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- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा तथा व्यक्तित्व-माहात्म्य से जुड़ी सामग्री :::::
00 जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज :: व्यक्तित्व-दर्शन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी ने अपने शरणागतों को भगवत-मार्ग पर चलाने के अनेक उपाय किये। उन्होंने विश्व को अपने अलौकिक प्रवचनों के माध्यम से आध्यात्म जगत के गूढ़तम रहस्यों से तो परिचित कराया ही, लेकिन कभी-कभी बड़े ही विलक्षण ढंग से अपने पास बैठे जीवों को साधना और सिद्धान्त की शिक्षा भी दे देते थे। उनके भक्तजन उनके अत्यंत समीप ही बैठकर उनका प्रेम, अपनापन और सान्निध्य प्राप्त करते थे। नीचे श्री कृपालु महाप्रभु जी के अवतारकाल के कुछ प्रसंग प्रस्तुत हैं, जो उन्होंने अपने सत्संगियों के साथ बिताये।
0 स्थान : भक्तिधाम मनगढ़ 7 18 अप्रैल 2012
श्री कृपालु महाप्रभु जी 18 अप्रैल को मनगढ़ में 'जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय' गये, वहाँ चेस्ट का एक्सरे हुआ। डॉक्टर ने जब कहा कि महाराज जी जब मैं 'राधे' बोलूँगा तब आप साँस को जोर से लीजियेगा। ये सुनते ही श्री महाराज जी अत्यधिक खुश हो गये कि सबको मैंने यहाँ तक तो पहुँचा दिया है कि सोते-जागते, खाते-पीते, हँसते-रोते 'राधे' नाम लेते हैं।
किसी-किसी प्रवचन में वे ऐसा भी कहते थे कि मैंने आप लोगों को इतना तो अवश्य सिखा दिया है कि जब आप लोग ट्रेन वगैरह में सफर करते हैं और कोई 'राधे' अथवा 'राधे राधे' बोल भर दे तो आप लोगों की निगाह उस ओर घूम जाती है कि ये 'राधे' बोला। आपको वह अपना जान पड़ता है, क्योंकि उसने 'राधे' बोला। सचमुच ही उनके व्यक्तित्व और उनके सान्निध्य में ऐसी विलक्षणता थी कि उसका नित्य सँग पा-पाकर मन में बरबस ही भगवान का चिंतन बैठने लगता था। सब स्वाभाविक, अपने-आप होता था।
0 स्थान : भक्तिधाम मनगढ़ 7 30 अप्रैल 2012
भक्तिधाम मनगढ़ के 'भक्ति-मंदिर' में 30 अप्रैल 2012 को 'श्री जानकी जयंती' के शुभ दिन मंदिर के प्रथम तल में श्री सीताराम जी के सच्चिदानंद स्वरुप (श्रीविग्रह) की स्थापना श्री कृपालु महाप्रभु जी के पावन करकमलों से हुई। शंख, मृदंग, ढोल, ढप, झाँझ, मंजीरे, घंटाल इत्यादि के मध्य सियावर रामचंद्र की जयकार गूँजती थी। सीताराम के युगल विग्रह का अभिषेक स्वयं श्री कृपालु महाप्रभु जी ने वेदमंत्रों का उच्चारण करते हुये किया।
तत्पश्चात उन्होंने सीताराम मंदिर का द्वार खोलते हुये कहा : '..इतनी प्रतीक्षा के बाद आज प्रकट हो रहे हैं..'
इस अवसर पर अनेक सत्संगी बच्चे वानर सेना का रुप धरकर जय-जयकार एवं हर्षोल्लास के नृत्य कर रहे थे। कृपालु महाप्रभु जी ने उन्हें उपहार दिये. पश्चात उपस्थित जनों से बोले कि '..कितनी सुन्दर मूर्ति है..'
मूर्तिकार के भी ये शब्द थे कि '..मैंने तो इतनी सुन्दर मूर्ति बनाई नहीं थी, कैसे इतनी सुन्दर बन गई..'
इसी दिन शाम को एक महिला भक्त श्री कृपालु महाप्रभु जी के पहली बार दर्शन पाने मनगढ़ आई थी। उसने श्री महाराज जी से कहा कि '..श्री महाराज जी, मैं अकेले ही आपके दर्शन के लिये आ गई..' श्री महाराज जी ने तब उससे कहा कि '..अरे तू अकेली नहीं आई है, तेरे साथ ठाकुर जी भी आये हैं. तेरे हृदय में बैठे हैं वो। अपने को कभी अकेला नहीं मानना, हरि गुरु सदा साथ रहते हैं..'
..इस प्रकार वे अनेक प्रकार से व्यवहार जगत में ही अपने साधकों को सिद्धान्त की याद दिलाकर उन्हें मजबूत बनाने का प्रयास करते थे। सिद्धान्त ज्ञान को उन्होंने सदैव महत्त्वता दी. उनके सान्निध्य में सदैव सिद्धान्त, प्रेम, सरसता और ब्रजरस की धार बहती रहती थी। 'जगदगुरुत्तम' की सीट पर विराजमान होकर भी वे अपने शरणागतों के लिये अत्यंत सरल थे, हर किसी को बस वे अपने से ही प्रतीत होते थे।
0 सन्दर्भ ::: साधन-साध्य पत्रिका, जुलाई 2012 अंक0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - मुकाम्बिका कर्नाटक के उडुपी जिले के कोल्लूर में स्थित एक प्रसिद्ध मंदिर है, जिसकी गिनती दक्षिण भारत के चुनिंदा प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में होती है। कोल्लूर पश्चिमी घाट की तलहटी में बसा है और धार्मिक महत्व के साथ-साथ प्राकृतिक खूबसूरती के लिए भी जाना जाता है। यह मंदिर शक्ति को समर्पित है, जिनकी पूजा श्री मुकाम्बिका के नाम से की जाती है। कोल्लूर मंदिर आम तौर पर केरल और तमिलनाडु में मुकाम्बी या मूगंबिगाई के नाम से संबोधित किया जाता है। हालांकि कोल्लूर मुकाम्बिका मंदिर कर्नाटक में है, लेकिन मुकाम्बिका मंदिर जाने वाले अधिकांश भक्त केरल या तमिलनाडु से होते हैं। श्री मुकाम्बिका अन्य हिंदू देवी-देवताओं के बीच अद्वितीय है क्योंकि देवी मुकाम्बिका महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली की शक्तियों का एक रूप है।मंदिर में मौजूद उधम लिंग पुरुष और शक्ति रूप को प्रदर्शित करता है। श्री मुकाम्बिका सभी दिव्य शक्तियों का एक अवतार मानी जाती हैं और उनकी पूजा किसी भी रूप में की जा सकती है। स्कंद पुराण में कहा जाता है कि श्री मुकाम्बिका का ज्योतिर्लिंगम पुरुष और प्रकृति का एकीकरण है। माना जाता है कि यहां प्रार्थना करना मतलब हजारों मंदिरों में प्रार्थना करने के बराबर है। यहां कई महान संतों ने तपस्या की है। सरस्वती के रूप में मुकाम्बिका शिक्षा और कला की देवी है। रवि वर्मा और स्वाथि थिरूनल आदि जैसे महान कलाकार श्री मुकाम्बिक के भक्त थे।इस मंदिर से कई पौराणिक किवदंतियां भी जुड़ी है। माना जाता है कि प्राचीन समय में कोला नाम के महर्षि किसी राक्षस के दुराचार का शिकार हो गए थे। वह राक्षस अधिक शक्ति प्राप्त करने के लोभ में तपस्या कर रहा था। तब श्री मुकाम्बिका ने देवी सरस्वती के रूप में उस राक्षस को गूंगा बना दिया था, ताकि वो भगवान के सामने दुराचारी इच्छा न प्रकट कर सके। मूक हो जाने की वजह से उस राक्षस का नाम मुकासुर पड़ा यानी गूंगा राक्षस। गूंगा हो जाने के बाद गुस्से में उसका आतंक और बढ़ गया, वो ऋषि-मुनियों को परेशान करने लगा। तब कोला महर्षि के अनुरोध पर मां पार्वती ने शक्ति का रूप धारण कर उस राक्षस का वध किया। जिसके बाद देवी नाम मुकाम्बिका पड़ा। महर्षि कोला के नाम पर गांव का नाम कोल्लूर रखा गया।
- - जगदगुरुत्तम कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन ::: पर्वादिक महात्म्य खण्ड
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दशहरा अर्थात विजया दशमी के सम्बन्ध में दिया गया प्रवचन नीचे उद्धृत है :::::
भगवान का अवतार क्यों होता है, अधिकतर लोग यही समझते हैं कि भगवान का अवतार राक्षसों का संहार करने के लिये और धर्म की संस्थापना के लिये होता है,
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।(गीता 4-6, 7)
किन्तु जो सर्वशक्तिमान है, सबके हृदय में बैठा है, चाहे राक्षस हो चाहे साधु हो तो क्या वह राक्षसों का संहार अपने दिव्य धाम में रहकर नहीं कर सकता, वह तो सर्वसमर्थ है, सत्यसंकल्प है। बस संकल्प कर ले, सब काम अपने आप ही जाये। फिर यहाँ अवतार लेकर आने की क्या आवश्यकता है? इसका मतलब है कोई और कारण है।
केवल एक कारण है - जीव कल्याण। अवतार लेने से पहले मीटिंग हुई भगवान के सब पार्षदों की भगवान के साथ। तो भगवान ने कहा कि भई पृथ्वी पर जाना है, वहाँ अपना नाम, रुप, लीला, गुण छोड़कर आना है जिसका सहारा लेकर जीव मुझे आसानी से प्राप्त कर सकें। 'दशरथ का रोल (अभिनय) कौन करेगा', कौशल्या, सुमित्रा, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न सबका निश्चित हो गया। 'अरे रावण का रोल कौन करेगा, कैकेयी का रोल कौन करेगा, बदनामी होगी लोग गाली देंगे।' 'कोई बात नहीं हमारे प्रभु का काम होना चाहिये बस हमें उनकी इच्छा में इच्छा रखना है।' (उनके भक्तों की सोच इस प्रकार होती है, वे उनकी लीला की पूर्ति के लिये बदनामी भी मोल लेने को तैयार हो जाते हैं।) यानी भगवान अपने परिकरों, पार्षदों को लेकर आते हैं और यहाँ लीला करते हैं। जितने भी उस लीला में सम्मिलित होते हैं, वे सब महापुरुष ही होते हैं अर्थात सब मायातीत होते हैं। उनके समस्त कार्यों का कर्ता भगवान ही होता है अत: उन्हें अपने कर्म का फल नहीं मिलता।
रावण भी भगवान का पार्षद ही था। भगवान ने सोचा लडऩा चाहिये, लेकिन लड़ें किससे? सब तो हमसे कमजोर हैं और कमजोर से लडऩा ये तो मजा नहीं आयेगा। अपने बराबर वाले से लडऩा चाहिये। भगवान के बराबर कौन है? महापुरुष में भगवान की सारी शक्तियाँ होती हैं। लेकिन कोई महापुरुष भगवान से क्यों लड़ेगा? अगर भगवान कहते भी हैं लडऩे के लिये तो कह देगा महाराज मैं तो शरणागत हूँ, अगर आप शरीर चाहते हैं तो मैं पहले ही दे रहा हूँ। फिर क्या किया जाये, तो भगवान ने कहा कि भई ऐसा करो कि किसी महापुरुष का श्राप दिलवाओ और उसको राक्षसी कर्म के लिये मृत्युलोक भेजो, फिर मैं वहाँ जाऊँ और उसको मारूँ तो जमकर युद्ध होगा।
तो गोलोक के दो पार्षद थे नित्य सिद्ध सदा से महापुरुष, भगवान के गेट कीपर, उनको श्राप दिला दिया सनकादि परमहंसों से जबरदस्ती। उनको प्रेरणा किया तुम हमसे मिलने आओ और गेट कीपर्स को आर्डर दे दिया कि कोई अन्दर न आने पाये। सनकादि चल पड़े भगवान से मिलने तो जय विजय ने रोक दिया, इन्होंने कहा आज तक तो किसी ने रोका नहीं था, आज क्या हो गया, श्राप दे दिया, जाओ मृत्युलोक में जाओ राक्षस बन जाओ। फिर प्रेरणा किया सनकादि को कि हमेशा के राक्षस न बनाओ बस तीन जन्म के लिये राक्षस बनकर पृथ्वी पर रहें, फिर यहाँ आ जायें। हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु, रावण-कुम्भकर्ण, कंस-शिशुपाल ये थे जय-विजय। अत: रावण वास्तव में भगवान का पार्षद था, राक्षस नहीं था, भगवान की इच्छा से ही उसने यह सब किया। अत: दुर्भावना नहीं करना उसके प्रति। हमारी रावण से कोई दुश्मनी नहीं है और न राम की दुश्मनी रावण से थी। वो तो राम को केवल ये जनता को दिखाना था कि जो भी गलत काम है उससे ऐतराज करो, गलत काम करो उसका परिणाम हानिकारक है।
मायिक जो भी वर्क है चाहे सात्विक हो चाहे राजसिक हो चाहे तामसिक हो तीनों हानिकारक हैं। सात्विक भी निन्दनीय है, उससे अधिक निन्दनीय राजस है और तामस सबसे अधिक निन्दनीय है। केवल राम की भक्ति करने वाला ही तीनों गुणों से परे होकर परमानन्द प्राप्त कर सकता है इसलिये रावण दहन का अर्थ ये नहीं है कि रावण नाम का जो राक्षस था वो जला दिया गया, छुट्टी मिली। रावण जलाने से तात्पर्य है कि रावण से जो गलत काम कराया गया था उस कर्म को छोडऩा है। भले ही हम शास्त्र वेद के ज्ञाता हो जायें, निन्दनीय कर्म किसी भी प्रकार क्षम्य नहीं है जब तक उस अवस्था पर न पहुँच जायँ कि हमारा कर्ता भगवान हो जाय अर्थात भगवत्प्राप्ति से पहले कोई भी आचरण जो शास्त्र-विरुद्ध है, वह निन्दनीय है। दशहरे वाले दिन जो रावण का पुतला जलाया जाता है वह इसी बात का द्योतक है कि सात्विक, राजसिक, तामसिक सब कर्म बन्धन कारक हैं, निन्दनीय हैं। केवल भगवान की भक्ति ही वन्दनीय है। भगवान के नाम, रुप, लीला, गुण, धाम, जन में ही निरंतर मन को लगाना, यही दशहरे पर्व का मनाने का मुख्य उद्देश्य है।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
0 सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, अक्टूबर 2008 अंक0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - आरती करने से मिलते हैं ये लाभ......आरती हिन्दू उपासना की एक विधि है। इसमें जलती हुई लौ या इसके समान कुछ खास वस्तुओं से आराध्य के सामने एक विशेष विधि से घुमाई जाती है। ये लौ घी या तेल के दीये की हो सकती है या कपूर की। इसमें वैकल्पिक रूप से, घी, धूप तथा सुगंधित पदार्थों को भी मिलाया जाता है। एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या (जैसे 3, 5 या 7) में बत्तियां जलाकर आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरी धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) से। आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है।आरती के समय कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। पूजा में न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे धार्मिक एवं वैज्ञानिक आधार भी हैं , जैसे कि-कलश- कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। मान्यतानुसा इस खाली स्थान में शिव बसते हैं। यदि आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि भक्त शिव से एकाकार हो रहे हैं। समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।जल- जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। जल को शुद्ध तत्व माना जाता है, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।नारियल-आरती के समय कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में उपस्थित ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।स्वर्ण- ऐसी मान्यता है कि स्वर्ण धातु अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। इसीलिए सोने को शुद्ध कहा जाता है। यही कारण है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडऩे का माध्यम भी माना जाता है। तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अन्य धातुओं की अपेक्षा अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका अर्थ है कि भक्त में सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।सप्तनदियों का जल- सप्तनदियों का जल-गंगा, गोदावरी, यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरी और नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि अधिकतर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी।पान-सुपारी- यदि जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें रजोगुण को समाप्त कर देती हैं और भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है। पान की बेल को नागबेल भी कहते हैं। नागबेल को भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडऩे वाली कड़ी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।तुलसी- आयुर्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
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मां दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। मान्यता है कि इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है।इनका वाहन सिंह है और यह कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं। नवरात्र में यह अंतिम देवी हैं। हिमाचल के नंदापर्वत पर इनका प्रसिद्ध तीर्थ है।
माना जाता है कि इनकी पूजा करने से बाकी देवियों कि उपासना भी स्वयं हो जाती है। यह देवी सर्व सिद्धियां प्रदान करने वाली देवी हैं। उपासक या भक्त पर इनकी कृपा से कठिन से कठिन कार्य भी आसानी से संभव हो जाते हैं। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आठ सिद्धियां होती हैं। इसलिए इस देवी की सच्चे मन से विधि विधान से उपासना-आराधना करने से यह सभी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। कहते हैं भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिव जी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अद्र्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है।विधि-विधान से नौंवे दिन इस देवी की उपासना करने से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। मां के चरणों में शरणागत होकर हमें निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उपासना करनी चाहिए। इस देवी का स्मरण, ध्यान, पूजन हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हैं और अमृत पद की ओर ले जाते हैं।मंत्र- सिद्ध गन्धर्व यक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।सेव्यमाना सदा भूयाात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।। - मां दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। नवरात्रि में आठवें दिन महागौरी शक्ति की पूजा की जाती है। नाम से प्रकट है कि इनका रूप पूर्णत: गौर वर्ण है। इनकी उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। अष्टवर्षा भवेद् गौरी यानी इनकी आयु आठ साल की मानी गई है। इनके सभी आभूषण और वस्त्र सफेद हैं। इसीलिए उन्हें श्वेताम्बरधरा कहा गया है। इनकि चार भुजाएं हैं और वाहन वृषभ है इसीलिए इन्हें वृषारूढ़ा भी कहा गया है। इनके ऊपर वाला दाहिना हाथ अभय मुद्रा है तथा नीचे वाला हाथ त्रिशूल धारण किया हुआ है। ऊपर वाले बांए हाथ में डमरू धारण कर रखा है और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। इनकी पूरी मुद्रा बहुत शांत है।पति रूप में शिव को प्राप्त करने के लिए महागौरी ने कठोर तपस्या की थी। इसी कारण से इनका शरीर काला पड़ गया, लेकिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर कांतिमय बना दिया। उनका रूप गौर वर्ण का हो गया। इसीलिए यह महागौरी कहलाईं। यह अमोघ फलदायिनी हैं और इनकी पूजा से भक्तों के तमाम कल्मष धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं।एक और मान्यता के अनुसार एक भूखा सिंह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती है। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गई, लेकिन वह देवी के तपस्या से उठने का प्रतीक्षा करते हुए वहीं बैठ गया। इस प्रतीक्षा में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आ गई। उन्होंने दया भाव से उसे अपना वाहन बना लिया क्योंकि वह उनकी तपस्या पूरी होने के प्रतीक्षा में स्वयं भी तप कर बैठा। कहते है जो स्त्री मां की पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं उनके सुहाग की रक्षा देवी स्वयं करती हैं।मंत्र- श्वेते वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचि:।महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥अन्य नाम- इन्हें अन्नपूर्णा, ऐश्वर्य प्रदायिनी, चैतन्यमयी भी कहा जाता है।
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-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखला
भक्तिमार्ग में दीनता की परम आवश्यकता है। किन्तु हम मायाधीन हैं, और माया के तमाम विकारों से घिरे हुये हैं। तथापि तत्व को समझना चाहिये कि यद्यपि हर बुराई हमारे भीतर है, फिर भी उसको स्वीकार कर अब उसके सुधार के लिये प्रयास करना चाहिये। इस सुधार के लिये हम क्या करें, विशेषकर आध्यात्ममार्गी पथिक के लिये परमावश्यक सुझाव जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा निःसृत प्रवचन के इस अंश में है। आइये इस महत्वपूर्ण विषय को समझें तथा साँप-बिच्छू और हितैषी शब्द के सांकेतिक अर्थ लेकर विचार करें ::::::
(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है...)
..देखो! एक सिद्धांत सदा समझ लो, जब तक हमको भगवत्प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक हम पर माया का अधिकार रहेगा। जब तक माया का अधिकार रहेगा, तब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि सब दोष रहेंगे। इसके अतिरिक्त पिछले अनन्त जन्मों के पाप भी रहेंगे क्योंकि भगवत्प्राप्ति पर ही समस्त पाप भस्म होते हैं। यथा,
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥(गीता 18-66)
अब सोचो यदि कोई मुझे कामी, क्रोधी, लोभी, पतित, नीच, अनाचारी, दुराचारी, पापाचारी कहता है तो गलत क्या है? सच को सहर्ष मानकर उस दोष को ठीक करना चाहिये।
एक कॉन्स्टेबल को हम जब कॉन्स्टेबल कह के परिचय कराते हैं तो वह यह नहीं कहता हमें एस.पी. कहो, आई.जी. कहो। फिर हम क्यों बुरा मानते हैं? तुलसीदास तो कहते हैं,
निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय।
वह निंदक तो हमारा हितैषी है। किसी के शरीर पर साँप, बिच्छू चढ़ रहा है और कोई बता दे तो वह तो हमारा हितैषी है। जितने मायातीत भगवत्प्राप्त महापुरुष हुए हैं वे तो लिख कर दे रहे हैं,
मो सम कौन कुटिल खल कामी।
और हम सचमुच हैं, तो बुरा मानकर अपनी घोर हानि कर रहे हैं। एक सिद्धांत और समझे रहना चाहिये। हम जितने क्षण मन को भगवान में रखते हैं बस, उतने क्षण ही हमारे सही हैं। शेष सब समय पाप ही तो करेंगे। इस प्रकार 24 घण्टे में कितनी देर हमारा मन भगवान में रहता है, सोचो। बार बार सोचना है कि मेरे पूर्व जन्मों के अनन्त पाप संचित कर्म के रूप में मेरे साथ हैं। पुन: इस जन्म के भी अनन्त पाप साथ हैं फिर भी हम भगवान के आगे आँसू बहा कर क्षमा नहीं माँगते। धिक्कार है, मेरी बुद्धि को।
बार-बार प्रतिज्ञा करना है कि अब पुन: किसी के सदोष कहने पर बुरा नहीं मानेंगे। अभ्यास से ही सफलता मिलेगी। प्रतिदिन सोते समय सोचो आज हमने कितनी बार ऐसे अपराध किये। दूसरे दिन सावधान होकर अपराध से बचो। ऐसे ही अभ्यास करते-करते बुरा मानना बन्द हो जाएगा। यह भी सोचो कि श्रीकृष्ण हृदय में बैठकर हमारे आइडियाज़ नोट करते हैं। यदि हम फ़ील करेंगे तो वे कृपा कैसे करेंगे। सदा सर्वत्र यह महसूस करने से दोष कम होंगे और इष्टदेव का बार बार चिन्तन भी होता रहेगा। निन्दनीय के प्रति भी दुर्भावना न होने पाये क्योंकि उसके हृदय में भी तो श्रीकृष्ण हैं । निन्दनीय से उदासीन भाव रहे, दुर्भावना न हो। यह प्रार्थना बार-बार करो,
यदि दैन्यं त्वत्कृपाहेतुर्न तदस्ति ममाण्वपि।तां कृपां कुरु राधेश ययाते दैन्य माप्नुयाम्॥
अर्थात् 'हे श्री कृष्ण! यदि दीनता से ही तुम कृपा करते हो तो वह तो मेरे पास थोड़ी भी नहीं है। अत: पहले ऐसी कृपा करो कि दीन भाव युक्त बनूँ।' - ऐसा कह कर आंसू बहाओ। यह करना पड़ेगा। मानवदेह क्षणिक है। जल्दी करो, पता नहीं कब टिकट कट जाय। यह मेरा नम्र निवेदन सभी से है।
(प्रवचनकर्ता ::: जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु महाप्रभु जी)
० सन्दर्भ ::: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - कल्चुरी शासक ने नागर शैली में कराया था मंदिर का निर्माणआलेख-सुस्मिता मिश्राछत्त्तीसगढ़ के तीनों महामाया मंदिर रतनपुर, अंबिकापुर और रायपुर, प्राचीन काल से लोगों की आस्था का केंद्र रहे हैं। नवरात्रि पर्व के दौरान यहां पर खूब रौनक हुआ करती है।रियासतकालीन राजधानी व संभाग मुख्यालय अंबिकापुर में मां महामाया व विंध्यवासिनी देवी विराजमान हैं। मां महामाया को अंबिका देवी भी कहा गया है। मान्यता है कि इनके नाम पर ही रियासतकालीन राजधानी का नामकरण विश्रामपुर से अंबिकापुर हुआ।प्रचलित दंत कथा के अनुसार अंबिकापुर में मां महामाया का धड़ जबकि बिलासपुर के रतनपुर में उनका सिर स्थापित है। सरगुजा महाराजा बहादुर रघुनाथशरण सिंहदेव ने जहां विंध्यासिनी देवी की मूर्ति को विंध्याचल से लाकर मां महामाया के साथ स्थापित कराया, तो वहीं मां महामाया की मूर्ति की प्राचीनता के संबंध में अलग-अलग दंत कथा प्रचलित हंै। कहा जाता है कि आदिकाल से ही यह क्षेत्र सिद्ध तंत्र कुंज के नाम से विख्यात था। यहां पर भी असम की कामाख्या देवी के मंदिर जैसी तंत्र पूजा हुआ करती थी।कहा जाता है कि मंदिर के निकट ही श्रीगढ़ पहाड़ी पर मां महामाया व समलेश्वरी देवी की स्थापना की गई थी। समलेश्वरी देवी की प्रतिमा को उड़ीसा के संबलपुर से श्रीगढ़ के राजा साथ लेकर आए थे। उसी दौरान सरगुजा क्षेत्र में मराठा सैनिकों का आक्रमण हुआ। दहशत में आए दो बैगा में से एक ने महामाया देवी तथा दूसरे ने समलेश्वरी देवी की प्रतिमा को कंधे पर उठाया और भागने लगे। इसी दौरान घोड़े पर सवार सैनिकों ने उनका पीछा किया। एक बैगा महामाया मंदिर स्थल पर तथा दूसरा समलाया मंदिर स्थल पर पकड़ा गया। इस कारण महामाया मंदिर व समलाया मंदिर के बीच करीब 1 किलोमीटर की दूरी है। वहीं प्रदेश के जिन स्थानों पर महामाया मां की मूर्ति स्थापित की गई है उसके सामने ही समलेश्वरी देवी विराजमान हैं। इसके बाद मराठा सैनिकों ने दोनों की हत्या कर दी। दंत कथा के अनुसार मराठा सैनिकों ने माता रानी की मूर्तियों को अपने साथ ले जाना चाहा, लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पाए। अंत में उन्होंने मूर्ति का सिर काट लिया और रतनपुर की ओर चल पड़े, लेकिन दैवीय प्रकोप से उन सब सैनिकों का संहार हो गया। इसलिए अंबिकापुर में माता का धड़ और रतनपुर में माता का सिर विराजमान है।ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि 17वीं सदी तक मराठों का अभ्युदय हो चुका था। सन् 1758 में बिंबाजी भोसले के नेतृत्व में सरगुजा में मराठा आक्रमण का उल्लेख है। मराठों की सेना गंगा की तरफ जाते हुए इस राज्य में आई। मराठों का उद्देश्य केवल नागपुर से काशी और गया के तीर्थ मार्ग को निष्कंटक बनाना था। संभावना व्यक्त की जाती है कि आक्रमण अंबिकापुर के श्रीगढ़ में भी हुआ हो।शारदीय नवरात्र पर सिर होता है प्रतिस्थापितअंबिकापुर स्थित मां महामाया देवी व समलेश्वरी देवी का सिर हर वर्ष परंपरानुरूप शारदीय नवरात्र की अमावस्या की रात में प्रतिस्थापित किया जाता है। नवरात्र पूजा के पूर्व कुम्हार व चेरवा जनजाति के बैगा विशेष द्वारा मूर्ति का जलाभिषेक कराया जाता है। अभिषेक से मूर्ति पूर्णता को प्राप्त हो जाती है और खंडित होने का दोष समाप्त हो जाता है। आज भी यह परंपरा कायम है। माता का सिर बनाकर उस पर मोम की परत चढ़ाई जाती है और फिर माता के धड़ के ऊपर इसे स्थापित किया जाता है। बाद में पुराने सिर का विसर्जन कर दिया जाता है। वहीं पुरातन परंपरा के अनुसार शारदीय नवरात्र को सरगुजा महाराजा महामाया मंदिर में आकर पूजा अर्चना करते हैं। जागृत शक्तिपीठ के रूप में मां महामाया सरगुजा राजपरिवार की अंगरक्षिका के रूप में पूजनीय हैं।महामाया मंदिर का वर्तमान स्वरूपवर्ष 1879 से 1917 के मध्य में कल्चुरीकालीन शासक बहादुर रघुनाथ शरण सिंहदेव ने नागर शैली में ऊंचे चबूतरे पर इस मंदिर का निर्माण करवाया था। चारों तरफ सीढ़ी और स्तंभ युक्त मंडप बना है। बीचो बीच एक कक्ष है जिसे गर्भगृह कहते हैं। यहीं पर मां महामाया विराजमान हैं। गर्भगृह के चारों ओर स्तंभयुक्त मंडप बनाया गया है। मंदिर के सामने एक यज्ञशाला व पुरातन कुआं भी है। समय के साथ यहां पर भक्तों के लिए काफी सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं।मां महामाया, विंध्यवासिनी व समलेश्वरी देवी की कृपा इस अंचल के लोगों को पुरातन समय से ही प्राप्त हो रही है। मां महामाया के दर्शन के बाद समलेश्वरी देवी की के दर्शन से ही पूजा की पूर्णता होती है। इसलिए श्रद्धालु महामाया मंदिर के बाद समलाया मंदिर में भी मां के दर्शन करते हैं। वहीं अंबिकापुर में यहां मां महामाया के दर्शन करने के पश्चात रतनपुर-बिलासपुर मार्ग पर स्थापित भैरव बाबा के दर्शन करने पर ही पूजा पूर्ण मानी जाती है।
- -किस उम्र की कन्या के पूजन से मिलता है लाभमां शक्ति की उपासना का पर्व नवरात्र में व्रत और उपवास करने को शुभकारी माना गया है। इन नौ दिनों में भक्तगण यथाशक्ति माता की उपासना में लगे रहते हैं। नवरात्र में वैसे तो हर दिन का अपना अलग महत्व है, लेकिन अष्टमी और नवमीं तिथि को खास तौर से शुभ माना जाता है और इस दिन नौ कन्याओं का पूजन और उन्हें भोजन कराने की परंपरा रही है। हवन के पश्चात नौ कन्याओं को माता का प्रतीक स्वरूप मानकर उनका पूजन किया जाता है।नवरात्रि की अष्टमी तिथि के दिन हवन और उसके बाद नवमी तिथि को कन्या पूजन करने के बाद माता रानी को विदा करके व्रत का पारण किया जाता है। कुछ लोग हवन के बाद अष्टमी तिथि को ही कन्या पूजन कराते हैं। अष्टमी तिथि को मां महागौरी और नवमी तिथि को मां सिद्धिदात्री की पूजा करने का विधान है। नवमी तिथि को मां सिद्धिदात्री के पूजन के साथ कन्या भोजन कराने विशेष महत्व है। नौ कन्याओं के साथ एक बालक को भी बटुक भैरव या लांगुर का रुप मानकर पूजन किया जाता है। 2 वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक की कन्याओं को भोजन कराने का विशेष महत्व माना गया है।क्या खिलाएंवैसे तो कन्याओं को यथाशक्ति अनुसार भोजन कराना चाहिए। मां भगवती को खीर, मिठाई, फल, हलवा, चना, मालपुआ प्रिय है इसलिए कन्यापूजन के दिन कन्याओं को खाने के लिए पूरी, चना और हलवा दिया जाता है। कन्याओं को केसर युक्त खीर, हलवा, पूड़ी का खिलाना चाहिए। ध्यान रखें कि उनके लिए बनाए खाने में लहसुन, प्याज का इस्तेमाल न हो।उम्र के अनुसार देवी तक पहुंचेगा अंशदुर्गा शप्तशती में कन्या भोजन के लिए दो वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक की कन्याओं को भोजन करने की बात कही गयी है। दुर्गा सप्तशती के अनुसार दो वर्ष की कन्या कुमारी होती, तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छह वर्ष की कालिका, सात वर्ष की चंडिका, आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा होती है। आप जिस उम्र की कन्या को भोजन करावाते हैं उससे सम्बन्धित देवी तक कन्या के माध्यम से उनका अंश पहुंच जाता है।भोजन कराने के साथ यह आवश्यक है कि आपके जरिए किसी भी कन्या का निरादर न हो। दस वर्ष तक की कन्या में मां का अंश मौजूद रहता और वह मां की तरह ही शुद्ध और निश्छल होती हैं। जो भक्त श्रद्धा भाव से कन्याओं में उनका अंश मानकर भोजन करवाता है उस भक्त पर सदा मां अनुकम्पा बनी रहती है। मान्यता है कि जो व्यक्ति कन्याओं का निरादर करते हैं उसके घर वे कभी नहीं जाती हैं और वह व्यक्ति मां के क्रोध का भागी बनता है।किस उम्र की कन्या पूजन से क्या है लाभ-2 वर्ष की कन्या गरीबी दूर करती है।-3 वर्ष की कन्या धन प्रदान करती है।-4 वर्ष की कन्या अधूरी इच्छाएं पूरी करती है।-5 वर्ष की कन्या रोगों से मुक्ति दिलाती है।-6 वर्ष की कन्या विद्या, विजय और राजसी सुख प्रदान करती है।-7 वर्ष की कन्या ऐश्वर्य दिलाती है।-8 वर्ष की कन्या शांभवी स्वरूप से वाद-विवाद में विजय दिलाती है।-9 वर्ष की कन्या दुर्गा के रूप में शत्रुओं से रक्षा करती है।-10 वर्ष की कन्या सुभद्रा के रूप में आपकी सभी इच्छाएं पूरी करती है।अष्टमी, नवमी और दशमी तिथि मुर्हुतहिन्दू पंचाग की गणना के अनुसार 23 अक्तूबर शुक्रवार सुबह 06:57 से अष्टमी तिथि आरंभ हो गई जो 24 अक्तूबर सुबह 6:58 तक रहेगी। उसके बाद नवमी तिथि 06:58 से आरंभ होकर 25 अक्तूबर सुबह 7:41 तक रहेगी। इसी तरह 25 अक्तूबर को 7:41 से दशमी तिथि आरंभ होगी जो 26 अक्तूबर सुबह 9:00 बजे तक रहेगी। इस तरह से 25 अक्तूबर को ही दशमी तिथि लगने के कारण इसी दिन दशहरा मनाया जाएगा।
- मां दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन मां कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन सहस्रार चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। कहा जाता है कि कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। नाम से अभिव्यक्त होता है कि मां दुर्गा की यह सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है अर्थात जिनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। नाम से ही जाहिर है कि इनका रूप भयानक है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। अंधकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति हैं कालरात्रि। काल से भी रक्षा करने वाली यह शक्ति है।इस देवी के तीन नेत्र हैं। यह तीनों ही नेत्र ब्रह्मांड के समान गोल हैं। इनकी सांसों से अग्नि निकलती रहती है। यह गर्दभ की सवारी करती हैं। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वर मुद्रा भक्तों को वर देती है। दाहिनी ही तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। यानी भक्तों हमेशा निडर, निर्भय रहो। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग है। इनका रूप भले ही भयंकर हो लेकिन यह सदैव शुभ फल देने वाली मां हैं। इसीलिए यह शुभंकरी कहलाईं। अर्थात इनसे भक्तों को किसी भी प्रकार से भयभीत या आतंकित होने की कतई आवश्यकता नहीं। उनके साक्षात्कार से भक्त पुण्य का भागी बनता है।कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। इसलिए दानव, दैत्य, राक्षस और भूत-प्रेत उनके स्मरण से ही भाग जाते हैं। यह ग्रह बाधाओं को भी दूर करती हैं और अग्नि, जल, जंतु, शत्रु और रात्रि भय दूर हो जाते हैं। इनकी कृपा से भक्त हर तरह के भय से मुक्त हो जाता है।मंत्र- एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥कथापौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक बार चण्ड-मुंड और रक्तबीज नाम राक्षसों ने भूलोक पर हाहाकार मचा दिया था तब देवी दुर्गा ने चण्ड - मुंड का संहार किया परन्तु जैसे ही उन्होंने रक्तबीज का संहार किया तब उसका रक्त जमीन पर गिरते ही हज़ारों रक्तबीज उतपन्न हो गए। तब रक्तबीज के आतंक को समाप्त करने हेतु मां दुर्गा ने लिया था मां कालरात्रि का स्वरुप। मां कालरात्रि काल की देवी हैं। मां दुर्गा यह स्वरुप बहुत ही डरावना है।मां कालरात्रि की पूजा विधिनवरात्रि के सप्तम दिन मां कालरात्रि की पूजा करने से साधक के समस्त शत्रुओं का नाश होता है। हमे माता की पूजा पूर्णतया नियमानुसार शुद्ध होकर एकाग्र मन से की जानी चाहिए। माता काली को गुड़हल का पुष्प अर्पित करना चाहिए। कलश पूजन करने के उपरांत माता के समक्ष दीपक जलाकर रोली, अक्षत से तिलक कर पूजन करना चाहिए और मां काली का ध्यान कर वंदना श्लोक का उच्चारण करना चाहिए। तत्पश्चात मां का स्त्रोत पाठ करना चाहिए। पाठ समापन के पश्चात माता जो गुड़ का भोग लगा लगाना चाहिए। तथा ब्राह्मण को गुड़ दान करना चाहिए।माता को गुड़हल का फूल करें अर्पितमाता काली एवं कालरात्रि को गुड़हल का फूल बहुत पसंद है। इन्हें 108 लाल गुड़हल का फूल अर्पित करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। साथ ही जिन्हें मृत्यु या कोई अन्य भय सताता हो, उन्हें अपनी या अपने सम्बन्धी की लंबी आयु के लिए मां कालरात्रि की पूजा लाल सिन्दूर व ग्यारह कौडिय़ों से सुबह प्रथम पहर में करनी चाहिए। मां कालरात्रि की इस विशेष पूजा से जीवन से जुड़े समस्त भय दूर हो जाएंगे।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखला
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन शैली की यह विशेषता है कि उनके प्रवचनों में समस्त शास्त्र-वेदों तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों के उद्धरण तो होते ही हैं, साथ ही विषय को और अधिक सरलतम रुप में समझाने के लिये वे हमारे ही संसार के अनेक उदाहरणों के द्वारा आध्यात्मिक विषय को समझाने का प्रयास करते हैं। नीचे के उद्धरण में श्री कृपालु जी महाराज ऐसे ही एक उदाहरण से हमें अपने जीवन की वास्तविक कमाई की रीति के संबंध में समझाने का प्रयास कर रहे हैं। आइये इसे समझकर अपने कल्याण के लिये उपयोग में लावें ::::::
(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है...)
...कथावाचक लोग कहते हैं, एक सेठ जी रात को हिसाब कर रहे थे दिन भर की कमाई का तो वो हिसाब बैठ नहीं रहा था, उसमें देर हो गई। तो बार-बार खाना खाने के लिये नौकरानी जाये, कि सेठानी जी बैठीं हैं खाने के लिये, चलो, सेठ जी खाना खा लो।
अरे चलते हैं भई! हिसाब नहीं बैठ रहा है। फिर हिसाब करें, फिर हिसाब करें, बस बारह बज गये। तो सेठानी ने कहा ऐसा करो कि थोड़ी सी खीर ले आओ, मुँह में लगा दो उनके। फिर जब मीठा लगेगा तब याद आयेगी खाना खाना चाहिये। तो नौकर गया उसने सेठ के मुँह में थोड़ी सी खीर लगा दिया, उन्होंने चाटा खीर को और जाकर हाथ धो लिया, मतलब खा चुके। जाओ जाओ, तुम लोग जाओ हमारा हिसाब ठीक नहीं हो रहा है।
ऐसे वो लोभी व्यक्ति लखपति, करोड़पति बनता है। ऐसे ही क्षण-क्षण हरि गुरु का चिन्तन करना है। उनके लिये तन, मन, धन से सेवा करने की प्लानिंग प्रैक्टिस, ये असली कमाई है।
प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
0 सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, अक्टूबर 2009 अंक0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
आलेख - मंजूषा शर्मा
छत्तीसगढ़ में देवी मंदिरों की श्रृंखला में डोंगरगढ़ का प्रसिद्ध बम्लेश्वरी मंदिर भी बरसों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। प्राचीन काल में यह स्थान कामावती नगर के नाम से विख्यात था। समय के साथ राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन द्वारा मंदिर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में भक्तों के लिए अनेक सुविधाओं का विस्तार किया गया है, जिससे यहां अब और भी भक्त पहुंचने लगे हैं। वैसे तो साल भर यहां पर भक्तों का आना लगा ही रहता है, लेकिन शारदीय और चैत्र नवरात्र में दूर-दूर से भक्त माता के दरबार में मत्था टेकने के लिए पहुंचते हैं। इस मौके पर पहाड़ी के नीचे भव्य मेला भी लगता है, जो स्थानीय के साथ -साथ अनेक लोगों के लिए रोजगार का साधन भी उपलब्ध कराता है। इस साल कोरोना संक्रमण के मदद्ेनजर चैत्र के बाद अब शारदीय नवरात्र में भी मेले का आयोजन स्थगित कर दिया गया है।
ऊंचे पर्वत पर विराजमान मां बम्लेश्वरी देवी के दर्शन के लिए श्रद्घालुओं को करीब एक हजार एक सौ एक सीढिय़ां चढऩी पड़ती है। रोप- वे की सुविधा शुरू हो जाने से भक्तों का माता के दरबार तक पहुंचना और आसान हो गया है। अतीत के अनेक तथ्यों को अपने गर्भ में समेटे ये पहाड़ी अनादिकाल से जगत जननी मां बमलेश्वरी देवी की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति का साक्षी हैं। कहा जाता है कि मां बम्लेश्वरी के आशीर्वाद से भक्तों को शत्रुओं को परास्त करने की शक्ति मिलती है साथ ही विजय का वरदान मिलता है। 1,600 फीट ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थित मां बमलेश्वरी देवी मंदिर आध्यात्मिक महत्व के साथ - साथ कई किंवदंतियों को भी अपने में समाहित किए हुए है।दो- पहर आरती का महत्वमां बम्लेश्वरी के दरबार में दो- पहर होने वाली आरती का भी काफी महत्व है। घंटी-घडियालों के बीच आरती की लौ के साथ मंदिर में भक्ति का अलौकिक नजारा देखने वालों को बांध लेता है, भक्ति के रस में डुबो देता है। मां बम्लेश्वरी बगलामुखी का रूप हैं , जो हिमाचल के कांगड़ा में सुंदर पहाडिय़ों के बीच साक्षात विराजमान हैं। मान्यता है कि 10 महाविद्याओं में से एक मां बगलामुखी के दरबार में भगवान राम ने तपस्या कर रावण पर विजय प्राप्त करने का आशीर्वाद प्राप्त किया था।अद्भुत है माता की महिमाचारों तरफ पहाड़ों से घिरे डोंगरगढ़ का इतिहास अद्भुत है। राजा विक्रमादित्य से लेकर खैरागढ़ रियासत तक के कालपृष्ठों में मां बम्लेश्वरी की महिमा गाथा मिलती है। दंतकथा है कि आज के करीब ढाई हजार साल पहले इस नगर का नाम कामावतीपुरी था। यहां राजा वीरसेन का शासन था। उनकी कोई संतान नहीं थी। राजा को यह जानकारी मिली कि नर्मदा नदी के तट पर एक तीर्थ है, महिष्मती, जहां भगवान शिव की आराधना करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। राजा-रानी ने शुभ मुहुर्त में नर्मदा नदी के तट पर भगवान शंकर और पार्वती की आराधना की। इस प्रार्थना के एक वर्ष बाद उन्हें सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। इस चमत्कार से अभिभूत होकर राजा वीरसेन ने पहाड़ी की चोटी पर मां पार्वती के मंदिर की स्थापना की। भगवान शिव अर्थात महेश्वर की पत्नी होने के कारण पार्वती जी का नाम महेश्वरी भी है। कालान्तर में महेश्वरी देवी ही बम्लेश्वरी कहलाने लगी। तब से ऐसी मान्यता है कि मां बम्लेश्वरी की जो सच्चे मन से पूजा करता है, उसके सब दुख-दर्द दूर हो जाते हैं।वैसे भी डोंगरगढ़ की पर्वतवासिनी, मां बम्लेश्वरी के मंदिर की प्राचीनता संदेह की परिधि से सर्वथा बाहर है क्योंकि आस्था का आंकलन कभी नहीं किया जाता। यहां पर मां शक्ति बम्लेश्वरी रूप में विराजमान हैं जो करीब ढाई हजार से अधिक वर्षों से करोड़ों श्रद्घालुओं की श्रद्घा एवं उपासना का केंद्र बनी हुई है।डोंगरगढ़ तहसीलबात करें डोंगरगढ़ की तो यह राजनांदगांव जिले की सबसे बड़ी तहसील है। राजसी पहाड़ों और तालाबों के साथ, डोंगगढ़ शब्द से लिया गया है- डोंगर का मतलब पहाड़ और गढ़ का अर्थ किला है। पहले डोंगरगढ़ रियासत में शामिल था और खैरागढ़ नरेश कमल नारायण सिंह की वजह से इसकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंची। उन्होंने ही पहाड़ी की तलहटी पर छोटी बम्लई माता मंदिर का निर्माण करवाया। सन् 1964 में मंदिर के संचालन के लिए राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक समिति बनाई जो श्री बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट समिति के नाम से जानी जाती है। इस समिति ने बम्लेश्वरी मंदिर के विकास में अहम भूमिका निभाई।करीब एक हजार सीढिय़ों की चढ़ाई करने के बाद जब भक्त ऊंची पहाड़ी पर माता के दरबार में पहुंचते हैं, तो उनकी सारी थकान छूमंतर हो जाती है। मां का प्रताप ही कुछ ऐसा है। ऊपर से डोंगरगढ़ शहर को देखना अपने आप में रोमांचक अनुभव है। नवरात्र के दौरान रात्रि में पूरी पहाड़ी रौशनी से जगमगा उठती है। दिन के समय यहां पहुंचे तो पहाड़ों और जंगलों की नैसर्गिक सुषमा यात्रियों के मन को शांति प्रदान करने के साथ ही अलौकिक सुख का अनुभव कराती है।अन्य आकर्षण-तपस्वी तालाब से जुड़ी हैं कई मान्यताएंपहाड़ी की तलहटी पर तपस्वी तालाब भी है जिसके बारे में कई मान्यताएं और किवदंतियां हैं। कहा जाता है कि ऋषि-मुनि इसके आसपास की गुफाओं में तप करने आते थे इसलिए इसका नाम तपस्वी तालाब हो गया।टोनही बम्लाई का मंदिरडोंगरगढ़ में मां रणचण्डी देवी का मंदिर भी भक्तों की आस्था का केंद्र है जिसे टोनही बम्लाई भी कहा जाता है। मान्यता है कि इस मंदिर में पहले इस बात की जांच पड़ताल की जाती थी कि संबंधित व्यक्ति जादू-टोने का शिकार तो नहीं है। मंदिर में भक्त दीपक या अगरबत्ती जलाने के लिए अगर माचिस जलाता है और उसकी माचिस नहीं जलती है तो यह माना जाता है कि उस पर जादू-टोना किया गया है। माचिस अगर जल जाती है तो तंत्र-मंत्र की बात निर्मूल साबित होती है।मंदिर मार्ग में रणचण्डी मंदिर के अलावा नागदेवता का मंदिर भी है। भीम पैर के संदर्भ में भी कई दंत कथाएं हैं। कहा जाता है कि पाण्डव और भगवान राम ने भी इस नगरी में कुछ वक्त व्यतीत किया था।सभी सम्प्रदाय की इबादतगाहमां बम्लेश्वरी मंदिर के लिए विख्यात डोंगरगढ़ में हिन्दू- मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह भी है। मुस्लिम समाज यहां टेकरी वाले बाबा और कश्मीर वाले बाबा की दरगाह में सजदा करते हैं, तो सिख ऐतिहासिक गुरूद्वारे में कीर्तन। ईसाइयों का ब्रिटिश कालीन चर्च भी मौजूद है। बौद्घ धर्मावलंबियों ने यहां प्रज्ञागिरी में भगवान बुद्घ की विशाल प्रतिमा स्थापित की है, जो दूर से स्पष्ट नजर आ जाती है।आदिवासियों के अराध्य बूढ़ादेव के मंदिर की अपनी अलग दंत कथा है तो दंतेश्वरी मैया भी यहां विराजमान है। मूंछ वाले राजसी वैभव के हनुमान जी की छह फीट ऊंची मूर्ति के अलावा खुदाई में निकली जैन तीर्थंकर चंद्रप्रभु की प्रतिमा भव्य एवं विशाल है। - मां दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। उस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। नवरात्रि में छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा की जाती है। इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं।कात्य गोत्र में विश्व प्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की। कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं। इनका गुण शोधकार्य है। इसीलिए इस वैज्ञानिक युग में कात्यायनी का महत्व सर्वाधिक हो जाता है। इनकी कृपा से ही सारे कार्य पूरे जो जाते हैं। यह वैद्यनाथ नामक स्थान पर प्रकट होकर पूजी गईं। मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा की थी। यह पूजा कालिंदी यमुना के तट पर की गई थी। इसीलिए यह ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य है। यह स्वर्ण के समान चमकीली हैं और भास्वर हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। दायीं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। मां के बाँयी तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। इनका वाहन भी सिंह है। इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि इस देवी की उपासना करने से परम पद की प्राप्ति होती है।मंत्र- चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥माता का स्वरूप- मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य है। ये स्वर्ण के समान चमकीली हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। दाईं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। मां के बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। मां कात्यायनी का वाहन सिंह है।मां कात्यायनी की पौराणिक कथामां दुर्गा के इस स्वरूप की प्राचीन कथा इस प्रकार है कि एक प्रसिद्ध महर्षि जिनका नाम कात्यायन था, ने भगवती जगदम्बा को पुत्री के रूप में पाने के लिए उनकी कठिन तपस्या की। कई हजार वर्ष कठिन तपस्या के पश्चात् महर्षि कात्यायन के यहां देवी जगदम्बा ने पुत्री रूप में जन्म लिया और कात्यायनी कहलायीं। ये बहुत ही गुणवंती थीं। इनका प्रमुख गुण खोज करना था। इसीलिए वैज्ञानिक युग में देवी कात्यायनी का सर्वाधिक महत्व है। मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित रहता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस दिन जातक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होने के कारण मां कात्यायनी के सहज रूप से दर्शन प्राप्त होते हैं। साधक इस लोक में रहते हुए अलौकिक तेज से युक्त रहता है।पूजा का महाउपाययदि किसी व्यक्ति की शादी में तमाम तरह की अड़चनें आ रही हैं या फिर वैवाहिक जीवन में कोई समस्या है तो आज के दिन ऐसे जातकों को माता की विशेष रूप से पूजा-आराधना करनी चाहिए। आज के दिन मां कात्यायनी की विधि पूर्वक स्तुति करने से सुखद वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद प्राप्त होता है और सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। जिन साधकों को विवाह से सम्बंधित समस्या है, इस दिन मां को हल्दी की गांठे माता को अर्पित करने से मां उन्हें उत्तम फल प्रदान करती हैं।पूजा विधिनवरात्रि के छठवें दिन स्नान-ध्यान के पश्चात् लाल रंग के कपड़े पहन कर मां कात्यायनी की प्रतिमा या फोटो के सामने माता का ध्यान करें। इसके बाद कलश आदि पूजन करने के बाद के बाद मां कात्यायनी की पीले रंग के फूलों से विशेष पूजा अर्चना करें। पूजा के पश्चात् मां कात्यायनी की वंदना या श्लोक पढऩा करना न भूलें। इसके पश्चात् मां का स्त्रोत पाठ करें और फिर मां को पीले नैवेद्य का भोग लगाएं।
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- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य हैं। उन्होंने अपने अवतारकाल में अनेकानेक गुढ़ातिगूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों एवं शंकाओं का निराकरण किया है जिससे भगवदीय प्रेम-पथिकों के लिये साधना का मार्ग नित्य निरंतर प्रकाशवान रहा है। अनेक जिज्ञासु जीवों ने उनसे अपनी जिज्ञासायें व्यक्त की थी, जिनका उन्होंने बड़ा सरल एवं वेदादिक सम्मत समाधान प्रदान किया है। ऐसा ही एक प्रश्न एक साधक ने उनसे पूछा था। आइये उस प्रश्न तथा श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा दिये गये उत्तर पर हम सभी विचार करें :::::
एक साधक का प्रश्न ::: श्री महाराज जी! परमार्थ के पथ पर चलने वाले साधक को, क्या अपने भविष्य की चिन्ता करनी चाहिये?
श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर ::: नहीं। क्योंकि जो कुछ प्रारब्ध में होगा वही उसे प्राप्त होगा। अगर व्यक्ति के प्रारब्ध में नहीं है, उसे अगर वह एकत्र करेगा तो कोई न कोई ऐसा बनाव बन जायेगा कि चुटकी में वह सब समाप्त हो जायेगा।
परमार्थ के पथ पर चलने वाले को चिन्ता किस बात की? अगर कोई कहे कि भविष्य की चिन्ता नहीं करेंगे तो मर जायेंगे। यह कैसे हो सकता है? जबकि वह भगवान के शरणागत है, और शरणागत का योगक्षेम भगवान वहन करते हैं।
तुम्हारी जिस वस्तु में सबसे अधिक आसक्ति (अटैचमेन्ट) हो, उसी को भगवान को अर्पण कर दो। इससे तुम्हारी आसक्ति कम हो जायेगी। आसक्ति ही भगवत क्षेत्र में बाधा डालती है। तुम्हारी आसक्ति किसमें है, यह जानने के लिये, चिन्तन द्वारा पता लगाओ, तत्पश्चात उस वस्तु का समर्पण कर दो। गुरु की शरणागति और कृपा से ही सब कुछ सम्भव है।
0 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश, मार्च 2002 अंक0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -मंदिर की बनावट में जुड़े हैं कई रहस्य-तांत्रिक विधि से किया गया है मंदिर का निर्माणआलेख-सुस्मिता मिश्राराजधानी रायपुर में प्रमुख शक्तिपीठों में एक प्राचीन महामाया मंदिर भी है। साल भर यहां पर माता के भक्तों की भीड़ लगी रहती है। माता का प्रताप ही कुछ ऐसा है कि एक बार वहां जाने वाले भक्त की इच्छा बार-बार माता के दर्शन करने की होती है। इस मंदिर की ऐतिहासिकता और प्रताप हर किसी को प्रभावित करता है। मां का दरबार सदियों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। तांत्रिक पद्धति से बने इस मंदिर में दूर-दूर से भक्त आते हैं। माना जाता है कि मंदिर में महामाया माता से सच्चे मन से की गई प्रार्थना हमेशा पूरी होती है।इतिहासमहामाया मंदिर का इतिहास करीब छह सौ साल पुराना है। इस मंदिर की स्थापना हैहयवंशी कलचुरिया वंश के राजा मोरध्वज ने करवाई थी । छत्तीसगढ़ में इस वंश का शासन काफी समय तक रहा। इस वंश के राजाओं ने इस क्षेत्र में छत्तीस किले यानी गढ़ बनवाए और इस वजह से इस राज्य का नाम छत्तीसगढ़ हुआ। इन गढ़ों में प्रमुख है रतनपुर और रायपुर। इन दोनों स्थानों में महामाया मंदिर का निर्माण किया गया। रायपुर के महामाया मंदिर की बात करें तो शुरू से ही यह हिस्सा आसपास के क्षेत्र से अधिक ऊंचाई पर था। आज भी कमोबेश यही स्थित है। एक ओर कंकाली तालाब, दूसरी ओर महाराज बंध तालाब और तीसरी ओर पुरानी बस्ती की तरफ ढलान है। भले की प्राचीन डबरियां पर लुप्तप्राय हो गई हैं, लेकिन ढलान आज भी कायम है ।जनश्रुति के अनुसार इस मंदिर की प्रतिष्ठा हैहयवंशी राजा मोरध्वज के हाथों किया गया था। बाद में भोंसला राजवंशीय सामन्तों व अंग्रेजी सल्तनत द्वारा भी इसकी देखरेख की गई है। किवदन्ती है कि एक बार राजा मोरध्वज अपनी रानी कुमुद्धती देवी (सहशीला देवी) के साथ राज्य के भ्रमण में निकले थे, जब वे वापस लौट रहे थे, तो प्रात: काल का समय था। राजा मोरध्वज के मन में खारुन नदी पार करते समय विचार आया कि प्रात: कालीन दिनचर्या से निवृत्त होकर ही आगे यात्रा की जाए। यह सोचकर नदी किनारे (वर्तमान महादेवघाट) पर उन्होंने पड़ाव डलवाया। दासियां कपड़े का पर्दा कर रानी को स्नान कराने नदी की ओर ले जाने लगीं। जैसे ही नदी के पास पहुंचीं तो रानी व उनकी दासियां देखती हैं कि बहुत बड़ी शीला पानी में है और तीन विशालकाय सर्प वहां मौजूद हैं। यह दृश्य देखकर वे सभी डर गईं और पड़ाव में लौट आईं। इसकी सूचना राजा को भेजी गई। राजा ने भी यह दृश्य देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। तत्काल अपने राज ज्योतिषी व राजपुरोहित को बुलवाया। उनकी बताई सलाह पर राजा मोरध्वज ने स्नान आदि के पश्चात विधिपूर्वक पूजन किया और शीला की ओर धीरे-धीरे बढऩे लगे। तीन विशालकाय सर्प वहां से एक-एक कर सरकने लगे। उनके हट जाने के बाद राजा ने उस शीला को स्पर्श कर प्रणाम किया और सीधा करवाया। सभी लोग यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि वह शीला नहीं महिषासुरमर्दिनी रूप में अष्टभुजी भगवती की मूर्ति है। यह देख सभी ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।कहा जाता है कि उस समय मूर्ति से आवाज निकली। हे राजन! मैं तुम्हारी कुल देवी हूं। तुम मेरी पूजा कर प्रतिष्ठा करो, मैं स्वयं महामाया हूं। राजा ने अपने पंडितों, आचार्यों व ज्योतिषियों से विचार विमर्श कर सलाह ली। सभी ने सलाह दी कि भगवती मां महामाया की प्राण-प्रतिष्ठा की जाए। तभी जानकारी प्राप्त हुई कि वर्तमान पुरानी बस्ती क्षेत्र में एक नये मंदिर का निर्माण किया जा रहा है। उसी मंदिर को देवी के आदेश के अनुसार ही कुछ संशोधित करते हुए निर्माण कार्य को पूरा करके पूर्णत: वैदिक व तांत्रिक विधि से आदिशक्ति मां महामाया की प्राण प्रतिष्ठा की गई। कहा जाता है कि माता ने राजा से कहा था कि वह उनकी प्रतिमा को अपने कंधे पर रखकर मंदिर तक ले जाएं। रास्ते में प्रतिमा को कहीं रखें नहीं। अगर प्रतिमा को कहीं रखा तो मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगी। राजा ने मंदिर पहुंचने तक प्रतिमा को कहीं नहीं रखा , लेकिन मंदिर के गर्भगृह में पहुंचने के बाद वे मां की बात भूल गए और जहां स्थापित किया जाना था, उसके पहले ही एक चबूतरे पर रख दिया। बस प्रतिमा वहीं स्थापित हो गई। राजा ने प्रतिमा को उठाकर निर्धारित जगह पर रखने की कोशिश की , लेकिन नाकाम रहे। प्रतिमा को रखने के लिए जो जगह बनाई गई थी वह कुछ ऊंचा स्थान थी। इसी वजह से आज भी मां की प्रतिमा चौखट से तिरछी दिखाई पड़ती है। जानकारों के मुताबिक मंदिर का निर्माण राजा मोरध्वज ने तांत्रिक विधि से करवाया था। इसकी बनावट से भी कई रहस्य जुड़े हुए हैं। मंदिर के गर्भगृह के बाहरी हिस्से में दो खिड़कियां एक सीध पर हैं। सामान्यत: दोनों खिड़कियों से मां की प्रतिमा की झलक नजर आनी चाहिए ,लेकिन ऐसा नहीं होता। दाईं तरफ की खिड़की से मां की प्रतिमा का कुछ हिस्सा नजर आता है परंतु बाईं तरफ नहीं। माता के मंदिर के बाहरी हिस्से में सम्लेश्वरी देवी का भी मंदिर है। सूर्योदय के समय किरणें सम्लेश्वरी माता के गर्भगृह तक पहुंचती हैं। सूर्यास्त के समय सूर्य की किरणें मां महामाया के गर्भगृह में उनके चरणों को स्पर्श करती हैं। मंदिर की डिजाइन से यह अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है कि प्रतिमा तक सूर्य की किरणें पहुंचती कैसे होंगी। पौराणिक मान्यता है कि मंदिर के साथ दिव्य शक्तियां जुड़ी हुई हैं।मंदिर के इतिहास पर सबसे पहले 1977 में महामाया महत्तम नामक किताब लिखी गई। इसके बाद मंदिर ट्रस्ट ने 1996 में इसका संशोधित अंक प्रकाशित करवाया। 2012 में मंदिर की ओर से प्रकाशित की गई रायपुर का वैभव श्री महामाया देवी मंदिर को इतिहासकारों ने प्रमाणिक किया है। सभी किवदंतियों और जनश्रुति का उल्लेख प्रमाणिक किताबों में मिलता है।
- नवरात्रि का पांचवां दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। मां अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं। यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरद मुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। पहाड़ों पर रहकर सांसारिक जीवों में नवचेतना का निर्माण करने वालीं स्कंदमाता। कहते हैं कि इनकी कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है। स्कंद कुमार कार्तिकेय की माता के कारण इन्हें स्कंदमाता नाम से अभिहित किया गया है। इनके विग्रह में भगवान स्कंद बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं।यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। यह कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है। शास्त्रों में इसका पुष्कल महत्व बताया गया है। इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। भक्त को मोक्ष मिलता है। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कांतिमय हो जाता है। अत: मन को एकाग्र रखकर और पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में कठिनाई नहीं आती है। उनकी पूजा से मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है। यह देवी विद्वानों और सेवकों को पैदा करने वाली शक्ति है। यानी चेतना का निर्माण करने वालीं। कहते हैं कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम महाकाव्य और मेघदूत रचनाएं स्कंदमाता की कृपा से ही संभव हुईं।मंत्र- सिंहसनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी॥कथा- पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी स्कंदमाता ही हिमालय की पुत्री हैं और इस वजह से इन्हें पार्वती कहा जाता है। महादेव की पत्नी होने के कारण इन्हें माहेश्वरी भी कहते हैं। इनका वर्ण गौर है इसलिए इन्हें देवी गौरी के नाम से भी जाना जाता है। मां कमल के पुष्प पर विराजित अभय मुद्रा में होती हैं इसलिए इन्हें पद्मासना देवी और विद्यावाहिनी दुर्गा भी कहा जाता है। भगवान स्कंद यानी कार्तिकेय की माता होने के कारण इनका नाम स्कंदमाता पड़ा। स्कंदमाता प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं की सेनापति बनी थीं। इस वजह से पुराणों में कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है।कैसे करें स्कंदमाता की पूजा- नवरात्रि के पांचवें दिन सबसे पहले स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें। अब घर के मंदिर या पूजा स्थान में चौकी पर स्कंदमाता की तस्वीर या प्रतिमा स्थापित करें। गंगाजल से शुद्धिकरण करें। अब एक कलश में पानी लेकर उसमें कुछ सिक्के डालें और उसे चौकी पर रखें। अब पूजा का संकल्प लें। इसके बाद स्कंदमाता को रोली-कुमकुम लगाएं और नैवेद्य अर्पित करें। अब धूप-दीपक से मां की आरती उतारें. आरती के बाद घर के सभी लोगों को प्रसाद बांटें और खुद भी ग्रहण करें। स्कंद माता को सफेद रंग पसंद है। आप श्वेत कपड़े पहनकर मां को केले का भोग लगाएं। मान्यता है कि ऐसा करने से मां निरोगी रहने का आशीर्वाद देती हैं।स्कंदमाता का मनपसंद रंग और भोगस्कंदमाता को नारंगी रंग पसंद है। दिन भर व्रत रखने के बाद शाम को माता को केले का भोग लगाया जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से शरीर स्वस्थ रहता है।
- - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी विशेष लेखों की श्रृंखला :::::जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने सन 1957 में जगद्गुरु बनने के पश्चात पूरे भारतवर्ष तथा अनेक अवसरों पर विदेशों में जाकर भी सनातन वैदिक धर्म तथा भक्तितत्व का अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार किया है। उनके इस भक्ति-आन्दोलन का प्रसाद और उनका दिव्य सहज सान्निध्य भगवान श्रीरामचन्द्र जी के ननिहाल छत्तीसगढ़ राज्य ने भी प्राप्त किया है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज 1950 के दशक से अनेक बार यहाँ की धरा और जनमानस को सँग प्रदान कर उन पर श्रीराधाकृष्ण के ब्रजरस तथा कृपा की वर्षा कर चुके हैं। विशेषत: भिलाई, जिन्हें वे अपना हृदय स्थल कहते थे, भाटापारा, राजनांदगांव, बिलासपुर, रायगढ़, रायपुर आदि स्थानों पर वे अनेक बार आ चुके हैं तथा प्रवचन-रस का भी पान करा चुके हैं। आज भी उनके सान्निध्य का दिव्य स्पर्श उन स्थानों की भूमि, वातावरण, वृक्षों, पत्तों, फूलों तथा जनमानस के हृदय में जैसे ज्यों की त्यों अंकित हैं।नीचे एक संस्मरण है उनके जगद्गुरु बनने के कुछ वर्ष पश्चात का, जब राजनांदगाँव में श्री कृपालु महाप्रभु जी पब्लिक स्पीच दे रहे थे, तब के समय का एक संस्मरण उन्होंने स्वयं ही अपने सत्संगियों को सुनाया था। इनमें जिन आदरणीय व्यक्तित्व का जिक्र है, राजनांदगाँव के वे महानुभाव श्री बलदेव प्रसाद जी मिश्र, जो कि एक महान साहित्यकार, न्यायविद थे तथा जिन्होंने 'तुलसी-दर्शन' पर सराहनीय कार्य किया। वे बलदेव प्रसाद मिश्र जी, श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 1955 तथा 1956 में क्रमश: चित्रकूट तथा कानपुर में आयोजित अखिल भारतवर्षीय भक्तियोग दार्शनिक सम्मलेन में आमंत्रित महात्माओं की सूची में शामिल रहे थे तथा वे श्री कृपालु जी महाराज के 'जगदगुरुत्तम' बनने के साक्षी भी रहे हैं। वे एक अवसर पर राजनांदगाँव में श्री कृपालु जी महाराज से मिले थे, उसी मुलाकात का यह वर्णन है।यह संस्मरण स्वयं जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने शब्दों में सुनाया था, उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है ::::::'...हम राजनांदगाँव (तब मध्यप्रदेश में था) में लेक्चर दे रहे थे, तो वहाँ एक बलदेव मिश्र (डी. लिट्.) थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी हमारे प्रेसिडेन्ट थे पहले वाले, उनके गुरु। तो वो हमसे मिलने आये, लेक्चर सुना एक बार खाली। तो इतने प्रभावित हुये, इनको सब शास्त्र वेद याद है। उस जमाने में हम नम्बर नहीं बोलते थे शास्त्रों वेदों के, खाली कोटेशन बोल दें, ये गीता, ये भागवत, ये रामायण, ये वेद।तो मिलने आये हमसे, हमारे साथ उस समय सिंहासन भी चलता था - जगद्गुरु का। करीब 55 साल पहले की बात है. (जब वे यह संस्मरण सुना रहे थे, तब से 55 साल पहले) तो हमारा चपरासी बाहर बैठा था, हम कमरे में आराम कर रहे थे, जैसे दोपहर को आराम करते हैं। तो मामूली पढ़ा लिखा था वो। यादव जानते हैं कुछ पुराने लोग, रायगढ़ का था वो। बहुत मामूली पढ़ा लिखा दर्जा चार तक मुश्किल से।हमको उठने में देर हुई, वो बैठे रहे कि हम तो मिल के ही जायेंगे, इतनी छोटी उमर में इतने शास्त्र वेद याद हैं। तो उससे (चपरासी से) बात करते रहे वो। आपके गुरु जी कितने घंटे पढ़ते हैं? कितनी पुस्तकें उनके पास हैं? उसने (चपरासी ने) कहा - एक भी पुस्तक नहीं रखते, एक भी। और वो रेडियो सुनते रहते हैं। (बलदेव मिश्र जी ने आगे कहा) अरे शास्त्री वगैरह तो बड़ी किताबें लेकर साथ साथ चलते हैं, जहाँ जाते हैं लेक्चर देने।(चपरासी ने) कहा, वो कुछ नहीं रखते। विश्वास नहीं किया उन्होंने। खैर वो बैठे रहे, और प्रश्न करते रहे उनसे वो क्या समझाते हैं? वो अपढ़ गँवार लेकिन फिर दिन-रात सुनता रहे लेक्चर तो कुछ दिमाग में भर गया था उसके, वो अपनी अक्ल से जवाब देता रहा। जब हम उठे, हमसे मिलने आये तो कहने लगे, आपका तो चपरासी भी फिलॉसफर है। क्यों? कहे, हम तमाम सारे क्वेश्चन उससे किये, सबका उत्तर धड़ाधड़ देता रहा वो। वो तो बेपढ़ा लिखा है बिचारा। आप कोई पुस्तक साथ में नहीं रखते? हमने कहा - नहीं मेरे सामान में तो कोई पुस्तक कभी नहीं रही। उनको बहुत आश्चर्य हुआ...'(जैसा कि श्री कृपालु महाप्रभु जी ने अपने शब्दों में सुनाया)
0 स्त्रोत ::: 'जगदगुरुत्तम' पुस्तक, पृष्ठ संख्या 1320 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - मंदिर और पहाड़ी के साथ जुड़ी हैं कई कथाएं और किंवदंतियां-महाभारत काल से भी है जुड़ाव-आलेख -वरिष्ठ पत्रकार अनिल पुरोहितछत्तीसगढ़ के प्राय: सभी क्षेत्र ऐतिहासिक और पौराणिक संपदा की दृष्टि से अत्यंत संपन्न हैं और श्रद्धा, भक्ति व समर्पण की पावन त्रिवेणी के अजस्र प्रवाह में समूचा लोकमानस अवगाहन करता है। राज्य के महासमुंद जिले के ही बागबाहरा तहसील मुख्यालय से करीब 14 किलोमीटर दूर स्थित भीमखोज से लगे खल्लारी ग्राम की पहाड़ी पर मां खल्लारी का मंदिर ऐसा ही एक महत्वपूर्ण केंद्र है। दर्शनार्थी भक्तों की सुविधा की दृष्टि से पहाड़ी के नीचे भी एक मंदिर में मां खल्लारी की प्राण-प्रतिष्ठा की गई है। यहां आसपास का स्थान प्राकृतिक रूप से जंगल व पहाडिय़ों से घिरा हुआ है। यहां के प्राकृतिक वातावरण और पौराणिक महत्व ने इसे पर्यटन की दृष्टि से भी उभारा है। इस मंदिर और पहाड़ी के साथ कई कथाएं, किंवदंतियां और घटनाएं जुड़ी हैं जिनके बारे में लोग कम ही जानते हैं।खल्लारी दो शब्दों से मिलकर बना नाम है- खल और अरि; जिसका तात्पर्य है : दुष्टों का नाश करने वाली! जानकार लोगों और उपलब्ध शिलालेखों से ज्ञात होता है कि यह मंदिर सन 1415-16 का है। यह भी कहा जाता है कि यह स्थान तत्कालीन हैहयवंशी राजा हरि ब्रह्मदेव की राजधानी था। इससे पहले यहां आदिवासियों का प्रभुत्व होने की बात जानकार लोग बताते हैं। जब राजा हरि ब्रह्मदेव ने खल्लारी को अपनी राजधानी बनाया तो उन्होंने इसकी रक्षा के लिए यहां मां खल्लारी की मूर्ति की स्थापना की। यहां मिले एक शिलालेख के नौवें श्लोक में मोची देवमाल की वंशावलि और 10वें श्लोक में उसके द्वारा मंदिर बनवाए जाने का उल्लेख भी मिलता है। यहां चैत्र मास की पूर्णिमा पर पांच दिनों का मेला भरता है जिसमें इस क्षेत्र के अलावा विदर्भ और प. ओडि़शा तक से लोग शिरकत करने पहुंचते हैं। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद और पर्यटन व संस्कृति मंत्रालय द्वारा इस स्थान को पर्यटन स्थल घोषित किए जाने के बाद इस मेले का स्वरूप काफी व्यापक हुआ है। यहां के जानकार लोगों का दावा है कि दूर-दूर से मां खल्लारी के दर्शन के लिए यहां पहुंचने वाले श्रद्धालु भक्तों में से किसी को भी माता के पाषाण रूप में परिवर्तित होने के बाद उनके शृंगारिक रूप में दर्शन नहीं हुए! अलबत्ते, माता के दर्शन अन्य रूपों, यथा वृद्धा अथवा श्वेतवस्त्रधारिणी, में यहां के भक्तों को होते रहने की बात कही जाती है।बेमचा से आईं हैं माताकिंवदंती के अनुसार, महासमुंद के पास के ग्राम बेमचा से माता का आगमन होना माना जाता है। उस समय खल्लारी ग्राम का बाजार पूरे अंचल में काफी प्रसिद्ध था। जनश्रुति यह है कि उन दिनों मां खल्लारी एक नवयुवती का रूप धारण कर यहां बाजार आया करती थीं। एक समय एक बंजारा गोंड़ युवक देवी के रूप-रंग को देखकर मुग्ध हो उनका पीछा करने लगा। देवी की चेतावनी के बाद भी उसने उनका पीछा करना नहीं छोड़ा। अंतत: पर्वत (पहाड़) तक पीछे-पीछे आने पर देवी ने उस युवक को श्राप दे दिया। वह युवक वहीं से कुछ नीचे गिरकर पत्थर के रूप में बदल गया। इस पत्थर को गोंड़ नायक पत्थर के नाम से जाना जाता है। इधर, मानव की बढ़ती पाशविक प्रवृत्ति से क्षुब्ध देवी ने इसी पहाड़ी के ऊपर पाषाण रूप धारण कर यहीं निवास करना शुरू कर दिया। कहा-सुना तो यह भी जाता है कि पहले देवी का रूप पहाड़ी पर स्थित मंदिर के पास के शिलाखंडों से साफ नजर आता था जो बाद में धीरे-धीरे दिखना बंद हो गया। देवी खल्लारी और आसपास के गांवों में आने वाली विपत्ति से आगाह करने पुजारी को आवाज देकर संदेश देती थीं। यहां भी श्रद्धालु यह मानते हैं कि तब एक प्रकाश-पुंज मंदिर से निकलता था! भक्तजन यहां पहाड़ी पर जाकर माता के दर्शन करते हैं। मंदिर तक पहुंचने के लिए तब 481 सीढिय़ां चढऩी होती थीं जिसे 13 खंडों में विभक्त कर भक्तों को सुविधा उपलब्ध कराई गई थी। अब नागरिकों को सहयोग से यहां 710 नई सीढिय़ां बनाकर दोनों तरफ रेलिंग दी गईं हैं। पहाड़ी के नीचे स्थित मंदिर को नीचे वाली माता या राउर माता का मंदिर कहते हैं। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहां के पूर्व मालगुजार को देवी ने स्वप्न में आदेश दिया था कि उनकी (देवी की) फेंकी गई कटार नीचे जहां गिरी है, वहीं पर मूर्ति स्थापित कर पूजा शुरू की जाए। चूंकि वृद्ध और शारीरिक रूप से कमजोर भक्त पहाड़ी पर चढ़ नहीं पाएंगे, अत: उन्हें इस मंदिर का दर्शन करने पर भी उतना ही पुण्य मिलेगा जितना पहाड़ी पर दर्शन करने पर। कहते हैं, माता की फेंकी कटार आज भी इस मंदिर में है।पूजा पद्धतिमाता पूजा के ठीक पहले पहाड़ी पर स्थित सिद्धबाबा (भगवान शंकर) की पूजा क्षेत्र के आदिवासी बैगा करते हैं। आदिवासी शासकों के प्रभुत्व के कारण यहां शुरू से ही सिदार जाति के पुजारी मुख्य तौर पर पूजा आदि कराते आ रहे हैं। यहां पर कुछ समय पूर्व तक जारी बलि-प्रथा अब नागरिकों और समाजसेवी संस्थाओं के साथ ही शासन-प्रशासन की पहल पर बंद हो गई है।महाभारत काल से जुड़ावऊपर पहाड़ी पर प्रकृति से जुड़ाव का आनंद तो मिलता ही है, साथ ही यहां अनेक ऐसे स्थल भी हैं जिन्हें महाभारत काल से जोड़कर देखा, कहा-सुना जाता है। ऐसा माना जाता है कि पांडवों ने वनवास की कुछ अवधि यहां बिताई थी। मां के दर्शन के बाद परिक्रमा करते समय पहले भीम चौरा नाम का विशाल पत्थर दिखता है। यहीं विशालकाय पत्थरों के बीच एक कंदरा है जहां झुकी दशा में मुश्किल से अंदर जाने के बाद दो पत्थरों के बीच लगभग आठ-नौ इंच के अंतर को पार करने वाला व्यक्ति खुद को सौभाग्यशाली मानता है। परिक्रमा के दौरान ही पैरों की आकृति के बड़े निशान दिखते हैं जिन्हें भीम पांव कहा जाता है। इसमें बारहों महीने पानी भरा रहता है। इसी पहाड़ी पर चूल्हे की एक आकृति है। यह है तो गड्ढानुमा, पर हर समय यह सूखा रहता है। कहते हैं, भीम इस चूल्हे पर भोजन पकाया करते थे।लाक्षागृहइधर, उत्तर दिशा की तरफ एक मूर्तिविहीन मंदिर दिखाई पड़ता है। इसे लखेश्वरी गुड़ी या लाखा महल कहा जाता है। किंवदंती है कि महाभारत काल में दुर्योधन ने पांडवों को षड्यंत्रपूर्वक समाप्त करने के लिए जो लाक्षागृह बनवाया था, वह यही लखेश्वरी गुड़ी या लाखा महल है। ऐसा मानने की एक वजह यह भी है कि इस लखेश्वरी गुड़ी के अंदर से लगभग दो किलोमीटर लंबी एक सुरंग है जो गांव के बाहर जाकर खुलती है। इस इमारत के पास से गुजरने पर लाख की गंध महसूस की जाती थी, ऐसा लोग कहते हैं।
कुछ और भी है खास...0 भीम पांव से दक्षिण-पश्चिम में कुछ दूर पहाड़ी से उतरने पर गज-आकृति की दो विशालकाय शिलाएं नजर आती हैं। इन्हें नायक राजा का हाथी बताया जाता है। खल्लारी में प्रवेश करते समय विद्युत मंडल कार्यालय और स्कूल के पास से देखने पर यह हाथी-हथिनी का जोड़ा नजर आता है।0 भीम चूल्हा के पास कुछ ऊपर की ओर सिद्धबाबा की गुफा है जहां उनकी मूर्ति स्थापित है। देवी के पूजा-विधान की शुरुआत यहां की पूजा के बाद ही होती है।0 भीम चूल्हा के पास ही जल की एक धारा सतत प्रवाहित होती है जो पहाड़ी के अंदर-ही-अंदर से बहकर पहाड़ी की पूर्व दिशा के मध्यभाग में नजर आती है।0 पश्चिम दिशा में नाव की आकृति का एक विशालकाय पत्थर है जिसका एक हिस्सा मैदान की तरफ तो दूसरा हिस्सा सैकड़ों फीट गहरी खाई की तरफ झुका हुआ है। एक छोटे-से पत्थर पर टिका नाव आकृति का यह पत्थर अपने संतुलन के कारण दृष्टव्य है। इसे भीम नाव भी कहते हैं।0 यहीं गस्ति वृक्ष के पास पत्थर मारने से पहाड़ी के आधा फुट व्यास क्षेत्र में अलग-अलग आवाज निकलती है जो दर्शनार्थियों के मनोरंजन का विषय होती है।विकास के काम चल रहेअपने गर्भ में समृद्ध ऐतिहासिक और पौराणिक महत्ता को समेटे इस मंदिर परिसर में भी विकास के कई काम आकार ले चुके हैं वहीं और भी काम अभी कराए जाने प्रस्तावित हैं। नीचे और ऊपर के मंदिर के साथ ही सीढिय़ों तथा मेलास्थल पर 1986-87 में विद्युतीकरण का काम कराया गया था जिससे अब रात्रि में भी भक्तों को पहाड़ी पर चढऩे में असुविधा नहीं होती। पहाड़ी पर नल-जल योजना के तहत पेयजल आपूर्ति की सुविधा मुहैया कराई गई है। अभी राज्य शासन और नागरिकों के सहयोग से इस परिसर को और सुविधा-संपन्न बनाने की कवायद चल रही है। भक्तों के विश्राम के लिए भी भवन आदि अभी तो हैं, पर इनकी संख्या बढ़ाने की दिशा में भी पहल जारी है। आसपास के करीब एक सौ ग्रामवासियों द्वारा पिछले कुछ वर्षों से यहां नियमित भंडारा का आयोजन किया जा रहा है। इसके अलावा आदर्श विवाह और तीज-त्योहारों का भी धूमधाम से यहां आयोजन किया जाता है। मां खल्लारी मंदिर विकास समिति इस मंदिर परिसर के सर्वांगीण विकास की दिशा में सतत प्रयत्नशील है। - नवरात्र-पूजन के चौथे दिन कुष्मांडा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन अदाहत चक्र में अवस्थित होता है।नवरात्रि में चौथे दिन देवी को कुष्मांडा के रूप में पूजा जाता है। अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है।इस देवी की आठ भुजाएं हैं, इसलिए अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमश: कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृत में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्मांडा। इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है। अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। यह देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है। विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। यह देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख समृद्धि और उन्नति प्रदान करती हैं। अंतत: इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए।मंत्र- सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे॥मां कुष्मांडा की कथापौराणिक कथा के अनुसार मां कुष्मांडा का अर्थ होता है कुम्हड़ा। मां दुर्गा असुरों के अत्याचार से संसार को मुक्त करने के लिए कुष्मांडा का अवतार लिया था। मान्यता है कि देवी कुष्मांडा ने पूरे ब्रह्माण्ड की रचना की थी। पूजा के दौरान कुम्हड़े की बलि देने की भी परंपरा है। इसके पीछे मान्यता है ऐसा करने से मां प्रसन्न होती हैं और पूजा सफल होती है।मां कुष्मांडा की पूजा विधिनवरात्रि के चौथे दिन सुबह स्नान करने के बाद मां कुष्मांडा स्वरूप की विधिवत करने से विशेष फल मिलता है। पूजा में मां को लाल रंग के फूल, गुड़हल या गुलाब का फूल भी प्रयोग में ला सकते हैं, इसके बाद सिंदूर, धूप, गंध, अक्षत् आदि अर्पित करें। सफेद कुम्हड़े की बलि माता को अर्पित करें। कुम्हड़ा भेंट करने के बाद मां को दही और हलवा का भोग लगाएं और प्रसाद में वितरित करें।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के 'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थ के सिद्धांत
सत्य ही है कि मृत्यु से बड़ा छलावा और कोई नहीं करता। मनुष्य सारे जीवन बड़ा निश्चिंत बना हुआ जीता रहता है, और मृत्यु की ओर से आँख दुराये रहता है। परन्तु वह तो आती ही है, कौन ऐसा मायाधीन हुआ है जो यह जानता हो कि कब उसकी देह छूट जायेगी। यह मानव-जीवन तो चार दिन का है पर बड़ा महत्व है इसका और एक बड़े महत्वपूर्ण उद्देश्य के लिये मिला है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज अपनी 'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थ के सिद्धांत-माधुरी खण्ड के 12 वें पद में इस ओर ध्यानाकृष्ट करते हुये चेतावनी और इसकी साफल्यता के संबंध में निर्देश दे रहे हैं ::::::
प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ से,सिध्दान्त माधुरी, पद - 12
अरे मन! चार दिना की बात।नर-तनु शरद चाँदनी बीते, पुनि अँधियारी रात।तू सोवत कछु जानत नाहीं, काल लगायो घात।तजत न नींद यदपि विषयन के, छिन छिन जूते खात।अवसर चूकि फिरिय चौरासी, कर मींजत पछितात।रसिकनि कही 'कृपालु' मानु गहु, युगल चरण जलजात।।
भावार्थ ::: अरे मन! चार दिन की बात है, क्योंकि मनुष्य शरीर रूपी शरदकाल की चाँदनी बीत जाने पर फिर चौरासी लाख योनियों की अँधेरी रात आ जायेगी। तू अज्ञान की नींद में सो रहा है। काल अवसर देख रहा है, तुझे यह पता नहीं। यद्यपि सांसारिक विषय वासनाओं के क्षण-क्षण में जूते खा रहा है फिर भी निद्रा का परित्याग नहीं करता। याद रख! इस अवसर को खो देने पर फिर हाथ मींजता हुआ और पछताता हुआ चौरासी लाख योनियों में भटकेगा। अतएव 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि महापुरुषों के आदेशों को मान ले अर्थात राधाकृष्ण के युगल चरण-कमलों की शरण चला जा।
0 रचयिता ::: जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
नोट ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा संबंधी श्रृंखला में श्री कृपालु जी महाराज के संबंध में लेख प्रति सोमवार और मंगलवार को प्रकाशित होते थे, वह किसी कारणवश आज प्रकाशित न हो सका। बुधवार को इस श्रृंखला का अगला लेख प्रकाशित होगा।वहाँ श्रीराधाकृष्ण भक्ति तथा प्रेम का दिव्य सन्देश दिया।
- मां दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। इस दिन साधक का मन मणिपूर चक्र में प्रविष्ट होता है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाई देने लगती हैं।देवी का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी माना गया है। इसीलिए कहा जाता है कि हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखकर साधना करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है। इस देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का आधा चंद्र है। इसीलिए इस देवी को चंद्रघंटा कहा गया है। इनके शरीर का रंग सोने के समान बहुत चमकीला है। इस देवी के दस हाथ हैं। वे खड्ग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं। सिंह पर सवार इस देवी की मुद्रा युद्ध के लिए उद्धत रहने की है। इसके घंटे सी भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य और राक्षस कांपते रहते हैं। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाईं देने लगती हैं। इस देवी की आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है। यह देवी कल्याणकारी है।पूजन विधि- माता की चौकी (बाजोट) पर माता चंद्रघंटा की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें। इसके बाद गंगा जल या गोमूत्र से शुद्धिकरण करें। चौकी पर चांदी, तांबे या मिट्टी के घड़े में जल भरकर उस पर नारियल रखकर कलश स्थापना करें। इसके बाद पूजन का संकल्प लें और वैदिक एवं सप्तशती मंत्रों द्वारा मां चंद्रघंटा सहित समस्त स्थापित देवताओं की षोडशोपचार पूजा करें। इसमें आवाहन, आसन, पाद्य, अध्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, सौभाग्य सूत्र, चंदन, रोली, हल्दी, सिंदूर, दुर्वा, बिल्वपत्र, आभूषण, पुष्प-हार, सुगंधित द्रव्य, धूप-दीप, नैवेद्य, फल, पान, दक्षिणा, आरती, प्रदक्षिणा, मंत्र पुष्पांजलि आदि करें। तत्पश्चात प्रसाद वितरण कर पूजन संपन्न करें।मंत्र- पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता।प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता॥माता चंद्रघंटा की कथादेवताओं और असुरों के बीच लंबे समय तक युद्ध चला. असुरों का स्वामी महिषासुर था और देवताओं के इंद्र। महिषासुर ने देवाताओं पर विजय प्राप्त कर इंद्र का सिंहासन हासिल कर लिया और स्वर्गलोक पर राज करने लगा। इसे देखकर सभी देवतागण परेशान हो गए और इस समस्या से निकलने का उपाय जानने के लिए त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास गए। देवताओं ने बताया कि महिषासुर ने इंद्र, चंद्र, सूर्य, वायु और अन्य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए हैं और उन्हें बंधक बनाकर स्वयं स्वर्गलोक का राजा बन गया है। देवताओं ने बताया कि महिषासुर के अत्याचार के कारण अब देवता पृथ्वी पर विचरण कर रहे हैं और स्वर्ग में उनके लिए स्थान नहीं है। यह सुनकर ब्रह्मा, विष्णु और भगवान शंकर को अत्यधिक क्रोध आया। क्रोध के कारण तीनों के मुख से ऊर्जा उत्पन्न हुई। देवगणों के शरीर से निकली ऊर्जा भी उस ऊर्जा से जाकर मिल गई। यह दसों दिशाओं में व्याप्त होने लगी। तभी वहां एक देवी का अवतरण हुआ। भगवान शंकर ने देवी को त्रिशूल और भगवान विष्णु ने चक्र प्रदान किया। इसी प्रकार अन्य देवी देवताओं ने भी माता के हाथों में अस्त्र शस्त्र सजा दिए। इंद्र ने भी अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतरकर एक घंटा दिया। सूर्य ने अपना तेज और तलवार दिया और सवारी के लिए शेर दिया। देवी अब महिषासुर से युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार थीं। उनका विशालकाय रूप देखकर महिषासुर यह समझ गया कि अब उसका काल आ गया है। महिषासुर ने अपनी सेना को देवी पर हमला करने को कहा। देवी ने एक ही झटके में ही दानवों का संहार कर दिया। इस युद्ध में महिषासुर तो मारा ही गया, साथ में अन्य बड़े दानवों और राक्षसों का संहार मां ने कर दिया। इस तरह मां ने सभी देवताओं को असुरों से अभयदान दिलाया।
- - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी विशेष लेखों की श्रृंखला- 'विश्व-शान्ति' के संवाहक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के परमाचार्य हैं, जिन्हें काशी विद्वत परिषत द्वारा 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की उपाधि से विभूषित किया गया है। श्री कृपालु जी महाराज ने अपने पूर्ववर्ती समस्त मूल जगदगुरुओं तथा संतों के मतों का समन्वय करते हुये अन्यान्य धर्मग्रंथों, धर्मानुयायियों को दिव्य प्रेम का सन्देश देकर सबको एक सूत्र में बाँधकर आपसी झगड़े समाप्त करके श्रीकृष्ण भक्ति रूपी एक सार्वभौमिक मार्ग का प्रतिपादन किया, जो सभी धर्मानुयायियों को मान्य है।
'विश्व-शान्ति' के लिये उनका महत्वपूर्ण सन्देश, उनके शब्दों में नीचे इस प्रकार है ::::
'..यदि विश्व के सभी मनुष्य श्रीकृष्ण भक्ति रूपी शस्त्र को स्वीकार कर लें तो समस्त देशों का, समस्त प्रान्तों का, समस्त नगरों का, समस्त परिवारों का झगड़ा ही समाप्त हो जाय। केवल यही मान लें कि सभी जीव, श्रीकृष्ण के पुत्र हैं।
अत: परस्पर भाई-भाई हैं। पुन: सभी जीवों के अंत:करण में श्रीकृष्ण बैठे हैं। यथा - ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्द्येशेर्जुन तिष्ठति। (गीता 18-61)। अतएव किसी के प्रति भी हेय बुद्धि, निन्दनीय है। वर्तमान विश्व में इस सिद्धान्त पर राजनीतिज्ञों का ध्यान नहीं जाता अतएव अन्य भौतिक उपायों से शान्ति के स्थान पर क्रान्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। केवल उपर्युक्त भावों के भरने से ही विश्व शान्ति सम्भव है।
कोई भी मजहब हो, कोई भी धर्म हो, सबका धर्मी बस एक ही है, जिसे हिन्दू धर्म में 'ब्रम्ह', 'परमात्मा', 'भगवान' आदि कहते हैं, इस्लाम में उसी को 'अल्लाह' कहते हैं, फारसी में उसी को 'खुदा' कहते हैं। पारसी लोग उसी को 'अहुरमज्द' कहते हैं। उसी एक भगवान के ये सब नाम हैं। 'लाओत्सी' धर्म वाले 'ताओ' कहते हैं, बौद्ध लोग 'शून्य' कहते हैं। जैन लोग 'निरंजन' कहते हैं, सिक्ख लोग 'सत श्री अकाल' कहते हैं और अंग्रेज लोग 'गॉड' कहते हैं। ये सब उसी एक के अपनी अपनी भाषाओं में नाम हैं...'
-- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
इस तरह से जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने समस्त विश्व को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया है। वस्तुत: उनके हृदय में किसी भी जाति-पाँति का बंधन नहीं है। मुसलमानों के खुदा, ईसाइयों के परमात्मा, सिक्खों के वाहेगुरु सभी एक रुप में समा गये हैं, ऐसा विभिन्न मतानुयायी जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के पास आकर अनुभव करते थे। वे सभी को यही उपदेश देते थे कि जाति तो शरीर की होती है, आत्मा की कोई जाति नहीं होती। हमने अपने आपको शरीर मान लिया यही हमारे दु:ख का कारण है और यही विश्व में सब झगड़ों का कारण है। अगर हम अपने आपको आत्मा मान लें तो शाश्वत शान्ति प्राप्त हो जाय, सारे झगड़े समाप्त हो जायें।
समस्त मूल जगदगुरुओं में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ऐसे पहले जगद्गुरु हुये हैं, जो श्रीराधाकृष्ण भक्ति के प्रचारार्थ विदेश गये तथा वहाँ श्रीराधाकृष्ण भक्ति तथा प्रेम का दिव्य सन्देश दिया।
ऐसे समन्वयवादी, विश्व-शांति के संवाहक, महानतम विभूति जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की महानता, कृपालुता, अपनत्व आदि को कोटिश: वन्दन, नमन तथा कृतज्ञ भरे हृदय से बारम्बार नमस्कार!!!
सन्दर्भ ::: 'जगदगुरुत्तम' - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा संबंधी पुस्तकसर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - दक्षिणाभिमुखी प्राकृतिक प्रस्तर प्रतिमा का अपना विशेष शास्त्रीय महत्व-आधा दर्जन पहाडिय़ों के साथ जुड़ी हैं कई कथाएं, किंवदंतियां-करीब 70 बरसों से हो रहा है मड़ई मेले का आयोजनआलेख- वरिष्ठ पत्रकार अनिल पुरोहितछत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में बागबाहरा तहसील मुख्यालय से करीब पांच किलोमीटर दूर स्थित ग्राम घुंचापाली से लगी लगभग आधा दर्जन पहाडिय़ों की शृंखला चंडी डोंगरी के नाम से काफी प्रसिद्धि अर्जित कर चुकी है। यहीं है आसुरी शक्तियों व दैवीय आपदाओं की रक्षक मानी जाने वाली मां चंडी देवी का मंदिर, जिसके आसपास का स्थान प्राकृतिक रूप से जंगल व पहाडिय़ों घिरा हुआ है। यहां के प्राकृतिक वातावरण और मां के आंचल तले निर्मित चंडी बांध ने इसे पर्यटन की दृष्टि से भी उभारा है। इन पहाडिय़ों के साथ कई कथाएं, किंवदंतियां और घटनाएं जुड़ी हैं जिनके बारे में लोग कम ही जानते हैं।श्रद्धा और भक्ति का प्रमुख केंद्र बन चुकी इस चंडी डोंगरी में मां चंडी देवी विराजमान हैं। रौद्ररूपिणी मां चंडी की साढ़े 23 फीट ऊंची दक्षिणाभिमुखी प्राकृतिक प्रस्तर प्रतिमा का अपना विशेष शास्त्रीय महत्व है। ऐसी प्रतिमा कदाचित ही कहीं और देखने को मिले। तंत्र साधना की प्रमुख स्थली माना जाने वाला यह स्थल अब एक पीठ के रूप में भी ख्याति अर्जित कर चुका है। मां चंडी की महिमा और प्रभाव से जनसामान्य काफी प्रभावित है और इस क्षेत्र में लोग प्रत्येक कार्य मां चंडी के भक्तिपूर्वक स्मरण से ही शुरू करते हैं। मां के चमत्कार से जुड़े अनेक प्रसंगों की चर्चा यहां सुनी जाती हैं। एक बहुश्रुत चर्चा यह भी है कि मां चंडी के इस मंदिर की पूर्व दिशा में स्थित पहाड़ ठाड़ डोंगर (खड़ा पहाड़) से मध्यरात्रि में एक प्रकाश-पुंज निकलता है और मां के चरणों में विलीन हो जाता है! अनेक लोग हैं जो इस अलौकिक दृश्य को साक्षात देखने का दावा करते हैं और इसे सिद्ध बाबा के शक्ति-पुंज की संज्ञा देते हैं। यहां कई गुफाएं हैं जहां वर्षों पहले वन्य प्राणियों का बसेरा हुआ करता था। इनमें से चंडी जलाशय से लगा भाग भलवा माड़ा के नाम से जाना जाता है।गागर में सागर!पहाड़ी के नीचे बघवा माड़ा और मंदिर वाली पहाड़ी के मार्ग पर पांच फीट गहरा और लगभग इतना ही चौड़ा एक कुआं है। ऊंचे पथरीले भाग में स्थित इस कुएं की विशेषता यह है कि बारहों महीने इसमें पानी भरा रहता है और कभी कम नहीं होता! कहते हैं वह सोतेनुमा (गढ़ा) स्थल है जो दर्शनार्थियों के साथ ही वन्य प्राणियों के लिए पेयजल प्राप्ति का साधन था। आज भी स्थिति ऐसी ही है। आज तो इसी कुएं के जल से माता के मंदिर में विभिन्न निर्माण कार्य कराए जा रहे हैं। अपनी इसी विशिष्टता के कारण यह कुआं गागर में सागर की उपमा अर्जित कर चुका है। पिछले चार-पांच दशकों में पूर्व सरपंच स्व. शंकरलाल अग्रवाल, राजमिस्त्री स्व. लखनलाल सोलंकी, स्व. बेनीराम चंद्राकर, पूर्व नपा अध्यक्ष स्व. विद्यासागर अग्रवाल, स्व. गोरेलाल श्रीवास्तव, बाबूलाल आदि ने इस कुएं के पुनरुद्धार के काम में रुचि लेकर इस दिशा में सक्रिय पहल की। बाद में के. एस. ठाकुर ने इस कुएं को बंधवाने का काम पूरा किया।पूजा पद्धतिगोड़ बहुल क्षेत्र और ओडि़शा से नजदीक होने के कारण कमोबेश उन्हीं परंपराओं के अनुसार यहां मां की पूजा की जाती रही है। तब यहां पशु-बलि अनिवार्य हुआ करती थी। पहले वर्ष में दो बार, दशहरा और चैत्र पूर्णिमा को यहां धूमधाम से पूजा की जाती थी। इस दौरान बैगा द्वारा देवी को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि देकर उसका रक्त एक कटोरे में भरकर रख दिया जाता था और वहीं जंगल में बकरे को पकाकर उसे प्रसाद रूप में ग्रहण कर लिया जाता था। इस प्रसाद को घर नहीं लाया जाता था। तब महिलाओं के लिए यह प्रसाद और मंदिर में जाना वर्जित था। माना जाता है कि तंत्र-साधना के लिए इस स्थान की गोपनीयता बनाए रखने के लिए ही ऐसे प्रतिबंध लगाए गए होंगे। पर बाद में, कहते हैं कि माता ने स्वयं इस भ्रांति को दूर कर उन्हें चमत्कार दिखाकर समीप से पूजा-पाठ का अवसर दिया और उनकी मनोकामनाएं पूर्ण कीं। मां की कृपा से अनेक नि:संतान महिलाओं को संतान-सुख, रोगियों को आरोग्य-सुख प्राप्त होने की कई चर्चाएं क्षेत्र में सुनी जाती हैं। कालांतर में, साधकों के साथ ही भक्तों का माता के दरबार में जब आना-जाना बढ़ा, तब से यहां वैदिक और शास्त्रीय रीति से पूजन होने लगा। 1950-51 में नवरात्रि पर्व पर पहली बार यहां दुर्गा सप्तशती का पाठ और शत चंडी महायज्ञ कर पूजा प्रारंभ कराए जाने की बात जानकार बताते हैं। उसी समय से शुरू हुआ मड़ई मेला अब तक जारी है। उन दिनों पं. चंद्रशेखर मिश्र और पं. चतुर्भुज मिश्र चैत्र और शारदीय नवरात्रि पर्व में यहां का पूजा-विधान संपन्न कराया करते थे। बागबाहरा के पुराना थानापारा निवासी स्व. गोपालप्रसाद देवांगन को तो काफी समय तक किसी भी समय मां का बुलावा आते ही इस मंदिर में अकेले ही पहुंच जाने के लिए जाना जाता है! कहते हैं कि उन्हें माता की सिद्धि प्राप्त थी। चूंकि यह ग्राम घुंचापाली की कुलदेवी है, इसलिए इसी ग्राम के बैगा रहे हैं। आगे चलकर यहां अनेक मातासेवक पुजारियों के अलावा पं. सियाकिशोरी शरण भी आसपास के युवकों को साथ लेकर पूजा-अर्चना करते रहे हैं।पत्थर की नागिनइस पहाड़ी से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर ही ग्राम जुनवानी में नागिन डोंगरी है। यहां लगभग 60 फीट लंबा एक ऐसा स्थान है मानो वहां कोई सर्प पड़ा हो और जिसे किसी ने धारदार हथियार से टुकड़े-टुकड़े कर दिया हो। जुनवानी के ग्रामीण श्रावण के महीने में इसकी 'ग्राम रसिका' के रूप में पूजा करते हैं। यहां पड़े अनेक निशान ऐसा आभास देते हैं कि कोई सर्प अभी-अभी ही वहां से गुजरा है। यहां कुछ ऐसे बिंदु हैं जहां पत्थरे के टुकड़े मारने से वहां मधुर ध्वनि निकलती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो इस डोंगरी के गर्भ में कुछ छिपा है।संतुलित अंडाकार पत्थरचंडी मंदिर चढ़ते समय दायीं ओर पहाड़ी के ढलान धरातल पर कोई 17 फीट लंबा अंडाकार विशालकाय पत्थर दर्शनार्थियों के आकर्षण का एक केंद्र होता है। वर्षों से उसी स्थान पर उसी स्थिति में अवस्थित यह पत्थर प्रकृति और मां चंडी के चमत्कार के रूप में श्रद्धा का केंद्र बन गया है। इसी डोंगरी में एक स्थान ऐसा भी है जहां छोटा-कंकड़ मारने पर आवाज गूंजती है। दर्शनार्थी इस बिंदु पर कंकड़ मारकर यह आवाज सुनते हैं।नगाड़ा पत्थरमां चंडी के मंदिर के एकदम बाजू में गस्ति वृक्ष के नीचे दो विशालकाय नगाड़ा रूपी दो पत्थर अगल-बगल रखे हुए हैं। इसी के पास है एक तुलसी पौधा, जहां नवरात्रि पर्व पर नाग देवता के दर्शन होने की बात श्रद्धालु भक्त बताते हैं। यहां की बघवा माड़ा पहाड़ी पर स्थित अनेक गुफाएं दर्शकों के मनोरंजन का केंद्र हैं। मंदिर जाते समय राम भक्त हनुमानजी का एक मंदिर है जो पहले गुफा में विराजमान थे। इसके ठीक सामने भैरव बाबा की मुक्ताकाशी प्रतिमा एक वृक्ष के नीचे स्थित थी। अब मंदिर बनाकर इन दोनों देव प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा कर दी गई है। मां के मंदिर के ठीक पीछे एक गुफा में मां काली विराज रही हैं।हो रहे हैं बहुत-से कामचंडी देवी मंदिर के निर्माण की दिशा में पांच-छ: दशकों से चल रहे प्रयास अब काफी सीमा तक साकार हो चुके हैं और अभी भी बहुत-से काम चल रहे हैं। विशाल ज्योति-कलश भवन, इसी से लगकर स्व. हरकेशराय अग्रवाल की स्मृति में उनके परिजनों द्वारा बनवाया गया विशाल सभाकक्ष, भव्य मंदिर, व्यवस्थित यज्ञशाला, पानी टंकी, भोजन शाला और भोजन हाल आदि अब इस मंदिर को काफी सुविधा संपन्न केंद्र के रूप में स्थापित कर चुके हैं। मंदिर के सतत विकास में जुटी चंडी मंदिर समिति इस मंदिर परिसर के बहुमुखी विकास के काम हाथ में लिए हुए है। इस काम में समिति को श्रद्धालु भक्तों का मुक्त सहयोग भी प्राप्त हो रहा है। शासन-प्रशासन के सहयोग से यहां सौंदर्यीकरण का काम भी प्रस्तावित है। घुंचापाली के प्रतिष्ठित नीलकंठ चंद्राकर और बागबाहरा के युवा समाजसेवी व धर्मपरायण लालचंद जैन के साथ समिति के सभी पदाधिकारी व सदस्य कदम-से-कदम मिलाकर चल रहे हैं, सहयोग कर रहे हैं। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
- शारदीय नवरात्रि आरंभ हो चुके हैं। नवरात्रि पर माता को प्रसन्न करने के लिए दुर्गा सप्तशी का पाठ अवश्य किया जाता है। माना जाता है कि नवरात्रि पर जो भी दुर्गा सप्तशी का विधिवत पाठ करता है उसकी हर मनोकामना जरूर पूरी होती है। दुर्गा सप्तशी में देवी को प्रसन्न करने के कई सिद्धि मंत्र है जिसका जाप करने से सभी तरह की मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। जानिए ऐसे ही 10 चमत्कारिक मंत्र1. स्वास्थ्य और धन के साथ ऐश्वर्य से भरपूर जीवन पाना चाहते हैं तो देवी के इस सिद्ध मंत्र का जप करें-ऐश्वर्य यत्प्रसादेन सौभाग्य-आरोग्य सम्पद:।शत्रु हानि परो मोक्ष: स्तुयते सान किं जनै।।2. मृत्यु के भय को दूर करने और मोक्ष प्राप्ति के लिए नियमित देवी के इस मंत्र का जप करें-सर्वस्य बुद्धिरुपेण जनस्य हृदि संस्थिते।वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते।3. सिद्धि प्राप्ति के लिए इस मंत्र का जप करें-
दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके।मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय।।4. धन प्राप्ति के साथ संतान सुख भी पाना चाहते हैं तो नियमित इस मंत्र का जप करें-
सर्वाबाधा वि निर्मुक्तो धन धान्य सुतान्वित:।मनुष्यो मत्प्रसादेन भवष्यति न संशय॥5. धन संबंधी परेशानियों से बुरी तरह परेशान हैं तो पैसों की तंगी को दूर करने के लिए नियमित माता के इस सिद्धि मंत्र का जप करें।दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:।सवस्र्ध: स्मृता मतिमतीव शुभाम् ददासि।।6. इन दिनों आपका बुरा समय चल रहा है और बार-बार संकट में फंस जा रहे हैं तो देवी के इस मंत्र का जप करें-शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते।।7. देवी के इस सिद्ध मंत्र से व्यक्ति में आकर्षण क्षमता और व्यक्तित्व में निखार आता है।ज्ञानिनामपि चेतांसि, देवी भगवती ह्री सा।बलादाकृष्य मोहाय, महामाया प्रयच्छति।।8. देवी के इस सिद्ध मंत्र से सुंदर और सुयोग्य जीवनसाथी पाने की चाहत पूरी होती है।पत्नीं मनोरमां देहि नोवृत्तानुसारिणीम।तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम॥9. इस मंत्र का नियमित जप व्यक्ति को गुणवान और शक्तिशाली बनाता है।सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते।।10. जीवन में प्रसन्नता और आनंद चाहते हैं तो नियमित इस सिद्ध मंत्र का जप करें-प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव।। - - भक्तियोगरस के परमाचार्य जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन
साधक तथा गृहस्थ, दोनों के लिये शरीर की स्वस्थता परमावश्यक है। क्योंकि शरीर से ही दोनों अपने कर्तव्य एवं लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हैं। इसलिये शरीर की स्वस्थता पर विशेष ध्यान देने की बात हमारे यहाँ शास्त्रों में कही गई है। 'जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय' के वार्षिक समारोह, वर्ष 2010 के अवसर पर जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने इसी संबंध में एक संक्षिप्त प्रवचन दिया था। निम्नलिखित प्रवचन उनके सम्पूर्ण प्रवचन का एक अंश ही है, आइये इस अंश से हम अपना लाभ उठावें :::::::
(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है...)
..हमारे शास्त्रों में धर्म की परिभाषा की गई है;
यतोभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि: स धर्म:।(वैशेषिक दर्शन)
जिससे इहलौकिक और पारलौकिक परमार्थ सिद्ध हो, उसका नाम धर्म है। भावार्थ ये कि हम दो हैं; एक हम नाम की आत्मा और एक हम नाम का शरीर। दोनों का उत्थान कम्पलसरी है। अगर कोई कहता है कि शरीर मिथ्या है तो ऐसा कोई विश्व में ज्ञानी नहीं है जो शरीर के बिना एक सेकण्ड भी रह सके।
आत्मा और शरीर का संबंध अभिन्न है। बिना शरीर के आत्मा नहीं रहती, सदा साथ रहती है। तो शरीर की उन्नति भी परमावश्यक है। वेद कहता है;
अत्याहारमनाहारम्।
देखो! खाना, पीना, सोना, सब संयमित रखना, मनुष्यों! अगर इसमें गड़बड़ करोगे तो शरीर में अनेक प्रकार के रोग होंगे तो तुम्हारा मन भगवान की ओर नहीं जा सकता। क्योंकि तुम्हारे भीतर देहाभिमान है, देह की फीलिंग होगी और देह के दु:ख से भगवान के चिन्तन के स्थान पर देह का चिन्तन होगा। इसलिये शरीर को स्वस्थ रखने के लिये आहार-विहार सब संयमित होना चाहिये। हमने इसको कोई महत्त्व नहीं दिया। भगवान ने गीता में भी कहा है;
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।(गीता 6-17)
अर्जुन! कोई भी कर्मी, ज्ञानी, योगी हो, शरीर को स्वस्थ रखना परमावश्यक है। अगर नहीं रखोगे तो;
तनु बिनु भजन वेद नहिं बरना।
शरीर के बिना भगवान की उपासना कैसे करोगे? इसलिये डॉक्टरों के अनुसार समझ करके, वैज्ञानिक ढंग से कितना विटामिन, प्रोटीन, ए बी सी डी, ये सब लेना चाहिये। क्योंकि शरीर को स्वस्थ रखना है। कितना ही बड़ा आदमी हो खरबपति हो अगर वो स्वयं स्वस्थ रहने का संयम नहीं करता तो करोड़ों डॉक्टर लगा दो उसके पीछे, वो कुछ नहीं कर सकते डॉक्टर। वो रहता रहेगा, पूरे जीवन बिस्तर पर पड़ा रहेगा। क्यों?
अरे! वो कभी व्यायाम नहीं करता, वो कभी विटामिन प्रोटीन का ध्यान नहीं रखता, मनमाना खाता है, मनमाना सोता रहता है तो फिर दण्ड भोगना पड़ेगा। डॉक्टर साहब क्या करेंगे बेचारे। इसलिये शरीर स्वस्थ रखने के लिये हमको सावधान रहना है।
(प्रवचनकर्ता : जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
0 सन्दर्भ : साधन साध्य पत्रिका, मार्च 2010 अंक0 सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।