- Home
- धर्म-अध्यात्म
- हिंदू धर्म में यज्ञोपवीत का अपना एक अलग महत्व है। यज्ञोपवीत को उपनयन संस्कार भी कहा जाता है। जिसमें उप का अर्थ होता है निकट और नयन का अर्थ होता है ले जाना। यज्ञोपवीत के दौरान ही उपवीत या जनेऊ धारण किया जाता है, जो तीन से छह धागों का होता है।प्राचीन भारत में जब बालक आठ साल का हो जाता था तो अध्ययन और ज्ञानार्जन के लिए उसे पाठशाला या गुरू के पास ले जाने के समय किए गए संस्कार को यज्ञोपवीत कहा जाता। प्राचीन भारतीय परंपरा में जन्म के बाद नामकरण, यज्ञोपवीत, विवाह, मृत्यु आदि समय-समय पर भिन्न भिन्न संस्कारों का विधान बताया गया है। जीवन में नैतिक दायित्वों के सकुशल निर्वाह के लिए विद्यार्जन को बहुत अहम् माना गया है। यज्ञोपवीत संस्कार में बालक को ज्ञान की महत्ता और उसकी प्राप्ति के उपायों के लिए प्रेरणा देते हुए उसे यह दायित्व दिया जाता है कि जीवन को नैतिकता और सदाचार के साथ कैसे जिया जाए। इसमें उसे जो उपवीत या जनेऊ पहनाया जाता है उसमें तीन धागे होते हैं और एक गांठ होती है और तीनों धागे तीन अलग-अलग दायित्वों के प्रतीक होते हैं। एक ब्रह्मï ऋण का, दूसरा पितृ ऋण और तीसरा गुरु ऋण का प्रतीक होता है। इन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी माना गया है। इसकी गांठ आध्यात्मिकता की प्रतीक स्वरूप ब्रह्मï-ग्रंथि होती है और क्योंकि आम तौर पर जनेऊ पुरूष पहनते हैं। इसलिए विवाह के बाद अपनी पत्नी की ओर से पति को छह धागों वाले जनेऊ पहनने का प्रावधान है। दरअसल प्राचीन काल में महिलाएं भी जनेऊ धारण करती थीं। बाद में यह परंपरा किन्हीं कारणों से बंद हो गई।---
- महात्मा शुकदेव भगवान वेदव्यास के पुत्र थे। इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक कथाएं मिलती हैं। कहीं उन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणाम स्वरूप भगवान शंकर का अद्भुत वरदान बताया गया है।एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधिकाजी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडा शुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान शिव पार्वतीजी को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गईं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिए उसका पीछा किया। शुक भागकर व्यास जी के आश्रम में आया और सूक्ष्मरूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान शंकर वापस लौट गए। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही उन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके उन्होंने तपस्या के लिए जंगल की राह ली।श्री शुकदेव जी का जीवन वैराग्य का अनुपम उदाहरण है। ये गांवों में केवल गौ दुहने के समय ही जाते और उतने ही समय तक ठहरने के बाद जंगलों में वापस चले आते थे। व्यास जी की हार्दिक इच्छा थी कि शुकदेव जी श्रीमद्भागवत-जैसी परमहंस संहिता का अध्ययन करें, किन्तु ये मिलते ही नहीं थे। श्रीव्यास जी ने श्रीमद्भागवत की श्रीकृष्णलीला का एक श्लोक बनाकर उसका आधा भाग अपने शिष्यों को रटा दिया। वे उसे गाते हुए जंगल में समिधा लाने के लिए जाया करते थे। एक दिन शुकदेव जी ने भी उस श्लोक को सुन लिया। श्रीकृष्णलीला के अद्भुत आकर्षण से बंधकर शुकदेव जी अपने पिता श्रीव्यास जी के पास लौट आए। फिर उन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण के अठारह हज़ार श्लोकों का विधिवत अध्ययन किया। उन्होंने इस परमहंस संहिता का सप्ताह-पाठ महाराज परीक्षित को सुनाया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित ने मृत्यु को भी जीत लिया और भगवान के मंगलमय धाम के सच्चे अधिकारी बने। श्रीव्यास जी के आदेश पर श्रीशुकदेव जी महाराज परम तत्वज्ञानी महाराज जनक के पास गए और उनकी कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया।----
-
आलेख-मंजूषा शर्मा
गुजरात-छत्तीसगढ़ की मिली जुली संस्कृति में रचा-बसा चंपारणछत्तीसगढ़ में वैष्णव और शैव सम्प्रदाय का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है चंपारण। यह वैष्णव सम्प्रदाय के पुष्टि मार्ग के संस्थापक संत वल्लभाचार्य का जन्मस्थान है। इस नगर को एक छोटा गुजरात कहें, तो गलत नहीं होगा। यहां पर हर साल बड़ी संख्या में गुजरात से श्रद्धालु भगवान श्रीकृष्ण और संत वल्लभाचार्य के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। छोटे से इस नगर के कोने-कोने में गुजरात की संस्कृति की झलक देखने को मिल जाती है।हरे भरे जंगलों से घिरा और गुजरात और छत्तीसगढ़ की मिली जुली संस्कृति में रचा बसा चंपारण काफी शांत इलाका है। राजधानी रायपुर से करीब 46 किमी दूर और राजिम से 15 किमी. की दूरी पर स्थित चंपारण प्रसिद्ध वैष्णव पीठ है। चंपारण को पहले चंपाझर के नाम से जाना जाता था। संत वल्लभाचार्य के सम्मान में यहां दो मंदिर बने हुए हैं। ये हैं- प्राकट्य बैठकजी मंदिर और मूल प्राकट्य मंदिर, जो छठी बैठक कहलाता है।यहां का संत वल्लभाचार्य मंदिर मुख्य आकर्षण है। यह विशाल मंदिर चांदी के बड़े-बड़े दरवाजों से सुसज्जित है। मंदिर का भव्य प्रवेश द्वार विशेष रूप से लोक कलात्मक अभिव्यक्ति का परिचायक है। मंदिर के अंदर की सांस्कृतिक छटा विशेष आकर्षण का केंद्र है। मंदिर परिसर का भीतरी भाग संगमरमर से बना हुआ है, जहां की नक्काशी और कलात्मकता में गुजरात की झलक मिलती है। मंदिर के अंदर मन को सुकून देने वाली शांति का अहसास होता है। मंदिर परिसर की दीवारें भगवान श्रीकृष्ण की रास लीला और उनके जीवन से जुड़ी कथाओं का सचित्र वर्णन करती नजर आती हैं।मंदिर परिसर में गुजरात से आए श्रद्धालु भजन-कीर्तन करते नजर आ जाते हैं। मंदिर के बाहर रंगीन स्तम्भ और मेहराबें बनी हुई हैं। यहां भगवान श्रीनाथ जी की प्रतिमा द्वारिका के मंदिर की याद ताजा कर देती है। मंदिर में नित्य पूजा के अलावा विभिन्न विशेष पूजा और अनुष्ठान भी संपन्न होते हैं। यहां हिन्दुओं के लिए निर्धारित उपनयन संस्कार भी किया जाता है।मंदिर प्रांगण में एक संग्रहालय भी है। जहां गुजराती भाषा में लिखित अनेक धार्मिक पुस्तकें मिल जाती हैं।यहां पेड़ पौधों को नहीं काटा जाता, इसका उदाहरण मंदिर के अंदर देखा जा सकता है। जहां बिना पेड़ को क्षति पहुंचाए मंदिर का निर्माण किया गया है। यहां की मंदिर समिति के द्वारा यात्रियों के रुकने के लिए सुदामापुरी नाम से एक सुंदर धर्मशाला का निर्माण भी किया गया है।चंपारण में प्राचीन चंपेश्वर भोलेनाथ का मंदिर भी विशेष आकर्षण का केंद्र है, जो छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध पंचकोशी यात्रा का एक हिस्सा है। इसका उल्लेख 108 ज्योर्तिलिंगों में मिलता है। यहां भगवान भोलेनाथ माता पार्वती और पुत्र गणेश के साथ विराजमान हंै।चंपारण का सबसे बड़ा आकर्षण यहां का वार्षिक मेला है, जो माघ के महीने (फरवरी से जनवरी) में बड़ी धूमधाम के साथ आयोजित किया जाता है। इसके अलावा संत वल्लभाचार्य के जन्मदिन समारोह में भी यहां हजारों की संख्या में भीड़ जुटती है। यह समारोह बैसाख (अप्रैल - मई) में 11 दिनों के लिए आयोजित किया जाता है। - मथुरा उत्तरप्रदेश राज्य का एक जिला और प्रमुख ऐतिहासिक और पौराणिक स्थल है। जानकारी के अनुसार हिन्दका मण्डल 20 योजनों तक विस्तृत था और इसमें मथुरा पुरी बीच में स्थित थी। वराह पुराण एवं नारदीय पुराण (उत्तरार्ध, अध्याय 79-80) ने मथुरा एवं इसके आसपास के तीर्थों का उल्लेख किया है। वराह पुराण एवं नारदीय पुराण ने मथुरा के पास के 12 वनों की चर्चा की है, जैसे कि- मधुवन, तालवन, कुमुदवन, काम्यवन, बहुलावन, भद्रवन, खदिरवन, महावन, लौहजंघवन, बिल्व, भांडीरवन एवं वृन्दावन। 24 उपवन भी थे जिन्हें पुराणों ने नहीं, प्रत्युत पश्चात्कालीन ग्रन्थों ने वर्णित किया है।वृन्दावन यमुना के किनारे मथुरा के उत्तर-पश्चिम में था और विस्तार में पांच योजन था। यही कृष्ण की लीला-भूमि थी। पद्म पुराण ने इसे पृथ्वी पर वैकुण्ठ माना है। मत्स्य पुराण ने राधा को वृन्दावन में देवी दाक्षायणी माना है। कालिदास के काल में यह प्रसिद्ध था। रघुवंश में नीप कुल के एवं शूरसेन के राजा सुषेण का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वृन्दावन कुबेर की वाटिका चित्ररथ से किसी प्रकार सुन्दरता में कम नहीं है। इसके उपरान्त गोवर्धन की महत्ता है, जिसे कृष्ण ने अपनी कनिष्ठा अंगुली पर इन्द्र द्वारा भेजी गयी वर्षा से गोप-गोपियों एवं उनके पशुओं को बचाने के लिए उठाया था।वराहपुराण में आया है कि गोवर्धन, मथुरा से पश्चिम लगभग दो योजन हैं। यह कुछ सीमा तक ठीक है, क्योंकि आजकल वृन्दावन से यह 18 मील है। कूर्म पुराण का कथन है कि प्राचीन राजा पृथु ने यहां तप किया था। हरिवंश एवं पुराणों की चर्चाएं कभी-कभी एक-दूसरे के विरोध में पड़ जाती हैं। हरिवंश में तालवन गोवर्धन से उत्तर यमुना पर कहा गया है, किन्तु वास्तव में यह गोवर्धन से दक्षिण-पूर्व में है। कालिदास ने गोवर्धन की गुफ़ाओं (या गुहाओं कन्दराओं) का उल्लेख किया है। गोकुल ब्रज या महावन है जहां कृष्ण बचपन में नन्द-गोप द्वारा पालित-पोषित हुए थे। कंस के भय से नन्द-गोप गोकुल से वृन्दावन चले आये थे। चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन आए थे। 16वीं शताब्दी में वृन्दावन के गोस्वामियों, विशेषत: सनातन, रूप एवं जीव के ग्रन्थों के कारण वृन्दावन चैतन्य-भक्ति-सम्प्रदाय का केन्द्र था। चैतन्य के समकालीन वल्लभाचार्य एक दूसरे से वृन्दावन में मिले थे। मथुरा के प्राचीन मन्दिरों को औरंगजेब ने बनारस के मन्दिरों की तरह नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था।सभापर्व में ऐसा उल्लेख आया है कि जरासंघ ने गिरिव्रज (मगध की प्राचीन राजधानी, राजगिर) से अपनी गदा फेंकी और वह 99 योजन की दूरी पर कृष्ण के समक्ष मथुरा में गिरी, जहां वह गिरी वह स्थान गदावसान के नाम से विश्रुत हुआ। वह नाम कहीं और नहीं मिलता।ग्राउस ने मथुरा नामक पुस्तक में वृन्दावन के मन्दिरों एवं गोवर्धन, बरसाना, राधा के जन्म-स्थान एवं नन्दगांव का उल्लेेख किया है। मथुरा एवं उसके आसपास के तीर्थ-स्थलों का डब्लू. एस. कैने कृत चित्रमय भारत में भी वर्णन है।
- रायपुर। इस साल महाशिवरात्रि का त्यौहार 21 फरवरी को मनाया जाएगा। भगवान भोलेनाथ से जुड़े इस पर्व को मनाने के लिए प्रदेश में तैयारियां जोर-शोर से चल रही है। इस दिन शिव मंदिरों में जलाभिषेक का कार्यक्रम दिन भर चलता है।महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है। यह भगवान शिव का प्रमुख पर्व है। माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव का ज्योर्तिलिंग के रूप में प्रादुर्भाव हुआ था। महा शिवरात्रि यमराज के शासन को मिटाने वाला पर्व हैं और इसे शिवलोक को प्राप्त करने वाली एकमात्र व्रत माना जाता है। .भारत सहित पूरी दुनिया में महाशिवरात्रि का पावन पर्व बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है।फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाए जाने वाले इस महापर्व के संबंध में माना जाता है कि सृष्टि का प्रारंभ इसी दिन से हुआ। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग ( जो महादेव का विशालकाय स्वरूप है ) के उदय से हुआ। इसी दिन भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ था।वैसे तो हर महीने शिवरात्रि होती हैं, लेकिन साल में होने वाली 12 शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। शिवपुराण के अनुसार हर महीने कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन आने वाली शिवरात्रि को केवल शिवरात्रि कहा जाता है। वहीं फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी के दिन आने वाले शिवरात्रि को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। महाशिवरात्रि के दिन उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में लोग दीपस्तंभ लगाते हैं। दीपस्तंभ इसलिए लगाते हैं ताकि लोग शिवजी के अग्नि वाले अनंत लिंग का अनुभव कर सकें।ज्यादातर लोग मानते हैं कि महाशिवरात्रि पर शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। लेकिन शिव पुराण में एक और कथा आती है जिसके अनुसार सृष्टि की शुरुआत में भगवान विष्णु और ब्रह्मा में विवाद हो गया कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है। दोनों झगड़ रहे थे कि तभी उनके बीच में एक विशाल अग्नि-स्तंभ प्रकट हुआ जिसके तेज को देख दोनों चकित रह गए। उस स्तंभ का मूल स्रोत पता लगाने के लिए विष्णु, वराह का रूप धारण करके पाताल की ओर गए और ब्रह्मा हंस का रूप धारण करके आकाश की ओर चले गए। लेकिन बहुत कोशिशों के बाद भी उन्हें उस अग्नि-स्तंभ का ओर-छोर नहीं मिला। फिर उस स्तंभ से भगवान शिव ने दर्शन दिए। उसी दिन से भगवान शिव का प्रथम प्राकट्य महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाने लगा।कश्मीर शैव मत में इस त्यौहार को हर-रात्रि और बोलचाल में हेराथ या हेरथ भी कहा जाता हैं।---
-
देहरादून। उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध धाम बद्रीनाथ के कपाट छह माह के शीतकालीन अवकाश के बाद इस वर्ष 30 अप्रैल को श्रद्धालुओं के लिए फिर खोल दिए जाएंगे। श्री बद्रीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष मोहन प्रसाद थपलियाल ने बताया कि मंदिर के कपाट विधिवत पूजा अर्चना के बाद 30 अप्रैल को तड़के साढ़े चार बजे श्रद्धालुओं के लिए खोल दिए जाएंगे। उन्होंने बताया कि चमोली जिले में स्थित भगवान विष्णु के इस धाम के कपाट खोलने की तिथि और समय का मुहूर्त बसंत पंचमी पर बुधवार को टिहरी राजपरिवार के पुरोहित आचार्य कृष्ण प्रसाद उनियाल और संपूर्णानंद जोशी ने निकाला। - रामायण के प्रमुख पात्रों में देवी सुलोचना का जिक्र भी आता है। सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री थी, लेकिन उसका विवाह लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद के साथ हुआ थी। रामायण में जिक्र है कि लक्ष्मण ने जब युद्ध में मेघनाद का वध कर दिया, तो उसके कटे हुए शीश को भगवान श्रीराम के शिविर में लाया गया था।इन्द्रजीत (मेघनाद) रावण का महापराक्रमी पुत्र थी। जब लक्ष्मण उसका वध करने की प्रतिज्ञा लेकर युद्ध भूमि में जाने के लिये तत्पर हुए, तब राम ने कहा- लक्ष्मण, युद्ध भूमि में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावण-पुत्र मेघनाद का वध तो दोगे, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है। लेकिन एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे। क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है। ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और हमें युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी। लक्ष्मण अपनी सैना लेकर चल पड़े। समरभूमि में उन्होंने वैसा ही किया। अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को रघुनंदन के पास ले शिविर में ले आये।इसी दौरान मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुई देवी सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी। पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यक्ति की हो। ऐसी स्थिति में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष उस पर लग जाएगा। तब उसने भुजा से कहा- यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृत्तांत लिख दे। दासी ने भुजा को लेखनी पकड़ा दी। भुजा ने लिखा- प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है। युद्ध भूमि में श्रीराम के भाई लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कई वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में उनके साथ मेरी एक नहीं चली। अन्त में उन्हीं के बाणों से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश श्रीराम के पास है।यह यह देखकर सुलोचना व्याकुल हो गयी और विलाप करने लगी। पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावण ने आकर कहा- शोक न कर पुत्री। प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर गिर जाऐंगे। मैं रक्त की नदियां बहा दूंगा। करुण चीत्कार करती हुई सुलोचना बोली- पर इससे मेरा क्या लाभ होगा, पिताजी। सहस्त्रों नहीं करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के आभाव की पूर्ती नहीं कर सकेंगे। सुलोचना ने सती होने का निश्चय किया, किंतु पति का शव तो युद्ध भूमि में पड़ा हुआ था। सुलोचना ने अपने ससुर रावण से राम के पास जाकर पति का शीश लाने की प्रार्थना की। किंतु रावण इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने सुलोचना से कहा कि वह स्वयं राम के पास जाकर मेघनाद का शीश ले आए। सुलोचना शत्रु के शिविर में जाने की बात से सहम गई थी, लेकिन उस वक्त रावण ने उसे समझाया कि राम पुरुषोत्तम हैं, इसीलिए उनके पास जाने में तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं करना चाहिए। रावण ने उत्तर दिया- देवी ! जिस समाज में बालब्रह्मचारी हनुमान, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण तथा एकपत्नी व्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।सुलोचना ने वैसा ही किया। सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही श्रीराम खड़े हो गये और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आये और बोले- देवी, तुम्हारे पति विश्व के महान योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत-से सद्गुण थे; किंतु विधि की लिखी को कौन बदल सकता है। सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली- राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहां आई हूं। श्रीराम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मंगवाया और सुलोचना को दे दिया।पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। उसकी आंखें बड़े जोरों से बरसने लगीं। रोते-रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा- सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना की मेघनाथ का वध मैंने किया है। मेघनाद को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी। यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखने वाली उनकी अनन्य उपसिका हूं। पर मेरे पति देव पतिव्रता नारी का अपहरण करने वाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिए युद्ध में उतरे थे, इसी से मेरे जीवन धन परलोक सिधारे।सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गई। लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी। पति का शीश गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई।---
-
बुधवार रात सवा 8 बजे से सूतक, गुरुवार को ग्रहण
नई दिल्ली/अयोध्या/रायपुर। वर्ष 2019 का अंतिम ग्रहण गुरुवार को पौष कृष्ण अमावस्या के अवसर पर सूर्यग्रहण के रुप में लगेगा। यह खंडग्रास सूर्यग्रहण भारत, पाकिस्तान, चीन व खाड़ी देशों सहित दुनिया के अन्य भागों में देखा जा सकेगा। भारत में ग्रहण के दिखाई देने के कारण सूतक माना जाएगा। शास्त्रीय विधान के अनुसार सूर्यग्रहण के स्पर्श के 12 घंटे पहले सूतक लग जाएगा। पंचांगों के अनुसार इस ग्रहण की कुल अवधि दो घंटा चालीस मिनट है। भारतीय समयानुसार गुरुवार को ग्रहण का स्पर्श सुबह 8.17 बजे होगा। ग्रहण का मोक्ष पूर्वाह्न 10.57 बजे होगा। आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान एवं शोध संस्थान के निदेशक एवं सौर वैज्ञानिक प्रोफेसर दीपांकर बनर्जी ने बताया कि यह साल का आखिरी सूर्यग्रहण है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ ही शोधार्थियों के लिए सूर्यग्रहण के दौरान परिस्थितियों को समझने का बेहतर अवसर है।
ज्योतिषाचार्य के अनुसार ग्रहण के स्पर्श के मुताबिक सूतक बुधवार की रात सवा आठ बजे से लगेगा। इसके चलते शयन आरती के बाद मंदिरों के पट बंद हो जाएंगे और फिर दोपहर बाद दूसरी पाली में ही खुलेंगे। ज्योतिष विशेषज्ञ अरुण सिंहल बताते हैं कि बुधवार को ही मंगल का राशि परिवर्तन होगा। वह तुला से वृश्चिक में प्रवेश करेंगे। वहीं गुरुवार को ग्रहण के साथ ही धनु राशि में केतु के साथ छह ग्रहों की युति हो रही है। इसके कारण सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सामरिक हर दृष्टि से अशुभ संकेत मिल रहे हैं।
ज्योतिषाचार्य के अनुसार सूर्यग्रहण के कारण राजनीतिक उथल-पुथल, सत्ता परिवर्तन, प्राकृतिक आपदा जैसे भूकंप, अत्यधिक बर्फबारी से सर्दी का सितम रहेगा। आर्थिक मंदी, स्वर्ण की मांग में कमी व पेट्रोलियम पदार्थों के कीमतों में वृद्धि के भी संकेत हैं। धनु राशि का ग्रहण प्रधान पुरुषों, मंत्रियों व उद्योगपतियों के लिए भी कष्टप्रद होगा।
ईष्ट की आराधना करें
अयोध्या धाम ज्योतिष संस्थान के संस्थापक आचार्य राकेश तिवारी के अनुसार प्राय: ग्रहण का प्रभाव सभी के अशुभकारी ही होता है। फिर भी यह सूर्यग्रहण धनु, कन्या एवं वृष राशि के लिए विशेष अशुभकारी रहेगा। इस राशि के जातकों को अपने स्वास्थ्य के प्रति सावधान रहने की जरुरत है अन्यथा संकट का सामना करना पड़ेगा। इन सभी जातकों के लिए अपने-अपने ईष्ट की आराधना राहत देने वाली होगी।
2020 में लगने वाले ग्रहण
2020 में छह ग्रहण लगेंगे। ज्योतिषों के अनुसार 10 जनवरी को चंद्रग्रहण, 5 जून को चंद्रग्रहण, 21 जून को सूर्यग्रहण, 5 जुलाई को चंद्रग्रहण, 30 नवंबर को चंद्रग्रहण और 14 दिसंबर को सूर्यग्रहण लगेगा।
- रायपुर। 16 दिसंबर से खरमास शुरू हो गया। यह अगले वर्ष 14 जनवरी-2020 तक रहेगा। हिंदू पंचाग के अनुसार खरमास के दौरान मांगलिक कार्य जैसे विवाह, सगाई, मुंडन, गृह प्रवेश एवं जनेऊ संस्कार आदि नहीं किए जाते हैं।विद्वानों के अनुसार धार्मिक रूप से यह समय अपवित्र होता है, इसलिए इस समय मांगलिक कार्य वर्जित होते हैं। खरमास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। कहा जाता है कि इस समय कुछ भी मांगलिक कार्य नहीं करने चाहिए। बताया जाता है कि खरमास में सूर्य धनु राशि में प्रवेश करता है और मकर संक्रांति तक इसी स्थिति में रहता है। मान्यता है कि सूर्य जब धनु राशि में होता है तो इस दौरान मांगलिक कार्य शुभ नहीं होते हैं। इस अवधि में सूर्य मलीन (अशुभ) हो जाता है। मलीन सूर्य के कारण इसे मलमास भी कहते हैं।खरमास में क्या करें?00 खरमास के प्रतिनिधि आराध्य देव भगवान विष्णु हैं, इसलिए इस माह के दौरान भगवान विष्णु की पूजा नियमित रूप से करना चाहिए।00 इस मास में पडऩे वाली एकादशी तिथि को उपवास कर भगवान विष्णु की विधि-विधान से पूजा कर उन्हें तुलसी के पत्तों के साथ भोग लगाने से समस्त सुखों की प्राप्ति होती है।00 इस मास में प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नानादि से निवृत होकर भगवान विष्णु का केसर युक्त दूध से अभिषेक करें व भगवान विष्णु के मंत्र? नमो भगवते वासुदेवाय नम: का तुलसी की माला से एक माला जाप करें।00 धार्मिक स्थलों पर स्नान-दान आदि करने का भी महत्व माना जाता है।
-
रायपुर। कार्तिक मास की पूर्णिमा को गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि करने की परंपरा रही है। ऐसा माना जाता है कि इससे सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है। इस दिन किये जाने वाले अन्न, धन और वस्त्र दान का भी बहुत महत्व बताया गया है। इस दिन जो भी दान किया जाता हैं उसका कई गुना लाभ मिलता है। मान्यता यह भी है कि इस दिन व्यक्ति जो कुछ दान करता है वह उसके लिए स्वर्ग में संरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में उसे पुन:प्राप्त होता है।
दरअसल हिंदू धर्म में हर पूर्णिमा का अपना पौराणिक महत्व है। हर साल 12 पूर्णिमाएं होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 13 हो जाती है। इन्हीं में से एक है कार्तिक पूर्णिमा, जिसे त्रिपुरी पूर्णिमा या गंगा स्नान के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फल मिलता है।
इसे त्रिपुरी पूर्णिमा इसीलिए कहा जाता है क्योंकि माना जाता है कि आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक राक्षस का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। इसीलिए इस दिन भगवान भोलेनाथ के दर्शन करने की परंपरा है। मान्यता है कि इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो, उस समय छह कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्न होते हैं। ये छह कृतिकाएं हैं- शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन है।
पुराणों के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा को भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार लिया था।
महाभारत में भी उल्लेख है
महाभारत काल में भी कार्तिक कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान और दीप दान करने का उल्लेख मिलता है। युधिष्ठिर जब 18 दिनों के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों को देखकर विचलित हो गए थे, तो भगवान श्रीकृष्ण पांडवों को लेकर गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान पर पहुंचे। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पांडवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद रात में दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इसलिए इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रूप से गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ नगरी में आकर स्नान करने का विशेष महत्व है।
शिव त्रिपुरान्तक
मान्यता यह भी है कि इस दिन पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में वृषदान यानी बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति इस दिन उपवास करके भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस पूर्णिमा को शैव मत में जितनी मान्यता मिली है उतनी ही वैष्णव मत में भी।
बैकुण्ठ धाम में देवी तुलसी का प्राकाट्य हुआ था
मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा को श्रीविष्णु के बैकुण्ठ धाम में देवी तुलसी का प्राकाट्य हुआ था। कार्तिक पूर्णिमा को ही देवी तुलसी ने पृथ्वी पर जन्म ग्रहण किया था। इसी दिन शुभ फल पाने के लिए श्रीविष्णु को तुलसी पत्र अर्पित किया जाता है।
राधाजी के पूजन की परंपरा
कार्तिक पूर्णिमा को राधा रानी के दर्शन करने और उनका पूजन करने की भी परंपरा है। माना जाता है कि ऐसा करने से मनुष्य जन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है।
-
रायपुर। प्रदेश में देवउठनी एकादशी 8 नवंबर को मनाई जाएगी। भारत वर्ष में इस एकादशी का काफी महत्व है। माना जाता है कि क्षीरसागर में चार माह की निद्रा के बाद इसी दिन भगवान विष्णु जागते हैं। इसीलिए इस दिन से विवाह आदि शुभ काम की शुरुआत होती है। देव दीपावली के मौके पर एक बार फिर दीपक की रोशनी से घर-आंगन जगमग होंगे।
देवोत्थान एकादशी कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहते हैं। दीपावली के ग्यारह दिन बाद आने वाली एकादशी को ही प्रबोधिनी एकादशी अथवा देवोत्थान एकादशी या देव-उठनी एकादशी कहा जाता है। आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी से देव चार मास के लिए शयन करते हैं। इस बीच हिन्दू धर्म में कोई भी मांगलिक कार्य शादी, विवाह आदि नहीं होते। देव चार महीने शयन करने के बाद कार्तिक, शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन जागते हैं। इसीलिए इसे देवोत्थान (देव-उठनी) एकादशी कहा जाता है। देवोत्थान एकादशी तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप में भी मनाई जाती है। इस दिन लोग तुलसी और शालिग्राम का विवाह कराते हैं और मांगलिक कार्यों की शुरुआत करते हैं। हिन्दू धर्म में प्रबोधिनी एकादशी अथवा देवोत्थान एकादशी का अपना ही महत्व है। माना जाता है कि इस दिन जो व्यक्ति व्रत करता है उसको दिव्य फल प्राप्त होता है।
कल विवाह मुहूर्त नहीं
वर्ष में तीन बार विवाह के लिए अबूझ मुहूर्त आते हैं। जिसमें बसंत पंचमी, देवउठान एकादशी व फुलैरा दौज शामिल हैं। ऐसे में आठ नवंबर शुक्रवार को देवउठान एकादशी है। लेकिन, वर्षों बाद इस बार राशियों के हेरफेर के चलते देवउठान एकादशी पर विवाह के लिए अबूझ मुहूर्त नहीं है। इसका कारण वर्तमान में सूर्य तुला राशि में है। तुला राशि में सूर्य के होने से विवाह नहीं होते। देव उठनी एकादशी के बाद पहला विवाह मुहूर्त 18 नवंबर को है।
तुलसी विवाह के दिन क्या करें - क्या न करें
1. देवउठनी एकादशी पर भगवान शालिग्राम के साथ माता तुलसी के विवाह की परंपरा है। इस दिन अवश्य यह विवाह कराएं। माना जाता है कि इससे भगवान विष्णु के साथ ही माता तुलसी की कृपा प्राप्त होती है।
2. ंमाना जाता है कि जो दंपति कन्या संतान की इच्छा रखते हैं, उन्हें तुलसी- शालिग्राम का विवाह अवश्य कराना चाहिए। इस विवाह से सभी प्रकार के दोषों का शमन भी होता है।
3. जहां तक संभव हो इस दिन तुलसी का पौधा दान में दें। तुलसी का विवाह कराने के बाद उसे मंदिर में दान करें और नया पौधा तुलसी चौरा में रोपित करें।
4. इस दिन चांदी का तुलसी का पौधा खरीदने और उसकी पूजा करने से भी भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है।
5. शालिग्राम- तुलसी विवाह सम्पन्न कराने के बाद तुलसी के पौधे के समीप एक दीप अवश्य जलाएं। ऐसा करने से माता लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। इस दिन माता तुलसी को लाल रंग की चुनरी अवश्य अर्पित करें, इससे विवाह का सही फल जातक को प्राप्त होता है। साथ ही श्रंृगार की सामग्री भी अर्पित करें और बाद में उसे दान कर दें।
6. विवाह के उपरांत छोटी बालिकाओं को मीठा खिलाएं, इससे तुलसी माता प्रसन्न होती हैं।
7. विवाह के दिन तुलसी के पत्ते कभी न तोड़ें। माना जाता है कि इससे भगवान विष्णु कुपित होते हैं।
8. जहां तक संभव हो उस दिन सात्विक भोजन बनाएं और व्रत भी रखें। खाने में चावल का इस्तेमाल न करें।
---
-
रायपुर। सुहाग का प्रतीक करवाचौथ कल 17 अक्टूबर को मनाया जाएगा। यह व्रत हर साल कार्तिक के पवित्र महीने में संकष्टी चतुर्थी के दिन यानी कार्तिक कृष्ण चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन सुहागिन महिलाएं अखंड सौभाग्य के लिए निर्जला व्रत रखकर भगवान चंद्रमा की पूजा करती हैं। रात में चांद को छन्नी से देखकर और फिर अध्र्य देकर व्रत पूरा किया जाता है। इस साल पूजा का मुहूर्त शाम 05:26 से 06:41 तक रहेगा।
राजधानी के बाजार सजे
सुहागिनों के इस त्यौहार को लेकर राजधानी रायपुर के बाजार सज गए हैं। जगहृ- जगह-जगह मिट्टी के करवा और आकर्षक चलनी से दुकानें सजी हुई हैं। वहीं मेहंदी लगाने के लिए भी जगह-जगह स्टॉल लगाए गए हैं, जहां सुबह से ही महिलाओं की भीड़ नजर आ रही है।
शुभ फल के लिए महिलाएं अपनी राशि के अनुसार रंगों वालें परिधान का करें चयन
वैदिक ज्योतिष शास्त्र में रंगों का काफी महत्व होता है। ज्योतिष में 12 राशियां होती हैं और उन राशियों के संबंधित स्वामी ग्रह हैं। प्रत्येक राशि की अपनी भिन्न प्रकृति और अपना स्वभाव होता है जिसका प्रभाव मनुष्य जीवन पर दिखता है। हिन्दू ज्योतिष में सभी 12 राशियों के लिए शुभ रंग बताए गए हैं। इसका पालन महिलाएं करवा चौथ व्रत में भी करें तो शुभ फल की प्राप्ति होगी और उनके दांपत्य जीवन में खुशहाली आएगी। आइये जाने किस राशि की महिलाएं अपने परिधान में किस रंग का चयन करें।
मेष-इस राशि का स्वामी मंगल है। यह अग्नि तत्व की राशि होती है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार मेष राशि वालों के लिए लाल रंग शुभ होता है। इसलिए इस राशि की महिलाओं को करवा चौथ के दिन लाल और गोल्डन रंग के कपड़े पहनने चाहिए।
वृष राशि- इस राशि के स्वामी शुक्र ग्रह है। यह पृथ्वी तत्व की राशि होती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस राशि के लिए गुलाबी रंग लकी होता है। इस राशि की महिलाओं के लिए सबसे शुभ रंग सिल्वर और लाल है। इस रंग के परिधान पहनकर यदि महिलाएं करवा चौथ की पूजा करेंगी तो उन्हें अपने पति का अधिक प्यार मिलेगा।
मिथुन राशि-इस राशि का स्वामी बुध ग्रह होता है। यह वायु तत्व की राशि है। ज्योतिष के अनुसार हरा रंग मिथुन राशि के लिए भाग्यशाली होता है। इस राशि की महिलाएं करवा चौथ पर अगर लाल-हरे रंग के वस्त्र और चूडिय़ां पहनकर पूजा करेंगी तो उन्हें इस व्रत का अधिक फल मिलेगा।
कर्क राशि- कर्क राशि का स्वामी चंद्र ग्रह होता है। कर्क जल तत्व की राशि है। हिन्दू ज्योतिष के अनुसार कर्क राशि के लिए सफेद, समुद्री हरा या हल्का नीला रंग लकी होता है। इसलिए इस राशि की महिलाओं के लिए लाल-सफेद रंग की साड़ी और उसके साथ सतरंगी चूडिय़ां अत्यंत शुभ साबित होगी। भगवान के भोग में भी सफेद रंग की मिठाई का प्रयोग करना फलदायी रहेगा।
सिंह राशि- सूर्य ग्रह सिंह राशि का स्वामी है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार यह अग्नि तत्व की राशि है। सिंह राशि के लिए केसरिया और सुनहरा रंग भाग्यशाली होता है। इस राशि की महिलाएं भाग्य के सितारे को चमकाने के लिए लाल, संतरी, गुलाबी और गोल्डन कलर के कपड़े पहन सकती हैं।
कन्या राशि-कन्या राशि का स्वामी ग्रह बुध है। ज्योतिष के अनुसार यह पृथ्वी तत्व की राशि है। हरा रंग कन्या राशि के लिए शुभ होता है। कन्या राशि की महिलाएं करवा चौथ में हरे रंग के कपड़े पहनकर पूजा करें, इससे उन्हें सकारात्मक परिणाम मिलेंगे।
तुला राशि-तुला राशि का स्वामी शुक्र ग्रह होता है और यह वायु तत्व की राशि है। इस राशि के महिलाओंं के लिए लकी कलर पिंक, ऑफ़ व्हाइट , सिल्वर-गोल्डन और लाल हैं। करवा चौथ पर यदि वे इस रंग के कपड़े पहनकर पूजा करें तो भाग्य में वृद्धि होगी।
वृश्चिक राशि-वृश्चिक राशि का स्वामी मंगल ग्रह है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार यह जल तत्व की राशि है। लाल रंग वृश्चिक राशि वाली महिलाओं के लिए भाग्यशाली होता है। सकारात्मक परिणाम पाने के लिए करवा चौथ पर लाल, मेरून या फिर गोल्डन रंग के वस्त्र धारण कर पूजा करें। इससे पति-पत्नी के बीच प्यार भी बढ़ेगा।
धनु राशि-इस राशि का स्वामी ग्रह बृहस्पति है। इसलिए अगर इस राशि की महिलाएं पीले या आसमानी रंग के कपड़े पहनकर करवा चौथ व्रत की पूजा करें तो यह आपके दांपत्य जीवन के लिए शुभ रहेगा।
मकर राशि- भारतीय ज्योतिष के अनुसार मकर पृथ्वी तत्व की राशि है और शनि ग्रह इस राशि के स्वामी हैं। अत: मकर राशि वाले जातकों के लिए इलेक्ट्रिक ब्लू रंग शुभ होता है। इस रंग के कपड़े पहनकर चांद की पूजा करने से महिलाओं पर मां पार्वती अधिक प्रसन्न होती हैं।
कुंभ राशि- ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कुंभ राशि का स्वामी ग्रह भी शनि है। इसलिए इन राशि वाली महिलाओं के लिए भी शुभ रंग नीला और सिल्वर रहेगा। इससे वैवाहिक जीवन में खुशियां बनी रहेंगी। कुंभ वायु तत्व की राशि है और शनि ग्रह इस राशि पर राज करते हैं। करवा चौथ पर कुंभ राशि की महिलाओं को अच्छे परिणाम पाने के लिए बैंगनी, सिल्वर और गहरे नीले रंग के वस्त्र पहनने चाहिए।
मीन राशि-वैदिक ज्योतिष के अनुसार मीन जल तत्व की राशि है और गुरु इसके स्वामी ग्रह हैं। मीन राशि के जातकों के लिए लाल रंग या गोल्डन कलर के कपड़े पहनना शुभ और भाग्यशाली होता है। इसलिए करवा चौथ के दिन मीन राशि वाले महिलाओं को इस रंग के वस्त्र धारण करना चाहिए। इससे उनके सौभाग्य में वृद्धि होगी। -
आलेख मंजूषा शर्मा
(महर्षि वाल्मीकि की जयंती- 13 अक्टूबर पर विशेष)
छत्तीसगढ़ में रामायणकालीन संस्कृति की झलक आज भी देखने मिलती हैं। जिससे यह साबित तो होता है कि भगवान श्रीराम के अलावा माता सीता और लव-कुश का संबंध भी इसी प्रदेश से था। घने जंगलों के बीच स्थित तुरतुरिया में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम इसी बात की याद दिलाता है कि रामायण काल में छत्तीसगढ़ का कितना महत्व रहा होगा। प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार त्रेतायुग में यहां महर्षि वाल्मीकी का आश्रम था और उन्होंने सीताजी को भगवान राम के द्वारा त्याग देने पर आश्रय दिया था।
रायपुर-बलौदाबाजार मार्ग पर ठाकुरदिया नाम स्थान से सात किलोमीटर की दूरी पर घने जंगल और पहाड़ों पर स्थित है तुरतुरिया। यह छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 113 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां जाने का रास्ता शायद पहले आसान नहीं रहा होगा, क्योंकि सुरम्य और घनी पहाडिय़ों के बीच स्थित इस स्थान में जगह-जगह पहाड़ी कछार, छोटे-छोटे नाले और टीलें हैं । इन्हीं पहाडिय़ों के बीच बहती है बालमदेही नदी जिसका पाट तुरतुरिया के पास काफी चौड़ा हो गया है। पहाड़ी नदी होने के कारण वर्षा ऋतु में इसका तेज प्रवाह तुरतुरिया तक पहुंचने के रास्तों को और कठिन बना देता है। यह नदी आगे चलकर पैरागुड़ा के पास महानदी में मिल जाती है।
छत्तीसगढ़ के पृथक राज्य बनने के बाद यहां के ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों से संबंधित क्षेत्रों के विकास में तेजी आई है। इन क्षेत्रों का लगातार विकास कर इन्हें पर्यटन क्षेत्रों के रूप में उभारा जा रहा है। तुरतुरिया को ही ले लीजिए। जहां पहुंचना पहले आसान नहीं था, लेकिन अब इसके रास्तों को आसान बना दिया गया है। छोटे-छोटे मोड़दार नालों पर छोटी-छोटी पुलियां बन गई हैं। अब वहां पर्यटकों का पहुंचना और ठहरना आसान तथा आरामदायक हो गया है। तुरतुरिया तीन मुख्य रास्तों से जाया जा सकता है, एक सीधे रायपुर से बारनवापारा जंगल होते हुए, सिरपुर से या फिर बलौदाबाजार से।
तुरतुरिया की वन विभाग की चौकी पार करने के बाद दो सौ कदम के फासले पर ही स्थित है महर्षि वाल्मीकि का आश्रम। सामने ही एक पहाड़ी पर वैदेही कुटीर नजर आती है। वहां तक पहुंचने के लिए पहाडिय़ों को काटकर सीढिय़ां बना दी गई हैं। सीढिय़ों के किनारे-किनारे जंगली मोगरे के छोटे-छोटे पौधे बिखरे पड़े हैं। गर्मियों और बारिश में जब ये फूल खिलते हैं, तो वातावरण और खुशनुमा हो जाता है। ऊपर पहुंचने पर एक पक्की कुटीर नजर आता है। यदि आपकी किस्मत अच्छी है, तो आपको ऊपर पहुंचने पर हिरणों का झुंड भी विचरण करता नजर आ सकता है। हालांकि पर्यटकों की आहट से चौकन्ना होकर येे हिरण कुंलाचे भरते हुए पल भर में पेड़ों के झुुरमुट में गायब भी हो जाते हैं। रात में और भी जानवर यहां पर देखे जा सकते हैं। इसी पहाड़ी से लगी एक अन्य पहाड़ी है, जहां पर महर्षि वाल्मीकी का आश्रम स्थित है।
प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार त्रेतायुग में यहां महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था और यहीं पर उन्होंने सीताजी को रामचंद्र जी द्वारा त्याग देने पर आश्रय दिया था। जनश्रुति है कि वैदेहि सीता को लक्ष्मण फिगेंश्वर के पास सोरिद अंचल के ग्राम रमई पाठ में छोड़ गए थे। वहीं पर सीताजी ने अपना निवास स्थान बनाया था। माता सीता की वहां पर आज भी प्रतिमा मौजूद है। जब माता सीता के बारे में महर्षि वाल्मीकि को जानकारी मिली, तो वे माता को अपने तुरतुरिया के आश्रम में ले आए थे। यहीं पर सीताजी के दोनों पुत्र लव और कुश ने जन्म लिया था। वैदेही कुटीर के नीचे ठीक बाएं एक संकरा रास्ता पैदल जाता है। सामने ही कलात्मक खंभे दिखाई देते हैं, जो विखंडित हो चुके हैं। पहाड़ी पर ही कुछ पक्के मंदिर अब बन गए हैं, जिन पर निर्माण कार्य में सहयोग करने वाले लोगों के नाम भी अंकित हैं।
इसी क्षेत्र में बौद्ध भग्नावेश भी मिलते हैं, जो 8 वीं शताब्दी के हैं। यहीं पर कई उत्कृष्ट कलात्मक खंबे भी नजर आते हैं, जो किसी स्तूप के अंग हैं। यहीं पर माता सीता और लव- कुश की एक प्रतिमा भी नजर आती है, जो 13-14 वीं शताब्दी की बताई जाती है। पाषाण निर्मित ये मूर्तियां कलात्मक तो नहीं कही जा सकती, लेकिन इससे यह बात स्पष्ट होती है कि प्राचीन काल में भी इस जगह को वाल्मिकी के आश्रम के रूप में मान्यता मिली हुई थी। इस प्रतिमा में लव कुश को एक घोड़े के साथ दिखाया गया है। बताया जाता है कि यहीं पर लव और कुश ने भगवान राम के राजसूर्य यज्ञ के घोड़े को रोका था।
इसका तुरतुरिया नाम पडऩे का कारण यह है कि चट्टïानों के बीच से जब यह निर्धरिणी का उद्गम एक लंबी संकरी गुफा से होता है। जहां से वह बड़ी दूर तक भूमिगत होकर बही है। इस झरने का नाम ही तुरतुरिया हैं, जिसे सुरसुरी गंगा के नाम से भी जाना जाता है। घने जंगलों से घिरा है यह क्षेत्र। इस गुफा से उसका जल ईंटों से निर्मित एक कुंड में एकत्र होता है। कुंड में उतरने के लिए सीढिय़ां बनी हुई हैं। पहाड़ों के समीप एक छोटा सा जल कुंड बना हुआ है, जिसमें पानी पहाड़ों से आकर गिरता है। बारहों महीने इसकी जलधारा प्रवाहित होती रहती है। गर्मियों में भी ठंडे शीतल जल की धारा धाराप्रवाह प्रवाहित होती रहती है। यहां पर रहने वाले लोगों के अनुसार पिछले करीब 50 बरसों से वे इस क्षेत्र में निवास कर रहे हैं। इतने बरसों में उन्होंने कभी इस धारा को सूखते नहीं देखा है। पानी कुंड में गोमुख से होकर नीचे गिरता है। कुंड के निकट दो शूरवीर की मूर्तियां हैं, जिनमें से एक तलवार उठाए हुए है जो उस सिंह को मारने के लिए उद्घत है जो उसकी दाहिनी भुजा को फाड़ रहा है। दूसरी मूर्ति एक जानवर का उसकी पिछली टांगों पर खड़ा होकर उसका गला मरोड़ रहा है। यहीं पर भगवान विष्णु की एक स्थानक प्रतिमा भी है। एक प्रतिमा पद्मासन की मुद्रा में है जिसमें भगवान विष्णु की योगमुद्रा है जिसके कारण इसे देखकर लोगों को भगवान बुद्ध की प्रतिमा होने का भान होता है। यहां पत्थर के कई स्तंभ यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं, जिन पर उत्कृष्टï खुदाई का काम किया गया है।
स्त्री और बौद्घ विहार-
यह स्थान कुंड से कुछ दूरी पर नाले के दूसरे किनारे पर पहाड़ पर स्थित ऋुषियों के कुटियों में जाने के लिए बनाए गए पहाड़ी सीढिय़ों के समीप है। जहां पर अब मात्र जैन एवं बौद्घ भिक्षुणियों की मूर्ति है जो कि उपदेश देने की मुद्रा में दिखाए गए हैं। साथ ही उनकी शिक्षाएं भी यहीं उत्कीर्ण हैं, जो आठवी-नवीं शताब्दी की हंै। इस स्थान की विशेषता है कि यहां पुजारिनें स्त्री ही नियुक्त की जाती थीं, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह बौद्घ भिक्षुणियों का विहार था। भारत में केवल बौद्घ भिक्षुणियों के लिए विहार का निर्माण किया गया था या नहीं यह शोध का विषय है। इन अवशेषों से इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि इस क्षेत्र पर 8-9 वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का प्रभाव था और यह प्रमुख बौद्ध स्तूप और स्थल रहा होगा। इस क्षेत्र की खुदाई और शोध से कई बातें और सामने आ सकती हैं। वर्ष 1914 में तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर ए. ए. लारी ने इस स्थान पर खुदाई कराई थी, जिसमें यहां पर अनेक मंदिर और प्राचीन मूर्तियां मिली थीं। लारी का नाम शिलालेश गोमुख के ऊपर आज भी देखने को मिल जाता है।
यहां के कुछ प्राचीन भग्र मंदिरों में बौद्घ मूर्तियां खंडित अवस्था में हंै तथा समीप ही शैव वैष्णव धर्म की कुछ मूर्तियां पाई जाती हैं, जिनमें शिवलिंगों की अधिकता है। इनमें विष्णु और गणेश जी की मूर्तियां हैं। ऐसा जान पड़ता है कि अधिकांश शिवलिंगों का निर्माण बौद्घ विहार के स्तंभों को तोड़कर किया गया है।
छेरछेरा पर लगता है मेला
इस क्षेत्र का महत्व छेराछेरा के मौके पर और बढ़ जाता है, जब यहां पर मेला भरता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस स्थान पर लव कुश का जन्म हुआ था इसलिए पूष माह में यहां पर तीन दिनों का मेला भरता है। छेरछेरा पर्व छत्तीसगढ़ का पारंपरिक त्यौहार है , जो पूर्णिमा यानी पुन्नी के दिन धान कटाई के बाद मनाया जाता है। इस दिन गांव-गांव में घर - घर जाकर छोटे-छोटे बच्चे गुहार (आवाज) लगाकर कहते हैं- छेरा-छेरा , कोठी के धान ल हेर हेरा। धान का दान देना इस दिन शुभ माना जाता है। इस दिन लगने वाले मेले में आस-पास के हजारों लोग जुटते हैं। तब तक बालमदेही नदी का पाट काफी सिमट जाता है और गांव -गांव से आने वाले लोग नदी के रेतीले तट पर अस्थायी चूल्हे बनाकर अपने खाने-पीने का इंतजाम करते हैं।
इस क्षेत्र से सबसे समीप का गांव है बफरा, जहां कच्चे-पक्के मकान बने हुए हैं। यह गांव तुरतुरिया से 10-12 किमी की दूरी पर स्थित है। तुरतुरिया जाने के मार्ग पर पडऩे वाले गांव काफी बिखरे हुए हैं। इसकी वजह शायद इसका पहाड़ी क्षेत्र में स्थित होना है।
तुरतुरिया से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मातागढ़। बालमदेही नदी के पश्चिम में स्थित इस स्थान पर देवी मां का एक प्राचीन मंदिर है। जिसकी बड़ी मान्यता है। इस मंदिर में पहुंचकर मन को शांति मिलती है। -
रायपुर। शरद ऋतु प्रारंभ हो चुकी है और 13 अक्टूबर को शरद पूर्णिमा मनाई जाएगी। राजधानी रायपुर सहित पूरे प्रदेश में इस बार परंपरा के अनुसार शरद पूर्णिमा मनाने की तैयारियां शुरू हो गई हैं।
घरों के अलावा मंदिरों और मठों में शरद पूर्णिमा के मौके पर प्रसाद के रूप में खीर का वितरण किया जाएगा। मां महामाया मंदिर में विधि विधान से पूजा अर्चना की जाएगी। मंदिर में माता महामाया के साथ ही परिसर में स्थापित सभी श्री विग्रहों का भव्य सिंगार कर आरती उतारी जाएगी। साथ ही मंदिर परिसर में ही रात्रि में खुले आसमान के नीचे खीर बनाकर उसका भोग लगाया जाएगा। इसके बाद यही भोग भक्तों को वितरित किया जाएगा।
माता लक्ष्मी का करें आह्वान
इस त्यौहार का महत्व प्राचीन काल से चला आ रहा है। इस दिन भगवान चंद्र को खीर का भोग लगाकर उसका वितरण किया जाता है। लेकिन इस दिन मां लक्ष्मी की पूजा का भी विधान है। धर्म ग्रन्थों के अनुसार इस दिन माता लक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण करने आती हैं। कहा जाता है कि माता लक्ष्मी देखती हैं कि कौन जाग रहा है इसलिये शरद पूर्णिमा को कोजागरी पूर्णिमा भी कहा जाता है। इसलिए इस शरद पूर्णिमा को माता लक्ष्मी की पूजा का काफी महत्व है।
कैसे करें माता लक्ष्मी की पूजा
सुबह उठकर स्नान आदि करने के बाद घर में माता लक्ष्मी का आसन बनाएं और उनकी प्रतिमा या फिर तस्वीर को विराजमान करें। इच्छानुसार उन्हें सुंदर वस्त्राभूषणों से सुभोभित कर उनकी आराधना करें। विधि विधान से माता की पूजा करें और उन्हें गंध ,अक्षत, धुप, दीप, नैवैद्य, ताम्बूल आदि समर्पित करें। माता के सामने घी का अखंड दीप जलाएं जिसे रात भर जलाकर रखें। लक्ष्मी मंत्र और श्रीसूक्त का पाठ करें। माना जाता है कि लक्ष्मी माता के मंत्रों को कमलगट्टे के माला से जप करने से आर्थिक समस्या दूर होती है। इस दिन पूर्णिमा व्रत कर इस संबंध में कहानी जरूर सुनें। इससे घर में सुख- शांति और समृिद्ध आती है। इस दिन माता का कीर्तन तथा रात्रि जागरण करने से लक्ष्मी माता प्रसन्न होती है तथा सुख-समृद्धि का वरदान देती है।
श्रीकृष्ण से भी जुड़ी है शरद पूर्णिमा
रास शब्द का शाब्दिक अर्थ है - रसौ वै स: यानी- एक रस, अनेक रसों में होकर अनन्त रस का रसास्वादन करें , उसे रास कहा जाता है। माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ महारास की शुरूआत की थी। इसलिए शरद पूर्णिमा को रास पूर्णिमा भी कहा जाता है। श्रीमद् भागवत महापुराण के दशम स्कन्ध में शरद पूर्णिमा का सर्वोत्तम वर्णन देखने को मिलता है ।
शरद पूर्णिमा का है चिकित्सीय महत्व
शरद पूर्णिमा के दिन चांद धरती के सबसे निकट होता है इसलिए वह काफी पास नजर आता है। इस वजह से इसका चिकित्सीय महत्व भी है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वर्ष का मध्य काल होता है शरद ऋतु तथा चन्द्रमा पूरे साल में केवल पूर्णिमा को ही 16 कलाओं का होता है। इस दिन चंद्रमा अश्विनी नक्षत्र से संयोग करता है। जिसके स्वामी देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार है, जिन्होंने च्यवन ऋषि को दीर्घायु जीवन प्रदान किया था। माना जाता है कि इस दिन चांद की किरणों से अमृत रूपी शीतलता बरसती है, जो स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होती है। इसलिए इसे शरद पूर्णिमा कहा जाता है। इस दिन खीर बनाकर उसे रात भर खुले आंगन में रखा जाता है तथा सुबह उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। अनेक असाध्य रोगों की दवाएं इस खीर में मिलाकर खिलाई जाती है। माना जाता है कि प्राकृतिक औषधियों और जड़ी-बूटियोंं में शरद पूर्णिमा के बाद आरोग्यदायी तत्वों की वृद्धि होती है इसलिए इन जड़ी बूटियों को शरद पूर्णिमा के बाद ही इक_ा किया जाता है।
भगवान वाल्मीकि का जन्म दिवस
शरद पूर्णिमा को आदि कवि भगवान वाल्मीकि का जन्म दिवस मनाया जाता है। भगवान वाल्मीकि ने संस्कृत भाषा में रामायण की रचना की जो संसार का पहला लोककाव्य है। -
रायपुर। मनोकामना ज्योति कलश की स्थापना के साथ ही आज से शारदीय नवरात्र की शुरुआत हो चुकी है।
देवी मंदिरों में घट स्थापना प्रतिपदा तिथि सर्वार्थसिद्धि व अमृत सिद्धि योग में की गई । भक्तों ने सुबह स्नान कर साफ-सुथरे कपड़े पहनें और पूजा का संकल्प लिया। मिट्टी की वेदी पर जौ को बोकर कलश की स्थापना की। जगहृ-जगह दुर्गा सप्तशती का पाठ किया गया।
कलश स्थापना के लिए आज सुबह 6.01 से 7.24 बजे तक का शुभ मुहूर्त था। वहीं अभिजीत मुहूर्त- 11.33 से 12.20 तक था।
इस बार नवरात्र पूरे 9 दिनों का है। दसवें दिन देवी विसर्जन के साथ नवरात्र का समापन होगा। यह एक दुर्लभ संयोग है, क्योंकि कई बार दो तिथियां एक ही दिन पडऩे के कारण नवरात्र की अवधि कम हो जाती है। इस बार नवरात्र 29 सितंबर से आरंभ होकर 7 अक्तूबर तक चलेगा। 7 अक्टूबर को नवमी की पूजा होगी और 8 अक्टूबर को देवी प्रतिमा का विसर्जन किया जाएगा।
राजधानी रायपुर समेत प्रदेश के सभी जिलों में इस बार भी चौक चौराहों पर पूजा पंडालों में देवी मां की प्रतिमाएं विभिन्न रूपों में स्थापित की गई हैं। कई जगहों पर आकर्षक झांकियां भी प्रदर्शित की गई हैं। रंगबिरंगी लाइट्स से प्रमुख मार्गों को सजाया गया है। इस बार अब तक बारिश हो रही है, इसे देखते हुए पूजा पंडालों को पानी से सुरक्षित रखने के लिए खास इंतजाम किए गए हैं।
नवरात्र में इन नौ देवियों का पूजन
1. पहले दिन- शैलपुत्री
2. दूसरे दिन- ब्रह्मचारिणी
3. तीसरे दिन- चंद्रघंटा
4.चौथे दिन- कुष्मांडा
5.पांचवें दिन- स्कंद माता
6.छठे दिन- कात्यानी
7.सातवें दिन- कालरात्रि
8. आठवें दिन- महागौरी
9. नवें दिन- सिद्धिदात्री
रास गरबा हो सकता है प्रभावित
सिंतबर महीने के आखिरी दिनों में भी रायपुर समेत प्रदेश के कई जगहों पर मानसून की सक्रियता से बारिश हो रही है। इससे रास गरबा के शौकीन और आयोजक जरूर निराश हो गए हैं, लेकिन युवा पीढ़ी का उत्साह और बारिश थमने की उम्मीद कायम है। बाजारों में रास गरबा के वस्त्रों की जहां खूब बिक्री हो रही है, तो वहीं किराए पर भी ये वस्त्र उपलब्ध हैं। महिलाओं और युवतियों में रास गरबा को लेकर काफी क्रेज होता है। पारंपरिक परिधानों के साथ इस नृत्य में हिस्सा लेने के लिए कई दिन पहले से ही तैयारियां शुरू हो गई हैं। कई बड़े मैदानों में रास गरबा के लिए पंडाल लग गए हैं। -
रायपुर। शारदीय नवरात्र की आज से शुरुआत हो चुकी है। नौ दिनों तक चलने वाले इस पर्व में मां शक्ति की आराधना की जाती है। प्रथम दिन कलश स्थापना के साथ ही दुर्गासप्तमी और गीता का भी पाठ किया जाता है। पहले दिन मां शक्ति के शैलपुत्री स्वरूप की विधि विधान से पूजा की जाती है।
मां शैलपुत्री को पर्वतराज हिमालय की पुत्री माना जाता है। इनका वाहन वृषभ है इसलिए इनको वृषारूढ़ा और उमा के नाम से भी जाना जाता है। देवी सती ने जब पुनर्जन्म ग्रहण किया तो इसी रूप प्रकट हुईं इसीलिए देवी के पहले स्वरूप के तौर पर माता शैलपुत्री की पूजा होती है। मां शैलपुत्री की उत्पत्ति शैल से हुई है और मां ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और उनके बाएं हाथ में कमल शोभायमान है। उन्हें माता के सती के रूप में भी पूजा जाता है। नवरात्र के पहले दिन शुभ मुहूर्त देखकर कन्या एवं धनु लग्न में अथवा अभिजिन्मुहूर्त में कलश स्थापना की जाती है। पुराणों में कलश को भगवान गणेश का स्वरूप बताया गया है इसलिए कलश की स्थापना के साथ दुर्गा का आह्वान किया जाता है। इसलिए कलश की स्थापना पहले ही दिन कर दी जाती है। इसके बाद अन्य देवी-देवताओं के साथ माता शैलपुत्री की पूजा होती है। मान्यता है कि मां शैलपुत्री को सफेद वस्तु अतिप्रिय हैं इसलिए नवरात्रि के पहले दिन मां को सफेद वस्त्र और सफेद फूल चढ़ाया जाता है।
रायपुर के ज्योतिषाचार्य डॉ. दत्तात्रेय होस्केरे के अनुसार मां शैलपुत्री की कृपा पाने के लिए घी और उससे बने मीठे पदार्थों का भोग लगाना चाहिए। आज के दिन सफेद वस्त्र पहनना चाहिए। वास्तु दोष को शांत करने के लिए भी मां शैलपुत्री की आराधना करें। इसके साथ ही पूर्व दिशा में यदि कोई वास्तु दोष को तो वह माता शैलपुत्री की आराधना से दूर होता है। इसके लिए पूर्व दिशा में जल का छिड़काव करके माता के किसी भी मंत्र का जाप करना चाहिए। मांगलिक कन्याएं यदि माता की पूजा करें तो मंगल ग्रह की शांति होती है।
माना जाता है कि मां शैलपुत्री की आराधना से मनोवांछित फल और कन्याओं को उत्तम वर की प्राप्ति होती है। मां के इस पहले स्वरूप को जीवन में स्थिरता और दृढ़ता का प्रतीक माना जाता है। शैल का अर्थ होता है पत्थर और पत्थर को दृढ़ता की प्रतीक माना जाता है। महिलाओं को इनकी पूजा से विशेष फल की प्राप्ति होती है। नवरात्र में प्रतिदिन एक अथवा एक-एक वृद्धि से अथवा प्रतिदिन दुगुनी-तिगुनी के वृद्धिक्रम से अथवा प्रत्येक दिन नौ कुंवारी कन्याओं के पूजन का विधान है। इस संबंध में कुलाचार के हिसाब से भी पूजन कर सकते हैं, कुलाचार के आधार पर षष्ठी से नवमी तक कुंवारी पूजन के दिन निर्धारित है। -
मंजूषा शर्मा
रायपुर। छत्तीसगढ़ में मां शक्ति के प्राचीन मंदिरों की एक लंबी श्रंृखला है। शारदीय और चैत्र नवरात्र पर इन मंदिरों में भक्तों का तांता लगा रहता है। इस दौरान इन मंदिरों को आकर्षक रूप से संवारा जाता है। मां शक्ति की कृपा पाने और उनके दर्शनों के लिए दूर- दूर से लोग पहुंचते हैं।
इन्हीं प्राचीन मंदिरों में से एक हैं मां चंद्रहासिनी देवी मंदिर, जो राजधानी रायपुर से करीब 221 किमी की दूर जांजगीर-चाम्पा जिले के डभरा तहसील में चंद्रपुर में स्थित है। मांड नदी, लात नदी और महानदी के त्रिवेणी संगम पर स्थित होने के कारण इस मंदिर की महत्ता और बढ़ गई है। इस मंदिर को भक्तगण मां शक्ति के 52 सिद्ध शक्तिपीठों में से एक मानते हैं। चंंद्रमा की आकृति जैसा मुख होने के कारण इसकी प्रसिद्धि चंद्रहासिनी और चंद्रसेनी मां के रूप में हुई है। प्राचीन ग्रंथों में संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि मां सती का वामकपोल (वामगण्ड) महानदी के पास स्थित पहाड़ी में गिरा, जो बाराही मां चंद्रहासिनी का मंदिर बना और मां की नथनी नदी के बीच टापू में गिरी, जिससे मां नाथलदाई के नाम से मंदिर बना।
मंदिर परिसर में लगातार विस्तार हो रहा है। परिसर में अब आकर्षक रूप से पौराणिक और धार्मिक कथाओं की झाकियां, समुद्र मंथन, महाबलशाली पवन पुत्र, कृष्ण लीला, चीरहरण, महिषासुर वध, नवग्रह की मूर्तियां, शेष शै्यया, सर्वधर्म सभा, चारों धाम की झांकियां तथा अन्य देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियां स्थापित की गई हैं, जो इस मंदिर की शोभा में चार चांद लगा रही है। भक्तों की सुविधा के लिए मंदिर तक पहुंचने के लिए छोटी- छोटी सीढ़ी बनाई गई हैं। वैसे तो यहां पर साल भर भक्तों का आना होता है, लेकिन नवरात्र के मौके पर यहां पर बड़ी संख्या में भक्त माता के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। दूसरे राज्यों से भी लोग मां चंद्रहासिनी के दर्शनों के लिए आते हैं। पूरा मंदिर परिसर माता के जयकारों और भजनों से गूंजता रहता है। भक्त माता के दरबार में नारियल,अगरबत्ती, फूलमाला भेंटकर पूजा-अर्चना करते हैं और अपनी मनोकामना पूरी करते हैं।
नवरात्र में लोग अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए यहां पर ज्योतिकलश प्रज्जवलित करते हैं। इस बार यहां पर करीब 14 हजार मनोकामना ज्योति कलश स्थापित किए गए हैं। चंद्रहासिनी मंदिर के कुछ दूर आगे महानदी के बीच मां नाथलदाई का मंदिर स्थित है जो रायगढ़ जिले की सीमा अंतर्गत आता है। मान्यता है कि मां चंद्रहासिनी के दर्शन के बाद माता नाथलदाई के दर्शन भी जरूरी है। मां नाथलदाई को मां चंद्रहासिनी की छोटी बहन माना जाता है।
-
रायपुर। इस साल शारदीय नवरात्रि 29 सितंबर से शुरू हो रही है। 7 अक्टूबर तक चलने वाले मां आदिशक्ति की आराधना का यह पर्व पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है। इस नौ दिनों के दौरान जगह-जगह पंडालों में विभिन्न स्वरूपों में देवी प्रतिमाएं स्थापित कर भक्त गण विधि विधान से माता रानी की पूजा अर्चना करते हैं।
इस दौरान बड़ी संख्या में लोग व्रत और उपवास रखते हैं। कोई शक्ति की पूजा पूरे 9 दिन का व्रत रखता है करता है, तो कोई उपवास रखता है। कुछ लोग प्रथमा, पंचमी और अष्टमी का व्रत रखते हैं। कुछ लोग एक वक्त का खाना खाना खाकर व्रत रखते हैं, तो कोई केवल फलाहारी और लेकर व्रत पूरा करते हैं। कुछ लोग इन नौ दिनों में नमक का सेवन भी नहीं करते हैं और केवल तरल पदार्थों लेते हैं।
त्यौहारों के दिन व्रत- उपवास रखने की परंपरा भारत में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। लोग इसे धर्म और आस्था का पर्याय मानते हैं, लेकिन अब विज्ञान ने भी साबित कर दिखाया है कि व्रत रखना फायदेमंद भी होता है। भारत में ज्यादातर लोगों का भोजन अनाज ही होता है। डॉक्टर थोड़ा- थोड़ा करके दिन में चार बार खाने की सलाह देते हैं। वहीं प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार इंसान केवल एक वक्त का भोजन करके भी स्वस्थ रह सकता है, लेकिन इस दौरान उसे अपने भोजन में पोषक तत्वों और कैलोरीज का भी ध्यान रखना चाहिए। वैज्ञानिकों का मानना है कि संयमित भोजन के साथ व्रत या उपवास रखने से आपका वजन भी कम होता है, बल्कि पाचन तंत्र भी दुरुस्त रहता है। यही नहीं दिमाग भी बेहतर तरीके से काम करता है।
शोध से यह बात भी सच साबित हुई है कि उपवास शरीर के शुगर को कंट्रोल करता है। खासतौर पर यह बात उन लोगों पर साबित होती है, जिन्हें डायबीटीज होने का खतरा है या फिर उनका ब्लड शुगर बार्डर पर है। उपवास रखने से इंसुलिन रेजिस्टेंस कम होता है, लेकिन इस दौरान खान-पान में संयम भी बरतने की सलाह दी जाती है, जैसे कि अधिक कैलोरी वाला भोजन, या फिर ज्यादा शक्कर का इस्तेमाल। वैज्ञानिक हफ्ते में कम से कम एक दिन उपवास रखने की सलाह देते हैं। इसका कारण यह है कि ऐसा करने से दिल भी सेहतमंद होता है। इससे शरीर में खराब कोलेस्ट्राल की मात्रा कम हो जाती है। इसके अलावा खून में मौजूद ट्राईग्लिसराइड्स भी 25 प्रतिशत तक कम हो जाते हैं।
शोध से यह बात साबित हो चुकी है कि उपवास रखने से इंसान की उम्र बढ़ती है। शरीर और त्वचा पर बढ़ती उम्र के निशान भी कम होने लगते हैं।
कितने तरह के होते हैं व्रत या उपवास
1. पानी -इस दौरान केवल पानी का सेवन किया जाता है।
2. जूस- कुछ समय के लिए सिर्फ फलों या सब्जियों का जूस पीकर ही व्रत रखा जाता है।
3. इंटरमिटेंट फास्टिंग- कुछ देर या कुछ दिन के लिए खाने के बीच कम से 12 से 16 घंटे का अंतराल रखा जाता है।
4. आंशिक उपवास- इसमें खाने-पीने की कुछ चीजें, प्रोसेस्ड फूड, ऐनिमल प्रॉडक्ट्स, कैफीन आदि का सेवन नहीं करते।
5. कैलरी कंट्रोल- हर दिन कुछ हफ्तों तक कैलरी पर स्ट्रिक्ट कंट्रोल रखा जाता है।
--- -
सामान्य धारणा यह है कि जिनकी मृत्यु हो जाती है वह पितर बन जाते हैं। शास्त्रों में मनुष्यों पर तीन प्रकार के ऋण कहे गये हैं -देव ऋण, ऋषि ऋण एवम पितृ ऋण। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितरों की तृप्ति के लिए उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करके पितृ ऋण को उतारा जाता है। श्राद्ध में तर्पण, ब्राह्मण भोजन एवं दान का विधान है।
शास्त्रों में श्राद्ध पक्ष में दान की महिमा के बारे में बताया गया है। इन दिनों क्या दान करना चाहिए और क्यों? इस बारे में हमारे पौराणिक ग्रंथों में विस्तार से उल्लेख मिलता है। वैसे, इन दिनों अनाज का दान करना शुभ माना गया है।
अनाज में गेहूं, चावल का दान गरीबों को किया जाता है। इसके पीछे मंशा यह रहती है कि कोई भी व्यक्ति इन दिनों में भूखा न रहे। नमक का दान भी कर सकते हैं। इससे पितर जल्द प्रसन्न होते हैं। इन दिनों में नमक का दान करना बेहद उपयुक्त माना गया है। तिल का दान भी श्रेष्ठ माना गया है। विशेष तौर पर काले तिल का दान करने से नकारात्मक शक्तियों का साया और संकट, विपदाओं से निजात मिलती है। यदि व्यक्ति को किसी तरह की आर्थिक समस्या नहीं है तो वह सोने-चांदी का भी दान जरूरतमंद लोगों को कर सकता है। सोने का दान करने से घर में कलह-क्लेश नहीं आता है। वहीं, चांदी का दान करने से पितरों का आशीर्वाद मिलता है।
शास्त्रों में कहा गया है कि गुड़, घी, भूमि का दान भी किया जा सकता है। गुड़ का दान करने से दरिद्रता का नाश होता है। घी का दान करना शुभ माना गया है। भूमि दान करने से आर्थिक रूप से संपन्नता आती है। इन सभी में गौ दान का सबसे ज्यादा पुण्यदायक माना गया है।
इस लोक में मनुष्यों द्वारा दिए गये हव्य -कव्य पदार्थ पितरों को कैसे मिलते हैं यह विचारणीय प्रश्न है। जो लोग यहां मृत्यु को प्राप्त होते हैं वायु शरीर प्राप्त करके कुछ जो पुण्यात्मा होते हैं स्वर्ग में जाते हैं, कुछ अपने पापों का दंड भोगने नरक में जाते हैं तथा कुछ जीव अपने कर्मानुसार स्वर्ग तथा नर्क में सुखों या दुखों के भोगकी अवधि पूर्ण करके नया शरीर पा कर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं। शास्त्रों के अनुसार जब तक पितर श्राद्धकर्ता पुरुष की तीन पीढिय़ों तक रहते हैं (पिता, पितामह, प्रपितामह) तब तक उन्हें स्वर्ग और नर्क में भी भूख प्यास, सर्दी, गर्मी का अनुभव होता है पर कर्म न कर सकने के कारण वे अपनी भूख -प्यास आदि स्वयं मिटा सकने में असमर्थ रहते हैं। इसीलिए श्रृष्टि के आदि काल से ही पितरों के निमित्त श्राद्ध का विधान हुआ। देव लोक और पितृ लोक में स्थित पितर तो श्राद्ध काल में अपने सूक्ष्म शरीर से श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मणों के शरीर में स्थित हो कर श्राद्ध का सूक्ष्म भाग ग्रहण करते हैं तथा अपने लोक में वापिस चले जाते हैं। श्राद्ध काल में यम, प्रेत तथा पितरों को श्राद्ध भाग ग्रहण करने के लिए वायु रूप में पृथ्वी लोक में जाने की अनुमति देते हैं, पर जो पितर किसी योनी में जन्म ले चुके हैं उनका भाग सार रूप से अग्निष्वात, सोमप, आज्यप, बहिर्पद , रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक्, नान्दीमुख नौ दिव्य पितर जो नित्य एवम सर्वज्ञ हैं, ग्रहण करते हैं तथा जीव जिस शरीर में होता है वहां उसी के अनुकूल भोग प्राप्ति करा कर उन्हें तृप्त करते हैं। मनुष्य मृत्यु के बाद अपने कर्म से जिस भी योनि में जाता है उसे श्राद्ध अन्न उसी योनि के आहार के रूप में प्राप्त होता है। श्राद्ध में पितरों के नाम, गोत्र, मंत्र और स्वधा शब्द का उच्चारण ही प्रापक हैं जो उन तक सूक्ष्म रूप से हव्य कव्य पहुंचाते हैं। स्वधा को पितरों की पत्नी का दर्जा मिला हुआ है, जो प्रजापिता दक्ष की कन्या थीं।
शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध में जो अन्न पृथ्वी पर गिरता है उस से पिशाच योनि में स्थित पितर, स्नान से भीगे वस्त्रों से गिरने वाले जल से वृक्ष योनि में स्थित पितर, पृथ्वी पर गिरने वाले जल व गंध से देव योनि में स्थित पितर, ब्राह्मण के आचमन के जल से पशु, कृमि व कीट योनि में स्थित पितर, अन्न व पिंड से मनुष्य योनि में स्थित पितर तृप्त होते हैं।
गरूड़ पुराण से यह जानकारी मिलती है कि मृत्यु के पश्चात मृतक व्यक्ति की आत्मा प्रेत रूप में यमलोक की यात्रा शुरू करती है। शास्त्रों में बताया गया है कि चन्द्रमा के ऊपर एक अन्य लोक है जो पितर लोक कहलाता है। शास्त्रों में पितरों को देवताओं के समान पूजनीय बताया गया है। पितरों के दो रूप बताये गये हैं देव पितर और मनुष्य पितर। देव पितर का काम न्याय करना है। यह मनुष्य एवं अन्य जीवों के कर्मो के अनुसार उनका न्याय करते हैं।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि वह पितरों में अर्यमा नामक पितर हैं। यह कहकर श्री कृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि पितर भी वही हैं। पितरों की पूजा करने से भगवान विष्णु की ही पूजा होती है। विष्णु पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी के पृष्ठ भाग यानी पीठ से पितर उत्पन्न हुए। पितरों के उत्पन्न होने के बाद ब्रह्मा जी ने उस शरीर को त्याग दिया, जिससे पितर उत्पन्न हुए थे। -
रायपुर। भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कहते हैं, क्योंकि यह दिन भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिवस माना जाता है। श्रीकृष्ण के बारे में कहा जाता है कि उनकी 16 हजार रानियां थीं। इस संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं।
पौराणिक कथाओं के मुताबिक सबसे पहले कृष्ण ने रुक्मिणी का हरण कर उनसे विवाह किया था। बताया जाता है कि एक दिन अर्जुन को साथ लेकर भगवान कृष्ण वन विहार के लिए निकले। जिस वन में वे विहार कर रहे थे वहां पर सूर्य पुत्री कालिंदी, श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने की कामना से तप कर रही थी। कालिंदी की मनोकामना पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण ने उसके साथ विवाह कर लिया। फिर एक दिन श्रीकृष्ण उÓजयिनी की राजकुमारी मित्रबिन्दा को स्वयंवर से वर लाए। उसके बाद श्री कृष्ण ने कौशल के राजा नग्नजित के सात बैलों को एक साथ नाथ कर उनकी कन्या सत्या से विवाह किया। उसके बाद उन्होंने कैकेय की राजकुमारी भद्रा से विवाह हुआ। भद्रदेश की राजकुमारी लक्ष्मणा भी कृष्ण को चाहती थी, लेकिन उनका परिवार कृष्ण से विवाह के लिए राजी नहीं था तब लक्ष्मणा को श्रीकृष्ण अकेले ही हरकर ले आए। इस तरह कृष्ण की आठ पत्नियां हुईं- रुक्मिणी, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा। इन 8 पटरानियों अष्टा भार्या कहा जाता था। इनसे श्रीकृष्ण के 80 पुत्र हुए हैं।
1. श्रीकृष्ण-रुक्मिणी के पुत्रों के नाम- प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरुगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू।
2.जाम्बवती-कृष्ण के पुत्रों के नाम- साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ और क्रतु।
&.सत्यभामा-कृष्ण के पुत्रों के नाम- भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।
4.कालिंदी-कृष्ण के पुत्रों के नाम- श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक।
5.मित्रविन्दा-श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम- वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महांस, पावन, वह्नि और क्षुधि।
6.लक्ष्मणा-श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम- प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊध्र्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित।
7.सत्या-श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम- वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगुप्त, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुंति।
8.भद्रा-श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम- संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।
किसतरह हुई श्रीकृष्ण की 16 हजार रानियां
पौराणिक कथाओं के मुताबिक एक दिन देवराज इंद्र ने भगवान कृष्ण को बताया कि प्रागÓयोतिषपुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। इंद्र की प्रार्थना स्वीकार कर के श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को साथ लेकर गरुड़ पर सवार हो प्रागÓयोतिषपुर पहुंचे। वहां पहुंचकर भगवान कृष्ण ने सत्यभामा की सहायता से सबसे पहले मुर दैत्य सहित मुर के छह पुत्र- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण का संहार किया। दैत्य के वध हो जाने का समाचार सुन भौमासुर अपने सेनापतियों और दैत्यों की सेना को साथ लेकर युद्ध के लिए निकला। भौमासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया और घोर युद्ध के बाद अंत में कृष्ण ने सत्यभामा की सहायता से उसका वध कर डाला। इस तरह भौमासुर को मारकर श्रीकृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर उसे प्रागÓयोतिष का राजा बनाया। भौमासुर के द्वारा हरण कर लाई गईं 16 हजार कन्याओं को श्रीकृष्ण ने मुक्त कर दिया। ये सभी अपहृत नारियां थीं या फिर भय के कारण उपहार में दी गई थीं अन्यथा किसी और माध्यम से उस कारागार में लाई गई थीं। सामाजिक मान्यताओं के चलते भौमासुर द्वारा बंधक बनकर रखी गई इन नारियों को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं था, तब अंत में श्रीकृष्ण ने सभी को आश्रय दिया और उन सभी कन्याओं ने श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। इस तरह से श्रीकृष्ण की 16 हजार रानियां हुईं। -
रायपुर। 15 अगस्त को श्रावण मास की पूर्णिमा है, यानी रक्षा बंधन का त्यौहार। बहनें अपने भाइयों की सलामती और उनकी लंबी उम्र की कामना के साथ उन्हें रक्षा सूत्र बांधेंगी। अच्छी चौघडिय़ा सुबह 05 बजकर 50 मिनट से सुबह 07 बजकर 28 मिनट तक है यानि ये राखी बांधने का अच्छा मुहूर्त है। इसके बाद राखी बांधने का शुभ मुहूर्त सुबह 10 बजकर10 मिनट से रात 8 बजकर 10 मिनट तक है।
इधर, राजधानी रायपुर के बाजारों में राखी खरीददारी के कारण काफी रौनक रही। सुबह से ही गोलबाजार और मालवीय रोड की दुकानों में महिलाओं की जबरदस्त भीड़ देखने को मिली। बाजार में जगह-जगह स्टॉल लगाए गए हैं, जहां रंगबिरंगी राखियां बिक रही हैं। इस बार डोरियां राखी और झूमर वाले लूंबा की मांग ज्यादा है। इसके अलावा मेहंदी लगाने वालों की दुकानों में भी बड़ी संख्या में महिलाएं दिखाई दीं। डिजाइन के हिसाब से मेहंदी लगाने की कीमत वसूली जा रही है। इस बार राखी के अलावा मेहंदी की कीमतों में भी अच्छा खासा इजाफा हुआ है।
सावन पूर्णिमा से ही श्रवण नक्षत्र की शुरुआत होगी। 15 अगस्त को गुरुवार का दिन होने से इसका महत्व और बढ़ गया है। माना जाता है कि इस दिन गंगापूजन, शिव पूजन और विष्णुपूजन करने से आयु, आरोग्य विद्या सहित हर मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इसलिए इस बार रक्षा बंधन के त्यौहार का महत्व और बढ़ गया है। सावन पूर्णिमा के दिन ही श्रवण नक्षत्र की शुरुआत होती है। इस बार रक्षाबंधन पर भद्राकाल भी नहीं पड़ रहा है और न ही किसी प्रकार का ग्रहण है। इसी कारण इस बार रक्षाबंधन शुभ संयोग लेकर आया है। इसे सौभाग्यशाली भी माना जा रहा है।
पूर्णिमा और राखी बांधने का मुहूर्त
सावन पूर्णिमा 14 अगस्त की रात 9 बजकर 15 मिनट पर शुरू होगी। वहीं इसका समापन 15 अगस्त को रात 11 बजकर 29 मिनट पर होगा। अच्छी चौघडिय़ा सुबह 05 बजकर 50 मिनट से सुबह 07 बजकर 28 मिनट तक है यानि ये राखी बांधने का अच्छा मुहूर्त है। इसके बाद राखी बांधने का शुभ मुहूर्त सुबह 10 बजकर10 मिनट से रात 8 बजकर 10 मिनट तक है।
राहुकाल पर रखें ध्यान
ज्योतिष शास्त्री के अनुसार राहुकाल दोपहर 02 बजकर 02 मिनट से शुरू होकर दोपहर 03 बजकर 43 मिनट तक रहेगा। इस अवधि के दौरान आपको राखी नहीं बांधनी चाहिए। राहुकाल में किसी भी तरह का शुभ कार्य करना वर्जित माना गया है। अगर आपने भाई को राखी राहुकाल शुरू होने से ठीक 1 मिनट पहले भी बांध दी है तो आप आगे की क्रिया को जारी रखें इससे किसी तरह का कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन राहुकाल शुरू होने के बाद राखी ना बांधें।