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- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अमृत वाणीजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने अवतारकाल में मानव-देह के महत्व तथा भगवान और गुरु की कृपाओं को बार-बार महसूस करते हुये भक्तिमार्ग पर निरन्तर आगे बढऩे की प्रेरणा अनगिनत बार दी है। वस्तुत: अनंत देहधारियों में मनुष्य देह प्राप्त करने वाले विशेष सौभाग्यशाली हैं। मानव देहप्राप्ति के सौभाग्य के साथ ही भगवान तथा गुरु के द्वारा प्रदत्त अन्य सौभाग्यों पर विचार करने संबंधी उनके इन वचनों को आइये हम पुन:-पुन: चिंतन, मनन करें :::::::(यहाँ से पढ़ें...)देवदुर्लभ मानव देह अनन्त जीवों में किसी-किसी भाग्यशाली को मिलता है, यानी पूरे ब्रह्माण्ड में केवल सात अरब मानव हैं। जबकि एक फुट गड्ढे में पांच अरब जीव रहते हैं। सोचो कि तुम कितने भाग्यशाली हो। सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थनि गावा। फिर उनमें वे और भाग्यशाली हैं, जिन्होंने भारत में जन्म लिया है, क्योंकि यहां जन्म से ही भगवान का नाम सुनने में आता है। धन्यास्तु ये भारत भूमि भागे। फिर भारत में वो और भाग्यशाली हैं, जिनको कोई महापुरुष मिल गया है। जिसके पीछे भगवान चरण धूलि के लिये चलते हैं। अनुब्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रिरेणुभि:। फिर उन भाग्यशालियों में वे और भाग्यशाली हैं, जो गृहस्थ के प्रपंच से गुरु द्वारा बचाये गये हैं। फिर उनके भाग्य की सराहना क्या की जाए जो गुरु आश्रम में परम त्यागमय जीवनयुक्त गुरु की सेवा करते हैं। इससे अधिक सौभाग्य असम्भव है। यह सब सौभाग्य पाकर भी जो निरन्तर आगे न बढ़े तो उसके समान दुर्भाग्य या आत्महनन क्या होगा? उसके मन में हरि एवं गुरु के अतिरिक्त अहंकार या राग-द्वेष आता है तो यही समझना चाहिये कि उसने सारी कृपाओं को अपने पैरों से कुचलने की प्रतिज्ञा कर ली है।प्रमुख साधन दीनता है, इसी आधार पर भक्ति का महल खड़ा होगा। अतएव यह शौक पैदा करना चाहिए कि कोई मेरी बुराई करे और मैं खुश होकर धन्यवाद दूं तथा उस बुराई को स्वीकार करके उसे ठीक करुं। एतदर्थ यह भी आवश्यक है कि हम किसी की बुराई न सुनें, न देखें, न करें, न सोचें। यदि कभी मन में ऐसे सर्वनाश करने वाले भाव आ भी जाएं तो जोर-जोर से कीर्तन करने लगें। शिकायत किसी की किसी से न करें। अनन्त जन्म की पापात्मा भला स्वयं को अच्छा कैसे समझ सकती है। जरा सोचो यह जीवन क्षणभंगुर है। अत: यदि कल का दिन ना मिला तो इतनी बड़ी गुरु-कृपा, भगवत्कृपा, सौभाग्य सब व्यर्थ हो जायेगा। बार-बार सोचो , बार-बार सोचो।(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)स्त्रोत -जगद्गुरु कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली)
- पितृ यानी पूर्वजों की महिमा देवताओं से कम नहीं है। माना जाता है कि उनके आशीर्वाद से घर में सुख-शांति बनी रहती है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं। मार्कंडेय पुराण में वर्णित एक कहानी के मुताबिक रुचि नाम के एक प्रजापति थे जिन्होंने खुद को सांसारिक मोहमाया से दूर कर लिया था। रुचि का यह रवैया देखकर उनके पूर्वज बहुत चिंतित हो गए। उस वक्त एक ऐसे राजा की जरूरत थी जो दुनिया को चला सके, लेकिन रुचि तो इन सबसे उदासीन हो चुके थे।आखिर पुरखों ने रुचि को दर्शन दिए और उन्हें गृहस्थ जीवन का महत्व समझाया। पहली बात तो यह कि रुचि लगभग बूढ़े हो चले थे। दूसरे उनके पास धन या सुख साधन नहीं थे। ऐसे में कौन उनसे अपनी बेटी की शादी कराता?आखिरकार सभी चिंताएं छोड़कर रुचि ब्रह्मा जी की आराधना में लग गए क्योंकि ब्रह्मा जी ही इस सृष्टि के रचयिता हैं।रुचि से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें दर्शन दिए। उन्होंने रुचि से कहा कि वह अपने पुरखों के लिए तर्पण करें और फिर से उनकी आराधना करें। ब्रह्मा जी की बात मानकर रुचि ने एकांत में जाकर अपने पुरखों के लिए तर्पण किया और पूरी श्रद्धा के साथ उनकी स्तुति की। रुचि ने उस समय जो स्तुति में जो कुछ भी कहा उसे पितृ स्रोत का नाम दिया गया। रुचि की प्रार्थना से प्रसन्न होकर पूर्वज एक बार फिर उनके सामने प्रकट हुए। उन्होंने रुचि से वरदान मांगने को कहा और रुचि ने सुयोग्य पत्नी मांगी। पुरखों ने कहा कि तुम्हें जल्दी ही एक पत्नी मिलेगी और तुम पिता भी बनोगे। पुरखों के अंतर्धान होने के कुछ ही देर बाद नदी से प्रमोल्चा नाम की अप्सरा अपनी बेटी को लेकर रुचि के सामने प्रकट हुई। उसने रुचि से कहा कि वह उसकी बेटी से विवाह करें। इस तरह रुचि ने शादी करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। कुछ समय के बाद दंपती को एक बेटा हुआ जिसका नाम मनु रखा गया। रुचि का पुत्र होने की वजह से उसे रौच्य मनु भी कहा गया। आगे चलकर यह बालक पूरी पृथ्वी का स्वामी बना। यह तो पूर्वजों के महिमा की सिर्फ एक कहानी है। हमारे धर्म ग्रंथों में ऐसी न जाने कितनी कहानियां भरी पड़ी हैं। यही वजह है कि आज भी लोग पूरी श्रद्धा के साथ पितरों को याद करते हैं।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की वाणीआध्यात्म जगत में यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि भगवान एवं संत दोनों एक हैं। शास्त्र भी इसकी मान्यता देते हैं। यह भी आया है कि भगवान से अधिक ऊँचा स्थान गुरु, महात्मा, संत, महापुरुष का होता है। और भगवान के संत जनों की निंदा महान अपराध है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इसी संबंध में चेतावनीपूर्वक यह आग्रह कर रहे हैं कि अपना कल्याण चाहने वालों को भूलकर भी संत-निंदा के अपराध में नहीं पडऩा चाहिये। आइये उन्हीं के शब्दों में इसे समझने का प्रयास करें एवं इस सिद्धान्त को हृदयंगम करें -
(संत-निंदा से सर्वथा बचो - यहां से पढ़ें...)निदाम भगवत: श्रवणन तत्परस्य जनस्य वा।ततो नापैति य: सोपि यात्यध: सुकृताच्च्युत:।।(श्रीमद्भागवत, स्कंध 10)अर्थात् भगवान् एवं उनके भक्तों की निंदा कभी भूल कर भी न सुननी चाहिए, अन्यथा साधक का पतन हो जायगा, तथा उसकी सत्प्रवृत्तियां भी नष्ट हो जायेंगी। प्राय: अल्पज्ञ-साधक किसी महापुरुष की निंदा सुनने में बड़ा शौक रखता है। वह यह नहीं सोचता कि निंदा करने वाला निन्दनीय है या महापुरुष है. संत-निंदा सुनना नामापराध है। वास्तव में तो यह ही सब अपराध अनादिकाल से जीव को सर्वथा भगवान् के उन्मुख ही नहीं होने देते।जिस प्रकार कोई पूरे वर्ष दूध, मलाई, रबड़ी आदि खाय एवं इसके पश्चात् ही एक दिन विष (जहर) खा ले तथा मर जाय। अतएव बड़ी ही सावधानी-पूर्वक सतर्क होकर हरि, हरिजन-निंदा-श्रवण से बचना चाहिए।विष्णुस्थाने कृतं पापं गुरुस्थाने प्रमुच्यते।गुरुस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति।।भगवान् के प्रति किया हुआ अपराध गुरु द्वारा क्षमा कर दिया जाता है किन्तु गुरु के प्रति किया हुआ अपराध भगवान् भी क्षमा नहीं कर सकते।(जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी, ज्योतिषाचार्यइस बार भादो मास की पूर्णिमा पर दो सितंबर से महालय श्राद्ध की शुरुआत होगी। इस बार श्राद्ध पक्ष का आरंभ बुधादित्य योग के साथ हो रहा है। सर्वपितृ अमावस्या पर पक्ष काल का समापन शुभयोग के संयोग में होगा। सोलह दिवसीय श्राद्घ में 10 दिन अमृतसिद्घि, सर्वार्थसिद्घि योग तथा पुष्य नक्षत्र का विशिष्ट संयोग भी रहेगा। धर्मशास्त्र के जानकारों के अनुसार शुभ संयोगों की साक्षी में पितरों का श्राद्घ करने से वंशवृद्घि, शुभ कार्यों को प्रगति मिलेगी। मांगलिक कार्यों में आ रहे अवरोध दूर होंगे।इस बार श्राद्घ पक्ष में किसी भी तिथि का क्षय नहीं है। पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या तक सोलह दिवसीय श्राद्घ पक्ष में पूर्ण तिथियां रहेंगी।श्रद्धया इदं श्राद्धम (जो श्रद्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोडऩे पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था प्रेत है, क्योंकि आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उध्र्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढिय़ों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढिय़ों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है।शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामथ्र्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएं होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएं। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है।मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है। त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।शुद्धयर्थ श्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।कर्माग श्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं।यात्रार्थ श्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के 96 अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं (12) पुणादितिथियां (4) मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु (5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह 96 अवसर प्राप्त होते हैं। पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है।पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियां चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए।----
- वैदिक अध्ययन के निमित्त विशिष्ट विद्याओं की शाखाओं का जन्म हुआ जो वेदांग के नाम से विख्यात हैं। मुण्डक उपनिषदक में छ: वेदांगों का उल्लेख किया गया है- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दशास्त्र तथा ज्योतिष। वेदांग की छह शाखाओं से ही वैदिक पाठ को सरल एवं सुबोध बनाया गया। आगे चलकर इन विषयों के पठन-पाठन में कुछ परिवर्तन हुए और इस प्रकार वैदिक शाखाओं के अन्तर्गत ही उनका पृथक्-पृथक् वर्ग स्थापित हो गया। इन्हीं वर्गों का पाठ्य ग्रन्थों के रूप में सूत्रों का निर्माण हुआ।कल्पसूत्रों को चार भागों में विभाजित किया गया। महायज्ञों से सम्बन्धित सूत्रों को श्रौतसूत्र, गृह-संस्कारों पर प्रकाश डालने वाले सूत्रों को गृह्यसूत्र, धर्म अथवा नियमों से सम्बन्धित सूत्रों को धर्मसूत्र और यज्ञ एवं हवनकुण्डों की क्रमश वेदी एवं नाप आदि से सम्बन्धित सूत्रों को शुल्वसूत्र कहा गया। वेदांग का यह विस्तृत क्षेत्र तत्कालीन धार्मिक अवस्था का एकमात्र निर्देशक है। इन्हीं सूत्रों में सामाजिक अवस्था का भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है। किन्तु कठिनाई यह है कि ये इतने विस्तृत तथा अथाह सागर की तरह हैं कि इनमें से ऐतिहासिक तथ्यों को खोज निकालना सरल कार्य नहीं। ऋग्वेद से लेकर सूत्रों की रचना तक का समय लगभग दो हजार ई.पू. से पांचवीं शताब्दी ई.पू. तक माना जाता है। इस लम्बे अरसे का इतिहास इसी वैदिक साहित्य से प्रकाशित होता है।
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रदान किया गया समाधानजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने आध्यात्म-जगत में एक अभूतपूर्व अध्याय जोड़ते हुये समस्त विश्व को एक नई रोशनी, दिशा और उत्साह प्रदान किया है। जहाँ उन्होंने साधना-तत्व का अद्वितीय निरुपण किया, साथ ही उन्होंने सांसारिक जगत के भी अनेक छोटे-बड़े प्रश्नों का समाधान साधक-समुदाय को प्रदान किया। उन्होंने सदैव यही समझाया कि आत्मा का कल्याण शरीर की स्वस्थता के बिना बहुत कठिन है। अत: आध्यात्मिक उत्थान के लिये यथासंभव शरीर की देखभाल भी परमावश्यक है। इसी से संबंधित एक प्रश्न एक साधक ने पूछा था। आइये श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा प्रदान किये उत्तर का पठन कर लाभ पाने का प्रयत्न करें :::::::(यहाँ से पढ़ें...)एक साधक का प्रश्न - महाराज जी! जब मृत्यु निश्चित है तो बीमार होने पर दवाई करें या न करें, उसे तो समय से जाना ही है?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रदान किया गया उत्तर-...दो प्रकार का रोग होता है, एक को कहते हैं कर्मज, एक को कहते हैं दोषज, हमारे आयुर्वेद में। आयुर्वेद का मैं आचार्य हूँ। तो आयुर्वेद में दो प्रकार की बीमारी बताई है। जो रोग आपके आहार-विहार की गड़बड़ी से हुआ है, यानी आपकी गड़बड़ी से हुआ है। खानपान जो कुछ अंड-बंड आपने किया उसके कारण हो गया है, उसको दोषज कहते हैं। अब जो प्रारब्ध (भाग्य) का कर्मफल भोग है, उसके द्वारा जो रोग होता है वो कर्मज कहलाता है। तो कर्मज रोग का तो इलाज करो, न करो, बराबर है। जब प्रारब्ध भोग समाप्त हो जायेगा तो अपने आप ठीक हो जायेगा। फिर तो अंड-बंड दवा भी करो तो भी वो रोग चला जायेगा। नाम करते हैं लोग, अरे हमने ऐसा कर लिया, हम तो ठीक हो गये। वो कर्मज व्याधि थी इसलिये ठीक हो गया अपने आप। वो बता रहा है, ऊटपटांग इलाज। उसने झाड़-फूँक कर दिया, उसने ये कर दिया।दोषज बीमारी जो होगी, जो हमारी गड़बड़ी से हुई है उसमें तो दवा काम करेगी, इलाज करना होगा। अब चूंकि मालूम नहीं हो सकता कि ये कर्मज है कि दोषज है इसलिये दवा सबकी करनी पड़ती है।नम्बर दो अगर हमारा पिता बीमार है, उसकी सब प्रॉपर्टी तो हम लेने को बैठे हैं तैयार और दवा करने के बारे में हम ये कह दें कि जो होना है सो होगा। तो लोग खा जायेंगे, क्या कहेंगे लोग उनको। लोक दृष्टि से भी और शास्त्र की दृष्टि से भी इलाज तो कराना ही है। अब अगर वो दोषज है तो फायदा होगा और बीमारी ठीक हो जायेगी। अगर कर्मज है तो दवा काम नहीं करेगी, वो भोग के एक दिन अपने आप ठीक हो जायेगी।(स्त्रोत- साधन साध्य पत्रिका, जुलाई 2016 अंक)
उ सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली। - - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा श्रीराधारानी के छठी उत्सव से संबंधित कुछ दोहों का वर्णनआज महारानी श्रीराधारानी जी की छठी-उत्सव है। भाद्रपद की अष्टमी पर श्रीब्रजधाम में उनका अवतरण हुआ था। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने ब्रज-साहित्यों में श्रीराधा-तत्व पर विशद निरुपण किया है, यथा उनके नाम, रुप, लीला, गुण, धाम तथा उनके जनों से संबंधित अनगिनत प्रवचन, पद, कीर्तन तथा दोहों आदि की रचना उन्होंने की है जो कि प्रेम की सर्वोच्च कक्षा, सर्वोच्च भाव से ओतप्रोत हैं। सर्वोच्च भाव अर्थात उनके प्रति परम निष्काम भक्ति का ही उपदेश श्री कृपालु महाप्रभु जी के साहित्यों में समाया हुआ है। आइये, आज उनके द्वारा ही रचित एक अनुपमेय ग्रन्थ श्यामा-श्याम गीत में वर्णित श्रीराधारानी के छठी उत्सव से संबंधित कुछ दोहों तथा उनके भावार्थ के माध्यम से हम सब भी गोपी-भाव से श्रीबरसाना धाम में श्रीकीर्ति मैया तथा वृषभानु बाबा के आँगन में चलें ::::::(श्रीराधारानी की छठी की बधाई - यहाँ से पढ़ें...)लाली की छठी है आज बरसाने धामा।चलो री बधाई गाने सब ब्रज बामा।।भावार्थ : अरे! आज बरसाना धाम में श्रीराधा का छठी-उत्सव मनाया जा रहा है। चलो! सभी ब्रजगोपिकायें एकत्रित होकर बधाई गान के लिये वहाँ पहुँचे।चलो बरसाने बधाई गाने बामा।सुनि के बधाई मुसका देंगी श्यामा।।भावार्थ : बधाई गान हेतु बरसाना धाम चलो। बधाई गान सुनकर श्रीराधा मुस्कुरा उठेंगी।आओ आओ आओ बधाई गाओ बामा।रोज रोज आवे न छठी प्यारी श्यामा।।भावार्थ : आओ सभी मिलकर श्रीवृषभानुनन्दिनी के हेतु बधाई-गान करो, श्रीराधा की छठी रोज नहीं आयेगी। उत्सव को उत्साहपूर्वक मनाओ।मायिक शिशु की बधाई गावैं गामा।तेरा तो तन मन चिदानन्द श्यामा।।भावार्थ : संसार में प्राकृत बालकों के जन्म दिन आदि पर भी बधाई गान किया जाता है। श्रीराधा का तो तन, मन सभी कुछ दिव्य है। उनकी छठी के उत्सव को तो अत्यन्त ही धूमधाम से मनाया जाना चाहिये।
श्यामा जू को दिव्य तनु आनंदधामा।दिव्य दृष्टि मिले तब देखे कोउ श्यामा।।भावार्थ : श्रीराधा का चिन्मय वपु, आनंद से परिपूर्ण है। किंतु जब तक दिव्य-दृष्टि न मिल जाय, कोई भी उसका अवलोकन नहीं कर सकता।भानु को बधाई दें या दें कीर्ति बामा।या दें बधाई श्यामा को ब्रजधामा।।भावार्थ : श्रीराधा के प्राकट्य उत्सव पर वृषभानु बाबा को बधाई दी जाये या कीर्ति मैया को अथवा ब्रजमण्डल में अवतरित श्रीराधा को?प्रथम बधाई की हैं पात्र ब्रज बामा।जिन्हें ब्रज रस देने आये श्याम श्यामा।।भावार्थ : सर्वप्रथम बधाई प्राप्त करने की वास्तविक अधिकारिणी ब्रज गोपियाँ ही हैं जिन्हें ब्रज-रस प्रदान करने के लिये श्यामा श्याम को गोलोक धाम से अवतार लेकर ब्रजमंडल में आना पड़ा। (ये साधन सिद्धा गोपियाँ हैं, जिनमें दण्डक वन के ऋषि भी सम्मिलित हैं।)काम, क्रोध, लोभ आदि, शत्रु छे श्यामा।छठी को छहों को बना दे निष्कामा।।भावार्थ : हे श्रीराधे! मेरे मन में काम, क्रोध आदि छै शत्रुओं का निवास है। अपनी छठी के दिन इन छहों को नष्ट कर मुझे निष्काम बना दो।(स्त्रोत - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित श्यामा श्याम गीत के दोहे संख्या 362, 363, 366, 367, 368, 369, 371)(सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की दिव्य-वाणी से नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज हमारी स्थिति के विषय में समझा रहे हैं कि आखिरकार हम क्यों बारम्बार दु:खमय संसार की ओर ही आकृष्ट हो रहे हैं, इस स्थिति का सुधार कैसे होगा और क्या अनन्यता की परिभाषा और उसका स्वरुप है? एक-एक शब्द को गंभीरतापूर्वक विचार करते हुये पढऩे से ही वह हृदयंगम हो सकेगा, अत: इस हेतु बारम्बार पढऩे की भी अपेक्षा है। आइये उनकी दिव्य-वाणी से नि:सृत प्रवचन के इस अंश से कुछ लाभ पाने की चेष्टा करें -(यहां से पढ़ें....)...एक महापुरुष कहता है -
असुन्दर: सुन्दरशेखरो वा गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा।द्वेषी मयि स्याद् करुणाम्बुधिर्वा कृष्ण: स एवाद्य गतिर्ममायम।।श्रीकृष्ण चाहे काले कुरुप हों, अरे ऐसे भी बनकर आ जाते हैं श्रीकृष्ण, धोखे में न रहना। ऐसे कुरुप बनकर आ जायें तुम्हारी बगल में बैठ जाएं कि तुम कहो कि ये कहां से आ गया, जंगली जानवर, बदबू आ रही है। उठकर वहां से चले जाओगे। अरे वो बड़े नाटक करने वाले हैं। हां! तो चाहे ऐसे बन कर आ जाओ और चाहे अनंतकोटि कन्दर्प दर्पदलन पटीयान बन कर आ जाओ। हम दोनों को स्वीकार करेंगे। चाहे करुणा के अवतार बन कर आ जाओ और चाहे दुश्मनी के अवतार बन कर आ जाओ। हे श्रीकृष्ण! तुम ही हमारे थे, हो, रहोगे, कान खोलकर सुन लो। हमारे प्रेम में परिवर्तन नहीं होगा, तुम्हारे व्यवहार को देखकर। ये अनन्यता है।ये हमने बार-बार आप लोगों को बताया है कि मांगों मत कुछ गुरु और भगवान से। वो तुम्हारे दास नहीं हैं, तुम उनके दास हो। मांगना तो स्वामी का काम है। आर्डर देता है स्वामी न। अरे संसारी सर्विस तो करते हैं आप लोग। बॉस ने आर्डर भेजा है, एक गवर्नमेन्ट का आर्डर आया है। नीचे वाला आर्डर नहीं भेजता प्राइम-मिनिस्टर को। तो तुम दास हो। तुम कहते हो हमारी ये इच्छा है। ऐ तुम्हारी इच्छा? तुम्हारी इच्छा तो गोबर गणेश की है।परीक्षित ने एक बार पूछा शुकदेव परमहंस से कि महाराज! ये लोग इतने जूते-चप्पल खाते हैं फिर भी संसार में ही मरते हैं, भगवान की ओर नहीं आते? उन्होंने कहा हाँ हाँ ठीक है, ठीक है। एक दिन जंगल में जा रहे थे, तो वहाँ देखा एक जगह सूखा लेट्रीन पड़ा था और उसमें चार-पाँच कीड़े उसका गोला बना रहे थे। शुकदेव ने कहा - ऐ, फूल रख दिया एक शुकदेव ने और कहा परीक्षित! वो जो कीड़े बेचारे पाखाने में, गन्दगी में पड़े हैं। उनको जरा लकड़ी से पकड़ करके इस फूल में रख दो। उन्होंने कहा कि क्या गुरुजी का आर्डर है गन्दा, मानना पड़ेगा। वो गये लकड़ी से पकड़ करके दो तीन कीड़े फूल में रख दिये। वो फिर रेंगते हुये वहीं पहुंच गये। उन्होंने कहा - देखा रे परीक्षित! उन्होंने कहा, हां देखा। तेरे प्रश्न का उत्तर हो गया न? ओ, हां महाराज! हो गया, समझ गये।तो कामनायें कुछ नहीं करना भगवान से। वेद बार-बार कहता है -
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा ये-अस्य हृदि श्रिता:।अथ मत-र्योमृतो भवत्यत्र ब्रम्ह समश्नुते।।(शाट्यायनी उप. 27वाँ मंत्र, कठोपनिषद 2-3-14, बृहदारण्यक उप. 4-4-7)अरे मनुष्यों! संसारी कामनायें छोड़ दो तो तुम ब्रम्ह के समान हो जाओ। कुछ और करना ही नहीं है। ये भक्ति-वक्ति का मतलब ही यही होता है, ये (संसार की) कामनायें छोड़कर वो (भगवान की) कामना करो। बस इसी का नाम भक्ति है। भक्ति माने भगवान की कामना।
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)( स्त्रोत-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मैं कौन? मेरा कौन? विषय पर दिये गये ऐतिहासिक 103 प्रवचनों की श्रृंखला के 79 वें प्रवचन का एक अंश।)(सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा किया गया वेदादिक सम्मत समाधानजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य हैं। उन्होंने अपने अवतारकाल में अनेकानेक गुढ़ातिगूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों एवं शंकाओं का निराकरण किया है जिससे भगवदीय प्रेम-पथिकों के लिये साधना का मार्ग नित्य निरंतर प्रकाशवान रहा है। अनेक जिज्ञासु जीवों ने उनसे अपनी जिज्ञासाएं व्यक्त की थीं, जिनका उन्होंने बड़ा सरल एवं वेदादिक सम्मत समाधान प्रदान किया है। ऐसा ही एक प्रश्न एक साधक ने उनसे पूछा था। आइये उस प्रश्न तथा श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा दिये गये उत्तर पर हम सभी विचार करें-(यहां से पढ़ें...)एक साधक का प्रश्न - महाराज जी! भुक्ति अधिक खतरनाक है या मुक्ति?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर...कैतव माने ठगने वाला, छलने वाला, चार सौ बीस। भुक्ति माने जानते ही हैं आप ब्रम्हलोक तक के मैटीरियल सुख को भुक्ति कहते हैं और माया से मुक्त हो जाना मुक्ति है। ये दोनों कैतव हैं, ठग हैं।लेकिन मुक्ति अधिक ठग है, क्योंकि मुक्ति हो जायेगी तो फिर संसार में आना ही नहीं पड़ेगा। तो फिर प्रेमानन्द सदा को गया और भुक्ति में तो संसार में घूमते रहेंगे, घूमते-घूमते कभी कोई रसिक मिल गया और हमारी बुद्धि में वो बैठ गया और हम उसके आदेशानुसार चल पड़े तो एक दिन प्रेमानन्द मिल सकता है। इसलिये भुक्ति से मुक्ति अधिक खतरनाक है।पाप भी खतरनाक, पुण्य भी खतरनाक - दोनों डेन्जरस है। पाप करने पर नरक मिलेगा, पुण्य करने पर स्वर्ग मिलेगा। दोनों नश्वर। हरि-गुरु भक्ति से ही कल्याण होगा।
(स्त्रोत-प्रश्नोत्तरी पुस्तक (भाग - 1, प्रश्न संख्या 97)) - मेलाकाइट एक प्रकार का उपरत्न हैै जिसे दहाना फरहग भी कहते हैं। यह उपरत्न मुख्यत: हरे रंग में पाया जाता है। इस उपरत्न को काटने के बाद इसमें शैल के समान गोल आकृति दिखाई देती है। यह उपरत्न बहुत ही छोटे क्रिस्टल में पाया जाता है। बड़े आकार में इसके क्रिस्टल कम ही पाए जाते हैं। यह उपरत्न रेशायुक्त तथा अपारदर्शक होता है। इस उपरत्न में हरे रंग में हल्के तथा गहरे रंग की धारियां दिखाई देती हैं। यह धारियां ही इस उपरत्न को एक अलग पहचान देती हंै और इसे एक अद्वित्तीय उपरत्न बनाती है। इसे जब चमकाया जाता है तब यह रेशमी दिखाई देता है। यह बहुत ही नाजुक उपरत्न है इसलिए इसे गर्मी, अम्ल तथा गर्म पानी से दूर ही रखना चाहिए।यह बहुत ही लोकप्रिय उपरत्न है। इसे इसके हरे रंग के कारण लोकप्रियता हासिल हुई है। इस उपरत्न का यह नाम ग्रीक शब्द मैलो के नाम पर रखा गया है। जिसका अर्थ है - जड़ी-बूटी या औषधि।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह उपरत्न मानव शरीर के सभी अवरुद्ध चक्रों को खोलने में सहायक होता है और सभी चक्रोंं की ऊर्जा को नियंत्रित रखता है। यह जातक की आध्यात्मिकता तथा तर्कशीलता में वृद्धि करता है। यह सच्चे प्यार को पाने, उसमें संतुलन बनाए रखने में सहायक होता है। यह धारक को स्वयं की भलाई के लिए प्रोत्साहित करता है। यह उपरत्न अच्छे तथा बली भाग्य का सूचक है। यह धारक को समृद्धि प्रदान करता है। यह उपरत्न धारक को सुरक्षा प्रदान करता है। गर्भवती महिलाओं के गर्भ की सुरक्षा करता है और छोटे बच्चों की सुरक्षा करता है। यह बुराई से सुरक्षा करता है। हवाई यात्रा तथा अन्य यात्राओं में यह धारक को सुरक्षित रखता है। यह धारक को भावनात्मक रुप से भी सुरक्षा प्रदान करता है। जो व्यक्ति स्वयं को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं, उनके लिए यह उपयोगी उपरत्न है।यह उपरत्न मुख्य रुप से हरे रंग में पाया जाता है। यह गहरे हरे तथा हल्के हरे रंग में पाया जाता है। यह काले रंग में भी पाया जाता है। इस उपरत्न में हल्के तथा गहरे रंग के बैण्ड अथवा धारियां पाई जाती हैं।यह उपरत्न चिली, अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, दक्षिणी आस्ट्रेलिया, कांगों, नामीबिया, रुस, मेक्सिको, इंगलैण्ड, एरीजोना, फांस, साइबेरिया, इजराइल, जाम्बिया, यूरल आदि स्थानों पर पाया जाता है।---
- - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज समन्वयवादी जगद्गुरु हैं। उन्होंने अनेकानेक विरोधाभासों का समन्वय किया है। वे ऐसे पहले जगद्गुरु हैं, जिन्होंने अपना कोई मत अथवा सम्प्रदाय नहीं चलाया, अपितु समस्त जीवों के लिये समन्वय रुप में केवल एक सम्प्रदाय माना और सुझाया कि उसी एक मान्यता से विश्व में व्याप्त वर्तमान समस्यायें आसानी से हल की जा सकती हैं। यह तर्क वेदादिक सम्मत भी है। आइये उनके द्वारा नि:सृत प्रवचन के एक अंश के द्वारा इसे समझने का प्रयत्न करें :::::(हम सब आनन्द सम्प्रदाय के हैं - यहाँ से पढ़ें...)...हम सुख चाहते हैं अपना। बाहर से मतलब नहीं है, अपना सुख चाहते हैं। सुख!! सुख चाहते हो? हाँ, सुख। सब सुख चाहते हैं। हाँ!! तो फिर सब आस्तिक हैं, सब भगवान के भक्त हैं। क्योंकि भगवान का तो नाम ही है सुख, आनन्द। (रसो वै स: - वेद)इसलिये सब आस्तिक भी हैं, सब वैष्णव भी हैं, सब भगवान के हैं, यानी बस एक सम्प्रदाय है सारी दुनियां में। अगर कोई पूछे कि आप किस सम्प्रदाय के हैं? आनन्द सम्प्रदाय के, भगवत सम्प्रदाय के। क्यों? इसलिये कि हम केवल भगवान को चाहते हैं। केवल आनन्द चाहते हैं, हम दु:ख नहीं चाहते। और अगर और डिटेल में जाओ, तो फिर ये कह सकते हो कि हम आनन्द चाहते हैं, लेकिन मिला नहीं है। तो भगवान में आनन्द मानने लगे। प्रयत्न कर रहे हैं कि हम आस्तिक बन जायें, वैष्णव बन जायें, शैव बन जायें।तो विश्व में वर्तमान काल में जो मायाधीन हैं वो आस्तिक नहीं, वैष्णव नहीं बन सकता। जब माया चली जायेगी और भगवान गवर्न करेंगे हमको, तब हम आस्तिक हुये। हर समय रियलाइज करेंगे तब। अंदर बैठे हैं, अंदर बैठे हैं। अभी तो मुँह से बोलते हैं, सबके अंदर बैठे हैं। घट घट व्यापक राम। अरे घट घट है क्या? तुम्हारे घट (हृदय) में है, ये तुम महसूस करते हो? अगर करो तो न कोई गवर्नमेन्ट की जरुरत है, न कोर्ट की, न पुलिस की। हर समय यह फीलिंग रहे कि वो अंदर बैठे हैं।अगर इसका प्रचार करे, हर दुनियां की, देश की गवर्नमेन्ट , सबके अंदर भगवान बैठे हैं। इसका प्रचार करे, भरे लोगों के, बच्चों के दिमाग में। तो अपराध अपने आप कम हो जायें। सब डरेंगे कि हाँ! वो (भगवान) नोट कर लेंगे, फिर दण्ड देंगे भगवान, इसलिये गलत काम नहीं करना है।(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'मैं कौन? मेरा कौन? विषय पर दिये गये ऐतिहासिक 103 प्रवचनों की श्रृंखला के 67 वें प्रवचन का एक अंश।सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - वैदिक मंत्रोच्चारण हिंदू धर्म के प्राचीन गं्रथ, वेदों के स्तोत्रों की अभिव्यक्ति है। वैदिक मंत्रोच्चारण कम से कम 3 हजार वर्षों से चली आ रही परंपरा, जो संभवत: विश्व की प्राचीनतम सतत गायन परंपरा है।वेदों का प्रारंभिक संग्रह या संहिता ऋग्वेद है। जिसमें एक हजार स्तोत्र हैं। इन्हें अक्षरात्मक शैली, यानी उच्च स्वर में वाचन, जिसमें अक्षर को ध्वनिनुरुप बोला जाता है। इनमेें सुर के तीन स्तर होते हैं: एक मूलभूत प्रपठन सुर, जिसके साथ ऊपर व नीचे अन्य स्वर होते हैं, जिनका उपयोग ग्रंथों में व्याकरण संबंधी स्वराघात पर बल देने के लिए किया जाता है,।ऋग्वेद के ये स्तोत्र उत्तरवर्ती संग्रह, सामवेद का आधार हैं, जिसके स्तोत्र (मंत्र) की ऐसी शैली अक्षरात्मक न होकर अधिक अलंकृत, सुरीले और गेय (दो या अधिक स्वरों के लिए एक शब्द) सुरों की छह या उससे अधिक विस्तृत श्रेणी है। स्वरों की साधारण संख्यात्मक प्रणाली ने वाचन में सटीकता स्वरोच्चारण और शारीरिक मुद्राओं पर बल देने की मौखिक परंपरा के साथ इस स्थिर परंपरा तथा समूचे भारत में इसकी समरुपता को बनाए रखा है। वैदिक मंत्रोच्चार आज भी उसी शैली में होता है, जैसा सदियों पहले होता था।मंत्र अक्षरों के संयोजन से निर्मित और संरचित है जो कि, जब सही ढंग से स्पष्ट उच्चारण होता है , सार्वभौमिक ऊर्जा को व्यक्ति के आध्यात्मिक ऊर्जा में केंद्रित करते हैं । मंत्र का सार मूल शब्द या बीज कहलाता है और इसके द्वारा उत्पन्न शक्ति को मंत्र शक्ति कहा जाता है । प्रत्येक मूल शब्द एक विशेष ग्रह या ग्रह स्वामी से संबंधित है। मंत्र का उच्चारण मंत्र योग या मंत्र जप कहलाता है। मंत्र जप ध्वनि ऊर्जा, सांस और इन्द्रियों में समन्वय स्थापित करता है। मंत्रों के उच्चारण से ध्वनि तरंगे उत्पन्न होती है, जो एक शक्तिशाली ऊर्जा है, और जीवन में मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक स्तर में बदलाव के लिए उपयोगी है।मंत्रों की शक्ति उसके शब्दों में है। घर में भक्ति और विश्वास के साथ मंत्रों के नियमित जप से उस से सम्बन्धित देवताओं या ग्रह स्वामी की सकारात्मक और रचनात्मक ऊर्जा अपनी ओर आकर्षित होती है और नकारात्मक प्रभावों से मुक्ति में सहायता करता है। यह अपनी समस्याओं के समाधान हेतु एक दिव्य साधन है। यह आपको सार्वभौमिक कंपन ऊर्जा के साथ समकालीन करता है। मन्त्र अवचेतन मन को सजग करता है, सचेतक चेतना को जागृत करता है और अपने वांछित लक्ष्य या उद्देश्य की ओर आकर्षित करता है। शारीरिक स्तर पर , यह आपकी तंत्रिकाओं को शांत करता है, ग्रंथियों को सक्रिय बनाता है, रक्तचाप सामान्य करता है और शरीर में विभिन्न जीवन प्रणालियों को अनुरूप करता है। मन्त्रों के जप से चित्त में आत्मविश्वास और एकाग्रता की वृद्धि होती है।आपका जन्म चार्ट या कुंडली आपके अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार के ग्रहों को दिखाता है। फलस्वरूप, वे आपके जीवन के प्रासंगिक हिस्सों को अनुकूल या प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं; यह आपका स्वास्थ्य, करिअर, रिश्ते इत्यादि हो सकता है। मंत्रों का उपयोग लाभकारी और हानिकारक दोनों ग्रहों के लिए किया जा सकता है। इन्हें लाभकारी ग्रह की ताकत बढ़ाने और हानिकारक ग्रहों के हानिकारक प्रभाव को कम करने के लिए उपयोग किया जा सकता है। मंत्रों के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि वे केवल सकारात्मक प्रभाव देते हैं। उनका उपयोग स्वास्थ्य, संपत्ति, भाग्य, सफलता में वृद्धि और आलस्य, बीमारियों और परेशानियों से दूर होने के लिए किया जा सकता है।----
- -जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी महाराज के प्रवचनों के कुछ अंश-साधक बहुधा भक्तिमार्ग में चलते तो हैं लेकिन साथ ही वे उन विपरीत आचरणों को भी निभाते जाते हैं जिनसे उनकी साधना की गति धीमी पड़ जाती है अथवा दिशा विपरीत हो जाती है। साधना का एक बहुत बड़ा बाधक तत्व है परनिन्दा , अर्थात् चुगलखोरी या दूसरों की निंदा अथवा बुराई करना। जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी ने अनेक अवसरों पर इस विषय में साधकों को सावधान किया है। आइये उन्हीं के प्रवचनों के कुछ अंशों से इस संबंध में कुछ विचार करें -(दूसरों की निंदा से हानि किसकी? यहाँ से पढ़ें....)(1) महापुरुषों ने परनिन्दा को ही सबसे महान पाप बतलाया है फिर भी कमाल ये है कि हम परनिन्दा का ही श्रवण, मनन, कीर्तन आदि करते हैं।(2) यावत्पापैस्तु मलिनं हृदयं तावदेव हि ।न शास्त्रे सत्यता बुद्धि सद्बुद्धि सद्गुरौ तथा ।।(ब्रम्हवैवर्त पुराण)संसारी बातें, निन्दनीय बातें, पाप की बातें, सुनना, सोचना, बोलना - ये पहिचान है कि हमारा मन कितना पापयुक्त है।सिद्धांत तो यह है कि जो स्वयं पापयुक्त होता है वही दूसरों की निंदा करता है. परनिन्दा करना ही स्वयं के निन्दनीय होने का प्रमाण है।(3) निन्दनीय की भी निंदा करना हानिकारक है, निन्दनीय से तो उदासीन होना चाहिए। शत्रुता या निंदा किसी भी प्रकार भगवत्प्राप्ति की साधना में सहायक न होगा, फिर सारा संसार ही तो निन्दनीय है, तुम कहाँ तक निंदा करोगे? यह तो सोचो कि भगवत्प्राप्ति के पूर्व प्रत्येक जीव एवं तुम भी निन्दनीय हो।(हम भी निन्दनीय हैं क्योंकि हमारे भीतर माया के समस्त विकार काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य इत्यादि भरे हैं और जब तक भगवान् को नहीं पा जायेंगे, रहेंगे, फिर अनन्त जन्मों के अनंत पाप भी हमारे साथ हैं।)(4) गड़बड़ी का चिंतन न करो, न श्रवण करो। जैसे सांप को देखकर भागते हो, ऐसे भागो अगर कोई किसी की बुराई करे तो। हमें नहीं सुनना है। हम भी तो वैसे ही हैं। क्या सुनें उसको, हम कौन दूध के धोये हैं, महापुरुषों के दादा हैं, जो तुम उसकी बुराई कर रहे हो और मैं सुनूं बैठकर। हमसे क्या मतलब है, वो खऱाब है कि अच्छा है, हम अंतर्यामी तो हैं नहीं।(5) वस्तुत: हम स्वयं दोष देखते हैं किसी में और दूसरों से कहकर उसका भी चिंतन खऱाब करते हैं, यह और बड़ा अपराध करते हैं। श्री कृपालु महाप्रभु जी कहते हैं... गन्दी बात सोचा, और सोचा तो सोचा उसके बाद दूसरे को सुनाया, ऐ सुनो ! वो उसके पास बहुत जाता है। और पाप हो गया। अब उसने उससे कहा, सुनो जी ! उसके पास वो 24 घंटे रहता है। और आगे बढ़ा दिया। तमाम का नुकसान कर डाला उस एक मूर्ख ने।(6) महापुरुष तक भी अपने आपको 'मो सम कौन कुटिल खल कामी' कहते हैं। तुम तो वास्तव में ही कुटिल, खल, कामी हो। तुम्हे मान लेने में क्या आपत्ति है? यदि तुम ऐसा मान लो तो तुम्हारी बुद्धि में समस्त संसार ही अच्छा दिखाई पडऩे लगे।(प्रवचनकर्ता : जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज)(स्त्रोत - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।)
- प्राचीन काल से ये माना जाता रहा है कि पेड़ -पौधे सकारात्मक ऊर्जा को उत्पन्न कर नकारात्मक ऊर्जा को बाहर निकालते हैं। अगर हम वास्तु शास्त्र की बात करें तो ऐसे कई पौधे हैं जिन्हें घर में लगाना अशुभ माना गया है। माना जाता है कि इन पौधों से घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होता है जिससे गृह-कलेश, धन हानि, कंगाली आती है। आज ऐसे ही कुछ पौधों के बारे में हम जानकारी दे रहे हैं।बोनसाई - बड़े पेड़ों की प्रजाति को बौनसाई रूप में रखने का प्रचलन लगातार बढ़ रहा है। पीपल, बरगद, बांस, नींबू आदि पौधे बौनसाई रूप में घरों के अंदर भी मिल जाते हैं। वास्तु शास्त्र के अनुसार, लाल फूल और बोनसाई के पौधों को घर के अंदर रखना अशुभ है। आप बौनसाई के शौकीन हैं, तो इन्हें घर के अंदर नहीं, बल्कि खुली जगह या फिर बगीचे में रख सकते हैं। इससे नकारात्मक ऊर्जा का घर के अंदर प्रवेश नहीं हो पाता है।खजूर का पेड़ - वास्तु शास्त्र के हिसाब से खजूर का पेड़ घर में लगाना शुभ नहीं होता। कहा जाता है कि ये नकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है जिससे घर में आर्थिक समस्या बनी रहती है और इसका बुरा प्रभाव सेहत पर भी पड़ता है। पाम प्रजाति के इन पौधों को सड़क के किनारे लगाना उचित माना गया है।इमली और मेहंदी का पौधा - सदियों से यह मान्यता चली आ रही है कि इमली और मेहंदी के पेड़ों पर बुरी आत्माओं का वास होता है। इसलिए इन पौधों को घर में लगाने से बचें।बांस का पेड़ - बांस के पेड़ को वैसे तो अच्छा माना जाता है, लेकिन वास्तु शास्त्र कि दृष्टि से देखें तो ये घर के लिए शुभ नहीं होता। इसे घर पर लगाने से कई सारी समस्याओं का आगमन होता है। इसलिए जितना हो सकें इसे घर के बाहर ही लगाए। माना जाता है कि बांस के फूल अकाल लाते हैं।कपास -कपास का पौधा, सिल्की सूती पौधा और पाल्मीरा का पेड़ (एक प्रकार का ताड़ का पेड़) भी घर के आसपास लगाए जाने पर अशुभ फल देते हैं।बेर का पेड़ - वास्तु शास्त्र में बेर के पेड़ को भी अशुभ माना जाता है। इसे घर में लगाने से नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होता है। इसलिए इसे लगाने से मना किया गया है। मान्यता ये भी है कि बेर के पेड़ में भी बुरी आत्माओं का वास होता है।---
- राधा को अक्सर राधिका भी कहा जाता है, हिन्दू धर्म में विशेषकर वैष्णव सम्प्रदाय में प्रमुख देवी हैं। वह कृष्ण की प्रेमिका और संगी के रूप में चित्रित की जाती हैं। उनके ऊपर कई काव्य रचना की गई है और रास लीला उन्हीं की शक्ति और रूप का वर्णन करती है । वैष्णव सम्प्रदाय में राधा को भगवान कृष्ण की शक्ति स्वरूपा भी माना जाता है , जो स्त्री रूप मे प्रभु के लीलाओं मे प्रकट होती हैं। गोपाल सहस्रनाम के 19वें श्लोक में वर्णित है कि महादेव जी द्वारा जगत देवी पार्वती जी को बताया गया है कि एक ही शक्ति के दो रूप है राधा और माधव(श्रीकृष्ण) तथा ये रहस्य स्वयं श्री कृष्ण द्वारा राधा रानी को बताया गया है। अर्थात राधा ही कृष्ण हैं और कृष्ण ही राधा हैं। भारत के धार्मिक सम्प्रदाय निम्बार्क और चैतन्य महाप्रभु इनसे भी राधा को सम्मीलित किया गया है।ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की सखी थीं। ब्रज में राधा का महत्व सर्वोपरि है। राधा के लिए विभिन्न उल्लेख मिलते हैं। राधा के पति का नाम ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार रायाण था अन्य नाम रापाण और अयनघोष भी मिलते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रूप राधा है। आराधिका शब्द में से अ हटा देने से राधिका बनता है। राधाजी का प्राकट्य यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। यहां राधा का मंदिर भी है। राधारानी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। यहां की ल_मार होली सारी दुनिया में मशहूर है।धार्मिक मान्यताओं के अनुसार उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा जिले के गोकुल-महावन कस्बे के निकट रावल गांव में मुखिया वृषभानु गोप एवं कीर्ति की पुत्री के रूप में राधा रानी का प्राकट्य जन्म हुआ। राधा रानी के जन्म के बारे में यह कहा जाता है कि राधा जी माता के गर्भ से पैदा नहीं हुई थीं, लेकिन उनकी माता ने अपने गर्भ को धारण तो कर रखा था। उन्होंने योग माया कि प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया। परन्तु वहां स्वेच्छा से श्री राधा प्रकट हो गई। श्री राधा रानी जी निकुंज प्रदेश के एक सुन्दर मंदिर में अवतीर्ण हुई उस समय भाद्र पद का महीना था, शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि, अनुराधा नक्षत्र, मध्यान्ह काल 12 बजे और सोमवार का दिन था। इनके जन्म के साथ ही इस दिन को राधा अष्टमी के रूप में मनाया जाने लगा।राधा रानी जी श्रीकृष्ण जी से ग्यारह माह बड़ी थीं। लेकिन श्री वृषभानु जी और कीर्ति देवी को ये बात जल्द ही पता चल गई कि श्री किशोरी जी ने अपने प्राकट्य से ही अपनी आंखे नहीं खोली हैं। इस बात से उनके माता-पिता बहुत दु:खी रहते थे। कुछ समय पश्चात जब नन्द महाराज कि पत्नी यशोदा जी गोकुल से अपने लाडले के साथ वृषभानु जी के घर आती हंै तब वृषभानु जी और कीर्ति जी उनका स्वागत करती हंै। यशोदा जी कान्हा को गोद में लिए राधा जी के पास आती हंै। जैसे ही श्री कृष्ण और राधा आमने-सामने आते हंै। तब राधा जी अपने प्राण प्रिय श्री कृष्ण को देखने के लिए पहली बार अपनी आंखें खोलती हंै। वे एक टक कृष्ण जी को देखती हैं, अपनी प्राण प्रिय को अपने सामने एक सुन्दर-सी बालिका के रूप में देखकर कृष्ण जी स्वयं बहुत आनंदित होते हंै।माना जाता है कि राधा और कृष्ण का विवाह कराने में ब्रह्मा जी का बड़ा योगदान था। भगवान ब्रह्मा ने जब श्रीकृष्ण को सारी बातें याद दिलाईं तो उन्हें सब कुछ याद आ गया। इसके बाद ब्रह्मा जी ने अपने हाथों से शादी के लिए वेदी को सजाया। गर्ग संहिता के मुताबिक विवाह से पहले उन्होंने श्रीकृष्ण और राधा से सात मंत्र पढ़वाए। भांडीरवन में वेदीनुमा वही पेड़ है जिसके नीचे, जहां पर बैठकर राधा और कृष्ण ने शादी हुई थी। दोनों की शादी कराने के बाद भगवान ब्रह्मा अपने लोक को लौट गए। लेकिन इस वन में राधा और कृष्ण अपने प्रेम में डूब गए। गर्ग संहिता के मुताबिक भगवान श्रीकृष्ण ही इस जगत् के आधार हैं। भांडीरवन के पास ही एक वंशी वन है जहां भगवान कृष्ण अक्सर वंशी बजाने जाया करते थे। कहा जाता है कि हज़ारों साल पुराना वंशी वन आज भी मौजूद है साथ ही वो वृक्ष भी मौजूद है जिस पर कृष्ण भगवान बांसुरी बजाए करते थे। कहा तो इतना जाता है कि आज भी अगर उस वृक्ष में कान लगाकर सुनेंगे तो आपको बांसुरी और तबले की आवाज़ सुनाई देती है।श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि श्री राधा जी की पूजा नहीं की जाए तो मनुष्य श्रीकृष्ण की पूजा का अधिकार भी नहीं रखता। राधा जी भगवान श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं।राधाजी का एक नाम कृष्णवल्लभा भी है क्योंकि वे श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने वाली हैं। माता यशोदा ने एक बार राधाजी से उनके नाम की व्युत्पत्ति के विषय में पूछा। राधाजी ने उन्हें बताया कि रा तो महाविष्णु हैं और धा विश्व के प्राणियों और लोकों में मातृवाचक धाय हैं। अत: पूर्वकाल में श्री हरि ने उनका नाम राधा रखा। भगवान श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं—द्विभुज और चतुर्भुज। चतुर्भुज रूप में वे बैकुंठ में देवी लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी के साथ वास करते हैं परन्तु द्विभुज रूप में वे गौलोक घाम में राधाजी के साथ वास करते हैं। राधा-कृष्ण का प्रेम इतना गहरा था कि एक को कष्ट होता तो उसकी पीड़ा दूसरे को अनुभव होती। सूर्योपराग के समय श्रीकृष्ण, रुक्मिणी आदि रानियां वृन्दावनवासी आदि सभी कुरुक्षेत्र में उपस्थित हुए। रुक्मिणी जी ने राधा जी का स्वागत सत्कार किया। जब रुक्मिणीजी श्रीकृष्ण के पैर दबा रही थीं तो उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में छाले हैं। बहुत अनुनय-विनय के बाद श्रीकृष्ण ने बताया कि उनके चरण-कमल राधाजी के हृदय में विराजते हैं। रुक्मिणीजी ने राधा जी को पीने के लिए अधिक गर्म दूध दे दिया था जिसके कारण श्रीकृष्ण के पैरों में फफोले पड़ गए।बृज में आज भी माना जाता है कि राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं और कृष्ण बिना श्री राधा। धार्मिक पुराणों के अनुसार राधा और कृष्ण की ही पूजा का विधान है।
- - जीवात्मा की आत्मा श्रीकृष्ण हैं एवं श्रीकृष्ण की आत्मा श्रीराधा हैं- भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराजआज महारानी श्रीराधारानी का प्राकट्य-दिवस श्रीराधाष्टमी है। श्रीराधारानी कौन हैं, हमारा उनसे क्या संबंध है तथा उनकी प्राप्ति किस प्रकार होगी - इस सम्बन्ध में भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने साहित्य तथा प्रवचनों में बड़ी गहराई से विवेचन किया है। आइये उनके साहित्य का आश्रय लेकर ही हम इस रहस्य को समझने का प्रयत्न करें -(कृपा की मूर्ति महारानी श्रीराधारानी - यहाँ से पढ़ें..)जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने श्याम-श्याम गीत ग्रंथ के एक दोहे (संख्या 69) में श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण के संबंध के विषय में कहा है -
रसिकों ने समझाया कह ब्रजबामा।आत्मा की आत्मा की आत्मा हैं श्यामा।।अर्थात रसिक जन समझाते हैं जीवात्मा की आत्मा श्रीकृष्ण हैं एवं श्रीकृष्ण की आत्मा श्रीराधा हैं।इसके अतिरिक्त इसी ग्रन्थ के एक अन्य दोहे (संख्या 43) में जीवात्मा तथा श्रीराधारानी के संबंध को और अधिक समीपता के साथ व्यक्त किया है :
प्रति जन्म नयी नयी मातु बनी बामा।बदली न तेरी कभु साँची मातु श्यामा।।भावार्थ यह कि जीव के कर्मानुसार शरीर का जन्म-मरण होता रहता है। इस कारण हर जन्म में नई नई मातायें भी बनीं। आत्मा की मां श्रीराधा तो सदा से एक ही थीं, एक ही रहेंगी।इसी संबंध का अनुभव करके उनकी प्राप्ति के लिये परम निष्काम भाव से रूपध्यानपूर्वक साधना करने का उपदेश उन्होंने अपने समस्त साहित्य तथा प्रवचनों में दिया है। श्यामा श्याम गीत के दोहा संख्या 73 में वे जीवों से कहते हैं -राधा नाम रुप गुण लीला जन धामा।याही में लगाओ मन भाव निष्कामा।।अर्थात निष्काम भाव से श्रीराधा नाम, रुप, गुण, लीला, जन एवं धाम में ही अपने मन को लगाओ। इसी में मानव-जीवन की सार्थकता है।जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने ब्रज-साहित्यों में श्रीराधारानी के गुणों का भी विशद एवं सरस वर्णन किया है। श्रीराधारानी के अगाध गुणों में प्रमुखत: उनकी कृपालुता, पतित-जनों की रिझवार, अति सरल, सुकुमारता, शरणागत की प्रतिक्षण सँभार एवं रक्षा करने वाली, भोरेपन आदि गुणों का अपने पदों, कीर्तनों तथा दोहों में वर्णन किया है। कृपालुता की ऐसी सीमा है कि यदि वे कोप भी करें, तो उस कोप में भी उनकी अगाध कृपा ही रहती है। प्रेम-रस-मदिरा नामक ग्रन्थ में वे एक पद में कहते हैं -जो आरत मम स्वामिनि! भाखै,तेहि पुतरिन सम आँखिन राखै।अर्थात जो शरणागत आर्त होकर दृढ़ निष्ठापूर्वक मेरी स्वामिनी जी! ऐसा कह देता है, उसे स्वामिनी जी अपनी आँखों की पुतली के समान रखती हैं।इसी पद में अन्य पंक्ति में उन्होंने कहा है :टुक निज-जन क्रन्दन सुनि पावें,तजि श्यामहुँ निज जन पहँ धावें।भावार्थ यह कि हमारी स्वामिनी जी अपने शरणागतों की थोड़ी भी करुण-पुकार सुनते ही अपने प्राणेश्वर श्यामसुन्दर को भी छोड़कर अपने जन के पास तत्क्षण अपनी सुधि-बुधि भूलकर दौड़ आती हैं।ऐसी कृपालु स्वामिनी श्रीराधारानी का दीनतापूर्वक स्मरण तथा उनसे कृपा की याचना करने का ही उपदेश श्री कृपालु महाप्रभु ने बारम्बार दिया है। उन्होंने अपने एक ग्रन्थ युगल शतक की श्रीराधा माधुरी के कीर्तन संख्या 53 में इस याचना तथा प्रेम के स्वरुप का इस प्रकार वर्णन किया है (केवल अर्थ)....अरे मेरे मन! निरन्तर श्रीराधा का ही सेवन कर। जिह्वा से अनवरत राधा नामामृत का पान कर। नाम-स्मरण करने में भला क्या विघ्न उपस्थित हो सकता है? श्रीराधा अनंत दिव्य गुण-गणों से विभूषित हैं। अत: कानों से निरंतर उनकी लीला का श्रवण कर उनके गुणानुवाद सुन। कोमल स्पर्श की कामना जब उत्पन्न हो तो श्रीराधा के कमलोपम चरणों का स्मरण कर। श्रीकृष्ण भी इन चरणों की आराधना करते हैं। नेत्रों से पल-पल श्रीराधा की दिव्य मूर्ति का ध्यान कर दसों दिशाओं में उनका ही दर्शन कर। नासिका से श्रीराधा के दिव्य-वपु के सुवास को ग्रहण कर। हे मेरे चंचल मन! तू श्रीराधा के निरुपम सौंदर्य का ही चिंतन कर। श्रीराधा के समान तो श्रीराधा ही हैं। बुद्धि में ऐसी दृढ़ता रहे कि एक दिन मैं अवश्य ही उनकी कृपा को प्राप्त करुंगा।श्रीराधा के प्रति जो प्रीति हो, उसमें अपने स्वार्थ की गंध न हो। श्रीराधा के हितार्थ हो, उनके सुख में सुख मानते हुये उनके प्रति निष्काम प्रेम की भावना स्थिर करनी है। यदि श्रीराधा की कृपा प्राप्त करनी है तो उनके प्रियतम श्रीकृष्ण की भी भक्ति करनी होगी।इस प्रकार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा प्रगटित ब्रज-साहित्य के अगाध समुद्र से निकले इन किञ्चित चिंतन-रत्नों का आधार लेकर हम अपने हृदयों में श्रीराधारानी के प्रति श्रद्धा, प्रेम तथा अपनापन लाने का प्रयास करें तथा उनसे कृपा की दीनतापूर्वक याचना करें....आप सभी को उनके प्राकट्य दिवस श्रीराधाष्टमी की बारम्बार अनंत शुभकामनाएं।(स्त्रोत - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसाहित्य के सर्वाधिकार : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज श्रीमुखारविन्द से श्रीमद्भागवतगीता के श्लोक की व्याख्याजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज श्रीमद्भागवतगीता के उस श्लोक की वास्तविकता या कहें कि गहराई पर प्रकाश डाल रहे हैं जिसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समस्त पापों से मुक्त करने की बात कही है। यह श्लोक साधारण श्लोक नहीं है, अपितु बड़ा गम्भीर है और किसी श्रोत्रिय-ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष ही इसके गूढ़तम रहस्य का बोध करा सकते हैं। आइये इस युग के जगदगुरुत्तम के श्रीमुखारविन्द से इस श्लोक की गम्भीरता को समझने का प्रयास करें -(पाप और पुण्य दोनों पाप ही हैं.... यहाँ से पढ़ें..)देखो ! आप लोग पाप से डरते हैं, आप लोगों के मस्तिष्क में एक ये कमजोरी है कि पाप करना बुरी बात है। और पुण्य करना? वो तो अच्छी चीज है, ना ना, पुण्य भी पाप है। पाप तो पाप है ही, पुण्य भी पाप है।सुकृत दुष्कृते धुनुतेसुकृत भी पाप है, दुष्कृत भी पाप है। पुण्य भी पाप है, क्योंकि उसका बन्धन होता है। स्वर्ग मिलेगा पुण्य से यही तो होगा। हाँ, वो बन्धन है। वो तो चार दिन का है, उसके बाद फिर आओगे मृत्युलोक में कूकर, शूकर, कीट, पतंग बनोगे। तो पुण्य को भी समाप्त करना होगा और पाप को भी, तब काम बनेगा. तो जीव जब शरणागत हो जाता है तो भगवान् दोनों समाप्त कर देते हैं -तेरे सब पाप पुण्य नासें बनवारीदेखो ! गीता में खाली पाप शब्द लिखा है क्योंकि वो गीता के लैक्चर देने वाले श्रीकृष्ण पुण्य को भी पाप मानते हैं, इसलिए उन्होंने कहा -
अहं त्वाम् सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामिअर्जुन ने प्रश्न नहीं किया कि पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि और पुण्येभ्यो ? पुण्य से आप मुक्त नहीं करेंगे तो, तो बंधन रहेगा ही, क्योंकि पाप भी अनंत हमारे हैं और पुण्य भी अनंत हैं हमारे। हम कभी-कभी पुण्य भी करते हैं ना ! सच बोल रहे हैं यह पुण्य है, झूठ बोल रहे हैं पाप है। हम दोनों का पालन करते हैं। संसार में ऐसा कोई है जो सच न बोले कभी? भूख लगी है, क्या कहोगे? खाना दे दो। ना, झूठ बोलो, लकड़ी दे दो, ऐसा बोलो ना। नहीं, ये तो खाना ही मांगना पड़ेगा, भूख लगेगी तो। पानी ही मांगना पड़ेगा, प्यास लगेगी तो। कोई गला दबायेगा तो, बचाओ, कहना पड़ेगा। हां, कोई आदमी शत- प्रतिशत झूठ नहीं बोल सकता। कभी सच बोलता है, कभी झूठ बोलता है। तो पुण्य भी करता है, पाप भी करता है और अनंत जन्म हुए हैं इसलिए अनंत पाप भी, अनंत पुण्य भी, दोनों हैं, दोनों नाश कर देते हैं। (शरणागत का भगवान)(प्रवचनकर्ता -जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)(स्त्रोत -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के सभी जीवों के आत्मिक कल्याण के निमित्त उपदेशजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ऐसे प्रथम जगदगुरुत्तम हैं जिन्होंने देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी श्रीराधा नाम का अंधाधुंध प्रचार किया। आचार्य श्री ने श्रीराधारानी को ही अपनी स्वामिनी माना है। उन्होंने अपनी कृतियों में इसी पक्ष को उद्भासित किया है कि श्रीराधा के सेवक स्वयं श्रीकृष्ण हैं। आइये आज हम उनके द्वारा ही प्रदत्त उन उपदेशों का पठन करें जो उन्होंने अपने साहित्यों में हम सभी जीवों के आत्मिक कल्याण के निमित्त दिये हैं -(महारानी श्रीराधारानी चिंतन- यहां से पढ़ें..)(1) श्रीवृषभानुनन्दिनी राधिका जी ही एकमात्र सर्वश्रेष्ठ तत्व हैं। उन्हीं का अपर अभिन्न स्वरुप स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं, जिनका अवतार द्वापर युग के अंत मे हुआ था।(2) कभी एक क्षण के लिए भी स्वयं को अकेला न मानो। सदा सब स्थानों पर श्रीराधा तुम्हारे साथ हैं। जीव के कर्मानुसार शरीर का जन्म मरण होता रहता है। इस कारण हर जन्म में नयी नयी मातायें भी बनीं। आत्मा की माँ श्रीराधा तो सदा से एक ही थीं, एक ही रहेंगी।(3) जीव जिस किसी भी स्थान पर रहे, उसे सदा यह चिंतन करना चाहिए कि मेरे हृदय में विराजमान श्रीराधा मेरे मन के शुभ अशुभ समस्त संकल्पों को जानकर उनके अनुसार मुझे मेरे कर्मों का फल प्रदान करेंगी। हे मन ! निरंतर अपनी इष्टदेवी श्रीराधा का स्मरण कर। उनसे भी यही प्रार्थना कर कि तुझे वे एक क्षण को भी न भूलें।(4) शास्त्रों के श्रवण-पठन के द्वारा केवल जान लेने मात्र से काम नहीं बनेगा। पहले जानना है, जानने के बाद मानना एवं मानने के बाद श्री राधिका की मन से शरणागति करनी होगी। हे जीवों ! निष्काम भाव से श्रीराधा नाम, रूप, गुण, लीला, जन एवं धाम में ही अपने मन को लगाओ। इसी में मानव-जीवन की सार्थकता है।(5) हे जीव ! अनादिकाल से अनन्तानन्त पाप करने के कारण तेरा मन अत्यंत मलिन हो चुका है अतएव (साधना द्वारा अंत:करण शुद्धि की मात्रानुसार) श्री राधा धीरे-धीरे ही मन को अच्छी लगेंगी, एकाएक नहीं। भूलकर भी अपने मन में निराशा को न आने दो। विश्वास रखो एक दिन किशोरी जी तुम्हें अवश्य अपनाएंगी।(स्त्रोत -जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु महाप्रभु विरचित भक्ति शतक एवं श्यामा श्याम गीत ग्रन्थ सेसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।)
- -भक्ति कभी बेकार नहीं जाती- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने अवतारकाल में आध्यात्म जगत के हर छोटे-बड़े तथा गूढ़ रहस्यों पर प्रकाश डाला है तथा शंकाओं के वैदिक समाधान भी प्रदान किये हैं, जो कि एक आध्यात्मिक जिज्ञासु जीव के लिये अति अनमोल हैं। ऐसे ही एक प्रश्न पर आज उनके द्वारा प्रदान किया गया उत्तर हम जानेंगे, आशा है कि आपको इससे किंचित लाभ तो अवश्य ही होगा...एक साधक द्वारा पूछा गया प्रश्न - अगर मनुष्य सारे जीवन ठीक-ठीक साधना करे और आखिरी कुछ क्षणों में नास्तिक हो जाये, ऐसा कुछ हो उसके साथ तो क्या उसको 84 लाख में भटकना पड़ेगा??(जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर)हाँ ! अंतिम समय में जो उसकी स्थिति होगी वही फल मिलेगा। लेकिन पहले जो कर चुका भक्ति-साधना, वह भी उसके पास जमा रहेगी। तो ये जो आगे वाला है उसका फल, पहले भोग लेगा फिर पीछे वाले का फल देगा भगवान। यानी पहले तो वह संसार में पैदा होगा, दु:खी होगा, नास्तिक होगा और फिर बाद में जब उसका खऱाब प्रारब्ध समाप्त हो जायेगा, भोग करके, तब वह भक्ति का जो उसका पार्ट है, जो जमा है, उसका फल दे दिया जायेगा। बेकार नहीं जायेगा कुछ, बेकार एक क्षण की भी भक्ति नहीं जाती। कर्म बेकार जाते हैं, योग बेकार जाते हैं, ज्ञान बेकार जाते हैं, लेकिन भक्ति बेकार नहीं जाती, वह सब अमिट है। इसने इतना भगवन्नाम लिया, इतनी गुरुसेवा की, ये सब चीजें भगवान् के पास एक-एक क्षण की दर्ज हैं, लिखी हुई हैं। उसका फल उसको मिलेगा।(जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत - प्रश्नोत्तरी पुस्तक (भाग - 1)सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी के मुख से काल की भयावहता का वर्णनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज काल यानि मृत्यु की भयावहता अथवा कहें कि खतरे के विषय में आगाह कर रहे हैं कि कभी काल पर भरोसा नहीं करना चाहिये। काल पर भरोसा करना बहुत खतरनाक हो सकता है, न जाने कौन सा लक्ष्य धरा का धरा रह जाय और कितनी बड़ी हानि हो जाय, चाहे वह आध्यात्मिक जगत हो अथवा सांसारिक जगत। आइये उन्हीं के शब्दों में हम इसे समझें और गंभीरतापूर्वक इसकी भयावहता पर विचार करें -(यहाँ से पढ़ें...)...अरे मनुष्यों ! कल से भजूँगा, कल से भजूँगा मत कहो, मत सोचो। क्यों...? अरे! वह जो तुम्हारी खोपड़ी पर सवार है काल, यमराज। क्या पता कल के पहले ही टिकट कट जाये रात ही को। ऐसे रोज उदाहरण हमारे विश्व में हो रहे हैं, कि रात को एक आदमी सोया और सदा को सो गया। न दर्द हुआ, न चिल्लाया, न घर वालों को मालूम हुआ। घर वाले समझ रहे हैं सो रहा है, आज बड़ी देर तक सोता रहा, अरे भई जगा दो। जगाने गये तो मालूम हुआ सदा को सो गया, इसका टिकट कट गया। एक माँ के पेट में ही मर गया, एक पैदा होते ही तुरंत मर गया, एक 25 साल का आई. ए. एस. करके फ्लाइट से घर आ रहा था, सब घर वाले खुश और पता चला रास्ते में ही प्लेन क्रैश में मर गया, पिता ले जा रहा है बेटे को जलाने, पर पिता को होश नहीं है कि मुझको भी जाना है। देख तो रहे हैं हम रोज़ आसपास कि क्या हो रहा है? लेकिन भगवान को याद करने का भजन करने का टाइम किसी के पास नहीं है। प्लानिंग बन रही हैं बड़ी-बड़ी, पल का भरोसा नहीं और कोई पंचवर्षीय योजना कोई दस वर्षीय योजना बना रहा है, अरे! बिगड़ी बना लो जिसके लिए ये मानव देह भगवान ने तुमको कृपावश दिया है। ये नाती-पोते, ये बेटा-बेटी कोई तुम्हारे नहीं है जिनमें तुम उलझे हुए हो रात दिन। ये सब तो स्वार्थ आधारित रिश्ते हैं, कोई किसी का नहीं है यहाँ। इसलिये कल से भजूँगा यह मत कहो, मत सोचो, तुरंत करो। उधार मत करो। उधार करने की आदत हमारी तमाम जन्मों से है और इसलिये हम अनादिकाल से अब तक चौरासी लाख में घूम रहें है एक कारण। अनंत संत मिले समझाया हम समझे लेकिन उधार कर दिया। करेंगे... करेंगे। तन,मन, धन ये तीन का उपयोग करना था तीनों के लिये हमने उधार कर दिया। करेंगे, बुढ़ापे में कर लेंगे अभी इतनी जल्दी भी क्या है? मन तो और बिगड़ा हुआ है।धन से तो इतना प्यार है कि कोई भी परमार्थ के काम में खर्च करने में भी बुद्धि लगाते हैं - करें, कि न करें? कर दो भगवान के निमित्त। अरे! रहने दो... अरे! नहीं कर दो, अरे! नहीं क्यों निकालो जेब से, अरे! चलो अब कर ही देते हैं। नहीं अब कल करेंगे, ये हम लोगों का हाल है सोचियेगा अकेले में। यही सब होता है। तो उधार करना बन्द करना है। मानव देह क्यों मिला है, इस पर विचार करो, संभलों और अपनी बिगड़ी अभी भी बना लो, नहीं तो करोड़ों वर्षों तक यूँ ही 84 लाख में भटकते रहोगे। ये अवसर भी हाथ से चूक जाएगा। संसार में व्यवहार करो, मन भगवान को दे दो। अभी से भजन करो, भक्ति करो, संसार से मन हटाओ, भगवान में लगाओ। उधार करना बंद करो।(जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन से नि:सृत)
स्त्रोत-जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - किस मुहूर्त में करें गणेशजी की पूजा....गणेश प्रतिमा स्थापित करते समय इन बातों का रखें ध्यान....भगवान गणेश की आराधना का 10 दिवसीय पर्व कल से शुरू होने जा रहा है। आइये जाने प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी से कि कल भगवान गणेश की प्रतिमा की स्थापना का क्या है शुभ मुहुर्त और स्थापना के समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार भगवान गणेश की प्रतिमा घर में स्थापित करने से पहले पूजा स्थल की सफाई करें। गणपति की स्थापना करने से पहले स्नान करने के बाद नए या साफ धुले हुए बिना कटे-फटे वस्त्र पहनने चाहिए। इसके बाद अपने माथे पर तिलक लगाएं और पूर्व दिशा की ओर मुख कर आसन पर बैठ जाएं।सबसे पहले घी का दीपक जलाएं। इसके बाद पूजा का संकल्प लें। फिर गणेश जी का ध्यान करने के बाद उनका आह्वन करें।फिर एक साफ चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर अक्षत (चावल), या गेहूं, मूंग, ज्वायर रखें और गणपति को स्थापित करें। आप चाहे तो बाजार से खरीदकर या अपने हाथ से बनी गणपति बप्पा की मूर्ति स्थापित कर सकते हैं। गणपति की प्रतिमा के दाएं-बाएं रिद्धि-सिद्धि के प्रतीक स्वरूप एक-एक सुपारी रखें।मध्याह्न गणेश पूजा - 11:07 से 13:41चंद्र दर्शन से बचने का समय- 09:07 से 21:26 (22 अगस्त 2020)चतुर्थी तिथि आरंभ- 23:02 (21 अगस्त 2020)चतुर्थी तिथि समाप्त- 19:56 (22 अगस्त 2020)गणेश स्थापना - ध्यान रखें-आसन कटा-फटा नहीं होना चाहिए।-जल से भरा हुआ कलश गणेश जी के बाएं रखें।-चावल या गेहूं के ऊपर स्थापित करें।-कलश पर मौली बांधें एवं आमपत्र के साथ एक नारियल उसके मुख पर रखें।- गणेश जी के स्थान के सीधे हाथ की तरफ घी का दीपक एवं दक्षिणावर्ती शंख रखें।-गणेश जी का जन्म मध्याह्न में हुआ था, इसलिए मध्याह्न में ही प्रतिष्ठापित करें।- पूजा का समय नियत रखें। जाप माला की संख्या भी नियत ही रखें।- गणेश जी के सम्मुख बैठकर उनसे संवाद करें। मंत्रों का जाप करें। अपने कष्ट कहें।-शिव परिवार की आराधना अवश्य करें यानी भगवान शंकर और पार्वती जी का ध्यान अवश्य करें।गणेश चतुर्थी की पूजन विधिगणपति की स्थापना के बाद इस तरह पूजन करें-- सबसे पहले घी का दीपक जलाएं, इसके बाद पूजा का संकल्प लें ।- इसके बाद गणपति को दूर्वा या पान के पत्ते की सहायता से गणेश को स्नान कराएं। सबसे पहले जल से, फिर पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद और चीनी का मिश्रण) और पुन: शुद्ध जल से स्नान कराएं।- अब गणेश जी को पीले वस्त्र चढ़ाएं, अगर वस्त्र नहीं हैं तो आप उन्हें मोली को वस्त्र मानकर अर्पित करें।- इसके बाद गणपति की प्रतिमा पर सिंदूर (कुमकुम), चंदन, अक्षत लगाएं, फूल चढ़ाएं और फूलों की माला अर्पित करें और आभूषण से अलंकृत करें।- अब बप्पा को मनमोहक सुगंध वाली धूप दिखाएं।- अब एक दूसरा दीपक जलाकर गणपति की प्रतिमा को दिखाकर हाथ धो लें, हाथ पोंछने के लिए नए कपड़े का इस्तेमाल करें।- अब नैवेद्य का भोग लगाएं. नैवेद्य में मोदक, मिठाई, गुड़ और फल शामिल हैं। गणेश जी को मोदक और बूंदी के लड्डू अति प्रिय हैं उनका भोग अवश्य लगाएं।- पान लौंग इलायची और द्रव्य चढ़ाएं, उसके पश्चात् ऋतु फल अर्पित करें।- इसके बाद गणपति को नारियल और दक्षिणा प्रदान करें।- अब अपने परिवार के साथ गणपति की और शंकर जी आरती करें। गणेश जी की आरती कपूर के साथ घी में डूबी हुई एक या तीन या इससे अधिक बत्तियां बनाकर की जाती है।- इसके बाद हाथों में फूल लेकर गणपति के चरणों में पुष्पांजलि अर्पित करें।- अब गणपति की परिक्रमा करें. ध्यान रहे कि गणपति की परिक्रमा एक बार ही की जाती है।- इसके बाद गणपति से किसी भी तरह की भूल-चूक के लिए माफी मांगें।- पूजा के अंत में साष्टांग प्रणाम करें।किस रंग की गणेश प्रतिमा का पूजन शुभ होता हैजाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार शास्त्रों में कहा गया है कि हर रंग की मूर्ति के पूजन का फल भी अलग होता है। पीले रंग और लाल रंग की मूर्ति की उपासना को शुभ माना गया है।-पीले रंग की प्रतिमा की उपासना करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।-सफेद रंग के गणपति की उपासना से ऋणों से मुक्ति मिलती है।- चार भुजाओं वाले लाल गणपति की उपासना से सभी संकट दूर होते हैं।- बैठे हुए गणपति की मूर्ति ही खरीदें। इन्हें घर में रखने से स्थाई धन लाभ होता है।- गणेश जी की ऐसी मूर्ति ही घर के लिए खरीदें, जिसमें उनकी सूंड बाईं ओर मुड़ी हो। गणेश जी की उपासना जितने भी दिन चलेगी अखंड घी का दीपक जलता रहेगा।- गणेश जी को दूब प्रिय हैं। दूब अर्पित करें, मोदक का भोग लगाएं। मोदक घर में बनाएं तो ज्यादा बेहतर होता है।
- आइये जानें वास्तु शास्त्र के आलोक में भगवान गणेश को....जब भी हम कोई शुभ कार्य आरंभ करते हैं, तो कहा जाता है कि कार्य का श्री गणेश हो गया। इसी से भगवान श्री गणेश की महत्ता का अंदाजा लगाया जा सकता है। जीवन के हर क्षेत्र में गणपति विराजमान हैं। पूजा-पाठ, विधि-विधान, हर मांगलिक-वैदिक कार्यों को प्रारंभ करते समय सर्वप्रथम गणपति का सुमरन और पूजन करते हैं।हिन्दू धर्म में भगवान श्री गणेश का अद्वितीय महत्व है। यह बुद्धि के अधिदेवता विघ्ननाशक है। गणेश शब्द का अर्थ है- गणों का स्वामी। हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां तथा चार अंत:करण हैं तथा इनके पीछे जो शक्तियां हैं, उन्हीं को चौदह देवता कहते हैं।देवताओं के मूल प्रेरक भगवान गणेश हैं। गणपति सब देवताओं में अग्रणी हैं। भगवान श्री गणेश के अलग-अलग नाम और अलग-अलग स्वरूप हैं, लेकिन वास्तु के हिसाब से गणपति के महत्व को रेखांकित करना आवश्यक है। वास्तु शास्त्र में गणपति की मूर्ति एक, दो, तीन, चार और पांच सिरों वाली पाई जाती है। इसी तरह गणपति के तीन दांत पाए जाते हैं। सामान्यत: दो आंखें पाई जाती हैं। किन्तु तंत्र मार्ग संबंधी मूर्तियों में तीसरा नेत्र भी देखा गया है। भगवान गणेश की मूर्तियां दो, चार, आठ और 16 भुजाओं वाली भी पाई जाती हैं। चौदह प्रकार की महाविद्याओं के आधार पर चौदह प्रकार की गणपति प्रतिमाओं का निर्माण किया जाता है। यहां इन्हीं चौदह गणपति प्रतिमाओं के वास्तु शास्त्र के आलोक में एक नजर डालते हैं -* संतान गणपति- भगवान गणपति के 1008 नामों में से संतान गणपति की प्रतिमा उस घर में स्थापित करनी चाहिए, जिनके घर में संतान नहीं हो रही हो। वे लोग संतान गणपति की विशिष्ट मंत्र पूरित प्रतिमा (यथा संतान गणपतये नम:, गर्भ दोष घने नम:, पुत्र पौत्रायाम नम: आदि मंत्र युक्त) द्वार पर लगाएँ, जिसका प्रतिफल सकारात्मक होता है। मान्यता है कि पति-पत्नी प्रतिमा के आगे संतान गणपति स्रोत का पाठ नियमित रूप से करें, तो शीघ्र ही उनके घर में संतान प्राप्ति होगी। साथ ही परिवार अन्य व्यवधानों से मुक्ति पाएगा।* विघ्नहर्ता गणपति- निर्हन्याय नम: , अविनाय नम: जैसे मंत्रों से युक्त विघ्नहर्ता भगवान गणपति की प्रतिमा उस घर में स्थापित करनी चाहिए, जिस घर में कलह, विघ्न, अशांति, क्लेश, तनाव, मानसिक संताप आदि दुर्गुण होते हैं। माना जाता है कि पति-पत्नी में मन-मुटाव, बच्चों में अशांति का दोष पाया जाता है। ऐसे घर में प्रवेश द्वार पर मूर्ति स्थापित करने से लाभ मिलता है।* विजय सिद्धि गणपति- मुकदमे में विजय, शत्रु का नाश करने, पड़ोसी को शांत करने के उद्देश्य से लोग अपने घरों में विजय स्थिराय नम: जैसे मंत्र वाले बाबा गणपति की प्रतिमा के इस स्वरूप को स्थापित करते हैं।* ऋणमोचन गणपति- कोई पुराना ऋण, जिसे चुकता करने की स्थिति में न हो, तो ऋण मोचन गणपति घर में लगाना चाहिए। * रोगनाशक गणपति- कोई पुराना रोग हो, जो दवा से ठीक न होता है, उन घरों में रोगनाशक गणपति की आराधना करनी चाहिए।* नेतृत्व शक्ति विकासक गणपति- राजनीतिक परिवारों में उच्च पद प्रतिष्ठा के लिए लोग गणपति के इस स्वरूप की आराधना प्राय: इन मंत्रों से करते हैं- गणध्याक्षाय नम:, गणनायकाय नम: प्रथम पूजिताय नम:।* विद्या प्रदायक गणपति- बच्चों में पढ़ाई के प्रति दिलचस्पी पैदा करने के लिए गृहस्वामी को विद्या प्रदायक गणपति अपने घर के प्रवेश द्वार पर स्थापित करना चाहिए।* विवाह विनायक- गणपति के इस स्वरूप का आह्वान उन घरों में विधि-विधानपूर्वक होता है, जिन घरों में बच्चों के विवाह जल्द तय नहीं होते।* चिंतानाशक गणपति- जिन घरों में तनाव व चिंता बनी रहती है, ऐसे घरों में चिंतानाशक गणपति की प्रतिमा को चिंतामणि चर्वणलालसाय नम: जैसे मंत्रों का सम्पुट कराकर स्थापित करना चाहिए।* धनदायक गणपति- आज हर व्यक्ति दौलतमंद होना चाहता है इसलिए प्राय: सभी घरों में गणपति के इस स्वरूप वाली प्रतिमा को मंत्रों से सम्पुट करके स्थापित किया जाता है ताकि उन घरों में दरिद्रता का लोप हो, सुख-समृद्धि व शांति का वातावरण कायम हो सके।* सिद्धिनायक गणपति- कार्य में सफलता व साधनों की पूर्ति के लिए सिद्धिनायक गणपति को घर में लाना चाहिए।* सोपारी गणपति- आध्यात्मिक ज्ञानार्जन हेतु सोपारी गण?पति की आराधना करनी चाहिए।* शत्रुहंता गणपति- शत्रुओं का नाश करने के लिए शत्रुहंता गणपति की आराधना करना चाहिए।* आनंददायक गणपति- परिवार में आनंद, खुशी, उत्साह व सुख के लिए आनंददायक गणपति की प्रतिमा को शुभ मुहूर्त में घर में स्थापित करना चाहिए।
- - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से श्रीकृष्ण के सर्वोच्च प्रेमरस; परम निष्काम माधुर्य भावजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने अवतारकाल में हम कलियुगी जीवों को श्रीकृष्ण-प्रेमप्राप्ति का लक्ष्य बताया तथा उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जो भी आवश्यक कर्तव्य है, साधना है, मार्गदर्शन अथवा सावधानी है, उसका भी बारम्बार दिशानिर्देश दिया और पुन:-पुन: स्मरण भी कराया। वस्तुत: श्रीकृष्ण की सेवा तथा प्रेमप्राप्ति ही हमारा अंतिम लक्ष्य है। श्रीकृष्ण के सर्वोच्च प्रेमरस; परम निष्काम माधुर्य भाव की कक्षा का प्रेम क्या है और उस प्रेमरस के आकांक्षी पिपासु जीव को क्या करना होगा, आइये उन्हीं के श्रीमुखारविन्द से पठन करें -श्याम सुख लक्ष्य रखि गोविंद राधे,भाव निष्काम रति मधुर बना दे..(स्वरचित इस दोहे की व्याख्या के कुछ अंश)(भक्ति में) लक्ष्य निष्काम भाव का हो, और श्यामसुन्दर के सुख की भावना का हो और मधुर रति युक्त हो। ये तीनों बातों को लक्ष्य में रखकर साधना करें और सदा इन्हीं तीनों को रखें, इससे ये होगा कि श्यामसुन्दर के प्रति हम कभी भी कुछ मांगने की, पाने की कामना न बना सकेंगे तो हमारा प्रेम बढ़ता जायेगा। अन्यथा हम संसार में जैसे मां से, पिता से, भाई से, बीवी से, पति से आशा करते हैं वो ऐसा करें। नहीं किया, मूड ऑफ कहते हैं उसको हम लोग और फिर प्यार में वो घटमान स्थिति हो जाती है स्त्री पति, पिता बेटे में, क्योंकि अपनी एक कामना बना ली हमने और, उसने नहीं पूरी की..इसलिए हम कामना बनाएं ही न, उनकी हर हरकत पर, हर एक्शन पर, हर क्रिया पर बलिहार जायें। आज बड़े प्यार से भुजाओं को फैला के प्यार कर रहे हैं - वाह ! वाह ! वाह ! क्या लीलाधारी हैं ! आज कुछ हमारी तरफ देख ही नहीं रहे हैं, प्यार तो करते हैं, लेकिन देख नहीं रहे हैं, हमारी परीक्षा ले रहे हैं, ठीक है, ठीक है, ले लो मैं फेल होने वाला नहीं हूँ. अरे ! आज तो डाँट लगा रहे हैं बड़ा भयंकर रूप है। अरे ! समझ गये समझ गये, आज हमको पूरी कसौटी पर कस रहे हैं, हम भी तैयार हैं। चाहे जो व्यवहार करो तुम्हीं हमारे प्रियतम रहोगे।यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापर:(गौरांग महाप्रभु)गौरांग महाप्रभु ने कहा श्यामसुन्दर के लिए तुम चाहे प्यार करो, चाहे न्यूट्रल हो जाओ और चाहे मार दो, यहां कोई असर नहीं होना है, हम तो वैसे ही प्यार करते जायेंगे एक-सा..
(प्रवचनकर्ता- जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)स्त्रोत - जगद्गुरु कृपालु परिषत द्वारा प्रकाशित साधन साध्य पत्रिकासर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - हरतालिका अथवा हरितालिका तीज का व्रत हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा व्रत माना जाता हैं। यह तीज का त्योहार भाद्रपद माह की शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। इसे गौरी तृतीया व्रत भी कहते हैं। खासतौर पर महिलाओं द्वारा यह त्योहार मनाया जाता है। कम उम्र की लड़कियों के लिए भी यह हरितालिका का व्रत श्रेष्ठ समझा गया है। यह व्रत निराहार और निर्जला किया जाता है। इसलिए इस व्रत को सबसे कठिन व्रत में माना जाता है।हरितालिका तीज में भगवान शिव, माता गौरी और गणेश जी की पूजा का महत्व है। महिलाएं बालू से भगवान शिव के लिंग का निर्माण करती हैं और फुलेरा से इसे आकर्षक रूप से सजाकर पूजा-अर्चना करती हैं। पूजा के समय सुहाग का सामान, फल पकवान, मेवा व मिठाई आदि चढ़ाई जाती है। पूजन के बाद रात भर जागरण किया जाता है, इसके बाद दूसरे दिन सुबह गौरी जी से सुहाग लेने के बाद व्रत तोड़ा जाता है। इस व्रत में सायं के पश्चात चार प्रहर की पूजा करते हुए रातभर भजन-कीर्तन, जागरण किया जाता है। दूसरे दिन सुबह सूर्योदय के समय व्रत संपन्न होता है। शिव जैसा पति पाने के लिए कुंवारी कन्याएं इस व्रत को विधि-विधान से करती हैं। सौभाग्यवती महिलाएं पति की लंबी उम्र की कामना के साथ यह व्रत रखती हैं।कथा- इस व्रत में कथा का विशेष महत्व है। कथा के बिना यह व्रत अधूरा माना जाता है।पौराणिक कथा के अनुसार माता पार्वती ने भगवान भोलेनाथ को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तप किया था। हिमालय पर गंगा नदी के तट पर माता पार्वती ने भूखे-प्यासे रहकर तपस्या की। माता पार्वती की यह स्थिति देखकप उनके पिता हिमालय बेहद दुखी हुए। एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वती जी के विवाह का प्रस्ताव लेकर आए लेकिन जब माता पार्वती को इस बात का पता चला तो, वे विलाप करने लगी।एक सखी के पूछने पर उन्होंने बताया कि, वे भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप कर रही हैं। उस वक्त पार्वती की सहेलियों ने उन्हें अगवा कर जंगल पहुंचाया ताकि वे अपना तप जारी रख सके। इस कारण इस व्रत को हरतालिका या हरितालिका कहा गया है, क्योंकि हरत मतलब अगवा करना एवं आलिका मतलब सहेली अर्थात सहेलियों द्वारा अपहरण करना हरतालिका कहलाता है। इस दौरान भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन हस्त नक्षत्र में माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की आराधना में मग्न होकर रात्रि जागरण किया। माता पार्वती के कठोर तप को देखकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और पार्वती जी की इच्छानुसार उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया।तभी से अच्छे पति की कामना और पति की दीर्घायु के लिए कुंवारी कन्या और सौभाग्यवती स्त्रियां हरतालिका तीज का व्रत रखती हैं और भगवान शिव व माता पार्वती की पूजा-अर्चना कर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।शुभ मुहूर्त -भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र में भगवान शिव और माता पार्वती के पूजन का विशेष महत्व है।हरितालिका तीज पूजा मुहूर्त- सुबह 5 बजकर 54 मिनट से सुबह 8:30 मिनट तक।शाम को हरितालिका तीज पूजा मुहूर्त- शाम 6 बजकर 54 मिनट से रात 9 बजकर 6 मिनट तक।तृतीया तिथि प्रारंभ- 21 अगस्त की रात रात 2 बजकर 13 मिनट से।तृतीया तिथि समाप्त- 22 अगस्त रात 11 बजकर 2 मिनट तक।व्रत नियम - हरतालिका व्रत निर्जला किया जाता है, अर्थात पूरे दिन एवं रात अगले सूर्योदय तक जल ग्रहण नहीं किया जाता। व्रत का नियम है कि इसे एक बार प्रारंभ करने के बाद छोड़ा नहीं जा सकता। इसे प्रति वर्ष पूरे नियमों के साथ किया जाता है। हरतालिका व्रत के दिन रतजगा किया जाता है। महिलाएं नए वस्त्र पहनकर, श्रृंगार करती हैं और विधि-विधान से भगवान शिव की पूजा करती हैं। भगवान शिव की पिंडी स्थापित कर जिस घर में ये पूजा आरंभ की जाती है, वहां इस पूजा का खंडन नहीं किया जा सकता अर्थात इसे एक परम्परा के रूप में प्रति वर्ष किया जाता है।सुखद दांपत्य जीवन और मनचाहा वर प्राप्ति के लिए यह व्रत विशेष फलदायी है। व्रत करने वाले को मन में शुद्ध विचार रखने चाहिए। यह व्रत भाग्य में वृद्धि करने वाला माना गया है। इस व्रत के प्रभाव से घर में सुख शांति और समृद्धि आती है। नकारात्मक विचारों का नाश होता है।इस व्रत में व्रती को शयन निषेध है। रात्रि में भजन कीर्तन के साथ रात्रि जागरण करें। इस व्रत में जल ग्रहण नहीं किया जाता है। व्रत के बाद अगले दिन जल ग्रहण करने का विधान है। यह व्रत करने पर इसे छोड़ा नहीं जाता है। प्रत्येक वर्ष इस व्रत को विधि-विधान से करना चाहिए। छत्तीसगढ़ में इस त्योहार का खास महत्व रहा है। शादी-शुदा महिलाएं यह व्रत और पूजा अपने मायके में जाकर करती हैं। इस व्रत के पहले दिन छत्तीसगढ़ में कड़ु भात खाने की परंपरा है यानी करेले की सब्जी जरूर खाई जाती है। कुछ जगहों पर खीरा और भुट्टे का सेवन भी व्रत से पहले शुरू किए जाने का रिवाज है।----
- - पंचम् मौलिक जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविंद से नि:सृत प्रवचनपंचम् मौलिक जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविंद से नि:सृत प्रवचन से, आइये समझते हैं कि भगवान के नाम संबंधी कुछ रहस्य क्या-क्या हैं? क्या उनका माहात्म्य है और कौन-सी बात भगवान का नाम लेते समय महत्वपूर्ण है? नाम महिमा के संबंध में ये बातें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं -(1) भगवान् का नाम कौन सा नहीं है? ये भी समझ लीजिये आप लोग। अ, इ, उ, क, ख -ये सब भगवान् के नाम हैं। लेकिन भगवत्प्राप्ति हुई किसी को इससे भगवान् का कोई नाम-वाम नहीं होता। जो कुछ तुम नाम रख दो वो नाम हो जाये भगवान् का। अनन्त नाम रूपाय । भगवान् के अनंत नाम हैं, अनंत रूप हैं। उनका न कोई रूप होता है, न कोई नाम होता है। तुम जैसा मान लो वैसे ही तुमको मिल जायेंगे। क बोलो, ख बोलो -
हरि के हैं सब नाम गोविन्द राधे,अ, इ, उ, क, ख आदि वेद बता दे..(राधा गोविन्द गीत)(2) देखो ! ब्रजवासियों ने कभी श्रीकृष्ण नहीं कहा। लाला , अपनी भाषा में। बेटा बोल दो, बस बेटा-बेटा। हरे बेटा हरे बेटा बेटा बेटा हरे हरे, इससे कोई मतलब नहीं। नाम का महत्व नहीं है, नामी का महत्व है। यानी नाम में नामी भरा है, ये बुद्धि में भरो तब लाभ मिलेगा। ऐसे तो तुम वेदमंत्र भी याद कर लो, बोला करो। मन जहां रहेगा, मन का अटैचमेंट जहां रहेगा, वही फल मिलेगा।(3) सीधी-सी बात है। इस पॉइन्ट पर ध्यान दीजिये। मन का अटैचमेंट जहाँ होगा उसी की उपासना मानी जायेगी। तुमने कहा राधे राधे । लक्ष्य क्या है तुम्हारा? राधे बोलने में? हमारी नौकरानी का नाम है, हमारी मम्मी का नाम है, बीवी का नाम है, हमारी बहिन का नाम है, राधे । तो राधे राधे दिन रात बोलो, आंसू बहाओ, बेहोश हो जाओ, वहीं राधे मां मिलेगी, वही राधे बीवी मिलेगी, वही राधे बहिन मिलेगी, वही राधे नौकरानी मिलेगी। वो राधा तत्व पर्सनैलिटी स्वप्न में भी नहीं मिल सकती। जहां मन का अटैचमेंट होगा, उसी पर्सनैलिटी का लाभ मिलेगा।(4) भगवान् का नाम ले रहे हो, कीर्तन कर रहे हो - ये बात तब साबित होगी जब तुम्हारा यह विश्वास सेंट परसेंट दृढ़ हो कि इस नाम में भगवान् का निवास है, बस सीधी सी परिभाषा ये है -ध्यान युक्त हरि नाम गोविन्द राधे,कीर्तन ते हरि कृपा हो बता दे..(राधा गोविन्द गीत)फिर कोई नाम लो। राम कहो, कृष्ण कहो, हरि कहो, गधा कहो, मन में आये जो कहो। कोई शर्त नहीं भगवान् की।
(प्रवचनकर्ता- जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)स्त्रोत नाम-महिमा पुस्तक, श्री कृपालु जी द्वारा नाम माहात्म्य के संबंध में दिये गये प्रवचनों का संकलनसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली