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- जन्मदिवस पर विशेष- आलेख मंजूषा शर्माफिल्म इंडस्ट्री की सबसे खूूबसूरत एक्ट्रेस रही मधुबाला के साथ इस हीरो को बहुत कम लोग पहचान पाएंगे। यह फिल्म सैंया का दृश्य है और यह 1951 में बनी थी। फिल्म में दो हीरो थे अजित और दूसरे थे सज्जनलाल पुरोहित। जी हां, मधुबाला के साथ बतौर हीरो सज्जन नजर आए थे जिन्होंने फिल्म जॉनी मेरा नाम में हेमामालिनी के पिता का रोल निभाया था। आज ही के दिन वर्ष 1921 में राजस्थान के जयपुर में अभिनेता सज्जन का जन्म हुआ था। उनके जन्मदिन के मौके उनसे जुड़ी कुछ ऐसी बातों की हम चर्चा कर रहे हैं जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। अभिनेता सज्जन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। फिल्म अभिनेता, थियेटर कलाका, संवाद लेखक, डायरेक्टर और गीतकार.. सज्जन के कितने ही रूप देखने को मिले।अभिनेता सज्जन ने 40-50 के दशक में कई फिल्मों में हीरो का रोल निभाया। उन्होंने अपने दौर की टॉप की एक्ट्रेस नर्गिस, मधुबाला, नलिनी जयवंत और नूतन के हीरो बनकर फिल्में की।बात करें फिल्म सैंया की। वैसे तो मधुबाला के साथ दो-तीन फिल्मों में सज्जन ने काम किया, लेकिन फिल्म सैंया में वो मधुबाला के प्रेमी बने हैं। यह लव-ट्राएंगल मूवी थी, जिसमें मधुबाला एक अनाथ लड़की की भूमिका में हैं, जिनसे दो भाइयों को प्रेम हो जाता है। इनमें से एक भाई बने हैं सज्जन, तो दूसरे भाई की भूमिका अजीत ने निभाई है। यह फिल्म अंग्रेजी फिल्म 'डुअल इन द सन' की हिन्दी रीमेक थी, जिसमें सज्जन नेगेटिव भूमिका में थे। फिल्म की शूटिंग महाबलेश्वर में हुई थी। इस फिल्म के बारे में उन्होंने कहा था, 'मुझे फिल्म में कास्ट करके निर्माता-निर्देशक सादिक बाबू ने बड़ा रिस्क लिया था, लेकिन फिल्म कामयाब हो गई। मुझे इस तरह के किरदार दोबारा नहीं मिले। मैं किसी खास किरदार को लेकर टाइपकास्ट नहीं हुआ। हालांकि, फिल्म की सफलता के बाद मैंने अपने घर का नाम बदल कर 'सैंया' ही रख लिया।' हालांकि बाद में उन्होंने यह घर ही छोड़ दिया।इसके एक साल बाद सज्जन फिल्म 'निर्मोही' में नूतन के हीरो के रूप में नजर आऐ। मदन मोहन के संगीत में इंदीवर के गीतों को लता मंगेशकर ने आवाज दी। हालांकि, फिल्म ने कुछ खास कमाल नहीं किया, लेकिन इसके संगीत ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं।सज्जन लाल पुरोहित ने अपने करिअर में 150 से अधिक फिल्मों में काम किया, लेकिन उनकी यादगार भूमिकाओं में सस्पेंस थ्रिलर मूवी बीस साल बाद भी है। पूरी फिल्म में वे बैसाखी लिए एक आम इंसान की तरह घूमते नजर आते हैं। साल 1962 में रिलीज़ हुई इस फिल्म में उनके द्वारा निभाए गए डिटेक्टिव मोहन त्रिपाठी के किरदार को लोग आज तक याद करते हैं।साल 1964 के दौरान दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, 'अपने पिछले प्रोजेक्ट्स को याद करूं, तो मुझे ऐसा रोल चुनने में मुश्किल होती है, जिसे मैं 'उत्कृष्ट' कहूं। ईमानदारी से कहूं, तो मैंने कभी भी ऐसा कलात्मक प्रदर्शन नहीं किया है, जिसे 'सर्वोत्कृष्टÓ की श्रेणी में रखा जा सके।' उन्होंने तलाक', 'काबुलीवाला' और 'बीस साल बाद' जैसी फिल्मों का हिस्सा होने पर खुशी भी जाहिर की थी। उनका कहना था कि इन फिल्मों में काम करने की वजह से मेरा नाम स्क्रीन पर हमेशा के लिए दर्ज हो गया, वरना मैं तो भूला दिया जाता और सिर्फ थिएटर के मंच तक ही सिमटा रह जाता।आज़ादी से पहले भारत में 'बैरिस्टर' बनने का एक अलग ही चार्म था। लिहाजा, सज्जन ने भी बैरिस्टर बनने की ठान ली। ग्रेजुशन कर पहुंच गए कलकत्ता। यहां उन्हें 'ईस्ट इंडिया कंपनी' में नौकरी भी मिल गई। यहीं से उन्हें अभिनय का चस्का लगा और फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएं भी मिलने लगी। इसी दौरान 'गल्र्स स्कूल' में उन्हें शशिकला के हीरो का रोल मिल गया। साल 1949 में रिलीज़ हुई इस फिल्म के गाने कवि प्रदीप ने लिखे थे। इस फिल्म के बारे में सज्जन ने कहा था, 'काश इस तरह के दमदार किरदार वाली फिल्में मुझे और मिली होतीं।' उन्होंने जब मुंबई की राह पकड़ी। रात में फुटपाथ उनका आशियाना होता और दिन में स्टुडियो। काफी मुफलिसी के दिन उन्होंने काटे। इसी दौरान उन्हें मशहूर निर्देशक केदार शर्मा के सहायक का काम मिल गया। तब राज कपूर भी केदार शर्मा के असिस्टेंट हुआ करते थे। गजानन जागीरदार और वकील साहिब के असिस्टेंट का काम भी सज्जन ने पकड़ लिया। इस तरह से वो महीने के 35 रूपये महीना कमा लिया करते थे। इसी दौरान फिल्म धन्यवाद में उन्हें हीरो बनने का मौका मिला। फिल्म में उनकी नायिका हंसा वाडकर थीं।अभिनेता सज्जन को लिखने का भी शौक था और उन्हें कई फिल्मों के संवाद और गाने लिखे। जब हीरो के रूप में उनकी फिल्में असफल होने लगी तो उन्होंने इसे अपनी किस्मत मानकर चरित्र भूमिकाएं निभाने से परहेज नहीं किया।साल 1968 में आई मल्टीस्टारर मूवी 'आंखेंÓ में सज्जन ने एक छोटा सा रोल किया था। वहीं से वो रामानंद सागर के करीब आ गए। बाद में रामानंद सागर ने 'विक्रम और बेतालÓ में उन्हें विलेन 'बेतालÓ की भूमिका में लिया। उस वक्त 'बेताल' का डायलॉग तब बच्चे-बच्चे की ज़बान पर चढ़ गया था और वो था, 'तू बोला, तो ले मैं जा रहा हूं. मैं तो चला!'बाद में उनका एक महत्वपूर्ण काम उनकी एक अद्भुत पुस्तक "रस भाव दर्शन ' के रूप में सामने आया। मशहूर फोटोग्राफर ओ.पी. शर्मा के साथ मिलकर उन्होंने लगभग दो हजार साल पुराने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित इस पुस्तक की रचना की। इसमें शृंगार रस, करुणा रस जैसे रसों और 49 भावों को सज्जन ने अपनी मुख मुद्रा से दिखाया है। 17 मई 2000 को उन्होंने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कहा। उन्हेें आज लोग भले ही याद न करें... क्योंकि जब जमाना तेजी से रुख बदलता है, तो या तो बहुत सी चीजें धुंधली पड़ जाती हैं या भुला दी जाती हैं। अभिनेता सज्जन भी इनमें से एक हैं।
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स्वामी विवेकानंद की आज जयंती है। जानते हैं एक रोचक कथा, जिसमें स्वामी स्वामी विवेकानंद और जमशेदजी टाटा की मुलाकात हुई और स्वामी विवेकानंद के आइडिया से बदल गई भारत की तस्वीर बदल गई।
1893 में एक ही जहाज पर स्वामी विवेकानंद और जमशेदजी टाटा यात्रा कर रहे थे। वैंकुवर जा रहे इस जहाज में इन दो महान हस्तियों ने काफी समय बिताया। इस दौरान विवेकानंद ने जमशेदजी को एक ऐसा आइडिया दिया जिसने भारत की तकदीर ही बदल दी। जमशेदजी टाटा देश में औद्योगिक क्रांति के लिए पूरी कोशिश में जुटे थे। वह भारत में स्टील इंडस्ट्री की नींव रखना चाहते थे। यात्रा के दौरान विवेकानंद ने उन्हें ज्ञान से प्रभावित किया। जमशेदजी ने इसके बाद उस भगवाधारी संत से कई मुद्दों पर राय ली और उसे अमल में लाया।
विवेकानंद से बातचीत के दौरान जमशेदजी टाटा ने जापान के विकास और तकनीक की चर्चा की और भारत में एक स्टील उद्योग लगाने की बात कही। उन्होंने कहा कि वह ऐसे उपकरण और तकनीक की खोज में हैं जो भारत को एक मजबूत औद्योगिक राष्ट्र बनाने में मदद करे। उस वक्त महज 30साल के रहे विवेकानंद ने अपने से 24साल बड़े 54 साल के जमशेदजी टाटा को गरीबों और भारतीयों को मदद करने का आइडिया दिया। टाटा के जीवटता की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा कि भारत की असली उम्मीद यहां के लाखों लोगों की संपन्नता से जुड़ी है। उन्होंने टाटा से कहा कि वह जापान से माचिस का आयात करने की बजाए उसे भारत में ही बनाएं इससे ग्रामीण इलाके में रहने वाले गरीबों की मदद होगी। स्वामी विवेकानंद के विज्ञान का ज्ञान और कूट-कूटकर भरी देशभक्ति ने जमशेदजी टाटा को काफी प्रभावित किया। उन्होंने विवेकानंद से अपने अभियान में मदद करने और भारत में एक रिसर्च संस्थान की स्थापना के लिए मदद मांगी। विवेकानंद ने मुस्कुराते हुए कहा कि यह कितना ही सुंदर होगा कि आप पश्चिम के विज्ञान और तकनीक तथा भारत के अध्यात्म से लेकर मानवतावाद की पढ़ाई हो।
विवेकानंद की इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर जमशेद जी टाटा ने 23नवंबर 1898 को उन्हें एक पत्र लिखा और उनके साथ बातचीत की याद दिलाई और विश्वस्तरीय संस्थान खोलने की अपनी प्रतिबद्धता भी बताई। १८९८ में टाटा ऐसे संस्थान खोलने के लिए उचित जगह की तलाश में थे। वह उस समय मैसूर के दीवान शहयाद्री अय्यर से मिले और दोनों ने मिलकर उस वक्त के मैसूर के शासक कृष्णाराजा वडयार-ढ्ढङ्क को बेंगलूर में करीब 372एकड़ जमीन देने के लिए राजी किया। विवेकानंद का तो जुलाई 1902में निधन हो गया और ठीक उसके दो साल बाद जमशेदजी टाटा का भी निधन हो गया। लेकिन दोनों विभूतियों का सपना उनके निधन के बाद पूरा हुआ। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस का 1909 में जन्म हुआ जिसका 1911 में नाम बदलकर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस कर दिया गया। - - 6 वें इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल में व्याख्यानअंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष व नेत्र विशेषज्ञ डॉ. दिनेश मिश्र ने इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल 2020 में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और अंधविश्वास विषय पर व्याख्यान देते हुए कहा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास अत्यंत आवश्यक है, जिसके लिए समाज के हर जागरूक नागरिक को आगे आना चाहिए । 6 वें इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल का आयोजन वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) बायोटेक्नोलॉजी विभाग, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय संयुक्त रूप से किया गया।इस वर्ष 6 वां इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल 22 दिसम्बर से 25 दिसम्बर तक आयोजित किया गया जिनमें प्रथम दिवस देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ,केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने सम्बोधित किया। 25 दिसम्बर को समापन समारोह के मुख्य अतिथि देश के उपराष्ट्रपति वेंकटैया नायडू थे । इस साइंस फेस्टिवल में 60 से अधिक देशों के प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया। छत्तीसगढ़ से डॉ. दिनेश मिश्र ने इस आयोजन में भाग लिया एवम आलेख पढ़ा।डॉ. दिनेश मिश्र ने अपने व्याख्यान में कहा-अंधविश्वास का शाब्दिक अर्थ आंख मूंद कर विश्वास करना, या किसी भी बात, सूचना ,तथ्य पर बिना जाने समझे पूरी तरह विश्वास करना है। जबकि वहीं दूसरी ओर विज्ञान सीखने की एक प्रक्रिया है एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमें अपने परिवेश को समझने और परखने का अवसर देता है।वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे अंदर अन्वेषण की प्रवृत्ति विकसित करता है तथा विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सहायता करता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण की एक शर्त है, बिना किसी प्रमाण के किसी भी बात पर विश्वास न करना या उपस्थित प्रमाण के अनुसार ही किसी बात पर विश्वास करना। आपसी चर्चा, तर्क और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण अंग हैवैज्ञानिक दृष्टिकोण मूलत: एक ऐसी सोच है ,जिसका मूल आधार किसी भी घटना की पृष्ठभूमि में उपस्थित मूल कारण को जानने की प्रवृत्ति है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे अंदर अन्वेषण की प्रवृत्ति विकसित करता है तथा विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सहायता करता है।वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तात्पर्य है कि हम तार्किक रूप से सोचे विचारेंडॉ. दिनेश मिश्र ने कहा जनसामान्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना हमारे संविधान के अनुच्छेद 51, ए के अंतर्गत मौलिक कर्तव्यों में से एक है। इसलिए हम में से प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए प्रयास करे।हमारे संविधान निर्माताओं ने यही सोचकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मौलिक कर्तव्यों की सूची में शामिल किया है कि भविष्य में वैज्ञानिक सूचना एवं ज्ञान में वृद्धि से वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त चेतनासम्पन्न समाज का निर्माण हो।वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध तर्कशीलता से है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार वही बात ग्रहण के योग्य है जो प्रयोग और परिणाम से सिद्ध की जा सके, जिसमें कार्य-कारण संबंध स्थापित किये जा सकें। गौरतलब है कि मानवता और समानता के निर्माण में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण कारगर सिद्ध होता है।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा कि कुछ लोग अंधविश्वास के कारण हमेंशा शुभ-अशुभ के फेर में पड़े रहते है। यह सब हमारे मन का भ्रम है। शुभ-अशुभ सब हमारे मन के अंदर ही है। किसी भी काम को यदि सही ढंग से किया जाये, मेहनत, ईमानदारी से किया जाए तो सफलता जरूर मिलती है। उन्होंने कहा कि 18वीं सदी की मान्यताएं व कुरीतियां अभी भी जड़े जमायी हुई है जिसके कारण जादू-टोना, डायन,टोनही, बलि व बाल विवाह जैसी परंपराएं व अनेक अंधविश्वास आज भी वजूद में है। जिससे प्रतिवर्ष अनेक मासूम जिन्दगियां तबाह हो रही है। उन्होंने कहा कि ऐसे में वैज्ञानिक सोच को अपनाने की आवश्यकता है।डॉ. मिश्र ने कहा प्राकृतिक आपदायें हर गांव में आती है, मौसम परिवर्तन व संक्रामक बीमारियां भी गांव को चपेट में लेती है, वायरल बुखार, मलेरिया, दस्त जैसे संक्रमण भी सामूहिक रूप से अपने पैर पसारते है। ऐसे में ग्रामीण अंचल में लोग बैगा-गुनिया के परामर्श के अनुसार विभिन्न टोटकों, झाड़-फूंक के उपाय अपनाते हैं। जैसा कि कोरोना काल में भी होने लगा था । विश्व स्वास्थ्य संगठन ,स्वास्थ्य मंत्रालय ,प्रशासन की लगातार दी जा रही गाइड लाइन के बाद भी अनेक स्थानों से ,झाड़ फूंक,ताबीज,बलि अनुष्ठान के मामले सामने आए, जबकि चिकित्सा विज्ञान के अनुसार प्रत्येक बीमारी व समस्या का कारण व उसका समाधान अलग-अलग होता है, जिसे विचारपूर्ण तरीके से ढूंढा व समाधान निकाला जा सकता है। उन्होंने कहा कि जैसे एक बिजली का बल्ब फ्यूज होने पर उसे झाड़-फूंक कर पुन: प्रकाश नहीं प्राप्त किया जा सकता न ही मोटर सायकल, ट्रांजिस्टर बिगडऩे पर उसे ताबीज पहिनाकर नहीं सुधारा जा सकता। रेडियो, मोटर सायकल, टी.वी., ट्रेक्टर की तरह हमारा शरीर भी एक मशीन है जिसमें बीमारी आने ,समस्या होने पर उसके विशेषज्ञ के पास ही जांच व उपचार होना चाहिए।डॉ. मिश्र ने कहा -कुछ अंधविश्वास, रूढि़वादिता एवं कुपरम्पराओं से जन्म लेते हैं और कुछ स्वास्थ्य और बीमारियों के कारण ,लक्षण ,उपचार की वास्तविक जानकारी न होने के कारण बढ़ते हंै । उन्होंने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों एवं अंधविश्वासों की चर्चा करते हुए कहा कि बच्चों को भूत-प्रेत, जादू-टोने के नाम से नहीं डराएं क्योंकि इससे उनके मन में काल्पनिक डर बैठ जाता है जो उनके मन में ताउम्र बसा होता है, बल्कि उन्हें आत्मविश्वास, निडरता, के वास्तविक किस्से कहानियां सुनानी चाहिए। जिनके मन में आत्मविश्वास व स्वभाव में निर्भयता होती है। उन्हें न ही नजर लगती है और न कथित भूत-प्रेत बाधा लगती है। यदि व्यक्ति कड़ी मेहनत, पक्का इरादा का काम करें तो कोई भी ग्रह, शनि, मंगल, गुरू उसके रास्ता में बाधा नहीं बनता।सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ वैज्ञानिक विनय गद्रे, ने की । व्याख्यान के बाद प्रश्नोत्तर स्तर हुआ जिसमें प्रतिभागियों के प्रश्नों के उत्तर दिये गए।डॉ. दिनेश मिश्रनेत्र विशेषज्ञअध्यक्ष अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति
- नौशाद साहब के जन्मदिन पर विशेष, आलेख -मंजूषा शर्माभारतीय सिनेमा जगत में जब भी क्लासिक फिल्मों के नाम लिए जाएंगे, उसमें बैजू बावरा भी शामिल की जाएगी। फिल्म के लिए संगीतकार नौशाद ने ऐसी प्यारी प्यारी धुनें तैयार की, कि इतने बरसों के बाद आज भी इस फिल्म के गाने सुनो, तो दिल झूम उठता है। संगीतकार नौशाद साहब के जन्मदिन 25 दिसंबर के मौके पर उनकी इस फिल्म के बारे में हम आज चर्चा कर रहे हैं।वर्ष 1952 में ब्लैक एंड व्हाइट में बनी फिल्म बैजू बावरा में भारत भूषण और मीना कुमारी मुख्य भूमिकाओं में थे। यह वह दौर था, जब ज्यादातर फिल्म की कहानियों में या तो देशभक्ति की बात की जाती थी, या फिर जमींदारों या डाकूओं की। गांवों के परिवेश पर बनने वाली फिल्मों की कमी नहीं थी।उस वक्त की फिल्मों में रिश्तों में गहनता, मर्यादा को ज्यादा अहमियत दी जाती थी। बैजू बावरा फिल्म को यदि आज याद किया जाता है, तो नौशाद साहब के खूबसूरत क्लासिकल गानों, भारत भूषण और मीना कुमारी की क्यूट जोड़ी के कारण। कहानी के फिल्मांकन की दृष्टि से भले ही आज के डिजिटलाइज्ड दौर में यह फिल्म कमतर लगे, लेकिन 50 के दशक में ऐसी फिल्में बनना भी बड़ी बात थी। उस वक्त रीमेक या सीक्वल का दौर नहीं थी, कि एक ही कहानी को मसाला डालकर दो या फिर तीन- तीन फिल्में बना ली जाएं। बल्कि फिल्मों के गाने से लेकर कहानी, कलाकारों के अभिनय और दृश्यों के फिल्मांकन ,सभी में मौलीकता और इससे जुड़े लोगों की कड़ी मेहनत नजर आती थी।बैजू बावरा जैसा की फिल्म के नाम से जाहिर है कि यह फिल्म पुराने जमाने में शास्त्रीय गायक रहे बैजू बावरा के जीवन पर आधारित है। हालांकि फि़ल्म की कहानी और बैजू बावरा पर प्रचलित दन्तकथाओं में काफ़ी असमानताएं हैं। फिल्म में भारत भूषण और मीना कुमारी मुख्य भूमिकाओं में थे। यह वो फिल्म है जिसके बाद नौशाद की संगीत दुनिया में पहचान बनी। फिल्म 1952 में बनी थी और इसी फिल्म के लिए नौशाद साहब ने पहला फिल्म फेयर अवार्ड जीता था।ये फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में अपना अलग महत्व रखती है खासकर शास्त्रीय रागों के इस्तेमाल में। इसका मशहूर भजन मन तरपत हरि दर्शन.. को आज भी सबसे बढिय़ा भक्ति गीतों में शुमार किया जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि इस गीत के बोल लिखें हैं मोहम्मद शकील ने, इसको गाया है मोहम्मद रफी ने और धुन बनाई है नौशाद ने, जो यह साबित करता है कि संगीत की दुनिया किसी भी मजहब से नहीं बंधी है।फिल्म के अन्य मशहूर गानों में शामिल है राग दरबारी पर आधारित -ओ दुनिया के रखवाले.. जिसे गाया था नौशाद के पसंदीदा गायक रफी ने। झूले में पवन के , गीत को लता और रफी दोनों ने अपनी आवाज़ दी, में राग पीलू का इस्तेमाल किया गया। राग भैरवी में तू गंगा की मौज.. को कौन भूल सकता है... जिसके सुंदर बोल,कोरस एफैक्ट और ओर्केस्ट्रा सब मिलकर इस गीत को एक नया रूप देते हैं। फिल्म में कुल 13 गाने थे। आज गावत मन मेरो झूम के.. गीत राग देसी पर आधारित था और इसमें नौशाद साहब ने उस्ताद आमिर खान और डी. वी. पल्सुकर जैसे ढेढ शास्त्रीय गायकों का इस्तेमाल किया। वहीं दूर कोई गाये गीत राग देस पर आधारित था। मोहे भूल गए सावरिया गीत लता ने गाया और इसमें नौशाद ने राग भैरवी और राग कालिन्गदा का मिला जुला रूप पेश किया। बचपन की मोहब्बत गीत-राग मान्द, इंसान बनो... और लंगर कन्हैया जी ना मारो-राग तोड़ी, घनन घनन घना गरजो रे - राग मेघ और एक सरगम में नौशाद साहब ने राग दरबारी का प्रयोग किया। एक प्रकार से नौशाद साहब ने फिल्म के पूरे ही गानों में शास्त्रीय रागों का बड़ी खूबसूरती के साथ इस्तेमाल किया, इसलिए ये गाने आज भी लोकप्रिय हैं। आवाज की मिठास साथ हो तो शास्त्रीय रागों की कठिनता भी सहजता बन जाती है, इसके सभी गानों में ये बात स्पष्ट नजर आती है। नौशाद साहब ने साबित किया कि शास्त्रीय राग के साथ यदि लोकसंगीत का मेल हो जाए, तो जो संगम सामने आता है, वह कालजयी बन जाता है। उस वक्त शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत का ऐसा मधुर मिश्रण किसी भी फिल्म में नहीं हुआ।विजय भट्ट की इस फिल्म ने मीना कुमारी को स्टार बना दिया था। यह बतौर नायिका पहली फिल्म थी। इससे पहले मीना कुमारी बाल कलाकार के रूप में मजहबी नाम से फिल्मों में काम किया करती थीं। निर्देशक विजय भट्ट ने ही उन्हें मीनाकुमारी नाम दिया और अपनी फिल्म बैजू बावरा में नायिका के रूप में कास्ट किया। गौरी की भूमिका में मीना कुमारी ने सबका दिल जीत लिया। वहीं भारत भूषण भी बैजू बावरा की भूमिका में खूब जमे। इस फिल्म के संगीत के लिए नौशाद को पहला फिल्म फेयर अवार्ड मिला और मीना कुमारी ने भी सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार हासिल किया। एक प्रकार से 1952 का साल बैजू बावरा के लिए समर्पित रहा। फिल्म के निर्माता थे प्रकाश और निर्देशन विजय भट्ट का था। फिल्म में भारत भूषण और मीना कुमारी के अलावा सुरेन्द्र और अभिनेत्री कुलदीप ने भी काम किया था। अभिनेता सुरेन्द्र ने तानसेन की भूमिका निभाई थी, तो डाकू रूपमती के रोल में अभिनेत्री कुलदीप कौर थीं। मीना कुमारी के बचपन का रोल बेबी तबस्सुम ने निभाया था। फिल्म के अंत में दिखाया गया है कि नायक बैजू और नायिका गौरी की नदी में डूबने से मौत हो जाती है। कुल मिलाकर बैजू बावरा 1952 की श्रेष्ठतम संगीतमय फिल्म रही।कुछ बातें विजय भट्ट के बारे में। वे अपने दौर के जाने-माने फिल्म निर्माता , संवाद लेखक और निर्देशक रहे हैं। विजय भट्ट ने कुल 65 फिल्में बनाई जिसमें रामराज्य (1943), बैजू बावरा (1952), गूंज उठी शहनाई (1959) और हिमालय की गोद में (1965) प्रमुख थी। विजय भट्ट ने प्रकाश पिक्चर प्रोडक्शन कंपनी और प्रकाश स्टुडियो की स्थापना की थी। उन्होंने ही फिल्म एंड टेलीविजन प्रोड्यूसर गिल्ड ऑफ इंडिया संस्था की स्थापना की। उनके पोते विक्रम भट्ट आज हॉरर फिल्मों के निर्माण-निर्देशन के लिए जाने जाते हैं।---
- जयंती पर विशेष- आलेख-मंजूषा शर्मामोहम्मद रफी, संगीत की दुनिया का वो नाम है, जिनके गाए गाने आज भी हर पीढ़ी की पसंद बने हुए हैं। वे न केवल एक अच्छे गायक बल्कि एक अच्छे इंसान भी थे। दरअसल वे महज़ एक आवाज़ नहीं;गायकी की पूरी रिवायत थे। पिछले करीब कई दशक से लोग उनकी आवाज सुन रहे हैं। आज उनकी जयंती पर कुछ उनकी बातें.....पंजाब के एक छोटे से क़स्बे से निकल कर मोहम्मद रफ़ी नाम का एक किशोर बरसो पहले मुंबई आता है। साथ में न कोई जमींदारी जैसी रईसी या पैसों की बरसात, न कोई गॉड फ़ादर सिर्फ एक प्यारी सी आवाज, जो हर तरह के गीत गाने की हिम्मत रखता था। फिर वह चाहे किसी भी स्केल का हो। सा से लेकर सा तक यानी सात स्वरों के हर स्वर में । कोई ख़ास पहचान नहीं ,सिफऱ् संगीतकार नौशाद साहब के नाम का एक सिफ़ारिशी पत्र और । किस्मत ने पलटा खाया और अपनी आवाज, इंसानी संजीदगी के बूते पर यह सीधा सादा युवक मोहम्मद रफ़ी पूरी दुनिया में छा गया। संघर्ष का दौर काफी लंबा था और मुफलिसी भी साथ चल रही थी। संगीत का यह साधक किसी भी परिस्थिति में रुकना नहीं चाहता था। उस दौर का एक वाकया सुनने में आया जिसका जिक्र आज यहां कर रहे हैं।मोहम्मद रफी साहब मुंबई में संघर्ष के दिनों में मायूस भी हो गए थे, लेकिन दिल में कुछ कर दिखाने का जज्बा उन्हें पंजाब लौटने नहीं दे रहा था। संगीतकार नौशाद साहब ने उन्हें कोरस में गाने का मौका दिया। मुंबई में रिकॉर्डिंग हुई और रफी साहब ने सबको प्रभावित किया। काम खत्म हो चुका था, तो सभी लोग स्टुडियो से बाहर निकल गए। लेकिन रफ़ी साहब स्टुडियो के बाहर देर तक खड़े रहे। तकऱीबन दो घंटे बाद तमाम साजि़ंदों का हिसाब-किताब करने के बाद नौशाद साहब स्टुडियो के बाहर आकर रफ़ी साहब को देख कर चौंक गए । पूछा तो बताते हैं कि घर जाने के लिये लोकल ट्रेन के किराये के पैसे नहीं है। नौशाद साहब अवाक रह गए और बोले- अरे भाई भीतर आकर मांग लेते ...रफ़ी साहब का जवाब -अभी काम पूरा हुआ नहीं और अंदर आकर पैसे मांगूं ? हिम्मत नहीं हुई नौशाद साहब। सीधा- सरल जवाब सुनकर नौशाद साहब की आंखें छलछला उठीं। रफी साहब ने कहा- उन्हें लगा था रिकॉर्डिंग हो जाएगी तो उसके मेहताने से वो घर पहुंच जाएंगे। नौशाद ने तब रफी को 1 रुपये का सिक्का दिया था ताकि वो घर पहुंच जाएं। रफी ने नौशाद से वो सिक्का लिया और पैदल ही चल पड़े। इसके कई सालों बाद रफी शहंशाह-ए-तरन्नुम बन गए। उनके पास खूब दौलत और शोहरत हो गई। तब एक दिन नौशाद साहब मोहम्मद रफी के घर आए। उन्होंने देखा कि मोहम्मद रफी ने 1 रुपये का सिक्का फ्रेम कराकर दीवार पर टांग रखा है। नौशाद ने इसका कारण जानना चाहा। तब रफी साहब ने बताया कि सालों पहले नौशाद ने जिस लड़के को घर जाने के लिए 1 रुपये का सिक्का दिया था वो और कोई नहीं, बल्कि खुद रफी ही थे। रफी ने कहा, 'मैं उस दिन पैदल ही गया था। ये सिक्का मुझे मेरी सच्चाई याद दिलाता है और ये कि उन दिनों किस नेक इंसान ने मेरी मदद की थी।' मो. रफी साहब की बातें सुनकर एक बार फिर नौशाद की आंखें नम हो गई थीं।न कोई छलावा न कोई दिखाया और न ही ज्यादा पाने की चाहत। बस जो मिल गया उसे को मुकद्दर समझ लिया, ऐसे थे रफी साहब।सही मायने में सहगल साहब के बाद मोहम्मद रफ़ी एकमात्र नैसर्गिक गायक थे। उन्होंने अच्छे ख़ासे रियाज़ के बाद अपनी आवाज़ को मांजा था। उन्हें देखकर लोग सहसा विश्वास ही नहीं कर पाते थे कि शम्मी कुमार साहब के लिए याहू ,.... जैसे हुडदंगी गाने वे ही गाया करते हैं।उनके बारे में संगीतकार वसंत देसाई कहते थे -रफ़ी साहब कोई सामान्य इंसान नहीं थे...वह तो एक शापित गंधर्व थे जो किसी मामूली सी ग़लती का पश्चाताप करने इस मृत्युलोक में आ गया। कई बार उनके पैसे इसी वजह से डूब गए, क्योंकि उन्होंने संकोच की वजह से पैसे मांगे नहीं। रफी साहब कभी काम मांगने भी नहीं गए। जो मिल गया, गा लिया। मोहम्मद रफी फिल्म इंडस्ट्री में मृदु स्वभाव के कारण जाने जाते थे। मोहम्मद रफी ने लता मंगेशकर के साथ सैकड़ों गीत गाये थे, लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया था जब रफी ने लता से बातचीत तक करनी बंद कर दी थी। लता मंगेशकर गानों पर रायल्टी की पक्षधर थीं जबकि रफी ने कभी भी रॉयल्टी की मांग नहीं की।रफी साहब मानते थे कि एक बार जब निर्माताओं ने गाने के पैसे दे दिए तो फिर रायल्टी किस बात की मांगी जाए। दोनों के बीच विवाद इतना बढा कि मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के बीच बातचीत भी बंद हो गई और दोनों ने एक साथ गीत गाने से इंकार कर दिया हालांकि चार वर्ष के बाद अभिनेत्री नरगिस के प्रयास से दोनों ने एक साथ एक कार्यक्रम में ज्वैलथीफ का गीत...दिल पुकारे गीत गाया।अपने कॅरिअर में रफ़ी साहब को श्यामसुंदर, नौशाद, ग़ुलाम मोहम्मद, मास्टर ग़ुलाम हैदर, खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल भगतराम जैसे गुणी मौसीकारों का सान्निध्य मिला जो उनके लिए फायदेमंद भी रहा। रफ़ी साहब ने क्लासिकल म्युजि़क का दामन कभी न छोड़ा। बैजूबावरा में उन्होंने राग मालकौंस (मन तरपत)और दरबारी (ओ दुनिया के रखवाले) को जिस अधिकार और ताक़त के साथ गाया , उसे गाने की हिम्मत आज भी बहुत कम लोग कर पाते हैं। उस दौर की फिल्मों में जब भी क्लासिकल म्यूजिक की बात चलती थी, तो संगीतकार रफी साहब और मन्ना डे के पास ही जाते थे। रफी साहब की आवाज नायकों के लिए ज्यादा सूट करती थी, इसीलिए उन्हें मन्ना दा की तुलना में लीड गाने ज्यादा मिले।मो. रफी साहब के गाए 10 लोकप्रिय गाने, जो आज भी पसंद किए जाते हैं....1. तुम मुझे यूं भुला न पाओगे - फिल्म पगला कहीं का2. मैंने पूछा चांद से - फिल्म अब्दुल्लाह3. चौदहवीं का चांद हो.... फिल्म चौदहवीं का चांद4. बहारों फूल बरसाओ.... फिल्म सूरज5. बदन पे सितारे लपेटे हुए- फिल्म प्रिंस6. गुलाबी आंखें... फिल्म द ट्रेन7. ये चांद सा रोशन चेहरा... फिल्म कश्मीर की कली8. सुहानी रात ढल चुकी....फिल्म - दुलारी9. बाबुल की दुआएं लेती जा... फिल्म नीलकमल10. आज कल तेरे मेर प्यार के चर्चे- फिल्म ब्रह्मचारी
- पुण्यतिथि पर विशेष, आलेख- मंजूषा शर्माआवाज दें कहां है दुनिया मेरी जवां है.... फिल्म अनमोल घड़ी का यह गीत बरसों से लोग सुन रहे हैं। इसकी गायिका मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहां को लोग भला कैसे भूल सकते हैं। अल्ला वसई, मैडम नूरजहां जैसे नामों से जानी जाने वाली अभिनेत्री, गायिका नूरजहां को इस दुनिया से विदा हुए बीस साल हो गए हैं। उनके गाने आज भी भारत और पाकिस्तान में गूंजते हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन नहीं हुआ होता और उनके पति उन्हें लेकर लाहौर नहीं गए होते तो शायद आज भारत में नूरजहां की लोकप्रियता लता मंगेशकर से कम नहीं होती।दुनिया में नूरजहां, भले ही पाकिस्तान की मशहूर गायिका के नाम से जानी जाती हों, पर वे कभी दोनों मुल्कों की साझी धरोहर थीं। लता मंगेशकर और नूरजहां की मैत्री काफी प्रसिद्ध रही। लता ने हमेशा यह स्वीकार किया है, मैं नूरजहां की सबसे बड़ी प्रशंसक हूं। वह मलिका-ए-तरन्नुम थीं और रहेंगी? हर किसी का कोई न कोई आदर्श होता है और मुझे यह स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं है कि नूरजहां मेरी रोल मॉडल थीं।वहीं मंटो नूरजहां को लेकर कहते थे, 'मैं उसकी शक्ल-सूरत, अदाकारी का नहीं, आवाज़ का शैदाई थ। इतनी साफ़-ओ-शफ्फ़़ाफ आवाज़, मुर्कियां इतनी वाजि़ह, खरज इतना हमवार, पंचम इतना नोकीला! मैंने सोचा अगर ये चाहे तो घंटों एक सुर पर खड़ी रह सकती है, वैसे ही जैसे बाज़ीगर तने रस्से पर बग़ैर किसी लग्जि़श के खड़े रहते हैं।भारत छोड़ पाकिस्तान जा बसने की उनकी मजबूरी के बारे में उन्होंने 'विविध भारती' में बताया था कि- "आपको ये सब तो मालूम है, ये सबों को मालूम है कि कैसी नफ़सा-नफ़सी थी, जब मैं यहां से गई। मेरे मियां मुझे ले गए और मुझे उनके साथ जाना पड़ा, जिनका नाम सैय्यद शौक़त हुसैन रिज़वी है। उस वक़्त अगर मेरा बस चलता तो मैं उन्हें समझा सकती, कोई भी अपना घर उजाड़ कर जाना तो पसन्द नहीं करता, हालात ऐसे थे कि मुझे जाना पड़ा। और ये आप नहीं कह सकते कि आप लोगों ने मुझे याद रखा और मैंने नहीं रखा, अपने-अपने हालात ही की बिना पे होता है किसी-किसी का वक़्त निकालना, और बिलकुल यकीन करें, अगर मैं सबको भूल जाती तो मैं यहां कैसे आती?'मल्लिका-ए-तरन्नुम' नूरजहां को लोकप्रिय संगीत में क्रांति लाने और पंजाबी लोकगीतों को नया आयाम देने का श्रेय जाता है। नूरजहां अपनी आवाज़ में नित्य नए प्रयोग किया करती थीं। अपनी इन खूबियों की वजह से ही वे ठुमरी गायिकी की महारानी कहलाने लगी थीं। उनकी गाई गजलें भी काफी मशहूर हुई, जिसमें से एक गजल काफी पसंद की जाती है- मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे महबूूब न मांग....जिसे कई लोगों ने गाया है, लेकिन नूरजहां की बराबरी आज तक कोई नहीं कर पाया।नूरजहां का जन्म 21 सितम्बर, 1926 ई. को पंजाब के 'कसूर' नामक स्थान पर एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मदद अली' था और माता 'फ़तेह बीबी' थीं। नूरजहां के पिता पेशेवर संगीतकार थे। माता-पिता की ग्यारह संतानों में से नूरजहां एक थीं। संगीतकारों के परिवार में जन्मी नूरजहां को बचपन से ही संगीत के प्रति गहरा लगाव था। उन्होंने बाल कलाकार के रूप में कई फिल्में कीं।वर्ष 1943 में नूरजहां लाहौर से मुम्बई चली आईं। महज चार साल की संक्षिप्त अवधि के भीतर वे अपने सभी समकालीनों से काफ़ी आगे निकल गईं। भारत और पाकिस्तान दोनों जगह के पुरानी पीढ़ी के लोग उनकी क्लासिक फि़ल्मों 'लाल हवेली'Ó 'जीनत', 'बड़ी मां', 'गांव की गोरी' और 'मिर्जा साहिबां' फि़ल्मों के आज भी दीवाने हैं। फि़ल्म 'अनमोल घड़ी' का संगीत ख्यातिप्राप्त संगीतकार नौशाद ने दिया था। उसके गीत 'आवाज दे कहां है', 'जवां है मोहब्बत' और 'मेरे बचपन के साथी' जैसे गीत आज भी लोगों की जुबां पर हैं।नूरजहां देश के विभाजन के बाद अपने पति शौक़त हुसैन रिज़वी के साथ बंबई छोड़कर लाहौर चली गईं। लाहौर में रिजवी ने एक स्टूडियो का अधिग्रहण किया और वहां 'शाहनूर स्टूडियो' की शुरुआत की। 'शाहनूर प्रोडक्शन' ने फि़ल्म 'चन्न वे' (1950) का निर्माण किया, जिसका निर्देशन नूरजहाँ ने किया। यह फि़ल्म बेहद सफल रही। इसमें 'तेरे मुखड़े पे काला तिल वे' जैसे लोकप्रिय गाने थे। उनकी पहली उर्दू फि़ल्म 'दुपट्टा'Ó थी।पाकिस्तान जाने से पहले भारत में नूरजहां के अभिनय व गायन से सजी दो फि़ल्में 1947 में प्रदर्शित हुई थीं- 'जुगनू' और 'मिर्जा साहिबां'। 'जुगनू' शौक़त हुसैन रिज़वी की कंपनी 'शौक़त आर्ट प्रोडक्शन्स' के बैनर तले निर्मित थी, जिसमें नूरजहां के नायक दिलीप कुमार थे। संगीतकार फिऱोज़ निज़ामी ने मोहम्मद रफ़ी और नूरजहां से एक ऐसा डुएट गीत इस फि़ल्म में गवाया, जो इस जोड़ी का सबसे ज़्यादा मशहूर डुएट सिद्ध हुआ। गीत था "यहां बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है, मोहब्बत करके भी देखा, मोहब्बत में भी धोखा है"। इस गीत की अवधि कऱीब 5 मिनट और 45 सेकण्ड्स की थी, जो उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी लम्बी थी। कहते हैं कि इस गीत को शौक़त हुसैन रिज़वी ने ख़ुद ही लिखा था, पर 'हमराज़ गीत कोश' के अनुसार फि़ल्म के गीत एम. जी. अदीब और असगर सरहदी ने लिखे थे। नूरजहां अभिनेता प्राण की भी नायिका बनकर सिने परदे पर आईं।नूरजहां ने मल्लिका-ए-तरन्नुम बनने के लिए बहुत मेहनत की थी और अपनी शर्तों पर जिंदगी को जिया था। उनकी जिंदगी में अच्छे मोड़ भी आए और बुरे भी! उन्होंने दो शादियां की, तलाक दिए, नाम कमाया और अपनी जिंदगी के अंतिम क्षणों में बेइंतहा तकलीफ़ भी झेली। 1954 में शौक़त हुसैन रिज़वी से तलाक के बाद 1959 में नूरजहां ने अपने से नौ साल छोटे अभिनेता एजाज़ दुर्रानी से दूसरी शादी की। शादी के चार साल बाद ही नूरजहां ने अपने अभिनय से संन्यास ले लिया क्योंकि दुर्रानी के अभिनय करिअर की दिनों दिन बढ़ती मांग के सामने घर संभालने की जि़म्मेदारी केवल उन पर ही थी। यह शादी भी 1979 तक चली । इन दोनों ही शादियों से हुए छह बच्चों के पालन-पोषण की जि़म्मेदारी नूरजहां ने एक अकेली मां के रूप में बखूबी निभाई।अपनी दिलकश आवाज़ और अदाओं से दर्शकों को मदहोश कर देने वाली नूरजहां का दिल का दौरा पडऩे से 23 दिसम्बर, 2000 को निधन हुआ। जब वर्ष 2000 में नूरजहां को दिल का दौरा पड़ा, तो उनके एक मुरीद और नामी पाकिस्तानी पत्रकार ख़ालिद हसन ने लिखा था- "दिल का दौरा तो उन्हें पडऩा ही था। पता नहीं कितने दावेदार थे उसके, और पता नहीं कितनी बार वह धड़का था, उन लोगों के लिए जिन पर मुस्कराने की इनायत उन्होंने की थी।"
- --शो मैन राजकपूर की जयंती पर जाने ऐसे ही कुछ किस्से'शोमैन' के खिताब से नवाजे गए एक्टर और निर्देशक राज कपूर की आज जयंती है। राज कपूर को बचपन से एक्टिंग करने का शौक था। जैसे जैसे वो बड़े होते गए उनकी रूचि और बढ़ती गयी। 14 दिसंबर 1924 को जन्मे राज कपूर ने अपने फिल्मी कॅरिअर में 3 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 11 फिल्मफेयर पुरस्कार हासिल किए।- राज कपूर का असली नाम रणबीर राज कपूर था। अभिनेता का नाम उनके पोते रणबीर कपूर ने साझा किया है। राज कपूर ने भारतीय सिनेमा में अपनी शुरुआत 1945 में आई फिल्म 'इंकलाब' के साथ की, जब वो सिर्फ 10 साल के थे। मात्र 24 साल की उम्र में उन्होंने अपना स्टूडियो - आरके फिल्म्स बनाया था। इस स्टूडियो में बनी पहली फिल्म 'आग' कमर्शियल फ्लॉप थी।- राज कपूर की पहली जॉब क्लैपर बॉय की थी। इस नौकरी से उन्हें 10 रुपये प्रति महीना मिलते थे।- फिल्म 'बॉबी' का एक सीन जब ऋषि कपूर डिम्पल कपाडिय़ा से उनके घर पर मिलते हैं। यह राज कपूर की रियल लाइफ पर आधारित था। नरगिस से उनकी पहली मुलाकात ऐसे ही हुई थी। किसी दौर में राज कपूर नरगिस दत्त के प्यार में पागल थे। कहा जाता है वो नरगिस को पहली नजर में दिल दे बैठे थे।-राज कपूर ने म्यूजिक डायरेक्टर जोड़ी शंकर-जयकिशन के साथ करीब 20 फिल्मों में काम किया। मुकेश और मन्ना डे जैसे मशहूर गायक की हमेशा राज कपूर को आवाज़ देते थे। इनमें से भी मुकेश ने उनके लिए कई गाने गाए। कहा जाता है, जब मुकेश का निधन हुआ, तब राज कपूर ने कहा, 'मैंने अपनी आवाज़ को खो दिया'।- राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद को भारतीय सिनेमा की पहली तिकड़ी माना जाता है। उनके बीच किसी प्रकार की स्पर्धा नहीं थी, बल्कि वे काफी अच्छे दोस्त थे। दिलीप कुमार साहब की शादी उस वक्त की सबसे भव्य शादियों में से एक थी। राज कपूर से उनके रिश्ते ऐसे थे, कि राज कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर और देव आनंद के साथ बारात में सबसे आगे गए थे। असल जिदंगी में राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की जो गहरी दोस्ती थी, लेकिन उसे परदे पर उतारा न जा सका। फिल्म निर्माता विजय आनंद ने एक फिल्म इन तीनों के साथ शुरू ज़रूर की, लेकिन डेट्स की दिक्कतों और अहम के टकराव के कारण यह फिल्म कभी पूरी नहीं हो सकी।-'मेरा नाम जोकर' फिल्म राजकपूर ने काफी लंबी बनाई थी और इसमें दो इंटरवेल थे। इस मूवी को अद्वितीय इसलिए कहा जाता है कि यह हर दौर में नई ही लगती है। यह भारत की सबसे आइकॉनिक फिल्मों में से एक है। कहा जाता है कि फिल्म का सब्जेक्ट इतना गहरा है, कि यह पहली हिंदी फिल्म थी जिसमें दो इंटरवल किए गए और यह फिल्म साढ़े 4 घंटे लंबी है।-जब राज कपूर 'सत्यम शिवम सुंदरम' फिल्म के लिए ऐक्ट्रेस फाइनलाइज़ कर रहे थे। तभी, ज़ीनत एक गांव की लड़की की तरह कपड़े पहनकर और जले हुए चेहरे का मेकअप कर उनके ऑफिस पहुंच गईं। राज कपूर उनके डेडिकेशन से इतने खुश हुए कि तुरंत उन्हें फाइनल कर दिया।- इसे लकी चार्म कह लीजिए या राज की चाहत, उनकी हर हीरोइन ने एक बार सफेद साड़ी ज़रूर पहनी है। कहा जाता है, राज कपूर ने अपनी पत्नी कृष्णा को एक सफेद साड़ी गिफ्ट की थी। उन्हें वह इतनी भाई कि आगे उनकी हर ऐक्ट्रेस ने फिल्म के कम-से-कम एक सीन में वह साड़ी ज़रूर पहनी। कहा जाता है कि राजकपूर की खातिर नरगिस शादी से पहले अक्सर सफेद साड़ी पहना करती थीं।-राज कपूर की बिगड़ती सेहत और अपने जिगरी दोस्त को खो देने के डर ने ऋषिकेश मुखर्जी को इस कदर ख़ौफज़़दा कर दिया कि उन्होंने राज के लिए 'आनंद' बनाई। राज कपूर को अक्यूट ऐस्थमा था।- राज कपूर अस्थमा के मरीज थे। राज कपूर जब दादा साहब फाल्के अवार्ड लेने दिल्ली आये थे, वहीं उन्हें अस्थमा का अटैक पड़ गया और उनका निधन हो गया था।--
- आलेख-मंजूषा शर्मायूसुफ़ ख़ान यानी दिलीप कुमार,एक अभिनेता के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने भी कभी गायकी में हाथ आजमाना चाहा था। उन्हें सुरों का ज्ञान भी काफी है।ज्यादातर लोग दिलीप साहब को एक अभिनेता के रूप में ही जानते हैं, पुराने फि़ल्म संगीत में रुचि रखने वाले रसिकों को मालूम होगा दिलीप साहब के गाये कम से कम एक गीत के बारे में, जो है फि़ल्म मुसाफिऱ का, लागी नाही छूटे रामा चाहे जिया जाये । लता मंगेशकर के साथ गाया यह एक युगल गीत है, जिसका संगीत तैयार किया था सलिल चौधरी नें।फि़ल्म-ग्रुप के बैनर तले निर्मित इसी फि़ल्म से ऋषिकेश मुखर्जी ने अपनी निर्देशन की पारी शुरु की थी। 1957 में प्रदर्शित इस फि़ल्म के मुख्य कलाकार थे दिलीप कुमार, उषा किरण और सुचित्रा सेन। पूर्णत: शास्त्रीय संगीत पर आधारित बिना ताल के इस गीत को सुन कर दिलीप साहब को सलाम करने का दिल करता है। एक तो कोई साज़ नहीं, कोई ताल वाद्य नहीं, उस पर शास्त्रीय संगीत, और उससे भी बड़ी बात कि लता जी के साथ गाना, यह हर किसी अभिनेता के बस की बात नहीं थी। वाक़ई इस गीत को सुनने के बाद मन में यह सवाल उठता है कि दिलीप साहब बेहतर अभिनेता हैं या बेहतर गायक।यह गीत 6: 30 मिनट लंबा है और यह एक पारम्परिक ठुमरी है राग पीलू पर आधारित, जिसका सलिल दा ने एक अनूठा प्रयोग किया इसे लता और दिलीप कुमार से गवा कर। लता जी पर राजू भारतन की चर्चित किताब लता मंगेशकर - ए बायोग्राफ़ी में इस गीत के साथ जुड़ी कुछ दिलचस्प बातों का जि़क्र हुआ है। इस गीत की रिकॉर्डिंग से पहले दिलीप साहब को एक के बाद एक तीन ब्रांडी के ग्लास पिलाये गये थे? ताकि वे बिना किसी झिझक के लता जैसी बड़ी गायिका के सामने गाने की हिम्मत जुटा सकें।एक मुलाक़ात में लता जी ने दिलीप साहब से कहा था, दिलीप साहब, याद है आपको, 1947 में, मैं, आप और मास्टर कम्पोजऱ अनिल बिस्वास, हम तीनों लोकल ट्रेन में जा रहे थे। अनिल दा ने मुझे आप से मिलवाया एक महाराष्ट्रियन लड़की की हैसियत से और कहा कि ये आने वाले कल की गायिका बनेगी। आपको याद है दिलीप साहब कि आप ने उस वक्त क्या कहा था? आप ने कहा था, एक महाराष्ट्रियन, इसकी उर्दू ज़बान कभी साफ़ नहीं हो सकती! इतना ही नहीं, आप नें यह भी कहा था कि इन महाराष्ट्रियनों के साथ एक प्राब्लम होती है, इनके गाने में दाल-भात की बू आती है। आपके ये शब्द मुझे चुभे थे। इतने चुभे कि अगले ही सुबह से मैंने गंभीरता से उर्दू सीखना शुरु कर दिया सिफऱ् इसलिए कि मैं दिलीप कुमार को ग़लत साबित कर सकूं। और दिलीप साहब ने 1967 में लता जी के गायन कॅरिअर के सिल्वर जुबिली कनसर्ट में इस बात का जि़क्र किया और अपनी हार स्वीकार की थी।राजू भारतन ने सलिल दा से एक बार पूछा कि फि़ल्म मुसाफिऱ के इस गीत के लिए दिलीप साहब को किसने सिलेक्ट किया था। उस पर सलिल दा का जवाब था, दिलीप ने खुद ही इस धुन को उठा ली; वो इस ठुमरी का घंटों तक सितार पर रियाज़ करते और इस गीत में मैंने कम से कम मुरकियां रखी थीं। मैंने देखा कि जैसे जैसे रिकॉर्डिंग पास आ रही थी, दिलीप कुछ नर्वस से हो रहे थे। और हालात ऐसी हुई कि दिलीप आखिरी वक्त रिकॉर्डिंग से भाग खड़े होना भी चाहा। ऐसे में हमें उन्हें ब्रांडी के पेग पिलाने पड़े उन्हें लता के साथ खड़ा करवाने के लिए।इस रिकॉर्डिंग के बाद दिलीप कुमार और लता मंगेशकर में बातचीत करीब 13 साल तक बंद रही। कहा जाता है कि दिलीप साहब को पता नहीं क्यों ऐसा लगा था कि इस गीत में लता जी जानबूझ कर उन्हें गायकी में नीचा दिखाने की कोशिश कर रही हैं, हालांकि ऐसा सोचने की कोई ठोस वजह नहीं थी। फिर दोनों कलाकारों ने सुलह की और आज भी उनके बीच के संबंध काफी मधुर हैं। दिलीप साहब आज भी लता मंगेशकर को लता दीदी कहते हैं और अपनी बहन मानते हैं।
- जन्मदिन पर विशेष60 के दशक की मशहूर अभिनेत्री माला सिन्हा ने हिन्दी फिल्मों में अपना एक अलग मुकाम हासिल किया। नेपाली, बंगाली होने के बाद भी उन्होंने हिन्दी फिल्मों में काफी काम किया। बाल कलाकार से लेकर नायिका की भूमिकाओं में उन्होंने अपने अभिनय से लोगों को प्रभावित किया। माला सिन्हा ने अपने दौर के तमाम टॉप के नायकों के साथ काम किया और अनेक हिट फिल्में दीं।11 नवंबर, 1936 को जन्मी माला सिन्हा के पिता बंगाली और माँ नेपाली थी। उनके बचपन का नाम "आल्डा" था। स्कूल में बच्चे उन्हें "डालडा" कहकर चिढ़ाते थे जिसकी वजह से उनकी मां ने उनका नाम बदलकर "माला" रख दिया। उन्हें बचपन से ही गायिकी और अभिनय का शौक़ था। उन्होंने कभी फि़ल्मों में पाश्र्व गायन तो नहीं किया पर स्टेज शो के दौरान उन्होंने कई बार अपनी कला को जनता के सामने रखा।माला सिन्हा ने ऑल इंडिया रेडियो के कोलकाता केंद्र से गायिका के रूप में अपना कॅरिअर शुरू किया और जल्दी ही बांग्ला फि़ल्मों के माध्यम से रुपहले पर्दे पर पहुंच गई। उन्होंने बंगाली फि़ल्म "जय वैष्णो देवी" में बतौर बाल कलाकार काम किया। उनकी बांग्ला फि़ल्मों में "लौह कपाट" को अच्छी ख्याति मिली। माला एक बंगाली फिल्म के सिलसिले में मुंबई पहुंची थीं। यहां उनकी मुलाकात अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री गीता बाली से हुई। उन्होंने माला को निर्देशक केदार शर्मा से मिलवाया। कहा जाता है कि माला के करियर को आगे बढ़ाने में केदार शर्मा ने बहुत मदद की। उन्होंने अपनी फिल्म रंगीन रातें में बतौर अभिनेत्री काम दिया। जब माला सिन्हा हिंदी फि़ल्मों में काम करने मुंबई आईं तब रुपहले पर्दे पर नर्गिस, मीना कुमारी, मधुबाला और नूतन जैसी प्रतिभाएं अपने जलवे बिखेर रही थीं। माला के लगभग साथ-साथ वैजयंती माला और वहीदा रहमान भी आ गईं। इन सबके बीच अपनी पहचान बनाना बेहद कठिन काम था। इसे माला का कमाल ही कहना होगा कि वे पूरी तरह से कामयाब रहीं। उन्होंने किशोर कुमार, अशोक कुमार, राजेन्द्र कुमार, शम्मी कपूर, मनोज कुमार, धर्मेन्द्र, जैसे कलाकारों के साथ फिल्में कीं। उनकी शूटिंग से पहले सेब खाने की आदत काफी मशहूर थी। इस आदत के कारण उन्होंने फिल्म गीत की शूटिंग के दौरान एक दिन फिल्म निर्देशक रामानंद सागर को काफी घंटे इंतजार कराया था। वे बिना सेब खाए सेट पर नहीं जाती थीं।फि़ल्म "बादशाह" के जरिए माला सिन्हा हिंदी फि़ल्म के दर्शकों के सामने आईं। शुरू में कई फि़ल्में फ्लॉप हुईं। फि़ल्मी पंडितों ने उनके भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगाए. कुछ यह कहने में भी नहीं हिचकिचाए कि यह गोरखा जैसे चेहरे-मोहरे वाली युवती ग्लैमर की इस दुनिया में नहीं चल पाएगी। इन फब्तियों की परवाह न कर माला सिन्हा ने अपने परिश्रम, लगन और प्रतिभा के बल पर अपने लिए विशेष जगह बनाई।1957 में आई गुरुदत्त की फिल्म प्यासा ने माला सिन्हा की किस्मत बदल दी। इस फि़ल्म में उनकी अदाकारी को आज भी लोग याद करते हैं। इस फिल्म के बाद माला सिन्हा को ए ग्रेड के कलाकारों के साथ फिल्में मिलने लगीं। फि़ल्म 'जहांआरा' में माला सिन्हा ने शाहजहां की बेटी जहांआरा का किरदार ख़ूबसूरती से निभाया। फि़ल्म मर्यादा में उन्होंने दोहरी भूमिका की थी। माला सिन्हा की एक बेटी प्रतिभा सिन्हा हैं। प्रतिभा ने बॉलीवुड में बहुत धूम धड़ाके साथ एंट्री की थी। फिल्म राजा हिंदुस्तानी में उनके ऊपर फिल्माया गया गाना परदेसी परदेसी आज भी लोगों को याद है। हालांकि प्रतिभा का करिअर कुछ खास आगे नहीं बढ़ पाया। माला सिन्हा अब सार्वजनिक रूप से कम ही नजर आती हैं। उन्होंने साल 1994 में आखिरी फिल्म जिद की थी। आजकल वे अपने बेटी के साथ मुंबई में गुमनामी की जिदंगी बसर कर रही हैं।60 के दशक में तो उन्होंने कई हिट फि़ल्में दीं। उनकी यादगार फि़ल्मों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं- प्यासा (1957), फिर सुबह होगी (1958), उजाला (1959),धर्मपुत्र (1961), अनपढ़ (1962), आंखें (1968), गीत (1970), गुमराह (1963), गहरा दाग़ (1963), जहांआरा (1964), अपने हुए पराये (1966), संजोग (1971), नई रोशनी (1967), मेरे हुज़ूर (1969), देवर भाभी (1958), हरियाली और रास्ता (1962), हिमालय की गोद में (1965), धूल का फूल (1959), दिल तेरा दीवाना (1962)।
- --नया दौर, हमराज, बागवान जैसी कई फिल्मों के अलावा सीरियल महाभारत का निर्माण कियापुण्यतिथि पर विशेषनया दौर, गुमराह, वक्त, धर्मपुत्र, निकाह, धूल का फूल, बागबान जैसी यादगार फिल्में बनाने वाले निर्माता- निर्देशक बी आर चोपड़ा यानी बलदेवराज चोपड़ा आज भले ही इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी बनाई इन फिल्मों और महाभारत जैसे धारावाहिकों को लोग आज तक याद रखे हुए हैं।बी. आर. चोपड़ा और यश चोपड़ा सगे भाई हैं, लेकिन दोनों ही फिल्मकारों का फिल्म बनाने का अंदाज हमेशा अलग रहा और दोनों ने ही अपार सफलता देखी। बी. आर. हिंदी सिने जगत की उन हस्तियों में से थे जिन्होंने सिनेमा के सशक्त माध्यम का उपयोग न सिर्फ स्वस्थ मनोरंजन के लिए किया बल्कि कई सामाजिक मुद्दों को भी बहस के मुद्दों में शामिल कर दिया।उनकी अधिकतर फिल्मों को जहां बाक्स आफिस पर अच्छी कामयाबी मिली वहीं समीक्षकों ने भी उनकी कृतियों की सराहना की। बी. आर. चोपड़ा का फिल्मी सफर करीब 50 साल का रहा और इस दौरान उन्होंने एक के बाद एक कामयाब फिल्में बनायी। साथ ही दूरदर्शन के लिए उन्होंने कई धारावाहिकों का निर्माण किया। उन धारावाहिकों में महाभारत सर्वाधिक चर्चित रही जिसे अपार कामयाबी मिली। धारावाहिक महाभारत की सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कार्यक्रम के प्रसारण के समय में सड़कों पर वाहनों की संख्या कम हो जाती थी और गलियां वीरान हो जाती थी। उनके धारावाहिकों में महाभारत के अलावा बहादुर शाह जफर काफी लोकप्रिय हुए। इस साल लॉकडाउन के दौरान डीडी नेशनल पर पुन: इस सीरियल का प्रसारण किया गया और इस बार भी इस सीरियल ने सफलता की ऊंचाइयों को छुआ।बी. आर. चोपड़ा की फिल्मों में जहां हमेशा कोई न कोई संदेश रहता था वहीं गीत और संगीत भी मधुर एवं कर्णप्रिय होते थे। उन्होंने अपनी फिल्मों में गायक महेंद्र कपूर की आवाज का बेहतरीन इस्तेमाल किया और महेंद्र कपूर ने उनकी फिल्मों में कई यादगार गाने गाए जिसे बाद की पीढिय़ां भी पसंद करती हैं।अविभाजित पंजाब में 22 अप्रैल 1914 को पैदा हुए बी. आर. चोपड़ा के कॅरिअर की शुरूआत फिल्मी पत्रकार के रूप में हुई। विभाजन के बाद वह मुंबई चले गए। उन्होंने फिल्मी सफर की शुरूआत सिने हेराल्ड जर्नल से की। यहां से उन्हें फिल्मी माहौल में रहने का मौका मिला और वो फिल्मकार बन गए। 1949 में उन्होंने पहली फिल्म करवट बनाई जो नाकाम रही। लेकिन धुन के पक्के बी. आर. चोपड़ा ने हार नहीं मानी और 1951 में उन्होंने अफसाना फिल्म बनायी।इस फिल्म में अशोक कुमार ने दोहरी भूमिका निभायी थी। यह फिल्म कामयाब रही और उनके पांव फिल्म जगत में जम गए। बी. आर. चोपड़ा ने 1955 में बीआर फिल्म्स की स्थापना की जिसकी पहली फिल्म नया दौर थी। यह फिल्म बेहद कामयाब रही और इसके गीत तो आज भी संगीतप्रेमियों को आकर्षित करते हैं।इसके बाद उन्होंने एक ही रास्ता, साधना, कानून जैसी फिल्में बनायीं। अपने दौर में कानून ऐसी फिल्म थी जिसमें गाने नहीं थे, जबकि उस वक्त फिल्म के लिए गीत-संगीत बहुत महत्वपूर्ण माने जाते थे। 1970 और 80 के दशक में उनका फिल्मी सफर कामयाबी के साथ आगे बढ़ता रहा। इस दौरान उन्होंने इंसाफ का तराजू, निकाह जैसी बेहद चर्चित फिल्में बनायीं।उनकी फिल्मों की सूची में गुमराह, वक्त, धर्मपुत्र, बागबान आदि शामिल हैं जो स्वस्थ मनोरंजन करने के अलावा सार्थक सामाजिक व उद्देश्यपरक थीं। फिल्म बागवान ने अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी की जोड़ी को एक बार फिर नई ऊंचाइयां दीं। बागवान और बाबुल जैसी फिल्मों ने आज के बदलते समाज का चित्रण बखूबी पेश किया।भारत में फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित बी आर चोपड़ा ने अनेक सम्मान और पुरस्कार प्राप्त किए। लंबे समय तक दर्शकों को बेहतरीन फिल्में देने वाले फिल्मकार बी. आर. चोपड़ा का पांच नवंबर 2008 को निधन हो गया। अपने पिता की गौरवशाली परंपरा को कायम रखने का प्रयास बी. आर. चोपड़ा के बेटे रवि चोपड़ा कर रहे हैं और इस समय बी. आर. बैनर के तले फिल्मों के अलावा धारावाहिकों का भी निर्माण हो रहा है। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉमविशेष)
- जन्मतिथि पर विशेषआलेख-मंजूषा शर्माइस कलाकार ने मूक फिल्मों से लेकर रंगीन फिल्मों तक का सफर बखूबी तय किया और खूब नाम कमाया। उन्हें फिल्म इंडस्ट्री का शेर और भीष्म पितामह कहा जाता है। उनकी चार पीढिय़ों ने भी फिल्म इंडस्ट्री में अपना नाम कमाया। ये हैं पृथ्वीराज कपूर। आज की पीढ़ी के लिए राजकपूर, शम्मी कपूर और शशिकपूर के पिता और रणबीर कपूर के परदादा।भारतीय फिल्मों के आदिकाल से रंगीन सिनेमा तक के सफर का हिस्सा रहे पृथ्वीराज कपूर के अभिनय और दमदार आवाज को आज भी याद किया जाता है। अभिनय के ऊंचे पैमाने तय कर गए पृथ्वीराज कपूर के कालजयी किरदार आज भी उतने ही जीवंत और अनोखे हैं कि कोई भी उन्हें देखकर उनके मोहपाश में बंधे बगैर नहीं रह पाता। मुगले आजम फिल्म में मुगल सम्राट अकबर के रोल में उनकी दमदार आवाज और संवाद अदायगी को भला कौन भूल सकता है।पाकिस्तान के मौजूदा फैसलाबाद में 3 नवम्बर 1906 को पुलिस उपनिरीक्षक दीवान बशेश्वरनाथ कपूर के घर जन्मे पृथ्वीराज कपूर ने फिल्म जगत में अलग मुकाम हासिल करने वाले कपूर खानदान की नींव रखी और उनकी विरासत को अगली कई पीढिय़ों ने पूरी शिद्दत के साथ जिया। पृथ्वीराज अपने जमाने के सबसे पढ़े-लिखे अभिनेताओं में से थे। उन्होंने पेशावर के एडवर्ड्स कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल की और फिर वकालत की पढ़ाई की। हालांकि उनका दिल रंगमंच के लिए ही धड़कता था। उसी दौरान वह प्रोफेसर जयदयाल के सम्पर्क में आए जिन्होंने पृथ्वीराज में अपने नाटकों के अनेक पात्रों को बखूबी निभाने की क्षमता देखी।वर्ष 1928 में पृथ्वीराज मायानगरी बम्बई चले आए। उस वक्त मूक फिल्मों का दौर था और उन्होंने ऐसी करीब नौ फिल्मों में काम भी किया। वर्ष 1931 में बनी देश की पहली बोलती फिल्म 'आलमआराÓ में किरदार अदा करके उन्होंने भारतीय सिनेमा जगत में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया। फिल्म में उन्होंने 24 साल की उम्र में अलग-अलग आठ दाढिय़ां लगाई और जवानी से बुढ़ापे तक की भूमिका निभाकर अपने अभिनय की लाजवाब मिसाल पेश की।पृथ्वीराज कपूर ने करीब 70 बोलती फिल्मों में काम किया जिनमें विद्यापति '1937, पागल '1940, सिकंदर '1941, आवारा '1951 और आनन्द मठ '1952 में उनकी शीर्ष और सहायक भूमिकाओं को खूब तारीफ मिली। साल 1960 में आई फिल्म 'मुगल-ए-आजम में उन्होंने मुगल सम्राट अकबर के किरदार को जीकर अमर बना दिया। उस फिल्म में उन्होंने हिन्दुस्तान के सम्राट के रूप में अपने कर्तव्य और पिता के सीने में भड़कते जज्बात के द्वंद्व को बेहद पुरअसर ढंग से जिया। मुगल-ए-आजम से पहले और उसके बाद भी अकबर के किरदार वाली कई फिल्में बनीं, लेकिन अभिनय के लिहाज से कोई दूसरा अभिनेता मुगल-ए-आजम में दिखे जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर की बराबरी नहीं कर सका। इस फिल्म में काम करने के लिए उन्होंने केवल एक रुपया में अनुबंध किया था।हिन्दी रंगमंच और फिल्मों की महान हस्ती का दर्जा हासिल कर चुके पृथ्वीराज कपूर का 29 मई 1972 को निधन हो गया। पृथ्वीराज ने अभिनय के अलावा अपनी विरासत से भी हिन्दी सिनेमा जगत को काफी कुछ दिया। वे हिन्दी फिल्म कलाकारों के पहले परिवार यानी कपूर खानदान के मुखिया हैं और अपनी अगली चार पीढिय़ों के रूप में उनकी विरासत आज भी हिन्दी फिल्म जगत में जिंदा है।पृथ्वीराज के बेटे राजकपूर ने हिन्दी फिल्मों के पहले शोमैन का रुतबा हासिल किया था। राजकपूर ने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाते हुए अनेक बेहतरीन फिल्मों में काम किया और कई यादगार फिल्में बनाईं। कई फिल्मों में उन्होंने अपने पिता की मदद भी ली।पृथ्वीराज की अन्य संतानों शशि कपूर और शम्मी कपूर ने भी फिल्मों में अपना अलग मुकाम बनाया। पृथ्वीराज के पौत्र रणधीर कपूर, ऋषि कपूर, राजीव कपूर, करण कपूर और कुणाल कपूर ने भी फिल्मों में काम किया। इनमें से विशेषकर ऋषि कपूर को बतौर अभिनेता खासी सफलता हासिल हुई। रणधीर की बेटी करिश्मा के रूप में कपूर खानदान की पहली लड़की ने अभिनय जगत में कदम रखा। उसके बाद करिश्मा की बहन करीना भी फिल्मों में आ गईं और इस वक्त की शीर्ष अभिनेत्रियों में शुमार हैं। ऋषि कपूर के बेटे रणबीर कपूर ने वर्ष 2007 में आई फिल्म सांवरिया से अभिनय क्षेत्र में कदम रखा। इस तरह पृथ्वीराज द्वारा शुरू की गई अभिनय की समृद्ध परम्परा अब भी बरकरार है और फलफूल रही है।पृथ्वी थियेटरसफलता की सीढिय़ां चढऩे के दौरान उन्होंने साल 1944 में अपना थियेटर ग्रुप खोला और नाम रखा पृथ्वी थियेटर। यह पहला आधुनिक, पेशेवर और शहरीकृत हिन्दुस्तानी थियेटर था। इस थियेटर ने अपने दौर में ढाई हजार से ज्यादा शो पेश किये जिनमें से ज्यादातर में पृथ्वीराज ने ही प्रमुख भूमिका अदा की। पहले यह कंपनी घूम-घूमकर नाटकों का मंचन किया करती थीं बाद में मुंबई में एक जानी-मानी थियेटर कंपनी बन गई। पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी थिएटर में उन्होंने आधुनिक और शहरी विचारधारा का इस्तेमाल किया, जो उस समय के फारसी और परंपरागत थिएटरों से काफ़ी अलग था। धीरे-धीरे दर्शकों का ध्यान थिएटर की ओर से हट गया, क्योंकि उन दिनों दर्शकों के ऊपर रुपहले पर्दे का क्रेज कुछ ज़्यादा ही हावी हो चला था। सोलह वर्ष में पृथ्वी थिएटर के 2662 शो हुए जिनमें पृथ्वीराज ने लगभग सभी शो में मुख्य किरदार निभाया। पृथ्वी थिएटर के प्रति पृथ्वीराज इस क़दर समर्पित थे कि तबीयत खऱाब होने के बावजूद भी वह हर शो में हिस्सा लिया करते थे। वह शो एक दिन के अंतराल पर नियमित रूप से होता था। एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनसे विदेश में जा रहे सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल का प्रतिनिधित्व करने की पेशकश की, लेकिन पृथ्वीराज ने पंडित नेहरू से यह कह उनकी पेशकश नामंजूर कर दी कि वह थिएटर के काम को छोड़कर वह विदेश नहीं जा सकते। पृथ्वी थिएटर के बहुचर्चित कुछ प्रमुख नाटकों में दीवार, पठान, 1947, गद्दार, 1948 और पैसा 1954 शामिल है। पृथ्वीराज ने अपने थिएटर के जरिए कई छुपी हुई प्रतिभा को आगे बढऩे का मौक़ा दिया, जिनमें रामानंद सागर और शंकर-जयकिशन जैसे बड़े नाम शामिल हैं। संगीतकार शंकर -जय किशन ने बाद में राजकपूर के साथ खूब काम किया।अपने पिता के जाने के बाद शशिकपूर ने उनकी विरासत पृथ्वी थियेटर की जिम्मेदारी संभाली और अपनी बेटी संजना के साथ मिलकर इसका काफी विस्तार भी किया। शशि कपूर के निधन के बाद अब संजना ही पृथ्वी थियेटर को संभाल रही हैं।फिल्म जगत में पृथ्वीराज कपूर के अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें मरोणपरांत दादा साहेब फाल्के अवार्ड से भी नवाजा गया। इसके अलावा वे पद्मभूषण से भी सम्मानित किए गए। वे राज्यसभा के सदस्य भी रहे।
- जन्मदिन पर विशेषमुंबई। बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान आज अपना 55 वां जन्मदिन मना रहे हैं। शाहरुख खान हर साल 2 नवम्बर के दिन अपने घर की बालकनी में आकर फैंस से मुलाकात करते हैं लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा। कोरोना वायरस महामारी के कारण शाहरुख खान ने अपने फैंस को घर में ही रहने की हिदायत दी है और वर्चुअली उनका जन्मदिन सेलीब्रेट करनी की सलाह दी है।शाहरुख खान के फैंस ने उनकी बात मानी है और रात 12 बजे से ही इंटरनेट पर किंग खान के फैंस का जलवा देखने को मिल रहा है। शाहरुख खान के फैंस लगातार इंटरनेट के माध्यम से यह जानकारी दे रहे हैं कि वो 2 नवम्बर को किस अंदाज में सेलीब्रेट कर रहे हैं। किंग खान के एक फैन ग्रुप ने ट्विटर के माध्यम से जानकारी दी है कि उन्होंने जरूरतमंदों को 5,555 कोविड किट्स बांटी हैं। इन किट्स से लोग कोरोना से अपने आपको बचा पाएंगे।वहीं दूसरी तरफ पेरू में शाहरुख खान के फैंस ने सड़क पर उनके नाम का केक काटा है। इसके साथ-साथ शाहरुख खान के कुछ फैंस ने वृक्षारोपण करके भी अपने पसंदीदा स्टार का जन्मदिन सेलीब्रेट किया है।शाहरुख ने 90 के दशक में अपना करिअर शुरू किया था। इस दौरान कई ऐसी फिल्में बन रही थीं, जिन्हें ए-लिस्ट एक्टर्स साइन नहीं करना चाह रहे थे। इन एक्टर्स की ठुकराई हुई फिल्में लेकर निर्माता-निर्देशक नए कलाकारों के पास जा रहे थे। इन नए कलाकारों में से एक कलाकार ऐसा था, जिसने इन छोड़ी हुई फिल्मों को करने का फैसला किया और धीरे-धीरे ये सभी फिल्में सफल होती चली गईं। इन फिल्मों के दम पर आगे चलकर इस कलाकार को बॉलीवुड के किंग का खिताब दिया गया। आइये देखें कि ऐसी कौन-कौन सी फिल्में हंैं, जिन्हें 90 के दशक में ए-लिस्ट एक्टर्स ने छोड़ दिया था और यही फिल्में शाहरुख के लिए लकी साबित हुईं।दीवाना90 के दशक में आई दीवाना शाहरुख खान की पहली सुपरहिट फिल्म थी। बताया जाता है कि यह फिल्म सबसे पहले सनी देओल के पास गई थी। हालांकि उन्होंने इसे करने से इनकार कर दिया और फिर इसमें शाहरुख खान की एंट्री हुई। फिल्म में ऋषि कपूर, दिव्या भारती लीड रोल में थे।डरयश चोपड़ा अपनी फिल्म डर में सबसे पहले आमिर खान को साइन करना चाहते थे लेकिन उन्होंने निगेटिव किरदार के कारण डर से अपने हाथ पीछे खींच लिए और फिर इसमें शाहरुख खान की एंट्री हुई। फिल्म में सनीदेओल और जुही चावला लीड रोल में थे।बाजीगरबहुत कम लोगों को मालूम है कि बाजीगर के लिए सलमान खान पहली च्वाइस थे लेकिन इस फिल्म की किस्मत शाहरुख खान के साथ जुड़ी थी। फिल्म में काजोल और शिल्पा शेट्टी नायिकाएं थीं।करण अर्जुनफिल्म करण अर्जुन के लिए सनी देओल और अजय देवगन पहली च्वाइस थे , लेकिन इन दोनों ने आखिरी समय पर फिल्म से अपने हाथ पीछे खींच लिए, जिसके बाद राकेश रोशन ने शाहरुख खान और सलमान खान को इसके लिए साइन किया। इस फिल्म के बाद शाहरुख फिल्मकार राकेश रोशन के फेवरेट हीरो बन गए।चक दे इंडियायशराज बैनर की चक दे इंडिया के लिए सलमान खान को अप्रोच किया गया था, लेकिन उन्हें फिल्म की स्क्रिप्ट पसंद नहीं आई। इसके बाद मेकर्स ने शाहरुख खान को चक दे इंडिया के लिए साइन किया। फिल्म में शाहरुख का अंदाज आज भी हॉकी के शौकीनों को लुभाता है। फिल्म में भले ही उन्हें नायिका के साथ रोमांस करने का मौका नहीं मिला और न ही इसमें कोई रोमांटिक गाना ही था, इसके बाद भी फिल्म आखिरी तक लोगों को बांधे रखती है तो केवल शाहरुख खान की वजह से।
- जन्मदिन पर विशेषऐश्वर्या राय बच्चन आज अपना 47 वां जन्मदिन मना रही हैं। ऐश्वर्या ने कम उम्र से ही मॉडलिंग शुरू कर दी थी। 1994 में विश्व सुंदरी के खिताब ने उनके लिए फिल्मों के दरवाजे खोल दिए। लुक्स की बात करें तो मॉडलिंग के दिनों से लेकर अब तक उनके लुक्स में काफी बदलाव आ गए हैं।ऐश्वर्या राय पहले एक आर्किटेक्ट बनना चाहती थीं। उन्होंने इसके लिए एडमिशन भी ले लिया था लेकिन मॉडलिंग में कॅरिअर बनाने के लिए उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। ऐश्वर्या ने पांच साल तक क्लासिकल डांस की ट्रेनिंग भी ली है।स्कूली दिनों से ऐश्वर्या को मॉडलिंग के ऑफर मिलने लगे थे। जब वह नौवीं कक्षा में पढ़ रही थीं तब उन्होंने पहली विज्ञापन फिल्म की थी। यह एक पेंसिल का विज्ञापन था। 1993 में ऐश्वर्या ने पेप्सी के लिए एक विज्ञापन किया था जिसमें उनके साथ आमिर खान और महिमा चौधरी थे। इस विज्ञापन फिल्म से उन्हें काफी लोकप्रियता मिली। 1994 में ऐश्वर्या राय ने मिस वल्र्ड का खिताब जीता। इसके बाद उन्होंने मॉडलिंग की ओर अपना कॅरिअर आगे बढ़ाया और फिर फिल्मों की ओर रुख किया। उन्होंने 1997 में अपने फिल्मी कॅरिअर की शुरुआत तमिल फिल्म इरुवर से की। इसी साल हिंदी में ऐश्वर्या की पहली फिल्म -और प्यार हो गया, रिलीज हुई।ऐश्वर्या ने अपने कॅरिअर में एक से बढ़कर एक हिट फिल्में दीं। उन्होंने हम दिल दे चुके सनम, ताल, मोहब्बतें, देवदास, उमराव जान, धूम 2, गुरु, जोधा अकबर, जज्बा और ऐ दिल है मुश्किल सहित अनेक फिल्म कीं।फिल्म गुरु की शूटिंग के दौरान अभिषेक बच्चन ने ऐश्वर्या को शादी के लिए प्रपोज किया था। 2007 में ऐश्वर्या ने अभिषेक बच्चन के साथ शादी के बंधन में बंध गईं। दोनों की एक बेटी आराध्या बच्चन हैं। अभिषेक बच्चन के साथ उनकी जोड़ी फिल्मी इंडस्ट्री की सबसे लोकप्रिय जोडिय़ों में से एक मानी जाती है।परिवार में सबसे अच्छी बॉन्डिंग वह ससुर अमिताभ बच्चन संग शेयर करती हैं। सास जया बच्चन ने इस बात का खुलासा एक इंटरव्यू के दौरान किया था। जया बच्चन का कहना था कि ऐश्वर्या बच्चन परिवार की लाडली बहू हैं। अमिताभ, उन्हें बिलकुल अपनी बेटी की तरह ट्रीट करते हैं। जया कहती हैं कि घर में उनकी बेटी श्वेता की जगह ऐश्वर्या ने ले ली है। वह अमिताभ को कभी भी बेटी की कमी महसूस होने नहीं देती हैं। ऐश्वर्या सबसे अच्छी बॉन्डिंग ससुर जी के साथ शेयर करती हैं। बता दें कि पब्लिक प्लेस पर ऐश्वर्या और अमिताभ की बॉन्डिंग बखूबी नजर आती रही है। कई अवॉर्ड शोज में ऐश्वर्या को अमिताभ के पैर छूकर आशीर्वाद लेते देखा गया है।अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय की शादी के बाद जया बच्चन करण जौहर के चैट शो में पहुंची थीं, जहां उन्होंने ऐश्वर्या की जमकर तारीफ की थी। यह साल 2007 की बात है। जया ने कहा था कि ऐश्वर्या एक बड़ी स्टार हैं। परिवार में वह घुल-मिल गई हैं। वह बेहद प्यारी हैं। ऐश्वर्या ने उनके घर में बेटी श्वेता की कमी को पूरा किया है। अमिताभ तो ऐश्वर्या को देखकर बहुत खुश होते हैं। उनकी आंखों में एक अलग चमक आ जाती है। वह खिल उठते हैं।शादी के बाद ऐेश्वर्या ने फिल्मों में काम करना कम कर दिया है। लेकिन विज्ञापनों में वे सक्रिय हैं। वे कई ब्यूटी प्रोडक्ट्स की ब्रांड एंबेसडर हैं और मॉडलिंग के जरिए भी उनकी अच्छी कमाई होती है। इसके अलावा ऐश्वर्या बच्चन ने स्टार्टअप में भी निवेश करने के लिए ख़बरों में रह चुकी हैं।
- पुण्यतिथि पर विशेषआलेख मंजूषा शर्मामासूम से इस बाल कलाकार को देखकर अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल है कि आखिर ये कौन है। बड़े होने पर हीरो के रूप में इस कलाकार ने काफी नाम कमाया। अपने अभिनय से एक अलग मुकाम हासिल किया, तो निजी जिंदगी को लेकर भी खूब चर्चा में रहे। ये हैं विनोद मेहरा जिनकी आज पुण्यतिथि हैं। मात्र 45 साल की उम्र में इस हीरो का आज ही के दिन 1990 में देहावसान हो गया था।विनोद मेहरा का जन्म- 1& फरवरी, 1945 को अमृतसर में हुआ था। उन्होंने 100 से अधिक फि़ल्मों में अभिनय किया था। वर्ष 1958 फि़ल्म रजनी में उन्होंने एक कलाकार के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा। इस फिल्म में उन्होंने किशोर कुमार के बचपन का रोल निभाया था। बड़े होने पर अभिनय के शौक ने उन्हें ऑल इंडिया टैलेंट कॉन्टेस्ट तक पहुंचाया। यह वर्ष 1965 की बात थी। विनोद मेहरा इस प्रतियोगिता के फाइनलिस्ट बने थे। प्रतियोगिता का आयोजन यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स और फिल्मफेयर के द्वारा किया गया था। लेकिन फाइनल में विनोद मेहरा को राजेश खन्ना के हाथों शिकस्त खानी पड़ी थी और उन्हें रनर अप बनकर ही संतोष करना पड़ा था। राजेश खन्ना फिल्म इंडस्ट्री के सुपर स्टार बने और विनोद खन्ना सोलो हीरो के रूप में एक छोटी पारी ही खेल पाए और बी ग्रेड फिल्मों तक सीमित होकर रह गए। राजेश खन्ना के साथ उन्होंने कुछ फिल्में की, लेकिन साइड हीरो के रूप में। फिल्म एक थी रीटा में विनोद मेहरा पहली बार तनुजा के हीरो के रूप में नजर आए थे। दरअसल मुम्बई के चर्चगेट इलाके में गेलार्ड नामक एक रेस्तरां पचास-साठ के दशक में संघर्ष कर रहे फिल्मी कलाकारों का अड्डा हुआ करता था। वहां रूप के. शोरी नामक फिल्म डायरेक्टर अक्सर आया-जाया करते थे। एक दिन उनकी निगाह विनोद मेहरा पर ऐसी ठहरी कि उन्होंने अपनी फिल्म में उन्हें नायक की भूमिका सौंप दी और इस तरह से वे तनूजा के हीरो के रूप में नजर आए।निजी जिंदगी रही काफी चर्चितविनोद मेहरा जितने हैंडसम हीरो थे, दिलफेंक भी माने जाते थे। फिल्म अभिनेत्री रेखा के साथ उनके इश्क के चर्चे काफी उड़े। कहा जाता है कि उन्होंने शादी भी कर ली थी, लेकिन विनोद मेहरा की मां को यह रिश्ता मंजूर नहीं था। स"ााई क्या है ये दोनों कलाकार ही बता सकते थे। न तो रेखा ने और न ही विनोद मेहरा ने इस शादी का खुलासा किया। विनोद मेहरा और रेखा की फिल्म घर, भारतीय सिने जगत की एक कालजयी फिल्म मानी जाती है। घोषित रूप में विनोद मेहरा ने अपनी मां की पसंद की लड़की मीना ब्रोका से शादी की। इसी दौरान बिंदिया गोस्वामी के साथ फिल्म करते -करते वे उन्हें दिल दे बैठे। बिंदिया उम्र में उनसे 16 साल छोटी थीं। यह अफेयर विनोद मेहरा और मीना की तलाक की वजह बना। विनोद मेहरा ने बाद में बिंदिया गोस्वामी के साथ शादी भी कर ली, लेकिन चार साल में यह शादी भी टूट गई। बिंदिया ने विनोद मेहरा से तलाक लेने के बाद निर्देशक जे. पी. दत्ता से शादी कर घर बसा लिया जिनकी आज दो बेटियां हैं। विनोद मेहरा ने तीसरी शादी किरण से की और उनका यह साथ बना रहा। उनकी एक बेटी सोनिया और बेटा रोहन मेहरा हैं। विनोद मेहरा की मौत के बाद किरण अपने ब"ाों को लेकर केन्या चली गईं। बेटा रोहन बड़ा हो चुका है और अब बॉलीवुड में काम तलाश रहा है। हाल ही मे रोहन ने उन्होंने फिल्ममेकर निखिल आडवाणी की फिल्म 'बाजार' से डेब्यू किया है । कई शार्ट फिल्में भी उन्होंने लिखी हैं।मौसमी चटर्जी का साथ लकी साबित हुआविनोद मेहरा के सफल फि़ल्मी करिअर में अभिनेत्री मौसमी चटर्जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है। शक्ति सामंत की फि़ल्म अनुराग (1972) में मौसमी चटर्जी और विनोद मेहरा पहली बार साथ आए, जिसमें मौसमी ने एक दृष्टिहीन युवती का रोल संजीदगी के साथ किया था। विनोद एक आदर्शवादी नायक थे और अपने पिता की इ'छा के विरुद्ध वह मौसमी से शादी करना चाहते थे। इसके बाद फि़ल्म उस पार (बसु चटर्जी), दो झूठ (जीतू ठाकुर) तथा स्वर्ग नरक (दसारी नारायण राव) में मौसमी के नायक बने।निर्देशक के रूप में काम कियाकहा जाता है कि अपने कॅरिअर के ढलान में वे अपने काम को लेकर काफी परेशान रहा करते थे। उन्होंने निर्देशन में हाथ आजमाना चाहा और ऋषि कपूर, श्रीदेवी ,अनिल कपूर को लेकर फिल्म गुरुदेव शुरू की। कहा जाता है कि इन कलाकारों ने डेट्स को लेकर उन्हें काफी परेशान किया और वे तनाव में रहने लगे थे। इसी दौरान अचानक दिल का दौरा पडऩे से मात्र 45 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। उनके निधन के बाद यह फिल्म रिलीज हुई।प्रमुख फि़ल्मेंविनोद मेहरा ने भारतीय सिनेमा में 100 से अधिक फि़ल्मों में अभिनय किया है। बाल कलाकार के रूप में विनोद मेहरा ने फि़ल्मों में शुरुआत की। इनकी फि़ल्म लाल पत्थर (1972), अनुराग (1972), सबसे बड़ा रुपैया (1976), नागिन (1976), अनुरोध (1977), साजन बिना सुहागन (1978), घर (1978), दादा (1979), कर्तव्य (1979), अमर दीप (1979), जानी दुश्मन (1979) आदि।विनोद मेहरा पर फिल्माये गए मशहूर गाने1. गीत गाता हूं मैं गुनगुनाता हूं मैं...2. फिर वही रात है&. तेरे बिना जिया जाये ना4. अजनबी कौन हो तुम5. दिल के टुकड़े टुकड़े करके मुस्कुरा के चल दिए6. आप की आंखों में कुछ महके हुए राज है7. वादा करो जानम8. कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है9. साथी तेरे नाम एक दिन जीवन कर जाएंगे10. तेरे नैनो के मैं दीप जलाऊंगा
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-सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है....मोना डार्लिंग...जैसे संवाद के लिए हमेशा याद किए जाएंगे..
पुण्यतिथि पर विशेषआलेख- मंजूषा शर्माफिल्मों में जब टॉप के खलनायकों की बात होगी, तो इसमें अभिनेता अजीत भी शामिल होंगे। अपनी संवाद अदायगी, तहजीब के साथ खलनायकी करने का उनका वो खास अंदाज लोगों को इतना पसंद आया कि उस दौर के लोग भूल गए कि यह कलाकार कभी हीरो बनकर रुपहले पर्दे पर आया करता था और उस समय न जाने कितनी ही लड़कियां उन्हें देखकर आहें भरा करती थीं। अपनी शुरुआती फिल्मों में उन्होंने रोमांटिक और एक्शन हीरो के रूप में काम किया। अभिनेत्री नलिनी जयवंत के साथ उनकी जोड़ी ऐसी लोकप्रिय हुई कि उन्होंने साथ में 15 फिल्में कीं। इसके अलावा शकीला, मधुबाला, मीना कुमारी, माला सिन्हा, सुरैया, निम्मी, मुमताज के साथ भी उनकी जोड़ी को पसंद किया गया।वर्ष 1950 में फिल्म बेकसूर के निर्माण के दौरान निर्देशक के.अमरनाथ की सलाह पर उन्होंने अपने वास्तविक नाम हामिद अली खान को त्यागकर अजीत नाम रखा और इसी नाम से उन्हें भरपूर लोकप्रियता हासिल हुई। उनकी प्रारंभिक फिल्मों में - नास्तिक, पतंगा, बारादरी, ढोलक, ज़िद, सरकार, सैया,तरंग, मोती महल, सम्राट, तीरंदाज आदि हैं। वर्ष 1957 में अजीत ने बी.आर.चोपड़ा की फिल्म नया दौर में पहली बार ग्रे रोल निभाया, लेकिन छोटी सी भूमिका में उन्होंने लोगों को प्रभावित किया। वहीं दिलीप कुमार की अगली फिल्म मुगले आजम में भी अजीत ने सेनापति दुर्जनसिंह की छोटी सी भूमिका के जरिए दर्शकों का दिल जीत लिया था। 60 के दशक में हीरो के रूप में कुछ नए चेहरे आने से अजीत की पूछ परख कम होने लगी। ऐसे में उन्होंने अपने अभिन्न दोस्त अभिनेता राजेंद्र कुमार के कहने पर टी. प्रकाशराव की फिल्म सूरज में खलनायक का किरदार स्वीकार किया और यह उनके कॅरिअर का सबसे अच्छा निर्णय साबित हुआ। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपने दमदार अभिनय से दर्शकों की वाह-वाही लूटते रहे। दरअसल उनकी लोकप्रियता का एक कारण ये भी था कि वे खलनायकी भी जिस नफ़ासत और तहजीब से करते थे, कि लोग उनसे प्रभावित हो जाते थे। फिर उनकी आवाज भी काफी बुलंद थी। सुभाष घई की फिल्म कालीचरण ने तो एक इतिहास ही रच दिया। फि़ल्म कालीचरण में उनका निभाया किरदार लॉयन उनके नाम का पर्याय ही बन गया था।जिंदगी और ख्वाब', 'शिकारी', 'हिमालय की गोद में', 'सूरज', 'प्रिंस', 'आदमी और इंसान' जैसी फि़ल्मों से मिली कामयाबी के जरिए अजीत दर्शकों के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसे मुकाम पर पहुंच गए, जहां वे फि़ल्म में अपनी भूमिका स्वयं चुन सकते थे। 1973 अजीत के सिने कॅरियर का अहम पड़ाव साबित हुआ। उस वर्ष उनकी 'जंजीर', 'यादों की बारात', 'समझौता', 'कहानी किस्मत की' और 'जुगनू' जैसी फि़ल्में प्रदर्शित हुईं, जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। इन फि़ल्मों की सफलता के बाद अजीत ने उन ऊंचाइयों को छू लिया, जिसके लिए वे सपनों की नगरी मुंबई आए थे।90 के दशक के आते - आते अजीत ने खराब स्वास्थ्य के कारण फि़ल्मों में काम करना कुछ कम कर दिया। इस दौरान उन्होंने 'जिगर' (1992), 'शक्तिमान' (1993), 'आदमी' (1993), 'आतिश', 'आ गले लग जा' और 'बेताज बादशाह' (1994) जैसी कई फि़ल्मों में अपने अभिनय की धाक जमाई। संवाद अदायगी के बेताज बादशाह अजीत ने करीब चार दशक के अपने फि़ल्मी कॅरिअर में लगभग 200 फि़ल्मों में अपने अभिनय का जौहर दिखाया और 22 अक्टूबर, 1998 को इस दुनिया से रूखसत हो गए।अजीत खान का जन्म 27 जनवरी 1922 को हैदराबाद रियासत के गोलकुंडा में हुआ था। उनके बचपन का नाम हामिद अली खान था। उनके पिता बशीर अली खान हैदराबाद में निजाम की सेना में काम करते थे। अजीत साहब को बचपन से ही अभिनय का शौक था। ये शौक इस कदर बढ़ गया था कि उन्होंने अपनी किताबें बेच दीं और घर से भागकर मुंबई आ गए। लेकिन मायानगरी तो मायानगरी थी, यहां हर किसी को काम बड़ी मुश्किल से मिलता है। अजीत को भी बहुत संघर्ष करना पड़ा। न पास में पैसा था और न ही सर के ऊपर छत। लेकिन अजीत ने हार नहीं मानी और सीमेंट के पाइप में रहकर अपना संघर्ष जारी रखा। मुंबई के गली के गुंडों से लड़ते फिड़ते उन्होंने अपनी सपनों को साकार किया।परिवारनिजी जीवन में अजीत बड़े सज्जन थे। उन्होंने तीन शादियां की। उनकी पहली पत्नी एंग्लो इंडियन ईसाई थीं जिनसे उन्होंने प्रेम विवाह किया था। अलग-अलग संस्कारों के कारण यह विवाह ज्यादा दिनों तक नहीं चला। उसके बाद अजीत ने परिवार की पसंद शाहिदा से विवाह किया, जो उन्हीं की समुदाय की थीं। शाहिदा से उनके तीन बच्चे हुए, लेकिन शाहिदा का साथ भी ज्यादा दिनों तक नहीं रहा और उनका निधन हो गया। अजीत ने तीसरी बार सारा से निकाह किया। अजीत और सारा के दो बच्चे हुए। -
-50 रुपए मासिक थी पहली सेलरी
आलेख-मंजूषा शर्मापुरानी फिल्मों की बात करें तो शम्मी कपूर का जिक्र किए बिना कुछ अधूरा सा लगता है। उनका वो अलहदा गर्दन तोड़ू डांस, उनकी गहरी आंखें जो दिल तक उतरती थीं, वो हंसमुख- रोमांटिक अंदाज...वो उनके सुपरहिट गाने.... क्या- क्या उल्लेख करूं., बात खत्म ही नहीं होगी। इसलिए तो उन्हें किंग ऑफ रोमांस कहा जाता था। आज यदि वो जीवित होते तो अपना 91 वां जन्मदिन मना रहे होते और सोशल मीडिया पर हमेशा की तरह सक्रिय होकर अपने विचार से लोगों को रूबरू करा रहे होते। शायद फिल्मों में भी वो नजर आ जाते, क्योंकि अभिनय तो जैसे उनकी नसों में खून बनकर दौड़ रहा था।आज ट्वीटर पर शम्मी कपूर को याद करते हुए एक प्यारी सी विंटेज फोटो देखने को मिली, जिसका जिक्र मैं जरूर करना चाहूंगी। इस फोटो के बारे में कुछ खास तो नहीं लिखा गया है, लेकिन देखकर लगता है कि यह शम्मीकपूर की दूसरी शादी की फोटो है जिसमें उनकी पत्नी नीला नई नवेली दुल्हन की तरह लग रही हैं। साथ में हैं पूरा कपूर परिवार। पिता पृथ्वीराज कपूर, मां रामसरनी कपूर, भाई राजकपूर- कृष्णा राजकपूर, शशि कपूर- जेनिफर शशिकपूर। शम्मी कपूर ने अभिनेत्री गीता बाली से प्रेम विवाह किया था, लेकिन गीता का साथ उन्हें ज्यादा दिनों तक नसीब नहीं हुआ। चेचक की बीमारी ने इस प्यारी सी जोड़ी को अलग कर दिया। गीता बाली की मौत के कुछ साल बाद शम्मी कपूर ने नीला देवी से विवाह किया।शम्मी कपूर ने अपने दौर में खूब फिल्में की। गीता बाली, सुरैया, मधुबाला, नूतन, मुमताज, हेमामालिनी, आशा पारेख, सायरा बानो से लेकर अपने दौर की सभी लोकप्रिय हिरोइनों के साथ उनकी फिल्में हिट रही। वक्त के साथ उन्होंने अपने आप को ढाला और चरित्र भूमिकाओं में भी लोगों को प्रभावित करते रहे। अपनी आखिरी फिल्म उन्होंने रणबीर कपूर के साथ की, रॉक स्टार। फिल्म की शूटिंग के समय वे बीमार चल रहे थे, लेकिन अपने पोते के साथ काम करने की ललक उन्हें स्टुडियो तक ले आई।शम्मी कपूर जैसा डांस कोई नहीं कर पाया। वे खुद अपने डांस को गर्दन तोड़ डांस कहा करते थे। कहा जाता है कि शम्मी कपूर ने कभी अपने डांस के लिए कोरियाग्राफर का इस्तेमाल नहीं किया। वह अपने डांस के स्टेप्स म्यूजिक के हिसाब से खुद तैयार करते थे। दरअसल उनके डांस करने के जुनून को देखते हुए अभिनेत्री नरगिस ने उन्हें एक रिकॉर्ड प्लेयर गिफ्ट किया था और शम्मी कपूर उसे बजाकर खूब डांस किया करते थे।50 रुपए मासिक थी सेलरीफिल्मों में हीरो का रोल करने के लिए शम्मी कपूर ने खूब मेहनत की। उनके पिता पृथ्वीराज कपूर काफी सख्त थे और जब शम्मीकपूर ने उनसे कहा कि वे भी अभिनेता बनना चाहते हैं, तो पृथ्वीराज ने कहा कि ठीक है , लेकिन वे भी दूसरे जूनियर आर्टिस्ट की तरह पचास रुपए महीने में काम करेंगे। उस समय तक उनके बड़े भाई राज कपूर हीरो और निर्देशक के तौर पर अपनी पहचान बना चुके थे। शम्मी कपूर ने लगभग तीन साल वहां काम किया। फिर दूसरे स्टुडियो में तीन सौ रुपए महीना में काम करने लगे। कहा जाता है कि पृथ्वीराज कपूर को भरोसा नहीं था कि शम्मी कपूर हीरो बन सकते हैं। शम्मी कपूर को सफलता देर से मिली, पर जब मिली तो क्या खूब मिली। एक समय वे नई हीरोइनों के लिए लकी चार्म बन गए थे।सीखने की खूब थी ललकशम्मी कपूर के सीखने की खूब ललक थी। जब उन्होंने फिल्मों में काम करना एक प्रकार से बंद कर दिया था, तो उन्होंने कम्प्यूटर सीखा और टेक्नो गुरू बन गए। हिन्दुस्तान में कंप्यूटर आने से पहले ही वे विदेश से कंप्यूटर ले आए थे। वे कंप्यूटर ठीक करने के अलावा कोडिंग करना भी जानते थे। बहुत जल्द ही वे इंटरनेट के मास्टर हो गए। उन्होंने कपूर परिवार के लिए एक साइट बनाई थी जिसे वे रोज अपडेट करते थे। वे इंटरनेट यूजर कमिटी के चेयरमैन और फाउंडिंग मेंबर थे। 80 साल की उम्र तक आते-आते स्वास्थ्य ने उनका साथ छोडऩा शुरू कर दिया था और वे व्हील चेयर पर आ गए थे, लेकिन उनके हाथ मोबाइल या लैपटॉप पर खूब चलते थे। इसी हालत में उन्होंने फिल्म रॉक स्टार में काम किया था। शम्मी कपूर म्यूजिक, खानपान से लेकर खेल और गाडिय़ों का अच्छा-खासा शौक रखते थे।शम्मी कपूर के कुछ लोकप्रिय गाने.....1. चाहे कोई मुझे जंगली कहे... याहू...2. ऐहसान तेरा होगा मुझ पर दिल चाहता है वो कहने दो3. इशारों इशारे में दिल लेने वाले4. तुम मुझे यूं भुला न पाओगे5. इस रंग बदलती दुनिया में6. दिल के झरोखे में तुझ को बिठाकर7. यूं तो हमने लाख हंसी देखे हैं, तुमसा नहीं देखा8. कोई हसीना सपनों में आके .. याला याला दिल ले गई9. सवेरे वाली गाड़ी से चले जाएंगे10. आ जा आ जा मैं हूं प्यार तेरा..... - -त्रिमूर्ति महामाया मंदिर धार्मिक आस्था का अद्वितीय केंद्र- कभी रतनपुर राज्य का सबसे महत्वपूर्ण स्थान था धमधा-गोविंद पटेलछत्तीसगढ़ के इतिहास में धमधा का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। यहां का त्रिमूर्ति महामाया मंदिर धार्मिक आस्था का अव्दितीय केंद्र है। लोग यहां संतान प्राप्ति के लिए मन्नत मांगने आते हैं। एक दिवसीय पर्यटन की दृष्टि से धमधा एक आदर्श पर्यटन केंद्र है। यहां कई प्राचीन मंदिर, तालाब एवं ऐतिहासिक इमारतें हैं। महामाया मंदिर की मान्यता शक्तिपीठ के रूप में है। धर्मधाम के नाम से विख्यात इस नगर में कभी छह कोरी छह आगर (126) तरिया (तालाब) हुआ करते थे। यहां की प्राचीनता इतिहासकारों और पुरातत्वविदों को अपनी ओर सहसा आकर्षित करती है।1. धमधा से होती थी रायपुर की पहचानधमधा के विषय में ब्रिटिश अधिकारी ए.ई. नेल्सन ने दुर्ग जिला गजेटियर (1910) में लिखा है कि गोंड़ भाईयों ने धमधा को अपना निवास बनाया और यह ग्राम बसाया। बाद में यह रतनपुर राज्य का सबसे महत्वपूर्ण स्थान समझा जाने लगा। गजेटियर के अनुसार रायपुर को धमधा-रायपुर कहा जाता था जिससे इसका महत्व प्रकट होता है। उपलब्ध स्थानीय पाण्डुलिपि के अनुसार धमधा अति प्राचीन नगर है। आज से एक हजार साल पहले यह खंडहर के रूप में विद्यमान था। बियावान जंगल में प्राचीन सिंहद्वार, मंदिरों के अवशेष, किला और ढेरों कलात्मक पत्थर बिखरे पड़े थे। पाण्डुलिपि के अनुसार सन् 1145 में सरदा के गोंड जमींदार दो भाई (सांड और विजयी) को शिकार खेलते समय यह स्थल मिला था, जिसे उन्होंने अपनी राजधानी बनाई। तब से 1832 ईस्वी तक गोंड राजाओं का यहां पर राज्य था। अधिकांश लोग धमधा को 36 गढ़ों में से एक गढ़ कहते हैं, लेकिन इतिहास की पुस्तकों में दी गई 36 गढ़ों की सूची में धमधा का गढ़ के रूप में नाम का उल्लेख नहीं है। शायद सरदा गढ़ के राजा सांड ने इसे स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित किया था, तभी तो इतने प्राचीन अवशेष होने के बाद भी यह गढ़ों की सूची में नहीं है। 1857 से पहले धमधा तहसील मुख्यालय था, बाद में धमधा तहसील को दुर्ग में स्थानांतरित कर दिया गया।श्री त्रिमूर्ति महामाया मंदिर- धमधा का त्रिमूर्ति महामाया मंदिर आदिशक्ति का प्रतीक है । यहां एक ही गर्भगृह में तीन देवियों- महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की स्थापना है। तीन देवियों के साकार रूप एकसाथ देश में बिरले स्थानों पर ही दिखाई देते हैं। जम्मू-कश्मीर के वैष्णोदेवी मंदिर में ये तीनों देवियां पिंड रूप में विद्यमान हैं, जबकि यहां साकार रूप में हैं। महामाया मंदिर के गर्भगृह के मुख्य दरवाजे में शिलालेख अंकित है। इसमें मंदिर स्थापना और उसके काल का उल्लेख है।पांडुलिपियों के अनुसार इस मंदिर की स्थापना सन् 1589 में राजा दशवंत सिंह ने की थी। उनकी मां को महाकाली ने स्वप्न में कहा कि मैं सिंहव्दार में भूमिगत हूं। शिवनाथ नदी के किनारे जोगीगुफा में महालक्ष्मी की प्रतिमा है तथा तीसरी प्रतिमा एक इमली के वृक्ष के नीचे है, तीनों की प्रतिष्ठा मंदिर में करो। महामाया मंदिर के ठीक सामने प्राचीन सिंहद्वार है, जो धमधा के प्राचीन और वैभवशाली इतिहास का अहसास कराते हैं। छत्तीसगढ़ में जितने भी किले या गढ़ हैं, उनमें इस तरह का भव्य प्रवेशद्वार नहीं मिलता है। बलुआ पत्थरों से निर्मित इस प्रवेशव्दार में भगवान विष्णु के दशावतारों की प्रतिमाएं अंकित हैं। शिल्प की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के दशावतार प्रतिमाओं में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। प्रवेशद्वार के दाईं ओर कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन और बाईं ओर परशुराम, राम-बलराम, बुद्ध और कल्कि अवतार का सुंदर अंकन मिलता है। इस तरह की दशावतार प्रतिमाएं लक्ष्मण मंदिर सिरपुर, राजीव लोचन मंदिर राजिम, बंकेश्वर मंदिर तुम्माण (कोरबा), रामचंद्र मंदिर राजिम में भी हैं, जो अलग-अलग कालखंड का प्रतिनिधित्व करती हैं।राजा किला- महामाया मंदिर के पीछे गोंड़ राजा का किलानुमा महल आज भी खंडहर के रूप में विद्यमान है। इस दो मंजिला इमारत के निर्माण में पत्थरों का उपयोग किया गया है। दरवाजों के चौखट और मेहराब अत्यंत आकर्षक और राजसी वैभव के प्रतीक हैं। ऊपर जाने के लिए सीढिय़ां बनी हुई हैं, लेकिन छत टूटकर गिर गया है। महल के भीतर एक तलघर भी है, जो छत के मलबे से पट गया है। महल के सामने बूढ़ातालाब में एक सीढ़ी है, जहां तालाब के भीतर एक झाझा (कुंए) के निशान नजर आते हैं। पांडुलिपियों में तालाब के भीतर किले के निर्माण की जानकारी मिलती है। परन्तु उत्खनन से ही इसकी सच्चाई सामने आ सकेगी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने सन् 1935 में किला परिसर को संरक्षित स्थल घोषित किया था, किंतु 1962 में इसे संरक्षित स्मारक की सूची से हटा दिया गया। कालान्तर में मध्यप्रदेश पुरातत्व विभाग ने इसे संरक्षण में लिया। 2003 में छत्तीसगढ़ शासन ने किला परिसर को केंद्रीय गोंडवाना महासभा को हस्तांतरित कर दिया। इसका गजट में प्रकाशन किया गया तथा प्राचीन स्मारक में किसी भी प्रकार का छेड़छाड़ या नवनिर्माण अथवा पुरातत्वीय महत्व को नुकसान न पहुंचाने की शर्त रखी गई, लेकिन वर्तमान में वहां पर सीमेंट-कांक्रीट से हो रहे अव्यवस्थित निर्माण से इसकी ऐतिहासिकता और पुरामहत्व विलुप्त हो रहा है। इसे अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सबको जागरुकता के साथ काम करने की आवश्यकता है।बूढ़ादेव- महामाया मंदिर के ठीक पीछे गोंडवाना समाज के युगपुरुष देवतुल्य बूढ़ादेव का मंदिर निर्मित है। इसके सामने पत्थरों से बने 12 स्तंभों का एक मंडप भी है। गोंडवाना महासभा ने किला परिसर में दो नए भवन भी बनाए हैं, जिससे किला में जाने का रास्ता संकरा हो गया है। राजा किला और महामाया मंदिर परिसर की सुरक्षा हेतु इनके चारों ओर गहरी खाई का निर्माण किया गया था, जो आज बूढा तालाब के नाम से जाना जाता है। 12 एकड़ से अधिक क्षेत्र में फैला यह तालाब अक्सर जल से लबालब भरा रहता है। हवा के थपेड़ों से इनमें बनने वाली लहरें लोगों को आनंदित कर देती हैं।प्राचीन शिव मंदिर व चतुर्भुजी मंदिर - चौखडिय़ा तालाब के तट पर दो प्राचीन मंदिर हैं। इनमें से एक मंदिर का शिखर खंडित है। शिव मंदिर में शिललिंग और चतुर्भुजी मंदिर में विष्णु की मूर्ति स्थापित है। ये दोनों प्राचीन स्मारक छत्तीसगढ़ शासन के पुरातत्व विभाग व्दारा संरक्षित हैं। इन दोनों मंदिरों को नगर पंचायत ने पेंट से पुताई करवा दी थी, जिसे पुरातत्व विभाग ने रासायनिक संरक्षण (केमिकल ट्रीटमेंट) कर मंदिरों को उनके मूल स्वरूप में संरक्षित किया है। धमधा नगर के मध्य में चौखडिय़ा नाम का एक कुंड है, जो बहुत प्राचीन है। इसके बीच में एक स्तंभ है, जिसके ऊपर चार सर्पफण का अंकन है जो आपस में कलात्मक ढंग से गुंथे हुए हैं। इनके सिर पर मणि एवं कलश की आकृति बनी है। इस स्तंभ में पहले एक ताम्रपत्र भी जड़ा हुआ था, जिसे शरारती तत्वों ने उखाड़ दिया। ताम्रपत्र के किनारे के टुकड़े स्तंभ में आज भी नजर आते हैं। इस तरह के कृत्यों से न केवल धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचती है, बल्कि पुरातात्विक साक्ष्य भी खत्म हो जाते हैं। इसी तरह दानी तालाब में एक स्तंभ है, जिसमें एक ताम्रपत्र लगा है, जो सुरक्षित है। इन ताम्रपत्रों से तालाबों के निर्माण व जीर्णोद्धार संबंधी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।वायु मार्ग- धमधा से 50 किमी रायपुर निकटतम हवाई अड्डा है ।रेल मार्ग- हावड़ा-मुंबई मुख्य रेलमार्ग पर दुर्ग 35 किमी व रायपुर 45 किमी समीपस्थ रेलवे स्टेशन है।सड़क मार्ग- दुर्ग से 33 किमी, रायपुर से 45 किमी, कवर्धा से 70 किमी व बेमेतरा से 40 किमी दूरी पर स्थित है। कवर्धा के भोरमदेव जाने वाले यात्री धमधा में रूककर पर्यटन कर सकते हैं।आवास व्यवस्था- धमधा में अच्छे और किफायती लॉज व रेस्टोरेंट हैं। लोक निर्माण विभाग का विश्राम गृह भी है।----
- जयंती पर विशेषफिल्म इंडस्ट्री में जब भी सशक्त अभिनेत्रियों का नाम लिया जाएगा, उनमें एक नाम स्मिता पाटिल का भी होगा। अपने सशक्त अभिनय से पहचान बनाने वाली स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर 1955 में हुआ था। मात्र 31 साल की उम्र में 13 दिसंबर 1986 को उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया। अपने 10 साल के फिल्मी कॅरिअर में उन्होंने जो मुकाम बनाया, उसे आज भी लोग याद रखते हैं। यदि आज वे जीवित होती , तो वे अपना 65 वां जन्मदिन मना रही होतीं।स्मिता पाटिल की जीवनी लिखने वाली मैथिली राव कहती हैं, स्मिता को वायरल इन्फेक्शन की वजह से ब्रेन इन्फेक्शन हुआ था। प्रतीक के पैदा होने के बाद वो घर आ गई थीं। वो बहुत जल्द हॉस्पिटल जाने के लिए तैयार नहीं होती थीं, कहती थीं कि मैं अपने बेटे को छोड़कर हॉस्पिटल नहीं जाऊंगी। जब ये इन्फेक्शन बहुत बढ़ गया तो उन्हें जसलोक हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। स्मिता के अंग एक के बाद एक फेल होते चले गए और एक दिन उनकी सांस उखड़ गई। स्मिता की अंतिम इच्छा थी कि वे जब भी इस संसार से विदा हों, उन्हें एक दुल्हन की तरह विदाई दी जाए और उनका दुल्हन की तरह ही मेकअप भी किया जाए। उनके मेकअप आर्टिस्ट दीपक सावंत बताते हैं, स्मिता कहा करती थीं कि दीपक जब मर जाउंगी तो मुझे सुहागन की तरह तैयार करना। स्मिता अक्सर कहती थी कि उनका जीवन लंबा नहीं है। एक बार तो वे लेटकर मेकअप कराने की जिद कर बैठी थीं, लेकिन उन्होंने मना कर दिया, लेकिन उन्हें क्या पता था कि एक दिन वे सबसे अंतिम विदाई लेती जा रही अर्थी पर लेटी स्मिता का इसी तरह से मेकअप करेंगे।स्मिता पाटिल ने अपने सशक्त अभिनय से समानांतर सिनेमा के साथ-साथ व्यावसायिक सिनेमा में भी ख़ास पहचान बनाई थी। उत्कृष्ट अभिनय से सजी उनकी फि़ल्में भूमिका, मंथन, चक्र, शक्ति, निशांत और नमक हलाल आज भी दर्शकों के दिलों पर अपनी अमिट छाप छोड़ती हैं। भारतीय संदर्भ में स्मिता पाटिल एक सक्रिय नारीवादी होने के अतिरिक्त मुंबई के महिला केंद्र की सदस्य भी थीं। वे महिलाओं के मुद्दों पर पूरी तरह से वचनबद्ध थीं। भारतीय सिनेमा में उनके अमूल्य योगदान के लिए उन्हें दो बार राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार और पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया था। हिन्दी फि़ल्मों के अलावा स्मिता पाटिल ने मराठी, गुजराती, तेलुगू, बांग्ला, कन्नड़ और मलयालम फि़ल्मों में भी अपनी ख़ास पहचान बनाई थी।उनका नाम स्मिता रखने जाने के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। असल में जन्म के समय उनके चेहरे पर मुस्कराहट देख कर उनकी मां विद्या ताई पाटिल ने उनका नाम स्मिता रख दिया। यह मुस्कान आगे चलकर भी उनके व्यक्तित्व का सबसे आकर्षक पहलू बनी। स्मिता पाटिल अपने गंभीर अभिनय के लिए जानी जाती हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते है कि फिल्मी परदे पर सहज और गंभीर दिखने वाली स्मिता पाटिल असल जिंदगी में बहुत शरारती थीं। स्मिता पाटिल एक राजनीतिक परिवार से सम्बन्ध रखती थीं, उनके पिता शिवाजीराय पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे, जबकि उनकी मां समाज सेविका थी। स्मिता पाटिल ने फि़ल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया , पुणे से स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद स्मिता ने मराठी टेलीविजन में बतौर समाचार वाचिका काम किया। इसी दौरान उनकी मुलाकात जाने माने फि़ल्म निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल से हुई। श्याम बेनेगल उन दिनों अपनी फि़ल्म चरणदास चोर (1975) बनाने की तैयारी में थे। श्याम बेनेगल को स्मिता पाटिल में एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने अपनी फि़ल्म में स्मिता पाटिल को एक छोटी-सी भूमिका निभाने का अवसर दिया।भारतीय सिनेमा जगत में चरणदास चोर को ऐतिहासिक फि़ल्म के तौर पर याद किया जाता है, क्योंकि इसी फि़ल्म के माध्यम से श्याम बेनेगल और स्मिता पाटिल के रूप में कलात्मक फि़ल्मों के दो दिग्गजों का आगमन हुआ। श्याम बेनेगल ने स्मिता पाटिल के बारे में एक बार कहा था कि मैंने पहली नजर में ही समझ लिया था कि स्मिता पाटिल में गजब की स्क्रीन उपस्थिति है और जिसका उपयोग रूपहले पर्दे पर किया जा सकता है। फि़ल्म चरणदास चोर हालांकि बाल फि़ल्म थी, लेकिन इस फि़ल्म के जरिए स्मिता पाटिल ने बता दिया कि हिन्दी फि़ल्मों में ख़ासकर यथार्थवादी सिनेमा में एक नया नाम स्मिता पाटिल के रूप में जुड़ गया है। स्मिता पाटिल ने 1980 में प्रदर्शित फि़ल्म चक्र में झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाली महिला के किरदार को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया। इसके साथ ही फि़ल्म चक्र के लिए वे दूसरी बार राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार से सम्मानित की गईं। अस्सी के दशक में स्मिता पाटिल ने व्यावसायिक सिनेमा की ओर भी अपना रुख़ कर लिया। इस दौरान उन्हें सुपर स्टार अमिताभ बच्चन के साथ नमक हलाल और शक्ति (1982 फि़ल्म) जैसी फि़ल्मों में काम करने का अवसर मिला, जिसकी सफलता ने स्मिता पाटिल को व्यावसायिक सिनेमा में भी स्थापित कर दिया। इस दौरान उन्होंने बाज़ार, भींगी पलकें, अर्थ, अद्र्धसत्य और मंडी जैसी कलात्मक फि़ल्में की तो वहीं दर्द का रिश्ता , कसम पैदा करने वाले की , आखिर क्यों , ग़ुलामी , अमृत, नजराना और डांस-डांस जैसी व्यावसायिक फि़ल्मों में भी अपनी धाक जमाई। - (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉमविशेष)
- 13 अक्टूबर: पुण्यतिथि पर विशेषआलेख - मंजूषा शर्माये हैं कोकिला किशोरचंद्र बुलसारा, जो हिन्दी और गुजराती फिल्मों की लोकप्रिय अभिनेत्री रही हैं। हिन्दी फिल्मों की मां कही जाने वाली इस अभिनेत्री को अपने मूल नाम कोकिला किशोरचंद्र बुलसारा से नहीं बल्कि फिल्मी नाम निरुपा रॉय से लोकप्रियता मिली। उन्हें आज भी फिल्मों की सर्वेश्रेष्ठ मां कहा जाता है। अपने 50 साल के फिल्मी कॅरिअर में उन्होंने 5 सौ से अधिक फिल्में कीं। उनका शुरुआती फिल्मी कॅरिअर संघर्ष भरा रहा। अपनी प्रारंभिक फिल्मों में उन्होंने देवी का किरदार इस तरह से निभाया कि लोग उनकी पूजा करने लगे। फिर आया मां के किरदार का दौर, इसमें तो निरुपा रॉय ऐसे रच बस गईं कि वे फिल्मों की मां ही बन गईं। खासकर अमिताभ बच्चन की मां का रोल उन्होंने सबसे ज्यादा निभाया। अपने बेमिसाल अदायगी से उन्होंने फिल्मों में मां के किरदार को एक अलग ही आयाम दिया।निरुपा रॉय का जन्म 4 जनवरी, 1931 को गुजरात राज्य के बलसाड में एक मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार में हुआ था। गौर वर्ण की वजह से उन्हें धोरी चकली कहकर पुकारा जाता था। उनके पिता रेलवे में सरकारी कर्मचारी थे। निरुपा रॉय ने चौथी तक शिक्षा प्राप्त की। जब वे मात्र 15 साल की ही थीं, उनका उनका विवाह मुंबई में कार्यरत राशनिंग विभाग के कर्मचारी कमल रॉय से हो गया। विवाह के बाद निरुपा रॉय भी मुंबई आ गईं। उनके दो बेटे हुए- योगेश और किरण। उनके पति को फिल्मों का शौक था और वे हीरो बनना चाहते थे। किस्मत का खेल देखिए उसी दौरान निर्माता-निर्देशक बी. एम. व्यास अपनी नई फि़ल्म रनकदेवी के लिए नए चेहरों की तलाश कर रहे थे। उन्होंने इसके लिए अख़बार में विज्ञापन दिया। निरुपा रॉय के पति ने ये इश्तहार देखा और पत्नी संग पहुंच गए बी. एम. व्यास से मिलने। उनका हीरो बनने का सपना तो पूरा नहीं हुआ , लेकिन निरुपा रॉय को फिल्म में जगह मिल गई। निरुपा रॉय 150 रुपये प्रति माह पर काम करने लगीं। किंतु कुछ समय बाद ही उन्हें भी इस फि़ल्म से अलग कर दिया गया। यह निरुपा रॉय के संघर्ष की शुरुआत थी। इसी दौरान उन्हें गुजराती फिल्म गणसुंदरी में काम करने का मौका मिला। इसी के साथ वे हिन्दी फिल्मों में भी काम तलाशने लगीं। किस्मत ने पलटा खाया और उन्हें हमारी मंजिल में नायक प्रेम अदीब के साथ काम करने का मौका मिल गया। फिर जयराज के साथ फि़ल्म गऱीबी में वे नायिका के तौर पर नजर आईं। 1951 में आई फिल्म हर हर महादेव से उनके कॅरिअर में जबरदस्त उछाल आया। फिल्म में वे देवी पार्वती के रोल में ऐसे फिट हुई, कि दर्शकों के बीच माता पार्वती के रूप में प्रसिद्ध हो गईं। इसी दौरान फि़ल्म वीर भीमसेन निरुपा रॉय द्रौपदी के किरदार में नजर आई। इस तरह से पौराणिक किरदारों ने उनकी काफी शोहरत दिलाई। एक के बाद एक 16 फिल्मों में उन्होंने पौराणिक किरदार निभाया। अभिनेता त्रिलोक कपूर के साथ उन्होंने सबसे ज्यादा 18 फिल्मों में नायिका का किरदार निभाया। कुछ फिल्मों में बोल्ड रोल भी किए।वर्ष 1953 में प्रदर्शित विमल रॉय की फि़ल्म दो बीघा ज़मीन ने निरुपा रॉय को एक बेहतरीन अभिनेत्री के रूप में स्थापित किया। सामाजिक सरोकारों पर बनी इस फिल्म में बलराज साहनी हीरो थे। 1955 में फि़ल्मिस्तान स्टूडियो के बैनर तले बनी फि़ल्म मुनीम जी में उन्होंने पहली बार देवानंद की मां का रोल स्वीकार किया। फि़ल्म में सशक्त अभिनय के लिए वे सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के फि़ल्म फ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित की गईं। इसके बाद तो उनके सामने मां के रोल के ठेरो प्रस्ताव मिलने लगे, लेकिन टाइप्ड होने के डर से निरुपा रॉय ने सारी फिल्में ठुकरा दी। 60 के दशक में उन्होंने नियति के साथ समझौता कर लिया और फिल्म छाया में एक बार फिर मां के किरदार में नजर आईं। इस फि़ल्म में भी उनके अभिनय को सराहा गया और एक बार फिर उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का फि़ल्म फ़ेयर पुरस्कार मिल गया। फिर फिल्म शहनाई के लिए भी उन्होंने यह पुरस्कार जीता।सन 1975 में प्रदर्शित फि़ल्म दीवार ने उनकी किस्मत ही बदल दी। अच्छाई और बुराई के रास्तों के बीच फंसी मां का रोल उन्हें बखूबी निभाया। फिल्म का एक डॉयलॉग आज भी लोग भूले नहीं हैं जब गलत रास्तों में चल पड़े अमिताभ, अपने भाई शशि कपूर से कहते हैं- मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है। तुम्हारे पास क्या है? तो शशिकपूर जवाब देते हैं-मेरे पास मां है। वर्ष 1999 में प्रदर्शित होने वाली फि़ल्म लाल बादशाह में वे अंतिम बार अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका में दिखाई दीं। 13 अक्तूबर साल 2004 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।निरुपा रॉय ने भले ही हिन्दी फिल्मों में काम किया और शौहरत हासिल की, लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम है कि वे हिन्दी नहीं लिख पाती थीं। वे अपने संवाद गुजराती में लिखा करती थीं। इसके बाद भी उनकी संवाद अदायगी में कहीं से भी उनके गुजराती होने का आभास नहीं होता था। वे अपने किरदारों के साथ ऐसी रच-बस जाती थीं कि जैसे वहीं उनकी असल जिंदगी है।साल 2001 निरुपा रॉय लिए दुखदायी रहा जब दहेज मांगने के जुर्म में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनके साथ में पति कमल रॉय और बेटा किरन रॉय भी जेल चले गए थे। बहू ऊना रॉय ने उन सभी पर दहेज उत्पीडऩ का केस कर दिया था। 13 अक्टूबर 2004 में हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया। वे अपने पीछे करीब सौ करोड़ की संपत्ति छोड़ गई थीं। 2015 में उनके पति कमल रॉय की मौत के बाद दोनों बेटों के बीच इसी संपत्ति को ऐसी लड़ाई छिड़ी कि मामला पुलिस थाने तक पहुंच गया। अच्छा हुआ कि यह सब देखने के लिए वे जीवित नहीं थीं।मशहूर फिल्मी गीत जो निरूपा रॉय पर फिल्माए गए थे—-आ लौट के आजा मेरे गीत.....-जरा सामने तो आओ छलिए...-मेरा देखो तो छोटा सा संसार....-चाहे पास हो या दूर हो....-मैं यहां तू कहां, मेरा दिल तुझे पुकारे....-ढलती जाए रात....-- तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है...ओ मां
- - भाई अशोक कुमार ही फिल्मी दुनिया में लेकर आए थे13 अक्टूबर पुण्यतिथि पर विशेषआलेख-मंजूषा शर्मायह एक संयोग ही है कि फिल्म जगत से जुड़े दो दिग्गज भाइयों की किस्मत की डोर आज भी जुड़ी हुई है। हम यहां जिक्र कर रहे हैं अशोक कुमार और उनके भाई किशोर कुमार का। दोनों भाइयों का जीवन एक तारीख 13 अक्टूबर से जुड़ा हुआ है। बड़े भाई अशोक कुमार का 13 अक्टूबर को जन्मदिन रहता था और इसी तारीख को छोटे भाई किशोर कुमार ने वर्ष 1987 को इस दुनिया को हमेशा से लिए अलविदा कहा।ये भी सच है कि अशोक कुमार के कारण ही किशोर कुमार ने गायन और अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा था। किशोर कुमार न तो गायक बनना चाहते थे और न ही अभिनेता, लेकिन अशोक कुमार ने ठान लिया था कि वे किशोर कुमार को अपने जैसा अभिनेता बनाकर छोड़ेंगे। कहा जाता है कि किशोर कुमार जब भी अपनी फिल्म की शूटिंग करते थे, अपनी हरकतों से निर्देशक और सेट पर मौजूद लोगों को परेशान करते थे ताकि उन्हें फिल्म से बाहर निकाल दिया जाए, लेकिन अशोक कुमार भी कम नहीं थे। वे सेट पर पहुंच जाते थे और एक बार तो उन्होंने किशोर कुमार के घुटने को तब तक पकड़े रखा, जब तक किशोर कुमार ने शॉट पूरे नहीं किए । आखिरकार अशोक कुमार की मेहनत रंग लाई और फिर किशोर कुमार ने बहुत सी फिल्में की। अभिनेता के तौर पर भी वे खूब सराहे गए और फिर उन्होंने फिल्म निर्माण, निर्देशन में भी हाथ आजमाया। किशोर कुमार की पड़ोसन, चलती का नाम गाड़ी, हाफ टिकट जैसी फिल्में आज भी लोगों को हंसाती और गुदगुदाती हैं। उनका अभिनय करने का अपना अलग ही अंदाज था। उन्होंने अपने दौर में तमाम बड़ी नायिकाओं के साथ फिल्में कीं।अभिनेता, संगीतकार, गायक, लेखक, निर्देशक और निर्माता किशोर कुमार के सभी रंग कमाल के थे। वे ऐसे शख्स थे, जो हमेशा अपनी शर्तों पर जीते थे और काम करते थे। किशोर दा का असली नाम आभास कुमार गांगुली था। उन्होंने कभी संगीत की शिक्षा नहीं ली, लेकिन उन्होंने हर तरह के गाने इस खूबी से गाए कि बड़े से बड़ा संगीतकार भी उनका मुरीद हो जाता था। किशोर दा हरफनमौला इंसान थे।उनकी निजी जिंदगी भी काफी चर्चित रही। उन्होंने चार शादियां की। उनकी पहली शादी 1951 में अभिनेत्री रूमा गुहा से हुई थी। उन दिनोंं किशोर कुमार अपने कॅरिअर को सही दिशा देने में लगे हुए थे। उनका एक बेटा भी हुआ अमित कुमार जो बाद में सफल गायक हुए। रुमा के साथ किशोर कुमार का रिश्ता ज्यादा बरसों तक नहीं रहा और आठ साल बाद वे अलग हो गए। किशोर से अलग होने के बाद रुमा गुहा ने 1958 में अनूप गुहा ठाकुरता से शादी कर ली।कहा जाता है कि किशोर कुमार और रुमा के अलगाव की वजह मधुबाला थी। शादीशुदा किशोर कुमार मधुबाला के साथ फिल्म करते -करते उन्हें अपना दिल दे बैठे थे। कहा जाता है कि जिस वक्त किशोर कुमार ने ने मधुबाला के सामने शादी का प्रस्ताव रखा उस वक्त वो अपना इलाज कराने विदेश जा रही थीं। किशोर दा ने रूमा को तलाक दिया और कुछ समय बाद मधुबाला से शादी रचा ली और साथ ही मधुबाला की खातिर अपना धर्म भी बदल लिया और अपना नाम करीम अब्दुल रख लिया, लेकिन वे किशोर कुमार के रूप में ही पहचाने जाते रहे। ये भी कहा जता है कि किशोर दा के परिवार वालों ने दोनों के रिश्ते को कभी नहीं स्वीकारा। किशोर कुमार की मां ने ये रिश्ता स्वीकार नहीं किया। मधुबाला का साथ किशोर कुमार को ज्यादा बरसों तक नहीं मिला और दिल की बीमारी के कारण कम उम्र में ही मधुबाला उन्हें छोड़कर चली गई।मधुबाला की मौत के बाद किशोर कुमार की जिंदगी में योगिता बाली आईं। 1976 में दोनों ने शादी रचाई, लेकिन ये रिश्ता भी नहीं चल पाया दो साल बाद ही उनकी राहें अलग हो गईं। बाद में योगिता ने मिथुन चक्रवर्ती से शादी कर ली। योगिता बाली से तलाक के बाद किशोर की जिंदगी में अभिनेत्री लीना चंद्रावरकर आई, जो उनके 21 साल छोटी थीं। 1980 में किशोर कुमार ने लीना से शादी की जिनसे उनको एक बेटा सुमित कुमार हैं। लीना का साथ भी किशोर कुमार को केवल 7 साल ही मिल पाया और 1987 में भगवान के घर से उनका बुलावा आ गया।आज उनका पूरा परिवार एक साथ रहता है। अमित कुमार ने लीना चंद्रावरकर और भाई सुमीत का साथ कभी नहीं छोड़ा और आज वे एक ही घर में साथ रहते हैं। अमित कुमार की एक बेटी मुक्तिका भी है, जिसके साथ अमित कुमार ने किशोर कुमार को श्रद्धांजलि देते हुए एक म्यूजिक अलबम भी निकाला था। पिछले साल 3 जून को अमित की मां यानी किशोर कुमार की पहली पत्नी रुमा गुहा ठाकुरता का निधन हुआ।---
- जन्मदिन पर विशेष आलेख- मंजूषा शर्मासदी के महानायक अमिताभ बच्चन एक युग पुरुष बन गए हैं। अपने 51 साल के कॅरिअर में उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे, सफल फिल्में दी। कई बार असफल भी रहे और लोगों की आलोचनाओं का शिकार भी हुए। 78 साल की उम्र होने तक ज्यादातर लोग रिटायर होने की बात सोचने लगते हैं, लेकिन अमिताभ आज अपने बेटे अभिषेक से भी ज्यादा फिल्में कर रहे हैं। फिर अनेक ब्रांड के विज्ञापन भी उनके खाते में हैं।अमिताभ जब 11 अक्टूबर 1942 को पैदा हुए, उनका नाम इंकलाब रखा गया। यानी आज के सफल और सबके लोकप्रिय अभिनेता अमिताभ बच्चन का शुरू में नाम था- इंकलाब श्रीवास्तव। इंकलाब एक फिल्म का नाम भी है जिसमें उन्होंने लीड रोल निभाया था। बाद में उनका नाम अमिताभ कर दिया गया और वे इसी नाम से प्रसिद्ध भी हुए। दुनियाभर में बिग बी को आज बॉलीवुड का एंबेसडर कहा जाता है। उन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण और दादा साहेब फालके अवार्ड के अलावा अनेक फिल्म पुरस्कार मिले हैं।खाने में क्या पसंद करते हैं अमिताभअमिताभ अपने दिन की शुरुआत दो गिलास पानी और एक कप आंवले के जूस से करते हैं। ब्रेकफास्ट में इडली, सांभर और दूध, कभी मीनू चेंज भी होता है लेकिन दूध हमेशा होता है। ब्रेकफास्ट और लंच के बाद एक प्याली ग्रीन टी। लंच में सिंपल दाल-चावल, मल्टीग्रेन रोटी, सलाद। भिंडी की सब्जी, मूंग की दाल। शाम को वे स्प्राउट्स कभी कभार जूस और नींबू पानी लेते हैं। डिनर में पनीर भुर्जी, सैंडविच के साथ सलाद। सोने से पहले वे दूध जरूर पीते हैं। एक समय था जब अमिताभ बच्चन एक दिन में 200 सिगरेट पी जाया करते थे। आज की तारीख में वह बिल्कुल सिगरेट नहीं पीते। शराब भी उन्होंने 30 साल पहले ही छोड़ रखी है।अमिताभ खाने- पीने के शौकीन हैं। बरसात में उन्हें नींबू वाले भुट्टे और जलेबी खाना पसंद हैं। उन्हें गुलाब जामुन बहुत पसंद हैं। खासतौर से मुंबई के चेंबूर इलाके में झामा के यहां मिलने वाले गुलाब जामुन। खाने के मामले में अमिताभ बच्चन को सेल्फ सर्विस पसंद नहीं और वे चाहते हैं कि जया बच्चन ही उन्हें खाना सर्व करें। अपने आप खाना लेना पड़े तो वह भूखे रहना पसंद करेंगे। अमिताभ बच्चन प्योर वेजिटेरियन हैं। उन्हें आलू पुरी भी पसंद है, पकौड़े, ढोकला और परांठे भी। आप उन्हें पास्ता कभी भी खिला सकते हैं पर ज्यादातर वे पास्ता जेडब्ल्यू मैरिअट के मेज़ो मेज़ो से ही खाना पसंद करते हैं।5 बजे दिन शुरू होता हैआमतौर पर अमिताभ सुबह 5 बजे उठते हैं और फिटनेस के लिए वे रोजाना 20-30 मिनट तक एक्सरसाइज करते हैं। उनके बंगले पर हाई टेक जिमनाजियम है जहां वह एक्सरसाइज करते हैं। वह बढिय़ा एथलीट रहे हैं। 100, 200 और 400 मीटर की रेस में वह अक्सर जीतते थे। अमिताभ बच्चन लोमानी का परफ्यूम इस्तेमाल करते हैं। लोमानी ने अमिताभ बच्चन के नाम का ही परफ्यूम लॉन्च किया था। वह इसी को लगाते हैं।कारों के शौकीनफिल्म इंडस्ट्री के मेगास्टार कारों के शौकीन हैं। अमिताभ बच्चन के कार कलेक्शन से रॉल्स रॉयस फैंटम, रेंज रोवर, बेंटली और मर्सेडीज से लेकर तमाम लग्जरी कारें शामिल हैं। उनकी कार लेक्सस बुलेट-प्रूफ है और इसके टायर्स फॉर्म्युला वन स्टाइल के रेडियल टायर्स हैं। जिसके एक-एक टायर की कीमत 2.5 लाख रुपए से अधिक है। इसी साल सितंबर में अमिताभ बच्चन ने मर्सिडीज-बेंज एस-क्लास की डिलीवरी ली। इस लग्जरी कार की भारत में एक्स-शोरूम कीमत 1.35 करोड़ रुपये से ज्यादा है।निर्देशकों के कलाकारअमिताभ ने अपने फिल्मी कॅरिअर में तरह-तरह के रोल निभाएं हैं। वे आज भी निर्देशकों की पसंद हैं। अमिताभ खुद को गीली मिट्टी की तरह मानते हैं। उनका कहना है कि निर्देशक जिस तरह से चाहें मुझे मोड़ सकते हैं, मुझे जिस ढांचे में चाहें ढाल सकते हैं। उनका कहना है कि निर्देशक कैप्टन है जहाज़ का, वो बताता है कि हमें क्या करना चाहिए। मेरे साथ तो ऐसा कभी हुआ नहीं कि किसी ने हमें कहा हो कुछ करने के लिए और हमने इनकार कर दिया हो, इस तरह का वातावरण प्रचलित नहीं है कि मैं चंूकि सीनियर हूं तो मुझसे कम उम्र के कलाकार डरेंगे। हम सब एकजुट होकर, एक टीम की तरह काम करते हैं। जो निर्देशक कहते हंै, मैं उसे करता हूं। एक कलाकार की हैसियत से ये मेरा कर्तव्य भी है।आज उन्हें कोई बॉलीवुड का शहंशाह कहता है तो कोई सरकार। जाने कितने नाम मिल चुके हैं अमिताभ बच्चन को। यह उनके जबरदस्त अभिनय का कमाल ही है कि लोग उनको सदी का महानायक कहते हैं।अमिताभ ने खुद को कभी नंबर गेम में शामिल नहीं किया। लेकिन उनके चाहने वाले अमिताभ को सबसे बड़ा स्टार मानते हैं। अमिताभ आज कॅरिअर के जिस मुकाम पर हैं वहां पहुंचने का ख्वाब जाने कितने सितारों के दिल में पला, लेकिन किसी सपने की तरह वह छन से टूट गया। उनके चाहने वालों को यही उम्मीद है कि बिग बी आगे भी इसी तरह बॉलीवुड में अपनी चमक बिखेरते रहेें।इस उम्र में भी स्टाइल का रखते हैं खयालअमिताभ बच्चन भले ही 78 साल के हो गए हैं, लेकिन यह बात तो माननी पड़ेगी कि उनका स्टाइल अभी भी लाजवाब है। जिस तरह से वह सूट के लेटेस्ट स्टाइल और यहां तक कि सिंपल वाइट कुर्ते-पजामे को भी अलग-अलग तरह की शॉल के साथ कैरी करते हैं, वह उन्हें दूसरों से अलग बनाता है। अमिताभ अपने कपड़े भी बहुत कम रिपीट करते हैं लेकिन जो कपड़े पुराने या फिर ट्रेंड से बाहर हो जाते हैं, उनका बिग बी क्या करते हैं? अमिताभ बदलते फैशन को भी एक्सपर्ट की तरह फॉलो करते हैं। इसका फायदा यह है कि यह उन्हें स्टाइलिश बनाए रखता है और नुकसान यह कि फैशन के आउट होते ही स्टार होने के कारण उन्हें कुछ कपड़ों को पहनना छोडऩा पड़ता है। इस स्थिति में अमिताभ पुराने हो चुके कपड़ों को फेंकते नहीं हैं। वह इन कपड़ों को या तो जरूरतमंद लोगों को दे देते हैं या फिर उन्हें सहेजकर रखते हैं। उनका मानना है कि फैशन फिर लौट कर आता है।अमिताभ हाल ही में कोरोना महामारी को हराकर अस्पताल से घर लौटे हैं और आते ही अपने काम में जुट गए हैं। कौन बनेगा करोड़पति टीवी शो में वे अपने खास अंदाज में नजर आ रहे हैं। वहीं फिल्मी कॅरिअर की बात करें, तो उनकी आने वाली फिल्मों में शामिल है हेराफेरी 3, ब्रह्मास्त्र के अलावा प्रभास- दीपिका पादुकोण की अनाम फिल्म।----
- पुण्यतिथि पर विशेषहिन्दी सिनेमा को प्यासा, कागज के फूल, साहब बीबी और गुलाम और चौदहवीं का चांद जैसी क्लासिक फिल्में देने वाले फिल्मकार एवं अभिनेता गुरूदत्त को उनके प्रभावशाली निर्देशन के लिए जाना जाता है। आज ही के दिन 10 अक्टूबर 1964 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा।भारतीय फिल्मों के स्वर्णिम दौर में तीन फिल्मकार महबूब खान, राजकपूर और गुरूदत्त ऐसे नाम है जिन्होंने जोखिम लेकर व्यावसायिक सिनेमा में कलात्मक फिल्में बनाने का प्रयास किया। स्वर्ण काल की फिल्मों में कहानी, गीत, संगीत और अभिनय के साथ ही निर्देशन काफी प्रभावशाली होता था। हालांकि गुरूदत्त को उम्दा अभिनेता के तौर फिल्मों के इतिहास में याद तो किया ही जायेगा, लेकिन बतौर निर्देशक उनका कोई सानी नहीं है। उन्होंने सामाजिक संदेश के लिए फिल्मों को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।गुरुदत्त पहले ऐसे निर्देशक थे, जिन्होंने दर्शकों को फिल्मों की बारीकियों से रूबरू करवाया। गुरुदत्त की स्टोरी टेलिंग की क्षमता अद्वितीय थी। उनकी तारीफ में फिल्मकार अनवर जमाल ने कहा था- क्राइम थ्रिलर फिल्मों के निर्माण में गुरुदत्त ने मानक तय किया था। उनकी फिल्मों में कहानी की कई तहें दिखाई देती हैं। वो सामाजिक राजनीतिक परिदृश्य को समझकर फिल्म बनाने वालों में से थे। उनकी फिल्मों में कोई चीज बेवजह नहीं मिलती थी।गुरूदत्त के नाम से लोकप्रिय वसंतकुमार शिवशंकर पादुकोण का जन्म नौ जुलाई 1925 को बेंगलूर में हुआ था। टाइम पत्रिका द्वारा चुनी गयी 100 आल टाइम बेस्ट फिल्मों में गुरूदत्त की प्यासा और कागज के फूल को शामिल किया गया। वर्ष 1944 से 1964 के बीच गुरूदत्त सक्रिय रहे और 10 अक्टूबर 1964 में मुंबई के पेडर रोड स्थित अपार्टमेंट में अपने बिस्तर पर गुरूदत्त रहस्यमयी तरीके से मृत पाये गये, उस वक्त उनकी उम्र केवल 39 वर्ष थी। ये भी कहा जाता है कि काफी समय से वे अपनी शराब की लत जूझ रहे थे और अंत में उन्होंने आत्महत्या कर ली, लेकिन उनकी मृत्यु के पीछे उनके अपने पारिवारिक कारण भी थे जिनसे भी दुनिया अनजान नहीं थी फिर भी उनकी मृत्यु कैसे हुई, इस बात का खुलासा कभी नहीं हो पाया। उनके जीवन में दो नायिकाएं थी एक गीता दत्त, जो उनकी पत्नी बनी और एक वहीदा रहमान, जिनका साथ वो दे नहीं पाए।वर्ष 1944 में प्रभात फिल्म से फिल्म दुनिया में कदम रखने वाले गुरूदत्त ने शुरूआत में बतौर कोरियोग्राफर काम किया। इस दौरान ही रहमान एवं देवानंद उनके करीबी दोस्त बन गये। देवानंद के बैनर नवकेतन तले उनकी पहली फिल्म बाजी, 1957 में आयी और उनकी आखिरी फिल्म सांझ और सवेरा, मीनाकुमारी के साथ थी। गुरूदत्त नृत्य की बेहतर समझ रखते थे और उन्होंने उदयशंकर के आर्ट ट्रूप में भी काम किया था।उनके बारे में देवानंद ने कहा कि फिल्मी दुनिया में उनके एकमात्र सच्चे दोस्त गुरूदत्त रहे। प्रभात फिल्म्स में काम करने के दौरान दोनों की दोस्ती गहरी हो गयी। गुरूदत्त को उन्होंने बाजी में ब्रेक दिया तो गुरूदत्त ने देवसाहब को सीआईडी फिल्म में लीड रोल में लिया था।
- जन्मदिन पर विशेष- आलेख मंजूषा शर्माहाल ही में अभिनेत्री रेखा उर्फ भानुप्रिया अपने खास अंदाज में एक टीवी चैनल के नए सीरियल को प्रमोट करती नजर आईं, हालांकि उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि वे क्या इस सीरियल में काम करने जा रही हैं या केवल प्रमोटर हैं। खैर आज हम सब की प्यारी और खूबसूरत रेखा 66 साल की हो गई हैं। उन्हें देखकर लगता है कि उनके लिए उम्र का बढऩा महज एक संख्या है। उनकी लगातार बढ़ती खूबसूरती के आगे उम्र भी नतमस्तक है। वे कमाल की अभिनेत्री, डांसर, शायरा और गायिका हैं। उनके गायन का कमाल कभी -कभार टीवी रियलिटी शो में या फिर किसी फिल्म आधारित पुरस्कार समारोह में देखने को मिल जाता है और लोग उनकी इस अदा के भी दीवाने हो जाते हैं। वे एक ऐसी अदाकारा हंै जिसका बॉलीवुड में शायद कोई सानी नहीं है। रेखा की जि़ंदगी का फलसफा ही कुछ ऐसा है कि हर कोई उन्हें समझना चाहता है।66 साल की उम्र में भी रेखा बहुत स्टाइलिस्ट हैं। वेस्टर्न ड्रेस में वे जितनी आकर्षक लगती हैं, तो साड़ी में और भी खूबसूरत नजर आती हैं। सिल्क की साड़ी के साथ पारंपरिक ज्वैलरी, बालों में गजरा, मांग में सिंदूर, डार्क लिपिस्टिक, बात करने की एक खास तहजीब और अदा की चाशनी, उनके सामने आने वाला हर इंसान उनका मुरीद हो जाता है। हर समारोह में रेखा एक सुहागन की तरह एंट्री मारती हैं। यही वजह है जो हर इवेंट में हर किसी की निगाहें केवल रेखा पर ही जा टिकती हैं। रेखा की रहस्यमयी निजी जिंदगी को जानने की उत्सुकता आज भी लोगों में है।जब भी रेखा मांग में सिंदूर लगाती हैं फैंस उनसे तरह-तरह के सवाल पूछने लग जाते हैं। फैंस अक्सर रेखा से ये जानना चाहते हैं कि वह अपनी मांग में किसके नाम का सिंदूर लगाती हैं। बॉलीवुड स्टार ऋषि कपूर और नीतू कपूर की शादी में पहली बार रेखा मांग में सिंदूर लगाए नजर आई थीं। रेखा की मांग में सिंदूर देखकर शादी में मौजूद सभी मेहमान हैरान हो गए थे और उनकी आंखों में केवल एक ही प्रश्न था कि कौन है वो खुशनसीब? आज भी रेखा वैसे ही नजर आती हैं। हालांकि रेखा ने कभी अपने बारे में हो रही बातों पर ध्यान नहीं दिया और न ही इसका कभी खुलासा किया कि वे किसके नाम का सिंदूर भरती हैं।10 अक्टूबर 1954 को तमिल परिवार में जन्मीं भानुप्रिया यानी रेखा के मां -पिता दोनों ही अभिनय जगत से जुड़े हुए थे। 12 साल की उम्र में आई रंगुला रत्नम उनकी पहली फिल्म थी जिसे बाद में 1976 में रंगीला रतन के नाम से दोबारा हिन्दी में भी बनाया गया। मुंबई आने और हिन्दी फिल्मों में कदम रखने से पहले रेखा ने एक तेलुगू और एक कन्नड़ फिल्म की। वर्ष 1970 में आई सावन भादो उनकी पहली हिन्दी फिल्म थी। उनके पहले हीरो नवीन निश्चल थे।शुरुआत में सांवली-सलोनी रेखा अपने भारी शरीर और हिन्दी बोलने में सहज ना होने की वजह से हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में नोटिस नहीं की गई। हालांकि इसके बाद उनकी काया पलट हुई। ना सिर्फ उन्होंने वजन कम किया बल्कि हिन्दी और उर्दू में भी पकड़ बनाकर दर्शकों का दिल जीत लिया। तभी तो मुजफ्फर अली ने जब उमराव जान फिल्म बनाने का विचार किया, तो उनके जेहन में लीड रोल के लिए एक ही नाम था और वो रेखा थीं। फिल्म की सफलता में रेखा की मौजूदगी सबसे बड़ा कारण बनी।रेखा ने हिन्दी सिनेमा में कला और व्यावसायिक दोनों ही तरह की फिल्में कीं और शोहरत पाई। अभिनय में नयापन और विविधता ने बहुत जल्द उन्हें हिन्दी सिने जगत की सबसे कामयाब अभिनेत्रियों में शामिल कर दिया।रेखा का निजी जीवन विवादास्पद ही रहा। अभिनेता विनोद मेहरा के साथ उनकी कथित शादी बहुत दिन तक नहीं चल सकी। एक इंटरव्यू में रेखा ने इस शादी से साफ इनकार किया। बहरहाल इसके बाद उन्होंने व्यापारी मुकेश अग्रवाल से शादी की, लेकिन इस शादी का अंत तलाक से हुआ । बाद में मुकेश अग्रवाल ने आत्महत्या कर ली। सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के साथ भी उनके प्रेम संबंध के किस्से हमेशा सुर्खियों में रहे। कहा जाता है कि रेखा आज जैसी दिखती हैं उसमें अमिताभ बच्चन का बड़ा योगदान है। सन् 1976 में आई फि़ल्म दो अनजाने में उन्होंने अमिताभ के साथ काम किया। ये भी कहा जाता है कि रेखा सदी के महानायक अमिताभ बच्चन से बहुत प्यार करती थीं, लेकिन उनकी ये मोहब्बत कभी पूरी नहीं हो सकीं। जब अमिताभ और रेखा के इश्क के चर्चें आम थे, तब एक दिन जया ने अमिताभ की अनुपस्थिति में रेखा को घर बुलाया और उनकी बहुत खातिरदारी की। रेखा को विदा करते समय उन्होंने सिर्फ यही कहा कि वे अमित से बहुत प्यार करती हैं और उन्हें कभी नहीं छोड़ेंगी। अमिताभ को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने रेखा से दूरी बना ली और रेखा ने भी यही रास्ता अपनाया। बाद में उनकी त्रिकोणात्मक प्रेम कहानी पर यश चोपड़ा ने फिल्म सिलसिला बनाई और इसमें अमिताभ, जया , रेखा, शशिकपूर और संजीव कुमार को लीड रोल में लिया। संबंधों में आई तमाम कडु़वाहट के बाद भी रेखा और जया ने एक साथ ये फिल्म की।रेखा आज भी कभी भी दोपहर 2 बजे से पहले अपनी कोई तस्वीर नहीं खिंचवाती हैं। उनका मानना था कि सुबह के समय चेहरे पर एक अलग तरह की सूजन रहती है, जो करीब एक बजे तक चली जाती है। इस समय रेखा अपनी सेक्रेटरी फरजाना के साथ मुंबई में बांद्रा स्थित अपने बंगले में रहती हैं। फिल्मी दुनिया के कई बड़े पुरस्कारों से सम्मानित की जा चुकीं रेखा को भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा है।रेखा ने अपने सालों लम्बे कॅरिअर में लगभग 175 से ज्यादा फिल्मों में काम किया और दर्शकों के दिल-ओ-दिमाग पर छा गई। रेखा ने जिंदगी को अपनी शर्तों पर जिया है और यह कहा जा सकता है कि उन्हें अपनी जिंदगी से शायद ही कोई शिकायत होगी। उन्होंने जिस वक्त जो चाहा, वो काम किया और कभी इस बात की परवाह नहीं कि लोग क्या कहेंगे।----
- जन्मदिन पर विशेष-आलेख मंजूषा शर्मामुंबई। जॉनी, जिनके घर शीशों के होते हैं, वो दूसरों के घरों में पत्थर नहीं फेंका करते (फिल्म वक्त), आपके पैर देखें, बड़े ही खूबसूरत हैं, इन्हें जमीं पर नहीं रखिएगा, मैले हो जाएंगे...(फिल्म पाकीजा) इस जैसे अनगिनत संवादों से लोगों का दिल जीतने वाले अभिनेता राजकुमार का आज जन्मदिन है। उन्हें इस दुनिया से रुखसत हुए 24 साल हो गए हैं।राजकुमार अपने नाम की तरह ही फिल्मी दुनिया के राजकुमार थे। वे बड़े ठसन के साथ फिल्मी दुनिया में रहे और इसी अंदाज से इस दुनिया को हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए। अपने दौर में उन्होंने लोगों को दीवाना बना दिया था। अपने अभिनय, अपने संवाद और खास स्टाइल में उनका चुरुट पीना , उनके सफेद जूते, उनके बालों की स्टाइल और बाद में आंखों पर वो मोटा चश्मा, लोगों को बहुत पसंद आया। एक दौर था जब लोग केवल उनके नाम से ही फिल्में देखने पहुंचा करते थे।आज जब भी हम अभिनेता राजकुमार को याद करते हैं, सबसे पहली बात जो दिमाग में आती है, वो है उनकी आवाज। मगर ये भी दुर्भाग्य है कि राजकुमार अपने जीवन के आखिरी दिनों में गले के कैंसर से जूझ रहे थे और 3 जुलाई 1996 को उन्होंने मौत के आगे हार मान ली। नब्बे के शुरुआती सालों में राजकुमार साहब गले के दर्द से जूझ रहे थे। दर्द इस कदर कष्टकारी था कि बोलना भी दुश्वार हो रहा था। बाद में पता चला कि उन्हें गले का कैंसर है। इस लोकप्रिय अभिनेता का अंतिम संस्कार गुपचुप तरीके से केवल परिवार वालों की मौजूदगी में किया गया। क्योंकि राजकुमार नहीं चाहते थे, उनकी अंतिम यात्रा में परिवार के सिवाय कोई और अन्य शामिल हो। फिल्म इंडस्ट्री के लोगों और प्रशंसकों ने उनकी अंतिम इच्छा का सम्मान किया और उन्हें अपनी यादों में हमेशा के लिए संजो कर उन्हें अंतिम विदाई दी।राजकुमार का जन्म अविभाजित भारत के बलोच प्रान्त में एक कश्मीरी परिवार में 8 अक्टूबर 1929 को हुआ था और उनका असली नाम कुलभूषण पंडित था। राजकुमार पुलिस सेवा में सब इंस्पेक्टर थे और मुंबई के माहीम इलाके के थाने में ड्यूटी किया करते थे। सब इंस्पेक्टर की नौकरी के दौरान ही एक दिन गश्त कर रहे राजकुमार से एक सिपाही ने कहा कि हुजूर आप रंग-ढंग और कद काठी से एकदम हीरो दिखते हैं। आप अगर फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाएं तो लाखों दिलों को आसानी से जीत सकते हैं। संयोग से एक बार निर्माता बलदेव दुबे उन्हीं के थाने पहुंचे और सब इंस्पेक्टर कुलभूषण पंडित के बातचीत के तरीके से काफी प्रभावित हुए। ये वो समय था जब फिल्ममेकर बलदेव दुबे अपनी फिल्म शाही बाजार की तैयारी कर रहे थे। बलदेव दुबे, कुलभूषण पंडित से इतने प्रभावित हुए कि फिल्मों में काम करने का ऑफर दे दिया। राजकुमार ने भी नौकरी से इस्तीफा देकर निर्माता बलदेव दुबे का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इसके बाद राजकुमार ने अपने अभिनय से हिंदी सिनेमाजगत को एक से बढ़कर एक फिल्में दीं। राजकुमार को पहचान मिली सोहराब मोदी की फिल्म नौशेरवां-ए-आदिल से। इसी साल आई फिल्म मदर इंडिया में नरगिस के पति के छोटे से किरदार में भी राजकुमार खूब सराहे गए।साठ के दशक में राजकुमार की जोड़ी मीना कुमारी के साथ खूब सराही गई और दोनों ने अद्र्धांगिनी, दिल अपना और प्रीत पराई, दिल एक मंदिर, काजल जैसी फिल्मों में साथ काम किया। यहां तक कि लंबे अरसे से लंबित फिल्म पाकीजा में जब काम करने को कोई नायक तैयार न हुआ, तब भी राजकुमार ने ही हामी भरी। वे मीना कुमारी के प्रशंसक थे और मीना जी के अलावा वह किसी नायिका को अदाकारा मानते भी नहीं थे। उनकी एक और फिल्म अपने अलहदा संवाद के कारण मशहूर हुई - हीर रांझा, जिसमें उनकी जोड़ी बनी प्रिया राजवंश के साथ । फिल्म के सारे गाने लोकप्रिय हुए। फिल्म खास इसलिए थी, क्योंकि इसके सारे संवाद काव्यात्मक थे।अभिनेता सोहराब मोदी के साथ फिल्मी जीवन शुरू करने के कारण उनका असर राजकुमार पर भी पड़ा और वे संवादों पर विशेष ध्यान देते। बुलंद आवाज और खालिस उर्दू बोलने वाले राजकुमार की पहचान एक संवाद प्रिय अभिनेता के रूप में बनी। उनके लिए खास तौर से संवाद लिखे जाते थे। यहीं नहीं यदि उन्हें संवाद पसंद नहीं आते थे, तो वे उसमें बदलाव लाने के लिए अड़ भी जाते थे। राजकुमार अनुशासनप्रिय इंसान थे और अपने हिसाब से जिंदगी जीना पसंद करते थे। इसीलिए फिल्म की शूटिंग के दौरान काफी हठ किया करते थे, जिसके कई किस्से काफी मशहूर हैं। ऐसा ही एक किस्सा फिल्म पाकीजा का है। फिल्म के एक दृश्य में राजकुमार, मीना कुमारी से निकाह करने के लिए उन्हें तांगे पर लेकर जाते हंै। तभी एक शोहदा उनका पीछा करता हुआ आता है। स्क्रिप्ट के अनुसार राजकुमार उतर कर शोहदे के घोड़े की लगाम पकड़ लेते हैं और उसे नीचे उतरने को कहते हैं। शोहदा उनके हाथ पर दो-तीन कोड़े मारता है और फिर राजकुमार लगाम छोड़ देते हैं। इस दृश्य को लेकर राजकुमार अड़ गए। उनका कहना था कि ऐसा कैसे हो सकता है कि एक मामूली गली का गुंडा राजकुमार को मारे! होना तो यह चाहिए कि मैं उसे घोड़े से खींच कर गिरा दूं और बलभर मारूं। निर्देशक ने समझाया कि आप राजकुमार नहीं आपका किरदार सलीम खान का है। राजकुमार नहीं माने। निर्देशक ने भी शोहदे को तब तक कोड़े चलाने का आदेश किया, जब तक राजकुमार लगाम न छोड़ दें। अंतत: बात राजकुमार की समझ में आ गई।वहीं राजकुमार ने फिल्म जंजीर महज इसलिए छोड़ दी थी क्योंकि फिल्म की कहानी सुनाने आए निर्देशक प्रकाश मेहरा के बालों में लगे चमेली के तेल की महक उन्हें नागवार गुजरी थी। प्रकाश मेहरा ने फिर नए हीरो अमिताभ बच्चन को लेकर दांव खेला और इस फिल्म ने अमिताभ और प्रकाश मेहरा, दोनों की जिंदगी ही बदल कर रख दी। राजकुमार लोगों पर कमेंट्स करने के लिए भी मशहूर थे। एक बार तो उन्होंने अमिताभ बच्चन के सूट की तारीफ करते हुए यहां तक कह दिया था कि वे ऐसे कपड़े के परदे अपने घर में लगाना चाहते हैं। जब उनकी कोई फिल्म नहीं चलती थी तो वे कहा करते थे- राजकुमार फेल नहीं होता। फिल्में फेल होती हैं। अभिनेता राजकुमार जब तक जिंदा रहे , अपनी शर्तों पर फिल्में की और अपनी शर्तों पर ही इस दुनिया से विदा हुए।
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विश्व दृष्टि दिवस 8 अक्टूबर पर विशेष-प्रो. डॉ. एम. एल. गर्ग, विभागाध्यक्ष नेत्र रोग विभाग, डॉ. भीमराव अम्बेडकर स्मृति चिकित्सालय, रायपुर
रायपुर. विश्व दृष्टि दिवस के अवसर पर कल डॉ. भीमराव अम्बेडकर स्मृति चिकित्सालय के नेत्र रोग विभाग में टेलीमेडिसिन के जरिये राज्य के विभिन्न जिलों से जुड़कर नेत्रों की सुरक्षा, नेत्र सम्बन्धी बीमारियों एवं उनके उपचार के सम्बन्ध में लोगों को जानकारी दी जाएगी। आयोजन की जानकारी देते हुए मेडिकल कॉलेज अस्पताल के विभागाध्यक्ष नेत्र रोग विभाग प्रो. डॉ. एम. एल. गर्ग ने बताया कि हर साल अक्टूबर महीने के दूसरे गुरुवार को विश्व दृष्टि दिवस मनाया जाता है जिसे मनाने का उद्देश्य आमजनों में दृष्टि या नेत्र की महत्ता एवं उसकी सुरक्षा के संबंध में जागरूक करना है।
वैसे तो शरीर में नेत्र या आंख के साथ अन्य ज्ञानेन्द्रियां भी हैं किंतु नेत्र की महत्ता ज्यादा इसलिए भी है क्योंकि किसी वस्तु, व्यक्ति आदि को देख लेने भर से उस वस्तु, व्यक्ति की शारीरिक संरचना की 80 से 90 फीसदी जानकारी प्राप्त हो जाती है। जीभ का कार्य बोलने में सहायता करना और स्वाद की जानकारी देना, कान का कार्य सुनना, नाक का कार्य श्वांस लेना एवं सूंघ कर किसी वस्तु की सुगंध ज्ञात करना है। ये सभी ज्ञानेन्द्रियां केवल कुछ ही चीजों की जानकारी एवं अनुभव प्रदान करती हैं लेकिन नेत्र एकमात्र ऐसी इन्द्रिय है जो कई प्रकार से उपयोगी है। जैसे- हर्ष या वेदना हो अर्थात् गम या खुशी हो तो आंख से दुख या खुशी के आंसू निकल पड़ते हैं। नेत्र प्रत्यक्षदर्शी भी होते हैं। किसी वस्तु की प्रकृति का एक बार अनुभव हो जाने पर बाद में उसे देखने भर से उसकी प्रकृति भर का अनुमान हो जाता है। उदाहरण के तौर पर जैसे आपके हाथ में पेन या किताब है तो देखने भर से उनकी आकार, रंग आदि की जानकारी मिल जाती है। इस लिहाज से आंखों को सुरक्षित रखना बहुत आवश्यक है क्योंकि आंखें हैं तो जहान हैं। मानव शरीर में आंखों का कोई मोल नहीं है, ये बेशकीमती हैं जिनकी वजह से हम इस खूबसूरत संसार को देख पाते हैं।
इतना ही नहीं, आंखों से शरीर के अन्य अंगों की बीमारी या उनके लक्षणों की जानकारी भी मिल जाती है। जैसे- यदि किसी व्यक्ति को पीलिया है तो उसकी आंखें पीली हो जाएंगी। दिमाग में सूजन है तो आंख की अंदरूनी भाग की जांच करने पर दिमाग के सूजन का पता चल जाता है।
आंखों की सुरक्षा के लिये आंखों में होने वाली बीमारयों की जानकारी एवं रोकथाम जरूरी है। उदाहरण के तौर पर आंखों की सामान्य बीमारियों में दृष्टि दोष, जिसको चश्मे से ठीक किया जाता है। मोतियाबिंद को ऑपरेशन करके ठीक किया जाता है। इसके अलावा आंखों में काला मोतिया (ग्लाकोमा) जिसमें ज्यादातर 40 साल के बाद आंख का दबाव बढ़ता है और आंख की आप्टिक नर्व सूख जाती है और नेत्र ज्योति धीरे-धीरे कम होने लगती है इसलिए 40 साल उम्र के बाद आंख का एक सामान्य परीक्षण करवाते रहना चाहिए।
आंखों में दृष्टि जाने का दूसरा कारण है आंखों में किसी भी प्रकार की छोटी-मोटी चोट लगे तो विशेषज्ञ को तुरंत दिखवाना चाहिए ताकि तत्काल उपचार हो जाए वर्ना आंखों का कार्निया एवं नेत्र के अन्य भाग भी प्रभावित हो सकते हैं और दृष्टि जाने का अंदेशा बना रहता है।
कभी-कभी आंख के अंदर का पानी (विट्रियस) में मटमैलापन, पतलापन और रक्त का रिसाव हो सकता है। इनका कारण शरीर की अन्य बीमरियां जैसे ब्लड प्रेशर, मधुमेह एवं चोट आदि होते हैं।
इनके साथ ही इन सभी चीजों से रेटिना भी प्रभावित होता है इसलिए समय रहते आंखों की जांच की जाये या परीक्षण किया जाए तो बीमारी का पता लग जाता है और इलाज संभव होता है और दृष्टि बरकरार रहती है।
बच्चों में भी नेत्र सम्बन्धी समस्या पायी जाती है जिसमें भेंगापन, सूखापन, मोतियाबिंद, काला मोतिया एवं नेत्र की जन्मजात बीमारियां शामिल हैं इसलिए आंखों में किसी प्रकार की बीमारी के लक्षण दिखें तो तुरंत जांच करवाना चाहिए। वर्ना बड़े होने पर इलाज कराने पर भी रौशनी नहीं आती।
ज्यादा देर तक कंप्यूटर पर काम करना, संतुलित आहार नहीं लेना, उचित जीवनशैली नहीं अपनाना, इनकी वजह से भी आंखों में सूखापन(ड्राई आई), आंखें लाल होना (रेड आई) और आंसू की थैली में अधिक उम्र में संक्रमण होने की आशंका होती है जो नासूर हो जाती है। इसके चलते आंखों में कोई बीमारी हो तो उचित इलाज होने पर भी ठीक होने में समस्या आती है इसलिए आंसू की थैली में कुछ बीमारी हो तो उसे समय पर ठीक करना जरूरी होता है।
उपरोक्त बातें विश्व दृष्टि दिवस पर जनजागरण हेतु समाचार पत्र, चल-चित्र माध्यम, रेडियो, गोष्ठी, पोस्टर, रैली प्रदर्शनी आदि के माध्यम से समझाई जाती हैं, ताकि नेत्रों की सुरक्षा हो सके और दृष्टि बनी रहे। वर्तमान कोरोना काल में ये सभी जनजागरूकता कार्यक्रम टेलीमेडिसीन से जुड़कर, सोशल मीडिया व डिजीटिल प्लेटफार्म में आयोजित किये जाएंगे। अधिकतर शासकीय अस्पतालों में जिला स्तर एवं मेडिकल कॉलेजों में आंख की प्रत्येक बीमारी का सुचारू रूप से एवं कारगर ढंग से उपचार उपलब्ध है।
आजकल आधुनिक उपकरण मशीन जैसे- स्लिट लैम्प, पेरीमिट्री, सोनोग्राफीे, एंजियोग्राफी, ओसीटी, माइक्रोस्कोप, टोनोमीटर, लेजर, नेत्र प्रत्यारोपण और लेंस प्रत्यारोपण की सुविधाएं उपलब्ध हैं इसलिए जनसाधारण इन सुविधाओं का लाभ ले सकते हैं।
नेत्र की महत्ता प्रतिपादित करते हुए ठीक ही कहा गया है:
बिन नयन परिभाषा रंगों की न हो,
प्रीत गढ़े चितवन जब-जब मिलना हो,
नेत्र-मित्र सत्य के, मिथ्या के विनाशी,
नेत्रों से ही प्रदर्शित हर्ष-वेदना हो