होने की खबर जल्द से जल्द पहुँचाकर ऑपरेशन के लिए भर्ती करने व मानसिक रूप से तैयार होने में मदद कर सके। इसलिए निरंतर प्रचार व जन-जागरण की आवश्यकता है। डॉ. मिश्र ने आगे बताया वर्तमान में हमारे देश में 150 से अधिक नेत्र बैंक हैं।आईये हम अधिक से अधिक लोगों को नेत्रदान के लिए प्रेरित करें, ताकि दृष्टिहीनों के जीवन में प्रकाश की किरणें जगमगाने लगे। डॉ मिश्र फाउंडेशन इस सम्बंध में जागरूकता अभियान के माध्यम से नेत्रदान के प्रति जागरूकता बढ़ाने का कार्य कर रहा है । लोगों को इस सम्बंध में पम्पलेट वितरित करने,परामर्श देने,तथा नेत्रदान के लिए फार्म भरवाने का कार्य किया जा रहा है।डॉ दिनेश मिश्र वरिष्ठ नेत्र विशेषज्ञएवं संयोजक डॉ. मिश्र फाउंडेशन.
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संगीतकार सलिल चौधरी की पुण्यतिथि पर विशेष
1958 में साउथ कैलिफोर्निया (लॉस एंजेल्स) में एक भारतीय संगीत वाद्य यंत्रों (म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स) की एक बहुत फेमस दुकान हुआ करती थी.. वो एकमात्र दुकान थी जो पूरे अमेरिका में प्रामाणिक भारतीय वाद्य यंत्रों को बेचती थी.. डेविड बर्नाड इसके मालिक हुआ करते थे।
एक दिन एक 36 वर्षीय भारतीय नौजवान इस दुकान में आया और वाद्य यंत्रों को बड़े ध्यान से देखने लगा..... साधारण वेशभूषा वाला ये आदमी वहां के सेल्स के लोगों को कुछ ख़ास आकर्षित नहीं कर सका, मगर फिर भी एक सेल्स गर्ल क्रिस्टिना उसके पास आ कर बनावटी मुस्कान से बोली कि मैं आपकी क्या मदद कर सकती हूँ ?
उस नौजवान ने सितार देखने की मांग की और क्रिस्टिना ने उसको सितारों के संग्रह दिखाए.. मगर उस व्यक्ति को सारे सितार छोड़ कर एक ख़ास सितार पसंद आई और उसे देखने की जि़द की.. क्योंकि वो बहुत ऊपर रखी थी और शोकेस में थी इसलिए उसको उतारना मुश्किल था.. तब तक डेविड, जो की दुकान के मालिक थे, वो भी अपने केबिन से निकलकर आ गए थे, क्योंकि आज तक किसी ने उस सितार को देखने की जि़द नहीं की थी.. बहरहाल सितार उतारी गयी तो क्रिस्टिना शेखी घबराते हुए बोली -इसे बॉस सितार कहा जाता है और आम सितार वादक इसे नहीं बजा सकता है। ये बहुत बड़े-बड़े शो में इस्तेमाल होती है।
वो भारतीय बोला -आप इसे बॉस सितार कहते हैं मगर हम इसे सुरबहार सितार के नाम से जानते हैं.. क्या मैं इसे बजा कर देख सकता हूं?
अब तक तो सारी दुकान के लोग वहां इकठ्ठा हो चुके थे..खैर.. डेविड ने इजाज़त दी बजाने की और फिर उस भारतीय ने थोड़ी देर तार कसे और फिर सुर मिल जाने पर वो उसे अपने घुटनों पर ले कर बैठ गया.. और फिर उसने राग खमाज बजाया .... उनका वो राग बजाना था कि सारे लोग वहां जैसे किसी दूसरी दुनिया में चले गए.. किसी को समय और स्थान का कोई होश न रहा.. जैसे सब कुछ थम गया वहां.. जब राग खत्म हुआ तो वहां ऐसा सन्नाटा छा चुका था जैसे तूफ़ान के जाने के बाद होता है.. लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि वो ताली बजाएं कि मौन रहें..
डेविड इतने अधिक भावुक हो गए कि उस भारतीय से बोले कि आखिर कौन हो तुम.. मैंने पंडित रविशंकर को सुना है और उन जैसा सितार कोई नहीं बजाता; मगर तुम उन से कहीं से कम नहीं हो.. मैं आज धन्य हो गया कि आप मेरी दुकान पर आये.. बताईये मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं।
उस व्यक्ति ने वो सितार खरीदने के लिए कहा मगर डेविड ने कहा इसको मेरी तरफ से उपहार के तौर पर लीजिये.. क्यों इस सितार का कोई मोल नहीं है, ये अनमोल है, इसे मैं बेच नहीं सकता..
क्रिस्टिना जो अब तक रो रही थी, उन्होंने उस भारतीय को एक डॉलर का नोट देते हुए कहा कि -मैं भारतियों को कम आंकती थी और अपने लोगों पर ही गर्व करती थी.. आप दुकान पर आये तो भी मैंने बुझे मन से आपको सितार दिखाया था, . मगर आपने मुझे अचंभित कर दिया.. फिर पता नहीं आपसे कभी मुलाक़ात हो या न हो, इसलिए मेरे लिए इस पर कुछ लिखिए। उस व्यक्ति ने क्रिस्टिना की तारीफ करते हुए अंत में नोट पर अपना नाम लिखा- सलिल चौधरी।
उसी वर्ष सलिल चौधरी ने अपनी एक फि़ल्म के लिए उसी सुरबहार सितार का उपयोग करके एक बहुत प्रसिद्ध बंगाली गाना बनाया जो राग खमाज पर आधारित था.. बाद में यही गाना हिंदी में बना जिसको लता जी ने गाया.. गाने के बोल थे---- ओ सजना.. बरखा बहार आई..रस की फुहार लायी.. अंखियों में प्यार लायी फिल्म परख (1959/60)
(छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम- विशेष) - पुण्यतिथि पर विशेषमूंछे हों तो नत्थू लाल जैसी वरना ना हों.. शराबी फिल्म में अमिताभ बच्चन का यह डॉयलॉग आज भी लोगों को याद है। फिल्म में अमिताभ ये डॉयलॉग अभिनेता मुकरी के लिए कहते हैं। छोटे कद के कलाकार मुकरी फिल्म जगत के बेहतरीन हास्य अभिनेताओं में गिने जाते रहे हैं। आज उनकी पुण्यतिथि पर उनके जुड़ी कुछ बातें....आज से 21 साल पहले 4 सितंबर 2000 को , मुंबई के एक अस्पताल में मुकरी जब जिदंगी और मौत के बीच संघर्ष कर रहे थे, दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन से लेकर बॉलीवुड के वो तमाम लोग भी उनकी सलामती के लिए दुआ मांग रहे थे, जो उनके प्रशंसक थे। फिर खबर आई कि मुकरी नहीं रहे...। उस वक्त उनकी उम्र 78 साल की थी।मुकरी का जन्म ब्रिटिश इंडिया में बॉम्बे प्रेसिडेंसी के अलीबाग में 5 जनवरी, 1922 को हुआ था। ये एक कोंकनी मुस्लिम फैमिली से संबंधित थे। उनका असली नाम मुहम्मद उमर मुकरी था, लेकिन उनकी पहचान बनी मुकरी के नाम से। अमिताभ बच्चन के साथ उनकी जोड़ी खूब बनी। शराबी, नसीब, मुक़द्दर का सिकंदर, लावारिस, महान, कुली और फिर अमर अकबर एन्थोनी में तय्यब अली का रोल, मुकरी ने अपनी अदायगी से अमर कर दिया था।मुकरी और अभिनेता दिलीप कुमार स्कूल के जमाने के दोस्त हुआ करते थे। दिलीप कुमार पढ़ाई पूरी करने के बाद पूना की मिलिट्री कैंटीन में नौकरी करने लगे और मुकरी एक मदरसे में बच्चों को इस्लाम की तालीम देने में जुट गए। कहते हैं कि मदरसे की मामूली तनख्वाह से घर परिवार का गुजारा करना मुश्किल था, इसीलिए उनका रुझान फिल्मों की तरफ हुआ। मुकरी बांबे टाकीज में सहायक निर्देशक के रूप में काम करने लगे। बांबे टॉकीज की मालकिन मशहूर अभिनेत्री देविका रानी थीं। वे अक्सर मुकरी को देखकर मुस्कुराया करती थीं। उनका छोटा कद, गोल-मटोल चेहरा और उनकी वह अलग-सी मुस्कान, जिसे देखते ही देविका रानी हंसे बिना न रह पाती थीं। वे अक्सर सोचती थीं कि यह आदमी कैमरे के पीछे की बजाय परदे पर ठीक रहेगा। और फिर मुकरी की किस्मत ने पलटा खाया और उन्हें फिल्म प्रतिमा में एक रोल मिल गया। ये 1945 की बात थी। इसी फिल्म से मेगास्टार दिलीप कुमार को भी पहचान मिली थी। इसके बाद बॉम्बे टॉकीज की बहुत सी फिल्मों में मुकरी अभिनेता के रूप में नजर आए। इस तरह कैमरे के पीछे रहने वाले मुकरी अब कैमरा का सामना कर रहे थे। फिर चल पड़ा अभिनय का एक लंबा सिलसिला। उनके खाते में जुड़ती गईं फिल्में और करीब 6 सौ फिल्मों में उन्होंने अपनी अदाकारी के जौहर दिखाए।दिलीप कुमार ने जिन चंद दोस्तों का जि़क्र अपनी आत्मकथा में किया है, उनमें उन्होंने राजकपूर, प्राण, डायरेक्टर एस.यू.सन्नी के साथ मुकरी की यादें भी सहेजी हैं। मुकरी ने दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, ऋषि कपूर, शशि कपूर और रजनीकांत जैसे बड़े दिग्गजों के साथ काम किया। उन्होंने मुमताज से शादी की, जिनसे इन्हें दो बेटी और तीन बेटे हुए। इनके एक बेटे नसीम मुकरी ने फिल्म धड़कन और हां मैंने भी प्यार किया है के डायलॉग्स लिखे हैं।मुकरी परदे पर जितने संजीदा थे, उतने निजी जिदंगी में भी थे। सीधे-सादे सरल स्वभाव के मुकरी से उनके साथी कलाकार प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते थे। 4 फीट 10 इंच के इस अभिनेता की कॉमिक टाइमिंग का जवाब नहीं था। फिल्म पड़ोसन में उन्होंने किशोर कुमार, सुनील दत्त , कैस्ट्रो मुखर्जी जैसे कलाकारों के बीच भी अपनी शानदार छाप छोड़ी। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
- जयंती पर विशेषपुरानी फिल्मों में खलनायकों का अहम किरदार हुआ करता था। अब भी फिल्मों में ऐसे किरदार मिल जाते हैं, लेकिन समय के साथ किरदार और उनका प्रस्तुतिकरण दोनों बदल गए हैं। 40 से 60 के दशक में ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के मशहूर विलेन हुआ करते थे के. एन सिंह। बड़ी-बड़ी आंखें, रौबदार चेहरा , संवाद अदायगी का अपना खास अंदाज। वे बिना नाटकीयता की संवाद अदायगी और आंखों से ऐसा माहौल पैदा करते थे, कि लोग डर जाया करते थे। ये खासियत उन्हें सब लोगों से अलग बनाती थी। आज उनकी जयंती है। इस मौके पर आज उनसे जुड़ी कुछ बातों को हम ताजा कर रहे हैं। उन्होंने 2 सौ से अधिक फिल्मों में काम किया।के. एन. सिंह का पूरा नाम है कृष्ण निरंजन सिंह। उनका जन्म 1 सितंबर, 1908 को देहरादून में हुआ था। उनके पिता चंडी दास एक जाने-माने क्रिमिनल लॉयर थे और देहरादून में कुछ प्रांत के राजा भी थे। कृष्ण निरंजन भी उनकी तरह वकील बनना चाहते थे , लेकिन अप्रत्याशित घटना चक्र से उनका वकालत से मोह भंग हो गया। अभिनेता के रूप में लोकप्रिय होने से पहले के. एन. सिंह वेट लिफ्टर और गोला फेंक के उम्दा खिलाड़ी हुआ करते थे। वे 1936 के बर्लिन ओलंपिक के लिए मेहनत कर रहे थे, लेकिन वे इसका हिस्सा नहीं बन पाए, क्योंकि उस वक्त कोलकाता में उनकी बहन काफी बीमार थी। बहन के लिए के. एन. सिंह ने अपना खेल कॅरिअर दांव पर लगा दिया। शायद यह उनकी किस्मत थी, जो उन्हें बर्लिन जाने से रोक रही थी। उन्हें एक अभिनेता के रूप में नाम जो कमाना था।इसी दौरान कोलकाता में उनकी मुलाकात पृथ्वीराज कपूर से हुई और उन्होंने देबकी बोस से उन्हें मिलवाया। देबकी बोस की बांगला फिल्म सुनहरा संसार (1936)में काम करने का मौका के. एन सिंह को मिल गया। कैमरे का जादू उन्हें इतना पसंद आया कि वे मुंबई के ही होकर रह गए। फिल्म बागवान (1936) में उन्होंने लीक से हटकर खलनायक का किरदार निभाया, जो काफी पसंद किया गया। इस तरह से खलनायक के रूप में उनकी एक सफल पारी की शुरुआत हुई। फिर तो फिल्मों का सिलसिला चल निकला। हुमायूं, आवारा, चलती का नाम गाड़ी, हावड़ा ब्रिज, हाथी मेरे साथी, बाजी, वो कौन थी जैसी फिल्में उन्हें मिली। देखते ही देखते वे अपने दौर के सबसे महंगे खलनायक बन गए। 60-70 के दशक के आते-आते दूसरे खलनायकों की लोकप्रियता ने के. एन. सिंह को चरित्र भूमिकाओं तक सीमित कर दिया। फिर एक दिन ऐसा भी आया कि कैमरे की चकाचौध का सामना करने के लिए उनकी आंखों ने जवाब दे दिए और उनकी आंखों की रोशनी चली गई। अंतिम दिनों में वे अपनी फिल्मों को देखने में अक्षम हो गए थे। 31 जनवरी 2000 को 91 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। उन्होंने अपने अभिनय से फिल्मी दुनिया में एक ऐसी सुनहरी लाइन खींच दी है, जिसकी चमक बरसों बरस तक फीकी नहीं पड़ेगी। हिन्दी फिल्म जगत में जब भी खलनायकों की बात चलेगी, तो के. एन. सिंह का नाम बड़े अदब से लिया जाएगा।निजी जिंदगी की बात करें, तो के. एन. सिंह की कोई औलाद नहीं हुई तो उन्होंने अपने भाई विक्रम सिंह जो काफी बरसों तक फिल्म फेयर पत्रिका के संपादक रहे, के बेटे पुष्कर को गोद लिया था। आज पुष्कर का अपना होम प्रोडक्शन हाउस है और वे सीरियलों के निर्माण में व्यस्त हैं। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
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विश्व की पहली वैज्ञानिक भाषा संस्कृत
-संस्कृत दिवस श्रावण पूर्णिमा पर विशेष लेख
ललित चतुर्वेदी, उप संचालक, छत्तीसगढ़ जनसंपर्क
संस्कृत दिवस श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ संस्कृत विद्यामण्डलम् द्वारा राज्य स्तर पर सप्ताह का आयोजन रक्षाबंधन के 3 दिन पूर्व और 3 दिवस बाद तक किया जाता है। विभिन्न जयंतियों वाल्मिकि जयंती, कालीदास जयंती, गीता जयंती, गुरू पूर्णिमा का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में प्रदेश के विद्यालयों की सक्रिय सहभागिता रहती है। संस्कृत दिवस के दिन वेद शास्त्रों की पूजा एवं महत्ता पर चर्चा एवं विद्वत्संगोष्ठी का आयोजन किया जाता है।
भारत की प्राचीनतम भाषा संस्कृत में भारत का सर्वस्व संन्निहित है। देश के गौरवमय अतीत को हम संस्कृत के द्वारा ही जान सकते हैं। संस्कृत भाषा का शब्द भण्डार विपुल है। यह भारत ही नहीं अपितु विश्व की समृद्ध एवं सम्पन्न भाषा है। भारत का समूचा इतिहास संस्कृत वाड्मय से भरा पड़ा है। आज प्रत्येक भारतवासी के लिए विशेषकर भावी पीढ़ी के लिए संस्कृत का ज्ञान बहुत ही आवश्यक है।
संस्कृत भाषा ने अपनी विशिष्ट वैज्ञानिकता के कारण भारतीय विरासत को सहेजकर रखने में अपना अप्रतिम योगदान दिया है। संस्कृत ऐसी विलक्षण भाषा है जो श्रुति एवं स्मृति में सदैव अविस्मरणीय है। अतिप्राचीन काल में संरक्षित-संग्रहित भारत की यह विपुल ग्रंथ सम्पदा संस्कृत के कारण ही सुरक्षित रही है। संस्कृत की महत्ता को सम्पूर्ण विश्व ने स्वीकारा है। संस्कृत को भारतीय शिक्षा में अनिवार्य करना आवश्यक है। शिक्षा में इसकी अनिवार्यता को लेकर केन्द्रीय संस्कृत आयोग ने 1959 में - माध्यमिक स्कूलों में संस्कृत को अनिवार्य शिक्षा करने के साथ मातृभाषा तथा क्षेत्रीय भाषा पढ़ाई जाने की अनुसंशा की। संस्कृत शाला एवं संस्कृत महाविद्यालय प्रारंभ करने के लिए शासन द्वारा 90 प्रतिशत की छूट भी प्रदान की गई है।
संस्कृत परिष्कृत, संस्कारित एवं वैज्ञानिक भाषा है। आदिकाल से वेद, रामायण, महाभारत सहित विशिष्ट विषयों को भारतीय मस्तिष्क में संस्कृत के संबल पर सहेज कर रखा है। वेद, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ श्रुति एवं स्मृति परिचारों में सुरक्षित रखते हुए आज लिपिबद्ध रूप में गोचर हो रहे हैं। इससे बड़ा प्रमाण कोई नहीं हो सकता।
संस्कृत भाषा का अपना एक वैज्ञानिक महत्व है। नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार संस्कृत एक सम्पूर्ण वैज्ञानिक भाषा है। प्राचीन भारत में बोल-चाल की भाषा में संस्कृत का ही उपयोग किया जाता था। इससे नागरिक अधिक और मानसिक रूप से अधिक संतुलित रहा करते थे। संस्कृत के मंत्रों का उच्चारण करते समय मानव स्वास्थ्य पर विशेष प्रभाव पड़ता है। मंत्रोच्चार के समय वाइब्रेशन से शरीर के चक्र जागृत होते हैं और मानव का स्वास्थ्य बेहतर रहता है। बहुत सी विदेशी भाषाएं भी संस्कृत से जन्मी हैं। फ्रेंच, अंग्रेजी के मूल में संस्कृत निहित है। संस्कृत में सबसे महत्वपूर्ण शब्द 'ऊँÓ अस्तित्व की आवाज और आंतरिक चेतना एवं ब्रम्हाण्ड का स्वर है। प्राचीन धरोहर की खोज करने का मुख्य मापदण्ड संस्कृत है। संस्कृत की महत्ता को देखते हुए जर्मनी में 14 से अधिक विश्व विद्यालयों में संस्कृत का अध्ययन कराया जाता है।
मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल का कहना है कि हमारे वेद पुराण और गीता आदि संस्कृत में लिखे गए हैं। हमें अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिए। संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए राज्य शासन द्वारा हर संभव सहयोग दिया जा रहा है। श्री बघेल ने मुख्यमंत्री बनने के बाद वर्ष 2019 में माघ पूर्णिमा के अवसर पर संस्कृत विद्वत्सम्मान एवं मेधावी छात्रों का सम्मान किया था। छत्तीसगढ़ संस्कृत विद्यामंडलम् द्वारा संस्कृत के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले संस्कृत विद्वानों का सम्मान किया जाता है। प्रदेश के 5 संस्कृत विद्वानों को महर्षि वाल्मीकि सम्मान, ऋष्यश्रृंग सम्मान, लोमश ऋषि सम्मान, कौशल्या सम्मान प्राप्त करने वाले प्रत्येक विद्वान का शॉल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह और 31 हजार रूपए की राशि प्रदान कर सम्मान किया जाता है। इसी प्रकार महर्षि वेदव्यास सम्मान में शॉल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह और 51 हजार रूपए की राशि प्रदान की जाती है।
छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार के प्रयास से संस्कृत शिक्षा की प्रगति हो रही है। संस्कृत अध्ययन प्रोत्साहन राशि संस्कृत शालाओं में पढऩे वाले उत्तर मध्यमा स्कूल प्रथम वर्ष कक्षा 11वीं के विद्यार्थियों को दी गई। इससे कक्षा पहली, छठवीं और 9वीं को दी गई थी। गैर अनुदान प्राप्त संस्कृत शालाओं को स्तरवार वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। इस वर्ष से गैर अनुदान प्राप्त विद्यालयों को उनके प्रत्येक स्तर को जोड़ते हुए वित्तीय सहायता प्रदान की जा रही है। प्रवेशिका प्राथमिक स्तर को 10 हजार रूपए प्रतिवर्ष, प्रथमा मिडिल स्तर को 20 हजार रूपए प्रतिवर्ष, पूर्व मध्यमा प्रथम एवं उत्तर मध्यमा प्रथम (हाई स्कूल और हायर सेकेण्डरी) को 40 हजार रूपए प्रतिवर्ष की दर से राशि प्रदान की जाती है। केन्द्रीय जेल रायपुर में संस्कृत पाठशाला संचालित की जा रही है और इस वर्ष अम्बिकापुर में भी संस्कृत पाठशाला शुरू की गई है। पन्द्रह वर्ष बाद संस्कृत उत्तर मध्यमा कक्षा को छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा कक्षा 12वीं के समकक्ष मान्यता प्रदान की गई।
भारतीय विरासत के संरक्षण के लिए मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के दिग्दर्शन में आयुर्वेद, योग, प्रवचन, वेद, ज्योतिष जैसे संस्कृत के वैज्ञानिक विषयों का अध्ययन-अध्यापन संस्कृत पाठशालाओं में किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ की संस्कृत पाठशालाओं में पढऩे वाले विद्यार्थियों को संस्कृत में शास्त्रों के अध्ययन के साथ-साथ आधुनिक विषयों जैसे गणित, विज्ञान, वाणिज्य आदि का समन्वित ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। प्रदेश में संस्कृत पढऩे वाले विद्यार्थी किसी भी क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त करने में समर्थ हैं। स्कूल शिक्षा मंत्री डॉ. प्रेमसाय सिंह टेकाम ने बताया कि छत्तीसगढ़ संस्कृत विद्यामंडलम् आगामी शिक्षण सत्र से रोजगार मूलक पांच डिप्लोमा पाठ्यक्रम- पौराहित्यम् (पुरोहिती), आयुर्वेद, योगदर्शनम्, प्रवचनम् और ज्योतिष शास्त्र शुरू करेगा। इसके लिए कार्ययोजना तैयार की जा रही है।
प्रदेश में संस्कृत का अतीत समृद्ध है। यहां बलौदाबाजार में तुरतुरिया महर्षि वाल्मीकि और सरगुजा जिले के उदयपुर में रामगढ़ की पहाडिय़ां महाकवि कालीदास का क्षेत्र माना जाता है। प्रदेश रामायणकालीन एवं महाभारतकालीन धरमकर्मों से जुड़ा हुआ है। यहां का बड़ा भू-भाग दण्डकारण्य क्षेत्र में आता है, जो ऋषियों का क्षेत्र कहा गया है। छत्तीसगढ़ वासियों का आचार-विचार, व्यवहार और संस्कार संस्कृत से पुरित हैं।
प्रदेश के स्कूल शिक्षा मंत्री एवं अध्यक्ष छत्तीसगढ़ संस्कृत विद्यामण्डलम् डॉ. प्रेमसाय सिंह टेकाम संस्कृत के विकास के लिए निरंतर प्रयासरत् है। राज्य के पांच जिलों में संचालित आठ शासकीय अनुदान प्राप्त विद्यालयों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। इनमें रायपुर के गोलबाजार में संचालित श्रीराम चन्द्र संस्कृत उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, बिलासपुर में श्री निवास संस्कृत उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, रायगढ़ जिले के लैलुंगा में श्री रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत पूर्व माध्यमिक विद्यालय, रायगढ़ के गहिरा में श्री रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत पूर्व माध्यमिक विद्यालय और गहिरा में ही श्री रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, जशपुर जिले दुर्गापारा में श्री रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत उच्चतर माध्यमिक विद्यालय सामरबार और श्री रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत पूर्व माध्यमिक विद्यालय सामरबार, बलरामपुर जिले के जवाहर नगर में श्री रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत उच्चतर माध्यमिक विद्यालय श्रीकोट शामिल हैं। - ---गुलज़ार साहब की नज़्में जो दिल को छू लेंगीगुलज़ार साहब के लिखे गीतों की बात करें या फिर नज्म या गजल, लोगों को समझ नहीं आता कि वे ऐसे -ऐसे शब्द कहां से गढ़ लेते हैं.....कहीं भारीभरकम खयाल तो कहीं मिट्टी की सौंधी खूशबू के साथ उड़ती हुई हवा...दिल के टूटने के अहसास से भरे वो तीर चूभते शब्द...अपनी तरकश में वे ऐसे -ऐसे तीर निकालते जाते हैं कि इंसान बस उन्हें पढ़ता और गुुनता जाता है... मजाल की तीर दिल को जख्मी कर दे ....आज उनके जन्मदिन पर उनकी लिखी कुछ नज्म हम लेकर आए हैं.....पेश हैं गुलज़ार साहब की लिखी कुछ चुनिंदा नज़्मेंमैं अगर छोड़ न देता, तो मुझे छोड़ दिया होता, उसनेइश्क़ में लाज़मी है, हिज्रो- विसाल मगरइक अना भी तो है, चुभ जाती है पहलू बदलने में कभीरात भर पीठ लगाकर भी तो सोया नहीं जाता
बीच आस्मां में थाबात करते- करते हीचांद इस तरह बुझाजैसे फूंक से दियादेखो तुमज्इतनी लम्बी सांस मत लिया करो
थोड़ी देर जऱा-सा और वहीं रुकतीं तो...सूरज झांक के देख रहा था खिड़की सेएक किरण झुमके पर आकर बैठी थी,और रुख़सार को चूमने वाली थी कितुम मुंह मोड़कर चल दीं और बेचारी किरणफ़र्श पर गिरके चूर हुईंथोड़ी देर, जऱा सा और वहीं रूकतीं तो...
कैसी ये मोहर लगा दी तूने...शीशे के पार से चिपका तेरा चेहरामैंने चूमा तो मेरे चेहरे पे छाप उतर आयी है उसकी,जैसे कि मोहर लगा दी तूने...तेरा चेहरा ही लिये घूमता हूँ, शहर में तबसेलोग मेरा नहीं, एहवाल तेरा पूछते हैं, मुझ से !!
शहतूत की शाख़ पे बैठा कोईबुनता है रेशम के धागेलम्हा-लम्हा खोल रहा हैपत्ता-पत्ता बीन रहा हैएक-एक सांस बजा कर सुनता है सौदाईएक-एक सांस को खोल के अपने तन पर लिपटाता जाता हैअपनी ही साँसों का क़ैदीरेशम का यह शायर इक दिनअपने ही तागों में घुट कर मर जाएगा
मुझसे इक नज़्म का वादा है,मिलेगी मुझकोडूबती नब्ज़ों में,जब दर्द को नींद आने लगेज़र्द सा चेहरा लिए चाँद,उफ़क़ पर पहुंचेदिन अभी पानी में हो,रात किनारे के कऱीबन अँधेरा, न उजाला हो,यह न रात, न दिनज़िस्म जब ख़त्म होऔर रूह को जब सांस आएमुझसे इक नज़्म का वादा है मिलेगी मुझकोगुलज़ार की नज़्में...देखो, आहिस्ता चलो और भी आहिस्ता जऱादेखना, सोच सँभल कर जऱा पाँव रखनाज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहींकांच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई मेंख़्वाब टूटे न कोई जाग न जाए देखोजाग जाएगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा
चार तिनके उठा के जंगल सेएक बाली अनाज की लेकरचंद कतरे बिलखते अश्कों केचंद फांके बुझे हुए लब परमुट्ठी भर अपने कब्र की मिटटीमुट्ठी भर आरजुओं का गाराएक तामीर की लिए हसरततेरा खानाबदोश बेचाराशहर में दर-ब-दर भटकता हैतेरा कांधा मिले तो टेकूं!
आदमी बुलबुला है पानी काऔर पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,फिर उभरता है, फिर से बहता है,न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख़ तोड़ पाई है,वक्त की मौज पर सदा बहता आदमी बुलबुला है पानी का।
आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँआज फिर महकी हुई रात में जलना होगाआज फिर सीने में उलझी हुई वजऩी साँसेंफट के बस टूट ही जाएँगी, बिखर जाएँगीआज फिर जागते गुजऱेगी तेरे ख्वाब में रातआज फिर चाँद की पेशानी से उठता धुआँ
दिल में ऐसे ठहर गए हैं ग़मजैसे जंगल में शाम के सायेजाते-जाते सहम के रुक जाएँमुडके देखे उदास राहों परकैसे बुझते हुए उजालों मेंदूर तक धूल ही धूल उड़ती है
कंधे झुक जाते है जब बोझ से इस लम्बे सफऱ केहांफ जाता हूँ मैं जब चढ़ते हुए तेज चढानेसांसे रह जाती है जब सीने में एक गुच्छा हो करऔर लगता है दम टूट जायेगा यहीं परएक नन्ही सी नज़्म मेरे सामने आ करमुझ से कहती है मेरा हाथ पकड़ कर-मेरे शायरला , मेरे कन्धों पे रख दे,में तेरा बोझ उठा लूं
खाली डिब्बा है फ़क़त, खोला हुआ चीरा हुआयूँ ही दीवारों से भिड़ता हुआ, टकराता हुआबेवजह सड़कों पे बिखरा हुआ, फैलाया हुआठोकरें खाता हुआ खाली लुढ़कता डिब्बायूँ भी होता है कोई खाली-सा- बेकार-सा दिनऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन
देखो आहिस्ता चलो,और भी आहिस्ता जऱादेखना,सोच-समझकर जऱा पाँव रखनाजोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहींकांच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई मेंख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जायें देखोजाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जायेगा
आओ तुमको उठा लूँ कंधों परतुम उचककर शरीर होठों से चूम लेनाचूम लेना ये चाँद का माथाआज की रात देखा ना तुमनेकैसे झुक-झुक के कोहनियों के बलचाँद इतना करीब आया है
आओ फिर नज़्म कहेंफिर किसी दर्द को सहलाकर सुजा ले आँखेंफिर किसी दुखती हुई रग में छुपा दें नश्तरया किसी भूली हुई राह पे मुड़कर एक बारनाम लेकर किसी हमनाम को आवाज़ ही दें लेंफिर कोई नज़्म कहेंकिताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों सेबड़ी हसरत से तकती हैंमहीनों अब मुलाकातें नहीं होतीजो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं,अब अक्सरगुजऱ जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पर्दों परबड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई हैं,बड़ी हसरत से तकती हैं,जो क़दरें वो सुनाती थीं.कि जिनके 'सैल'कभी मरते नहीं थेवो क़दरें अब नजऱ आती नहीं घर मेंजो रिश्ते वो सुनती थींवह सारे उधरे-उधरे हैंकोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती हैकई लफ्ज़ों के माने गिर पड़ते हैंबिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़जिन पर अब कोई माने नहीं उगतेबहुत सी इसतलाहें हैंजो मिट्टी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी हैंगिलासों ने उन्हें मतरूक कर डालाज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने काअब ऊँगली 'क्लिक'करने से अबझपकी गुजऱती हैबहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे परकिताबों से जो ज़ाती राब्ता था,कट गया हैकभी सीने पे रख के लेट जाते थेकभी गोदी में लेते थे,कभी घुटनों को अपने रिहल की सुरत बना करनीम सज़दे में पढ़ा करते थे,छूते थे जबीं सेवो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भीमगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूलऔर महके हुए रुक्केकिताबें मांगने,गिरने,उठाने के बहाने रिश्ते बनते थेउनका क्या होगा ?वो शायद अब नहीं होंगे !
इक सन्नाटा भरा हुआ था,एक गुब्बारे से कमरे में,तेरे फोन की घंटी के बजने से पहले.बासी सा माहौल ये साराथोड़ी देर को धड़का थासाँस हिली थी, नब्ज़ चली थी,मायूसी की झिल्ली आँखों से उतरी कुछ लम्हों को--फिर तेरी आवाज़ को, आखरी बार "खुदा हाफिज़"कह के जाते देखा था!इक सन्नाटा भरा हुआ है,जिस्म के इस गुब्बारे में,तेरी आखरी फोन के बाद-मेरी दहलीज़ पर बैठी हुयी जानो पे सर रखेये शब अफ़सोस करने आई है कि मेरे घर पेआज ही जो मर गया है दिनवह दिन हमजाद था उसका!
वह आई है कि मेरे घर में उसको दफ्न कर के,इक दीया दहलीज़ पे रख कर,निशानी छोड़ दे कि मह्व है ये कब्र,इसमें दूसरा आकर नहीं लेटे!
मैं शब को कैसे बतलाऊँ,बहुत से दिन मेरे आँगन में यूँ आधे अधूरे सेकफऩ ओढ़े पड़े हैं कितने सालों से,जिन्हें मैं आज तक दफना नही पाया!!
बुरा लगा तो होगा ऐ खुदा तुझे,दुआ में जब,जम्हाई ले रहा था मैं--दुआ के इस अमल से थक गया हूँ मैं !मैं जब से देख सुन रहा हूँ,तब से याद है मुझे,खुदा जला बुझा रहा है रात दिन,खुदा के हाथ में है सब बुरा भला--दुआ करो !अजीब सा अमल है येये एक फर्जी गुफ़्तगू,और एकतरफ़ा--एक ऐसे शख्स से,खय़ाल जिसकी शक्ल हैखय़ाल ही सबूत है. - आलेख-मंजूषा शर्माआजादी की वर्षगांठ के मौके पर आज हम एक ऐसे गीत की चर्चा कर रहे हैं, जिसे राष्ट्रीय गीत होने का दर्जा प्राप्त है। इस गीत को 1952 में आई फिल्म आनंद मठ में शामिल किया गया था।फिल्म और इस गीत की चर्चा से पहले इसकी रचना के इतिहास पर एक नजर-वंदे मातरम् की रचना बंकिमचंद्र चटर्जी या चट्टोपाध्याय ने की थी। उन्होंने 7 नवम्बर, 1876 ई. में बंगाल के कांतल पाडा नामक गांव में इस गीत की रचना की थी। वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बंगाली भाषा में थे। राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया। अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया। वंदे मातरम गीत स्वतंत्रता की लड़ाई में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था। 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1881 में अपने उपन्यास आनंदमठ में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की मांग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही दशप्रहरणधारिणी (दुर्गा), कमला (लक्ष्मी) और वाणी (सरस्वती) के उद्धरण दिए गए हैं।मूल गीत इस प्रकार है-सुजलां सुफलां मलयजशीतलामसस्य श्यामलां मातरम् .शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीमफुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम,सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् .सुखदां वरदां मातरम् ॥कोटि कोटि कन्ठ कलकल निनाद करालेद्विसप्त कोटि भुजैर्ध्रत खरकरवालेके बोले मा तुमी अबलेबहुबल धारिणीम् नमामि तारिणीमरिपुदलवारिणीम् मातरम् ॥तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि ह्रदि तुमि मर्मत्वं हि प्राणा: शरीरेबाहुते तुमि मा शक्ति,हृदये तुमि मा भक्ति,तोमारै प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे ॥त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणीकमला कमलदल विहारिणीवाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वामनमामि कमलां अमलां अतुलामसुजलां सुफलां मातरम् ॥श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितामधरणीं भरणीं मातरम् ॥मूल रूप से गाया जाने वाला वंदे मातरम गीत किस राग पर आधारित है, आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। यह मूल रूप से एक बांगला रचना है और इस पर रवीन्द्र संगीत की झलक साफ देखने को मिलती है। पहली बार यह गीत पंडित ओंकारनाथ ठाकुर की आवाज में रिकॉर्ड किया गया था। इसका पूरा श्रेय सरदार बल्लभ भाई पटेल को जाता है। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का यह गीत दि ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ़ इंडिया के रिकार्ड में आज भी दर्ज है। वहीं रवीन्द्र नाथ टैगोर ने पहली बार 'वंदे मातरमÓ को बंगाली शैली में लय और संगीत के साथ कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गाया।अब कुछ चर्चा फिल्म आनंद मठ के बारे मेंफिल्म आनंद मठ में यह गीत शामिल किया गया है, जो इसी नाम के उपन्यास पर आधारित फिल्म थी। इस उपन्यास की रचना बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी। इस गीत को लता मंगेशकर और हेमंत कुमार ने आवाजें दी हैं। यह फिल्म 1952 में रिलीज हुई थी और उस समय तक देश आजाद हो चुका था, लेकिन देशभक्ति पूर्ण फिल्मों का बनना जारी था। फिल्म में 18 वीं शताब्दी में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संन्यासी विद्रोह की कहानी थी। संन्यासी विद्रोह भारत की आज़ादी के लिए बंगाल में अंग्रेज़ हुकूमत के विरुद्ध किया गया एक प्रबल विद्रोह था। संन्यासियों में अधिकांश शंकराचार्य के अनुयायी थे। इस विद्रोह को कुचलने के लिए तत्कालीन वायसराय वारेन हेस्टिंग्स को कठोर कार्यवाही करनी पड़ी थी। दरअसल भारतीय जनता के तीर्थ स्थानों पर जाने पर लगे प्रतिबंध ने शान्त संन्यासियों को भी विद्रोह पर उतारू कर दिया था। इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर, प्रदीप कुमार , भारत भूषण, गीता बाली, अजीत, रंजना ,जानकीदास और मुराद ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं। फिल्म का निर्देशन हेमेन गुप्ता ने किया था। फिल्मस्तान कंपनी के बैनर तले फिल्म का निर्माण हुआ था, जो उस वक्त की एक नामी फिल्म निर्माण कंपनी थी। फिल्म में संगीत हेमंत कुमार ने दिया था । यह वह दौर था, जब हेमंत कुमार बांगला फिल्मों से हटकर हिन्दी फिल्मों में पांव जमाने का प्रयास कर रहे थे।फिल्म में चार गाने शामिल किए गए थे । वंदे मातरम गीत, फिल्म में दो बार बजता है, एक बार लता मंगेशकर की आवाज में और दूसरी बार हेमंत दा की आवाज में। लता ने फिल्म में गीता बाली के लिए प्लेबैक किया था। वहीं अभिनेता प्रदीप कुमार, अजीत के लिए यह गाना हेमंत कुमार ने खुद गाया है। लता की आवाज में गाए इस गीत में बैकग्राऊंड में हेमंत कुमार और कोरस की आवाजें सुनाई देती हैं। गीत के फिल्मांकन में पृथ्वीराज कपूर , प्रदीप कुमार और गीता बाली नजर आते हैं। लता की आवाज में ज्यादा ओज पैदा करने का प्रयास किया गया है। यह मौका होता है आजादी के संघर्ष में संन्यासियों के कूच पर जाने का और गीता बाली उन्हें इस गीत के माध्यम से देश के प्रति उनका कर्तव्य याद दिलाती हैं। वहीं हेमंत कुमार की आवाज में गाए इस गीत के प्रारंभ में राग में कुछ बदलाव किए गए हंै। गाने में भारत भूषण, अजीत और प्रदीप कुमार के साथ आम लोगों को भी दिखाया गया जो इस संन्यासी विद्रोह का हिस्सा बनते हैं। यह गाना लता की आवाज में गाए गीत की तुलना में थोड़ा लंबा है क्योंकि इसमें मां दुर्गा की स्तुति भी की गई है।फिल्म के एक गाने जय जगदीश हरे में गीता रॉय की आवाज ली गई थी जिसमें उनका साथ दिया था हेमंत कुमार ने। इस गाने को 60-90 के दशक में सिनेमाहॉल में फिल्म शुरू करने से पहले बजाया जाता है। यहां मैं महासमुन्द की एक टॉकीज का जिक्र करना चाहूंगी। मुझे याद है जब बचपन में हम फिल्म देखने के लिए राम टॉकीज जाया करते थे, तो फिल्म शुरू होने से पहले ये गाना जरूर बजता था। टॉकीज में हॉरर , एक्शन या रोमांटिक किसी भी मूड की फिल्म क्यों न लगी हो, फिल्म शुरू करने से पहले इस गाने का बजना जैसे एक परंपरा बन गई थी। इसका कारण क्या था, पता नहीं, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि उस वक्त यह गीत किसी शासकीय अनिवार्यता का हिस्सा तो नहीं था। कारण चाहे जो भी रहा हो, लेकिन इसी माध्यम से ही सही, यह गीत बरसों तक जनमानस के दिल और जुबां पर बसा रहा। फिल्म आनंद मठ में यह गाना पृथ्वीराज कपूर और गीता बाली पर फिल्माया गया है।आनंदमठ फिल्म से ही अभिनेता प्रदीप कुमार ने हिन्दी फिल्मों में कदम रखा था। वे बांगला स्टार थे और हेमंत दा ही उन्हें इस फिल्म से हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में लेकर आए थे। फिल्म के रिलीज के बाद वंदेमातरम गीत काफी लोकप्रिय हुआ और फिर इसे स्वतंत्रता दिवस और 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के मौके पर आयोजित हर समारोह में बजाया जाने लगा और यह परंपरा आज भी कायम है। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने जब इस गाने को लिखा था, तब उन्होंने शायद नहीं सोचा रहा होगा, कि मूल रूप से संन्यासी विद्रोह से जुड़ा यह गीत एक दिन देश की आनबान का प्रतीत बनकर राष्ट्रीय गीत बनेगा। इस फिल्म की चर्चा के बीच एक कलाकार को हम जरूर याद करना चाहेंगे और वे हैं अजीत। फिल्म जंजीर के मोना डार्लिंग वाले खलनायक अजीत की आनंदमठ प्रारंभिक फिल्मों से एक थी। यह वह दौर था जब अजीत नायक की भूमिका अदा किया करते थे। उनका पूरा नाम हामिद अली खान था।
- आलेख-मंजूषा शर्मामहान गायक मोहम्मद रफी साहब की पुण्यतिथि के मौके पर हम आज उनके गाए एक गाने की चर्चा कर रहे हैं। गाने का मुखड़ा है- ओ दूर के मुसाफिर, हम को भी साथ ले ले रे, हम को भी साथ ले ले, हम रह गए अकेले। यह गाना फिल्म उडऩ खटोला में शामिल किया गया था। इसे सुरों से संवारा था नौशाद साहब ने और लिखा शकील बदायूनीं साहब ने ।मोहम्मद रफी शुरुआत से ही नौशाद साहब के फेवरेट गायक थे। एक प्रकार से मोहम्मद रफी का फिल्मी दुनिया में प्रवेश नौशाद साहब की सिफारिशी चिट्ठी के बदौलत ही हुआ था। 1955 में जब फिल्म उडऩ खटोला के संगीत संयोजन की जिम्मेदारी नौशाद साहब को सौंपी गई, तो उन्होंने रफी और लता मंगेशकर की जोड़ी को लिया। फिल्म में उन्होंने शास्त्रीय रागों पर आधारित कई गाने तैयार किए जिसमें से एक गीत ओ दूर के मुसाफिर भी था, जो राग पहाड़ी पर आधारित है। इस फिल्म का निर्माण सनी आर्ट प्रोडक्शन ने किया था। शास्त्रीय संगीत के सरस रुपांतरण में बढ़ते रिद्म का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से नौशाद की इस फिल्म में नजर आता है। इस फिल्म में लता के गाए गीत मोरे सैंया जी उतरेंगे पार हो ,.. में राग पीलू के साथ लोकरंग की ताल सुनने को मिलती है। उडऩ खटोले वाले राही (लता और साथी) , हमारे दिल से न जाना धोखा न खाना ...गीतों में लता की मीठी लोच भरी आवाज सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर देती है। दर्द के लिए भैरव राग के सुर लेकर नौशाद साहब ने इस फिल्म में -सितारों की महफिल सजी..., गीत तैयार किया और उदासी की गहराई लेकर -न रो ए दिल, राग भैरवी के साथ -न तूफां से खेलो , न साहिल से खेलो जैसे सहाबहार गीत पेश किए। नौशाद जी अपनी कम्पोजिशन हमेशा फिल्म की कहानी और सिचुएशन को ध्यान में रखकर बनाते थे। उडऩ खटोला फिल्म के साथ भी उन्होंने ऐसा ही किया।पूरे गाने के बोल इस प्रकार हैं....चले आज तुम जहां से, हुई जिंदगी परायीतुम्हें मिल गया ठिकाना, हमें मौत भी ना आई।ओ दूर के मुसाफिर, हम को भी साथ ले ले रेहम को भी साथ ले ले, हम रह गये अकेले।तू ने वो दे दिया गम, बेमौत मर गये हमदिल उठ गया जहां से, ले चल हमें यहां सेकिस काम की ये दुनियां, जो जिंदगी से खेले।सूनी हैं दिल की राहें, खामोश हैं निगाहेंनाकाम हसरतों का, उठने को हैं जनाज़ाचारों तरफ लगे हैं, बरबादियों के मेले रे..हम रह गए अकेले.....।इस गाने के अंत में रफी साहब के स्वर काफी ऊंचे हो जाते हैं। गाने में साजों का शोर नहीं है बल्कि कोरस की आवाज ही काफी अच्छी लगती है। गाने में दिखाया गया है कि प्रेमी अपनी प्रेमिका को मौत के मुंह में जाता देखकर दुखी है और अपने अकेले होने के अहसास को वह शब्दों में बयां कर रहा है साथ ही उसकी दुनिया से शिकायत भी है कि- किस काम की ये दुनियां, जो जिंदगी से खेले। इस गाने में दिलीप कुमार और निम्मी दोनों नजर आते हैं। गाने के अंत में निम्मी को पहाड़ी नदी में कूदते दिखाया गया है।इस फिल्म के पूरे गाने शकील साहब ने ही लिखे थे। उस जमाने में ज्यादातर पूरी फिल्म के गाने लिखने का जिम्मा किसी एक गीतकार को ही दिया जाता था। उसे फिल्म की कहानी बता दी जाती थी और कई बार तो शूटिंग के दौरान सेट पर ही गीतकार को बुलाकर गाने तैयार करवा लिए जाते थे। स्टुडियो में एक तरफ गीतकार गाने लिखते थे और वहीं पर संगीतकार उनकी धुन तैयार कर गायकों से गाने भी गवा लिया करते थे। एक गाने के लिए गायक कलाकार कई बार पूरे दिन स्टुडियो पर रियाज कर किया करते थे। आज के जैसे नहीं कि एक गायक आया और अपना वर्जन गा कर चला गया। बाद में दूसरा आया और अपने हिस्से के बोल गाकर चला गया। बाकी काम कम्प्यूटर पर हो रहा है। उडऩ खटोला फिल्म में 9 गाने थे और सभी एक से बढ़कर एक। इस फिल्म के गानों में नौशाद ने राग जयजयवंती, पहाड़ी, भैरवी, राग पीलू जैसे शास्त्रीय रागों का बखूबी इस्तेमाल किया।नौशाद साहब को राग पहाड़ी काफी पसंद था। उन्होंने मोहम्मद रफ़ी से इस राग पर आधारित कई गीत गवाए। रफी की एकल आवाज़ में गाया फिल्म दुलारी का गीत - सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगे ......इसी राग पर आधारित है। इसी फि़ल्म के एक और गीत -तोड़ दिया दिल मेरा.. के लिए भी नौशाद साहब ने इसी राग पर आधारित बंदिशें तैयार कीं। यह राग जितना शास्त्रीय है, उससे भी ज़्यादा यह जुड़ा हुआ है पहाड़ों के लोक संगीत से। इसलिए इसमें लोक संगीत की झलक मिलती है। यह पहाड़ों का संगीत है, जिसमें प्रेम, शांति और वेदना के सुर सुनाई देते हैं। राग पहाड़ी पर असंख्य फि़ल्मी गानें बने हैं। जिनमें से नौशाद के स्वरबद्ध किए कुछ गीत हैं-1. आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले (राम और श्याम)2. दिल तोडऩे वाले तुझे दिल ढ़ूंढ रहा है (सन ऑफ़ इंडिया)3. दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन आज की रात (कोहिनूर)4. जवां है मोहब्बत हसीं है ज़माना (अनमोल घड़ी)5. कोई प्यार की देखे जादूगरी (कोहिनूर)6. तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया रे (गंगा जमुना)अब फिल्म उडऩखटोला की कहानी के बारे में । इस फिल्म में दिलीप कुमार के अपोजिट निम्मी थीं। फिल्म को निर्देशित किया था एस. यू. सनी ने । फिल्म में जीवन और टुनटुन भी प्रमुख भूमिकाओं में थे। फिल्म की कहानी कुछ इस प्रकार थी- फिल्म का हीरो काशी यानी दिलीप कुमार एक अभिशप्त विमान से यात्रा कर रहा होता कि वह विमान क्रेश हो जाता है और एक नगर के बाहर जा गिरता है । इस नगर में एक रानी का शासन है। जिसकी देवी का नाम संगा है। काशी को सोनी नाम की एक लड़की बचाती है और उसे अपने घर ले आती है। जहां वह अपने पिता और भाई हीरा के साथ रहती है। सड़कें ब्लॉक होने की वजह से काशी अपने घर वापस लौटने में असमर्थ है। वहां पर रहने के लिए उसे रानी की अनुमति लेना अनिवार्य है। ऐसे में वह राजरानी से मिलता है, तो देखता है कि वह काफी खूबसूरत है। रानी भी काशी से प्रभावित होती है और उसे अपने महल में रहने और उसके लिए गाने के लिए कहती है। इस बीच काशी और सोनी एक दूसरे को अपना दिल दे बैठते हैं और वे छिपकर एक दूसरे से मिलते हैं। सोनी एक लड़के शिबु का भेष धरकर काशी से मिलती है। इधर राजरानी के प्यार को काशी ठुकरा देता है। फिल्म में राजरानी का रोल अभिनेत्री सूर्या कुमारी ने निभाया था। इस फिल्म का तमिल वर्जन भी बना जिसका नाम था वानारथम।यह फिल्म चली तो एक प्रकार से नौशाद के गानों की वजह से । उस समय दिलीप कुमार और निम्मी की जोड़ी भी हिट हुई थी। इस जोड़ी ने आन (1952), दीदार, दाग और अमर (1954) फिल्म में भी काम किया। इनमें से उडऩखटोला इस जोड़ी की आखिरी फिल्म थी।
- पुण्यतिथि पर विशेष आलेख-मंजूषा शर्मामोहम्मद रफी, संगीत की दुनिया का वो नाम है, जिनके गाए गाने आज भी हर पीढ़ी की पसंद बने हुए हैं। वे न केवल एक अच्छे गायक बल्कि एक अच्छे इंसान भी थे। दरअसल वे महज़ एक आवाज़ नहीं; गायकी की पूरी रिवायत थे। पिछले करीब साठ दशक से लोग उनकी आवाज सुन रहे हैं।पंजाब के एक छोटे से क़स्बे से निकल कर मोहम्मद रफ़ी नाम का एक किशोर बरसो पहले मुंबई आता है। साथ में न कोई जमींदारी जैसी रईसी या पैसों की बरसात, न कोई गॉड फ़ादर सिर्फ एक प्यारी सी आवाज, जो हर तरह के गीत गाने की हिम्मत रखता था। फिर वह चाहे किसी भी स्केल का हो। सा से लेकर सा तक यानी सात स्वरों के हर स्वर में । कोई ख़ास पहचान नहीं ,सिफऱ् संगीतकार नौशाद साहब के नाम का एक सिफ़ारिशी पत्र। किस्मत ने पलटा खाया और अपनी आवाज, इंसानी संजीदगी के बूते पर यह सीधा सादा युवक मोहम्मद रफ़ी पूरी दुनिया में छा गया। संघर्ष का दौर काफी लंबा था और मुफलिसी भी साथ चल रही थी। संगीत का यह साधक किसी भी परिस्थिति में रुकना नहीं चाहता था। उस दौर का एक वाकया सुनने में आया जिसका जिक्र आज यहां कर रहे हैं।मोहम्मद रफी साहब संघर्ष के दिनो में मायूस भी हो गए थे, लेकिन दिल में कुछ कर दिखाने का जज्बा उन्हें पंजाब लौटने नहीं दे रहा था। नौशाद साहब ने उन्हें गाने का मौका दिया। मुंबई में रिकॉर्डिंग हुई और रफी साहब ने सबको प्रभावित किया। काम खत्म हो चुका था, तो सभी लोग स्टुडियो से बाहर निकल गए। लेकिन रफ़ी साहब स्टुडियो के बाहर देर तक खड़े रहे। तकऱीबन दो घंटे बाद तमाम साजि़ंदों का हिसाब-किताब करने के बाद नौशाद साहब स्टुडियो के बाहर आकर रफ़ी साहब को देख कर चौंक गए । पूछा तो बताते हैं कि घर जाने के लिये लोकल ट्रेन के किराये के पैसे नहीं है। नौशाद साहब अवाक रह गए और बोले- अरे भाई भीतर आकर मांग लेते ...रफ़ी साहब का जवाब -अभी काम पूरा हुआ नहीं और अंदर आकर पैसे मांगूं ? हिम्मत नहीं हुई नौशाद साहब। सीधा- सरल जवाब सुनकर नौशाद साहब की आंखें छलछला आईं हैं। न कोई छलावा न कोई दिखाया और न ही ज्यादा पाने की चाहत। बस जो मिल गया उसे को मुकद्दर समझ लिया।सही मायने में सहगल साहब के बाद मोहम्मद रफ़ी एकमात्र नैसर्गिक गायक थे। उन्होंने अच्छे ख़ासे रियाज़ के बाद अपनी आवाज़ को मांजा था। उन्हें देखकर लोग सहसा विश्वास ही नहीं कर पाते थे कि शम्मी कुमार साहब के लिए याहू ,.... जैसे हुडदंगी गाने वे ही गाया करते हैं।उनके बारे में संगीतकार वसंत देसाई कहते थे -रफ़ी साहब कोई सामान्य इंसान नहीं थे...वह तो एक शापित गंधर्व थे जो किसी मामूली सी ग़लती का पश्चाताप करने इस मृत्युलोक में आ गया। एक तरफ किशोर कुमार अपने पारिश्रमिक को लेकर एकदम परफेक्ट थे। दूसरी तरफ रफी साहब संकोची इंसान। कई बार उनके पैसे इसी वजह से डूब गए, क्योंकि उन्होंने संकोच की वजह से पैसे मांगे नहीं। रफी साहब कभी काम मांगने भी नहीं गए। जो मिल गया, गा लिया।अपने कॅरिअर में रफ़ी साहब को श्यामसुंदर, नौशाद, ग़ुलाम मोहम्मद, मास्टर ग़ुलाम हैदर, खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल भगतराम जैसे गुणी मौसीकारों का सान्निध्य मिला जो उनके लिए फायदेमंद भी रहा। रफ़ी साहब ने क्लासिकल म्युजि़क का दामन कभी न छोड़ा। बैजूबावरा में उन्होंने राग मालकौंस (मन तरपत)और दरबारी (ओ दुनिया के रखवाले) को जिस अधिकार और ताक़त के साथ गाया , उसे गाने की हिम्मत आज भी बहुत कम लोग कर पाते हैं। उस दौर की फिल्मों में जब भी क्लासिकल म्यूजिक की बात चलती थी, तो संगीतकार रफी साहब और मन्ना डे के पास ही जाते थे। रफी साहब की आवाज नायकों के लिए ज्यादा सूट करती थी, इसीलिए उन्हें मन्ना दा की तुलना में लीड गाने ज्यादा मिले।
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पुण्यतिथि पर विशेष -आलेख मंजूषा शर्मा
हिंदी सिनेमा में कई ऐसी मशहूर अभिनेत्रियां रहीं जिन्होंने न सिर्फ अपनी खूबसूरती बल्कि अपने अभिनय से भी लोगों के दिलों में जगह बनाई । ऐसी ही एक अदाकारा हैं लीला नायडू। 1954 में मिस इंडिया की विजेता रही अभिनेत्री लीला नायडू ने 50-60 के दशक में मोहक अंदाज़ और अदाकारी से लोगों को अपने मोहपाश में बाँधे रखा। अनुराधा, ये रास्ते हैं प्यार के, उम्मीद, आबरू, द गुरू जैसी फि़ल्मों में शानदार अभिनय से दिलों में बस गई थीं। अपने सशक्त अभिनय के लिए मशहूर लीला नायडू का निधन आज ही के दिन वर्ष 2009 में हुआ था।लीला नायडू वर्ष 1954 में फेमिना मिस इंडिया का खिताब जीतकर चर्चा में आई। उस वक्त उनकी उम्र मात्र 14 की थी। उसी दौरान वोग मैग्जीन की दुनियाभर में 10 सबसे ज्यादा खूबसूरत महिलाओं की लिस्ट में भी लीला नायडू का नाम शामिल किया गया। इस लिस्ट में रानी गायत्री देवी भी शामिल थीं।कहा जाता है कि राजकपूर लीला नायडू की खूबसूरती के कायल हो गए थे और उन्हें लेकर फिल्म बनाने वाले थे। फिल्म की कहानी मुल्कराज आनंद ने लिखी। जब लीला स्क्रीन टेस्ट के लिए पहुंची को उन्हें पता चला कि फिल्म की कहानी गांव की पृष्ठभूमि की है। जेनेवा और स्विटजरलैंड में पली बढ़ी लीला गांव की जिंदगी से नावाकिफ थी। उसी दौरान राजकपूर ने लीला को बताया कि वे उन्हें अपनी चार फिल्मों के लिए साइन करना चाहते हैं। लेकिन लीला तो गांव की जिंदगी पर बनी राजकपूर की पहली फिल्म में अपने आप को एडजस्ट नहीं कर पा रही थीं। लीला को लगा कि वे इस फिल्म की भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पाएंगी। आखिरकार उन्होंने फिल्म से हाथ खींच लिया। इसतरह से राजकपूर की एक नहीं बल्कि चार-चार फिल्में उनके हाथ से निकल गईं। इसी दौरान लीला ने विदेश का रास्ता पकड़ा और फिर पांच साल बाद उनकी वापसी फिल्म अनुराधा से हुई। दरअसल लीला का जन्म भले ही मुंबई में हुआ था, लेकिन उनकी दीक्षा-शिक्षा जेनेवा और स्विटजरलैंड में हुई थी। उनके पिता पट्टीपति रामैया नायड़ू परमाणु भौतिकविद थे और नोबेल पुरस्कार विजेता मैरी क्यूरी के लिए काम कर चुके थे। .बाद में उन्होंने यूनेस्को से लेकर टाटा कंपनी में सलाहकार के पद पर भी काम किया।वर्ष 1960 में लीला नायडू विदेश से लौटी और मशहूर फिल्मकार ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म अनुराधा से बॉलीवुड में कदम रखा। फिल्म में उन्होंने अभिनेता बलराज साहनी की पत्नी का किरदार निभाया था। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था। इस फिल्म का संगीत मशहूर सितारवादक रविशंकर ने तैयार किया था। जिसके गाने काफी लोकप्रिय हुए थे। फिल्म के लता मंगेशकर के गाए दो गाने काफी मशहूर हुए- हाय रे वो दिन क्यूं न आए... और जाने कैसे सपनों में खो गई अंखिया...। दोनों ही गाने लीला नायडू पर फिल्माए गए थे।लीला को वास्तविक पहचान वर्ष 1963 में रिलीज हुई फिल्म ये रास्ते हैं प्यार के से मिली। फिल्म में उनके साथ अभिनेता सुनील दत्त हीरो थे। फिल्म की कहानी चर्चित नानावटी कांड पर आधारित थी। लीला ने बहुत कम फिल्में कीं। उन्होंने वही फिल्में स्वीकार की जिसके लिए उनका मन गवाही देता था। लीला ने मर्चेंट आइवोरी प्रोडक्शन द्वारा निर्मित फिल्म द हाउसहोल्डर में भी उन्होंने अभिनय किया, जिसका निर्देशन जेम्स आइवोरी ने किया था। फिल्म में उनकी जोड़ी शशिकपूर के साथ काफी पसंद की गई। वर्ष 1969 में द गुरू फिल्म में काम करने के बाद लीला ने फिल्मी दुनिया को अलविदा कह दिया।लीला ने मात्र 17 साल की उम्र में होटल व्यवसायी तिलक राज ओबराय (टिक्की ओबराय) से शादी कर ली, जो उनसे 16 साल बड़े थे। तिलक राज मशहूर होटल ओबेराय के मालिक थे। उनकी जुड़वा बेटियां हुईं माया और प्रिया। बाद में दोनों में तलाक हो गया। ओबेराय ने दोनों बेटियों की कस्डटी ली। कुछ समय बाद उन्होंने अपने बचपन के मित्र और साहित्यकार डॉम मॉरिस से शादी कर ली एवं हांगकांग चली गईं। दस वर्ष वहां बिताने के बाद वे फिर भारत वापस आ गईं। 1985 में श्याम बेनेगल की फिल्म त्रिकाल से इन्होंने हिंदी फिल्मी दुनिया में फिर प्रवेश किया। 1992 में प्रदीप कृष्णन द्वारा निर्देशित फिल्म इलेक्ट्रिक मून में इन्होंने आखिरी बार अभिनय किया था।लीला नायडू की निजी जिंदगी उथल-पुथल भरी रही। अपने आखिरी दिनों में उन्होंने खुद को सभी से अलग कर लिया और गुमनाम जिंदगी बिताने लगीं। आर्थरायटिस की बीमारी के कारण उनका चलने-फिरना भी लगभग बंद हो गया था। इसी दौरान आर्थिक तंगी से भी वे परेशान रहीं। आखिरकार उन्हें अपने घर में किराएदार रखने पड़े। 2009 में उन्हें इन्फ्लूएंजा की बीमारी हुई जिसकी वजह से उनके फेफड़ों ने काम करना बंद कर दिया। 28 जुलाई 2009 को उन्होंने इस संसार को गुमनामी में ही अलविदा कह दिया। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष) - शानदार अभिनेता मनोज कुमार यानी भारत कुमार आज अपना 84 वां जन्मदिन मना रहे हैं। उनका भारत कुमार नाम उनकी देशभक्ति वाली फिल्मों का इतिहास देखते हुए पड़ा। मनोज कुमार अपने दौर में जनता के साथ नेताओं के भी फेवरेट अभिनेता थे। मनोज कुमार ने बहुत सी भूमिकाएं निभाई, रोमांटिक रोल भी किए , लेकिन उनकी देशभक्ति वाली भूमिकाओं के सामने सब फीके पड़ गए।1937 में जन्मे अभिनेता ने 20 वर्ष की आयु में बॉलीवुड में फिल्म फैशन से डेब्यू किया था, जिसे वे स्वयं अपनी पसंदीदा फिल्म मानते हैं। मनोज कुमार राज कपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर में भी गजब का अभिनय किया है। फिल्म कांच की गुडिय़ा में उन्होंने पहली बार मुख्य भूमिका निभाई है। मनोज कुमार न सिर्फ एक अच्छे अभिनेता हैं बल्कि निर्देशक एवं फिल्म निर्माता के रूप में भी उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है। फिल्म उपकार के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था।एक समय ऐसा था जब लोग मनोज कुमार को भारत कुमार ही कहने लगे थे, इसके पीछे वजह यह थी कि अधिकतर फिल्मों में उनके किरदार का नाम भारत था। हालांकि, उनका वास्तविक नाम हरिकृष्णा गिरी गोस्वामी था लेकिन वह दिलीप कुमार और अशोक कुमार से प्रेरित थे इसलिए उन्होंने अपना नाम मनोज कुमार रखा। मनोज कुमार का जन्म पाकिस्तान के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। दस वर्ष की आयु में वे परिवार के साथ एबटाबाद, पाकिस्तान छोड़कर भारत विभाजन के समय भारत आए। कुछ समय परिवार के साथ विजय नगर के किंग्सवे कैंप में शरणार्थियों के रूप में रहे और बाद में दिल्ली आ गए।मनोज कुमार ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उनके नेताओं से अच्छे संबंध रहे हैं। लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी उनकी फिल्मों को पसंद किया करते थे। उपकार फिल्म की प्रेरणा उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नारे 'जय जवान-जय किसान' से मिली थी। वर्ष 1965 में मनोज कुमार ने स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह के जीवन पर आधारित फिल्म शहीद में काम किया था, जिसके बाद उनकी छवि एक देशभक्त की बन गई थी।मिल चुके हैं इतने अवॉड्र्सबॉलीवुड में देशभक्ति का दौर लाने वाले का श्रेय मनोज कुमार को जाता है। फिल्म उपकार के लिए 1968 में नेशनल फिल्म अवॉर्ड मिला था। 1972 में बेईमान के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला। 1992 में कला में योगदान के लिए पद्मश्री से नवाजा गया। साल 1999 में फिल्मफेयर का लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला। उन्हें साल 2016 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार भी मिला।इन फिल्मों को अपने दम पर कराया है हिटफिल्मों की बात करें तो 'हरियाली और रास्ता', 'हिमालय की गोद में', 'दो बदन', 'सावन की घटा', 'पत्थर के सनम', 'उपकार', 'पूरब और पश्चिम', 'वो कौन थी', 'रोटी कपड़ा और मकान' और 'क्रांति' जैसी मूवीज में काम किया। निजी जिंदगी की बात करें तो मनोज कुमार और शशि के दो बेटे हैं, जिनका नाम विशाल और कुणाल है।
- काशी , वाराणसी या फिर बनारस, काशी विश्वनाथ की नगरी के रूप में विख्यात है। इसके अलावा इस प्राचीन नगर में अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इसे उसकी रंग बिरंगी बनारसी साडिय़ों के लिए भी पूरे भारत में जाना जाता है, लेकिन इस शहर में ऐसा बहुत कुछ है जो आपको अपनी ओर आकर्षित कर लेगा। इस शहर के बारे में कहा जाता है कि यदि कोई एक बार यहां की खासियत जान लेगा, तो उसे यहां से लौटने का मन नहीं करेगा। जानिए बनारस से जुड़ी कुछ खूबसूरत बातें.....वैदिक परंपरा का गुंजनवाराणसी में दो दर्जन से ज्यादा वैदिक विद्यालय हैं, जिनमें श्री विद्यामठ भी एक है। विद्यापीठ में दाखिला लेने वाले छात्रों की उम्र 12 साल से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। छात्रों की दिनचर्या रोज सुबह 4 बजे शुरू होती है। हर दिन गंगा के तट पर योगाभ्यास, फिर वेद और शास्त्रों की पढ़ाई और शाम को आरती के साथ छात्रों का दिन खत्म होता है।अलौकिक सूर्योदयबनारस की सुबह अलौकिक है। लालिमा से भरे सूर्य की रोशनी, गंगा और घाटों को गजब का सौंदर्य देती है। सुबह सुबह भीड़ भाड़ कम होने की वजह से भी प्रकृति का ये नजारा और दिलकश और आध्यात्मिक हो जाता है।बनारस हिंदू यूनिवर्सिटीभारत के मशहूर विश्वविद्यालयों में शुमार बीएचयू (बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी) भी काशी यानी बनारस की शान है। 1916 में मदनमोहन मालवीय और एनी बेसेंट द्वारा स्थापित किया गई बीएचयू पढ़ाई के साथ साथ सबसे बड़ी आवासीय यूनिवर्सिटी के लिए विख्यात है। इसके कैंपस को देखने भी लाखों सैलानी पहुंचते हैं।हर तरह का भोजनबनारस में भारत के करीबन हर राज्य का पारंपरिक भोजन मिल जाता है। इसकी वजह यहां हर राज्य से आने वाले श्रद्धालु और उनके लिए बनाए गए कुछ खास घाट हैं। नाश्ते या भोजन के लिए बनारस में दर्जनों विकल्प मौजूद रहते हैं। बनारसी चाट, मटर पोहा, कचोरी, मिट्टी के कुल्हड़ में दही-रबड़ी, सौंधा दूध, गर्मी में रसीली लीची और आमों की अनेक वैरायटी.. सर्दियों में अमरूद की बहार।अविरल धारा में डुबकीहिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक गंगा नदी में डुबकी लगाने से इंसान पापमुक्त हो जाता है। काशी में डुबकी लगाना और भी पवित्र माना जाता है। हिंदू धर्म में पंडिताई का काम करने वाले ब्राह्मणों के लिए जीवन में एक बार काशी जाना अनिवार्य सा माना जाता है। पंचांग भी यहीं से निकलते हैं।भांग के कई रूपबनारस में आपसे अगर कोई कहें कि मिश्राम्बू पिएंगे तो सावधान हो जाइए। मिश्राम्बू भले ही बड़ा आध्यात्मिक सा नाम लगे, लेकिन यह भांग है। यह दूध और बादाम के शेक में मिली हुई भांग हैं। बनारस में इसके अलावा भांग, चरस, गांजे और लड्डू के रूप में मिलती है।गंगा के पारबनारस के स्थानीय युवा और यूनिवर्सिटी के छात्र नहाने के लिए गंगा पार कर घाटों के दूसरी तरफ जाते हैं। कुछ युवा नहाने धोने के बाद नदी किनारे बैठ दोस्तों से गप्प लड़ाते हैं और चिलम भी पीते हैं।अलग ही है बनारसी पानभारत में पान का पत्ता तीन तरह का मिलता है। बनारसी, कलकतिया और महोबनी । तीनों में बनारसी पत्ते का स्वाद काफी अलग है। बनारस में कत्था भी अलग किस्म का इस्तेमाल किया जाता है । साथ ही पान में कच्ची सुपारी डाली जाती है । यह चीजें बनारसी पान को स्पेशल बनाती हैं।बनारसी सिल्क और साड़ीबनारस में रेशम पैदा नहीं किया जाता है। यहां, बेंगुलुरू और चीन से रेशम के धागे मंगाए जाते हैं । उन धागों से खूबसूरत साडिय़ां बनाने का हुनर बनारस के बुनकर ही जानते हैं । शहर में बुनकरों के तीन मुख्य इलाके हैं, जहां करीब 22 हजार बुनकर परिवार रहते हैं। ज्यादातर बुनकर अब मशीनों के सहारे काम करते हैं।ईको फ्रेंडली चुस्कीबनारस में आपको प्लास्टिक के कप-गिलास काफी कम दिखाई पड़ेंगे। शहर में ज्यादातर दुकानों और ठेलों पर मिट्टी के कुल्हड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। लस्सी, रबड़ी, चाय और कॉफी तक कुल्हड़ों में दी जाती है, लेकिन प्लास्टिक में पैक दूसरी चीजें अब भी बड़ी मुसीबत बनी हुई हैं।गंगा आरतीवाराणसी में हर शाम होने वाली गंगा आरती देखने हर दिन हजारों लोग जुटते है। ज्यादातर भीड़ मुख्य रूप से दो घाटों पर ही होती है, दशाश्वमेध और अस्सी घाट पर। आरती चाहे तो घाट पर बैठ कर देखी जा सकती है, या फिर नाव में बैठकर । आरती के बाद घाटों पर काफी देर तक मेले जैसा माहौल रहता है। इस दौरान खिलौने बेचने वाले लोग या श्रद्धालुओं के मस्तक पर भस्म लगाने वाले बाबा भी दिखाई पड़ते हैं । भस्म लगाने के बाद कुछ बाबा कम से कम 10 रुपये के नोट की उम्मीद करते हैं । सिक्के देने पर वह नाराज होते हैं और बनारसी अंदाज में अप्रिय शब्दों से संबोधित करते हैं ।बनारस की रातयह कहावत आम है कि जिसे कहीं जगह नहीं मिलती, उसे काशी में जगह मिल जाती है। 84 घाटों के शहर बनारस में हजारों लोग बेघर रहते हैं। उनका जीवन भिक्षा और धर्मार्थ होने वाले आयोजनों से चलता है। इस तरह जीवन चलाने वाले ज्यादातर लोग मजबूरी या अपनी इच्छा से घर बार छोड़ कर काशी पहुंचे हैं।जीवन का अंतवाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर हर वक्त चिताए जलती रहती हैं। चिता जलाने का काम करने वाले एक डोम राजा कहते हैं कि, "यह माया मुक्त क्षेत्र है, यहां शोक और माया मोह के लिए कोई जगह नहीं है। इस क्षेत्र से बाहर निकलते ही संसार फिर इंसान पर हावी हो जाता है। " औसतन 24 घंटे में यहां 70 दाह संस्कार किए जाते हैं।
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-मखमली आवाज की मलिका मुबारक बेगम का मुफलिसी में बीता उम्र का अंंतिम पड़ाव
(पुण्यतिथि पर विशेष)नींद उड़ जाए तेरी चैन से सोने वालेये दुआ मांगते हैं नैन ये रोने वालेनींद उड़ जाए तेरी..ये गीत 1968 में आई फिल्म जुआरी का है। इस गीत को आवाज़ देने वाली हिन्दी फिल्मों की मशहूर गायिका मुबारक बेगम की आज पुण्यतिथि है। मुबारक बेगम का एक और गाना काफी लोकप्रिय रहा- कभी तन्हाइयों में यूं हमारी याद आएगी...। आज से चार साल पहले 18 जुलाई 1916 को मखमली आवाज की मलिका मुबारक बेगम में अंतिम सांस ली।मुबारक बेगम जिनकी आवाज़ सुनकर बिजलियां कौंध जाती हैं, दिल थम जाता है। 1950 से 1970 के बीच उनकी आवाज़ से हिंदी सिनेमा की गलियां रोशन थीं। उस दौर में शंकर-जयकिशन, खय्याम, एसडी बर्मन जैसे बड़े संगीतकारों के सुरों के साथ अपनी जादुई आवाज़ घोली।1950 और 60 के दशक में मुबारक बेगम की सुरीली आवाज का जादू चला। उन्होंने हमराही, हमारी याद आएगी, देवदास, मधुमती, सरस्वतीचंद्र जैसे कई हिट फिल्मों के गाने गाए। उम्र के अंतिम पड़ाव में मुबारक बेगम के दिन काफी मुफलिसी में बीते। उम्र की बीमारियों ने उन्हें जकड़ लिया और उनके बेटे के पास उनके इलाज के लिए पैसे नहीं थे। टैक्सी चलाकर वह किसी तरह अपने परिवार का खर्च चला रहा था। .बेटी के निधन के बाद से मुबारक बेगम की तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी थी। उन्होंने लोगों से मदद मांगी, सरकार को से भी गुहार लगाई। कुछ मदद मिली भी, लेकिन वह काफी नहीं थी। आखिरकार सुनील दत्त ने उनकी मुश्किल को समझा और अपने प्रभाव का उपयोग कर जोगेश्वरी में सरकारी कोटे से उनको एक छोटा-सा फ्लैट दिलवा दिया। उन्हें सात सौ रुपये माहवार की पेंशन भी मिलने लगी। मुबारक बेगम की आवाज के दीवाने दुनियाभर में फैले हुए हैं। उनकी दयनीय हालत देख उनके प्रशंसक कुछ न कुछ रुपये हर महीने उन्हें भिजवाते रहे। आखिर सात सौ रुपये महीने में गुजारा कैसे संभव था। बेटा टैक्सी चलाने लगा। पड़ोसी विश्वास नहीं कर पाते कि यह बूढ़ी, बीमार और बेबस औरत वह गायिका है जिसके गीत लोगों को दीवाना बना दिया करते थे। आखिरकार 18 जुलाई को वे इस दुनिया से ही रुखसत हो गईं।मुबारक बेगम के बारे में कहा जाता है कि वे पढ़ी- लिखी नहीं थीं, लेकिन गाने को इसकदर कंठस्थ कर रिकॉर्डिंग किया करती थीं कि कहीं कोई चूक नहीं हो पाती थी। मुबारक बेगम जब बुलंदियों को छू रही थीं तभी फि़ल्मी दुनिया की राजनीति ने उनकी शोहरत पर ग्रहण लगाना शुरू कर दिया। मुबारक को जिन फि़ल्मों में गीत गाने थे, उन फि़ल्मों में दूसरी गायिकाओं की आवाज़ को लिया जाने लगा। मुबारक बेगम का दावा है कि फि़ल्म जब जब फूल खिले का गाना परदेसियों से ना अंखियां मिलाना उनकी आवाज़ में रिकॉर्ड किया गया, लेकिन जब फि़ल्म का रिकॉर्ड बाजाऱ में आया तो गीत में उनकी आवाज़ की जगह लता मंगेशकर की आवाज़ थी। यही घटना फि़ल्म काजल में भी दोहराई गयी। और सातवां दशक आते आते मुबारक बेगम फि़ल्म इंटस्ट्री से बाहर कर दी गयीं। 1980 में बनी फि़ल्म राम तो दीवाना है में मुबारक का गाया गीत सांवरिया तेरी याद में उनका अंतिम गीत था। करीब सवा सौ फि़ल्मों में अपनी आवाज़ का जादू जगाने वाली मुबारक बेगम को कभी कोई बड़ा फि़ल्मी पुरस्कार या सम्मान नहीं मिला, क्योंकि वे तो काम के प्रति समर्पित , निश्छल थी और राजनीति करना नहीं जानती थीं।. (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष) -
मुंबई। बॉलीवुड में नाम और शोहरत हासिल करने के बाद कई स्टार्स ऐसे भी हैं, जो अपने आखिरी समय में अकेलापन देखा। 60 से लेकर 80 के दशक में इन सेलेब्स की एक झलक पाने के लिए लाखों-करोड़ों फैंस घंटों-घंटों सड़कों पर इंतजार करते थे। आज हम अपनी इस लिस्ट में आपको बॉलीवुड की उन अदाकाराओं के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसके बाद आखिरी समय में इलाज कराने तक के पैसे नहीं थे। देखें ये लिस्ट...
प्रिया राजवंशकहा जाता है कि फिल्म 'हीर रांझा' में नजर आईं प्रिया राजवंश लोकप्रिय अभिनेता देव आनंद के भाई चेतन आनंद के साथ लिव-इन रिलेशन में रहती थीं। चेतन की मौत के बाद बॉलीवुड में उन्हें सहारा देने वाला कोई नहीं था और वो अकेली पड़ गईं। रिपोट्र्स की मानें तो चेतन के दोनों बेटों ने प्रिया की गोली मारकर हत्या कर दी थीं।विमीबी.आर. चोपड़ा की फिल्म 'हमराज' से इंडस्ट्री में शुरुआत करने के बाद विमी ने दर्शकों के बीच अलग पहचान बनाई थी। विमी को शराब की लत लगने की वजह से उनका सब कुछ बिक गया था। एक्ट्रेस की मौत के बाद उनकी बॉडी को अंतिम संस्कार के लिए ठेले पर श्मशान घाट ले जाया गया था।परवीन बॉबी80 के दशक की मशहूर अभिनेत्री परवीन बॉली की मौत 20 जनवरी, 2005 को हो गई थी, लेकिन उनकी बॉडी 22 जनवरी को उनके फ़्लैट से निकाली गई। परवीन बाबी ने आत्महत्या की थी या उनकी मौत हुई थी, ये आज तक कोई नहीं जान पाया परवीन बाबी सिजोफ्रेनिया नाम की मानसिक बीमारी से पीडि़त थीं, जो कि अनुवांशिक बीमारी थी। यही वजह थी कि इसके ठीक होने के आसार न के बराबर थे। एक व्हील चेयर, दो जोड़ी कपड़े, कुछ दवाइयां, चंद पेंटिंग्स और कैनवास ही परवीन के अंतिम दिनों के साथी थे। बताया जाता है कि परवीन डायबिटीज़ और पैर की बीमारी गैंगरीन से पीडि़त थीं जिसकी वजह से उनकी किडनी और शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। 2002 से उन्होंने किसी से मिलना जुलना भी बंद कर दिया था।साधना शिवदसानीसाधना शिवदसानी अपने जमाने की मशहूर अदाकाराओं में से एक थीं। 60 और 70 के दशक में एक्ट्रेस की खूबसूरती और उनके फैशन सेंस का हरकोई दीवाना था। साधना ने मशहूर निर्देशक राम कृष्ण नय्यर के साथ शादी की थी। पति की मौत के बाद साधना को आर्थिक तंगी से होकर गुजरना पड़ा था। आपको जानकार हैरानी होगी कि साधना काफी सालों तक लोकप्रिय सिंगर आशा भोंसले के फ्लैट में एक किरायेदार के रूप में रही थीं।नंदानंदा भी बॉलीवुड की खूबसूरत अदाकाराओं में से तक थीं। एक्ट्रेस के कंधों उनके परिवार की जिम्मेदारी थी और इसी वजह से वो कभी शादी नहीं कर पाई थीं। 53 साल की उम्र में नंदा ने फेमस डायरेक्टर मनमोहन देसाई के साथ सगाई की, लेकिन दोनों की शादी नहीं हो पाई। शादी से पहले ही मनमोहन देसाई की रहस्यमय तरीके से अपने घर की छत से नीचे गिरने से मौत हो गई थी। नंदा इससे काफी टूट गई थीं। नंदा की मौत हार्ट अटैक होने की वजह से हुई थी।मीना कुमारीमीना कुमार को बॉलीवुड की 'ट्रैजेडी क्वीन' के नाम से भी जाना जाता है। मीना कुमारी बॉलीवुड की फेमस और लोकप्रिय अभिनेत्रियों में से एक थीं। कमाल अमरोही से शादी होने के बाद भी मीना कुमारी अकेलेपन का शिकार रहीं। मीना कुमार ने 38 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। कहते हैं कि उनकी मौत अस्पताल में हुई और उनके इलाज का बिल देने कोई रिश्तेदार सामने नहीं आया। आखिरकार उनके एक प्रशंसक डॉक्टर ने पैसे चुकाये और फिर उनका अंतिम संस्कार हो सका।अचला सचदेवअचला सचदेव भी बॉलीवुड की पॉपुलर एक्ट्रेसेस में एक थीं। गुमनामी की दुनिया में जिंदगी गुजारने के बाद एक्ट्रेस की मौत पुणे के अस्पताल में हुई थी। पति के निधन के बाद अचला अकेली पड़ गई थीं। आखिर दिनों में अचला के पास इलाज कराने तक के पैसे नहीं थे। -
जन्मदिन पर विशेष
फिल्मी परदे पर सबको हंसाने वाली प्यारी टुनटुन (जन्म11 जुलाई 1923 - निधन 23 नवम्बर 2003) की आज जयंती है। वे लोगों के दिलों में ऐसे छाई कि आज भी यदि कोई मोटी महिला दिख जाती है, तो लोग मजाक में उसे टुनटुन कह देते हैं। टुनटुन ने अपना कॅरिअर पार्श्व गायिका के रूप में अपने मूल नाम उमा देवी खत्री से शुरू किया था। अफसाना लिख रही रही हूं... गीत उन्होंने ही गाया है।नूरजहां के प्रति दीवानगी और गायिकी के जुनून ने उन्हें मथुरा से मुंबई पहुंचाया। चाचा के घर में पली-बढ़ी उमा देवी की हैसियत परिवार में एक नौकर के समान थी। घरेलू काम के सिलसिले में उमादेवी का दिल्ली के दरियागंज इलाके में रहने वाले एक रिश्तेदार के घर अक्सर आना-जाना लगा रहता था। वहीं उनकी मुलाक़ात अख्तर अब्बास क़ाज़ी से हुई, जो दिल्ली में आबकारी विभाग में निरीक्षक थे। काज़ी साहब उमा देवी का सहारा बने, लेकिन वे लाहौर चले गए।इस बीच उमा देवी ने भी गायिका बनने का ख्वाब पूरा करने के लिए मुंबई जाने की योजना बना ली। दिल्ली में जॉब करने वाली उनकी एक सहेली की मुंबई में फि़ल्म इंडस्ट्रीज के कुछ लोगों से पहचान थी। एक बार जब वो गांव आई, तो उसने उमा देवी को निर्देशक नितिन बोस के सहायक जव्वाद हुसैन का पता दिया। वर्ष 1946 था और उमादेवी 23 बरस की थी। वे किसी तरह हिम्मत जुटाकर गांव से भागकर मुंबई आ गई। जव्वाद हुसैन ने उन्हें अपने घर पनाह दी। मुंबई में उमा देवी की दोस्ती अभिनेता और निर्देशक अरूण आहूजा और उनकी पत्नी गायिका निर्मला देवी से हुई, जो मशहूर अभिनेता गोविंदा के माता-पिता थे। इस दंपत्ति ने उमा देवी का परिचय कई प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से करवाया। उस समय तक अख्तर अब्बास काज़ी साहब भी मुंबई आ गए थे। 1947 में उमा देवी और काज़ी साहब ने शादी कर ली।उसके बाद उमा देवी काम की तलाश करने लगी। उन्हें कहीं से पता चला कि डायरेक्टर अब्दुल रशीद करदार फि़ल्म दर्द बना रहे हैं. वे उनके स्टूडियो पहुंचकर उनके सामने खड़े हो गई। उन्होंने पहले कभी करदार साहब को नहीं देखा था। बेबाक तो वो बचपन से ही थी, उनसे ही सीधे पूछ बैठी, करदार साहब कहां मिलेंगे? मुझे उनकी फि़ल्म में गाना गाना है। शायद उनका ये बेबाक अंदाज़ करदार साहब को पसंद आ गया, इसलिए बिना देर किये उन्होंने संगीतकार नौशाद के सहायक गुलाम मोहम्मद को बुलाकर उमा देवी का टेस्ट लेने को कह दिया। उस टेस्ट में उमादेवी ने फिल्म जीनत में नूरजहां द्वारा गाया गीत आँधियां गम की यूं चली गाया। हालांकि उमा देवी एक प्रशिक्षित गायिका नहीं थी, लेकिन रेडियो पर गाने सुनकर और उन्हें दोहराकर वे अच्छा गाने लगी थी। बरहलाल, उनका गया गाना सबको पसंद आया और वो 500 रुपये की पगार पर नौकरी पर रख ली गई।जब उमा देवी की मुलाक़ात नौशाद से हुई, तो उनसे भी बेबकीपूर्ण अंदाज़ में उन्होंने कह दिया कि उन्हें अपनी फि़ल्म में गाना गाने का मौका दें, नहीं तो वे उनके घर के सामने समुद्र में डूबकर अपनी जान दे देंगी। नौशाद साहब भी उनकी बेबाकी पर हैरान थे। खैर, उन्होंने उमा देवी को गाने मौका दिया और दर्द फिल्म का गीत अफ़साना लिख रही हूं ...उनसे गवाया। यह गीत बहुत हिट हुआ और आज तक लोगों की ज़ेहन में बसा हुआ है। उस फि़ल्म के अन्य गीत आज मची है धूम, ये कौन चला, बेताब है दिल .. भी लोगों को बहुत पसंद आये।फिर क्या था , उमा देवी की गायिका के रूप में गाड़ी चल पड़ी। कई फि़ल्मी गीतों को उन्होंने अपनी सुरीली आवाज़ से सजाया। 1947 में ही बनी फि़ल्म नाटक में उन्हें गाने का मौका मिला और उन्होंने गीत दिलवाले जल कर मर ही जाना गाया। फिर 1948 की फि़ल्म अनोखी अदा में दो सोलो गीत काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाए, दिल को लगा के हमने कुछ भी न पाया और फि़ल्म चांदनी रात में शीर्षक गीत'चांदनी रात है, हाय क्या बात है, में भी उन्होंने अपनी आवाज़ दी। उमादेवी को गाने के मौके मिलते रहे और वो गाती रहीं। उन्होंने कई फि़ल्मों में गाने गए। उनके द्वारा गाये गए गीत लगभग 45 के आस-पास हैं।बच्चों के जन्म के साथ उनकी पारिवारिक जि़म्मेदारियां बढ़ रही थी। साथ ही लता मंगेशकर , आशा भोंसले जैसी संगीत की विधिवत् शिक्षा प्राप्त गायिकाओं का भी बॉलीवुड फि़ल्म इंडस्ट्रीज में पदार्पण हो चुका था। उमादेवी ने गायन का प्रशिक्षण नहीं लिया था। इसलिए धीरे-धीरे उनका गायन का काम सिमटता गया और एक दिन वह अपना गायन करिअर छोड़कर पूरी तरह अपने परिवार में रम गई। परिवार चलाना मुश्किल हुआ तो उमादेवी ने फिर से फि़ल्मों में काम करने का मन बनाया।वे अपने गुरू नौशाद साहब से मिली। उमादेवी फिर से फि़ल्मों में गाना चाहती थीं, लेकिन समय आगे निकल चुका था। स्थिति को देखते हुए नौशाद साहब ने उन्हें कहा, तुम अभिनय में हाथ क्यों नहीं आजमाती? उमादेवी ने अपने बेबाक अंदाज़ में उन्होंने कह दिया, मैं एक्टिंग करूंगी, लेकिन दिलीप कुमार के साथ। दिलीप कुमार उस समय के सुपरस्टार थे। इसलिए उमादेवी की बात सुनकर नौशाद साहब हंस पड़े, लेकिन इसे किस्मत ही कहा जाए कि अपने अभिनय करिअर की शुरूआत उमादेवी ने दिलीप कुमार के साथ ही की। फिल्म थी - बाबुल जिसमें हिरोइन थीं - नर्गिस। उस वक्त उमा देवी का वजन काफी बढ़ गया था। दिलीप कुमार ने ही मोटी उमा को देखकर टुनटुन नाम दिया और यह नाम हमेशा के लिए उनके साथ जुड़ गया। फि़ल्म रिलीज़ हुई और छोटे से रोल में भी उनका अभिनय काफ़ी सराहा गय। उसके बाद आई मशहूर निर्माता-निर्देशक और अभिनेता गुरु दत्त की फि़ल्म मिस्टर एंड मिस 55 में उन्होंने अपने अभिनय के वे जौहर दिखाए कि हर कोई उनका कायल हो गया.बाद में टुनटुन की ख्याति इतनी बढ़ गई थी कि फि़ल्मकार उनके लिए अपनी फि़ल्म में विशेष रूप से रोल लिखवाया करते थे और टुनटुन भी हर रोल को अपने शानदार अभिनय से यादगार बना देती थीं। 70 के दशक के बाद उन्होंने फि़ल्मों में काम करना कम कर दिया और अधिकांश समय अपने परिवार के साथ गुजारने लगी। उनकी अंतिम फिल्म 1990 में आई कसम धंधे की थी। 24 नवंबर 2003 में उन्होंने इस दुनिया से विदा ली, लेकिन आज भी वे हिन्दी फिल्मों की पहली और सबसे सफ़ल महिला कॉमेडियन के रूप में याद की जाती हैं।---- -
अभिनेता दिलीप कुमार अपने 12 भाई-बहनों में सबसे ज्यादा सफल रहे। उनके एक भाई नासीर ने भी अभिनय जगत में कदम रखा और अपने दौर में कई हिट फिल्में दीं। बेगम पारा, सुरैया जैसी नामी नायिकाओं के साथ फिल्में की। पद्म विभूषण से भी नवाजे गए.. लेकिन भाई दिलीप कुमार के सामने टिक नहीं पाए और गुमनामी में खो गए।
कहते हैं शोहरत और ग्लैमर की चकाचौंध से भरी फिल्म इंडस्ट्री बाहर से जितनी आकर्षक नजर आती है, असलियत में कुछ और ही है। उगते सूरज की इबादत यहां की रीत रही है। जिनकी चमक फीकी पड़ जाती है उन्हें जल्द ही भुला दिया जाता है। इंडस्ट्री में अलग-अलग समय में कई ऐसे कलाकार आए, जिन्होंने अपने करियर के शुरुआती दौर में तो खूब नाम कमाया, लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे गुमनाम हो गए। अभिनेता नासिर खान के साथ भी ऐसा ही हुआ।अभिनेता नासिर खान ने अपने करियर में उन्होंने आठ फिल्मफेयर, पद्म विभूषण और कई अन्य बड़े अवॉर्ड हासिल किए। अपने फिल्मी सफर में उन्होंने 29 फिल्मों में काम किया था। हीरो के तौर पर उनकी आखिरी फिल्म 'आदमी' थी। इसमें अपने जमाने की बोल्ड एक्ट्रेस बेगमपारा हीरोइन थी जिनसे बाद में नासीर ने निकाह कर लिया। पिक्चर रिलीज होने के बाद नासिर ने बेगम पारा से निकाह किया था। नासिर खान अपने भाई दिलीप कुमार के साथ भी कई फिल्मों में नजर आए थे। इनमें से एक मूवी थी 'गंगा जमुना'। इसको सत्येन बोस ने बनाया था। दो भाइयों की कहानी पर बुनी गई पिक्चर में अभिनय भी असल जिंदगी के भाई कर रहे थे। नासिर खान ने इसमें पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभाई थी।अभिनय भी असल जिंदगी के भाई कर दिलीप कुमार और नासिर का करियर लगभग एक साथ ही शुरू हुआ था। दिलीप कुमार ने 1944 में फिल्म 'ज्वार भाटा' से करियर की शुरुआत की तो वहीं, 1945 में फिल्म 'मजदूर' से नासिर खान कैमरे के आगे आए। इसके बाद नासिर ने 'शहनाई' फिल्म में काम किया और सफलता हासिल की। वहीं, दिलीप कुमार तब तक तीन सफल फिल्में कर चुके थे। इसके बाद 1951 में नासिर ने 'नगीना' में काम किया। उस वक्त दिलीप 'दीदार' में अभिनय कर रहे थे। फिर नासिर धीरे-धीरे लगातार दिलीप कुमार से पिछड़ते चले गए। कुछ समय के बाद उन्होंने फिल्मी दुनिया को ही अलविदा कह दिया। वो नासिक में खेती-बाड़ी करने लगे थे। उनका वहां पोल्ट्री फार्म भी था।बेगम पारा से शादी के बाद दोनों को तीन संतान हुईं। इनमें एक बेटा नादिर खान, दूसरा बेटा अयूब खान और बेटी लुबना हैं। बाद में अयूब बॉलीवुड फिल्मों में अभिनेता बने। नासिर तीन मई 1974 को इस दुनिया से अलविदा कह गए। नौ दिसंबर 2008 में उनकी पत्नी बेगम पारा का भी निधन हो गया। नासिर खान ने अपने करियर के दौरान 'मजदूर, 'अंगारे, 'खजाना, 'नाजनीन, 'हंगामा, 'नगीना, 'आगोश, 'श्रीमतीजी, 'जवाब , 'दायरा, 'इनाम, 'सोसायटी, 'आसमान, 'खूबसूरत, 'शीशम, 'चारमीनार, 'साया, 'गंगा जमुना, 'सौदागर और 'नखरे जैसी 29 फिल्मों में काम किया। - -तालाब संरक्षण से प्रकृति को समझने का मिला अवसरआलेख- धर्मधाम गौरवगाथा समिति, धमधा जिला दुर्ग छत्तीसगढ़धमधा में 126 तालाब थे। हमने गोपाल तालाब में काम शुरू किया तो सबके मन में एक ही सवाल था कि यही तालाब ही क्यों। यह तालाब तो साल में 8 महीने सूखा रहता है। बहुत अच्छे से पानी भी नहीं भरता। इस गोपाल तालाब का कोई उपयोग भी नहीं है। इसमें बड़े-बड़े पत्थर हैं, जिसके कारण न तो आदमी घुसता है और न मवेशी। इसके पार में भी पेड़-पौधे नहीं हैं। केवल मुरम ही मुरम है, जहां कोई पौधा उगता भी नहीं है। फिर गोपाल तालाब में क्या किया जा रहा है, क्या यहां कोई कब्जा जमाना उद्देश्य है।हमने लोगों के सवालों पर विचार किया तो इन सबके उत्तर हमें अपने आप मिलने लगे।यदि गोपाल तालाब की तरह हर तालाब पर ध्यान देना छोड़ दिया गया तो धीरे-धीरे सभी 126 तालाब खत्म हो जाएंगे।(1) 1823 में बना था गोपाल तालाब -वैसे इस तालाब में काष्ठस्तंभ मिलना बहुत महत्व रखता है। हमने काष्टस्तंभ को फिर से स्थापित करने के लिए उसे निकाला तो उसमें 1823 का चाँदी का सिक्का मिला, जो इस तालाब की ऐतिहासिकता को दर्शाता है। इससे यह फायदा हुआ कि हमारे तालाबों की क्या परंपरा थी, किस काल में ये बने हमें इसकी जानकारी हुई। सबसे बड़ी बात धमधा में जोड़ी में तालाब और भी हैं, लेकिन केवल गोपाल-गोपालिन तालाब ही जिसमें दोनों तालाब में स्तंभ गड़ाए गए थे। इसे लोगों के ध्यान में नहीं लाया जाता तो संभवत: यह बात लोग बिसरा देते।(2) तालाब के मुकुट की तरह होते हैं स्तंभ-हमने गोपाल तालाब को फिर से तालाब जैसा सम्मान दिलाने का प्रयास किया है। इसके लिए प्राचीन संस्कार के अनुसार काष्ठस्तंभ की स्थापना की है, जो किसी तालाब का शिखर या मुकुट की तरह होता है। इस तालाब में पानी कम भरता है क्योंकि इसके लिए पानी के आने का रास्ता कम हो गया है। इसके लिए सड़क के दूसरी ओर से पानी लाने के लिए पार को जेसीबी से खुदाई की गई है। गोपालिन तालाब से गोपाल तालाब को जोडऩे भी पार को फोड़ा गया है। ताकि दोनों में पानी का आदान-प्रदान हो सके। अभी इसमें चार-पाँच महीने पानी भरा रहता है हमारा प्रयास है कि इसमें सालभर पानी भरा रहे। वह भी प्राकृतिक बारिश के पानी से। हम ट्यूबवेल से तालाब भरने के पक्षधर नहीं हैं।(3) जीव-जन्तु और पक्षियों का आश्रय स्थल होते हैं तालाब-एक तालाब कई जीवों का घर होता है। इसमें सांप, मेढ़क, केकड़ा, मछली के साथ छोटे-छोटे जीव पलते हैं। इसके ऊपर चिडिय़ा विचरण करती हैं। ये एक-दूसरे के साथ सह-अस्तित्व के साथ निर्वाह करते हैं। पानी कम होने से तालाब में जीव-जन्तुओं की संख्या कम है। इसके लिए हमने तालाब में मछली भी लाकर छोड़ी है। ताकि सभी आहार प्रणाली के माध्यम से एक-दूसरे से विकसित होते रहे।(4) कर्क रेखा में होने के कारण जल्दी सूखते हैं तालाब-तालाब जल्दी सूखने के तीन कारण हैं, पहला पानी कम भरना, दूसरा सूर्य के प्रकाश से वाष्पीकरण और तीसरा मुरम जमीन होने के कारण जल्दी सोखना। पहले कारण के समाधान के लिए हमने पानी के आवक का स्त्रोत बढ़ा दिया है। चूंकि छत्तीसगढ़ पृथ्वी के बीच स्थित है। यहां से कर्क रेखा गुजरती है। इसलिए यहां का वातावरण उष्ण कटीबंधीय है। सूरज की रोशन यहां सबसे ज्यादा समय तक पड़ती है, लिहाजा तालाबों का पानी अधिक वाष्पीकृत होता है। इसके समाधान के लिए हमने गोपाल तालाब में कमल का रोपण किया है। इसके पत्ते पानी के ऊपर फैल जाते हैं, जिससे वाष्पीकरण कम होता है। तीसरी समस्या मुरम जमीन होने के कारण पानी के जल्दी सूखने की है, इस समस्या से कमल की जड़ें कुछ निजात दिला सकती है। दलदल में जड़ें घुसने से पानी का रिसाव कुछ कम होगा।(5) मुरम में नहीं उग पाते पौधे-हम तालाब के चारों ओर घना वृक्षारोपण करना चाहते हैं, क्योंकि पेड़-पौधों की जड़ें भूमि जल स्तर को बनाए रखती हैं। गोपाल तालाब धमधा के सबसे ऊंची भूमि पर होने के कारण जल स्तर जल्दी घट जाता है। पेड़-पौधों की संख्या बढ़ाकर इसे कुछ हद तक रोका जा सकता है।पेड़-पौधे लगाने के लिए गोपाल तालाब में सबसे बड़ी समस्या यहां की मुरम वाली जमीन है, क्योंकि मुरम वाली जमीन पर कोई पौधा जल्दी उगता नहीं है। जो पौधे उगते हैं, उसे मवेशी चर देते हैं। कुछ बच जाते हैं, उसे लोग खेतों में घेरा करने या फिर जलाने के लिए काट देते हैं।(6) छिंद के पांच हजार बीज लगाए गोपाल तालाब के पार में-गोपाल तालाब की इस समस्या के लिए हमने यहां का वैज्ञानिक अध्ययन किया, जिसमें हमें नई बात पता लगी। यहां छिंद के पेड़ काफी हैं, वे सुरक्षित भी हैं और उन्हें मवेशी नहीं खाते, न ही लोग काटते हैं। छिंद के पौधों आसानी से उग जाते हैं। इसलिए हमने गोपाल तालाब के पार में लगभग पाँच हजार छिंद की अच्छी किस्म के बीजों का रोपण किया है।(7) छिंद के सहारे उगते हैं नीम और बरगद-छिंद लगाने का दूसरा बड़ा फायदा यह होगा कि छिंद घना होता है। इसमें पक्षी बैठकर बीट करते हैं, जिसमें कई बड़े पौधों के बीज होते हैं। गोपाल तालाब में वर्तमान में हर छिंद के पास घनी झाडिय़ा उगी हुई हैं। उन झाडिय़ों के भीतर नीम, सीताफल, गस्ती, पीपल, परसा सहित कई पेड़ उग चुके हैं। उनकी ऊँचाई भी 10-12 फीट तक हो चुकी है। झाडिय़ों के बीच होने के कारण यह मवेशियों की पहुंच से बच जाता है और लोग भी नहीं काट पाते हैं। यदि हमारे छिड़के हुए छिंद के बीज उगते हैं तो इसी तरह से बड़े पेड़ इनके सहारे उगेंगे।(8) पाताल से पानी खींच लेती हैं छिंद की जड़ें-छिंद की जड़ें बहुत गहरी होती है, जो भू-गर्भ से पानी खींचते हैं, इसलिए छिंद के पेड़ के आसपास मिट्टी में नमी रहती है, जिससे दूसरे पौधों को नमी मिल जाती है। हमने छिंद और झडिय़ों के बीच में कुछ पौधे लगा रहे हैं ताकि यहां बड़े पेड़ उग सके और उन्हें मवेशी नुकसान न पहुंचाएं।वरना मुरम जमीन में पेड़ उगाना मुश्किल है।(9) प्रकृति और जीव जगत के संबंध को पहचानने का मिला अवसर -गोपाल तालाब में काष्ठस्तंभ की स्थापना से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। प्रकृति में कैसी व्यवस्था है, पेड़ एक-दूसरे को उगने में कैसे सहायता करते हैं। वे पक्षियों के रहने के लिए छाया देते हैं। पक्षी पेड़ों के वंश बढ़ाने का काम बीजों को उगाकर करते हैं। ये सभी चीजें मनुष्य को आपस में मिलजुलकर रहना सीखाते हैं। एक-दूसरे की सहायता करते हुए सुखपूर्वक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। गोपाल तालाब का यह काम जीवन और प्रकृति को समझने की दिशा में महत्वपूर्ण काम रहा।(10) धमधा की पहचान हैं तालाब-भविष्य में इसी तरह हम तालाबों का सरंक्षण करने का प्रयास करेंगे क्योंकि ये धमधा की पहचान ही नहीं, जीवन का साधन है।गोपाल तालाब पर आधारित स्मारिका का विमोचन 20 जून 2021 को दोपहर 3 बजे होगा। इसमें पधारकर अपनी भागीदारी दें।