- Home
- आलेख
-
हरेली तिहार ले ‘गौमूत्र खरीदी’ के होही सुरूआत
’आत्मनिर्भरता अउ रोजगार बढ़ाए बर एक अउ प्रयास’
----लेखकः- तेजबहादुर सिंह भुवाल, सहायक सूचना अधिकारी
छत्तीसगढ़ के गांव-गवई के मनखे मन के जिन्दगी मा रचे-बसे हे खेती किसानी। अउ इही खेती किसानी से जुड़े हे हमर पहली तिहार हरेली। छत्तीसगढ़ मा लोक संस्स्कृति, परम्परा ले जुड़े अउ सहेजे बर ये तिहार ला सब्बो लोगन मन हंसी, खुसी, आस्था, प्रेम व्यवहार अउ धूमधाम से मनाथे। इही दिन ले तिहार के सुरूआत हो जथे। सावन के आये ले चारो मुड़ा हरियर-हरियर रूख, राही, पेड़, झाड़, खेत-खलियान हा मन ला मोह डारथे। ये तिहार ला किसान मन खेती के बोआई, बियासी के बाद मनाथे। जेमा जुड़ा, नागर, गैंती, कुदाली, फावड़ा ला चक उज्जर करके रखथे अउ गौधन के पूजा-पाठ करथे संग मा कुलदेवी-देवता, इन्द्र देवता, ठाकुर देव ला घलो सुमरथे। ये दिन किसान मन हवा, पानी अउ भुईयां ला सुघ्घर बनाये राखे बर और सुख-सांति बनाये रखे के प्रार्थना करथे। बैगा मन रात में गांव के सुरक्षा करे बर पूजा-पाठ करथे। धान के कटोरा छत्तीसगढ़ महतारी ला किसान मन खेती-किसानी के बढ़त और बिकास बर सुमरथे। येखर सेती तो हमर छत्तीसगढ़ के बात ही कुछ अलग हे-
‘‘अरपा पैरी के धार
महानदी हे अपार
इंद्रावती ह, पखारय तोर पईयां
महू पांवे परव तोरे भुइया
जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मईयां’
ऐसे लागथे जैसे कि हमर छत्तीसगढ़ महतारी हा हरियर लुगरा पहिन के रंग-बिरंगी फूल, माला में सजे, अंग-अंग मा नदिया-नरवा समाए, धन-धान्य ले धरे हवये, अउ आसीरबाद देवत हे।
छत्तीसगढ़ मं ये बखत हरेली तिहार म खुसहाली कई गुना बढ़ही। राज्य सासन हा अपन महत्वाकांक्षी योजना ‘‘गोधन न्याय योजना’’ के सुरूआत 2020 में करे रिहिस। इहीं योजना ला आगे बढ़ावत हरेली तिहार ले ‘‘गो-मूत्र खरीदी’’ करे के सुरूआत करत हवए। प्रदेस के मुख्यमंत्री हा ग्रामीण अर्थव्यवव्था का सुदृढ़ करे बर ‘‘सुराजी गांव योजना’’ चालू करके किसान मन बर उखर नदाये लोक संस्कृति अउ पारंपरिक चिन्हारी ला वापस लाए के प्रयास करत हे। सासन के प्रयास हे कि प्रदेस के लईका मन हा अपने भुईया, संस्कृति, आस्था, परम्परा ला जानय, समझये अउ बचा के राखे राहय।
सासन हा ‘‘गोधन न्याय योजना’’ ले किसान मन ला रोजगार के अवसर अउ आर्थिक रूप ले लाभ पहुचावत हे। सासन हा राज्यभर के गोठान म गोवंसीय पसु के पालक मन ले गोबर ला सासकीय दर 2 रूपया किलो में लेवत हे। इही गोबर ला बने सुघ्घर खातू बनाके 10 रूपया किलो में किसान मन ला बेचे जावत हे। गोबर ले गमला, पेंट अउ कतको सामान बना के बेचत हे। सासन हा हरेली तिहार ले योजना ला आगे बढ़ावत ‘‘गोमूत्र खरीदी’’ करे के निर्णय लेहे। गौठान मन में गौ-मूत्र ला 4 रूपया लीटर में खरीदे जाही। ये गौ-मूत्र ले जीवामृत अउ खेती-किसानी के बउरे बर दवई बनाए जाही। येखर ले किसान अउ मजदूर मन ला काम-बूता अउ ज्यादा कमाये के नफा घलो मिलही। येखर ले जैविक खेती ला बढ़ावा मिलही अउ किसान मन ला खेती-किसानी करे बर खरचा कम लगही। खेत में पैदावारी घलोक बढ़ही।
अवईया साल मा योजना ले अउ जैविक खेती ला बढ़ावा मिलही, सासन के प्रयास ले गांव अउ सहर म रोजगार बढ़त जाही। गौपालन अउ गौ-सुरक्षा ला प्रोत्साहन के संगे-संग पसुपालक मन ला आर्थिक लाभ घलोक होही। सासन के प्रयास से ऐसे लगथे कि हमर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ग्राम-स्वराज के सपना अब आत्मनिर्भर गांव के रूप मा छत्तीसगढ़ में साकार होवत दिखत हे।
सासन ह ‘‘गोधन न्याय योजना’’ लागू करके पसुपालक मन के आय म वृद्धि, पसुधन विचरण अउ खुल्ला चरई म रोक, जैविक खाद के उपयोग ला बढ़ावा अउ रासायनिक खातू के उपयोग म कमी, गांव-गांव म जैविक खाद के उपलब्धता बनाये बर, स्थानीय स्व सहायता समूह ला रोजगार दे बर, भुइंया ल अउ उपजाउ बनाए बर, जहर रहित अन्न उपजाए बर अउ सुपोषण ल बढ़ाए बर जोर देवत हे।
राज्य के महत्वाकांक्षी योजना ‘‘नरवा, गरूवा, घुरूवा व बाडी’’ के माध्यम से मनरेगा अउ स्व सहायता समूह में सबे झन ला जोड़ के काम करत हे। ऐखरे सगे-संग ‘‘गोधन न्याय योजना’’ से गोठान मा बड़े संख्या मा रोजगार उपलब्ध कराये जात हे। कोनो मजदूर, किसान ला गांव-सहर छोड़ के जाए के जरूरत नई पड़ये। सब्बो झन ला सुघ्घर काम-बूता मिलत हे।
त बताओ संगवारी हो ये सब खुसी मिलही त हमर पहिली हरेली तिहार ला बने मनाबो ना। तिहार ला खेती-किसानी के बोअई, बियासी के बाद बने सुघ्घर मनाबो। जेमा नागर, गैंती, कुदारी, फावड़ा ला चक उज्जर करके अउ गौधन के पूजा-पाठ करके संग मा कुलदेवी-देवता ला सुमरबो। धान के कटोरा छत्तीसगढ़ महतारी ला, हमर खेती-किसानी के उन्नति अउ विकास बर सुमरबो।
तिहार में गांव मा घरो-घर गुड़-चीला, फरा के संग गुलगुला भजिया, ठेठरी-खुरमी, करी लाडू, पपची, चौसेला, अउ बोबरा घलो बनही। जेखर ले हरेली तिहार के खुसी अउ बढ़ जाही। ये साल हरेली अमावस्या गुरूवार के पड़त हे। सब किसान भाई मन अपन किसानी औजार के पूजा-पाठ कर गाय-बैला ला दवई खवाही, ताकि वो हा सालभर स्वस्थ अउ सुघ्घर रहाय। ये दिन गाय-गरवा मन ला बीमारी ले बचाय बर बगरंडा, नमक खवाही अउ आटा मा दसमूल-बागगोंदली ला मिलाके घलो खवाये जाथे। ये दिन शहर के रहईयां मन घलो अपन-अपन गांव जाके तिहार ला मनाथे।
हरेली तिहार मा लोहार अउ राऊत मन घरो-घर दुआरी मा नीम के डारा अउ चौखट में खीला ठोंकही। ऐसे केहे जाथे कि अइसे करे ले घर के रहैय्या मन के संकट ले रक्षा होथे। ये दिन लईका मन बांस ले गेड़ी बनाथे। गेड़ी मा चढ़के लईका मन रंग-रंग के करतब घलो दिखाते। राज्य सासन हा गांव-गांव अउ स्कूल मा विसेस आयोजन करत हे, जेमा गांव मा लईका मन बर गेड़ी दउड़, खो-खो, कबड्डी, फुगड़ी, नरियल फेक अउ नाचा के आयोजन घलो करे जाथे। ये प्रयास के उद्देश्य हे कि प्रदेस के लईका मन ला हमर लोक संस्कृति, परम्परा ला जानये, समझये, जुड़ये अउ सहेज के राखये राहेय।
छत्तीसगढ़िया मन ल हरेली तिहार के गाड़ा-गाड़ा बधई, जय छत्तीसगढ़ महतारी। -
हरेली तिहार छत्तीसगढ़ का सबसे पहला त्यौहार है, जो लोगों को छत्तीसगढ़ की संस्कृति और आस्था से परिचित कराता है। हरेली का मतलब हरियाली होता है, जो हर वर्ष सावन महीने के अमावस्या में मनाया जाता है। हरेली मुख्यतः खेती-किसानी से जुड़ा पर्व है। इस त्यौहार के पहले तक किसान अपनी फसलों की बोआई या रोपाई कर लेते हैं और इस दिन कृषि संबंधी सभी यंत्रों नागर, गैंती, कुदाली, फावड़ा समेत कृषि के काम आने वाले सभी तरह के औजारों की साफ-सफाई कर उन्हें एक स्थान पर रखकर उसकी पूजा-अर्चना करते हैं। घर में महिलाएं तरह-तरह के छत्तीसगढ़ी व्यंजन खासकर गुड़ का चीला बनाती हैं। हरेली में जहाँ किसान कृषि उपकरणों की पूजा कर पकवानों का आनंद लेते हैं, आपस में नारियल फेंक प्रतियोगिता करते हैं, वहीं युवा और बच्चे गेड़ी चढ़ने का मजा लेते हैं।
छत्तीसगढ़ की संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए शासन द्वारा बीते साढ़े तीन वर्षों के दौरान उठाए गए महत्वपूर्ण कदमों के क्रम में स्थानीय तीज-त्यौहारों पर भी अब सार्वजनिक अवकाश दिए जाते हैं। इनमें हरेली तिहार भी शामिल है। जिन अन्य लोक पर्वों पर सार्वजनिक अवकाश दिए जाते है - तीजा, मां कर्मा जयंती, मां शाकंभरी जयंती (छेरछेरा), विश्व आदिवासी दिवस और छठ। अब राज्य में इन तीज-त्यौहारों को व्यापक स्तर पर मनाया जाता है, जिसमें शासन भी भागीदारी बनता है। इन पर्वों के दौरान महत्वपूर्ण शासकीय आयोजन होते है तथा महत्वपूर्ण शासकीय घोषणाएं भी की जाती है। वर्ष 2020 में हरेली पर्व के ही दिन मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने गोधन न्याय योजना की शुरूआत की थी जो केवल 02 वर्षों में अपनी सफलता को लेकर अन्य राज्यों के लिए नजीर बन गई है। इस योजना का देश के अनेक राज्यों द्वारा अनुसरण किया जा रहा है। आगामी हरेली तिहार 28 जुलाई से इस योजना में और विस्तार करते हुए अब गोबर के साथ-साथ गोमूत्र खरीदी करने की भी निर्णय लिया गया है।
हरेली के दिन गांव में पशुपालन कार्य से जुड़े यादव समाज के लोग सुबह से ही सभी घरों में जाकर गाय, बैल और भैंसों को नमक और बगरंडा का पत्ता खिलाते हैं। हरेली के दिन गांव-गांव में लोहारों की पूछपरख बढ़ जाती है। इस दिन गांव के लोहार हर घर के मुख्य द्वार पर नीम की पत्ती लगाकर और चौखट में कील ठोंककर आशीष देते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से उस घर में रहने वालों की अनिष्ट से रक्षा होती है। इसके बदले में किसान उन्हे दान स्वरूप स्वेच्छा से दाल, चावल, सब्जी और नगद राशि देते हैं। ग्रामीणों द्वारा घर के बाहर गोबर से बने चित्र बनाते हैं, जिससे वह उनकी रक्षा करे।
हरेली से तीजा तक होता है गेड़ी दौड़ का आयोजन
हरेली त्यौहार के दिन गांव के प्रत्येक घरों में गेड़ी का निर्माण किया जाता है, मुख्य रूप से यह पुरुषों का खेल है घर में जितने युवा एवं बच्चे होते हैं उतनी ही गेड़ी बनाई जाती है। गेड़ी दौड़ का प्रारंभ हरेली से होकर भादो में तीजा पोला के समय जिस दिन बासी खाने का कार्यक्रम होता है उस दिन तक होता है। बच्चे तालाब जाते हैं स्नान करते समय गेड़ी को तालाब में छोड़ आते हैं, फिर वर्षभर गेड़ी पर नहीं चढ़ते हरेली की प्रतीक्षा करते हैं। गेड़ी के पीछे एक महत्वपूर्ण पक्ष है जिसका प्रचलन वर्षा ऋतु में होता है। वर्षा के कारण गांव के अनेक जगह कीचड़ भर जाती है, इस समय गाड़ी पर बच्चे चढ़कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर आते जाते हैं उसमें कीचड़ लग जाने का भय नहीं होता। बच्चे गेड़ी के सहारे कहीं से भी आ जा सकते हैं। गेड़ी का संबंध कीचड़ से भी है। कीचड़ में चलने पर किशोरों और युवाओं को गेड़ी का विशेष आनंद आता है। रास्ते में जितना अधिक कीचड़ होगा गेड़ी का उतना ही अधिक आनंद आता है। वर्तमान में गांव में काफी सुधार हुआ है गली और रास्तों पर काम हुआ है। अब ना कीचड़ होती है ना गलियों में दलदल। फिर भी गेड़ी छत्तीसगढ़ में अपना महत्व आज भी रखती है। गेड़ी में बच्चे जब एक साथ चलते हैं तो उनमें आगे को जाने की इच्छा जागृत होती है और यही स्पर्धा बन जाती है। बच्चों की ऊंचाई के अनुसार दो बांस में बराबर दूरी पर कील लगाते हैं और बांस के टुकड़े को बीच में फाड़कर दो भाग कर लेते हैं, फिर एक सिरे को रस्सी से बांधकर पुनः जोड़ देते हैं इसे पउवा कहा जाता है। पउवा के खुले हुए भाग को बांस में कील के ऊपर फंसाते हैं पउवा के ठीक नीचे बांस से सटाकर 4-5 इंच लंबी लकड़ी को रस्सी से इस प्रकार बांधते है जिससे वह नीचे ना जा सके लकड़ी को घोड़ी के नाम से भी जाना जाता है। गेड़ी में चलते समय जोरदार ध्वनि निकालने के लिए पैर पर दबाव डालते हैं जिसे मच कर चलना कहा जाता है।
नारियल फेंक प्रतियोगिता
नारियल फेंक बड़ों का खेल है इसमें बच्चे भाग नहीं लेते। प्रतियोगिता संयोजक नारियल की व्यवस्था करते हैं, एक नारियल खराब हो जाता है तो तत्काल ही दूसरे नारियल को खेल में सम्मिलित किया जाता है। खेल प्रारंभ होने से पूर्व दूरी निश्चित की जाती है, फिर शर्त रखी जाती है कि नारियल को कितने बार फेंक कर उक्त दूरी को पार किया जाएगा। प्रतिभागी शर्त स्वीकारते हैं, जितनी बात निश्चित किया गया है उतने बार में नारियल दूरी पार कर लेता है तो वह नारियल उसी का हो जाता है। यदि नारियल फेंकने में असफल हो जाता है तो उसे एक नारियल खरीद कर देना पड़ता है। नारियल फेंकना कठिन काम है इसके लिए अभ्यास जरूरी है। पर्व से संबंधित खेल होने के कारण बिना किसी तैयारी के लोग भाग लेते है।
बस्तर क्षेत्र में हरियाली अमावस्या पर मनाया जाता है अमुस त्यौहार
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में ग्रामीणों द्वारा हरियाली अमावस्या पर अपने खेतों में औषधीय जड़ी-बूटियों के साथ तेंदू पेड़ की पतली छड़ी गाड़ कर अमुस त्यौहार मनाया जाता है। इस छड़ी के ऊपरी सिरे पर शतावर, रसना जड़ी, केऊ कंद को भेलवां के पत्तों में बांध दिया जाता है। खेतों में इस छड़ी को गाड़ने के पीछे ग्रामीणों की मान्यता यह है कि इससे कीट और अन्य व्याधियों के प्रकोप से फसल की रक्षा होती है। इस मौके पर मवेशियों को जड़ी बूटियां भी खिलाई जाती है। इसके लिए किसानों द्वारा एक दिन पहले से ही तैयारी कर ली जाती है। जंगल से खोदकर लाई गई जड़ी बूटियों में रसना, केऊ कंद, शतावर की पत्तियां और अन्य वनस्पतियां शामिल रहती है, पत्तों में लपेटकर मवेशियों को खिलाया जाता है। ग्रामीणों का मानना है कि इससे कृषि कार्य के दौरान लगे चोट-मोच से निजात मिल जाती है। इसी दिन रोग बोहरानी की रस्म भी होती है, जिसमें ग्रामीण इस्तेमाल के बाद टूटे-फूटे बांस के सूप-टोकरी-झाड़ू व अन्य चीजों को ग्राम की सरहद के बाहर पेड़ पर लटका देते हैं। दक्षिण बस्तर में यह त्यौहार सभी गांवों में सिर्फ हरियाली अमावस्या को ही नहीं, बल्कि इसके बाद गांवों में अगले एक पखवाड़े के भीतर कोई दिन नियत कर मनाया जाता है। -
छत्तीसगढ़ में जैविक खेती और आर्थिक सशक्तिकरण का नया अध्याय
छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जन-जीवन में रचा-बसा खेती-किसानी से जुड़ा पहला त्यौहार है, हरेली। सावन मास की अमावस्या को मनाया जाने वाला यह त्यौहार वास्तव में प्रकृति के प्रति प्रेम और समर्पण का लोकपर्व है। हरेली के दिन किसान अच्छी फसल की कामना के साथ धरती माता का सभी प्राणियों केे भरण-पोषण के लिए आभार व्यक्त करते हैं। सभी लोग बारिश के आगमन के साथ चारो ओर बिखरी हरियाली और नई फसल का उत्साह से स्वागत करते हैं।
हरेली पर्व को छोटे से बड़े तक सभी उत्साह और उमंग से मनाते हैैं। गांवों में हरेली के दिन नागर, गैती, कुदाली, फावड़ा समेत खेती-किसानी से जुड़े सभी औजारों, खेतों और गोधन की पूजा की जाती है। सभी घरों में चीला, गुलगुल भजिया का प्रसाद बनाया जाता है। पूजा-अर्चना के बाद गांव के चौक-चौराहों में लोगों को जुटना शुरू हो जाता है। यहां गेड़ी दौड़, नारियल फेक, मटकी फोड़, रस्साकशी जैसी प्रतियोगिताएं देर तक चलती रहती हैं। लोग पारंपरिक तरीके से गेड़ी चढ़कर खुशियां मनाते हैं। माना जाता है कि बरसात के दिनों में पानी और कीचड़ से बचने के लिए गेड़ी चढ़ने का प्रचलन रहा है, जो समय के साथ परम्परा में परिवर्तित हो गया। इस अवसर पर किया जाने वाला गेड़ी लोक नृत्य भी छत्तीसगढ़ की पुरातन संस्कृति का अहम हिस्सा रहा है। हरेली में लोहारों द्वारा घर के मुख्य दरवाजे पर कील ठोककर और नीम की पत्तियां लगाने का रिवाज है। मान्यता है कि इससे घर-परिवार अनिष्ट से बचे रहते हैं।
गढ़बो नवा छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की पहल पर माटी से जुड़ी अपनी गौरवशाली संस्कृति और परम्परा को सहेजने और आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने की पहल की गई है। छत्तीसगढ़ सरकार ने मुख्यमंत्री निवास सहित पूरे राज्य में लोकपर्वों के धूम-धाम से सार्वजनिक आयोजन कर इसकी शुरूआत की है। इससे नई पीढ़ी के युवा भी अपनी पुरातन परम्पराओं से जुड़ने लगे हैं। सरकार ने हरेली त्यौहार के दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया है। इस साल से प्रदेश के स्कूलों में हरेली तिहार को विशेष रूप से मनाने की शुरूआत की जा रही है। इससे बच्चे न सिर्फ अपनी कृषि संस्कृति को समझेंगे, उसका सक्रिय हिस्सा बनेंगे बल्कि अपनी संस्कृति के मूल भाव को आत्मसात भी कर सकेंगे। साथ ही स्कूलों में गेड़ी दौड़, वृक्षारोपण, पर्यावरण संरक्षण पर संगोष्ठी जैसे आयोजनों से बच्चों में अपनी संस्कृति और प्रकृति के प्रति प्रेम विकसित होगा।
छत्तीसगढ़ में पारंपरिक लोक मूल्यों को सहेजते हुए गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ की परिकल्पना को साकार रूप दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में पारंपरिक संसाधनों के उपयोग से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने का काम किया जा रहा है। इसके चलते राज्य सरकार ने दो साल पहले सन् 2020 में हरेली के दिन ‘गो-धन न्याय योजना‘ शुरू की थी। शुरूआत में किसी ने कल्पना नहीं की थी, कि गोबर खरीदी की यह योजना गांवों की अर्थव्यवस्था के लिए एक मजबूत आधार तैयार करेगी। आज यह ग्रामीण अंचल की बेहद लोकप्रिय योजना साबित हुई है। इस अनूठी योजना के तहत सरकार ने गोबर को ग्रामीणों की आय का नया जरिया बनाया और किसानों और पशुपालकों से दो रूपए की दर से गोबर खरीदी शुरू की। पशुपालक ग्रामीणों ने गोबर बेचकर पिछले दो सालों में 150 करोड़ रूपये से अधिक की कमाई की है। खरीदे गए गोबर से गौठानों में स्व-सहायता समूहों ने 20 लाख क्विंटल से अधिक वर्मी कम्पोस्ट तैयार किया है, जिससे प्रदेश में जैविक खेती को बढ़ावा मिल रहा है। अब तक महिला समूह और गौठान समितियां 143 करोड़ से अधिक की राशि वर्मी खाद के निर्माण और विक्रय से प्राप्त कर चुकी हैं। इसके साथ ही गौठानों में गोबर से दिए, गमले सहित विभिन्न सजावटी समान बनाने से स्थानीय महिलाओं को रोजगार का नया साधन मिला है।
गोधन न्याय योजना को विस्तार देते हुए राज्य सरकार इस साल हरेली तिहार से गौठानों में 4 रूपए प्रति लीटर की दर से गो-मूत्र की खरीदी की शुरूआत करने जा रही है। इस गो-मूत्र से महिला स्व-सहायता समूह द्वारा जीवामृत और कीट नियंत्रक उत्पाद तैयार किये जाएंगे। इससे रोजगार और आय का नया जरिया मिलने के साथ जैविक खेती को बढ़ावा मिलेगा और कृषि लागत कम होगी। गौ-मूत्र से बने कीट नियंत्रक उत्पाद का उपयोग किसान भाई रासायनिक कीटनाशक के बदले कर सकेंगे, जिससे खाद्यान्न की विषाक्तता में कमी आएगी और महंगे रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता कम होगी। इन नवाचारों ने हरेली को प्रदेश में जैविक खेती और आर्थिक सशक्तिकरण के नए अध्यायों का प्रतीक बना दिया है। इससे लगता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ग्राम-स्वराज का सपना अब आत्मनिर्भर गांवों के रूप में छत्तीसगढ़ में साकार हो रहा है। छत्तीसगढ़ में परंपराओं को सहेजते हुए उसे आधुनिक जरूरतों के अनुसार ढालने की जो शुरूआत की गई है, उसे जरूरत है सबके सहयोग से आगे बढ़ाने की। प्रकृति से जुड़कर पर्यावरण अनुकूल विकास की दिशा में आगे बढ़ने का हमारा यह कदम बेहतर कल के लिए सर्वोत्तम योगदान होगा। - लंदन। असहनीय गर्मी के कारण कई भारतीय और पाकिस्तानियों के लिए, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, बाहर काम करने के लिए उपलब्ध मूल्यवान घंटे कम हो जाते हैं। लैंसेट द्वारा प्रकाशित शोध के अनुसार, अत्यधिक तापमान और आद्र्रता के कारण 2018 में 150 अरब से अधिक कार्य घंटों का नुकसान हुआ। इस प्रवृत्ति के वैश्विक परिणाम होंगे।यूसीएल में अर्थ सिस्टम साइंस के प्रोफेसर मार्क मास्लिन कहते हैं, ''दुनिया का आधा भोजन छोटे किसानों के खेतों में उगता है, जहां किसान कड़ी मेहनत करके फसल तैयार करते हैं। जैसे-जैसे दुनिया गर्म होगी, ऐसे दिन ज्यादा होते जाएंगे, जब बाहर काम करना शारीरिक रूप से असंभव होगा, जो उत्पादकता और खाद्य सुरक्षा को कम करेगा।'' शहरों में, जहां वैश्विक आबादी का एक बड़ा हिस्सा रहता है, अत्यधिक गर्मी के दौरान सड़कों को और अधिक आरामदायक बनाने के अवसर हैं। इनमें सबसे लोकप्रिय में से एक, शहरी हरियाली को बढ़ाना है, जिससे आवास की तलाश में भटकते वन्य जीवों को भी काफी फायदा होगा। या कंक्रीट के फैलाव के बीच पेड़ों और अन्य वनस्पतियों के लिए अधिक जगह बनाई जाए।कार्डिफ यूनिवर्सिटी के मार्क ओ. कथबर्ट के नेतृत्व में फरवरी में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि विस्तारित पार्कलैंड के बीच हरियाली लगाने के साथ छतों और दीवारों को हरा भरा करने से या तो बाढ़ को कम किया जा सकता है या गर्मी को कम किया जा सकता है, लेकिन यह दोनों एक शहर में नहीं हो सकता। कथबर्ट और उनके सह-लेखकों, ऑस्ट्रेलिया में यूएनएसडब्ल्यू सिडनी के डेनिस ओ'कारोल और जर्मनी में कार्लज़ूए इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के गेब्रियल सी राउ के अनुसार, शहरों के गर्म मौसम में गर्म होने और भारी वर्षा के दौरान बाढ़ का कारण एक ही है। कंक्रीट और स्टील की प्रचुरता गर्मी को अवशोषित और बरकरार रखती है, जबकि वही सीलबंद सतहें ''एक स्पंज की तरह काम नहीं कर सकती हैं कि बारिश को सोख लें और स्टोर कर लें, जैसे मिट्टी करती है, जिसकी जगह इन्होंने ले ली है''। शोधकर्ताओं का तर्क है कि उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में हरियाली वाले शहर - जैसे कि उत्तरी यूरोप और भूमध्य रेखा के आसपास - मजबूत हीटवेव को कमजोर कर सकते हैं क्योंकि पौधे प्रकाश संश्लेषण के दौरान जल वाष्प छोड़ते हैं, जिसका शीतलन प्रभाव होता है। शोध दल को उम्मीद है कि शहरी हरियाली के लाभ सूखे क्षेत्रों में कम होंगे जहां धूप से भरपूर ऊर्जा होती है, लेकिन भारत और पाकिस्तान के शहरों की तरह वर्षा अधिक सीमित होती है। लेकिन इन स्थानों में हरे भरे स्थानों का विस्तार करना अभी भी सार्थक है, क्योंकि यह वह जगह है जहाँ मिट्टी द्वारा जल प्रतिधारण की सबसे बड़ी संभावना है, जो बाढ़ को रोकने में मदद कर सकती है। नवंबर 2021 में संयुक्त राष्ट्र के सबसे हालिया जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन सीओपी26 के दौरान प्रकाशित एक रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि अफ्रीका दुनिया के अन्य क्षेत्रों की तुलना में तेजी से गर्म हो रहा है।केन्या में आगा खान विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर अब्दु मोहिद्दीन का कहना है कि 2030 तक 11 करोड़ 80 लाख अत्यधिक गरीब लोग सूखे और भीषण गर्मी के विनाशकारी प्रभावों की गिरफ्त में होंगे। मोहिद्दीन का कहना है कि गर्म वातावरण के अनुकूल होने के लिए महाद्वीप को तत्काल वित्तीय और तकनीकी सहायता की आवश्यकता है, साथ ही यह आकलन करने के लिए अनुसंधान निधि की आवश्यकता है कि कौन और कहाँ सबसे कमजोर है। इन क्षेत्रों और अन्य क्षेत्रों में, पारंपरिक वास्तुकला से प्राप्त डिजाइन और निर्माण तकनीकें राहत के कुछ सबसे सस्ते और सबसे टिकाऊ रूपों की पेशकश कर सकती हैं। नॉटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी में इंटेलिजेंट इंजीनियरिंग सिस्टम के प्रोफेसर अमीन अल-हबेबेह ने उन तरीकों का अध्ययन किया है, जिन्होंने फारस की खाड़ी में सदियों से लोगों को ठंडा रखने में मदद की है (गर्मी बढ़ाने का एक और हॉटस्पॉट)। यहां, चूना पत्थर और अन्य प्राकृतिक सामग्रियों से बने घर नमी होने पर नमी को अवशोषित करते हैं और गर्म और धूप वाले दिनों में वाष्पीकरण के माध्यम से इसे छोड़ते हैं। अल-हबैबेह कहते हैं, यह थोड़ा ठंडा प्रभाव प्रदान करता है। इमारतों की रेतीली बनावट और रंग भी बहुत सारे सौर विकिरण को दर्शाता है। उनके अनुसार संकरी सड़कें और गलियां छाया को अधिकतम करती हैं, जबकि कांच दुर्लभ हैं और हवा के प्रवाह को बनाए रखने के लिए खिड़कियां छोटी हैं लेकिन सूर्य की गर्मी को दूर रखती हैं। अंदर की तरफ का प्रांगण दोपहर के समय (जब सूरज अपने चरम पर होता है) गर्म हवा को ऊपर की ओर फऩल करता है और इसे आसपास के कमरों से ठंडी हवा से बदल देता है। टॉम मैथ्यूज और कॉलिन रेमंड, किंग्स कॉलेज लंदन और कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के जलवायु वैज्ञानिक कहते हैं। ''मौसम की सीमा, जिसका पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य सामना कर सकते हैं ग्रह के गर्म होने के साथ बदल रही है,'' वे चेतावनी देते हैं। ''सभ्यता के लिए पूरी तरह से नई स्थितियां आने वाले दशकों में उभर सकती हैं।'' इसका मतलब है कि गर्मी उस चरम सीमा को पार कर जाएगी, जिसमें मनुष्य जीवित रह सकता है। 2021 के एक अध्ययन में बताया गया है कि 1991 के बाद से अत्यधिक गर्मी के कारण होने वाली तीन मौतों में से एक को जलवायु परिवर्तन से जोड़ा जा सकता है। यदि आप अपने आप को प्रचंड गर्मी में पाते हैं, तो क्लो ब्रिमिकोम्बे, पीएचडी उम्मीदवार, जो कि यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग में जलवायु परिवर्तन और मानव स्वास्थ्य के लिए इसके परिणामों का अध्ययन कर रही हैं, आपको सुरक्षित रहने के लिए कुछ सलाह दे रही हैं: ''शांत रहें। अगर घर के अंदर है, अपने पैरों को ठंडे पानी से धोते रहें या शॉवर लें ... जिस तरफ धूप न हो उस तरफ के पर्दे बंद कर दें और खिड़कियां खोल दें,"। अन्य उपाय जो पूरे भवन में हवा का प्रवाह बनाए रखते हैं, उनमें दरवाजे खोलना और पंखे चालू करना शामिल हैं। ब्रिमिकोम्बे इस बात पर जोर देती हैं कि हाइड्रेटेड रहना बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि हीटवेव के दौरान पसीने के कारण बहुत सा पानी आपके शरीर से निकल जाता है। वह कहती हैं, ''आप बार बार पानी पीते रहें, सामान्य तौर पर जितना पीते हैं, उससे ज्यादा, तब भी जब आपको प्यास न लगे,'' वह कहती हैं। और उन लोगों पर ध्यान देते रहें, जिन्हें अतिरिक्त सहायता की आवश्यकता हो सकती है। "65 वर्ष से अधिक आयु के लोग, गर्भवती महिलाओं, पांच साल से कम उम्र के बच्चों और बीमार लोगों का विशेष ख्याल रखें। ये सभी समूह गर्मी के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। आपको दोपहर 12 बजे से दोपहर 3 बजे के बीच सीधी धूप में रहने से भी बचना चाहिए, जब सूर्य अपने सबसे प्रचंड रूप में होता है।
-
--1 मई - श्रमिक दिवस पर विशेष (बोरे-बासी दिवस)
छत्तीसगढ़ में एक प्रसिद्ध कहावत है - ‘बासी के नून नइ हटय’, इसका कहावत का हिन्दी भावार्थ है कि, बासी में मिला हुआ नमक नहीं निकल सकता। इस कहावत का उपयोग सम्मान के परिपेक्ष्य में किया जाता है। सवाल उठ सकता है कि आखिर यहां बात ‘बासी’ की क्यों हो रही है, तो बात जब किसी प्रदेश की होती है तो साथ में बात वहां के खान-पान की भी होती है। छत्तीसगढ़ में खान-पान के साथ जीवनशैली का एक अहम हिस्सा है ‘बासी’। शायद इसलिए भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों में छत्तीसगढ़ी परिवेश को दिखाने के लिए फिल्म के पात्रों को ‘बासी’ खाते दिखाया जाता है।
छत्तीसगढ़ियों के जीवन में ‘बासी’ इतना घुला-मिला है कि समय बताने के लिए भी सांकेतिक रूप से इसका उपयोग किया जाता है। जब सुबह कहीं जाने की बात होती है तो बासी खाकर निकलने का जवाब मिलता है, इससे पता चल जाता है कि व्यक्ति सुबह 8 बजे के बाद घर से निकलेगा। वहीं दोपहर के वक्त बासी खाने के समय की बात हो तो मान लिया जाता है कि लगभग 1 बजे का समय है। ‘बासी खाय के बेरा’, से पता चल जाता है कि यह लंच का समय है। छत्तीसगढ़ में बासी को मुख्य आहार माना गया है। बासी का सेवन समाज के हर तबके के लोग करते हैं। रात के बचे भात को पानी में डूबाकर रख देना और उसे नाश्ता के तौर पर या दोपहर के खाने के समय इसका सेवन आसानी से किया जा सकता है। इसलिए इसे सुलभ व्यंजन भी माना गया है। विशेषकर गर्मी के मौसम में बोरे और बासी को बहुतायत लोग खाना पसंद करते हैं।
बोरे और बासी बनाने की विधि :
जहां बाकी व्यंजनों को बनाने के कई झंझट हैं, वहीं बोरे और बासी बनाने की विधि बहुत ही सरल है। न तो इसे सीखने की जरूरत है और न ही विशेष तैयारी की। खास बात यह है कि बासी बनाने के लिए विशेष सामग्री की भी जरूरत नहीं है। बोरे और बासी बनाने के लिए पका हुआ चावल (भात) और सादे पानी की जरूरत है। यहां बोरे और बासी इसलिए लिखा जा रहा है मूल रूप से दोनों की प्रकृति में अंतर है।
बोरे से अर्थ, जहां तत्काल चुरे हुए भात (चावल) को पानी में डूबाकर खाना है। वहीं बासी एक पूरी रात या दिनभर भात (चावल) को पानी में डूबाकर रखा जाना होता है। कई लोग भात के पसिया (माड़) को भी भात और पानी के साथ मिलाने में इस्तेमाल करते हैं। यह पौष्टिक भी होता है और स्वादिष्ट भी। बोरे और बासी को खाने के वक्त उसमें लोग स्वादानुसार नमक का उपयोग करते हैं।
प्याज, अचार और भाजी बढ़ा देते हैं स्वाद :
बासी के साथ आमतौर पर प्याज खाने की परम्परा सी रही है। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल में प्याज को गोंदली के नाम से जाना जाता है। वहीं बोरे या बासी के साथ आम के अचार, भाजी जैसी सहायक चीजें बोरे और बासी के स्वाद को बढ़ा देते हैं। दरअसल गर्मी के दिनों में छत्तीसगढ़ में भाजी की बहुतायत होती है। इन भाजियों में प्रमुख रूप से चेंच भाजी, कांदा भाजी, पटवा भाजी, बोहार भाजी, लाखड़ी भाजी बहुतायत में उपजती है। इन भाजियों के साथ बासी का स्वाद दुगुना हो जाता है। इधर बोरे को दही में डूबाकर भी खाया जाता है। गांव-देहातों में मसूर की सब्जी के साथ बासी का सेवन करने की भी परंपरा है। कुछ लोग बोरे-बासी के साथ में बड़ी-बिजौरी भी स्वाद के लिए खाते हैं।
बोरे-बासी खाने से लाभ :
बोरे-बासी के सेवन से नुकसान तो नहीं लाभ कई हैं। इसमें पानी की भरपूर मात्रा होती है, जिसके कारण गर्मी के दिनों में शरीर को शीतलता मिलती है। पानी की ज्यादा मात्रा होने के कारण मूत्र उत्सर्जन क्रिया नियंत्रित रहती है। इससे उच्च रक्तचाप नियंत्रण करने में मदद मिलती है। बासी पाचन क्रिया को सुधारने के साथ पाचन को नियंत्रित भी रखता है। गैस या कब्ज की समस्या वाले लोगों के लिए यह रामबाण खाद्य है। बासी एक प्रकार से डाइयूरेटिक का काम करता है, अर्थ यह है कि बासी में पानी की भरपूर मात्रा होने के कारण पेशाब ज्यादा लगती है, यही कारण है कि नियमित रूप से बासी का सेवन किया जाए तो मूत्र संस्थान में होने वाली बीमारियों से बचा जा सकता है। पथरी की समस्या होने से भी बचा जा सकता है। चेहरे में ताजगी, शरीर में स्फूर्ति रहती है। बासी के साथ माड़ और पानी से मांसपेशियों को पोषण भी मिलता है। बासी खाने से मोटापा भी दूर भागता है। बासी का सेवन अनिद्रा की बीमारी से भी बचाता है। ऐसा माना जाता है कि बासी खाने से होंठ नहीं फटते हैं। मुंह में छाले की समस्या नहीं होती है।
बासी का पोषक मूल्य :
बासी में मुख्य रूप से संपूर्ण पोषक तत्वों का समावेश मिलता है। बासी में कार्बोहाइड्रेट, आयरन, पोटेशियम, कैल्शियम, विटामिन्स, मुख्य रूप से विटामिन बी-12, खनिज लवण और जल की बहुतायत होती है। ताजे बने चावल (भात) की अपेक्षा इसमें करीब 60 फीसदी कैलोरी ज्यादा होती है। बासी को संतुलित आहार कहा जा सकता है। दूसरी ओर बासी के साथ हमेशा भाजी खाया जाता है। पोषक मूल्यों के लिहाज से भाजी में लौह तत्व प्रचुर मात्रा में विद्यमान रहते हैं। इसके अलावा बासी के साथ दही या मही सेवन किया जाता है। दही या मही में भारी मात्रा में कैल्शियम मौजूद रहते हैं। इस तरह से सामान्य रूप से बात की जाए तो बासी किसी व्यक्ति के पेट भरने के साथ उसे संतुलित पोषक मूल्य भी प्रदान करता है। -
विशेष लेख- सौरभ शर्मा
अक्षय तृतीया के अवसर को इस बार पूरे प्रदेश में माटी पूजन दिवस के रूप में मनाया जाएगा। संस्कृति से वैज्ञानिक सोच को जोड़ने की यह मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की अद्भुत सोच है। अमूमन यह होता है कि हम वर्तमान की समस्याओं अथवा आने वाले पांच-दस साल की समस्याओं को सुलझाने की दिशा में योजनाएं बनाते हैं। भविष्य के संकट से निपटने की कोई कारगर योजना शायद ही बनाते हैं, इससे होता यह है कि तात्कालिक रूप से या अगले कुछ बरसों के लिए हमने संकट हल कर लिया लेकिन दशक भर बाद वो समस्या इतनी विकराल हो जाएगी कि किसी भी तरह से उस समय उसका निदान संभव नहीं हो सकेगा। पेयजल की बात लें, गर्मी में संकट आया तो आपने राइजिंग पाइप बढ़ा दी। पानी कुछ और फीट नीचे से ऊपर आ गया। फिर अंततः कुछ सालों बाद क्या होगा, अंततः भूमिगत जलस्रोत सूख जाएगा और ये ऐसी स्थिति होगी कि जिसका निराकरण बेहद कठिन होगा।
यह सुखद बात है कि छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ऐसी योजनाएं चला रहे हैं जो हमारी समस्या कुछ बरसों के लिए नहीं दूर करती, अपितु स्थायी रूप से दूर करती हैं। नरवा योजना को लें, लोगों की पेयजल की दिक्कत की अस्थायी तैयारी तो सरकार करती ही है स्थायी रूप से संकट को दूर करने नालों के रिचार्ज पर काम किया जा रहा है। जिस तेजी से नरवा योजना पर काम हो रहा है आगामी कुछ सालों में प्रदेश में भूमिगत जल का स्तर तेजी से बढ़ेगा, सिंचाई का संकट भी दूर हो सकेगा।
भविष्य की एक दूसरी भयावह समस्या मिट्टी को लेकर दिखती है। जिस तरह पंजाब और हरियाणा में रासायनिक खाद का अतिशय प्रयोग हुआ और भूमि की ऊर्वरा शक्ति बुरी तरह प्रभावित हुई, उसी तरह की आशंका अन्य प्रदेशों के लिए है जहां धीरे-धीरे रासायनिक खाद का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। रासायनिक खाद उसी तरह हैं जिस तरह से हम शरीर में बाहरी सप्लीमेंट्स विटामिन या प्रोटीन आदि लेते हैं। कोई भी डाक्टर यह नहीं कहेगा कि आप सीधे सप्लीमेंट्स ले लें, वो इसे अत्याधिक जरूरत पड़ने पर ही लेने कहेगा, सामान्य स्थितियों में वो कहेंगे कि आप नैचुरल सप्लीमेंट भोजन में बढ़ाएं। इसी तरह की बात साइल हेल्थ के लिए भी है। रासायनिक खाद आर्टिफिशियल सप्लीमेंट्स की तरह हैं वे फसल की वृद्धि जरूर करेंगे लेकिन भूमि की अपनी प्रतिरोधक क्षमता की कीमत पर। इससे होता यह है कि कीटों का हमला फसल पर बढ़ जाता है और कीटनाशकों का खर्च बढ़ जाता है। कीटनाशक का प्रभाव पुनः मिट्टी पर नकारात्मक होता है इस प्रकार एक दुष्चक्र जो मिट्टी को झेलना पड़ता है। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि रासायनिक खाद से उत्पादन तो अधिक होता है लेकिन पोषक तत्व काफी कम होते हैं। उदाहरण के लिए सौ साल पहले एक संतरा किसी पौधे में उगा, उसकी तुलना आज के किसी पौधे में उगे संतरे से करें तो पाएंगे कि इसमें पोषक तत्व लगभग 10 प्रतिशत ही रह गये हैं। इस प्रकार हमने 10 संतरे का उत्पादन जरूर कर लिया लेकिन इसका पोषक मूल्य पहले के एक संतरे के बराबर ही है।
केवल खतरा मिट्टी का नहीं है। मिट्टी से रिसते पानी से भी है। भूमिगत जल प्रदूषित हो रहा है। यदि मिट्टी में कार्बनिक तत्व पर्याप्त मात्रा में हों तो मिट्टी पानी का अवशोषण भी अधिक करती है और भूमिगत जल रिचार्ज होता जाता है। यही नहीं, मिट्टी का संरक्षण नहीं करते हैं तो ग्लोबल वार्मिंग का भी बड़ा खतरा है। मिट्टी में कार्बन जीवित पौधों की तुलना में तीन गुना और वातावरण में मौजूद कार्बन की तुलना में दोगुना होता है। इसका मतलब साफ है कि मिट्टी से कार्बनिक तत्व समाप्त हुए तो यह वातावरण में पहुंचेगी, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाएगी और दुनिया का संकट अभूतपूर्व स्तरों तक पहुंचता रहेगा।
ऐसी गंभीर परिस्थितियों से निपटने बड़े बदलाव कदम दर कदम उठाये जाते हैं ताकि किसानों के आय का संतुलन प्रभावित हुए बगैर मिट्टी की ऊर्वरता सुरक्षित रखी जा सके। तेजी से जैविक खाद का निर्माण छत्तीसगढ़ में हो रहा है। किसान रासायनिक खाद के साथ उचित अनुपात में जैविक खाद का उपयोग भी कर रहे हैं। धीरे-धीरे जैविक खाद का प्रयोग बढ़ता जाएगा। लगातार जैविक खाद के उपयोग से मिट्टी पुनः अपनी ऊर्वरा शक्ति के उच्चतम स्तर पर पहुंचेगी और यह किसानों के लिए बहुत बेहतर स्थिति होगी।
अक्ती जैसे पर्व पर माटी पूजन की परंपरा जो शुरू की गई है उससे मिट्टी की सेहत से जुड़ी बारीकियों को समझाने में सफलता मिलेगी। इस पवित्र पर्व के अवसर पर शुरू किया गया यह अभियान मिट्टी की सेहत के लिए जनअभियान में शीघ्र ही बदल जाएगा। अभियान की बड़ी खूबी यह है कि केवल इसमें किसान शामिल नहीं हैं इसमें विद्यार्थी भी शामिल हैं। छत्तीसगढ़ का हर तबका इस अभियान से जुड़ेगा और तब अभियान का सार्थक संदेश जनजन तक पहुँच जाएगा।
- माता शबरी की नगरी शिवरीनारायण का बदला स्वरूपरायपुर/ पौराणिक मान्यता के अनुसार 14 वर्ष के वनवास के दौरान प्रभु राम ने लगभग 10 वर्ष का समय छत्तीसगढ़ में गुजारा था। वनवास काल में उन्होंने छत्तीसगढ़ में प्रवेश कोरिया के सीतामढ़ी हरचौका से किया था। उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए वे छत्तीसगढ़ के अनेक स्थानों से गुजरे। सुकमा का रामाराम उनका अंतिम पड़ाव था। प्रभु राम वनवास काल के दौरान लगभग 2260 किलोमीटर की यात्रा की थी। ऐसे में छत्तीसगढ़ से जुड़ी भगवान राम के वनवास काल की स्मृतियों को सहेजने तथा संस्कृति एवं पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा राम वन गमन पर्यटन परिपथ परियोजना शुरू की गई है। चंदखुरी के बाद अब शिवरीनारायण में भी विकास कार्य पूरा हो जाने से राज्य में पर्यटन तीर्थों की नयी श्रृंखला आकार ले रही है।परियोजना के अंतर्गत 75 स्थानों को चिन्हांकन किया गया है। इसके अंतर्गत प्रथम चरण में चयनित 9 पर्यटन तीर्थों का तेजी से कायाकल्प कराया जा रहा है। इस परियोजना में इन सभी पर्यटन तीर्थों की आकर्षक लैण्ड स्कैपिंग के साथ-साथ पर्यटकों के लिए सुविधाओं का विकास भी किया जा रहा है। 138 करोड़ रूपए की इस परियोजना में उत्तर छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले से लेकर दक्षिण छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले तक भगवान राम के वनवास काल से जुड़े स्थलों का संरक्षण एवं विकास किया जा रहा है। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने चंदखुरी स्थित माता कौशल्या मंदिर में वर्ष 2019 में भूमिपूजन कर राम वनगमन पर्यटन परिपथ के निर्माण की शुरूआत की थी। माता कौशल्या की जन्मभूमि चंदखुरी के बाद अब माता शबरी की नगरी शिवरीनारायण में भी विकास कार्य पूरा हो चुका है, जिसका लोकार्पण मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल 10 अप्रैल को करेंगे।छत्तीसगढ़ की संस्कृति एवं परम्परा में प्रभु श्री राम रचे-बसे है। जय सिया राम के उद्घोष के साथ यहां दिन की शुरूआत होती है। इसका मुख्य कारण है कि छत्तीसगढ़ वासियों के लिए श्री राम केवल आस्था ही नहीं है बल्कि वे जीवन की एक अवस्था और आदर्श व्यवस्था भी हैं। छत्तीसगढ़ में उनकी पूजा भांजे के रूप में होती है। रायपुर से महज 27 कि.मी. की दूरी पर स्थित चंदखुरी, आरंग को माता कौशल्या की जन्मभूमि और श्रीराम का ननिहाल माना जाता है। छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम दक्षिण कोसल है।रघुकुल शिरोमणि श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या है लेकिन छत्तीसगढ़ उनकी कर्मभूमि है। वनवास काल के दौरान अयोध्या से प्रयागराज, चित्रकूट सतना गमन करते हुए श्रीराम ने दक्षिण कोसल याने छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के भरतपुर पहुंचकर मवई नदी को पार कर दण्डकारण्य में प्रवेश किया। मवई नदी के तट पर बने प्राकृतिक गुफा मंदिर, सीतामढ़ी-हरचौका में पहुंचकर उन्होनें विश्राम किया। इस तरह रामचंद्र जी के वनवास काल का छत्तीसगढ़ में पहला पड़ाव भरतपुर के पास सीतामढ़ी-हरचौका को माना जाता है। छत्तीसगढ़ की पावन धरा में रामायण काल की अनेक घटनाएं घटित हुई हैं, जिसका प्रमाण यहां की लोक संस्कृति, लोक कला, दंत कथा और लोकोक्तियां हैं।कोरिया जिले का सीतामढ़ी रामचन्द्र जी के वनवास काल के पहले पड़ाव के नाम से भी प्रसिद्ध है। पौराणिक और ऐतिहासिक ग्रंथों में रामगिरि पर्वत का उल्लेख आता है। सरगुजा जिले का यही रामगिरि-रामगढ़ पर्वत है। यहां स्थित सीताबेंगरा-जोगीमारा गुफा की रंगशाला को विश्व की सबसे प्राचीन रंगशाला माना जाता है। मान्यता है कि वन गमन काल में रामचंद्र जी के साथ सीता जी ने यहां कुछ समय व्यतीत किया था, इसीलिए इस गुफा का नाम सीताबेंगरा पड़ा।राम वन गमन पर्यटन परिपथ के अंतर्गत प्रथम चरण में सीतामढ़ी-हरचौका (जिला कोरिया), रामगढ़ (जिला सरगुजा), शिवरीनारायण (जिला जांजगीर-चांपा), तुरतुरिया (जिला बलौदाबाजार-भाटापारा), चंदखुरी (जिला रायपुर), राजिम (जिला गरियाबंद), सप्तऋषि आश्रम सिहावा (जिला धमतरी), जगदलपुर (बस्तर) और रामाराम (जिला सुकमा) को विकसित किया जा रहा है।राम वन गमन पथ : कॉन्सेप्ट प्लान के लिए 138 करोड़ रूपए का प्रावधान -राम वन गमन कॉन्सेप्ट प्लान में प्रभु राम के छत्तीसगढ़ में वनवास काल में भ्रमण से संबंधित 75 स्थानों को धार्मिक और पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना बनायी गई है। इनमें प्रथम चरण में 9 स्थलों को चिन्हित कर वहां श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए सुविधाएं विकसित की जा रही हैं। इसके लिए 138 करोड़ रूपए की कार्ययोजना तैयार की गई है। चयनित स्थानों पर आवश्यकता अनुसार पहुंच मार्ग का उन्नयन, संकेत बोर्ड, पर्यटक सुविधा केन्द्र, इंटरप्रिटेशन सेंटर, वैदिक विलेज, पगोड़ा वेटिंग शेड, मूलभूत सुविधा, पेयजल व्यवस्था, शौचालय, सिटिंग बेंच, रेस्टोरेंट, वाटर फ्रंट डेव्हलपमेंट, विद्युतीकरण आदि कार्य कराए जाएंगे। राम वन गमन मार्ग में आने वाले स्थलों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का काम रायपुर जिले के आरंग तहसील के गांव चंदखुरी स्थित माता कौशल्या मंदिर से शुरू हुआ है।शिवरीनारायण : जहां प्रभु राम ने खाए थे शबरी के जूठे बेरछत्तीसगढ़ में जांजगीर-चांपा जिले में प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण शिवनाथ, जोंक और महानदी का त्रिवेणी संगम स्थल शिवरीनारायण है। शिवरीनारायण धार्मिक, ऐतिहासिक और पौराणिक नगरी के रूप में प्रसिद्ध है। इस विष्णुकांक्षी तीर्थ का संबंध शबरी और नारायण होने के कारण इसे शबरी नारायण या शिवरीनारायण कहा जाता है। यहां नर-नारायण और माता शबरी का मंदिर है जिसके पास एक ऐसा वट वृक्ष है, जिसके पत्ते दोने के आकार के हैं। इस स्थान की महत्ता इस बात से पता चलती है कि देश के चार प्रमुख धाम बद्रीनाथ, द्वारका, जगन्नाथपुरी और रामेश्वरम के बाद इसे पांचवे धाम की संज्ञा दी गई है। यह स्थान भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान है इसलिए छत्तीसगढ़ के जगन्नाथपुरी के रूप में प्रसिद्ध है। यहां प्रभु राम का नारायणी रूप गुप्त रूप से विराजमान है इसलिए यह गुप्त तीर्थधाम या गुप्त प्रयागराज के नाम से भी जाना जाता है।शिवरीनारायण रामायण कालीन घटनाओं से जुड़ा है। मान्यता के अनुसार वनवास काल के दौरान यहां प्रभु राम ने शबरी के जूठे बेर खाए थे। रामायण काल की स्मृतियों को संजोने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा राम वन गमन पर्यटन परिपथ के विकास के लिए कॉन्सेप्ट प्लान बनाया गया है। इस प्लान में शिवरीनारायण में मंदिर परिसर के साथ ही आस-पास के क्षेत्र के विकास और श्रद्धालुओं और पर्यटकों की सुविधाओं के लिए यहां 39 करोड़ रूपए की कार्य योजना तैयार की गई है। प्रथम चरण में 6 करोड़ रूपए के विभिन्न कार्य पूर्ण कर लिए गए हैं, इससे यहां आने वाले लोगों को नई सुविधाएं मिलेंगी।स्थापत्य कला एवं मंदिरशिवरीनारायण का मंदिर समूह दर्शनीय है। यहां की स्थापत्य कला और मूर्तिकला बेजोड़ है। यहां नर-नारायण मंदिर है, इसका निर्माण राजा शबर ने करवाया था। यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। केशवनारायण मंदिर ईंटों से बना है, यह पंचरथ विन्यास पर भूमि शैली पर निर्मित है। यहां चंद्रचूड़ महादेव मंदिर, जगन्नाथ मंदिर भी दर्शनीय है। यह पुरी के जगन्नाथ मंदिर के सदृश्य है। शिवरीनारायण शहर से लगे ग्राम खरोद में ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के अनेक मंदिर हैं इनमें मुख्य रूप से दुल्हादेव मंदिर, लक्ष्मणेश्वर मंदिर, शबरी मंदिर प्रसिद्ध है।प्रसिद्ध है यहां की रथ यात्राशिवरीनारायण शैव, वैष्णव धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा है। यह स्थान भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान होने के कारण यहां रथयात्रा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ की विग्रह मूर्तियों को यहीं से जगन्नाथपुरी ले जाया गया था। यहां पुरी की तर्ज पर रथ यात्रा का आयोजन होता है। इसमें छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य राज्यों के साधु संत और श्रद्धालु शामिल होते हैं।छत्तीसगढ़ है प्राचीन दक्षिणापथ-शोधार्थियों के अनुसार त्रेतायुगीन छत्तीसगढ़ दक्षिण कोसल एवं दण्डकारण्य के रूप में विख्यात था। दण्डकारण्य में प्रभु राम के वनगमन यात्रा की पुष्टि वाल्मीकि रामायण से होती है। शोधकर्ताओं के शोध से प्राप्त जानकारी अनुसार प्रभु श्रीराम के द्वारा उत्तर भारत से छत्तीसगढ़ में प्रवेश करने के बाद छत्तीसगढ़ में विभिन्न स्थानों का भ्रमण करने के बाद दक्षिण भारत में प्रवेश किया गया था। अतः छत्तीसगढ़ को दक्षिणापथ भी कहा जाता है।शिवरीनारायण में नई सुविधाएं-मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जांजगीर-चांपा जिले के शिवरीनारायण में राम वन गमन परिपथ के अंतर्गत विकसित की गई नई सुविधाओं और विभिन्न कार्यों का लोकार्पण करेंगे। इनमें शिवरीनारायण के मंदिर परिसर का उन्नयन एवं सौदर्यीकरण, दीप स्तंभ, रामायण इंटरप्रिटेशन सेन्टर एवं पर्यटक सूचना केन्द्र, मंदिर मार्ग पर भव्य प्रवेश द्वार, नदी घाट का विकास एवं सौंदर्यीकरण, घाट में प्रभु राम-लक्ष्मण और शबरी माता की प्रतिमा का निर्माण किया गया है। इसी प्रकार घाट में व्यू पाइंट कियोस्क, लैण्ड स्केपिंग कार्य, बाउंड्रीवाल, मॉड्यूलर शॉप, विशाल पार्किंग एरिया और सार्वजनिक शौचालय का निर्माण शामिल है।
- -घनश्याम केशरवानी, सहायक संचालकछत्तीसगढ़ में राम वन गमन पर्यटन परिपथ के अंतर्गत वनवास काल में प्रभु राम जिन स्थानों पर गए उन स्थानों को धार्मिक पर्यटन के रूप में विकसित करने की योजना बनाई गई है। इन स्थानों में सबसे पहले माता कौशल्या की जन्मभूमि चंदखुरी में स्थित कौशल्या माता के मंदिर का जीर्णाेद्धार सहित मंदिर परिसर के सौंदर्यीकरण कर इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया है। राज्य सरकार द्वारा माता शबरी की नगरी शिवरीनारायण को भी उसी तर्ज पर विकसित किया जा रहा है।मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की पहल पर राम वन गमन पर्यटन परिपथ को विकसित करने की दिशा में तेजी से काम हो रहा है। परियोजना के अंतर्गत 75 स्थानों को चिन्हांकन किया गया है। प्रथम चरण में 9 स्थानों को विकसित करने का काम शुरू किया गया है। प्रदेश के पौराणिक और पुरातात्विक विरासतों को नई पहचान एवं उन्हें भव्य बनाने की दिशा में काम हो रहा है। छत्तीसगढ़ और यहां के लोगों के लिए गर्व की बात है कि भगवान राम ने अपने वनवास काल का लंबा समय छत्तीसगढ़ में गुजारा था।राम वन गमन पर्यटन परिपथ योजना के तहत जिन स्थलों को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने के लिए चयन किया है। इनमें रायपुर जिले का चंदखुरी जांजगीर चांपा जिले के शिवरीनारायण के साथ ही कोरिया जिले का सीतामढ़ी हर चौका, सरगुजा का सप्तऋषि आश्रम, बलौदाबाजार भाटापारा का तुरतुरिया, गरियाबंद जिले का राजिम, बस्तर का जगदलपुर, सुकमा का रामाराम और सहित अन्य स्थल शामिल हैं।मान्यता के अनुसार 14 वर्ष के वनवास के दौरान प्रभु राम ने लगभग 10 वर्ष का समय छत्तीसगढ़ में गुजारा था। वनवास काल में उन्होंने छत्तीसगढ़ में प्रवेश कोरिया के सीतामढ़ी हरचौका से किया था। उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए वे छत्तीसगढ़ के अनेक स्थानों से वे गुजरे। सुकमा का रामाराम उनका अंतिम पड़ाव था। प्रभु राम वनवास काल के दौरान लगभग 2260 किलोमीटर की यात्रा की थी। जिस मार्ग को हरा-भरा बनाने का काम छत्तीसगढ़ सरकार के वन विभाग के द्वारा किया जा रहा है। इस मार्ग में हरे-भरे वृक्ष के साथ-साथ फलदार पौधों को रोपण किया जा रहा है।हर युग में शिवरीनारायण नगर का अस्तित्व रहा है, यह नगर मातंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम और माता शबरी की साधना स्थली भी रही है। यह महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी के त्रिधारा संगम के तट पर स्थित प्राचीन नगर है। शिवरीनारायण प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण नगर है, जो छत्तीसगढ़ के जगन्नाथपुरी धाम के नाम से विख्यात है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्रभु राम ने शबरी के जूठे बेर यहीं खाये थे और उन्हें मोक्ष प्रदान किया था। शबरी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए शबरी-नारायण नगर बसा है। प्रचलित किंवदंती के अनुसार प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं।शिवरीनारायण में राम वन गमन पर्यटन परिपथ के अतर्गत पर्यटन सुविधाओं के विकास के लिए 39 करोड़ रूपए के कार्य होंगे। इसके तहत प्रथम चरण में 6 करोड़ के विकास कार्य पूर्ण कराए गए हैं। इनमें शिवरीनारायण के मंदिर परिसर का उन्नयन एवं सौदर्यीकरण, दीप स्तंभ, रामायण इंटरप्रिटेशन सेन्टर एवं पर्यटक सूचना केन्द्र, मंदिर मार्ग पर भव्य प्रवेश द्वार, नदी घाट का विकास एवं सौंदर्यीकरण, घाट में प्रभु राम-लक्ष्मण और शबरी माता की प्रतिमा का निर्माण किया गया है। इसी प्रकार घाट में व्यू पाइंट कियोस्क, लैण्ड स्केपिंग कार्य, बाउंड्रीवाल, मॉड्यूलर शॉप, विशाल पार्किंग एरिया और सार्वजनिक शौचालय का निर्माण शामिल है।
-
राम वन गमन पर्यटन परिपथ: श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए तैयार है नयी सुविधाएं
छत्तीसगढ़ में महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी के संगम पर बसा शिवरीनारायण धार्मिक, ऐतिहासिक और पौराणिक नगरी के रूप में प्रसिद्ध है। इस स्थान की महत्ता इस बात से पता चलती है कि देश के चार प्रमुख धाम बद्रीनाथ, द्वारका, जगन्नाथपुरी और रामेश्वरम के बाद इसे पांचवे धाम की संज्ञा दी गई है। यह स्थान भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान है इसलिए छत्तीसगढ़ के जगन्नाथपुरी के रूप में प्रसिद्ध है। यहां प्रभु राम का नारायणी रूप गुप्त रूप से विराजमान है इसलिए यह गुप्त तीर्थधाम या गुप्त प्रयागराज के नाम से भी जाना जाता है।
शिवरीनारायण रामायण कालीन घटनाओं से जुड़ा है। मान्यता के अनुसार वनवास काल के दौरान यहां प्रभु राम ने शबरी के जूठे बेर खाए थे। रामायण काल की स्मृतियों को संजोने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा राम वन गमन पर्यटन परिपथ के विकास के लिए कॉन्सेप्ट प्लान बनाया गया है। इस प्लान में शिवरीनारायण में मंदिर परिसर के साथ ही आस-पास के क्षेत्र के विकास और श्रद्धालुओं और पर्यटकों की सुविधाओं के लिए यहां 39 करोड़ रूपए की कार्य योजना तैयार की गई है। प्रथम चरण में 6 करोड़ रूपए के विभिन्न कार्य पूर्ण कर लिए गए हैं, इससे यहां आने वाले लोगों को नई सुविधाएं मिलेंगी।
राम वन गमन पथ: कॉन्सेप्ट प्लान के लिए 133 करोड़ रूपए का प्रावधान -
राम वन गमन कॉन्सेप्ट प्लान में प्रभु राम के छत्तीसगढ़ में वनवास काल में भ्रमण से संबंधित 75 स्थानों को धार्मिक और पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना बनायी गई है। इनमें प्रथम चरण में 9 स्थल चिन्हित कर वहां श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए सुविधाएं विकसित की जा रही हैं। इसके लिए 133 करोड़ रूपए की कार्ययोजना तैयार की गई है। चयनित स्थानों पर आवश्यकता अनुसार पहुंच मार्ग का उन्नयन, संकेत बोर्ड, पर्यटक सुविधा केन्द्र, इंटरप्रिटेशन सेंटर, वैदिक विलेज, पगोड़ा वेटिंग शेड, मूलभूत सुविधा, पेयजल व्यवस्था, शौचालय, सिटिंग बेंच, रेस्टोरेंट, वाटर फ्रंट डेव्हलपमेंट, विद्युतीकरण आदि कार्य कराए जाएंगे। राम वन गमन मार्ग में आने वाले स्थलों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का काम रायपुर जिले के आरंग तहसील के गांव चंदखुरी स्थित माता कौशल्या मंदिर से शुरू हुआ है।
शिवरीनारायण में नई सुविधाएं-
मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जांजगीर-चांपा जिले के शिवरीनारायण में राम वन गमन परिपथ के अंतर्गत विकसित की गई नई सुविधाओं और विभिन्न कार्यों का लोकार्पण करेंगे। यहां प्रथम चरण में 6 करोड़ के विकास कार्य पूर्ण कराए गए हैं। इनमें शिवरीनारायण के मंदिर परिसर का उन्नयन एवं सौदर्यीकरण, दीप स्तंभ, रामायण इंटरप्रिटेशन सेन्टर एवं पर्यटक सूचना केन्द्र, मंदिर मार्ग पर भव्य प्रवेश द्वार, नदी घाट का विकास एवं सौंदर्यीकरण, घाट में प्रभु राम-लक्ष्मण और शबरी माता की प्रतिमा का निर्माण किया गया है। इसी प्रकार घाट में व्यू पाइंट कियोस्क, लैण्ड स्केपिंग कार्य, बाउंड्रीवाल, मॉड्यूलर शॉप, विशाल पार्किंग एरिया और सार्वजनिक शौचालय का निर्माण शामिल है।
स्थापत्य कला एवं मंदिर
शिवरीनारायण का मंदिर समूह दर्शनीय है। यहां की स्थापत्य कला और मूर्तिकला बेजोड़ है। यहां नर-नारायण मंदिर है, इसका निर्माण राजा शबर ने करवाया था। यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। केशवनारायण मंदिर ईंटों से बना है, यह पंचरथ विन्यास पर भूमि शैली पर निर्मित है। यहां चंद्रचूड़ महादेव मंदिर, जगन्नाथ मंदिर भी दर्शनीय है। यह पुरी के जगन्नाथ मंदिर के सदृश्य है। शिवरीनारायण शहर से लगे ग्राम खरोद में ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के अनेक मंदिर हैं इनमें मुख्य रूप से दुल्हादेव मंदिर, लक्ष्मणेश्वर मंदिर, शबरी मंदिर प्रसिद्ध है।
प्रसिद्ध है यहां की रथ यात्रा
शिवरीनारायण शैव, वैष्णव धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा है। यह स्थान भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान होने के कारण यहां रथयात्रा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ की विग्रह मूर्तियों को यहीं से जगन्नाथपुरी ले जाया गया था। यहां पुरी की तर्ज पर रथ यात्रा का आयोजन होता है। इसमें छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य राज्यों के साधु संत और श्रद्धालु शामिल होते हैं।
सबसे बड़ा मेला: साधु संत का शाही स्नान
माघी पूर्णिमा को यहां छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा 15 दिवसीय मेला लगता है। महाशिवरात्रि के दिन मेले का समापन होता है। माघी पूर्णिमा के दिन यहां साधु संत शाही स्नान करते हैं। यहां बहुत दूर-दूर से श्रद्धालु आते है ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ एक दिन के लिए शिवरीनारायण मंदिर में विराजते हैं।
प्रभु राम महानदी मार्ग से यहां पहुंचे
जनश्रुति के अनुसार प्रभु राम वनवास काल में मांड नदी से चंद्रपुर ओर फिर महानदी मार्ग से शिवरीनारायण पहुंचे थे छत्तीसगढ़ में कोरिया जिले के भरतपुर तहसील में मवाई नदी से होकर जनकपुर नामक स्थान से लगभग 26 किलोमीटर की दूर पर स्थित सीतामढ़ी-हरचौका नामक स्थान से प्रभु राम ने छत्तीसगढ़ में प्रवेश किया था। प्रभु राम ने अपने वनवास काल के 14 वर्षों में से लगभग 10 वर्ष से अधिक समय छत्तीसगढ़ में विभिन्न स्थानों पर व्यतीत किया था।
छत्तीसगढ़ है प्राचीन दक्षिणापथ-
शोधार्थियों के अनुसार त्रेतायुगीन छत्तीसगढ़ दक्षिण कोसल एवं दण्डकारण्य के रूप में विख्यात था। दण्डकारण्य में प्रभु राम के वनगमन यात्रा की पुष्टि वाल्मीकि रामायण से होती है। शोधकर्ताओं के शोध से प्राप्त जानकारी अनुसार प्रभु श्रीराम के द्वारा उत्तर भारत से छत्तीसगढ़ में प्रवेश करने के बाद छत्तीसगढ़ में विभिन्न स्थानों का भ्रमण करने के बाद दक्षिण भारत में प्रवेश किया गया था। अतः छत्तीसगढ़ को दक्षिणापथ भी कहा जाता है। -
‘हमारा ग्रह हमारा स्वास्थ्य’ की थीम पर मनाया जा रहा है इस बार का विश्व स्वास्थ्य दिवस
लोगों तक सस्ती और सुलभ चिकित्सा सेवाएं पहुंचाने राज्य शासन ने शुरू की हैं कई योजनाएं
संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्थापना दिवस पर 7 अप्रैल को पूरी दुनिया में विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को की गई थी। वर्ष 1950 में 7 अप्रैल को पहली बार विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाया गया था। तब से हर साल दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच के महत्व को रेखांकित करने यह दिवस मनाया जाता है।
छत्तीसगढ़ में भी यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज और स्वास्थ्य सेवाओं के सुदृढ़ीकरण के लिए बुनियादी अधोसंरचना को मजबूत करने के साथ ही मानव संसाधन को तेजी से बढ़ाया जा रहा है। विभिन्न योजनाओं के माध्यम से लोगों को उनके घर के नजदीक ही निःशुल्क या सस्ती चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं। डॉ. खूबचंद बघेल स्वास्थ्य सहायता योजना के दायरे में प्रदेश के करीब 68 लाख परिवारों को लाया गया है। इसके तहत शासकीय और अनुबंधित निजी अस्पतालों में बीपीएल के लगभग 58 लाख परिवारों को सालाना पांच लाख रूपए तक एवं दस लाख से अधिक एपीएल परिवारों को 50 हजार रूपए तक के निःशुल्क इलाज की सुविधा दी जा रही है।
मुख्यमंत्री विशेष स्वास्थ्य सहायता योजना के तहत जटिल एवं गंभीर रोगों के इलाज के लिए 20 लाख रूपए तक की आर्थिक सहायता भी जरूरतमंद मरीजों को उपलब्ध कराई जा रही है। मुख्यमंत्री हाट-बाजार क्लिनिक योजना के माध्यम से गांवों और दूरस्थ अंचलों में जांच व उपचार के साथ ही मरीजों को निःशुल्क दवाईयां भी प्रदान की जा रही हैं। शहरी क्षेत्रों में मुख्यमंत्री स्लम स्वास्थ्य योजना, दाई-दीदी क्लिनिकों और जन औषधि केंद्रों के माध्यम से स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार किया गया है। हर इंसान का स्वास्थ्य अच्छा हो और बीमार होने पर हर व्यक्ति को अच्छी चिकित्सा की अच्छी सुविधा मिल सके, इसके लिए लगातार पहल की जा रही है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन हर साल विश्व स्वास्थ्य दिवस के लिए एक नई थीम जारी करता है। इस बार का विश्व स्वास्थ्य दिवस ‘हमारा ग्रह हमारा स्वास्थ्य (Our Planet Our Health)’ की थीम पर मनाया जा रहा है। हमारे ग्रह और उस पर रहने वाले मनुष्यों की अच्छी सेहत के प्रति पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित करना इस थीम का मकसद है। संपूर्ण विश्व इस समय कोरोना वायरस के संक्रमण, जलवायु संकट, ग्लोबल वार्मिंग, प्रदूषण और कई खतरनाक बीमारियों से जूझ रहा है। ऐसे में अपनी और अपने ग्रह की सेहत के प्रति जागरूक होना बहुत जरूरी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होना ही मानव स्वास्थ्य की परिभाषा है।
विश्व स्वास्थ्य दिवस का उद्देश्य वैश्विषक स्तार पर सेहत के प्रति जागरूकता फैलाना और सभी के लिए स्वा स्य्थ् सेवाएं मुहैया कराना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का लक्ष्य एक ऐसी दुनिया का निर्माण है जहां स्वा स्य्थ् सेवाओं तक सभी की पहुंच हो, इलाज के लिए किसी को कर्ज न लेना पड़े और न ही इसके लिए जीवन की किसी और अन्य जरूरत से समझौता करना पड़े। वर्तमान में दुनिया को बुरी तरह से प्रभावित करने वाले कोविड-19 के साथ ही पोलियो, टीबी, एड्स, कुष्ठ रोग, उच्च रक्तचाप, नेत्रहीनता, दिल की बीमारी, मलेरिया जैसी बीमारियों की रोकथाम, इनके इलाज की समुचित व्यवस्था और इनके बारे में जन-जागरूकता फैलाना भी विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व स्वास्थ्य दिवस के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल हैं। सेहत से जुड़े मुद्दों और समस्याओं के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के नेतृत्वग में हर साल दुनिया भर में कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
(कमलेश साहू) - अभिनेत्री नूतन किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। उन्होंने एक से बढ़कर एक हिट फिल्में दी । एक अच्छी एक्ट्रेस के रूप में वे हमेशा जानी जाती रही । नूतन ने अपने फि़ल्मी जीवन की शुरुआत 1950 में की थी जब वह स्कूल में ही पढ़ती थीं। वे पहली मिस इंडिया रहीं। सबसे ज्यादा फिल्मफेयर अवॉर्ड जीतने का रिकॉर्ड भी लंबे समय तक उनके नाम रहा। सन् 1974 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।नूतन की पुरकशिश आवाज के तो लोग प्रसंशक थे ही, मगर बहुत कम लोगों को मालूम है कि नूतन एक प्रशिक्षित गायिका भी थी और उन्होंने कई गाने भी गाए हैं। उनका एक गाना हेमंत कुमार के साथ है- लहरों पे लहर, उलफत है जवां। यह फिल्म छबीली का गाना है, जो 1960 में बनी थी। इसका निर्माण नूतन की मां शोभना समर्थ ने ही किया था। इसमें उन्होंने अपनी दोनों बेटियों नूतन और तनुजा को लिया था। दोनों बहनों की साथ में यह पहली और आखिरी फिल्म थी। अभिनय को महत्व देने के कारण वो संगीतकारों की कोशिशों के बावजूद ज्यादा नहीं गा सकीं। उन्होंने हमारी बेटी , छबीली और मयूरी जैसी फिल्मों मे गीत गाए। उन्होंने कुछ भजन भी रिकॉर्ड करवाए थे। फिल्म छबीली में उनका गाया गाना - ले रोक अपनी नजर ना देख इस कदर भी... लोकप्रिय हुआ है। उन्होंने कुछ भजन भी रिकॉर्ड करवाए थे।संगीतकार कल्याणजी आनंद जी के कई स्टेज शो में नूतन ने गाने गाए। फिल्म छलिया में कल्याणजी-आनंद जी ने गाना-तेरी राहों में खड़े हैं दिल थाम के, नूतन की आवाज में ही रिकॉर्ड करवाया था। बाद में लता मंगेशकर की आवाज में इसे फिर से रिकॉर्ड किया गया। इसका कारण क्या था किसी को नहीं पता चल पाया। आज भी यू ट्यूब पर नूतन के गाये गाने देखे जा सकते हैं।अस्सी के आखिरी सालों मे नूतन पहले ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित हुईं जो बाद में फेफड़े तक फैल गया। वह दर्द से घबराती थीं इसलिए उन्होने अपने पति से कहा था कि बस इस बात का ध्यान रखा जाए कि उन्हें दर्द कम हो। पूरा ध्यान रखा गया लेकिन 21 फरवरी 1991 को महज 54 साल की उम्र में नूतन अपना शरीर छोड़ गईं. और साथ ही छोड़ गईं वह खाली स्थान जो सिर्फ वही भर सकती थीं। (छत्तीसगढ़ आज डॉट कॉम विशेष)--
- पुण्यतिथि पर विशेषआलेख-मंजूषा शर्माअंग्रेजी कवि लार्ड बायरन ने कहा था - ईश्वर जिन्हें प्यार करता है, वे जवानी में मर जाते हैं। नूतन के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। नूतन अभी सक्रिय ही थीं, कि ऊपर से बुलावा आ गया। वे बॉलीवुड में हर तरह की भूमिकाएं निभा रही थीं। फिल्मकार और अभिनेता विजय आनंद उन्हें सबसे अच्छी अभिनेत्री मानते थे। वे उन अभिनेत्रियों में थीं, जिन्हें अभिनय जन्मजात मिला हुआ था।वर्ष 1956 में नूतन स्टार बनीं और उसी वर्ष उन्हें फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार फिल्म सीमा (1956) के लिए मिला। उसके बाद पांच बार उन्होंने यह पुरस्कार जीता। बिमल राय की सुजाता और बंदिनी, सुब्बा राव की मिलन और राजखोसला की फिल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की, के साथ ही फिल्म मेरी जंग में शानदार काम के लिए विशेष प्रशस्ति पत्र मिला।युवा दिलीप कुमार की नायिका न बन पाने का अफसोसनूतन की युवा दिलीप कुमार की नायिका न बन पाने का अफसोस हमेशा रहा। उनकी मौसी नलिनी जयवंत फिल्म शिकस्त में दिलीप कुमार की नायिका थीं। नूतन फिल्म शिवा में उनकी नायिका बनने जा रही थी, पर रमेश सहगल की इन दो फिल्मों से केवल शिकस्त बन पाई और नूतन की इच्छा अधूरी रह गई। हालांकि इस फिल्म के लिए दो गीत लता मंगेशकर की आवाज में रिकॉर्ड भी किए जा चुके थे। बाद में फिर नूतन को कोई भी फिल्म दिलीप साहब के साथ नहीं मिली, जबकि वे उस दौर की लोकप्रिय और सफल नायिका थीं। जब सुभाष घई की फिल्म कर्मा में उन्हें दिलीप कुमार की पत्नी का रोल निभाने का मौका मिला, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसके बाद दोनों ने फिल्म कानून अपना अपना में भी साथ काम किया।अनारकली नहीं बन पाईं नूतनबहुत कम लोगों को यह मालूम है कि मधुबाला ने अनारकली की जिस भूमिका से लोगों के दिलों में जो अमिट जगह बनाई , उसकी हकदार पहले नूतन ही थीं। के. आसिफ जब मुगल-ए-आजम फिल्म की योजना बना रहे थे, तब उन्होंने अनारकली की भूमिका के लिए नूतन का ही चयन किया था, लेकिन आखिरकार यह रोल मधुबाला को मिला और मधुबाला ने इस भूमिका के साथ पूरा न्याय किया। इसमें कोई शक नहीं कि मधुबाला बेहद खूबसूरत थीं। पर इसका ये मतलब नहीं है कि फिल्म में मोहे पनघट पर नंद लाल ,.. गीत गाती नूतन भी कहीं से बुरी लगती। यह भूूमिका तो नूतन को मात्र 15 साल की उम्र में मिली थी। दरअसल अगर नूतन ने अनारकली (मुगल-ए-आजम फिल्म का उस समय यही नाम था) की भूमिका 1951 में निभाई होती, तो वे पांच वर्षों के अंदर गीतों पर बेहतरीन अभिनय करने वाली यह अभिनेत्री रुपहले परदे की अनारकली, लैला और हीर बन जाने का कीर्तिमान स्थापित कर लेती। पर नूतन ने जवानी में अनारकली की उस भूमिका को हाथ से जाने दिया।फिल्मकार के. आसिफ ने सबसे पहले 1944 में नरगिस को अनारकली की भूमिका के लिए चुना था। तब नौशाद नहीं , अनिल बिश्वास इसके संगीतकार थे। पर यह फिल्म बीच में ही अटक गई , क्योंकि उसके लेखक शिराज अली हकीम पाकिस्तान में जाकर बस गए थे। 1951 में जब के. आसिफ ने फिर से अनारकली बनाने का विचार किया तो अनिल बिश्वास की जगह नौशाद और नरगिस की जगह नूतन को चुना। नूतन के लिए यह शानदार मौका था , क्योंंिक अगर नूतन ने यह भूमिका स्वीकार कर ली होती तो उनकी तुलना बीना राय से की जाती। बीना राय एस. मुखर्जी की फिल्म अनारकली में अनारकली की भूूमिका निभा रही थीं। उस समय एक ही साथ तीन फिल्में अनारकली के नाम से शुरू हो रही थीं। के.आसिफ की अनारकली , मीनाकुमारी-कमाल अमरोही की अनारकली और बीना राय -एस. मुखर्जी की अनारकली। पर शायद नूतन में अभी वह आत्मविश्वास नहीं आया था जो अमिय चक्रवर्ती की फिल्म सीमा के साथ स्टार बनने के बाद आया। इसलिए उन्होंने जोर दिया कि वे इस भूमिका के लिए ठीक नहीं रहेंगी और चाहा कि यह भूमिका फिर से नरगिस को ही मिले। जब तक कमाल अमरोही अनारकली पर अपना पहला सेट लगाते, तब तक एस. मुखर्जी ने अपने प्रसिद्ध फिल्मस्तान बैनर के तले बीना राय को अनारकली के रूप में परदे पर पेश कर दिया।कॅरिअर की शुरूआत में ही पीछे जाने से नूतन को नुकसान तो हुआ। लेकिन बाद में वे फिल्म लैला मजनूं में शम्मी कपूर के साथ लैला बनकर आई। फिल्मकार के. आसिफ के उच्च स्तर से सीधे उतरकर उन्हें एन. अरोड़ा के स्तर तक आना पड़ा।अभिनेत्री बीना राय को -ये जिंदगी उसी की है, जैसा खूबसूरत गीत देने वाले एस. मुखर्जी ने नूतन की प्रतिभा को महसूस किया और अनारकली के हीरो प्रदीप कुमार के साथ फिल्म हीर में लिया। पर लैला मजनूं और हीर , दोनों ही असफल फिल्में साबित हुईं। इस तरह नूतन के हाथ से परदे पर अमर होनेे के दो मौके फिसल गए। इससे यही साबित होता है कि नूतन को सजा सजाया सौभाग्य नहीं मिलना था। उन्हें मेहनत और कड़ी मेहनत करके ही खुद को श्रेष्ठï अभिनेत्री के रूप में साबित करना था। अनिल बिश्वास ने हीर में नूतन के लिए अनेक खूबसूरत रचनाएं रची। पर फिल्म द्वितीय विश्व युद्ध के दस साल प्रदर्शित हुई और अनिल बिश्वास के कॅरिअर की शुरूआत भी इसी के साथ हुई।फिल्म सीमा में बलराज साहनी के गीत -पंख हैं कोमल , आंख हैं धुंधली , जाना है सागर पार (मन्ना डे) गीत में नूतन ने किस कदर गहरे भाव दिए हैं। यह गीत संगीतकार शंकर ने राग दरबारी में तैयार किया था।सुजाता का रोमांटिक गीतनूतन के अभिनय के विस्तार को 1956 में आई फिल्म सुजाता में भी देखा जा सकता है। इस फिल्म में सुनील दत्त फोन पर अपना प्रेम - जताते हैं और दूसरी तरफ नूतन की खामोश प्रतिक्रियां हैं।इस फिल्म में शुरू में बिमल राय को एक साधारण से अभिनेता सुनील दत्त पर फोन पर गाए रोमांटिक गीत को फिल्माने का खयाल बिल्कुल पसंद नहींं आया। जबकि एस. डी. बर्मन परेशान हो गए थे। वे उम्र में बड़े थे और उन्होंने बिमल राय को लगभग डांटते हुए कहा था- कैसे निर्देशक हो तुम। तुम में इतना आत्मविश्वास नहीं है कि अपने हीरो से एक कोमल गीत को फोन पर गाते हुए नहीं दिखा सकते। क्या तुम प्यार समझते हो? तुम नहीं जानते, क्योंकि तुमने कभी प्यार नहीं किया है। तुम जीवन के सुंदर अनुभव से वंचित हो। तुम कल्पना नहीं कर सकते कि कोई लड़का किसी लड़की को फोन पर प्रेम गीत सुनाए। शेक्सपियर ने कहा था - प्यार आंखों से नहीं दिखता। पर शेक्सपियर की यह बात तुम नहीं समझ सकते हो।बर्मन दा ने मजरूह के इस गीत को इतना सुंदर तैयार किया कि यह गीत तलत महमूद के सर्वश्रेष्ठ गीतों में से माना जाता है। वैसे दादा चाहते थे कि यह गीत रफी साहब गाए, लेकिन बिमल राय ने साफ कह दिया कि फोन वाला गीत वे फिल्म में तभी रखेंगे, जब उसे सुनील दत्त के लिए तलत गाएंगे। बर्मन दादा तब भी रफी को ही चाहते थे, पर उनकी जिद टल गई और बर्मन दादा अंत तक तलत के प्रति अनिश्चय की भावना लिए रहे। यहां तक उन्होंने रिकॉर्डिंग के समय भी कह दिया कि तलत मेरे इस गीत को बरबाद मत करना।तलत ने यह गीत दिल लगाकर गाया और गीत लोगों के दिलों में बस गया। आज भी जब फोन पर गीत फिल्माए जाते हैं, तो लोगों के दिलों में सुनील दत्त पर और नूतन पर फिल्माए इस गीत की ही याद ताजा हो जाती है। सचिन दा को इस गीत को फिल्माने की ज्यादा चिंता नहीं थी, क्योंकि वे जानते थे कि इसमें वह अभिनेत्री है, जिसे भावपूर्ण भूमिकाएं करने के लिए कभी ग्लिसरीन की जरूरत नहीं पड़ी।नूतन के सूक्ष्म अभिनय ने जादू किया और इसी फिल्म मेेंं नूतन ने काली घटा छाए , मेरा जिया तरसाए गाने में भी कितना सुंदर अभिनय किया है। हो सकता है कि इस गीत के लिए बिमल दा को अपनी प्रिय गायिका लता की कमी महसूस हुई हो, लेकिन आशा भोंसले ने भी अपनी आवाज का वो जादू दिखाया कि लोगों ने इसे केवल आशा का ही गीत माना। नूतन के अभिनय ने जो इसे सजीव बना दिया था।
-
माँ ने मेरा हाथ खूब ज़ोर से पकड़ा और कहा, देख लेना !! यह तो थे माँ के अन्तिम शब्द । क्या इन शब्दों का अर्थ विश्वास जताना था, या कुछ और..
माँ का स्वर्गवास हुए अभी कुछ ही दिन हुए, लेकिन लगता नहीं कि अब माँ नहीं है। मैं तो ससुराल में हूँ ना, बेटी जो हूँ। वैसे तो मैं भी अब माँ हूँ, लेकिन इसकी अनुभूति अब हो रही है। ममत्व का अहसास हाथ हटने के बाद ही होता है। कहते हैं ना किसी के होने का अहसास उसके चले जाने के बाद होता है, सच है। मां है तो मायका भी है उसके जाने के बाद शायद ही वैसा हो. एक विश्वास की कमी.. मेरे पिता की मृत्यु से क्षति का अहसास हुआ, बहुत बड़ी कमी भी रही, जिसे भी माँ ने सम्हाल रखा था। माँ ने अपने रहते पिता की कमी को अपने दोहरे किरदार से शायद संजो रखा था, लेकिन अब तो माता-पिता दोनों ही नहीं हैं।लेकिन मेरे चार भैया-भाभी हैं न, तीन मुझसे बड़े भी हैं। चारों ही मेरे लिए तो समकक्ष भी हैं और सक्षम भी। चारों ही ने मुझे फूल की तरह रखा है और खुशबू की तरह समझा भी हाँ, यह भी कि मैं पत्नी और माँ भी हूँ। ये सभी प्यार, भरपूर प्यार के ही रिश्ते हैं। माँ के उपचार के चलते शायद मैंने इन रिश्तों की सूक्ष्मता को महसूस किया । मातृत्व की परिभाषा अंतर्मन से पहचानी भी ।माता-पिता की भूमिका वैसे तो जानी-पहचानी सी है, ससुराल जाने के बाद भी उनकी मृत्यु पर जो बड़ा सा शून्य बनता है,उसे भाई- भाभी हटा कर लगाव की निरंतरता दे पाएँगे ? यह एक बड़ा सा प्रश्न दबी आवाज़ से पहले भी होता था और अब वह सामने दिखाई देता है।वही पुरानी बचपन की अठखेलियाँ, नटखट उत्पात आगंतुकों के वार्तालाप, कुछ प्रश्न कुछ अनमने और कुछ रोचक उत्तर मन ही मन लगातार आते रहते हैं। लेकिन, मां के द्वारा उनकी मृत्यु पूर्व आत्म विश्वास को बढ़ाने वाली पकड़, अभी भी मन को झकझोर देती है। माँ ने मुझे मेरे ब्याह के बाद से लगातार जो प्यार, बढ़ाने की राह दी, जो जीवन के प्रति और सभी संबंधों के प्रति जिम्मेदारी की सीख दी, मेरा जीवन उनके आशीर्वचन से उपकृत हो गया। उनके ईश्वरीय दृष्टिकोण को क्या लिखूँ, अप्रतिम भक्ति-भाव आसक्ति मेरे लिए तो समझना भी मानो पूजा ही है। सामाजिक ढांचा और उससे हमारा सरोकार, नैतिकता, सामंजस्य को नारीत्व के भाव से जोडऩा अतुलनीय रहा है। उनका मंदिरों में जाना वहाँ की सुविधा-असुविधा समझना और यथा संभव सहयोग, वाह... पुन: नि:शब्द..माँ, हमने आपको शायद पूरा जाना ही नहीं, समझा ही नहीं, एक बार और मौका देना माँ इसी रूप में। शत् शत् नमन.. मैं पूरा लिख नहीं पाई एक बार फिर से कलम पकडऩा सिखाना माँ, प्रणाम माँ।शजिन्ता(स्मृति)शुक्ला - -शासकीय गुण्डाधुर कॉलेज, कोंडागांव में अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष व नेत्र विशेषज्ञ डॉ. दिनेश मिश्र का व्याख्यानकोंडागांव । अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष व नेत्र विशेषज्ञ डॉ. दिनेश मिश्र ने शासकीय गुण्डाधुर स्नातकोत्तर महाविद्यालय कोंडागांव द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और अंधविश्वास विषय पर व्याख्यान देते हुए कहा कि देश में अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों के कारण अक्सर अनेक निर्दोष लोगों को प्रताडऩा का शिकार होना पड़ता है, जिसके निदान के लिए आम जन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास की अत्यंत आवश्यकता है।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा कुछ लोग अंधविश्वास के कारण हमेशा शुभ-अशुभ के फेर में पड़े रहते हंै। यह सब हमारे मन का भ्रम है। शुभ-अशुभ सब हमारे मन के अंदर ही है। किसी भी काम को यदि सही ढंग से किया जाये, मेहनत, ईमानदारी से किया जाए तो सफलता जरूर मिलती है। उन्होंने कहा कि 18वीं सदी की मान्यताएं व कुरीतियां अभी भी जड़े जमायी हुई हैं जिसके कारण जादू-टोना, डायन, टोनही, बलि व बाल विवाह जैसी परंपराएं व अंधविश्वास आज भी वजूद में हैं। जिससे प्रतिवर्ष अनेक मासूम जिन्दगियां तबाह हो रही हैं। उन्होंने कहा कि ऐसे में वैज्ञानिक जागरूकता को बढ़ाने और तार्किक सोच को अपनाने की आवश्यकता है। उन्होंने आगे कहा कि अंधविश्वास को कुरीतियों के विरूद्ध समाज के साथ विद्यार्थियों को भी एकजुट होकर आगे आना चाहिए।डॉ. मिश्र ने कहा प्राकृतिक आपदायें हर गांव में आती है, मौसम परिवर्तन व संक्रामक बीमारियां भी गांव को चपेट में लेती है, वायरल बुखार, मलेरिया, दस्त जैसे संक्रमण भी सामूहिक रूप से अपने पैर पसारते है। ऐसे में ग्रामीण अंचल में लोग कई बार बैगा-गुनिया के परामर्श के अनुसार विभिन्न टोटकों, झाड़-फूंक के उपाय अपनाते हैं। जबकि प्रत्येक बीमारी व समस्या का कारण व उसका समाधान अलग-अलग होता है, जिसे विचारपूर्ण तरीके से ढूंढा जा सकता है। उन्होंने कहा कि बिजली का बल्ब फ्यूज होने पर उसे झाड़-फूंक कर पुन: प्रकाश नहीं प्राप्त किया जा सकता और न ही मोटर सायकल, ट्रांजिस्टर बिगडऩे पर उसे ताबीज पहनाकर सुधारा जा सकता। रेडियो, मोटर सायकल, टी.वी., ट्रेक्टर की तरह हमारा शरीर भी एक मशीन है जिसमें बीमारी आने पर उसके विशेषज्ञ के पास ही जांच व उपचार होना चहिए। डॉ. मिश्र ने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों एवं अंधविश्वासों की चर्चा करते हुए कहा कि बच्चों को भूत-प्रेत, जादू-टोने के नाम से नहीं डराएं क्योंकि इससे उनके मन में काल्पनिक डर बैठ जाता है जो उनके मन में ताउम्र बसा होता है, बल्कि उन्हें आत्मविश्वास, निडरता के किस्से कहानियां सुनानी चाहिए। जिनके मन में आत्मविश्वास व निर्भयता होती है उन्हें न ही नजर लगती है और न कथित भूत-प्रेत बाधा लगती है। यदि व्यक्ति कड़ी मेहनत, पक्का इरादा का काम करें तो कोई भी ग्रह, शनि, मंगल, गुरू उसके रास्ता में बाधा नहीं बनता।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा — देश में जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, झाड़-फूँक की मान्यताओं एवं डायन (टोनही )के संदेह में प्रताडऩा तथा सामाजिक बहिष्कार के मामलों की भरमार है। डायन के सन्देह में प्रताडऩा के मामलों में अंधविश्वास व सुनी-सुनाई बातों के आधार पर किसी निर्दोष महिला को डायन घोषित कर दिया जाता है तथा उस पर जादू-टोना कर बच्चों को बीमार करने, फसल खराब होने, व्यापार-धंधे में नुकसान होने के कथित आरोप लगाकर उसे तरह-तरह की शारीरिक व मानसिक प्रताडऩा दी जाती है। कई मामलों में आरोपी महिला को गाँव से बाहर निकाल दिया जाता है। बदनामी व शारीरिक प्रताडऩा के चलते कई बार पूरा पीडि़त परिवार स्वयं गाँव से पलायन कर देता है। कुछ मामलों में महिलाओं की हत्याएँ भी हुई हंै अथवा वे स्वयं आत्महत्या करने को मजबूर हो जाती हंै। जबकि जादू-टोना के नाम पर किसी भी व्यक्ति को प्रताडि़त करना गलत तथा अमानवीय है। वास्तव में किसी भी व्यक्ति के पास ऐसी जादुई शक्ति नहीं होती कि वह दूसरे व्यक्ति को जादू से बीमार कर सके या किसी भी प्रकार का आर्थिक नुकसान पहुँचा सके। जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, टोनही, नरबलि के मामले सब अंधविश्वास के ही उदाहरण हैं। महाराष्ट्र छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश ओडीसा, झारखण्ड, बिहार, असम सहित अनेक प्रदेशों में प्रतिवर्ष टोनही/डायन के संदेह में निर्दोष महिलाओं की हत्याएँ हो रही हैं, जो सभ्य समाज के लिये शर्मनाक है। नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो ने सन् 2001 से 2015 तक 2604 महिलाओं की मृत्यु डायन प्रताडऩा के कारण होना माना है। जबकि वास्तविक संख्या इनसे बहुत अधिक है। अधिकतर मामलों में पुलिस रिपोर्ट ही नहीं हो पातीं। हमने जब आर टी आई से जानकारी प्राप्त की तब हमें बहुत ही अलग आंकड़े प्राप्त हुए। झारखंड में 7000 ,बिहार में 1679 छत्तीसगढ़ में 1357,ओडिशा 388 में ,राजस्थान 95 में,आसाम में 75 मामलों की प्रमाणिक जानकारी है। जबकि कुछ राज्यों से जवाब ही नहीं मिला। पर समाचार पत्रों में लगभग सभी राज्यों से ऐसी घटनाओं के समाचार मिलते हैं।डॉ. मिश्र ने कहा आम लोग चमत्कार की खबरों के प्रभाव में आ जाते हैं। हम चमत्कार के रूप में प्रचारित होने वाले अनेक मामलों का परीक्षण व उस स्थल पर जाँच भी समय-समय पर करते रहे हैं। चमत्कारों के रूप में प्रचारित की जाने वाली घटनाएँ या तो सरल वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के कारण होती हैं तथा कुछ में हाथ की सफाई, चतुराई होती है जिनके संबंध में आम आदमी को मालूम नहीं होता। कई स्थानों पर स्वार्थी तत्वों द्वारा साधुओं को वेश धारण चमत्कारिक घटनाएँ दिखाकर ठगी करने के मामलों में वैज्ञानिक प्रयोग व हाथ की सफाई के ही करिश्में थे।डॉ. मिश्र ने कहा भूत-प्रेत जैसी मान्यताओं का कोई अस्तित्व नहीं है। भूत-प्रेत बाधा व भुतहा घटनाओं के रूप में प्रचारित घटनाओं का परीक्षण करने में उनमें मानसिक विकारों, अंधविश्वास तथा कहीं-कहीं पर शरारती तत्वों का हाथ पाया गया। आज टेलीविजन के सभी चैनलों पर भूत-प्रेत, अंधविश्वास बढ़ाने वाले धारावाहिक प्रसारित हो रहे हैं। ऐसे धारावाहिकों का न केवल जनता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है बल्कि छोटे बच्चों व विद्यार्थियों पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। इस संबंध में हमने राष्ट्रीय स्तर पर एक सर्वेक्षण कराया है जिसमें लोगों ने ऐसे सीरियलों को बंद किये जाने की मांग की है। ऐसे सीरियलों को बंद कर वैज्ञानिक विकास व वैज्ञानिक दृष्टिकोण बढ़ाने व विज्ञान सम्मत अभिरूचि बढ़ाने वाले धारावाहिक प्रसारित होने चाहिए। भारत सरकार के दवा एवं चमत्कारिक उपचार के अधिनियम 1954 के अंतर्गत झाड़-फूँक, तिलस्म, चमत्कारिक उपचार का दावा करने वालों पर कानूनी कार्यवाही का प्रावधान है। इस अधिनियम में पोलियो, लकवा, अंधत्व, कुष्ठरोग, मधुमेह, रक्तचाप, सर्पदंश, पीलिया सहित 54 बीमारियाँ शामिल हैं। लोगों को बीमार पडऩे पर झाड़-फूँक, तंत्र-मंत्र, जादुई उपचार, ताबीज से ठीक होने की आशा के बजाय चिकित्सकों से सम्पर्क करना चाहिए क्योंकि बीमारी बढ़ जाने पर उसका उपचार खर्चीला व जटिल हो जाता है।डॉ. मिश्र ने कहा अंधविश्वास, पाखंड एवं सामाजिक कुरीतियों का निर्मूलन एक श्रेष्ठ सामाजिक कार्य है जिसमें हाथ बंटाने हर नागरिक को आगे आना चाहिए।
- स्वर कोकिला लता मंगेशकर भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके संगीत ने उन्हें अमर बना दिया है। उन्होंने कई दशकों तक संगीत जगत को समृद्ध किया। हर वक्त, हर मौसम के लिए हमें कोई-न-कोई गाना दिया, फिर चाहे वो मन को मीठा-सा लगने वाला लग जा गले... हो, या खंडहरों में हेमा मालिनी पर फिल्माया नाम गुम जाएगा , या प्यार के मायने समझाता हमने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू..। उनके गाने हमारे हर पल के साथी हैं। आज हम आपको लता मंगेशकर के उन गानों की के बारे में बता रहे हैं, जो ऑफिसियल कभी रिलीज नहीं हो पाए। कुछ गाने फिल्म में शामिल ही नहीं किए गए या फिर फिल्म ही बंद हो गई। लेकिन यूट्यूब पर आप ये गाने सुन सकते हैं।1. जो दर्द दिया तुमने, गीतों में पिरो लेंगेरविंद्र जैन अपने लिखे और कम्पोज़ किए इस गाने को लेकर काफी पज़ेसिव थे। वे चाहते थे कि इस धुन को किसी गायक की आवाज़ न छुए, सिवाय लता जी की आवाज़ के। हालांकि, किसी वजह से ये गाना जिस फिल्म के लिए रिकॉर्ड किया गया था, कभी उसका हिस्सा नहीं बन पाया। 25 सितंबर, 2020 को दिवंगत कम्पोजऱ रविंद्र जैन के नाम से चल रहे ऑफिशियल यूट्यूब चैनल पर ये गाना रिलीज़ किया गया। साथ ही रविंद्र जैन की वो याद शेयर की गई, जो उन्होंने इस गाने को लेकर लिखी थी। उन्होंने लिखा.....मैं बंबई आया था एक सपना लेकर। वो मुंबई जहां विश्व की सबसे सुरीली आवाज़ बसती है। जिसके कंठ में सरस्वती साक्षात बोलती है। वह आवाज़ है स्वर-सम्राज्ञी लता मंगेशकर की आवाज़। समय के साथ मेरा सपना भी पूरा हुआ, मैं जिस दिन प्रभुकुंज (लता दीदी के निवास) की सीढिय़ां चढ़ रहा था, उस दिन मुझे लग रहा था कि मैं उन्नतियों की सीढिय़ों पर चढ़ रहा हूं. क्योंकि वहां लता जी रहती हैं। लता जी को गाना सुनाया, जो उन्हें बहुत अच्छा लगा। गीत सुनकर लता जी ने आशीर्वाद दिया। उस गीत की रिकॉर्डिंग फेमस स्टूडियो ताड़देव में हुई। रिकॉर्डिंग के बाद लता दीदी ने बैठकर पूरा गीत सुना और खूब सराहना भी की। जबकि अक्सर लता जी गाना रिकॉर्ड करने के बाद चली जाती थीं, सुनने के लिए नहीं रुकती थीं. लेकिन वह गीत उन्होंने सुना।2. तुम मेरी जि़ंदगी में कुछ....आर.डी. बर्मन और लता मंगेशकर की जोड़ी ने अनेक सदाबहार गाने दिए. जैसे अमर प्रेम का रैना बीती जाए, या फिर आंधी फिल्म का तेरे बिना जि़ंदगी से कोई शिकवा तो नही। इस जोड़ी ने एक ऐसा गाना भी बनाया था, जो ओरिजिनली रिलीज़ नहीं हो पाया था। 1972 में आई बॉम्बे टू गोवा के लिए लता मंगेशकर ने तुम मेरी जि़ंदगी में कुछ नाम का गाना रिकॉर्ड किया था। जो किसी कारणवश फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाया था। हालांकि, इस गाने को बाद में रिलीज़ किया गया और आप इसे आसानी से सुन सकते हैं।3. ठीक नहीं लगता.....नाइंटीज़ अलबम में संगीतकार विशाल भारद्वाज ने गुलज़ार का लिखा एक गीत कम्पोज़ किया था, टाइटल था ठीक नहीं लगता। आवाज़ थी दी लता मंगेशकर ने। हालांकि, जिस फिल्म के लिए ये गाना रिकॉर्ड किया गया वो कभी बन नहीं पाई। इस वजह से ये गाना भी हमेशा के लिए डिब्बाबंद हो गया। इस बात को कई साल बीत गए। विशाल भारद्वाज ने अपने एक इंटरव्यू में बताया कि उन्होंने इस गाने की रिकॉर्डिंग ढूंढने की कोशिश की, लेकिन कोई सफलता हाथ नहीं लगी। फिर एक दिन 2018 में उनके पास अचानक एक कॉल आया। ये कॉल उस स्टूडियो से था जहां ठीक नहीं लगता.. गीत रिकॉर्ड किया गया था। उन्होंने कहा कि हम अपना स्टूडियो बंद कर रहे हैं। आप के नाम का एक टेप मिला है, अगर लेना हो तो ले लीजिए वरना हम फेंक देंगे। उस टेप में कई गाने थे और उन्हीं में से एक था लता जी का गाया ये गाना। विशाल भारद्वाज ने उस गाने को रीट्रीव किया और रीऑर्कस्ट्रेट कर 28 सितंबर, 2021 यानी लता मंगेशकर के जन्मदिन पर वीबी यूट्यूब चैनल पर रिलीज़ किया। गाने का वीडियो लता जी को ट्रिब्यूट देता है। जहां स्क्रीन पर उनकी लाइफ से जुड़ी बातें दिखाई देती हैं कि कैसे उनका बचपन में नाम हेमा था और उनका नाम लता उनके पिता के एक प्ले के किरदार लतिका के नाम पर पड़ा।4. ये हसीन रात...फस्र्ट पोस्ट के सुभाष झा को दिए एक इंटरव्यू में लता मंगेशकर ने बताया कि पाकीज़ा के डायरेक्टर कमाल अमरोही मजनून नाम की फिल्म बना रहे थे। फिल्म के लिए खय्याम ने एक गीत कम्पोज़ किया था, ये हसीन रात..., जिसे लता मंगेशकर और येसुदास ने मिलकर गाया था। बाद में कमाल को ये फिल्म बंद करनी पड़ी, जिस वजह से ये गाना भी कभी रिलीज़ नहीं हो पाया। उसी इंटरव्यू में लता मंगेशकर ने बताया कि पाकीज़ा के लिए ग़ुलाम मोहम्मद ने कई गाने कम्पोज़ किये थे, जिन्हें लता जी ने अपनी आवाज़ दी थी। उन्होंने बताया कि वह गाने बेहद खूबसूरत थे, लेकिन कभी उन्हें फिल्म में इस्तेमाल नहीं किया गया।5. आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहींसुभाष झा को दिए इंटरव्यू में लता जी ने बताया था कि वो रिकॉर्डिंग के बाद अपने गाने नहीं सुनती थीं। एक रिकॉर्डिंग से दूसरी पर शिफ्ट हो जातीं। इसलिए उन्हें कभी पता नहीं चलता था कि उनका कौन सा गाना फिल्म में इस्तेमाल होगा या नहीं। संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी के लिए उन्होंने एक गाना रिकॉर्ड किया। फिल्म थी मिलन। गाना था आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहीं...। लता जी ने बताया कि वो गाना कम्पोजऱ जोड़ी के फेवरेट गानों में से एक था। फिल्म मिलन में उस गाने को इस्तेमाल नहीं किया गया, हालांकि बाद में अलग से रिलीज़ कर दिया गया था।-----
- आलेख- मंजूषा शर्मासुरों की मलिका लता मंगेशकर यानी सबकी प्यारी लता दीदी की आवाज हमेशा के लिए थम गई है। 6 फरवरी की सुबह उन्होंने इस संसार को विदा कहा। 28 सितंबर, 1929 को उनका जन्म मराठी ब्राम्हण परिवार में, मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में सबसे बड़ी बेटी के रूप में पंडित दीनानाथ मंगेशकर के मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। लता दीदी ने गायकी में जो ऊंचाइयां हासिल की , वहां आज तक कोई पहुंच नहीं पाया । लता दीदी थीं ही ऐसी कि किसी के साथ उनकी तुलना करना नामुमकिन है। अपनी पाक-साफ आवाज से वे जब गाती थीं कि तो लगता था कि पूरी कायनात सुरीली हो गई है।आज हम उनके गाये कुछ गानों का यहां जिक्र कर रहे हैं, जो लताजी के पसंदीदा थे।1. नैनों में बदरा छाए (फिल्म -मेरा साया- 1966)2. ए मेरे वतन के लोगों (फिल्म हकीकत-1964)3.सत्यम शिवम सुंदरम ( सत्यम शिवम सुंदरम-1978)4. कुछ दिन ने कहा (अनुपमा-1966)5. लग जा गले (वो कौन थी-1964)6. रहे न रहे हम (ममता-1966)7. आएगा आएगा आने वाला (महल- 1949)8. प्यार किया तो डरना क्या (मुगल ए आजम- 1960)9. जरा की आहट (हकीकत- 1964)10. ए दिले नादान (रजिया सुल्तान-1983)11. अजीब दास्तां है ये (दिल अपना और प्रीत पराई-1960)12. वो भूली दास्तां (संजोग-1961)13. तेरे बिना जिंदगी से (आंधी-1975)14. दिखाई दिए यूं (बाजार- 1982)15. क्या जानूं सजन (बहारों के सपने - 1967)16. सुनियोजी अराज मारी (1991)17. अल्लाह तेरो नाम (1961)18. नाम गुम जाएगा (1977)- इस गाने की खासियत ये है कि गुलजार साहब ने इसे लता मंगेशकर के लिए ही लिखा था।इन सब के अलावा मुझे लताजी की गाया एक भजन काफी पसंद है और वो है अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम ....। यह गीत फिल्म हम दोनों का है और इस गाने का फिल्मांकन अभिनेत्री नंदा और लीला चिटनीस पर हुआ है। फिल्म में साधना और देवानंद मुख्य भूमिकाओं में थे। फिल्म में देवसाहब की दोहरी भूमिका थी। फिल्म के हर गाने लोकप्रिय हुए थे। लेकिन इसका भजन अल्लाह तेरो नाम, आज भी फिल्मी भजनों के श्रंृखला में हिट माना जाता है। इसे लिखा साहिर लुधियानवी ने।फिल्म हम दोनों 1961 की फिल्म थी जिसका निर्माण किया था देव आनंद ने अपने नवकेतन के बैनर तले। फि़ल्म का निर्देशन किया अमरजीत ने। निर्मल सरकार की कहानी पर इस फि़ल्म के संवाद और पटकथा को साकार किया विजय आनंद ने। देव आनंद, नंदा और साधना अभिनीत इस फि़ल्म में संगीत दिया था जयदेव का। इस फि़ल्म में लता जी के गाए दो भजन ऐसे हैं कि जो फि़ल्मी भजनों में बहुत ही ऊंचा मुक़ाम रखते हैं। अल्लाह तेरो नाम के अलावा दूसरा भजन है-प्रभु तेरो नाम जो ध्याये फल पाए।दोनों ही भजनों को सुनकर लगता है कि जैसे लता जी ने उन्हें अंतर्आत्मा से गाया है। अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम भजन में धर्मनिरपेक्षता साफ झलकती है। यह भजन राग गौड़ सारंग पर आधारित है। शांत रस इसका भाव ही है। जाहिर है कि इसे सुनने के बाद मन शांत हो जाता है यदि आप इसे दिल से सुने तब। शांत रस मन का वह भाव है, वह स्थिति है जिसमें है सुकून है चैन है। इसलिए यह रस तभी जागृत हो सकता है जब हम ध्यान और साधना से इसे जागृत करें।1962 के चीनी आक्रमण के समय दिल्ली में आयोजित सिने कलाकारों के एक समारोह की शुरुआत लताजी ने इसी भजन से की थी। इस भजन की रिकॉर्डिंग के समय की अपनी एक कहानी है। संगीतकार जयदेव, संगीतकार सचिनदेव बर्मन के सहायक हुआ करते थे। हम दोनों फिल्म में उन्होंने अकेले ही संगीत संयोजन का जिम्मा लिया। कहते हैं कि उस समय लता और बर्मन साहब के बीच किसी बात को लेकर वैचारिक मतभेद हो गए थे। ऐसे में जयदेव इस बात को लेकर असमंजस में थे कि वे लता जी को अपनी फिल्म में लें या न लें । लता के बिना इस भजन में भला कैसे प्राण फूंका जा सकता था। फिर उनके मन में कर्नाटक संगीत की सुपरस्टार एम. एस. सुब्बूलक्ष्मी से यह भजन गवाने की बात उठी, लेकिन बाद में जयदेव ने मन को कड़ा किया और निश्चय किया कि वे लता से ही ये भजन गवाएंगे। सुलह कराने के लिए जयदेव ने रशीद खान को लता के पास भेजा और अपना संदेश भिजवाया। जाहिर है कि लता ने साफ इंकार कर दिया। ऐसे में देवआनंद सामने आए और उन्होंने लता दीदी से कहा कि यदि वे फिल्म का हिस्सा नहीं बनेंगी, तो वे जयदेव को ही हटाकर किसी और को संगीत निर्देशन की जिम्मेदारी सौंप देंगे। यह सुनकर लताजी के समक्ष असमंजस की स्थिति निर्मित हो गई। लता जी यह भी जानती थीं कि जयदेव ने फिल्म में कमाल की कम्पोजिशन की है। आखिरकार वे मानीं और स्टुडियो रिकॉडिंग के लिए पहुंच गईं। आखिरकार एक लंबे संघर्ष के बाद दोनों भजन रिकॉर्ड किए गए और यह संघर्ष नाकामयाब नहीं रहा। दोनों ही भजन हिट हो गए। जयदेव ने फिल्म में आशा जी से अभी न जाओ छोड़कर, जैसा गीत गवाया।जाने-माने शास्त्रीय गायक पंडित जसराज ने एक बार कहा था कि इस भजन को जब उन्होंने सुना तो उनकी आंखों में आंसू आ गए और अभिभूत होकर वे आधी नींद से जाग गए। लता ने भी 1967 में घोषित अपने दस सर्वश्रेष्ठ गीतों में तो इसे शामिल किया था।लता जी की आवाज में और भी कई भजन हैं, जिनमें 1952 की फिल्म नौ बहार के गाने ए री मैं तो प्रेम दीवानी प्रमुख है। इस गाने को नलिनी जयवंत पर फिल्माया गया था। साथ में अशोक कुमार भी थे। इस गाने का संगीत दिया था संगीतकार रोशन ने। गाने के बोल लिखे थे सत्येन्द्र अत्थैया ने। यह गाना राग तोड़ी पर आधारित है।
- -ग्रामीण अंधविश्वास में न पड़ेंअंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष डॉ. दिनेश मिश्र ने बताया राजनांदगांव जिले में एक कृषक के यहाँ उसकी गाय के असामान्य बच्चे के जन्म होने पर ग्रामीणों की भीड़ उमडऩे और उस शिशु को चमत्कारिक जान कर,उसके दर्शन के लिए लाइन लगाने, उस की पूजा अर्चना करने की घटना प्रकाश में आई है .जबकि ऐसे शिशु का जन्म होना चमत्कार नहीं है ,यह शरीर की असामान्य वृद्धि होने से सम्भव है।डॉ. दिनेश मिश्र ने बताया कि उन्हें जानकारी मिली है कि राजनांदगांव जिले में तीन आंख और चार नासिका छिद्र के साथ जन्मी बछिया को देखने लोगों का तांता लगा हुआ है। स्थानीय ग्रामीण और आसपास के गांवों के लोग बछिया को चमत्कारिक अवतार" मान पूजा कर रहे हैं। राजनांदगांव जिले के छुईखदान थाना क्षेत्र के अंतर्गत ग्राम पंचायत बुंदेली के आश्रित लोधी नवागांव निवासी किसान हेमंत चंदेल के यहाँ 13 जनवरी को उसके घर की एक गाय ने बछिया को जन्म दिया है, जन्म के बाद से ही अपनी असमान्य शारीरिक संरचना के कारण, नवजात बछिया स्थानीय ग्रामीण जनों और आसपास के कस्बों के निवासियों के लिए कौतूहल का केंद्र बन गई है। बताया जाता है,नवजात बछिया के माथे पर एक अतिरिक्त आंख है और नथुने में दो अतिरिक्त नासिका छिद्र है। पूंछ जटा की तरह है तथा जीभ सामान्य से लंबी है। तीन आंख और चार नासिका छिद्र समेत अन्य भिन्नताओं को लेकर जन्मी इस बछिया को लोग चमत्कारिक अवतार मान पूजा कर रहे हैं।"एचएफ जर्सी नस्ल की गाय पिछले कुछ वर्षों से उक्त कृषक के घर में है और पहले भी उसने तीन बछड़ों को जन्म दिया है, जो सामान्य थे। लेकिन इस बार जन्मी बछिया ने सभी को चौंका दिया है। जब आसपास के लोगों को बछिया के जन्म की जानकारी मिली तब बछिया की एक झलक पाने के लिए वह घर पहुंच गए और लोग बछिया पर फूल और नारियल पैसे चढ़ा रहे हैं,तथा भीड़ जमा हो रही है।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा कभी-कभी मनुष्यों में भी जन्मगत विकृतियों के मामले सामने आते हैं जिनमें कभी- कभी सूंड नुमा नाक ,तो कभी कटे ओंठ, कभी हाथ. पैर ,सिर. आंखों की बनावट में भी विकृति पाई जाती है इसे भ्रूण की असामान्य वृद्धि के कारण हुई जन्मगत विकृति कहा जा सकता है, न ही यह चमत्कार है न अवतार और न ही कोई अलौकिक घटना। इस तरह कि शारीरिक विकृतियां भ्रूण के असामान्य विकास के कारण होती है जो पौष्टिक आहार की कमी, गर्भावस्था में संक्रमण, किसी हानिकारक वस्तु के सेवन से होती है । आमतौर पर ऐसे बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं। इसे चमत्कार नहीं माना जाना चाहिए।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा, " ग्रामीणों को अंधविश्वास में नहीं पडऩा चाहिए। कई घटनाओं में यह देखा गया है कि विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों के लोग जागरूकता की कमी के कारण ऐसे विकृति युक्त नवजात शिशुओं की पूजा करने लगते हैं।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा ग्रामीण अंचल से जन्मगत विकृति के मामले और अनियमित विकास के मामले मनुष्य व पशुओं में अनेक बार सामने आते रहे हैं और कुछ दिनों तक इसे चमत्कार के रूप में प्रचारित होने से भीड़ भी जुटी,चढ़ावा भी इकट्ठा हुआ और बाद में जब लोगों को हमने असलियत की जानकारी दी तो भीड़ छंटने लगी। . जन्मगत विकृति के बारे में ग्रामीणों को को वैज्ञानिक रूप से समझाने की जरूरत है ताकि वे किसी भी भ्रम व अंधविश्वास में न पड़ें.।डॉ. दिनेश मिश्रअध्यक्ष अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति
- -कोई नारी डायन/टोनही नहींडायन या टोनही की धारणा हमारे देश में प्रमुख अंधविश्वासों में से एक है जिसमें किसी महिला को डायन (टोनही) घोषित कर दिया जाता है तथा उस पर जादू-टोना कर बीमारी फैलाने, गाँव में विपत्तियाँ लाने का आरोप लगाकर उसे लांछित किया जाता है। डायन (टोनही) के रूप में आरोपित इन महिलाओं को न केवल सार्वजनिक रूप से बेइज्जत किया जाता है, बल्कि उन्हें शारीरिक प्रताडऩा दी जाती है तथा समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है। ऐसे मामलों में शारीरिक प्रताडऩा इतनी अधिक होती है कि वे महिनों शारीरिक जख्मों का दर्द लिये कराहती रहती है तथा गाँव में उन्हें उपचार मिलना भी संभव नहीं होता। सार्वजनिक रूप से बेइज्जती व अपमान के जख्म तो आजीवन दुख देते हैं। इन स्थानों पर प्रभावशाली समूह का दबाव इतना अधिक रहता है कि प्रताडऩा की घटनाओं की जानकारी गाँव के बाहर नहीं जा पाती तथा प्रताडि़त महिला व उसका परिवार नारकीय जीवन जीता रहता है, ऐसे मामलों में कई बार महिलाएँ आत्महत्या तक कर लेती है।डायन (टोनही) के संदेह में प्रताडऩा के मामले में गाँवों के जनप्रतिनिधि व शासकीय कर्मचारी भी सामने आने का साहस नहीं कर पाते, ऐसे अधिकांश मामलों में जो जानकारी ही गाँवों से बाहर नहीं आ पाती, जिससे कथित बैगाओं का राज कायम हो जाता है। जो गाँव में सभी विपदाओं का कारण जादू-टोना व डायन (टोनही) बताकर, टोनही पकड़वाने, चिन्हित करने, गाँव बाँधने के नाम पर न केवल मनमानी राशि वसूलते हैं बल्कि किसी भी गरीब बेकसूर महिला को डायन (टोनही) घोषित कर हमेशा अभिशप्त जीवन जीने व प्रताडऩा सहने के लिये छोड़ देते हैं, इन बैगाओं द्वारा महिला को डायन (टोनही) न होने का प्रमाण देने के लिये ऐसी परीक्षाएँ ली जाती है जो किसी भी महिलाओं के लिये संभव नहीं है। ऐसे मामलों में खुद को निर्दोष साबित करना बहुत मुश्किल हो जाता है वह भी जब पूरा गाँव ही अंधविश्वास के कारण विरोध में खड़ा हो, जबकि वास्तविकता यह है कि डायन (टोनही) के रूप में घोषित की जाने वाली महिला में इतनी ताकत नहीं होती है कि आत्मरक्षा ही कर सके, दूसरों के नुकसान करना तो संभव ही नहीं है।हम पिछले 26 वर्षों से समाज में फैले अंधविश्वासों एवं सामाजिक कुरीतियों के निर्मूलन के लिए अभियान चला रहे हैं जिसका एक प्रमुख हिस्सा डायन (टोनही) की धारणा का निर्मूलन भी है, इसलिये व्याख्यान, चमत्कारिक घटनाओं की वैज्ञानिक धारणा, विभिन्न ग्रामों में दौरा कर समझाना, अंधविश्वास का पर्याय बनने वाले मामलों की जाँच व सत्य की जानकारी, गोष्ठियाँ, बैठकें की जाती है। वहीं सामाजिक बहिष्कार जैसी कुरीति के भी अनेक मामले लगातार सामने आते रहते हैं,जिससे हजारों परिवार परेशान है उन्हें समाज में वापस लौटाने के लिए भी निरंतर प्रयास किया जाता है.हमें कई बार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न स्थानों के बुद्धिजीवी साथियों, छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, समाज-सुधार के संबंध में विचार पढऩे को मिलते हैं, मेरा यह मानना है कि अंधविश्वासों एवं सामाजिक कुरीतियों का समूल निर्मूलन किसी एक व्यक्ति, एक संगठन या प्रशासन के लिये संभव नहीं है। अलग-अलग स्थानों पर निवास व कार्य कर रहे सभी व्यक्ति यदि इस कार्य के लिये अपना थोड़ा समय व बहुमूल्य विचार हमें प्रदान करें, व सहयोग से कार्य करें तो ऐसा कोई भी कारण नहीं है कि इन कुरीतियों व अंधविश्वासों का निर्मूलन न किया जा सके, नये वर्ष में सर्व सहयोग से यह काम बेहतर ढंग से किया जा सकता है। इच्छुक स्वयंसेवी व्यक्ति व उत्साही कार्यकर्ता मुझसे इस पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।डॉ. दिनेश मिश्रवरिष्ठ नेत्र विशेषज्ञअध्यक्षअंधश्रद्धा निर्मूलन समितिमोबाईल नं. 98274-00859
-
--शो मैन राजकपूर की जयंती पर जाने ऐसे ही कुछ किस्से
'शोमैन' के खिताब से नवाजे गए एक्टर और निर्देशक राज कपूर की आज जयंती है। राज कपूर को बचपन से एक्टिंग करने का शौक था। जैसे जैसे वो बड़े होते गए उनकी रूचि और बढ़ती गयी। 14 दिसंबर 1924 को जन्मे राज कपूर ने अपने फिल्मी कॅरिअर में 3 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 11 फिल्मफेयर पुरस्कार हासिल किए।- राज कपूर का असली नाम रणबीर राज कपूर था। अभिनेता का नाम उनके पोते रणबीर कपूर ने साझा किया है। राज कपूर ने भारतीय सिनेमा में अपनी शुरुआत 1945 में आई फिल्म 'इंकलाब' के साथ की, जब वो सिर्फ 10 साल के थे। मात्र 24 साल की उम्र में उन्होंने अपना स्टूडियो - आरके फिल्म्स बनाया था। इस स्टूडियो में बनी पहली फिल्म 'आग' कमर्शियल फ्लॉप थी।- राज कपूर की पहली जॉब क्लैपर बॉय की थी। इस नौकरी से उन्हें 10 रुपये प्रति महीना मिलते थे।- फिल्म 'बॉबी' का एक सीन जब ऋषि कपूर डिम्पल कपाडिय़ा से उनके घर पर मिलते हैं। यह राज कपूर की रियल लाइफ पर आधारित था। नरगिस से उनकी पहली मुलाकात ऐसे ही हुई थी। किसी दौर में राज कपूर नरगिस दत्त के प्यार में पागल थे। कहा जाता है वो नरगिस को पहली नजर में दिल दे बैठे थे।-राज कपूर ने म्यूजिक डायरेक्टर जोड़ी शंकर-जयकिशन के साथ करीब 20 फिल्मों में काम किया। मुकेश और मन्ना डे जैसे मशहूर गायक की हमेशा राज कपूर को आवाज़ देते थे। इनमें से भी मुकेश ने उनके लिए कई गाने गाए। कहा जाता है, जब मुकेश का निधन हुआ, तब राज कपूर ने कहा, 'मैंने अपनी आवाज़ को खो दिया'।- राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद को भारतीय सिनेमा की पहली तिकड़ी माना जाता है। उनके बीच किसी प्रकार की स्पर्धा नहीं थी, बल्कि वे काफी अच्छे दोस्त थे। दिलीप कुमार साहब की शादी उस वक्त की सबसे भव्य शादियों में से एक थी। राज कपूर से उनके रिश्ते ऐसे थे, कि राज कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर और देव आनंद के साथ बारात में सबसे आगे गए थे। असल जिदंगी में राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की जो गहरी दोस्ती थी, लेकिन उसे परदे पर उतारा न जा सका। फिल्म निर्माता विजय आनंद ने एक फिल्म इन तीनों के साथ शुरू ज़रूर की, लेकिन डेट्स की दिक्कतों और अहम के टकराव के कारण यह फिल्म कभी पूरी नहीं हो सकी।-'मेरा नाम जोकर' फिल्म राजकपूर ने काफी लंबी बनाई थी और इसमें दो इंटरवेल थे। इस मूवी को अद्वितीय इसलिए कहा जाता है कि यह हर दौर में नई ही लगती है। यह भारत की सबसे आइकॉनिक फिल्मों में से एक है। कहा जाता है कि फिल्म का सब्जेक्ट इतना गहरा है, कि यह पहली हिंदी फिल्म थी जिसमें दो इंटरवल किए गए और यह फिल्म साढ़े 4 घंटे लंबी है।-जब राज कपूर 'सत्यम शिवम सुंदरम' फिल्म के लिए ऐक्ट्रेस फाइनलाइज़ कर रहे थे। तभी, ज़ीनत एक गांव की लड़की की तरह कपड़े पहनकर और जले हुए चेहरे का मेकअप कर उनके ऑफिस पहुंच गईं। राज कपूर उनके डेडिकेशन से इतने खुश हुए कि तुरंत उन्हें फाइनल कर दिया।- इसे लकी चार्म कह लीजिए या राज की चाहत, उनकी हर हीरोइन ने एक बार सफेद साड़ी ज़रूर पहनी है। कहा जाता है, राज कपूर ने अपनी पत्नी कृष्णा को एक सफेद साड़ी गिफ्ट की थी। उन्हें वह इतनी भाई कि आगे उनकी हर ऐक्ट्रेस ने फिल्म के कम-से-कम एक सीन में वह साड़ी ज़रूर पहनी। कहा जाता है कि राजकपूर की खातिर नरगिस शादी से पहले अक्सर सफेद साड़ी पहना करती थीं।-राज कपूर की बिगड़ती सेहत और अपने जिगरी दोस्त को खो देने के डर ने ऋषिकेश मुखर्जी को इस कदर ख़ौफज़़दा कर दिया कि उन्होंने राज के लिए 'आनंद' बनाई। राज कपूर को अक्यूट ऐस्थमा था।- राज कपूर अस्थमा के मरीज थे। राज कपूर जब दादा साहब फाल्के अवार्ड लेने दिल्ली आये थे, वहीं उन्हें अस्थमा का अटैक पड़ गया और उनका निधन हो गया था।-- - अदाकार-ए-आज़म कहलाए जाने वाले दिलीप कुमार ने इसी साल 7 जुलाई (2021) को 98 के वर्ष की आयु में इस संसार को हमेशा के लिए अलविदा कहा। उनकी फिल्में आज भी लोगों को लुभाती हैं। उन पर एक से बढ़कर गाने भी फिल्माए गए। आज हम उनसे जुड़े कुछ किस्सों को साझा कर रहे हैं।- दिलीप कुमार अपनी ज्यादातर फि़ल्मों में पूरी आस्तीन की शर्ट पहनते थे। आपने आधी आस्तीन के कपड़े पहने उन्हें बहुत कम देखा होगा। एक साक्षात्कार में उन्होंने इसकी एक वजह भी बताई थी। उन्होंने कहा था- "अगर कभी पानी का सीन हो और मैं पानी में उतरूं, तो मेरे हाथों के बाल इधर-उधर हो जाते हैं, जिस वजह से मैं बड़ा सेल्फ़ कांशियस हो जाता हूं। "-दिलीप कुमार साब को बतौर अभिनेता तो हम सबने देखा और सुना है , लेकिन दिलीप कुमार बतौर पड़ोसी कैसे थे ये तजुर्बा हर किसी को नसीब नहीं हुआ। फिल्म अभिनेता सुनील दत्त उनके पड़ोसी और दोस्त भी थे। दिलीप कुमार की पत्नी सायरा बानो और सुनील दत्त की पत्नी नरगिस भी अच्छी सहेलियां थीं। एक बार सुनील दत्त ने अपने एक साक्षात्कार में जिक्र किया था कि "मैंने दिलीप साहब को बतौर स्टूडेंट भी जाना है। एक ज़माने में मैं रेडियो के लिए कलाकारों के इंटरव्यू किया करता था । एक बार दिलीप साहब के इंटरव्यू का भी मौक़ा मिला। मैं एक स्टूडेंट था उस वक़्त और छोटा सा इंटरव्यू करने वाला पत्रकार था, लेकिन दिलीप साब मुझे अपने घर ले गए। अपनी बहनों से, भाइयों से मिलवायाष उस दिन से मेरे दिल में इनके लिए प्यार और सम्मान बढ़ गया। उन्होंने मुझे उस वक़्त से अपने घर का समझा।"- दिलीप साब की राजकपूर के साथ भी अच्छी दोस्ती थीं। फिल्म इंडस्ट्री में उस वक्त राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद की दोस्ती मशहूर थी। लेकिन राजकपूर के साथ उन्होंने केवल एक फिल्म की अंदाज। इस फिल्म के बारे में एक बार दिलीप कुमार ने बताया था कि फिल्म अंदाज़ के डायरेक्टर महबूब खान ने उन्हें और राज कपूर को खुल्ली छूट दे रखी थी कि वो जैसे चाहें सीन करें। दिलीप साब तो कहते हैं कि उन्होंने और राज कपूर ने अंदाज़ में कोई ख़ास काम नहीं किया था। बल्कि उस दौरान तो वे दोनों डरे-सहमे काम किया करते थे। हमेशा ये टेंशन रहता था कि कल का सीन कैसे करेंगे। एक्टिंग की तैयारी के लिए दिलीप साब और राज कपूर साब कभी-कभी दिन में हॉलीवुड फि़ल्मों के सारे शोज़ देखा करते थे। हालांकि राज कपूर कभी-कभी दिलीप साब पर झुंझला भी जाते थे। वो कहते थे यार क्या एक ही फि़ल्म बार-बार देखते रहते हो। दिलीप साब उनसे कहते थे कि एक फि़ल्म तो जल्दी से खत्म हो जाती है। मंजऱ समझ ही नहीं आता। वेस्टर्न फि़ल्में देख दिलीप साब राज कपूर से कहते 'यार ये लोग तो बहुत कम एक्टिंग करते हैं। हम भी ऐसी ही किया करें। इस पर राज कपूर उनसे कहते अरे नहीं युसुफ़ हम ऐसी एक्टिंग नहीं कर सकते। इस तरह की यारबाज़ी इन दो कलाकरों के बीच अक्सर चला करती थी।- फिल्म दीदार फि़ल्म में एक सीन है जिसमें अशोक कुमार दिलीप साब को थप्पड़ मारते हैं। जब ये थप्पड़ वाला सीना होना था, तब अशोक कुमार ने दिलीप साब से कहा कि मैं तुम्हारे गाल के बगल से हाथ ले जाऊंगा। सीन शुरू हुआ, तो कभी दिलीप साब हाथ आने से पहले हट जाएं तो कभी बाद में हटे। अशोक कुमार ने उनसे कहा इसकी टाइमिंग सही करो। अबकी बार जब टेक हुआ तो अशोक कुमार ने हलके से ही हाथ घुमाया था, लेकिन दिलीप साब ने टाइमिंग पकड़ ली और ऐसा रिएक्शन दिया कि लगा जैसे वाकई में उन्हें तमाचे की मार लग गई है।-सालों पहले दिलीप साब से जब पूछा गया कि नई पीढ़ी में हमें अब दिलीप कुमार, मधुबाला जैसे कलाकार क्यों नहीं दिखते। इस बारे में दिलीप साब ने सलीके का जवाब दिया, बोले, "सब मशीन हैं। वो जो कनफ्लिक्ट मधुबाला में या नर्गिस में था, वो आजकल देखने को नहीं मिलता। उनकी अदाकारी बेहतर थी क्योंकि उनके पास रॉ मटेरियल काफ़ी था। वो कहानी की तहरीर समझते थे। आजकल के कलाकारों में ये चीज़ देखने को नहीं मिलती। बदकिस्मती है कि अब हम विदेशी कल्चर से इन्फ्लुएंस हुए जा रहे हैं। ये जो कल्चरल चेंज है इसने हमें उभरने नहीं दिया है। मैं देखता हूं एक्टर्स को। वो टैलेंटेड हैं, लेकिन उनके पास परफॉर्म करने के लिए मटेरियल ही नहीं है। दूसरा उनके अंदर उस मटेरियल को ढूँढने की क्षमता भी नहीं है। ये एक गलती है जो मैं ज्यादातर कलाकारों को करते हुए देखता हूं। उनके अंदर ढूँढने की इच्छा ही नहीं होती। थोड़ा सा जानकर समझ लेते हैं कि सब आ गया है। "
- धमधा के भवानी सिंह को अंग्रेज और भोसले राजाओं ने 1856 में तोप से बांधकर उड़ा दिया था। एक जनश्रृति यह भी है कि किले पर हमला होने के बाद राजा सुरंग के रास्ते भाग गए।आखिर इतने प्रसिद्ध धमधागढ़ के राजा उसके परिवार के लोग कहां गुम हो गए? यह सवाल हर किसी के मन में आता है।इसका जवाब हमें महासमुंद जिले के पिथौरा ब्लॉक के अरण्य गांव में मिला, जहां धमधा के राजा का परिवार आज भी निवासरत हैं और वर्तमान में धमधा के राजा का नाम योगसाय है।उनके परिजनों के अनुसार अंग्रेजों के आक्रमण की खबर के बाद राजा रातोंरात सुरंग के रास्ते से निकल गए थे। वे अरण्य के जंगल में जाकर रहने लगे। उसके बाद कौडिय़ा जमींदारी में नौकर बनकर काम करने लगे। कौडिय़ा के जमींदार की पत्नी विष्णुप्रिया को जब खबर लगी कि वह नौकर नहीं धमधा का राजा है, तब रानी विष्णुप्रिया ने सात गांव की जमींदारी देकर राजा का मान सम्मान लौटाया।बाद में परऊ साय ने अपने ईष्ट बूढ़ादेव का मंदिर धमधा में बनवाया, जिसकी अनुमति 1907 में अंग्रेज अफसर से ली। इसके दस्तावेज भी राजपरिवार के पास है। बूढ़ादेव मंदिर के द्वार में दो मूर्ति बनी है, उसके नीचे परऊ सेवक लिखा हुआ है।धर्मधाम गौरवगाथा की टीम महासमुंद पिथौरा के अरण्य पहुंची और राजपरिवार की जानकारी ली। बताया गया कि परऊ साय के बेटे बूढ़ान साय और जहान साय ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और जेल की यातना झेली। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का ताम्रपत्र देकर सम्मानित भी किया गया है। बूढ़ान साय के नाम पर पिथौरा के कॉलेज का नामकरण भी किया गया है। बूढ़ान साय ने गोंड समाज को संगठित करने समिति बनाकर पंजीयन भी कराया और अपने राजपाठ के लिये लड़ाई लड़ी, लेकिन राजपरिवार को उनका राजपाठ नहीं मिल सका है।2001 में शासन ने राजा किला को केंद्रीय गोंडवाना महासभा के संरक्षण में दे दिया, जिसके बाद से राजपरिवार और उपेक्षित हो गए। आज धमधा के किले पर राजपरिवार को मेहमान की तरह आकर अपना पांरपरिक पूजा पाठ करना पड़ता है। हर साल ईशर गौरा महापूजा राजपरिवार करता है।इस बार 13-14-15 नवंबर 2021 को यह महापूजा होगी। पूरे प्रदेश से मरकाम, सोरी,खुसरो ग्रोत्र वाले इस पूजा में शामिल होते हैं। ये स्वयं को धमधा के पहले राजा सांड विजयी का वंशज बताते हैं, इनके पास दस्तावेज भी हैं, जिनमें बूढ़ादेव मंदिर के निर्माण का उल्लेख है।फिर भी राजपरिवार उपेक्षित बना हुआ है... गुमनामी में जी रहा है।(आलेख- गोविन्द पटेल, धर्मधाम गौरवगाथा समिति धमधा, 9893172336)धमधागढ़ राजा के वंशजों के साथ लेखक गोविंद पटेल और धर्मधाम गौरवगाथा समिति, धमधा के सदस्य
- @ डॉ. मिश्र फाउंडेशन द्वारा जनजागरण.अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष वरिष्ठ नेत्र विशेषज्ञ डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा है कि एक व्यक्ति के नेत्रदान के द्वारा दो दृष्टिहीन व्यक्तियों के जीवन में प्रकाश आ सकता है, स्वयं तथा अपने परिवार के सदस्यों को नेत्र दान के लिए प्रेरित कर नेत्र दान को अपनी पारिवारिक परम्परा बनाएं।डॉ दिनेश मिश्र ने कहा किसी दृष्टिहीन व्यक्ति के कठिनाई भरे जीवन का अंदाज सिर्फ आप कुछ पलों के लिए अपनी आँखें बंद कर ही लगा सकते हैं। आँखें बंद करते ही जीवन के सुन्दर दृश्य प्राकृतिक छटायें, सूर्य, जल, पृथ्वी, आकाश व जनजीवन के विभिन्न रूप अदृश्य हो जाते हैं, वहीं मन में एक भय व असुरक्षा की भावना समाज जाती है और तत्काल आँखें खोलने पर मजबूर हो जाते हैं। प्रकाश व दृष्टि से परे, जीवन का एक दूसरा रूप यह भी जानिए कि पूरी दुनिया में करीब 3 करोड़ लोग पूरी तरह से दृष्टिहीन हैं। भारत में 1 करोड़ 20 लाख लोग पूरी तरह से दृष्टिहीन हैं। 80 लाख लोगों की एक आँख खराब है तथा 4-5 करोड़ लोग कम दृष्टि के कारण घर से बाहर निकलने, मन-माफिक काम करने, चलने-फिरने से पूरी तरह बाधित हैं।डॉ. मिश्र ने प्रकृति ने जीव को दृष्टि एक ऐसा अमूल्य उपहार दिया है जिसकी कोई कीमत नहीं आंकी जा सकती है। जिस अंधकार में हम एक क्षण बिताने की कल्पना नहीं कर सकते, उसी गहन अंधकार में कितने ही लोग जिन्दगी गुजारने को मजबूर हैं। क्या इनके जीवन में प्रकाश की कोई किरण आ सकती है। इस प्रश्न का उत्तर निस्संदेह हाँ, इनमें से काफी लोग मरणोपरांत नेत्रदान से लाभ उठा सकते हैं। आंखों के स्वच्छ पटल अथवा कार्निया में सफेदी आने से होने वाले अंधत्व के उपचार के लिए नेत्र दान से प्राप्त कॉर्निया मिलना आवश्यक है।डॉ. मिश्र ने कहा नेत्रदान वह प्रक्रिया है जिसमें मानव नेत्रदान द्वारा दान-दाताओं से उनकी मृत्यु के बाद ग्रहण किये जाते हैं। नेत्रदान से प्राप्त इन आँखों की स्वच्छ कार्निया को ऐसे दृष्टिहीन व्यक्ति जिनका जीवन कार्निया में सफेदी आ जाने से अंधकारमय हो गया है, को प्रत्यारोपित कर नेत्र ज्योति लौटायी जा सकती है।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा हर स्वस्थ व्यक्ति जिसकी आँखें सही सलामत है, नेत्रदान की घोषणा कर सकता है। ऐसे व्यक्ति जो वायरल हिपेटाईटिस, पीलाया, यकृत रोग, रक्त कैंसर, टी.बी., मस्तिष्क ज्वर, सड्स् से संक्रमित होने से नेत्र नहीं लिये जाते। अप्राकृतिक मौत, एक्सीडेंट की हालत में मजिस्टे्रट की अनुमति से नेत्र ग्रहण किये जा सकते हैं। ऐसे दृष्टिहीन व्यक्ति जिनकी आँखों की कार्निया, किसी बैक्टीरिया, वायरल संक्रमण रोग, दुर्घटना, रासायनिक पदार्थों के गिरने जैसे एसिड, क्षार, घाव, अल्सर आदि के बाद सफेद व अपारदर्शी हो गई हो तथा उससे दृष्टि एकदम कम हो गई हो, का इलाज नेत्रदान से प्राप्त कार्निया प्रत्यारोपण से संभव है। लेकिन रेटिना या आँखों के परदे की बीमारी, परदा उखडऩा, लेंस की बीमारी, मोतियाबिंद, आप्टिक नर्व की बीमारी व चोटों का इलाज कार्निया प्रत्यारोपण से संभव नहीं है। जिन दृष्टिहीनों की आँख पूरी की पूरी, कैसर, चोट या संक्रमण से निकालना पड़ा हो, उन्हें नेत्रदान से लाभ नहीं होता।डॉ. मिश्र ने कहा हमारे देश में पिछले 36 वर्षों से राष्ट्रीय नेत्रदान पखवाड़ा मनाया जाता है। 25अगस्त से 8 सितम्बर तक चलने वाला यह पखवाड़ा राष्ट्रीय नेत्रदान पखवाड़े के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किया जाता है। लेकिन आज भी नेत्रदान की संख्या पिछले कई वर्षों में अंगुलियों में गिनने लायक ही है। जिसके कारण नेत्रदान से लाभांवित होने वाले मरीजों की संख्या अल्प ही रही। जबकि देश के कुछ प्रदेशों में नेत्रदाताओं की संख्या आश्यचर्यजनक रूप से बढ़ी है। नेत्रदान को महादान की संज्ञा दी गई है, भारत में करीब 25 लाख मरीज कार्निया के रोगों से पीडि़त हैं जो नेत्रदान से प्राप्त आँख की बाट जोह रहे हैं, इसमें प्रतिवर्ष 20 हजार दृष्टिहीनों की संख्या जुड़ती जा रही है। जबकि शासकीय व निजी स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रयासों के बावजूद देश में एक साल में करीब बारह हजार नेत्र प्रत्यारोपण के ऑपरेशन हो पाते हैं। श्रीलंका जैसा छोटा देश भी नेत्रदान के मामले में पूरे भारतवर्ष से आगे है।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा पहले शिक्षा का पर्याप्त प्रसार न होने से लोगों में तरह-तरह के अंधविश्वास तथा भ्रांतियां जैसे कुछ लोग यह मानते हैं कि नेत्रदान देने से व्यक्ति अगले जन्म में जन्मांध होगा, तो कुछ लोग भावनात्मक कारणों से मृत शरीर के साथ चीर-फाड़ उचित नहीं मानते तथा नेत्र निकालने की अनुमति नहीं प्रदान करते हैं। तीसरा कारण है - जागरूकता व सामाजिक जिम्मेदारी का अभाव, जबकि भारत में दानवीरता के किस्से हमें सुनने को मिलते रहे हैं। बुद्ध दधीचि, बली व कर्ण जैसे दानवीर भारत की जनता के मानव में रचे बसे हैं, उसके बाद भी नेत्रदान की कम संख्या इस पुनीत कार्यक्रम को आगे बढऩे से रोक रही है ।डॉ. मिश्र ने कहा कार्निया प्रत्यारोपण के ऑपरेशन में अच्छे परिणाम के लिए आवश्यक है कि दान देने वाले व्यक्ति की आँखें मृत्यु के उपरांत जल्द से जल्द निकाल ली जाएं तथा प्रत्यारोपण का ऑपरेशन भी यथासंभव शीघ्र सम्पन्न हो सके। फिर भी छह घंटों के अंदर दानदाता के शरीर से नेत्र निकाल लिये जाने चाहिए एवं 24 घंटों के अंदर प्रत्यारोपित हो जाने पर अच्छे परिणाम आते हैं।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा कई बार दान की घोषणा के बाद भी दानकर्ता के रिश्तेदार इस आशंका से अस्पताल में खबर नहीं करते कि मृत शरीर की चीर-फाड़ कर दुर्दशा क्यों की जाए, लेकिन इस मानसिकता को बदलना आवश्यक है जो निरंतर प्रचार व जन जागरण से ही संभव है।डॉ. मिश्र ने बताया छत्तीसगढ़ में स्थान-स्थान पर ऐसे सामाजिक संगठनों के सहयोग की आवश्यकता है। आवश्यकता पडऩे पर नेत्रदान व नेत्र प्रत्यारोपण के बीच कड़ी का काम कर सके, न केवल मरणासन्न व्यक्ति के परिवार को उस व्यक्ति के मरणोपरांत नेत्रदान के लिए प्रोत्साहित कर सके, बल्कि ऐसे व्यक्ति जिन्हें नेत्र प्रत्यारोपण की आवश्यकता है उन्हें भी नेत्रों के उपलब्ध होने की खबर जल्द से जल्द पहुँचाकर ऑपरेशन के लिए भर्ती करने व मानसिक रूप से तैयार होने में मदद कर सके। इसलिए निरंतर प्रचार व जन-जागरण की आवश्यकता है। डॉ. मिश्र ने आगे बताया वर्तमान में हमारे देश में 150 से अधिक नेत्र बैंक हैं।आईये हम अधिक से अधिक लोगों को नेत्रदान के लिए प्रेरित करें, ताकि दृष्टिहीनों के जीवन में प्रकाश की किरणें जगमगाने लगे। डॉ मिश्र फाउंडेशन इस सम्बंध में जागरूकता अभियान के माध्यम से नेत्रदान के प्रति जागरूकता बढ़ाने का कार्य कर रहा है । लोगों को इस सम्बंध में पम्पलेट वितरित करने,परामर्श देने,तथा नेत्रदान के लिए फार्म भरवाने का कार्य किया जा रहा है।डॉ दिनेश मिश्र वरिष्ठ नेत्र विशेषज्ञएवं संयोजक डॉ. मिश्र फाउंडेशन.
-
संगीतकार सलिल चौधरी की पुण्यतिथि पर विशेष
1958 में साउथ कैलिफोर्निया (लॉस एंजेल्स) में एक भारतीय संगीत वाद्य यंत्रों (म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स) की एक बहुत फेमस दुकान हुआ करती थी.. वो एकमात्र दुकान थी जो पूरे अमेरिका में प्रामाणिक भारतीय वाद्य यंत्रों को बेचती थी.. डेविड बर्नाड इसके मालिक हुआ करते थे।
एक दिन एक 36 वर्षीय भारतीय नौजवान इस दुकान में आया और वाद्य यंत्रों को बड़े ध्यान से देखने लगा..... साधारण वेशभूषा वाला ये आदमी वहां के सेल्स के लोगों को कुछ ख़ास आकर्षित नहीं कर सका, मगर फिर भी एक सेल्स गर्ल क्रिस्टिना उसके पास आ कर बनावटी मुस्कान से बोली कि मैं आपकी क्या मदद कर सकती हूँ ?
उस नौजवान ने सितार देखने की मांग की और क्रिस्टिना ने उसको सितारों के संग्रह दिखाए.. मगर उस व्यक्ति को सारे सितार छोड़ कर एक ख़ास सितार पसंद आई और उसे देखने की जि़द की.. क्योंकि वो बहुत ऊपर रखी थी और शोकेस में थी इसलिए उसको उतारना मुश्किल था.. तब तक डेविड, जो की दुकान के मालिक थे, वो भी अपने केबिन से निकलकर आ गए थे, क्योंकि आज तक किसी ने उस सितार को देखने की जि़द नहीं की थी.. बहरहाल सितार उतारी गयी तो क्रिस्टिना शेखी घबराते हुए बोली -इसे बॉस सितार कहा जाता है और आम सितार वादक इसे नहीं बजा सकता है। ये बहुत बड़े-बड़े शो में इस्तेमाल होती है।
वो भारतीय बोला -आप इसे बॉस सितार कहते हैं मगर हम इसे सुरबहार सितार के नाम से जानते हैं.. क्या मैं इसे बजा कर देख सकता हूं?
अब तक तो सारी दुकान के लोग वहां इकठ्ठा हो चुके थे..खैर.. डेविड ने इजाज़त दी बजाने की और फिर उस भारतीय ने थोड़ी देर तार कसे और फिर सुर मिल जाने पर वो उसे अपने घुटनों पर ले कर बैठ गया.. और फिर उसने राग खमाज बजाया .... उनका वो राग बजाना था कि सारे लोग वहां जैसे किसी दूसरी दुनिया में चले गए.. किसी को समय और स्थान का कोई होश न रहा.. जैसे सब कुछ थम गया वहां.. जब राग खत्म हुआ तो वहां ऐसा सन्नाटा छा चुका था जैसे तूफ़ान के जाने के बाद होता है.. लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि वो ताली बजाएं कि मौन रहें..
डेविड इतने अधिक भावुक हो गए कि उस भारतीय से बोले कि आखिर कौन हो तुम.. मैंने पंडित रविशंकर को सुना है और उन जैसा सितार कोई नहीं बजाता; मगर तुम उन से कहीं से कम नहीं हो.. मैं आज धन्य हो गया कि आप मेरी दुकान पर आये.. बताईये मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं।
उस व्यक्ति ने वो सितार खरीदने के लिए कहा मगर डेविड ने कहा इसको मेरी तरफ से उपहार के तौर पर लीजिये.. क्यों इस सितार का कोई मोल नहीं है, ये अनमोल है, इसे मैं बेच नहीं सकता..
क्रिस्टिना जो अब तक रो रही थी, उन्होंने उस भारतीय को एक डॉलर का नोट देते हुए कहा कि -मैं भारतियों को कम आंकती थी और अपने लोगों पर ही गर्व करती थी.. आप दुकान पर आये तो भी मैंने बुझे मन से आपको सितार दिखाया था, . मगर आपने मुझे अचंभित कर दिया.. फिर पता नहीं आपसे कभी मुलाक़ात हो या न हो, इसलिए मेरे लिए इस पर कुछ लिखिए। उस व्यक्ति ने क्रिस्टिना की तारीफ करते हुए अंत में नोट पर अपना नाम लिखा- सलिल चौधरी।
उसी वर्ष सलिल चौधरी ने अपनी एक फि़ल्म के लिए उसी सुरबहार सितार का उपयोग करके एक बहुत प्रसिद्ध बंगाली गाना बनाया जो राग खमाज पर आधारित था.. बाद में यही गाना हिंदी में बना जिसको लता जी ने गाया.. गाने के बोल थे---- ओ सजना.. बरखा बहार आई..रस की फुहार लायी.. अंखियों में प्यार लायी फिल्म परख (1959/60)
(छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम- विशेष) - पुण्यतिथि पर विशेषमूंछे हों तो नत्थू लाल जैसी वरना ना हों.. शराबी फिल्म में अमिताभ बच्चन का यह डॉयलॉग आज भी लोगों को याद है। फिल्म में अमिताभ ये डॉयलॉग अभिनेता मुकरी के लिए कहते हैं। छोटे कद के कलाकार मुकरी फिल्म जगत के बेहतरीन हास्य अभिनेताओं में गिने जाते रहे हैं। आज उनकी पुण्यतिथि पर उनके जुड़ी कुछ बातें....आज से 21 साल पहले 4 सितंबर 2000 को , मुंबई के एक अस्पताल में मुकरी जब जिदंगी और मौत के बीच संघर्ष कर रहे थे, दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन से लेकर बॉलीवुड के वो तमाम लोग भी उनकी सलामती के लिए दुआ मांग रहे थे, जो उनके प्रशंसक थे। फिर खबर आई कि मुकरी नहीं रहे...। उस वक्त उनकी उम्र 78 साल की थी।मुकरी का जन्म ब्रिटिश इंडिया में बॉम्बे प्रेसिडेंसी के अलीबाग में 5 जनवरी, 1922 को हुआ था। ये एक कोंकनी मुस्लिम फैमिली से संबंधित थे। उनका असली नाम मुहम्मद उमर मुकरी था, लेकिन उनकी पहचान बनी मुकरी के नाम से। अमिताभ बच्चन के साथ उनकी जोड़ी खूब बनी। शराबी, नसीब, मुक़द्दर का सिकंदर, लावारिस, महान, कुली और फिर अमर अकबर एन्थोनी में तय्यब अली का रोल, मुकरी ने अपनी अदायगी से अमर कर दिया था।मुकरी और अभिनेता दिलीप कुमार स्कूल के जमाने के दोस्त हुआ करते थे। दिलीप कुमार पढ़ाई पूरी करने के बाद पूना की मिलिट्री कैंटीन में नौकरी करने लगे और मुकरी एक मदरसे में बच्चों को इस्लाम की तालीम देने में जुट गए। कहते हैं कि मदरसे की मामूली तनख्वाह से घर परिवार का गुजारा करना मुश्किल था, इसीलिए उनका रुझान फिल्मों की तरफ हुआ। मुकरी बांबे टाकीज में सहायक निर्देशक के रूप में काम करने लगे। बांबे टॉकीज की मालकिन मशहूर अभिनेत्री देविका रानी थीं। वे अक्सर मुकरी को देखकर मुस्कुराया करती थीं। उनका छोटा कद, गोल-मटोल चेहरा और उनकी वह अलग-सी मुस्कान, जिसे देखते ही देविका रानी हंसे बिना न रह पाती थीं। वे अक्सर सोचती थीं कि यह आदमी कैमरे के पीछे की बजाय परदे पर ठीक रहेगा। और फिर मुकरी की किस्मत ने पलटा खाया और उन्हें फिल्म प्रतिमा में एक रोल मिल गया। ये 1945 की बात थी। इसी फिल्म से मेगास्टार दिलीप कुमार को भी पहचान मिली थी। इसके बाद बॉम्बे टॉकीज की बहुत सी फिल्मों में मुकरी अभिनेता के रूप में नजर आए। इस तरह कैमरे के पीछे रहने वाले मुकरी अब कैमरा का सामना कर रहे थे। फिर चल पड़ा अभिनय का एक लंबा सिलसिला। उनके खाते में जुड़ती गईं फिल्में और करीब 6 सौ फिल्मों में उन्होंने अपनी अदाकारी के जौहर दिखाए।दिलीप कुमार ने जिन चंद दोस्तों का जि़क्र अपनी आत्मकथा में किया है, उनमें उन्होंने राजकपूर, प्राण, डायरेक्टर एस.यू.सन्नी के साथ मुकरी की यादें भी सहेजी हैं। मुकरी ने दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, ऋषि कपूर, शशि कपूर और रजनीकांत जैसे बड़े दिग्गजों के साथ काम किया। उन्होंने मुमताज से शादी की, जिनसे इन्हें दो बेटी और तीन बेटे हुए। इनके एक बेटे नसीम मुकरी ने फिल्म धड़कन और हां मैंने भी प्यार किया है के डायलॉग्स लिखे हैं।मुकरी परदे पर जितने संजीदा थे, उतने निजी जिदंगी में भी थे। सीधे-सादे सरल स्वभाव के मुकरी से उनके साथी कलाकार प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते थे। 4 फीट 10 इंच के इस अभिनेता की कॉमिक टाइमिंग का जवाब नहीं था। फिल्म पड़ोसन में उन्होंने किशोर कुमार, सुनील दत्त , कैस्ट्रो मुखर्जी जैसे कलाकारों के बीच भी अपनी शानदार छाप छोड़ी। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
- जयंती पर विशेषपुरानी फिल्मों में खलनायकों का अहम किरदार हुआ करता था। अब भी फिल्मों में ऐसे किरदार मिल जाते हैं, लेकिन समय के साथ किरदार और उनका प्रस्तुतिकरण दोनों बदल गए हैं। 40 से 60 के दशक में ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के मशहूर विलेन हुआ करते थे के. एन सिंह। बड़ी-बड़ी आंखें, रौबदार चेहरा , संवाद अदायगी का अपना खास अंदाज। वे बिना नाटकीयता की संवाद अदायगी और आंखों से ऐसा माहौल पैदा करते थे, कि लोग डर जाया करते थे। ये खासियत उन्हें सब लोगों से अलग बनाती थी। आज उनकी जयंती है। इस मौके पर आज उनसे जुड़ी कुछ बातों को हम ताजा कर रहे हैं। उन्होंने 2 सौ से अधिक फिल्मों में काम किया।के. एन. सिंह का पूरा नाम है कृष्ण निरंजन सिंह। उनका जन्म 1 सितंबर, 1908 को देहरादून में हुआ था। उनके पिता चंडी दास एक जाने-माने क्रिमिनल लॉयर थे और देहरादून में कुछ प्रांत के राजा भी थे। कृष्ण निरंजन भी उनकी तरह वकील बनना चाहते थे , लेकिन अप्रत्याशित घटना चक्र से उनका वकालत से मोह भंग हो गया। अभिनेता के रूप में लोकप्रिय होने से पहले के. एन. सिंह वेट लिफ्टर और गोला फेंक के उम्दा खिलाड़ी हुआ करते थे। वे 1936 के बर्लिन ओलंपिक के लिए मेहनत कर रहे थे, लेकिन वे इसका हिस्सा नहीं बन पाए, क्योंकि उस वक्त कोलकाता में उनकी बहन काफी बीमार थी। बहन के लिए के. एन. सिंह ने अपना खेल कॅरिअर दांव पर लगा दिया। शायद यह उनकी किस्मत थी, जो उन्हें बर्लिन जाने से रोक रही थी। उन्हें एक अभिनेता के रूप में नाम जो कमाना था।इसी दौरान कोलकाता में उनकी मुलाकात पृथ्वीराज कपूर से हुई और उन्होंने देबकी बोस से उन्हें मिलवाया। देबकी बोस की बांगला फिल्म सुनहरा संसार (1936)में काम करने का मौका के. एन सिंह को मिल गया। कैमरे का जादू उन्हें इतना पसंद आया कि वे मुंबई के ही होकर रह गए। फिल्म बागवान (1936) में उन्होंने लीक से हटकर खलनायक का किरदार निभाया, जो काफी पसंद किया गया। इस तरह से खलनायक के रूप में उनकी एक सफल पारी की शुरुआत हुई। फिर तो फिल्मों का सिलसिला चल निकला। हुमायूं, आवारा, चलती का नाम गाड़ी, हावड़ा ब्रिज, हाथी मेरे साथी, बाजी, वो कौन थी जैसी फिल्में उन्हें मिली। देखते ही देखते वे अपने दौर के सबसे महंगे खलनायक बन गए। 60-70 के दशक के आते-आते दूसरे खलनायकों की लोकप्रियता ने के. एन. सिंह को चरित्र भूमिकाओं तक सीमित कर दिया। फिर एक दिन ऐसा भी आया कि कैमरे की चकाचौध का सामना करने के लिए उनकी आंखों ने जवाब दे दिए और उनकी आंखों की रोशनी चली गई। अंतिम दिनों में वे अपनी फिल्मों को देखने में अक्षम हो गए थे। 31 जनवरी 2000 को 91 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। उन्होंने अपने अभिनय से फिल्मी दुनिया में एक ऐसी सुनहरी लाइन खींच दी है, जिसकी चमक बरसों बरस तक फीकी नहीं पड़ेगी। हिन्दी फिल्म जगत में जब भी खलनायकों की बात चलेगी, तो के. एन. सिंह का नाम बड़े अदब से लिया जाएगा।निजी जिंदगी की बात करें, तो के. एन. सिंह की कोई औलाद नहीं हुई तो उन्होंने अपने भाई विक्रम सिंह जो काफी बरसों तक फिल्म फेयर पत्रिका के संपादक रहे, के बेटे पुष्कर को गोद लिया था। आज पुष्कर का अपना होम प्रोडक्शन हाउस है और वे सीरियलों के निर्माण में व्यस्त हैं। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)