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- - पंचम् मौलिक जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविंद से नि:सृत प्रवचनपंचम् मौलिक जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविंद से नि:सृत प्रवचन से, आइये समझते हैं कि भगवान के नाम संबंधी कुछ रहस्य क्या-क्या हैं? क्या उनका माहात्म्य है और कौन-सी बात भगवान का नाम लेते समय महत्वपूर्ण है? नाम महिमा के संबंध में ये बातें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं -(1) भगवान् का नाम कौन सा नहीं है? ये भी समझ लीजिये आप लोग। अ, इ, उ, क, ख -ये सब भगवान् के नाम हैं। लेकिन भगवत्प्राप्ति हुई किसी को इससे भगवान् का कोई नाम-वाम नहीं होता। जो कुछ तुम नाम रख दो वो नाम हो जाये भगवान् का। अनन्त नाम रूपाय । भगवान् के अनंत नाम हैं, अनंत रूप हैं। उनका न कोई रूप होता है, न कोई नाम होता है। तुम जैसा मान लो वैसे ही तुमको मिल जायेंगे। क बोलो, ख बोलो -
हरि के हैं सब नाम गोविन्द राधे,अ, इ, उ, क, ख आदि वेद बता दे..(राधा गोविन्द गीत)(2) देखो ! ब्रजवासियों ने कभी श्रीकृष्ण नहीं कहा। लाला , अपनी भाषा में। बेटा बोल दो, बस बेटा-बेटा। हरे बेटा हरे बेटा बेटा बेटा हरे हरे, इससे कोई मतलब नहीं। नाम का महत्व नहीं है, नामी का महत्व है। यानी नाम में नामी भरा है, ये बुद्धि में भरो तब लाभ मिलेगा। ऐसे तो तुम वेदमंत्र भी याद कर लो, बोला करो। मन जहां रहेगा, मन का अटैचमेंट जहां रहेगा, वही फल मिलेगा।(3) सीधी-सी बात है। इस पॉइन्ट पर ध्यान दीजिये। मन का अटैचमेंट जहाँ होगा उसी की उपासना मानी जायेगी। तुमने कहा राधे राधे । लक्ष्य क्या है तुम्हारा? राधे बोलने में? हमारी नौकरानी का नाम है, हमारी मम्मी का नाम है, बीवी का नाम है, हमारी बहिन का नाम है, राधे । तो राधे राधे दिन रात बोलो, आंसू बहाओ, बेहोश हो जाओ, वहीं राधे मां मिलेगी, वही राधे बीवी मिलेगी, वही राधे बहिन मिलेगी, वही राधे नौकरानी मिलेगी। वो राधा तत्व पर्सनैलिटी स्वप्न में भी नहीं मिल सकती। जहां मन का अटैचमेंट होगा, उसी पर्सनैलिटी का लाभ मिलेगा।(4) भगवान् का नाम ले रहे हो, कीर्तन कर रहे हो - ये बात तब साबित होगी जब तुम्हारा यह विश्वास सेंट परसेंट दृढ़ हो कि इस नाम में भगवान् का निवास है, बस सीधी सी परिभाषा ये है -ध्यान युक्त हरि नाम गोविन्द राधे,कीर्तन ते हरि कृपा हो बता दे..(राधा गोविन्द गीत)फिर कोई नाम लो। राम कहो, कृष्ण कहो, हरि कहो, गधा कहो, मन में आये जो कहो। कोई शर्त नहीं भगवान् की।
(प्रवचनकर्ता- जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)स्त्रोत नाम-महिमा पुस्तक, श्री कृपालु जी द्वारा नाम माहात्म्य के संबंध में दिये गये प्रवचनों का संकलनसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली - - मन हरि में तन जगत में, कर्मयोग येहि जान- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को भारतवर्ष की 500 सर्वमान्य विद्वानों की तात्कालिक सभा काशी विद्वत परिषद के द्वारा 14 जनवरी 1957 को पंचम मूल जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की गई थी। इस उपाधि के साथ ही उन्हें निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य की उपाधि से भी विभूषित किया गया था। उन्होंने अनेकानेक विरोधाभासी सिद्धांतों का सर्वप्रथम समन्वय किया है। आज उनके द्वारा किये गये अध्यात्मवाद तथा भौतिकवाद के समन्वय का एक संक्षित रुप जानेंगे। यह जानना इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि वर्तमान परिस्थितियां ऐसी हैं कि प्रत्येक व्यक्ति उलझन में है कि वह कैसे सुख प्राप्त करे और दु:ख कब जाए? यह अध्यात्मवाद तथा भौतिकवाद के प्रति अज्ञानता तथा किसी एक के प्रति ही दुराग्रह का परिणाम है। जीवन में इसका समन्वय चाहिये। आइये इसे जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक शब्दों द्वारा ही हृदयंगम करें.....(यहाँ से पढ़ें...)...विश्व का प्रत्येक व्यक्ति वास्तविक सुख शांति चाहता है तथा उसी की प्राप्ति के हेतु प्रतिक्षण प्रयत्नशील भी है, तथापि विपरीत परिणाम प्राप्त होता है। उस वास्तविक सुख शान्ति के विषय में सदा से अनेक वादों के विवाद चल रहे हैं, किन्तु उन सबका समावेश दो वादों में ही है -(1) भौतिकवाद,(2) अध्यात्मवाद।यद्यपि भौतिकवादी एवं अध्यात्मवादी दोनों ही एक दूसरे को भ्रान्त बताते हैं किन्तु यह सर्वथा भ्रम है। हम शरीर एवं आत्मा दो तत्व वाले हैं। अत: बहिरंग शरीर के हेतु भौतिकवाद तथा आत्मा सम्बन्धी अन्तरंग मन के हेतु अध्यात्मवाद। वास्तव में सुख-शान्ति तो अन्तरंग मन की ही वस्तु है तथापि शरीर स्वस्थ रखने के हेतु भौतिकवाद ही अनिवार्य है। भौतिकवाद द्वारा शरीर को स्वस्थ रखना वर्तमान विज्ञान से, सभी जानते हैं किन्तु मन की शुद्धि सम्बन्धी अन्तरंग विज्ञान से अधिकांश व्यक्ति अपरिचित हैं। तदर्थ अध्यात्मज्ञान की आवश्यकता है, सभी धर्मों द्वारा ईश्वर भक्ति के द्वारा ही मन शुद्ध होने का सिद्धान्त बताया गया है, अत: उसी लक्ष्य के हेतु कर्मयोग द्वारा साधना परमावश्यक है। यथा -मन हरि में तन जगत में, कर्मयोग येहि जान।तन हरि में मन जगत में, यह महान अज्ञान।।(भक्ति-शतक, श्री कृपालु जी विरचित)
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्द्-य च। (गीता)
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम्।।(ईशावास्योपनिषद)अर्थात निरन्तर कर्म करते हुये मन श्रीकृष्ण में लगा रहे, यही कर्मयोग है। अत: श्रीकृष्ण भक्ति के द्वारा ही सुख-शान्ति प्राप्त हो सकती है।(समन्वयाचार्य - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)स्त्रोत-भगवतत्त्व जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के जगदगुरुत्तम उपाधि के स्वर्ण जयंती वर्ष का विशेषांकसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली। - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनों से 5 सार बातें; जो हमारे आध्यात्म-लाभ में सहायक बन सकती हैं -(1) जब आप अपने को आत्मा मान लेंगे तो शरीर संबंधी आपका सब टेंशन समाप्त हो जायेगा।(2) भगवान को अर्पित करके कर्म करने में, वह बंधनकारक भी नहीं होता और भगवान का स्मरण भी होता रहता है।(3) तत्वज्ञान और भगवद्ज्ञान ढाल तलवार की भांति दोनों साथ- साथ चलने चाहिये।(4) अगर मूर्ति में पूर्ण भगवान की भावना नहीं है और मूर्ति पूजा की, उसको भगवतपूजा न कहकर पत्थर-पूजा कहेंगे।(5) शरीर को ठीक रखने के लिये प्रकृति की ओर आत्मा को ठीक रखने के लिये आवश्यकता है भगवान की। हम संसार का उपयोग करने के स्थान पर उसका उपभोग करते हैं, किन्तु भगवान को पाने का प्रयत्न नहीं करते।(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)(स्त्रोत- आध्यात्म संदेश पत्रिका, अक्टूबर 2001सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली। )
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- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत यह प्रवचन भक्तिमार्गीय उपासकों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने साधन और साध्य के संबंध में प्रवचन दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी तथा श्री राय रामानंद जी के मध्य हुई आधात्मिक चर्चा का उन्होंने बड़ी गहराई में तथा सारगर्भित विवेचन किया है। श्री कृपालु महाप्रभु जी अपने श्रीमुखारविन्द से कहते हैं.....(पिछले भाग से आगे, भाग - 4)एक बार ऐसे ही भगवान ने अभिनय किया था द्वारिका में कि हमको बहुत दर्द है, अब हम मर जायेंगे, बचेंगे नहीं। 16108 स्त्रियाँ, सब घबरा गईं कि हम विधवा हो जाएंगी, क्या बोल रहे हैं? उसी समय अचानक नारद जी आ गये।उन्होंने देखा, गुरुजी ये क्या कर रहे हैं आज? कुछ मामला गंभीर है। उन्होंने कहा, महाराज! क्या आपको तकलीफ है कुछ, सुना है। अरे! बहुत तकलीफ है नारद जी। तो फिर क्या करें? अरे क्या करें क्या, दवा लाओ और क्या करोगे? महाराज! दवा क्या है? वो भी बता दो। तुमने अपनी बीमारी खुद पैदा की है तो दवा भी तुम ही बताओ। उन्होंने कहा कि कोई वास्तविक संत की चरणधूलि मिल जाय तो मैं ठीक हो सकता हूँ। नारद जी ने कहा, संत? मैं भी तो संत हूँ। अरे भगवान के अवतार भी हैं और वैष्णवों में शीर्ष रहने वाले नारद जी।फिर उन्होंने कहा, पता नहीं कि ये भगवन का क्या नाटक है? मैं झगड़े में नहीं पड़ता। एक बार बंदर बन चुके हैं। लेकिन ये मातायें जो हैं इनकी सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ, ये तो महापुरुषों की दादी हैं। इनकी स्त्री बनने का सौभाग्य किसको मिलेगा? इनसे कहते हैं। रानियों ने कहा, नारद जी! आज क्या बात है, शास्त्र-वेद का ज्ञान समाप्त हो गया तुम्हारा? कोई स्त्री पति को चरण धूलि देकर नरक जायेगी? वेदमंत्र कोट कर दिया। नारद जी चुप हो गये कि बात तो ठीक कहती हैं। फिर अब क्या करें? जहाँ जायेंगे, सब महात्मा यही कह देंगे कि तुम्हारा दिमाग खराब है, तुम ही दे दो न, अपने चरण की धूलि?तो भगवान के पास फिर गये और कहा, महाराज! वो वैद्य भी बता दो जिसकी चरण धूलि ले आवें। तो उन्होंने कहा कि चले जाओ ब्रज में, वहाँ तमाम करोड़ों गोपियां हैं, उनसे कहना। उन्होंने सोचा कि ब्रज में ऐसा कौन सा महात्मा है? वहाँ तो सब गृहस्थी हैं स्त्रियाँ। उनके बाल-बच्चे हैं, पति हैं और सब बेपढ़ी-लिखी घूँघट वाली। ये क्या कह रहे हैं भगवन।। गये वहाँ पर। तो नाटक किया, बूढ़े बन गये नारद जी, अपने को छिपाकर कि देखें ये पहचानती हैं कि नहीं हमको? दूर से सबने पहचान लिया? नारद जी आश्चर्य चकित रह गये। उन्होंने गोपियों से कहा, तुम्हारे प्राण-वल्लभ को कष्ट है, अपनी चरण धूलि दे दो।उन्होंने कहा, अरे लो। सब लोगों ने पैर फैला दिया। जल्दी ले जाओ। सन्न, नारद जी। तुम लोग चरण धूलि दे रही हो, इसका फल समझती हो? नारद जी फल-वल बाद में बताना, पहले ले जाओ जल्दी से, उनको आराम हो। फल-वल नरक की बात, अरे नरक मिलेगा और क्या होगा इससे अधिक? अरे, कोई आदमी जब हत्या करता है तो क्या सोचता है? फाँसी होगी। हो जाय फाँसी लेकिन इनको मारेंगे। अब नारद जी की आँख खुली। अब उन्होंने कहा, पहले मैं पवित्र हो जाऊँ। तो पति-स्त्री में भी बन्धन होता है, नियम होते हैं लेकिन माधुर्य भाव में कोई नियम नहीं। भगवान दास बन जाता है, भक्त स्वामी बन जाता है। तो ये अंतिम भाव है। इसमें निष्काम भाव से, माधुर्य भाव से, अनन्य भाव से निरंतर भक्ति करने से तो सबसे बड़ा साध्य ब्रज रस मिलता है। ये साधन-साध्य का सारांश है।(समाप्त)(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजप्रवचन स्त्रोत -साधन-साध्य पत्रिका, मार्च 2010 अंकसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली) - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत यह प्रवचन भक्तिमार्गीय उपासकों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने साधन और साध्य के संबंध में प्रवचन दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी तथा श्री राय रामानंद जी के मध्य हुई आधात्मिक चर्चा का उन्होंने बड़ी गहराई में तथा सारगर्भित विवेचन किया है। श्री कृपालु महाप्रभु जी अपने श्रीमुखारविन्द से कहते हैं.....(पिछले भाग से आगे, भाग - 3)तो उन्होंने कहा, सख्य भाव से भक्ति करें। वो हमारे सखा हैं, अब तो कान पकड़ सकते हैं। अरे, घोड़ा बनाया ग्वालों ने ठाकुर जी को, कन्धे पर बैठे। सखाओं को इतना बड़ा अधिकार है। उन्होंने कहा, ठीक है, लेकिन फिर भी अभी और अंदर के कमरे में चलो।तो उन्होंने कहा, फिर तो वात्सल्य भाव है जैसे मैया यशोदा ने रस पाया ठाकुर जी का। और चलो अंदर एक दम। तो उन्होंने कहा कि ठाकुर जी को प्रियतम मान लें। हाँ, अब आ गये ठिकाने पर, यही सर्वोच्च भाव है। प्रियतम माने क्या होता है? सब कुछ, सब कुछ माने नम्बर एक पति, नम्बर दो बेटा, नम्बर तीन सखा, नम्बर चार स्वामी। जब जो चाहे बना लो। रिश्ते बदलते जायें, डरें नहीं कि अब जब पति मान लिया है तो बेटा कैसे मानें? ये संसार में बीमारी है कि पति को बेटा मत मानो, बोलो भी नहीं, मानना तो दूर की बात। नहीं पिट जाओगे, लोग पागलखाने में बन्द कर देंगे। लेकिन भगवान के यहाँ ऐसा नहीं है। वो कहते हैं, मैं सब कुछ बनने को तैयार हूँ। एक-एक सेकण्ड में चेंज करो। ये सर्वश्रेष्ठ भाव है और सबसे सरल।कोई नियम नहीं है इसमें। कायदा-कानून नहीं है। अब देखो, दास अगर हम बनते हैं और भगवान को स्वामी मानते हैं तो कितनी बड़ी समस्या है? भरत ने क्या कहा था,
सिर बल चलउँ धरम अस मोरा।सब ते सेवक धरम कठोरा।।जहाँ स्वामी का चरण पड़े, गुरु का चरण पड़े, वहाँ हमारा सिर पडऩा चाहिये। तो क्या हम सिर के बल चलेंगे? ये पॉसिबल कहाँ है? जब राम-सीता वनवास को जा रहे थे तो पीछे-पीछे लक्ष्मण चलते थे। तो दोनों चरण-चिन्हों को बचा-बचा कर चलते थे। कितना कठिन है -
सेवाधर्म- परमगहनो योगिनामप्यगम्य:। (भतृहरि)इससे कम परिश्रम सख्य भाव में है, उससे कम वात्सल्य भाव में है लेकिन माधुर्य भाव में कोई नियम नहीं। (क्रमश:...)(शेष प्रवचन अगले भाग में)( प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजप्रवचन स्त्रोत -साधन-साध्य पत्रिका, मार्च 2010 अंकसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।) - - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत यह प्रवचन भक्तिमार्गीय उपासकों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने साधन और साध्य के संबंध में प्रवचन दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी तथा श्री राय रामानंद जी के मध्य हुई आधात्मिक चर्चा का उन्होंने बड़ी गहराई में तथा सारगर्भित विवेचन किया है। श्री कृपालु महाप्रभु जी अपने श्रीमुखारविन्द से कहते हैं.....(पिछले भाग से आगे, भाग - 2)...महाप्रभु जी ने कहा - हाँ-हाँ! ये तो उससे भी अच्छा है , लेकिन इसमें तो पाप नाश कहा है और जिसके पाप ही न हों कुछ, उसके लिये क्या है? तो कुछ सोचकर फिर बोले,ब्रम्हभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिम् लभते पराम।।(गीता 18-54)भक्त्या मामभिजानाति यावन्याश्चास्मि तत्त्वत:।ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदन्तरं।।(गीता 18-55)मेरी भक्ति, परा भक्ति से ब्रम्ह का ज्ञान होगा तब शान्ति मिलेगी। महाप्रभु जी ने कहा - हाँ-हाँ! ये तो ज्ञानयुक्त भक्ति है, मिक्श्चर है, और आगे बोलो। तो रामानंद राय ने कहा,ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीयवार्ताम।स्थाने स्थिता: श्रुतिगतां तनुवाङ्मनोभिर्ये प्रायशोजित जितोप्यसि तैस्त्रिलोक्याम।।(भागवत 10-14-3)सब कुछ छोड़कर जो केवल अनन्य भाव से निरंतर राधाकृष्ण की भक्ति करते हैं, बस उनको ही वो सबसे बड़ा साध्य मिलता है - भगवतप्रेम। महाप्रभु जी ने सिर हिलाया, हां अब बोले ठीक-ठीक। लेकिन अब जरा महल में घुसो। आ तो गये महल के पास तुम लेकिन अंदर घुसो। खाली महल के पास बाहर से महल को देखा तो ये तो अभी पूरा नहीं है रस। देखो, अंदर क्या है?शान्त भाव के महापुरुषों को तो बैकुण्ठ का ऐश्वर्य मिलता है, उसमें रस कम है, ऐश्वर्य बहुत है। तो उन्होंने कहा, दास्य भाव से राधाकृष्ण की भक्ति करे। मैं दास हूँ, वे स्वामी हैं। हाँ, अब आये रास्ते पर। लेकिन दास और स्वामी में दूरी तो रहती है? मान लो, दास की इच्छा हुई कि स्वामी का कान पकड़ूँ। अरे! नहीं-नहीं, नाराज हो जायेंगे, सर्विस से निकाल देंगे। इसके आगे बताओ। तो उन्होंने कहा, सख्य भाव से भक्ति करें। वो हमारे सखा हैं, अब तो कान पकड़ सकते हैं। अरे, घोड़ा बनाया ग्वालों ने ठाकुर जी को, कन्धे पर बैठे। सखाओं को इतना बड़ा अधिकार है। उन्होंने कहा, ठीक है, लेकिन फिर भी अभी और अंदर के कमरे में चलो। (क्रमश:...)(शेष प्रवचन अगले भाग में)( प्रवचनकर्ता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजप्रवचन स्त्रोत - साधन-साध्य पत्रिका, मार्च 2010 अंकसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली)
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- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत यह प्रवचन भक्तिमार्गीय उपासकों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने साधन और साध्य के संबंध में प्रवचन दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी तथा श्री राय रामानंद जी के मध्य हुई आधात्मिक चर्चा का उन्होंने बड़ी गहराई में तथा सारगर्भित विवेचन किया है। श्री कृपालु महाप्रभु जी अपने श्रीमुखारविन्द से कहते हैं.....चैतन्य-रामानंद संवाद (भाग - 1)...साधन-साध्य के सम्बन्ध में चैतन्य महाप्रभु एवं राय रामानंद का वार्तालाप अत्यधिक महत्वपूर्ण है। चैतन्य महाप्रभु ने राय रामानंद से पूछा,साध्य को पाने का साधन क्या है? उन्होंने उत्तर दिया -स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विदन्ति तच्छ्रीणु।।(गीता 18-45)अपने अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से साध्य मिल जाता है। वर्णाश्रम धर्म यानि ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये चार वर्ण; ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास ये चार आश्रम; इनके लिये वेद में जो लिखा है ऐसा करो, ऐसा न करो, ऐसा न करो। उसका जो पालन करें सेंट परसेंट वो वर्णाश्रम धर्म का धर्मी है, कर्मी है। महाप्रभु जी ने कहा - अरे! तुम भी क्या बोले रामानंद? इससे तो स्वर्ग मिलता है बस, वो भी चार दिन का, वहाँ तो माया है। रामानंद ने कहा, अच्छा-अच्छा। इसके आगे बोलो। उन्होंने कहा -यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।यत्तपस्यसि कौन्तेय ततकुरुष्व मदर्पणम्।।(गीता 9-27)स्वकर्मणा तमभ्यच-र्य सिद्धिं विदन्ति मानव:। (गीता 18-46)जो कुछ कर्म करो भगवान को अर्पित करो। महाप्रभु जी ने कहा - हाँ, उससे तो ये बहुत अच्छा तुमने बताया लेकिन ये साध्य नहीं है, इससे तो अंत:करण शुद्ध होता है। इसके आगे कुछ बताओ। तो उन्होंने कहा -सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।(गीता 18-66)सब धर्मों को छोड़ दो और केवल मेरी भक्ति करो, मैं सब पापों से छुटकारा दिला दूँगा। महाप्रभु जी ने कहा - हाँ हाँ! ये तो उससे भी अच्छा है लेकिन इसमें तो पाप नाश कहा है और जिसके पाप ही न हों कुछ, उसके लिये क्या है? तो कुछ सोचकर फिर बोले....... (क्रमश:)(शेष प्रवचन अगले भाग में)प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजप्रवचन स्त्रोत- साधन-साध्य पत्रिका, मार्च 2010 अंकसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली। -
वास्तु शास्त्रम के अनुसार शौचालय मे बैठते समय कुछ नियम बनाये गये हैं -
-अष्टांग योग में महर्षि पतंजलि में शौच को नियम का एक महत्वपूर्ण अंग माना है!
-दिन में शौचालय घर के वायव्य कोण की ओर मैदान में जाएँ और उत्तर की ओर मुंह करके बैठे
-रात में शौचालय घर के दक्षिण दिशा की और की मैदान में जाएँ ओर दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके बैठें
-इसीलिए घर के वायव्य कोण और दक्षिण में शौचालय बनाने का विधान है
-शौचालय की लेट्रिन शीट उत्तर या दक्षिण की और मुंह करके बनाना चाहिए !
- सीट को सफेद रंग का ही रखना अनुकूलतम माना गया है!
- शौचालय में भारतीय पद्धति ही सबसे कारगर मांनी गई है भारतीय पद्धति से ही पेट अधिक साफ होता है!
-उपयोग करने के बाद शौचालय को साफ रखना बहुत आवश्यक है!
-गाँव के लोगों को कभी भी लेट्रिन ठीक से न होने की शिकायत करते कभी भी नही सुना क्योंकि वो रोज सुबह एक /दो किलोमीटर पैदल चलकर खेतों में जाते हैं जिससे पेट पूरा साफ हो जाता है ,शौचालय में बैठने का सबसे अच्छा तरीका उखडू बैठना है इसलिए जो लोग इंडियन शीट में बैठ सकते हैं वो इंडियन शीट में बैठने की अपनी आदत को बनाये रखें !
-स्वयं का सत्कर्म, महान पुरुषार्थ, बड़ों का आशीर्वाद, मित्रों का स्नेह महान भाग्य नियामक होता है
- पंडित विनीत शर्मा
ज्योतिषी वास्तु-योग सलाहकार - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने ब्रजरस से ओतप्रोत साहित्यों में श्रीराधाकृष्ण तथा प्रेमतत्व का बड़ा गूढ़ और विशद वर्णन किया है। ब्रजधाम में श्रीकृष्ण का अवतरण तथा उनकी लीलायें अनोखी हैं। ज्ञानीजन भगवान को ब्रम्ह स्वरुप में आराधना करते हैं, जो कि निराकार और निर्गुण है। पर प्रेम के वशीभूत होकर वे अपने सगुण, साकार रुप में भी प्रकट होते हैं और लीलादि के द्वारा प्रेमदान आदि करते हैं। यह ज्ञानियों के लिये तथा ब्रम्हा के लिये भी आश्चर्य था। इसी भाव पर यह नीचे का भाव है, जो कि श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित युगल-रस ग्रंथ के एक कीर्तन का भावानुवाद है -..हे ज्ञानियों! तनिक ब्रज में आकर परम आश्चर्य को देखो। हे ज्ञानियों! जिसे तुम अजन्मा कहते हो, वह तो नंद का पुत्र बना है। जिसे तुम अतनु ब्रम्ह कहते हो, उसने ब्रज में नरवपु धारण किया है। हे ज्ञानियों! जिस ब्रम्ह को तुम निर्लेप कहते हो, वह तो ब्रज में गोपियों का दास बना है.जिसे तुम आनंद ब्रम्ह कहते हो, वह तो ब्रज में यशोदा की गोद में जाने को रो रहा है। हे ज्ञानियों! जिसे तुम सर्वज्ञ ब्रम्ह कहते हो, वह उज्जैन जाकर गुरु के निकट क, ख, ग पढऩा सीख रहा है। जिस ब्रम्ह को तुम निरंजन कहते हो, वह गोपियों के नेत्रों का अंजन बना है।जिसे ज्ञानीजन पूर्णकाम कहते हैं, वह ब्रज में गोपियों के प्रति कामी बना है. ज्ञानी जिसे अदृष्ट कहते हैं, उसे तो ब्रज में सभी देख रहे हैं। जिसे ज्ञानी व्यापक कहते हैं, उसे यशोदा ने ऊखल से बाँध दिया। जिसे सब ज्ञानी जगत को चलाने वाला कहते हैं, वह ब्रज में चलना सीख रहा है।श्री कृपालु जी कहते हैं - ये सब ज्ञानी अधूरे ज्ञानी हैं जिन्हें ब्रम्ह के पूर्ण रुप का ज्ञान नहीं है। ब्रम्ह तो विरोधी गुणों से परिपूर्ण है अत: वह तो अजायमानो बहुधा विजायते है. वह निराकार होते हुये भी साकार है। वह आत्माराम होकर भी प्रेमियों के साथ विहार करता है।ब्रम्ह आनंद रुप होकर भी सीता के वियोग में दु:खी होता है। वह सर्वज्ञ होकर भी पशु-पक्षियों से अपनी प्राण-प्रिया जानकी के विषय में जानना चाहता है-हे खग मृग, हे मधुकर श्रेनी, तुम देखि सीता मृगनयनी।।ज्ञानियों के पूर्णकाम ब्रम्ह ने रास विलास करने की इच्छा से ब्रज में वंशी बजाकर ब्रजांगनाओं को अपने निकट बुलाया -भगवानपि ता रात्रि... .. (भागवत)ज्ञानियों का अदृष्ट ब्रम्ह अपने भक्तों के नेत्रों का विषय बन जाता है। ज्ञानियों का व्यापक ब्रम्ह एकदेशीय बनकर प्रेम के कारण ऊखल बंधन की लीला का आयोजन करता है। प्रेम के कारण ही जगत-चालक को यशोदा ऊँगली पकड़कर चलना सिखाती है। वस्तुत: ज्ञान का फल प्रेम है। प्रेम के अभाव में ज्ञान अपूर्ण है।स्त्रोत: युगल-रस ग्रंथ, कीर्तन संख्या 9 का भावानुवादरचयिता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।
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- दरवाजे: वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में दरवाजों की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे :- 4. 6 ,8 , शास्त्र के अनुसार दरवाजे10 इत्यादि !!
- खिड़की : वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में खिड़की की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे :- 4,6 ,8 ,10 इत्यादि !!
- वेंटिलेटर: वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में वेंटिलेटर की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे :- 4,6 ,8 ,10 इत्यादि !!
- कालम : वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में कालम की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे :- 4 ,6 ,8 ,10 इत्यादि !!
- स्वयं का सत्कर्म पुरुषार्थ बड़ों का आशीर्वाद मित्रों का सहयोग प्रबल भाग्य नियामक होता है
डॉक्टर विनीत शर्मा
चौबे कॉलोनी रायपुर 8435527800
वास्तु-ज्योतिष योग सलाहकार - हिन्दू धर्म के अनुसार सृष्टि के पालनहार कहलाने वाले भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्रीकृष्ण की सोलह हज़ार एक सौ आठ पत्नियां थीं।दरअसल इसके पीछे पुराणों में एक कथा मौजूद है। जिसके अनुसार एक बार नरकासुर ने हज़ारों राजकुमारियों को अपनी कैद में जबर्दस्ती बंदी बना लिया था। इन राजकुमारियों ने ईश्वर से अपने मुक्त होने के लिए विनती की और जब श्रीकृष्णु ने इन्हें मुक्त कराया तो सभी ने उन्हें अपना पति मान लिया। यही कारण है कि परिस्थिति के आधार पर श्रीकृष्ण को इन सभी राजकुमारियों को अपनी पत्नी स्वीकारना पड़ा। लेकिन इन पत्नियों के अलावा उनकी खास नौ पत्नियां थीं, जिन्हें पटरानी का दर्जा दिया गया था। पुराणों में इन सभी नौ पटरानियों से संबंधित कथाएं भी मौजूद हैं। श्रीकृष्ण इनसे कैसे मिले, कैसे इनका विवाह हुआ, विवाह का कारण क्या था, आदि सभी आशय पुराणों में उल्लिखित हैं। लेकिन कारण जो भी हो, यह नौ पटरानियां श्रीकृष्ण को सबसे अधिक प्रिय थीं। वैसे तो तमाम प्रेम कहानियों में से सबसे पहले श्रीकृष्ण एवं राधाजी का नाम लिया जाता है, लेकिन श्रीकृष्ण की प्रमुख पटरानी के रूप में सबसे पहले रुक्मिणी का नाम लिया जाता है। रुक्मिणी को लक्ष्मी का अवतार माना जाता है और श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के कहने पर ही उनका अपहरण किया और फिर उनसे विवाह किया था। भगवान श्रीकृष्णा की दूसरी पटरानी देवी कालिंएदी मानी जाती हैं, जो कि सूर्य देव की पुत्री हैं। पौराणिक तथ्यों के अनुसार देवी कालिंदी ने श्रीकृष्ण को एक वरदान हेतु अपने पति के रूप में पाया था। कहते हैं कि उन्होंने कठोर तपस्या की थी जिसके पश्चात उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने सूर्य से कालिंदी का हाथ मांगा था। भगवान श्रीकृष्ण की तीसरी पटरानी मिूत्रवृंदा हैं जो कि उज्जैन की राजकुमारी थीं। कहते हैं कि वे अत्यंत खूबसूरत थीं जिन्हें श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में भाग लेकर अपनी पत्नी बनाया था।भगवान श्री कृष्ण की चौथी पटरानी का नाम सत्या है, इन्हें भी श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में जीतकर अपनी पत्नी बनाया था। एक पौराणिक कथा के अनुसार सत्या काशी के राजा नग्नजिपत् की पुत्री थीं,ऋक्षराज जाम्बवंत का नाम पुराणों में श्रीकृष्ण के संदर्भ से काफी बार सुना गया है, पटरानी जामवती उन्हीं की पुत्री थीं।पटरानी रोहिणी को श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में ही जीता था और अपनी पत्नी बनाने के बाद उन्हें छठी पटरानी का दजऱ्ा प्रदान किया। पौराणिक कथा के अनुसार देवी रोहिणी गय देश के राजा ऋतुसुकृत की पुत्री थीं। रोहिणी के अलावा कुछ पौराणिक दस्तावेजों में इनका नाम कैकेयी और भद्रा भी पाया गया है। सत्यभामा राजा सत्राजित की पुत्री एवं श्रीकृष्ण की सातवीं पटरानी कहलाती हैं। पौराणिक तथ्यों के अनुसार जब श्रीकृष्ण ने सत्रजिकत द्वारा लगाए गए प्रसेन की हत्या और स्यमंतक मणि को चुराने का आरोप गलत साबित कर दिया और स्यमंतक मणिप लौटा दी तब सत्राजित ने सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया। श्रीकृष्ण की आठवीं पटरानी हैं लक्ष्मणा, जिन्होंने स्वयं अपने स्वयंवर के दौरान भगवान श्रीकृष्णि के गले में वरमाला पहनाकर उन्हें अपना पति, चुना था।भगवान श्रीकृष्णा की आखिरी और नौवीं पटरानी का नाम शैव्या है, जो कि राजा शैव्य की पुत्री थीं। इन्हें भी श्रीकृष्ण ने स्वयंबर के जरिए ही अपनी पत्नी बनाया था और विवाह के बाद इन्हें नौवीं पटरानी होने का दर्जा प्राप्त हुआ। कुछ उल्लेखों में इनका अन्य नाम गांधारी भी पाया गया है।------
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा लिखित भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य-उत्सव का आनंद और उल्लासआज श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी है। आप सभी श्रद्धालु पाठक समुदाय को भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य-उत्सव की अनंत-अनंत शुभकामनाएं। आइये जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित इस पद के भाव के माध्यम से हम सभी ब्रजधाम के गोकुल ग्राम में नंद-यशोदा के महल चलें और बधाई और उल्लास का आनंद देखें और स्वयं भी भाव-मन से इस नंद-महामहोत्सव में सम्मिलित होकर आनंद-रस में भींग जाएं..
नंद-महर-घर बजत बधाई।
जायो पूत आजु नँदरानी, नाचत गावत लोग लुगाई।
दूध दही माखन की काँदौ, सब मिलि भादौं मास मचाई।
बाजत झाँझ मृदंग उपंगहिं, वीना वेनु शंख, शहनाई।
छिरकत चोवा चंदन थिरकत, करि जयकार कुसुम बरसाई।
शिव समाधि बिसराइ भजे ब्रज, देखन के मिस कुँवर कन्हाई।
याचक भये अयाचक सिगरे, हम कृपालु धनि ब्रजरज पाई।।
भावार्थ - गोकुल में नन्दराय बाबा के घर में श्रीकृष्ण के अवतार लेने के उपलक्ष्य में बधाई बज रही है। यद्यपि श्रीकृष्ण का अवतार मथुरा में लीला-रुप से देवकी के गर्भ से हुआ था एवं अर्धरात्रि के ही समय वसुदेव श्रीकृष्ण को उनकी योगमाया के सहारे यशोदा के पास सुला आये, एवं उसी समय यशोदा के गर्भ से उत्पन्न योगमाया को अपने साथ ले आये थे, किन्तु प्रकट रुप से यह रहस्य यशोदा भी नहीं जानती थी, केवल वसुदेव, देवकी ही जानते थे। अतएव समस्त गोकुल ग्रामवासियों को यही ज्ञान रहा कि आज रात को यशोदा के ही गर्भ से श्रीकृष्ण जन्म हुआ है। समस्त गोकुल के नर-नारी नाचते-गाते हुये आनंद विभोर होकर कह रहे हैं कि आज नन्दरानी के लाल हुआ। भादों के महीने में कृष्ण-पक्ष की नवमी तिथि पर समस्त नर-नारियों ने दूध, दही, मक्खन आदि को छिड़कते हुये सारे गोकुल में कीचड़-ही-कीचड़ कर दिया। झांझ, मृदंग, उपंग, वीणा, मुरली, शंख, शहनाई आदि विविध प्रकार के बाजे बजने लगे। चोवा, चंदन आदि सुगंधित द्रव्यों को एक दूसरे पर छिड़कते हुये नाच-नाचकर पुष्प-वर्षा करते हुये कन्हैया की जयकार करने लगे। शंकर जी भी अपनी निर्विकल्प समाधि भुलाते हुए अपने इष्टदेव, प्रेमावतार यशोदा के लाल कुंवर कन्हैया के दर्शन के लिये शिवलोक से भागे-भागे गोकुल चले आये। जिसने जो कुछ भी मांगा उस याचक को वही दिया गया। श्री कृपालु जी कहते हैं कि जिनको बड़ी-बड़ी चीजें मिली वह अपनी जानें, हम तो ब्रज की धूल ही पाकर कृतार्थ हो गये।(पद स्त्रोत -प्रेम रस मदिरा ग्रंथ, श्रीकृष्ण बाल लीला माधुरी, पद संख्या- रचयिता -भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)(सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली) - उत्तम संतान आप चाहते हैं तो वास्तु शास्त्र के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के बाल गोपाल रूप की फोटो अपने पूजा स्थल में लगाएं।-ईशान कोण में पूजा स्थल में भगवान श्री कृष्ण की फोटो विधिवत लगाकर श्रद्धापूर्व पूजा करें।- उत्तम संतान की प्राप्ति हेतु द्वादश अक्षर मंत्र ओम नमो भगवते वासुदेवाय का आस्था श्रद्धा और समर्पण से जाप करें।-किन्हीं कारणों से संतान नहीं हो पा रही हो तो भगवान श्री कृष्ण को याद करते हुए अत्यंत श्रद्धा के साथ संतान गोपाल मंत्र का जाप करें ।- वहीं जीवन में अच्छे मित्र बनाने तो आपको कृष्ण और सुदामा की फोटो अपने ड्राइंग रूम में लगानी चाहिए।-अगर आपके बच्चों के साथ आपसी सम्बन्धों में कोई समस्या है तो मां यशोदा और भगवान श्री कृष्ण की फोटो शयन कक्ष में जरुर लगायें ।- भगवान श्री कृष्ण आजीवन श्री गायत्री मंत्र के उपासक रहे। पूर्व दिशा की दीवारों पर शुभ गायत्री मंत्र को लिखवाने से योगकारक होगा!-वास्तु संबंधित बहुत बड़ा दोष हो तो गौ माता की नियमित आस्था पूर्वक सेवा करें। श्री कृष्ण जी को गाय से विशेष लगाव रहा है। बाल्यावस्था से श्री कृष्ण गोपालो और गायों के ही बीच रहे हैं। ।-स्वयं के सत्कर्म परमार्थ महान पुरुषार्थ बड़ों का आशीष प्रबल भाग्य नियामक होते हैं।शेष श्री ईश्वर कृपा वास्तु कृपाडॉ. विनीत कुमार शर्मा, वास्तु , ज्योतिषी सलाहकार
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने श्री राधाकृष्ण भक्ति परक अनेकानेक ब्रजरस-साहित्य की रचना की है। इन कृतियों में उन्होंने श्रीराधाकृष्ण की परम निष्काम भक्ति को ही स्थान दिया है तथा प्रमुखत: श्रीयुगल लीलाओं के साथ श्रीकृष्ण के प्रति वात्सल्य एवं सख्य भावयुक्त लीला-पदों एवं संकीर्तनो की भी रचना की है, जो कि जीवों के हृदय में सहज में ही प्रेम तथा उनके प्रति अपनत्व की भावना का सृजन करते हैं तथा उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि करते जाते हैं।आइये श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी से पूर्व उन्हीं के द्वारा रचित ग्रंथ; युगल रस में वर्णित एक संकीर्तन के माध्यम से श्रीकृष्ण का रूपध्यानपूर्वक चिंतन करें। यहां उस संकीर्तन का केवल भावार्थ वर्णन है-...भक्त कहता है, श्रीकृष्ण के समान तो केवल श्रीकृष्ण ही हैं। माता यशोदा ने कन्हैया को जन्म दिया वस्तुत: वह कृष्ण अनोखा ही था।उस यशोदा-नन्दन का दिव्य वपु अलसी पुष्प के समान श्याम वर्ण था। वह कन्हैया अपने अलौकिक रुप से कामदेव के मन को भी हरण करता था। कन्हैया के प्रत्येक रोम से ब्रज-रस की वर्षा होती थी, रसिक-जन उस मधुर रस का पान करते थे।कन्हैया के शीश पर अनोखा मोर-मुकुट सुशोभित था। यशोदा के अनुपम शिशु की घुंघराली लट मुख-चन्द्र को घेरे रहती थीं। साक्षात रस से भी अधिक रसपूर्ण नेत्र चंचलता से भी चंचल थे। रत्नों से जड़े हुये कुंडल कानों में शोभा पाते थे। नासिका बेसर से छवि पा रही थी। उस अनोखे शिशु की मन्द-मन्द गति चपल चितवनि, एवं मुस्कान आश्चर्य से परिपूर्ण थीं। युगल स्कन्ध दुपट्टे से आच्छादित थे।लकुटी कर में शोभा पा रही थी। कण्ठ कौस्तुभ मणि से देदीप्यमान था। हाथों में कंकणों की दमक थी। सूक्ष्म कटि प्रान्त किंकिणी की जगमगाहट से परिपूर्ण था। कन्हैया के चरण-प्रान्त नूपुर की छूम छननन ध्वनि से झंकृत थे। ग्रीवा कमर एवं चरण की तिरछी भंगिमा रसिकों के मन को मोहती थी। अरुण अधरों पर मुरली विराजमान थी। श्री कृपालु जी कहते हैं कि ऐसे रस सागर कृष्ण को सखियां प्रेम-वश काला कहती हैं।(रचयिता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)(स्त्रोत-जगद्गुरु श्री कृपालु विरचित युगल रस संकीर्तन पुस्तक से, कीर्तन संख्या 42सर्वाधिकार सुरक्षित -जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।)
- हरकिमर हीरे दोहरे टर्माइटेड क्वाट्ज क्रिस्टलों को कहते हैं, जो देखने में एकदम असली हीरे जैसे लगते हैं। इनकी खोज सर्वप्रथम न्यूयॉर्क के हरकिमर काउण्टी स्थित लिटिल प्रपात एवं मोहॉक नदी घाटी से प्राप्त डोलोमाइट से हुई थी। 1700 के दशक के अंत में मोहॉक घाटी में इनकी बड़ी मात्रा प्राप्त हुई और तब ये बहुत प्रचलित हुए थे। भूगर्भशास्त्रियों ने हरकिमर काउंटी में इन्हें खुले में ही पाया और वहीं खोज व खनन आरंभ किया। यही से सबसे खास क्लीपर क्वाट्र्ज स्टोन भी सबसे पहले मिला था, वहीं से इनको अपना वर्तमान नाम भी मिला। ये खूबसूरत नगीने हूबहू हीरों की तरह लगते हैं, लेकिन असल में हैं ये क्वाट्र्ज । इसीलिए ड्रीम स्टोन भी कहलाते हैं।कहीं-कहीं स्मोकी हरकिमर का प्रयोग इमारतों की बाहरी शोभा बढ़ाने के लिए भी किया जाता है। मात्र सजावट के लिए नहीं, बल्कि विद्युत चुम्बकत्व या भौगोलिक प्रदूषण की मार से बचाने के लिए भी ये प्रयोग किया जाता है। फेंग्शुई में भी हरकिमर का बखान आता है। इसके अनुसार हरकिमर को आसपास रखने से ऊर्जा की आवश्यकता वाली जगहों पर लगाने की समझ आती है। अपने शयन-कक्ष, अध्ययन कक्ष या कार्यालय के उत्तर पूर्व दिशा में हरकिमर रखने से ज्ञान और समझ ग्रहण करने हेतु ऊर्जा ग्रहण करने की गति तेज होती जाती है।लोगों की मान्यता अनुसार इसके द्वारा सोच-विचार, ऊर्जा और संतुष्टि की गहरी भावना बढऩे और फिर समाने लगती है। हरकिमर बेहतरीन हीलिंग स्टोन के रूप में भी प्रसिद्ध हुआ है। यह दैनिक जीवन की समस्याओं, दबाव यानी स्ट्रेस और तनाव को नियंत्रण में रखते हुए इनसे जुड़े रोगों से प्रतिरक्षा करता है। शारीरिक हानि होने से पूर्व ही लक्षणों को भांप कर, हरकिमर पहनने या संग-अंग रखने वाला सचेत होने लगता है। किसी भी राशि वालों को इसे पहनने की मनाही नहीं है। यह वृश्चिक, कर्क और सिंह राशियों का जन्म-रत्न है।
- किसी भी मकान का निर्माण वास्तु को ध्यान में रखकर किए जाने से घर स्वामी पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।- अनुकूल शास्त्र के अनुसार मकान में सीढ़ी की संख्या को विषम रखनी चाहिए जैसे 17 ,19 ,21।- वास्तु शास्त्र के अनुसार ईशान कोण में पूजा का स्थान , पुस्तकालय ,लाइब्रेरी, अध्ययन कक्ष ,योग का क्षेत्र और ध्यान का रूम होना शुभ माना जाता है।-आदर्श वास्तु में घर का मास्टर बैडरूम साउथ वेस्ट में होना योग कारक माना गया है।- बाथरूम बनाते समय पहली प्राथमिकता वायव्य कोण को दें। उसके बाद द्वितीय पश्चिम और तृतीय प्राथमिकता दक्षिण भाग को दें।- वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में दरवाजों की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे कि- 6 ,8 ,10 इत्यादि ।- वास्तु दोष होने पर गौ माता को पूरे प्लॉट में भ्रमण करवाएं और यथासंभव गौ माता की सेवा करें।- छत के निर्माण के समय लगभग 27 दिनों तक छत में पानी भरे रहना चाहिए। यह मंगल का अंक है और यह शुभ होता है।- वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में खिड़की की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे - 6 ,8 ,10 इत्यादि ।शेष ईश कृपा वास्तु देव कृपासर्वे भवंतु सुखिनडॉ. विनीत कुमार शर्मा, वास्तु और ज्योतिषी सलाहकार
- 11 अगस्त 2012 को विश्व की महानतम विभूति जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा श्रीकृष्ण तत्व पर अद्वितीय एवं ऐतिहासिक प्रवचन दिया गया। श्री कृपालु महाप्रभु जी ने वृन्दावन के संत समुदाय के समकक्ष विराजमान होकर प्रवचन दिया। श्री महाराज जी अर्थात श्री कृपालु जी ने प्रवचन का आरम्भ करते हुये कहा -आज से 5238 वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव हुआ था और वे 125 वर्ष तक हमारे इस मृत्युलोक में रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण के स्वधामगमन करने पर कलियुग आ गया। अभी तो कलियुग को केवल 5113 वर्ष ही बीते हैं और चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का कलियुग होता है, तो अभी ये तो प्रारम्भ है।संसार में लोग श्रीकृष्ण प्राकट्य दिवस को जन्माष्टमी कहते हैं, परन्तु भगवान के लिये जन्म शब्द का प्रयोग क्यों किया जाता है? श्री कृपालु महाप्रभु जी ने बताया कि, जन्म शब्द का अर्थ ही होता है - आविर्भाव। जनि प्रादुर्भावे धातु से जन्म शब्द बनता है, उसका अर्थ ही है अवतार, अर्थात किसी बड़े ऊेचे स्थान से नीचे उतरना अर्थात गोलोक से माया लोक में भगवान उतरे, इसी को अवतार कहते हैं, उसी को आविर्भाव, उसी को जन्म कहते हैं। जीवात्मा का भी मां के गर्भ में आविर्भाव होता है। जीवात्मा दिव्य है, वो मां के गर्भ में बाहर से आता है और एक दिन शरीर छोड़कर चला जाता है।सच्चिदानंद तत्व को ब्रम्ह कहते हैं, उसी ब्रम्ह शब्द का पर्यायवाची शब्द है - श्रीकृष्ण। कृष्ण अंतिम परात्पर तत्व है, जिसके भय से यमराज काँपता है और कृष्ण तत्व को जान लेने पर सब कुछ स्वयमेव ज्ञात हो जाता है। एक ब्रम्ह श्रीकृष्ण के अनंत रुप हैं। भागवत में भगवान श्रीकृष्ण के तीन स्वरुप बताये गये हैं - जिसमें सब शक्तियों का प्राकट्य हो वो भगवान है, जिसमें कुछ शक्तियों का प्राकट्य न हो वो परमात्मा का स्वरुप है। परमात्मा का स्वरुप तीन प्रकार का होता है - कार्णाणवशायी, गर्भोदशायी और क्षीरोदशायी। श्रीकृष्ण का तीसरा स्वरुप ब्रम्ह का है, उसका एक ही स्वरुप होता है, उसमें केवल ब्रम्हत्व, आत्मरक्षा की शक्ति और आनंदत्व, बस तीन गुणों का ही प्राकट्य होता है, अन्य शक्तियां प्रकट नहीं होती।वेद में ये भी कहा गया कि एक ही तत्व है ब्रम्ह और ये भी कहा गया कि तीन तत्व हैं - ब्रम्ह, जीव और माया; ये दोनों बातें वेद में कही गयी हैं। इन दोनों बातों का समन्वय यह है कि जीव और माया, ब्रम्ह की शक्तियां हैं, शक्ति शक्तिमान से पृथक नहीं होती, इसी से जीव और माया को भी ब्रम्ह कहा जाता है। भगवान जीव और माया पर शासन करते हैं। भगवान के अवतारों और उनकी लीलाओं की कोई संख्या नहीं है। भगवान के अनंत अवतार हो चुके हैं और अनंतकोटि ब्रम्हाण्ड में प्रतिक्षण भगवान के अवतार हो रहे हैं। भगवान के अवतार लेने का एक ही कारण है - करुणा।भगवान का स्वरुप ही करुणा का है। भगवान जो करते हैं, वो केवल जीव कल्याण के लिये करते हैं। दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य - इन चार भावों में से किसी भाव से भगवान से प्रेम करो। भगवान कहते हैं कि मुझे अपने से बड़ा मानो, मुझे अपने समान मानो या छोटा मानो। अपने से बड़ा मानने पर भगवान से भय लगेगा। भगवान की कृपा की बाट जोहना है, निष्काम एवं अनन्य भाव से रोकर उनको पुकारना है, तब वो अकारण करुण भगवान कृपा करके अंत:करण शुद्ध करेंगे, तब वो स्वरुप शक्ति देंगे, तब अपनी दिव्य इंद्रीय मन, बुद्धि देंगे, तब भगवान का दिव्य दर्शन आदि होगा, तब जीव कृतार्थ होगा, तब ये तत्वज्ञान होगा कि श्रीकृष्ण कौन हैं??(प्रेम मंदिर, वृन्दावन में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा श्रीकृष्ण तत्व पर दिये गये प्रवचन का सार)स्त्रोत - जगद्गुरु कृपालु परिषत का मासिक सूचना पत्र, सितंबर 2012.
- -रसोई घर का वास्तु सही न हो तो महिला पर पड़ता है विपरित असरघर की लक्ष्मी यानी महिलाओं का ज्यादातर समय रसोईघर में ही बीतता है। वास्तुशास्त के मुताबिक यदि रसोईघर का वास्तु सही न हो तो उसका विपरीत प्रभाव महिलाओं और घर पर भी पड़ता है। इसलिए रसोईघर में इन बातों का विशेष ध्यान रखें- रसोईघर की ऊंचाई 11 से 12 फीट होनी चाहिए और गर्म हवा निकलने के लिए वेंटीलेटर होना चाहिए।-रसोईघर यदि 8 फीट में किचन की ऊंचाई हो तो महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।- जिसर सोईघर में छत नीचे स्तर पर है वहां पर खाना बनाने वाली गृहस्वामिनी का स्वास्थ्य हमेशा खराब रहता है क्योंकि रसोईघर की गरम हवा को बाहर निकलने का अवसर नहीं मिलता।- कभी भी रसोईघर से लगा हुआ कोई जल स्त्रोत नहीं होना चाहिए। रसोईघरके बाजू में बोर, कुआं, बाथरूम न बनवाएं, सिर्फ वाशिंग स्पेस हो सकता है।-आग्नेय यानी साउथ ईस्ट कोण में रसोईघर होना शुभ माना जाता है-रसोईघर में सूर्य की किरणें सबसे ज्यादा पहुंचे, इस बात का भी खयाल रखा जाना चाहिए।- रसोईघर की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि इससे सकारात्मक व पॉजिटिव एनर्जी आती है।- रसोईघर में यथासंभव बर्तन साफ सुथरे ही रखें।- रसोईघर में ईशान कोण में नॉर्थ ईस्ट में माता अन्नपूर्णा की फोटो विधिपूर्वक रखी जा सकती है।-रसोईघर का सम्बंध घर की समृद्धि से है।- औषधि गुण वाले मसालों का प्रयोग करना चाहिए।-रसोईघर में भोजन बनाते समय खुशमिजाज और मधुर संगीत का प्रयोग कर सकते हैं। भोजन बनाते समय भक्ति मय़ और कर्ण प्रिय गायत्री मंत्र सुन सकते हैं। मंत्र के साथ अग्नि का आह्वान कर चूल्हा जलाना चाहिए ।- अगर आपका रसोईघर वास्तु शास्त्र के अनुसार आग्नेय कोण में है , लेकिन वहां साफ सफाई का नितांत अभाव है तो यह दोषपूर्ण माना जाता है। इसके विपरीत अगर रसोईघर वास्तु शास्त्र के नियमों के ठीक विपरीत है, लेकिन व्यवस्थित है और साफ सुथरा है तो ऐसा रसोईघर सकारात्मक फल देता है।-रसोईघर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा प्लेटफार्म हमेशा पूर्व में होना चाहिए और ईशान कोण में सिंक व अग्नि कोण में चूल्हा लगाना चाहिए।- रसोईघर की दीवारों के रंग का चयन गृह लक्ष्मी की कुंडली ज्योतिष विवेचन और कलर थेरेपी के आधार पर करना चाहिए।शेष ईश्वर कृपा वास्तु देव कृपा- पंडित विनीत कुमार शर्मा, ज्योतिष, मनीषी वास्तु सलाहकार
- आज हलषष्ठी है। हलषष्ठी भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता श्रीबलराम जी का प्राकट्य दिवस है। ब्रजधाम में श्रीकृष्ण-बलराम जी की जोड़ी अनुपम है। भक्तियोग रस के अवतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने पदों एवं संकीर्तनों में श्रीबलराम जी की स्तुति की है तथा दोनों भाईयों के प्रेम तथा माताओं की उनके प्रति वात्सल्य की झाँकी भी प्रस्तुत की है। आइये आज इस अवसर पर उन झाँकियों का हम सब मानसिक दर्शन करें :::श्री कृपालु महाप्रभु जी गाते हैं..चलो अलि सब मिलि देयँ बधाई।ब्रज अज जायो रोहिणी माई ।।अर्थात चलो चलो सखियों, रोहिणी माता के महल चलो। आज तो माता रोहिणी ने एक अनुपम सुन्दर बालक को जन्म दिया है। चलो, चलो, आज उनके द्वार पर बधाई गाने चलें।अन्यत्र श्री कृपालु महाप्रभु जी अपने संकीर्तन में गाते हैं :आज तो प्रकट भयो ब्रज बड़ो ठाकुर।हलधर बलदाऊ नाम रण बाँकुर।।आँखि दिखावत जब जब हलधर।अति डरपत गिरिधर जेहि डर डर।।दोउ भगवान कह्यौ पाराशर।आयेउ तदपि प्रथम ब्रज हलधर।।अर्थात आज तो ब्रजधाम में बड़े ठाकुर का जन्म हुआ है। ये बड़े ठाकुर समस्त ब्रजधाम में हलधर और बलदाऊ अर्थात बलराम के नाम से भी पुकारे जाते हैं। माता रोहिणी के पुत्र तथा छोटे ठाकुर अर्थात श्रीकृष्ण के अग्रज श्री बलराम जी अत्यंत बलशाली हैं, पराक्रम में उनके मुकाबले का कोई भी नहीं है। युद्ध में न उनका कोई सानी ही है। वे अपने हाथों में हल धारण करते हैं, इसी से हलधर भी कहे जाते हैं। कभी-कभी जब क्रोध में वे अपनी आँखें तरेरते हैं तो अन्यों की क्या कहें, स्वयं उनके अनुज श्रीकृष्ण भी भयभीत हो जाते हैं। वे श्रीकृष्ण जिनसे भय भी भयभीत रहता है। महर्षि पाराशर आदि महात्मा जन स्तुति करते हैं कि यद्यपि श्रीकृष्ण तथा बलराम स्वयं भगवान ही हैं, फिर भी ब्रजधाम में लीला दृष्टि से श्रीबलराम जी श्रीकृष्ण से पहले अवतरित हुये।श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के प्रति माता यशोदा जी के वात्सल्य प्रेम का बड़ा ही सुन्दर चित्रण रसिकवर श्री कृपालु जी ने इन शब्दों के माध्यम से किया है :दाऊ भैया संग कन्हैया जायँ बलि लखि मैया।आउ भैया लै कन्हैया दुहुँन लेउँ बलैया।नाचे बलुआ संग कनुवा तारि दें दोउ मैया।जय हो मैया जय कन्हैया जय हो दाऊ भैया।एक हलधर एक गिरिधर सोहें गोदिहिं मैया।दाऊ भैया संग कन्हैया चलत दै गरबहियाँ।अर्थात माता रोहिणी तथा माता यशोदा जी बलराम तथा कृष्ण की इस जोड़ी को देख-देखकर बलिहार जा रही हैं। वे अपनी बाँहें फैलाकर दोनों को अपने अंक में भर लेने के लिये पुकार लगा रही हैं। कभी दोनों मातायें हाथों से ताली की थाप देती हैं और छोटे से नन्हे बलराम-श्याम आँगन में ता-ता-थैया कर नाच रहे हैं। मातायें तथा अन्य सखियाँ इन दो सुन्दर बालकों की जय-जयकार कर रही हैं। ब्रजधाम प्रेम का धाम है और मातायें अपने वात्सल्य प्रेम में कृष्ण को 'कनुआ' तथा बलराम को 'बलुआ' कहकर बुलाती हैं। दोनों महान शूरवीर हैं, एक ने अपने हाथों में हल धारण किया और हलधर कहाये और दूसरे ने गिरिराज को धारण कर गिरिधर नाम धारण किया। इन दोनों भाईयों की जोड़ी तब और अनुपम हो जाती है, जब वे आपस में गलबहियाँ देकर अर्थात गले में हाथ डालकर चलते हैं।श्री बलराम जी के प्राकट्य दिवस हलषष्ठी एवं कमरछठ की आप सभी को बहुत बहुत शुभकामनायें...(संकीर्तन स्त्रोत : जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित संकीर्तन पुस्तक ब्रज रस माधुरी, भाग - 1)# सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।
- वास्तुशास्त्र के अनुसार कुल 10 दिशाएं होती है। हर दिशा का एक तत्व होता है । ये तत्व है अग्नि ,पानी ,वायु ,पृथ्वी और आकाश। हर व्यवसाय का अपना कोई ना कोई तत्व होता है । हर व्यवसाय का अपना लाभदायक कोना होता है । ठीक इसी तरह कोचिंग इंस्टीट्यूट का भी एक कोना होता है।-कोचिंग इंस्टीट्यूट का सम्बंध ईशान कोण से है।- ईशान कोण पवित्र और शुभ स्थान माना जाता है!-ईशान कोण का स्वामी ग्रह गुरु है !-राशि में धनु और मीन राशि का प्रभाव क्षेत्र पर पड़ता है!-ईशान कोण का तत्व जल होता है !-अत: कोचिंग इंस्टीट्यूट या स्कूल कॉलेज में काम करने वालों को अपने ईशान कोण पर विशेष ध्यान देना चाहिए !-इसी तरह कोचिंग चलाने वालों को ईशान कोण को विकसित करना चाहिए। ईशान कोण में सिद्ध किए हुए पिरामिड रखना चाहिए। ईशान कोण में गणेश भगवान विश्वकर्मा जी माता सरस्वती की फोटो रखनी चाहिए।-शुभ गुरु यंत्र भी स्थापित करना चाहिए ।-शुद्ध गंगाजल तुलसी का छोटा पौधा आदि इसे विकसित करते हैं।-कोचिंग का कार्य करने वालों को अध्यापन के पूर्व 8- 10 मिनट ध्यान का अभ्यास भी करना चाहिए।-ईशान कोण झुका हुआ हो तो परिणाम अच्छे मिलने की संभावना रहती है!-इस स्थान पर देव गुरु बृहस्पति की फोटो व वेदों उपनिषदों और रामायण जैसे महा ग्रंथों की फोटो लगाना अत्यंत शुभ होता है ।- शेष वास्तु कृपा, देव कृपा(पंडित विनीत शर्मा, वास्तु शास्त्री, ज्योतिषी, चौबे कॉलोनी रायपुर)---
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज भगवान के नाम संबंधी रहस्य को प्रकट करते हुये साधक समुदाय से उस रहस्य पर गहराई से विचार करते हुये, दृढ़ विश्वासपूर्वक भगवन्नाम लेने का आग्रह करते हैं। उनके श्रीमुखारविन्द से नि:सृत शब्द इस प्रकार हैं-...जिस दिन किसी जीव को यह दृढ़ विश्वास हो जायेगा कि भगवान और भगवान का नाम एक ही है, दोनों में एक सी शक्तियां हैं, एक से गुण हैं, उसी क्षण उसको भगवत्प्राप्ति हो जायेगी। स्वर्ण अक्षरों में लिख लो।भगवान की इतनी बड़ी कृपा है कि वे कहते हैं कि मैं सर्वव्यापक हूँ, तू इसको मानता नहीं है, मैं गोलोक में रहता हूँ, वहाँ तुम आ नहीं सकते, मैं तुम्हारे अंत:करण में तुम्हारे साथ बैठा हूँ, इसका तुम्हें ज्ञान नहीं है, इसलिये लो मैं अपने नाम में अपने आपको बैठा देता हूँ।नाम में मैं मूर्तिमान बैठा हुआ हूँ, जिस दिन यह बात तुम्हारे मन में बैठ जायेगी, उस दिन फिर एक नाम भी जब लोगे, जब एक बार राधे कहोगे तो कहा नहीं जायेगा, वाणी रुक जायेगी, मन डूब जायेगा, कंठ गदगद हो जायेगा। फिर भगवत्प्राप्ति में क्या देर होगी? गुरुकृपा में क्या देर होगी? केवल इसी वचन पर विश्वास कर लो। (तुम्हारा कृपालु)...(स्त्रोत- साधन साध्य पत्रिका, शरतपूर्णिमा अंक, अक्टूबर 2010)
- भारतवर्ष की महिमा तथा विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक एवं दिव्यवतार की स्मृति - भाग - 4(पिछले भाग से आगे)भारत को आध्यात्मिक गुरु के पद पर आसीन करने के लिये हमारे भारत में अनेक अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष हुये, जिन्होंने वेदों, शास्त्रों के ज्ञान को सुरक्षित रखा। किन्तु वर्तमान समय में अनेक पाखण्डयुक्त मत चल गये। जो वेद शास्त्र का नाम तक नहीं जानते, ऐसे दम्भी गुरु जनता को गुमराह कर रहे हैं। वैदिक मान्यतायें लुप्त हो गई हैं। शास्त्रों, वेदों के अर्थ का अनर्थ हो रहा है। अत: लोग अज्ञानान्धकार में डूबते जा रहे हैं।इस समय जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के द्वारा दिये गये असंख्य प्रवचन जो आज भी उनकी वाणी में उपलब्ध हैं, उनके द्वारा वेद, शास्त्र सम्मत साहित्य, ऋषि-मुनियों की परंपरा को पुनर्जीवन प्रदान कर रहा है। शास्त्रों, वेदों के गूढ़तम सिद्धान्तों को भी सही रुप में अत्यधिक सरल, सरस भाषा में प्रकट करके एवं उसे जनसाधारण तक पहुंचाकर उन्होंने विश्व का महान उपकार किया है। उन्होंने भारतीय वैदिक संस्कृति को सदा सदा के लिये गौरवान्वित कर दिया है एवं भारत जिन कारणों से विश्व गुरु के रुप में प्रतिष्ठित रहा है, उसके मूलाधार रुप में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने सनातन वैदिक धर्म की प्रतिष्ठापना की है।उनके द्वारा उद्भूत ज्ञान कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन के नाम से जाना जाता है, जो वेदों, शास्त्रों, पुराणों, गीता, भागवत, रामायण तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों का सार है। जो जाति-पाति, देश-काल की सीमा से परे है। सभी धर्मों के अनुयायियों के लिये मान्य है, सार्वभौमिक है। आज के युग के अनुरुप है। सर्वग्राह्य है। सनातन है। समन्वयात्मक सिद्धान्त है। सभी मतों, सभी ग्रंथों, सभी आचार्यों के परस्पर विरोधाभाषी सिद्धान्तों का समन्वय है। निखिलदर्शनों का समन्वय है। भौतिकवाद, आध्यात्मवाद का समन्वय है, जो आज के युग की माँग है। विश्व शांति और विश्व बन्धुत्व की भावनाओं को दृढ़ करते हुये शाश्वत शान्ति और सुख का सर्वसुगम सरल मार्ग है।ऐसे जगद्वन्द्य जगदोद्धारक कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन का सम्पूर्ण जगत चिरकाल तक आभारी रहेगा।(समाप्त)(स्रोत- साधन साध्य पत्रिका, गुरु पूर्णिमा विशेषांक, जुलाई 2018सर्वाधिकार सुरक्षित- जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविंद समिति, नई दिल्ली)
- भारतवर्ष की महिमा तथा विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक एवं दिव्यवतार की स्मृति - भाग - 3(पिछले भाग से आगे)उपनिषद वेद का उत्तर भाग है। इसका अर्थ कोई स्वयं पढ़कर नहीं समझ सकता। इसलिये वेद में ही कहा गया -तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि- श्रोत्रियं ब्रम्हणिष्ठं।(मुण्डकोपनिषद 1-2-12)वेद को जानने के लिये श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष जिसने भगवान को प्राप्त कर लिया है, उसके पास जाओ।अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विग्राह्यं समुद्रवत। (भाग. 11-21-36)अन्यथा समुद्र के समान डूब जाओगे। क्यों?वेदस्य चेश्वरात्मत्वात् तत्र मुह्यन्ति सूरय:। (भाग. 11-3-43)ये वेद भगवान का स्वरुप है। जैसे भगवान बुद्धि से परे हैं ऐसे ही वेद भी बुद्धि से परे है। सृष्टिकर्ता ब्रम्हा भी वेद का अर्थ नहीं समझ पाये तब भगवान ने अपनी योगमाया से उनके हृदय में बैठकर वेद का अर्थ प्रकट किया और उन्होंने अपने शिष्यों एवं बच्चों को बताया। वो एक के बाद एक, एक के बाद एक से सुनकर वेद का ज्ञान हुआ। इसलिये वेद का दूसरा नाम श्रुति है। वेद स्वयं पढ़कर पागल हो जाओगे। परोक्षवाद है यह वेद। शब्द कुछ, अर्थ कुछ। अत: किसी श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष के पास जाना होगा।(क्रमश:, शेष आलेख अगले भाग में)स्त्रोत -साधन साध्य पत्रिका, गुरु पूर्णिमा विशेषांक, जुलाई 2018सर्वाधिकार सुरक्षित - जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविंद समिति, नई दिल्ली।
- भारतवर्ष की महिमा तथा विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक एवं दिव्यवतार की स्मृति - भाग - 2(पिछले भाग से आगे..)हमारे सनातन धर्म में आध्यात्मिक उन्नति के लिये मुख्य रुप से दो प्रकार के ग्रंथ हैं - विनिर्गत ग्रंथ और स्मृत ग्रंथ। वेद को भगवान ने प्रकट किया है इसलिये विनिर्गत ग्रंथ कहलाता है और स्मृत ग्रंथ कहते हैं जो सिद्ध महापुरुषों के, श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महारसिकों के द्वारा स्मरण करके, अनुभवयुक्त होकर के ग्रंथ बनाये जाते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है श्रीमद्भागवत।नारद जी ने वेदव्यास से कहा, पहले भक्ति करो और भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करो उसके बाद भागवत लिखना। उन्होंने नारद जी की आज्ञा माना -अपश्यत्पुरुषं पूर्वं मायां च तदपाश्रयाम। (भाग. 1-7-4)उन्होंने भक्ति की और भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन किये, माया के भी दर्शन किये। तीनों तत्वों का दर्शन किया तब भागवत की रचना की। ये स्मृत ग्रंथ हंै। गीतादि को भी स्मृत ग्रंथ कहते हैं। वेदों के सिद्धान्तों को, उपनिषदों के सिद्धान्तों का स्मरण करके जो महापुरुष लोग ग्रंथ लिखते हैं वे स्मृत ग्रंथ हैं।मायाबद्ध व्यक्ति के द्वारा बनाये गये सिद्धान्त या ग्रंथ माननीय नहीं हैं। पाश्चात्य देशों में बिना अनुभव के मायिक बुद्धि से बहुत से सिद्धान्त बनाये गये हैं, जिन्हें हम कृत ग्रंथ कहते हैं। किंतु वेदसम्मत न होने के कारण माननीय नहीं हैं। अतएव विनिर्गत ग्रंथ वेद और वेदानुगत स्मृत ग्रंथ ही आध्यात्मिक उत्थान हेतु आध्यात्मिक ज्ञान का आधार हैं।(क्रमश:, शेष आलेख अगले भाग में)स्त्रोत- साधन साध्य पत्रिका, गुरु पूर्णिमा विशेषांक, जुलाई 2018सर्वाधिकार सुरक्षित- जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविंद समिति, नई दिल्ली।
- भारतवर्ष की महिमा तथा विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक एवं दिव्यवतार की स्मृति - भाग - 1हिन्दू धर्म ग्रंथ वेद, शास्त्र, पुराण, भागवत गीता, रामायण इत्यादि भारत की आध्यात्मिक परम निधि हैं। इस संपत्ति के कारण ही भारत विश्व गुरु के रुप में प्रतिष्ठित रहा है। कोई कितना ही वैभवशाली देश हो जाय, टैक्नालॉजी कितनी भी एडवांस हो जाय, लेकिन उनके पास कोई ऐसी तरकीब नहीं है जो अंदर की मशीन (अंत:करण) की गड़बड़ी को समाप्त कर दे।एक बार अमेरिका के राष्ट्रपति आइसन हॉवर का दौरा हुआ था भारत में, तो उन्होंने अपने भाषण में यह कहा कि भगवान ने हमको भौतिक शक्ति दी है (मटीरियल) लेकिन जब तक गॉड हमको सद्बुद्धि न दे उसका सदुपयोग नहीं हो सकता। इसलिये सद्बुद्धि के अभाव में, आध्यात्मवाद के अभाव में, अब उसका दुरुपयोग भी हो रहा है।जितना छल-कपट, दांव-पेंच, चार सौ बीसी, दुराचार, भ्रष्टाचार, पापाचार सब संसार में चल रहा है, ये सब आध्यात्मवाद की कमी के ही कारण है। ये जितने अपराध बढ़ते जा रहे हैं, उसका कारण आध्यात्मवाद का ह्रास ही है।हमारे भारत के पास वह खजाना है जो पूरे विश्व में किसी भी देश में नहीं है। विदेशी फिलॉसफरों ने भी उपनिषद की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। शोपेन हावर बहुत बड़े विदेशी फिलॉसफर ने उपनिषद की प्रशंसा करते हुये कहा कि यह अद्वितीय है, इसके मुकाबले का कोई भी ग्रन्थ विश्व में नहीं है। जर्मनी के फैडरिक मैक्समूलर ने भी उसका समर्थन किया और कहा कि उपनिषद का ज्ञान सूर्य के समान है और पाश्चात्य देशों के सब ज्ञान सूर्य की किरण के समान हैं।(क्रमश:, शेष आलेख अगले भाग में)( स्त्रोत- साधन साध्य पत्रिका, गुरु पूर्णिमा विशेषांक, जुलाई 2018सर्वाधिकार सुरक्षित -जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविंद समिति, नई दिल्ली।)